Book Title: Munisuvrat Kavya
Author(s): Arhaddas, Bhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्ति 9000 देवकुमार-मन्थमाला का प्रथम पुष्प कविवर श्री अर्हदास - विरचित श्रीमुनिसुव्रतकाव्य संस्कृत टीका सहित अनुवादक तथा सम्पादक पं० के० भुजबली शास्त्री पं. हरनाथ द्विवेदी प्रकाशक निर्मल कुमार जैन मन्त्री श्रीजैन- सिद्धान्त-भवन मारा मोर मं० १४५५ a सन् १६.२६. ई कपड़े की जिल्द मूल्य २) सादी जिल्द मूल्य २) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका “कान् पृच्छामः सुराः स्वर्गे निवसामो वयं भुवि । किम्बा काव्यरसः इजादुः किम्ना स्वादीयमी सुभा" ॥ संसारसुमनोद्यान का काव्य ही फलकण्ठ अथवा कल्प-लतिका है। सदाव. सम्पन्न सहृदय-गणों की मनस्तुष्टि अथवा अभीष्ट प्राप्तिका एक-मात्र साधन काव्य ही है। काव्य-कानन के प्रकाम पर्याटक तथा कषिता-कामिनी के कटाक्ष-कोर के लक्ष्य-भूत कविकण्ठीरव विझवृन्द ने काव्य का हृदय से आदर किया है। मेरी तो यही धारणा है कि इस पञ्चम काल में दार्शनिक तथा धर्मशास्त्रीय गूढ़ रहस्यों के उपदेश तथा माता की विरलता का विचार कर ही “थाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कश्यते" के अनुसार आचाव्यों तथा कवि-कुंजरोंने शब्दार्थालङ्कार से समलकृत, प्रलाद माधुर्यादि गुणों से समु:शासित, लाटी अथ च माधुरी आदि काव्योचित बीतियों से विजड़ित और वसन्ततिलकादि वृक्षों से सम्बलित काव्यों के द्वारा कथा-कथानक रूप में दर्शन तथा धर्म के मार्मिक सिद्धान्तों को दरसा कर सर्व साधारण शिक्षितों को लोकोत्तर लाभ पहुंचाया है। कौन ऐसे सहृदय-समुदाय हैं जो विमावानुभावादिकों से अभिष्पञ्जित, बीर वैराग्यादि रसों से समुच्छलित तथा ध्वनिव्यङ्गयाओं से मुखरित काव्यकल्लोलिनी में गोता लगाना अपना परम पुण्योदय नहीं समझते हैं, अतः साहित्य-सदन का साहवय स्वामी अथवा झाना घी का दुर्वागत केशरी यदि काव्य को माना जाय तो मैं समझता है कि, यह अनुचित नहीं होगा। प्रस्तुत पुस्तक भी काव्य ही है। इसका नाम "मुनिसुवत काप" अपर नाम "काध्य रक्ष" है। यह उत्तर पुराण के आधार पर रवित हुआ है। इसमें दस सगे हैं। जन्म. कल्याणकसे मोक्ष-कल्याणक तक की जोधन-घटना श्रीमुनिसुवत देव की बड़ी रोचकता तथा प्राञ्जल पद्धति से वर्णित है। आपके पिता का नाम राजा सुमित्र तथा माता का महिषी पद्मावती था। आपकी राजधानी राजगृह में थी। राजगृह जैनियों का कैसा प्रसिद्ध तथा पवित्रतम तीर्थ-स्थान है यह यहां बताने की ज़रूरत नहीं हैं। वहाँ की शान्तिशीलता, पवित्रता तथा प्राकृतिक दर्शनीयता यह बात जतलाये देती है कि यहां जैन-राम Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी अवश्य थी तथा जैनाचार्यों तथा मुनियों ने अपनी असण्ड नपस्याओं और चामत्कारिक सिद्धियों से यहाँ की धूलि पुंज के अणु-परमाणुओं तक को भी पूत कर दिखाया था अवश्य । तभी तो आज भी उस दिव्य विभूति की झलक लोगों की आँखों को चकाचौंत्र किये देती है। अस्तु मुनिसुव्रत स्वामी गाईस्थ्य-जीवन समाप्त कर विजय नामक अपने पुत्रको राज्य भार दे स्वयं मोक्ष मार्ग के पक्के एथिक बने। आपका विवाद कहाँ, किसकी कन्या से हुआ था तथा आपको विजय के अतिरिक्त और सरी कोई संतान थी कि महीं आदि बातों का उल्लेख इस काव्य में कहीं नहीं है। आपके विवाह के विषय में केवल यही लिखा हुआ मिलता है कि "पित्रा विनिवर्तितदारकर्मा" अर्थात् पिता ने इनकी शादी इस काव्य के संकलयिता कवि-कुंजर परम सम्मानाई श्री अईहास जी है। इसकी कृतियों के द्वारा इनका समय-निर्णय करना मेरे जैसे वहु-कार्य-व्याप्त साधारण इतिहासह संस्कृत-पण्डित के लिये नितान्त असम्भव है। हां यदि कोई सावकाश इतिहासवेत्ता जैन विद्वान् इस अमर कवि की कविता की ओर कटाक्षपात करें तो अवश्य समय निर्णय तथा समालोचनात्मक भूमिका होसकती है। इतनी बात मैं अवश्य कहूंगा कि इनके समयनिर्णय करने में लोगों को आकाश-पाताल का कुलावा अब एक महीं करमा पड़ेगा। क्योंकि अभी तक इनके तीन काव्य उपलब्ध हुए हैं। यह "मुनिसुव्रत काव्य" "पुरुदेव चम्पू" तथा " भव्य-कपटाभरण"। इन तीनों की निम्नलिखित प्रशस्तियों से यह बात ज्ञात होती है कि आपने अपना काव्य-गुरु पण्डिताचार्य आशाधर जी को माना है ! और आशाधर जी की ही कविता तथा उपदेश से प्रभावित तथा निनिमीलितचा होकर यह अहहास कवि कविता-रचना में अग्रसर हुए हैं। "मिथ्यात्वकर्मपटलैश्विरमावृते में युग्भे दृशोः कुपथयाननिदानभुते । श्राशायरोक्तिप्लसदजनसम्प्रयोग : स्वच्छीकृते पृथुलसपथमाश्रितोऽस्मि (मु • काल) "सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः । त एव शेषामिया सहाया धन्याः स्युरा शायरसूषिर्या:" [ भव्यकएठाभरण । 'मित्थ्यात्वपककलुषे मम मान मेऽस्मिन् आशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्च्या तञ्चम्पुदम्भ जलजेन समुज्जजम्भे ॥ पु० भ० ॥ पण्मुित आशाधा का समय इतिहास-वेत्ताओं ने विक्रम सम्बत् १३०० निशित कर क्या है। छातः इनका भी समय वही या इसके लाभग माममा समुचित होगा। . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ▼ 1 "getes" के विज्ञ सम्पादक फडकुले महोदय में अपनी पाण्डित्य-पूर्ण भूमिका में लिखा है कि उल्लिखित प्रशस्तियों से कविवर अर्हदास पण्डिताचार्य माशाभर मी के समकालीन निर्विवाद सिद्ध होते हैं । किन्तु कमसे कम मैं आपको इस समय निर्णायक सरणी से सहमत हो आपकी निर्विवादिता स्वीकार करने में असमर्थ हूं। क्योंकि प्रशस्तियों से यह नहीं सिद्ध होता कि आशाधर जी की साक्षात्कृति भईदास जी को थी कि नहीं। 'सूति' और 'उक्ति' की अधिकता से यह अनुमान करना कि साक्षात् आशाधर सूरि से अर्हदास जी ने उपदेश ग्रहण कर उन्हें गुरु मान रक्खा था यह प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता। क्योंकि 'सक्ति' और 'उक्ति का अर्थ रचना-बद्ध ग्रन्थ- सन्दर्भ का भी होसकता है। अस्तु मैं आपकी और अखण्डनीय बातों का खण्डन न कर सिर्फ आपकी निर्विवादिता से सहमत नहीं होता हूँ । प्रचुर पाय के परिपाक से ही प्रकृत कवि कहलाने की कीर्ति आदमी प्राप्त कर सकता है। कवियों के कसने के लिये बया ही अलौकिक निम्नलिखित कसौटी है: "यः केवलकवयः कीराः स्युः केवलं धीराः । वीराः परिवतकवयस्तानवमन्ता तु केवलं गवयः !! “शीला त्रिज्जामारुलामोरिकाद्या: काव्यं कर्तु सन्ति विज्ञाः स्त्रियोऽपि । विद्यां वेत्तुं वादिनो निर्विजेतुं विश्वं वक्तुं यः प्रवीणः स वन्द्यः" || [ उद्भट ० ] काव्य-क प्राकन पद्धति का अवलम्बन अस्तु उल्लिखित कसौटी पर कसे जाकर हमारे प्रस्तुत कविवर अर्हदासजी ने अपने काव्य-कलेवर की कमनीय कान्ति में किञ्चिन्मात्र भी कलङ्क नहीं लगने दिया है। आपने - फलित. कल्पना- कुटीर में कमलासन लगाकर अपनी स्वर्णमयी अमर लेखनी से श्रीमुनिसुव्रत तीर्थङ्कर के चारु चरित्र का चित्रण किया है। कर ही चरित्र नायक के नामानुसार इस काव्य का भी नाम-निर्देश किया है। आपका यह सारा काव्य माधुर्य तथा प्रसादगुण से ओत-प्रोत हैं। प्रत्येक श्लोक में अलङ्कार के पुट देने से इसकी शोभा और भी कई गुनी अधिक बढ़ गयी है। आपके इस काव्यकानन में विचरण करने से कहीं माधुर्य- मालती की मीठी २ सुगन्ध से सने हुए प्रसादपवन का हलका झोंका खाकर चित्त आप्यायित हो जाता है तो कहीं अन्त में बेराग्य की विरह-बिनादिनी वीणा का विहाग सुन जड़ीभूत जीव जगज़ाल से छुटकारा पाकर मुक्ति धाटिका की विशुद्ध सरणी का अवलम्बन करने के लिये आकुल हो उठता है। इस काव्य कुंज के सहृदय शैलानी को सदा शृंगार, हास्य, करण तथा बैराज्य स Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] से ही सराबोर होना पड़ेगा। इसके अगल बगल में भयानक और बीमत्स की महके भूल कर भी अनुभूत नहीं होती। श्रीअईहास जी गद्य-पद्य दोनों के सिद्धहस्त लेखक हैं । “पुरुदेवचम्पू" की गुरुता ने तो "वशकुमार-चरित" तथा "हर्षचरित” के गद्यों से भी बाजी मारली है। जिन्हें गद्य-पद्य का गंगा-यमुनी मेल देखना हो वे "पुरुदेवचम्पू" अवश्य देखें। आवश्यकतानुसार रसावतरण करना तो आपके बायें दायें का खेल है। ... तीर्थङ्कर देव के "मुनिसुवन" नाम को सार्थकता निम्नलिखित श्लोक में बड़ी विशदरीति से दिखलाई गई है। . "करिष्यते मुनिमखिलञ्च सुव्रतं भविष्यति स्वयमपि सुब्रतो मुनिः । विवेचनादिति विभुरभ्यधाय्यसी विडोजसा किल मुनिसुत्रताक्षरैः" (६ष्ठ सर्ग ४३ श्लो०) अब मैं सहृदय पाठको को आपकी अलङ्कार-प्रियता का परिचय निम्नलिखित तीन श्लोकों से कराता हूं। "भट्टाकलकाद् गुणभद्रसूरेः समन्तभद्रादपि पूज्यपादात । वयोऽकलङ्क गुग्णभद्रमस्तु समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ।।" ? भ० स० १६ श्लो. भुजंगमेष्वागमवक्रभावो भुजंगहारेऽप्यजिनानुरागः । धूयं प्रदोषानुगमो रजन्या दिनक्षयस्सोऽपि दिनावसाने ॥ ? मः स ० ३६ श्लो० रतिक्रियायो विपरीतवृत्ती रतानसाने किल पारवश्यम् । बभूव मल्लेषु गदाभिघातो भयाकुलत्वं रविचन्द्रयोश्च ।। ७ मा० ३० श्लो०॥ उल्लिखित प्रथम श्लोक में “यथासंस्थालङ्कार" का ऐसा विशद उदाहरण है कि इसे देख कर एक साधारण संस्कृत भी मुग्ध हो जायगा। उसके नीचे के द्वितीय और तृतीय श्लोक यदि पक्षात-रहित आलङ्कारिक द्दष्टि से देखे जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि अहदास जीने इन दोनों श्लोकों में परिसण्यालङ्कार की विशजता दिखा. कर कधिवर बाण भट्ट की उन पंक्तियों से टक्कर लिया है जिन्हें पढ़ कर कविगण फड़क उस्ते हैं। यों तो आपका समूचा "मुनिसुव्रतकाव्य" ही रन-जड़ित अलङ्कारो से विजड़ित हैं किन्तु अपने फाध्य में अपूर्वता लाने के लिये आपका प्रयक्ष प्रशंसनीय है। अब आपके एक हास्यरस्य का निन्नलिखित पद्य पाठकों के समक्ष उपस्थित करने का मैं लोभ संघरण . नहीं कर सकता: Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] मुग्धाम्सराः कापि चकार सर्वात्कुलकानिकल धूपचूर्णम् । tereafter faपन्ति हसन्ति कांगरचयस्य बुद्धया || ५ मा स० ३१ लो०| कविता द्वारा प्रशंसा करना आप श्रीयह बात आपके अधोलिखित पद्य से राजा महाराज आदि धन-सम्पन्न मनुष्यों की जिनवाणी का अत्यधिक अपमान समझते थे । प्रकटित होती है। T "सरस्वतीं कल्पलतां स को वा सम्वर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । विमुच्य काञ्जीरतरूपमेषु व्यारोपयेत्शा कृत-नायके बु" ।। १म स० १२ क्लो० ॥ इस श्लोक से आपकी निर्भीकता तथा देवगुरु-शास्त्र-प्रियता प्रतिपद में प्रतीत होती है। आप अपनी कवित्वशक्ति का “दिल्लीश्वरो वा अगदोश्वरो वा" जैसी स्वार्थ सकुल रचना करने में दुरुपयोग नहीं करते थे एवं प्राकृत व्यक्ति की प्रशंसा करने वाले कवियों को आप बड़ी तुच्छ दृष्टि से देखते T : अस्तु 'इस काव्यरत' की एक संस्कृत टीका भी है। टीका बड़ी ही सरल तथा कोश व्याकरण और अलङ्कारादिके दिग्दर्शन तथा प्रमाणों से सम्बलित हैं। हां जहां तहाँ अपेक्ष्य बातें रह गई हैं। दुःख है कि पण्डित-वर्य टीकाकार ने अपना नाम तथा परिचय देने का कष्ट नहीं उठाया। आजकल के जमाने में जब कि दूसरों की कृतियों को हड़पने वाळे तथा इधर उधर कुछ उलट पुलट करके अपना नाम प्रख्यात करने वालों का बाजार गर्म होने अथवा 'कथिरनुहरति च्छायामयं कुकविः पदं चौरः अधिक परस्वद्दत्रै साहसकर्त्रे नमः पित्रे" आदि प्राचीन दृष्टान्त की भरमार होने पर भी इस काव्यरक्ष के टीकाकार का अपना परिचय नहीं देना उनकी निस्सीम निस्वार्थता प्रकटित करता है । I I आप केवल टीकाकार ही नहीं थे प्रत्युत एक सरस प्राञ्जल कवि भी । क्योंकि टीका के प्रारम्भ में जो आपने निम्नलिखित मंगलाचरण- विधायक दो श्लोक लिखे हैं वे बड़े ही सुन्दर : श्रीमर्देवेन्द्रसन्दोहबर्हिणानन्ददायिनम् । सुत्रताम्भूतं नौमि दिव्यश्रव्यनिनादिनम् ॥ तस्य गर्भावतारादिपञ्च कल्याणशंसिनः । काव्यरत्नाख्यकाव्यस्य षये टीकां स्वभक्तिः || 1 अलिखित प्रथम श्लोक पर दृष्टि पड़ते ही मुझे "भारतेन्दु” हिन्दी प्राण बाबू हरि श्री का निम्नलिखित दोहा याद आता है:-- Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरित नेह-नधनौर नित, परसत सुरस प्रयोर । जयति अपूरब घन कोऊ, ललि नाचत मन मोर ॥ ऐसा पहले श्लोक तथा इस दोहे में कैसा बिम्ब-प्रतिधिम्म भाव है ? भास्सु जो कुछ हो सोफामाद ही हर शिलान् थे ! कभी २ यह बात मेरे मन में आजातो हैं कि कहीं अर्थ के अनर्थ कर डालने के भय से अईहास जीने स्वयं "काव्यरत्न" की टीका रख दी हो। बल्कि इसी लिये दूसरे पद्य में स्विमसितः" आपने लिखा है। तीर्थदर मुनिसुव्रत नाथ के चरितात्मक काव्य को सानोपांग निर्विघ्न सम्पन्न कर देने से आपके मन में आत्म-भक्ति उमड़ आना कोई अस्वाभाविक बात नहीं हैं। अथवा स्वरथिस काव्य की भक्ति भी इस पद का अर्थ हो सकता हैं या स्पेष्ट देव मुनिसुबत नाथ की भी भक्ति सूचित होती है। दूसरी बात यह है कि आपने अपने काव्य-गुरु पण्डित आशा. धरजी का अनुसरण किया हो । क्योंकि आशाधर सूरि ने अपने "सागरधर्मामृत" तथा "मनगारधर्मामृत" की टीका स्वयं ही बनाई है। अतः “यद्यदाचरति श्रेष्ट" के अनुसार आईस्कवि ने भी अपने काव्य की स्वयं टीका बनाकर गुरु मार्गानुसरण का ज्वलन्त उदाहरण उपस्थित किया हो।। - भाशा है कि सहृदय साहित्य-रसिक विज्ञवृन्द टोकाकार के प्रकृत परिचय पाने का प्रयास करेंगे। विनीतहरनाथ द्विवेदी ( काव्य-पुराण तीर्थ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य अब से श्री जैन सिद्धान्त भवन" ( The Central Jain oriental lrbiary) की सेवा में हाथ बटाने का शुभावसर मुझे प्राप्त हुआ तभी से मेरी हार्दिक इच्छा थी कि इस संखा से कोई प्रन्थमाला निकाली जाय, जिस के द्वारा जैनाचार्यो की धवल कीर्ति सम्पूर्ण भारतवर्ष ही में नहीं वरन् सुदूर प्रदेशों में भी प्रसारित और साथ ही साथ उसके रसास्वादन से भव्य जीवों का कल्याण हो। स्वर्गीय कुमार देवेन्द्र प्रसाद जी ने जो इस संला के प्रधान सहायकों में थे इस ओर बहुत कुछ कार्य किया था और बहुत अंशों में यह उन्हीं की सेवाओं का फल है कि हमारे प्रन्थों का प्रचार और प्रतिष्ठा बाहर भी होने लगी है। ___एक समय वह था जब कि हमारे आचार्यों की तूती बोलती थी, उन की प्रगाढ़ विता तथा पूर्ण पाण्डित्य के आगे सभी नत-मस्तक होते थे, थे ही आचार्यवयं अपनी स्वाभाषिक परोपकार बुद्धि से लोगों के हित के लिये तथा उन्हें सन्मार्ग पर लाने के लिये भपने उस मगाध ज्ञान-भण्डार को अपनी मनोमुग्धकारी सरस काव्य-कुशलता-द्वारा अन्धरूप में संचालित कर गये हैं। हमारे दुर्भाग्य से कुछ स्वार्थी जीवों ने सार्वजनिक परो. पकार की उस अमूल्य थाती के बहुत कुछ अंशों को अंधेरी कोठरी में सड़ाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। फिर भी ओ कुछ बमा खुना है। वह अपने प्रासीन गौरव को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है। यद्यपि अब भी कुछ भाई छापे इत्यादि का विरोध कर इस भमूल्य औषधी से अमलामात्र को लाभ लेने देना नहीं चाहते तो भी अब यह समय गया। हर्ष का विषय है कि बहुतेरे जैन विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है और हो रहा है। जिसके फलस्वरूप दो-तीन सुरक्षित भवन तथा कई एक पुस्तक प्रकाशकीय संस्थाप' विगत वर्षों से श्रीजिनवाणी की रक्षा तथा प्रचार में फलवती हुई है। "मारा श्री जैन सिद्धान्त भवन" हमारे स्वर्गीय श्रीपूज्य पिता जी द्वारा वि० १६०५ ई. में स्थापित हुआ था। और श्रीमान् पूज्य नेमी सागर जी वणों ( वर्तमान पद धीमदभिनव वारकीर्ति पाएतावार्थवर्य स्वामी जी श्रवोधेलगोल-पट्टाधीश । तपा स्वर्गीय कापू फरोड़ी चन्द जी के उद्योग से बहुत कुछ उन्नति कर गया है। बल्कि उपर्युक्त पूज्य स्वामी जी की "भवन" पर अब भी सदा कपा-दृष्टि बनी रहती है। वर्तमान में पर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] अपने ही एक बहुत सुन्दर २५०००) रु० की लागत के 'भवन' में सुरक्षित है। इस समय इस में ३००० जैन एवं अजैन ग्रन्थ ताड़पत्राङ्कित तथा हस्त लिखित हैं। इन के अतिरिक्त छपे हुए जैन अजैन हिन्दी संस्कृत प्राकृत बंगला, कनडी, गुजराती महाराष्ट्री तथा अंग्रेजी आदि भाषा के प्रन्थों की संख्या ६००० के करीब है । "भवन" के उद्देश्यानुसार जैन ग्रन्थों की हो यहाँ अधिकता है। पिता जी अपनी अन्यान्य संस्थाओं के साथ साथ इस के लिये भी १५००) रु० सालाना आमदनी की स्थायी जागीर दे गये है जिस से इसका साधारण व्यय होता रहता है और सदा होता रहेगा ! कुछ दिन पहले मैं ने अपने पूर्व विचारानुसार एक ग्रन्थमाला निकालने का निश्चय किया तथा कार्यारंभ के लिये अपने पास से १९५०) रु० भवन को दिये। मेरी हार्दिक इच्छा है और मैं चेष्टा करूंगा कि इस ग्रन्थ-माला प्रकाशन का स्थायी प्रवन्ध सुगढ़ हो जाय। कई विद्वानों की राय पहले " श्रीमुनिसुव्रत काव्य " के प्रकाशन की हुई । मेरा विचार था कि जो भी ग्रन्थ प्रकाशित हों वे हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद के साथ हों परन्तु अभी अंग्रेजी अनुवाद का साधन नहीं मिल सका। हिन्दी अनुवाद इस संस्था के प्राचीन कार्य कर्त्ता–“भास्कर" के सहायक सम्पादक काव्य-पुराणतीर्थ पण्डित हरनाथ द्विवेदीजी सथा पुस्तकालयाध्यक्ष परिजन बी जी एन. ए. एन. के. बी. ने किया है। सम्पादन तथा संशोधन का कार्य भी दोनों मद्दाशयों ने मिलकर ही किया है। प्रथम प्रयास के कारण प्रकाशन में बहुत कुछ भूलों का होना संभव है और खासकर मेरे जैसे व्यक्ति के द्वारा जो इस विषय में अनुभव-रहित तथा इस भाषा से भी एक प्रकार से अनभिज्ञ ही हूँ । संस्कृत दाइपों में संयुक्ताक्षर की विरलता तथा कम्पोजिटरों की संस्कृतज्ञता के अत्यन्ताभाव से भी अशुद्धियों की अधिकता संभव है । पर यह ज्यों त्यों प्रकाशित होकर विज्ञानों की सेवा में पहुंच जाय, फिर उनके परामर्शानुसार दूसरे संस्करण में सभी सापेक्ष्य बातें सम्पन्न कर दी जायेंगी यही मेरा सदा लक्ष्य रहा । टीका में जितने कोषों का नाम-निर्देश किया गया है उन में से कई कोषों के अमुद्रित तथा अनुपलब्ध होने के कारण जहां तहां सम्पादक द्वय से सन्देह-निरसन नहीं हो सका है। श्र भवन की एक प्रति के अतिरिक्त मूड़वित्री के भरडर से केवल एक प्रति मिली थी जिस के लिये मैं मुड़विद्री के भट्टारक श्रीपण्डिताचार्य वारुकीर्त्ति जी और परिद्धत बड़ा ही आभारी हूं। इन्हीं दो प्रतियों के आधार पर इसका अधिक प्रति मिलने से परिचिन्मात्र जो दोष रह गया है बंद लोकनाथ शास्त्री जी का सम्पादन किया गया है। दूर हो जाता Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 4 [ ] अस्तु जो कुछ भी हो मेरा ध्येय यही है कि मैं अपने भावायों की किर्ति को अब भी सब के ऊपर देखें | मुझे तो पूरी आशा है कि विद्वानों की इस ओर खास दृष्टि होने से इस में सफलता अवश्य होगी | अन्त में मैं विज्ञान पाठकों से अनुरोध करता हूं कि इस ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प को अपनायेंगे और जो कुछ भी त्रुटियां हों उन्हें मुझ पर प्रकटित करने की कृपा करेंगे, जिससे आगे के प्रकाशन में मुझे सहायता मिले । इसके बाद मैं जैम-वैद्यक या जैन- ज्योतिष प्रन्थ के प्रकाशन के लिये अत्यन्त उत्सुक हूं और संभवतः प्रन्थमाला की दूसरी माला वैधक की रसमयी अथवा ज्योतिर्मयो मौकिक मनिका की पिरोयी हुई होगी । श्रीजिनवाणीका एक विन्न सेवक निर्मलकुमार जैन । मंत्री श्रीजैन सिद्धान्त भवन आरा । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रियं स वः श्रीवृषभो विशिष्यात् यस्यालिमालानृतवत्सभायाम् | भौ नतेन्द्रोकरमौलिनील- प्रभारलीलालितमब्जपीठम् ॥१॥ श्रीमद्देवेंद्रसंदोह र्हिणानंददायिने । नौमि दिव्यश्रव्यनिनादिनम् ॥ तस्य गर्भावतारा दपंचकल्याणशंसिनः । काव्यकाव्यस्य ये टी स्वभक्ततः ॥ r श्रियमित्यादि । यस्य आदिनाथस्य । सभायां समवशरणससि । नवेन्द्रोकर मौलिनीवनभावलीलालितं नर्मतिरूम नताः दन्ते परमैश्वर्यमनुमतनन्द्राः नता इन्द्रा सथोक्ताः तेषामुत्करः समूहः "पुज्जराशी नृत्करः कूटमस्त्रियां" इत्यमय तस्य मौलयः किरीटानि "चूडा किरीटं केशाश्च संयता मौलयत्रयः" इत्यमरः तेषु किरा नीलानि इन्द्रनील रानि तेषां प्रभाणां रुचीनां आवलिः श्रभिस्तया लालितं सेविनम्। अञ्जपठ अब्जी फसलेः उपलक्षितं पीठं तथांक अमादात् अलानां भ्रमराणां माला राजि: तया आतमाधेष्टितम् “मालमुन्ननभूलपक्तिपुष्पादिचामति" इति भास्करः तद्वत् " सुप इवे" इति वश्प्रत्ययः । बनो भातिस्म भादसो विट् । सः श्रीवृषभः वृषेण रात्रयात्मधर्मेण मातीति नृत्रभः "सुकृते वृग्भे वृपः" इत्यमरः श्रिया अंतरंगरंगलक्ष्म्या उपलक्षितो वृषभस्तथोक्तः श्रीमान्पुरुपरमेश्वरः । वः युष्माकं * "पदाद्वाक्यस्य" इत्यादिसा युष्मदः षष्ठीबहुत्वे घसादेशः । श्रियं संग्दम् पुण्यवतः पुरुषान् श्रयत्याश्रयतीति श्रीस्ताम् । विशिष्यात् विदध्यात् । शिष्लुविशेषणं लिङ । उपमालंकारः ॥ १ ॥ मा० भe - जिनके समवशरण में नम्र भूत इन्द्रों के मुकुट का नीलमणि से प्रदीप्त, अत एव भूमर पंक्ति से परिवेष्टिता कमलपोट शोभाशाली हुआ, ऐसे वे श्रीभादिनाथ तीर्थङ्कर इस "मुनिसुयत" काव्य के आप पाठकों के ऐश्वर्य की वृद्ध करें ॥ १ ॥ "विरामे वा " इति कातन्त्रीयशास्त्र या मकारस्यानुस्वारो कल्प्यमवलंब्य संजाताऽस .. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिमतकाव्यम् । चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गकान्ति ज्योत्स्नेति मत्वा द्रवतीन्दुकान्तः । चकोरयूथं पिबति स्फुटन्ति कृष्णेऽपि पक्षे किल कैरवाणि ॥२॥ चंद्रप्रभामित्यादि । यदंगवति यस्य जिनेश्वरस्य अंगस्य शरीरस्य कांति किरणं " गातिकोपायप्रविष्यप्रधानके" इति विश्वः 1 ज्योत्स्नेति चंद्रिकेति । मत्वा मननं पूर्व पश्चात्विविदिति मत्वा बुद्ध वेत्यर्थः । इन्दुकान: चंद्रकांतः। कृष्ण पक्षेऽपि । द्रवति सति स गती लाट । चकोरटूथं चकोराणां पक्षिविशेषाणां यूथं कुल तथोक्तम् । पिति पानं विदधाति पा पाने लटि । करवाणि कुमुदानि “सिते कुमुदकरवे" इत्यमरः । स्फुटति फिल "वार्तासंभाव्ययोः किल"इत्यमरः किलेत्यागमोक्तो यथाखमागमे भ्रूयते इति यावत् स्फुर विकसने लटि । यदंगवति ज्योत्स्नेति मत्वा करणे पशेऽपि क्लेिति च प्रत्येकमभिसंबध्यते । मिरर प्रानिय की बरसीशं ! नौमि स्तौमि। शु स्तुनौ लक्षुत्तमपुरुषः। भांतिमाघारः। २।। भा० ५०--कृष्ण पक्ष में भी जिसे चांदनी समझ कर चकोर पीते हैं, चन्द्रकान्त मणि द्रवीभूत होती है तथा कमल खिल उठते है ऐने परमौदारिक दिव्य देहा तियाले उन भाठर्ष तीर्थङ्कर श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी को नमस्कार करता है ॥ २ ॥ तमांसि हत्वा जगतः पदर्थान प्रकाशयन्तं यमिव प्रदीपम् । ननाश माहादभिपत्य काम: पतङ्गवच्छान्तिजिनं भजे तम् ॥३॥ तमासीत्यादि । तासि तिमिराणि । हत्या निवार्य । जपतः लोकस्य । पदार्थान् घटादिवस्तुनि । प्रकाशयंत प्रकाशयतीति प्रकाशयस्तं यातयंतं । प्रदीपमित्र प्रदीपयत् । समांसि भाानानि “शोकशानध्वांतगुणस्वर्भानुदुरितेषु तमः" इति नानार्थकोशे। हत्वा निहत्य । अगतः भुवनस्य । पदार्थान् । प्रकाशपंत ज्ञानेन प्रबोनयंत। यं जिनेशं । कामः मन्मथः। मोहान् अज्ञानात "मोहमिच्छति मू यामविद्यायां च सूरयः" इति विश्वः । पतइन्वात् पतंग इव शलमवत् । अभिपस्य पतित्या । ननाश अनश्यत् । नश अदर्शन लिटि। तं शांतिजिन। शमतात्पानित्याशास्यमानः शांतिः शांतिश्चासो जिनश्च सथोकस्तं पोदशतीर्थकर। भजे संथे। भज सेवायो लडात्मनेपदम् । श्लेषोपमालंकारः ॥ ३ ॥ मा० अ०--संसार के अज्ञानान्धकार को हटा कर अनन्तानन्त पदार्थों को प्रकाशित करते हुए जिन पर अशान से कामदेव स्वयं. दीपक पर पतंग के ऐसा गिर कर भस्म हो गया, उन्हो सोलवर्ष तीधर श्रीशान्तिनाथ जी की मैं आराधना करता ॥३॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। . अबोधकालोरंगलीटमृढ-मबूबुधद् गारुडरनवयः । जगत्कृपाकोमलदृष्टिपातैः प्रभुः प्रसद्यान्मुनिसुव्रतो नः ॥४॥ अबोधेति । य: स्वामी। अबोधकालोरगलोहमूद फालनासो उरगम तथोकः अवोध पर अज्ञानमेव कालोरगस्तथोक्तः रूपकालंकारः तेन लीढं तेन मूद मुग्ध बहिरामावस्थापन्न मूनिछतं च अधश अरोधकालोरगलोद च तत् मूढं चेति फसः। जगत् लोक। गारुडातवत् गरुडस्येदं गार नञ्च नद्रानं च तद्वत् विपापहारमणियत् । - सुधा सोपा अधिपति शाने णिचन्तालतुझ्। प्रभुः सः स्यामी । मुनिसुनतः मन्यते फेयलयानेन लोकालोकस्वरू थुध्यत इमि मुनिः शोमन अतं यल्यासौ सुनतः मुनिश्चासो सुनतश्चेति कसः। कृपाकोमलष्ट्रष्टिगतेः। दृष्टयाः पाताः व्यापार रुपयो अनुकंपया कोमलाः मृत्लास्तं च ते दृष्टिपाताच तैः "पातस्तु रक्षिते पतमे" इत्यादि नानार्थरखमालायां। नः अस्माकं "पदादाक्यस्य" इत्यादिना नसादेशः । प्रसवात् प्रसन्नो भूयातू पदुलाविशरणेत्यादी लिङ्। उपमालंकारः॥४॥ मा० म.--जो अज्ञानरूपी काल सर्प से उसे हुए इस पद संसार को विषापहारक गड़ मणि से चेननावस्था में लाये, वे बोस नथङ्कर श्रोमुनिसुव्रत प्रभु अपने सहज सौम्य दृष्टिपात-बारा हम सबों पर प्रसन्न हो ॥ ४॥ त्रासादिदोषोज्झितमुद्ध जातिम् गुगणान्वितं मौलिमणिं यथैव । वृत्तात्मक भावनयाभिगम कृतक्रियं मूनि दधामि वीरम् ॥५॥ त्रासावत्यादि। प्रासादिदोषोनिझतं वासः रेखा आदिर्येषां ते प्रासादयः "प्राखो. मिमणिदोषयोः" इति भास्करः ते च ते दोषाश्च तेजिझनोऽपणतस्तं । उप्रजाति उद्धा प्रशस्ता जातिः आकरजन्म यस्य त "कांडनुग्रनल्लो प्रशस्त पावकान्यपूनि, जातिसामान्यजन्मनोः" इति नाप्नरः। गुणान्वित गुगः विपापहाराविधमरन्वित युक्त "गुणस्स्वा. सिशब्दादिज्येन्द्रियामुख्यान्तुषु" इनि वैजयंता । वृतात्मक वृत्तं पर्तुल भदेव भात्मा स्वरूप यस्य तं। "वृत्तं पधे बरिने त्रिचनाते दृढांनस्तले" इत्यमरः। भावलयाभिराम मायाः कोते: "स्युः प्रभारुधिस्टियमा" इत्यमरः वलयः संहतिस्तेन अभिरामो भात. मानस्त "वलयः कंठरोगे स्याउलयं कंकणेपिव" इति विश्वः । कृतक्रियं कृता पिहिता क्रिया शाणोतले जनादिविधिर्यस्य ते । मोलिमणि चूडारले। यथैव यत्। वासाविदोषोज्झित त्रासो भयमावियेषां ते तथोक्ताः लज्झित उत्सृष्टस्तं। उद्घजाति उमा जाति: गोत्रं यस्य तम् । गुणान्वितं गुणः केयलमानादिभिरन्धित उपेतस्तं । प्रात्मक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिनुमतकाव्यम् । पृत्त चारित्र नदेव आत्मा स्याई यम्य है। भानल्याभिगम भारलयेन भामडलेन अमिरामो बिराजापारी कृतक्रिय यात्। स शिशितालमी राति दधाप्तीति पोरस्तं । "इकार उच्यते कामो लक्षारोकार उध्यो" इस्थेकाक्षरनिघौ। अंतिमतीर्थेश्वरं । मूनि मस्तके । दधामि दधे । धाङ्धारणे च सटि । मस्तकेन नमायामीत्यर्थः । श्लेषोपमा. कारः ॥ ५ ॥ मा० १०-प्रासादि दोषों से रहिन, भामण्डल से शोभित केवल ज्ञान-गुणयुक्त, उमवंशज तथा उत्तम चरित्रवाले कृत्य श्रीमहावीर स्वामी को रेखादि दोष-रहित उपर्युक्त विशेषण-विशिष्ट शिरोभूषण के बयान मैं मस्तक पर धारणा करता हूँ ५॥ स्वार्थप्रकाशिद्युतयोऽशरीरा: रत्नप्रदीपा इव मे वसन्तु । तमःप्रहाण्यै हृदि दीप्यमानाः कृातधिवासाः पवनान्तोऽपि ॥६॥ स्वार्थेत्यादि । स्वार्थप्रकाशिधु नमः स्वानि च अाश्च तथोक्ताः "स्वो शातापात्मनि स्वं विष्वात्माये स्वः स्त्रियां धने। अभिश्रेयवस्तु प्रयोजननिवृत्तिषु" इत्युभयत्राप्यमरः सान् प्रकाशात इतवं शाला स्मार्थप्रकाशिनी धनिः हानरकाशो येषा ते तथोक्काः। पवनांतर पवनस्य तनुशामस्म नरे मध्ये। शनाधिवासा अपि कृतो विहितोऽधिवासो निलयो येषां ते तथोकाः कृताभिठाना अपि । दीप्यमानाः प्रकाशमानाः। अशरीराः न विधाते शरीरं येषां ते तथोक्ताः सिद्धपरमेटिन: । म्बार्थप्रकाशिय नयः स्वपरप्रकाशकातयः। पवनांतरे वायुमथ्ये । कृताधिवासा पि विहिताश्नया अपि। दोप्यमानाः रनदीपाणां वायुमध्ये विद्यमानत्वेपि बाधकामावात दीप्यमानत्वमित्यर्थः रक्षादीपा इव । में मम ।। "तेमयायेकत्ये" इत्यस्मच्छन्दस्य मे इत्यादेशः। हृदि हृदये। तमःप्रहाण्ये तमसोऽझानस्य प्रकृष्टछानिस्तमःमहाणिस्तस्यै "नः" इनिरस्य : तमसो निरवशेषषिध्यसाय । "शोकाशानध्यांतगुणस्वर्भानुदुरितेषु तम:" इति नानार्थकोशे। वसंतु तिष्ठतु। षस निवास खोटि। श्लेषोपमालंकारः ॥ ६ ॥ - भा० ४०-वायुमध्यवों ग्नान्दीप के समान प्रकाशनशील तथा स्वपर-तत्व के पोसक, शरोर-रहित सिद्ध परमेटोगपा अशान विनाश के लिये मेरे हृदय में विराजमान हो॥६॥ . निराकृतान्तस्तमसो निषेच्या दिगम्बरैस्सन्ततवृत्तदेहाः । .... सुनिर्मलाः साधुसुधांशवो मे हरन्तु सन्तापमदृष्टपूर्वाः ॥७॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवमः सर्गः। निराकृतेति । निराकृतांतस्तमसः तिराकृत तिरस्कृतमतस्तमोऽज्ञानं गुष्ठाभ्यंतरतिमिर पा यैस्ते तथोक्ताः। दिगम्बरैः "अंबरं व्योनि वाससि इत्यमरः । तैः। निषेच्या: नितरां सेवितु योग्याः । संततवृत्तदेहाः संततमनवरतं वृत्तं पारित्रं पक्षे घर्तुलं तदेव घेहः स्वरूपमषपचो था येषां ते तथोक्ताः । सुनिर्मला: मलान्निर्गता: निर्मलाः सुष्ठु निमलाः सुनिर्मला: "मह पुरी पिच पापे व कृपणे मलः" इति विश्वः । भट्टष्टपूर्वाः पूर्वमष्टा दृष्टपूर्णः परिष्टसुधांशावद्गष्टार्थद्योतनादद्दष्टपूर्घत्वं । साधुसुधांशयः साधयोऽत्रसूर्युपाध्यायमुनयज्यस्त एव सुधांशयश्चंद्राः। रूपकालंकारः। मे मम | संतापं संसारतापं तपनतापश्च। परंतु अपहरन्तु इहरणे लोटि। संकरालंकारः ॥ ७॥ भा० अ-भीतरी अ६/को हटानेवाले, मुनियों को न्य जानकारिमाक देहवाले अत्यन्त निर्मल तथा अलौकिक जो सूरि,उपाध्याय और साधु रूप चन्द्रमा है ये मेरे सन्ताप को दूर करें ॥७॥ रत्नत्रयात्मा सुचिराय धर्मः सार्थेन नाम्ना महितः स जीयात् । यो धारयत्यच्युतधाम्नि मग्नानुद्धृत्य सत्वान् भववारिराशेः ॥८॥ खप्रयेति । यः धर्मः । मन्नान् मजतिस्म मग्नास्तान । सत्वान् जीयान् । भववारिराशे; वारीराशिः धारिराशिः मघम्संसारः स एव वारिराशिस्तथोक्तस्तस्मात रूपकासंकारः। उतत्य अपनीय। अच्युतधानि न फयुवत इत्यच्युतं नित्यं तच तत् धाम स्थान स तस्मिन् मोक्षपद इत्यर्थः "गृहदेहस्विट्प्रभावा धामानि" इत्यमरः । धारयति स्थापयति धृ धारणे णितालट् । सः रक्षात्रयाटमा रक्षामीत्र समीहितफलत्वात् रक्षानां प्रय तथोक्तं तदेव आत्मा स्वरूपं यस्य स तथोक्तः । अयमपि भएकः। सान अर्थेन सह वर्तत इति सार्थः तेन। नाम्ना अभिधानेन । महितः दीर्घकालं महातेस्म महितः । धर्मः। मुखिराय "चिराय चिररात्राय विरस्याघधिरार्थकाः" इभिधानाठ्ययं । जीयात् सर्कस्कर्षेण पर्सताम् "सर्वोत्कर्षे स्थकर्मा स्याद्विजये तु सकर्मकः" इति वचनात् । जि अभिमये लिख ८॥ मा० १०-गिरे हुये जीवों का संसार समुद्र से उद्धार कर मोक्ष में प्रवृत्त करानेवाले रतत्रयात्मक धर्म अपने सार्थक नाम से पूजित होता हुआ चिरफाल तक जपशील होवे ॥ वीरादिव क्षीरनिधेः प्रवृत्ता सुधैव वाणी सुधिया कलश्या । विधृत्य नीता विबुधाधिपैर्मे निषेविता नित्यसुखाय भूयात् ॥९॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुनतकाव्यम् । बोसदिशेस्पाधि । क्षोरनिधेरिव क्षीराणि निधीयतेऽस्मिन्निति मीरार्णा निधिरिति वा सोनिभिसम्मानिय । वीरान सामानम्याग्निः सकाशात् । प्रवृत्ता अवतीर्णा : विशुपापित विबुधानामधिपाम्तैः सुरेंद्र गणेन्द्र श्च विषुधः पंडिते देवे" दिल विश्वः । सुश्थिा शोभना धीस्सुधोस्तया सम्यग्ज्ञानेन। फलश्या अल्पः कलशः फलशी तया। पित्य विधरणं पूर्व पश्चात्किमिदिति विधस्य उभित्वा । नीता नीयतेस्म नीता प्रापिता सती। निषेविता नितरां सेविता भागधिता च । सुधेव अमृतमिध "सुधामृतस्तु. हीमूर्धालेगपाष्टिकासुच" इति विश्त्रः । धाणी सरस्वती। में मम । नित्य सुखाय अनन्तसौख्याय । भूयात् भवतु । भू सत्तायां लिट् । दुग्धाब्धौ सुधासमय इति लौकिकी कदिः। उपमालंकारः ॥il ___ भा० अ-क्षीरसमुद्ररूपो श्रीमहावीर तीर्थङ्कर से निकली हुई तथा सुयुनिकर कलश से देवेन्द्रों के से गणधर्टी के द्वारा लाकर सेवित हुई सुधाकपिणी सरस्वती मेरे अनन्त सुख की सम्पादिका होघे । 10 भट्टाकलंकाद् गुणभद्रसूरेः समन्तभद्रादपि पूज्यपादात् । वचोऽकलंक गुणभद्रमस्तु समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ॥१०॥ भहाकलंकेति । मम अर्हद्दासनाम्नः कयैः। वचः वचनं एनल्काव्यमित्याशयः । महाकलंकात् भदृश्शासावकलंकश्च भट्टाकलंकस्तस्मात् भट्टाफलंकस्वामिनः प्रसादात् । भकलंक न विद्यते कलंक श्रुनिकट्वादिरूपं कल्मषं यस्य तस्। अस्तु भवतु अस भुषि लोट् । गुणभद्रसूरे: गुणभद्रश्चासौ सृरिश्च तस्मात् गुणभद्रस्वामिनोऽपि । गुणभद्र गुणः सौकुमार्यादिभिभद्र मंगल दूद वा। अस्तु भवतु । समंतभद्रात् समंतभद्रस्खा मिनः। समतभद्र' समंतात्सर्वतः भद्र भंगलं यस्य तत् "भद्र स्यान्मंगले नि पुस्तके करणांतरे। भद्रो रुद्र वृषे गमचन्द्र मेहकदंबयोः। हस्तिज्ञास्यन्तरे भद्रो वायव ष्ठसाधुनोः" इति विश्वः समंतशब्दोऽत्राभिहितसाकल्यमातनोति । तस्मालक्षणरीतिरसालंकारादिसुन्दरमिति भावः । तथा चोक्त चन्द्रालोके–'निर्दोषा लक्षणवती सरीतिणभूषिता । सालंकाररसानेकवृत्ति काध्यनाममा। पूज्यपादात् पूज्यौ पादौ चरणौ यस्य स तस्मात। पूज्यराद पूज्यः सत्पुरुषैः पद्यते प्रतिपद्यत इति पावमुपादेयं । . मस्तु भवतु । यथासंख्यालंकारः ॥१॥ मा० अ०–मेरा यह "श्रीमुनिसुव्रत काध्य" भट्टाकलाई स्वामी की कृपा से निष्कलंक, गुणभद्र सूरि की कृपा से सौकुमार्यगुणयुक्त, श्रीसमन्तभद्र के प्रसाद से सर्वत्र मंगलमय तथा पूज्यपाद स्वामी की कृपा से सजनों से मामनीय होवे ॥१०॥ . . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीराकरोत्थं मुनिसार्थनीतं कथामणि श्रीमुनिसुव्रतस्य । सुवर्णदी नवयुक्तिरम्यं विदग्धकर्णाभरणां विधारये ॥११॥ वीरात्यमिति । वोराकरोत्थं वीरः सम्मनिस्वामी स एवाकरः खनित्तस्मात् "नि: त्रियामाकरः स्यात्" इत्यमरः उत्तिष्ठतिस्म उत्थ उत्पन्नस्तं रूपकालंकारः । मुनिसार्थमीसं "सार्थी वणिक्समूह मुनयो गणधराव्यस्त पत्र सार्थो वणिग्भिवहस्तेन नीत आनोतस्तं स्वादपि संघातमात्र” इति विश्वः । सुवर्णदीध शोभनानि वर्णानि तैरक्ष: "वर्णो द्विजा. दो शुक्लादौ स्तुतौ चणं तु वाक्षरे" इत्यमरः पक्षे सुवर्णेन हिरण्येन दीप्र दोषत इत्येवं शोलो दीद्रः प्रकाशनशोलस्तं नमूकम्पजसित्यादिना शीलार्थे रः । नवयुक्तिरभ्यं नवा नूतना युक्तिः सुङ्खिादिसंदर्भस्तया रभ्यः श्रतिसुभगस्तं नयनोपायबंधुरं च । श्रीमुनिसुखतस्य श्रिया उपलक्षितो मुनिसुव्रतस्तस्य तीर्थंकरस्य । कथामणि कथंत्र मणिस्तं गर्भाषतारादिकथा "रत्नं मणि योरश्मा मुदकेऽति न" त्यापरः । विदग्धकर्णाभरणं विदग्धानां विदुषां चतुराणां च कर्णयोः श्रोत्रयोराभरणमलंकारं । विधास्ये करिष्ये । सुधाकारणें । लडुत्तमपुरुषः ॥ ११॥ 1 मा० भ० – महावीरस्वामिरूप आकर से उत्पन्न हुई, गणधररूपी व्यापारियों से लायी हुई, नई युक्तियों के कारण रमणीय, वर्णसौष्टवसम्पन्न तथा विज्ञों के श्रवणभूषण- तुल्स श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की रजकीसो कथा मैं करूंगा ॥ ११ ॥ सरस्वती कल्पलतां स का वा संवर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । विमुच्य काञ्जीरतरूपमेषु व्यारोपयेत्प्राकृतनायकेषु ॥ १२ ॥ I सरस्वतीत्यादि । सरखतीकलालतां कल्पयति विद्याति वांछितमिति कल्या सा चासो लता व कालना कल्पस्य लतेति घा तथोका सरः प्रसरणमस्या अस्तीति सरस्वती घ कल्पलता तां । संघयिष्यन् वृद्धि निवेशयन् । जिनपारिजातम् जिन एव पारिजातः कल्पवृक्षस्तं "मंदारः पारिजातकः" इत्यमरः । विमुच्य परित्यज्य । कांजीरतरूपमेषु कांजीरraat aave तस्योपमास्समानास्तेषु त्रिषवृक्षसमानेषु । प्राकृतनायकेषु प्राकृताश्व ते मायकाय तेषु " प्राकृतश्च पृथग्जनः" इत्यमरः “नायको नेतृरिष्ठे हारमध्यमणावपि" इति विश्वः अधम मनेष्वित्यर्थः । सको वा को वा पुरुषः । व्यारोपयेत् अचलंघयेत् रुह बीजमिलिट् । न कोपि सुधीरित्यर्थः । किन्तु सरस्वतीकल्पकतां संवर्धयिष्यन् पारिजातमेष व्यारोपयेदिति भावः ॥ १२ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगिजातका नम्। भा० ०-सरखतीरूपिणी कल्पलता के माधारभूत जिन-कल्पवृक्ष को छोड़कर कौन से विज्ञान उन्हें विष वृक्ष के समान अधम नायक का अवलम्बन फरायंगे। अर्थात् फल्पलतिका विष वृक्ष का तिरस्कार कर जिस प्रकार कल्पवृक्ष का आश्रय लेती है वैसे ही श्रीजिनयाणो अधम नायक की उपेक्षा कर श्रीजिनेछ भगवान् का ही आश्रय लेती है ॥१२॥ गणाधिपश्यैव गणेयमेतत् भवामि चोधन्भगवच्चरित्रे। भक्तीरितो नन्वगचालनेऽपि शक्तो न लोके ग्रहिलो नलोकः ॥१३॥ गणाधिपस्येत्यादि । एतत् चरिनं। गणाधिपस्यैघ गणानां द्वादशगणानामधिपः 'प्रभुः गणधरस्तस्यब। गणेयं गणितुं योग्य तथोक मितुं योग्यं । भकीरितः भवस्या गुणानुगगेण ईरित: प्रेरितस्सन् । भगयच्चरित्रे भगवतो मुनिसुव्रतस्वामिनः चरित्रे कथायां । उद्यन उद्यतश्च । भवामि अस्मि भू ससायां लट् । तथा हि-लोके भुवने । अहिल: पिशचपीडितः। लोकः जनः । अगवालने पर्वतकंपो। उधन उद्यतः सन् । मशकोविन समर्थश्चेदपि । अगवालने न गच्छतीत्यगः वृक्षस्तस्य थालने कंपने । "शैलवृशौ नगावगौ” इत्यमरः । न शक्तो ननु न .समर्थो न भवति ननु अपितु समर्थ पव। "बौ नत्रौ प्रकृतमय गमयते "शिवनात साधारणहानुनयामंत्रणे ननु" इत्यमरः । एतत्त्वरित्रमाहात्म्यसर्वस्वं वर्णयितुं भकीरितस्सन उद्यन्नपि यथाशक्ति वर्णयिप्यामीति भावः । अर्थातरन्यासः ॥ १३ ॥ भारगणधरों से वर्णनीय इस भगवच्चरित्रमय फाध्य की रचना करने के लिये मैं भगवद्भक्ति से प्रेरित होकर प्रयास करता हूं। क्योंकि, पिशावग्रस्त प्राणी पड़े २ पर्वतों को भी कम्पित करने में समर्थ हो जाता है। उसो प्रकार चान्नान-साध्य भी यह कार्य भाल्पश होता हुआ भो मैं भगवक्ति थल से ही सम्पन्न करने में समर्थ हूंगा । ॥ १३ ॥ मनः परं क्रीडयितुं ममैतत्काव्यं करिष्ये खलु बाल एषः । न लाभपूजादिरतः परेषां न लालनेच्छा: कलमा रमन्ते ॥१॥ मम इत्यादि । बालः बालकः । “बाल: फचे शिशौ मूर्ख होवरे श्वेभपुच्छयोः" इति विश्वः अल्पबुद्धिरित्यर्थः । एषः प्रत्यक्षभूनोऽहमईहासः ! "स्वस्मात्परोक्षानर्देशागमको मददैन्ययोः इति वचनात् स्वस्थानौद्धत्य सूच्यते। मम मे। मनः चित्तं। पर अधिक। कोयितुं संतोषयितुं । एतत् इदं । काय कवेर्भावः कृत्यं वा काव्यं मुनिसुव्रतस्यामिचरित्र । बलु स्फुटं। फरिष्ये विधास्ये। बुझा करणे सुकुचमपुरुषः। परेषी लोक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः । जनानां । लाभपूजाविरसः लाभध पूजा व लाभपूजे ते माविर्वेषां तेषु रतः प्रीतस्तथोक्तः सन्। म करिष्ये न विधास्ये। तथा हि कलमा कारपोताः कलमः काशाव:' इत्यमरः । परेषां अन्येषां। लालनेच्छाः लालने संतोषकरणे इच्छा अभिलाषो येी ते तथोक्तास्संतः । न रमते न कोडंति । रमु कोडायां लट् । किंतु स्वेच्छयैव रमन्त इत्यर्थः अनेन कचिनाह. पद्धकतिप्रकर्षस्सूच्यते । अर्थान्तरन्यासः ॥१४॥ मा० १०- मैं अहवाल अपना मनोरन्जन करने के लिये ही इस काव्य का प्रणयन फरूंगा, नकि दूसरों से सम्मान पाने की इच्छा से। क्योंकि हाथी के बच्चे अपने मनकी उमंग से ही कलोल करते है नकि दूसरों को प्रसन्न करने की अभिलाषा से ॥१४॥ श्रव्यं करोत्येष किल्ल प्रबन्धं पौरस्त्यवन्नेति हसन्तु सन्तः । __ किं शुक्तयोऽद्यापि महापगऱ्या मुक्ताफल नो सुबते विमुग्धाः ॥१५॥ श्रष्यमित्यादि । एषः अथमईहासः । श्रयं श्रोतुं योग्यं श्रव्यं विद्विराकर्णनीयं । प्रबंध काव्यं । करोति किल विदधाति किल "वार्तासंभाव्यया:किल" इत्यमरः। पौरस्त्यवत पुरोभवाः पौरस्त्यास्त इच पौरस्त्यवत् पूर्वकायय इव । नेति न फरिष्यतीति अथवा पुरोभवं पौरस्त्यं तदिव नथोक्त पूर्वकाव्यमिव "दक्षिणपश्चात्पुरस्त्यक् “तस्याहे कृत्ये वत्" इति घर । नेति नभविष्यतीति । संत: सत्पुरुषाः । हसन्तु हास्यं कुर्वन्तु हस् हसने लोट् । तेषामहं न प्रतिभट इत्यर्थः । विमुग्धाः भो विमूढ़ा “मुग्धो मूढो जडो नेडो मूको मूर्खश्च कद्वदः" इति धनंजयः यूयं हसनेत्यध्याहियते। शुक्तयः मुक्तस्फोटा: “भुक्तास्फोटः स्त्रियां शुक्तिः" इत्यमरः महापरायं महञ्च तत् पराध्यं च नथोक "परााग्रप्राग्रहरणाप्रयाग्रयानीयमप्रियम्" इत्यमरः अनध्यमित्यर्थः । मुक्ताफले मुक्तायाः फलं तथोक्त'। अद्यापि अस्मिन्कालेऽपि । नो सुवते कि नोत्पादयन्ति किं पङ प्राणिगर्भविरोचने लट् । अपितु जनयंत्येव अर्थान्तरन्यासः ॥१५॥ भा० अ०-मैं अहहास इसे श्रव्य काव्य बनाता है। पूर्व कवियों कासा यह प्रबन्ध माहीं होता है, इसके लिये सजनगण मुझे भले ही हँसे; पर यह निश्चित यात है कि, जड़ तथा तुच्छ सीप आज भी अमूल्य मोती को पैदा करते हैं । अर्थात् मैं अल्पज्ञ है तो भी सहृदय विज्ञ मेरे इस तुच्छ काव्य से नाविक बातें निकाल सकते हैं ॥१५॥ प्रबन्धमाकगर्य महाकवीनां प्रमोदसायाति महानिहैकः । विधूदयं वीक्ष्य नदीन एव विवृद्धिमायाति जडाशया न ॥१६॥ प्रबंधमित्यादि। इछ अस्मिन्निए अमुस्मिन् भुवने । एकः । महान् कोपि महापुरुषः । महाकवीनां महातच ते कचयश्च तथोक्तास्तेर्षा । प्रबंधं काव्यं । आकर्ण्य श्रुत्वा । प्रमोद Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सुनिसुव्रतकाव्यम् । संतोषं । आयाति प्राप्रति या प्रापणे लट् । तथाहि न दीन एव नदीन: अलुक्समासः । सत्पुरुष एव इति ध्यानः पक्षे नदीनामिनः प्रभुः समुद्रः "इनः सूर्ये प्रभो" इत्यमरः स एव । विधूचयं विधोश्चंद्रस्योक्ष्यमुत्पत्ति । वीक्ष्य आलोक्य । विदिसमृद्धि'। भायाति भागमछति। जडाशया: जड भाशयोऽभिप्रायो येपो ते तथोक्ता मंदबुद्धय इति ध्वनिः "आशयः स्यादभिप्राये मानसाधारयोरपि" इति विश्वः पक्षे अलान्याशेरते ऐष्विति जलाशयाः "जलाशयो जलाधाराः" इत्यमरः । न यांति विवृद्धि न गच्छन्ति। यमकश्लेषचित्रेषु पषयोईलयोर भेदः" इति बबनात् जडाशया जलाशया इत्युभयत्रापि श्लेषरूपेणान्वयः अर्था तरन्यासः ॥१६॥ ___ भाषा टो---चन्द्रोदय होने पर समुद ही उन्दोलित होता है, नकि छोटे २ जलाशय । उसी प्रकार महाकवियों का प्रबन्ध देखकर विज्ञ ही सन्तुष्ट होते हैं कि जड़ाशय १६॥ उपेक्षितारोऽपि फलन्त्यनिष्टाभीष्टानि यद् दुर्जनमज्जनास्तत् । वृथा कृता विश्वसृजा श्रमाय विषद्रुकल्पद्रुमयोहि सृष्टिः ॥१७|| उपेक्षितार इत्यादि। दुर्जनसजनाः दुष्टाः जना दुजेनाः संतो जनास्सजनाः दुर्जनाश्च सजनाश्च तथोक्ताः । यत् यस्मात्कारणान् । "यत्तद्यतस्ततो हेतो" इत्ममरः । उपेक्षितारोऽपि उदासीनं कुर्वन्तोऽपि किंपुनम्नतिपादनागिण्या भल्याण मन: । अभिशापोटानि न इष्टान्यनिष्ठानि तानि च तान्यभोटानि च तथोक्तानि अहितहिनानि । फलति निष्पादयति फल निष्यतो लट् । नत् तस्मात कारणात् । विषदकल्पदुमयोः विषरूपोद्र वृक्षस्तथोक्ता "पलाशिदुदुमाः" इत्यमरः कल्पश्चासौ दुमश्च कल्पस्य दुम इति वा तथोक्तस्तयोः विषवृक्षकल्पवृक्षयोः । सृष्टिः निर्माणं । विश्वराजा ब्राह्मणा "विधाना विश्वस विधिः" इत्यमरः । पृथा व्यर्थं । "वृधानिरर्थकाविध्योः" इत्यमरः । श्रमाय आयासाय । कृता विहिना। विषवृक्षकल्पवृक्षयोः पत्यं दुर्जनसजना एवं कुर्वतीति भावः। अत्र ब्रह्मयाः सृष्टिः कवितासमयेन कथ्यते ॥१७॥ भा० अ०-सज्जन, बुर्जन तथा उदसीन प्राणी भी जब किसी के कार्य में हिताहित कर ही बैठते हैं, तब मैं समझता है कि ब्रह्मा ने विषवृक्ष तथा कल्पवृक्ष की व्यर्थ ही सृष्टि की। अर्थात् सजन और दुर्जन ये दो महाशय' ही इन वृक्षों का कार्या-सम्पादन कर देते हैं ॥१७॥ सन्तः स्वभावाद् गुणरत्नमन्ये गृह्णन्ति दोषोपलमात्मकीयम् । यथा पयोऽस्त्रं शिशवो जलौका: जनो वृथा रज्यति कुप्यतीह ।।१८॥ संत इत्यादि । यथा । शिशवः बालकाः । जलौका: रकपाः "रक्तपास्तु जलौकायाम्' स्यमरः । पयः क्षीर। "पयः क्षीरं पयोऽम्बु"चत्यमरः । अन रक्ता घिरेऽसग्लोहिताकार Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। कक्षतजशोणिसम्" इत्यमरः । गृह्णन्ति स्वोकुर्वन्ति ग्रह उपादाने लटि। तथा सन्तः ये सत्पुरुषाः । स्वाभावात् निसर्गात् । आत्मकीय आत्मन इदमाश्मकीयं स्वकीर्य । गुणरत्न गुण एव गन्न गृह्णन्ति । अन्ये दुर्जनाः। मारमकोय स्वकीयं । घोषोपलं दोष पोपल: पाषाणस्तै “पाषाणप्रस्तरमावोपलाश्मानः" इत्यमरः। गृहन्ति :भाददते। इह लोके । जनः लोकः। वृथा व्यर्थ । रज्यति तुष्यति । कुप्यति रुष्यति रजि रागे कुप क्रोधे लटि। सदसतोस्तत्स्यमावत्वात्तयोस्तोषरोषा विशेष न साधयत इति माघः ॥ १८॥ TITA-जिस प्रकार स्तन में लगे हुए लड़के दूध तथा जोंक खून पीते हैं उसी प्रकार सजन स्वभाव से ही गुणग्राही तथा दुर्जन दोषग्राही होते हैं। इस विषय में लोगों का प्रसन्न अथवा अप्रसन्न होना व्यर्थ सा ज्ञात होता है ॥ १८॥ तिक्तोऽस्ति निम्बो मधुरोऽस्ति चेञ्जः खं निन्दतोऽपि स्तुवतोऽपि तद्वत् । दुष्टोऽप्यदुष्टोऽपि ततोऽनयोमें निन्दास्तवाभ्यामधिकं न साध्यम् ॥१९॥ तिक्तोऽस्तीत्यादि । निम्यः निम्बवृक्षः। “पिघुमन्दस्तु निम्बः" इत्यमरः । स्व आत्मानं । निन्दतोऽपि निन्दतीति निन्दन् नम्यापि निक्तः । स्तुत्रतोपिस्तौनीति स्तुवन् नस्यापि स्तुति कुर्वतोऽपि तिक्तः तिक्तरसोपेतः । अस्ति वर्तते । नुश्च रसालोऽपि । स्वं निन्दतोऽपि स्तुवतोऽपि । मधुरः मधुररसयुक्तः । अस्ति भवति । दुष्टोऽपि तुर्जनोऽपि । अदुष्टोऽपि सजनोऽपि तद्वत् नाविव निम्बेक्षुवृक्षौ इव! मधं निन्दनोऽपिस्तुवनोऽगि अनिष्टेष्टफलं प्रकाशेत इत्यर्थः । ततः तस्माद्ध नोः। अनयोः सज़जदुर्जनयोः । निन्दास्तवाभ्यां निन्दनस्तयनाम्यो । मे मम वधिक बहुलं । साध्य फल न नास्ति ॥ १६ ॥ भाषा दी०-जिस प्रकार अपनो प्रशंसा नथा निन्दा करनेवालों के लिये भी नीम तीती तथा ईस्व मोटो बनो रहता है, उसी प्रकार सजन और दुर्जन हैं। इनकी स्तुति अथवा मिन्या से मेरा कुछ साध्य सा नहीं दोस्त्र पड़ता ॥ १६ ॥ यहगर्यते जैनचरित्रमत्रमत्र चिन्तामणिभव्यजनस्य यच्च । हृद्यार्थरलैकनिधिः वयं मे तत्काव्यरत्नाभिधमेतदस्तु ॥२०॥ यदित्यादि। यह जनचरित्र जिनस्येदाने तब तत् चरित्रं च तथोक्त' । अन्न अस्मिन् काव्ये । पर्यते स्तूयते वणे वर्णक्रियादौ फर्मणि लटि । यच चरित्रं । भव्यजनस्य रजत्रयाधिर्भपनयोग्यो भव्यः स चासो जनश्च तस्य विनेयजनस्य । चिन्तामणिः चिन्तितार्थप्रधानो मणिस्तथोक्तः नियतलिंगस्वात्पुंल्लिङ्गः । स्वयं स्वरूपेण। धार्यरत कमिभिः सदयस्य प्रियः इधः "हृदयस्य दयालाइति यदस्य यणि प्रत्यये हवादेशः । घमासावर्थोऽभि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । प्रायस्स च तथोक हृद्यार्थ पर रखानि तेषामेको मुख्यः स चासो मिभिश्च तथोक्तः “एके मुन्धाग्यकेवला:" इत्यमरः । मे मम । सदेतत् काव्यं । काव्यरक्षाभिधं काव्यानो रणमिव काव्यरसमित्यभिधा अमिधाम यस्य तत् काव्यरताभिध। अस्तु भवतु अस् भुषि लोट् ॥ २० ॥ भा० प्र०—इस काव्य में मैं जिस जिन-चरित्र का वर्णम करता हूं, वह भषिकों के लिये चिन्तामणि और सुन्दर अभिप्राय रूपी रन की एकमात्र निधि है, अतः यह मेरा प्रबन्ध काव्यरत नाम से प्रख्यात हो ॥२०॥ यस्थापन नाम भुवञ्च कालं द्रव्यञ्च भावं प्रति षट्प्रकाराः । स्तुतिर्जिनस्य क्रियतेऽत्र तरमात् काव्यं ममैतत्स्तुतिरेव भूयात् ॥२१॥ यवित्यादि । यत यस्मात्कारणात् । अत्र काव्ये । स्थापना स्थाप्यते स एव देव इदं प्रतिविचमिति स्थापना वर्णप्रमाणसंस्थापनादिभिः प्रतिमा नदालयादि प्रशंसन नाम जिनतजनभोजनकाभिधानं तम्नामनियर्चनं च । भुवा जिन जन्मादिक्षेत्रं । चशब्दः समुष्टयार्थः । काले जिनोत्पत्तिप्रमुखकाले इल्यं च जिनजन्मसूचकस्यमादि द्रव्यं च । भायात्र केवलशानादिगुणे प्रति भावमिति च "प्रतिपयनुमिः" इति द्वितीया । षट् प्रकारा भेदा यस्याः सा "प्रकारो पाये । जिला अतिः । जुलि भगोत्र। क्रियते विधीयते तथैवागमश्च श्रयते । स्युनामस्यापनाव्य-क्षेत्रकालाभयास्तवाः । व्यवहारेण पञ्चार्थादेकोभावस्तघोऽईताम्' इति । तस्मात्कारणात् । मम । तत्काव्यं । स्तुतिरेव स्तोत्रमेव । भूयात भवतु । भू ससायां लिख ॥ २१॥ भा० ०-इस काव्य में जिन-स्थापन, जिन-नाम, जिन-जन्मादिक्षेत्र, जिन केवल हानादि गुण, जिनोत्पत्तिकाल तथा जिनजन्म-सूचक स्वप्नादि छ: प्रकार की स्तुति की जाती है, इस लिये मेरा यह काव्य हो स्तुतिमय हो । २१॥ अथारित जम्बृविटपिच्छलेन द्वीपेषु गर्वोन्नतमस्तकस्य । हीपस्य भर्माभरणेऽत्र खण्डे रत्नायमानो मगधाख्यदेशः ॥२२॥ अथेत्यादि । अथ पीठिकानंतर “मंगलानंतरारंभप्रश्नकारन्ये वधो अध" इत्यमरः । वीमेनु । प्रविषिच्छन विटयोऽस्यास्तीति विटपी वृक्षः विटपी फलिनो नगः" इति धनंजयः। जंबूरिति लिटणी तथोक्तः स इति छलं व्याजस्तेन। "पदं व्यतिकर छल" इति धनंजयः । गर्वोनस्तवस्य गर्योणोन्नतो मस्तको यस्य तस्य । उत्प्रेक्षा । द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य । भर्माभरणे भर्मणा निर्मितमाभरण तथोक्त भर्माभरणमिव भर्माभरणं तस्मिन् Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः । अत्र अस्मिन् खण्डे आर्यखण्डे। रत्नायमानः रक्षमित्र आचरतीति रमायमानः । उपमा । मगधायदेशः मगध इत्याख्या नाम यस्य स तथोक्तः स चासौ देशश्च तथोक्तः । अस्ति वर्तते । संकरालंकारः ।। २९॥ भा० अ०---जम्बूवृक्ष के कारण सभी द्वीपों में अभिमान से उन्नत मस्तकवाले, जम्बूद्वीप के स्वर्णभूषा-तुल्य आर्यखण्ड में रत्न के समान एक मगध नामक देश है। २२ । यद्धरा भूतलसेव्यपादा भूपा इवाक्रान्तदिगन्तरालाः ।। इन्दन्ति मत्तद्विपकैरवाक्षिकस्तूरिकाकाञ्चनरत्नखड्गैः ॥ २३ ॥ यदित्यादि । भूतलसेव्यपादाः भुवस्तलं भूतलं तेन सेव्याः संबद्ध योग्याः पादाः प्रत्यन्तपर्वतामूलतलं वा येशं ते तथोक्ताः पक्षे "तात्स्यात्तन् यपदेश” इति भूतलेन भूजनेन संव्याः आराधयितुं योग्याः पादाश्चरणा येषां ते तथोक्ताः । “पादो व्रध्ने तुरीयांशे शैलप्रत्यंतपर्वत।चरणे च मयूखे च" इति विश्वः। आक्रान्तदिगन्तराला: दिशा ककुभामन्तरासमभ्यंतर आक्रांत याप्तं दिगन्तराल यस्ते तथोक्ताः । यद् घराः यस्य मगधदेशस्य भूधराः पर्वताः । मत्तद्विपकरवाक्षिकस्तूरिकाकांचनरतखड्गः मत्ताश्च ते द्विपाश्च मस्तद्विपाः रघमिव अक्षिणी यासां ताः फैरवाक्ष्यः मत्तद्विपाश्च करवाक्ष्यश्च कस्तूरिकाः कस्तूरिकामृगाच कस्तूरी च कांचना: राजवृक्षाश्च कांचनं स्वर्ष' च रत्नानि च खड्डाः खनिमृगा सयश्च तथोक्तास्तः। उपमालंकारः। "काञ्चनः कांचनारस्याच्चपके नागकेसरे उदुघरे च पुन्नागे हरिद्रायां च काञ्चनी । कांचनं हेन्नि किंजल्क" इति। खड्नगंडकङ्गासिवुद्धभेदेषु गंडक' इति च विश्वः। भूपा इन्च राजान इव । दन्ति परमैश्वर्यमनुभवन्ति । इतु परमैश्वर्ये लड़। उपमालङ्कारः ॥ २३ ॥ __ भा० ०–सभी दिशाओं में व्याप्त तथा पृथ्वी के अन्तस्तल-प्रदेश में जिन के पैर अड़े हुए हैं, ऐसे मगधदेश के पर्वत मतवाले हाथी, करवाक्षी, कस्तूरीमृग, और खड्गमृग से ऐश्वर्यशाली होते हुए अन्यान्य राजाओं के समान शोभते हैं। ॥२३॥ नगेषु यस्योन्नतवंशजाता: सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः । भव्या भवन्त्याप्तगुगणाभिरामा मुक्ता; सदा लोकशिरोविभूषाः ॥२४॥ नगेम्वित्यादि । यस्य मगधदेशस्य । नगेपु न गच्छन्तीति नगाः तेषु । “शलवृक्षौ नगावौ” इत्यमरः । उन्नतवंशजाताः उन्नता महान्तः संशा बेणवोऽन्वयाश्च "वंशो धेणी फुले पर्गे पृष्ठस्याययवेऽपिय" इतिविश्वः । उन्नताश्च ते वंशाश्च तथोक्तास्तेषु जायन्तेस्म तथोकाः। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । सुनिर्मला: मलात् त्रासादिरूपानिर्गता निर्मला: पक्षे मलादर्शनमोहनीयान्निर्गता निर्मला: सुष्टु निर्मला सुनिर्मलाः । विश्रु तवृत्तरूपाः विश्रुतं प्रसिद्ध तश्च तत्वृत्तं चतुलं च तथोक्त' तदेव रूपं यासा तास्तथोक्ताः पक्षे विशिष्ट श्रुतं विश्रुतं शुतज्ञानं तश्च वृत्तं चारित्रश्च विशु तवृत्त ते गएच रूपं स्वरूपं येषां ते तथोक्ताः । भव्याः तारादिगुणाविर्भवनयोग्याः भव्याः शुभरूपाः पक्षे रत्नत्रयाविर्भयनयोग्याः भव्या: विनेयाः। आप्तगुणाभिरामाः आप्यतेस्म प्राप्तः प्राप्तः स चासौ गुणस्तन्तुथ तथोक्तस्तेन अभिरामाः शोभमानाः पक्षे "इहाप्यते तत्त्वमुत्सया भवभ्रमोत्थदुःखापनिनीषया धुधः। अनन्तसौख्यामृतमोक्षलिप्सया निरुच्यतेऽन्वर्थतयाप्त इत्यसो" इति वचनादाप्तस्सर्वज्ञस्तस्य गुणाः क्षायिकसम्यक्त वादयस्तैरभिरामाः। मुक्ताः मौक्तिकानि पक्षे मुक्ताः मुक्तिमापन्ना: "मुक्ता तु मौक्तिक मुक्तः प्राप्तमुक्त च मोचने" इति विश्वः। सदा सर्वस्मिन् काले । लोकशिरोविभूपाः लोकानां जनानां शिरांसि मस्तकानि तेषां चिभूषाः भुषणरूपाः पक्षे लोकस्य जगतः शिरोऽप्रभागस्तस्य विभूपाः मंडमभूताः । "लोकस्तु भुवने जने" इत्यमरः । भवन्ति जायन्ते । लषालंकारः। यई शस्थपर्वतेषु वेणुसमुद्र तानि मौक्तिकानि जनानां शिरसो भूषणानि भवन्ति तेषु मुक्तिमापन्ना भव्याश्चते त्रिलोकशिखरमंडनतां यान्तीति भावः ॥ २४ ॥ भा० अ०-जिस मगधदेश के पर्वतों में उच्च वंशज, अत्यन्त स्वच्छ अथवा निषि और सुन्दर गोलाकार अथवा शुतज्ञान तथा सद्यारिन-गुणयुक्त, सुन्दर अथवा विनय और आप्त गुणों से युक्त मुक्ता अथवा मुक्त जीव सदा लोगों के शिरोभूषण बने हुए थे। २४ । उत्तंगगोत्रप्रभवा भवत्यो भजन्तु भूचक्रबहिष्कृतं किम् ।। इति स्रबन्तीरुदधि सरन्तीरवैमि यत्रालिगणो रुणद्धि ॥ २५ ॥ उत्तंगेत्यादि । यत्र मगधदेशे। आलिगणः आलीनां संतूनां सखीनां वा गणः समूहः। "आलिः पंकौ च सख्यां व सेतो च परिकीर्तिता" इति विश्वः । उत्तुंगगोत्रप्रभवाः उत्तुङ्गाः उन्नतास्ते च ते गोत्राः पर्वताश्च तथोक्ताः पा उसंगानि श्रेष्ठानि गोत्राणि कुलानि तथोक्तानि तेषु प्रभवाः जाताः। “गोत्र नाम्नि कुले क्षेत्र कानने चित्तवर्मनोः। संभावनीयबोधेऽपि गोत्रः क्षोणीधरे मतः ॥ प्रभवो जलमूले स्थाजन्मभूमौ पराक्रमे । आद्योपल्टब्धयोः स्याने" इत्युभयत्रापि विश्वः । भवत्यः भान्तीति भवत्यः। "भाईबत्वि" त्यौणादिको डवतु प्रत्ययः "नदुगिदि"त्यादिना की। पूज्या यूयं । भूकबहिष्कृतं भुवश्चक बलयं भूत्रक तस्माष्दहिष्कृतो दूरी कृतोऽचधिनियतस्तं दुश्चरित्राल्लोकबाह्यरातं नायकमिति ध्वनिः । किं किंकारणं । "किं पृच्छायां जुगुप्सने" इत्यमरः । भजन्तु श्रयन्तु । भवच्छब्दप्रयोगे प्रथमपुरुषः । भज सेवायां लोट । इति एवं प्रकारेणोक धा । उदधिं उदकानि धीयन्तेऽस्मिन्नित्युधिस्त । "नाम्न्युत्तरपदस्प च” इति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः । समासगतस्योदकशब्दस्योद इत्यादेशः पयोधि। सरन्ती: गच्छन्तीः । संयन्तीः नदो: । "घ्रयन्ती निम्नगागा" इत्यमरः । रुणद्धि निवारयति । रुधिर आवरणे लोट । इत्यवैमि जानामि निश्चिनोमि वा । इण गतौ लट। उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २५ ॥ मा० अ०--देश से निकाले हुए मुश्चरिण नायक के पास जाती हुई कुलीन नायिका को जिस प्रकार उस की सखिया रोकतो हैं उसी प्रकार भूमण्डल से तिरस्कृत समुद्र के पास जाती हुई नदियों को वहाँ के सब पुल रोकते हुए के ऐसे मालूम होते हैं ॥ २५ ॥ तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपाछदलाश्छितानि । · पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजु: कांचीपदानीव नस्वाञ्चितानि ॥२६॥ तरंगिणीनामित्यादि । यस्मिन् मगधदेशे। तरूणान्वितानां तरुणा वृक्षण जायकवचनं पक्षे तरुणयुवभिरन्वितानां युक्तानां "विटपी पादपस्तरः। घयस्थस्तरुणो गुना" इत्युभयात्राप्यमरः । तरांगणांना तरगास्सत्यासामिति सरीयस्तासां नदीनां । "तरंगिणी शैवलिनी" इत्यमरः । अतुच्छपन्नछदलाग्छिता नि न तुच्छा अनुच्छाः सारभूता: महातो घा पद्माना कमलानां छदाः दलानि “दल पर्चा छदः पुमान्" इत्यमरः । अनुच्छाश्च ते पाच्छदाश्च तथोक्तास्त; लांछितानि चिह्नितानि । पृथूनि स्थ लानि । पुलिनानि सेकतानि। "तोयोस्थितं तत्पुलिन सकते सिकतामयम्" इत्यमरः । नस्साञ्चितानि नखनखरचितान्यन्वितानि । कांचीपदानीच कांचीनां रसनानां पदानि स्थानानि तथोक्तानि गधनानीवेत्यर्थः । “कांचीस्यान्मेखलाधानि गुञ्जायां नीवृदन्तरे। पदं शब्दे व वाक्यं च व्यवसायापदेशयोः ॥ पादपचिडयो स्थान जाण्योरंकवस्तुनोः" । इत्युभयात्राणि विश्वः । रेखः बभुः। राज दीप्ती लिट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥२६॥ भा. १०-जिस मगध देश में वृक्ष-क्ति-से युक्त नदियों के सुन्दर विकसित कमलपत्रों से चिह्नित विस्तृत पुलिन, (जलसे निकला हुआ भूभाग) नायिका के नखक्षत जघन के समान शोभित होते हैं । २६ । तमोनिवासेषु बनेषु यस्थ मरन्दसार्दास्तरणेमयूखाः । स्फुरन्ति शाखान्तरलब्धमार्गा: कुन्ताः ग्रंयुक्ता इव शोणितार्दाः॥२७॥ तमोनियासवित्यदि। यस्य मगधदेशस्थ । तमोनिधालेषु तमसां तिमिराणां निवासेषु निल येषु । निविडेव्यित्ययमर्थः । वनेषु उद्यानेषु । तरणेः सूर्यस्य । "धु मणिस्तरणिमित्र" इत्यमरः । मरंदसााः मरंदेन पुष्परोन साः “मकरन्दो मरंदोऽस्य रस" इति वैजयन्ती । आसाद हिन्नम्" इत्यमरः । शाखान्तरटन्धमार्गाः शाखानां अन्तर मध्ये लब्धः प्राप्तो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मुनिसुव्रतकाव्यम् । मार्गे यैस्ते तथोक्ताः । मयूखाः किरणाः । “मयूख स्विट्करज्वाला" इत्यमरः । शोणितार्द्राः शोणितेन रक्तं न आर्द्राः सार्द्राः । प्रयुकाः व्यापारिताः । कुन्ता इव आयुधविशेषा इच | “कुन्तः प्रासे चंडभावे क्षुद्रजन्तौ गवेधुक" इति विश्वः । स्फुरन्ति विभान्ति । स्फुर स्फुरणं लटि । उत्प्रेक्षालंकारः । रि ुषु निकुञ्जगतेषु पृष्ठलग्नः प्रयुक्ताः कुन्ताः शोणितार्द्रा भवन्ति यथा तथा अत्रापि तमोरिपुत्वात्तरणेरितिभावः । उत्प्रेक्षा ॥ २७ ॥ भा० भ० 2- जिस मगध देशके निविड़ अन्धकारमय बनों में मकरन्द-विन्दु से भींगी हुई तथा पत्तों की ओर से छन २ कर आती हुई सूर्य की किरणें लक्ष्य को बेध कर आई हुई रुधिराक्त वर्छिओं सी हैं ॥ २७ ॥ अभ्रं लिहाग्राणि वनानि यस्मिन्नीयुर्घुवं नाकतरुं निकर्तुम् । को दानवारिप्रतिपन्नवृत्तेः क्षमेत संकल्पितदान गर्वम् ॥ २८ ॥ I अभ्र' लिहेत्यादि । यस्मिन् देशे । अन्र लिहाम्राणि अभ्र आकाशं लेढि स्पृशतीत्यत्र लिहूं । "घहाभ्रालिद" इति खच् । “खित्यमद्विषतश्चानव्ययस्ये" ति मम् । अभ्र लिमय ये तानि तथोक्तानि । धनानि उद्यानानि । नाकतरु' नाकस्य स्वर्गस्य तवृक्षस्तं कहावृक्षमित्यर्थः । निकर्तुं निरपाय निकर्तुं निराकर्तुं मित्यर्थः । धुवं निश्चलं । ईयुः ययुः । इष्ठागतौ लिट् । तथाहि दानवारिप्रतिपन्नवृत्तेः दानस्य त्यागस्य वारि जलं दानवारि वित्तीर्णजलं तेन प्रतिपन्ना अंगीकृता वृत्तिर्जीवनं वर्तनं वा यस्येति स तस्य देवतरोः पक्षे दानवानामसुराणामयो रिपवस्तः सुरैः प्रतिपन्ना वृत्तिस्तस्याः । “प्रतिपन्नः स्त्रीकृतेऽधीते विज्ञातेंगीकृतेपि च” इति विश्वः । "वृत्तिर्वर्त नजीवन" इत्यमरः । संकल्पितदान गर्व' संकल्प्यते स्म संकल्पितो वांछितस्तस्य दान वितरणं तस्माज्ञातो गर्वस्तं । को चा लोकः । क्षमेत सहेत । क्षमुष् सहने लिङ् । न कोऽपीत्यर्थः । दानवारिप्रतिपन्नवृत्तेः संकल्पितानस्योभयत्र साम्ये सति तदर्थमेकत्र कः सदेनेति भावः । अर्थान्तरन्यासः ॥ २८ ॥ I भा० अ० - जहाँ गगन चुम्बी वन कल्पवृक्ष को पददलित करते हुए के समान भाकाश तक पहुंचे हुए हैं। क्योंकि कौनसा स्वाभिमानवृक्ष, दानके जलसे अपनी वृत्ति करने वाले कल्पवृक्ष के अभीष्ट वस्तुप्रदान का गर्व सह सकता है ? ॥ २८ ॥ पाकावनम्राः कलमा यदीयाः पादावनम्रा इव मातृभक्त्या । आश्रायमाणाः स्वशिररसु भान्ति विकासिपद्माननया धरित्र्या ॥ २६ ॥ पाका वनमा इत्यादि । मातृभक्त्या मातरि कृता भक्तिः मातृभक्तिः तया मातरि विधितानुरागेण । पादावनमा इव अवनमन्तीत्येवं शीलाः भवनमाः । “नस्कस्य ज्ञे" त्यादिना रः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् | पादयोरनमास्तथोक्ताः पादनमनशीला इव । पाका वनमा पाकेन परिणमनेन अघनमाः कलमा: बीहिसमतान्नमनशीलाः। यदीयाः यस्य मगधदेशस्य संबंधिनस्तथोक्ताः । विशेषाः । विकासिपद्माननया विकासतीत्येवं शीलं विकासि तच तत् पद्म तदेवाननं यस्यास्सा तथा । धरित्र या भूदेव्या । स्वशिरस्सु स्वेषां शिरांसि मस्तकानि तेषु । आम्नायमाणाः आघ्रायन्त इति । भान्ति राजन्ते । भा दोप्तो लटि । प्राकेन विकास्लिपद्मध्ववनतशिरसः संत एवं भान्तीति भावः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २६ ॥ मा० अ०—–पकजाने से मातृभक्ति से प्रणत के समान पैर की ओर कुके हुए धान के गुच्छे, विकसित पद्ममुखी पृथ्वी से मस्तक द्वारा सुधे जाते हुए सिर पर शोभ रहे है । २६ । یام विभान्ति सस्यान्तरितानि यस्मिन् हेमारविन्दानि मधुल्वणानि । आपाययन्त्या इव शालिपुत्रानान्तानि धाच्या करसेचनानि ॥ ३० ॥ विभान्तीत्यादि । यस्मिन् मगधे । सस्यान्तरितानि सस्यानामन्तर्यान्तिस्म तथोक्तानि । मधूणानि मधुना पुष्परसेन उल्वणानि प्रवृद्धानि तथोक्तानि । “मधु मधे पुष्परसे क्षौद्र पि" " स्पष्ट स्फुटं प्रव्यकमुल्वणम्" इत्यमरः । हेमारविंदानि कनककमलानि । शालिपुत्रान् शालय एव पुत्रास्तान् । आपाययन्त्या अपाययतीत्यापाययन्ती तथा पानं कारयन्त्या । धात्र या भूम्या उपमात्रा वा "धात्री स्यादुपमातापि क्षितिरष्यामलक्यपि” इत्यमरः । आत्तानि धृतानि । करसेानानि करस्थानि सेचनानि करसेचनानि सेवनपात्राणि । "संकपात्र तु सेचनम्" इत्यमरः । व भान्ति विराजन्ते । भा दीप्तौ लटि । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३० ॥ भा० अ० - वहाँ धान्यरूपी पुत्रों को दूध पिलाती हुई धाई के दुग्धपान के समान, क्यारी के बीच २ के पुष्परस से भरे हुए कनककमल शोभते थे । ३० । यते दण्डाः कुसुमाभिरामा वितन्यते पर्वचयाचिताङ्गाः । मनोजराजस्य जगजिगीषोरुचामरोड्डामरकुन्तलीलाम् ॥ ३१ ॥ यत्रेत्यादि । यत्र मगधविषये । कुसुमाभिरामाः कुसुमैः पुष्पैरभिरामा विराजमाना स्तथोक्ताः । पर्यंचया चितांगाः पर्वणां प्रथिनां चयस्समूहस्तेनाचितं निचितमंगमवयवो येषां ते तथोकाः । “आचितः शकटोन्मेये पलानामयुतद्वये । उन्नेपि संगृहीते स्यात्" इति विश्वः । इक्षाः रसालययः । जगजिगीषोः जेतुमिच्छुर्जिंगीपुः "जेर्लिट समिति" पूर्णात्परस्य कवर्गः । जगतो जिगीघुस्तस्य । मनोजराजस्य मनसि जायत इति मनोजो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम स्वर्गः। मन्मथः मनोजश्चासौ राजा च तथोक्तस्तस्य । “राजनसखे" रित्यप्रत्ययः। उच्चामरोड्डामरकुन्तलीला उद्गतानि चामराणि येषां ते उच्चामराः उन्मुखचामराः। "चामरं तु प्रकीर्णकम" इत्यमरः। उड्डामरा निर्वाधास्ते च ते कुन्ताः प्रासाश्च तथोक्ताः उचामराश्च ते उड्डामरकुन्ताश्च तथोक्तास्तेषां लीला तां। चितन्वते विस्तारयन्ति । तनु विस्तार लट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३१॥ __ भा०-१०-जहाँ गाँठ से भरी हुई देहयाले और पुरुषोंसे समलकृत इक्षुदण्ड संसार को जीतने की इच्छा करने वाले कामदेव के उन्नत नामर तथा अनुफ बों का दृश्य दिखाते है । ३१ ॥ भूदेवता यद्विभवं विलोक्य भूयोऽवधूतविदिवं दधाति । निलीनभंगस्थलपद्मदंभान्निापन्दतागणि विलोचनानि ॥ ३२ ॥ भूदेयतेत्यादि । भूदेवता भूरेच देवता तथोका भूमिदेवता । रूपकः । अवधूतत्रिदिवं अवधूयते स्म अवधूतोऽयधृतो निरायतस्थिदिवः स्वो येनासौं अवधूतत्रिदिधस्तं । यद्विभव यस्य मगधदेशस्य विभवः ऐश्वर्य' तथोक्तस्ता । विलोक्य वीक्ष्य। निलीन गप्प लपमदभात रिलीयन्ते सा लियोना हात:नि निकोसा भृगाः मधुकर: यस्मिन् तस् निलीनमृगस्थलपम' स्थले भूनले जातं पर तथोक्त निलीन गं च तत् स्थलपद्मश्च निलीनभृगस्थलपा निलीनभृगस्थलपममिति दो व्याजस्तथोक्तस्तस्मात् । निष्पंदताराणि निष्पंदा निश्चला तारा कनीनिका येषां तानि "अक्षाक्षिमध्यवोस्तारा सुग्रीवगुरुयोपितोः" इतिविश्वः । विलोचनागि नयनानि । भूयः पुनः । दधाति दुधान धारणे लट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३२ ॥ भा० अ-स्वर्गकी सम्पत्ति को भी तिरस्कृत की हुई मगध देश की विभूति को देख कर भूदेवता मानों भ्रमरयुक्त स्थलकमल के व्याज से अपने अनुतनयनों से उसे निहार रहे है । ३२ । यस्योर्वरासारगुणस्य मूर्ताः पुजा इवाभान्ति समन्ततोऽपि । तिलातसीकोद्रवमुद्गमाषगोधूमवल्लक्षवशालिशैलाः ॥ ३३ ।। यस्येत्यादि । यस्य मगधजनपद्स्य । समन्ततोऽपि समन्तात्समन्ततः परितोऽपि । तिला तसीकोट्वमुद्गमाषगोधूमबल्लक्षवशालिशैला: तिलश्च अतसी च उपमाषा च कोद्रयश्च मुद्गश्च माषध गोधूमश्च वल्लो निर्वावः गुञ्जवृक्ष वल्लन्ध क्षवो राजमापक्षयश्च शालिश्च तिला तसीकोद्रवमुद्गमाषगोधूमवलक्षवशालयस्तेषां शैला राशयः राशेरोन्नत्ये शैलप्रयोगः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मुनिसुव्रतकाव्यम् । उर्वरासारगुणल्य सार:समीचीनः सचासौ गुणश्च तथोक्तः उर्वरायाः सर्वसस्योत्पत्तिम मेः सारगुणस्तस्य । "उर्वरा सर्वसस्पाढ्या" इत्यमरः । पुजाः राशय: "स्यान्निकायः पुंजराशि सूत्करः फूटमस्त्रिराम्" इत्यमरः । मूर्ता इन मूर्तिभुता इव । आभान्ति घिराजन्ते । उत्प्रेक्षा लंकारः ॥ ३३॥ भाः १०-वहाँ चारो ओर तिल, तीसी, कोदो, मूग, उड़द, गेहू लया धाम आदि की ढेर मूर्तिमान उर्वरत्वगुण के समान दीख पड़ते हैं । ३३ । यत्रावित्वं फलिताटवीपु पलाशिताद्रौ कुसुमे परागः । निमित्तमात्रे पिशुनवमासीत् निरोप्ठ्यकाव्येष्वपवादिता च ॥३४॥ यो त्यादि । यत्र मगधदेशे । आर्तवत्वं आतों मनोदुःखं तदस्यास्तीत्यार्तवान् तस्य भाषः आर्तवत्त्वं दुःस्वयम् नास्ति तच्छब्दप्रवृत्तिरपि नास्ति किमिति चेत् ऋतबः प्राप्ता आसामिरयातवत्यस्तासां भावः आर्तवत्व पटकालनियमवत्वं "ज्योत्स्नादिभ्योऽ" "ऋतुः स्त्री कुसुसे मासि वसंतादिषु धारयोः" इतिविश्वः । फलिताटवीष फलानि संजातान्यासामिति फलिताः "संजातं तारकादिभ्य" इति इतप्रत्ययः ताश्च ता भटन्यश्च तासु । आसीत् अभून् । अस् भुवि लुङ् । पलाशिता पलं मांसं "पलमुन्मानमांसयोः" इति विश्वः । तदनातीत्येवंशीलः पलाशी तस्य भाषः पलाशिता मांसभक्षित्वं पक्षे पलाशः किंशुक: "पलाशः किंशुक पणे धातपोत" इत्यमरः। सोऽस्यास्तीति पलाशी तस्य भावः पलाशिता अद्री पर्वते यद्वा पलाशं पत्र तदस्यास्तीति पलाशी तस्य भावः पर्णवत्ता "पत्र पलाशम्" इत्यमरः। अद्रौ तरी "अद्रयो द मशैलाको" इत्यमरः । अथवादी वृक्ष "नुदमागमः" इत्यमरः । आसीत् अभयात् । परागः परं च तस् आगश्च तथोक्तः उत्कृष्टापराधः पक्षे परागः पुष्परेशुः "भागोपराधो मन्तुश्च" "परागः कुसुमे रेणों" इत्युभयत्राप्यमरः । कुसुमे पुष्पे। आसीत् अभवत् । पिशुनत्वं कर्णे जपत्वं पक्षे सूचकत्वं "पिशुनौ स्वलसूचकों" इत्यमरः । निमित्तमात्र निमित्तमेत्र निमित्तमात्र तस्मिन् शकुनमात्र । आसीत् अभवत् । अपवादिता च अपवादोऽस्यास्तोत्यपवादी तस्य भावः अपवादितापि निन्दावत्वश्च "अपवादस्तु निन्दायामाज्ञावित भयोरपि" इनिविश्वः । पक्षे पश्च वश्च पचो तावादियस्य सः पवादिः न विद्यते पवादियस्य सतथोक्तस्तस्य भावः अपवादिता पकारवकारादिरहितत्यम् अथवा पं बदतीत्येवं शीलं पत्रादी न पचादी अपवाही तस्य भावस्तथोक्तः पवईक्तिरहितत्वं । निरोष्ट्यकाध्यषु ओष्ठान्निगतो निरोष्ठः निरोष्टे भवानि निरो-ष्ट्यानि "दिगाद्यगांशाध." इति भवाथें यप्रत्ययः । निरोष्ट्यानि च तानि काव्यानि च तेषु ओष्ठ्याक्षररहितप्रवन्धेषु ! आसीत् अभवत् । परिसंख्यालंकारः ॥३४॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम स्वर्ग : २० भा० अ० – वहां आर्श्वचरय ( ऋतुओं का भाव वा मानसिक व्यथा ) फले हुए बनों में था न कि मगधवासियों में, पलाशिता ( पत्तों का लगना का मांस भक्षण) पेड़ों में थी न कि मगधवासियों में, पराग ( पुष्पधूलि वा बड़ा अपराध ) फूलों में था न कि जनता में, पिशुनदव (शकुन वा चुगलखोरी) शास्त्रों में था न कि वहाँ के लोगों में और अपवादिता ( पकार तथा वकार का अभाव वा निन्दा ) निरोष्ठ्य काव्य में श्री नकि मगधवासी मनुष्यों में । ३४ । स्त्रीणां माल्यमुरोजभारे श्यामाननत्यं जघने जडत्वम् । अपाङ्गता केवलमक्षिसीम्नोर्मध्यप्रदेशेषु च नास्तिवादः ॥ ३५ ॥ स्त्रीणामित्यादि । माल्यं मलस्य भावः माध्यं "वर्णादिभ्य" इतिद्यण अथवा मलमेव माल्यं “भेषजादि" इतिट्यण् मलभावः पक्षे माध्यंपुष्पमाला “माल्यं मालास्रजौ” इत्यमरः । त्रीणां नारीणाम् । कचे शिरोरुहे। आसीदित्यचाप्यन्वीयते । श्यामाननत्वं श्याममाननं यस्य स श्यामाननस्तस्य भावस्तत्त्वं निष्प्रभमुखत्वं पक्ष कृष्णमुखत्वं । उरोजभारे रस जायेते इति उरोजे तयोर्भावस्तथोक्तस्तस्मिन् पयोधरमण्डले । आसीत् । जडत्वं पक्षे भारवत्वं । “जड़ो जाल्मश्च निर्बुद्धौ शब्देनालोच्यकारिणि" इति वैजयन्ती । जधने नितम्बे । आसीत् । अपांगता अपगतमंगं यस्य तस्य भावस्तथोक्ता होनांगत्व प कटाक्षेक्ष "aणांगनंगहीने स्यान्नेत्रान्ते तिलकेऽपि " इति विश्वः । केवलं परं "केवलो ज्ञानभेदे स्यात्केवल कत्योः । निर्णीते केवलं चेोक्त केवलः कुहने क्वचित्" इति विश्वः | अक्षिसीनोः अणोःस्तीमानी मर्यादे तयोः "सीमसीमे स्त्रियामुभे" इत्यमरः । नेत्रावसानयोः । आसीत् । नास्तिवादः नास्तीतिवचनं नास्तिवादः परलोकाद्यमहवः प नास्तिवादः अति कुत्वादुपचारेण नास्तीतिवचनं यद्वा नास्तिवादः ईषदस्तिवादः "नजभावे निषेधे च स्वरूपार्थे व्यतिक्रमे । ईषदर्थे च" इति विश्वः । मध्यप्रदेशे मध्यस्य प्रदेशस्तस्मिन् अवलग्नप्रवेशे । आसीत् । स्त्रीणामिति सर्वात्राप्यन्वयः । इयमपि परिसंख्या ॥ ३५ ॥ भा० अ० - माल्य [ मालायें वा मलिनता ] वहाँ की स्त्रियों के केशगुच्छ में था न कि यहाँ के लोगों में, श्यामाननत्व [ काला मुख वा हृदय का कालापन ] मगधवासिनी स्त्रियों के स्तनों में था न कि लोगों में, जड़ता ( गठीलापन वा बुद्धि की मन्दता ) स्त्रियों की आंध में थी न कि पुरुषों में, अपाङ्गता [ कटाक्ष वा अङ्ग की विकलता ] स्त्रियों की आँखों में थी न कि मनुष्यों में और नास्तिवाद ( कृशत्व वा नास्तिकता ) यहाँ की स्त्रियों की कटी में था न कि भगधवासी जीवों में । ३५ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । २१. भुजंगमेष्वागमकभावो भुजंगहारेऽप्यजिनानुरागः । ध्रुवं प्रदोषानुगमो रजन्यां दिनऩयरसोऽपि दिवावसाने || ३६ || भुजंगमेष्वित्यादि । आगमवक्रभावः वक्रस्य भावो भावः आगमस्य आप्तप्रणीतस्य परभागमस्य वक्रभावस्तथोक्तः प्रवचनकुटिलत्त्वम् पक्षे आगमस्य चक्रभावः “आगमः शास्त्रआयाते" इति विश्वः । ध्रुषं निश्चयेन । भुजंगमेषु भुजेन गच्छन्तीति भुजंगमास्तेषु । “गमः ख खड्डा " इति व प्रत्ययः "खित्ययः" इत्यादिना मम् आसीदित्यत्राप्यनुयध्यः । अजिनानुरागः न जिन: अजिनः हरिहरादिस्तस्मिन् अनुरागो भक्ति: पक्षे अजिने धर्मणि अनुरागः प्रीतिः "अजिन धर्म कृत्तिः स्मर । भुवंग्रे भुजंग एव द्वारो यस्य तस्मिन् । असीत् । प्रदोषानुगमः प्रकृष्टो दोषः प्रदीपः दुष्कर्म तस्य अनुगमः आस्रवः पक्षे प्रदोषस्य रजनीमुखस्य अनुगमः अनुगमनं “प्रदोषः कालमेदे स्यात् प्रदोषी दोष इष्यते" इति विश्वः | रजन्यां रात्रौ । आसीत्। सोऽपि दिनक्षयः दिनस्य पुण्यस्य क्षयो नाशः पक्षे दिनस्य दिवसस्य क्षयो नाशः | दिवावसाने दिवसान्ते । "दिवाहीत्यथ दोषा च न च रजनाविति” अभिधानादव्ययम् । आसीत् । इयमपि परिसंख्या ॥ ३६ ॥ J भा० भ० – जहाँ आगमवक्रभाव (टेढ़ी चाल वा शास्त्रका नियमोलङ्घन ) केवल साँपों में था न कि लोगों में, अजिनानुराग ( मृगचर्म से प्रीति या अजेन देवों में भक्ति ) शिवजी में था न कि जनता में, प्रदोषानुगम ( सन्ध्या का आगमन वा दुष्कर्म का आस्रव) रात में होतथा न कि मगधवाली जीवों में और दिनक्षय ( दिनका अवसान वा दिन का व्यर्थ यापन) सायङ्काल में होता था कि वहाँ के लोगों में । ३६ । तत्रास्ति सा राजगृहाभिधाना पुरी वनैः पृष्ठगतैरुदयैः ॥ पुरारिवैरप्रतिकारहेतोर्य्यमुक्तकेशत्रतमादितेव ॥ ३७ ॥ तत्र त्यादि । तत्र मगधदेशे | या पुरारिवरप्रतिकार हेतोः पुराणां त्रिपुराणाम् अरिः fry: रुस्तस्य वैरं विरोधस्तस्य प्रतिकारहेतुस्तस्मात् त्रिपुरसंहारिणः प्रतिकारविधानायेत्यर्थः । पृष्ठगतैः पृष्ठमपरभागं गच्छन्तिस्म तथोक्तानि तैरित्यर्थः । उदयः उन्नतेः I य उद्यानैः । मुक्तकेशयतम् मुक्ताः शिथिलिताः केशाः शिरोरुहा यस्मिंस्तत् मुक्त शं तच तद्वतच तथोक' मुक्तकेशाख्यत्रतं नियमम् । आदितेष आदसंघ | हुदा दाने लुङ् । वनव्याजेन तद्वतमगृहादिव भातीत्यर्थः । सा राजगृहाभिधाना राज्ञां गृहं राजगृह तदित्यभिधानं यस्यास्सा तथोक्ता । पुरी राजधानी । अस्ति वर्त्तते । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३७० भा० अ० — उस मगधदेश में पीछे की ओर लगे हुए विशाल उद्यानों से त्रिपुरारि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रथमः सर्गः । (शंकर जी ) ने जो तीनों पुरों को नष्ट कर डाला है मानों उसी अपकार का बदला लेने के लिये मुक्तकेश-वत किये हुई कीसी राजगृह नाम की पुरी थी॥ ३७॥ बहिर्बणे यत्र विधाय वृक्षारोहं परिष्वज्य समर्पितास्याः ॥ कृताधिकारा इव कामतंत्रे कुर्वन्ति संग विटपर्वतत्यः ॥३८॥ . बहिण इत्यादि । यत्र पुया । बहिणे बहिरह्याने वनाद् यहिहिर्षणन्तस्मिन् । "प्रागन्त" रित्यादिना घनशब्दे नकारस्य णत्वम् । प्रतत्यः लताः । "वतती वल्लरी लतेति" धनञ्जयः । कामिन्य इति ध्वनिः। वृक्षारोहम् वृक्षाणामारोहस्तथोकस्तम् वृक्षावलम्बनमित्यर्थः वृक्षारोह इति दम्पतीबन्धविशेष:-अस्ति हि लतावेषनरनामालिङ्गलम् । विधायकृत्वा । परिप्वज्य आलिङ्गय । समर्पितास्याः समर्पितमास्यं याभिस्ताः समर्पितास्याः समर्पितमुखा था सत्यः। कामतंत्र कामस्य तन्त्र कामतन्त्र रहस्यं तस्मिन् कामशास्त्र । "तन्त्र प्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये परिच्छदे" "त्यमरः। कुताधिकारा इव कृतो विहितोऽधिकारो याभिस्ता इय । विटपैः शाखाभिः विटपुरुस्सह । “विटपः पल्लवे 'गे विस्तार स्तम्पशाखयोः" इति विश्वः । संगम सम्बन्धम् । कुर्वन्ति विदधति। श्लेषोपमालंकारः ॥ ३८ ॥ भा० अ०-वहाँ बाहरी उपवनो में वृक्षों पर चढ़ी हुई लताएं कामशास्त्र में प्रवीण उपपतियों को आलिङ्गन तथा चुम्बन करती हुई कामिनियों के समान जान पड़ती हैं ॥ ३८ ॥ आरामरामाशिरसीव केलिशले लताकुन्तलभासि यत्र . . सकुङकुमा निझरवारिधारा सीमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ॥३६॥ आरामेत्यादि । यत्र पुर्या। लताकुन्तलभासि लता एव कुन्तला अलकास्तर्भासत इति लताकुन्तलभास्तस्मिन् । सान्तः शश्नः। आरामरामाशिरसीव आरामः उपवन तदेव रामा स्त्री तस्याः शिरस्तथोक्त' तस्मिन्निव तद्वद्धासमान इत्यर्थः । केलिशैले केलेः शैलः केलिशैलस्तस्मिन् अथया फेलिश्चासौ शैलश्चेतिकेलिशैलस्तस्मिन् क्रीडाप्रावित्यर्थः। सकुडकुमा कुडकुमेन सह वर्तत इति सकुडकुमा निमजदनितागलितेन कुडकुमेन युक्ता। वान्यार्थ इति यहुबीह सहस्य सभावः । निझरवारिधारा निझरस्य प्रवाहस्य वारि तस्य धारा तथोक्ता । सीमन्तसिन्दूरनिभा सीमन्तस्य सिन्दूरन्तथोक्त तस्य निभेव निभा समा इत्यर्थः । “स्त्रीणां पुसि च सीमन्त" इत्यमरः । “सिन्दुरस्तरुभेदे स्यात्सीन्दूरं रक्तचूर्णके" इति विश्वः । विभाति राजते शोभत इत्यर्थः । मा दीप्तौ लट उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३६॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । भा० अ-जिस राजगृहपुरी में स्त्रीरूपिणी वाटिकाओं में उनके मस्तक के समान वेणीरूपणी लताओं से मण्डित क्रीडा-पर्वतों पर स्त्रियों के स्नान करने से कंकुममिश्रित जलधारा-भरने से मिला हुई सीमा (i) ने शिक्षा के समान शोमती थी । ३६ कगडूतिशान्त्यै निजकर्णमूलं संघर्षयन्तः सरसीषु मीनाः ॥ अम्भोजदण्डेषु विभान्ति यस्यामालानबन्धेष्विव हस्तिपोताः॥४॥ कण्डूतीत्यादि । यस्यां पुर्य्याम् । सरसीषु सरोवरेषु । कण्डूतिशान्त्यै कण्डुपन कण्डूतिस्तल्याश्शान्तिस्तथोक्ता तस्य । निजकर्णमूलम् नि जानां स्वेषां कर्णास्तथोक्ताः यचा निजामते कर्णाश्च निजकर्णास्तेषां मूलं मूलप्रदेशम्। अम्भोजदण्डंषु अम्भसि जायन्त इत्यम्मोजानि तेषां दण्डा यष्टयस्तषु। संघर्षयन्तः संघर्षयन्तीति तथोक्ताः। मीनाः मत्स्याः । आलानबन्धेषु आलान नामालानान्येत्र वा बन्धास्तषु बन्धस्तम्भेषु । "आलानं बन्धः स्तम्भः" इत्यमरः । इस्तिपोताः हस्तिनां फरिणां पोताः शाघा इघ । विभान्ति विराजन्ते ॥ उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ४ ॥ भा० म०-जिस राजगृह के तालाचों में कमल की इंटियों से खजुलाहट मिटाने के लिये कर्णमूल पिसती हुई मछलियाँ खंभों से कनपट्टी रगड़ते हुए हाथी के बयों के समान शोभती थीं ॥४॥ बीत्थ्या हयानां दशया गजानां श्रमैर्भटानां करणनटानाम् ॥ - भुजाहतैमल्लगणस्थ यस्या जयन्ति बाह्यालिभुवो विशालाः ॥४१॥ पीत्थ्येत्यादि । यस्याः पुयाः । विशालाः विस्तृताः। बाबालिभुवः घाह्यालीनाम्भुवो भुमयो वहिःप्रदेशाः। यानगम् अश्वानाम् । चीत्थ्या शिक्षागमनेन श्रेण्यागमनेनेत्यर्थः। गजानाम् करिणाम् । दशया मदावस्थया । “दशावत्ययस्था वस्त्रांशे स्युर्दशा अपीति" विश्वः । भटानाम् योबु णाम् । श्रमैः शस्त्राभ्यास। नटानाम् नर्तकानाम्। करीः नर्तनः । "करणं साधनक्षेत्रकाचकायस्थकर्मसु गीताङ्गवार सम्वेशक्रियाभेदेन्द्रियेषु च बालबादौ च करणः स्मृतः" इति विश्वः । मल्लंगणस्य मल्लानां गणस्तस्य । भुजाहतैः भुजानामाहतानि तेभुजाधारित्यर्थः। जयन्ति सक्तिपेण वर्तन्ते। अतिश पलंकारः। ४१ ॥ भा० अ०-उस पुरी के बाहर का विस्तृत मैदान घोड़ों के कतारों के चलने से, हाथियों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम स्वर्गः । २४ के मदस्माथ से, योद्धाओं की शस्त्र शिक्षा से, नटों के नृत्य से तथा सुभटों के मल्लयुद्ध से अत्यन्त शोभायमान दीख पड़ता था ॥ ४१ ॥ तीरमराजिराज द्विचित्र पुष्पोद्गमबिम्बितानि ॥ उतोल्लसत्पन्नगभोगरत्नद्यतीनि यस्याः परिखाजलानि ॥४२॥ सोवित्यादि । यस्याः पुर्खा | परिखाजलानि परिस्वायाः खातिकायाः जलानि तथोक्तानि । तीरद्र मराजिराजद्विचित्र पुष्पोद्रमविम्बितानि तीरेषु विद्यमाना दुमा वृक्षांतर मास्तेषां राजिः पङ्क्तिस्तया राजन्ति इति राजन्ति विचित्राणि नानाविधानि विचित्राणि च तानि पुष्पाणि च विविनपुष्पाणि ती मराजिराजन्ति च तानि विचित्रपुष्पाणि च तथोकानि तेषामुद्रमाः पत्र मुकुलानि तैर्बिम्बितानि विस्वासंजातान्येषामिति तथोकानि संजातप्रतिधिम्यानि । " संजातं तारकादिभ्य" इति तप्रत्ययः । अहोनु । भवन्ति । उत अथवा | उल्लसत्पन्नगभोगरत्नय तीनि पन्नागाः स्वर्पास्तेषां भोगाः फणाः "भोगः सुखेस्त्र्यादिभृतावद्देश्च फणकाययोः" इत्यमरः । तेषां रत्नानि मणयस्तेषां धुतयः कान्तयः उल्लसन्तीत्युल्लसन्त्यः स्फुरन्त्यः पन्नगभोगरत्नयु तयो येषान्तानि तथोक्तानि | अहोनु भवन्ति । किमिति विकल्पप्रश्नः । “नही उताहो सन्देह" इति इलायुधः । “अहो उताहो किमुत विकल्पे किमुच्यते तु पृच्छायां वितर्फे चेत्युभयत्राप्यमरः ॥ संशयालंकारः ॥ ४२ ॥ भा० भ० - जिस राजधानी की खाई का जल तीर की वृक्ष-पंक्ति के बिबिध पुष्पों से अथवा सर्प के कण की मणियों से प्रतिबिम्बित था ॥ ४२ ॥ माणिक्यकुम्भोऽवल गोपुराणां रूपेण याम्मूर्त्तिचतुष्टयाप्तः ॥ आप्तस्समालक्ष्यविलक्षमारते पूर्वाचल : कूटविभासिभास्त्रान् ॥४३॥ माणिक्येत्यादि । कूटविभासिभास्वान के शिखरे भासत इत्येवं शीलः कूटभासी मा अस्यास्तीति भास्वान् सूर्यः कृटभासी भास्वान् यस्यासौ तथोक उदयार्क इत्यर्थः । पूर्वाचलः पूर्वदिशि स्थितोऽचलस्तथोक्तः उदद्याद्विरित्यर्थः । याम् राजगृहपुरीम् । समालक्ष्य सम्यगालोक्य । माणिक्यकुम्भोज्यलगोपुराणात् माणिकारल े न कृताः कुम्भाः कलशास्तंज्यानि दीप्तानि माणिक्य कुम्मोज्वलानि च तानि गोपुराणि च तथोकानि तेषां । रूपेण स्त्ररूपेण । मूर्त्तिचतुप्राप्तः स्वत्वारोऽवयवा अस्य चतुष्टयम् अत्रयवात यडिति प्रत्ययः मूत्तिनामा काराणाञ्चतु प्रयन्तदानोसिस्मेति मूर्त्तिचतुष्प्रयाप्त आप्नोति स्पेत्थाप्त आयात इत्यर्थः । "आप्सः सम्ये च लब्धे चे" ति विश्वः । विलक्षम् विस्मयेन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ मुनिसुव्रतकाव्यम् । युक्तं यथातथा "विलक्षो विस्मयान्वित" इत्यमरः । अस्ति तिष्ठति । आस् उपवेशने लट् अर्क चिम्ययुक्तः पूर्वादिदेव रत्नमय कलशोज्वलगोपुराणां चतुर्णामाकारेण तिष्ठतीति भावः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ४३ ॥ भा० अ० – उदयाचल पर्वत पर चमकता हुआ सूर्य मानों राजगृह नगरी को देखकर मणिमय कलशों से प्रदीप्त चारों गोपुरों को उदयाचलसहित स्वयं अपनी चार मूर्तियों के होने का सन्देह करता हुआ खड़ा था ॥ ४३ ॥ सुरापगापूर कृतान्तराणि शृङ्गायि शालाग्रगतानि यस्याः || हैमानि हेमाम्बुरुहाणि बुद्ध्या मुग्धा जिहीर्षन्ति सुरर्षिकान्ताः ॥४४॥ सुरापगेत्यादि । यस्याः पुर्याः । सुरापगापूरकृतान्तराणि सुराणामापगा सरसीः तस्याः पूरः प्रवाहस्तस्मिन् पूरे कृतमन्तरमवकाशी येवान्तानि तथोकानि । हैमानि हेस्रो विकाराण हैमानि । "हेमादिभ्य" इत्यत्र | शालाप्रगतानि शालस्य प्राकारस्यान शालानन्तगच्छन्तिस्म शालाग्रगतानि । शृङ्गाणि शिखराणि । मुग्धाः मूढाः । सुरर्षिकान्ताः सुराणामृपयः पूज्याः सुरर्षयः सुराश्चते ऋषयश्चेति वा कर्मधारयस्तेषां कान्ता ललनास्तथोक्ताः । हेमाम्बुरुहाणि अम्बुनि रोहन्ति जायन्त इत्यम्बुरुहाणि हेमरूपाणि अम्बुरुहाणि तथोकानि । बुद्ध्या मत्वा । जिहीर्षन्ति ग्रहीतु ं स्वीकभ्रान्तिमानतु मिच्छन्ति । ग्रहेस्सन्नन्ताल्लट् "वशियधियची" त्यादिना यण इक् । लंकारः ॥ ४४ ॥ भा० अ० - जिस राजधानी की चहारदीवारी के देवगंगा तक पहुंचे हुए सुवर्ण शिखरोंकी भोली भाली देवाङ्गनायें सुवर्णकमल समझकर लेना चाहती थीं । ४४ १ प्रतप्तचामीकरवैकृतानि प्राकारशीर्षाणि पुनर्न यस्याः ॥ पत्या दिशां भित्तिषु लिप्तशेषाः प्रतापपिण्डा वियदङ्गणे ते || १५ || प्रतप्तेत्यादि । यस्याः पुर्याः । प्रतप्तचामीकरानि प्रतप्तञ्च तच्चामीकररुचेति प्रतप्तचामीकरं विकृतान्येव कृतानि स्वार्थिकेोऽणप्रत्ययः प्रतप्तचामीकरण वैकृतानि निर्मितानि प्रतप्तचामीकरकृतानि विकाराणि वा तथोकानि । प्राकारशीर्षाणि प्राकारस्थ पस्या प्रस्तावस्य शीर्षाणि शृंगाणि तथोक्तानि । नन भवन्ति । पुनः पुनः कानीत्यर्थः । पुरीप्रभुणा यस्याः पत्येतिचान्वयः । वियदङ्गणे चियत् आकाशस्याङ्गणेजिरे । विशाम् ककुमाम् । भित्तिषु कुड्डेषु । लिप्तशेषाः लिप्यतेस्म लिप्तः लिप्ता द्वेषस्तथोक्ता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमस्वर्ग: लेपमायशिष्ठा इत्यर्थः1 ते प्रसिद्धाः । प्रतापपिण्डाः प्रतापस्य पराक्रमस्य पिण्डा स्तथोक्ताः । भवन्तीत्यध्याहारः ॥ ४५ ॥ अपानवालंकारः॥ . भा० अ०-जिस राजगृह नगरीके प्राकार के प्रतप्त सुवर्णमय शिखर आकाश-प्राण की दिग्भित्तियों में लेप करने से बचे हुए नगराधिपति के प्रतापपिण्ड के समान दीख पड़ते थे॥ ४५ ॥ उत्तोरणानां किल मन्दिराणामुद्यद्ध्वजानामसमेषु यस्याः ॥ धनुष्मतो वारिभृतस्तशम्पान्निर्माय निर्माय नमः प्रमाटि ॥४६॥ उत्तोरणानामित्यादि । नमः आकाशम् । धनुष्मतः धनुरस्त्येषामिति धनुष्मन्तस्तान् इन्द्रधनुस्साहितानित्यर्थः । सशम्पान् शम्पया विधु ता सह वतन्त इति सशम्पास्तान् । "शम्पाशतहदा हादीनो" त्यमरः। वारिभृतः वारि जलं विभुतीतिवारिभृतस्तान, मेघानित्यर्थः। निर्माय निर्माय निर्माणं पूर्व पश्वात्किश्चिदिति निर्माय "प्राकाल"इत्यनेन क्त वा प्रत्यय: “कोऽनत्राप्य" इति प्यादेशः । वीप्सायां द्विः। यस्याः पुर्याः। उत्तोरणानाम् उद्गतानि तोरणानि ययान्तानि तेपाम् । उद्य वजानाम् उद्यन्ति उद्गच्छन्ति ध्वजानि येषान्तानि तेषाम् । मन्दिाणाम् गृहाणाम् । असमेधु न समा असमास्तेषु सत्तु। वारिभृद्विशेषणम् । प्रमाष्टिं परिहरतीत्यर्थः मृजु शुद्धौ लट् किल उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ४६ ॥ भा० अ-राजगृह नगरी की अट्टालिकाओं की ऊंची नीची ध्वजाओं तथा तोरणों को देख कर मानों आकाश इन्द्रधनुष तथा विद्यु नसहित चार २ मेघों की रचना करता हुआ उनकी समानता करने की चेष्टा करता है। ४६। यच्चन्द्रकान्तापलमन्दिराणां ज्योत्स्नाप्रवाहै: परिवाहिता द्यौः॥ क्रीडाधियामप्सरसाम्बिधत्ते दिवा दिवा दिव्यसरः प्रमोषम् ॥४७॥ यदित्यादि । यचन्द्रकान्तोपलमन्दिरीणाम् चन्द्रकान्तश्चासाबपलश्च तथोक्तस्तेन निर्मितानि मन्दिराणि यस्याः पुष्यस्तिानि यचन्द्रकान्तोपलमन्दिराणि तेषाम् । ज्योत्स्नाप्रवाह: ज्योत्स्नायाश्चन्द्रिकायाः प्रवाहास्तः । परिवाहिता परिबाहेति रिक्तस्य घमन सोऽस्थसंजातेति तथोक्ता । धौः आकशम् । 'धौदिबौद्ध स्त्रियामि"त्यमरः । कीडाधियाम् क्रीड़ायां धीयु द्विर्यासान्तास्तासाम् । अप्सरसाम् देवगणिकानाम् । दिव्यसम्प्रमोषम् दिवि भवं दिव्यं दिव्यञ्च तत्सरश्च दिव्यसरस्तदिति प्रमोषो भ्रान्तिस्तम् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I | I मुनिसुव्रतफाव्यम् । २७ दिवा दिवा दिने दिने । वीप्सायामितिद्धिः । विधत्ते करोति । धात्र धारणपोषणयोर्लट् तङ् । भ्रा० लं० ॥ ४७ ॥ भा० अ० - जहाँ चन्द्रकान्त मणि से बने हुए भवनों के ज्योत्स्ना प्रकाश से परिप्लावित आकाश सदा कीड़ासक्त अप्सराओं के दिव्य क्रीडासरों की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं । ४७ ॥ ताराफलायाम्बियदामलक्यां क्षेप्तुं व्रजन्तन्नतदारुबुद्ध्या ॥ यच्चन्द्रशालागतबालचन्द्रम्बालं हसन्ति स्फुटमीशदाराः ॥ ४८ ॥ नतदारुबुद्ध या तारेत्यादि । वियदामलक्ष्याम् विवदेवाकाशमेवामलकी तस्याम् । ताराफलायाम् तारा एव फलानि यस्यां तस्याम् नक्षत्रफलायां सत्याम् । यचन्द्रशालागत बालचन्द्रम् स्चन्द्रशालां सौधशिरोगृहम् गच्छतिरूम चन्द्रशालागतः "चन्द्रशाला शिरोगृहमिति" विदग्धचूडामणौ । बालञ्चासौ चन्द्रश्च तथोक्तञ्चन्द्रशालागतश्चासौ बालचन्द्रथ चन्द्रशालगतबालचन्द्रो यस्याः पुर्याः चन्द्रशाळागत बालचन्द्रो यश्चन्द्रशालागत बालचन्द्रस्तम् । नतञ्च तद्वा च नतदाय वकयष्टिः नतदाद इति बुद्धिस्तया । क्षेप्तुम् क्षेत्रणाय क्षेप्तुम् । क्षेपो लम्बे निद्रायां लाये रणलंघने गर्वेऽपि " इति विश्वः । व्रजन्तम् बजतीति वजन, तं गच्छ न्तमित्यर्थः । बालं माणचकम्। ईशदारा ईशस्य राशो द्वारा रमण्यः । "दाराः पुंभूमि चाक्षता” इत्यमरः । स्फुटम् व्यक्तपू । हसन्ति दारूपं कुर्वन्ति । इस हसने लट् । भ्रान्तिमानलंकारः । अनेन सौधानामन्नित्यं कीर्त्यते ॥ ४८ ॥ भा० अ० - जहां आंवले के वृक्षरूपी आकाशमें फलरूपी ताराओं के उगने पर उसे तोड़ने केलिये राजप्रासाद के शिखर पर उदित हुए बालचन्द्र को टेढ़ी छड़ी जानकर लेने को दौड़ते हुए पचों को देख कर राजमहिलायें हँसा करती थीं । ४८ । नैतानि ताराणि नभरसरस्याः सुनानि तान्यादधते सुकेश्यः ॥ यदुच्चसौधाग्रजुषो मृषा चेत्प्रगे प्रगे कुल निलीनमेभिः ॥ ४६ ॥ नेत्यादि । एतानि इमानि । ताराणि नक्षत्राणि "भं नक्षत्र' तारं तारके" इत्यादि इलायुधः । न] न भवन्ति । किन्तु नभस्सरस्याः नभ एव व्योमैव सरसी कासारस्तस्याः “कासारः सरसी सरः" इत्यमरः । सूनानि कुसुमानि । “सूनं प्रसवपुष्पयो” रितिविश्वः । भवन्तीति शेषः । यदुच्चसौधात्रजुपः उच्चाच ते सौधाश्वोवसीधास्तेषामग्रन्तज्जुषन्ति गच्छन्ति इति उच्चसौधाश्रजुषो यस्याः पुर्या सौधावस्तथोकः । सुकेश्यः खु शोभनाः केशा यासान्ताः सुकेश्यः स्त्रियः । तानि पुष्पाणि । आदधते स्वीकुर्वन्ति । दुधाञ धारणपोषणयोर् तङ । मृषा चेत् अनूतचेत् नक्षत्राण्येवेतिचेदित्यर्थः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रथमः सर्गः । "भूषा मित्थ्या च धितथे पक्षान्तरे चेद्यदि "त्युभयत्रापि अमरः । एभिः नक्षत्र । प्रगे प्रगे प्रातः प्रातः। धीप्सायामिति द्विः। "प्रगे प्रातःप्रभाते" इत्यमरः । कुन कस्मिन्निति कुत्र प्रदेशे। निलीनम् तिरोभूतमितिप्रश्नः । अपहनवालंकारः ॥ ४६॥ मा० अ०-ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि, ये तारा नहीं है बल्कि भासको लोपर के पुष्प हैं। जिन्हें राजगृह की अट्टालिकाओं पर चढ़ी हुई युवतियाँ चुन लेती थीं। नहीं तो प्रतिदिन प्रातःकाल वे कहाँ विलीन हो जाते थे ? । ४६ । विकासिनेत्रांशुभिरङ्गनानां विषक्तगात्रैरवसक्तमात्राः ॥ विलासिनां सृचिगृहान्धकारा वितन्वते यत्र सदा नियुद्धम् ॥५॥ विकासीत्यादि। यत्र पुर्याम । अवसक्तगात्राअवसक्तं सम्बद्ध' गात्र शरीर येषान्ते तथोक्ताः । सूचिगृहान्धकाराः सून्यते रहोऽस्मिन्निति सूत्रिः संकेतः सूचयतेरोणा दिकः प्रत्ययः सूचिगृहाणां संकेतगृहाणामन्धकारा ध्वान्तानि | विषक्तगात्रः विषक प्रणितं गात्र विग्रहो येषान्ते तैः। अहानानाम् नारीणाम् । विकासिनेत्रांशुभिः विकसन्त्येवंशीलानि चिकासीनि तानि च तानि नेत्राणि च विकासिनेवाणि तेषामंशवः किरणास्तैः । विलासिनाम् विलासोस्त्येषामिति विलासिनस्तेषाम्बिटानाम् । मियुद्धम् याहुयुद्धम् । “नियुद्धम्या युद्ध स्यात्" इत्यमरः। सदा अनवरतम् । वितन्वते विस्तार यन्ति तनुविस्तारे लट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ५० ॥ ___ भा० अ०-जिस पुरी में विलासी ( लाटकामी ) पुरुषों के सांकेतिक गृह की गाढ़ी अंधियारी यहाँ की विलासिनी नायिकाओं की प्रफुल्ल आँखों की चमक से बराबर बाहुयुद्ध किया करती थी। अर्थात् कामियों के संकेतगृह के अभीष्ट गाढ़ान्धकार को अंगनाओं की आँखों को चमक सदा दूर भगाने की चेष्टा किया करती थी । ५० । सदा पठकोकिलनन्दनाढ्याः समुल्लसत्पाण्डुकभद्रशालाः ॥ जिनालयाः सौमनसालयास्ते जयन्ति मेरूनपि यत्र चित्रम् ॥५१॥ सदेत्यादि। यत्र पुटयाए । पठत्कोकिलनन्दनाढ्याः पठन्तीति पठन्तः कोकिला इव कोकिलाः कोकिलाश्च ते नन्दना अर्भकाश्च कोकिलनन्दनाः पठन्तश्च ते कोकिलनन्दना श्च पठत्कोकिलनन्दनास्तराख्याः पूर्णाः "दारको नन्दनोऽभक" इति धनञ्जयः। पक्षे पठन्तो ध्वनन्तः कोकिला यस्मिंस्तलाठत्कोकिलं तवतन्नन्दनच तन्नामवनञ्च तथोक्त न्तेनायाः प्रपूर्णाः। समुलसत्पाण्डुकभद्रशालाः भद्रश्वासोशालश्च भवशालः पाण्डुरेष पाण्डुकः स्यार्थे क प्रत्ययः पाण्डुकाश्चासौ भवशालश्च तथोक्तः "पाण्डः कुन्सीपती सिते" इति Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । विश्वः । स्फटिकचन्द्रकान्त रजतमयदढप्राकार इत्यर्थः समुल्लसतीति समुल्लसन् प्रस्फुरन समुलसन् पाण्डुकभद्रशालो येषान्ते तथाक्ताः पक्षे पाण्डकञ्च भवशाल ति पाण्डमभदशाले तदभिधाने वने समुल्लमती पाण्डकभदशाले येषान्ते तथोक्ताः । सौमनसालयाः शोभन मनो येषान्त सुमनसः सुमनसां विदुषामिमे सौमनसाः सौमनसा आलया अध्ययनशाला येषान्ते तथोक्ताः । “सुमनाः पुष्पमालत्योखिशे कोविदेऽपि" इति विश्वः । पक्षे सौमनसस्य तन्नामबनस्यालयानिलाः सुमनसान्देवानामिमे सौमनसाः सौमनसा आलया येषु ते तथोक्ताः। जिनालयाः चैत्यगेहाः । मेरूनपि महामेरुपर्वतानपि । जयन्ति अभिभवन्ति । चित्रम् आश्चर्यम् । श्लेषालंकारः ॥२१॥ भा० अ०-आश्चर्य की बात है कि वहाँ पर कोकिल जैसी पढ़ती हुई वटु मण्डली से युक्त, वा कोकिल से प्रतिध्वनित नन्दनवनसे युक्त, स्फटिक और चन्द्रकान्त मणिमय प्राकार से परिवेपित या पाण्डुक और भद्रशाला वनसे युक्त और भव्यों के आलयभूत या देवताभों के आलयभूत जिनचैत्यालय सुमेरुपर्वत की भी उच्चता को तिरस्कृत किये हुए थे॥५१॥ ग्रवारमग जिनालयत्विच्छन्ने भ्रमध्ये तपनो हठेन ॥ दूर्वाम्बुबुझ्या द्रवदश्वरोधक्लेशासहः किं कुरुतेऽयने द्वे॥ ५२ ॥ यत्रेत्यादि । यत्र पुर्याम् । अभ्रमध्ये अभ्रस्याकाशस्य मध्यन्तस्मिन् । अस्मगाजिनालयविरच्छन्ने अस्पगर्मो नीलरमन्तवार्क स्फटिकोपलस्स च तथोक्तः *अरमगर्भो हरिन्मणिः अर्ब स्फटिकसूर्ययो:"इत्युभयत्राप्यमरः । नाभ्यान्निर्मिता जिनालयास्तथोक्ता: "मयूरव्यंस कादयः" इति तत्पुरुषत्वान्मध्यमपदलोपस्तेषां स्विट कास्तिस्तया छन्न लिप्तन्तस्मिन् सति "स्युः प्रभाचिस्त्विद" इत्यमरः । दूर्वाम्बुद्ध या दूर्वा चाम्यु च दुर्वाम्बुनी तयोस्ते इति वा बुद्धिस्तथा हरिन्मणिस्फटिकयोः कान्ल्या दूर्वाम्बुनोर्बुद्धि यत इत्यर्थः । द्रवदश्वरोधल शासहः वन्तीति द्रवन्तः प्रयान्त स्ते च ते अश्वाश्च तथोक्तास्तेषां निजयानवाजिनो रोधः स्थापनन्तेन जात: क्लं शस्तन्न सहत इति वृषदश्वरोधल शासः । तपनः सूर्यः | हठेन बलात्कारेण । "प्रसभस्तु बलात्कारो हठः” इत्यमरः । द्वऽयने दक्षिणोत्तररूपे गती। "अयने ई पतिलक दक्षिणार्कस्य बत्सरः" इत्यमरः । कुरुते विधत्ते। किमेवं स्यादिति शङ्का। संकरालंकारः ॥ ५२॥ ___ भा० ०-नीलमणि तथा स्फटिकमणि से ड़ित, चैत्यालयों की कान्ति से परिपला. पित आकाश में हरी घास और जल की भ्रान्ति से त्रिमुग्ध हो उनकी और भागते हुए घोड़ों को रोकने में असमर्थ होकर ही मानों सूर्य ने उत्तरायण तथा दक्षिणायन का निर्माण किया। ५२। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः। चित्रं जिनेन्द्रावसथस्थलेषु प्रमोदबाष्पोदकपिच्छिलेषु ॥ भव्यैः किलोप्सा; सिततण्डुलारते फलन्ति यस्यां बहुश: फलानि ॥५३॥ चित्रमित्यादि । यस्यां पुय्याम् । प्रमोदवाष्पोदकपिच्छिलेषु प्रमादेन सन्तोषेण जातं बाष्पस्याश्रोरुदकं प्रमोवाष्पोदकं "बायोऽश्च पयम्बधूमे च" इति बैजयन्ती। तेन पिच्छिलानि पोभूतानि तेषु। "पिच्छिल स्थानिजलक पडूः स्यात्” इत्यादि हलायुधः । जिनेन्द्रावलथस्थलेषु जिनानामिन्द्रास्तथोक्ता जिनेन्द्राणामावसथा आलयास्तेषां स्थलानि तेषु। भव्यैः चिनेयः । उताः उप्तन्तेस्र उप्ताः क्षिप्ताः। ते प्रसिद्धाः। सिततण्डुलाः सिताश्च ते तण्डुलाध तथोक्ताः शुभ्रतण्डुला इत्यर्थः ! यहशः अनेकशः । फलानि अभीष्टफलानि । फलन्ति निष्पादयन्ति । फलनिष्पत्ती लट् । त्रिजम् अद्भुतम् ॥ ५३॥ भा० ४०-जहाँ भक्ति-विगलित आनन्दाचसे पडोभूत जिनमन्दिरों में भव्यों से बोये गये स्वच्छतण्डुल बार वार, फलते है यह आश्चर्य था । ५३। देवीनां मणिगृहमध्यवत्तिहैमप्रासादे सदलसकर्णिकाम्बुजाभे ॥ आवासे यदधिभुवः कृताधिवासा श्रीरासीवमरविन्दमन्दिरा सा ५४ देवीनामित्यादि । सदलसकर्णिकाम्बुजाभे दलेन पर्णन सह वर्तत इति सदल कर्णिकया सह वर्सत इति सकर्णिकम् अम्युनि जायत इत्यम्बुजं सदलञ्च सिकर्णिकञ्च तदम्बुजञ्चेति सदलसकर्णिकाम्बुजन्तस्याभः समानस्तस्मिन् पर्णकर्णिकासहितारविन्द समान इत्यर्थः । देवीना महिषोणाम् । मणिगृहमध्यवर्तिहमप्रासादे मणिभीरन निर्मिता गृहा मणिगृहास्तेषाम्मध्यन्तस्मिन् वर्तत इत्येवं शीलो मणिगृहमध्यवस्ती हेना निर्मितो हैम: "हेमादिभ्यः" इत्यञ् प्रत्ययः हेममय इत्यर्थः स चासो प्रासावश्च हैमप्रासादः "हादि धनिनां वासः प्रासादो देवभूभुजाम्" इत्यमरः। मणिगृहमध्यवर्तिचासौ हेमप्रासादश्च तथोक्तस्तस्मिन् । यदधिभुवः यस्याः पुर्या अधिभूरधिपस्तस्य राजगृहाधिपस्य। आवासे आलये। शताधियासा कृतोऽधिवासो निलया यया सा तथोक्ता चिहिताश्रया । सा प्रसिद्धा। श्री: लक्ष्मीः । ध्रुवम् निश्चयेन । अरविन्दमन्दिरा अरविन्द कमलन्तदेव मन्दिरमावासो यस्यास्सा तथोक्का कमलनिलयाभिधाना। असीत अभवत् । अस भुवि लङ्॥५४ ॥ इत्यहहासकृतेः काव्यरतटीकायां सुखबोधिन्यां भगवदभिजनवर्णनो नाम प्रथमः सगोऽयं समाप्तः ।। भा० अ०-जहाँ राजमतिषियों के आवासों के मध्यमें पत्र तथा कर्णिका-युक्त कमलकीसी आभाषाले मणिभय सुवर्ण प्रासाद में निवास करती हुई राजलक्ष्मी अपने कमलासमा नाम को चरितार्थ किये हुई थी ।५४ । इति प्रथम सर्ग समाप्त Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ द्वितीयः सर्गः॥ अथाभवत्तस्य पुरस्य राजा सुमित्र इत्यन्वितनामधेयः ॥ क्रियार्थयोः क्षेपणपालनार्थद्वयादसत्सद्विषयात्सुपूर्वात ॥ १ ॥ अयेत्यादि । अथ राजधानीनिरूपणानन्तरे । तस्य पुरस्य राजगृहनगरस्य ! क्रियार्थयोः क्रिया परिणतिः प्रवृत्तिर्वा सार्थो थयोस्ती तथोक्तो नयोः। "क्रियार्थो धातुः" इति सूत्रपात् धातुसतोरित्यर्थः । असत्सद्विषयात् असन्ती दुर्जनाश्च सन्तस्सजनाचा. सत्सन्तस्ते एव विषयों गोचरो यस्य तस्मात् । सुपूर्वात् सुशब्द एव पूर्व यस्य तत्सुपूर्व तस्मात् ।क्षेपणपालनार्थवयात् क्षेपणन्तिप्रवणश्च पालनं रक्षणञ्चेति क्षेपणालने तयोरथौं क्षेपणपालनार्थों तयो यन्तथोक्त तस्मात् । सुमित्र इति सुमिनोति निगलाति जायते पालयति इति सुमित्रः । डुमिञ् प्रक्षेपणे पालने इति सुपूर्वकधातुशात्पन्नत्वात् । अन्वितनामधेय इति अन्वितं सार्थक नामधेयं यस्यासी तथोक्तः । "नाम समभागधेयः" इति धेय प्रत्ययः। दुनिग्रहशिष्टपालनसमर्थ इत्यर्थः । राजा भूपः। अभघात् आसीत् । भूसत्तायां ल॥१॥ भा० अ०-सजनों का रक्षण और दुर्जनों का दमन करने के कारण अपने नाम की सार्थक करता हुआ उस राजगृह नगरी का सुमित्र नाम का राजा हुआ । १ । यं राजशब्दासहमन्यपुंसि श्रुत्वा भयाढ्यः सुवरोचिरासीत् ॥ स्तुतिप्रसक्ताः कवयो बभूवुर्योऽपि सत्यं धनदो वभूव ॥२॥ यमित्यादि। अन्यपुंसि अन्यश्चासौ पुमांश्चान्यपुमान तस्मिन् स्वस्मात्परपुरुषे । राजशब्दासहम् गजेतिशब्दो राजशब्दस्तन्न सहत इति राजशम्दासहस्तम् राजाभिधानमसहमानमित्यर्थः । यम् सुमित्रराजम् । ध्रुत्वा आकर्य । सुखरोचिः सुखमाड़ादनन्त पं रोचिः कान्तिर्यस्य स तथोकः "रोचिः शोचिभे ग्लोबे प्रकाशो घोत आतपः” इत्यमरः । चन्द्र इत्यर्थः । भवाढ्यः भयेन भीत्या आन्यः पूर्णः पक्षे भया कारल्या आख्यासमृद्धः । आसीत् अभवत् । कवयः कवीश्वराः। स्तुतिप्रसकाः स्तुती स्तवने प्रसक्ताः प्रीताः। बभूवुः आसन् । भू सत्तायां ,लिट। यक्षोऽपि कुबेरोऽपि । धनदः धनन्ददातीति धनदो द्रव्यदायकः। बभूव आसीत् । सत्वम् तत्थ्यम् । कयौ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। यक्षे मृगाङ्क च शके राजविभासित इत्यभिधानाले प्रयोऽपि तथा कुर्युरिति भावः ॥ २॥ भाउ अ०-यह सुमित्र राजा दूसरे किसी की राजोपाधि नहीं सहन कर सकता यह सुन कर ही भयभीत हो राजोपाधि विभूषित मानों चन्द्रमा कान्तियुक्त, कविगण स्तुति परायण तथा यक्ष धन देने में व्यस्त हो रहे थे !।२।। कोपारुणेऽप्यक्षिणि यस्य चित्रं सकञ्चुकैः कुण्डलिभिः सनाथम् शिवारपदं काञ्चनवजपूर्ण बभूव सर्व नगरं रिपूणाम् ॥ ३ ॥ कोपारुण इत्यादि । यस्य सुमिननृपस्य । अक्षिणि नेत्रं । कोपापोऽपि कोपेन रोघेणाहमा रक्तन्तत्तमिति ! यो भावको मि स्मार्णमपि च विष" इत्यमरः । किंपुनर्यु छायत इत्यपि शब्दार्थः। रिपूणा शत्र णाम् । सर्वम् नगरम् पुरम् । सकञ्च कः कञ्च केन करचेन सह वर्त्तन्त इति सकञ्च कास्तैः सकवचस्व स्यात्र विरोधः कञ्च केन निम्मौकेण सहवर्तन्त इति सकञ्च कास्तः । "कञ्च को वारदाणे स्थान्निम्मोक कबत्रेऽपि । बद्धापकगृहीताङ्गास्थितवस्त्रे च चोलके' इति विश्वः । कुण्डलिभिः कुण्डलं कर्णवेष्टनमस्त्येषामिति कुण्डलिनस्तैः । कुण्डलस्वस्य विरोधः कुण्डलिभिः भुजंगः । "कुण्डली गूढपा चक्षुःश्रवाः" "इत्यमरः। सनाधम् नाथेन सहितम् । शिवास्पदम् शिवानां मंगलानामास्पदम् शिवास्पदम् मङ्गलास्गदत्व. स्य विरोधः शिवानो गालानामास्पदम् तथोक्तम्। "शिव मोक्षे सुखे भद्र सलिलेऽथ शिघो हरे । वेद योगान्तरे कीले चालुके गुग्गुलेऽपि च। पुण्डरीकद् मे धापि शियाझोटामलौषधौ। अमयामल फी गौरी क्रोष्ट्री सक्त फल्दासु च"इति विश्वः । काञ्चनयजपूर्णम् काश्चनश्च बजञ्च काञ्चनत्रज ताभ्याम्पूर्ण काञ्चनवजपूर्णम् । सुवर्णबज़ पूर्यास्तस्य विरोधः किन्तु काञ्चनैर्धत्तरैरन्यवृक्षविशेषेर्वा चन: सिहएडादिभिश्च पूर्णम् । “काञ्चनः काञ्चनारे स्याच्चपके नागकेनरे उधुम्बरे च पुन्नागे हरिदायाश्च काञ्चनी । काञ्चनं हेनि किनलके पुनागे कात्रभाजने । घज' हीरकदम्भोलिपलकामलकेषु च" इत्युभयत्रापि विश्वः। “धत्तुरः कनकाधगः मिश्र याप्यथ सीहुण्डो पजः स्नुकस्त्रीस्नुही गुडे" न्युभयत्राप्यमरः । बभूव जई । भू सतायो लिट। विरोधालंकारः ॥३॥ भा. अ-सुमित्र राजा की आँखें क्रोध से लाल होने पर शत्रु ओं के सभी नगर सापों का बसेरा, सियारों की मौद और धल्लूर तथा सेङड़के सघन वन हो गये थे। अर्थात् घर के मारे शत्रओं के भागजाने से उनके नगर बोहड़ बने हुए थे।३। . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । प्रयाणभेरीश्रवणेन यस्य पलायमानानरिभृमिपालान् ॥ पदाभिघाताक्षमयैव सद्यः प्रकाशयामास समीरकेतुः ॥४॥ प्रयाणेत्यादि। यस्य सुमित्रराजस्य । प्रयाणभेरीश्रवणेन प्रमाणस्य भेरी प्रयाणभेरी तस्याः श्रवणन्तेन प्रस्थानपटहध्यानाकर्षनेनेत्यर्थः। पलायमानान् पलायन्त इति पलायमानास्तान् धावमानान् । “परापूर्वकादयधातोरानरो लोपाविति" पराशब्दस्य रेफस्य लः। अरिभूमिपालान् भूमि पालयन्तीति भूमिपालाः अरयश्शनवध ते चते भूमिपालाश्च तथोक्तास्तान । पदाभिघाताक्षमयैव पदानाचरणानामभियात. स्तथोक्तः ने क्षमा अक्षमासहनम्पदा भिघातेन आताक्षमापदाभिघातस्याक्षमा वा तयेव । "क्षितिः क्षान्तौ क्षमा ख्याता हित शक्ते च वाध्यवत्" इति विश्वः । समीरकेतुः समीरस्य वायोः केतुः ध्वजः समीरकेतुः ध्वजश्विाह धुलिरित्यर्थः । "नमस्त्रान् मातरिश्वा च समीरश्च समीरणः” इति जयकात्तिः। प्रकाशयामास प्रकटयामास । काशदीप्ती "णिजन्ताहयायित्यादीनाम्" तत्पलायनश्यामदर्शयतिमयर्थ. . या l भा० अ०- सुमित्र महाराज की प्रयाणभेरी सुन कर भागते हुए शत्रुओं को उनके चरणाघात सहन करने में असमर्थ हुई धूलि ने ली प्रकटित कर दिया। अर्थात् शत्रु ओं के भागने से जो उनके पैरों की धूलि उड़ी उसीसे वे पकड़ लिये गये।४। येनासिना युद्धशिरस्यरीणाम् साङ्गच्छिदे वर्मणि रक्तधारा । विनियंती तेन यथा व्यराजीदुद्भूतकोपामिशिखेव तेषाम ॥५॥ येनेत्यादि। येन सुमित्रगजेन। युद्धशिरसि युद्धस्य संग्रामस्य शिरो युद्धशिरस्तस्मिन् । रणान इत्यर्थः। असिना चन्द्रहासेन खड़े नेत्यर्थः । अरीणाम् शत्र - णाम् । वर्मणि कवचे। साच्चिदै अङ्गेन सह वर्तत इति साङ्ग साङ्ग छिनत्ति साङ्गछित्तस्मिन् सति। "छिन्नं छात लून इत्तं दात दितं छितं वृणम्" इत्यमरः । तेन यथा तच्छिद्रमाण । विनियंती निष्कामन्ती निर्गच्छन्तीत्यर्थः। रक्तधारा रतस्य धारा प्रवाहस्तथोक्ता शोणि प्रवाहः। तेषाम् शत्र भुपानाम् । उद्भूतकोणाग्निशिखेब उ तोड़सौ कोपश्चोदभूतकोपः स एवाग्निस्तस्य शिखेव वालेथ। व्यराजीत् व्यवभासत राज दीमा लछ। उत्प्रेक्षालंकारः ॥५॥ ___ भा० अ०-युद्धक्षेत्र में सुमित्रराज से खङ्ग के द्वारा शत्रु ओं के कवच के साथ २ अङ्ग काटे जाने पर उस छिन्न भिन्न शरीर से निकली हुई रक्त की धारा उनकी फ्रोधाग्नि कीसी मालूम होती थी। ५ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः रणेषु खड्गः करिकुम्भमुक्तासम्पृतधारोऽनुचकार यस्य ॥ विदारिते वक्तृबिले विधातुर्विधुन्तुदस्येन्दुकुटुम्बकानाम् ॥६॥ रणेधित्यादि । रणेषु संग्रामेषु । यस्य राशः। करिकुम्भमुक्तासम्पृतधारः करिणां गजानां कुम्भाः करिकुम्भाः “कुम्भो घटेभमू(शौ" इत्यमरः । करिकम्भेषु भवा मुक्ता मौक्तिकानि ताभिस्सम्पृक्ता युक्ता धारा यस्य स तथोक्तः। खड़ा रुपाणः। विक्षारिते विदाणे । वक्र विले मुखच्छिद्र । इन्दुकटुम्बकानाम् इन्दोश्चन्द्रस्य कुटुम्बान्येच कुटुम्बकानि तेषाम् । विधातुः विदधात्तीति विधाता तस्य कुर्वतः कर्तु: क्दने प्रसित स्थापयितुमित्यर्थः । विधुन्तुदस्य विधुन्नुत्तीति विधुन्तुइस्तस्य राहोः "विधायुरपदे तुझ्यथनेऽस्माद् विध्वस्तिलात्तुद्" इत्यनेन खच प्रत्ययः "खित्यहः" इत्यादिना मम् । अनुच हार अनुकरोतिस्म । डुकन करणे लिट। इन्दु कुटुम्बकानां विधातुर्विधुन्तुदस्य चेत्युमयजापि कर्मपष्ट्या तस्य सदशोऽभूदित्यर्थः ॥ ६ ॥ भा० Xo-महाराज सुमित्र के खङ्गकी धार युद्धक्षेत्र में हाथियों के मस्तकों को विदीर्ण करते समय गजमुक्ताओं से समलकर होती हुई चन्द्रपरिवार को ग्रस्त करने के लिये समुद्यत राहु के समान जान पड़ती थी । ६। कृपाणभिन्नैयुधिवैरिवीर विभिन्नबिम्बे सति यस्य भानौ ॥ स्वयम्भयेनैव बभूव भिन्नः शशी न चेदय बिली किमेषः ॥७॥ कृपाणे त्यादि। युधि संग्रामे । यस्य प्रभोः । कृपाणभिन्नः कृपायोन स्वईन भिन्मा. श्छिन्नास्तः। वैरिवीरः वैरिण पब धीरा चैरिवीरास्तैः शत्रु वीरैः । रूपकः। भानौ सूर्ये । विभिन्न विम्चे विभिन्न छिन्न बिम्ब मण्डलं यस्य तस्मिन् । शशी चन्द्रः । भयेन भीत्या। स्वयमेव आत्मन्येव । भिन्नः विशोर्णः। यत्र भवतिस्म । न चेस् मृषाचेत् तर्हि । एषः सुधांशुः । पिली बिलमस्यास्तोति बिली छिनानित्यर्थः। किम् कधमभूदिति वितर्कः। "किं प्रश्न वितर्के " इत्यमरः । संयुगे संस्थितरधि भित्त्वा वीरास्स्वर्ग प्रयान्तीति कवितासंकेतः॥ अनुमित्यलंकारः ॥७॥ भा० अ०-जिस सुमित्रराज के खद में मारे गये शत्रुओं की आत्माओं को सूर्यमण्डल को विद्धकर जार जाते हुए देख कर मानों भय से चन्द्रमा स्वयं ही विदीर्ण हो गया। यदि यह बात नहीं होती तो चन्द्रमा विली अर्थात् सच्छिद्र क्यों कहलाता । ७ । बाहौ यदीयेऽर्थिसुरद्रमेऽपि मन्येऽसियष्टिं विषवल्लिमन्याम् नोचेत्तया वैरिणि वेष्ट्यमाने किन्तेपिरे तस्य कुटुम्बकानि ॥८॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् वाहावित्यादि। यदीये यस्शयं यदीयत्तस्मिन् । दोश्छ" इति छ प्रत्ययः। बाहो भुजे। अर्थिसुदुनेऽपि अर्थयन्त्येवं शीला अर्थिनः सुरस्य द्रुमः सुष्मः मुरल म इत्र सुग्छ मोऽर्थिनां सुर मस्तस्मिन याचकजनकल्पवृक्षे सत्यप्युपमा। असियष्टि खगलता। अन्यां भिन्नां छिन्नां लोकातिगामित्यर्थः। विषवलिम विषलताम् । मन्ये जाने । नोचेत्तया खडुलतया। चैरिणि चरमस्यास्तीति बैरी तस्मिन् शत्रों। वेष्ट्यमाने संश्रीयमाणे सति। तस्य वैरिणः। कुटुम्बकानि कुटुम्बनि। किम् किन्निमित्तम् । लेपिरे तपन्तिस्म । तप सन्तापे लिट् ॥ उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ८॥ __ भा० अ०-महाराज सुमित्र की भुजायें यावकों के लिये कल्पवृक्ष के समान अभीष्टप्रद होने पर भी उनकी तलवार को मैं विषलतिकासी समझता हूं । नहीं तो इसके लक्ष्य बने हुए शत्र ओं के परिवार वर्ग क्यों दुःखी होते ।। यस्य प्रतापाग्निशिखावलीढं सर्व जगत्सत्यमिदं वदामि ।। नेदं द्विषो यं यमगुः प्रदेशं तप्ता बभूवुः किमु तत्र तत्र ॥ ६ ॥ यस्थेत्यादि । इद् एतत् । सर्वं विश्व । जगत् भुवनम्। यस्य सुमित्रनृपस्य । प्रतापानिशिखावलीढम् प्रतापः पराक्रमः स एवाग्निस्तस्य शिखा ज्वाला तयावलोढ व्याप्तं प्रतापाग्निशिखावलीढम् । "सप्रतापः प्रभाषश्च यत्तेजः कोपदण्डजम्" इत्यमरः । सत्यम् तथ्यम् । वदामि ब्रवीमि । इदम् वचनम् । न नचेतहि । विषः शत्रवः । “विधिपक्षाहितामित्रदस्युशात्रवशत्रवः” इत्यमरः । यं यम् प्रदेशम् । अगुः यन्तिस्म । इण गतौ लुङ "गैत्योः” इति गादेशः। तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् प्रदेशे। वीप्सायामिति द्विः। तताः तप्यन्तेस्म तताः। किं बभूवुः किन्निमित्तम्भवन्तिस्मेतिवितकः । अनुमित्यले कारः ॥ ॥ भा० अ-मैं समझता कि, सुमित्रराज के प्रतापरूपी अग्नि की ज्वाला से सारा , संसार व्याप्त हो रहा था। यदि यह नहीं होता तो इन के शत्रु जहाँ जहाँ जाते वहाँ २ क्यों सन्तप्त होते । । यस्यासिधाराविनिपातभीतास्त्यजन्तु पद्माकरसंगमानि ॥ विमुक्तवन्तः किल राजहंसाः स्वमुत्तराशाश्रितमानसश्च ॥१०॥ यस्येत्यादि । यस्य भूपस्य । असिधाराचिनिपातमीताः अर्धारा असिधारा बनानम् तस्या बिनिपातो घातस्तेन भीतास्सन्त्रस्तास्से तथोक्ताः पक्षे असिवकरा धारा जलप्रवाहोऽसिधारा तस्या विनिपाताभीतास्तथोक्ताः । "धारा संन्यानिमस्कन्धसन्तत्योःपतनान्तरे। बद्रव्यप्रपातेऽपि तुरंगगतिपञ्चके । बङ्गादीनाञ्च निशित Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। - मुखे धाराऽपि कोयते” इति विश्वः। राजहंसाः राशा हंसाः राजहंसाः श्रेष्ठा! राजहंसाः भूपेन्दा इत्यर्थः पक्षे राजहंसाः हसविशेषाः। "राजहसो गधठे कादम्बकलहसयोः" इति विश्वः । पनाकरसंगमानि पद्मा लक्ष्मी कुर्वन्तीति पाकराणि सम्पविधाय. कानि तानि संगमानि संसर्गास्तथोक्तानि राज्यभोगादिसम्बन्धानीत्यर्थः पक्ष पशकरस्य पमानामाकरस्तस्य तदाकस्प संगमानि सम्बन्धानीत्यर्थः । “पमः स्यात्पन्न व्यूहे निधो संख्यान्तरेऽन्दी ममके विसुशादेवि ' नामोशियोति विश्वः । धिमुञ्चन्तिस्म विमुक्तवन्तः । स्व स्वकीयम् । उत्तराशावितमानसञ्च उत्तरा भविष्यत्फलरूपाशा वांछा तथोक्ता उत्तराशामाश्रयतिरुम तथोक्तमुत्तराशाथितञ्च तन्मानस वित्तञ्च तथोक्तम् पक्षे उत्तरा चासाबाशा च तथोक्ता उसरादिक तामाश्रितमुसराशाश्रितन्तवमानसं तनामसरश्चेति तथोक्तम् । “आशा तृष्णादिशोः प्रोक्ता, मानसं सरसि स्वान्ते" इत्युभयत्राणि विश्वः । त्यजन्तु मुञ्चतु। त्यजहानी लोट् । किल सम्भावितेऽर्थे । "वार्ता सम्मावयोः किल" इत्यमरः। उत्तरदिशि धनदस्य मंत्ररथनामोद्याने मानलनाम सरोऽस्तीति लौकिकरूढिः ॥ श्लेषोपमालंकारः ॥ १० ॥ भाषा अ.--सुमित्र महाराज के खद्धप्रहार से भयभीत होकर यढे २ राजाओं ने अपने राज्य के ऐश्वपभोग तथा भावी आशाओं को अपने हृदय से निकाल दिया। (दूसरा पक्ष ) अथवा राजहंस पक्षी ने सुमित्र महाराज के राज्य में तीवजलप्रवाह से त्रस्त होकर पदमाकर ( सरोबर ) का आना जाना छोड़ दिया तथा उत्तर दिशा में विराजमान मानससरोवर को भी छोड़ दिया । १० । तेजोऽनले व्याप्तसभस्तकाष्ठे तत्र स्थिति कर्तुमशक्नुवानाः ॥ यस्यारयो वारिधिवासमापुर्नीचेत्तथा के किल वारिमाः ॥११॥ तेज इत्यादि। यस्य नरेन्द्रस्य । तेजोऽनले तेजः प्रभावस्तदेवानलोऽग्निस्तस्मिन् । "तेजः प्रभाये दीप्तौ च बले शुक्र गि" इत्यमरः । व्याप्तसमस्तकाष्ठे समस्ताश्चताः काष्ठा दिशश्च तथोक्ता व्याप्ताः परिपूर्णाश्च ताः समस्तकाष्ठा येन स तस्मिन् सति “काष्टोत्कर्षे स्थिती दिशि" इत्यमरः । इन्धनानि धन्यन्ते । तत्र दिक्षु । स्पितिम् स्थान्तम् । कर्तुम् करगाय कत्तु विधातुमित्यर्थः। अशक्तुवानाः न शक्नुवन्तीत्यशक्नुवानाः। "वयः शक्ति शील" इति शान प्रत्ययः । अशक्नुवन्त इत्यर्थः | अरयः शत्रयः । बारिधिवासम् वारीणि धीयन्तेऽस्मिन्निति पारिधिसमुद्रस्तस्मिन् चासो निवासस्ता समुद्रावासमित्यर्थः । आपुः ययुः । व्यतिरेकः । तथा तेन प्रकारेण । मोचेत् यदि न भवेत्। धारिमाः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुनतकाव्यम् । पारिणि प्रवर्तमाना भास्तथोक्का जलधरमनुष्याः । के किल के भवन्ति । फिलेति प्रश्नः । अनुजिल्यलकार: ॥ ११ ॥ भा० अ०-दन नहारात को प्रतापानि के सभी दिशाओं में व्याप्त होजाने पर इनके शत्रु ने श्यार स्थान । पा ससुर का साग ला। यदि ऐसा न होता तो जलचरमनुष्यों का अस्तित्व ही मिट जाता । ११ । . उपायनाश्वेभ बुरप्रहारमदाम्बुनिम्नीकृतपूर्णामध्यम् || रत्नाङ्गगां यत्सदमा विशालम् क्रीडालरोपद्विरराजलक्ष्याः ॥१२॥ उपआयने यादि । यत्सदसः यस्य सदस्तस्य सुमित्रराजसभायाः । “आस्थानी क्लोरमास्थान स्त्रीनपुंस म्याः सदः' इत्यमरः । उपयन श्वेनखुरप्रहारमदाम्बुनिम्नीकृतपूर्णमध्यम् अश्वाश्वेभाश्व * अश्वेभा उपायनार्थ उपहारनिमित्तमानाता अश्वेभा उपायनाश्वभाः खुराणां प्रहारः खुरप्रहारो मदस्याम्पु मदाम्बु खुरप्रहारश्च मदाम्य च खुरप्रहारमदा-बुनी उपायनाश्वाना खुरग्रह रमदानो तथाक्त प्रागनिम्नं इदानीं निम्न क्रियाम निम्नारुतम् पूर्णतः पूषम् उपायना वायु प्रहार हा बुभ्यां निम्न कुन. पूर्व मध्यं यस्य तत्तयाक्त। यथासंख्यालंकारः । अश्वानुर सहारण निम्नाकाम नगद पु. ना पूणमध्यमित्यर्थः । विशालं वस्तुतम् । रत्नाङ्गम् लनिमितमाण तथासम् । "अरुणं चत्वराजिरे" इत्यमरः । लक्ष्म्याः श्रादेव्याः। काडासरावत् काडासर इच कीडा. सरायत् । उपमा । विरराज बभी। राजू दाप्तो लट् ॥१२॥ भा० अ० भैट में आय हुप घोड़ों के खुर-प्रहार तथा मदमत्त हाथियों की मदद्धारासे मुभित्र महाराज की सभा के रक्षजड़ित प्रांगण का मध्यभाग गड्ढासा हाकर लक्ष्मा महाराणो के काडासरोवर के समान ज्ञात होता था ॥ १२ ॥ प्राणेश्वरी तस्य बभूव राज्ञः पद्मावतीनामनरन्द्रकन्या । ययाधिविन्नाजनि भूतधाती या चाधिविन्नाजनि भूरिलदम्या ॥