Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
न
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कहते हैं- 'मिच्छादिट्ठी अणारिया' । अर्थात् उनकी दृष्टि विपरीत है, तथा वर्ज - धर्मों से जो दूर नहीं हैं । जो समस्त वर्जनीय हेय धर्मों से दूर है, उसे आय कहते हैं, जो इससे भिन्न हैं, वे अनार्य्या हैं । ऐसे मिथ्यादृष्टि अनार्य होते हैं, जो त्याज्य एवं निन्द्य कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, और मिथ्याज्ञान से आवृत रहते हैं और साधु के वेश में असद् अनुष्ठान करते हैं । ऐसे लोग अज्ञानवादी या नियतिवादी मिथ्यावादी होते हैं, जिनकी बुद्धि मिथ्यात्व अन्धकार से आच्छादित रहती है, वे ऐसे सुन्दर धर्म के आचरण एवं अनुष्ठान में शंका करते रहते हैं, जहाँ शंका नहीं करनी चाहिए और जहाँ शंका करने योग्य पाश ( बन्धन ) से युक्त एकान्त पक्ष है, उसको स्वीकार करने में जरा भी शंका नहीं करते । वहाँ निःशंक होकर बेधड़क प्रवृत्ति करते हैं । अर्थात् अज्ञानान्धकार में डूबे हुए वे शास्त्र में अविहित कार्यों को बेखटके करते रहते हैं और जो शास्त्रविहित सत्कार्य हैं उनमें शंका करते हैं । ऐसा मिथ्यात्व के चढ़े हुए चश्मे के कारण होता है । इस प्रकार उनकी बाल - चेष्टाएँ उन भोले-भाले नासमझ मृगों की-सी होती हैं, जिनका नतीजा उन्हें स्वयं को भोगना पड़ता है । जिसका दुष्परिणाम उनकी आत्मा के लिए अहितकर, भयंकर और अनर्थकर होता है । परन्तु मिथ्यात्व का भूत जो उनके सिर पर सवार है, वह जो भी नाच नचाये वह थोड़ा ही है ।
ऐसे मिथ्यात्वभूतग्रस्त अज्ञानवादी कहाँ शंका करते हैं और कहाँ शंका नहीं करते ? यह अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ
धम्मपण्णवणा जा सा, तं तु संकंति मूढगा । आरंभाई न संकति, अवियत्ता अकोविया ॥ ११ ॥
संस्कृत छाया
धर्मप्रज्ञापना या सा, तां तु शंकंते मूढकाः । आरम्भान्न शङ्कन्ते, अव्यक्ता अकोविदाः ॥ ११॥
अन्वयार्थ
( जा सा) जो वह ( धम्मपण्णवणा) धर्मज्ञापन --- धर्म की प्ररूपणा है, (तं तु) उसमें तो ( मूढगा ) वे मूढ़ ( संकति) शंका करते हैं, जब कि ( आरंभाई : आरम्भों -- आरम्भयुक्त कार्यों में (न संकति) शंका नहीं करते । ( अवियत्ता) वे विवेकरहित हैं, ( अकोविया) सत्शास्त्र के ज्ञान से रहित हैं ।
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