Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र यह तो ठीक, पर वह आत्मा अमूर्त, निरंजन, निराकार अपने आप में होने पर भी जब तक विविध योनियों एवं गतियों में विविध शरीरों के साथ सम्बद्धित रहती है, तब क्या वह शरीर के किसी कोने में दुबकी रहती है, या सारे शरीर में व्याप्त होकर रहती है, अथवा सारे संसार में व्याप्त होकर रहती है ? इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न अटकलें लगाई हैं, भिन्न-भिन्न रूप से कल्पना की है । कोई दार्शनिक आत्मा को अणु परिमाण ही मानते हैं । वैदिक श्रुति' में बताया है-यह अणु परिमाण आत्मा चित्त के द्वारा माना जाता है, जिसमें ५ प्रकार के प्राणों का सन्निवेश है । कुछ दार्शनिक आत्मा को समस्त ब्रह्माण्डव्यापी मानते हैं और कई दार्शनिक मानते हैं---मध्यम परिमाण वाला आत्मा । जो आत्मा को श्यामाक (धान्य विशेष) के दाने के बराबर या अँगूठे के पर्व के समान या अणु परिमाण मानते हैं, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इतना छोटा आत्मा सारे शरीर में व्याप्त होकर नहीं रह सकता । तथा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त ज्ञान गुण की उपलब्धि उसे नहीं हो सकेगी, न सारे शरीर में चेतना का लाभ हो सकेगा। अगर आत्मा को व्यापक परिमाण वाला मानते हैं तो सभी जगह उसके गुण पाए जाते, मगर ऐसा प्रतीत नहीं होता । अतएव आत्मा व्यापक नहीं है। जैसे घट के रूप आदि गुण घट से भिन्न प्रदेश में नहीं पाये जाते, वे घट में ही रहते हैं, वैसे ही आत्मा के ज्ञानादि गुण भी शरीर पर्यन्त ही पाये जाते हैं, शरीर के सिवाय अन्यत्र नहीं पाये जाते, इस कारण ज्ञानादि गुणों का अधिकरण (आत्मा) व्यापक नहीं है, मध्यम परिमाण है----शरीरव्यापी--चर्मपर्यन्त समस्त शरीरव्यापी । कुछ लोग इस पर भी आपत्ति उठाते हैं कि आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानने से वह घट आदि की तरह अनित्य हो जाएगा। फिर तो शरीर के नाश होने की तरह आत्मा का भी नाश हो जाएगा । ऐसी स्थिति में जन्मान्तर में कर्मफल का उपभोग आदि की व्यवस्था कैसे संगत होगी? ऐसा कहना यथार्थ नहीं है। जैनदर्शन आत्मा को कथंचित अनित्य मानता है । इसलिए पर्याय बदलने पर भी आत्मा तो एक रूप ही रहेगा। मगर जब तक कर्म हैं, तब तक शरीर के साथ शरीरव्यापी होकर सम्बद्ध
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१. 'ऐषो अणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो, यस्मिन् प्राण: पंचधा सन्निवेशः ।
- श्रुति
२. यद्यपि समुद्घात, लब्धि, सिद्धि या योग के द्वारा आत्मा को जगद्व्यापी
बनाया जा सकता है, पर उस दशा में शरीर भी उतना ही व्यापक बन जाएगा, अत: आत्मा शरीरव्यापी ही होगी।
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