१३॥ प्राणेश्वरीत्यादि । तस्य रामः सुमित्रस्य । यया रमण्या । भूतधात्री भूदेवो । "भूतधात्र यन्धिमेखला" इति धनञ्जयः। अधिौवन्ना विद्यते-म विन्ने अधि उपरि विन्न यस्याः सा अधिचिन्ना सपनो "कृतसापालकाध्यूढाधिचिन्नाऽयस्षयम्यग" हत्यम। भजनि अभूत् । जनप्रादुभावे लुङ “दापूर्जनि" इत्यादिना नि; ":" इति तस्य लुक् । या अलजमनुध्या इत्यर्थः। * प्रश्वाश्चभाश्चतिविभहे सनाङ्गत्वनान कवद्भावा भवितुमुचित प्रासीत् | Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। बनारी । भूरिलमा भूषिश्वासौलक्ष्पश्चेनि भूरिलक्ष्मीस्तया ! अधिचिन्ना सपत्नी अनि अभूत्।सापद्मावतोनामानन्दकन्या नराणामिन्द्रो नरेन्द्रः कश्चिद्भनिस्तस्य कन्या कुमारीपमा अन्या अस्ताति पमाता पमावति नाम यस्याः सा तोक्का सा चासो नरेन्द्रकन्या व तयार प्रहरी प्रण नाताश्वरी तयो का वल्लना । बभूव भवतिस्म। भूत. धाजोनारला सत्तो नत्यन्शगरिति । अतिरायालंकारः ॥ १३ ॥ भा० अ० -महाराज की प्राणवल्लभा पद्मास्ती एक राजकन्या थीं। इनकी केवल दो सोते थों। एक पृथ्यो और दूसरी राजलक्ष्मी ॥ १३॥ लावण्यवाराशितराङ्गकल्पलतां नृपस्त्रीमवलोक्य शके ॥ तत्काम्ययाद्यापि करोति लक्ष्मीस्तयोम्बुमध्ये कमलासनस्था ॥१४॥ लावण्येत्यादि। लावण्ययाराशितराइकल्पलना लावण्यमेव सौरूप्यमेव बाराशिः वारा जलाना राशिः सनुस “चारिजलसमु" इति धन लापाराशि तरतीति लावण्यधाराशिवरा बनानेत्यर्थः कल्पलताश वारासिमरत्वमसिद्ध स्वित्र जिल्ला दिन्यः इत् प्रत्ययः। अङ्कोर केला ताङ्गकला ना लावण्यवाराशितरा वासावङ्गकल्पलता च तथोक्का ताम् । नास्त्रो नृन् पाताति नृपस्तस्य स्त्री ताम्पमावतीम् । अवलोपप बीश्न । लक्ष गे: कमला। तत्काम्परा तललावण्यामच्छत्रात्पन इति तत्काम्या सया माला चपलामेच्छग "सुरः कर्तः काम्पः" इति वाञ्छार्थ काम्य प्रत्ययः । " प्याद्यत्" इ.त यत् । ततोऽनाद्यन्तःमाप्" इति आए। कम दामनस्था कमलमेचासन कमला पनन्तस्मिन् ति तोति कमलासनस्था पद्मासनस्येत्यर्थः। अद्यापि इदानीमपि । अम्बुमग ज मध्ये । सपः पारिवाज्या । करोति विदधाति । इति शंके मन्ये । शकि शंकायां लट् । उम्रक्षालंकारः ॥१४॥ भः अ-मुझे मन्देह होता है कि सौन्दर्य समुद्र में तैरनेवाली तथा कल्पलतिकासी अङ्गयालो राजमहषी पनावता को देखकर इनको सुन्दरता पाने की इच्छा से लक्ष्मो आज भी समुद्र के मध्य में तपस्या कर रही हूँ ॥१४॥ निशाकरस्फेटनिमानि तन्व्या नखानि पादाङ्गुलिसंगतानि ॥ . जगज्जिगीषोर्मकरध्वजस्य प्रपेदिरे खेटकमल्लकत्वम् ॥ १५ ॥ निशाफरेत्यादि । तन्व्याः कृशाङ्ग याः । निशाकरस्फेटनिभानि निशां करोति इति निशा. करो विधुस्तस्य स्फेटाः खण्डानि तेषां निभानि समानानि तथोकानि। "निभो Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । प्याजसद्क्षयोः" इति विश्यः । उपमा । पावागुन्तिसंगतानि पादगोरंगुल्यस्ताः संगच्छर तथोक्तानि | नखानि नखगणि "तयोऽनिनखराऽस्निगा" इत्यमरः। जगनिमीत्रो: जेनमिच्छु जिंगीषुः "सम्भि" इत्यादिना उप्रत्ययः। जगतो जिगीपुस्ता । मकरध्य भ्य मकोयनों यस्य स करध्वजप्तमा मापथ । खेटकमल्लकत्वा खेटकः फरकः म च भल्लभः कुन्तस्मन खेटक मल्ल को तयोर्भावः खेटकमल्लकत्व। प्रपेदिरे प्रजानुः । पद् गतौ रिट उत्प्रेक्षा लंकारः ॥ भा० ० - चन्द्रा खण्डी समान गती पैर की अंगुलियों के नख, सार को झीनने की इच्छा करने वाले कामदेव के अनभूत ढाल और भाले बन गये । १५ । स्वर्गापगार कसरोरुहाणां मजातमेतद्वयमित्यवैमि । सुरांगनानां कथमन्यथास्ताम् चिराय सेव्यौ चरणौ मृगाक्ष्याः॥१६॥ स्वर्गेत्यादि । मृगाश्याः मृस्येवाक्षिणी नश्ते यस्यास्तस्याः पणाक्ष्याः पनावत्याः । एतद्मगर पतगेश्वरपायाईया नयोक्त।। स्वपगारक्त सरोरुहाणाम् स्वर्गस्थापगा नदी तथोक्ता मरलि रोइन्नीति सरोरुह णि रक्तानि च सानि सरोव्हाणि च रक्तसगेल्हाणि स्वर्गापगाया: रक्तम कटाणि नथोक्तानि तेषाम् । सजालम् सह जायतेस्म इति सजातम् सहोदगम् इति । अवमि जानामि । इण गतौ लट । अन्यथा एवं नोचेत् । सुगंगनानाम् सुगणामंगनाः सुगंगनास्ताग्दा देवमानिनीनाम् । चरणी पादौ । “पदं घिश्चरणोऽखया" इत्यमरः। त्रिराय अनवनगा । “चिराय विररात्राय दीर्घकाले प्रयुज्यते" इति हलायुधः । सेव्यौ सेवितुं आराधित योग्यौ । कथं केन प्रकारेण । आस्ता अभवता । अस् भुवि ला उत्प्रेक्षालंकारः ॥ १६ ॥ मा० अ०-पदमावती रानी के दोनों पर स्वर्गीय नदी के रक्तकमलों के सहोदर से शात हेाते थे। यदि यह बात नहीं होतो तो वे देवाङ्गनाओं से क्यों पूजित होते १।१६। सपर्वरम्भासदृशोम्तोः सजंघयोरंगजकाहला का । कियांश्च पञ्चायुधपृष्ठतूणः कियत्तरौ मन्मथदन्तिदन्तौ ॥१७॥ सपर्वेत्यादि । सपर्वरम्भासदृशोः पर्वणा प्रन्थिना सह यर्तत इति सपर्वा सा वासी रम्भा च सपर्चरम्भा तया मद्दशौ तथोक्तो तयोः । “सदृक्षः सदृशः सदृक् इत्यमरः । समन्धिकइलीस्तम्भसमानयोरित्यर्थः । उपमा । सजंघयोः जंघाभ्यां सा वर्तते इति सजधौ तयोः। ताः तस्याः पद्मावत्या ऊरू तदूरू तयोस्तोंः पुरत इति शेषः । अंगजकाहला अंगे जायत इत्यंगजो मन्मथस्तस्य काइला | का काकुः तदूर्योः पुरः कामस्य काहलाकि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः यती भवतीत्यर्थः । पञ्चायुधपृष्ठतूणः पश्चायुधानि यस्य स पञ्चायुधो मन्मथस्तस्य पृष्ठे शरीर चरमभागस्तस्मिन् विद्यमानस्तूण इषुधिः पचायुधपृष्ठतूणः । कियान् किं मानमस्यति कियान “धत्विदं किम" इति मानार्थे चतुप्रत्ययः “द ध र ख फ" इत्यादिना घस्य इयादेशः "किमिदिमः कोश" इति कि' शब्दस्य क्यादेशः उगित्वान्नु । मन्मथदन्तिदन्ती मन्मथः कामस्तस्य इन्ती गजस्तस्य दन्ती रदौ रूपकः । फियत्तरों प्रकृष्ठों कियन्ती कियसरी। भवतः । आक्षेपालंकारः ।। १७॥ - भा. अ.-गाँठ के साथ २ कदली के खंभे में समान पदमावती रानी की दोनों जांघों के आगे कामदेव का क्या बश था ? कामदेव के तरकस तथा इनके हाथी के दानः दाँत भी निी की जाँघ के आगे कुछ नहीं थे। १७। परिस्फुरतकाञ्चनकाञ्चिबन्धं निबद्धनीवीविलसद्दुकूलम् । कलनभारं कलिकायुधोऽस्याश्चकार वास्त्रं किल चक्रयानम् ॥८॥ परिस्फुरदित्यादि । कलिकायुधः कलिकाः कोरका एवायुधानि यस्य स तथोक्तः पुष्पायुध इत्यर्थः। अस्याः एतस्याः पद्मावत्याः । परिस्फुरत्कांचनकाश्चियन्धा काच्शः मेखलान, तमोर लिनि झाकारान्तयोरभेदो लक्ष्यते । काञ्चनेम निर्मितः काश्चि यः काञ्चनक निवन्धः परिस्फुरतीति परिस्फुग्न परिस्फुन् काञ्चनकाश्चि पन्धो यस्य स तथोक्तस्तर । निवडूनीवाविलसद्कूला निधद्धा बासी नीची च निबद्धनीवी तथा प्रन्धिरचनया विलमदिराजद्दुकलं सूक्ष्मश्वेतवस्त्र यस्य स तम् । “दुकूलम्तु क्षीमे सूक्ष्मांशुकेपि तत्"इनि भास्करः। कलप्रभागा कलत्रस्य नितम्रूप भारता। "कलत्र' श्रोणिभार्य्यया:" इत्यमरः । चास्त्रा वस्त्रंण छन्न वात्रा"छन्ने ग्थ' इत्पण प्रत्ययः । "रथे काम्बलवस्त्राधाः कम्बलादिभिरावृ" इत्यमरः । चक्रपान न क रूढ ग्रान चक्रयानम् स्थमित्यर्थः । चकार विदधौ । डुकृत कर लिट। किल सम्भाव्यम् । उत्प्रेक्षालंकारः॥१८॥ मा० अ०-सुवर्णमय ममज्वल कटिभूषण और नीची-बन्धन-युक्त साड़ी से सुशाभित महारानी पद्मावती के नितम्य भार के कामदेव ने यत्र से ढंके हुए रथ का चक्का बमा डाला । १८। वलिवयत्रासतरङ्गितेऽस्था विलग्नसौन्दर्य्यमहाम्बुराशौ॥ उपर्युदस्तस्तनशैलतो रराज सेतुर्नवरोमराजिः ॥ १६ ॥ धलिनयेत्यादि । अस्याः पद्मावत्याः । बलिप्रयत्रासतरङ्गित धलीनां श्रयं वलित्रयं तस्य मासाधलनानि त एव तरङ्गास्तथोक्ता बलित्रयभासतरङ्गाः संजाता स्मिमिति बलिषय Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् जासतरङ्गिसस्तस्मिन् । पिलग्नसौन्दर्यमहापुराशी घिलगति सन्नति अतिस्वात्वादिति विलग्न मध्यम् "मध्यमञ्चावलाच मध्योऽस्त्री" इत्यमरः । तस्य सौन्दर्य्यम् सौरूप्यम् नयोक्तम् सम्यूनां गशिरम्बुराशिः मतांश्वासाधम्युराशिश्च तथोक्तो बिलमसौन्दर्य्यमेव महायुराशिस्तस्मिन । उपरि अग्रे । उदस्तस्तनशैलतर्यः उदस्येतेस्म उदस्ती उन्नतीच तो स्तनौ चोदस्तस्तनौ ताशेव शंलो ताभ्यां ताकतु योग्यस्तक्य अस्नयोक्तः । नवरोमराजि: नवानि च नामि रोमाणि च गवरोमाणि तेषां राजिः श्रेणी नवरोमराजिः । सेतुः आलिः सेतुबन्ध इत्यर्थः । रराज बभौ राजदीप्तौ लिट । सेतुः सीतापतिना महेन्द्रशैलावधिबद्धः सत्चिदानीभम्बुधिजलमग्नरवादलक्ष्योऽप्यग्रभागे शैलं दृष्ट वा यथा वितय॑ते तथा बिलगलौन्दर्य्यमहाम्बुराशी मिमारवादलक्ष्योऽप्यस्या नवरोमगजिग्ग्रभागे स्तमशलमवलोक्य वितर्यत इति भावः। रूपकालंकारः ॥ १६॥ भा० अ० -त्रिवलीकपी सरंगधाले कटि-सौन्दर्य समुद्र में ऊपर की ओर उठे हुए कुच कषी पर्वतों से अनुमान की जानी दुई अंकुरित गोमाधली सेतु के समान शोभती थी॥१६॥ भुजायता चम्पकमालिका स्यात् कुचोन्नतः पंकजकुड्मलश्च ॥ मृदुत्वकाठिन्यगुणौ मृगाक्ष्याः कथं दधीतोभयमप्युभय्याः ॥ २०॥ भुजायतेत्यादि ।मृगायाः मृगस्पेवाक्षिणी यस्याः सा मृगाक्षी नस्या मृगाक्ष्या; पणाक्ष्याः । भुजायता भुलाविवायती यस्पा सा भुजापता याहुदीधा। चम्पकमालिका सम्पकस्य हेमपुषस्य मालिका तथोक्ता। कुचोन्नतः कुन्चाधिवोन्नतस्तुगस्तथोक्तः। पंकजकुमलश्न पंके जायत इति पंकज तस्य कुडमलो मुकुलस्तथोक्तः । स्यात् भवेत् । तथापि उभयमपि यगकमालिकापंकजकुडमलायमपि । उभय्याः उमावययवावस्या इत्युभयो “टिटुणितिका" तस्याः भुकुचद्वयस्य । मृदुत्वकाठिन्गगुणी मृदो वो मृदुत्वं कठिनस्य भावः काठिन्य मृतुत्वञ्च काठिन्यश्व मृदुत्वकाठिन्ये ते एवं गुणो पुनस्तौ । रूपकः । कथं केन प्रकारेण । दधीत स्वीकुर्यात् । दुधाम् धारणे च लिङ् सङ् । प्रदीपालंकारः ॥ २० ॥ भा० भ० -- मृगाक्षी पमावती को जम्बी बाहें यदि चम्पक की माला कही जाय और उन्नत कुच कमल-कुडमल कहे जायँ तो ये दोनों भुज और कुच की मृदुता तथा कठिनता कैसे धारण कर सकते हैं अर्थात् ये दोनो उपमायें अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकतीं ॥२०॥ शुभेन रेखात्रितयेन तन्च्याः कण्ठः स्फुटं कम्बुसमान एव ॥ सुधासदाण पुनः स्वरेण विपंचिकाप्यञ्चत एव तस्य ॥ २१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्र प्रथमः सर्गः। शुभेनेत्यादि । तन्त्र्याः कृशांग्णाः । कण्ठः प्रीया। शुभेन प्रशस्तरूपेण । रेखात्रिनयन रेखाणां प्रिनय रेग्याप्रितयन्तेन । फटाका । कम्बुसमान एघ कम्युः शंखस्नरूप ममान पच शस्त्रमश इत्यर्थः । "कम्बुनावलाये शंवः' इत्यमरः पुनः ग्न्तुि । सुधासदाण मदा भानवरनपादः सदा सुधमः पीयोण मादस्तेन । स्त्ररेण नादेन : "स्वरोऽकागदि. मात्रामु मध्यमादिषु च ध्वनौ । जता दापि प्रोक्तः स्वरो नामासमीरणे"इति विश्वः । गिपश्चिकागि वीणापि। तस्म कण्ठस्प। अञ्चत पय अञ्चनोन्नतो दूरत पवेत्यर्थः । "मञ्च लपमञ्च" .नि प्रपत्रावरच कार प्रयोगात् । किम्पुरः कम्युरिति भावः॥ २१ ॥ म. 10--कांगी गमावती रानी के कण्ठ में जो शभ सूचक नीन रेणाएँ भी इन से यह शंव के समान कण्ठ अमृतमय सुमधुर स्वर से वीणा को भी पददलित किये हुआ या ॥ २१॥ यदजसौन्दय्यतवं मुखञ्च यदम्बके मीनविडम्बके च । नभ:श्रियः साम्यमुपागता या मरः श्रियः साम्यमतोगता सा ॥२२॥ यदित्यादि। यत् यमाकारण त् । मुसावकत्रम् । अन्नन्दमम्बार अनस्य चन्द्रस्य कमलस्य च मौन्दर नम्रमवा जौन्दर्यमखा “राजनमाने "इसएट । अजो धन्वन्तरी चन्द्र निचुले शवाम पाल"इति विश्नः। यश्च यम्मानोः । अम्बके च नय'। “गदधिनेत्रलोचनचक्षुर्नगनाम्बरेक्षणाधिषि" इति हलायुधः। मीनविडम्पो मौनस्प प्रत्म्यस्य मीनराशेश्च विडम्प निरस्करके “ मीन रान्तरे पत्स्" इति विश्वः। अतः अस्मात् कारणाल् । या देशी । नभःश्रिग: नमसो मा श्री: शोभा नथोक्ता नस्य:साम्पा ममा भावः साम्या। उपागता उपगच्छतिस्ोत्युप'गता प्राप्ता। सा नमावती। सरःश्रियः सरमः कासारस्य श्रीः शोभा नस्शः वाम्या तुलार गता प्राप्ता। मुखनेषयोः चन्द्रमीनराश्योः तुलया नभमः श्रीमाम्यार पद्मपत्स्थयोस्वाम्पात्तु मरःश्रीसाम्यमिति नभःश्रीः सर:श्री: राशी चैति तिस्त्रोऽति समाना इति भावः । उपमालंकारः॥ २२॥ भा० म०-पमावती का मख, चन्द्रमा की सुन्दरता का सहचर था तथा आंने मछलियों को निरस्कृत किये हुई थी अतएव यह रानी आकाश की सुन्दरता की समानता करती हुई सरेराबर की शोभा बी तुलना किये हुई थो ॥ २२॥ विलोकनारीतिलकस्य तम्याः क्व केशपाशस्य पुरो भवामः ॥ इतीदमद्याप्यभिनेतुमेते सधूतयश्चामवालहस्ताः ॥ २३ ॥ त्रिलोकमारीत्यादि। त्रिलोकनारीतिलकस्य त्रयश्चते लोकाश्यत्रिलोकास्वेष विधमाना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । કર घ नारित्र लोकनाय्र्यस्तासामू तिलक तथोकन्तस्य तिलकशब्दरूपाविष्टलिङ्गत्व नपुंसकम् उत्कृष्टाया इत्यर्थः । तस्याः पद्मावत्याः | samrata केशानां पाशः केशपाशस्तस्य मिलस्य | पुरा । कुत्र कुत्रा "इति निपातनात्साधुः । भवामः स्मः । सद्गशा न भवास इत्यर्थः । इदम् एतद्वचनम् । अभिनेतुम् भव्य याभिनेतुं विजव्यापारण दर्शयितुम् । यसे इसे । चामरवा हस्ताः च इमे चामरास्ते च ते बाळ : स्ताश्च तथाकाश्चामरवालधियः "वहस्तश्च वालधिः" इत्यमरः । अद्यापि इद नामपि । सधूतयः वचनं धूःतः धूत्या सह पत्तन्ते इति सधूतयः कम्पना इत्यथः । भवन्तातिसाध्वाहार । उत्यं क्षालंकारः ॥ २३ ॥ मा० अ० - त्रिभुवन का ललनाओं में शिरोभूषण पद्मावता रानी के बालों की तुलना हम नहीं कर सकते इस बात को जताने के लिये ही मानों चामर आज भी कम्पित होते रहते हैं ॥ २३ ॥ मनोजसम्मोहनमंत्रचिन्ताफलं नु भूपालपः फलं नु ॥ नु जनेक्षणादृष्टफलं न किञ्चिन्नवे सृष्टेः कलशाकुतिस्सा ||२४|| मनाजेत्यादि । निमितः । कलाकृतिः करावाकृतिराकारो यस्वास्सा काका: पद्मावत्ति फलम् मनसि जायत इति मनोजस्वरूप सताउन तस्य मन्त्रा मनःजलमोहन मन्त्रवत्ता तथाक्ता तस्याः फलम् मनासम्मोहन मन्त्रानन्तः फलम् मन्मथवशीकरण मन्वादिमत्यथः । तु किम्चा | भूशलत फम् भुवं पालपताति भूगालस्तस्त्र तया भूगालत (स्वरूप फलन्तथ कम् सुत्ररहाराजस्य गतमवचिद्दितत चरणक ठमित्यथः । तुका नक्षा जनानामोक्षणाक्षणानि रामद्वन्तस्त्र फलं तबाकम् क्षोकण पुण्य कलांमत्यर्थः । नु कम्येति । किञ्चित् किमपि । न वेझ न जाने विज्ञान संशयालंकारः ॥ २४ ॥ भा०अ० - सांष्ट के कलश के समान नाचता राना कामदेव के मोह-मंत्र के ध्यान का फल स्वरूप हैं अथवा सुमित्र महाराज को पूर्व तपस्या का फल या जनता के दर्शन सौभाग्य का फल हैं यह यात में निश्चित रूप से नहीं कह सकता ॥ २४ ॥ निर्मूलिताशेषविपक्षकक्षा निराकुली भूतसमस्तभूतः । युवा स पुष्पायुधवारण कोणव्यधात्परं व्याकुलमानसोऽभूत ॥ २५ ॥ निमूं लितस्थादि । निर्मूल्यते स्म निर्ऋलितमशेषाश्च ते चिपक्षाश्चाशेषविपक्षास्त एव कक्षमरण्यं तथा निर्मूलितमशेषविपक्षकक्ष येन स तथोकः । “विपिनं गद्दनं कक्षमरण्यम्" इति घञ्जयः । समूढो, तसमस्तशत्र विपिनः । निराकुलीभूतसमस्तभूतः प्रागनिरा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। कुला इदानों निराकुला भवन्तिस्मेति निराकुलीभूताः समस्ताश्चत भूताश्च समस्तभूता निरा. कुलीभूताः समस्तमूता यस्मात्स तथोक्तः। बाधारहितसकलपजानिकरः । "युक्तमा दाबूते भूतं प्राप्यतीत समे त्रिपु" इत्यमरः । युवा तरुणः । "वयस्थस्सकणो युवा"त्यमरः। सः सुमित्रहाराजः। पुष्पायुधयाणकाण व्यथात् पुष्पाण्येव आयुधानि यस्य स पुष्पायुधः मनाभूस्तस्य बाणः शरस्तस्य कोणोऽग्न तस्य व्यधनं व्याधो घातस्तस्मात् मन्मथबाणानाधनादित्यर्थः । “पादनइएखास्त्रलगुडादिषु कोण" इति नामार्थरक्षकोषे । परम् केवलम् व्याकुलमानस व्याकुल मानसं यस्य स तथोक्तः व्यप्रधीः। अभूत् अभवत् भूसत्तायां लुझ्। साला कारः ॥२५॥ भा०अ०- सभी शत्रु रूप धनको निर्मूल कर सर्व प्राणिवर्ग को निराकुल करनेवाले नवयुवक सुमित्र महाराज कामदेव के वाधान से बेध जाने के कारण व्याकुल-चित्त हो गये । २५। कुलागतं वर्षिणि दृष्टशौचे समंत्रिवर्गऽपितराज्यभारः । तया समं मन्मथशासनानि बभार भावातिमनोहराणि ॥२६॥ कुलागत इत्यादि । कुलागते कुलादागतस्तरि गन् वंशपरम्परायते। यर्षिणि वर्षाणि सन्त्यस्येति वर्षी वृद्ध भूताः इन तस्मिन, धार्षिणि । ज्यायसिवृद्ध इत्यर्थः । इष्टशोचे ट्रष्टं शौच यस्मिन्तस्मिन्नुपधाशुद्ध इत्यर्थः। "धार्थिकामभयव्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा" इति राजनीतिवचनान् । मंत्रिवर्गे मंत्रियां सचिवानां वर्गसमूहस्तस्मिन् । अर्पितराज्यभारः राज्यस्य भारो राज्यभारोऽपितः संस्थापितो राज्यभारो येन स तथोक्तः । सः सुमिप्रभूपः । तया पट्टमहिष्या पावत्या । समं साकम् । "साक सत्रा समं सह" इत्यमरः । .भावातिमनोहराणि वक्ष्यमाणा भावा आलम्बोनोहीपनकारणानि नागादयो भाषास्तरालम्पनादिभिरतिमनोहराणि अत्यन्त मनोहराणि तथोक्तानि । मम्मथशासनानि मन्मथस्य शासनानि तथोक्तानि कामराज्यानीत्यर्थः । कभार प्रतिस्म भृत भरणे लिट् । परिवत्यलंकारः ॥२६॥ भा० ११–तथा वंशपरंपरा से चले आते छुप और सूक्ष्मदशी तथा बूढ़े मंत्रियों पर राज्यभार सौंप कर विविध भावों से पद्मावती के साथ मनोहर कामदेव के शाशन को सहर्ष सम्पस करने लगे।२६। अगायदेषा स ततान तानमनृत्यदषा स तताड तालम् । अवादयहल्लकिकामथैषा स बल्लकीवानुजगो द्वितीया ॥२७॥ मायदित्यादि । एषा इयम्पमावती । अगायत् गानमकरोत् । के ग र शब्द लङ् । सः मुमित्रनुपः। तानम् श्रुतिम् । ततान विस्तारयतिस्म तनु विस्तार लिट् । एषा पन्नावती Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ काव्यम् । अनृत्यत् अनयत् नृ से गात्र-विशेषे लड् । सः सुमित्रः | तालम् कांस्यम् । तताड ताडयतिरूम तड तडने लिए | अथ अनन्तरे । एषा पद्मावतो । वल्लकिकाम् श्रीणाम्। अधादयत् अनावयत् यद व्यक्तायां वाचि लङ् । सः सुमित्रः । द्वितीया द्वयोः पूर्णा द्वितीया । वहलकीय चीणेव । अनुज अनुगायतिस्म में शब्दे लिट् ||२७|| मा० अ० - महारानी पद्मावती यदि गाती थी तो सुमित्र महाराज तान छेड़ते थे, वह नृत्य करती थी तो वे बाजे बजाते थे और वह कहीं वीणा बजाती थी तो सुमित्र महाराज अपने दूसरी वीण के समान सुमधुर कण्ठ से गाते थे ॥ २७ ॥n सह प्रयात दयितौ वनान्तं सह प्रियौ केलिसरः प्रविष्टौ । Refect रमण च दोलाम् सह स्थितौ सौ शिरस्तु कान्तौ ||२८|| सहेत्यादि । दयितौ दयिता च दद्वितश्वेति दयितौ स्रोपुरुषौ “समानमेकः" इत्येकशेषः । धनान्त वनमध्यं । सहसा । "साकं स समं सह" इत्यमरः । प्रयातो प्रियौ प्रिया प्रिय प्रियमध्येकशेषः । केलिसरा केल्याः सरः केजिस कोडासरोवरम् । सह समम् । प्रविष्ठ प्रविशतस्म । रमण रमणी च रमा रमणौ दम्पती । अत्राप्येकशेषः । लाम् प्रालिकाम् । “आन्दोलन स्वादान्दोला दालास्याद्दोलिकापि च " इति वैजयन्ती । सह सभा | 'अधिरूढो अधिरोद्दतः स्म तथोक्तौ । कान्तो कान्ता व कान्तश्च कान्तौ एकशेषः । सौधरि सोधानां शिरांसि तथाकानि तेषु हम्यांमागेषु सह साकम् । स्थितौ तिष्ठ तः रूम ॥ २८॥ भा० अ० - कमनीय कलेवर वाले ये युगल दम्पती साथ ही साथ घन में जाकर सरोवरों में जल क्रीड़ा करते थे । हिंडोले पर झूलते थे और राजप्रासाद की छत पर बैठते ॥२८॥ उरोजयारामदेन तस्याः कुतूहली मकरं लिलेख | विभावयामास स भावयोनेः स्थूलाग्रजाग्रन्मकरध्वजस्य ॥ २६ ॥ I उरोजोरित्यादि । तस्याः पावत्याः । उरोजयोः उरसि जायेते इत्युरोजौ तयोः स्तनयोः । प्रणमन पात्र मद एगप्रहस्तेन कस्तूर्या । कुतूहलीयम् कुतूहलाय मत्रं कुतूहलीयत् । "कौतूहल कौतुकञ्च कुतुकञ्च कुतूहलं" इत्यमरः । मकरम् जलचराय शेषम् । लिलेख लिखशिस्म लिख अक्षरविन्यासे लिट् । सः मकरः । भावयाने भाव एव योनिहत्पत्तिस्थानं यस्य स तस्य मारस्थ । स्थूलाग्रजानन् मकरध्वजस्य स्थूलस्य पटकुट्या अग्र स्थूलाम "दुष्यं स्थूलं पट कुटी गुणलयनी केणिका तुल्याः” इति वैजयन्तो । अथवा स्थूलस्थ दृष्यकूटस्याम' स्थूल Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः "स्थूल स्यात्पीयरं क्रूटे निष्पक्ष पुनरन्यवत्" इति विश्वः । तस्मिन जागीति जाग्रत् प्रस्फुरन् मकरी यस्य स स्थूलाग्रजामन्मकररूप चासों ध्वजश्न तधोक्तस्तस्य । कर्मणि षष्ठी। विभावयामास स्मारयतिस्म। भूकृपोरवकल्पने लिट् । पुनश्च कामोरेप्तिमकरोदिति मात्रः। अतिशयालंकारः ॥२६॥ भा० भ० --पद्मावती के दोनों स्तनों पर कस्तूरिकामय चन्दन से चित्रित कुतूहलकारक मकरचित कामदेव के तम्बू के मकरध्वज के समान दिखाई पड़ता था ॥२६॥ सखीसभायां चतुरङ्गकेलो चुचुम्ब संरक्षितुमाहतस्य ॥ हयस्य याच्याकपटेन कामी मुहुर्मुहुः रमेरमुखी कपोले ॥३०॥ सस्त्रीत्यादि । कामी कामाऽस्यास्तीति कामी सुमित्रः । सखीसभायाम् सखोना सभा सखीसभा तस्याम् वयस्यानां गोष्ट्याम्। चतुरंगकेली चत्वार्यङ्गानि यस्य तत् धतुरंगम् तस्य केलिस्तस्याम चतुरंगकोडायाम् । आवृतस्य आद्रियतेस्मेत्यादतस्तस्य प्रीतस्य वांछितस्य वा । "आदतौ सादाचितौ" इत्यमरः । हयस्य अश्यस्य । संरक्षितुम् संरक्षणाय संरक्षितुम् । कृतकामुकत्येति कर्मणि षष्ठी । यात्राकपटेन यात्रायाः प्रार्थनाया: कपटेन ब्याजेन । स्मेरमुखीम् मेरेण स्मितन युक्त मुखं यस्यास्सा ताम् दरहालबदनाम् । कपोले गएडसले । मुहर्मुहुः पुनः पुनः । चुचुम्ब चुम्बतिस्म । चुवि वपत्रसंयोगे लिए ॥ ३ ॥ मा० १०-सखियों की भण्डली में पद्मावती के साथ चौसर खेलते हुए सुमित्र महाराज अपने प्यारे घोड़े (घोड़े के नाम से विख्यात एक चौसर की गोटी) की रक्षा के लिये प्रार्थना के बहाने मन्द २ मुसफुराती हुई पद्मावती का बारधार मुखचुम्बन किया करते थे॥३०॥ मुक्तागुणच्छायमिषेण तव्याः रसेनलावण्यमयेन पूर्णे । नाभिहदे नाथनिवेशितेन विलोचनेनानिमिपेण जज्ञे ॥३१॥ मुक्तागुणेत्यादि । तन्न्याः कशाङ्गयाः। लावण्यमयेन लावण्यस्य विकारों लायण्यमयस्तेन देहकान्तिमयेन । "लावण्यम् देहकान्तिता च" इत्यभिधानात् । रसेन अमृतदवेण | "रसो रागे विषे वीर्ये तिक्तादौ पारदे वे। तस्यास्नादने हेग्नि निर्यासेऽमृतशब्दयोः" इति वैजयन्ती । मुक्तागुणच्छायमिषेण मुक्तानां गुणा दामानि "मौयंप्रधान" इत्यादि नामार्थकोष। तेषां छाया चिमुक्तागुणछायं अनम तत्पुरुषे "सेनाब्छायाशालासुरानिशा" इति खीमपुंसकविशेषपाठात् षष्टीतत्पुरुषं छायाशब्दस्य वा नपुंसकत्वम् मुक्तागुणछायस्य मिषं व्याजस्तेन "छायात्वनातपे कान्तो मिपं गजनिमीलनम्" इत्यभिधामात् । पूर्ण Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ فا मुनिसुव्रतकाव्यम् । सम्पूर्ण । नामिहदे नाभिरेव हस्तस्मिन् "तत्रागाधजलो हदः" इत्यमरः । नाथ निवेशितेन पत्या नियेशित तथोक्तन्तेन । विलोचनेन नयनेन। अनिमिषेण मत्स्येन । रूपकः । जसं जनैङ भानुभाषं कर्मणि लिट जातमित्यर्थः ॥३१॥ भा० अ०-मौशि: पांबी ( १ ) मेशित र मुना तथा अमृत रसले परिपूर्ण पद्मावती के नाभि-सरोवर पर सुमित्र महाराज की एकटक पि लगी हुई थी ॥३१॥ अमर्षणायाः श्रवणावतंसमपाङ्गविद्यद्विनिवर्त्तनेन ॥ स्मरेण कोशादवकृष्यमाणं स्थाङ्गमुर्वीपतिराशशंक ॥३२॥ अमर्षणाया इत्यादि । उर्वोपतिः उाः भूमेः पतिः स्वामी उर्वीपतिः सुमित्रविभुः । अमर्षणाया: प्रणयकोपयुतायाः। अगङ्गविध विनिवर्तनेन अपाङ्गः कटाक्षः स एवं विद्युत् अपांगविद्य तु तस्या विनिवर्तनं पुनर्व्यावर्तनं तेन । श्रवणावतंसम् श्रवणयोः कर्णयोरवर्तसमाभू. पणम् "युम्युत्तंमावतसौ द्वौ कर्णपूरे व शेखरे" इत्यमरः । स्मरेण कामेन। कोशात् आयुधपिधानात् । “कोषोऽस्त्री कुड्मले बङ्गपिधानीघरिव्ययोः" इत्यमरः । अबष्यमाणम् आकृष्यमाणम् । रथाङ्गम् चक्रायुधम् "चक रथाङ्गम्” इत्यमरः । आशशंके आशंकतेस्म कि शंकायाम् लिट् ॥ उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३२ ॥ मा० म०-सुमित्र महाराज प्रणयकलस्वती पद्मावती के विजली के समान त्यौरी बालो पर उसके कर्णभूषण को कामच के द्वारा म्यान से निकला हुआ चक्रायुध समझते थे ॥ ३२ ॥ रहस्सु वस्त्राहरणे प्रवृत्ताः सहासगर्जा: क्षितिपालवध्वाः ।। सकोपकन्दर्पधनुष्प्रमुन्नशरौघहूंकाररवा इवाभुः ॥ ३३ ॥ रहरिस्वत्यादि । शितिपालवध्वाः क्षिति पालयति रक्षनीति क्षितिपाल: सुमित्रनरेन्द्र स्तस्य वधूर्नारी पभावती राशी नस्याः । रहस्सु एकान्तेषु । "तथा रहः रहश्चोगांशु चालिङ्ग" इत्यमरः। वस्त्राहरणे वस्त्रस्याहरणन्तथोक्त तत्र वमनावकर्षणे। प्रवृत्ताः जाताः । सहासगर्जाः हासन हसनेन सह बत्तंन्त इति सहासास्ते च ते गर्जा गर्जनानि च तथोक्ताः । सकोपकन्दर्पधनुष्पमुक्तशरोघहूकाररचा इत्र कोपेन सह वसंत इति सकोपः स चासो कन्दर्पश्च सकोपकन्दर्पस्तस्य धनुः चापं तस्मात्प्रमुच्यन्तेस्म प्रमुक्तास्ते शराश्चेति सकोपकन्दर्पधनुष्प्रमुक्तशरास्तेषामोघः समूहः परम्पग चा “ओघो बुन्दे गयोधेगे द्रुतनृत्योपदेशयोः ओघः परम्परायां च" इति विश्वः । हूँ करतीति कारोऽनुकरणध्यनि: सोपकन्दर्पधनुष्मामुक्तशरोधस्य कारस्तथोक्तास्ते च ने रवाश्न तथोक्ता: त इव । श्रमः Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ μπ मासुः । सेन्तेरम भा दीप्तौ लड् । उत्प्रेक्षालकाः ।। ३३ ।। भा० भ० एकान्त में पद्मावती रानी का वस्त्रापहरण करते समय जो हँसी के साथ कुछ शब्द हुए वे शरसमूहों को छोड़ते समय क्रुद्ध कामदेव के हुंकार के समान ज्ञात होते थे । ३३ । इति किलाभिमतौं सुरदम्पतीम तिमरूपकलागुणशालिनौ || विविधकेलिरसैः कृतसम्मदैः सफलतां युक्तामुपनिन्यतुः ॥ ३४ ॥ द्वितीयः सर्गः । । इति इत प्रकारेण फिल वार्त्तादौ । "किल शब्दस्तु वार्त्तायां सम्माध्यानुनयार्थयोः" इति विश्वः । अभिमतौ अभमन्येतस्मेत्यभिमतौ श्रभीष्टाधित्यर्थः । सुरदम्पतीप्रतिरूप कलागुणानि सुरार्णा दम्पती जायापती सुग्दम्पतो रूपं सौन्दर्य व कलाद्याः कौशल्य गुणो नायक नायकीमावश्व रूपकलागुणा सुदम्पत्य प्रतिमाः समानाश्च से रूपकलागुणस्तथोक्ताः शालिनी समृद्धां देव मिथुन मानसौन्दर्य संगीतादिकलावितिगुणप्रपूर्ण वित्यर्थः । कृमदैः क्रियन्तेस्म कृतास्त व ते सम्पदाश्च तथोक्तानैःप्रवेदा मेदसम्मदा" इत्यमरः । विविधकेलिरसः विविधाश्व ताः केलया विविध मां रसास्तेः नानाविधकाडास्वादनः । "रसो रागे विषे वीयें तिला पार हो वास्वादन नियमृतशब्दयोः" इति वैजयन्ती । युवताम् " यून' भावः तत्रा युवा ताम् तरुणत्वम् । सफलताम् फलेन सह वर्त्तत इति सफलम् तस्य गाव म्हफळता ताम् सार्थकत्वम् । उपनिन्यतुः प्रापयतः स्त्र । णीञ् प्रापणे लिट् । इत्यर्हद्दासकृत काव्यरक्षस्य टीकायां सुखबाधिन्यां भगवज्ज निजिन वर्णना नाम द्वितायः सर्वोऽयं समाप्तः ॥ ३४ ॥ भा० अ० देवदम्पती के समान कला तथा गुण को धारण करने वाले सुमित्र महाराज और रानी पद्मावती ने अभीष्ट आदर्शभूत दम्पती ने अत्यन्त भानन्दप्रद विविध केलि कोडाम से अपना यौवनकाल सार्थक किया । ३४ । SUEICHNO37672 इति द्वितीय सर्ग समाप्त JADINYOLINE Š Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयः सर्गः एषैकदा तु नवकल्पलतेव भूयो भूयः प्रपन्नऋतुकाऽपि फलेन हीना ॥ पालोक्य केलि कलहंसवधू सगी दध्यौ धराधिपवधूरिति दीनचेताः ॥१॥ एपेत्यादि। एकदा एकस्मिन् काले एकदा तु विशेषोऽस्ति । नवकलालनेत्र का खासी लता च तथोक्ता ना त्रासौ कल्पलता च नवकल्पलता सेव । भूगो भूयः पुनः पुनः । प्रपन्न मतुसाधि प्रान्ना; माना: भूपवः षड़नशे यस्यास्सा तथोक्ता पक्षे प्रपन्ना तुरातच यस्यास्सा तथोका "ऋतुः स्नाकसुमे मासि धसाप्तादिषु धारयोः” इति विश्वः । ऋत्यकः” इति हुम्यादेशान् अरादेशो न भवति । फलेन सन्तत्या शलाटुमा च। हीना रहिता । एषा इयम् । धराधिपवधूः धराया अधिपो धराधिपस्तस्य सुमित्रनपालस्य वधूवल्लभा पद्मावतो देवी । सगर्माम् गर्भेण सह धर्तत इनिसगर्मा ताम् गर्भिणोमित्यर्थः । केलिकलहंसधधम् कलहंसस्य वधूस्तोक्का केल्याः कलहंसवधू सा तायु क्रांडाकादम्बस्त्रियम् । “कलहसस्तु कादम्बे राजहंसे नृपोसमे" इति विश्वः। आलोक्य वीप। दीनवेताः दीनं चेतो यस्यास्सा तथोक्ता अधीरचित्ता सती । इति वक्ष्यमाणप्रकारेण । दथ्यों चिन्तयामास । ध्ये चिन्तायां लिट् ॥ १॥ मा० अ-नय कल्पलतासी राज-महिषी पावती बार बार ऋतुमनी होती हुई भी फलहीन होने के कारण एक दिन कीड़ासक कालहंसवधू को गर्भवती देखकर उदासीन. खित हो सोचने लगी ॥१॥ आपुष्पितापि विफलेव सालयष्टि: मेनेत्र नायकगतापि जयेन शून्या । काले स्थितापि घनराजिरवर्षणेब मिथ्या दधामि हतकुक्षिमदृष्टतोका ॥२॥ आ इत्यादि। र लालपणिः क्षुणक: "रसाल इक्षुः इत्यमरः । पुष्पितापि पुष्पं संजातमस्य इति युरियता संजातकुसुमामि । विफलेन विनष्ट' फलं यस्यास्सा विफाला सेघ । सेना चमूः। नायकगतापिनेतृयुतापि नायकं गच्छतिस्म नायकगतापि । जयेन विजयेन शून्येव रहितव । घनराजिः मेघणिः काले प्रावृटसमये । स्थितापि तिष्ठतिम्म स्थितापि । अवारणेष न विद्यते वर्षणं वृष्टिर्यस्यास्सा अवर्षणा सेव वृफ्हिोनेव । अहं पुषितापि ऋतुमत्यपि नायफगतापि पतियुतागि काले क्यसि स्थितापि अदृष्टतोका अदष्ट तोकमपत्यं यया सा तथोक्ता भप्राप्तनन्दना "तुकतोकं चात्मजः प्रजा" इति धनञ्जयः । इतकुक्षिम् हन्यतेस्म हतः स चासो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 복사 सुनिसुव्रतका यम् कुक्षिश्च तं दग्धदरमित्यर्थः । मित्थ्या व्यर्थम् । दधामि धरामि हुत्रान् धारणे च लट् । आपीडायाम् । “आस्तु स्यात् कोषपीडयोः" इत्यमरः । उपमालंकारः ॥ २ ॥ भा० आ० पुष्पयुक्त होने पर भी फलोन इदएड के समान सेनापति से अधिष्ठित होने पर भी विजयशून्य सेना के तुल्य तथा वर्षा ऋतु में भी बिना वृष्टि की मेत्रमाला के समान मैंने व्यर्थ ही बिना सन्तान का यह उपर धारण किया है। अर्थात् ऋतुमती पतियुका और युवती होने पर भी निस्सन्तान होकर निरर्थक सी हूं ||२|| चिन्ताभरादिति वहन्नयनोदकान्तां कान्तोऽनुपद्य करपल्लवदत्तगण्डाम् ॥ व्यग्रीभवत्परिजनादवगम्य सर्वमाश्वासयत्युचितसृक्तिरसेन यावत् ॥ ३ ॥ - चिन्तेत्यादि । कान्तः सुमित्रमहाराजः । इति उकरोत्या । चिन्ताभरात् चिन्ताया भगस्तयोक्तत्तस्मात् "नरोऽतिशय भारयोः" इति विश्वः । करपल्लवदत्तगण्डाम् कर एव पल्लवः करपल्लवः करपल दत्तो गल्डो यया सा तथोका तामरस्त किसलयनिविष्टपोलम् | वहन्नयनोदकाम् नयनयोरुदकं नयनोदकं वहतीति वहत् निस्यन्द नयनोदकं यस्यास्सा बन्नयनोदका ताम् पद्माचतीम् | अनुषध अनुसदनं पूर्व पञ्चात्किञ्चिदिति अनुषध "कोऽनञःप्यः" इति क्त्वा प्रत्ययस्य प्यादेशः समीपमाश्रित्य । व्ययीभवत्परिजनात् प्रागस्य इदानीं व्ययो भवतोति व्यग्रीभवन् व्यग्रोभवश्चासौ परिजनयति व्यग्रोभवत्परिजनस्तस्मात् । "व्यां व्यासक आकुले" इत्यमरः । सर्वम् हंसवधूप्रेक्षणादिसकलवृत्तान्तम् । अवगम्य शाखा । यावत् यन्मानमस्य यावत्कालमित्यर्थः । "यावन्तावश्च साकल्ये saat मानेऽवधारण" इत्यमरः । उचितसूक्तिरसेन सुष्ठु उक्ति: सूक्तिरुचिता श्रासौ सूक्तिश्रोषितसूक्तिस्तस्या रसस्तेन योग्यसुवचोऽमृतेन "रसो रागे विषे वीर्ये तिक्तादौ पारदे वे रेतस्यास्वाद देन निर्यासेऽमृतशब्दयोः” इति वैजयन्ती । आश्वासयति सान्त्वयति श्वस् प्राणने णिजन्ताल्लिट् ॥ ३ ॥ J भाऊ - महाराज सुमित्र व्याकुल परिजनों से सभी वृतान्त जानकर चिन्ता की अधिकता से करकमल पर पोल रखे हुई अश्रुपूर्ण नेत्रवाली महारानी पद्मावती के पास जाकर उन्हें अपनी सरल युक्तिपूर्ण मीठी २ बातों से समझाने लगे ॥३॥ तावत्तमम्बरतलादवतीय्यं देव्या मित्रं दिनेन मितया रमया समेतम् ॥ मुक्त्वा श्रिया सतत संगतया सनार्थ भक्तुं सुमित्रभित्र दीधितयोऽधिजग्मुः || तावदित्यादि । तावत् तन्मानमस्य तावत् तदाश्वासनावलरे । देव्यः देवानां भाय्य देव्यो देवरमण्यः । अम्बरतलात् अम्बरस्य विहायस स्तलन्तथोक्तम्तस्मात् व्योमप्रदेशात् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय सर्गः । अमती सामापू पशात्किािरिनीय॑ भापत्य । दिमेन दिवसेन शिवटिकामिरित्यर्थः । मितया मीयतेस्म मिता तया प्रमितया । रमया लक्ष्म्या । समेतम् संयुतम् । मित्रम् सूर्यम् सखायम्वा । मुक्त्वा त्यक्त्वा । सततसंगतया अनवरतयुतया। श्रिया सम्पदा । सनाथम् युक्तम् । है सुमित्रम् सुष्टु मित्रः सुमास्तम् विशिष्टरवि शोभनसुहद सुमित्रमहाराजम्या "मित्र' सुहृदि मित्रोऽः" इति विश्वः। भम् भजनाय भक्तम् सेयितुम् । दीधितय इव धुतय इच। अधिजग्मुः अधिगच्छन्तिस्म । गम्लगतौ लिट् । सहस्रकिरणस्य किरणा दिनमात्रप्रमिताधितत्वात् तं त्यक्त्वा सुमित्रनरेन्द्र श्रयन्ति पेतिदेध्यः उपजग्मरितिभावः। उत्प्रेक्षालंकारः ॥४॥ भा० अ०-इतनेही में आकाश से देयांगनायें मानों किरणों के समान केवल दिन भर साथ देने वाले मित्र (सूर्य) को छोड़कर सदा सहचरी लक्ष्मी से युक्त सुमित्र महाराज के निकट आई ॥४॥ भूपेोऽथजीवजयनन्दपदास्पदास्यास्ताः प्राञ्जलीरभिनिरीक्ष्य विलक्षचक्षुः । प्राप्तासनेषु विनिवेश्य मुदेदमूचे प्राप्ता:किमत्र सुरलोकसुखैकसाराः ॥५॥ भूगइत्यादि । अथ अनन्तरे । विलक्षत्रक्षुः विलक्ष चक्षुषी यस्य स विलक्षचक्षुः विधि सोपेतनयनः । “विलक्षो विस्मयान्वितः" इत्यमरः । भूपः भुवम्पाति रक्षतीति भूपः सुमित्रनरेन्द्रः । जीवजयनन्दपदास्पदास्याः जीब जीवतात् जीवप्राणधारणे लोट् जय सर्वोस्कर्षण वर्तस्व जिजि अभिभषे लोट् नन्द समृद्धो भव टु नटु समृद्धी लोट “उदित्वात्" नम् जीवेति जयति नन्दति पदानि जीव जयनन्दपदानि तेषामास्पदं निलयः आस्य मुखं यासान्तास्तथोक्ताः । जीवेत्याद्याशीर्वादशब्दाधारास्याः। प्राञ्जलीः प्रकटोऽञ्जलियांसान्ता कृतकरकुड्मलाः । “तों युवतावलिः पुमान्" इत्यमरः । ताः देवकामिनीः । अभिनिरीक्ष्य अवलोक्य । प्राप्तासनेषु प्राप्तानि च तान्यासनानि च प्राप्तासनानि तेषु दत्तोचितासनेषु । विनिवेश्य उपस्थाप्य । सुरलोकसुखकसाराः सुराणां लोकस्सुरलोकस्तस्य सुखमानन्दस्तेनका मुख्यास्ताश्च तास्साराश्च तथोक्ताः स्वर्गसौख्यकेवलनिासाः यूयम् । “पके मुख्यान्य केवलाः। सारो बले स्थिरांशे च न्याय्य लोयं परे त्रिषु" इत्यमरः। अत्र अस्मिन्नत्र इह भुत्रि। किम् किं कारणम् । प्राप्ताः प्राप्नुवन्तिम प्राप्ताः श्रायाताः। इति एवं एतबचः । मुदा हर्षेण । ऊचे व तेस्म बम व्यक्तायां वाषि लिट् 1 "अस्तित्र वीभू बचौं" इति वचादेशः “श्च्याविस्वव्यच फिति" इत्यनेन यत्र इक् ॥ ५॥ भा. १०-चिरंजीवी हो, अयशाली हो सथा प्रसन्न रहो इत्यादि वधनों को उच्चारण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ मुनिसुव्रतकाव्यम् करती हाथ जोड़े हुई उन देवांगनाओं को आश्चर्य भरी दृष्टि से देख कर तथा समुचित अलमों पर बैठा कर महाराज सुमित्र ने उनसे पूछा कि स्वर्गसुख की सारभूत आप यहाँ कैसे आयीं ॥५॥ श्राकराय वाचमिति तस्य सुरंगनाभिः श्रीरोहिता कथयदागमहेतुमेवम् ॥ मन्दस्मितद्विगुणमंजुलचाक्ासूनैर्वत्स्र्यत्फलं क्षितिपतेरिव सूचयन्ती ॥६॥ आकर्श्वत्यादि । तत्र सुमित्रराजस्य । इति एवम् । वाचर् वाणो । आकर्ण्य श्रुत्वा । सुगनाभिः सुराणामंगनास्तयोक्तास्ताः सुरसोमन्तिनीभिः । ईरिता ईयतेरुम ईरिता प्रेरिता । श्रीः श्रदेवो । मन्दस्मितद्विगुणमंजुनवाक्प्रयुनैः मन्दच तत् स्मित मन्दस्मितम् छो गुण येवान्तानि द्विगुणानि मन्दस्मितेनेत्रद्धसनेन द्विगुणानि तथोक्तानि वाच एत्र प्रसूनानि कुसुमानि तथाकानि "प्रसून पुष्पफलया" इत्यमरः । मंजुलानि मनोज्ञानि च तानि वाक्प्रसूनानि च तथोक्तानि "मनाश' मंजु मंजुलम्" इत्यमरः । मन्दस्मितद्विगुणानि च तानि मंजुप्रसूनानि च तथोकानि मन्दस्मितानि वाक्प्रसूनानि च तानि मिलितस्वात् विष्णु यानीत्यर्थः । वस्त्फलं तोति वत्स्र्यत् भविष्यत् तश्च तत्फलं च तथाकम् । क्षितिपतेः पतिः तस्य सुमित्रानो सूचयन्तीय सूत्रयतोति सूचयन्सी संव-लता यथा प्रसूनैभविष्यम् फलन्तथेयमपि ज्ञापयन्तीव । आगमहेतुम् आगमनमागमस्तस्य हेतुस्तम् निक्षागतनिमित्तम् । एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण | अकथयत् अत्रवीत् । कथ वायमधे लङ् ॥ ६ ॥ मा० अ० - सुमित्र महाराज की यह बात सुनकर तथा और देवांगनाओं से प्रेरित होकर देवी ने मन्ददास्य से द्विगुणित मधुर भाषण रूप कुसुम घर्षण के द्वारा मानों राजा का भावी फल कहती हुई इस प्रकार अपने आने का कारण कहा ॥ ६ ॥ भूपार्थ्यस्वगड इह भूविदितेऽङ्गदेशे चम्पापुरे नृपवरी हरिवर्म्मनामा ॥ आसीद्यशः क्वचितावनिरस्रधारासंलावितारिनृपतवनितावितानः ॥७॥ I भूप इत्यादि । भूप भो सुमित्रनृप । इवस्मिन्नि | आर्यखण्डं आपणां खण्ड भूभाग आयं खरडन्तस्मिन् धम्मखण्डे " भित्तं सकलखण्डे वा" इत्यमरः । भूविदिते भुवि विदिनस्तमिनू प्रसिद्ध "बुद्ध बुधित मनितं विदितम्" इत्यमरः । अंगदेशे अंगश्चात देशा तथोक्तस्तस्मिन् अंग इति वा देशस्तस्मिन् । चम्पापुरे चम्पेति पुरन्तस्मिन् । I कच चितावनिः यशसा की कविता वम्मिता तक्ता सायनिः क्षितिर्यस्य स तथोक्तः कीर्त्तिव्याप्तभूतलः । अावारा प्लावितारिनृपतवनितापितानः अत्र रक्तम यश: Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः श्रूच “प्रलमध णि शोणित" इनि विश्वः । असञ्चाम्नति भन्ने "सुप्प पश्येये" इत्येकशेषः अत्रयोर्धारा नयोक्ता अग्यो नियमच ते नवाश्व तमोकाम्नेगं गनितान्तइनिता ग नृपाश्च तद्वनिताश्चेत्यरिनृपतद्वनिताः तामां बितानं समुहः “वितानो यज्ञविस्तारोल्लो. चेषु वृत्तभेदाधसम्योः" इनि विश्वः । अनधारमा भिवारा यावाम्बुधारया च संधावित साद्रीकृतमरिनुपननिताविनानं यस्य स तथोक्तः रमतादोंकनशत्रुनिवदाः अथ साहीकनतद्धनितानियहश्चेत्यर्थः। हरिवर्मनामा हग्विार्म नाम यस्यामौ हरिवर्मनामा । नृपवरः नपेषु बरो नृपवरो नृपश्रेष्ठ इत्यर्थः । आसीत् अभवन् अग्म भुवि लड़ । अतिशयालंकारः ॥७॥ ___ भा० अ०-हे राजन् ! इस लोक प्रसिद्ध आर्यस्खप्तड के अंगदेश के अन्तर्गन चंपापुर नगर में यश से भूमगडाल को आच्छादित किये हुवा तथा शत्र भून गजामा की स्त्रियों को उनकी अश्रुधारा से सिक्त करनेवाला एक नृपश्न र दरियर्मा नाम का राजा था ॥७॥ ज्ञात्वा जिनाजननदुःखमनन्तबीयांदपोऽवगीतभवभागशरीग्गगः ॥ मत्वा तृणाय निजराज्यपद मनीषी तपादयोः किल बभार जिनेन्द्रमुद्राम् ॥८॥ ज्ञात्वेत्यादि । मनीषी कोविदः । "श्रीरो मनीषो ज्ञः प्राज्ञः" इत्यमरः। एष: अयम् हरिचर्मा । अनन्तवीर्यात् अनन्तप्तनवसानं वीर्य यस्य स तस्मात् । जिनात् दुर्जयकर्मठकारातीन जयति निमूल यतीति जिनस्तस्मात् । जननदुःखाम् जननस्य जन्मनो दुःस्त्रम् जननदुःस्त्र संसारजनितदुःखम् । झात्या विज्ञाय । अवगीतमत्रभोगशीराग: मवश्च भोगश्च शरीरञ्चेति भवमोगशरीराणि तेषां तेषु वा रागो विरागस्तथोकः अवगीत: म्फुट गहिती भयभोगशरीररागो येन स तथोक्तः "अवगीतः ख्यातगईणः' इत्यमरः । निरस्तसंसारभोगशरीरानुराग इत्यर्थः "मादा भवञ्च संसारः संसरणं त्र संसनिः । तत्त्वज्ञश्चतुरो धीरस्त्यजेजन्माजवंजवम्" इति धनंजयः । निजराज्यपदम् राशो भावः कृत्यम्वा राज्यत्तस्य पदं राज्यपद निजस्य स्थस्य राज्यपदं तथोक्तम् । तृणाय मत्वा तुणं मत्वा तुणादयधमत्येत्यर्थः । “मन्यस्याका. काविष" इत्यादि कर्मणि चतुर्थी । तत्पादयोः तस्य पादौ तत्पादौ तयोस्तत्पादयोः अनन्तयो य॒जिनस्य पादयोः । जिनेन्द्रमुद्राम् मिनानामिन्द्रस्तस्याप्रमत्तादिक्षीणकषायावसानेकदेशजिनानामीशस्याहतो मुद्रा तथोक्ता ताम् दिगम्बरमुद्राम् । यभार किल दर्भ किल दधावित्यर्थः। भृन भरणे लिट् । अत्र विरागस्य भवभोगशरीरभेदात्रैविध्यमिष्यते ॥ ८ ॥ ___ मा० अ०-मनस्वी हरिधर्मा राजा ने अनन्तवीर्य मुनि से जन्मजन्य पुखों को जान कर मोहमायादि शारीरिक विषयवासना को दूर कर तथा राज्य को तुच्छ समझ कर उक्त मुनिमहाराज की सेवा में जिनदीक्षा धारण कर ली ॥८॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाच्यम् सन्त्य सर्वविषयोऽप्यवरोधमुकोऽप्येकाक्षरक्षणपरोऽप्यनिशं यतीशः ॥ सम्भक्तसर्वविषयोऽजनि सावरोधः पञ्चाक्षनिग्रहपरः परमेष चित्रम् ॥९॥ सन्त्यक्ते त्यादि। एषः अयम् इरिवर्मा। सन्त्यक्तमर्व विषयोऽपि सर्वे च ते विषयाश्च सर्वविषयाः सन्त्यक्ताः सर्वविषया गर्ने स तथोक्तः सर्वगञ्च न्द्रियविषयहितो. ऽपि । सम्भकसविषयः सम्भक्ताः सर्वविषशा येन स तथोक्तः संसेधितविश्वजनपदः "शिणयः विनिता दे जापादेविच" इति विश्वः । अवरोधमुक्तोऽपि अवरोधस्समवरोधस्तेन मुक्तस्त्यकोऽपि अन्तःपुरहितोऽपि । साबरोधः अधरोधेन सह वर्तत इति सावरोधः दुष्कर्मसम्बरसहितः । “श्वरोधस्तिरोधाने शुभ्रान्ते राजवेश्मनि" इति विश्वः । एकाक्षरक्षण परोऽगि एकमक्षमिन्द्रियं येषान्त तथोक्ता एकेन्द्रियाणिनस्तेषां रक्षणन्तथोक्त तस्मिन् परस्तत्पर पकेन्द्रियजीवपालनशक्तोऽपि । पञ्चाक्षानग्रहपरः पञ्च च तान्यक्षाणि च पञ्चाक्षाणि तेषां स्पर्शनादीनां निग्रहः स्वविषयासंचरणं तस्मिन् परस्तत्परः । “अक्षः कर्वे तुषे चर्क शकटे व्यवहारयोः । आत्मशे पाशके चाक्षं तुगलौवर्चलेन्द्रिये" इति विश्वः । परं केवलम् । परोऽरिः परमात्मा च केवलेपरमव्ययम्" इनिभास्करः। अजनि अजायत । जनैङ प्रादुभांधे कत्तरि लुङ्॥ चित्रम् अद्भुनम । अत्र मस्याकमविषयस्य सम्भकग्नविषयत्यम् अवरोधमुकस्य साबरोघत्वम् एकाक्षरक्षणपरस्य पश्चाक्षनिग्रहत्वं च विरुद्धम् तत्परिहारोऽर्थान्तरेण निश्चितमिति भावः । विरोधाभासालंकारः ॥६॥ भा० अ०–आश्चर्य की बात है कि, उक्त मुनिमहाराज विषयों को त्यागकर भी सभी विषयों ( संसार के सभी जनपदों) की सेवा ( भालाई) करने वाले, अवरोध (अन्तःपुर) से मुक्त होने पर भी अवरोध । दुष्कर्मों का सम्बर ) के साथ रहने वाले तथा एकाक्ष (एकेन्द्रियजीव ) के रक्षक होते हुए भी पंचाक्ष ( पंचेन्द्रियों ) को दमन करनेवाले थेn६॥ कुर्वस्तपो जिननिरूपितलक्ष्मलक्षीभूतं प्रभृतविनयो विविधं मुनीन्द्रः ॥ एकादशांगकुशलोऽजनि हेतुयुग्मसामग्र्यसंजनिततीर्थकरत्वपुण्यः ।१०। कुर्वन्नित्यादि । जिननिरूपितलक्ष्मलक्षोभूतम् जिनेन निरूपित जिननिरूपितं तच तल्लक्ष्म च जिननिरूपितलक्ष्म प्रागलक्षमिदानी दक्ष भवतिस्म लक्षीभूतम् “चिह्न लक्ष्म च लक्षणं । लक्ष लक्ष्यच' इत्युभयत्राप्यमरः । जिननिरूपितलक्ष्मणो लक्षीभूत तथोक्तम् जिनप्रणीतखरणानुयागलक्षपास्य लक्ष्यजातमित्यर्थः । विविधम् नामाप्रकारम्। तपः इच्छानिरोधस्तप इति पारिवाज्यम्। कुर्वन् करोतीति कुर्छन् । प्रभूतचिनयः प्रभूता बहुलो विनयो यस्य स तथोक्तः प्रचुरशानादिविनयवान् । "प्रभूत प्रचरं प्राज्यम्" इत्यमरः । मुनीन्द्रः मुनीना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः मिन्दो मुनीन्द्रो मुनिष्ठ इत्यर्थः । एकादशांगकुशलः एमेनाधिका दशः एकादश तानि च तान्यंगानि कादशांगानि आचारसंगादीनि तेषु कुशलः प्राशस्तथोक्त एकादशांगश्रुतवेदीत्यर्थः । हेतुयुग्मसामयसंजनिततीर्थकरत्वपुण्यः हेत्वार्थाश्याभ्यन्तरसाधनयोयुग्म द्वन्ध तस्प समग्रस्य भावः सामग्रयं साकल्यन्तथोक्तम् तेन संजनित समुदभूत तसाधो हेनर्दशनविशुद्ध यादिरितरस्तु फेचन्टिनः श्रुतकेवलिनो या सन्निधिः तीथं करोतीति तीर्थकरस्तस्य भावस्तीर्थ करत्वम् तच तत्पुण्यश्च तथोक्तम् तीर्थकरत्वस्य नामकर्मत्यर्थः । "तीर्थं प्रवचने पा लगायो विदामार। पुजारो लोहारे महापरी प्रहामुनी" इति धनजयः। हेतुयुग्मसामग्र्यसंजनितं तीर्थकरत्वपुण्यं यस्य स तथोक्तः । अजनि अजरयत। जनैङ् प्रादुर्भाचे कर्तरि लुङ् ॥ १० ॥ ___ भा० अ-जिन-प्रणीत चरणानुयोग को लक्ष्यभून अनेक प्रकार की तपस्या करते हुए एकदशांग श्रुत के मर्मज्ञ मुनि महाराज ने अन्तरंग और बहिरंग साधनों की अधिकता से तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया ॥१०॥ अन्ते समाधिविधिसात्कृतदेहभारः स्वःमाणते तदभिधानविमानमध्ये ॥ स प्राणतेन्द्र इति सेन्द्रपतिबभूव लोकेषु तप्ततपसां किमसाध्यमस्ति ।११। ____ अन्त इत्यादि। सः हरिवम् । अन्ते आयुरवसाने। समाधिविधिसाकृतदेहमारः समाधेविधिस्समाधिधिधिः समाधिविनावधीनं क्रियतेस्मेति समाधिविधिसात्कृतः देव एव भारो देहभार: रूपकः समाधिविधिसानों देहभारा येन स तथोक्तः तजाधीनाथै सात्प्रत्ययः समाधिविधानेन स्वायत्तीकृतशरीरभार इत्यर्थः । “समाधिनियमे ध्याने नीशाके व समर्थने” इति विश्वः । प्राणते प्राणतनानि । स्वः स्वर्ग! "स्वरप्रयम्" इत्यभिधानात् सर्वत्र सदृशं रूपम् । तदभिधाविमानमध्ये तदेवाभिधानं यस्य सत् तश्च तद्विमानश्च तदभिधानविमानं तरूप मध्यं तदभिधानविमानमध्यम् तस्मिन् प्राणतनामधधिमानमध्य इत्यर्थः । प्राणतेन्द्र इति प्रणतस्येन्द्रः मापातन्द्रः स इति । सेन्द्र पनिरिति मन्द्राणां देवानाम्पतिः से द्रपतिः सुरेश्वर इत्यथः "निलिम्पाः स्वर्गिणः सेन्द्राः” इत्यभिधानात् । बभूव जो भूसत्तायां लिट् । तथाहि लोकपु जगत्सु। तप्ततपसाम् तप्यतस्मेति तप्त' तप्त तपो येषा न्ते तततपसस्तेषान्ततमपसां यांगीन्द्राणाम् । असाध्यम् न साध्यमसाध्यमप्राप्यम् । किमस्ति न किमपीत्यर्थः ।। अर्थान्तरन्यासः ॥११॥ भो० --अन्त में वे मुनिराज समाधिमरणर से शरीर त्याग कर प्राणत-स्वर्ग के प्राणत नामवाले विमान में प्राणतेन्द्र नाम के देवेन्द्र हुए। उत्तम तपस्त्रियों के लिये संसार में कोई वस्तु अलभ्य नहीं है ॥ ११ ॥ -. ---- Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाच्यम् मासानीत्य षडयं गुडनिर्विशेषीभूततविंशतिनदीपतिसम्मितायुः । सूनुभविष्यति च तेऽतुलपुण्यराशेस्तीर्थस्य विंशतितमो भविता च कर्ता । १२ मासानित्यादि । गुडनिर्विशेषीभूतेतविंशतिनदीपतिसम्मितायुः प्रागनिर्चिशेषमिदानी निर्विशेषम्भवतिस्मात निर्विशेषीभूतम् सदशमित्यर्थः गुहस्यक्षुपाकस्य निर्विशेषीभूतं तथोक्तम् एतिस्म इतं गतं नदीनाम्पतयो नदीपतयः नदीपतय इव नदीपतयो विंशति नदीपतयस्तथोक्तास्तैस्सम्मित प्रमितं विशति नदीपतिसम्मितं गुद्धनिर्विशेषीभूत तदितञ्च तथोक्तम् तद्य विंशतिनदोपतिसम्मितमायुर्य्यस्य स तथोक्तः गुडवत्सुखप्रदत्वेनेव गलितविंशतिसागरोपमायुष्मानित्यर्थः। अयं हरिषमंचरः प्राणतेन्द्रः। षणमासान् वर्षाधम्। अतीत्य अत्यानं पूर्व पश्चाटिकञ्चिदित्यतीत्य अपसायं । विंशतितमः बिंशतः पूर्णा विंशतितमः मुनिसुवतजिनः । तीर्थस्य धर्मस्य प्रवचनस्य वा का प्रभुः। भविता भविष्यताति भविता तुप्रत्ययः भविष्यन्नित्यर्थः । अतुलपुण्यराशेः म विद्यते तुला यस्य सोऽतुलः पुण्यानां राशिः पुण्यराशिरतुलः पुपयराशियस्य स तथोक्तस्तस्य अनुपमेयसुकतोत्करस्य अतुल: पुण्यराशियस्मात्तस्येति तीर्थस्य या विशे. षणम् । ते तव । सूनुः नन्दनः । भविष्यति जनिष्यत । भूसत्तायां लुट् ॥ १२॥ भा० .-क्षुरस-पाक के स्वादुतुल्य सुखपूर्वक व्यतीत होती हुई बीस सागर प्रमाण को आयुवाले वे प्राणतेन्द्र, छ: मास के बाद से तुम्हारे जैसे पुण्यात्माके घर अवतीर्ण होकर मुनिसुव्रत नाम के बीसवें तीर्थङ्कर होंगे ॥ १२ ॥ तस्माइयं जिनपतेर्भुवनैकवन्धपादारविन्द्युगलस्य भविष्यतोऽग्रे ॥ दास्यं विपुण्यजनदुर्लभमद्ययाता मातुर्विधातुममरेश्वरशाशनेन ॥१३॥ तस्मादित्यादि । तस्मात् कारणात् । भुवनैकवन्द्यपादारविन्दयुगलस्य पादायेवारविन्द पादारविन्दे तयोर्युगलं तथोक्तम् भुवने एकचन्ध भुवनैकवन्ध भुवने फवन्ध' पादारविन्दयुगलं यस्यस तस्य । अग्नं पुरः भविष्यतः मविप्यतीनिभधिष्यन तस्य । जिनपते: जिनाधासौपतिश्च तथोकः जिनानां पतिर्चा तस्य मुनिसुव्रतस्वामिनः। मातुः जनन्या: पद्मावत्याः । विपुण्यजनदुर्लभम् विनष्ट पुण्यं येषान्त घिपुण्या: विपुण्याश्चते जनाथ तथोक्ताः दुःखेन महताकष्ठेन लभ्यत इति दुर्लभम् सुतिविहितलोकालभ्यम् । दास्यम् दासस्य भावो दास्पम् किंकरत्वम्अमरेश्वरशासनेन अमरापणामीश्वरस्तथोक्तस्तस्य शासन तन देवेन्द्राया। "शासनं राजदत्तोया लेण्यामा शाखशाखिषु इति विश्वः। विधातुम् विधानाय विधातु' कत्तुम् । षयम् ध्यादयोऽमरखियः। अध अस्मिन् काले अन्य दानीम् । याताः आगताः ॥ १३ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। भा० अ० -- इसीलिये इन्द्रमहाराज की आज्ञा से इम सत्र आज उस भावी तीर्थन महाराज की पूज्य माता की सेवा---जो बड़े बड़े पुण्यात्माओं को भी दुर्लभ है करने को आई हैं।। १३ ।। इत्थं तदीयमुखचन्द्रमसस्समुघद्वाक्चन्द्रिकाम् श्रुतिपुटेन निपीय सद्यः॥ चेतस्यत्राप चपलेक्षणया समेतो भूपश्चकोर इव भूरितरप्रमोदम् ॥१४॥ इत्यमित्यादि । चपलेक्षणया चाले चञ्चले ईक्षणे यस्यास्ता तया चञ्चललोचनया पनावत्या चकोर्या च । समेतः समेतिस्म ममेत: सहितः । भुपः सुमित्रनरेश्वरः । इस्थम् अनेन प्रकारेमोरथम् उक्तरीत्या । तदीयमुखचन्द्रमसः तस्या: श्रीदेव्या इदं तदीयं "दोश्छ" इति छ प्रत्ययः ! तव तत्सदीयमुस्वञ्च तदेवचन्द्रमास्तस्मात् । “चन्द्रमाश्चन्द्र इन्दुः" इत्यमरः । समुधवाक्चन्द्रिकामु समुदतोति समुधती बागेर चन्द्रिका बाचन्द्रिका समुद्यतो चासो वाचन्द्रिका च तथोक्ता माम् समुत्पद्यमानज्योत्स्नाम् रूपकः । चकोर इन चकोर पक्षी इव उपमा।श्रतिपुटन ऋतिवपुर तथोक्तन्तेन श्रोत्रपात्रं ण | निपीय पीत्वा । सद्यः तस्मिन् काले सयः । चेतसि चिते । भूरितरप्रमोदम् प्रपो भूरिभू रितरः भूरितरवासी प्रमोदश्च तथोक्तस्ताम् बहुतरतोषम् । अवाप ययौ आपलव्याप्तौ लिट ॥१४॥ ___ भा० अ० --चंचल नेत्रवाली चकोरी रूप पद्मावती से युक्त चकोर के समान सुमित्र महाराजाने उन देवांगनाओं के मुखरूप चन्द्रमा से निकली हुई वचन रूपी चन्द्रिका को पान कर तत्क्षण अपने चित्त में बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की॥१४॥ भूमीपतेरनुमताभिग्थामराणां भूवल्लरीविलमनेन बिलासिकाभिः ।। भूपालमौलिदयिता भृतसम्मदाभि लोकसेव्यचरणाम्बुरुहा सिषेवे ॥१५॥ भृषीपतेरित्यादि । अथ अनन्तरे । भूमीपतः भूम्याः पृथिव्याः पतिः स्त्रामीतस्य सुमित्र. भूभुजः। 5 बल्लरीधिलसनेन भ्रधावेव वसलटयौं मञ्जयौँ भ्र धल्लयौँ तयोविलसनं तेन भ्र विक्षेपेण । अनुमताभिः अनुमन्यन्तेस्मेत्यनुमतास्ताभिः सम्मतामिन 'भंगेन तस्सेयार्थप्रेरिताभिरित्यर्थः । भृतसम्माभिः भृतस्सम्मदो याभिस्ताभिः धृतहर्षाभिः । भमराणाम् देवानाम् । बिलासिकाभिः विलासिन्य एव वित्रासिकाम्ताभिः सोमन्तिनोभिः भूलोकसेन्यचरणाम्बुलछ। भुवि विधामाला लाका भूलोकास्त: सेव्य चरणाम्बुरुहे यस्यास्सा तथोक्का भूज. नाराध्यपादकमला। भूगलमौलिपिना भुवं पालयन्ति रक्षन्तोति भूपाला: मौलिरिव मौलिः श्रेष्ठः भूपालानां मौलिस्तथोक्तस्तस्य सुमित्रनरेश्वरस्य दयिता पद्मावती वेषी तथोका । सिषेधे सेव्यतेस्म प्रवृ संबने लिट् ॥ १५ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । भा० अ० -- इसके बाद सुमित्र महाराज की आँखों के इशारे से अनुमत तथा अत्यन्स प्रसन्न देवांगनायें संसार के सभी लोगों के पूजित चरण कमलयाली राजमहिषी पनायती की सेवा करने लगी ।। १५ ॥ साधः कयाऽपि शिवस्य सुरेन्द्रनीलनवा चामबजमग महौषधीव ॥ रेजेप्रकाण्डरुचिरस्य सुरगमस्य धारान्तरस्य च धनस्य तटिल्लतेय ॥१६॥ सेत्यादि। कयाऽपि देववनितयाऽपि । विधतस्य भृतस्य । चारुयलयस्य चार सुन्दर बलयं वृत्तं यस्य तथोक्तन्तस्य। सुरेन्द्रनीलच्छवस्य सुरेन्द्रनीलेन इन्द्रनीलरत्नेन निर्मितं समातपत्र तथोक्तस्तस्य । अधः अधोभागे । सा पद्मावती देवी । प्रकाएडचिरस्य प्रकाण्डैः शाखाभिः रुचिरा मनोरमस्तथोक्तस्तस्य प्रकाण्डो विटपे शस्ते मूलस्कन्धान्तरे तरी" इति विश्वः । सुरनुमस्य सुराणां दुमस्तथोक्तस्तस्य कल्पवृक्षस्य । अध्रः अधस्तले। महौषधीव महती चासादोषधी तथाक्ता संघ संजोक्नवत् । धारान्तरस्य धाराणां जलधाराणामन्तर विद्यमानो धारान्तरस्तस्य आसारमध्यगतस्य । घनस्य मेघस्य। अधः अधरदेशे। तटिल्लसेव तटितो लता तटिदेव लता वा सा तथोक्ता सेव विद्य वल्लीव । रेज बमो राज दोप्तौ लिट। राशी महौषधी तटिल्लता च दीपाङ्गत्वात् मिथः समान इति भावः। उत्प्रेक्षालंकारः ॥१६॥ भा० अ०—किसी देवांगना से लगाये गये सुन्दर वृत्ताकार तथा इन्द्रनील मणि-जटित छन के नीचे पहावतो शाखोपशाखा से सुमनोहर कल्पवृक्ष के नीचे संजीवनौषधी के समान शोभती थी ॥ १६ ॥ दिव्याङ्गनावधुतचामरलालिताङ्गा तिष्ठन्त्यसावरुचदुन्नतरत्नपीठे ॥ लक्ष्मी सुधाब्धिचटुलोमिहतेव शेपे चान्द्रीकलेव शरदभ्रचितोदयाद्रौ।।१७।। दिव्याङ्गनेत्यादि । उन्नतरत्नपीठे रत्ननिर्मित पीठं रत्नगीट उन्नतश्च तवृत्तपीठञ्च तथोक्तन्तस्मिन् उत्तुङ्गमाणिक्यासने । तिष्ठन्ती तिष्ठताति तिष्ठन्ती। दिव्याङ्गनाबधुतचामरलालि. साना दिवि भवा दिव्यास्ताच ता अङ्गमाचं ति दिव्याङ्गनास्ताभिरचक्षुतानि तानि चामराणि च दिव्याङ्गनायधुतत्रामराणि तैलालिराम यस्यास्सा तथोक्का देवस्त्रीमुक्षिप्तप्रकीर्णक. शोभिताङ्गा । “अङ्ग गात्रान्तिकापायप्रतीकेष्वप्रधानफे” इति विश्वः । असौ पद्मावती। शेष महाशेष “शेषोनन्तो बासुकिस्तु सर्पराजः" इत्यमरः । सुधाब्धिचटुलोमिता सुधारूपो. ब्धिः सुधाब्धिश्चटुलाश्वता उर्मयस्तथोक्ताः सुधाब्धश्चटुलोम्मेयस्तामिहता तथोक्का क्षीरोदधिचञ्चलतरङ्गप्रोता । लक्ष्मीरिव श्रीरिध । उन्यादौ उदयस्यादिग्दयाद्रिस्तस्मिन् पूर्वाचले । शरदनचिता शरवोऽन शरदभ्र तेन चीयतेस्मेतिचिता शरत्कलानाश्रिता। चान्त्री चन्द्रस्येयं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तृतीयः सर्गः । ५६ खादी सुधासम्बधिनी । कलेव कलायत् । "कला स्थान्मूलविवृद्धी शिल्पादावंशमात्रके । षोडशांशे च चन्द्रस्य कलनाकालयोः कला" इति विश्वः । अरुचत् रोन्नतेस्म । यच् दीप्तौ लुङ उत्प्रेक्षालंकारः । भा० २०-- उन्नत रत्नजटित सिंहासन पर बैठी हुई तथा देवांगनाओं से लगाये गये छत्र ले समुद्रासित शरीरवाली पद्मावती शेषनाग के ऊपर क्षीरसमुद्र की चंचल तरंगों की उछाल खाती हुई लक्ष्मी के समान और उदयाचल पर्वत पर शरत्कालीन निर्मलाकोश मैं उगी हुई चांदनी की सी शोभती थी ॥ १७ ॥ सा कुंकुमेन परया कुवयोर्विलिप्ता कर्पूरक्लृप्ततिलका निटिले चकासे ॥ मम्बकुलभग शिरसि दिरेफ्ल्यामेव पल्लवितपुष्पितकल्पवल्ली ॥१८ || I सेत्यादि । परया अन्यया देवस्त्रिया । कुत्रयोः स्तनयोः । कुकुमेन काश्मीरेण । विलिप्ता विस्मेति विला । निटिले ललाटे । कर्पूरेक्सतिलका कर्पूरेणक्म तिलकं यस्यास्सा तथोक्ता घनसाररचिततिलका । शिर्शस मस्त के सम्बद्ध कुन्तलभरा कुन्तलानां मरस्तथोक्तः सम्बध्यतेस्म सम्पदः सम्बद्धः कुन्तलभरो यस्यास्सा तथोक्ता नन्दितशिरोरुहातिशया । "भरो ऽतिशय भारयोः" इति नानार्थरत्नमालायाम् । सा पद्मावती देवी । द्विरेफष्याला द्विरेफेर्याता भ्रमथिता । पल्लवित पुष्पित कल्पल्ली पल्लवः संजातो ऽस्या इति पल्लचिता पुष्पं संजातमस्या इति पुष्पिता सा चासौ कल्पवल्लो च पुष्पितकल्पवल्ली पल्लविता चासौ पुष्पिकाचली च तथोक्ता कुकुमलेपनेन पल्लवितेव कपूर तिलकेन पुष्पितेव कुन्तलभरेण द्विरेफव्यात कल्पवल्लीव चासे बभासे कामौ लिट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ १८ ॥ भा० अ० - किलो दूसरी देवांगना द्वारा शेनो कुत्रों पर कुंकुम और ललाट पर कर्पूर तिलक लगाये हुई तथा वेणी बाँधे हुई महारानी पद्मावती भ्रमरों से परिवेषित पल्लवित और पुष्पित कल्पवली के तुल्य शोभती थीं ।। १८ ।। तस्याः शिरोरुहभरे विनियोज्यमानं कृष्णां कयाऽपि चमरुमावभासे || तापिच्छकच्छमुपसर्पदिवान्धकारं निलाब्जकुजमुपयन्निव भृंगराशिः ॥ १९ ॥ तस्या इत्यादि । तस्याः पद्मावत्याः । शिरोव्हमरे शिरसि रोहन्ति इति शिरोरुहास्तेषां भरतयोकस्तस्मिन् पुन्तलसमूहे । कयापि देवस्त्रिया । विनियोज्यमानम् निक्षिप्यमाणम् । कृष्णम् श्यामलम् | यमरीहहम् आरोहतीत्यारोहश्चमर्यामाश्वमरोरुदत्तम् । तापिच्छुकच्छम् तापिच्छास्तमाला: “कालस्कन्धस्तमालः स्यात्तापिच्छोऽपि” इत्यमरः । कच्छो वर्न प्रत्युक्त' च राघवपाण्डवीये "कच्छान्तरेषु मरुतः कृतपुष्पवासा" इति। तापिच्छानां कच्छ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । स्तथोक्तस्तम् तमालतरुकुलम्। उपसात उपमर्पतीत्युपसर्वत् समाश्रयत् । अन्धकारमिय अन्ध' करोतीत्यन्धकारस्तम् ध्वान्तमिय। “अन्धकारोऽस्त्रियां श्वान्तम्" इत्यमरः । नोलाठम. कुलम् नीलानि च तान्यजानि नेषां कुञ्ज' नधोक्तम् नीलोत्पलपण्डम् । उपयन, उपतीत्युपयन् उपगञ्छन् । भृगराशिरिख भृगाणां प्रमाणां गाशिग्समूलस्तथोक्तः स इव आचभासे रेजे भासूङ दोती लिट् । उत्प्रेक्षालंकार: ॥१६॥ भा० अ० - महारानी पद्मावती के केशगुच्छ में किसी अन्य देवांगना से लगाया गया खमरी का काला बाल तमालोपवनान्तर्गत अन्धकार के समान तथा नोकमल के कुंज में महराते हुए भ्रमर समूह के समान ज्ञात होता था ॥ १६ ॥ कर्पूरमौक्तिकरवगेन्द्रमणिप्रक्कमैग्ताटंकहारवलयैरपरोपनीतैः । डिण्डीरितः क्वचन बुद्बुदितः परत्र शैवालिनाक्यचिदही सुषमाब्धिरम्या:२० कर्पूरेत्यादि । अस्याः पद्मावत्याः। सुषमाधिः सुषमैयाधिः सुषमाधिः देहकान्तिसमुद्रः। “सुगम चासयोः सुपमा पग्मय तो" इति विश्वः । अपरोपनीतः अपराभिरुपनीतानि त अन्यदेवस्त्रीमिय॑स्त: । करमौक्तिकागेन्द्रमणिप्रलप्तः करिश्च मौक्तिकच खगेन्द्रमणिश्च करमौक्तिकखगेन्द्रमणयस्तैः प्रामानि ः पूरमौक्तिकनगेन्द्रमणिप्रयाप्त: घनसारमुक्ताफलगरुरोगागरलचितः । ताकहारवलयः ताटकश्च हारश्च वलयञ्चति ताटकहारबलयानि तः कर्णभूषणहारकंकणैः । “कर्णपूरस्तु पुरुषाध. स्ताङगो दन्तकादिभिः" इति वैजयन्ती । पवनन क्य कस्मिन् क्वचन प्रदेशे । “असाकल्ये तु चिचन" इत्यमरः 1 इिंडीरितः डिंडोरस्संजातोऽस्येति तथोकः संजातडिंडीरः। "डिंडीरोऽधिकफ फन." इत्यमरः । परत्र परस्मिन्निति पर अयप्रदेशे । बुद्बुदितः बुद्बुद संजातोऽस्येनि बुदबुदितः संजातधुवुनः । यत्रित् प्रदेशे। शैवालितः शेवाल एव शैवाल: शैवाल: मंजातोऽस्येनि तथोक्तः पंजातशेयाल "जलनीलो तु शैशलः" इत्यमरः । अहो आश्चार्य्यम् । अत्रोपमानोपमेयपदानां क्रमेणार्थोऽन्वीयते । उत्प्रेक्षालंकारः ॥२०॥ भा० अ० -फर, मोती नया गाड़ मणि से बने हुए कर्णभूषण, हार और कंकणों से किसी दूसरी देवयाला द्वारा सुसजित की गयी पद्मावती का सुषमा समुद्र ( सौन्दर्यजलनिधि ) कहीं फेन युक्त, कहीं जलयुबुदमय तथा कहीं शैवाल युक्त प्रतीत होता था ॥२०॥ बामे फलव्यवहिते व्यरुचत्कुचोऽन्यस्तत्रीविवादनचलम्झिदशांगनायाः ॥ बक्वेन्दुना महचरीमभिशंक्य यातामुत्कम्पमान इव कान्तिझरीरथाङ्गः २१ वामेत्यादि । निदशांगनायाः फस्पाश्चि वतास्त्रियाः । घामे बामकुन्ने । फलज्यहिते फलेन व्यवहितस्तस्मिन् वीणाफलेनान्तरिते। नेत्रीविवादनचलः तत्रया विवाद नभोक्त Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः तेन चलस्तथोक्तः तंत्रीध्वनचंचलः । अन्यः कुचः दक्षिणकुचः । वपन्दुना वपत्रमेवेन्तु. वक्त्रंन्नुस्तेन बक्वेन्दुना मुखचन्द्रण । याताम् यातिस्मेति याताम् यियुक्ताम् । सहचरम् सहचरतीति सहचरी ताम् प्राणकान्ताम् । अभिशंक्य आशंक्य । उत्कम्पमानः उत्कम्पत इत्युत्फम्पमानः बिरहो कतिः । कान्तिभरीरथाङ्गः कान्तिरेव झरी कान्तिझरी तस्या प्रवर्त्तमानो रथाङ्गस्तधोक्तः किरणप्रयाटप्रवर्त्तमानचक्रवाकपक्षीय । "प्रवाहो निर्भरो झरी" इत्यभिधानात् ई प्रत्ययान्तोऽप्यस्त्येव । व्यरुचत् व्यराजत् रुब्दीप्तो लुङ् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥२१॥ भा० भ० --वीणा की तुम्धीसे किसी एक देवांगना के वामकुच के ढक जानेपर मीणावादन से चलायमान दक्षिणकुस अपनी सहचरी चक्रवाकी को मुखचन्द्र से नियुक्त हुई मानकर कारित बार में प्रवाहित अत एव कम्पायमान धनवाक के समान ज्ञात होता था ॥२१॥ ताभिर्यथावसामित्थमुपास्यमाना सा नीनतुर्यसबना किल तीर्थतायैः ।। शुभ्राम्बराभरणमाल्यविलेपना च शिश्ये सुखेन रमणेन समानतल्पा ॥२२॥ ताभिरित्यादि । इत्यम् अनेन प्रकारेणेत्यं एतत्प्रकारेण । यथावसरम् अवसरमनतिक्रम्य यथावसरम कालानुरुलमित्यर्थः । ताभिः देववनिताभिः । उपास्यमाना उपास्यत इत्युपास्य. माना सेव्यमाना। तीर्थतोयैः तीर्थानां तोयानि तीर्थतोयानि तैः पुण्योदः । नीतातुर्यसवत्ता चतुर्णा पूर्व तुयं “यछौं च लुफ "इनिय प्रत्ययश्चकारलापश्च तुर्य तत्सबनञ्च सधोक्त नीयतेस्मेति नीवं नीतं तुर्य्यसवनं यस्यास्सा तथोक्ता प्रापितचतुर्थनाना } शुभ्राम्भराभरणमालयविलेपना च अम्बरमत्रचामरणश्च माल्यं पुष्पमाल्यश्च विलेपतञ्च स्यम्बरा. भरणमाळ्यविळेप्रनानि शुभ्राणि अम्बरादीनि यस्यास्सा तथोक्ता । अत्र बनादीनां शुनिशेषणमिष्यते । सा पद्मावती देवी। रमणेन सुमित्रनरेन्द्र ण । समानतल्पा समान सल्पं मत्थास्सा तथोक्ता सदशशयना सती। "तल्पं शय्याद्वारें” इत्यमरः। सुखेन सौख्येन । शिश्ये किल जुष्वाम किल। शोड स्वप्ने लिट् ॥२२॥ भा० अ०-उन देवांगनाओं से सेवित, तीर्थजलों से चौथे दिन का स्नान किये हुई तथा सुन्दर कपड़े गहने और पुष्पमाला पहने हुई पमावती पति के साथ साथ शय्या पर सोयी ।। २२॥ नाग वृषाधिपगजारिरमाश्च माले चन्द्रार्कमीनयुगकुंभयुगानि वापीम् ॥ अंभोनिधिं च हरिपीठविमानभोगिस्थानानि रत्ननिकरं च विघृममग्निम्॥२३॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाध्यम् स्वप्नेऽथ सा सदशताप्रणयादिवैतानेतान् गजेन्द्रगतिरात्तवृपाधिपत्वा ॥ शातोदरी सविभवा सुकुमारगावी चंद्रानना सकलविष्टपसेव्यपादा ॥२४॥ मीनेक्षणा घटकुचा हृदनिम्ननाभिर्गोभीर्यपर्यवसितिः सुनितबपीठा॥ मानोन्नता च कृतभोगिपतिप्रमोदा चेतस्विरत्नममला क्रमशो ददर्श ॥२५!! नागमित्यादि। अथ रत्यनंतरे। गजेन्द्रगतिः गजानामिन्द्रो गजेन्द्रस्तस्येव गतिर्यस्थास्सा तथोक्ता मत्तगजेन्दवत् मंदगमना। आत्तवृषाधिपत्वा अधिपस्य भावोऽधिपत्वं वृषस्थाधिपत्वं तयाक्त' आधीयतेस्म आत्तं प्राप्त' वृषाधिपत्वं यस्यास्सा तथोक्ता संग्रामसर्माधिरत्या “सुकते वृषभे वृपः” इत्यभिधानादन वृषभार्थः श्लेषणोपपीयते । शानोदरी शातसुदरं यस्पास्ता तवेता सिंह यत् कशोदरी “शितं शातं च निशिते कृशे शातं च शर्मणि" इति विश्वः । सविभवा विभवेन सह वर्तत इति सधिभवा । श्रीरिव ससंपत् । सुकुमारगाची सुकुमारं गात्रं यस्यास्सा तथोक्ता पुष्पधामबत्कोमलांगो "सुकुमारन्तु कोमल मृदुले मृड" इत्यमरः । चन्द्रानना चन्द्र इवाननं यस्याः सा तथोक्ता सुधांशुमुखी। सकलविष्टपसेयपादा सकलञ्च तविष्टपच तथोक्त तेन सेव्यौ पादौ यस्यास्सा तथोक्ता चरणी किरणाश्च भर्फवन्निखिललोकाराध्यपादा "पादा रश्म्यंधितुशाः" इत्यभिधानादिकरणार्थः श्लेषत्वेनोपमीयते । मीनेक्षणा मोनाविवेक्षयों यस्यास्सा तथोक्ता मीनलोचना। घरकुचा घटाविव कुचौ यस्यारुला तथोक्ता कुभवत्पीनोन्नतस्तमा । हनिम्ननाभिः सदस्व निम्नो नाभिर्यस्यास्सा तथोक्ता वगंभीरनाभिः । गांभीयंपर्यवसितिः गांभीर्यस्थ पर्यवसितिः तथोक्ता भोधिबद्न भीरत्वपर्यवसाना। सुनितंबपीठा सु शोभनं नितंबस्य पीठं यस्यास्सा तथोक्ता नितंयमेव पीठ यस्या वा तथोका मद्रासनवत् पृथुलश्नोणिप्रदेशा । मानोन्नता च मानेनोन्नता तथोका मानोत्कृष्ट "मान प्रमाणे प्रस्थादी मानश्चिस्तान्नती ग्रहः" इत्यभिधानादत्र मानार्थः श्लेषभावेनोपमीयते। कृन्तभोगिपतिप्रमोदा भोगोऽस्यास्तीति भोगी स चासौ पतिश्च भोगिपतिस्तस्य प्रमोदस्तथोक्तः कृतो भोगिपतिप्रमोदो यस्यास्सा तथोक्ता विधिसभीगींद्रवद्भोगी भर्तृतोषा "भोगी भुजंगमे राज्ञि ग्रामण्यां नापितेऽपि च इति विश्वः । चेतस्विरत्न चतोऽस्त्यासामिति चेतस्विन्यस्तासां रत्न' प्रधानभूतविशिष्ठलिइत्यान्नपुसकत्वं . "मनस्विति भवत्यायें" इति धनंजयः। "रत्नं स्वजातिऽपि" इत्यमरः । अमला न विद्यते मलं यस्यास्साऽमला निधूमवहिवनिर्मलस्वभावा। ला पद्मावती देवी। पतानिध प्रागुक्तषोडशविशेषणस्यस्वभावानिव । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ३ तृतीयः सर्गः । नागं गजेन्द्रम् । वृषाधिपगजारिरमाश्च वृषाणामधिपो वृषाधिपो वृषभेन्द्रः गजानामरिस्तथोक्तसिंहो वृत्राधिपश्च गजारिश्र रमा श्रीश्च वृपाधिपगजारिरमास्ताः वृरभ सिंहलक्ष्म्यश्च । माले माला च माला व माले द्वंद्व कशेषः द्विवचनबलेन मालायुगलमित्यर्थः । चन्द्रार्कमीनयुगकु भयुगानि मीनयोर्युगं मीनयुगं कुंभयोर्युग कुंभयुगे अन्द्रध अर्का मीनयुगं च कुंभयुगं च तथोक्तानि चन्द्रसूर्य मत्स्ययुग्मपूर्ण कलशयुग्मानि । वापीम् सरोवरं । भोनिधिं च अंभांति निधायं ते ऽस्मिन्नित्यं भोनिधिस्त समुद्र च हरिपीटविमानभोगिस्थानानि हरिभिर्धृत पीठ हरिपीठं भोगोऽस्त्येषामिति भोगिनस्तेषां स्थानं भोगिस्थान हरिपीठं च विमानं च भोगिस्वानं च तथोक्तानि सिंहासनव्योमाननागेन्द्र धामानि । रक्षनिकरं रजानां निकरः भोकस्तं मणिराशिं । विधूमं विनिर्गतो धूमो यरुमात्स तं निर्धूमं । अनि पावकं च । एतान इमान् षोडश । सद्वशताप्रणयात् सशस्य भावः सदृशता तस्याः प्रणयस्तथोक्तस्तस्मात् प्राग्विशेषणैः स्वस्मिन्नारोपितधर्मस्नेहात् । प्रणयः प्रेम्णि विश्रभे याच्याप्रसरया र पि" इति विश्वः । स्वप्नं स्वपने । क्रमशः कद्रेण क्रमशः "बह्वचार्थश्यसि " इति शस् प्रत्ययः । ददर्श पश्यतिस्म प्रेक्षणे लिट् । त्रिभिः विशेषकम् | २३ | २५ | २५ | भा० अ० कृशोदरी ऐश्वर्यवती, सुकुमारांगी, गजगामिनी, चन्द्रमुखी, मीनाक्षी, उन्नत स्टानी, गंभीरनाभिकालो, गंभीरता में आदर्शभूत सुन्दरनितम्बवाली, मलरहिता, मनस्वि नियों में शिरमोर, धर्मात्य प्राप्त किये हुई, अपने प्राणवल्लभ को सन्तुष्ट किये हुई तथा सभी देवताओं द्वारा सेवित चरण कमलोंवाली महारानी पद्मावती ने समान स्नेह के विकाश से गजेन्द्र, वृषभ, सिंह, महालक्ष्मी, मालायें, चन्द्र, सूर्य, युगल कलश तथा मीन, सरोवर, समुद्र, सिंहासन, रथ, नागभवन, रत्नराशि तथा निर्धूमाझि ऐसे सोलह स्वप्नों को देखा । २३, २४ और २५ । राज्ञी विबुध्य सुरवल्लभकासुगीतैः कादम्बिनी कलकलैरित्र केकिकांता ॥ उत्थाय तल्पतलतः सुसमाप्य कृत्यं प्राभातिकं सपदि बल्लभमाससाद ॥ २६॥ राहीत्यादि । रानी राज्ञ भार्या राज्ञो पद्मावती महादेवी। सुरवलुभिकासुगीतैः सु शोभ नानि गीतानि गीतानि वलुमा एव वनिकाः सुराणां वलभिकास्तथोकास्तासां सुगीतानि सुरभिागीतानि तैः प्रभातप्रयुक्तः देवरमणी संगीतः । केकिकांता केाऽस्यास्तीति फेकीतस्य कांता तथोक्ता मयूरपत्नी कादविनीकलकलैरिव काबिन्याः कलकलास्तः मेघमालाकोलाहलैरित्र “कादंबिनी मेत्रमाला | कोलाहलः कलकलः" इत्युभयत्राप्यमरः । विबुध्य विबोधनं पूर्वपचात्किचिदिति विबुध्य प्रबुध्य । तल्पतलतः कल्पस्य तलं तपतलं तल्पत Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ៩ខ मुनिसुव्रतकाव्यम् | लाश्वल्पतलतः शय्यातलात् । उत्थाय उत्थानं पूर्वं पश्चात्किंचिदित्युत्थाय । प्राभाविक प्रभातस्येदं प्राभातिक उदयकालसंबंधि । कृत्यं कर्तुं योग्यं कृत्यं ज्ञानदेवपूजादिकार्य । सुलमाप्य सुसमापनं पूर्वपचात्किंचिदिति सुसमाप्य संपूर्ण कृत्वा । वल्लभं प्राणकांत । सपदि शीघ्र | "द्राङ् मंसु सपदि दुते" इत्यमरः । आससाद ययौ बदलविशरणगत्यव लावतेषु लिट् उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २६ ॥ भा० अ० - कादम्बिनी (मेघमाला ) की गंभीर ध्वनि के समान देवांगनाओं के संगीत से मयूरी के समान प्रसन्न हो जगकर महारानी पद्मावती शय्या त्याग प्रातःकालीन कृत्य सम्पन्न कर शीघ्र अपने प्रियतम के पास पहुँची ॥ २६ ॥ अर्धासने प्रियनिवेशितवल्लभायै स्थित्वा क्षणं श्रुतिसुखं विनिवेदितायाः || स्त्रमा वलेरिति जगाद फलं कुचांते दंतार्चिश विरचयन्निव चर्चिकां सः ॥२७॥ इत्यादि । आसनस्यार्धमर्धासनं तस्मिन् “समेऽर्धम्” इति समासः । प्रियनिवेशितवल्लभायै प्रियेण निवेशिता प्रियनिवेशिता सा चासी वल्लभा व प्रियनिवेशितवल्लभा तस्ये प्राणकांतेननिवेशितरमण्यै । क्षण क्षणपर्यन्तम् । "कालाध्वनोयांनो" इति कालवाचिनो व्याप्त्यर्थे द्वितीया । पित्या स्थापन पूर्व पश्चात्किचिदिति स्थित्वा । श्रुतिसुखं श्रुत्योस्सुखं यथा भवति तथा क्रियाविशेषणं । विनिवेदितायाः विनिवेदयतिरूम विनिवेदिता तस्याः विज्ञापितायाः । स्वप्नावलेः स्वमानामवलिप्तथोक्ता तस्याः । इति वक्ष्यमाणप्रकारेण । फलं । सः। कुत्रांते कुचयोरतः कुत्रांतस्तस्मिन् मानयोर्मध्ये दन्ताचिंश दन्तानामर्त्तिस्तेन दन्तकांस्या अर्चिर्मयूख शिवयोः" इति विश्वः । बर्श्विका चर्चेव वर्चिका तां लेपन "चर्चा चार्चिक्य स्थासकः" इत्यमरः । विरचयशिव विरचयतीति विरचयन, कुर्वन्निव । उवाच । गदव्यक्तायां चाचि लिट् उत्प्रेक्षालंकारः ॥२७॥ जगाद मा० अ० - महाराज सुमित्र ने अर्द्धासन पर बैठाकर रानी पद्मावती से भ्रणण-सुखद पूर्वोक्त सोलह स्वप्नों को सुनकर अपनी दन्तयनि से उनके स्तनों को प्रतिफलित करते हुए उन का फल कड़ा ॥ २७ ॥ . नागेन तुंगचरितो पतो वृषात्मा सिंहेन विक्रमधनो रमयाधिक श्रीः || स्रग्भ्यां धृतश्च शिरमा शशिना कुमच्कित्सूर्येा दीप्तिमहितो झषतः सुरूपः ॥२८॥ कल्याणभाकलशतः सरसः सरस्तो गंभीरश्रीरुदधिनामनतस्तदीशः ॥ देवाहित्रासमणिराश्यनलैः प्रतीतदेवोरगागमगुणोद्गमकर्मदाहः ॥२६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः । एवंविधस्तव भविष्यति तीर्थकती पुत्रो जात्यविनयजनकभित्रं ॥ मामरोरंगखगप्रमदातिशायिपुग्यातिशायनघनायितचारमूर्तेः ॥३०॥ नागेन गजेन्द्रदर्शनेनेत्यर्थः । तुंगचरितः तुंगं चरितं यस्य स तथोक्तः यशापाताख्यमहावारित्रः ! वृषतो गर्वेदात् । वृषात्मा वृष पब आत्मा यस्य स तथोक्तः धर्मस्वरूपः "धर्मोऽयं वृषरूपेण" इति धर्मस्य वृषत्वप्रसिन : रूपकः। सिंहेन मृगेंद्र ण। विक्रपधन; विकम एक धनं यस्य सः तथोकोऽर्नसवीर्यः । रमया श्रीदेव्या । अधिकधी: अधिका श्रीर्यम्य स अधिकश्रीः। स्रग्भ्यां मालाम्यां । शिरसा मस्तकेन । धृतश्च भृतश्च धरनीति धृत इति कतरिक्तः उपयलक्ष्मीपरिणयाई इत्यर्थः। शशिना कांद्रण । क्लमच्छित् क्लमं छिनत्तीति क्लमच्छित संसारक शनाशकः । सूर्येण दिवाकरण । दीप्तिसहितः दीप्ल्या महितः देहकांतिसमृद्धः । झषतः भाषाभ्यां कषतः मीनयुगलनः। सुरूपः सु शोभन रूपं यस्य स नयोक्तः मनोहररूपः ॥२८॥ कल्याणभामित्यादि । कलशतः कलशाभ्यां कलशतः पूर्णघट्युगलात् । कल्याणभाक् कल्याणानि भजतीति कल्याणभाक् “त्रिणभन" इति विण् प्रत्ययः पंचकल्याणसेवितः। सरस्तः सरसः सरस्तः सरोवरात सरस: रसेन सह वर्तत इति सरसः यात्सल्यसहितः । उद्धिना उदकानि धीयतेऽस्मिन्नित्युद्धिस्तेन समासत्वादुदादेशः समुद्रण। गंभीरधी:गंभीरा धीर्यस्य स तथोक्तः गभीरबुद्धिः। श्रासनत: आसनादासनतः सिंहासनात् । तदीशः तस्य ईशस्तथोक्तः सिंहासनाधिपः । देवाहिवासमणिराश्यनलः देवाश्चात्यश्च देवाहयस्तेषां बासस्तथोक्तः मणीनां गशिमणिराशिः देवाहित्रासश्च मणिराशिथ अनालश्च देवाश्चिापमणिराश्यनलास्ते: देवविमाननागभवनरनिराशिलिभिः । प्रतोतदेवोरगागमगुणोद्रमकर्मदाहः देवाधोरगाश्व तथोक्तास्तेषामागमस्तथोक्त उदगमनमुद्रमो गुणानामुम्गमः प्रादुर्भावस्तथोक्तः दहनं दाहः कर्मणां पाहस्तथोक्त देवारगागमश्च गुणोद्गमश्च कर्मदाहश्च तथोक्ता:प्रतीता जगदिनुना देवोरगागमगुणोद्मकर्मवाहा यस्य सः तथोक्तः प्रसिद्धस्वसेवार्थि कल्पवासिदेवागमनभवनवासिदेघाममनकेवलझानादिगुणोत्पसियुतोऽविधकर्मदाहकश्च ॥२६॥ पत्रविध इत्यादि। मामरोरगखगप्रमदातिशायिपुण्यातिशायनघनायितचारुमूर्तेः मा. श्व अपराश्च उरसा गच्छंतोटयुग्गाः नागाश्च वं गच्छत्तोति खगा विद्याधरास्ते च मामगोरगखगास्तेषां प्रपदास्तथोकास्ताः अतिशे । इत्येवं शोलं तदतिशायि तश्च तत्पुण्यं च मामरोरगलगत्रमदातिशायिपुण्यं तस्यातिशायनं तेन घनायतेस्म घनायिता घा: चासौ मूर्तिश्च चाकार्तिः मामरोरगावगप्रमशतिशायिपुण्यातिशायनघनायितचारुमतिर्यस्यास्सा तथोक्ता तस्याः मनुष्यकलावासिभवनविद्याधरचमितात्युत्कटमुक्तप्रवनघनीभूतमनोरमशरीरस्य । एविधः कथितप्रकारः । जगत्रयविनेयजनकमित्र जगतां त्रयं जगधयं विनतुं योग्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुतकाव्यम | ៩៩ विनेयास्ते च ते जनाश्च तथोक्ताः जगत्रयस्य विनेय जनास्तथोक्ताः जगत्रपचिनेय जनानामेक च तत् मित्रं च तथोक्त सद्धर्भविदेशेन श्रेयस्पथमापकत्वात् त्रिलोक भव्य जन मुख्यबंधुः “एके मुख्यात्यकेवला" इत्यमरः । मित्रशब्दस्य विशिष्टलिंगत्वान्नपुंसकत्वं । तीर्थकर्ता तीर्थस्य कर्त्ता तीर्थकर्त्ता सद्धर्मोद्वाकः । तब ते युष्मदस्मदोरलिंगत्वात् त्रिलिंग्यामेकत्वं । भविष्यति जनिष्यति । अतिशयालंकारः | नागेनेत्यादिपद्यत्रयेण पुत्रः तनयः । विशेषकम् इत्यन्यो विधातव्यः ॥३०॥ भा० अ०- अयि ! मनुष्य- कल्पवासी मनवासी तथा विद्याधरों की स्त्रियों के पुण्य को पद दलित करने वाले पुण्य से सुन्दर मूर्त्ति वाली पद्मावती ! गजेन्द्र-दर्शन से यथाख्यात महाचरित्रवाला, वृषभ से धर्मोद्धारक, सिंह दर्शन से पराक्रमी, लक्ष्मी से अधिक श्री सम्पन्न, माला से सबों का शिरोधार्य, चन्द्रमा से संसार के सन्तान को दूर करने वाला सूर्य में अधिक ने नया मीनदर्शन में सुन्दर आकृति वाला, कलश से कल्याणास्पद अर्थात् पञ्चकल्याण द्वारा सेवित, सरोवर से वात्सल्य रस- युक्त समुद्र से गंभीर बुद्धि वाला, सिंहासन से राज्य सिंहासनारोही, देवधिमान, नागभवन, रनराशि तथा अग्नि आदि के दर्शन से देवों का आगम, नागों का आगमन, गुणों के प्रकटीकरण तथा अष्टकर्म दहनादि गुणों से युक्त त्रिभुवन के विनीत भयों के एक मात्र मित्र ऐसा तीर्थङ्कर के रूप में तुम्हें पुत्र होगा ॥ २८॥ २६ और ३० ॥ एतन्निशम्य वचनं रुचितस्य देवी रोमांचकंचुकितचंचुरगातयष्टिः । आकर्णितान्यभृतमंजुरबा वनांते मार्कवल्लिरिव कोरकिता बभूव ॥ ३१ ॥ एतदित्यादि । देवी पद्मावती राक्षी । रचितस्य रोचतेस्म रुचितस्तस्य प्राणकान्तस्य । एतत् इदं । वचनं भाषितं । निशम्य निशमनं पूर्वं पश्चात्किचिदिति निशम्य श्रुत्वा । वनांते वनमध्ये ! माकंदचलिः माकंदाश्वासौ बलिश्च तथोक्ता आम्रलता | आकर्शितान्यभृतमंजु रवा मंजुश्चासौ व मंजुरवः अभ्येन भ्रियतेस्म अन्यभृतस्तस्य मंजुरवस्तथोक्तः आक तेस्म आकर्णितोऽन्यभृतमंजुरवो यया सा तथोक्ता आकर्णितको फिलमनोहरध्वनियुता । "वनप्रियः परभृतः कोकिलः पिकः, मनोश' मंजु मंजुल” इत्युभयत्राप्यमरः । कोरकिता कोरकः संजातोऽस्या इति कोरकिता संजात कलिकेघ कोकिलनादस्य वसंतसूचकत्वान्नि नादेन कोर कता यथा वभूव तथा इत्युपचारोक्तिः । रोमांचकंचुकितचंचुरणार्याः रे मांचैन कंचुकः संज्ञातोऽस्या इति रोमांचकंचुकिना रोमांचकंचुकिता चंचुरगात्रयष्टिर्यस्याः सेति बहुपदयहुबीहिः रोमांचसंजातकंचुकमनोहर देहयष्टिः । बभूव भवतिम उत्प्रेक्षा लंकारः ॥३१॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः मा० म०-अपने प्राणवल्लम की यह यात सनकर कोयल की कुह २ को ध्वनि से जैसे उपवनों में मानवल्लो मुकुलित होती है उसी प्रकार महारानी पशचती को देहयष्टि रोमानरूप कंचुकसे आच्छन्न हो गयी ॥३१॥ देवोऽथ पूर्वगदितस्त्रिदिवादुपेतो देव्या वपुः करिवपुर्वदनादविक्षत ॥ पक्षे परे नभसि मासि तिथौ द्वितीये योगे शिवे श्रवसि भे विरतौ रजन्याः॥३२॥ देव इत्यादि। अथ अनंतर । पूर्वगदितः गद्यतेस्म गदितः पूर्वस्मिन् गदितस्तथोक्तः प्रागुक्तः । देव: हरिवर्मचर: प्राणतेंद्रः । नभसि धावणे । "श्रावणे तु स्यान्नभाः श्रावणिकश्च सः" इत्यमरः। मासि मासे पदनित्यादिना मासशब्दस्य मासादेशः। पर अपरे। पक्षे कृष्णपक्ष इत्यर्थः । द्वितीये द्वयोः पूरणो द्वितीयस्तस्मिन् "तिथयो यो:"इत्यमरसिंहनामापयाद्विशेष्यस्य पुंस्त्वेन विवक्षितत्वाविशेषणस्थापि पुंस्त्वं। तिथी दिवस। शिवे योग शिवनामयोगे । श्रवलि श्रवणे -ज्योतिपिकप्रसिद्धप्रयोगोऽयं । भे नक्षत्रे। "नक्षत्रमृक्ष भ तारा" इत्यमरः । रजन्या: निशायाः। विरतौ विरमण विरतिस्तस्यामवसाने। त्रिदिवात् स्वर्गात् । उपेतः उपैतिस्म उपेतः आगतः सन् । करिवपुः करोऽस्यास्तोति करी करिणो चपुरिव वपुर्यस्य सः तथोक्तः गजाकारस्सन् । देव्या: पभावती-महादेव्याः। वपुः शरीरं। बदनात् मुखात् घदनविवरात् । अविक्षत् आधिशत् विशप्रवेशने लुकु “प्रश्च भ्रस्ज" इत्यादिना शस्य षः "पदः कस्सि" इति षस्य कः ॥ ३२॥ भा० अ-पूर्वोक्त प्राणतेन्द्र स्वर्ग से भाकर श्रावण कृष्ण द्वितीया को श्रवण-नक्षत्र तथा शिव-योग में रात बीत जाने पर गजाकार से मुखद्वारा पद्मावती के शरीर में प्रविष्ट हुए ॥३२॥ विज्ञायासनकंपतः सुरपतिस्तस्यावतारं प्रभोः स्वर्गादेत्य चतुर्विधैरसह सुरैरस्यांबिका कल्पजैः । आकल्पांबरगंधमाल्यनिवहैरभ्यर्च्यनाम स्तवं गानं नर्तनमारचय्य जनकं चादृत्य भूयो गतः ॥३३॥ विज्ञायेत्यादि। सुरपतिः सुराणां पतिः सुरपतिः सौधर्मेन्द्रः । तस्य प्रभोः मुनिसुवततीर्थे. शस्य । अवतारं अवतरणमवतारस्तं गर्भावतरणं । आसनकपतः आसनस्य कंपस्तथोक्त भासनकंपादासनकंपतः सिंहासनकंपतः । विशाय विषुध्य । चतुर्विधैः चत्वारो विधा ये. षो तैः चतुःप्रकार: भवनध्यंतरज्योतिष्ककल्पयासिभेदै रित्यर्थः। सुरैः देवः। सह साझ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढँद सुनिसुव्रतकाव्यम् ' स्वर्गात् त्रिदिवात् । एत्य आगत्य । अस्य मुनिसुव्रततीर्थेशस्य अंबिकां जननीं । जनकंत्र पित्तरं च । करजेः कल्पे जायंत इति कल्पजास्तैः स्वर्गसंभूतः । भाकल्पांवरगंधमाल्यमिचहैः आकल्पाश्च अंबराणि च गंधाच माल्यानि त्र आकल्पांवरगंधमाल्यानि तेषां निवास्तैः आभ रणदुकुलगंधमग्लासमूहैः । “आकल्पवे नेपथ्यं प्रतिकर्म प्रसादनः" इत्यमरः | अभ्यर्च्य अभ्य पूर्वपचा किचिदित्यभ्यर्च्य पूजयित्वा । नामं नमनं नामस्तं नमस्कारं । स्वयं स्तोत्रं । गानं गीतं । नर्तक आनंदनर्तनं च । आरवध्य आरचनं पूर्व पञ्चात्किचिदित्यार चय कृत्वा । भूयः पुनः । भव्यजनं च आगत्य सत्कृत्य । गतः गच्छतिस्म गतः यातः ॥३३॥ इत्यर्हदासकृतेः काव्यरत्नटीकायां सुखबोधिन्यां भगवद्गर्भावतरण वर्णमो नाम तृतीयः सर्वोऽयं समाप्तः J भा० अ० - सौधर्मेन्द्र अपने के कोने से तो का गर्भावतार जान भवन, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा कल्पवासी देवों के साथ आकर स्वर्गीय भूषण, वसन, गन्ध तथा मालाओं से सुनिसुझव महाराज के पिता माता की पूजाकर चन्द्रना, स्तुति तथा नृत्यकर के पुनः अपने स्थान को चले गये ॥ ३३ ॥ इति तृतीय सर्ग समाप्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ चतुर्थः सर्गः ॥ न्यग्रोधशाखेव रराज सांद्रच्छाया दधाना पुरुषोत्तमं तम् ॥ पत्रोदरेऽथाऽऽमुष्णशीतमुच्चैस्तनीयं नुदति प्रियस्य ॥ १ ॥ न्यग्रोधेत्यादि । अथ अनंतरम् । सांद्रच्छाया सांद्रा छाया यस्या सा तथोक्ता निरंतर तियुता । "धर्म निरंतरं सा । छाया सूर्यप्रिया क्रांतिः प्रतिविश्रमनातपः" इत्युभयत्राप्यवरः । पत्रोदरं पत्रमित्रोदरं तथोक्त तस्मिन, पर्णवत्कृशोदरे । पुरुषोत्तमं पुरुषेषूत्तमस्मोकस्तं पुरु. षष्ठम् । तं मुनितस्वामिनं । दधाना धन इति दधाना "सल यड्" इत्यादिना आनश् प्रत्ययः । प्रियस्य प्राणनाथ आर्तव ऋणु भवपार्तवं समस्तसंभूतं । उष्णशो उष्ण च शीतं च उष्णशीतं तद्न्देकत्वं उपशीतलं । नुदति नुदतीति नुदति अपहरति शत्रुप्रत्य यान्तात् “नृदुगि" इत्यादिना ङी । उच्चैस्तनी उच्च स्तनौ यस्याः सा तथा पीनोत्तुंगपयोधरा । इयं एत्रा देवी । सांद्रा छाया यस्याः सा तथोक्ता निविज्ञानातपचती । पत्रो पत्ररूपोदरं पत्रोदरं तस्त्रित् पणीतर्भागे त प्रसिद्ध | पुरुषोसमं नारायणं "श्रीपतिः पुरुषोत्तमः” इत्यमरः । दधाना धरन्ती । प्रियस्य प्रीतिमञ्जनस्य । आर्तव ऋतु भवं उष्णशीतं नुदति । उच्चैस्तनी उच्चैर्भवा तथोका । "सायं चिरं प्रागेऽव्ययात्" इति मन्टू प्रत्ययः अतिमहतीत्यर्थः । “अल्पे नीचैर्महत्युर्थः इत्यमरः । न्यग्रोधशाखा न्यग्रोधस्य शाखा तथोक्ता सेव । रराज राजू दीप्तौ लिट् पोपमा । यदाह - "शीतकाले भवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलं ! कूपोदकं वदच्छाया तांबूलं तरुणीस्तनों" इति । सप्तसागराणां परतः विष्णुर्वपत्र शेत इति लौकिकोक्तिरुमीयते ॥ १ ॥ I भा० अ० - सदा ज्योतिर्मयी, उन्नतस्तानी पत्रवत् कृशोदर में तीर्थङ्कर भगवान को धारण किये हुई पद्मावती पत्रान्तर्भाग में नारायण भगवान को धारण किये हुई सघन छागावली घटच्छाया के समान अपने प्रियतम का ऋतुसम्बन्धी शीतोष्णजन्य सन्ताप अपहरण करती हुई शोभती थी ॥१॥ सा गर्भिणी सिंहकिशोरगर्भा गुहेब मेरोरमृतांशुगर्भा ॥ वेलेव सिंधो: स्मृतिरत्नगर्भा रेजेतरां हेमकरंडिकेच ॥२॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मुनिसुव्रतकाव्यम् । सेत्यादि । गर्भिणी गर्भोऽस्या अस्तीति गर्भिणी अंतर्वत्नी । सा महादेची। सिंहकिशोरगर्भा सिंहस्य किशोर: पोतो गर्भ ऽन्तर्भागे यस्याः सा तथोक्ता । "बालः किशोरः इत्यमरः । मेरो: मंदरपर्वतस्य । गुहेच गहरवत् । अमृतांशुगर्भा अमृतरूपा अंशवो यस्य स तथोक्तस्सएव गर्भे यस्यास्सा तथोक्ता चंद्रयुक्तांतर्भागा । सिंधोः समुद्रस्य । वेलेव तीरभिध । “धेला. ब्धितीराधिवृश्योः कालमर्यादयोरपि" इति भास्करः। स्मृतिरत्नगर्भा स्मृत्यर्थप्रधानं रत्न स्मृतिरस्न तदेव गर्ने यस्यास्सा तथोक्ता चितामणिसदिनांतर्भागा । “गर्भो भ्रूणेऽर्भके कुक्षी संधौ पनसकटके" इति विश्वः । हेमकरंडिकेव हेना विरचिता करंडिका तथोक्ता सुवर्णभाजनमिव । रेजेतरां यभासेतरी । “योर्षिभज्ये व तरण्" इति तरण प्रत्ययः । गर्भस्थस्य तस्य सिंहकिशोरामृतांशुस्मृतिरत्नदृष्टांतोन क्रमाददृश्यत्वगुणाभिगम्यतागुणत्यागगुणभूयिष्ठत्वं सूचित भवति । तस्यास्तु मेरगुहासिंधुवेलाहेमकरंडिकादृशांतत्येनानाक्रम्यत्वगांभीर्यदिव्योंषधशुद्धोरस्त्वानि सूचितानि भवन्ति उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २॥ __ भा० अ०-गर्भवती महादेवी पक्षाधती सिंहशिशु को रफावे हुई गिरि गुहा के नुल्य, चन्द्रगर्भा समुद्र वेलाके समान और चिन्तामणियुक्त सुवर्ण-मंजूषा के मद्दशनात होनी थीं ॥२॥ वल्ली वसंतात्सरसी घनांतासंपन्नयाच्चन्द्रमसोऽब्धिवेला ।। यथा तथाऽजायत सा कृशांगी गर्भिकादुज्वलरूपसंपत ॥३॥ बल्लीत्यादि । कृशांगी कृश अंग यस्याः सा तथोक्ता तन्वी ! सा पद्मावती ! धर्मतात् वसंतकालात् । वल्ली लता। घनांसात् घनस्य अन्तस्तथोक्तस्तस्मात् वर्षकालांतात् शरत्कालादित्यर्थः । सरसी सरोवरः । नयात् नीतिमार्गात् । संपत् । चंद्रमसः चन्द्रात् । अधिवेला अन्धेर्वेला तथोक्ता । यथा येन प्रकारेण यथा । तथा तेन प्रकारेण तथा । गर्मा भकात् गर्ने विद्यमानोऽभको गर्भार्भकस्तस्मात् । चलरूपसंपत् रूपस्य संपत् रूपसंपत् उज्वला रूपसंपत् यस्यास्सा तथोक्ता। अजायत अभूत् । जनैङ् प्रादुर्भावे लः । भा० -सन्तागमन से वल्ली के समान, शरत्काल से सरप्ती के समान, सुन्दर नय ले सम्पत्ति के समान तथा चन्द्रमा से समुद्रघेला के समान गर्भस्थित बालक से कृशांगी पावती अत्यन्त उज्वल सौन्दर्य-सम्पत्ति से सम्पन्न हुई ॥३॥ जिनस्य माहात्म्यपदेन हष्टौ सामिप्यलाभेन कुचौ तदीयौ।। न बिभ्रतुःश्यामलतां मुखेऽल्पामप्येष नो हर्षयतीह कारकान् !!४॥ शिनस्येत्यावि। जिनस्य जिनवालकस्य | सामिप्यलाभेन समीपमेघ सामिप्यं तस्य लाभस्तथोक्तस्तेन आसन्नतालाभेन | माहात्म्यपदेन महाश्चालायात्मा च महात्मा तस्य Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः। भावस्तथोक्त महात्म्यमेव पदं व्याजस्तन महत्त्वव्याजेन । हष्टौ हयेतेस्म हो संतुष्टौ । तदीयौं तस्याः नः नमीयौ मातीमधिनी ! कचौ स्तनौ । मुले वक्त्रं अनेच चुचुक इत्यर्थः । अल्यामपि स्तोकामपि । श्यामलतां श्यामलस्य भावः श्यामलता तां कृष्णत्वम् । न बिभ्रतुः न धरतःम्म भृत्र भरणे लिट। लथाहि --एपः अयं सामिप्यलाभः। इह अस्मिन्निद । कॉस्कान् कान् कान "काँस्कान सीसक्” इति निपातनात्सिद्ध' । नो हर्षयति न संतोषयति अपि तु सर्वान् हर्पयत्येव । हा अलीके लट् अतिशयालंकारः॥४॥ भा० अ० -जिनेन्द्र भगवान के समीप रहने से अथवा जिनेन्द्र भगवान को महिमा की अधिकता से पमावती के दोनों स्तनों ने जरा भी कृष्णता धारपा नहीं को। जिनेन्द्र भगवान का सामिप्य लाभ इस संसार में भला किसको प्रसन्न नहीं कर सकता है ॥४॥ सुतस्य गंभीरतरस्य संगात्तस्योदरिगया अपि राजपत्न्याः ॥ नाभिर्न तत्याज गभीरभावं गुणारत्यजेत्को गुणिसंगमेन ॥५॥ सुतस्येत्यादि । उरिश अपि उदरमस्या अस्तीत्युदरिणी तस्याः गर्भिण्या अपि । राज. परन्याः राज्ञः पन्नी तथोक्ता तस्या; पहावत्याः । नाभिः नाभिस्थान । गंभीरतरस्य प्रकष्टो गंभीरो गंभारतरत्तस्य अत्यंत भोरस्य । तस्य सुतस्य जिनबालक्रस्य । संगात् संसर्गात् । गमोरभावं गमोरस्य भावस्तयोक्तम्त निम्नत्वं गंभीरत्धं । न तत्त्याज न मुमोच। त्यज हानी लिट् “निम्नं गभीरं गंगौरम्" इत्यमरः । तथाहि . - गुणिसंगमेन गुणास्स्त्य स्येति गुणी तस्य संगमस्तथोक्तस्नेन गुणवतस् सर्गेण । गुणान गांभीर्यादिस्वभावान् । कः को वा पुरुषः । त्यजेत् मुंचेत् त्यज हानी लिट् । अथातरन्यासः ॥५॥ भा० अ-गर्भवती होती हुई भी राजहियो पद्मावती की नाभी ने गांभीर्य गुणशाली उन तीर्थक रूप पुत्र के समागम से अपनो स्वभाविक निम्न्नता नहीं छोड़ो। गुणो के गा जाने पर कौनसा व्यक्ति अपना गुण छोड़ सकता है ? ॥५॥ गर्नेऽपि बोधनयनायकोऽयमितीदमावेदयितुं किलास्याः ॥ बलिप्रभावादलयो न नटाः सनाभिनाशं भुवि के सहन्ते ॥६॥ गर्भ इत्यादि । अयं जिनवालकः । गर्मे ऽपि उद्रेऽपि । योभत्रयनाथकः बोधानां त्रयं बोधनयं तस्य नायकस्तथोक्तः मतिश्रुता धिरुपज्ञानत्रयस्य स्वामी । इति एवं प्रकारवचन | आयेदयितुं शापयितुं । अस्याः पनावत्याः । वलयः त्रिवलयः । बलिप्रभावात् बलमस्यास्तीति बली तस्य प्रभावस्तस्मात् “यमकल षचित्रेषु वयोर्डलयोरभेदः" इति घाग्भट्टभाषणात बधयोरभेदः । बलवतोऽनंतवीर्यवतोऽईतः सामान पक्षे बलिनां च प्रभावात् । न नष्टाः न नश्यतिस्म न Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ काव्यम् मधुना नष्टाः अद्गश्यतां नापुः । तथाहि भुधि भुवां । सनाभिनाशं नाभिना सह वर्तत इति सनाभिस्तस्य नाशस्तथोक्तस्तं संयुक्तनाभयति कि “ सनाभिस्सगोत्री बंधुश्च" इति धनंजयः । के सहन्ते के क्षमते न क्रेऽपीत्यर्थः सह मर्षणे लोट् | अर्था तरन्यासः ॥६॥ I मा० भ० -मति श्रुति अवधि ज्ञानत्रय के धारक ये मुनिसुव्रतनाथ हैं। यह सूचित करने के लिये ही माने पशवती के गर्भ की त्रिवली ज्यों की त्यों रही। अर्थात् नष्ट नहीं हुई थी। ठीक है संसार में सनाभि ( सहोदर ) का नाश कौन सहन कर सकता है ॥६॥ तत्संगमे सर्वसमृद्धिहेतौ निरन्तरं सत्यपि कुक्षिरस्याः ॥ समृद्धिमल्पामपि न प्रपेदे भाग्यानुसारीणि फलानि कामं ॥७॥ तत्संगम इत्यादि । सर्वसमृद्धिहेतौ सर्वेषां समृद्धिस्सचं समृद्धिस्तस्या हेतुस्तस्मिन् सक लोकप्रवृद्धिकारणे । तत्संगमे तस्य संगमस्तत्संग मस्तस्मिन् तज्जिनकुमारसंबंधे। निरन्तरं अंतरा निर्गत निरंतरं अनवरतं । सत्यपि विद्यमानेऽपि । अस्याः पद्मावती-देव्याः । कुक्षिः जठरः | अल्पमपि स्तोकामनि । समृद्धि सम्पूर्ति । न प्रपेदे न प्राप पगतौ लिट् । तथाहिफलानि लब्धपः । कामं ष्ट | "कामं कामं पर्याप्त निकामेष्टं यथेप्सितम्" इत्यमरः । भाग्यानुसारीणि भाग्यस्यानुसारीणि अद्वप्रानुकूलानि । भचंतीत्यध्याहारः । अधातरन्यासः ॥ ७॥ भ० अ० - सभी समृद्धि के कारण भूत श्रीजिनेन्द्र भगवान् के गर्भ में सक्ष विद्यमान रहने पर भी गर्भ की थोड़ी भी वृद्धि नहीं हुई। क्योंकि कर्म के फल भाम्यानुसार ही हुआ करते हैं ॥७॥ स्मरज्जनानामपि नाशयं तमंतरतमो नृतनरत्नदीपम् ॥ साक्षाद् दधत्या जिनमंतरस्याः स्प्रष्टुं तमो नैष्ट भियेव जातु ||८|| स्मरज्जनानामित्यादि । स्मरंतीति स्मरतस्ते च ते जनाच स्मरज्जनास्तेषां ध्यायलो. कानामपि । अंतस्तमः अंतर्भागे विद्यमान तमः अज्ञानध्यांतं । नाशयंसं ध्वंसयंत | नूतनरनवीचं मच एव नूतनः रक्षमिव दीपः नूतनञ्चासौ रत्नदोपश्च नूतन रत्नदीपस्तं अपूर्वं अंतस्तमो ध्वं सकत्वान्नूतनत्वम् । साक्षात् प्रत्यक्षं । “साक्षात्प्रत्यक्ष तुल्ययोः” इत्यमरः । जिनं जिमवाळकं । अंतः गर्भे । दधत्याः दधातीति दधती तस्याः घरत्याः । अस्याः पद्मावत्याः । अंतः अंतरंग तमः अज्ञानतमः । “शोकाचानध्वांतगुणस्वर्भानुरुधिरेषु तमः" इति नानार्थकोपे । स्वष्टुं स्पर्शनाय स्प्रष्टुं भियैव भव । जातु कदाचिदपि । नै नदक्षमभूत् श ऐश्वर्ये लुङ् || Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः । ७३ __ भा० अ०-स्मरण करनेवालों के भी अन्तस्तम को नष्ट करने वाले उन नूतन रत्न प्रदीप रूप जिनेन्द्र भगवान को साक्षात् धारण करती हुई पद्मावती का अज्ञानान्धकार उस रत्नप्रदीप को उरके मारे छने में भी समर्थ नहीं हो सका ॥८॥ गर्भस्य लिंग परमाणकल्पमप्येतदंगेष्वनवेक्ष्य रक्षी ॥ जगत्त्रयोडारणदोहदेन परं नगणां बुबुधे ससत्वां ॥६॥ गर्भस्येत्यादि । नाराणां मनुष्याणां । रक्षा रक्षतीत्येचं शीलो रक्षी पालकः सुमित्रभूपालः । एतदंगेषु पतस्या अंगान्तदंगानि तेषु पद्मावत्यवयवेषु। “अङ्ग गात्रांतिकापायप्रतीकेषु प्रधानकः" इति विश्वः । परमाणुकल्पमपि परमाणुसमानमपि ईषदसमाप्तः परमाणु: परमाणु कल्पस्त "पदसमाप्तऽांदे:कल्पदेश्यन्देशीयर्" इति कल्प प्रत्ययः । गर्भस्य पिण्डस्य। लिल चिह' । “लिंग चिहऽपि मानेऽपि सांख्योक्तप्रकृतावणि शिवमूर्तिविशेषेऽपि मेहनेऽपि प्रचक्षते' इति विश्वः । अनवेक्ष्य अनवेक्षणं पूर्व पश्चात्किंचिदित्यनवेक्ष्य अदृष्ट्वा । परम् केवलं । जगन्नयोद्धारणदोहदैन जगतो त्रयं जगलयं तस्योद्धारणं च तत् वोहदं च तथोक्त तेन त्रिलोकोद्धारणाभिलाषेण । “अथ दोहद कामोऽभिलाषस्तर्षश्च" इत्यमरः । ससत्यां सत्वेन सह वर्तत इति ससत्या तां गर्भसहितां । “श्रापन्नसत्वा स्याइ गुर्विणी" इत्यमरः । बुबुधे भेने बुधि मनि-झाने लिए अनुमानालंकारः ॥६॥ भा० म०-लोकपाल सुमित्र महराज ने पद्मावती के शरीर में गर्भ का तनिक भी चिह्न देख कर कंवल त्रिभुवन को उद्धार करने को अभिलापा से पद्मावती को गर्भवती समझा ॥। संबंधदुःखाखिलजीवमुक्तहेतुं तमक्षार्थगतरहं च ॥ प्रसोध्यती तेन समाभवत्साप्युपाधिवत् स्वच्छतरं हि वस्तु ॥१०॥ संबन्धेत्यादि । संबंधदुःखाखिलजोवमुक्तः संम्बधादनादिकर्मकृतसंबंधादागतं दुःखमेषां ते संबंधदु:खा अखिलाश्च ते जीवाश्च तथोक्ताः संबंधदुःलाश्च ते अखिलजीवाश्च तथोक्तास्तेषां मुतिस्तस्याः शमादिघासनायातभवदुःखयुक्तसर्वजीवमोक्षस्य अनादिविरोधागतकारागारादिदुःखयुतनिखिलप्राणिमोचनस्य च हेतु कारणभूत' "मुक्तिः स्यान्मोचने मोक्षः" इति विश्वः । अक्षार्थगतस्पृह व अक्षाणामिद्रियाणामस्तिषु पक्ष स्पर्शनमात्र तस्मिन् गता स्पृहायस्य स ते स्पर्शनादिद्रियविषयवांछारहितमित्यर्थः “अथाक्षामंद्रिये अयोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिपु" इत्यमरः। तं मुनिसुव्रतस्वामिनं । प्रसोष्यतीति प्रसोध्यती प्राप्स्यतो । सापि पभावत्यपि । तेन जिनेन । समा समाना । अभवत् अभूत् । सम्बन्ध दुःखानिलप्राणिमोधनस्य हेतुः पत्युपभोगमात्रस्पर्शनेन्द्रियविषयसुखे गतस्पृहा बाभवदिति Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुतकाव्यम् । ** यावत् । तथाहि-- स्वच्छतरं प्रकुट स्वच्छ स्वच्छतरं निर्मलतरं । वस्तु स्फटिकादिपदार्थः । विद्धि उयरंजक "उपाधिर्धचित्तायां कैतवेऽपि विशेषणे । कुटुंबव्यापृतेऽपिस्यादुपाधिर्व्याधिचक्रयोः" इति विश्वः । अर्थान्तरन्यासः ॥१०॥ 1 भा० अ० - अनादिकालीन दुःखों से व्याकुल जीव की मुक्ति के कारण तथा इन्द्रियजन्य सुखों से विरत तीर्थङ्कर को पद्मावती उत्पन्न करेंगी अतः यह पद्माचतो भी उन्हीं के समान हो गयीं। अर्थात् गर्भस्थ जिनेन्द्र भगवान् का शुद्ध प्रतिविम्ब पड़ने से पद्मावती भी उनके विशुद्ध गुणों को धारण कर जितेन्द्र-तुल्य हो गयीं। क्योंकि उपाधि-भेद से वस्तु में भी स्वच्छता आ जाती हैं ॥१०॥ गुणान्वितोऽपास्ततमः प्रपंच: प्रकाशितात्मेतरवस्तुरेष: ॥ जिनेन्द्रो जरे जनन्याः दीपो यथा स्फाटिकपात्रमध्ये ॥ ३३ ॥ गुणान्धित इत्यादि । गुणान्वितः गुणैरन्वितस्तथोक्तः केवलज्ञानादिगुणयुक्तः । अपा स्ततमः प्रपंत्रः तमसो प्रयंत्रः तथोक्तः अपास्तः समः प्रपंचो येन सः निराकृतसमस्ताज्ञानविस्तारः “विपर्यासे विस्तारं न प्रपंचः" इत्यमरः । प्रकाशितात्मेतरवस्तुः आत्मा व इतराणि आत्मेतराणि तानि च वस्तूनि च तथोक्तानि प्रकाशितानि चात्मेतरवस्तूनि च येन सः तथोक्तः प्रकाशितस्वपरपदार्थः बहुवीहेराश्रगत्वात् पुलिङ्गत्प्रक्रिया । एषः अयं | जिनेन्द्रः जिनानामिन्द्रः जिनेन्द्रः । जनन्याः मातुः । जठरे उदरे । स्फाटिकपात्रमध्ये स्फटिकेन निर्मित स्फाटिकं तच तत् पात्र च तथोक तस्य मय स्फटिकपात्रमध्यं तस्मिन् । गुणान्वितः गुणेन वर्तिकान्वितो गुरुः “गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येंद्रिया मुख्यतंतुषु" इति वैजयन्ती । अपास्ततमः प्रपंच: तमसां तिमिराणां प्रयंत्रः समूहस्तथोक्तः अपास्ततमः प्रपंचो यस्य सः तथोक्तः । प्रकाशितात्मेतरवस्तुः प्रकाशितानि आत्मेतरवस्तूनि येन स तथोक्तः प्रकाशितस्वपरपदार्थः । दोषः प्रदोषः । यथा येन प्रकारंण । यमौ मातिस्म । तेन प्रकारण | यौ व्यराजत मा दीसों लिट् । गर्भात्पुरैव सुरस्त्रीभिः दिव्यौषथः कृतशोधनत्वात् जठरस्य स्फाटिकम | त्रद्वष्टांतत्वम् ॥ ११ ॥ भा० अ० - स्फटिकमय पात्र के भीतर प्रदीप के समान केवलज्ञान गुण से युक्त हो अज्ञानान्धकार को दूर किये हुए तथा स्वपर पदार्थ को समुद्रासित किये हुए ये जिनेन्द्र भगवान् अपनी माता के उदर में प्रतिफलित हुए ॥११॥ तगर्भवासे निवसन्नपीशः स भास्वरांगी निहतांधकारः । तत्याज बोधत्रित्यं न तेजस्त्यजेत्करंडेऽपि मणिर्महार्घ्यः ॥ १२ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः तद्गर्भवास इत्यादि। भास्वरागः भामत इत्येवं शीलो भास्वरः भास्वरमग यस्य स तथोक्तः "भंजभास्" इत्यादिना वर प्रत्ययः । निहतांधकारः निहतोऽन्धकार येन स तथोक्त निराकृतांतस्तमः। सः जिनबालकः । तदर्भवासे गर्भे वासो गर्भवासस्तस्या गर्भवासस्तथोक्तस्तस्मिन् पद्मावतीगर्भवास | निवसन्नपि निवसतीति निवसन् तिष्ठन्नपि । ईशः स्वामी । बोधत्रितयं बोधानो वितयं तथोक्त मसिथ तावधिरूपमानत्रयं । नतत्याज न - नमा त्यजानी लिए मालगाग्वधः । निहताधकारः निराकृतनिमिः। महार्यः महानों यस्य सः महार्यः । “मूल्ये पूजाविधाधर्म्यः" इत्यमरः। मणि: रत्नं । करंडे करंडके। बसन्तपि। तेज: प्रकाशं। न त्यजेत न मुंचेत् त्यज हानी लिङ् । अर्थान्तरन्यासः ॥१२॥ भा० अ० --प्रकाशमय शरीर वाले तथा अज्ञानान्धकार को चिनए किये हुए जिनेन्द्र भग. चान् ने गर्भ में वास करके भी मतिश्रुति अवधि झानश्रय को पिटारी में रक्खी हुई जाज्वल्यमान बहुमूल्य मणि जिस प्रकार अपने तेज को नहीं छोड़ती है उसी प्रकार नहीं छोड़ा ॥१२॥ मासान्पुरे पंचदशानुसंध्यं बंधुर्महेशस्य बसून्यवर्षत । सौधा यदंशुच्छुरिता विरेजुः शैला यथा कर्बुरिताभ्रलिप्ताः ॥१३॥ मासानित्यादि । महेशस्य ईशानस्य । बभ्रुः कुबेरः । “कुबेरस्य वकसनः" इत्यमरः । पुरै राजपुरे । पंचदश पंचभिरधिका दश तथोकास्तान पंचदशमितान् मासान् पर्यंतं “काला ध्वनो याप्तौ इति द्वितीया । अनुसंध्यं संध्यां संध्यामनुसंध्यं । “शब्दप्रथा" इत्यादिनाव्ययीभावः "सप्तम्याः" इति विकल्पेन त्रिसंध्यास्वित्यर्थः । वसूनि रत्नानि । “वसुर्मयूखानिधनाधिपेषु योक्ने चके स्मादतुटके च । वृद्ध योपश्यामधनेषु रत्नं वसुस्मृतं स्यान्मधुरेन्यवच" इति. विश्वः। अवर्षत् वृष्ट्र सेचने लङ। यदंशुच्छुरिता: एषां रत्नानामंशधः यदंशवः तः छुरिता: तथोक्ताः आच्छाविताः । सौधाः राजसदनानि । करिताभ्रलिप्ताः कर्बुरं संजातमस्येति करितं कर्युरितं च तत् अनच तथोक्त लेन लिप्ताः नानावर्णमेघावृताः। शैलाः पर्वताः । यथा येन प्रकारेणा विरेजुः तथा घिरेजुरित्यर्थः उत्प्रेक्षालंकारः ॥ १३ ।। भा० अ०–राजपुरी नगरी में फुकेर ने पन्द्रह मारत तक तीनों सन्ध्या रत्न की वृष्टि की। इसी से चित्रित मेघ से लिप्त पर्वत के समान रत्न की नमक से प्रतिभासित कोठों की छतें शोभने लगीं ॥१३॥ स्वनामसार्थीकरणाय भक्तिच्छलेन गत्वातिबलेन राज्ञा ॥ विधित्सितं पुंसवनादिकर्म पुरैत्र शक्रः स्वयमस्य चक्रे ॥१४॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् I स्वनामेत्यादि । स्त्रनाम स्वरूप नाम स्वनाम शक्नोतीति शक्र इति निजनामधेयं सार्थीकरणाय प्रागसार्थकः इदानीं सार्थस्य करण तथोक' तस्मै सफलकरण निमित्तम् शक्रः देवेंद्रः । स्वयं गत्वा यात्वा । भक्तिच्छलेन भक्तिरेष छलं तथोक तेन गुणानुरागव्याजेन । अतिबलेन अति प्रकटवलं यस्यासावतिवलस्तेन शक्तित्रयायधिसामर्थ्येन । “प्रकर्षे लंघनेव्यति" इत्यमरः । गज्ञा सुमित्रेण । विधिसितं विधातुमिष्ट विधित्सितं कर्तुमिष्ट । अरूप मुनिसुव्रतस्वामिनः गर्भस्येति वा पुंसवनात्रिकर्म पुंसवनादिर्यस्य तत् पंसयमादिकर्म क्रियां । पुरेच पूर्वमेव । चक्रे विदधौ डुकृञ् करणे लिट् ॥१४॥ भा० २० इन्द्र अपने नामको सार्थक करने के लिये भक्ति के व्याज से अत्यन्त बलशाली सुमित्र महाराज की करने योग्य जो पुंसवनादि क्रियाये हैं उन्हें स्वयं सम्पादित किया || १४ || می मुग्धामरीगानसुधानिधानमुदच्छलान्मीलितचक्षुरेषा ॥ विचिन्वती क्षेमतोऽपि सूनोः क्षेमित्वमायात्समयं प्रसूतेः ॥ १५ ॥ मुन्यामत्यादि । बामरीधानिधानमुच्छलात् मुग्धाः मनोहराम्यस्तब्ध ता अमर्यथ मुरधामस्तासां गानं तथोक । " मुग्ध: सुंदरम्दयोः " इति विश्वः । मुग्धामरीगामामेव सुधा तथोक्ता रूपकः तया निपानं मुग्धामरीगान - सुधानिपा तस्माज्जाता मुदः प्रमोदः मुद् हर्षे इति धातो: “ज्ञामीगृगुपस्यात्कः” इति क प्रत्ययत्वाददतत्वं स इति तस्मात् मनोहरांगीदेवस्त्रीणां संगीतामृतमाकल्यपानजनितसंतोषध्याजात् । मीलितचक्षुः भोलिते चक्षुषी यस्यास्सा तथोक्ता । क्षेमतोषि क्षेममस्यास्तीति क्षेमवान् नभ्य क्षेपयुक्तस्यापि । सूनोः नंदनस्य । क्षेपित्वं क्षेत्रमस्यास्तीति क्षेमी तस्य भावः तथोक्त' । विचिन्वती चिचिनोतीति तथोक्ता "दुत्"ि इत्यादिनाङी शतृप्रत्ययः । 1 सम्पादयन्ती । एष इ पद्मावती | प्रसूतेः प्रसघस्य । समयं कालें । आयात् आगच्छत् या प्रापणे लङ् ॥ १५॥ मा० अ० - भोली भाली देवांगनाओं के गानामृत पानजन्य हर्ष प्रकर्ष से आँखें मूंदे हुई तथा मंगलमय होते हुए भी अपने पुत्र ( मुनिसुक्त) का कल्याण वाहती हुई पद्मावती को प्रसव का समय आ उपस्थित हुआ ||१५|| श्रवाप्य चैवासितपक्षपूर्णामथो तिथि श्रवणामसूत || सावहं पूर्विकयेव सूनुं भानुं यथैवेंद्र दिशा तथैव ॥ १६ ॥ अवाप्येत्यादि । अथ अनंतरे "मंगलानंनरारंभप्रश्न कात्रून्येऽवयोऽथ" इत्यमरः । चैत्रासि तपक्षपूर्ण चैत्री पौर्णमासी अस्यास्तीति चैत्र: "सास्यपौर्णमासी" इत्यण चैत्रश्वासौ मासा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः। ७७ क्षेत्रमासः असितश्चासौ पक्षश्व असितपक्षः चैत्रस्यासितपक्षस्तथोक्तस्य पूर्णा तथोक्ता ताम् चैत्रमासे कृष्णपक्षे पंचम्यां 'नंदा भदा जया रिक्ता पूर्णा च तिथयः कमात्" इति तिथीनां नामान्तरस्यात् । सश्रवणां श्रवणेन नक्षत्रेण सह वर्तत इति सभ्रवणा तां श्रवणनक्षत्रसाहितां तिथिम् । अवाप्य अवापनं पूर्व पश्चात्किविदित्यवाप्य लन्ध्या । असी गमावती देवी । यथैव यस्मिन् काल एव । इन्द्रदिशा इन्द्रस्य दिशा इन्द्रदिशा पूर्वधिक "दिग्दिशादक्षकन्यागाराशाकाष्ठाइरिककुभः" इति जयकीर्तिः । भान आदित्यं । असूत असूयत । तथैव तत्काल एव । आईपूर्विकयेव अहं पूर्वमहं पूर्वमित्युक्त रहपूर्विका तया इव परस्परस्पर्धयेव "मह पूर्वमह पूर्वमित्यपूर्विका खियाम्" इत्यमरः । लूनं जिननशनम् असूत असूयत घुङ प्राणिप्रसवे लुङ् ॥१६॥ भा० म०--पूर्व दिशा से सूर्य के समान धीमुनिसुवतनाथ चैत्र कृष्ण पञ्चमी को श्रवण नक्षत्र में महारानी पद्मावतों के उदर से हुए ॥१६॥ बभुः स्त्रियस्तन्निहतांधकारं नवोदितं विश्वजनैकमित्रम् ।। विलोकयंत्यः सरसीव सौधे फुल्लाक्षिपद्मा इव पुष्करिण्यः ॥१७॥ . परित्यादि । सरसीव सरोवर, इथ उपमा । लौधे राजसइने । निहनान्धकार निह. तोऽयकारो येन स तं निरस्ततिमिरं। नवोदित नबन्धासौ उदितध नवोदितस्त नूतमजनितम्। विश्वजन फमित्र विश्व च ते जगाश्च तथोक्ताः एकश्वासी मित्रश्च एकमित्रः विश्व. जनानामेकमित्रः तं । सुत्पक्ष मित्रशब्दस्य नपुंसकत्वासत्पक्षे समासस्तथाघसीयः । सकलजनमुख्यस्यं सखायं च "शु, मणिस्तरणिर्मित्रः । अथ मित्र'सखा सुहृत् इत्युभयत्राप्यमरः । तं जिनवालक। विलोक्यस्य: विलोकयंतीति विलोकपत्यः चीक्षामाः । लियः घनिताः । फुल्लाक्षिायाः फुलानि च तान्यक्षीणि च फुल्लाक्षीणि तान्येष पानि यासां at: उन्मीलितलोचनकमलाः । पुष्करिण्य च पुष्कराणि संत्यासामिति पुष्करिण्य: नलिन्य हव । यभुः रेजिरे भा दीप्तौ लिट । श्लपोपमा ॥१७॥ भा० अ०-सूर्योदय से सरोधर में विकसित कमलनेत्र वाली नलिनी के समान स्त्रियों रान-प्रासाद में नवोदित तथा विश्वमात्र के मित्र श्रीमुनिसुव्रत भगवान को उदित देखकर शोभतेकी १७॥ गृहान्तराले शशिकान्तभित्तित्विषैव निर्वोततमःप्रपंचे ॥ सुरांगना कापि तदा प्रदीपानबोधयत्केवलमंगलार्थम् ॥१८॥ गृहांतराल इत्यादि । तदा तत्लमये । कापि सुरांगना देवत्री । शशिकांतमिचित्थिवैध शशिकांतस्य मितिः शशिकांत भित्तिस्तस्याः स्विट् तयैव इंदुकांतकुन्यकांत्येष । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सुनिसुनतकाव्यम् । निन्तितमःप्रपंचे तमसा प्रपंचस्तम प्रपंध: नित्रातस्तमः प्रपंचो यस्मिन् तत् तस्मिन् बिहतांधकारसमूहे । “विपर्यासे विस्तरे च प्रपंचः" इस्थमरः । गृहांतराले गृहल्यांतराल तथोक्त तस्मिन राज-सदनमध्ये। केवलमंगलार्थ मंगलाय इद मंगला केवलं मंगला तयोत्तम् मंगलनिमितं । "निर्णीत केवलमिति निलिंगं त्वेकहस्मयोः" इत्यमरः। न तु तमःप्रपनापनयनार्थ । प्रदीपान । अयोधयत् बोधयतिस्म खुधि योधने णिप्रतालङ् ॥१८॥ भा०म०-प्रसूतिका-गृह का भीतरी भाग चन्द्रकान्तमणिमय भिति की चमफ से ही प्रज्वलित हो रहा था। उस समय वहाँ किसी देवांगना ने जो प्रदीप जलाया था यह केवल मांगलिक विधि की पूर्ति के लिये था न कि प्रकाश के लिये ॥१८॥ हतांधकारेऽपि शिशुप्रभावात गृहोदरे तद्युतिपूर्णमेतत् ॥ अजानती काचन रत्नदीपानतिष्ठपद् भक्तिभरेण मुग्धा ॥१६॥ दतांधकार इत्यादि । गृहोदरे गृहस्योदर तथोक्त' तस्मिन् राजसदनमध्ये । शिशुप्रभाषास् शिशोः प्रभावस्तयोक्तस्तस्मात् जिनथालकस्य देहकांतिसामर्थ्यात् । बांधकारेऽपि हतोऽधकारों यस्मिन् नांधकार सत्यपि। एतत् गृहोदरं। भन्वादेशे एनदादेशः । सद्घ तिपूर्ण तस्य छु तिस्ता तिः तया पूर्ण जिनवालकनीलदेहकांतिपूर्णमिति। अजानती अबुध्यमाना । काचन कापि । मुग्धा मूठा। भक्तिभरण भर्भरो भक्तिभरस्तेन भक्त्यतिशयेन । रलदोपान रक्षान्येव दीपास्तान् । अतिष्ठपत्। अस्थापयत् । ष्ठा गतिनिवृत्तौ लुङ् । भ्रांतिमानलकारः ॥१६॥ भा. म.-नयोत्पन्न तीर्थङ्कर श्रीमुनिसुव्रतनाथ के प्रभाव से भवन का भीतरी भाग मन्धकार रहित होने पर भी प्रसूतिकागृह को प्रकाशमय नहीं जानती हुई किसी मुंगधा देवकालाने भक्ति-भारसे रन का प्रदीप बाला । १६ | अरिष्टहर्म्यस्य सवतवेदे लांगनीलद्युतिपूरितस्य ॥ मध्ये विरेजुर्नवदीपमाला मालामणीनामिव वारिराशेः ॥२०॥ अरिष्टेत्यादि। सवषेदेः यजुस्य विः तया सह धर्तत इति सपनवेदिस्तस्य। सवजुवितर्षितस्य सपनवेलस्य च । बालांगनीला तिपूरितस्य बालस्यांग: पालांगः नीला चासो द्युतिश्च नीलघु ति तथोक्ता तया पूरित तस्य । अरिष्टहर्म्यस्य मरिष्ट व तत् हयं च तथोक्तस्य ! “अरिष्ट सूतिकागृह" इत्यमरः। मध्ये अंतरे । नव. दीपमाला प्रवाश्च ते दीपाश्च नवदीपास्तेषां माला तथोक्ता नूतनप्रदीपपक्तिः धारिराशेः धारणा राशिः पारिराशिस्समुद्रस्तस्य । मणीनां रवाना मालेय पक्ति Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः रिव "मालमुन्नतभूर्माला पङ्क्तौ पुष्पादिधामनि" इति नानार्थरनमालायां । विरजः बभुः राज दीप्तौ लिट् ॥ उपमालङ्कारः ॥२०॥ मा० अ० बच्चे के अंगकी नीला ति से परिपूर्ण तथा बजुवेदी से युक्त प्रतिका. गृह के मध्य में प्रदीपपुंज ( दीपपंक्ति ) समुद्र की मणिराशि के तुल्य शोमते थे । २० । कुमारजन्मादिभवार्तिकत्राकृतांगभूषो हृषितः क्षितीन्द्रः ॥ विधूतपत्रोद्गतकोरकस्य विधामधान्नीपतरोर्मुहूर्तम् ।। २१ ॥ कुमारेत्यादि । कुमारजन्मादिमवार्तिकत्राकृतांगभूषः कुमारस्य अन्म कुमार जन्म आदी भवः आदिमः "पश्चादायताग्रादिमः" इति म प्रत्ययः । वार्तया जीवन वार्तया हरन्या वार्सिकः मादिमश्वासौ बार्तिकश्च माविमचार्तिकः कुमारजन्मन आदिमवार्तिकल्लस्य तस्मै वा देयत्वेनाधीनानि कृता कुमारजन्मादिमत्रार्तिकत्रा कृता "वैये प्राच" इति भा प्रत्ययः अंगस्य भूषा अंगभूषा कुमारजन्मादिमवार्तिकत्रा कृता अंगभूषां यस्य स तथोक्तः । "अगं गात्राप्तिकोपायः प्रतीकेषु प्रधानमः" इति विश्वः । हुषितः इष्यतेस्म हृषिक्षः संतुष्टः रोमांचितः । क्षितीन्द्रः क्षितेरिन्द्रसुमित्रः धराधीश्वरः । मुहर्सपर्यंत “कालाध्वनोाप्तौ" इति द्वितीया । विधूतपत्रोद्गतकोरकस्य विधूतानि पत्राणि यस्य सः तथोका उद्गच्छन्तिस्म उद्गताः उद्गताः कोरका यस्य सः तथोक्तः विधूत पत्रश्चासौ उद्तकारकश्च तथोक्तस्तस्य अपगतपर्णस्योत्पनलिकस्य च । नीपतरोः नीपश्चासौ तवश्व निपतरुस्तस्य कदंबवृक्षस्य । “नीपप्रियककदवास्तु हरिप्रियः" इत्यमरः । विधा उपमा "विधा विधौ प्रकारच" इत्यमरः । भवात् धरस् धा धारणे लुङ ॥२१॥ भा. -पुत्रजन्म का शुभ सम्वाद सुनाने वाले भृत्य को मापने शरीर के सारे भाभूषण दे डालने वाले सन्तुष्ट राजा ने पुराने पत्तों को हटाकर कोरफयुक्त कदम्ब वृक्ष को उपमा धारण की ।२२।। गंधांबुसिक्ता विरजाः पुरश्रीः श्रीखण्डपकेन विलिप्तदेहा ।। दुकूलमुक्तावलिमाल्यरम्या भृशं बभूवात्मपतेः प्रियाय ॥२२॥ गंधाधुलित त्यादि। गंधांबुसिक्का गंधेन मिनिसमंबु गंधांबु तेन सिच्यतेस्म सिक्का गंधोदकोशिता । विरजाः विगत रजो यस्या सा तथोका अपगतविलिः भावषिशुद्धा च। रजः स्यादातवे गुणे । रजः परागे रेणी" इत्यादि विश्वः । श्रीलंड. पंकन श्रीखंडस्य पक तथोक्तं तेन श्रीगंधकर्दमैन । विलिप्तदेहा विलिप्यतेस्म विलिमः विलिप्तो देहो यस्यास्सा तथोका । सुकूलमुकावलिमाल्यरम्या। दुकूलं च मुक्तानामावलिः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । आत्मनः मुक्तावलिध माल्यं च दुकुलमुकालिमाल्यानि ते रम्या श्रौमवन्त्रमुक्काफलमालाभिमनोहरा । पुरश्री: पत्तनलक्ष्मी: कामिनीति ध्वन्यते । आत्मपतेः पतिस्तथोक्तस्तस्य निज्ञाधिपस्य । प्रियाय प्रीतिनिमित्तं । भृशं अत्यंत । बभूव भवतिरूम भू सत्तायां लिट् ||२२|| I मा० भ० – गन्धोदक से सिक्त, रजो रहित अथवा भार्तव विशुद्ध श्री चन्दन से लिप्तांग तथा साड़ी और मालाओं से रमणीयता धारण किये हुई पुरलक्ष्मी अपने प्रियशालक की प्रीतिमान हुई । २२ । 1 D प्रत्यंगणं कल्पितपंचरत्नरंगालयश्चकुरनेकभंगा : || जिनेन्द्रजन्माव सरप्रणश्यत्पयोधर स्रस्तधनुर्विशंकाम् ॥२३॥ प्रत्यं गणमित्यादि । अनेक मंगा: भनेको भंगो यासां तास्तथोक्ताः बहुविधाः | "भंगतरंगे भेदे भेदे जयविपर्यये" इति विश्वः । प्रत्यंगणं अंगणमंगणं प्रति प्रत्यंमणं । कल्पितपंचरलरंगालयः पंच च तानि रतानि व पंचविधानि रक्षानीति वा पंचरलानि रंगाणामालयो रंगालयः पंचरत्नः कृता रंगालयस्तथोक्ताः कल्प्यंतिस्म कल्पितास्ताव पंचरतरंगालयश्च तथोक्ताः “रंगो रणे खले रागे नृत्ये रंग अपुन्यपि" इति विश्वः । जिनेंद्र जन्मावर पणश्यत्पयोधरास्तधनुर्विशंकां जिनानामित्रो जिनेंद्रस्तस्य जन्म जिनेंद्र जन्म तस्यावस रस्तयोक्तः प्रणश्यतीति प्रणश्यन् पयोधरतीति पयोधरः प्रणश्यंश्वासों पयोधरा तथोक्तः जिनेंद्र जन्मावसरे प्रणश्यत् पयोधरस्तथोक्तः तस्मात्त्रस्तं तथोक्तं "स्त्रस्तं ध्वस्तं भ्रष्ट हकन्नं पन्नं च्युतं गलितम्" इत्यमरः । तच तत् धनुश्व जिनेन्द्रजा सरप्रणरप्रत्पयोधरास्तधनुस्तस्य विशंका तां तथोकां जिनेश्वरस्योत्पत्तिकाले सिमश्यन्मेधाननस्तसुरखा पसंदेहम् । यः कुर्वतिस्म डुकृञ् करणे लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ २३ ॥ 10 जिलेन्द्र भगवान के जन्म समय में प्रत्येक प्रांगण में पंचरक्ष से रचित विविध रंग के मण्डन ( चित्रावली ), विलीन होते हुए मेघ से इन्द्रधनुष गिरने की शंका किया करते थे । २३ । भा० भ० उत्क्षिप्त चित्रध्वजपंक्तयोऽपि समीरमार्गे जिनजन्महृष्टाः ॥ चचत्पताकाग्रमिचाम्यनृत्यत्परस्परं गाढमिवालि लिंगुः ॥ २४ ॥ उत्क्षिप्तेत्यादि । समीरमार्गे समीरस्य वायोर्मार्गस्तथोक्तस्तस्मिन् भाकाशे । “समीरमारुतमरुज्जगत्प्राणसमीरणाः" (त्यमरः । उत्क्षिप्तचित्रध्न अपंतयोऽपि चित्राणि च तानि जानि च तथोक्तानि उक्षिप्तानि च तानि चित्रध्वजानि उत्क्षिप्त चित्र व ६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः । ८१ I जानि तेषां पंतयः तथोका जन्ममितविधिधकेशन राजयः किंपुनर्वारोगमादय इत्यपि शमार्थः । जिनजन्महृष्टाः जिनस्य जन्म तेन हृष्टा तथोकाः । अभ्यनृत्यत् नर्तन कुर्धत् । चंपताकामिव चचत्यश्च ताः पताकाश्च चंवत्पताकास्तासामयं तथोक्तं विरुलई अर्थस्य मम् यदिव । परस्परं अभ्योन्यं गामिव दमिष । आलिलिंगुः भलिंगविस्म आलिलिंगुरिच बभुरितिवान्वयः लिगु तौ लि ॥ २४ ॥ भा० भ० - आकाश मार्ग में जिनेन्द्र भगवान् के जन्म से प्रसन्न होकर मानों नृत्य करती हुई अनेक रंग की ऊंची २ पताकायें कम्पित बैजयन्ती के अग्रभाग के समान प्रतीत होकर परस्पर आलिंगन किया करती थीं ॥ २४ ॥ मृदंगमन्द्रध्वनिमांसलेन गीतेन नृत्यगणिकानिकायः ॥ उद्वेलमुज्जृंभितरागवार्धेस्तरंगमाला कृतिमाल लम्बे ॥ २५ ॥ 1 मृदंगेत्यादि । नृत्यङ्गणिकानिकायः नृत्यन्तोति नृत्यन्त्यः ताध वा गणिका तथोकास्तासां निकायः नृत्यलज्जिकाप्रकरः । मृदंगमंद्रध्वनिमांसलेन मद्रास ध्वनिमंत्रध्वनिः मृदंगस्य मंद्रध्वनिस्तथोक्तः मृदंगमंध्वनिया मांसलं तेन मुरजगंभीरर्सनमादपुष्टेन "मंद्रस्तु गंभीरे । बलवान्मांसलों सलः" इत्युभयत्राप्यमरः । गीतेन गामेन । उई लं बेलागतं यथा भवति तथा उज्जृम्भितरागवार्थेः राग एव घार्थिस्तथोक्तः उज्जू भलेम उज्जुभितः स वासी रागवार्धिश्च तथोक्तस्य प्रवृद्धप्रमे। समुद्रस्य । तरंगमालाकुर्ति तरंगाणां माला तरंगमाला तस्था आकृतिस्तथोक्ता तां ऊर्मिमालाकारं । बाललंबे स्वीकरोति लघु वस्त्र'समे लिट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २५ ॥ भा० अ० - मृदंग की गंभीर ध्वनिमय गान गा गा कर नाचती हुई अप्सरायें उचाल तरंगयुक्त सट वाले आनन्द- समुद्र की तरंग-साला के समान शोभती थीं । १५ । भव्याश्चिरं दुःसहगंधबन्धमुक्तत्यर्थिनोऽरिमन्नुदिते विमुक्तिम् ॥ यास्यंति यत्तन्नययुस्तदैव क्षितीन्द्रद्यो यदिदं हि चित्रम् ॥२६॥ भव्या इत्यादि । अस्मिन् जिनेश्वरे । उदिते उदेतिस्म उदितस्तस्मिन् सति । चिरं दीर्घकालं । दुस्सहगंधबंधमुक्त यर्थिनः दुःखेन महता कम सात इति दुःसहः दुस्सही गंधो वासना यस्य सः तथोक्तः दुस्समंधवासों गंधच तथोक्तः मुक्तिमर्थयंत इत्येवं शिला मुक्त - यर्थिनः दुस्सहगंधबंधस्य मुक्त पर्शिमस्तथोक्ताः । भव्याः रत्नत्रयाधिर्भ वनयोग्याः भव्याः विनेयञ्जनाः । विमुक्ति स्वाश्मोपलब्धि । यास्यति गमिष्यति । यत् यदेतद्वचः । चित्रं न आमा म भवति । किंतु-तदेव तत्समय पथ । क्षितीन्द्रबंधः क्षित्याः इन्द्राः दिली Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् तेषां बंधस्तथोक्ताः शत्रुभूपालकाराबंधनानि "प्रमहोपनही बंद्यां कारा स्याद् बंधनालये" इत्यमरः । विमुक्ति मोचन "मुक्तिः स्यान्मोचने मोक्षे" इति विश्वः । ययुः अगुः। यदिद यदेतत् । चित्र हि अयानुत्तं खलु ॥ २६ ॥ मा० म.-विर काल की दुःसह वासना से मुक्ति पाने की इच्छा करने वाले मध्य जीव जिनेन्द्र- माण्ड के उदित होने पर मुक्ति पायेंगे इस में तो कोई आश्चर्य ही नहीं है। पर शत्र भूत राजसमूह जो बन्दी हुए ये घे भी मुक्त हो गये यही आश्चर्य है। अर्थात्जिनेन्द्र-जन्मोत्सष के उपलक्ष्य में सभी बन्दी राजे छोड़ दिये गये। २६ । श्रीखंडपंडेन जिनस्य गावे सौरभ्यमिभ्यं प्रहितोऽवगंतुम् ।। प्रभूतभीतेरिव कंपभानश्चचार चारुमलयाद्रिवातः ॥२७॥ श्रीखंडे इत्यादि । जिनस्य जिनेश्वरस्य । मात्र शरीरे । इभ्यं प्रवृद्ध “इभ्य आये फरेषां तु भवेदिभ्या तु शल्लको" इति विश्वः । सौरभ्यं सुरभिरेव सौरभ्यं परिमल । अवगतुम् ये ये गत्यस्ते ते मानार्था इति न्यायायो । श्रीखंडषडेन श्रीखंडानां पं तेन श्रीगंधानां कचेन "कदो षडमस्त्रियाम्" इत्यमरः । प्रहितः प्रहीयतेस्म तथोक्तः प्रेरितः। चारु: मनोहरः। मलयाद्रिवातः मलयश्चासौं अद्रिश्च भलायाद्रिस्तस्य पातस्तथोक्तः । प्रभूतभीतरिय प्रभूता चासो भीतिश्च तथोक्ता तस्या व प्रचुरभयादिच "प्रचुरं प्राज्यम्" इत्यमरः । कंपमानः कंपस इति कंपमानः वेपमानः । वचार विजहार पर गतिमक्षणयोः लिट् उत्प्रेक्षा ॥