Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
मानसिक दुखों से मुक्त होकर सब बखेड़ों से रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-'सव्वदुक्खा विमुच्चई।'
इस पंक्ति के पीछे शास्त्रकार का यह आशय भी प्रतीत होता है कि वीतराग सर्वज्ञ भगवान महावीर ने जन्म, मरण, जरा, गर्भ परम्परा तथा अनेकविध शारीरिक मानसिक दुखों का कारण कर्मबन्ध को तथा कर्मबन्ध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बताया। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं तप द्वारा उक्त कर्मबन्धन के कारणों को मिटाकर कर्मबन्धनों से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो सकता है, फिर वह चाहे गृहस्थ हो, साधु हो, स्त्री हो, या किसी भी जाति, देश, वेष का साधक हो। इस पर से अन्य दार्शनिकों ने अपनी ओर लोगों को खींचने के लिए यही कहना प्रारम्भ किया कि कुछ भी करो, कहीं भी रहो, हमारे दर्शन (विचारधारा) को स्वीकार करने की देर है, फिर मुक्ति या सब दुखों से मुक्ति तुम्हारे निकट ही है । और कुछ करने-धरने, व्यर्थ ही शरीर को कष्ट में डालने, इन्द्रियों पर नियंत्रण करने या मन को मारने की जरूरत नहीं। दुख-मुक्ति या मुक्ति का नुस्खा बहुत ही आसान है और सस्ता सौदा है।
___ यही कारण है कि अगली छह गाथाओं में शास्त्रकार व्यर्थ के गाल बजाने वाले अफलवादियों-इन मतवादियों का बखिया उधेड़ते हुए कहते हैं---
मूल पाठ ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते ओहंतराऽऽहिया ॥२०॥ ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा ॥२१।। ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणी । जे ते उ वाइणो एवं, न ते गम्भस्स पारगा ॥२२॥ ते णावि सन्धि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते जम्मस्स पारगा ॥२३॥ ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा ॥२४॥
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