Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
आदिवाला या नियत आकारवाला होता है, वह किसी कर्ता का किया हुआ होता है । जैसे--घट | जो पदार्थ किसी कर्ता का किया हुआ नहीं होता है, वह आदिवाला तथा नियत आकारवाला नहीं होता । जैसे -- आकाश । अतः जो पदार्थ आदिवाला तथा नियत आकारवाला होता है, वह अवश्य किसी न किसी कर्ता का किया होता है, यह व्याप्ति है । जहाँ व्यापक नहीं होता, वहाँ व्याप्य भी नहीं होता । किसी कर्ता से किया जाना व्यापकधर्म है और आदिवाला तथा नियत आकारवाला होना व्याप्यधर्म है । ऐसी संयोजना सर्वत्र कर लेनी चाहिए ।
आत्मा को शरीर से भिन्न स्वतन्त्र सिद्ध करने के लिए तथा तज्जीवतच्छरीरवाद का निराकरण करने हेतु दूसरा अनुमान प्रयोग इस प्रकार है इन्द्रियों का कोई न कोई अधिष्ठाता अवश्य है क्योंकि इन्द्रियाँ करण ( साधन ) हैं । इस जगत जो-जो करण होता है, उसका कोई न कोई अधिष्ठाता अवश्य होता है, जैसे- दण्ड आदि साधनों का अधिष्ठाता कुंभकार होता है । जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता, वह करण नहीं हो सकता, जैसे आकाश का कोई अधिष्ठाता नहीं होता, इसलिये वह करण नहीं है । इन्द्रियाँ करण हैं, इसलिये उनका अधिष्ठाता आत्मा है, वह आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है ।
इसी प्रकार तीसरा अनुमान प्रयोग लीजिए— इन्द्रियों और विषय समूह को ग्रहण करने वाला कोई न कोई अवश्य है, क्योंकि इनका ग्राह्य ग्राहक भाव देखा जाता है । जहाँ-जहाँ ग्राह्यग्राहक भाव होता है, वहाँ-वहाँ अवश्य ही कोई ग्रहण करने वाला पदार्थ होता है । जैसे—संडासी और लोहपिण्ड को ग्रहण करने वाला उनसे भिन्न लुहार होता है । अतः इन्द्रियरूप साधनों से जो विषयों को ग्रहण करता है, वह इन्द्रियों और विषयसमूह से भिन्न आत्मा है ।
चौथा अनुमान प्रयोग लीजिए - इस शरीर का भोक्ता कोई-न-कोई अवश्य है, क्योंकि यह शरीर ओदन आदि के समान भोग्य पदार्थ हैं । इन्द्रियाँ और मन तो इस शरीर के भोक्ता नहीं हो सकते, क्योंकि वे स्वयं शरीर के ही अंगभूत हैं । ओदन आदि भोग्य पदार्थों का कोई न कोई भोक्ता अवश्य होता है । इसी प्रकार इस शरीर का भी कोई भोक्ता है, वह है आत्मा ।
यदि कोई कहे कि पूर्वोक्त अनुमानों में आपने जो कुंभकार आदि का हेतु दिया था, वह हेतु विरुद्ध है, क्योंकि कुंभकार आदि कर्ता मूर्त, अनित्य और अवयवी है, जबकि आत्मा अमूर्त, नित्य और संहतरूप ही सिद्ध होता है, यह बात युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त भी आत्मा को कथंचित् अमूर्त, अनित्य और अवयवी
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