२७ भा० अ०-श्रीजिनेन्द्र भगवान की देह से प्रवाहित होती हुई बढ़ी बढ़ी हुई स्वाभा. षिक सुगन्ध श्रीखएकदम्ब से जानने के लिए भेजी गयी मलयाद्रि वायु अत्यन्त भय. अस्त हो कॉप २ कर बहती हुई कीसी बात होती थी । २७ । प्रकाशते भानुसहस्रतुल्यं तथाप्यहो नेत्रसुखैकहेतुः ।। कुमारकोऽसाविति लज्जितः किं बभूव मंदोष्णरुचिर्विवस्वान् ॥२८॥ प्रकाशत इत्यादि । विवस्वान् सूर्यः। मंदोष्णरुचिः मंदमुष्ण यस्याता मंदोष्णा रुचिर्यस्यांसाविति पुनर्षसः अल्पोष्णकिरणः स्युः प्रभारुमु चिस्त्विङ् भा" इत्यमरः । बभूष मभूत् । असौ भयं । कुमारः जिनबालकः । भानुसहमतुल्यं भानूनां सहस्र भानुसाहन तेन तुल्यं असहस्त्रसमं यथा तथा । प्रकाशते भासते काश्व दीप्ती लट् । तथापि. नेत्रसुले कहेतुः नेत्राणां सुखं तथोक्त एकचासी हेतुश्च एकहेतुः नेत्रसुखस्य एकहेसुस्तथोकः नयनाहावनमुख्यहेतुः । अहो आश्चर्यमिति लजितः किं । संशयः ॥ २८ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः । मा० ०. ये जिनकुमार हजारों सूर्य के तुल्य जाज्वल्यमान होते हुए भी नेत्र-सुखद हो रहे थे यह जानकर ही मानों सूर्य लज्जित हो मन्दीष्ण कान्सियुक्त हो गया। २८ । शुचित्ववृडेरसपत्नहेतोर्जिनस्य भक्त्या शुचयः कुरुध्वम् ।। प्रदक्षिणं यूयमितीव वक्तुं प्रदक्षिणत्वेन शुचिर्दिदीपे ॥२६॥ शुचित्वेत्यादि । शुचय; भो निर्मला: यूयं शुनिश्चयनयापेक्षया द्रव्यभाषकर्मरहितत्वावधषा व्यवहारमयापेक्षया जातिकुलाचाराधमलिनस्वाजनाः शुचय इत्यामंत्र्यन्ते भवन्तः। शुचित्ववृद्धः शुचेर्भायः कृत्य वा शुचित्वं तस्य वृद्धिश्शुचित्ववृद्धिस्तस्याः निर्मल. त्ववर्धनस्य । अन्नपलहतोः न विद्यते सपनो यस्य सोऽसपक्षः स चासौ हेतु तथोक्तस्तस्य "शत्रुः सपलो भ्रातृव्यः प्रत्यनीको द्विषन्मनः" इति । इलायुधः । मद्वितीयहेतुभूतस्येत्यर्थः । जिनस्य महन्नाथस्य । प्रदक्षिण परितिक्रियां । भवस्या गुणानुरागण | कुरुवं विदछ । इति वक्त मिव घचनाय वक्त' एमभिधातुभिध । शचिः अग्निः । "शुचिः शुद्ध ऽनुगहते शृगांरागढयोस्सिते । ग्रीष्मे तबहेऽपि स्यादुपधाशुद्धमंत्रिणि" इति विश्वः । प्रदक्षिणत्वेन प्रदक्षिणस्य भाषः प्रदक्षिणत्वं तेन । दिदीपे ज्वलतिरुम । उत्प्रेक्षा ॥२६॥ मा० अ०--हे पवित्र धर्मात्माओ! तुम पवित्रता के एकमात्र कारण श्रीजिनेन्द्र भगवान की प्रदक्षिणा करों । मानों ऐसा कहने को कटिबद्ध होकर ही अग्नि प्रदक्षिणा. रूप से प्रज्वलित हुई । २६ । रजांसि धर्मामृतवर्षणेन जिनांवुवाहः शमयिष्यतीति ॥ न्यवेदयन्नंबुधरा नितांतं रजोहरैर्गधजलाभिवर्षेः ॥३०॥ रजांसोत्यादि । अबुधराः अबूदर्क धरतीत्यषुधराः मेघाः। रजोहरः रजोसि हरंतीति रजोहरास्तः धूलिपिनाशकः । गंधजलामिषैः गधेन युक्तानि अलागि तेषा. मभिवर्षास्तः परिमलसलिलवृष्टिभिः। जिनांबुयाहः अंधु पहंतीत्यंबुषाहः जिन ए. घावुवाहस्तथोक्सः जिनेश्वरमेषः । रूपकः। धर्मामृतवर्षणेन रखत्रयात्मको धर्मस्स एवामृत तस्य वर्षणं तेन धर्मसुधावर्षणेन । एकः । रजांसि धूली: पापपांशूमित्यर्थः । शम. विष्यति वमयिष्यति शमू बसू उपशमने लट । नितांत ग्यवेदयन् । सूचयतिस्म विद् शाने लङ्ग उत्प्रेक्षा ॥३०॥ ___ मा० म०-जिनेन्द्र-नालधर धर्मामृत-धर्षण से सभी जीवों के पापपुंज को नष्ट करेंगे ऐसी बात जानने के लिये ही मानों मेव ने सुगन्ध जलवृष्टि से सभी धूलिसमूह को नष्ट कर दिया ।३०। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सुनिसुव्रतकाव्यम् जिनस्य कालासिंरतिप्रसिद्धिं विबुध्य भोता इव सेवनाय ॥ बनाय सर्वे सहसावतेरुवसंतमुरख्याः सममेव कालाः ॥३१ ॥ जिनस्येत्यादि । कालारिरिति कालस्य यमस्या रिशत्रुरिति समयारिरितिध्वनिः । "वृतांतानेहसोः कालः" इत्यमरः । प्रसिद्धि ख्याति । विबुध्य बोधनं पूर्वं पञ्चात्किचिदिति विबुध्य विशाय भीता इव बिभ्यतिस्म भीता इव । जिनस्य जिनेश्वरस्य । सेवनाय आराधनाय | संतमुरख्याः वसंतो मुख्यो येषां ते तथोक्ताः । सर्वे कालाः समस्तऋतवः । सममेव सर्हेव । घनाय इत्यत्र “कर्मणः" इति कर्मणि चतुर्थी वन्नमलंकर्तुमित्यर्थः । सहला शीघ्रण। “अतर्किते सहखा" इत्यमरः अपतेह: आजग्मुः । प्रचनतरणयोः लद् विभ्रमः ॥३१॥ भा० अ० - कालारि ( यम के शत्रु ) ऐसी उपाधि जान मानों भयमीत होकर ही बसन्त आदि सभी ऋतुओं ने श्रीजिनेन्द्र भगवान् की सेवा करने के लिये एक ही साथ वन के लिये प्रस्थान किया । ३१ । हो विभुक्ते सवितारमेधा तमीश्वरं द्वेष्टि च पश्यतेति ॥ द्विरेफवृत्ति जिनजन्मदंभांभोजिनीमुत्पलिनी जहास ॥ ३२ ॥ अहो इत्यादि । एवायं । सवितारं भानु पितर "सवित्री जननी माता जनकस्सविता पिता । यमुना यमकानोनजन कविता मतः" इत्युभयत्रापि धनंजयः । विभुंके अनुभवति । तमीश्वरं तस्याः रात्र रीश्वरः पतिस्तं । "रजनी यामिनी तमी" इत्यमरः । पक्षे तं प्रसिद्ध ईश्वरं घथं । द्वेष्टि व क्रुध्यति स द्विषु भप्रीतौ लट् । अहो त अद्भुतं वा । द्विरेफ द्विरेफाणी भ्रमराणां वृत्तिर्जीवनं यस्यास्सा तां "वृत्सिर्वर्तनजीवने" इत्यमरः । पझे रेफै ते तीच रेफवृत्ती अधमवर्तने यस्यास्ताः "रेको यर्णे सम्प्रोकः कुत्सिते वाध्यत्पुनः" इति विश्वः । पित्तृभोगपतिविद्वेषरूपिणीं च वर्तनद्वयवतीमित्यर्थः । अंभोजिन अंभोज ान्यस्याः सतीत्यं भोजिनी यां पद्मिनीं कामिनी मिति ध्वनिः । पश्यतेति प्रेक्षध्व लोका इसि । जिन जन्मदमात् जिनस्य जन्म तथोक' जिनजन्मैव व् भस्तस्मात् जिनेशोत्पतिभ्याजात् । कपटोध्यानं भोपघयः" इत्यमरः । अन्यथा स्वस्याश्च तद्दोषोपपत्तेः । उत्पलिनी कुमुदिनो उत्पला संदयस्या इत्युत्पलिनी । जहास इसविहम इस इसमें लिट | अरुणोदये सत्यपि जिनेंद्रोदयप्रभावादस्फुटदिति भावः । विरोधालंकारः ॥३२॥ भा० भ० -- देखो ! केली आश्चर्य जनक घटना है कि, पद्मिनी सूर्य ( अपने पिता ) का उपभोग तथा चन्द्रमा पति से द्वेष करती है- यह कहती हुई कुमुदिनी ने भ्रमरवृति (नीचा धरण ) घाली पद्मिनी की हंसी उड़ायी ॥ ३२ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः अप्यद्ययावन्मधुपाननिष्ठाः संप्रत्यपापा इति गानभंग्या ॥ भंगा वदंतो विविशुः प्रतीत्यै पद्माग्निकुंडेषु परीत्य विद्मः ॥३३॥ अपीत्यादि । याबदद्यापि एतत्कालपर्यन्त । मधुपाननिष्ठाः मधुनः पुष्परसस्य पानं तस्मिन्निया: तत्पराः। "मधु मद्य पुष्परसे” इत्यमरः। संप्रति इदानीं जिनजननोत्सव इत्यर्थः । भपापा इति न विद्यते पायं येषां ते तधोकाः। इति गानभंग्या गानस्य भंगी तथोक्ता तया संगीतरचनया "भगा तु गणसंज्ञके भंगी प्रकर" इति नानायरनमालायां । वदन्तः वदंतीति पदंतः। भृगाः मधुलिहः । प्रतीत्यै शपथाय । पमाग्निकुंडेषु अग्न: कुंडानि अग्निकुं. डानि पनान्येवाग्निकुंडानि तथोकानि तेषु रक्तसरोरुहानलकुंडेषु। परीत्य पर्ययणं पूर्व पश्चात्कंचिदिति परीत्य प्रदक्षिणीकृत्य । विविशुः विशंतिस्म इति । विद्मः जानीमः बिद झाने लट् उत्प्रेक्षा ॥३३॥ भा० अ०-जान पड़ता है कि अब तक मधुपान में लीन भ्रमरों ने "इम निष्पाप है" इस बात को अपने मधुर गानद्वारा सूचित करते हुए प्रतोति ( शपथ) के लिये रक्त कमलरूप अग्निकुण्ड में प्रदक्षिणा करते हुए प्रवेश किया। ३३ । मुक्तारजोभिर्बहुकंटकैश्च जिनप्रभावेण समुज्ज्वलात्मा ॥ वसुंधराऽपि प्रमदेन जाता सस्यच्छलांकरितरोमराजिः ॥३४॥ मुक्त त्यादि । जिनप्रभावेण जिनस्य प्रभाधस्तथोक्तस्तेन जिनेश्वरसामयंन । रजोभिः धूलिभिः पाप्रैश्च । बहुकंटकैश्च बहूनि कंटकानि तथोक्तानि तै; बहुफैटकः विघ्नेश्व। . मुक्ता मुच्यतेस्म मुक्ता विरहिता । समुज्वलात्मा समुज्वल आत्मा यस्यास्सा तथोक्ता ।। सम्यक्प्रकाशात्मा। वसुंधरापि भूम्पपि । प्रमदेन संतोषेण। सस्यच्छलांकरितरोमाजिः सस्यान्येव च्छलं सस्यच्छल अंकुर: संजातः अस्या इत्यंकुरिता रोम्णां राज; तथोक्ता अंकुरिता चासौ रोमराजश्व तथोक्ता सस्यच्छलेनांकुरिता रोमराजियस्यास्सा तथोक्ता "अंकूरश्चांकुरः प्रोक्तः" इति हलायुधः । “अंकूरोंऽकुरमस्त्रियो" इति वैजयंती च। जाता आयतेरुम आता सम्भूता । श्लपः ॥३४॥ ___ भा० अ०-धूलि तथा केटकों का एकमात्र वहिष्कार किये हुई और जिनेन्द्र भगवान् के प्रभाव से तेजोमय आत्मावालो पृथ्वी ने हाधिक्यसे लल्यसम्पमता के बहाने भानन्द के रोंगटे प्रकटित किये ॥ ३४॥ स्वभावशुद्धा अपि सर्वजीवाश्चिरं रजोभिः परिभूयमानाः ॥ न केवलं निर्गलितेषु तेषु दधुः प्रसादं ककुभोऽपि सद्यः ॥३५॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मुनिसुव्रतकाव्यम् स्वभावेत्यादि । स्वभावशुद्धा अपि स्वभावेन शुद्रास्तथोक्ता अपि स्वरूपेण निर्मलाश्च । रजोभिः शानावरणाविकमरजोभिः । चिरं बहुकालपर्यंत । परिभूयमानाः परिभूयंत जि परिशुरामाना: मायाः । सजोगः सर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवाः। अखिलभव्य जनाः। तेषु कर्मरजस्। निर्गलितेषु जिनोदयप्रभावाद्विगलितपु सत्सु । केवलं परं । प्रसाद प्रसन्नतां । न दधुः न चभुः। अपितु -स्वभावशुद्धा अपि स्वरूपेणामलाच चिरं दीर्घकाले । रजोभिः मेघरजोभिः । परिभूयमाणा: व्याप्रियमाणः। ककुंभोऽपि दिशोऽपि । सद्यः तदैव । तेषु मेघावरणेषु । निर्गतेषु विगलितेषु । प्रसाद प्रसन्नतां । दधुः धरतिस्म । दुधा धारणे च लिट् सर्वभव्यप्राणिनो विशश्च निर्मलता प्रापुरिति भावः ॥ ३५ ॥ मा० मा०--स्वभावशुद्ध होने पर भी हानाबरणोदि कर्मकालिमा से चिरकाल से कलंकित, केवल सभी भव्य जीवों ने ही नहीं बल्कि सभी दिशाओं ने भी जिन जन्मोदय के प्रभाव से कर्मरज के विनम्र होने पर तुरत स्वच्छता धारण कर ली ।। ३५॥ गृहेषु शंखा भवनामराणा बनामराणां पटहा: पदेषु ॥ ज्योतिस्सुराणां सदनेषु सिंहाः कल्पेषु घंटा: स्वयमेव नेदुः ॥३६॥ गृहेष्वित्यादि । भवनामराणां भवने विद्यमाना अमग भवनामरास्तेषां भवनवासिदेवानां । गृहेषु सदनेषु । शंखाः शनवाद्यानि 1 चनामराणां धने विद्यमाना भमरा घ. नामरास्तेषां व्यंतरदेवानां । पदेषु स्थलेषु । पटहाः भेर्यः। ज्योतिस्सुराणां जोतिर्लोके विद्यमानास्सुराः 'ज्योतिस्नुरास्तेषां ज्योतिर्देवानां । सदनेषु भवनेषु । सिंहाः सिंहनादाः । कल्पेषु स्वर्गेषु । घंटा घंटानाद्यानि। स्वयमेव अनन्यप्रेरणयच । नेदुः रेणुः । नन् अव्यक्त शब्द लिट् ॥ ३६ ॥ मा० अ-जिनेन्द्र भगवान के जन्म होते ही भवनवासी देवों के घर में शंख, व्यन्तरघासी अमरों के गृहों में भेरी तथा ज्योतिर्लोकवासी देवताओं के गृहों में सिंहनाद आप से आप बजने लगे ॥ ३६॥ पुष्पाः पतंतो नभसः सुधांशोरेणस्य सिंहध्वनिजातभीतेः ॥ पदप्रहारैः पततामुडूनां शंकां तदा विद्रवतो वितेनुः ॥३७॥ पुष्पा इत्यादि । तदा तत्समये । नमस: आकाशात् । पतन्तः पतंतीति पतन्तः । पुष्पाः कुसुमामि | "गुष्पोऽस्त्री कुसुमम्” इति जयन्ती । सिंहध्वनिजातभातः सिंहस्य ध्वनिस्तयोक्तः सिंहध्वनिना जाता भीतिस्तथोक्ता तस्याः। ज्योतिर्गसमुद्र तसिंहनादप्रभवा. दयात् । वियतः विद्रवतीति विश्वन तस्य पलायमानस्य । सुधांशोः सुधारूपा अंशत्रो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ចង यस्य सः तस्य निशाकरस्य संबंधिनः । एणस्य मुगए । पदप्रहारः पदानां प्रहारास्तैः चरणाभिघातैः । पततां पतंतीति पतंतस्तेषां । उडूनां नक्षत्राणां । "तारकाप्युड वा स्त्रिया. म्" इत्यमरः । शंका संशयं । वितेनुः चकः । तनु विस्तार लिट् उत्प्रेक्षा ।।३।। भा० अर-आकाश से जो जिनेन्द्र-जन्म-सूचक सुमन-वृष्टि हो रही थी वह सिंह गर्जन ले भयत्रस्त अतः भागते हुप जन-मृग के पाद-प्रहार से गिरते हुए नक्षत्रों का सन्देह उत्पन्न कर रही थी ॥ ३७॥ अभ्रात्पतंतो मण्यस्तदानीमुचंडघंटाध्वनिताडनेन । भिन्नेन्द्रकोशालयतो जनानां मतिं वितेनुर्गलतां मणीनां ॥३८|| अनादित्यादि । तदानीं तस्मिन् काले तदानीं । अभ्रात् आकाशात् । पतन्तः पर्ततीति पतन्तः । मणयः रक्षानि | इन्च उघंटावनिताडनेन धंरानां ध्वनिः घंटाध्वनिः उच्चडयासौ घंटाध्वनिश्च तथोक्तः उच्च इयरध्वनेस्ताडनं तेन प्रचंडघंटानिनादप्रहारेण । भिन्नेन्द्रकोशालयत: कोशस्यालय: कोशालयः इन्द्रस्य कोशालयः इन्द्रकोशालयः मिनचासो इंदकोशालयश्च तमोगानमातता रितका गलतीति गलतस्नेषां पततां । मणीनां रत्ननां । मति बुद्धि । जनानां लोकानां । विर्तनुः विश्धुः। तनून विस्तारे लिट् उत्प्रेक्षा ॥३॥ भा० अ०-इस समय कल्पलोक में होती हुई रत्नवृष्टि ने घंटा के गंभीरनाद से झिम भिन्न हुए इन्द्र के खजाने से गिरती हुई मणियों का भ्रम उत्पन्न कर दिया ॥ ३८॥ जाते जिने माजनि भूजनानां विपत्कगणोऽपीति विभुत्वशक्त्या ॥ बंदीकृतानीव भुवि ग्रहाणां बलानि रेजुमणयो विकीर्णाः ॥३६॥ जात इत्यादि। विकीर्णाः विकीर्यतेस्म विकीर्णाः विक्षिप्ताः । मणयः रनानि । जिने पहंदीश्वरे। जाते उत्पन्ने सति । भूजनानां भुवि विद्यमाना जनाः भूजनास्तेषां मानखानां । विपरकणोऽपि विपदः कण: विपत्कण: आपत्तिलेशोऽपि । "लवलेशकणाणव" इत्यमरः । माजनीति मा भूदिति जनै प्रादुर्भावे लुङ् “दित्य डिण्पेदः" । विभुत्वशक या विभोभावो विभुत्वं तस्य शक्तिः त्रिभुत्वशक्तिस्तया प्रभुत्वसामर्थेन । भुवि भूमौ । ग्रहाणां नवग्रहाणाम् बलानि सैन्यानि । वंदीकृतानि बंदयः क्रियतेस्म वीकृतानि तामीव कारागार क्षिणानीव "प्रग्रहोगग्रही बंद्याम्" इत्यमरः । रेजः बभुः राज दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥ ३९ ॥ भा० अ-जिनेन्द्र भगवान के जन्म लेने पर रत्न-वृष्टि से इधर उधर बिखरी हुई मणिया भूतलवासी जीवों की तनिक भी दुःख नहीं हो-ऐसी धारणा से मानों शासन. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । दछ शक्ति के द्वारा कद नवग्रहों की बँधी हुई सेना को सो ज्ञात होती हैं ॥ ३६ ॥ देवोत्तमांगान्यखिलोत्तमानामानम्यपादस्य विभोः प्रणामैः ॥ सार्थं स्वनामै विधातु कामानाने मुरत्यद्भुतमात्मनैव ॥४०॥ देवमांगानीत्यादि । अखिलोत्तमानां अखिलाच ते उत्तमाञ्च तयोक्ताः तेषां समस्त छ जनानाम् । आवश्यपादस्य आनंतुं येोग्यो आनस्यों पादौ यस्य स तस्य वा सकलेोत्कृष्टजनैरवि द्यक्रमस्येत्यर्थः । विभोः मुनिसुव्रतस्य । प्रणामैः नमस्करी: 1 स्वनाम स्वरूप नाम तथोक्त' स्वकीयमुत्तमांगा भिधानं । सार्थं अर्थेन सह वर्तत इति सार्थं सफलं । विधातुकामानिव विधातुं कामानिव विधातुकामानि "तुम मनस्कामः" इति तुमो मकारस्य लुक् । देवे।त्तमांगानि देवानामुत्तमांगानि तथोक्तानि अमरेंद्र शिरांसि । आत्मनैव स्वेनैव । अनेमुः आनमंतिस्म । अत्यद्भुतं अत्याश्चयं ॥४०॥ भा० अ० -- सभी सभ्यों से वन्दनीय वरणवाले श्रीजिनेन्द्र भगवान की पन्दना करके, अपने नाम सार्थक करने के इच्छुक इन्द्रों के मस्तक आप से आप कुक जाते हैं यह आश्चर्य है ॥ ४० ॥ जिनामृतांशोरुदितात त्रिलोक्यामुत्कुलितस्य प्रमदांबुराशेः ॥ प्रत्युच्चलीविशेन सत्यं भद्रासनानि सदां विचेलुः ॥४१॥ जिनामृतांशोरित्यादि । उदितात् उदेतिस्म उदितन्तस्मात् । जिनामृतांशाः अमृतरूपा अंशो यस्य स तथोक जिन एवामृतांशुर्जि नामृतांशुस्तस्मात् । त्रिलोक्यां प्रयाणां लोकानां समहारस्त्रिलोकीं तस्यां । उत्कुलितस्य उत्कूलयतिरूम उत्कूलितस्तस्य पत्रांकुरा शिस्तथोक्तस्तस्य उद्वेलितस्य । प्रमदांबुराशेः अंबूनां राशिस्तधोकः प्रमद संतोपान्धेः । प्रत्युचलद्वीचिवशेन प्रत्युचलंतीति प्रप्युञ्चलंत्यस्ताश्च ता वीचयश्च तासां उचलतरंगाधीनत्वेन । धुसदां दिवि सीदतीति प्रत्युच्च हो चिचशस्तेन सइस्तेषां देवानां । मद्रासनानि भद्राणि च तानि आसनानि च भद्रासनानि । विचेलुः चक्रेपिरे चल कंपने लिट् । सत्यं तथ्यं । उत्प्रेक्षा ॥ ४१ ॥ वशः मा० अ० श्री जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा के उदय लेने से त्रिभुवन में उद्वेलित हर्ष समुद्र की उतुंग तरंग की वश्यता से देवताओं के शुभासन कस्पायमान हुए ॥ ४१ ॥ विज्ञाय तेनाधिपजन्मपीठादुत्थाय समेत्य पदानि नवा ॥ प्रादापयन्मेघहयोऽतिमेघां प्रस्थानभेरीमभिषेक्तुकामः ॥४२॥ विज्ञायेत्यादि । मेघयः मेघ एव स्योऽश्वो यस्य स: मेघवाहनश्शकः । "दनो Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः। . दुश्च्यवनस्तराषापमेघवाहनः" इत्यमरः । तेन भद्रासनकंपनेन । अधिपजन्म अधिक पातीत्यधिपः तस्य जन्म तथोक्त' जिनेश्वरोल्पत्ति । विज्ञाय विबुध्य | पीठात् सिंहासनात् । उत्थाय उत्थापन पूर्व पश्चारिकंचिदित्युत्थाय । सप्त पदानि । एत्य आयनं पूर्वं पश्चातिकचिदित्येत्य “प्राकाले" इति कत्वा प्रत्ययः । "क्त वोऽननः प्यः" इति प्यादेशः "हस्वस्य तक् पिति कृति" इति लगागमः । 'ओमाङिपरः" इति पररूपत्वं । नत्या वदित्वा । अभिपेक्त कामः अभिषेचनायाभिपेक्तु तत् कामयतीति तथोक्तः । “तुमो मनस्कामः" इति मकारस्य लुक् । तिमेघों मेघमतिकान्ता अतिमेधा तां । निराकृतमेयां प्रस्थामभेरी प्रस्थानस्य भेरी तथोक्ता तां प्रयाणभेरी । प्रादापयत् अताडयत् दाप लवने लङ् ॥ ४२ ॥ मा० अ०-इन्द्र महाराज ने आसन के कम्पित होने से जिनेन्द्र भगवान् का जन्म जान सिंहासन से सात डेंग आगे बढ़, बन्दना कर जन्माभिषेक करने की इच्छा से गंभीर ध्वनि से मेघ को भो पददलित करने वाली भेरी बजाई ॥ ४२ ॥ शंखादयोऽर्हज्जनन प्रणादरककलोक स्वमबूबुधरते ॥ तत्सर्वलोकानभिषेकयात्रा सा बोधयामीति मदादिवाप ॥४३॥ शंखादय इत्यादि । शंखादयः शंख आदिर्येषां ते तथोक्ताः शंखपूर्वाः । आईजनन अर्हतो जनन तथोक्त । प्रणादः धनिभिः । स्व स्यीयं । एफैकलोकं एकेकचासौं लोकश्च एकैकलोकस्तं एकमेकं लोक । “वीप्सायाम्” इति द्विः । अबुधन अबोधयन् षुधिमनि शाने णिजन्ताल्लुः “रिक्त" इत्यादिना णिलुक् "कमूश्रि" इत्यादिना ङ् प्रत्ययः "निर्धातुः” इत्यादिना दिः ! "लोः” इत्यादिना पूर्वस्य दीर्घः । सा भेरी। तत्सर्वलोकान् सर्वे च ते लोकाश्च तथोक्ताः ते स ते सर्वलोकाश्च तथोक्तास्तान भवना दिसकललोकान् । अभिषेकयात्रां अभिषेकस्य यात्रा तथोक्ता तां जन्माभिषेकयानं । बोधयामीति झापयामीव धुधिमनि ज्ञाने लम् । मदादिव गर्वादिव ! आप ययौ आप्ल व्याप्ती लिट् । उत्प्रेक्षा ।। ४३॥ भा० अ०-शंख आदि वाद्योने अपने गम्भीर निनाद से श्रीजिनेन्द्र भगवान् के जन्म की सूचना अपने प्रत्येक लोक को देदी। तत्पश्चात् “मैं सभी लोगों को जिन-जन्माभिष की विनप्ति से विज्ञान करती है" मानों ऐसे आवेश में आकर ही भेरी बड़े अभिमान से पजी ॥ ४३॥ ज्योतिष्कबन्योरगकल्पनाथा भेरीप्रणादादवगत्य याताम् ।। विभूषितांगाः सपरिच्छदाः खे विलोकयन्तः शतमन्युमस्थुः ॥४४॥ ज्योतिष्केत्यादि । ज्योतिष्कपन्योरगकल्पनाथा: ज्योतींषि एष ज्योतिष्काः धने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है० सुनिसुव्रतकाव्यम् । भवाः कन्याः ज्योतिष्काश्च बन्याच उरगाश्च कल्पानां नाथाः कल्पनाथाच तथोक्ताः । भेरिप्रणादात् भेर्याः प्रणादस्तस्मात् दुन्दुभिनादात् । यात्रां प्रयाणं । अवगत्य ज्ञात्वा । विभूषितांगाः विभूष्यतेस्म विभूषितं विभूषितमंगं एषां ते तथोक्ताः अलंकृतशरीराः । सपरिच्छदाः परिच्छदेन सह वर्तत इति तथोक्ताः परिवारसहिताः । शतमन्युं देवेन्द्र | विलोकयतः विलोकयतीति तथोक्ताः शत्रुप्रत्ययः । वीक्षमाणाः स्त्रे भाकादो | तस्थुः भासिरे ष्ठा गतिनिवृत्तौ लुङ ॥ ४४ ॥ भा० अ० -- ज्योतिष्क, भवन तथा कल्पवाली सभी इन्द्र अपने परिवार सहित घुन्दुभिनिनाद से जन्माभिषेक यात्रा जान कर वस्त्राभूषणों से सुसजित हो आकाश में देवेन्द्र की प्रतीक्षा कर रहे थे ॥ ४४ ॥ सामानिकैर्दिपतिः खातिगंध शरीररचैव समन्वितोऽयं शच्या सहाऽस्थाय गजं प्रतस्थे ॥ ४४ ॥ सामानिकैरित्यादि । सामानिकेः सामानिकदेवैः । दिक्पतिभिः दिशां पतयस्तथोकास्तैः । पदातिगंधर्वहस्त्यश्वरथाद्यनीकैः पदातयश्च गंधर्वाश्च हस्तिनञ्च अश्वाश्च रथाश्चा पदातिगन्धर्व हस्त्यश्वरथास्ते आदिर्येषां तानि तयोक्तानि पदातिगन्धर्वहस्त्यश्वर थादीनि तान्यनीकानि च तथोक्तानि तैः आदिशन्द ेन वृत्रममनिक्यानी शरीररक्षैश्च अंगरक्षकसुरैश्च समन्त्रितः समन्वेति समन्वितः सहितः । शच्या इन्द्राण्या | समं सह । अयं सौधर्मेन्द्रः । गजं ऐरावतगजेन्द्र' । आस्थाय आस्थानं पूर्वं पचात्किंचिदित्याar | प्रतस्थे प्रययौ । ठा गतिनिवृत्तौ लिट् ॥ ४६ ॥ भा० अ० - सामानिक देव, दिक्पाल, गन्धर्च, शरीर-रक्षक तथा शनी के और पादाति, हयदल, गजदल तथा रथ-दल आदि सैनिकों के साथ लेकर सौधर्मेन्द्र ने ऐरावत पर चढ़ कर अभिषेक यात्रा के लिये प्रस्थान किया । ४५ । सार्थैस्सुरेन्द्रैररिभिर्विमानैस्सांयात्रिकोयं जलधिं विहायः ॥ संतीर्य चिंतामणिमीशितारं संचेतुमेयाय खनिं कुशाग्रम् ॥४६॥ सार्थैरित्यादि । अयं पुत्रः देवेंद्रः । सांयात्रिकः पोतश्रष्ठी "सांयात्रिकः पोतवणिक्" इत्यमरः | सुरेंद्रः शेषामरेंद्रः । साथैः वणिग्निवहैः । “सार्थो वणिक्समूहे स्यादपिसंघात - मात्र" इति विश्वः । विमानैः व्योमयानैः । तरिभिः नीभिः । "स्त्रियां नौस्तरणिस्तरिः" इत्यमरः । विद्वायः व्योम | "पुंख्याकाशविहायसि" इत्यमरः । जलधिं अंभोनिधि | संतीर्यः संतरण पूर्व पाकिचिदिति संतीर्थ हृप्लवनतरणयो: “प्राकाले" इति वा "लू दोनाप्य” इति प्यः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ६१ "अंतोषांततां" इति धातोरिगिति दीर्घः । ईशितारं इष्ट इतीशिवारं भर्तेन्द्र इन ईशिता इति धनंजयः । चिन्तामणि चिंतितार्थप्रदानो मणिश्चिन्तामणिस्सं । संचेतुं संचयनाय संचेतुं लब्धुं । कुशाग्र कुशाग्रापरनामधेयं राजपुर । खनि आकर एयाथ वृ गतौ पूर्वाल्लिट् आययौ रूपकालंकारः ॥ ४६ ॥ भा० अ० - ये देवेन्द्र समुद्रयात्रि रूप से व्यापारीरूप अन्यान्य सुरेन्द्रों के साथ मौकारूपी विमानों के द्वारा समुद्ररूपी आकाश को पार कर समस्त इट पदार्थों को देनेवाली चिन्तामणिरूपी श्रीजिनेन्द्र भगवान् को प्राप्त करने के लिये रखद्रीपरूपी नामक राजपुरी में आये । ४६ । कुशाभ इंद्रोऽथ द्रविभवं गणिका निकाय संगीतकेलिरुचिरं रचिताष्टशोभं || भक्त्या परीत्य पुरवन्नृपवासमीशं श्रानेतुमंतर चिरेण ससर्ज कांतां ॥४७॥ इन्द्र इत्यादि । अथ अनंतरं । इन्द्रः पुरंदरः । रुन्द्रविभवं रुद्रोविभवो यस्य तद् महासंपरमेतं । गणिकानिकायसंगीत केलिरुचिर गणिकानां निकायस्तस्य संगीत गीतवाद्यनृत्य संगीतमिति केचलगीतमात्रस्य गीतनृत्यवाद्यानामपि संज्ञासंभवात् तस्य केलिः लीला तया रुचिरं सुन्दरं । रचिताशेोभं अष्ट च ता शोभाव अप्रशेोभाः रविता शोभा यस्य तत् निर्मित तोरणा शोभासहितं । नृपवासं नृन् पातीति मुरस्तस्य चासो नृपवासस्तं नरेन्द्र मंदिरं । पुरवत् पुरमिव पुरवत् पत्तनमिव । भवट्या भक्तिस्तथा । परीत्य घर्ययणं पूर्वं पञ्चात्किचिदिति परीत्य पूर्व पुरं प्रदक्षिणीकृत्य पश्चाद्राजमंदिरं च प्रदक्षिणीकृत्येत्यर्थः । ईशं जिनेश्वर । आनेतुं आनयनाय आतेतुं संग्रहीतुं । अन्तः स्यार्धा | अधिरेण शीघ्रण | कांतां शचीदेवीं। ससर्ज प्रेषयतिस्म । खुञ्ज बिसमें लिट् ॥ ४७ ॥ भजन प्रत्यदासकृतेः काव्यरत्नस्य टीकायां सुखबोधिन्यां भगवजिननेत्लियवर्णनः नाम चतुर्थः सर्वोऽयं समाप्तः भा० अ० इन्द्र ने बहुधन-सम्पन्न अप्सराओं के नृत्य तथा गीत से सुमनोहर और तोरण बन्दनवार आदि अशोमा से युक्त राजमन्दिर की प्रदक्षिणा के बाद भक्तिपूर्वक श्रीजिनेन्द्र भगवान् को लाने के लिये इन्द्राणी को शीघ्र अन्तःपुर में भेजा । ४७ । इति चतुर्थ सर्ग समाप्त Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पंचमः सर्गः॥ अदृश्यरूपाथ गृहे प्रविश्य ददर्श बालामृतभानुमारात् । शची जनन्याः स्थितमंबरांते सुधारसस्यंदिनमीक्षणानाम् ॥ १ ॥ अश्यरूपेत्यादि । अथ अनंतरम्। शत्री इंद्राणी। अदृश्यारा द्रष्टुं योग्यं दृश्य न दृश्यमवश्यं अदृश्यरूप यस्यास्ला तथोक्ता परोक्षरूपा। गृहे सदने प्रविश्य प्रवेश पूर्व पश्चात्किंचिदिति प्रविश्य अंतर्गत्वा । जनन्याः मातुः। अंबरांते अंपरस्य वस्त्रस्य गगनस्य वा अंतत्तस्मिन् “अतऽस्यव्यवहितौ मृत्यौ स्वरूपे निश्चयति खे । अबरं धाससि ध्योनि" इत्यप्यभिधानात् । स्थित तिष्ठतिस्म स्थितस्त । ईक्षणानां नेत्राणां । सुधारसस्यंदिनं सुधायाः रसस्सुधारसः स्पंदत इत्येवं शीलः स्पंदी सुधारसस्य स्यन्दी तथोक्तस्तं अमृतरसनाविणं । बालामृतभानु अमृतरूपा मानयो यस्य स तथोक्तः बाल एचामृतमानुस्तथोक्तस्तं बालचन्द्रमसं रूपकः । “भानूरश्मिदिवाकरौं" इत्यमरः । आरात् समीपे । “आराह रसमोपयोः" इत्यमरः । ददर्श पश्यतिम दृश्य प्रेक्षेणे लिट् ॥१॥ भा० ०-इसके बाद अलक्षित रूप से शत्री ने भीतर मछल में प्रवेश कर आँखों के लिये सुधारस नायी तथा अपनी माता के अंचल के भीतर येटे हुए उस बालचन्द्र-रूप शिनबालक को देखा ॥१॥ वहंत्यसौ भक्तिरसप्रवाहे दिदृक्षमाणेव दृढावलंबम् ॥ समर्प्य मायाशिशुमंबिकायाः पुरो जहारोन्नतवंशमेनम् ॥ २ ॥ वहतीत्यादि। भक्तिरसम्वाहे भक्तिरेव रसस्तयोक्तस्तस्य प्रवाहः भक्तिरसप्रवाहस्तस्मिन् गुणानुरागजलप्रवाहे। वहन्तीति धन्ती मज्जती शतप्रत्ययः "उगिच" इत्यादिना नम् "नृदुगिद्" इत्यादिना की । असौ इयं शची महादेवी । गुदावलंयं दृढ च तत् अवलंयं च तथोक्त गाढाधार। विदामाणेष दिक्षत इति दिनक्षमाणा "स्मृदश" इति तत्वादानश् द्रष्टु. मिच्छतीव । अंबिकायाः जिनजनन्याः 1 पुरः अग्रे । मायाशिशु' मायारूपः शिशुस्तथोक्तस्त कपटबालक | समर्प्य समर्पण पूर्व पश्चात्किंचिदिति स्थायित्वा । एनं इम "त्यदादिम्" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूनिसुव्रतकाव्यम् तथोकस्तं इत्यादिनान्धादेशः । उन्नतवंशं उन्नत वंशेो यस्य सः उन्नतधामौ वंश वंश कुलमस्करी" इत्यः । जहार हरतिस्म हम् हरणे लिहू प्रांशुवेभुं वा ६२ " श्लेषः ॥ २ ॥ भा० अ० -- भक्तिरसप्रवाह में प्रवाहित होती हुई तथा प्रधान आधार को देखने की कपटय बालक को रख कर उस उज्र वंशन इच्छा करती हुई शत्री ने माता के आगे जिनकुमार को उठा लिया ||१२|| त्यसर्न निर्गत्य । पारायोजिनं न्यस्य निरीला हजेलस वल्लभमाभिमुख्यात् ॥ द्विरेकमध्यांबुरुहेव रेजे सरोजिनी भानुमभिस्फुरन्ती ॥ ३ ॥ पायोरित्यादि । पाण्योः हस्तयोः । जिन जिनेश्वरं । न्यस्य पूर्व पश्चात्किंचिदिति यस्य समये । हम्पत् सौधात् । निरीत्य घल्लभं निजप्राणकान्तम् । अभिमुख्यात् अभिमुखमेवाभिमुख्यं तस्मात् सन्मुतांत् । वजन्ती व्रजतीति वजेती । असौ इयं इन्द्राणी । द्विरेफमध्यबुरुहा द्विरेफो मध्ये यस्य तत् तथोक्त अंबुनि रोतीत्यबुरुडं द्विरेफमध्यमं ययास्सा तथोका अंतर्वि धमानमधुकरकमलयुक्ता । मानुं सूर्यं । अमिस्फुरती अभिमुखं स्फुरंती भासमाना | सरो जिनीच सरोजानि संत्यस्यामिति सरोजिनी पद्मिनी । रेजे बभौ राजञ् दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥३॥ ०२०- जिनकुमार को दोनों हाथों में ले राजभवन से निकल कर अपने स्वामी इन्द्र के पास जाती हुई इन्द्राणी, गुञ्जारमय भ्रमरों से अधिष्ठित तथा सूर्य को लक्ष्य करके दर्ष से कम्पित होती हुई कमलिनी के समान शोभती थी ॥ ३ ॥ जिनास्यचंद्रेक्षणमात्रतोऽभूच्चतुर्निकायामररागसिंधुः ॥ विशृंखलो व मुखस्मितानि वितेनिरे फेनविभंगलीलाम् ||४|| जिनास्येत्यादि । चतुर्निकायामररागसिंधुः चत्वारो निकाया येषां ते तथोक्ताः चतुर्नि कायाश्च ते अमराश्च तथोक्ताः राग पत्र सिंधुस्तपोक्तः चतुर्निकायामराणां रागसिंधुस्तथोक्तः चतुःसमूहदेवरायसमुद्रः । जिनास्यचंद क्षणमात्रतः जिनस्यास्यं तथोक्त' जिनास्यचंद्रक्षणमेव जिनाख्यवं क्षणमात्रं तस्मात् जिनास्यचंद्र क्षणमात्रतः जिनमुखेन्दुदर्शनादेव | विष्ट जलः विगता शृंखला यस्य सः तथोक्तः असिकांतवेलः | अभूत् अभवत् । यत्र यस्मिन्यत्र रागसमुद्र । मुखस्मितानि मुखानां स्मितानि आस्येषल्सनानि । फेनविभंग लीलां फैनानां विभंगाः फेनविभंगास्तेषां लीला तो डिडिरखंडलीलां । "भंगस्तरंगे खग्भेदे भे दे जय विपर्यये" इति विश्वः । वितेनिरे विस्तारयतिस्म तनूञ् विस्तारे लिट् ॥ ४ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः भा० अ०---भवन, ध्यन्तर, ज्योतिष्क तथा विमानवासी देवताओं का मानन्द-सागर श्रीजिनकुमार का मुख चन्द्र देखते ही उमड़ पड़ा और वहाँ उन ( देवों ) की मुस्कुराइट समुद्र के फेन भङ्ग का दृश्य दरसाने लगी ॥ ४॥ दिवौकसां बालसुधामरीचिर्जयस्वनापूरितदिन्टानाम् ।। हृदक्षिहस्तान् कुमुदेंदुकांतकुशेशयार्थान कुसतरम सद्यः ॥५॥ दिवौकसामित्यादि । बालसुधामचिः सुधारूपाः मचियो यस्य स तथोक्तः पाल एव सुधामरीचिस्तथोक्तः जिनबालेंदु: रूपकः । जयस्वनापूरित दिक्तटानां जयेति स्व. नस्तेन आपूरितानि जयस्पनापूरितानि दिशां तटानि दिक्दानि जयस्वनापूरितानि रिक्तटानि येषां ते तथोक्तास्तेषां । दिवौकसां दिवि ओकः स्थान यंपा ते तथोक्तास्तेषां अमराणां "ओकरूपमाध्यश्चौकाः" इत्यमरः । हृदक्षिहस्तान् हुच्च अक्षिणा च दस्ती च हितास्तान, चित्तनेवाणीन् । कुमुदेंदुकांतकुशेशयार्थान कुमुदश्च इन्दुकान्तश्च कुशेयञ्च तानि कुमुदेंदुकांतकुशेशयानि तेषामस्तान् कुवलयचंद्रकांतकमलबाच्यानि "अर्थोऽभिधेयरवस्तु प्रयोजननिवृन्तिपु" इत्यमरः । सद्यः सदैव । कुरुतेस्म चक्र । कुन करणे "स्मे चल" इति भूतानद्यतनेऽर्थे स्म योगे लट् । जिनचंद्रदर्शनादमयानां हृदयं कुमुदवाद्विकसतिस्म अक्षिणी चंद्रकांत इबादतां हस्तौ कुशेशयवत् मुकुलितो बभूवतुरित्यर्थः । यथासंख्यालंकारः ॥५॥ ___ भा० अ० ---जयध्वनि से दिशाओं को प्रतिध्वनित किये हुए देवताओं के हृदय, नेत्र तथा इस्तों का जिनकुमाररूप सुधाचन्द्रिका ने कुमुद, चन्द्रकान्त तथा कमल-रूप में परिणत कर दिया। अर्थात् जिनेन्द्र-चन्द्र के दर्शन से देवों के मम कुमुद के समान विकसित, बाँख चन्द्रकान्तवत् द्रवित तथा हस्त कमलवत् सम्पुटित हो गये ॥ ५॥ जिनांगलावण्यरसप्रपूणे निश्शेषमरिमन जगदन्तराले । विभासुरं तन्नगरं सुराणामजीजनत्पाशिपुर्गाभशंकाम् ॥६॥ जिनांगेत्यादि । निश्शेषं शेषानिर्गतं यथा भवति तथा निश्शेषं । जिनांगलावण्यरसअपूणे जिनस्यांग जिनांगं तस्य लावण्यं सौन्दर्य जिनांगलावण्यं तदेव रसस्तथोक्तः जिनां. गलायण्यरसेन प्रपूर्णस्तस्मिन् जिनशरीरकांतिजलपरिपूर्ण । अस्मिन् एतस्मिन् । जगदतराले जगतामंतराल तस्मिन् जगन्मध्ये । विभासुरं विभासत इत्येवं शीलं विभासुरं "मंजमासमिदो धुर" इति ध्रुर प्रत्ययः । तन्नगरं तच्च तस् नगरं च तन्नगर राजपुरं । सुराणां देवाना। पाशिपुराभिशंकां पाशोऽस्यास्तीति पाशी वरुणस्तस्य पुरं पाशिपुरं तस्याभिशंका तो। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । समुद्रस्यवरुणपुरसन्देह “प्रचेता घरुणः पाशी" इत्यमरः । अजीजनत् अजनयत् जनैङ् प्रादुर्भावे लुङ् उत्प्रेक्षा ॥६॥ __ भा० अ०-श्रीजिनकुमार के शरीर-लौन्दर्य रस से परिपूर्ण इस समस्त संसार के बीच में अत्यन्त प्रकाशमय उस राज्य गृह नगर ने देवताओं को परुणपुरी की शङ्का उत्पन्न की॥ ६॥ जिगाय शच्या शतापहातहये इतस्तन्नामानितंगगः ॥ जिनार्भको भंगकुलाभिरामं दामोत्पलानां मणिभाजनस्थं ॥७॥ जिगायेत्यादि। शव्या इन्द्राण्या शतमन्युहत्तद्वये हस्तयोद्वयं हस्तदर्य तस्मिन् पाकशासनकरयुगले । कृतः क्रियतेस्म कृतः विहितः । तन्नयनाचितांगः तस्येन्द्रस्य नयनानि तन्नयनानि तेराचितं शंगं यस्य स तथोक्तः शक्रस्य सहस्त्रनेत्रालितशीरः | जिनार्भकः चिनश्वासावर्भकश्च तथोक्तः जिनबालकः | भृगकुलाभिरामम् भृक्षाणां कुल तेनाभिरामं तथोक्त भ्रमरसमूहविराजित । मणिभाजनस्थ मणिभिनिर्मित भाजनं मणिभाजन तस्मिन् तिष्यतीति तथोक्त रत्नपात्रस्थित । उत्पलानां कुवल. यानां । दाम माल्यं । जिगाय जयतिस्म जि अभिभवे लिट् "जेलिइसन्” इति कवर्गादेशः। उत्प्रेक्षा ।।७।। भा० अ०-इन्द्राणी के द्वारा मणिमय पात्ररूप इन्द्र के दोनों हाथों में रक्खे गये तथा इन्द्र के भ्रमररूप सहस्र इणिपात के लक्ष्यभूत कमलरूप श्रीजिनकुमार ने मणि-जड़ित पात्र में रक्खे हुए भ्रमरमण्डित कमलों की माला को भी विजित कर दिया ॥ ॥ जिनांगदीप्त्या पिहितम्बकांतिविकस्वरस्फारसहस्रनेत्रः ॥ सुराधिनाथः शुशुभेऽजनाद्रियथैव फुल्लस्थलपुंडरीकः ॥८॥ जिनांगेत्यादि । जिनांगदीप्त्या जिनस्यांग तथोक्त जिनांगरय दोप्तिस्तया जिनेश्वरशरीरकांत्या । पिहितस्वकांतिः स्वस्य कांतिः स्वकांतिः पिहिता स्वकांतिर्यस्यासी तथोक्तः आच्छादित्य ति: १ विकस्वरस्कारसहस्रनेत्र विकसंतीत्येवं शीलानि चिकस्यराणि सहस्त्रनेत्राणि तथोक्तानि विकस्यराणि स्फाराणि सहस्रनेत्राणि यस्य सः इति बहुएइयसः “स्थेशभास" इस्यादिना वर प्रत्ययः विकसनशीलविशालसहस्रनयनयुतः । सुराधिनाथः सुराणामधिनायः सुराधिनाथः वृत्रहा । फुलस्थलपुंडरीकः स्पले विद्यमानानि पुंडरीकाणि तथोक्कानि फुलानि स्थलपुंडरीकाणि यस्य सः तथोक्तः विकसितभूपायुक्तः "पुंडरीक सितछत्रे सितांभोजे च मादयोः' इत्यमरः । अंजनादिः अंजनश्वासायद्रिश्च तथोक्तः अञ्जनगिरिः। यथैव Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः न प्रकारेणैव । शुशुभे रराज शुभ दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥८॥ भा० १०-श्रीजिनकुमार की अङ्गदीप्ति से आच्छादित शरीरकान्ति वाले तथा सु विशाल सहस्त्र नेत्र वाले इन्द्र खिले हुए स्थलकमल पाले अञ्जनगिरि के समान शोभने लगे॥८॥ करारविंद्वय गराशिं जिनं पदाब्जद्वितये प्रणम्य ॥ चकार देवाधिपतिहितीयामनर्थ्यचूडामणिमुत्तमांगे ॥६॥ करारेत्यादि। देवाधिपतिः देवानामधिपतिस्तथोक्तः देवेन्द्रः । फरारविंदद्वयभृगराशि करावेरविंदे तथोक्त रूपकः करारविदयो य तथोक्त भृगाणां राशिस्तथोक्तः भृगराशिरिव उपमा करारविंदक्योर्विद्यमानी भृगराशिः तथोक्तस्तम् । जिन जिनबालक । पदाञ्जद्वितये पदे एव अजे पदाब्जे रूपकः तयोद्धि तयं पदाद्वितयं तस्मिन् । प्रणम्य नमस्कृत्य । उत्तमांगे मस्तके । द्वितीया द्वयों पूरणां द्वितीयां । अनय॑चूडामणि न विद्यते अध्यं यस्यास्सा अना चूडाया मणिः अना सा चासौ चूडामणिश्च तथोक्ता तां अमूल्यचूद्वारत्न रत्न मणियोः” इत्यमरः । चकार विधे डुकृञ् करो लिट् ॥ ६ ॥ भा० अ०-सुरपति इन्द्र ने दोनों कर कमलों के भृङ्गसमूह के समान श्रीजिनेन्द्र भग वान् के पादपमतप की वन्दना करके उन्हें अपने मस्तक पर की एक दूसरी ही अमूल्य मणि बना लिया ॥६॥ अथैष संसारमहांबुराशि समुत्तितीपुजिनपोतमेनं ॥ दधत्कराभ्यां दृढमुत्सवेन स्वसिधुरस्कंधतटं निनाय ॥१०॥ अर्थत्यादि । अथ अनंतरं । संसारमहांबुराशि चतुर्गतिभ्रमणकपल्संसारः महाश्चा. सायंबुराशिश्च महाबुराशिः संसार एवं महांबुराशिस्तथीतस्त पंचसंसारमहासमुद्र । समुत्तितीर्घः समुत्तर्तुमिच्छस्तथोक्तः तरणेच्छुः । पनं इमं । जिनपोतं अहंन्नावं पात: शिशी बहिन च” इति विश्वः । कराभ्यां हस्ताभ्यां । ठूल गाढम् । दधत् दधातीति धत् धरन् । एषः इन्द्रः । उत्सवेन संभ्रमेण । स्वसिंधुरस्कंधतट स्वस्य सिंधुरस्स्वसिंधुरः स्कंधस्य तर तथोक्त खसिंधुरस्य स्कंधता तथोक्त' ऐरावता-सनम्पल निनाय नयतिस्म णोञ् प्रापणे लिट् रूपकः ॥ १० ॥ भा० ० -- इसके बाद संसाररूपी महासमुद्र को पार करने की इच्छा करते हुए इन्द्र ने श्रीजिनकुमार-जहाज को दोनों हाथों से ढ़ता-पूर्वक पकड़ कर बड़े उत्सब से अपने ऐरावत हाथो के कन्धे पर बैठाया ॥१०॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाच्यम् द्वात्रिंशदास्यानि मुखेऽष्टदंता दंतेऽब्धिरब्धौ बिसिनी बिसिन्यां ॥ द्वात्रिंशदब्जानि दलानि चाब्जे द्वात्रिंशदिंद्रद्विरदस्य रेजुः ॥११॥ द्वात्रिंशदित्यादि । वात्रिंशत् ब्राभ्यामधिका त्रिशत् तधोक्ता | "द्वाष्टात्रयोऽनशीतो'इति द्वादेशः । आख्यानि मुखानि । मुखे वदने एकवचनयलादेकस्मिन् इति ज्ञायते । अष्टदता अष्टदशनाः ।देते अधिः आपो धीयतेऽस्मिन्निति अधिः एकः कासारः। “अब्धिः समुद्रसरसि" इति विश्वः । अधौ एकस्मिन्सरसि । घिसिनी एका पशिनी। बिसिन्या अम्मानि अप्सु जायत इत्यज्ञामि कमलानि द्वात्रिंशत् सज्ञानि । एकस्मिन् कमले द्वात्रिंशत् दलानि छदानि । च शब्देन एकत्र दले द्वात्रिंशत्सुरनट्यः इति शेषः । रेनुः यभुः राज दीप्तौ लिट् । रूपकः । भा० अ० -ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ आठ दाँत थे, प्रत्येक दाँत में पक एक तालाब था, प्रत्येक तालाब में पक पक कमलिनी तथा प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस बत्तीस कमल और कमल के प्रत्येक पत्ते पर बत्तास बत्तीस यां गनायें नाचती थीं । २५६ दाँत, ८१६२ कमल, २६२१४५ कमल-पत्र और ८३८८६०८ देवांगनायें थीं ॥ ११ ॥ अस्पृष्टनारेजदलं नटत्यो नट्यः सुराणामभितो नृसिंहं । रंभो वितेनुनिजवल्लभाशाप्रकाशमानाऽब्जनिवेशनानाम् ॥१२॥ अस्पृष्टेत्यादि। नृसिंह ना सिंहः इव नृषु सिंहस्तथोक्तः त नरवरं पुरुषोत्तम च । "स्युरुत्तरपदे ध्यानपुंगवर्षभकुंजराः । सिंहशार्दूलनागाद्या: पुंसि श्रीधार्थमोचराः” इत्यमरः । अभितः समंततः । “तस्पर्य भि" इत्यादिना अम् ! अस्पृटनीरजदलं नोरे जायत इति नीरेजानि "तत्पुरुष कृति बहुलम्” इति प्रत्ययस्थ लुगभावः नीरजानां दलानि तथोक्तानि अस्पृष्टानि नीरजदलानि यस्मिन् कर्मणि तत् तथोक्त। नरत्यः नटनीति नटत्यः । सुराणां देवानां । नट्यः नर्तक्यः । निजवल्लभाशाप्रकाशमानाब्जनिवेशनानां निजानां वल्लमस्तस्याशा निजवल्लभाशा तया प्रकाशंत इति प्रकाशमाना: अन्जमेव निवेशनं यासां ताः तथोक्ताः । निजवल्लभाशाप्रकाशमानाश्च ता: अजनिवेशनाश्च तथोक्तास्तासां निजनायकाभिप्रायप्रकटीभवत्कमलनिलयानां लक्ष्मीणामित्यर्थः । रम्भः संभ्रम । वितेनुः विस्तारयतिरूम । तनु विस्तारे लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ १२॥ ___ भा० भ० -पुरुषोत्तम श्रीजिनकुमार के चारो तरफ कमल की खुरियों को बिना छुप ही नाचती हुई देवांगनाथें अपना पति वरने का अभिप्राय प्रकट करती हुई लक्ष्मी ( विष्णु-पक्षी) सौन्दर्य का विस्तार करने लगीं ॥ १२ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः ६७ ईशाननाथः स्वयमातपत्रं दधौ तदूर्ध्वोभयकल्पनाथ ॥ की प्राक्षिपतां परेऽपि यथास्त्रमासन् करणीयमाजः ॥१३॥ ईशाननाथ इत्यादि । ईशाननाथ: ईशानस्य नाथस्तथोक्तः ईशानेंद्रः । स्वयं आत्मा । आतपत्र छ । दौ द । तदूर्ध्वोभयकलपनाथ तस्येशानस्योदुर्ध्वं तदुर्ध्व उभयौ च तौ कप च उभयकल्पों तद्दु विद्यमानाद्युभयकल्पौ तद्दुर्योभयकल्पौ तयोर्नार्थी तथोक्तौ । प्रकीर्णे चामरे “चामरे तु प्रकीर्णकम्" इत्यमरः । प्राक्षिस्तां अधुनुतां । क्षिप् प्रेरणे | परेशेद्रा अपि । यथास्वं स्वमनतिक्रम्य तथास्वं यथायोग्यं । करणीयभाजः कर्तु योग्य करणायें तोसि तथोक्ताः कार्यकारि फलन् अभवन् असू भुलि ॥ १३ ॥ भा० भ० ईशानेन्द्र ने श्री जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर स्वयं छत्र लगाया, इनके ऊपर के दोनों कल्पनाथों ने नंबर डोलाये और अन्यान्य इन्द्रों ने भो भिन्न भिन्न आवश्यक कार्यों को यथाशक्ति सम्पन्न किया ॥ १३ ॥ संसारगर्तापतिताखिलैकहस्तावलंबं जिनराजमिन्द्रः ॥ हृदाच दोर्भ्यामबलंबमानः पथा सुराणामथ संप्रतस्थे ॥ ३४ ॥ संसारेत्यादि । अथ अनंतरं । इद्रः पुरंदरः । संसारगर्तापतिताखिले हस्तावलंब संसरण संसारः स एव गर्तस्तयोक्तः संसारगर्ते आपतंतिस्मेति संसारगतपतिताः यद्वा गर्भायामचटे पतिता गर्भापतिताः । “गंडूषगर्जगरालकिल जालच्छटारभसवर्तक गर्त गर" इति त्रीपुंसयोरभसः । संसारगती च ते अखिलाच तथोक्ताः हस्तस्यावलंषो हस्तावलंब एकश्चासौ हस्तावलंबका तथोक्तः संसारगर्त्ताप तिला खिलाना मेकहस्तायवस्तथोक्तस्तं भवान्धकूपनिपतित निःशेषप्राणिनां मुख्यहस्तावलंबन | मिनराजे जिनानां राजा जिनराजस्त "राजन्, सखेः” इत्यः समासतः । हृदा हृदयेन तद्गुणस्मरणरूपेण | दोर्भ्यां भुजाभ्यामरि । अवलंयधानः अवलंबत इत्यवमानः आश्लिष्यमाणस्वन् । सुराणां निर्जराणां । पथा मार्गेण विहायसा । प्रतस्थे प्रययौ ठा गतिनिवृत्तौ लिट् "संविप्रावात्" इति तङ् । संसारगर्त्तापतिताखिले कहस्तावलंबत्वात् तत्पतितस्य स्वस्याचलंय कांयेवेंद्रो जिनराज हृदयस्म इति भावः रूपकः ॥ १४ ॥ भा० अ० संसाररूपी ग में गिरे हुए प्राणियों के पकमात्र दस्तावलम्बन श्रीजिनकुमार को इन्द्र मे दोनों हाथों से हृदय से लगाये हुए आकाश मार्ग से प्रस्थान किया ॥१४॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ सुनिसुव्रतकालय में आकारमात्रेण तुषारशैल का कूटराशेस्तव तुल्यतेति ॥ आकर्ण यिष्यन्निव विप्रलापानाकाशमार्गेऽक्रमताभ्रनागः ॥१५॥ भाकारमात्रणेत्यादि । तुषारशैल तुषारैर्युक्तः शैलस्तस्य संबोधन हे हिमवत्पर्षत । कटराः कुटानां शिवराणां कपटानां च राशियस्य सः सस्य शिखरनियाहयुक्तस्य माया कदययुक्तस्य न “मायानिश्वव्यत्रषु कैतवानृतराशिः । अयोधने शैलटगे मीगंगे कूटमस्त्रियाम्" इत्यमरः । तव ते। आकारमात्रेण आकार एव आकारमा तेन चलाकस्यैत्र न तु गुणरितिशेषः । तुल्यता तुल्यस्य भावस्तुल्यता मया सह समानता । केति का भवतीति । विप्रलापान विरोधवचनानि “विनालापो चिरोधोक्तिः' इत्यमरः । आकर्णयिष्य. निव अभ्रनागः ऐरावणः । आकाशमार्गे गगनावने । अक्रमन आयात् कपू पादक्षेिपेल छु । "क्रमोऽनुपसर्गात्" इति तङ् ॥ १५ ॥ मा० १०-हे हिम शैल ! पर्वत राज !! Rो तुम केवल अपनी आकृति से ही मेरी घराघरी कर सकते हो ? मानो ऐसी व्यंगपूर्ण यात सुनाना हुआ ऐरावत हाथी आकाश मार्ग से चला ॥ १५॥ आरुह्य नानाविधवाहनानि जिनाग्रवामेतरपृष्ठदिनु । क्रमेण बन्योरंगकल्पवासियोतिष्कनाथा व्यचलन्ससैन्याः ॥१६॥ भारुह्येत्यादि । ससैन्याः संन्येन सह वर्तत इति समन्याः सेनासहिताः। बन्योरग कल्पवालियोतिषकनाथाः बन्याश्च उरगाश्च कल्पे वसंतीत्येवंशीला: कल्पवासिनछ ज्योनिष्काश्न तथोक्तास्तेषां नाथास्तथोक्ता: व्यंतरभवनामर कल्पवासिज्योतिष्कन्द्राः। नानाविधवारनानि नानाविधी येषां तागि तथोक्तानि नानाविधानि च तानि चाहनानि च नानाविधवाहनानि । आया आस्थाय । क्रमेण अनुक्रमतः । जिनानवामेतरपृष्टदिक्षु भानच घामश्च इतरो दक्षिणस्य च पृष्ठ' च तथोकानि अग्रवामेतरपृष्ठानां दिशस्तथोक्ताः जिनस्याग्रवामेतरपृष्ठदिशश्च तथोक्ताः तासु। अतः पुरोभागधामभागदक्षिणभागपश्चिम भागेषु । व्यन्त्रलन् अचरन् । चल कंपने लङ् कमालंकारः ॥ १६ ॥ मा० अ०-भवनः कला, यन्तर तथा ज्योतिष्क घासी सभी देवेन्द्र अनेक प्रकार के धाहनों पर चढ़ कर श्रीजिनकुमार के चारो तरफ सैनिकों के साथ चले ॥ १६ ॥ नभोऽन्तरे नाथतनुप्रभामिः प्रपूरिते पोज्वलरत्नकूटाः॥ बभुर्विमाना कुलिशास्त्रभीते: समुद्रममा इव सानुमंतः ॥१७॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः । ६६ नमोऽतराल इत्यादि । नाधतनुप्रभाभिः तनोः प्रभाः तनुप्रभाः नाथस्य तनुप्रभास्ताभिः जिनेश्वरी कांतिथिः तदूहि आपूर्णे । नमोऽन्तरे नभसोंडतरं नमोऽतरं तस्मिन् अंगरांतराले । प्रोज्वलरत्नकूटाः रत्नर्निर्मितानि कूटानि तथोक्तानि प्रोबलानि रत्नकूटामि येषां ते प्रस्फुरन्मणिशिखराः । विमानाः व्योमयानामि "esोमयानं निनोऽस्त्री" इत्यमरः । कुलिशास्त्रभीतेः कुलिशं वज्रमेवास्त्र आयुधकुलिशास्त्रशकस्तस्माजाता भीतिस्तस्याः इंद्रस्य गोत्रभिन्नामप्रसिद्धिभयात् । समुद्रमाः मज्जतिरूम मग्नाः समुद्र मन्नास्तथोक्ताः । सानुमंत व सानुरस्त्येषां इति नुमंत व अन्यत्र "पर्यतः सानुमान गिरिः" इति धनंजयः । प्रभुः रेजुः भा दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥ १७ ॥ धरूप सः भा० अ० --- श्रीजिनेन्द्र देव की देहदुगुति से आकाश मण्डल के प्रपूरित होने पर अत्युराम रमय शिखर वाले विमान वज्रायुध से डर कर समुद्र में मझ पर्वतों के समान चमकने लगे ॥ १७ ॥ जिनांगदीया दधुरभ्रवीभ्यां तरंगितायां सितचामराणि ॥ सुरवधूतानि कलिंद कन्यातरंगदोलारतहंसलीलाम् ॥३८॥ जिनांगेत्यादि । जिनांगदीप्त्या जिनस्यांग जिनांगं तस्य दीतिस्तया अर्हत्काय फांत्या | तरंगितायां तरंगा संजाता अस्या इति तरंगिता तस्यां संजाततरंगायां । वीध्यां अस्य मेघस्य वीथिरभ्रवीथिस्तस्यां व्योमवीथ्याँ । सुराबधूनानि अयधूयते स्म अवधूतानि सुरग्वधूतानि तथोकानि लेखनिक्षिप्तानि । सितयामराणि चपरीभानि चामराणि सितानि च तानि चामराणि च तथोक्तानि श्वेतप्रकीर्णकानि । कदिकन्या तरंगदोलार तहंसलीलां कलिंवस्य कन्या तस्यास्तरंगास्तयेव दोला रमतेम रताः रताच ते हंसाच रतहंसाः कलिंद कन्यातरं गदालायां रतईमाधोक्तास्तेषां लीला तां । यमुनानदीवीनिदोलायां कीडितमरालविलालं " कालिंदी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा" इस्यमरः । दधुः धरतिस्म डुधाञ् धारणे च लिट् । उपमा ॥ १८॥ मा० अ० - जिनकुमार की शरीरकान्ति से तरंगित आकाश वीथो में देवताओं से डोलाये गये श्वेतच् कालिन्दी (यमुना ) की तरङ्गरूपी दोला में लीन हंसों का अनुकरण किये हुए थे |१८| चलान्यत्लिीयंत जिनांगरोचित्रीचिप्रपंचेऽगरुधूमलेखाः ॥ हरेर्विभीताः फणिराजपल्यस्तरंगकुंजेष्विव यामुनेषु ॥ ३६ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाच्यम् । चला इत्यादि। चकाः चलतीति चला चलंत्यः। अगरुधूमलेमाः अगरीधुमास्त. थोक्तास्तेया लेखाः कालागधूमधणयः “रेसायामावलौ रेखा” इति वैजयंती। जिनांगरोंचिवीचिप्रपंचे जिनस्यांगं जिनांनं तस्य रोचिस्तथोक्का जिनांगरोचिरेव रोचिषो वा वीचयस्तेषां प्रपंचस्तस्मिन् जिनेंद्रशरीरकांतितरंगसमूह। हरेः नारायणात् । विभीताः विविध • तिरुम विभीताः। फणिराजालन्यः फणाः सन्त्येषामिति फणिनस्तेषां राजा फणिराजस्तस्य मन्त्रः महाशेपलनिता:! यामनेषु यमनायाः संबन्धा यामुनास्तेषु यमुनानदीसंबन्धषु । तरंग'सेषु तरंगा एव कुंजाः तरंगकुंजाः तेषु वोचिनिकुंजेषु । यमुनानदीतरंगाणां कृष्णवर्णत्वाजिनांगकांतिसमत्वं रूपकः । न्यलीयंत निलीयंतेस्म । लिङ श्लेषणे लट् ॥३॥ भा० अ० --इधर उधर चारो ओर फैली हुई अगरु (सुगन्ध द्रव्य) की धूम्ररेखाये' कृष्णचन्द्र से डर कर यमुना के तरङ्गकुंज में छियो हुई सर्पराजको त्रियों के समान जिनेन्द्र महाराज की अङ्गध तिरूपिणी वीचि में प्रलीन हो गयी ॥१६॥ नभस्थले नागरुधूमलेखाः स्फुरत्फुलिंगा शशिशंकयाऽमी ॥ सितातपत्रग्रसनाय धावद्विधुतुदा वातविषस्फुलिंगाः ॥२०॥ नमस्थल इत्यादि। नभसः स्थलं तस्मिन् आकाशप्रदेशे। स्फुरत्स्फुलिंगाः स्फुरतीति स्फुरन्तः स्फुरस्त. स्फुलिंगा येषां ते तथोक्ताः प्रज्वलदग्निकणयुक्ताः । अमी हमे । अगहधमलेखाः अगरोळूमा अगरधुमास्तेषां लेखास्तथोक्ताः कालागरुधूपराजयः । "लेखो लेख्ये सुरे लेखा लिपिराजिकयोर्मता" इति विश्वः। न न भवति । पुनः किमिति चेत् -- शशिशंकया शशीति शंका शशिशंका तया चंद्र इति संशयेन | सितातपरप्रसनाय सितंब तत् आतपत्रं च तथोक्त सितातपत्रस्य प्रसनं तस्मै । वांतयिषस्फुलिंगाः विषमयाः स्फलिंगाः विषस्फुलिंगाः घांता: विषस्फुलिंगा येषां ते तथाक्ताः । धाद्विधंतुवा: विधु तुदंतीति विधुतुदाः "विध्वस्तिलातुदः” इति नच "खित्यरुः” इत्यादिना मम् धावंतीति धावंतः धावतश्च ते विधुतुदाश्च तथोक्ताः अभिगच्छदावे भयंतीत्यर्थः। अपहनुत्यदेकार: ॥२०॥ भा० अ०-आकाश में अग्निकण के साथ साथ अगरु आदि की धूम्ररेखाओं ने विष . की चिनगारी उगलते हुए राहु जिस प्रकार चन्द्रमा को ग्रस्त करता है उसी प्रकार श्वेत. च्छन्त्र की प्रमा को आच्छादित किया ॥२०॥ अंगारनिक्षिप्तदशांगधूपः संक्रातसंताप इव क्षणेन ॥ पाश्लिष्यदुत्थाय पटीरहारकर्पूरकलहारपयोरुहाणि ॥२१॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः । I अंगारेत्यादि । अंगारनिक्षिप्तदशांगधूपः अंगारे निक्षिप्तः अंगारनिक्षिप्तः दश अंगानि यस्य लः इशोगः स त्रालौ धूपश्च दशांगधूपः अंगारनिक्षितश्चासौ दशांगधूपश्च तथोक्तः धूपघटस्यांगारे प्रयुक्तदशांगधूपः । "अथ न स्त्री स्यादंगारः" इत्यमरः । क्षणेन क्षण इति कालभेदः तेन "तास्तुत्रिंशत्क्षणः" इत्यमरः । संक्रांत संताप इव संक्रामतिस्म संक्रांतः संकातः संतानों यस्यासौ तथोक्तः संबद्धसंज्वर इव । "सन्तापः संज्वरः समी" इत्यमरः । उत्थाय उत्था पनं पूर्वं पश्चात् किञ्चिदिति ऊध्यं गत्वा । पटीरहार कर्पूरकहारगयेोहाणि पटीरच हारा कर्पूरध कहारं च पयेोहं व तथोकानि श्रीगंधमौक्तिकहारघनसारसौगंधिककमलानि । "श्री स्वात्पत्र' प्रति आलिंग शिष् आलिंगने लङ् । पतेषां संतापहारकत्वात्तान्ता श्लिष्यदितियावत् । उत्प्रेक्षा ॥२१॥ भा० अ० – अग्नि में डाले गये दशांगधूने सन्तत होकर शीघ्र ही श्रीखण्ड, कर्पूर तथा सुगन्धित कमल को आलिङ्गन कर लिया । अर्थात् इन शीतल पदार्थों से मिलकर मानों उसने अपनी ज्वाला शान्त करनी चाहीं ॥ २१ ॥ ܐ गद्येन पद्येन च दंडकेन शशंस गीतेन च गाथया च ॥ मरुद्गणोऽयन्न परं परोऽपि गुहा मुखोद्यत्प्रतिशब्दभात ॥ २२ ॥ F गद्य नेत्यादि । अयं एषः । मरुद्रणः मरुतां गणों मरुद्रण: निर्जरनिकायः । मरुतौ पवनामरौ" इत्यमरः । गद्यन अनियतगणेन वाक्यकचेन पद्येन नियतगणेन छंदो निषद्ध ेन । दंडकेन कथंचिग्नियतगणेन चंडवृष्ट्यादिना । गीतेन तालनियतेन संगीतेन । गाथया च मात्रानियतेन गाथारूपनिबंधन | परं केवलं "परोऽसि परमात्मा च केवले परमश्रयम्” इति नामार्थरत्नमालायां । न शशंस न तुष्टाव अपितु परोऽपि मरुङ्गणः गिरिनिकरः । “अनुर मरानिलगिरिषु मस्तू" इति नानार्थरल के ये । “नगः शिलेोश्रयोऽद्विश्व शिखरी त्रिककुमन्त्" इति धनंजयश्च । गुहामुखद्यत्प्रतिशब्ददभात् गुहायाः मुखं तथोक्त उदेतीत्युदन गुहामुखेनोद्यन्, तथोक्तः गुहामुखेनेोच चासौ प्रतिशब्दश्च तथोक्तः गुहामुखोद्यत्प्रतिशब्द इति दंभस्तथोक्तस्तस्मात् कंदरचिचरसमुत्पद्यमानप्रतिध्वानव्याजात् । शशेल तुप्राच शंङ स्तुतौ लिट् । त्रिशनिरवदद्विनिवहेोऽपि स्तुतिमकरोदिति भावः ॥ २२ ॥ भा० अ० - मरुद्गण ( देवतादिगण ) ने गद्य-पद्य, दण्डक, ( एक प्रकार का छन्दोविशेष ) गीत तथा गाथा से और मस्तुगण ( पर्वत ) ने कन्दरा से प्रतिध्वनित शब्दों से भगवान् की स्तुति की ॥ २२ ॥ वियत्तलं वीतघनाघनौघमपि प्रपूर्ण जिनदेवभासा ॥ विभिन्न नीलांजनसंनिभेन पुनर्वनापूर्णमित्राबभासे ॥२३॥ ' Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १०२ _ वियत्तलमित्यादि । धीतघनाघमोधः घनाघनानामोघः घनाघनौधः वीतो घनाघनौषो यस्मात्तत् तथोक्तमपि “वर्षाब्दवासवमदगजेरावतसांद्रधनायने” इति मानार्थरतको । अपगतमेघसमवायमपि। वियतलं वियतस्तलं तथोक्त आकाशप्रदेशः । विभिन्ननीलांज. संनिभेन विभिन्नोस्म विभिन्न तच तव नीलांजनं च तथोक्त विभिन्न नीलांजनस्य संनिभ तेन स्फुटित कन्जलसमानेन “कजलदिग्गजानिलकातामधंजन" इति नानाथरत्नका। जिनदेहभासो जिनस्य देहत्तस्य भासरूलेन जिनाधिपमूर्तिदीप्त्या। प्रधूर्ण प्रपूर्यतेस्म तथोक्त परिपूर्ण। पुनः भूयः । धनापूर्ण मित्र घनेनापूर्ण मेधेन परिपूरितमिव । प्रावभासे भास दोप्तो लिट् ॥२३॥ ___ भा० अ० ---आकाश मेव-रहित होने पर भी फैले हुए कृष्णकन्नलतुल्य जिनेन्द्र भगवान की नौल देहकान्ति से परिप्लावित हो मेध से परिपूर्ण ज्ञात होने लगा ।। २३ ॥ जिनांबुदोऽसाविभदानवृष्टिनेटीतडिद्वाद्यनिनादगर्जः ॥ विमानमालविका का दिल्याकानिकी प्रावृषमाततान ॥२४॥ जिनांबुन इत्यादि। इमदानवृधिः इमस्थ दान तथोक इभदानमेव वृष्टिर्यस्य स तथोक्तः पेरावतमइजलवर्ष: "युतस्त्यागगजमदशुद्धिपालनच्छेदेषु दानम्" इति भानार्थरतकोषे। नदीतडित् नट्य एवं तड़ितो यस्य स नटीडित नर्तकीविद्यु सहितः । वाचनिनादराज वाद्यस्य निनादो घानिनादः स एव गों यस्य सः तथोक्तः वादिनध्यनितस्तद्गीतफलितः । विमानमालारुविकामुकः विमानानां माला विमानमाला तस्या रुचिः विमानमाला- . सांचरेव कामुक यस्य स तथोक्तः विमानपंक्तिकांतिसुरचापसहितः । “रुचिर्मयूखे शो भायामभिषंगाभिलाषया:" इति विश्वः । असौ अयं । जिनांबुर अंबु द्धातीत्यंबु जिन. ए. यांबुदस्तथोक्तः जिनेश्वरमेषः। दिवि आकाशे। आकालिकी अकाले भवा आकालिकी वां अकालाभूतां । “यादिम्पष्टपणठो” इति डण् । प्रावृपं वर्षाकालं। शततान विस्तारयसिस्म तनू विस्तार लिट ॥२४॥ ___ भा० अ-विमान-पंक्ति की कान्ति हो है धनुष जिसका तथा खाद्य-ध्वनि है गर्जन जिसका, ऐसे नटोरूपिणी बिजली और गजमद-प्रवाहरूपी दृष्टिवाले श्रीजिनेश्वर जलद में आकाश में असामयिक धर्षा ऋतु की छटा दिखला दी ॥ २४ ॥ अभ्राण्यभ्राणि सुरेभदन्तप्रोतानि रेजुः परितो जिनेन्द्रम् ॥ उत्क्षिप्यमाणानि मुदामुनेत्र चंद्राश्मदंडातपवारणानि ॥२५॥ * अभ्राणीत्यादि । सुरेभदंतमोत्तानि सुरस्येभः सुरश्चासौ इमति पा सुरेभस्तस्य दतास्सुरेभवताः तः प्रोतानि ऐरावणरदनसंबंधानि । अदनाणि न दभ्राण्यवभ्राणि पशु Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ चतुर्थः सर्गः । लागि । “दभ्र कृशं तनु" इत्यमरः । अभ्राणि मेघाः । जितेंद्र: जिनानामिंद्रो जिनेन्द्रस्तं । परितः समंतात् । अमुना ऐरावतेन । मुदा संतोषेण । उत्क्षिप्यमाणानि उत्प्रेर्यमाणानि चंद्राश्मदंडातपवारणानि चंद्राश्मना कृताः दंडा एषां ताति चंद्राश्मदंडानि तानि च तानि आतपवारणानि च तथोकानि तानिव चंद्रकांत शिलानिर्मित दंडयुकछजाणीव । रेजुः भुः राज़ दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ २५ ॥ भा० अ०-१ - श्रीजिनेन्द्र भगवान् के चारो ओर ऐरावत हाथी के दाँतों से ओत प्रोत तथा प्रसन्नता पूर्वक अवलम्बित ओ सधन मेघ थे वे चन्द्रकान्त मणिमय दण्डयुक्त छत्र के समान शोभते थे ॥ २५ ॥ सेनापदा मर्दितपांडुमेघा मुक्तागुरुनभ्रतले बिडालाः ॥ हटेन दध्यन्नधिया व्रजेत: स्कंधादिदाननयंत मन्युम ॥ २६ ॥ सेनेत्यादि । अभ्र अम्रस्य तलं अभ्रतलं तस्मिन् आकाशप्रदेशे । मुक्तागुरून् मुक्ताभिर्मुश्वः तान् मुक्ताफलः स्थूलान मेयेऽपि मौक्तिकसंभव इति प्रसिद्धिः । सेनापदामर्दितपांडुमेधान् सेनानां पदानि तथोकानि सेनापदे रामर्दितास्तथोक्ताः पांडवश्च ते मेघाव पांडुमेघाः सेनापदामर्दिताञ्च ते पांडुमेघाञ्च सेनापदामपिमेघास्तान सप्तानीकचरण विभिन्नधवलमेघान् । "पांडुः कुन्तीपती सिते" इति विश्वः । दध्यशधिया दध्ना मिश्रितमन्नं दध्यन्नं तदिति धीः दध्यन्नधीस्तया दध्योदनबुदुद्ध्या । हटेन चलात्कारेण "प्रसभन्तु बलात्कारो हठम्" इत्यमरः । व्रजेतः गच्छतः । विडालाः वाह्ममार्जाराः । स्कंधाधिरूढान् अधिरुद्धतिरुम अधिरूढास्तथोक्ताः स्कंधमधिरुहा स्कंधाधिरूदास्तान स्कंधमधिष्ठितान देवान् । मन्युं रोष | "मन्युः क्रोधे कतौ दन्ये" इति विश्वः । अतयंत प्रापयंतिस्म णीञ् प्रापणे लड् द्विकर्मकः । भ्रांतिमानलकारः ॥ २६ ॥ भा० अ० - भाकाश में मुकाओं के कारण गुरुतार तथा सेना के चरण-मर्दित होने से धवल मेघों को ओर दधिमिश्रित अन्न समझ कर दौड़ते हुए वाहन बिड़ालों ने कन्धे पर बढ़े हुए देवताओं को क्रुद्ध कर दिया ॥ २६ ॥ प्रयाणवेगानिल नीयमानाः पयोधराः श्यामतनूनिभेन्द्रान ॥ सगर्जितानूर्जितदान वर्षान स्वबंधुबुद्ध्या ध्रुवमन्त्ररुन्धन् ॥२७॥ प्रयाणेत्यादि । प्रयाणधेगानिलनीयमानाः प्रयाणस्य वेगः प्रयाण वेगस्तस्माज्जातोऽमिल: प्रयाणवेगानिलः नीयंत इति नीयमानाः प्रयाणवेगानिलेन नीयमानास्तथोक्ताः निर्याः जयेश जातवाना प्राप्यमाणाः । पयोधराः पयसि धरतीति तथोकाः मेघाः । श्यामतनून I Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाव्यम् । १०४ श्यामा तनुर्येषां ते तान् । सगर्जितान् गर्जितेन सह वर्तत इति सगर्जितास्तान ध्वनिसहितान्। अर्जितदानवर्षान् दानस्य वर्ष दानवर्ष ऊर्जितं दानव येषां ते तान् प्रवृद्धमदजलवृष्टीन् “दान गजमदे त्यागे पालनच्छेदशुद्धिघु” इति विश्वः । इभेन्द्रान इभानामिंद्रा इभेंद्रास्तान् गजेंद्रान् स्वयंधुबुच्या स्वेषां बंधवस्तथोक्ताः स्वयंधव इति बुद्धिस्त्रबंधुबुद्धिस्तयां। ध्रुवं निश्चलं । अविरुधन अनुकूलमवर्तन्त ॥ २७ ॥ भा० अ० - प्रयाणकालीन बेग से उत्पन्न हुई चायुसे सञ्चालित मेघों ने प्रवाहित मधारा-रूप वृष्टिवाले तथा गर्जन करने वाले श्याम शरीर गजराजों को अपने बन्धु समझ कर उनका अनुसरण किया ॥ २७॥ सदाभियुक्ता वितदामरौधैः सहोत्पला भानुसता प्रतीये ॥ जिनांगराचिनिचयन दिग्धा विवहहेमांबुझहा घुमिथुः ॥