Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
१७५
तो दूर रही, वे प्रवजित होकर जब इस प्रकार आरम्भ-समारम्भ के सावद्य अनुष्ठान में पड़ जाते हैं, तब अधर्म-पाप को ही बटोरते रहते हैं। यही बात इस गाथा की दूसरी पंक्ति में बताई गई है।
___अदुवा अहम्ममावज्जे-- इसके साथ ही शास्त्रकार ने उनके लिए एक और अनर्थ की सम्भावना प्रकट की है--- 'ण ते सव्वज्जुयं दए' इसके दो अर्थ होते हैं, एक अर्थ तो यह है कि इस प्रकार के असत्कर्म का अनुष्ठान करने वाले, अज्ञान को कल्याण का कारण बताने वाले आजीवक (गोशालक मतानुयायी) आदि श्रमण तथा ब्राह्मण व परिव्राजक आदि जो सद्धर्म या मोक्ष की प्राप्ति के लिए सबसे सरल संयम मार्ग है, उसे प्राप्त नहीं करते। अथवा दूसरा अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि अज्ञानान्ध तथा ज्ञान को मिथ्या बताने वाले वे अन्यदर्शनी अज्ञानवादी तथाकथित श्रमण-परिव्राजक आदि मोक्ष-प्राप्ति के लिये सबसे सरल मार्ग----जो सत्य है, उसे वे बोलते तक नहीं हैं। क्योंकि अज्ञान को एकमात्र श्रं यस्कर मान कर भी वे स्वयं ज्ञान बधारते हैं, ज्ञान के द्वारा ही दूसरे मत-मतान्तर का खण्डन करते हैं, यह सबसे बड़ा सत्य का अपलाप है।
अब अज्ञानवादियों द्वारा मान्य विविध कुतर्कों का निदर्शन कराते हुए शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ एवमेगे वियक्काहिं, नो अन्नं पज्जुवासिया । अप्पणो य वियक्काहि, अयमंहिं दुम्मई ॥२१॥
संस्कृत छाया एवमेके वितर्काभिर्नाऽन्यं पर्युपासते । आत्मनश्च वितर्काभिरयमृजुर्हि दुर्मतयः ।।२१।।
अन्वयार्थ (एवं) इस (अज्ञानवादियों के पूर्वोक्त) प्रकार के (वियकाहि) विविध वितर्को-कुतों के कारण (एगे) कई (दुम्मई) दुर्बुद्धि, विपरीत बुद्धि वाले, अज्ञानवादी व्यक्ति (अन्न) दूसरे ज्ञानवादी उदार विचारकों की (नो पज्जुवासिया) सेवापर्युपासना नहीं करते। (अप्पणो य) और अपने (वितक्काहि) वितर्कों के कारण (अयमंजू हिं) यह अज्ञानवाद ही यथार्थ है, ऐसा कहते हैं ।
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