Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक
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को छोड़कर समाज, और परिवार के दायित्वों से भाग कर अलग-थलग एकान्त वन में या पर्वत की गुफा में जाकर साधना करने वाले निकृष्ट माने जाते थे । ऐसे तापस या ध्यानी अथवा पर्वतीय जन समाज या राष्ट्र के लिए भी अपने ज्ञान या अनुभवों को प्रदान न करने के कारण निरुपयोगी समझे जाते थे। इस सन्दर्भ में पूछे जाने पर भी क्या वनवासी तापस, परिव्राजक या पर्वतीय जन भी सर्वदुखों से मुक्त हो सकते हैं ? तब उन मतवादियों का प्रायः यही उत्तर होता था कि हमारे दर्शन को अंगीकार कर लो, सब दुखों से छुटकारा (मोक्ष) हो जायेगा। यह इस पंक्ति का आशय है।
तात्पर्य यह है कि पंचभूतात्मवादी, आत्माद्वैतवादी (वेदान्ती), तज्जीवतच्छरीरवादी, अकारकवादी, आत्मषष्ठवादी, क्षणिकपंचस्कन्धवादी, चातुर्धातुकवादी आदि दर्शनकार कहते हैं कि गृहनिवासी गृहस्थ, वनवासी तापस, पर्वतीय जन, प्रव्रज्या धारण किये हुए संन्यासी आदि हमारे दर्शन में विश्वास किए हुए नर-नारी समस्त दुखों से मुक्त हो जाते हैं । पंचभूतवादी और तज्जीव-तच्छरीरवादी का यह आशय है कि जो लोग हमारे दर्शन का आश्रय लेते हैं, वे गृहस्थ रहते हुए शिरोमुण्डन, दण्डचर्मधारण, जटाधारण, काषायवस्त्र, गुदड़ीधारण, केशलुचन, नग्न रहना, तप करना आदि दुख रूप शरीर क्लेशों से बच जाते हैं।' जैसा कि वे कहते हैं --
तपांसि यातनाञ्चित्राः, संयमो भोगवञ्चनम् ।
अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यते ।। अर्थात् विविध प्रकार के तप तो विचित्र प्रकार से शरीर को यातना देना है, संयम धारण करना भोग से वंचित रहना है, तथा अग्निहोत्र आदि कर्म बच्चों के खेल के समान मालूम होते हैं।
मोक्ष को स्वीकार करने वाले सांख्यमतवादी आदि ऐसा आश्वासन देते हैं कि अकर्तृत्ववाद, अद्वैतवाद और पंचस्कन्धात्मकवाद का प्रतिपादन करने वाले हमारे दर्शन को जो भी गृहस्थ, तापस या वानप्रस्थ संन्यासी या गिरिजन अंगीकार कर लेते हैं वे जन्म, मरण, जरा, गर्भ परम्परा तथा अनेकविध शारीरिक एवं
१. वे शास्त्रविहित कर्मों की इस प्रकार निन्दा भी करते हैं-'त्रयो वेदस्य कर्तारी,
भाण्ड-धूर्तनिशाचरा.' अर्थात् वेद रचयिता तीन तरह के लोग हैं--भाण्ड, धूर्त और निशाचर (राक्षस)। इस प्रकार वे स्वच्छन्दाचारी इहलौकिक सुखोपभोग करने को ही दुख-मुक्ति का मार्ग बताते हैं।
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