२८|| सदेन्यादि। जिनांगगनिनि चयन जिनम्यांगं जिनांग तम्य शचीपि तथोक्तानि जिनां. गरोचिषां नित्रयो जिनांगरविर्निचरस्तन जिनेश्वरशरीरकांतिसमूहेन | दिग्धाः दिल्यतेस्म दिग्धाः लिताः। विबुद्धहेमाम्बुरुहा अंबुनि रोहतीत्यधुमह हेमकर्मधुरई तथोक्त विबुध्यतरुम विशुद्ध विबुद्ध हेमांबुरुहं अस्यास्सा तथोक्ता विकसितारुणाविदा । धु सिंधुः दिवि विधमाना सिंधु सिंधुः देवगंगा । "देशे नदविशेषेऽत्री सिंधुर्ना सरिति स्त्रियाम्" इत्यमरः । सदा सर्वस्मिन् काले सदा। अभियुक्तापि अभियुज्यतेस्माभियुक्ता परिचितापि । अमरोः अमराण ओघा अमरौधास्तैः देवसमूहः। तदा तत्समये। सोटाला उत्पलैः सह घर्तत इति सहोल्पला नीलोत्पलसाहिता । “कान्यार्थ" इति विकल्पेन सहस्य सभावः । भानुसुता भानोस्सुता तथोक्ता यमुनानदी । प्रतीये शायतेस्म । इग् गती कर्मणि लिट् ॥ २८ ॥ भा० भ०-विकसित सुवर्ण-कमलवालो देवगङ्गा यद्यपि देवताओं की चिरपरिविता थीं सथापि श्रीजिनेन्द्र भगवान् की नीलदेह-कान्ति से समुदासित होने से वह उन्हें पद्मपुज-मण्डित यमुना की सी प्रतीत हुई ॥ २८ ॥ विशालमाकाशतलं चकाशे विभुप्रभाश्यामलतारकौघम् ॥ विपाकनीलैविपुलैः फलौघैः विलंबमानामभिभूय जंबूम् ॥२६॥ विशालमित्यादि । विभुप्रभाश्यामलतारकोध विभोः प्रभा तथोक्ता विभुप्रभया श्यामलः विभुप्रभाश्यामलः तारकाणामोधस्तारकोषः विभुप्रभाश्यामलस्तारकोम्रो यस्मिन् तत् तथोक । विशाल विस्तृतं । आकाशाल आकाशस्य तलं. तधोक्त' गगनतल । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ चतुर्थः सर्ग।। विपाकनीलः विशकेन नीला विराकनीला: तैः परिणत्या कृत्योः। विपुले: रुन्द्री। "'द्रोमविपुलप" इत्यमरः । फलाँधैः फलानामोघा फलांप्रास्त: । विलंघमाना विलंयत इति विलंबमाना तोधिनमंताम् । जंवूम् संवृवृक्षं । अभिभूय अभिमानं पूर्व पश्चात्किञ्चि. दिति तिरस्कृत्य । नकाशे बिरजे काट दीप्ती लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ २६॥ भा० अ०--भगवान् की नाल प्रभा से श्यामस्वरूप तामगणयुक्त विशाल आकाश मण्डल बड़े बड़े तथा पक जाने के कारण नोले २ फलों से झुके हुए जम्बूवृक्ष को तिरस्कृत किये हुए थे ।। २६ ॥ स्वशून्यवादे परमागमेन सद्यो निरस्ते विशदांतरस्य ॥ व्योम्नो विरजुः पुलकोपमानि जिनप्रभाश्यामलतारकाणि ॥३०॥ स्वशन्यवाद इत्यादि । परमागमेन परमश्चासावागमश्च परमागमस्तेन परमागमतेन । स्वशून्यवादे शून्यस्य बादः शून्यवादः स्वस्य शून्यवादस्तयोतः तस्मिन् निजनास्तिवादे । सयः तस्मिन्काले सद्यः तालमपे । निरस्ते सति निरस्पतेस्प निरस्तत्तस्मिन् सति । विशांतरस्य विशदर्मतरं यस्य नत् नयोक्त तस्य निर्मलांत:करणयुक्तस्य । "अंतरं तु परी. धाने भेदे रंधावकाशयोः । आत्मांतर्धिविनात्मीयबहिर्मध्यावधिष्वपि ॥ तादर्थे ऽवसर प्रोक्तम् इति विश्वः । ध्योनः आकाशस्त्र । पुलकोपमानि रोमांचसमानानि । जिनप्रभाश्या. मलतारकाणि जिनस्य प्रभा जिनप्रभा नया श्यामलानि तथोक्तानि जिनप्रशाश्यामलानि चतानि तारकाणि च तायोक्तानि जिनन: गशरीरकांत्या नील नक्षत्राणि । नक्षत्रमृशमुडम ज्योतिर्धिष्ण्यं च तारका । तारातारकमित्ये कार्थः' इति जयकीर्तिः विरेजुः यमुः । राजबी तो लिट् । उत्प्रेक्षालंकारः ।। ३ ।। श्री जिनेन्द्र भगवान की नील देहकान्ति से श्यामरंग की तागये मानों परमागम के द्वारा नास्तिकधाद हटा देने से स्वच्छान्तस्तलयुक्त आकाश के रोमाञ्च तुल्य प्रतीत होने लगी ॥३०॥ मुग्धापमराः कापि चकार सर्वानुत्फुलवक्त्रान्किल धूपचूर्णम् ॥ रथाग्रवासिन्यरुणे क्षिपंति हसंतिकांगारचयस्य बुद्ध्या ॥३॥ मुग्धेत्यादि। स्थानबासिनि वसतीत्येवं शोलों बासी रथस्याने बासी तस्मिन् स्यन्दनमुखवर्तिनि | अरुणे सूर्य पारथौ। "सूपसूनोऽवणोऽनूरः" इत्यमरः । उसंतिकांगारचयस्य हसंतिकायाः अंगारशकट्याः अंगारस्तेषां वपः संतिकांगारचयत्तस्य "अंगारशकट प्राहु ईसती च संप्तिकाम्" इति हलायुधः। बुध्या मनीषया । धूपचूर्ण धूपस्य सूर्ण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । १०६ क्षिपति प्रेत्यति मुग्धा मूढा । कापि काञ्चन । अप्सरा देवगणिका "स्त्रियां बहुष्वप्रस" | इति बहुवचनत्वेपि तत्केचिन्न मन्यते तथैव विग्यचूडामणौ शिष्टप्रयोगसंमतिः । “सांद्रकांडपटसंवृनमूर्ते विद' तशयनीयशयस्य । मानितः कुलवधूरिवरागादप्राव्यदितपार्श्वमान्य" | सर्वान् सकलान् । उत्फुल्लवक्त्रान् उत्फुलं वक्त्रं येषां तान् विकसितवदनान् । चकार किलविौ डुकु करणे लिट् । भ्रांतिमानलंकारः ॥ ३१ ॥ मा० ० - रथाग्रवर्ती सूर्यसारथि को अङ्गीठी की आग समझ कर किसी मोली भाली अवराने उनपर धूमचूर्ण फेंक कर सब किसी को हंसा दिया ॥ ३१ ॥ मंदाकिनीसालिसितारविंदधियान्यया मूर्ध्नि कृतो मृगांकः ॥ अमन्यतापूर्ण सुतमन्या सनीलनीरेरुहदुग्धकुंभम् ॥३२॥ मंदाकिनीत्यादि । अन्यया स्त्रिया | गंश कितीसालिसितारविंधिया अलिना सह वर्तत इति साली सितं च तदविंद च सितारविंद' सालि च तत् सितारविंदं च तथोक मंदाकिन्यां विद्यमान सालिसितारविंदं तथोक्त' मंदाकिनीसालिसितारविंदमिति धीस्तया गंगायां विद्यमानभ्रमरयुक्तपुंडरी कबुध्या मृगांकः मृग एवांको यस्य सः तथोक्तः । अत्रोचितमिद मभिधानं । मूर्ध्नि मस्के । कृतः किस्म अलंकृत इत्यर्थः । अन्या स्त्री । शिरोधृतं मृगांकथापूर्णसु आपूर्यतेस्म आपूर्णा परिपूर्णा सुधा पीयूषं यस्य तं । सनीलनीरसह दुग्ध कुंभ दुग्धस्य कुंभोदुग्धकुंः नीरे रोतीति नोररुहन्तत् "तत्पुरुषे कृति बहुलम्" इत्यश्लुक् नोले च तत् नीरं च तथेोक्त' नीलनीरेस्देण मह वर्तत इति तथोक्तः सनीलनीरहवासी दुग्धकुंभश्च सनीलनीरेहहदुग्ध कुंभस्तं इंदीवर पिहितक्षारधरं । अमन्यत अबुध्यत बुधिमनिज्ञाने लङ् । भ्रांतिमानलंकारः ॥३॥ भा० अ० --- किसी देवांगना ने पीयूषपूर्ण मृगलांछित चन्द्रमा को भ्रमर युक्त गङ्गाजी का कमल समझ कर सिर पर चढ़ाया तो किसी दूसरी ने उसे नोल कमलाच्छादित दुग्ध भाण्ड समझा ॥ ३२ ॥ अघदेऽर्हदद्युतिभानुजायां सुरद्दिपद्युत्सुर सिंधु सरव्याम् ॥ मज्जत्प्रतीहारसुराः सुराणामनीकमहिं कथमप्यनैषुः ॥३३॥ अधच्छिर इत्यादि । सुरद्विधत्तुर सिंधुसव्यां सुराणां द्विपास्तेषां धत् सुराणां सिंधुः सुरसिन्धुः सुरद्विपथ देव सुरसिंधुः तथोक्ता । “देशे नदविशेषेऽन्ध सिंधुर्नासरित स्त्रियाम्" इत्यमरः । सुरद्विपथ त्सुर सिंधुरेव सखी यस्या सा संस्थां देवगज कांतिगंगासहच र्याम् । यतिमानुजायां अर्हतो द्युतिस्तयोक्ता भदृष्ट तिरंग भानुजा अर्हयुद्ध तिमानुजा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ चतुर्थः सर्गः। तल्या जिनाधिपकांतियमुनानन्यां । "कालिंदी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा" इत्यमरः । अघ. च्छिदे अध नित्तीत्यच्छित् तस्मै पापविनाशाय । मजत्प्रतिहारसुराः प्रतिहाराच ते सुराश्च प्रतिहारसुराः मज्जंतीति मज्जतश्च व ते प्रतिहारसुराश्च तथोक्ताः। सुराणां देवानां । अनीक सेनां । सुराणामित्यत्राप्यन्वयः । अद्रि' महामेमगिरि । कथमपि केनचित्प्रकारेण । अनेषुः भवापयन । णी प्रापणे लुङ् । द्विकर्मकः ॥३३. भा० अ०-ऐरावत की कान्तिरूपी गंगा की सहचरी श्रीजिनेन्द्र भगवान की देह-दीप्ति सप यमुना में मनोन्मग्न होते हुए प्रतिहारदेव किसी २ तरह अपनी सेना को पाप विनाश करने के लिये महामेरु पर्वत पर ले गये ॥३३॥ गिरीशमुद्यद्विपदंतवृत्ति रवीन्दुतारामरसेव्यपादम् ॥ दिगंबरैरावृतमेनमारादपश्यदने प्रभुतुल्यमिन्द्रः ॥३४॥ गिरीशमित्यादि। इन्द्रः इति परमैश्वर्यमनुभवतीतींद्रः सुपर्वनायकः। उपद्विपदेत खुसि उद्यतीत्युद्यतः द्विपदस्य दंता इव द्विपदंना उधतश्च ते द्विपदंताश्च तथोक्ताः तेषां वृत्तिवतन यस्थ संप्रोग्य जमिनलम गरे उदेतीत्युद्यती धिपदामंती विपदतः उद्यत्री विपदत्तस्य घृत्तिर्यस्य यस्मादिति या उद्यद्विपदंतवृत्तिस्तं प्रोबदापत्तिनाशवर्तनयंत एतत्पक्षे बंजनच्युतकचित्राभिप्रायेण दकारो ध्युदस्यते । तदुक्त विदग्धमुखमंडने"अन्योऽप्यर्थः स्फुटो यत्र मात्रादिच्युतकेयपि। प्रतीयते विदुस्तज्ञास्तन्मात्राच्युतकादिकम्" एपीतारामरसेव्यपादं विश्व इदुश्च ताराचामराश्च तथोक्ताः सेयः पादः मूलं यस्य तं पक्षे राजसारामरैः सेयौ सेवनीयो पादौ चरणी यस्य तं “पादो प्रश्ने तुरीयांशे शैलप्रत्यंत. पर्वते । चरणे च मयूखे ।" इति विश्वः । दिगंबर; दिशश्च अंबराणि च दिगयराणि तैः लिगाकाशैः पक्ष दिश एवांवर येषां तः मुनीश्वरः । आवृतं आवियतेस्म आवृनस्त अवगाहित पा संस्कृतं च । गिरीशं गिरीणामीश। गिरीशस्तं धराधराधोश्वरं पक्षे गिरामीशः गिरीशस्तं वागीश्वरं "गिराशो वाक्यतो रुई गिरीशोऽद्विातावति" इति विश्वः । प्रभुतुल्यं प्रमोस्तुल्यः प्रभुतुल्यस्त जिनेशसदृशं । पनं महामेरु । अयं पुरः । आरात् समीपे । पश्यत् पेक्षन्त शिरप्रेक्षषों लङ् श्लेषः ॥३४॥ भा. Re--इन्द्र ने गजवन्त गिरिवत्. ( उदीयमान विपत्तियों का नाशक ) दिशाकाश से ( विगम्बर मुनियों से ढके हुए, ( घिरे हुए ) सूर्य चन्द्र तथा ताराओं से संबित चरण कमल वाले इस महामेरु पर्वत (वागीश्वर) को आगे समीप ही में श्रीजिनेन्द्र तुल्य देखा ॥३n सजातरूपोऽपि गिरिः प्रवृत्तदिगंबराक्रांतिरुदग्रकूटः ॥ अघांतकं पापभियाऽभ्ययासीत्किमित्यमत्यैर्भणितः क्षणाप्तः ॥३५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुश्तकाव्यम् । सजातरूप इत्यादि । सजातोऽपि जातरूपेण मुनींद्राकारेण सह वर्तत इति सजातरूपः सोऽगि नियाकारवानपि पक्षे जातरूपेण हिरप गेन सह धर्सत इति सजातकपः कांचनमयः । “जाप्तरूपं हिरण्ये स्थादिगंबरवराहतो” इत्यभिधानात् । प्रवृत्तदिगंबरराक्रांतिरविप्रवर्ततेस्म प्रकृया दिशश्च अंबराणि च दिगंबराणि आक्रमणमाक्रांतिः प्रवृत्ता दिगम्बराणामाकान्तिर्यस्य सः विहितदिगाकाशातिकमाऽपि पक्षे प्रकृष्टं वृत्तं येषां ते प्रवृत्ता: दिशा एयाधरं येषां ते तथोक्ताः प्रवृत्ताश्च ते दिगंवराश्च तथोक्ताः प्रवृत्तदिावराणाभाक्रांतिर्यस्य सः तथोक्तः विशिष्टचारित्रवन्मुद्रिातिकमवान् । उदग्रकूटोऽपि उदग्राण्युन्नतानि कूटानि शिखराणि यस्य सः तथोक्तः प्रत्युश्चशिखरवानपि पक्षे उदन उत्कृष्टः कूटः काटो यस्यासी तथोक्तः भत्यंतमायावान् । “माया निश्चलयंत्रेषु केतवानतराशिः । अयोधने शैलगे सीरांगे कूटमस्त्रियाम्" इत्यभरः। गिरिः मेहनगेन्द्रः। पापभिया पापस्य भी: पापी तया निजविरुद्धस्वभावदुष्कर्मभीत्या । अधांतकं अधानामतकोऽतिकस्त सकलकलिलवैरिणं । अश्या सीरिक अभ्यगमत्किं अभिमुखमभिगच्छतिस्म किमित्याशंका । इति एवं । अमस्य: निर्जरः । क्षणाप्तः क्षणेनाप्तः क्षणाप्तः क्षणपरिमितकालेन-संप्राप्तस्सन् । भणितः भण्यतेस्म भणितः भापितः। विरोधालंकारः॥३५॥ ___ भा० अ.--सुवर्णमय (निप्रन्थका ) दिशा काश को अाकात कि हुप ( उत्तम परिप्र. वाले मुनियों को अतिक्रमण किये हुए ) और उन्नत शिखर वाले मायापू) महामेरु पर्वतको समीपस्थ देखकर देवताओं ने कहा कि, मानों यह पर्वत पाप के भय से स्वयं ही पाप. विनाशक भगवान के सामने उपस्थित हो गया है ।। ३५॥ द्युमंडलं मध्यगतस्य मेरोमणिप्रभापंजेरभासमानं ॥ विभोरमुष्योपरि हेमदंडां बभार नीलातपवारणाभाम् ॥३६॥ धमंडलमित्यादि। मध्यगतस्य मध्यं गच्छतिस्म मध्यगतस्तस्य मध्यभागस्थितस्य । मेरोः महामेरुनगेंद्रस्य । मणिप्रभापंजरभासमान मणीनां प्रभा मणिप्रभा सैघ पंजरं सथोस मणिप्रभापंजरे भासत इति मासमान तथोक्त रनायु तिपंजरे बिराजमान । धुमंडल दियो मंडल तथोक्त' आकाशमंडल। "यो दिवो स्त्रियामभ्रम्” इत्यमरः । अमुष्य अस्य । विभोः जिनेश्वरस्य उपरि अग्रभागे। हमदंडांना निर्मितोवंडो यस्यास्सा तामीलातपधारणाभाम् नीलं च तदातपवारणं च तथोक' नोलातपवारणास्य आमा नीलातपवारणाभा तांद्रनोल. श्रेणेमा । प्रभार दधौ हु भृ धारणपोषणयालिट् । ननु हमडामित्यातपवारणाविशेषत्वे किमाभा-विशेषणत्वं व्यवहारदर्शनात् ॥३६॥ भा. Wo-मध्यवर्सी महामेरु पर्वत को मणियों की ज्योति-शि से चमकते हुए आकाश मण्डल ने भगवान के आगे सुवर्णदण्डयुक्त मील छत्र की शोमा धारण की।३६॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पञ्चमः सर्गः। अगाह्यतः पांडुवनं समंतादुपर्यटत्या सुरसेनयाऽद्रेः ।। सजीवचित्रांकितमंदवायुचलोत्तरीयश्रियमावहत्या ॥३७॥ अगाहीत्यादि। अतः गस्मनः । अतः परति ! उनि लो । मनात, तिः । भरत्या अतीत्यटती तया गच्छत्या । सजीवचित्रांकितमंदवायुचलोत्तरीयश्रियं श्रीवेन सह वर्तत इति सजीवं तश्च तत् चित्रं च तथोक्तं सजीवचित्रेणांकित: सजीवचित्रां कित: मंदश्चासौ चायुश्च तथोक्त सजीवचित्रांकितश्चासौ मंदवायुश्च सजीवचित्रांकितमंदवायुः तेन यल तथोक्त सजीवचित्रांकितमंदवायुचलं च तत् उत्तरीयं च तथोक' तस्य श्रीः तयोक्ता त सचैतन्यचित्रलक्षितमंदमारुतचंचलसंव्यानलक्ष्मीम् । आवहत्या आयइतीत्यावहती तया विनत्या । सुरसेनया सुराणां सेना तया अमर्त्यपृतनया पांडुवनं पांडु च तत् वनं च तथोक्त तदापाचिपिन । अगाहि प्रावेशि गाहरु यिलोडने फर्मणि लुक। "इनशि" इत्यादिना जिट ":" इति तस्य टुक् । उत्प्रेक्षा ॥३७॥ भा० अ०-इसलिये पर्वत के ऊपर चारों ओर भ्रमण करती हुई तथा मन्द वायु से फड़फड़ाती हुई मूर्तिमती भङ्कित चादर को शोभा धारण करती हुई सुर-सेनाने पाण्डक घन में प्रवेश किया। ३७ । अनीकिनीमत्र बने समस्तां सुरद्रुमदायसुखे यथार्ह ॥ निवेशयन्पांडुशिलामवापत्पूर्वोत्तरस्यां दिशि तस्य जिष्णुः ॥३८॥ अनीकिनी मित्यादि । सुरष्टुमछायसुखे सुराणां द्रुमाः सुरदुमास्तेषां छाया सुरछमछायं अनञ्तत्पुरुषे "सेमाशायाशालासुरानिशा" इति स्त्रीनपुंसकशेषत्वान्नपुंसकत्यम् सुरद्रुमछायेन मुख तस्मिन्, कारणे कार्यस्योपचारात् कल्पवृक्षाणां तपःसीरपहेतौ। अप बने पाएकवने । समस्तो सकलां । अनीकिनी चमूम् 1 "पृतनाऽनीकिनी चमूः" इत्यमरः । यथाई अईमनतिक्रम्य यथाई यथायोग्य। निवेशयन निवेशयतीति निवेशयन् । जिष्णुः सुत्रामा। "जिष्णुलेवर्षभश्शक्रः" इत्यमरः । तस्य पांडकवनस्य । पूर्वोत्तरस्या पूर्वस्याश्च उत्तरस्याश्च यदिगंतराल सा पूर्वोत्तरा तस्यां । दिशि ककुभि ईशान्यदिशीत्यर्थः । स्थिता । पांडुशिला पांडुकम्वासी शिला च पांडुशिला तां भरतजिनेंद्राभिषकचितां पांडुकाभिव्यशिला। अवापत् अगमत माप्ल व्याप्ती लुइ । "सतिशास्ति" इत्यादिना अड्ः ॥३८॥ भा40-इन्द्रः कल्प वृक्ष की छाया से सुखद इस पापडक धन में सारी सेना को यथायोग्य स्थापित करते हुए ईशान दिशा में पाण्डु'क शिलाके समीप पहुँचे । ३८ । शतार्धमष्टाशतमुचलाया विशालतामुन्नतिमायतिं च ॥ क्रमेण यस्याः खलु योजनानि वदंति सर्वज्ञजिनेंद्रपादाः ॥३६॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । शतार्धमित्यादि । सर्वज्ञ जिनेंद्रपादाः सर्वे जानतीति सर्वशाः जिनानामिंद्रा जिनेंद्रशः जिनेंद्राश्च ते पादाश्च जिनेंद्रपादाः सर्वशाश्च ते जिनेंद्रपादाय तथोक्ताः सर्वज्ञजिनेश्वरपूज्याः तत्र भवान् भगवानिति शब्दो विबुधैः प्रयुज्यते "पूज्ये पादाविति नामांते राजा भट्टारको देव” इति हलायुधः । उज्वलायाः उद्भासमानायाः । यस्याः पांडुशिलायाः । विशालतां विशालस्य भावो विशालता तां विस्तारतां । उन्नतिं उत्सेधं । आयति च आयामं च । शतार्धं शतस्यार्धं शतार्थं पंचाशतमित्यर्थः । " अष्टाङ्" इत्यादेशः । शतं च । क्रमेण परिपाट्या | योजनानि । खलु स्फुटं । घदंति ब्रुवंति वद व्यक्तायां घाचि लट् । यथासंख्यालंकारः ॥३६॥ ܐ भा० २० -- सर्वेश जिनेन्द्र देव ते समुज्ज्वल तथा विशाल पाण्डुक शिक्षा की ऊँचाई पचास योजन और लम्बाई आठ सौ योजन की बतलायी है । ३६ । या किल्पेश परार्घ्यपीठमध्यस्थजैनासनरम्यमध्या ॥ सतोरणा रत्नमयांचा या समंगला शुक्तिसमाकृतिश्र ॥४०॥ आधेत्यादि । या पांडुशिया | आर्याच कल्पेश वरापीठमध्यस्थजेनासन रम्यमध्या aaaaa द्विकल्प आ आ "दिगाद्यगांशांच" इति भाचार्थे य प्रत्ययः । सौच atment की तयोरीशी पाध्ये व ते पीठे च परार्घ्यपीठे आद्विकल्पेशयेोः परार्ध्यपीठे तथोक परामरायायाश्रयमप्रियम्" इत्यमरः । मध्ये तिष्ठ. सीति मध्यस्थं मायद्विकल्पेशरापीठ यावस्थं तथोक्त' जिनस्येदं जैन जैन च तत् घासनं च जैनासनं आद्यद्विकल्पे शारापीठमध्यस्थं च तत् जेनासनं च तथोक तेन रम्यं सोक्त आद्यद्विकल्पेश परार्ध्य पीठमध्यस्थजेनावनरम्यमध्यं यस्यास्सा तथोक्ता अभिषेक मि युक्तयोः सौधर्मेशानेंद्रयोरनघेपी द्वयमव्यस्थित जिनेंद्र विष्ट र मनोहर मध्यप्रदेशा | सतोरणा तोरणेन सह वर्तत इति तथोक्ता मणितोरणसहिता । रनपयांचा रक्षविकारो रामयः रसमय: अंचलो यस्यास्सा तथोक्ता मणिमयाप्रमांगा। समंगला अष्टमंगलः सह वर्तत इति तथोका | शुक्तिसमाकृतिश्च शुक्त्या समा तथोक्ता शुक्तिसमा आकृतिर्यस्यास्सा तथा मुक्तास्फोटसमाकाराच आभास इत्युत्तरपदेनान्वयः ||४०| t भा० अ० – इन्द्र तथा ईशानेन्द्र के बहुमूल्य आसन के मध्यवर्ती श्रीजिनेन्द्र भगवान् के सिंहासन से सुन्दर है मध्यभाग जिसका ऐसी तोरणयुक्त रत्नमय अंचल वाली पाण्डुशिला मौकिक गुच्छ के समान शोभती थी। ४० । याचाच भासेऽमरकल्पितेन महाभिषेकोत्सव मंडपेन ॥ अनन्मणिस्तम्भसहस्रमुक्ता वितानचित्रध्वजभूषितेन ॥ ४१ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पञ्चमः सर्गः वेश्यादि । या व शिला । ज्वलन्मणिस्तंभ सहस्रमुकावितानचित्रध्वजभूषितेन स्थलवीति उपलतः मणिभिर्निर्मिता स्तंभा भणिस्तस्माः ज्वलंतश्च ये मणिस्तंभाच ज्वलन्मणिसभास्तेषां स तथोक उचलन्मणिस्तंभ सहस्र व मुक्काया विधानं तच चित्राणि च तानि ध्वजानि च चित्रध्वजानि तानि च तथोक्तानि ज्वलन्मणिस्तम्भसहस्रमुकावितानचित्रध्वजैर्भूषितस्तेन प्रस्फुरत्नस्तं महत्रण मौक्तिकचितानेन विविधकेतनेच मंडितेन । अमरकल्पितेन अमरेः कल्पितस्तेन निर्जरनिर्मितेन । महाभिषेकोत्सवमंडपेन मद्दांचासषभिषेध महाभिषेकस्तस्योत्सवस्तथोक्तः महाभिषेकोत्सवस्य मंडपस्तथोक्तस्तेन 1 माभिपयेद्धमंडपेन । आबभासे रराज मासृङ् दोनों लिट् ॥४१॥ म० अ० – देवताओं से रत्रे गये हजारों मणिमय स्तंभों पर मुक्ता की चाँदनी और चित्रित ध्वजाओं से समलंकृत महाभिषेक भण्डपसे पांडुक-शिला देदीप्यमान होने लगी । ४१ । अवलंबरहिते सुचिरं सुमेरुक्ष्माभृत्प्रदक्षिणकृतिश्रमभारशांत्यै || प्राप्तोष्टमिदुरिव पांडुवनं शिलैषा प्रादात्सुरेन्द्र नयनोसलपरा डहैम् ॥४२॥ ।। अभ्रं त्यादि । एषा इयं शिला पांडुशिला । अवलंवरहिते अवलंवेन रहितं तस्मिन् मधाररहिते । अयोनि । सुबिरं दीर्घकालं । सुमेरुक्ष्माभृत्प्रदक्षिणकृतिश्रमभारशांत्ये शेाभनेा मेरुः सुमेरुः क्ष्मां विभर्तीति क्ष्माभृत् सुमेरुश्वास क्ष्माभृच तथोक्तः प्रदक्षिणस्य कृतिः प्रदक्षिणकृतिः सुमेरुमाभृतः प्रदक्षिणकृतिस्तथोका तया जातश्रमस्तस्य शांतिः श्रमशांतिस्तस्यै मंदराचलप्रदक्षिणकरणजनितपरिश्रम पशमाय | सुरेंद्रनयनोत्ताल उत्पलानि तथोक्तानि सुराणामिद्रस्तस्य नयनानि तथेोक्तानि सुरेन्द्रनयनान्येव सुरेंद्रनयनात्पलानी पंड तस्य हर्षस्तथेोक्तस्तं त्रिदशाधीश नेत्रकुवलयदं वपरितार्थं । प्रादात् प्रायच्छत् ॥ डुदाञ् दाने हुड् ॥ ४२ ॥ भा० भ० - इस पाण्डुक-शिला ने निराधार आकाश में बहुत देर तक सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करने से उत्पन्न हुई थकावट को शान्त करने के लिए अमी के चन्द्रमा के समान इन्द्र के नेत्र-कमल- पुंजको आनन्दित किया । ४२ । इस्यद्दासकृत काव्यरक्षस्य टोकार्या सुबोधिन्यां भगवन्संनयनचर्णना नाम पंचमसर्वोऽयं समाप्तः ॥ ५ ॥ * इति पञ्चम सर्गः समाप्तम् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ षष्ठः सर्गः॥ अथामरेन्द्रेण गजेन्द्र तो जिनः स नीयमानः प्रतिपांडुकं महत् ।। निराकृतोग्रो मधुनेव मन्मथो नितंबमुच्चैः शुशुभे हाचलात ॥१॥ अधेत्यादि । अथ मंदानयनानंतरे । अमरेंद्रंण अमराणामिद्रस्तेन लेखमुख्येन । गजेंद्रतः गजानामिद्रो गजेंट: गजेशान् गजेंदतः ऐरावणात् । महत् पृथुलं । पांडुकं पांडुकधनं प्रति उद्दिश्य । नीयमान: नीयत इति नीयमानः प्राप्यमाणः। स जिनः मुनिसुनताहदीशः । मधुना वसंतेन “मधु शौद्र जले क्षीरे मर्थे पुष्परसे मधुः । दत्ये चैत्रे घप्तते च जीवाशाके मधुझुमे” इति विश्वः । हराचलात् हरस्याचलस्तथोक्तस्तस्मात् कैलासनगात् । गितंय तटं। नीयमानः प्राप्यमाणः। निराकृतोनः निरा क्रियतेस्म निराकतः पराभूत उग्रो रुद्रो येन सः पक्षे निराकृतो निधूत उग्रो रौद्ररसी येन सः तधोक्तः । “उमः शूद्रासुते क्षत्मारछोटे धोत्कोऽन्ययत्" इति विश्व: । मन्मथ इव मनो मथनातीति मन्मा इव । उच्चः अत्यंत । शुशुभे सभी शुभ दीप्तो लिट् । उत्प्रेक्षा ॥१॥ भा० अ०-इस के बाद इन्द्र द्वारा ऐरावत हाथी से विशाल पाण्टु बन में पहुचाए जाते हुए श्रीजिनेन्द्र भगवान कैलाश पर्वत के तट पर वसन्त ऋतु के द्वारा लाए गए तथा शिवजी का अपमान किए हुए कामदेव के समान अत्यन्त सोभने लगे ॥१॥ नगेन्द्रभालस्थलबडपट्टिकाशिलोपरिस्थापित एष जिष्णुना ॥ जिनार्भकः प्रोतपुरंदरोपलस्फुरन्मनीपामपुषदिवौकसां ॥२॥ नगेंद्रीत्यादि ।जिष्णुना :जयतीत्येवं शोला जिष्णुस्तेन पाकशासनेन । “भूजेः स्तुक" इति शीलार्थे स्लुक् प्रत्ययः । नगेन्द्रभालस्पलपद्धपट्टिकाशिलेम्परिस्थापितः नगानामिंद्र। नगेंद्र भालस्य पलं भालस्थलं नगेंद्रस्य भालसलं तथोक्त' पट्टिका इव पट्टिका नगेंद्रभालसले यद्धा तथोक्ता नगेंद्रभालस्थलयद्धा चासौ पट्टिका च तथोक्ता सा चासौ शिला व नरेंद्रभालस्थलबद्धपट्टिकाशिला तस्याः उपरि स्याप्यतेस्म स्थापितः नगेंद्रमालस्थलबद्धपट्टिकाशिलोपरि स्थापितः पर्वतनाथभालस्थलर चितपट्टबंधामपांडुकशिलोपरिष्टाशिवेशितः । पषः अयं । जिनाक: जिनचालकः । दिवौकसां दिवि ओक: स्थान येषां से विधोकसस्तेषां देवानां । प्रोतपुरधोपलस्फुरन्मनीषां प्रोयतेस्म प्रोतः पुरं वरतीति पुरंदरः "पुरंदरभगन्दरे" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ षष्टः सर्गः इत्यादिना साधुः । पुरंदररूपोपल: पुरंदरोपलः प्रोतश्चासौ पुरंदरोपलक्ष तथेोक्तः स्फुरतीति स्फुरती साचासौ मनीषा च स्फुरन्तीषा प्रोतपुरंदगेपल इति स्फुरन्मनीषा तथोक्ता तां संबद्ध नीलमितिभासमानबुद्धि | अपुषत् अतुपत् पुष पुष्ठौ लङ् ॥ उत्प्रेक्षा ॥२॥ भा० भ० - इन्द्र से कैलाश पर्वत के शिखर पर षद्धपट्टिका के समान पाण्डुका शिला पर प्रतिष्ठापित श्री जिनेन्द्र भगवान ने ऐसा सन्देह देवताओं के मन में उत्पन्न कर दिया कि यह शिला इन्द्रनील मणि से बिजड़ित हैं ॥ २ ॥ तरंगितज्योतिषि तच्छिलातले सरोजरागहि पत्रैरिविष्टरे || तरंगिताभ्वौ त्रिदिवौकसां सरस्यलिर्यथा कोकनदेऽशुभद्विभुः ॥३॥ तरंगितेत्यादि । तरंगितज्योतिषि तरंगस्सं जातोऽस्येति तरंगितं ज्योतिद्युतिर्यस्मिनि ति तरंगिरा ज्योतिस्तस्मिन् । "ज्योतिर्भयोतदृषि” इत्यमरः । तच्छिलातले सा चासौ शि ला च तच्छिला तस्याः स्थलं तच्छिशतले तस्मिन् । सरोजराग द्विपवैरिविष्टरे सरोजस्ये. व रागोऽरुण तिर्यस्य सः सरोजरागः द्वाभ्यां पिवतीति द्विपास्तेषां वैरिणो द्विपवैरिणस्तधृतं विष्टरं द्विपविष्टरं सरोजरागेण निर्मितं द्विपत्रैरिविटर तथोक्त' तस्मिन् पद्मरागमणिनिर्मित सिंहासने । विभुः निषण्णोऽर्हत्प्रभुः । तरंगितां तरंगा संजाता अस्मिनिति तरंगित तरंगितमं यस्मिन् तत् तरंगतांबु तस्मिन् संजाततरंगोदके । त्रिदिवौकसां त्रिदिव एव वाकः येषां ते त्रिदिवौकसां देवानां । सरसि सरस्यां । कोकनदे कोत्पले । "अथ रक्तल रोहे रक्तोत्पलं कोकनदम्" इत्यमरः । अलिः भ्रमः । यथा येन प्रकारेण तथा । अशुभ शुभ दीप्तो लुङ् । “द्युम्यो लुडः" इति तिप् " सर्तिशास्ति इत्यादिना अङ् ॥ ३ ॥ भा० भ० - प्रदीप्त ज्योतिबाली उस पाण्डुक-शिला पर पद्मरागमणि से विजड़ित सिंहासन पर बैठे हुए श्रोजिनेन्द्र भगवान तरंगित जलवाली देव-गंगा में रक्त-कमल पर बैठे हुए भ्रमर के समान शोभने लगे ॥ ३ ॥ जिनेश्वरः पांडुशिलाप्रभांतरे रराज माणिक्यमयासने स्थितः ॥ हरियेथा विद्रुमरागरंजिते फणीन्द्रभोगे कलशावांतरे ॥४॥ जिनेश्वर इत्यादि । पांडुशिलाप्रमांतरे पांडुशिलायाः प्रभाः तासामंतर पांडुशिला प्रभातरं तस्मिन् पांडुशिला फिरणमध्ये | माणिक्यमयासने माणिक्यस्य विकार: माणिक्यमयं तच्च तत् आसनं च माणिक्यमपासनं तस्मिन् रक्षमय सिंहासने । स्थितः तिष्ठतिस्म स्थितः । जिनेश्वरः । कलशार्णषांतरे कलशमयोऽर्णवः कलशार्णचस्तस्मिन् क्षीरसमुद्रमध्ये | “मंथोदधिस्तु क्षीराब्धिः क्षीरोदः कलशोदधिः" इति वैजयंती | विद्रुमरागरंजिते विद्रुमल्य रहगः विद्रुमरागः विद्रुमरागेण रंजितस्तस्मिन् प्रघालवणंरंजिते समुद्रांतस्थितत्वादुखि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । ११४ समिदं विशेषणं । फणीन्द्रमोगे फणीनामिंद्रस्तथोक्तः फणींद्रस्य भोग: फणींद्रभोगस्तस्मिन् महाशेषशरीरे। “भोगः सुख्खे स्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः" इत्यमरः । हरि: मारायणः । यथा तथा । रराज बभौ । राजु दीप्ती लिट् ॥ ४॥ मा० ०-पाण्डुकशिला की किरणों के बीच में मणिमय सिंहासन पर विराजमान श्रीगि भगया। क्षारामु की ललिता से प्रतिफलित ई सर्पराज की देद पर विष्णु के समान सोमने लगे ॥ ४॥ जिनेन्द्रपांडोर्मणिपीठरश्मिभिः प्रवेणितः कांतिरयो व्यराजत ॥ यथा निमज्जवनितांगकुंकुमद्रबैजलौघो नमुनात्रिमार्गयोः ॥५॥ जिनेंद्रेत्यादि । जिनेंद्रपाडोः जिनानामिंद्रस्तथोक्तः जिनेंद्रश्च पांडुश्च जिनेंद्रपांडू तयोः - जिनेश्वरपाशिलयोः । कांतिरयः कांतीनां रयः कांतिरयः किरणप्रयाइः । "गोध: प्रवाहो वेणो त्र धारा स्रोतो रयः स्मृतः" इति हलायुधः । मणिपीठरश्मिभिः मणिभिनिर्मित पीठं तथोक्त मणिपीठस्य रश्मयो मणिपीठरश्मयस्तैः रत्नसिंहासनकांतिभिः । प्रवेणितः प्रवेण्यतेस्म प्रोणितः जटिलितः। यमुनात्रिमार्गयोः यो मार्गा यस्याल्सा त्रिमार्गा यमुना पत्रिमार्गा व यमुनात्रिमार्गे तयोः यमुनानहीगंगानयोः । "धर्मद्रवी त्रिमार्गाच" इति. जयंती । जलोधः जलानामोधस्तधोक्त जलप्रवाहः" मोघो वृदेऽम्ममा रथे" इत्यमरः । निमजवनितांगकुंकुमद्रवः निमज्जतिरूम निमज्जंत्यः निमनत्यश्च ता: वनिताश्च तथोक्ताः तासामंगानि निमजदनितांगानि तेषां कुंकुम तथोक्त निमजबुनितांगकुंकुमस्य द्रघाः निमजवनितांगकुंकुम वास्तैः । प्रवेणितः । तथा । व्यराजत व्यभासत राज दीप्तौ लङ ४ ५ ॥ भा० १०--श्रीजिनेन्द्र भगवान और पाण्ड क शिला का प्रभापुत्र रत्नखचित सिंहासन . की कान्ति से मिल कर स्नान करती हुई ललनामों के कुंकुम से मिश्रित गंगा और जमुना के प्रवाह के समान लोभने लगे ॥५॥ बभौ नगेंद्रः प्रभुपीठपांडुकप्रभावितानैः परितस्तिरोहितः ॥ यथैव तापात्ययसांध्यशारदैर्घनाघनौधैर्युगपत्समावृतः ॥ ६ ॥ बभावित्यादि । प्रभुपीठपांडुकप्रभाषितानः प्रभुश्व पोटं च पांडकश्च प्रभुपीठपांडुकास्तेषां प्रभाः तधोकाः प्रभुगोठपांडुकप्रमाणां वितानानि प्रभुपीठपांडकप्रभावितानानि ते जिने भवरसिंहासनपांडुकशिलाकांतिसमवायः। "वितानो यशविस्तारोलोचेषुक्रतुकर्मणि सभेधाव सरयोचिताने तुादयोः" इति विश्वः । परितः समंतात् । तिरोहितः तिरोह्यतेस्म तिरोहितः पिहितः । नगेनः महामेषः । तापात्ययसाध्यशारद तापस्यात्ययत्तापात्ययः सापत्ययस्याय तापात्ययः संध्यायाः वयं सांध्यः शरदः अयं शारदः सापात्ययश्च Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टः सर्गः सांध्यश्च शारदश्च तापास्ययसांध्यशारदास्तः वर्षाकालसंध्याकालशरस्कालसंबंधः । धनाधनौधैः घनाघनानाशधा घनाधनोपास्तैः मेघसमूहः। “धनाघनो यनो मेघः इतिधनंजयः । जिनेश्वरपीठपांडुकशिलानां यथाक्रम कृष्ण फणश्वेतवर्णत्वात् तापात्ययसांध्यशारदमेघवेएितत्वं । युगपत् सकृत् । संवृतः संत्रियतेस्म संवृतः वेष्ठितः ।यथैध तथैव । बभौ मा दीप्ती लिट् ॥६॥ ___ भा० अ०–श्रीजिनेन्द्र भगवान, सिंहामने तथा पाण्डुक शिला की प्रभा से चारो ओर से भाच्छादित सुमेरु पर्वत एक ही समय में वर्षा, संध्या तथा शरत्कालीन मेवों से परि वेष्ठित सा सोभने लगा ॥६॥ अथेद्रवाचा मणिदंडभूद्विभुं दिक्षयोपव्रजतो मुहुर्मुहुः ॥ धनी दिगीशान्सपरिच्छदान हठान्निज निज स्थापयदाशु धामनि ॥७॥ अथेत्यादि । अथ अनंतरे । इंद्रनाचा 'दस्य याक् द्रियाक तथा देवेशवचनेन । मणि. दंडभृत् मणिभिर्निर्मितो दंडस्तथोक्तः मजिदंडं विभीति मणिदंडभृत् रत्नदंडधरः। धमी धनमस्यास्तीति धनी कुबेरः । विभं जिनेश्वरं । दिक्षया दृष्टुमिच्छा दिदशा तया दर्शनेच्छया! मुहर्मुहुः पुनः पुनः। उपत्रातः उपप्रतीत्युपयजंतस्तान् समीपं गच्छतः । सरियदान परिच्छदेन स६ घर्तन्त इति सपरिच्छदास्तान परिवार सहितान् । दिगीशान दिशामीशा दि. गीशास्तान दिपालकान हठात् बलात्कारात् । “प्रसमस्तु बलात्कारी हठः” इत्यमरः । निजे निजे स्वकीये । बीपलायामिति विर्भावः । धामनि स्थाने। भाशु शीघ्र । अस्थापयत् . अतिष्ठपत् ॥ ७॥ भा- 40 --स के बाद इन्द्र की शशानुसार रत्नमय एडधारी कुबेर ने जिनेन्द्र भगवान को देखने की इच्छा से घार पार समीप में आते हुए सपरिवार दिक्पालों को हठात् अपने २ यथोचित स्थान पर बैठाया ॥७॥ जिनाभिषेकाय सुरांगनाजनं सुरप्रतानं सुरनायकानपि ॥ अशेषकृत्यं जिनभक्तिभावितान्यथाहमग्राहयदेष कृत्यवित् ॥८॥ जिनाभिषेकायेत्यादि । त्यवित् कृत्यं वेत्तीति कृत्यवित् कार्यवेदी। एषः धनदः । जिनाभिषेकाय जिगस्याभिषेको जिनाभिषेकस्तस्मै जिनाभिषेकनिमित्तं । सुरांगनाजनं सुराणामगनाः सुरांगनास्ता पर जनः सुरांगनाजमस्तं सुरनोलोक । सुरमतानं सुराणा प्रतान तथोक्त देवसमूह । जिनभक्तिभाधितान् जिनस्य भक्तिः तथोक्ता भाज्यतेस्म भाविता जिनभवत्या गावितास्तथोक्तास्तान जिनेशगुणानुरागसंस्कृतान । सुरनायकानपि सुराणां Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । नायकास्सुरनायकास्तान् शेषसुरेंद्रानपि । अशेषकत्यं अशेष च तत् कृत्यं च अशोषकृत्य समस्तकार्य । यथाई अईमनतिकम्य यथाहं यथायोग्यं । अग्राहयत् अस्वीकारयत् ग्रह उपादाने णित्रंतालङ् ॥ ८॥ मा० १० -कार्य-विचक्षणा कुधेर ने जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के लिये जिन-भक्तिलीन देवंगमाओं, देवताओं तथा वशिष्ट सुरेन्द्रों से न्यान्य समस्त कृत्यों का यथायोग्य सम्पादन कराया nea अनंतरं दक्षिणवामभागयोर्जिनस्य पूर्वाभिमुखस्य सुस्थिते ॥ शचीपतीशानपती ससंभ्रमौ निजासने सम्मुखमध्यरोहताम् ॥६॥ अनंतर मित्यादि । अनंतरं पश्चात् । ससंभ्रमौ संभ्रमेण सह क्र्तेते इति ससंभ्रमौ संप्रमसहितौ । शचीपतीशानपत्ती शच्याः पतिः शचीपमिः ईशानस्य पतिः ईशानपतिः शचीपतिव ईशानपतिश्च शचीपतीशानपती सौधर्मेशानेंद्रौ। पूर्वाभिमुखस्य पूर्वस्याभिमुखं यस्य सः तस्य पूर्वदिसमस्य। जिलेशस्य जिनेप्रवरस्य। दक्षिणवामभागयोः दक्षिणश्च धामश्च पक्षिणधामौ तौ च सौ भागौ च दक्षिणवामभागी तयाः दक्षिणवामपार्श्वयोः। सुस्थिते संतिष्ठतेस्म सुस्थिते । निजासने निजयोरासने पुनस्ते स्वकीयासने । सम्मुख मियोऽभिमुख यया तथा । अध्यरोहतां आरुढी रूह बीज जन्मनि लङ् ॥ ६ ॥ मा0-इसके बाद मौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र पूर्वाभिमुस्त्रस्य श्रीजिनेन्द्र भगवान के सामने दाहिनी और बाई ओर लगे हुए अपने २ आसम पर बैठ गए ॥ ३ ॥ अनेकतीर्थोपहतैरथाम्बुभिः घटोइतरनापयितुं जिनामकं ॥ यदारभेतेस्म मुदा सुरानकस्तवाप्सरोगीतरवाप्तदिक्तटं ॥३०॥ अनेकेत्यादि । अथ निजासनारोहणानंतरे। अनेकतीर्थोपहतैः म एकान्यनेकानि मनेकानि च तानि तीर्थानि च तथोक्तानि उपहियंतेस्म उपहृतानि अनेकतीर्थैः उपहलागि तः। घटोच तैः उद्धियंतेस्म उद्ध तामि घट। उद्धतानि घटोद्ध तानि तेः कलश भितः। अंबुभिः सलिलैः। जिनार्भक जिनचासो गर्भकश्न जिगार्भकस्त जिनचालक। नापयितु अभिषेनयितुं । यदा यस्मिन्काले यदा । सुरान कस्तपाप्सरोगीतरयाप्तदितट आनकाश्च स्तवाश्च आनकस्तवाः सुराणामानकस्तवास्तथोक्ताः अप्सरसांगीतानि तथोक्तानि सुरानकस्तवाप्सरोगीतानि तेषां रवात दिक्तद यस्मिन्कर्मणितत् तथोक्त देवटुंभिदेवस्तोत्रवेषगणिकासंगीतध्वनिभिः व्याप्तदिगंतराल यथा भवति तथा । मुना संतोषेण । भारेभेतेस्मा पनि रामस्ये लट् "स्मे च लट्” इति स्मयोगे भूतार्थे लट् ॥१०॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وام षष्ठः सर्गः। मा० - अनन्तर अनेक तीर्थो से लाये गये जल से परिपूर्ण कलसों से श्रीजिनेन्द्र बालक को मभिषेक कराना उन दोनों ने देवदुन्दुभि, स्तुति तथा अप्सराओं को गीतध्वनि यों से दिशामों को परिपूर्ण करते हुए प्रसन्नता-पूर्वक भारंभ किया ॥ १० ॥ तदा ऋभूणामुभयी घटा घटैः पयांसि नेतुं घटिता प्रयत्नतः ।। सुमेरुचूलादिसुधार्णवावधिप्रबहनीलोपलतीर्थपद्धतिः॥११॥ तदेत्यादि । तदा तत्समये । घटः कनककलशैः ।पयांसि क्षीराणि “पयः क्षीरं पयोंऽनुव" इत्यमरः। नेतुं पादातुं । सुमेरुचूलादिसुधार्णधावधिप्रवद्धनीलोपलतीर्थपद्धतिः सुमेरोश्चूला मादिस्मिन् कर्मणि तत् सुधारूपोऽर्णधः सुधार्थवः स पवाधिर्यस्मिन् कर्मणि तत् तीर्थस्यपद्धतिः तथोक्ता नीलाच ते पलाश्च नीलोपलाः प्रसध्यतेस्म प्रबद्धा नीलोपले निर्मिता तीर्थपद्धतिः तथोक्ता "तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोधायोपाध्यायमन्त्रिप। अवतारपिंजुष्टाम्भः स्त्रीरज:सुप विश्रुतम्" इति विश्वः । प्रयध्यतेस्म प्रबड़ा सुमेरुयूलादिसुधार्णधावधिप्रबद्धा नीलो. पलपद्धतिर्यस्यास्सा तथोक्ता मेरुगिरिचलिकाप्रभृतिक्षीराब्धिपयंतरचितेंद्रनीलमणिसो. पानमायती 1 भूणां निर्जराणां "वादित्या ऋभधाऽस्थानाः" इत्यमरः । उभयी उभाषवयवावस्या इत्युभयो द्विप्रकारा । घटा घटना। "घटः कुंभे समाधौ च घटा तु गजसंहतो। घटनायां च गोष्ठयां च" इति नानाथरतमालायां । प्रत्यक्षतः प्रकृष्टो यनः प्रयत्नस्तस्मात् प्रयत्नतः । घरिता घट्यतेस्म घरिता रचिता तदा । ऋभूणामित्यत्र "पदै तु संहिता नित्या सैव वाषये विकल्पते" इति वचनाम्नसंधिः कृतः ॥ ११ ॥ ___ मा० अ०-उस सस्य सुमेरु पर्वत से लेकर क्षोरसमुद्र तक नीलरत्न जटित सोपानमार्ग से आती हुई विविध देवमण्डली सुवर्णकलसों से अभिषेक जल लाने के लिये प्रयत्नपूर्वक संघटित हुई ॥ ११ ॥ बभुव॑जतो मणिकुंभधारिण: सुधाशिनः पांडुवनात्पयोवनं ॥ जिनेन्द्रभक्त्या जलनीतये स्वयं प्रवृत्तपात्रांगसुरद्रुमा इब ।।१२।। पभुरित्यादि । पांडुवनात् पांडु च तत् वनं च पांडवनं तस्मात् । पयोधनं पयसो यन पयोवन "दुग्धाब्धिप्रवणप्रवासनिवासवारिकांतारेषु वनम्" इति नानार्थकोशे। बजतः मजतीति बजतः गच्छतः । मणिकुंभधारिणः मणिमिनिर्मिताः कुंभा मणिकुंभा मणिकुंमान् धरतीत्येचं शीलास्तथोक्ताः । सुधाशिनः सुधामनन्तीति सुधाशिनः देवाः । जिनेंद्रभक्त या जिनेंद्र कृता भक्तिर्जिनेंद्रभक्तिस्तथा । स्वयं । जलनीतये जलस्य मथन जलनीतिस्तस्यै सलिलानथनाय । प्रवृत्तपात्रांगापुरद्रुमा इच पात्रायंगेषु येषां ते तथोक्ताः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । ११८ सुराणां द्रुमारुसुरद्रुमाः पात्रांगाच ते सुरमाश्च तथोक्ताः प्रवृत्ताय ते पागसुरद्रुमाश्च तथोक्ताः प्रवृत्तपत्रांगकल्पवृक्षा इव । बभुः रेजिरे भा दोनों लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ १२ ॥ भा० अ० - पाण्डु चनसे क्षीर समुद्र तक चक्कर काटते हुए तथा मणिमय कलश लिये देवताए' जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से स्वयं जल लाने के लिये पंचाग कल्पवृक्ष के समान सोभते थे ॥ १२ ॥ भुवा च भीत्या भिदुरात्मकं सुराः स्वभावतो यक्ष मुखैर्विवर्जितम् ॥ विशालमाद्यंतविदूरमद्भुतं गभीरमापुरत्वरया पयोनिधिम् ॥ १३ ॥ भुवेत्यादि । भुवा भूम्या । भीरया न तेरियामा यस्य सः भिरात्मकस्तं वज्रमयं "कुलिशं भिदुरं पवि: " इत्यमरः । स्वभावतः स्वस्य भाषस्तस्मात् । व्यक्षमुखैः अक्षे येषां ते व्यशास्त एव मुखमादिर्येषां ते व्यक्ष नुस्खास्तैः श्रीन्द्रियादिप्राणिभिः “अक्षः कर्षे तुषे चक शकटे व्यवहारयेोः । आत्म पाशके चाक्ष त्यसौवर्चलेंद्रिये इति विश्वः । विवर्जितं विरहितं निर्जंतुकत्वात्परिशुद्धमित्यर्थः । विशाल विस्तीर्णं । आद्य तविदूरं आदि अंत आद्यतो ताभ्यां विदूरस्तं यवादिनिधनमित्यर्थः ' अद्भुत आश्चर्यभूत । गभीरं अगाध । पयोनिधि पयांसि विधीयतेऽस्मिन्निति पयोनिधिस्तं सुधोदधि । स्वरया शीघ्रण "संभ्रमस्त्वरा" इत्यमरः । भापुः ययुः आप्लु व्याप्तौ लिट् । जातिः ॥१३॥ J भ० अ० - ये ( देवताए ) स्त्रभाव ही से द्वीन्द्रिय जीवों से रहित, अनादि निधन भूमि और वैरिका से वज्रमय अद्भुत तथा अगाध सुत्रासमुद्र को शीघ्र माये ॥ १३ ॥ निपीड्य लक्ष्मीमपहृत्य चकिरे ठकाः स्वकं जीवनमात्रशेषकं ॥ श्रपीदमायांत्यपहर्तुमित्यगादपांनिधिर्वेपथुमूर्मिर्भिन तु ॥ १४ ॥ निपीयेत्यादि । टका: कार्यटो थिचारवः । निपीड्य निपीडनं पूर्व पश्चात्किचिदिति बाधित्वा मथित्वेत्यर्थः । लक्ष्मी कमलां । अपहृत्य अपहरणं पूर्व पश्चात्किञ्चिदिति स्वीकृत्य । एकं कुत्सितः स्वः स्वस्तं निकृष्टमात्मानं "कुटिलताल्पाशात" इति क प्रत्ययः । जीवनमात्रशेषक जीवनमेव जीवनमात्रं प्राणमात्रमुदकमात्रं वा तदेव शेषमवशिष्ट यस्य सं "जीवन चर्तने नीरे पुत्रजीघे तु जीवनः" इति विश्यः । चकिरे विदधिरे हुक करणे लिट् । इदमपि जीवनमात्रमषि अपहर्तु ग्रहीतु भयांति आगच्छति या प्रापणे लट् । इति एवं भयादिति शेषः । अपनिधिः समुद्रः । “तत्पुरुषे कृतिबहुलम्" इत्यश्लुक् । बेपथुम् कंपनं । टवेट कंपने इति धातो: “दुडितोऽथ की इतिकर्तर्यथुः प्रत्ययः । अगात् अगमत् । इणू गौ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। लुङ्ग श्योः" इति गादेशः । ऊर्मिभिस्तु तरंगैस्तु वेपथु' मागात् । अपाय: ॥१४॥ भा० अ०-धूर्ती ने मथ तथा लक्ष्मी निकाल कर इसका जलमात्र अपशिष्ट रख छोड़ा है, इसे भी देवतालोग अपहरण करने के लिये मानों पा रहे हैं, इसी भय से तरंगों के द्वारा समुद्र कापत हो रहा ॥ ५० ॥ मरुत्सु कुंभान्युगपत्तिपत्रवलं जलाय संक्षोममिषेण सागरः ॥ जिनोत्सवार्होऽहमभूवमित्यभून्मुदा समुन्मेषित एष केवलं ॥१५॥ मक्षस्वित्यादि । मरुत्सु देवेषु "गरुतौ पचनामरौं" इत्यमरः । जलाय उनकाय । कुभान, कलशान् । युगपत् सत् । अलं भृशम् । “अल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्" इस्यमरः । क्षिपत्सु सत्सु "यद्भावोभावलक्षणम्” इति सप्तमी । सागरः पयोनिभिः । संक्षोममिपेण संक्षोभ पब मिषं तेन चलनव्याजेन "मिर्ष गजनिमीलनम्" त्यभिधानात् । पथः अयं । जिनोत्सवाई: जिनस्य पत्तवः तथोक्त: जिनोत्सवस्य महः जिनोत्सबाई: झिमजन्माभिषेकोत्सवयोग्यः । अभूर्व अभयं भू सत्तायां लुङ् । केवलं परं। मुषा संतोषेण । समुन्मेषितः प्रवृद्धः अभूत् भू सत्तायां लुङ ॥१५॥ मा०म०--जल भरने के लिये देवताओं के घर-क्षेपण करने से मैं जिन भगवान के उत्सव का योग्य हुभा इस व्याज से समुद्र प्रसन्नता पूर्वक बढ़ने लगा ॥१५॥ विनिन्युरेकं मुखयोजनं घटैर्दधभिरष्टोदरयोजनानि च ॥ जेलानि सर्वाण्यपि दुग्धवारिधेः स्वकेन मार्गेण धराधरं सुराः ॥१६॥ विनिम्युरित्यादि । सुगः देवाः । एकमुखयोजन एक मुस्वस्य योजने तथोषतं । अष्टोदरयोजनानि उदरस्य योजनामि उदयोजनानि भष्ट च तान्युदरयोजमामि च तथोक्तानि पुनस्तामि । धनुभिः घरदिः । घटेः कलशः । दुग्धवारिधः पारोणि धीयते अस्मिन्निति धारिधिः दुग्धरूपी वारिधिश्व तथोक्तः तस्मात् । सर्वापयपि सकलान्यपि । जलागि सलिलानि । स्वकेन स्वकीयेन । मार्गेण पथा आकाशमार्गेणेत्यर्थः । धराधरं धरा धरतीति धराधरस्त महामेरुपर्वतं । चिनिन्युः प्रापयतिस्म को प्रापणे लिट् ॥१६॥ भा० भ०--एक योजन चौड़े मुंह तथा आठ योजन चौड़े पैदेवाले घटों के द्वारा देवताओं ने झीर-समुद्र का जल अपने आकाश मार्ग से सुमेरु पर्वत पर पहुंचाया ॥१६॥ जिनोऽयमक्षीणमहानसर्धिभाग्भविष्यतीत्यस्य विवक्षया रफुट ।। वितीर्णमप्यम्बुधिना पयोऽखिल जिनाधिपायाक्षयतामयात्पुनः ॥१७॥ जिन इत्यादि । भयं एषः । जिनः दुर्जयकर्मठकारातीन् जयतीति जिम: जिननायः मक्षी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुनतकाव्यम् । १२० णमहामसर्धिभाकक्षीयतेस्म क्षीणं न क्षीणमझीया प्रक्षीणं महानसं यस्यास्सा तथोक्ता अक्षीणमहानसा चासो ऋद्धिश्च तथोक्का अक्षीणमहानसधिं भजतिस्मेत्यक्षीणमहामसर्धिभार भज सेवायामितिधातोः "विपभज" इति विणप्रत्ययस्तस्य लोपो दीर्घश्च । भविष्यतीति जमिष्यत इति । अस्य अर्थस्य । स्फुट व्यक्त । विवक्षया वक्तुमिच्छा विषक्षा तथा उच्चरितु वांछया घच परिभाषणे इति धातोहसनंतात स्त्रीलिंगे अल्पर य । जिनाधिपाय जिनचा मायश्रियस्तस्मै अहंदीशि । अंबुधिना अनि धीयतेऽस्मिन्नित्यंबुधिस्तेन क्षीरवारिधिना । अस्त्रिलं समस्त । पयः क्षीरं । वितीर्णमपि प्रदसमपि। पुन: भूयः । अक्षयतां ने क्षयः अक्षयस्तस्य भावोऽक्षयता तां अन्यूनत्वं । आयात् मागच्छत् या प्रापणे ९ ॥१७॥ मा० अ-यद जिमेन्द्र भगवान् अक्षय धन-धान्य-समृद्धिशाली होंगे इसी कारण से समुद्र ने जितने जल समर्पित किये थे उनकी पूर्ति फिर हो गयी ॥ १७ ॥ अथामरेद्रौ सुरवृदढौकितान्भुजैरनेकैविकृतैः पयोघटान् ॥ विधृत्य जन्माभिषवं विधित्सया सुनिर्भलस्यापि जिनस्य चक्रतुः ।। १८८ अथेत्यादि । अथ अलानयनानंतरे। अमरेन्दौ सौधर्मेशानेंद्रौ । विकृतः विक्रियतेस्म धिकृतास्तः विक्रियाशक्तिकृतः । अनेकः समस्तः । भुजे. बाहुभिः। सुरवहौकितान् सुराणां दतथोक्त' ढोकतेस्म दौकिता:सुरवृदेन दौकिता: सुरवृदढरैकितास्तान सुरसमूहेनानीतान् । पयोघटान् पयसा पूर्णा घटाः पयाघटात्तान क्षौर कलशान् । विधृत्य धृत्वा । सुनिर्मलस्थायि मलानिर्गतो निर्मल: सुष्टु निर्मलः सुनिर्मलस्तम्य निर्गनकतमनस्यापि । मिनस्य जिनेश्वरस्य जन्माभिषयं जन्मनोऽभिषयो जम्माभिषवस्त जन्माभिषेक । विधीच्छया विधरिच्छा विधीच्छा तया। विधित्सेति पाठे विधातुमिच्छा विधित्सति सनंतः पातुमिच्छा तया । पक्रतुः विधतुः दुकृञ् करणे लिट् ॥ १८॥ मा० अ०-सौधर्म और ईशानेन्द्र ने देवताओं से समर्पित किये गये जलपूर्ण कल. सों को अपनी अनेक कल्पित भुजाओं से अत्यन्त स्वच्छ शरीरवाले भी जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक किया ॥ १८ ॥ सुवर्णगारुत्मतरूप्यकुंभिभि जासहरमाधिपावुभौ ॥ व्यराजतां पाकशलाटुपुष्पमिलतासहरिवकल्पशा खिनौ ॥१६॥ सुषणेत्यादि । उभौ अमराधिपो अपराणामधिपी सौधर्मेशानेंद्रो। सुवर्णगारमतकप्पक मिमिः सुवर्थ व गारुत्मतं च रूप्यं च तथोक्तानि तः निर्मिवानि कुभानि सेः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. षष्ठः सर्गः। लिण्यमरकतमणिरजतास्यकलशपदधिः गात्मतं मरकतमश्मी हरिमणिः" इत्यमरः । भुजासहन :भुजानां सहस्राणि भुजाममाणितः सहस्रबाहुभिः। "बाही पाणी भुजोवयो" इति नानारतमालायां । महाशखिनौ शाखास्संत्यनयोरिरात शाखिनी करो तो शानिमो च तथोक्तौ ऋलावृक्षाविया पाफशलादुपुरुषभिः पन्यतेस्म पाय: पारमूलेऽपिन्वाविकर्णादिभ्यः कुणुजाहलावित्यस्यार्थं विघृण्वता कौशिककरण ग[क फलमित्युक्तं ततः फलमित्यर्थः । पाकश्च शलादुश्च पुष्पं च पाकश-आटुपुष्पाणि तानि संत्येषामिति पाकशलाटुपुष्पाणि तेः पक्कफलामलपुष्षसाहितः । "पाकश्शिशौ जरानिष्ठापचनले दनेषु च" इति विश्वः । "आमे फले शलाटुः स्यात्" इत्युभयत्राप्यमरः । लतासहस्रः लतानां सहस्राणि लतासानाणिते: सहस्रशाखिभिः । "लता ज्योतिष्मनी स्पृका शाखावतली प्रियंगुषु" इति विश्वः । व्यराजा भमातां राज दीप्ती लङ् ॥ उत्प्रेक्षा ॥१६॥ भा० अ० --ये दोनों सुवर्ण, मरकन मणि और चांदी के घड़ों से युक्त सहस्त्र भुजाओं से सुपक फल तथा मनोहर पुष्पों से लदी हुई हजारों लताओं से दो कल्पवृक्षों के समान शोमित हो रहे थे ॥ १६॥ शिशुश्च शैलश्च धृति परीक्षितुं ध्रुवं सुरेंद्रहितयेन बारिधेः॥ निषिच्यमानौ युगपत्सुधाजलेरभावभूतां समधैयसंपदौ ॥२०॥ शिशुरित्यादि । शिशुश्च जिनबालकः । शैलश्च महामेरुः । धृति धैर्य । “निर्धारणधैर्य. योः" इत्यमरः । ध्रुव निश्चलं । परीक्षणाय परीक्षितुं मोक्षानिमित्तं । सुरेंद्रद्वितयेन सुरेन्द्रयोदितयं सुरेंद्रद्धि तयं तन सोधर्मेशद्रयुगलेन 1 वारिधः क्षीरसमुद्रस्य। सुधाजलै: सुधामयानि जलागि सुधाजलानि तैः अमृतसलिलैः । युगपत् सकदेव । निषिच्यमानौ निषि येते इति निषिच्यमानौ "माङल" इत्यादिना कर्मणान; "भगाने ' इति मगाममः । उभी हो। समधैर्यसंपदी धैर्यस्य संपत् ययोस्तौ समानधृतियुक्तो। अभूतां अजनिषाता भूलसायां - भा० अ०- धैर्य और निश्चलता की परीक्षा करने के लिये क्षीरसमुद्र के अमृतमय जलके द्वारा दोनों इन्द्रों से स्नान कराये जाते हुए श्रीजिन बालक और पाण्ड क शिलाएक ही साथ समान धेर्य-सम्पत्ति-शाली से हुए ।। २० ।।। वहत्पयःपूरशतानि पांडुकात् बभुस्त्रिलोकैकगुरोजिनेशिनः ॥ भरेण भिन्नादभितो विनिरसरत्प्रभूतनिसरसप्रवाहवत् ॥२१॥ पहदित्यादि । पादुकात् पांडकोपलात् । वहत्यःपूरशतानि पयसां पूराः पयपूराः बईतीवि पतः यतश्च ते पयःपूराश्च तथोक्तास्तषां शतानि निर्गच्छत्क्षीरपुराताति. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाव्यम् । त्रिलोकैकगुरोः त्रयश्च लोकाश्च तथोक्ता: एकश्चासी गुरुश्व पक्रगुरुः त्रिलोकामामेकगुरुस्त्रिलोके कगुरुस्तस्य त्रिभुवनस्य मुख्यगुरोः । “गुनि कादिकर पित्रादौ सुरमत्रिणि । दुसर्जरालघनोः प्रोक्तो गुरुर्महति वाच्यवत्" इति विश्वः । जिनेशिनः जि ननाथस्य । भरण भारेण । भिभात भिनलिस्म मिन्नं तस्मात् । अभितः सर्वत: ! विनिरूलगत्प्रभवनिर्यास. रसप्रवाहवत् निर्यासस्य रसः निर्यासरसः तस्य प्रधाहस्तथोक्तः प्रभूतवासी निर्यास. रसप्रधाध तधाक्तः निस्सरतीनि निस्सरन् स चासौ प्रभूतनिर्यासरसप्रवाहन तथोक्तस्तद्वत् निगच्छत्यभूतनिर्यासरसप्रबाह इव “निर्यासस्स्यादाम्रमरसः वपुरो घेष्टकोलशः" इति विदग्धचूडामणौ। बभुः । रेजुः मा दिप्ती लिट ॥२२॥ मा० अ.-पाष्टक-शिला से प्रवाहित Bोते हुए सैकड़ो जल प्रवाह मानो त्रिभुवनपति श्रीजिनेन्द्र भगवान के बेझ से दबकर चारो तरफ से निकलती हुई आन-रसधारा के सदश मालूम होते थे ॥ २१ ॥ नगेंद्रसंपत्तिदिद्वक्षया ध्रुवं पयावाहाः परितोऽपि संभ्रमात् ॥ हटत्तटीशृंगशिलागुहासरोवनेषु पर्याटुग्नेकदा चिरं ॥२२॥ मगेंद्र त्यादि । पयःप्रवाहाः पयसा प्रवाहाः तथोक्काः क्षोरप्रवाहाः । नमोसंपत्तिदिवाया नगाना इंद्रो नगेंदस्तन्य संपत्तिः तश्योक्ता इष्टुमिच्छा दिक्षा नगेंद्रसंपतिविद्वक्षा तया महामेरोः संपई टुमिच्छया। हटत्तटीगशिलागुहासरोवनेषु तटी च शृंगं च शिला ष गुहा व सग्श्च वनं च तटोगशि लागुहासरोननानि हटतीति हदन्ति सति च तानि तोगशिलागुहासरोचनानि च तेषु रमणीयतया प्रस्फुरच्छिस्वर शिलागलर. सरोबरफाननेषु । परितोऽपि। संभ्रमात् संवेगात् "समौ संवेगसंभ्रमौ" इत्यमरः । मनेकधा अनेकेन प्रकारेण अनेकधा अनेकविधेन । निरं बहुसमयपर्यन्तम् । पर्यादः इसस्सतः परिजग्मुः। अट पसौ निट् ॥ २२ ॥ मा० अ०–जलधाराओं ने सुमेरु पर्वत की विभूति देखने की इच्छा से-नदी, शिखर, गिरिफन्दरा, तालाप तथा चने में चारों और बड़े वेग से देर तक चक्कर लगाया ॥२२॥ वहत्पयःपूरशतोऽभितो बभौ सुमेरुगच्छिद्य पतत्रयोयं ।। पुनश्च केनापि चरिष्यतीत्ययं गिरिद्विषा राजतरज्जुबद्धवत् ॥२३॥ : वहदित्यादि। गिरिद्विषा गिरीणां छिन् नयोक्तस्तेन देवेंद्र ण । पतभयोः पक्षयोः । द्वय युगलं । माध्छिय खंडित्वा । पुनश्च पश्चात् । अयं एषः पर्वतः। केनापि प्रकारेण । बरिष्यति गमिष्यति । राजनरलुराद्धवत् रजतस्येयं राजती राजती घासी रज्जुश्च राजतन्तः पश्यतेस्म बद्धः रजतरज्या बद्धस्तथोक्तम्स इय रूप्यक्रसरस्वो बस इथ। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः अभितः सर्वतः । बहरपयःपूरशतः पयसां पूराः पयःपूराः तेषां शतानि पयःपूशतानि घतिपयःपूरशतानि पहाडी ततः ! मुनेः महामेकः । सो विरराज। भा वीप्तौ लिट । प्रारिगरयः सपक्षाः शक्रवन परतो गोभिदा सपक्षच्छवमधः पातिता इति हि लौकिकोक्तिः स्तोत्र मुत्प्रेक्ष्यते ॥ २३ ॥ भाऊ -इन्द्र से दोनों पांख काटे जाने पर भी सुमेरु पर्वत शायद फिर से किसी तरह चलने लग जाय -- इस खयाल से इसे सैकड़ों जलधारा-रूपो राजतरजऊ से आषद्ध के समान सोभता था ॥२३॥ विरेजुरुन्मननिमग्नमूर्तयो मुहुर्मुहुर्योतिषलोकसंश्रिते॥ पयःप्रवाहे परितोऽपि तारका यथैव विस्पष्टविनष्टबुबुदाः ॥२४॥ विरजुरित्यादि । पयःप्रधाहे पयसां प्रवाहस्तथोक्तस्तस्मिन् । ज्योतिषलोक संश्रित ज्योतिषामयं ज्योतिषः स चासौ लोषश्च ज्योतिषलोकस्तं संश्रितस्तस्मिन्सनि । परितोऽपि सर्वतोऽधि | उन्मग्ननिम नमूर्तयः उन्मजतिस्म उन्मग्नाः निमन्तिम निमग्नाः उन्मनाश्च निमग्नाश्च तक्ताः उन्मन्ननिमग्नाः मूर्तयो या पो तास्तथोक्ता उन्नतांतर्गता. वयवाः । तारका नक्षत्राणि । "तारकाप्युरास्त्रियाम्" इत्यमरः । मुहमहुः पुनःपुगः । विस्पष्टविनष्टबुदबुदाः विस्पष्टाश्च विनष्टाच विस्पपविनष्टा: तेच वेधुदुखुदाश्च सथोक्ताः व्यक्ताव्यक्तजलधुवुदाः । यथैव येन प्रकारेज ! तथा सेनैव प्रकारेण ! रेनुः बभुः राज़ क्षीप्तो लिट् उत्प्रेक्षा ॥२४॥ मा० ४० इस जलप्रवाह के ज्योतिलोक में पहुंचने पर इसमें मनोन्मल होती हुई ताराये उगते और विनशते हुए जल चुदुद् के समान होखती थीं ॥२॥ निशाकराहस्करभार्गवासितैरलक्ष्यत क्षीरतरंगिणी क्षणं ॥ सिताब्जरक्तांबुजकैरवोत्पलैविराजमानेव वियत्तरंगिणी ॥२५॥ निशाकरेत्यादि । क्षीरतरंगिणी तरंगास्सत्यस्यामिति तरंगिणी क्षीरस्य तरंगिणी "नूदुक्” इत्यादिना की निशाकराहस्करभार्गवासितः निशां कगेतीति निशाकरः "दिवाविभानिशेत्यादिना" प्रष्टप्रत्ययः अहस्करोतीत्यहस्करः तेनैव सत्रण प्रत्ययः भृगौ भवो भार्गवः निशाकरन भार्गवश्च असितश्च निशाकराहस्करभार्गचासितास्तः चंद्र सूर्यशुक्रशनैश्चरः सितारतांबुजकरवोत्पलेः अप्सु जायत इत्यराज सितं च तत् पच सितारतं च तत अंबुजं च करवं च "सिते कुमुदकरवे" इत्यमरः उत्पलं च सितारारक्तांबुजकै रवोल्पलानि तैःश्येताश्वरक्तकमलसितोपलमीलोत्पलैः । विगतमामा विराजत इति विराजमाना "मालरेत्यादिना" आनश् प्रत्ययः “मगाने" इति मः धियत्तरंगिणीव Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १२४ वियती विद्यमाना तरंगिणी तथोक्ता सेय क्षण क्षणापर्यन्तम् । अलक्ष्यात अश्यत । लक्षिपर्शमांकनयोः कर्मणि लङ् । उत्प्रेक्षा यथासंख्या च ॥ २५ ॥ मा० म०-क्षीरमदी-लाल, काले, उसले कमल तथा कैरव से समाच्छादित होकर चन्द, सूर्य, शुक तथा शनिग्रह से परिवेष्टित देवनदी के समान कुछ क्षण तक सोभने लगी ॥२५॥ वहंति नानामणिमेदिनीप्रभाप्रबद्धदुग्धांषुधुनीशतान्यभुः ॥ सुरेंद्रभीताचलपालिनेऽब्धये नगाधिपक्षिप्तविचित्रवस्त्रवत् ॥२६॥ यहंतीत्यादि। वहंति बहुंतीति वहति स्रवति बहि प्रापणे इति धातोः शतृपत्ययः । नानामणिमेदिनीप्रभाप्रवद्धदुग्धांबुधुनीशतानि नानामगि मेदिनीप्रमाभिः प्रयध्यन्तेस्म प्रद्धामि तयोकानि दुरवरूपाण्यम्बूनि दुग्धाम्बूनि तेषां धुन्यः दुग्धायुधुन्यस्तासां शतानि तथोक्तानि नानामणिमेदिनीप्रभाप्रधद्धानि च तानि बुग्धाम्बुधुनीशतानि तथोक्तानि विविधालकांतिभिः रजिलक्षीरमीरनद्यनेकानि । सुरेंद्रभीताचलपालिने सुराणामिद्रः सुरेदः तस्माट्लीता सुरेंद्रभीतास्ते च ते अचलाश्च तथोक्ताः सुरेंद्रभीताचलान पालयतीत्येवं शील: पाली तथोक्तस्तस्मै गोत्रभिगोतपर्वतरक्षकाय । अब्धये मापो धीयतेऽस्मिन्नित्यधिस्तस्मै समुद्राय । नगाधिपक्षिप्तधिषित्रलगत् नगानामधिपस्तथोक्तः क्षिप्यतेस्म क्षिप्त नगाधिपेन क्षिप्त तथोक्त विचित्र व तस् घन' च विचित्रवस्त्र' नगाधिपक्षिम च तत् विचित्रवस्त्र' च तथोक्तं मगाधिपक्षिप्तयिचिवस्त्रमिव तथोक्त । माभुः व्याजन् । भा दीप्ती लङ । धाविषोर्जस्वा" इति विकल्पेन जुस् । उत्प्रेक्षा ॥ २६ ॥ ___ मा०प्र०--विविध मणिमय मेदिनी को प्रभा से प्रतिफलित सैकड़ों दुग्धरूप जल की नदियां इन्द्र से डरे हुए पर्वतों की रक्षा करने वाले समुद को पर्वतराज से दिये गये अपूर्व वस्त्र के समान सोभने लगीं ॥२६॥ महीभृता तेन तदोपधीकृताः पयस्तटिन्यो भुवनैकपालकं ॥ सुगोत्रलाबण्यनिवासमर्णव समेत्य वर्याः स्वमय व्यधु: क्षणात् ॥२७॥ महीभृतेत्यादि । तेन महोभृता महीं बिभर्तीति महीभृत् तेन राक्षा पर्वतेन वा। तदा तत्समये। उपधीकृताः प्रागनुपधा इक्षानीमुपाधाः क्रियतेस्म तथोक्ता: "उपायनमुपग्राह्य मुपधाचापि” इत्यमरः । पयस्तरिन्यः तटमस्त्यासामिति तटिन्यः पयसा सटिन्यस्तथोक्ताः क्षीरनयः । पर्याः विशिष्टाः पतिवराश्च पुरुषस्यवशीकरणचतुरा इत्यर्थः। "पतिबरा व अर्थाथ मुख्यथर्य वरेण्याच" इत्यमरः । भुवनेकपालक एकवासी पालकच एक. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठः सर्गः पालकः भुवनस्यै कपालको भुवनेकपालकस्त लेकस्य मुख्यरक्षक । सुगोपलावण्यनिवासं शोभनं गोत्र विशिष्टान्धयः पक्षे शोमगा गोत्राः सुगोत्राः महागिरयः सुगोत्र च सुगोत्राश्च लावण्यं सौरूप्यं लवणत्वं तच सुगोत्रलावण्यानि तेषां निवासस्त "मो मानि फुले क्षेत्रे कानने वित्तवर्मन संभाघनीयबोधेऽपि गोत्रः क्षोणिधर मतः। लावण्य वेहकांती च लघणत्वे च कथ्यते' इत्युभयत्राप्यभिधानात् । भर्ण बबुधि । समेत्य समयनं पूर्वपश्वास्किञ्चिदिति प्राप्य । क्षणात् महाकालात् । स्वमय स्वस्माभिन्न स्वस्वरूपं । व्यधः अकार्षः बुधानधारणे च लुङ् । श्लेषालंकारः ॥ २७ ॥ __भा० १०-उस समय मानों राजा से ( पर्चत से) भेंट को गयीं सुन्दर दुग्धमय नदियों ने संसार के एकमात्र रक्षक तथा उच्चवंशजों ( उत्तम पर्वतों) का सौन्दर्यस्थान समुद्र के पास जाकर तुरत्त उतै निजरूपमय बना डाला ॥२७॥ अथामरास्तीर्थजलैरसुरेश्वरद्वयेन सृष्टे जिनगंधवारिणि ।। पटीरकर्पूरनिषद्वराविलेऽप्यहो ममज्जुहूतपापकर्दमे ॥२८॥ अधेत्यादि। अथ अभिषचानंतरे। सुरेश्वरद्वयन सुराणामीश्वरौ तथोक्ती सुरे. श्वरयोस्य सुरेश्वरदयं तेन सौधर्मेशानेंद्रयुगलेन । तीर्थजलः तीर्थानि च तानि अलानि बतीर्थानां जलानि वा तीर्थजलानि तैः तीर्थसलिल स्प्रे सूज्यतेस्म सुपस्तम्मिन् एते। पटीरका पनिषद्वराविले पटीरश्च कर च तथोक्त पटीरकपूरयोनिषतरस्तथीतः । मिषवरस्तु जैघालः" इत्यमरः पटीरकपूर निषाद्वरेणाविलस्तथोक्तस्तस्मिन् 'कलुषोऽमच्छ बाधिलः" इत्यमरः श्रीगंधकपूरपकेन कलुषेऽपि । तपापकर्दमे हियतेस्म मृतः पापमेव कर्दमस्तयोक्तः हुनः पापकर्दमो येन सः तस्मिन् । जिनगंधवारिणि गंधेन युक्त पारि गंधवारि जिमस्य गंधवारि तथोक्त' तस्मिन् जिनपतिगंधोदके। ममः मज्जतिस्म दुमजा शुद्धौ लिट् | अहो अद्भतं ॥२८॥ ___ भा० ०-इस के याद दोनों इन्द्रो से तीर्थ जो हावा किये गये वचन तथा कपुरमय और पाएकापहारी श्रीजिनेन्द्र भगवान के सुगन्धित गन्धोदक में देवताओं ने गोते लगाये ॥२८॥ बभौ तरां पांडुकसंज्ञिका शिला समीपकीणैः स्नपनोदबिंदुभिः ॥ यथा शरच्चद्रकलोडुभिः श्रितैर्यथा च शुक्तिनवमौक्तिकैच्युतैः ॥२६॥ पभावित्यादि । पाडकसंक्षिका पांडुक इति संशा यस्बास्सा तधोक्ता । शिला दूषत् । समीपकीर्णैः समीपे कीर्णास्समीपकीर्णास्त: निकटे विकोणः । सपनावबिदुभिः सप. नस्योपकानि. "मग्योदनसक्त सिंदूजाविधवभारदारगाह" इत्युदादेशः । तेषां दियः Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । स्नपनोदविंदयस्तैः अभिषेकजलविन्दुभिः । श्रितः माश्रितः । उडुभिः नक्षत्रः । शरच्चंद्रकला शरदश्चप्रश्शरच्चंद्रस्तस्य कला तथोक्ता शरत्कालशशिकला । यथा । व्युतः च्यवतेस्म व्युतास्त:। पतिः । यहि पार भौतिकाच नधमौक्तिकास्त: नूतनमौक्तिकमणिभिः । शुक्तिः यथा तथा । वमी तरी प्रकृष्ट यभी बभौ सर्रा "द्वयोर्विभज्ये च सरप” इति तर “अध्ययेस्किम्" इत्यादिना चाम्भा दीप्तौ लिट् ॥२६॥ भा० अ०-नक्षत्रों से जिस प्रकार शारदी चन्द्रकला, तथा चारो तरफ पिण्डरे हुए नूतन मोतियों से जिस प्रकार शुक्तिका शोभा पाती है, उसी प्रकार समीप में पड़े हुए भाभिषेक-जल-बिन्दुओं से पाण्डक-शिला भी अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥२६॥ प्रमाऱ्या निर्मज्जनशीकरांस्तनी दूकूलचेलांचल पल्लवेन तत् ॥ शची विमुग्धा जगदेकवृद्धमप्यलंचकाराऽखिलबालभूषणः ॥३०॥ प्रमाज्येत्यादि । विमुग्धा विमूहा । शची इंद्राणी । दुकूलचेलांचलपल्लवेन मुकूल च तत् चेल च दुकूलचेलं तस्य अञ्चलः स एव पल्लवस्तेन । तनौ शरीरे। निर्मजनशिकरान् निर्मजनस्य शिकरास्तान अभिषेकजलकणान् । प्रमाय माजयित्वा । जगदेकवृद्ध' एकश्चासौ वृद्ध एकवृक्षः जगतामे कवृद्धस्तथोक्तस्तं जगतां मुख्यउत पयोधिक च। "बुध: पृद्धी पंडितेऽपि" इत्यमरः । तं जिनेशे। अखिलबालभूषणेः बालस्य भूषणानि बालभूषणानि मखिलानि च तानि बालभूषणानि च अखिलबालभूषणानि सेः। मलवकार अलंकरोसिस्म डुकृञ् करणे लिट् ॥