Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक
आधारभूत हो, वह शरीर कहलाता है । अर्थात सुख-दुख आदि भोग के आश्रय पंचभूतात्मक शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाता है। पुण्य पाप ये दोनों आत्मारूप धर्मी के धर्म हैं। धर्म तभी तक टिकते हैं, जब तक धर्मी टिकता है । आत्मारूपी धर्मों के अभाव में पुण्य-पापरूप धर्म का भी अभाव हो जाता है । आत्मा आधार है, पुण्य-पाप आधेय हैं । आधार (आत्मा) के अभाव में 'आधेय' (पुण्य-पाप) का भी अभाव हो जाता है। इस विषय को दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हैं—पानी से प्रगट होने वाली तरंगें पानी के रहते ही दिखाई देती हैं। सूर्य की तप्त किरणों आदि से पानी के सूख (नष्ट हो) जाने पर जल का अभाव हो जाने से जल का बुलबुला भी नष्ट हो जाता है। इस तरह जब तक बुलबुलों का उत्पादक जल रहता है, तभी तक तज्जनित बुलबुले रहते हैं। इसी प्रकार जल के विनष्ट होने पर जल के द्वारा अभिव्यक्त होने वाले कार्य समूह भी नष्ट हो जाते है। निष्कर्ष यह है कि उत्पादक के अभाव में उत्पाद्य का, एवं अभिव्यंजक के अभाव में अभिव्यंज का अभाव हो जाता है । इसी प्रकार अभिव्यंजक भूत समुदाय अर्थात शरीर के नष्ट होने पर भूतों के समुदाय से उत्पन्न होने वाला आत्मा भी नष्ट हो जाता है । केले के खम्भे के बाहरी छिलकों को उतारे जाने पर अन्त में छिलके ही छिलके रह जाते हैं, उनसे भिन्न सार रूप पदार्थ केले में नहीं रहता। इसी प्रकार शरीर सम्बन्धी पंचमहाभूतों के अलग-अलग हो जाने पर उनसे भिन्न साररूप कोई आत्मा नाम का पदार्थ नहीं रहता, जो पुण्य-पाप आदि कारणों को ग्रहण करके दिखाई देने वाले इस लोक से दूसरे लोक में जाकर सुख या दुख का उपभोग करे । जब पूण्य-पाप ही नहीं हैं (यानी धर्मारूप आत्मा के साथ ही नष्ट हो गये हैं), तब उनके फलस्वरूप मिलने वाले परलोक भी नहीं है । पुण्य-पाप के कारण ही परलोक होता है, जब पुण्य-पापरूप कारण ही नहीं हैं, तब उनसे होने वाला परलोक भी नहीं है, जहाँ जाकर जीव अपने किये कर्म का फल भोग सके । यही बात शास्त्रकार कहते हैं—'नत्थि लोए इतो वरे'-इस दिखाई देने वाले लोक से भिन्न कोई परलोक नहीं है । जहाँ तक चक्षु आदि इन्द्रियों का व्यापार होता है, उतना ही लोक है। सुख-दुख आदि के उपभोग का आधार लोक ही प्रामाणिक है। इसके अतिरिक्त इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य कोई परलोक नहीं है, जहाँ जाकर जीव पुण्य-पाप का सुखदुखरूप फल भोगता हो ।
परलोक क्यों नहीं है ? इस प्रकार पूछे जाने पर उनकी ओर से उत्तर मिलता है.---पंचभूतात्मक शरीर नष्ट हो जाने पर आत्मा नष्ट हो जाती है, ऐसी दशा में भूत समुदाय से अतिरिक्त किसी भी पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती। ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता कि आत्मा शरीर से निकल कर परलोक को जा रहा हो। जैसे
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