Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय, उद्देशक
प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्त च तद्गता चेष्टा।
प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापाद्यते हिंसा ॥ अर्थात् प्राणी, प्राणी का ज्ञान, घातक की चिन्ता, घातक की क्रिया और प्राणवियोग, इन पाँचों बातों से हिंसा लगती है। यहाँ जो हिंसा के निमित्त पाँच पद कहे गये हैं, उनके कुल मिलाकर ३२ भंग होते हैं। उनमें से हिंसक तो प्रथम भंग वाला पुरुष ही होता है, शेष ३१ भंग हिंसक नहीं होते।
पुट्ठो संवेयई परं अवियत्त खु सावज्जं—इस पंक्ति का आगय यह है कि उक्त क्रियावादी बौद्धों से यह पूछे जाने पर कि क्या परिज्ञोपचित आदि से कर्म का बन्धन सर्वथा ही नहीं होता ? उसके उत्तर में उनकी मान्यता-सम्बन्धी जो उत्तर आया, वह इस पंक्ति में उटंकित किया गया है। उत्तर यह है कि कर्मबन्धन तो होता है, परन्तु अत्यन्त अल्प। इसी बात को घोषित करने के लिए यहाँ 'पुट्ठो' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि केवल मनोव्यापाररूप परिज्ञोपचित्त कर्म से, केवल शरीर से अनजाने में होने पाले अविज्ञोपचित कर्म से, एवं मार्ग में चलते-फिरते समय होने वाले ई-पथिक कर्म से तथा स्वप्न में होने वाले स्वप्नान्तिक कर्म से-~यानी इन चारों प्रकार के कर्मों से पुरुष का जरा सा स्पर्श होता है (पुरुष इन चतुर्विधकर्म से स्पृष्ट होता है, बद्ध नहीं। अतः ऐसे कर्मों के विपाक (फल) का भी स्पर्शमात्र ही वेदन (अनुभव) करता है। मतलब यह है कि इन कर्मों का हलका-सा स्पर्श होने के कारण इनका फल भी जरा-सा ही भोगना पड़ता है, अधिक नहीं। जैसे--मुट्ठी भर कर रेत दीवार पर मारी जाय तो वह दीवार को जरा-सा छूकर ही बिखर जाती है, चिपकती नहीं; वैसे ही पूर्वोक्त कर्मचतुष्टय जरा-से छूकर ही झड़ जाते हैं, वे उक्त पुरुष से चिपकते नहीं हैं। इसीलिए बौद्धों का कहना है कि ये चतुर्विधकर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए हम इसे कर्मों के उपचय का अभाव कहते हैं, अत्यन्ताभाव नहीं। चूंकि वे चतुर्विधकर्म अव्यक्त हैं, अप्रकट हैं, इसीलिये उनका विपाक भी स्पष्टतः अनुभूति में नहीं आता । अतः परिज्ञोपचित आदि कर्म अव्यक्तरूप से सावध (सदोष) हैं ।
अब अगली दो गाथाओं में बौद्धमतानुसार पाप-कर्मबन्ध के कारण क्या-क्या हैं, यह बताते हैं---
मूल पाठ संतिमे तउआयाणा जेहि कीरइ पावगं । अभिकम्माय पेसाय मणसा अणुजाणिया ॥२६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org