Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम : प्रथम अध्ययन-प्र
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व्यवस्था स्वर्गादि की या इहलोक की नहीं बैठेगी, परलोक की भी सारी व्यवस्था चौपट हो जाएगी।
___ जैनदर्शन के अनुसार प्रसज्य प्रतिरोध मान कर यहाँ प्रध्वंसाभाव मानना चाहिए। प्रध्वंसाभाव में कारकों का व्यापार होता ही है। क्योंकि वह वस्तुतः
१. पदार्थों की व्यवस्था के लिये चार प्रकार के अभावों को अवश्य मानना
चाहिए--(१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव, (३) अन्योन्याभाव (इतरेतराभाव) और (४) अत्यन्ताभाव । उत्पत्ति के पूर्व कार्य के अभाव को प्रागभाव कहते हैं अथवा वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में अभाव भी प्रागभाव कहलाता है। जैसे-दही की पूर्वपर्याय दूध थी, इसलिए दही की पर्याय में दूध की पर्याय का अभाव प्रागभाव कहलाया । जिसकी उत्पत्ति होने पर कार्य अवश्य नष्ट हो जाय, वह उसका प्रध्वंसाभाव है अथवा एक द्रव्य की वर्तमान पर्याय का उसी द्रव्य की आगामी (भविष्य की) पर्याय में अभाव प्रध्वंसाभाव कहलाता है। जैसे ---दही की भविष्य की पर्याय मट्ठा है, दही की पर्याय में मट्ठे की पर्याय का अभाव है इसलिये मट्ठे की पर्याय का अभाव प्रध्वंसाभाव हुआ। तीसरा अन्योन्याभाव (इतरेतराभाव) वह है जहाँ एक पदार्थ के एक स्वरूप की दूसरे स्वरूप से व्यावृत्ति हो, अथवा एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय में जो अभाव हो, उसे अन्योन्याभाव कहते हैं । जैसे—दूध की पर्याय में दही की पर्याय का, या दही की पर्याय में मट्टे की पर्याय का अभाव, अथवा स्तम्भ पर्याय में कुम्भ पर्याय का अभाव अन्योन्याभाव है । रौजस शरीर में कार्मण का शरीर का अभाव भी अन्योन्याभाव है। चौथा है अत्यन्ताभाव-एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में तीनों काल में तादाम्य रूप से परिणत न हो, अथवा एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में तीनों काल में अभाव हो, उसे अत्यन्ताभाव कहते हैं। जैसे-चेतन और जड़ में, कुम्हार और घड़े में, पुस्तक और जीव में अत्यन्ताभाव है, क्योंकि प्रत्येक में दोनों भिन्न-भिन्न जाति के द्रव्य हैं। चार अभावों में अत्यन्ताभाव द्रव्यसूचक है, और शेष तीन-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अन्योन्याभाव पर्यायसूचक हैं । प्रागभाव न मानने से कार्य अनादि (आदिरहित) सिद्ध हो जाएगा। प्रध्वंसाभाव न मानने से कार्य अनन्तकाल (अन्तरहित) तक रहेगा । अन्योन्याभाव न मानने से एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का, दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय में अभाव है, वह नहीं रहेगा। अत्यन्ताभाव न मानने से प्रत्येक पदार्थ की कालिक भिन्नता नहीं रहेगी। जगत् के सभी द्रव्य एकरूप हो जायेंगे।
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