३०॥ भा. १०-मोली भाली इन्द्राणी ने देह में छुटे हुए अभिषेक-जल कणों को चादर के अंचल से पोंछ कर संसार में एकमात्र ज्ञानवृद्ध श्रीजिनेन्द्र भगवान को बालोचित भूषणों से समलत किया ॥३०॥ निसर्गरंध्रः श्रुतिसंश्रयाम्यां रराज रत्तोपलकुंडलाभ्यां । जिनाधिपः पल्लवितद्विपाश्वों यथा रसाल: शिशिरात्ययस्य ॥३१॥ निसर्गेत्यादि । जिनाधिप: जिनेश्वरः। निसर्गरंधश्रुतिसंश्रयाभ्यां निसर्गेण रंधे व ते श्रुती च निसर्गरंधश्र ती ते एव संश्रयो ययोस्ते ताभ्यां स्थानाचिकछिद्र कर्णाश्रयाभ्यां। रक्तोपल कंडलाभ्यां रक्तश्वासायुपलश्च रक्तोपला रक्तोपलेन रचिते कुंखले ताभ्यां पनरागमणिनिर्मितकुंडलाभ्यां । शिशिरात्ययस्य मिशिरस्यात्ययः शिशिरात्ययस्तस्य पसंतकालमारंभस्य । पल्लवितद्विपायः पल्लधारसंजाला अमयोरिति पल्लविती हो तो पावों व विपायों पल्लवितो विपाश्चौं यस्यासौ तथोक्तः संजातपालन्युकोभयपाश्वः "संजाततारकादिभ्यः" इति त प्रत्ययः। रसाल: माकंदः "भाघ्रश्मूतोरसालाई Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः । सौ सहकारोऽतिसौरभ"इत्यमरः । यथा तथा । रराज बभौ राज दीप्तौ लिट् । रसालस्य पल्लवितद्विपार्श्वमा प्रत्वसमर्थनायव वसंतस्य शिशिरात्ययाभिधानग्रहणं । उत्प्रेक्षा ॥ ३१॥ भा० १०.-श्रीजिनेन्द्र भगवान स्वाभाविक छिद्रवाले दोनों कानों में लगे हुए पद्मरागमणि-निर्मित कर्णभूषणों से मानों वसन्त ऋतु में दोनों ओर से पालयित आम्रवृक्ष के समान सोभने लगे ॥सा हारस्य मुक्ता गलशंखमुक्ता इव प्रभोरंगमरीचिवश्याः ॥ उरस्कवाटीयमुनाहदांतर्वितेनिरे बुबुदपंक्तिलीलां ॥३२॥ हारस्येत्यादि । प्रमोः जिनाधिपस्य | गलशंखमुक्ताव गल एव शंखः गलशंख: मुच्यतेस्म मुक्ताः गलशंखेन मुक्ताः तथोक्ताः कंठकबुगलिता इव । अंगमरीचिवश्या: अंगस्य मरीचयः तथोक्ताः वशं गताः चश्याः । “पश्यपथ्यवयस्येत्यादिना" साधुः। अंगमरीचीमां पश्यास्तथोक्ता:शरीरस्थ कात्यधीनाः । हारस्य कंठाभरणस्य । मुक्ता: मौक्तिकानि । उर:कघाटीयमुनाहयांतः उरसः कत्राटी उरः कचाटी उर:कवाट्य व यमुना तथोक्ता उरः कवाटीयमुनाया दस्तस्थांत: उर:प्रदेशयमुनानदीहन्मध्ये। खुदपंक्तिलीला बुदबुदाना पंक्तिस्तथाका बुदधुपंक्तयाः लीला तथोक्ता तो चुदनुदराजिविलासं । बितेनिरे विस्तारपतिस्म तनु विस्तारे लिट् ॥ ३२ ॥ मा० अ०-श्रीजिनेन्द्र भगवान के कण्ठस.पी शख से अलग हुप तथा अंगों की चमक के अधीनस्थ हार के मोनियाँ मानों बक्षस्थल-रुपी यमुना के भीतर जल की बुद्बुद-लीला का दृश्य विचला रहे हैं। अर्थात् भगवान के श्याम शरीर में हार के मोतियों के दाने काली यमुना के जल-बुबुद से दीख पड़ते थे ॥३॥ महीधरे तव निषेधिवांसं तमालनीलाकृतिमुद्बहतम् ॥ पयोदबुध्या श्रितमिंद्रचापमसिस्मरद्रलमयः कलापः ॥३३॥ महीधर इत्यादि। रक्षमय: रस्नानां विकारो रत्नमयः । कलापः कटिसूत्रं । “कलापो भूषणे बाहें" इत्यमरः । तत्र तस्मिन् तत्र । महोधर पर्वते । निषेधिचांस निषेधति इति निषेधिषांसं स्थितवांस। तमाळनोलातिं तमाल व नीला तमालनीला सा चासायाकृतिश्च तमालनीलाकृतिस्तां तमालनीलबच्छ्यामाकार। उचहंत उदहतीत्युदहन त घरत । जिनेशं। पयोदबुद्धया पयोद इति बुद्धिः पयोदबुद्धिः तया मेघयुद्ध या । श्रित माश्रित । इन्द्रचाप इन्द्रस्य चामिप्रचापं सुरधनुः । असिस्मरत् चिंतयत् ध्ये स्म चिंताया गिताल्लुकू । उत्प्रेक्षा ॥ ३३॥ मा० म-रामय कटिभूषण ने उस पर्वत पर विराजमान तमालपक्ष के समान Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १२८ श्याम रंग के श्रीजिनेन्द्र भगवान को मेघ समझ कर उगे हुए इन्द्रचाप की याद दिलायी ॥३३॥ बालामृतांशोधूवमस्य पादमेकांततः पंकजरुक्प्रशांतेः ॥ निबंधनं दुहिताय मानुर्भजे ज्वलन्नूपुरवेषधारी ॥३४॥ बालेत्यादि। भानुः सूर्यः । एकांततः एकश्चासावंतश्च तथोक्तः एकांतात् एकाततः मत्यर्थं। पंकजरुषप्रशांतेः पंकात् पापात् जायत इति पंकज "पंक: फर्वमापयोः" इति विश्वः । पंकजा चासो स्यच तथोक्ता पंकजस्य कमलस्य रुक् तथोक्ता “स्त्री रुग्रुजा चोपतापरोगव्याधिगदामया "स्थुः प्रभा रुग्रुचिस्त्यिभामाश्छविधु तिदीपयः” इत्यमरः । तस्याशा. तिस्तथोक्ता तस्याः पापजनितरोगस्य कमलकिरणस्य वा शतिरुपशमस्य । निबंधनं कारण । अस्य एतस्य । बालामृतांशाः अमृतरूपा अंशवो यस्य सः तथेक्तिः बाल पयामृतांशुस्तस्य जिनबालचंद्रस्य । पादं चरण किरणं वा । पंधुदिताय बंधुभ्यो हितं यहित तस्मै बांधयानां कमलानां हितं निमित्तं । ज्वलन्न पुरवेषधारी ज्धलतांति ज्वलंत ज्वलच्च तत् नपुरं च ज्वलन्नूपुरं तदेव घेषः ज्वलानपुरवेषस्तं धरतीत्येवं शीलस्तधोक्तः प्रकाशमानमनीरवेषधारी । रूपकः । ध्रुवं निश्चल । भेजे निघेवे भज सेवायां लिट् । उत्प्रेक्षा ॥३॥ भा०म०-सूर्य ने अपने बन्धु (कमल) की हित-कामना से प्रेरित होकर पद्म के (अथवा पाप से उत्पन्न हुए) रोग का (अथवा सम्पुरता) शान्त करने (अथवा बिकाश करने) के एकमात्र कारण । जिनेन्दुवाल के चरण हैं, उनकी उज्ज्वल न पुर का वेश धारण कर सेवा की। जिनेन्द्र भगवान का चरण सूर्य के ऐसा समुज्वल था॥३४॥ कलंकमुत्यै सकुटुंबमिदु खच्छलेनामजदस्य पादौ ।। सदाश्रयं सोऽपि नमोचयेति छलेन नीलोपल किंकिणीनाम् ॥३५॥ कलंकमुपये इत्यादि। इंदुः चंद्रः। अस्य जिनबालकस्य । नपच्छलेम नला एव छले तेन पादनखरव्याजेन । रूपकः । कलंकमुक्त यै मोचन मुक्तिः कलकस्य मुक्तिः फलंकमुक्तिस्तस्यै कलमपत्यजननिमित्तं । सकुटुंब कुवेन सह वर्तनं यस्मिन्कर्मणि तत् कुट बसहित | अभजत् असेषत भज सेवायां लङ । सोऽपि कलंकोऽपि अपिशब्दधार्थः । सदाश्रय' सतां प्रशस्तानी नक्षत्राणां च आश्चयः सदाश्रयस्त सत्पुरुश्नक्षमाश्रयं । श्लेषः । “सत्प्रशस्त विद्यमाने त्रिषु क्लीवे सत्यतारयोः" इति शाश्वतः । न मोचय न त्याजय मुल्ल मोचणे णित्रतालोट् । नीलोपलकिंकिणीनां मीलश्चासौं उपलब्ध तथोक्तः नीलोपलेन मिर्मिता: किंकिण्यस्तासांदनीलकतक्षुद्रटिकानां "किंकिणी क्षुचटिका" इत्यमरः छलेन ध्याज्येन । पादौ चरणौ । अभजस् । उत्प्रेक्षा ॥ ३५॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ षष्ठः सर्गः । भा०1०-सपरिवार चन्द्रमा ने अपने कलङ्क की मुक्ति के लिये नत्र के बहाने से जिनेन्द्र भगवान के चरण की सेवा की। और उस फलक ने भी सजनों (मघवा नक्षत्रो) के साश्रयभूत उस चरण ( अथवा चन्द्रमा ) की "मैं इसे नहीं छोड़ता" इस विचार से नीलम से जड़ी हुई किकिणो के बहाने से सेवा की। अर्थात् सिमेन्द भगवान् के सरणनत्र चन्द्रमा के ऐसा समुज्वल था और नीलम से जड़ी हुई किंकिणी चन्द्रमा के कलंक के समान यो ॥ ३५ ॥ मुहुविलिप्तोऽपि जिनेंद्रगाने शचीशरत्नोज्वलभासि शच्या ॥ सिताविम्राजिपटीरपट्टः स्फुटोऽभवत्केवलसौरभेण ॥३६॥ मुहुरित्यादि । शचोशरतोचलमासि शमशः ईशश्शची शस्तस्य रत्नं तथाक्तं शची. शरतमिध उज्वलाभाः यस्य तत् शमीशरत्नोज्वलभास्तस्मिन् द्रनीलचटुम्बलकांतियुक्त । जिनेद्रगा जिनानामिवस्तस्य गात्र' जिने गात्र तस्मिन् जिनेश्वरशरोरे । शध्या इंद्राण्या। मुरः पुनः। विलिप्तोऽपि पिलिप्यतेस्म विलिप्तोऽपि ! सिताम्रविमा जिपटीरपङ्क: विधाजत इत्येवं शीलो विभ्राती सिताभं कर्पूण विभ्राजी तथोक्तः सितवासाचनश्च सिता. भ्रश्शारदाब स इघ धिभ्राजी तथोक्त इति घा पटीरस्य पङ्कः पटीरपङ्क: सितामधिनाजी चासी पटीरपङ्कश्य तथोक्तः कपूरण विराजमानः श्रीगंधकदमः "सिताम्रो हिमयालुका" इत्यमरः । फेवलसौरभेण सुरभिरेव सौरभ केवलं सौरमं केवलसौरभ वेन फेवलपरिमलेन । स्फुटः प्रध्यक्तः । अभवत् अभूत् । भू सत्तायां लङ् । नतु घनित्यंगवारीत्यतिशयः। अनु. मित्यलंकारः ॥ ३६॥ भा०भ०–इन्द्रनील-मणि की कान्ति से युक्त श्रोजिनेन्द्र-घेछ में इन्द्राणी से चार वार पलित होने पर भी कपूरमय स्वच्छ तथा उज्वल श्रीखण्ड चन्दन केवल सुगन्ध से मालूम पड़ता था न कि अपने रंग से ॥३६ ॥ __ अथाखिलेंद्रः सहितोऽमरेद्रः समर्चनाभिः स्तवनैश्च नाट्यैः॥ समाप्तजन्माभिषवं समग्रं कुशाग्रमेनं पुनरानिनाय ॥ ३७ ॥ मधेत्यादि । अथ अलंकरणानंतर । अखिलेंदः अखिलाश्वते इंद्राश्च अखिलेंद्रातः समस्तेंद्र। सहितः युक्तः । अमरेंद्रः अमराणामिदस्तथोक्तः सौधर्मेन्द्रः । समर्चनामिः प्रजाभिः। स्तवैध स्तोत्र व शस्समुच्चयार्थः । नाट्य : नर्तनः जम्माभिषवं जन्मनोऽभिषवो जन्माभिषवस्त जम्माभिषेक । समग्र सकलं । समाप्य समापन पूर्व पश्चातिक. ञ्जिदिति उमित्या । एन जिनेश । कुशा' राजपुरं। पुनः मुहुः । आनिनाय प्रापयांचकार णी प्रापणे लिट् ॥ ३७॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । १३० मा०० - इसके अनन्तर सभी अन्यान्य इन्दों के साथ सौधर्मेन्द्र पूजन, स्तुति तथा नृत्यादिक द्वारा जन्माभिषेक सम्पन्न करके फिर जिनेन्द्र भगवान् को कुशाग्र नामक राजपुरी में लाये ॥ ३७५ ऋभुक्षिचक्षुद्युतिसिच्यमानो जिना बभौ देवराजे निषण्णः ॥ तदापि पांडूपरिरत्नकुंभशतक्षरत्क्षीरनिषिच्यमानः ॥ ३८ ॥ ऋभुक्षीत्यादि । देवगजे देवस्य गजेा देवश्चासौ गनश्चेति था देवगजस्तस्मिन् ऐगवतगजे । निषण्णः निषीदसिरूम निषण्णः निविष्टः । मुत्रिक्षुद्युतिमानः ऋभुक्षिणचक्षूषि तथोक्तानि ऋभुक्षिवक्षुषां घुतिस्तथोक्ता सिच्यत इति सिध्यमानः ऋभुक्षित् सिच्यमानस्तोक्तः । तथापि तस्मिन्कालेऽपि । गण्डूपरिरक्षकुभैशतक्षररक्षीरनिषिच्यमानः पाण्डोरुपरि पाण्डुशिलेोपरि रत्नमयाः कुम्भास्तयोक्ताः रखकुम्मानां शतं तथोक्तं क्षतीति क्षरत् क्षरत्र तत् क्षीरं शरत्क्षीरं रत्नकुम्भशतात् शरत्क्षीरं तथोकम् निषिच्यत इति निषिच्यमानः रत्नकुम्भशतक्षरत्क्षीरेण निश्चियमानस्तथोक्तः मणिमय कलशशतेन वयसा सिध्यमानः स इति अध्याहारः । धमौ रराज भा दशौ लि॥ ३८ भा०म० - ऐरावत हाथी पर बैठे हुए जिनेन्द्र भगवान की मैत्रधति से भोत प्रोत होते हुए उस समय भी मानों पाण्ड क शिला पर मणिमय कुंभ की सेकड़ो शीरधारा से अभिषिक्त होते हुए के समान सेाभते थे ॥ ३८ ॥ पुरं नृपागारमपि प्रविश्य पुरैव यक्षेन्द्रकृते सुरेन्द्रः ॥ निवेशयामास सहेमपीठे सभागृहे रत्नमये जिनेन्द्रं ॥ ३६ ॥ 5 पुरमित्यादि । सुरेन्द्रः सुराणामिन्द्रः देवेन्द्रः । पुरं राजपुरम् । नृपागारमपि नून् पातीति नृपस्नस्यागारम् नृपागरं नृपमन्दिरमणि अपिशब्दसमुन्वयार्थः । प्रविश्य । पुरेव प्रागेव । यक्षेन्द्रकृते यक्षाणामिन्द्रो यक्षेन्द्रस्तेन कृतं तस्मिन् कुबेर निर्मिते । समपीठे देखा निर्मित पीठं तयोक्त इमपीडेन सह वर्तत इति समपीठ तस्मिन् सुवर्णसिंहासनसहिते । रामये रक्षस्य विकारी रखमयं तस्मिन् रक्षनिर्मिते । सभागृहे समायाः गृहं मास्थान सभागृह तस्मिन् मण्डपे । जिनेन्द्र जिनेश्वरं । निवेशयामास निवासयतिस्म । विश प्रवेशमे णित्रन्ताल्लिट् ॥ ३६ ॥ मा० भ० - सुरेन्द्र ने दाअपुरी सत्पश्चात् राजमन्दिर में प्रवेश करते ही के साथ पूर्व मैं श्री कुबेर-निर्मित रमय सभागृह में सुत्र के सिंहासन पर श्रीजिनेन्द्र भगवान् को बैठाया ॥ ३६ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। ततः सुतास्येंदुविलोकमात्रप्रवृद्धहर्षामृतसिंधुमग्नौ ॥ विलोक्य मातापितरौ स्मितास्यो निवेदयामास समस्तमिद्रः ॥४०॥ तत इत्यादि । इन्द्रः शक्रः। ततः तस्मिन् ततः निवेशनानंतरे। सुतास्यदुविलोकमात्रप्रवृद्धहर्षामृनमिधुमग्नौ सुतस्यास्य सुतास्यं तदेवेंदुः रूपकः विलोक एव विलोकमात्र सुतास्येदाविलोफमात्र प्रवर्धतेस्म प्रवृद्धः सुतास्थेविलोकमात्रणा प्रवृद्धः सुतास्येदुधिलोफमात्रप्रवृद्धः अमृतमयसिंधः अमृतसिंधुः हर्षा पवामृत. सिंधुस्तयोक्तः सुतास्य विलोकमात्रण प्रवृद्धः सुतास्येन्तुषिलोकमात्रप्रवृद्धश्चासौ हर्षामृतसिधुश्च तथोक्तः मजतस्म मसौ सुतास्यचिलोकमात्र प्रवृद्धहर्षामृतसिंधी मनौ तथोक्तौ जिनदालयदनचंद्रदर्शनमात्रेण समुन्नसंतोषक्षीरसमुद्रे स्माती। मातापितरौ माता च पिता व मातापिन । “प्राङ्” इति सूत्रंण समासे पूर्वकारस्याङादेशः जननी जनकौ। विलोक्य वीक्ष्य । स्मितास्यः स्मितमास्य यस्य सः तथोक्तः ईषद्धमानमुखसहितस्सन् । समस्तं मायाशिश निधाय स्वामिमंदरनयनादिसर्व निषेदशमान आशापयामास विद ज्ञाने लिट् “दयायास्कासित्यादिना" आम तद्योगे असभुवोति धात. रनु प्रयोगः ॥४०॥ ___ मा०अ० - इसके बाद इन्द्र ने पुत जिन-बालक के प्रफुल्ल मुखचन्द्र के दर्शन-मात्र से जमड़े हुए आनन्द-सुधा-समुद्र में गोता लगाते हुए गाता पिता से मुस्कुराते हुए सारा वृत्तान्त निवेदन किया। अर्णत मायामय बालक को रख कर, जिनेन्द्र-पालक को सुमेरु पर्वत पर पहुंचाने आदि का सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥४०॥ माता स्वयं च परिरंभमिषेण देवं रोमांचनीपलिकानिकरैः कृतार्ध्या । प्रीत्याभ्यषिंचदमितप्रमदाश्रुनीरैः स्वच्छैरतुच्छकुचकुंभपयोद्वितीयैः ॥४१॥ ___ मातेत्यादि। माता जिनजननी। स्वयं च । च शब्दस्समुच्चयार्थः। रोमांधनी. पालिकानिकरैः नीयस्य नीपवृक्षस्य कलि कास्तथोक्ताः नीप कलिकानां निकरा तथोक्ताः रोमांचा व मोपकलिकानिकगः रोमांचनीपालिकानिकरास्तः रोमहर्षणकर्दयकोरकसमूहः । कृतार्या कियतेस्म कृत कृतमयं यया मा नयोक्ता विहितायां । परिरंभमिषेण परिरंभ इति मिष तेन भालिंगनध्याजेन । स्वच्छैः सुनिर्मलैः । भतुच्छकुचकुंमपयाद्वितीयः न तुच्छौ च तो कुचौ च अतुच्छकुषौ तावेव कुंभो तथोक्ती अतुच्छकुचकुंभयोः विद्यमानं पयः तथोक्त अतुच्छकुमकुंभग्य एव द्वितीय एषां तानि अतुच्छकुचकुंभपयाद्रितीयानि तैः रूपकः पीथरस्तनक्षीर द्वितीयादकयुतः। भमितप्रमवाथ मोरः अश्रु णो नोराण्यश्च नीराणि न मितोऽमितः स चासो प्रमदश्च सयोकः अमित Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ footera | १३२ प्रमदेन जाताभ्यधुनीराणि तैः बहुल संतोष संभूतनेोदकैः प्रथमानंदाश्रुभिः पश्चात्कुष कुंभपयोभिरस्यर्थः । देव जननाथं । प्रीत्या संतोषेण अभ्यषिचत् अभ्यर्पणात्। विबू सेवने लक्ष् । मातुशलिंगनद्दर्षोत्कर्षात् रोमांचानंदा पकुचपयः स्रुतयो भवतीत्यर्थः ॥ ४१ ॥ भा० अ० - आलिंगन के बहाने से रोमांचरूप कदम्ब के कलिका समूह से पूजा किये हुई स्वयं माता ने उन्नत पयोधर की स्वच्छ दुग्ध-धारा तथा भानन्द की अश्रुधारा से श्री जितेन्द्र भगवान को प्रीति पूर्वक अभिषिक्त किया ॥४१॥ मणिकांचन दिव्यवस्त्रदानैः पटुभेरिपट होत्थितारयैव ॥ युगपत्परिपूरिता खिलाशं विदधे स्वः पतिरस्य जातकर्म ॥४२॥ मणोत्यादि । स्वःपतिः स्वर्गस्थ पतिः देवेंद्रः । मणिकांचनदिव्यवस्त्रदानैः मणयक्ष कांचनानि च दिवि भवानि दिव्यानि दिव्यानि तानि वस्त्राणि दिव्ययस्त्राणि तथोक्तानि मणिकांचन दिव्य वस्त्राणां ज्ञानानि तथोक्तानि ते रत्नदिरण्यदिव्य व सनत्यागैः । पटुमेरिपट |त्थिताः भैर्यश्व पहाश्च भेरिपटाः पटचश्च ते मेरिपटहाच तथोक्ताः अस्थीयेते स्म उत्थिताः पटुमेरिपटहैरुत्थिताः तथोक्ताः पटुभेरिपरहोत्थिताश्च ते मारवा परि परदोत्थितारषास्तेः पटुदुन्दुभिपटद्दजनितध्वनिभिः । च शब्दसमुच्चयार्थः । परिपूरितालि लाशं परिपूर्यन्तेस्म परिपूरिताः अखिलाच ताः आशाश्च भविलाशाः अबिलाश्व खिला अखिलाश्च तेरेकशेषः परिपूरिताः पविलाशाः यस्मिन्कर्मणि तत् तथोक्त परिध्यातसमस्तदिशं यथा तथा संपूर्णीकृतसमस्ताभिलाष च यथा तथा । "आशा तृष्णा दिशः प्रोता* इति विश्वः । अस्य जिनवालकस्य । जातकर्म जातस्य कर्म तयोक। विधे चकार । हुधा धारणे व लिट् ॥ ४२ ॥ भा० अ० - देवेन्द्र ने सुवर्ण, मणि तथा उत्तम २ वस्त्रों के परिधापन से और दिव्य दुन्दुभि पटह के नाद से परिपूर्ण दिङ मरुडल में शास्त्रोंक विधि से जातकर्म संस्कार सम्पन्न किया ||४२ ॥ करिष्यते मुनिमखिलं च सुव्रतं भविष्यति स्वयमपि सुत्रतो मुनिः ॥ विवेचनादिति विभुरभ्यवाय्यसौ बिडौजसा किल मुनिसुव्रताचरैः ॥ ४३ 1 करिष्यत इत्यादि । अलौ यं । विभुः स्वामी । मजिलं च सकलं । मुभिं यसिजनं । च समुच्चयार्थः । सुवतं सुशोभनं घतं यस्य तं सुष्ठु वसयुक्त' । करिष्यते विधास्यतं । स्वयमपि । सुवतः समीश्रीमतयुक्तः । मुनिः मुनीशः । भविष्यति जनिष्यते भू सत्तायां लुट् । इति एवं विवेचनात् निर्वचनात्। विडोजसा देवेंद्र "बिडौजाः पाकशासनः" इत्यमरः । I Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ षष्ठः सर्गः । मुनिसुव्रताक्षरे: मुनिसुव्रत इत्यक्षराणि मुनिसुव्रताक्षराणि तैः मुनिसुवारेः । अभ्यधामि । धारणेच कर्मणि "कर्मभाचे" इति न प्रत्ययः "जे." इति तस्य लुक् श्राइतः डुधाञ् लुङ् इत्यर्थः ॥४३॥ मा० अ० – स्वयम् उत्तम व्रतशाली होकर सभी मुनियों को प्रशस्त व्रत वाले बना येंगे ऐसा विचार कर अमराधिप इन्द्र ने 'मुनि सुव्रत' न मक्षरों के आधार पर इन का मुनिसुव्रत नाम रखा ॥४३॥ देव्यो मज्जनमंडनादिकरणे प्रौढाः प्रहृष्टाशयाः । देवांश्चापि विनोदकर्मणि समानाकृत्यवस्थागतान् ॥ देवस्यास्य नियुज्य निर्जरपतिः प्रत्युद्ययौ स्वं जगत् । प्रीत्यानुव्रजतो विसृज्य विधान भालाबद्धांजलीन् ॥ ४४ ॥ वेष्य इत्यादि । निर्जरपति: निर्जराणां पतिस्तथोक्तः देवेंद्रः । अस्य एतस्य देवस्थ स्वामिनः । मज्जनमंडनादिकरणे मज्जनं च मंडन च मज्जनमंडने से आविर्येषां तानि मज्जननादीनि तेषां करणं मननमंडानादिकरणणं तस्मिन् स्नानालंकारादिक्रियायां । प्रौढाः चतुराः । प्रष्ठाशयाः प्रहर्षविरूम प्रहृष्टः प्रहृपः आशयो यासां ताः संतुष्टाभिप्रायाः । देव्यः देवमण्यः । विकर्मणि विनोदस्य कर्म तस्मिन् विनोदकार्ये । समानाकृस्यवस्थागतान् माकृतिध व्यवस्था व आकृत्यधस्थे समाने व आकृत्यवस्थे च समानाकृत्यवस्थे गच्छतिस्म गताः समानाकृत्यवस्थे गतास्तथोक्तास्तान् समानाकारायागतान्। देषवापि सुरकुमारांश्चापि । च शब्दोऽत्र प्रौढान् प्रहृष्ट्राशयानिति लिंगपरिणामेन समुच्चिनेोति । मिथुश्य नियम्य । प्रीत्या संतोषेण | अनुव्रजतः अनुवजेतीत्यनुव्रजतस्तान् पञ्चाशयातः मालाप्रबांजलीन् मालस्यानं भाला बध्यतेम्म यद्धः भालानं बद्धोऽजलिः येषां ते भालप्रबद्धांजलयस्तान् ललाटामरचितांजलीन् । विबुधान् चतुर्विधान् देवान् । चिसृज्य प्रहित्य: स्वं स्वकीयं । जगत् लोकं । प्रत्युद्ययौ प्रत्युज्जगाम या प्रापणे लिट् ॥ ४४ ॥ I भा० स०-- देवेन्द्र मिनेन्द्र भगवान के खानालङ्कार आदि शुभकृत्य सम्पादन में प्रवीण G तथा उन्मत विचार वाली देवांगनाओं और मनोरञ्जन - कार्य में दक्ष तथा समान आकृति और व्यवस्था वाले हाथ जोड़ आगे पीछे चलते हुए नतमस्तक देवताओं को वहाँ नियुक्त कर आप अपने स्थान को बल दिये ॥ ४४ ॥ इत्यर्हद्दासकृतेः काव्यरत्नस्य टीकायां सुबोधिन्यां भगवन्माभिषेकवर्णनो नाम षष्ठः सर्गेऽयं समाप्तः । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सप्तमः सर्गः। न निर्जरैर्जितसेवनोऽयं न कांतिसंभावितशुक्लपक्षः ॥ न च प्रदोषावसरं प्रपन्नः क विद्म बालेंदुरियाय वृद्धिम् ॥१|| नेत्यादि। भयं एषः। वालेष्टुः बाल एव इन्दुः बालचंद्रः । निर्जरः जराभ्यो निर्गता निर्जरास्तैः देवैः । वर्जितं सेवनं घर्जिससेवन यस्य सः विहितपूजनः निवृत्तभक्षणः । न न भवति । निर्जराश्चंद्रकलाः कृष्णपक्षे भक्षयति न तु शुक्लपक्ष इति प्रसिद्ध कांतिसंभावितशुक्लपक्षः कात्या संभावितस्तथोक्तः शुक्लानां पक्षः शुक्लपक्षः कांतिसंभाषितः शुक्लपक्षो यस्य सः पक्षे शुकश्वासी पक्षश्च शुक्लपक्ष: कांतिसंभावितः शुक्लपक्षो यस्य सः किरणसंस्कृतस्फटिकादिधवलवस्तुसमूहः प्रमाप्रोक्षावितपूर्वपक्षम्य । “पक्षे मासाईके पाये महे साध्यविरोधयाः । फेशाचः परसे ना सखिहायो । तत्र युलिरंध्र व देदांगे राजकुंजरे। शुक्लो योगांतरे श्वेते शुक्ल व रजते मतम्" इत्युभयत्रापि विश्वः । ननभधति । प्रदोषाधसर प्रकृष्टा दोषाः प्रदोषास्तधोक्ताः प्रदोषाणामघसरस्तं पक्षे प्रदोषावसरस्यावसरस्तपोकस्तं प्रकृष्टपापाश्रयवेला रजनीमुखकालं च । “सायं निश्यवयं दोषानिधासा दुषणाघयोः" इति भास्करः । प्रपशः प्रपद्यतेस्म प्रपन्नः प्रयातः। न च न भ. वति । च समुच्चयार्थः । वृद्धि समृद्धि । इयाय जगाम । इण गती लिट् । षघ कुछ। विश्न आनीमः । विद शाने लट् । "विदो लटों वा" इति विकहपेन णशाधादेशः । निरर्वर्जिससेवनः कांतिसंभावितशुक्लपक्षः प्रदोषावसरं प्रपन्नश्च स पुनः धृद्धि एति अयं तु तद्विलक्षणगुणः कथं वृद्धिमायाति इतिभावः ॥ १॥ मा० म०-यह नूतन जिन यालक चन्द्र देवताओं से विरहित सेवा नहीं है अर्थात् इस जिन-चन्द्र कला को देवतायें भक्षण नहीं करते। क्योंकि चन्द्रकला को कृष्ण ही पक्ष में देवता लोग नहीं लाते है ऐसा लोक प्रसिद्ध सिद्धान्त है केवल कान्ति से ही शुक्लपक्ष की सम्भावना नहीं की जाती अर्थात् जिन-चन्द्र-बालक की खाँदनी सदा समुधोतित रहती है। और यह चन्द्र प्रदोष अथवा पापावका प्राप्त नहीं है तो भी बढ़ता हो जाता है यह आश्चर्य है। अर्थात् इस जिनचन्द्र तथा आकाश चन्द्र के धर्म-वैपरीत्य में महान् भन्तर है यह बड़े माधर्य की बात है ॥१॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः। करांगुलिं लिप्तसुधां स लिट्वा बबंध मातुः स्तनयोन बुद्धिं ॥ सुरेन्द्रबंधः सुरदेहतायां चिरानुभृतामृततृषण्येव ॥ २॥ कगंगुलिमित्यादि । सुरेंद्रवंधः सुराणामिद्रास्सुरेंद्राः वंदितुं योग्यो घंधः सुरेंद्रचस्तथोक्तः देवेंद्रघंधः। सः जिननाथः । लिप्तसुधां लिप्यतेस्म लिप्ता लिसा सुधा यस्यास्सा तो उगलिभपीयूषां। करागुलि फरस्यांगुलिः कगंगुलिः ता हस्तांगुलिं । लिड्ड्या लेहनपूर्व आस्वाध। सुरदेहतायां सुराणां वेहो यस्य सुर देहस्तस्य भावः सुरदेवता तो तस्यां घृतदिव्यशरीरत्वे । विरानुभूतामृततृष्णयेब अनुभूयतेस्म गनुभूतं सिरेण अनुभूत विरानुभूतं तच्च तत् अमृतं च तथोक चिरानुभूतामृतस्य तृष्णा तयेव बहुकालानुभूतसुधाछियेष । मातुः जनन्याः । स्तनयः । पुद्धि मतिं । न घबंध न चकार । बधि बंधने लिट् ॥२॥ भाम--सुरेन्द्रों से बन्दनीय श्रीजिन-बालक ने मानो देव-शरीरपने की चिरकाळ से मनुभूत अमृत की तृष्णा से सुधालिप्त अपनी अंगुलियों को पार कर माता के स्वनपाम से रुचि हटायो॥२॥ - जिनार्भकस्येंद्रियतृप्तिहेतुः करे बभृत्रामृतमित्यचित्रं || - चित्रं पुनः स्वार्थसुखैकहेतुरतच्चामृतं तस्य करे यदासीत् ॥ ३ ॥ जिनामकस्येत्यादि । जिनामकस्य जिन एव अर्भकस्तस्य जिनवालकस्य । "दारको नंबनोऽर्भक:* इति धनंजयः । करे हस्ते । अमृतं सुधा। इंनियतृप्तिहेतुः इंद्रियस्य तृप्तिस्तपोका बद्रियतृप्त्याः हेतुस्तथोकः इंद्रियसतर्पणकारणं। बभूव भवतिस्म । भूसत्तायां लिट्। इति एवं । वचनं । अचित्र न चित्रमचित्र' आश्चर्य न भवति । पुनः किमिति चेत्-तस्य जिनबालकस्य । करे हस्ते । यत् स्वार्थसुखैकहेतुः स्वस्मै इन्दं स्वस्मै भयं पा स्वार्थ स्वार्थ च तव मुखं च स्वार्थसुखं एकश्नासौ हेतुश्च एकहे तुः स्वार्थसुखैकहेतुस्तथोक्तः स्वाधीनसुखस्य मुख्यकारणं । अमृत मोक्षः : "अमृतं यक्षशेष स्यात्पीयूषे सलिले घृते । ज्यामिते व माझे व धन्वंतरिसुपर्वणोः” इति विश्व: । इति । आसीदभवत् स्वाधीन यभूवेत्यर्थः सच्चा च समुख्या: । चित्र आश्चर्य ॥३॥ __ माows-जिन पालक श्रीमुनिसुनत माथ के हाथ में इन्द्रिय-तृप्ति केलिये अमृत था matati मारवयं कल इस बातलिय कहा जा सकता कि अपने सुबका एक मात्र कारण-भूत अमृत ( मोक्ष) भी उनके हस्तगत पा ॥३॥ उल्लोकितैरुत्पललोचनायाः ससंभ्रमोत्क्षेपणकौतुकेषु ॥ रराज राजांगभवोऽतरिक्षे तडिल्लताश्लिष्ट इवांबुवाहः ॥४॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिमुमतकाव्यम् । उल्लोकितरित्यादि। राजांगमय: अंगे भवतीत्यंगभवः राज्ञोऽगभयस्तयोक्तः राजकुमारः। उत्पललोचनायाः उत्पले इन लोचने यस्थास्तस्याः कुमुवालनिभने प्रायाः पमाक्या: । उल्लोकितेः उल्लोकते स्म उल्लोकितानि तैः उर्ध्वदर्शनैः । ससंभ्रमारक्षेपणकौतुकेष उत्क्षेपणान्येव कौतुकानि तथोक्तानि संभ्रमेण सह वर्तत इति ससंभ्रमाणि तानि च तान्युतक्षेपणकौतुकानि च तथोकानि तेषु संभ्रमसहितोवेवापाको उम्सु। अंतरिक्ष आकाशे। तडिल्लताक्लिष्टः माश्लिन्यतेस्म आशियः तडिल्लतया आश्लिष्टः तथोक्तः विधु लतालिंगितः । अंधुघाह इव अंबु बहतीत्य युवाहो मेत्रः स इव। रराज यौ। राजू दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥४॥ भा० -पाक्षी पद्मावती जब राजकुमार को ऊपर की ओर दष्टि किये हुईबार २ पलक गिरा कर देख रही थी तब वे आकाश में विद्युल्लता से भावेष्टित मेघ के समान सोमने लगे ॥४॥ नराधिपेनोरसि नीयमानो बभार हारांतरनायकत्वं ।। भेजे चलकुंडलतां मुजाग्रे चूडामणित्वं शिरसि प्रपन्नः ॥ ५ ॥ मराधिपेनेत्यादि । नराधिपेन नराणामधिपो नराधिपस्तेन सुमित्रमहाराजेन । उरलि वक्षति | मीयमानः नीयत इति नीयमानः प्राप्यमाण: । हारांतरनायकत्वं हारस्यातर हारातरं नायकस्य भावा नायकत्यं क्षारांतरे स्थितं नायकत्वं पुनस्तत् हारमध्यगततरलमणित्यं । बभार धरतिकर भृञ् भरणे 1 भुजान भुजयोरन्न' भुजान तस्मिन् भुगशिरसि । नीयमानः । बलत्कुंखलतां चलस इनि चलती चलन्तो च ते कुखले व बलत्कुडले तयोर्भावश्चलकुंचलता तां बिलसकपचेष्टनत्वं । भेजे निषेधे । भमसेषायां लिट् । शिरसि मस्तके। नीयमानः। चूडामणिव चूडामोआवश्चतामणित्व शिशेखत्य । “चूडामणिः शिरारत्नम्" इत्यमरः । प्रपन्नः प्रपद्यतेस्म प्रपतः नीतः ॥५॥ भा० अ-सुमित्र महाराज से छाती से लगाये जाने पर हार के मध्यमणिय को, भुजाके अप्रभाग में लेने से चंचल कर्णभूषणत्व को तथा सिर पर लेने में चूड़ामपित्य को राजकुमार ने प्राप्त किया ॥५॥ कराकर बंधुजनस्य गच्छन् रराज विभ्राजितहेमसूत्रः । सलेखवंद्यः कृतहेमलेस्रो वणिग्जनस्येव निकाषपदः ॥ ६ ॥ करादित्यादि । बंधुजनस्थ यंधुश्वासी जनश्च बंधुजनस्तस्य । करात् हस्तास् । कई हस्त । गच्छन् गष्यतीति गच्छन् थाम् । सः जिनः। लेखपधः लेखेर्वधः देवैद्यः Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ सप्तमः सर्गः । "आदितैयादिविषदो लेखा अदितिनंदनाः" इत्यमरः । धिम्राजितहेमसूत्रः हेम्ना निर्मितं सूत्र' हेमसूत्र विभ्राजते सर विभाजित विभाजित हमसूत्र यस्य सः तथोक्तः विराजितमुवर्णकटि सूत्रयुकः । वणिरजनस्य पणिपचासौ जनश्च घणिजनस्तस्य । कृतहेमलेखः क्रियते स्मकता हेनो-लेखा हेमलेला कृता हेमलेखा यस्य सः तथोक्तः कृतस्वालेखासहितः । “लेखा लेख्थे सुरे लेखा लिपिराजकयोमते” इति विश्वः । निकाष्पट्ट य निकायचासौ पट्टब्ध तथोक्तः . निकषोपल इव | रराज बभौ । गाज़ दीप्ती लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ ६ ॥ भा० भ०-सुवर्णकटिभूषण से सुशोभित तथा देयताओं से चन्दनीय राजकुमार मुनिसुबत परिवार-धर्गों के हाथों हाथ होते रहने से सोने की लकीर से समुद्भासित वणिक लोगों की कसौटी से जान रहते थे। अर्थात कृष्णवर्ण मुनिसुव्रतनाथ सुवर्ण के कारभूषण से समलकृत होने पर सोने से कसी गयी कसौटी के समान दीखते थे ॥६॥ स जानुचारी मणिमेदिनीपु स्वपाणिभिः स्वप्रतिबिंबितानि । . पुरः प्रधावत्सुरसूनुबुड्या प्रताडयन्नाटयति स्म बाल्यं ॥ ७॥ स इत्यादि। मणिमेदिनीषु मणिकीलिना मेदिन्यो मणिमेदिन्यस्तासु रलमय. भूमिषु । जानुचारी जानुभ्यां बरतीत्येवं शीलस्तथोक्तः जानुगमनशीलः बालकः । स्वप्रति. बिबितानि स्वस्थ प्रतिषितानि तथोक्तानि स्वप्रतिमानानि। स्वाणिभिः स्वस्य पाणयस्तः स्वकीयहस्तैः ! प्रतिबिंबवहुत्वाद्वहुवचनं । पुर: निजाग्रतः । प्रधायरसुरसूतु. मुख या प्रधाचतीति प्रधाबतः सुराश्च ने सूनवश्च सुरसूनवः प्रधावतश्च ने सुरसूनवश्व तथोक्ता; प्रधावत्सुरसूनन इति घुद्धिस्तथोक्ता तया देवयालकगत्या । प्रताडयन् प्रताष्ट यतीति प्रतापन् । बार्य बालत्यं । नाटयति स्म नर्तति स्म। त्रिज्ञानधरत्वादविद्यमान मावि बाल्यावस्थावशाद्विद्यमानवल्लोके दशेयनिस्मेत्यर्थः 1 भ्रांतिमानलं कारः ॥ ७॥ भा० अ०-दोजानू होकर इधर उधर मणिमय भूभिपर खोलते हुप राजकुमार अपनी छाया को आगे दौड़ते हुए देवयालक समझ कर अपने हाथों से ताड़ित करते हुए बाल्यभाषका अभिनय दिखाने लगे ॥७ शनैरसमुत्थाय गृहांगणेपु सुगंगनादत्तकर: कुमारः ॥ पदानि कुर्वन्किल पंचषाणि पपात तद्वीक्षणदीनचक्षुः ॥ ८॥ शनैरित्यादि । सुरांगनादत्तकरः सुराणामंगनाः सुरांगनास्ताभिः दत्तः करो यस्य सः तथोक देवांगनाभिर्दसहस्तः। कुमार: जिनमालकः । शनैः मंद यथा तथा । समुत्थाय समुत्थानपूर्व पवात्किञ्चित् । गृहांगोषु गृहस्यांगणानि गृहांगणानि तेषु सदा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । जिरेषु "गृहावनदणी देवल्यंग चत्वगाजिरे" इत्यमरः । पंचषाणि पंचच घट व पंखषाणि "सुज्वार्थ" इत्यादिना समासः । “प्रमाणिसंख्याड्छुः" इति उ प्रत्ययः। “हित्यं त्यानादेः" इत्यंत्याजादेलक। पदानि पदनिक्षेपणानि। तीक्षणदीनचक्षुः तासां वीक्षणं तथोक्त तद्वीक्षणे दीने नक्षुषी यस्य सः तथोक्तः देवांगनादर्शनेन सुद्धःखितनेत्रः सन् यद्वा तद्वीक्षणेन दीन चिगतहर्ष चक्षुर्यथा तथा । पपान पततिरूम पल गतौ लिट् ॥ ८॥ मा० म० -कुमार धीरे से उठ सुरांगनाओं की अंगुली एकड़ और अंगने में पांच चार डेंग चल कर ही उन्हें (सुगंगनाओं को देखने से कित-नेत्र ( दुःखित नेत्रदोते हुप गिर पड़े ॥८॥ स पांशुकेलौ सुरतनानी कायकीण वासोः ॥ कृतोपवीतो व्यश्चत्कुमारस्सदिव्यधन्वेव नवांबुवाहः ॥६॥ स इत्यादि । पाशुकेलौ पाशोः कलिः पांशुक्रलिस्तस्मिन् धूलिक्रीडायो । सुरतनकानां सुराश्च ते तन काश्च सुरतर्नकास्तेषां देघवाल कानां । फरायकीणअवकीर्यन्ते स्म अवकीर्णाः करैरवकोणी: करायकीर्णास्तैः हस्तैर्वि कीर्णैः । नवरत्नचूर्णः नय स तानि रत्नानि च नवरत्नानि नवरत्वानां चूर्णाः नवरत्नपूर्णास्तैः । "चूर्णे क्षोदः" इत्यमरः । कृतोपवोतः कृत उपवीतो यस्य सः सथोक्तः विहितवेधितः । सः कुमारः जिनकुमारः । सदिव्यधन्दा विधि भव दिव्यं दिव्य' च तत् धन्व च दिव्यधन्य दिव्यधन्वना सह वर्तत इति सदिव्यचन्या तधोक्तः सुरचापसहितः। "धनुश्चापी धन्वशासनकोदंडकार्मुकम्" इत्यमरः । अंधुवाह अंबु वदतीत्यंबुत्राह इन मेघ इच । व्यरुन्नत् । रुचि अभिप्रोत्यां च लुङ् । “धु द्वयो लुः" इति तिप् । उत्प्रेक्षा ॥ ६ ॥ भा० अ०-चह राजकुमार धूलि क्रीडा के समय देवथालकों के द्वारा फेंके गये गये रत्नों के चूर्ण से परि वेष्टित होकर इन्द्र धाप से प्रतिकलित नतम मेघ के समान सोभते थे। अशेषविज्ञोऽनिमिषैः परीक्षाप्रधित्सयवैष विधीयमानान् ॥ नियुद्धमुख्याखिल बालकेलिं निरूपयामाम नरेन्द्रसूनुः ॥१०॥....... अशेषविज्ञ इत्यादि । अशेषयिनः अशेष विज्ञानातीत्यशेवितः सर्वशः । एषः अयं । नरद्रसूनुः नराणाभिद्रो नरेंद्रस्तस्य सूनुः राजननयः । अनिमिषः न विद्यते निमित्रो येषां ते अनिमिषास्तैः देवैः । विधीयमानान विधीयंत इति विधीयमानास्तान क्रियमा. गान् । मियुद्धमुख्याजिलबालकेलीन बालानां फेल्टयः पालकेलयः खिलाश्च ते बाललयाम Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सप्तमः सर्गः। अखिलबालकेलयस्तान याहुयुलप्रमुखकेलयश्च अखिलवालकेलयः नियुद्ध' मुख्यं येषां ते नियुद्धमुख्यास्ते च ते अखिलवालकेलयश्च नियुद्धमुख्याखिलपालकेलयस्तान् समस्तबालबिलासान् । परीक्षाप्रधित्सयेव परीक्षा प्रधित्सतीति परीक्षाप्रधित्सा तया विचार. करणेच्छयेव । निरूपयामास नदर्श | रूप रूपक्रियायां लिट् ॥ १०॥ भा०अ०-इस सर्वज्ञ राजकुमार ने देवताओं से को गयो सभी बाल-कहानों को परीक्षा करने के निमित्त देखा न कि सबंट होकर मनस्तृप्ति के लिये ॥१०॥ गतोनपादायुतवत्सरस्य श्रितं ततो यौवनमस्य गात्रं ॥ मधुर्यथा नंदनपारिजातं शरद्यथासान्ध्यसुधामयूखम् ॥११॥ गानेत्यादि । ततः तस्मिन् ततः तदनंतरं । गतोनपादायुतवत्सरस्य अनचाली पाश्च तथोक्तः गत ऊनपादों येषां ते अयुतप्रमिता वत्सरा अयुमवत्सरा गतोनपादा अयुतवत्सरा यस्य तस्य गलितन्यूनतुरीयभागदशमितसहस्रममितसंवत्सरस्य मलितविगलितपंचशताधिकसप्तमहनसंवत्सरस्येत्यर्थः । अस्य जिमकुमारस्य । यौवन यूनो मायो यौवनं । गात्रं देहं । श्रितं प्राप्त । नंदनपारिजात नंदगस्य पारिजातस्तथोक्तस्तं मदनकल्पवृक्ष । मधुः वसंतः। यथा शरत् शरत्कालः | सांध्यसुधामयूख संध्याया भवसाध्यः सुधारूप मयूखो यस्य सः सांध्यश्चासौ सुधामयूखश्च तथोक्तस्तम् उद्यश्चन्द्र यथाश्रितः सथेति भावः ॥ ११ ॥ भा० अ० --जिस प्रकार वसन्त ऋतु नन्दन कल्पवृक्ष को और शरद ऋतु सन्ध्याकालीन चन्द्रमा को आलिंगन करती है उसी प्रकार जब मुनिसुव्रतनाथ साढ़े सात हजार वर्ष के हुए तब इनकी देह को युवावस्थाने आलिंगित किया ॥११॥ अधर्मता निर्मलता च नित्यं पयस्सुधापांक्तिकलोहितत्वं ॥ समाकृति संहननं च पूर्व सुगंधिता निंदितकैणनाभिः ॥१२॥ अधर्मतेत्यादि । नित्यं अनवरत । अधर्मता धर्मस्य भावो धर्मता न धर्मता अधर्मता निःस्वेदत्वं । निमलता मलानिर्गत निर्मलं निर्मलस्य भायो निर्मलता निर्मलत्वं । च समुन्धयार्थः। श्यस्तुधापांक्तिकलोहितत्वं पयश्च सुधा च पयस्सुधे पंक्ती तिष्ठतीति "निकटादिषु वसतोति" छन्। पयस्सुधयोः पाक्तिस्तथोक्त' । पयस्सुधापांक्तिक व तत् लेाहितत्वं च तथोक्त' तस्य भावः पयस्तुधापक्तिक लोदितत्व क्षीरामृतराजस्थितगौररुधिरत्वं । विपि पदेषु बहुव्रीहिर्षा । समाकृतिः समा चासावाकृतिय तथोक्ता समचतुरस्नसंस्थान । पूर्व प्राथमिकः। संहनन बसवृषभनारचसंहनन । निादतकैणनाभिः निघतेस्म निदितः अत्यंत निहितो निक्तिकः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १४० "कुत्सितारामाते” इति कट् । निदित क एणयो नाभियंया तथोक्ता तिरस्कृतकस्तूरी। सुमित, शोममा राजः शातिरभेनै धादिगुणे" इति अकारस्येकारः। सुगंधेर्भावधिता सौरभत्वम् ॥१२॥ भाभ-निस्स्वेदता, स्वच्छता, भोर तथा अमृत के समान श्वेत रुधिरता, सम. धतुरस्रसंस्थान, वजुवृषभाराच संहनन तथा कस्तूरी को विनिन्दित करने वाली सुगन्धिता आदि सलक्षण उन के अंगों में थे । १२ । परश्शतैरबुजेकबुमत्स्यश्रीवत्समुख्यैवरलक्षगौश्च ॥ सव्यंजनैश्वोनसहस्रकेण मसरिकाद्यैरुपनक्षितत्वम् ॥ १३ ॥ . परशारित्यादि । सम्वुजकम्युएन्स्यश्रीवत्समुख्यैः धुजं घ कंधुश्च मत्स्यश्च श्रीवत्सश्च अंग्रुजकंचमस्थास्ते मुख्या येषां नानि अंबुजवंबुमत्स्यग्रं चत्ममुख्यानि तः कमलशनमत्स्यश्रीवत्सपमुखैः । परश्शतः शतात्पा सख्या येषां तानि परश्शतानि तैः साएशतैः "पर: शताद्यास्त येषां परा संख्या शनाधिकात्” इत्यमरः । वरलक्षणश्च धगण च नानि लक्षणानि व घरलक्षणागि तेः उत्कृष्टलक्षणैः । मविकाधः मनु रिका आद्या येषां तानि मसूरिकाद्यामि तः मसूरिकादिभिः । ऊनसहनरेण ऊनं च तत सहस्तकं च ऊनमानक तेन कियदूमसह. नण नवशतरित्यर्थः । सव्यं जनश्च संति च तानि व्यंजनानि च सव्यंजनामि च ते प्रशस्तव्यंजनश्च लक्षाः । उपलक्षितस्पं उपलक्ष्यते स्म उरलक्षितं तस्य भाषः उपलक्षितस्वं ॥ १३॥ ___ भा० अ० -एक सौ आठ कमल, शंख, मत्स्य और श्रीवत्स भादि प्रशस्त लक्षणों से तथा नौ सौ अच्छे २ व्यञ्जनों और मसूरिकादि से वे ( जिन पालक ) उपलक्षित होते थे। १३ । विलोचनासेचनकं सुम्पं बचांसि पीयूषरसारघट्टाः ॥ जगत्त्रयीमप्यतथा विधातुं पटीयसी काचन दिव्यशक्तिः ॥ १४ ॥ घिलोचनेत्यादि । सुरुपं शोमन रूपं तथोक्त सौरूष्यमित्यर्थः । पिलोसनासेच. नक पिलोचनयोरासेचनकं तथोक्त' प्रदर्शनेन तृप्त्यंतरहितं । "तदासेषनकं तुप्रास्त्यंतो यस्य दर्शमात्" इत्यमरः । पीयूषरसार घट्टाः पीयुषस्य रसास्तथोक्ताः पीय परसानामरघट्टाः पीयुषरसारबहा; अमृतरसजलयंत्राणि। "उद्धाटक घटीयंत्रपादावरिघट्टकः" इति हलायुधः। चालि वचनानि सर्वप्रियहितवचनामीत्यर्थः । नियतलिंगत्वाविशेष्यधिशेषणत्वेऽपि तादावा, । जगत्प्रयी प्रयाणां पूरणी प्रयी जगतां प्रयी अगस्त्रयी तां । अपि । अतथा विधांतु तेन प्रकारेण तथा न तशा अतथा अतथा विधामाय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م * सप्तमः सर्गः । तथा विधातु कंपयितु' । पदीयसी प्रकृष्टश पटुः पटीयसी "गुणांगा ष्ठेयसुः" इति इयसु प्रत्ययः "मृदुमित्" इत्यादिना ईए । काचन काचित्। दिव्यशक्तिः दिवि भवा दिव्या सा खाली शक्तिश्व तथोक्ता अप्रमितवीर्यतेत्यर्थः ॥ १४ ॥ भा० अ० - जिनबालक का सुन्दर रूप आँखों को तृप्त करने वाला और वाणी अमृतधार के जल-यन्त्र के समान थी । अर्थात् सारे संसार को विचलित ( अत्याश्चर्य प्रग्न ) करने के लिये उन में कोई अपूर्व ही दिव्य शक्ति विद्यमान थो । १४ । युतः स्वभावातिशयैरमीभिः कृतोन्नतिर्विशंतिचापदंडैः ॥ विषाग्निशस्त्रादिविघातदूरस्त्रिदोषवैषम्यभवाभयारिः ॥ १५ ॥ युत इत्यादि । अमीभिः एतैः । स्वभावातिशथेः स्वभावात् जाता अतिशया: स्वभावातिशयास्तः सहजातिशयैः । युतः युक्तः । विंशतिचापदंडे: चापानां इंडाश्वापदंडाः विंशतिश्च ते चापदंडाच विंशतिचापदंडास्तैः विंशतिधनुर्भिः । कृतीग्नसिः कृता उन्नतिः यस्यासौ यथोक्तः । विषाग्निशयादिविघातदूर: विषं वाग्निश्च शस्त्रं च विषानिशस्त्राणि तान्यादीनि येषां ते विषाग्निशस्त्रादयस्तेषां विघातस्तथोक्तः विवामिशस्त्रादिविधातात् दूरस्तथोक्तः गरलानलप्रहरणादिधातरहितः । त्रिदोषवैषम्यमत्रामयारिः श्रवश्च ते दोषाश्च त्रिदोषाः विषमस्य भावो वैषम्यं त्रिशेषवैषम्यात् भवस्तथोक्तः त्रिदोषवेषभ्यभवश्चासावामश्च त्रिदे। पवैषम्यभवाभ्यस्तस्थारि : तथेोक्तः वातपित्तश्लेष्मवैषम्यात् जात्तत्र्याधिनामगस्यत्वाद्विपुः निर्व्याधिरित्यर्थः ॥ १५ ॥ भा० अ० – इन स्वाभाविक अतिशयों से युक्त बीस धनुष के प्रमाण उन्नत और विष, अनि तथा शस्त्रादिकों के घात से दूरस्थ अर्थात् अकाल-मृत्यु से रहित और वातपित्तकफादि रोगों के शत्रु भूत श्रीजिन वालक थे । १५ । 1 त्रिंशत्सहस्त्रीमितवत्सरायुः स्फुटातसीसूनसमानवर्णः ॥ तदायमुत्सृष्टधनुः शरस्य स्मरस्य शंकां जनयांबभूव ॥ १६ ॥ त्रिंशत्सहस्त्रत्यादि । त्रिशरसहस्त्री मित्तवत्सरायुः त्रिशतः सहस्राणां समद्वार: त्रिश त्सहस्री तया मितं वत्सराणामायुः त्रिंशत्सहस्त्री मितवत्सरायुः यस्य सः त्रिंशत्सद्द मितवत्सरायुष्कः । स्फुद्रातली सुनसमानवर्णः अतस्याः सुनं स्फुटं च तद् अतसीसून तस्य समानः स्फुटातसीसुनसमानो वर्णो यस्य सः विकसितातसीकुसुमसङ्गशवर्णः । एषः । तदा यौवनसमये । उत्सृष्टधनुः धनुध शरश्न धनुश्शरौं उत्सृज्येसे स्म उत्ौ धनुश्शरी येनासावुत्सृष्टधनुश्शरस्तस्य त्यक्तचापबाणस्य । स्मरस्य मन्मथस्य । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाव्यम् । शंको संदेह । जनसंबभूव उद्धावप्रतिस्म । जना प्रादुर्भाये। "प्रयुज्याप्याण्णिम् वा इति णिम् तता "व्यायासकास्” इत्यादिना माम् तेनैव सूत्रण भूससायामित्यस्यानुप्रयोगः णिअन्सालिट् इति पंचभिः कुलक ॥ १६ ॥ मा० १० -तीन हजार वर्ष की गायुवाले और खिले अतसी-पुष्प के समान रंगवाले श्रीजिनचालक ने धनुण को अलग रखे हुए कामदेव की शङ्का उत्पन्न कर दी ॥१६॥ पित्रापि निवर्तितदारकर्मा ततः स यूनामधिपोऽपि वृद्धां ॥ अग्राह्यत स्वामधिराजलक्ष्मी पुरैव राजा जगतां त्रयाणां ॥१७॥ पिनत्यादि । ततः तस्मिन् ततः तदनंतरे । पुरेव प्रागेत्र । अपाणां जगतां त्रिलोकीनां । राजा स्वामी मुनिसुवतः । पिप्रापि जनमापि। निर्तितदारकर्मा दाराणां कम निर्वय॑ते स्म निर्वतितं निर्तितं दारकर्म यस्य सः तथोक्तः कृतविवाहकायः । “भार्या जायाऽथ पुंमूनि दाराः स्यात्तु कुटुम्बिनी" इत्यमरः । यूनां तरुणानां अधिपस्तथोकोऽपि । वृद्धां वर्धते स्म वृद्धा तो जरामिति विरोधः समृद्धामिति परिद्वारः । स्वां स्वकीयां । अधिराजलक्ष्मी अधिको गजो अधिराज: “राजनसोः इत्यत् अधिराजस्य लक्ष्मीः अधीराजलक्षमीस्ता अप्राथत स्वीकार्यते स्म प्रही उपादाने इति धानोर्णिजन्तारकर्मणि लङ् । स्वामिनोर्जगत्त्रयराजत्वेपि स्वान्वयाधिराज्यग्रहण क्षत्रियकर्मपालनमितिमावः ॥ १७ ॥ भा० अ०-पहले ही से त्रिभुवन के राजा होते हुए श्रीमुनिसुनत-नाथ ने पिता से विवहादि कृत्य कराये जानेपर' तरुणों के शासक हो कर भी वृद्ध राज्यलक्ष्मी को ग्रहण किया अर्थात् पिताने विवाहादि कार्य सम्पन्न करके मुनि सुवतनाथ को युवराज्याभिषेक क्रिया ॥१७॥ पुण्यैकलभ्योऽधिकसौख्यहेतुर्विचित्रवर्णो विशदांतरंगः ॥ नृपासनस्थोऽनमयत्रिलोकी स दीपवति निधिवत्पदाग्रे ॥१८॥ पुषय फेत्यादि । पुण्यै कलभ्यः पुण्यमेधैक पुण्यैक लन्धु योग्यो लभ्यः पुण्यकेन सभ्यः सुकमेकेन प्राप्यः । अधिकसौख्यहेतुः सुखमेव सौख्यं अधिकं च तत् सौरव्यं च अधिकसौरूवं अधिकसौरव्यस्य हेतुस्तथोक्तः प्रकृष्टातींद्रियसुखस्य हेतुः बहुलेंद्रियसुखस्य कारण च। विचित्रवर्णः विचित्रो वर्णी यस्य सः तथोक्तः अद्भुतशोभायुतः विविधमणिमयत्वामानावर्णसहितश्च । विशदांतरंगः विशदम तरंगं यस्य सः निर्मलाभिप्रायः निर्मलादिप्रांतांगा था। नृपासनस्थः नृपस्यासनं नृपासमं तत्र तिष्ठत्तीति नृपासनस्थः । सः। पदाने पक्ष्योरगं पदाधं तस्मिन् चरणयोपरि पदस्याग्रं पदाम सस्मिन् स्थानाने । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ सप्तमः सर्गः। निधिषत निधिरिच गिधानमिव । दीपति' दीपस्य धर्तिः दीपतिस्ता प्रदीपवर्तिकां । चर्शिद्वापदशादीपगावातुलानी च । वतिभेषजनिर्माणनयनांजनलेखयोः" इति विश्वः । त्रिलोकी प्रयाणां लोकानां समाहास्त्रिलोकी तो "दिगो." पति की त्रिभुवन । अनमयत् प्राहयत् णम् प्रत्वे शन्दे णिजन्ताल्लऊ ॥ १८ ॥ मा० १०-पुण्य ही से प्राप्त करने योग्य, अतीन्द्रिय-सुस्वद अथवा अधिक सुखके कारण भूत, आश्चर्यजनक शोभा सम्पन्न अथवा विवित्रमाणभय होने से नानावर्ण से युक्त तथा स्वच्छान्तरंगवाले मुनिसुव्रतनाथ ने निधितुल्य दोपर्ति का के समान त्रिभुयन को अपने पैरों पर अथवा निधिस्थानपर अवनत किया अर्थात् समस्त संसार उनके सामने प्रणत रहते थे॥१८॥ अास्थानलक्ष्म्या: सगुणोकांतिपावलीमौक्तिकहारमध्ये ॥ स्थितो दधौ नायकरत्नशोभामसौं महानीलरुचिर्नृपेंद्रः ॥ १६ आस्थानलक्ष्म्या इत्यादि । आस्थानलक्ष्म्या: स्थानस्य लक्ष्मीस्तथोक्ता तस्याः समाश्रियः। नृपापलीमौक्तिकारमध्ये नन पातीति नपास्तषामावली नपावली मौक्तिकानां हारो नपावत्येत्र मौक्तिकहारस्तस्य मध्यं तस्मिन् भूपतिसमूहमुक्ताफलहारमध्ये। स्थितः तिष्ठति स्म स्थितः । गुणोरुकातिः उींचासौ कातिश्च तथोक्ता गुणाश्वोरुकांतयश्च गुणोतकांतयः गुणोरुकांतिभिः सह वर्तत ति सगुणोरुकांति: संध्यादिगुणमहत्कातिव्ययुक्तः तंतुयु तियुतः। "मौव्यप्रधान गारदिद्रियसूत्रमत्वादिसंध्यादिविद्यादिहरितादिषु गुणः" इति नामार्थकोशे । महानीलरुचिः महश्च तत् नील च महानील तस्य चिर्यस्य सः इन्द्रनीलरत्न कांनियुकः । असौ अयं । नृपेन्द्रः नृपाणामिंद्रस्तथोक्तः । नायफरतशोमां नायक' ब तत् रत्नं च नायकरत्नं तस्य शोभा तरलरलाभां । दधौ धरति स्म दुधान धारणे व लिट् ॥ १६॥ भा० १०-गुणयुक्त अथवा तन्तुयुक्त, अत्यधिक प्रभाशाली और घहुनील कान्तिवाले इस राजा मुनिसुव्रतनाथ ने सभालक्ष्मी के नपसमूह रूपी हार के बीच में रत्नों के स्वामित्व की शोभा धारण की ॥१६॥ स चंद्रपाषाणसभापयोधौ सचामरोल्लोलतरंगमाले ॥ शेषोपमरफाटिकविष्टरस्थः श्रिया सनाथो हरिवञ्चकाशे ॥२०॥ स इत्यादि। सचामरोलोलतरंगमाले उल्लोलाश्च ते तरंगाश्म उल्लोलतरंगाः चामराप्येषोलोलतरंगा: चामरोल्लोलतरंगाः तेषां माला चामरोलोलतरंगमाला तया सह पर्तत Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाच्यम् । इति सचामरोलोलतरंगमालस्तस्मिन् प्रकीर्णकोपमार्मिपंक्तिसाहिते। चन्द्रपाषाणसभापयोधौ चन्द्रामाणेन निर्मिना सभा तथोक्ता चन्द्रपापाणसभेव पयोधिस्तस्मिन् धंद्रकांसशिलारचित सभासमुद्र । शेषोपयस्फाटिकविटरस्थः स्फटिकेन निर्मितं स्फाटिक तच तत् विरं च स्फाटिकरियां शेषस्योपम शोषोपमं तच नात् स्फाटिकविष्रं च तस्मिन् तितीति शेोपमस्फाटिकविष्टरस्थः महाशेषोपमानस्फटिकनिर्मितसिंहासनस्यः । श्रिया संपत्त्या । सनाथ: सहितः । स: जिनः । धिया रमया । सनाथः युक्तः । श्लेषः । हरिचात् हरिरिव हरिवत् नारायण इव ! धकाशे बभो । काशि दीप्ती लिट् उत्प्रेक्षा Rom भा..-चाररूपी चंचल तरंग की माला घाले चन्द्रकान्त-मणिनिर्मित सभासमान में शेष-तुल्य स्फटिक रचित आसन पर बैठे हुए मुनिसुव्रतनाथ लक्ष्मी-युक्त विष्ण के समान देवीप्यमान होने लगे ॥२०॥ चकपिरे हेममयाः किरीटा मुहः सभासौधसदां नृपाणां ।। जिनोक्तिपीयूषजुषां यथामी मरुहशाज्जाह्मवपद्मकोशाः ॥२१॥ चकपिर इत्यादि। सभासौधसवां सभायास्सौधस्तथोक्तः सभासौंधे सीदतीति सभासौधसइस्तेषां सभासदने विद्यमानानां । जिनोक्तिपीयूषजषां जिनस्योक्तिः जिनोक्तिस्सव पीयूषं तथोक्तं जिनोक्तिपीयूपं जुपंतीनि जिनोक्तिपीयूषजुषस्तेषां जिनवचनामृतं प्रीत्या सेवमानानां । नृणां राजां । हेममया: हेस्रो विकारस्तथोक्ताः समर्थ. मयाः । किरीटा मुकुदानि । मुहुः मुहुः पुनः पुनः । मरुद्वशान् मरतो यशो मरुतशत्तस्मात वाताधीनात् । अमी इमे। इदमस्तु संनिकृष्टेऽर्थेऽदतो विप्रकष्टोऽर्थः समीपतर वर्तितदा रूपं तदिति परीक्षे विजानीयात्" इति वचनात् । जाहनवपनकोशाः जान्या इद आइर्व लश्च तत् पद्म च नथेोक्त' जाहयपग्रस्य काशास्तोताः गांगेय. कमलकुमला: "कोशोऽस्त्री फुड्मले खपिनाने ऽथोदिव्ययाः" इत्यमरः । यथा च पिर। चेलुः कपुङ चलने लिट् उत्प्रेक्षा ॥ २१ ॥ भा० अ.- सभागृह में बैठे हुए तथा जिनवचनामृत पान करते हुए राजाओं के सुवर्ण मुकुट हवा के झोंके लगी हुई जायची कमल-कलिका के समान बार बार कम्गित होने लगे ॥२१॥ जिनांबुदः पीठनगाधिरूढो दिवौकसामेष धिनोतु बंदं । प्रवर्षणैर्वागमृतस्य चित्रं प्रमोदयामास च राजहंसान ॥२२॥ जिमांघुव इत्यादि । पीठनगाधिरूढः पीठमेष नगः पर्वतो वृक्षोषा तथोक्तः पीउनगमपिरो. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ ससमः सर्गः। इप्तिस्म तथोक्तः सिंहासनादिस्थ: मद्रासनमस्थितो वा । "शैलपक्षौ नगावगी' इत्युभयत्राप्यमरः । एषः मयं । जिनांबुदः अंबु ददातीत्यधुरः जिन एवांबुदः महहिवनीयः । पागमृतस्य वागवामृतं वागामुत तस्य वधःपीयूषस्य । प्रवर्षणः प्रकृष्टानि वर्षणानि प्रवर्षणानि तः प्रसेवनः । दिवौकसा दिवि मोको थेषां ते विचौकसस्तेषां अमर्यानां चा तकानां स"दिवौकाश्चातके सुरे” इति विश्वः। निचयं । धिनातु प्रीणातुधियु प्राणने लोट् । किंतु राजद्दसान् राजानो हसास्तान् हंसपक्षिण; नरेंदधश्चि । "नृपश्रेष्ठकादबकलइसेष राजहंसः" इति नानार्थ कोशे। घ समुच्चयार्थः । प्रमोदयामास संतोषयामास । मुदिर्षे णि तालिट् । चित्र आश्चर्य । अत्र मेघस्य हंसतोषकत्वमद्धतं । रूपकः ॥ २२॥ भा० म०-सिंहासनाधिद अथवा पर्वताधिरूढ़ होकर श्रीजिनेन्द्र रूपी मेघ ने देषताओं अथवा चातकों के समूह के प्रसन्न किया किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वाकसुधा वृष्टि के द्वारा राजाओं अथवा राजहंसो को भी तृप्त कर दिया ।।२२।। स्वस्थैरदुःस्थोऽतनुसौख्यकृष्टैर्जुप्टामृतैरष्टगुणाभिरामैः ॥ वृतोऽजरैः सिद्ध इवैष देने विलोक्यन लोकानि समस्ताम् ॥ २३ ॥ स्वस्थैरियादि। स्वस्थः स्वस्तिष्ठ तीति स्वस्थाः देवास्त: “स्वरित्यव्ययस्थस्य रे फस्य लुक' इति लुक पक्षे स्वस्मिस्तिष्ठतीति स्वस्थास्तैः स्वात्मस्थितैः। अतनुलोण्यकृष्टः म विद्यते तनुर्यस्यासायतनुः सुखमेव सौख्यं अतनाः सौख्यमतनुसौल्य तस्य कामसुखस्य मातनूनि मतनूनि असननि च तानि सौख्यानि च तनुः काये कशे चापे विरलेऽपि च याच्यवत्" इति विश्वः । कृष्यते स्म कृष्टाः अधीना: अनंतसुखाना पकाष्टा अधीनास्सैः । जुष्टामृतैः जुष्यते स्म जुष्ट जुटममृतं यस्तैः अनुभूतपीयूषैः प्राप्तनिर्वाणश्च । भष्टगुणाभिगमः अघट च गुणाश्च तथोक्ताः अष्टगुणरभिरामास्तथोक्तास्तः अणिमाद्यष्टगुपीः सम्यक्त वाद्यष्टगुणाभिरामः । अजरःन विद्यते जग येषां ते अजरास्तैः देवः पने जरारहितः उपलक्षणात् जातिजरामरणरहितः मुक्तात्मभिरित्यर्थः। वृतः वियते स्म वृतः परिवेष्टितः । अदुस्थः हुःखे तिष्ठतीति दुस्थः न दुस्थः अदुस्यः समृद्धः सुस्थितश्च । समस्तां सकलां । लोकगतिं लोकस्य गतिर्लोकगतिस्तां प्रजाजीवनापाय भुवनस्थितिं च "गतिविशायर्या च झाने यात्राभ्युगययाः । नाडीषणसरण्या ब" इति विश्वः । विलोकयन् विलोकयतीति विलोकयन् विचारयन् । एषः अयं जिनराजः। सिद्ध य सिध्यति स्म सिद्धः सिद्धपरमे ष्ठिव । रेजे चकाशे। बाजु दीप्तौ लिट् ल षोपमालंकारः॥२३॥ मा० १०-स्वस्थ भधया निजात्मखित, अनन्तसुखानुभवी अथवा काम-सुखलित, भमृतसेवी अथवा निर्वाणानन्धमान, अणिमाघष्ट गुणों से युक्त भषया सम्यक्पादि से Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १४६ मिश्रित, देवताओं से अथवा जगराहित्य से परिवेष्टित और समृद्ध अथवा सुस्थित श्री. मुनिसुषतनाथ प्रजाओं के जीवनोपाय का विचार करते हुए सिद्ध परमेष्ठी के समान सोभने लगे ॥२॥ . नरोरगवर्गिमनोरमाभिरुपास्यमानः स बभौ सभायाम् जयार्थमुन्मुद्रितशस्त्रकोशो जगत्त्रयाणामिव पुष्पकेतुः ॥२॥ मशेरगेत्यादि। सभायां सदसि । नरोरगस्वर्गिमनारमाभिः नराश्च उरगाश्च स्वर्गोऽ. स्त्येषामिति स्वनिणस्ते च नरोरगस्वर्गिणः मनोरमयंतीति मनोरमा: नरोगास्वनि मनोरमा: नरोररास्वर्णिमनारमाताभिः मनुष्यभवमवालिककहाचासिकनारीभिः । उपास्यमानः उपास्यत इत्युपास्यमानः सेव्यमानः। जगत प्रयाणां योऽत्रयवाः संत्ये. पामिति त्रयाणि जगतां याणि जगत्त्रयाणि तेषां लोकत्रयाणां । "अवयात्तयडू"इति तयट्। "विषिभ्यां लुम्बा"हति तस्य लुक् । जगत्त्रयाणामित्यनेकान्यपि जगत्त्रयाणि जयेदिति पुष्पकेतोस्संभायनाबहुत्वं । जया जयायेदं जयार्थ' जयनिमित्तं । उन्मुद्रितशस्त्रकोशः शस्त्राणां कोशः शस्त्रकोशः उन्मुद्वितः शस्त्रकोशो यस्य सः नथोक्तः मुवाविरहितायुधभांडागारः । पुषकेतुः पुष्पाण्येव फेतुर्यस्य सः तथोक्तः मन्मथ इव पनौ बजे। भा दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥२४॥ __भा० अ०--मनुष्य स्त्री, भवन, और कहरवासिनी अगनाओंसे समामें सेवित होते हुए मुनिसुप्रतनाथ त्रिभुयन को जीतने के लिये शस्त्रास्त्रसे सजित कामदेव के समान सोमते थे। उपायनीकृत्य गजाश्वरत्नान्युपागतानामधिपं नृपाणाम् ॥ न केवलं मार्गरुधो नगेंद्रा निपेतुरेषां दुरिताद्रयश्च ॥ २५ ॥ उपायनीकृत्यादि। गजाश्वरत्नानि गजाश्च प्रवाश्य ग्लानि च तथोक्तानि समस्तानि झुंजरवाजिमणीन् । उपायनीकृत्य प्रागनुपायनमिदानमुपायनकरण पूर्व पश्चात्किंचिदिति तथोक्त उपहारं कृत्वा । अधिपं स्वामिनं । उपागतानां उपायाताना। नृपाणां राक्षो । केवल परं । मार्गरुधः मार्ग धंतीति मार्गरुधः वर्मप्रतिबंधकाः । नगेंद्राः नगानामिन्द्रास्तथोक्ताः गिरिवराः । न निपेतुः न पतति स्म अपितु पषां नृपाणां मार्गह: मोक्षमार्गनिरोधकाः दुरितादयश्च दुरितान्येवाद्रयः निपेतुः पल्ल गती लिट् सहोक्तिः ॥२५॥ मा० अ०-(मुनिसुव्रतनाथ को ) हाथी, घोड़े तथा रत्नों को उपहार देकर लौटते हुए राजाओं के मार्ग में रुकावट डालने वाले केवल पर्वत ही नहीं गिरे प्रत्युत मोक्षमार्ग के Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ · समाप्तः सर्गः। बाधक पारूपी पर्वत भी विनम्र हो गये ॥२५॥ भक्तुं जिनेंद्रं बजतां नृपारणां चमूपातपरागपाल्या ॥ बिहाय चेतांसि पलायमानकपोतलेश्यावृतिरन्यकारि ॥ २६ ॥ भक्त मित्यादि । जिनेंद्रम् जिनानामिंद्रो जिनंद्रस्त । भक्त भजनाय भक्त सेवितु । घजतां प्रजतीति धजंतस्तेषां गच्छतां । नृपाणा नून पासीति नृपास्तेषां राज्ञां । अमूग. तपरागपाल्या चमूनां पदानि चमूपदानि चभूपदैरुद्धनास्तयोकाः बभूपदाद्ध ताश्च ते परागाश्च तथोक्ताः चमगाद्ध तपरागाणां पालिस्तया सेनाचरणनिर्गतधूलिश्रेण्या । "परागः पुष्परजसि धूलिस्मानीययोरगि । गिरिप्रभेदे विख्यातायुपरागे चचदने । पालिः कर्णलतानेऽश्री पकायकप्रदेशयोः। पालिः प्रस्थे च यूकायां जातश्मश्रु स्त्रियामषि" इत्युभयप्रापि घिश्यः । चेतांसि हृदयानि । विहाय विद्वान पूर्व पश्चादिनि । पलायमानपातले. श्याकृतिः पलायत इति गलायमामा कपोताचासो लेश्या च पातलेश्या पलायमाना वासौ अपनलेश्या च तथौका पलायमानकपोसलेश्यायाः आकृतिस्तथोक्ता धायस्कपोतलेश्यापरिणामाकारः । अन्यकारि अन्धकियत डुकृञ् करणं कर्मणि लुङ् ॥२६॥ ___० अ०-श्रीजिनेन्द्र भगवान का सेवन करने के लिये जाते हुए राजाओं की सेना के पाघात से उड़ी हुई धूलिराजियोंने चित्त को छोड़ कर भागती हुई काशेत-लेश्या का भनुकरण किया ॥२६॥ चित्र कृपालोर्जिनपस्य राज्यं यत्प्राप्तबंधानपि पापदस्यून् ॥ बाधां दुरंतां दधतो नितांत विमोचयामास जगज्जनानां ॥ २७ ॥ चित्रमित्यादि। यत् यस्मात्कारणात् । प्राप्तयंधानपि प्राप्यते स्म प्राप्तास्ते च ते बंधाश्च प्रतिबंधाः पक्ष प्राप्ता बंधाः येषां ते तान् प्राप्नप्रतिस्थित्यादिधान् शृखलादि. बंधनयुक्तान् । जगजनानां जगनि विद्यमाना जनास्तेषां लोकजन्तूनां । दुरंतो अवधिरहितां । बाधां पोड़ा। दधतः दधनीति दतस्तान् विनम्तः । पापस्यून पोपान्येष मस्ययस्तथोक्तास्तान् । "इल्यशाप्रवशत्रः" इत्यमरः । नितांतं अत्यंत । विमोचयामास शिकार यामास मुच्ल मोचने णिजंताल्लिए । “दयायास्वेत्यादिना" आम् असमुचिति धातार्योगः । कृपालो कपास्यास्तीति रुगालुस्तस्य "पाहदयाः” मल्यर्थं आलु' प्रत्ययः दयायुक्तस्य। जिनपस्य जिनान पातीति जिनरस्तस्य जिननाथस्य । राज्यं गझो भावः कृत्य वा राज्य प्रभुत्ध चित्रं आश्चर्यम् ॥ २७॥ भा० १३-सांसरिक जीवों को निस्सीम पीड़ा पहुंचाने की वजह से प्रकृतिपित्यादि Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ मुनिसुव्रतकाव्यम् । पन्धन-चतुष्टय अथवा शृङलादि बन्धन को प्राप्त हुप पापही चोरों को एकदम मुक्त कर दिया गया यही दयालु जिनेन्द्र भगवान के राज्य की विचित्रता है ।।२।। जिनेऽवनी रक्षति सागरांतां नयप्रतापट्टयदीर्घनेले ॥ कस्यापि नासीदपमृत्युरीतिः पीडा च नाल्पाऽपि बभूव लोके ॥२८॥ जिन इत्यादि । नयप्रतापद्रयदीर्घनेत्रे नयश्च प्रतापश्च नयप्रतापी तयाय तथोक्तं दीर्घ च नेत्रे च दोध नेत्र नयप्रतापवयमेव दोध नेत्र यरूप स: नयप्रतापवयी नेत्रस्तस्मिन् नीतिपराक्रमद्यविशालनयनयुक्त । साकः । जिने जिनेशे । सागरांतां सागर ए. घांनो यस्यास्सा तो समुदावमानां । अवनी भूमिं । रनि रक्षतीति रक्षन् तस्मिन सति । लोके जगति । कस्यापि एकस्यापि । अपमृत्युः अकालारण । इति प्रयास अतिवृष्यादि । “इतिः प्रवासे डिंबे स्यादतिवृष्ट्याविषट् सुच" इत्युभपत्रापि विश्वः । नासीत् नाभवत् । अगापि पीडा च 1 न बभूव न भवति स्म । भू सत्तयां लिर ॥२८॥ भा० अ०-मोति तथा प्रतागरूपी विशाल नेत्रदयसे युक श्रीजिनेन्द्र भगवान के समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्यों के शासन करते रहनेपर संसार में किसी को भी अकालमृत्यु तथा अतिवृष्ट्यादि को थोड़ो भी पीड़ा नहीं हुई ॥२८॥ अधर्मता खड्गिनि तस्य राज्ये पयोधरे सत्पथरोध ग्रासीत् ॥ वधूकटाक्षे श्रवणातिपाता गजे कदाचिद्यदि दानलेोपः ॥२६॥ भधर्मतेत्यादि । तस्य मुनिसुव्रतस्वामिनः । राउरे राज्ञः कत्ये । स्वगिनि । अधर्मसा न विद्यते धर्मः पुण्यं यस्यामाघधर्मः पक्षं न विद्यते धर्मो धनुर्यम्यसाधर्मस्तस्य भावोऽधर्मता पुण्यराहित्यं वापरहितत्व । “धर्मः पुण्ये यमे न्याये स्वभाश्चार यो: क्रतो । उपमायामहिसायो चापे चपनिगद्यते"इति विश्वः । मासीत अभवत् । सरपथरीधः संश्चासी पंथाश्च सत्पयः सन्मार्गः पझे सतां नक्षत्राणां पंथा; सत्पथः सोम । “सत्प्रकाशे विद्यमाने विषु क्लीवे सत्यतारयोः" इति शाश्वरः।"ऋक्त पापोऽत्" इत्यत् प्रत्ययः । तस्य रोधी निरोधः सन्मार्गनिरोधः आकाशनिरोधः । पयोधरे पयांसि धरतीति पयोधरस्तस्मिन् मेधे । आसीत्। श्रवणातिपातः श्रषणस्थ परमागम नेः श्रवणानां दिगंबराणां का पक्ष श्रवणयोः कर्ण - था: अनिपातः अतिपतनमनिपात: उल्लंघनं । "श्रवणं स्थावृक्षभेदे धवणं श्रुतिकर्णयोः । श्रवणो मासपापण्डे दध्याल्यां श्रवणोमता" इति विश्वः । वधूकटाक्ष बधूनां कटाक्षी वधूकटाक्षस्तस्मिन् । यदि चेत् । दानलोपः दानस्य लोपस्तधोक्तः त्यागरहितत्वं पक्ष मदजलाभाधः। "त्यामगजमशुद्धिपालनछेक्नेषु दानम्" इति नानार्थकोशे । कदाचित कस्मिंश्चित्काले। गजे कुंजरे। आसीत् अभवत् । परिसंख्यालंकारः ॥ २६॥ . