Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन----प्रथम उद्देशक
क्षणिक होता है । जैसे मेघ माला आदि । जैसे मेघमालाएँ क्षणिक हैं, क्योंकि वे सत् हैं उसी प्रकार सभी सत् पदार्थ क्षणिक हैं, स्थायी नहीं।
सत का लक्षण है—अर्थक्रियाकारित्व ।' स्थायी पदार्थ में अर्थ क्रिया संभव नहीं है। वस्तु की क्रिया को अर्थक्रिया कहते हैं। जैसे आग की क्रिया जलाना है, पानी की क्रिया प्यास बुझाना है । जो जलाने या प्यास बुझाने की क्रिया नहीं करते, वे अग्नि व पानी नहीं है । आशय यह है कि जो वस्तु की क्रिया करता है, वही वस्तु है । इससे सिद्ध होता है कि क्रिया करना ही वस्तु का लक्षण है। जो क्रिया करता है, वही सत (वस्तु) है; जो क्रिया नहीं करता, वह सत् (वस्तु) नहीं है। इसलिए स्थायित्व से विरुद्ध क्षणिकत्व ही पदार्थ सत् में सिद्ध होता है।
अपने कारणों से उत्पन्न हुआ पदार्थ यदि अविनश्वर (स्थायित्व) स्वभावी उत्पन्न हो तो वह न तो क्रमशः क्रिया कर सकता है और न एक साथ ही। क्योंकि नित्य अविनश्वर (स्वभाव न बदलने वाले) पदार्थ का स्वभाव बदलेगा नहीं, और स्वभाव बदले बिना वह भिन्न-भिन्न क्रियाओं को कर नहीं सकता । अतः नित्य पदार्थ द्वारा क्रिया न हो सकने से वह कोई वस्तु हो नहीं हो सकता। आशय यह है कि नित्य पदार्थ क्रम से या युगपत् (एक साथ) दोनों तरह से अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि यदि क्रम से कार्य करेगा तो कालान्तर में होने वाली सभी क्रियाओं को पहली क्रिया के समय में ही क्यों नहीं कर लेता ? समर्थ कालक्षेप नहीं करता । यदि कहो कि पदार्थ अर्थक्रिया करने में समर्थ तो है बशर्ते कि उसे सहकारी कारणों का संयोग मिले तो यह समाधान भी उचित नहीं है । ऐसा होने पर तो वह परमुखापेक्षी एवं असमर्थ हो जायेगा । अतः नित्य पदार्थ का क्रम से अर्थक्रिया करने पर पक्ष समीचीन नहीं है ।
अगर नित्य पदार्थ एक साथ अर्थक्रिया करने लगेगा, तो एक पदार्थ समस्त देशकालों में होने वाली समस्त क्रियाओं को एक साथ ही कर लेगा। परन्तु ऐसी प्रतीति कहीं भी किसी को नहीं होती । यदि सभी पदार्थों की उत्पत्ति एक साथ मानी जाय तो कार्य और कारण आदि भी एक साथ उत्पन्न होने लगेंगे, तब तो दण्ड और घट आदि में परस्पर कार्य-कारणभाव ही नहीं बन सकेगा। यदि स्थिर पदार्थ
१. (क) अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्र परमार्थसत् ।
(ख) अर्थक्रिया सामर्थ्यलक्षणत्वादवस्तुतः । २. क्रमेण युगपच्चापि यस्मादर्थक्रिया कृता ।
न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्वास्ततो मताः ॥
--प्र० वा० --न्यायबिन्दु
-तत्व सं०
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