Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (पुण) फिर (एगेसि) किन्हीं मतवादियों का (आघाय) कहना है कि (जिया) जीव (पुढो) पृथक् पृथक् हैं, (उववण्णा) यह युक्ति से सिद्ध है । (सुहं दुक्स) वे जीव पृथक्-पृथक् ही (अपना-अपना) सुख-दु:ख (वेदयन्ति) भोगते हैं, (अदुवा) अथवा (ठाणउ) अपने स्थान से अन्यत्र (लुप्पंति) जाते हैं ।
भावार्थ फिर किन्हीं मतवादियों ने यह भी मन्तव्य प्रतिपादित किया है कि संसार में सभी जीव (आत्मा) पृथक्-पृथक् हैं, यह युक्ति से सिद्ध होता है; तथा वे जीव अपने-अपने अलग-अलग सुख-दुःख का अनुभव करते हैं; अथवा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं ।
व्याख्या
नियतिवादियों के मत का निरूपण
___ इस गाथा में नियतिवादी दार्शनिकों के मत का स्वरूप बताया जा रहा है। पहले उद्देशक में पंचभूतात्मवाद, तज्जीव-तच्छरीरवाद, पंचस्कन्धवाद, आत्माद्वतवाद, अकारकवाद, चातुर्धातुकवाद आदि बताये गये हैं। इन वादों से विलक्षण एवं विपरीत दूसरे उदं शक में युक्तिसंगत यथार्थ वस्तुस्वरूप नियतिवाद के द्वारा बतलाया गया है।
नियतिवाद का आत्मा के सम्बन्ध में क्या मन्तव्य है ? इसे प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने कहा 'जिया पुढो उवषण्णा' अर्थात् इस संसार में सभी जीव अपनाअपना अलग अस्तित्व रखते हैं, यह बात प्रत्यक्ष, अनुमान एवं युक्तियों से सिद्ध होती है । इस कथन से पंचभूतात्मवाद या तज्जीव-तच्छरीरवाद का खण्डन हो जाता है । नियतिवादियों के द्वारा प्रत्येक आत्मा के पृथक अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए 'वेदयन्ति सुहं दुक्ख, अदुवा लुप्पंति ठाणउ' कहा गया है । आशय यह है कि जब तक पृथक-पृथक आत्मा नहीं मानी जायगी, तब तक जीव अपने द्वारा कृत कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला सुख-दुःख भी नहीं भोग सकेगा। और फिर शुभाशुभ कर्मफल के रूप में सुख या दुःख भोगने के लिए एक शरीर, एक गति या एक योनि को छोड़कर दूसरे शरीर, दूसरी गति और दूसरी योनि में जाना नहीं हो सकेगा, क्योंकि जीवों की पृथक-पृथक सत्ता नहीं मानी जायेगी तो उन सुख-दुःखों को भोगने के लिए कौन कहाँ जायेगा? यह भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। यह कथन भी अनुभव और युक्तियों से सिद्ध है । जीवगण अपने-अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग•
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