Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
१५६
सूत्रकृतांग सूत्र
है, पर वह तनिक आँख उठाकर दिव्य नेत्रों से इस बन्धन को देखे तब न ? वह तो इस बन्धन को गले का हार समझे बैठा है। अपने मतमोह एवं मिथ्यात्व को वह बन्धन न समझ कर सम्मानजनक आभूषण समझे बैठा है। आशय यह है कि वह अज्ञानी जीव उक्त प्रकार से अनर्थ को दूर करने का उपाय होते हुए भी उसे देखता नहीं । अगली गाथा में उस मृग की दुर्दशा का पुनः वर्णन करते हैं
मूल पाठ अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागते । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छई ॥६॥
संस्कृत छाया अहिताऽत्माऽहितप्रज्ञान: विषमान्तेनोपागतः । स बद्धः पदपाशेन तत्र घातं नियच्छति ॥९।।
अन्वयार्थ (अहिअप्पा) अहितात्मा (अहिय पण्णाणे) अहित प्रज्ञा वाला, (विसमंतेगवागते) कूटपाशादि से युक्त विषम प्रदेश में पहुँचकर (स) वह मृग (तत्थ) वहाँ (पयपासेणं) पदबन्धन के द्वारा (बद्ध) बद्ध होकर (घायं) वध को (नियच्छई) प्राप्त होता है।
भावार्थ अपना ही अहित करने वाला, अहितबुद्धि से युक्त वह मृग अज्ञानवश बन्धनयुक्त विषम प्रदेशों में जाकर पदबंधन से बँध जाता है और वहीं उसका काम तमाम हो जाता है ।
व्याख्या अहितबुद्धि मृग की सी दशा
पूर्वोक्त भयंकर बन्धन को बन्धन न समझ कर वह भोला-भाला मृग कितनी और कैसी संकटापन्न स्थिति में पहुँच जाता है, इसे शास्त्रकार पुनः सूचित करते हैं कि वह अज्ञानी बे-समझ मृग अपने हिताहित को नहीं समझता। उसकी बुद्धि सम्यक् रूप से अपने हित में काम नहीं करती, अतः वह प्रलोभन या भुलावे में पड़ कर ऐसे विषम प्रदेश में पहुँच जाता है, जहाँ उसे बंधन में डालने के लिये जाल बिछा होता है, वह लोभ में आकर वहाँ फँस जाता है, अथवा वहाँ वह अपने आपको
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org