Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
बाँबी से बाहर निकलते समय सपे पास में खंड़ हुए लोगों को दिखाई देता है, वैसे ही शरीर से बाहर निकलता हुआ जीव मृत शरीर के पास बैठे हुए लोगों को दिखाई नहीं देता। अत: जो दिखता ही नहीं, उसकी सत्ता कैसे मानी जा सकती है। यों अगर अनुपलब्ध पदार्थ की भी सत्ता मानने लगेंगे तो खरगोश के सींग और आकाश के फूल की भी सत्ता माननी पड़ेगी।
___ यहाँ शंका होती है कि जैसे स्वप्न में घट, पट आदि बाहरी पदार्थों के मौजूद हुए बिना भी उनका ज्ञान हो जाता है, वह बाधित भी नहीं होता, वैसे ही आत्मा की बाह्य उपलब्धि के बिना ही भूत समुदाय से पृथक आत्मा का अनुभव ज्ञान उत्पन्न होना माना जाय तो क्या आपत्ति है ? इसका समाधान यह है कि स्वप्न में दृश्यमान घट-पटादि बाह्य पदार्थों का ज्ञान तभी होता है, जब घट, पट आदि 'पहले कहीं प्रत्यक्ष देखे गये हों । आत्मा तो पहले कहीं प्रत्यक्ष देखा गया नहीं है, इसलिए भूतों से भिन्न उसकी उपलब्धि (अनुभव ज्ञान) होना सम्भव नहीं है।
अथवा जैसे अत्यन्त स्वच्छ काँच में मुख का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, क्योंकि काँच अत्यन्त स्वच्छ होता है ! काँच में बाह्य पदार्थ तो घुसता नहीं है, वहाँ विद्यमान न होने पर भी पदार्थ काँच के अन्दर प्रतीत होता है। इसी प्रकार आत्मा भी भूत समुदाय के शरीराकार में परिणत होने पर भूतों से पृथक न होने परं भी भूतों से पृथकता की बुद्धि उत्पन्न करता है। अर्थात आत्मा भूतों का विशेषण होने से भूतों से अभिन्न होता हुआ भी भूतों से भिन्न प्रतीत होता है। किन्तु आत्मा के भेदरूप से प्रतिभासमान होने की बात सीप में चाँदी के या रस्सी में साँप के प्रतिभासमान होने के समान भ्रान्त हैं । अतः रस्सी में साँप की बुद्धि अवास्तविक है, उसी तरह भूत समुदाय में चेतना बुद्धि होना भी अवास्तविक है । अतः भूत समुदाय रूप शरीर में भूतों से अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, यही तज्जीव-तच्छरीरवादियों के मत का कथन है। पुण्य पाप एवं परलोक न मानने पर
पुण्णे व पावे वा--पुण्य का अर्थ होता है--सुख प्राप्तिरूप शुभ-अच्छा फल देने वाला कर्मपुद्गल, अथवा जीव को अभ्युदय प्राप्त कराने वाला । तथा पाप का अर्थ है - दुख प्राप्ति रूप अशुभ बुरा फल देने वाला कर्मपुद्गल अथवा जीव को 'अवनति प्राप्त कराने वाला ।' पुण्य एक प्रकार से शुभ आस्रव है या शुभ बन्ध है जबकि पाप एक प्रकार से अशुभ आस्रव है या अशुभ बन्ध है।
१. शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।
-~-तत्त्वार्थसूत्र ६.३
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