Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
नरक आदि पदों या शरीरों में जन्म धारण करते हैं, इस कथन से आत्माद्वैतवादी के मत का खण्डन हो जाता है । युक्ति से पृथक-पृथक जीव इसलिए भी सिद्ध हैं कि संसार के जीवों में कोई अधिक सुखी है, कोई कम सुखी है, कोई अधिक दुःखी है, कोई कम दुःखी । वे अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगते देखे जाते हैं । इस कथन से पञ्चस्कन्ध या चतुर्धातु से भिन्न आत्मा को न मानने वाले बौद्धों के मत का खण्डन समझ लेना चाहिए। वे जीव प्रत्येक शरीर में अलग-अलग निवास करते हुए सुख-दुःख भोगते हैं । प्रत्येक प्राणी के अनुभव से सिद्ध सुख-दुःखरूप फलभोग को हम झुठला नहीं सकते । इस उक्ति से आत्मा को कर्ता न मानने वाले मतवादियों के मत का खण्डन समझ लेना चाहिए, क्योंकि पुण्य-पाप का कर्ता तथा विकारयुक्त आत्मा न होने पर सुख-दुःखरूप फलभोग नहीं हो सकता । अथवा वे प्राणी सुख-दुःख को भोगते हैं और अपना आयुष्य पूर्ण होते ही वर्तमान शरीर से अलग हो जाते हैं अर्थात् एक भव, एक शरीर को छोड़कर दूसरे भव, या शरीर को चले जाते हैं, इस अनुभव को भी हम मिथ्या नहीं कह सकते । इस प्रकार जीवों के एक भव से दूसरे भव में जाने का भी निषेध नहीं किया जा सकता । यही शास्त्रकार का आशय है ।
प्रश्न होता है कि नियतिवाद का आत्मा के सम्बन्ध में शास्त्रकार द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोण यथार्थ है और जैनदर्शन भी तो अनेक आत्मा, आत्मा का पृथक अस्तित्व, आत्मा का सुख - दुःखरूप फलभोग तथा उसे भोगने के लिए परलोकगमन आदि बातें इसी रूप में मानता है, फिर नियतिवाद का खण्डन करने के लिए शास्त्रकार ने इस गाथा में उपक्रम क्यों किया ? इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि नियतिवाद जहाँ तक अनुकूल है, वहाँ तक तो उसका वैसा सत्यस्वरूप बताना ही चाहिए, किन्तु एकान्त नियतिवाद के जो दोष हैं, उनका खण्डन शास्त्रकार ने अगली दो गाथाओं में किया है। जैनदर्शन की दृष्टि आलोचक या दोष-दृष्टि नहीं है, वह वस्तुस्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन करता है । विविध प्रमाणों और नयों की दृष्टि से किसी भी वाद, मत या तत्त्व को तौल कर ही वह अपना निर्णय देता है यही कारण है कि इस गाथा में नियतिवाद का जो सत्यांश है, उसका कथन किया और अगली दो गाथाओं में उसके असत्यांश का वर्णन कर रहे हैं
मूल पाठ
न तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं ? | सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असे हियं
॥२॥
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