Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन----प्रथम उद्देशक
रहेगा। जिस जीव के शरीर का जितना परिमाण होता है, उतना ही परिमाण आत्मा का हो जाता है।
इस प्रकार इन दो गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने चार्वाकमत-प्रतिपादित पाँच भौतिक सिद्धान्त के मत का खण्डन करके स्वसत्य सिद्धान्तसम्मत आत्मा की सिद्धि, उसका स्वरूप तथा उसकी पंचभूतों से भिन्नता प्रतिपादित की है। शास्त्रकार का आशय प्रस्तुत चार्वाकमतीय एकान्त मिथ्याग्रह को मिथ्यात्व बताकर तज्जन्य कर्मबन्धन से अपनी आत्मा को बचाने हेतु सम्यक्त्व सेवन ध्वनित हुआ है।
अब शास्त्रकार वेदान्त मत प्रतिपादित एकान्त एकात्मवाद के स्वरूप का प्रतिपादन करके उसके मिथ्यात्व को सूचित करते हुए कहते हैं
मूल पाठ जहा य पुढवीथभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ ॥६॥
संस्कृत छाया यथा च पृथिवीस्तूप एको नाना हि दृश्यते एवं भो: ! कृत्स्नो लोकः, (विज्ञ) विद्वान् नाना हि दृश्यते ।।६।।
· अन्वयार्थ (जहा) जैसे (एगे य) एक ही (पुढवीथूभे) पृथ्वी समूह (नाणाहि) नाना रूपों में (दीसइ) दिखाई देता है, (भो) हे जीवो (एवं) इसी प्रकार (विन्नू ) विज्ञ आत्मस्वरूप (कसिणे) सम्पूर्ण (लोए) लोक (नाणाहि) नानारूपों में (दीसइ) दिखाई देता है।
भावार्थ जैसे एक ही पृथ्वीसमूह सरिता, सागर, ग्राम, घट, पट, पर्वत, नगर आदि अनेक रूपों में दिखाई देता है, उसी तरह हे भव्य जीवो ! (विज्ञानरूप) आत्ममय यह जड़चेतनरूप समस्त जगत नाना रूपों में दिखाई देता है।
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