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सप्तमः सर्गः। मा० म०-श्री मुनिसुव्रतनाथ के राज्य में बहुधारियों में अधर्मता (धनुहोमता या पुण्याहितता ) थीम कि यहां के लोगों में, मेघ मण्डल में ही सत्पथ-सन्मान ( भाकाश मार्ग) की हकापट धीन कि यहाँ के जनों के, लियों के कटाक्ष पर ही श्रवण (कान) का उलन करमा अर्थात् कान तक पहुंच जाना निर्भर था न कि वहाँ के लोगों में शास्त्रों का अथवा दिगम्बर मुनिषों का अनादर करना, और हाथियों में ही कदाचित् दान (मदधारा ) का लेप हो सकता था न कि वहां के लोगों में ।२६।। रतिक्रियायां विपरीतवृत्ती रतावसाने किल पारवश्यं ॥ बभूव मल्लेषु गदाभिघातो भयाकुलत्वं रविचंद्रयान ॥३०॥ रतीत्यादि। विपरीतत्ति: विपरीता धृत्तिविपरीतवृत्तिः विरुद्धावरण पक्षे पुरुषपता रतिक्रियायां रत्वाः क्रियारतिक्रिया तस्यां । बभूव भवति स्म । पारवय परस्य यशः पाषशः तस्य भावः पारवश्यं शरीरादिपायाधीन पक्षं मूर्धापराधीमत्वं । रतावसाने रतस्याघसानं रतावसानं तस्मिन् सुरतति । बभूव । गवामिघातः गदानां ध्याधीना पक्ष पदाया: इंडस्य अमिघातः प्रहारः रोगबाधा दंडायुधातिः । “आयुधामयभ्रातृविष्णुषु गदः" इति नानार्थकोशे । मलेषु मल्लभदेषु । बभूव । भयाकुलत्वं भयेनाकुलो भयाकुलस्तस्य भाषा भयाकुलत्व भीतिकातरत्वं । पक्ष भया कांन्या आकुलस्वं संकीर्वात्वं । रविचन्द्रयोः रविश्ववश्व रविची तयोः सूर्यचंद्रमसोश्च । बभूव किल । भू सत्तायां लिट् । परिसण्यालंकारः ॥३०॥ मा. 10-रतिक्रिया में ही कदाचित् विपरीत वृत्ति ( पुष्पवृत्ति ) यो पर यहाँ के लोगों में विस्तारण नहीं था, संभोग के अन्त में ही पारवश्य (शिथिलता ) था पर यहाँ हे लोगों में परदन्यपराधीनता न थी, मल्लों में ही गदा के प्रहार का प्रचार था न कि वहाँ के लोग गद (व्याधि ) प्रस्त थे और चन्द्र तथा सूर्य ही कदाचित् भा (कान्ति) से परिपूर्ण न थे न कि यहाँ के लोग भयाकुल थे ।३०॥ इति निरुपमभत्क्या सानुरक्त्याऽवनम्रत्रिभुवनपतिचूडाचित्ररत्नांशुवा ।। विलिखितपदपीठराजपीठे स तस्थौ दशदशशतसंख्यान वत्सरान पंच चैव ॥३१॥ इतीत्यादि । सः मुमिसुत्रतप्रभुः । सानुरक्त्या अनुरमत्या सह धर्मत इति सानुरक्तिः सया अनुरागरक्तया निजियेत्यर्थः । इति पर्व प्रकारेपा | मिरुपमभक्त्या उपमाया निर्गता निरुपमा सा पासो भक्तिश्च निरुपमभक्तिस्तया उपमातीतभात्या। अपनम्नत्रिमुवनपतिचूदा. विचरतांशुवा प्रयाणां भुवनानां समहारमिभुषनं तस्य पतयः त्रिभुवनातयः अधनअतीत्येवं शोला: मवननाः ते च से त्रिभुवनपवयम्ध तेषां खूला तथोक्ता: चित्राणि च Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० मनियतकाव्यम् । हानि रत्नानि च चित्ररत्नानि तेषामंशवः चित्ररलांशवः अधमप्रत्रिभुवनपतिचूडानां चित्ररत्नांशवस्तथोक्ताः तयेव धर्तिस्तया मवनमनशीलत्रिलोक. पतिमुकुटरलकांतियर्तिकया। "वर्तिीपदशादोपगात्रानुलेपनीषु च । वर्तिमेषजनिर्माणायनांजनलेशयोः" इति विश्वः । विलिखितपशीठे पदयोः पोठं पदपीठं चरणासन विलिक्षित पदपीठ यस्य तस्मिन् । राजपीठे रामः पीठं राजपीठ तस्मिन् । शदशशतसंख्यान पश चारान् शतानि दशशताति पुनरपि दशवारान् दशशतानि दशदशशतानि तान्येव संरूपा येषां ते दाइशश तसंख्यास्तान् । पंच व । घरसरान् वर्षान् । पंवाधिकदशसहस्त्रवर्षपर्यतमित्यर्थः । "कालाध्वानाप्तिौ" इति व्याप्त्यर्थे द्वितीया। तस्थौ तिष्ठति स्म । छा गति निवृत्ती लिट् ॥ ३१॥ इत्पईदासकनेः काव्यरत्नस्य टीकायां सुखयोधिन्यां भगवत्कौमारयौवनदारकर्मसाप्राज्यवाना नाम सप्तमसोऽय समासः । ___ भा० ०- इस प्रकार निश्छल तथा अनुपम-भक्ति से अवनत त्रिभुवनपतियों की मुकुटमणि से प्रतिविम्बित राजसिंहासन पर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने आरूढ़ होकर दस हजार पांच सौ वर्षों तक राश्य-शासन किया।३१। अथ अष्टमस्सर्गः अत्रांतरे श्रुतधरः श्रुतधर्मतत्त्वैर्भव्योत्तमैर्दमवरारव्यमुमुचमुख्यः॥ पालोक्य यागकरिपुंगवमस्तहर्षमापृष्ट इत्यचकथद्गजराजवृत्तं ॥१॥ अत्यादि। अत्रांतरे अस्मिन्नवसरे पतत्साम्राज्य काल इत्यर्थः । श्रुतधर्मतः श्रुतधर्मस्य तत्व श्रूयते स्म श्रुतं श्रुतं धर्मतत्त्व येस्तैः श्रू तधर्मस्वरूपैः । भव्योसमैः रत्नप्रयाविभवनयोग्याः भव्याः भव्यषसमा भत्र्योत्तमास्तः विनेयजन मुख्यैः । अस्तहर्ष अस्तो हर्षो यस्य तं नष्टसंताएं । यागकरिगवं पुमांश्वासो गौश्च पुगवस्तथोक्तः यागाई फरिपंग. वस्तथोक्तस्त पट्टबंधगजबर ! विलोक्य आलोक्य । मापृष्टः आपृच्छते स्म भापृष्टः विज्ञापितः। श्रतधरः श्रुतं धरतीति भूतधरः परमागमभृत् । दमवराण्यमुमुक्षमुरव्या दमख्य बरोइमवरः दमवर इत्यारण्या यस्य सः मोक्षमिच्छवो मुमुक्षवस्तेषु मुख्यस्तथोक्तः दमषारण्यवाली मुमुक्षुमुख्यश्च तथोक्तः दमवरनामधेयमुनिश्रेष्ठः । इति वक्ष्यमाणप्रकारेण । गजनिवृत्त पजानां राजा गजराजस्तस्य वृत्त करींद्रचरित्र' । अचीकथात् अनीता रथ वाक्यप्रबंधे चुरादिभ्यो.णि कथापामीत्यादिमा अक् तस्य लोपः लुङ गरिसतोत्यादिना णिलुक् संधत्यादिना र विर्षातुरित्यादिना विर्भावः सन्यालघावित्यादिना अग्लुबिसन्धमा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः । १५१ " सन्यास" इतीत्वभावः ॥ १ ॥ मा० अ० एक समय इन्हीं मुनिसुव्रतनाथ के शासन काल में पट्टबन्धगजाधिपति की उदासी न देख कर धर्मतत्त्व को सुनें हुए उत्तम भविकों से इसके विषय में पूछे गये दमवर नामक परमागमशासा मुमुक्षुभ्रं ष्ठ यतिवर ने हाथी का वृत्तान्त यों कहा |१| राजाभवन्नरपतिः पुरि पूर्वताले दानं ददौ निकृतनिर्मल जैनधर्मः ॥ 1 स्वैरं कुपात्रनिवहाय ततोऽजनिष्ट सोयं गजः स्मृतवनः कबलं निरुंध ॥ २ ॥ राजेत्यादि । पूर्वताले पूर्वतालाख्ये । पुरि पत्तने नरपतिः नराणां पतिस्तथोक्तः नरपत्यारव्यः । राजा स्वामी अभवत् अभूत् । भू सत्तायां लङ् । निकृत निर्मल जैनधर्मः निक्रियते स्म निकृतः मानिती निर्मल: जिनस्यायं जैनः संसारदुःखाक्रांतान जीवानुद्धृत्य मोक्षसुखे धरतीति धर्म: जैनश्वासी धर्मश्व जैनधर्मः निर्मलवामी जैनधर्मश्च तथोक्तः निकृतो जैनधर्मो येन सः तथोकः तिरस्कृतानवर लत्रयात्मकधर्मः सन् । स्वयं स्वष्टं । "स्वच्छंदयोः स्वरः" इत्यमरः । कुपात्रनिहाय कुत्सितानि पात्राणि तेषां निवहस्तथोक्तः तस्मै कुलितपत्रसमूदाय । दानं धनादित्यागं । ददाँ वदाति स्म । हृदान् दाने लिट् । ततः तस्मात्कारणात् । सः नरपतिः । अयं एषः । गजः करिस्पतिः । अजनिष्ट अजायत । जङ् प्रादुर्भावे लुङ् । स्मृतवनः स्मृतं वनं येन सः चिंतितवनन् । कपले आद्दारं । निरुध निवारयते धिङ् आवरणं लट् ॥ २ ॥ I मा० १० - पूर्वताल नामक नगर में यह गजराज विशुद्ध जैन धर्म को तिरस्कृत किये हुआ नरपति नामक एक राजा था। कुपात्रों को मन माना दान देने से इसने हाथी की योनि में जन्म लिया है। इसे अपने पूर्व वन की बात याद आयी भतः भोजन नहीं करता |२| आकर्य तद्वचनमाप्तभवस्मृतिरसन सद्यः सदृग्विकल संयममग्रहीत् सः ॥ श्रुत्वा जगत्त्रयगुरुस्तदिदं सभास्थ निर्वेदमात्महृदये विभरां बभूव ॥ ३ ॥ आकर्येत्यादि । सः यागस्ती | तद्वचनं तस्य वचनं तथोक' मुनिवचनं । आकर्ण्य श्रुत्वा । आप्तभवस्मृतिस्सन् बध्यते स्म आप्ता भवस्य स्मृतिः आप्ता भयस्मृतिर्येन सः तथोकः प्राप्त जातिस्मरणसन् । सद्यः तस्मिन्निति सद्यः तत्क्षणे । सद्द्वग्विकलसंयमं द्वशा सह घर्तन इति सदृक् सचासौ विफलसंयमश्च सग्विकलसंयमस्तं दर्शनयुक्त देश संयम । अग्रहीत् अगृह्णात् । ग्रही उपादाने लुङ् । तदिदं तदेतत्सर्व समावः सभयां तिष्ठतीति सभास्यः स्याने स्थितः । जगत्त्रयगुरुः जगतां त्रयं जगत्त्रयं तस्य गुरुः लोकत्रयस्वामी । श्रुत्वा | आत्महृदये आत्मनो हृदयं आत्महृदयं तस्मिन् स्वस्य विशे । वि राय । बिमारांबभूव डुभृञ धारणपोषणयेाः । “भीहीमृोः लुटदीति" वत् । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुप्रतकाव्यम् । १५२ "द्विर्धातुः इत्यादिना निः । “भामिति” भू सत्तायां इति धाता: पुनर्योगः। घरतिस्मेत्यर्थः ३॥ मा० अ-लस हाथी ने अलिखित मनिता से अपने पूर्व भव की सभी बातें सुन कर जाति-स्मरण होने से तत्क्षण सम्यग्दर्शन-पूर्वक देशसंयम को धारण किया यह बात सुन कर त्रिभुवन-गुरु मुनिसुवत नाथ के मी चित्त में एक दम धैराग्य हो गया ।३। हताशुभाशरणदुःखचले भवेऽस्मिन् बीभत्सके वपुषि चेतननेययंते ॥ प्रारंभमिष्टपरिणामकटौ च भोगे लोलो क्साम्यलमलं स्वहिते यतिष्ये ॥४॥ हतेत्यादि। भशुभाशरणदुःखचले न शुभमशुभं न शरणमशरण उभयत्र बहुव्रीहिर्घा अशुभं च तदशरणं च तथोक्त दुःखं च तत् चलं च तथोक्त अशुभाशरणं च तत् दुःखचल च अशुभाशरणदुःखचलं तस्मिन् प्रशस्तशरणाहिनपीडा कारणस्थिरत्वाहिते | खंजकुंडादिवदन्यतरप्राधान्येन विशेषणमित्यादिना कर्मधारय पव समासः। अस्मिन् एतस्मिन् । भवे संसारे । बोभत्स के जुगुप्ताजनके । चेतनाययंत्र नेतुं योग्य नेयं चेतनेन नेयं चेतननेय चेतननेयं च तत् यंत्रं च चेतननेययंत्र तस्मिन् अवेतनत्वाळोवपीययंत्र । वपुषि शरीरे । प्रारंभमिष्टपरिणामकी प्रारंभे मिष्टः प्रारंभमिष्टः परिणामे कट : परिणामकट प्रारंभमिटचासो परिणामकटुश्च प्रारंभमिएपरिणामकट : तस्मिन प्रथमे मनोरं चरमे परुषे । भोगे विषयद्रव्ये च । केरल: आसक्तस्सन् । चप्लामि तिष्ठामि । हैन हा । अलमलं पर्याप्त पर्याप्त । "बाल भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्" इत्यमरः । स्वहिते स्वस्मै हितं स्वहित तस्मिन आत्महिते काय । यतिष्ये प्रयत्नं करिष्ये यति प्रयत्ने लार ॥ ४॥ ___मा० १०-मैं अशुभ तथा शरणहित दुःखों से चलायमान इस संसार में चैतनयंत्र के द्वारा नानायोनि में जन्न कराने वाली घृणास्पद देह में रख प्रारंभ में सुखद तथा परि. णाम में दुःखद भोग में लिप्त हो रहा हूं। हा!!! अब मैं आत्मकल्याण के लिये प्रयत्न करूगा ( ऐसा मुनिसुव्रत स्थामा ने कहा ) [४] तन्निश्चितात्मकरणीयतया वसंतं खातं नितांतमवधार्या विमुक्तिनायां ॥ संपर्कलालसधियेव चरा विमृष्टाः संप्राप्य साधु जगदुर्जगदंतदेवाः ॥५॥ तमित्यादि। स्वांतः स्वस्य अत: स्वांत : अतरंगे। नितांत अत्यंतं । निश्चितात्मकरणीयतया निश्चीयतेस्म निश्चित आत्मना करणोयमात्मरणीयं निश्चितं च तत् धात्मकरणीय च तथोक्तं तस्य भावो निश्चितात्मकरणीयता तया व्यवसितस्वकीयफर्तव्य तया । वसंत वस. तीति चसन तं वसंतं तिष्ठत तं मुनिसुवाजिनप। अबधार्ट अवधारण पूर्व पश्चारिकञ्चिदिति निश्चिस्य । जगदं तदेवाः जगतोऽत्तस्तथोक्तः जगदंत विद्यमाना देवास्तथोक्ताः लौकांतिका अमराः। संपलालसधिया लालसा चासी धीश्च लाल सधोः संपक लालसीस्तथोक्ता Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। तया संभागासक्तबुद्ध या । विमुक्तिनार्या विमुक्तिरेव नारी विमुक्तिनारी तया मोक्षवनितया ! रूपकः । विसृष्टाः विसुज्यंते स्म विसृष्टाः प्रेरिताः । चरा व दूना छ । संप्राप्य संप्रापर्ण पूर्व० समेत्य। साधु मनोहरं यया तथा। जगदुः अचुः। गद व्यका यां वाचि लिट् । उत्प्रेक्षा ॥५॥ भा० मा.-मुनिसुत्रत-नाथ को अपने अन्तरंग में कर्तव्य-कर्म को पूर्ण रूप से निश्चित किये हुए जान कर साथ करने की इच्छा से मुक्ति-रूपिणी यनिता के द्वारा भेजे गये दूत के समान लौकिकान्तिक देवों ने इनकी सेवा में उपस्थित होकर इस प्रकार निवेदन किया । ५। अस्मात्तृतीयजनने जननांधकूपादभ्युद्धरेयमखिलं जगदित्युदीर्णा ॥ चिन्तस्थले तव कृपाच्छलकल्पवल्ली या साद्य देव फलिता जगदेकबंधोः ॥६॥ अस्मादित्यादि। देव स्वामिन् । जगदे कबंधोः एकश्वासी बंधुश्च एकबंधुः जगतामेकबंधुस्तस्य लोकानां मुख्यधंधोः। तव भवतः। चित्तथ घिसस्थ सल जले तस्मिन् मन:प्रदेशे। अस्मात् पतस्यात्। जननात जन्मनः। तृतीयजनने त्रयाणां पूरणं तृतीयं तच तत् जननं च तूतीयभनन तस्मिन् "द्विस्तियश्च ऋशि" इति तीयत् प्रत्ययः ऋशादेशश्च । हरिवर्मचरे तृतीयजन्मनि । अखिलं सकलाजगत् लोकं । जननांधकृपात् अंधश्वासौ कूपश्च अधकृपः जननमेवांधकूपो जननांधकूपस्तस्मात् संसारनिर्जलपुराणकूपात । अभ्युदरेयं अभ्युद्धराणि। इति एवं प्रकारेण | उत्तोर्णा उत्पन्ना। या कराच्छलकल्पवल्ली कृपेव छले यस्यास्सा कपाच्छला कल्पा चासो वल्लो च तयोक्ता सा । अद्य अस्मिन्नध दानों । फलिता फलतिस्म मिपन्ना ॥६॥ भा. १०-हे देव ! इस से तीसरे जन्म में माप के हृदयस्पल में यह इच्छा हुई थो कि मैं इस सारे संसार का जन्मान्ध कूप से उद्धार कर सो आज आप जैले त्रिभुवन के एकमात्र साधु की घट झफारूपिणी कालतिका फलीभूत हो गयो।। सांयात्रिकस्त्वमसि बोधनकर्णधारो यस्मात्तपप्रवहणो गुणरत्नवाही ।। तस्माद्विनेयवरसार्थयुता विमुक्तिद्वीपं गमिष्यसि भवांबुनिधेरवश्यं ॥७॥ सांयात्रिक इत्यादि। यस्मात्कारणात् । त्वं भवान् । बोधनकर्णधारः योधनमेव कर्णधारा यस्य सः तथोक्तः सम्यग्शाननाविकयुक्तः । तापवहण: तप एवं प्रवहणो यस्य सः सपएचरणनौयुकः "यानपात्रं प्रवण बाहित्यं च यत्रिवत्" इत्यभिधानात् । गुणरतवाही गुणा एष रक्षानि गुणरत्नानि तानि वहतीत्येचं शीलस्तथोक्ता समूलोत्तरगुणमणिधारी। विनेयसार्थयुतः विनेया एव सार्या विनयसास्तैिर्युतः भव्य श्रेष्ठिभियुक्तः। सोयाधिका पोत Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । १५४ वणिक् । असि भवति । तस्मात् कारणात्। भवांबुनिधेः भय एषां बुनिधिस्तस्मात् संसारसमुद्रात् । विमुक्तिद्वीपं विमुक्तिरेव द्वीपों विमुद्विीपस्तम् मेोक्षांत "व्यतरूप सर्गादिदानात् इतीकारादेशः । अवश्य निश्चयं गमिष्यसि यास्यसि । गम्लृ गतौ लिट् । F रूपकः ॥ ७ ॥ I I भा० अ० - भाप सम्यग्ज्ञान रूपी नाविक चाले तपोरूपी नाथ वाले और मूलोवर गुणरूपी रत्न होने वाले हैं। इस लिये भविक रूप श्रेष्ठव के साथ इस संसार समुद्र को पार कर मुक्तिरूपी द्वीपको आप अवश्य जायंगे । ७ । स्वं लोकमित्थमभिबंध गतेषु तेषु देवोऽपवर्गपुरसाधन निर्गमं तं ॥ बंधून्निवेद्य जननीजनको पराचं प्राज्यं नियोज्य तनये विजये स्वराज्यं ॥८॥ स्वमित्यादि । इत्थं भनैन प्रकारेण इत्थं "कथमित्यमुः” इति साधुः । अभिबंध अभिषेदन पूर्वं तुत्वा मत्वा च । स्वं स्वकीयं | लोकं ब्रह्मलोकं । तेषु लोकांतिकेषु । गतेषु यातेषु । देषः स्वामी । तं । अपवर्गपुरसाधननिर्गमं भगवर्ग मेत्र पुरं अपवर्गपुरं तस्य साधनं तथोक अधर्मपुरसाधनाय नमः अपवर्गपुरसाधन निर्गमस्तं मोक्षरसाधनाय वहिर्याणं । बंधून् स्वजनान् । जननीजनको जननी जनकश्च जननीजनको मातापितरौ । परोध अत्यक्षि अमात्यादीन् । च समुचयार्थः । निषेध निवेदनं पूर्व० शापयित्वा । विजये विजयाख्ये । सनये पुत्रं । प्राज्यं प्रयुरं । राज्यं । राम्रो भावः कृत्यं वा राज्यं राज्यभारं । नियोज्य नियोजनं पूर्व० संस्थाप्य ॥ ८ ॥ भा० अ० वन्दनापुरस्सर यों निवेदन कर लौकिकान्तिक देवों के अपने ब्रह्मलोक में जाने पर मुनिसुव्रतनाथ ने मोक्षपुर-साधन के निमित्त प्रस्थान को अपने माता, पिता, बन्धुवर्गों तथा अन्याभ्य अमात्यादिकों से कह विजयनामक पुत्र का सारा साम्राज्य का भार दे दिया | ८| - तीर्थाम्बुनाऽथ दिविजप्रभुणाभिषिक्तो दिव्यांगरागवसनाभरणैः प्रसिद्धः ॥ अभ ग्रह विवर्त्तमित्र स्फुरतीमध्यारुरोह शिविकामपराजिताग्यां ॥ युग्मं ॥ तीर्थानेत्यादि । अथ राज्यनियोजनानंतरे । दिविजप्रभुणा दिवि जायत इति विचिनातेषां प्रभुर्दिविजप्रभुस्तेन । तीर्थार्युना तीर्थानामंधु तेन गंगादितीर्थोदकेन । अभिषिक: अभिषिच्यते स्म अभिषिक्तः नापितः । दिव्यांगरागवसनाभरणैः दिवि प्रधामि दिव्यानि अंग. स्थ रागोंऽगरागः अंगरागश्च वसनं च आभरणं व तथोक्तानि दिव्यानि च ताम्यंगरागघसना. भरणानि च दिव्यांगरागवसनाभरणानि तैः स्वर्गमयानुलेपनवस्त्राभरणैः । प्रसिद्धः - कृतः । "प्रसिद्ध ख्यातभूषित" इत्यमरः । प्रहविवर्तमित्र ग्रहाणां विवर्तः प्रविचर्तस्त Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। नवरत्नखचितत्याम्नवग्रहपरिणाममिव । स्फुरन्ती म्फुरतोति स्फुरती तां विराजती। अप्रेमवा अग्ने भवतीत्यनभवा तां पुरस्थिता। अपराजितारव्यां अपराजितत्यारख्या यस्यास्सा अपराजि. तारख्या तो अपराजितनामधेयां । शिबिका याप्ययानं । अध्यारोह अध्यागेहरिस्म । रुह बीजजन्ममि लिट ॥ ६॥ भा० १० .. इन्द्र के द्वारा गंगादितीर्थ जल से स्नान कराये जाकर तथा स्वर्भीय अंग गि और वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर मुनि जुनत नाथ रत्नखचित होने से देदीप्यमान अपराजिता नाम की पालकी पर आरूढ़ हुए। । । भूमिभृतामभृत सप्तपदानि भृमौ विद्याधृतां वियति सप्तपदानि बुदं ॥ थारब्धपांडुवनमप्यतुभिः प्रपन्नैरानिन्यिरे तदनु नीलवनं निलिंपाः ॥१०॥ भूमिभृतामित्यादि । भूमौ भवती । भूमिभृतां भूमि विभ्रतीति भूमिभृतस्तेषां राज्ञां । वृदं समूहः । सप्तपदानि सप्त त्र तानि पदानि च सप्तादानि सप्तापर्यत । मभृते अधृत । वियति भाकाशे । विद्याधनां विधां घरंतीति विद्याधृतस्तेषणं । वृ' । सप्तपदानि अभृन भृञ् भरणे लुङ् । तदनु पश्चात् । मिलिंगा देवाः । "मिलिपाः स्वः स्सेिठी" इत्यभिधानात् । प्रपन्न प्रपद्य तस्म प्रपन्नास्त । ऋतुभिः वतावितुमिः । भारब्धपातु पनमणि बनशब्दोऽत्रपुणवानकताह विष्णुपर्यायव्युत्पत्ती सुभूतिचंद्रोमरसिंहटीकाकारो बनमालीति पुष्पमाला तद्योगाद्वनमालीति । आरभ्यतेस्मारस्पानि पांडुनि व तानि वनानि च तधोक्तानि पारब्धानि पांडवनानि यस्य नत्तथोक्त प्रारब्धशुभकुसुमयुक्तं भूतुभिरारब्धसितकुसुमस्यास्य नीलकुमुमयर विरुद्धिमित्यपिशब्दार्थः। नौलवनं नीलं च तत् वनं च नीलमितिवनं घा नीलवनं नोलानि बनानि यस्य तन्नीलवन नीलपुष्पोपेत चेतिविरोधः नाना नीलोद्यान । आनिन्थिरे प्रापयामासुः। णी प्रापणे । शिधिकामिति सर्वप्राध्याहारः ॥ १० ॥ भा० अपृथ्वी पर राजाओं ने उप पालकी को सात डेग, विद्याधरों ने भाकाश में सात पग तथा देवताओं ने प्रशस्य वसन्तादि छः ऋतुओं से समाकुल और समुज्ज्वल पुष्पधाले नीलनामक उधाम तक दोया । १० रेजे नभस्थल विगजिविमानराजिरश्मिप्रतानबिततापविभागमेतत् ॥ अत्तुं फलप्रकरमापतत: पतंगानानायविस्तृतमिवोपरि निग्रहीत ॥११॥ रंजे इत्यादि । नभस्पलबिरामिविमानराजिश्मितानयितताप्रधिभार्ग नभसः स्थल नभपलं विराजतीत्येवं शीला: विगजिनस्ते च ते विमानाश्न धिराजिविमानाः तेषां गजिः Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः। मभरले विराजिविमानराजिस्तयोक्ता तस्याः रश्मयः रश्मीना प्रतान नभस्यलविराजित विमानराजिरश्मिप्रधानन्तेन बिततः भप्रस्य भागोऽप्रमाग: नमस्सल विराजिविमानराजिरश्मिनतानविततोऽप्रभागा यस्य तत् रायोक्तं । एतत् नीलवन । फलप्रका फलाना प्रकरस्तथोक्तस्तं फलनमूह। अतुं अदनाय तयोक' भक्षणाय। आपततः भापत. तत्यापततः तान् भागमनः । पतंगान् विहगान् । "पतंगो पक्षियौं च" इत्यमरः । निप्रहीतुं निप्रणाय निग्रहीतु आक्रष्टं। गरि अग्ने। आनायविस्तृनपिव भामायेन विस्तृत सोकसं मालपन्छादितमिव । रेजे बौ। राज दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ ११ ॥ . भा० अ० --शाकाश में विराजमान विमान-पंक्तियों के दीप्तिपु'ज से प्रतिफलित शिखर वाला यह नीलवन फल-समूह को खाने के लिये भाने वाले पक्षियों को पकाने के लिये फैलाये गये जाल के समान मालुम होता था।११। रेजे बहिर्घटितरत्नविमानमेतदन्तश्चरामरि गलन्मकरंदधारं ॥ सेंदायुधं सचपलं च सवारिधारमनच्युतं मिथ इवाहतमभ्रजालं ॥युग्म॥१२॥ रंजे इत्यादि। धहि धंटितरत्नयिमान हिः बाह्य घट्यते स्म घटितः रत्ननिमिताः विमानास्तथोक्ताः घटिता रत्नविमानो यस्थ तत् । अंतश्चरामरि अंतबरतीत्यंतश्चरा; अंतश्रा अमर्यो यस्य तत् मध्ये विधरपमरस्त्रीसहितं । गलन्मकरंदधारं मकरदस्य धारा तथोक्ता गलती मकरंदधारा गस्मिन् तत् प्रयत्पुष्परमानवाहसहित । पतत् वनं। सेंद्रायुध द्रायुधेन सह वर्तत इति तथापत सुरचापसहित । सचपलं चालया सहवतेत इति तथोक्तं विद्युत्सहित। तडित्सौदामिनो विधु च चला चपला अपि"इत्यमरः। च समुन्बयार्थः। समारिधार बारिणां धारा तथोक्ता वारिचारया सइ धर्तत इति तथोक्त' वृष्टिसं. पातसहितं । गिध: अन्योन्य । आइत संघृष्टं। अनच्युतं अभ्राच्युतं तधोक्तं भाकाशास्पतित । अनजाल अभ्राणां जाल तथोक्तं मेरसमूह इव । 'अभ्र नमःस्वर्गवलाहकेषु' इति विश्वः । रेजे चकाशे। रत्नविमानयुक्तत्वात्सुर चागसहित अंतश्चरामरीयुक्तत्याद्विा त्सरितं पुष्परसयुकत्या प्टिसंपातसहितं कृष्णवल्यावनस्य मेघजालत्वं । उत्प्रेक्षा ॥१२॥ मा० Xo-बाहर रखड़ित विमानवाला, जिसके भीतर देवांगनायें विचरण कर. रही है और जहां मकरन्द-धारा प्रवाहित हो रही है ऐसा यह यन इन्द्रयाप सहित विधु . लता-मण्डित तथा यारि-धारा-युक्त परस्पर संघर्षित मेघ-समूह के समान सामने लगा । १२ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुतकाव्यम् । १५७ यानादायमवतीर्य वनस्य मध्ये श्रीदेन दिव्यपटमंड पिकां प्रक्लृप्ततं ॥ भविश्य देवपतिदत्तकरावलंबः श्रीब्धमौक्तिकचतुष्कमलंचकार ॥ १३ ॥ पानादित्यादि । अथ गमनानंतरे | देवपतिदत्तकराघवः देवानां पतिर्देवपतिः करस्यायलयः करावलंबः वहिक पत्रपत्तिः करावा यस्य सः । अयं पषः मुनिसुतस्वामी | यानात् शिविकायास्सकाशात् । अवतीर्य अवतरणं कृत्वः । वमस्य मीलघनस्य | मध्ये अंतःप्रदेशे श्रीदेन श्रियं ददातीति श्रीदः तेन कुरेण । "श्रीदः पुण्यजनेश्वरः" इत्यमरः । प्रलय निर्मितां । दिव्यपरमंडपिकां एएस मंडपिकादिवि भवा दिव्या सा नासो पदमंदपिका च तथेोक्ता तां मनोहरदूष्यां । आविश्य प्रविश्य । श्रीsaragus मौकिकस्य चतुष्कं श्रिया द्वन्धं तच तत् मौतिकचतुष्कं च तथोक्तं श्रीदेवीघर चित्तमतिरंगाचलं । अलंकार अलंकरोतिस श्रध्यवसदित्यर्थः । ञ् करणे लिट् ॥ १३ ॥ I जाने के बाद, मुनिसुव्रत नाथ ने विमान से उतर कर वन के बीच में कुबेर से रचित मण्डप में इन्द्र का हाथ पकड़ कर प्रवेश कर लक्ष्मीजी से निर्मित मणिमय चेदी को विभूषित किया ॥ १३ ॥ षष्ठोपवासनियमी सुरदिङ्मुखस्थः पत्येकवान्परिहृतांबर माल्यवेषः ॥ त्यक्ताखिलोपधिरूपेतसहस्रभूभृदुच्चार्यमाणवर सिडन मरकृतिश्च ॥१४॥ त्यादि । षोपवासनियमी वण्णां पूरण: षष्टः स त्रासावुपवासश्च षष्ठोपवासः मिथमोऽस्यास्तीति नियमी पोपवास इति नियम तथोक्तः उपवासयनियती । त्रिशइघटिकामामेक उपवास इत्यागमपर संभाषाश्रयणात् । सुरदि मुझस्थः सुरस्य दि सुरदि सुरदिशि मुखं सुरग्मुिष्वं तस्मिन् वितति तथेोकः पूर्वाभिमुखः । फल्यंकचान् पल्येकोऽस्यास्तीनि पत्येकवान् पद्मासनः । परितांवर मारायचेषः परिहियंतेस्म परिताः परं च माल्यं च वेषश्च अंबरमाल्यवेधाः परिता अंकमाल्यवेया थेन सः तथोक्तः परिपकथामालाभरण: 1 "भाकल्प मंडनं षः प्रतिकर्मप्रसाधनम्" इति हलायुधः । त्यक्ताखिकोपधिः अखिलाचं ते उपश्रयश्च अखिल्लोषधयः त्यज्यंतेस्म त्यक्ताः त्यकाऽखिलोपयो येन सः विसृष्टाभ्यंतरपरिग्रहः । उपेत सहस्त्रभूभृत् नाम' भूभृतः सहस्रभूभृतः पतिस्म उपेताः सहस्रभूभृता येन सः तथोक्तः । उच्चार्यमाणवर सिद्धनमस्कृतिश्व उच्चार्यते इस बच्चार्यमाणा वराश्च ते सिद्धाश्च चरसिद्धाः नमस्करणं नमस्कृतिः चरसिद्धानां नम Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अष्टमः सर्गः। स्कृतिस्तधोका उघार्यमाणा घरसिझुगमस्कृतिः येन सः तथोक्तः नम:सिभ्यः" इति प्रोचार्यमाणसिद्धनमस्कार । च २८६ उत्तरविशेषणासमुञ्चरार्थः ॥ १४ ॥ भा० अ० ... छठवें उपचाल का नियय करने वाले, वस्त्रमाला आदि का त्याग किये हुए, अन्तरंग तथा बहिरंग परिग्रह को छोड़े हुए ओर. हजारो राजाओं से युक्त ॐ नमः सिद्ध झ्यः इस सर्बोत्कृष्ट नमस्कार मंत्र का उच्चारण करते हुए श्रीमुनिसुमत स्वामी ने पूर्वाभिमल हो पशासन लगाये हुए । १४ । उत्खाय पंचभिरुदचितमुष्टिबन्धैः कैश्यं च पंच भवमूल चयं यथैव ॥ वैशाखकृष्ण दशमीदिवसेऽपराहणे दीक्षामुपादित युतश्रवणे सितांशौ।। १५॥ उत्स्नायेत्यादि । सः मुनिसुव्रतस्वामी। सितांशी सिता अंशतो यस्य सः सितांशुस्तस्मिन् चंद। युतश्श्रयणे युताः श्रयणा येन सः युतश्रवणस्तस्मिन् श्रवणनक्षत्रसहित । वैशाखकष्णशमीदिवसे वैशावपूर्णिमास्यास्तीति शास्त्रः “माऽस्यपी मासी” इस्यण वेशाखस्य कृष्ण दशाना पूरा दशमी "नोमट दित्वात् टिल, भिन्यादिशा” को दशमीदिवसे तथोक्तः वैशालकृष्णस्य दशमी दिवपस्तस्मिन् चैशाखमासष्पक्षस्य दशम्यां लिथी। भाराहे अनः अपर: अपराहस्तस्मिन् “संख्याव्ययसर्थाशात्तत्" इत्यत्तदयोगे हादेशश्च सायाह । पंचमः। उचितमुष्टिबंध: उदंचते सा उदनिताः मुन्धाः मुष्टिबंधाः उचिताश्च ते मुविधाश्च उदंचितमुविधास्तैः उन्नीत मुष्टिबन्धः। पंचभरमूलचयं पंच च भवाश्च पंचायास्तेषां मूलानि तेषां चयस्त पत्रमारसमूलरनमूह । यथैव । कैश्य फेशानां समूहो क्रश्य पुगस्तत्"के शाद:"इति परः । उत्थाय उत्खनन पूर्व : उद्र य । दीक्षा नैन्ध्यं । उपादित उपाधत्त । ड्ड या दाने लुङ् ॥ १५ ॥ भा० अ-द्रव्य, क्षत्र, काल, भव तथा माघ- पंच संसार-मूल-समूह केशों का पंचमुष्टियों से लोञ्चकरके बैशाख कृष्ण दशमी को चन्द्रयुत श्रयण में अपराह समय में दीक्षा ग्रहण की । १५। लोकत्रयैकगुरेष पुरैव पूर्ण चारित्रशीलगुणसंयमभारवाही ! प्राप्ताखिलडिरुपजातचतुर्थबोधिरत्यंतगौरवपदं पुनरासदेव ॥१६॥ - लोकत्रयेत्यादि । पुरंध पूर्वमेव । लोकत्रय गुरुः लोकानां त्रयं लोकत्रयं गुरुरा. राध्यो ईर्भरश्च! "गुरुस्तुनिष्पत्तौ श्रेष्ठ गुरौ पितरि दुर्भर"इत्यभिधामात, पकवासौ गुरुध एकगु लोकत्रयस्यैकगुरुस्तथोक्तः त्रिभुवनमुख्यगुखः । एषः अयं स्वामी । पूर्णचारित्रशीलापर्सयमभारवाही चारित्रं च शीलं सगुणश्च संयमच चारिश्रशीलगुणसंयमाः Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाच्यम् । १५६ पूर्यते रूम पूर्णास्ते च ते चारित्रशीलगुणसंयमाश्च तथोक्ताः यद्वा पूर्णश्च तचारित्र चेति प्रोक्तस्तयेव भारस्तथोक्तः पूर्ण चारित्रशीलगुणसंयमभारं वहतीत्येवं शीलस्नथोक्तः पूर्णचारित्रं सफलचारित्र' व्रतपरिरक्षणं शीलं सम्भवादिणः यिसंयमः पत एव भारस्तस्य बाही। प्राप्ताखिलद्धिः प्राप्यते रूम प्राप्ताः अखिलाच ताः ऋद्धयश्च अबिलॐ यः प्राता अखिलई यो येन सः तथेोक्तः प्राप्तबुद्धयादिसद्धि युतः । उपजतचतुर्थवोधिः चतुर्णां पूरणञ्चतुर्थः सचासौ बोधिश्च चतुर्थवोधिः उपजातश्चतुर्थबोधिर्यस्य सः तथेोक्तः उत्पन्नमन:पर्ययज्ञानः । पुनः | अत्यंत गौरवपदं गुरोर्भावो गौरवं तच तत् पदं च गौरवपदं अत्यन गौरवपदं तथेोपतं पुनस्तत् अधिकगुरुत्वस्थानं । आसदेव आगमदेव | बद्दल विशरणगस्यवसादनेषु लुङ् “सदित्यादिना दित्वादङ् ॥ १६ ॥ भा० भ० - यह स्वामी त्रिभुवन के मुख्य गुरु पहले थे ही अब फिर पूर्ण चारित्र, शोल गुण तथा संयम के धारक सारी ऋद्धियों को प्राप्त कर मन:पर्यय ज्ञान पूर्वक गौरव पद पर मारूढ़ हुए । १६ । रेजेतरां दशशतै: श्रवणैरुपेता नेत्रैरिवामरपतिः किरगौरिवार्कः ॥ पत्रैरिवांबुजमरैरिव चक्ररत्नं शेषः फरिव निधानमिचैष यज्ञैः ॥१७॥ रेंज इत्यादि । दशशतैः दश वारान् शतं दशशतास्तैः सहस्रमितैः । श्रवणैः मुनिभिः । उपेतः उपेतिरूम तथेोकः सहितः । एषः अयं स्वामी । अमरपतिः अमराणां पतिस्तथेोक्तः देवेंद्रः । नेत्र शिव सहस्रनयनैरिव । अर्कः सूर्यः । किरणैरिव सहस्रकांतिमिरिय । अबुजं कमलं परि सलेरिव । चक्ररत्नं चक्र' च तत् रत्नं च चरत्नं । शरैरिव सहस्रधारामिरिव | शेषः धरणद्रः । फणैरव सहस्रफणाभिरिव । "स्फुटार्था तु फणाद्वयोः" इत्यमरः । निधानं निधिः यक्षैरिव सहस्रयक्षदेवैरिव । रेजे यमौ राजू दीप्तो लिट् ॥ १७॥ भा० अ० - हजारों मुनियों से युक्त यह मुनिसुव्रत स्वामी सहस्र नयनों से इन्द्र के समान सहस्र किरणों से सूर्य के समान सहस्र फर्णो से शपनाग के समान और सहस्रयक्षों से निधि के समान सोभने लगे । १७ । यस्माद्बभूव लवनं नियमेन तस्मिन्नेः पुष्पधन्यधुनतः पुरतो जिनेन ॥ तस्मात्तदादि किल नीलवनाभिघानं तस्याभवत्त्रिभुवनप्रथित वनस्य | १८ | यस्मादित्यादि । यस्मात्कारणात्। तस्मिन् वने। जिनेन जिनेश्वरेण । एः मन्मथस्य "कार उच्यते कामो लक्ष्मीरीकार उच्यते” इत्येकाक्षर निघंटों । नियमेन नियायेन । लवनं नाशनं । बभूव भवतिस्म भू लत्तायां हि । तस्मात्कारणात्। तदादि तदादि यस्मिन् कर्मणि મ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रत काव्यम्। जिनस्य कुंतलास्तैः कङ्घरस्तथोक्तः जिनेश्वरालकमिश्रः। अभूत् माजनिष्ट । भू सत्तायां लुङ । तन तन प्रदेशे। सः क्षीगंधिः क्षीरसमदः । शिलोकमनासि निदशाश्व ते लोकाश्च त्रिदशलोकाः तेषां मनालि तथोक्तानि देवानां वित्तानि । हि स्फुट । कर्षन फर्षतीति कर्षन् स्वीकुर्वन् । बातामधुर्णिलघनावृतधत् यातन अवधूर्णितो पाता. घधूणितः स चासी अनशन तथोक्तः वानाकधूर्णितधनेनावृतः तथोक्तस्स. इच तथोक्तः घायुना पलितमेनेनावृत इध । यभार ग्भो। भारसृङ् दीप्ती लिट् । घना जलाहामाय समुद्रमाश्रयंतीरित्र प्रसिबिरुत्प्रेक्ष्यते ॥ २०॥ ___ भा० १०-जो समुद्र जहां जहां शैवाल मंजरी के समान जिन-कुन्ताल-मिश्रित हुभा वहाँ वहाँ वह कार समुद्र देवतागों के चित्त को आकर्षित करता हुमा धागु-संचालित मेघ के ऐसा समुभानित होने लगा । २०। । त पारणांपलसेन इति प्रतीतो गजाऽथ राजगृहनामनि राजधान्याम् ॥ श्रद्धादिसप्तगुणवान्नवभेदभिन्नः पुण्यैरकार यदुपस्थितपूर्वपुण्यः॥२१॥ तमित्यादि । अथ दीक्षोपासनानंतरे। राजगृहनामनि राजगृप इति नाम यस्यास्ता तथोक्का तस्यां । गाजधान्यां प्रधाननगरे । यमसेन इति नानं तिशेषः । प्रतीतः प्रसिद्धः । "प्रतीते प्रथिनख्यानवित्तविज्ञान विशुनाः" इत्यमरः। गजा भूपतिः । उपस्थितपूर्वपुण्य: पूर्वस्मिन् जन्मन्युपार्जितं पुण्यं उपस्थित पूर्वपुण्यं यस्य सः फलदानपरिणतपूर्व सुरुतः। श्रद्धादिसप्तगुणवान श्रद्धा आपियोपाते तथोक्ताः श्रद्धादिसप्तगुणास्त्यस्येति तथोक्तः भद्धादिसप्तगुणयुक्तः । नयदभिन्नः नव च ते भेदाश्म नत्रभेदास्तमिन्नानि ते: नवप्रकारभिन्नः । पुण्यैः। ते जिनेश्वरं । पारणां । अकारयत् व्यधापयत् । डुकृञ् करणे णिता. ला । श्रद्धा शक्तिभक्तिर्विज्ञानमलुब्धता दया क्षांतिः । यस्यै ते सप्तगुणास्तं दातार प्रशसंति । स्थापनमुश्च स्थान पादोदकमर्चन प्रणामश्च । वाकायहृदयशुद्धिरेषणशुद्धिश्च नवविध पुण्यं” ॥२१॥ भा० --दीक्षा के बाद राजगृह नामक राजधानी के प्रसिद्ध वृषभसेन नामक राजा ने पूर्वोपार्जित पुण्यवान् होकर श्रद्धादि सप्त गुणों से युक्त नत्रामक्ति के द्वारा मुनिसुव्रत स्वामी को पारण कराया । २१।। आश्चर्यपंचकमभूदथरत्नवृष्टिराच्छादितांबरतला च लतांतवृष्टिः । व्याप्तश्रुतीविबुधदुंदुभिनिस्वनाहोदानस्वनौ सुरभिशीतलमंदवायुः॥२२॥ भआश्चर्येत्यादि । अथ पारणानंतरे। रत्नवृष्टिः रत्नानां वृरिस्तथीका। आच्छादिताबरतला अंगरस्य तलमंबरतलं माच्छादितमंबरतलं यया सा तथोक्ता पिहिताकाश. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अष्टमः सर्गः। प्रदेशा । लतांतवृष्टिः लतातामा वृष्टिस्तथोका पुष्पवृष्टिः । "पुष्पं सुमनसः फुल लतीत प्रसषोनमम्इति धनंजयः । व्याप्तच ती प्राप्ताः श्र तयो याभ्यां तो तथोक्तौ ४याप्तजगजनश्रोत्रौ । विषुधदुंदुमिनिस्वनाहोदानस्वनौ दुंदुभीनो निस्वनः दु'दुभिनिस्वनः अहोवानमितिस्वनः महोदानस्वनः दुदु मिनिस्वनध श्रदोदानस्वनश्च दुंदुभिनिस्वनाहोवानस्पनी वियुधार्मा दुर्दुभिनिःस्वनाहोदानस्वनी तथोक्तो देवदु'दुनिध्वनिः आश्चर्यरूपं दानमिति उपलक्षणा भुतरूपपात्रमित्यादि प्रशंसाध्वनिः । सुरभिशीतलमंदधायुः मन्वश्वासौ वायुश्च मन्दघायुःशी तलवासी मंदवायुश्च तथोक्तो सुरभिश्चासौ शीतलमवायुश्चेति पुनः कप्तः । शैत्यसौरभ्यमांधणसहितमारुतः। इत्याश्चर्यचकं आश्चर्याणां पंचक तथोक्तं अभूत अभवत् भू सत्तायां लुक ॥२२॥ __ भा० ० --पारण के अनन्तर रत्नवृष्टि, आकाश का आच्छन्न करने वाली पुष्पवृष्टि चारो तरफ गूगने वाली देदुन्दुभिव्यनि- कैसा दान " ऐसी आश्चर्य सूचक ध्वनि तथा शीतल मन्द सुचवायु का प्रवादित हेना ये पांच आश्चर्य-मयी घटनाये हुई । १२॥ मुनिपरिबृढो निवत्यैत्र तनुस्थितिमुरामा दुनधुरका यायाशारयं विधाय यथोचितं । मुनिसमुदयैरक्षित्रातैश्च पौरनृणामनुब्रजितचरमः पुण्यारण्यं गजेंद्रगतिर्ययौ २३ ____ मुनीत्यादि । मुनिपरिवृतः मुनीनां परिवृढम्नश्चीतः मुनिनाव: "प्रभुःपरिधृतोऽ धिपः" इत्यमरः। पुत्तमाम् योग्यां। तनुस्थिति तनाः स्थितिस्तनुस्थितिः तो कायस्थिति । उपचरितत्वादाहारमित्यर्थः । एवं इति। निर्वयं निर्वर्तनं पूर्व० का। मृदुमधुरया मृत्री चालो मधुरा च मृदुमधुरा तया मृदुमनोहररूपया । वाचा पचनेन । यथोचित उचितमनतिक्रम्य यशोत्रितं यथायोग्यं । आशास्यं साशास्तुं योग्यं आशाल्यं आशीर्वाद । विधाय हत्था । मुजिलमुक्यः मुनीनां दयास्त धोक्तास्तैः मुनिलमूहः। पौरनणां पुरे भवा: पौरा; पौराश्व ते नरश्च पौरतरास्पा सुजनानां । अक्षित्रातः अमां बाप्ता भक्षिवातास्तेः। अनुजितचरमः अनुधाव्यतस्स मनजितः अनुवजितश्चरमा यस्य सः अनुयातपश्चाभागः । गजेंद्रगतिः गजाना इंद्रस्तयोकः गजेन्द्रस्येव मतिर्यस्य सः मंचगमन इत्यर्थः। पुण्यारण्य पुण्यं च तत् अरण्य' च पुण्यारण्यं तरोनिलयत्वात्पवित्र नीलवनं । यो अगाम । यो प्रापणे लिट् ॥ २३ ॥ मा० २०. मुनिसुयात स्वामी ने यों अपनी शरीर स्थिति के हेतु उत्कृष्ट थाहार सम्पक्ष कर तथा सुमधुरवाणो से यथोचित भाशीर्वाद देकर मुनिगपा और पुरवासियों के मेनसमूह से अनुगत होते हुए गजेन्द्र गति से सपोचन का प्रस्थान क्रिया । २३ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिमुव्रत काव्यम् । इत्यईदासकृतेः काव्यरत्नस्य टीकायां सुखयोधिन्यां भगवत्परिनिष्कमणवर्णनो नामाष्टमस्सर्गः इति अष्टमः सर्गः समाप्तः । ----+-9000+ -. ॥अथ नवमः सर्गः॥ आलोक्य देवमथपाटितपंचबाणं प्रायेण नश्यति मधौ मधुरास्त्रबंधौ॥ वेलामुपेत्य किल विरफुरितप्रताप: सद्योऽग्रहीदधिपद विपिनं निदाघः । १। मालोक्येत्यादि । अब अनंतरे। पाटितपंचयाण पंच बापा यस्य सः पंचाण: पाट्यते स्म पाटितः पाटित: पंचबाणो येन सः तथोक्तस्तं विनाशितमन्मथं । देवं आईना. थे । भालोक्य वीक्ष्य ! मधुरास्त्रयंत्री मधुरमस्त्र' यस्य सः मधुराख्न प्रक्षुचाप इत्यर्थः "रसवत्स्यादनप्रियभेदशतपुष्पेषु मधुरम्” इति नानार्थरबकेशे मधुशास्त्रस्य यंधुस्तयोक्तस्तस्मिन, मन्मधराजमित्रं । ''भधौ घसते। भोरक्षौद्रमवर कमद्यदैत्यचैत्रवसंतेषु मधुरः" इति नानार्थरनकोशे । प्रायेण प्राचुर्येण । ''प्रायोभूम्यंतगमनम्" इत्यभिधानात् नादश्ययोदतः शब्दः । नश्यति नश्यतीति नश्यन् तस्मिन् पलायमाने सति । विस्फुरितप्रतापः विस्फरति स्म घिस्फुरितः स च प्रतापो यस्य सः तथोक्तः प्रवृद्धातपयुक्तः प्रकृष्टतेजा वा । निदाधः प्रीष्मकालः । चेला समयं । उपेत्य उपयनं पूर्व प्राप्य | अरिपदं अरेः पत्र तथोक्त शत्रु स्थानं । प्राग्यसंताधितमिति यावत् । विपिन काननं । सयः तस्मिन् सद्य: तत्क्षणे । अनाहीत्किल उपायास्किल. ग्रही उपादाने लुङ ॥१॥ भा० अ6--कामनाशक श्री अर्हद्दव को देखकर कामदेव के अन्तरंग मित्र वसंत के नौ दो ग्यारह होने पर प्रखरतेजस्वी ग्रोष्म ऋतु समय पाकर शीघ्र उस यन में आ पहुंची। वाताश्ववेगजरजापिहिताभ्रभागमागत्य सर्वमपहाय मधो तस्य । ग्रीष्मस्तुतीद पिकभंगबलान्यधाक्षीत केलीवनानि रुजतिरम च पुण्डरीकम्।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रत काव्यम् । घातल्यादि। ग्रीष्मः निक्षाघः। वाताश्ववेगजरजःपिहिताभ्रभाग चातश्च अश्याश्च पाताश्चास्ने वेगो घाताश्ववेगस्तस्माजायतेस्म धाताश्यवेगज तय तत् रजा वातावेग तरजः तेन पिहितस्तथोकः अभूस्य भासेऽभुभाग: वाताश्वगजरजसा पिहिताभुभागो यस्मिन् कर्मणि तत् बातवेगोत्थवाजिवेग ननितधुल्याच्छादितगगनादेशं यथा तथा । मागत्य एत्य । सर्व सकलं । अपहाय अपहाने पूर्व परित्यज्य । द्रुतस्य द्रवतिस्म दुतस्तस्य विनष्टस्य । विलीनशीनविद्रावणा दुतं" इति नानार्थरनाशे | मधो: वसंतस्य। पिकभृगवलानि पिकाश्च भृगाश्च पिकभृगास्त एष बलानि तथोक्तानि कोकिलभुमरमन्यानि । तुताद व्यथयनिस्म । तुदियधने लिट् । केलियनानि केल्या वनानि तथोक्तानि क्रोडायनानि । अधाशीत् इलिस्म दह भस्मीकरणे लुङ् । पुंडरीक सितायुज श्वेतच्छत्रं च "पुडरीक सिताभोजमथ रकसरोरुहे" इत्यमरः। रूजतिस्म पभज को भंगे स्मे व लट्" इति भूतेऽर्थे स्मयोगालट् ॥ २॥ मा० म०–स ग्रीष्म ऋतु ने और सबों को हपा तथा घोड़ों के वेग से उड़ी हुई धूलि से आम्रवन के अनभागों को आच्छादित करतो हुई आकर नष्ट हुए वसन्त को कोयल भमर तथा चनरूपिणी सेना को पोड़ित किया, पीडावन को जलाया तथा कमलों को भी तोड़ मरोड़ दिया ।२। तहाविदुःखमिव वीक्षितुमक्षमत्वात् क्षिप्रं मधौ व्रजति तीवनिदाघयोगात् ॥ संतप्यमानमखिल तरुवल्लिजातं तापञ्चरीव ददृशे मधुविप्रयोगात् ।।३।। प्तदित्यादि। तद्भाविदुःख भविष्यतीति भावि भाषि च तस् दुःखं व भावितुः तस्य भाविष्टुःखं तथोक्तम् भविष्यइतुःखं । चीक्षितु वोक्षणाय वीक्षित द्रष्टुं। अक्षमत्वादिव अक्षमस्थ भाचोऽक्षमत्वं तस्मात् असमर्थत्वा दिव। मधौ वसंते । क्षिप्रं शीघ्र । बजति सति बजतीति प्रजन तस्मिन् गच्छति सति । वीवनिदानयोगात् तीवश्चासौ निदाघश्च तीवनिदाघस्तस्य येगिस्तीप्रनिदापयोगस्तस्मात् मिष्ठ रप्रीष्मसंबंधात् । संतप्यमान । अखिल समस्त । तरुवलिजात तरवश्व बल्लयश्च तम्घल्लयस्तासां जातं वृक्षलता "जात्योघजग्मतु जातम्" इति नानाथरतकोशे। मविप्रयोगात् मधोभियोगस्तथोक्तस्तस्मात् यसंतवियोगात् । तापज्वरीव तापेन युक्तो ज्वरस्तापज्वरः सेोऽस्याऽस्तीति तथोक: स इति घर र दद्गशे दृश्यतेस्म र प्रेक्षणे कर्मणि लिट् ॥ ३॥ मा००-प्रचण्ड प्रीष्म के योग से भाषी दुःख को देखने में असमर्थ होने के कारण पसन्त के झाट चले जाने पर सभी पेड़ पौधे सन्तप्त होते हुए मानो वसन्त के वियोग से अर-प्रस्त से दीखने लगे।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ नवमः सर्गः ग्रीष्मं विदावन भूमि विशाल दय्यों रेजुः कनत्कनकशेवधिदीप्रगर्भाः || मान्याभिरुग्र करपादहतेः प्रवेष्टुं क्लृप्तानि कुगडशतवद् वनदेवताभिः ||४|| श्रीष्मे इत्यादि । प्रीष्ये निदाघे । कनटकन कशेवधिदीगर्भाः कनतीति कनति तानि कनकानि येषु से कनटकमकास्ते च ते शेवधयश्च तथोकt दीप्यत इत्येवं शीलो दीप्र: फलटकन कशेवधिभिर्दीयों गर्भो यासां तास्तयोकाः ज्वलत्सुवर्णयुक्तनित्रिभिः प्रकाश्यदंतमगाः । विदीर्णवन भूमि विशालदर्यः वनस्थ भूमिर्वनभूमिः विशालाश्च वा दर्यश्च विशालक्ष्य: विदीर्णा चासौ धनभूमिश्च तथोक्ता तस्या विशालदर्यस्तथोक्ताः विभिन्नारक्यावनिविशालरेखाः । मान्याभिः सानितुं योग्या मान्यास्ताभिः पूज्यामिः । वनदेवताभिः arer देवता वनदेवताः ताभिः व्यंतर देवताभिः । उग्र करपावतेः कराश्च पादाक्रा करपादाः उग्राश्च ते करपादाश्च तथेोकाः पक्षे उप्राः करा: यस्य लः उग्रकरः सूर्यस्तस्य पादाः रश्मयस्तेषां इति: उग्रकरणादहतिस्तस्याः निष्ठुरहस्तपादघातात् रविकिरणोपहतेर्षा । "बलिस्तांश: कराः । पादारम्यं द्वितुर्यथाः” इति उभयत्राप्यमरः । प्रवेष्टुं निपतितुं । पलसोनि कुंड शतचत् बग्न कुंडानि अग्निकुंडामि क्लुमानि च तान्यग्निकुंडानि च तथेोक्तानि क्लृप्ता मिकुंडानां शनानि तथेोक्तानि तानि विरचितानलकुडानेकवत् । रेनुः यभुः । राज़ दीप्तौ लिट् उत्प्रेक्षा ॥ ४ ॥ मा० भ० - प्रोष्म ऋतु में चमकती हुई सुवर्ण-निधियों से समुङ्गासित गर्भवाली विदीर्ण वनभूमिकी विशाल कन्दरायें मानो सूर्य के पादाघात अथवा किरणों के आक्रमण से अग्निकुण्डवत् नीचे की ओर प्रवेश करने के समान सोभने लगी | ४| मिध्यात्वकर्मकृतयाशुभयेव दृष्ट्या जंतुव्रजाः परमतत्त्वघियाप्यतत्त्वं ॥ ग्रैष्म्या तृषा मृगगण मृगतृष्णिकांभः सेदुर्नदीरयधिया वत धावमानाः ॥५॥ 4 मिध्यात्वेत्यादि । जंतुवजाः जंतूनां मजास्तथेोक्ताः जीवसमूहाः । प्रेया प्रौष्मे भवा प्रष्मी तथा निदाघजातया । तृषा विवासया "उत्या तु पिपासा तुटू” इत्यमरः । मृगहृष्णिकांमः मृगाणां तृष्णा तथोक्ता मृगतृणैव मृगतृष्णिक्रेति स्वार्थे कः मृगतृष्णिवांभः मरीचिकाजलं तथोक्तम् । मिथ्यात्वकर्मकृत्तथा मिथ्याभावो मिध्यात्वं तथ तत् कर्म व मिध्यात्वकर्मणा कृता तया द्रयमिथ्यात्वविहितया । मशुभया अप्रशस्त रुपया । ष्ट श्रद्धा भाव मिथ्यात्वेनेत्यर्थः । अतस्वमपि न तत्त्वमतस्वमपि तत्वाभासमपि। परमतत्रधिया परमं च तत् तवं परमतत्वं परमतत्वमितिधीस्तथोक्ता तया सद्द्भुतवस्थिति बुद्धया घायमानाः घावंत इति धावमानाः पलायमानाः । सेदुरिव यथा दुःखायतेरुम | | Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रत काव्यम् । तथा मृगगणा: मृगाणां गणास्तथोक्ताः मृगसमूहाः । नदीरयधिया नद्या रयो नदीरयः नदीरय इति धीः नदीरयधीस्तया सरित्प्रवाह इति बुद्धपा । धावमानाः पलायमानाः संतः। सेदुः दुःलायतेस्म षद्ल विशरणगत्यत्रसादनेषु लिट् । घत हत ॥ ५ ॥ भा००-जिस प्रकार सभी जीवंगपा प्र-भित्थ्यात्व से किये गये भाष-मित्थ्यात्व के कारण अतत्त्व को भी परमतत्व के विचार से अपनाते है, उसी प्रकार हरिण-समूह ग्रीष्म की शुषा से पास होकर मृगतृष्णा के जल की ओर नदी की धारा समझ कर दौड़ २ कर दुःखित होते है । ५। तृष्णातुरः स्वयमपि द्युमणिबभूव संतापवांश्च समयेऽत्र न चेत्कराग्रैः ॥ पंकाविलान्यपि जलान्यपिबकिमर्थ प्रालेयशैल तटमध्युषितश्च करमात ॥६॥ तृष्णातुर इत्यादि। शत्र समये अस्मिन्निदाघे। यु मणिः सूर्यः । स्वयमपि । तृष्णातुरः सुपाया आतुरस्तथोक्तः तृष्णापीडितः। संतापांश्च संतापोऽस्यास्तीति संताप. धान च समुश्चयार्थः संतापयुक्तः । बभूव भवतिस्म । भू सत्तायां लिट। न त् न भवति । करागी करस्यामाणि करागाणि से: किरणानः हस्तान। पंकाविलानि पंकमाचिलानि कर्दमकलुषाणि | जलान्यपि सलिलान्यपि। किमर्थं कस्मै इद किमर्थ । भपियत अपात्। अशो. षयदिति यायत्। पा पाने लुछ । प्रालेयशैलट प्रालेयसहितशलः प्रालेयशैलस्तस्य तट सधोक्त' हिमाचलसानु । कस्मात् कारणात् । अध्युषितः अधिषससिस्मेति तपोक्तः अधिष्ठितः उत्तरायणगत इत्याशयः । “पसोऽनूपाध्याङ्" इत्याधारे द्वितीया । उत्प्रेक्षा ॥६॥ भा० अ० ---इस ग्रीष्म ऋतु में स्वयं सूर्य भी तृषातुर तथा सत्तापदग्ध हो गये, नहीं तो अपनी किरणों से ये गदले जलों को क्यों पीत अर्थात् सुखाते तथा हिमालय पर्वत के शिवरारुढ़ क्यों होते हैं। शंकामयं जनितवान् जगता वनांतःकिं पाटलाः कुसुमिता:दवपावका:किं॥ किं मल्लिकाः स्तिमितभंगगणाः किमेते शांतोल्मका विशदभरमचया इतीत्य|७॥ शंकामित्यादि । कुसुमिताः कुसुमानि संजासान्येषामिति तथोक्ताः संभात. पुष्पयुताः। पारलाः पाटलवृक्षाः। किं किन्नु । दरपाबकाः दवाश्च ते पावकाश्च तथोक्ताः दावाग्नयः । किं किंधा । स्तिमित गगणाः भृगाना गणा भुगमणाः स्तिमित भृग. गणो यामु तास्तथोक्ताः निश्चलमृगकुलमिलिताः । “स्तिमिताबाई निश्चली इति बेजयंती । मलिकाः मल्लिकानामपुष्पाणि । "मलिकाः बहुलं श्लुषपुष्पमाले" इति बहुल-प्रत्ययस्य श्लुक मल्लिकापुष्पाणि किंवा । एते इमे। शांताबमुकाः शांतमुमुकं एषां ते तथोक्ताः Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ नवमः सर्गः । शांतांगाराः । “अलातमुल्मुकम्" इत्यमरः । विशवमस्मचयाः विशदानि च तानि भस्मानि च विशदभस्मानि तेषां चयाः शुभ्रभूतिसमूहाः किंवा । इत्थं अनेन प्रकारेण इत्यं । अयं एषः । मनातः घनस्यांतर्घनांतः वनमध्ये भव्ययं । अयं प्रीष्मः । जगतः लोकस्य । शंकां वितक। "शंका त्रासे वितर्क च" इति विश्यः । जनितषान जनयतिस्म जनितधान् । जनैछ प्राघुर्भाधे णितात कवतु प्रत्ययः। संशयालंकारः ॥ ७॥ मा० स--वन के बीच में खिले हुप गुलाब क्या धनाग्नि है, निश्चल भुमर-समूह पाले मल्लिका पुष्प शान्त अंगार वाले भस्म-समूह है क्या! इत्यादि शंकाएं इस ग्रीषम भूतु ने लोगों के मन में उत्पन्न करदी 101 संतप्तरेणुनिकरं कृपयेव वाता निन्युः सुशीतलजलां धुनदी निदाघे ॥ एकांततप्तवसुधास्थितिभीतभीता द्रागद्रवन्निव तदा मृगतृष्णकौघाः । संतप्तस्यादि । निदाच प्रोमें। पासा: बाययः । मरेप्नुनिर तप्यतेस्म संतप्तास्ते च ते रेणवच संतप्तरेणधस्तेषां निकरस्तथोक्तस्त सम्यकतप्तधूलिसमूदं । कृपयेव अनुकंपयेव । शीतलजला शोतले जलं यस्यां तां ! धु नदीं दियो नदी धु नदी तां सुरगा। निन्युः प्रापयंतिस्म । णी प्रापयो लिट् । तदा तत्समये । मृगतष्णिकौघः मृगतष्णिकानां ओधस्तथोक्तः । “बोधो वृदऽभसा रये' इत्यमरः मरोचिकाप्रवाहः । एकांतसप्तवसुधास्थितिमीतभीताः एकांत तप्ता एकांततप्ता सा चासौ धमधाच एकांततामयसुधा तस्यां स्थितिः तोक्ता भृशं भीता: भीतभीताः एकांततप्तवसुधास्वित्याः भीतभीतास्तथोक्ता; अत्यंततप्तभूमिस्थित्याः अस्त प्रस्ताः भृशार्थ विः । शद्वन् शीव अचम् अधायन । हु गतौ लङ् ॥ ८ ॥ भा० म०--मानो कृश करके इचाओं ने प्रीम ऋतु में सन्तप्त धलियों को अत्यन्त शोतल अलवाली गंगा के पास पहुंचा दिया। उसी समय अतिशय तपी हुई पृथ्वी पर रहने से मामों बहुन उर कर मृगतृष्णाए' झट भींगो हुई सी ज्ञात हुई।८। हा हंत तृड्भरविदीर्णगला मृगालिः पंकाबिलोणमलिलं बनपल्बलानां । अल्पं कथंचिदपिवत्कृपयावगम्य केनाप्युपाहृतमिबोडकषायतोयं ॥ ६ ॥ हेत्यादि । तृभरविदीर्णगला तृपो भरस्तथोक्तः विवरतिरूम विदीर्णः तृड्भरेण विदीर्णो गला यस्यास्मा तथोका तातिशयेन स्फुटितकंठाः। मृगालिः मृगाणामालिस्तथोक्ता मृगसमूहः । वमपल्बलानां वनस्य पाल्पलानि धनपल्यनानि तेषां अरपयालासरसा परवल चारूपसर;" इत्यमरः । अह स्तोक । एकाविलोबासलिलं Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । नाथिलं पंकविलं पंकाविलं च सदुष्णं च तथोकम् तत्सळिलं च पंकाविलोप्सलहिलंच कर्दमेदाच्छोष्णजलं । फेनापि येन केनपि सत्पुरुषेण । अवगम्य अवगमनं पूर्वज्ञात्वा । कृपया दयया । उपाहृतं उपायितेस्म उपाहृतं । उद्धकषायतायं उद्धवासौ कषाया उदकषायस्तस्य तोयमिव । कथंचित् केनचित्प्रकारेण । अपिबत् अपात् पा पाने ल ||२|| म० अ० - प्यास की अधिकता से स्फुटित कटवाले मृग समूह ने वनकी बावडी के गर्म जल को कृपा करके किसी सज्जन से दिये गये गर्भ कटुए काढ़े के समान किसी तरह पिया | ६ | धात्रीदरीमुखगतैर्विपिनस्थलीनां व्यादीर्णवेणुगलितैर्मणिभिर्विरेजे ॥ मा लोकमित्र शिखिनो मम पीडयेति दीनं प्रकाशितरदेव दिनाधिपाय ॥ १० ॥ धानीत्यादि । धात्री वसुधा । उपमाता वा । " धात्री स्यादुपमातापि क्षितिरप्यामलयपि इयमरः । व्यादीर्णवेणुगलितः व्यादीर्यतेम्प व्याक्षेर्णास्ते च ते देण तथोक्तास्तेभ्यः गलितास्तः स्फुटितवंशतः पतिता: । विपिनस्थलीनां विपिनस्य स्थल्पस्तथोक्तास्तासां विपिरस्यलीनां अरण्यप्रदेशानां । श्रीमुखगतेः दर्या मुखं दरीमुखं तद्गच्छतिस्म दरीमुखगतास्ते दरीविवरप्राप्तेः । मौकिकः मणिभिः | लोकमित्र' लोकस्य मित्रं तथेोक' तस्य संबोधनं हे लोकबंधों गाना । मम मे । शिक्षितः शिक्षास्त्येषां इति शिखिनस्तान् पुत्रान् वृक्षान्वा "शिवी पुत्र बलीवई शरे केतुग्रहे दुमे" इति विश्वः । मा पीडयेति मा बाधयेति । पीड गहने लोटू । दिनाधिपाय दिनस्याधिपस्तथे । कस्तमै सूर्याय । दीनं सवैन्यं यथा तथा प्रकाशितरदेव प्रकाशिता रदा यस्यास्सा तथेक्का प्रकटितदंतेव | बिरेजे नकाशे । राजू दोनों लिट् ॥ उत्प्रेक्षा | १०| I भा०-- बसुधा (अथवा उपमाता) फटे हुए स से गिरे हुए तथा इसर के किनारे पर पढ़े हुए मोतियों के कारण- हे सूर्य ! मेरे बच्चों ( अथवा वृक्षों को ) मत पीड़ित करें तदर्थ मानों सूर्य को प्रार्थना सूचक दाँत दिखलाती कीसो ज्ञात हुई । १० । संतापिताः स्वरिपुराहुमहारुपेव चंडांशुना सदृशराहुकुलाः फणीन्द्राः ॥ शंके गतान्यशरणाप्यनुवंस्तदीये पादाय एवं कृतवत्र पुटप्रमेोकाः ॥११॥ संतारिइत्यादि । चंडांशुल बंडा अंशवो यस्य सः तथोक्तस्तेन भास्करेण । स्वरिपुराहुमहारुपेव स्त्रस्य विपुः स्वरिपुः स नासौं राहुश्च स्वरिपुराहुः महती चासौरुट् च महाष्ट्र स्वरिपुराौ जनिता महारुर तथा निज राहत्यमाकोधेन । संतापितरः Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः। सन्ताप्यन्तस्म सन्तापिताः सम्बाधिताः । सदशराहुकुलाः राहोः कुलं राहुकुर राहुकुलेग सदृशं फुलं येषां ते तथोक्ताः राहुकुलसमवंशाः। गताग्यशरणा: अन्यच्च तत् शरणं व अन्यशरणं गतं अन्यशरणं येषां व तथोक्ताः अप्राप्तापररक्षकाः । "शरणं गृहर क्षत्रोः" इत्यमरः । कृतवक्क्रपुटप्रमोकाः क्रियतेस्म कृताः वरकस्य पुर तस्य प्रमोको धक्क्रपुटपाकः कृता वक्तपुरप्रमाको यस्ते विहितवदनपुषिषासनाः । फणींद्राः फणीनामिंद्रास्तथोक्ताः महासर्पाः । तदीये तस्येदं तदीय तस्मिन् तदीये "हो" इति छः सूर्यसंबंधिनि। पादाप्रमेव पादानां किरणानामन्न तस्मिन् वरणकिरणानं एष । व्यस्लुटन लुठतिस्म लुठ प्रतिघाते लङ् ॥११॥ भा. १0- ग्रीष्म सम्बन्धी प्रखर धूप में अनन्य-गतिक होकर सर्प-समूह मुंह खोले लोटते हुए मानो शत्रु भूत राहु जन्य क्रोध से सूर्य के द्वारा सत्तापित किये जाकर राहु कुल के समान प्रतीत होते थे। ११ । इत्येष तीव्रतरभावनिपीड्यमाननिःशेषजीवनिवहोऽपि निदाघकालः ॥ निन्येऽत्र जीवनिवहैः सुखमात्तयोगः पुण्ये जगद्गुरुस्वास्थित यत शैले॥१२॥ इतीत्यादि। पुण्ये पुण्यहेतुत्वादेय पुण्यं तस्मिन पवित्र । यत्र यस्मिन्यत्र । शैले कस्मिंश्चित् पर्वते। आत्तयोगः भाधीयतस्म भासः आप्तो योगो येन सः स्वीकृतध्यानः। “योगः सन्नहनापायध्यानसंगतियुक्तिषु इत्यमरः। जगद्गरूः जगतां गुरु तथोक्तः लोकगुरुः। अघास्थित तिष्ठतिस्म ष्ठा गतिनिवृत्ती लुङ् । “संविनयात्" इति तङ्। अत्र अस्मिन् गिरी। जीवनियः सीधानां निवहा जीवनिवहास्तैः प्राणिसमूहः। इति एवं प्रकारेण । तीव्रतरभावनिपीड्यमाननिःशेषजीवनिवहोऽपि प्रकृष्टस्तीयस्तोवसरः स चासौभावश्च तीवतरभावः निपी. ड्यत इति निपीड्यमानः नौबतरभावेन निपीड्यमानस्तथोक्तः जोवानां निचाहो जीवनिवहः मिःशेषञ्चालौ जीवनियाहश्च निश्शेषजीवनिवहः तीवतरभाषनिपोव्यमानो नि:शेषजीवनवहो यस्य सः निष्ठुरस्त्रभावेन बाध्यमानस्थावरजंगममाणिसमूयुक्तोऽपि । पषः अयं । निदायकाल: निदाघश्चासौं कालश्च निदाघकाल: प्रीष्मकालः। सुख यथा तथा। निन्ये नीयतेस्म । णीम् प्रापणे लिट् ॥ १५ ॥ भा. भ.जिस पवित्र पर्वत पर ध्यानमग्न जगद्ग र मुनिगण रहते थे सभी जीवों को दूसरी जगह निष्ठुर भाव से सन्तप्त किये हुई इस भीषण ऋतु को भी उस गधंत पर ifणवर्ग सुस्तपूर्वक बिताते थे । १२ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وما هم मुनिसुव्रतकाव्यम् । गभीरगर्जितभरादथ कंपमानचक्रांगबालविरहिवजमब्दकालः ॥ छिद्राविशत्कणिसनृत्यमयूरयूथमुन्मीलदोष्टपुटचातक मुट्ठभूव ॥१३॥ गंभीरेत्यादि । अथ निदाधकालावसानानंतरे। अब्दकाल: अपो दानोत्यब्दः ल चासो कालश्च तथोक्तः वर्षाकालः । गोरगर्जितभरात गंभीरं च तत गर्जितं च गंभीरगर्जितं तस्य मरो गंभीरगर्जितमरस्सस्मात् गंभीरस्तनिताशयात् । कंपमानवकांगवालविरहिनजे चक्रांगानां बाला: चांगलाः विरहोऽस्त्येषामिति विरहिण: चक्रांगयालाश्च विहिणश्व चक्रामबालविरहिणस्तेषां वास्तथोक्तः कंपत इसि कपमान: कंपमानश्चक्रांगपाल विरहित्र जो यस्मिन् कर्मणि तत् तथोक मर्यावचल'सपोतविहिजनसमूहसहित यथा भवति तथा । छिद्राविशत्कणिसनत्यमयूरयूथ आविशंनीत्याविशंतः फणास्त्येषामितिफणिनः छिदमाविशंतश्छिदाविशंतस्ते घ ते फणिनश्च छिद्राविशत्कणिनः नृत्येन सह घर्त'त इति सनृत्यास्ते च ते मथूराश्च सनृत्यमयूरा छिद्राविशत्फणिनश्च सनृत्यमयूराश्च तथोक्ताः छिद्राविशत्फणिसनृत्यमयूराणां यूथं यस्मिन् कर्मणि तथोक्त रंध्रप्रविशत्सु. नत्यमयूरनियई यथा यथा । उन्मीलदोष्टर चातक उन्मालत इत्युन्मीलंती मोरयोः पुटावाठपुटी उन्मीलंतावोठपुटौ येषां ते तथोक्ता: उम्मीलबोटपुटाश्चातका यस्मिन्कमणि तत् तथोक्त शिथिलीपोष्ट शतक पक्षे विशेषयुक्त यथा तथा। उद्घभूव उद्देतिस्म भू सत्तायां लिट् ॥ १३॥ भा० म० --इसके याद गंभीर गर्जन से हंस-शावकों को तथा वियोगी जनों को कम्ति , विधुर सो को बिल में घुसने के लिये बाध्य, मयूर समूह को नृत्य मन्न तथा चातकों के अधर पुट को उन्मीलित करती हुई वर्षा ऋतु का प्रादुर्भाव हुआ । १३ । प्राजीजनत् प्रसृतसर्वसमुद्रदेशाः शक्रेण सिंधुजलमग्ननगग्रहाय ॥ क्षिप्तोरुजालधिषणां पुनरुत्पतन्तः खं नीयमाननगशेमुषिको नवाब्दाः।१४॥ प्राजोजनहित्यादि । प्रसूतसर्वसमुद्रदेशाः प्रस्त्रियतस्म प्रसृताः समुद्रस्य देशाः समुद्रदेशाः सर्वे च ते समुद्रदेशाश्च सर्वसमुद्रदेशाः प्रसृताः सर्वसमुन्देशा यैस्ते तथोक्ताः व्यातलमस्तसागरप्रदेशसहिताः । नधावाः नव च ते अन्दाश्च नवादा: नूतनमेघाः । शक्रण निर्जरवरेण । सिंधुजलमग्ननगग्रहाय सिंधोर्जलं सिंधुजलं मजतिस्म मन्नाः सिंधुजले मनास्तधोकाः सिंधुजलमन्नाश्च ते नगाश्च तथोक्तास्तेषां प्रह: सिंधुजलमग्ननगनइस्तस्मै समुद्रसलिलमनपर्वतग्रहणाय। क्षिप्तोरुजालधिषणां क्षिप्यतेस्म क्षिप्त उरु च तत जाले व उजाले क्षिप्त' व तत् उसजालं च क्षिप्तोफजालं तदिति धिषणा भितो. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ما هم नामः सर्गः । रुजालधिषणा तां निक्षिप्तपथलनायबुद्धि । भाजीजनत् प्राजनयन जने प्रादुर्भाव णिताल्लुङ । पुनः भूयः । उत्पततः उत्पतंतीत्युत्पत्तः उपर्यागच्छतः । नवन्दिाः प्रत्यप्रांदाः । एवं व्योष। नीयमाननगशेमुनिका नीयत इति नीयमानास्ते च त नगाश्च नीयमाननगाः त इति शेमुपिका नीयमाननगशेमुषिका तां आकृष्यमाणपर्वतधुद्धि प्राजीजनत् प्राग्भाचयतिस्म ॥ १४ ॥ . भा० अ०-मानो सभी सामुद्रिक प्रदेशों में उड़े हुए नतन मेघों ने समुद्र जल में मन्न पर्वतों को निकालने के लिये इन्द्र के द्वारा फेंके गये महा माल की तथा ऊपर की ओर उठे हुए मेघों ने आकाश को और पर्वन को बंधने को प्रवीणता को प्रकटित किया । १४! नो विद्म साभ्रमपराम्बुनिधेग्टंती विद्युत्वतां किमु ततिर्बडवानलार्ता ॥ वादतिसंतनिरुत धुनदीक्षणार्थ व्यारूढपाशिवनिता मकरीततिर्वा ॥१५॥ नो इत्यादि । परांबुनिधेः थपश्चालावंचुनिधिश्च तथोक्तस्तस्मात् पश्चिमयादः. पतेः सकाशात् । अन्न' सुरवत्म। अटती अजीत्यरंनी गच्छंती । सा दृश्यमामा विद्युत्वतां विद्यु रस्त्येषामित्ति विद्यु त्वंनस्तेषां विद्युत्वतां अन प्रत्यर्थ इति जस्त्वाभावः। ततिःराजिः। फिमु स्यावा । घडवानलार्ता यतवानलेनार्ता बडवाग्निबाधिता। बादंतिसंततिः वारि विद्यमाना तिनो बादतिनस्तेषां संततिः दन्तोपशोभितो जलगनसमूहः । उत्त भवेटिका धुनहीक्षणार्थ दिवा नदी धुनही तस्या ईक्षमा धु नदीक्षण धु नदीक्षणाय तथोक गंगानदीदर्शनाय । ध्यानपाशिवनिताः व्याकक्ष्यन्तेस्म व्यारूढाः पाशोऽस्यास्तीति पाशी तस्य वनिता पाशि. घमिताः व्यारूढाः पाशिवनिताः यस्यास्सा तथोक्ता वाहनस्वाधारूढवरुणस्त्रीसमेता। मकरीतति मकरीणां ततिस्तथोक्ता मकरस्त्रीनिकरो घेति । नाविझ न जानीमः । विद्. शाने लङ् । “विदो लटो वा" इति मसो मादेशः। संशयालंकारः॥१५॥ भा० अ०-मैं नहीं समझता कि पश्चिम समुद्र से आकाश तक चकर लगाती हुई विशु पंक्तियाँ है ? अथवा बाड़बालि से पीड़ित इस्तिसमूह है ? या पाकाश गंगा को देखने के लिये वरुण की त्रियों से सवारी की गयो मगरों की स्त्रियों का झंड तो नहीं है ॥ १५ ॥ नीरंध्रमभ्रपटलं पिहिताखिलघु जेतरां विधृतदीर्वतरांबुधारं ॥ देव्याः क्षितरुपरि लंबितदीर्घमुक्तामाले विशालमिव धातृकृतं वितानं ॥१६॥ नीरंधमित्यादि । पिहिताखिला अपिधीयतेस्म पिहिता "धान् इति धादेशः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सुनिसुव्रतकाव्यम् । "धाभोः इत्यपरकारलेपः मखिला चासौ धौश्च अखिलचौः पिहिना भलिलचौर्येन तत् तथोक्त पोऽचो हुस्थः" इति हस्य: आच्छादितसमस्ताकाश । विधृतदीर्घतगंधुधार प्रष्टर दीर्घा वायतरा अंधुभो धारा अंधारावीतरा त्रासाचंधुधारा व तथोक्ता विनोयतेम विधृता विधृता वीर्धतरांबुधारा येन तथोक्त' भृशाधिकायतजलधारं । नौरंधू' रेधानिर्गतं नीरंधू निच्छिन्द्र। अभूपटलं अभागा पटलं तधोक्त मेघसमूबः। क्षितः भूम्याः । देव्याः देवतायाः भूदेव्याः । उपरि अने। धातृकृतं धाया कृतं ब्रमनिर्मितं ! लंबितदीर्घमुक्तामालं लण्यतेस्म लेपिता मुलानां माला मुक्कामाला नीर्घा वामी मुक्तामाला व दीर्घमुक्तामाला लपिता दीर्घमुक्कामाला यम्य तत्। विशालं विस्तीर्ण । यितानमिव चंद्रोगमानमिव । भ्रे जैतगं प्रकृष्ट भ्र जे भ्र जैनगं मानि त्रिदीनौ लिट् । “यो विभत्र ताम्" इति सरप प्रत्ययः । अल्पदित्यादिनाम्प्रत्ययः उत्प्रेक्षा ॥ १२ ॥ मा० -समस्त नमा-मण्डल को आच्छन्न किये हुआ, बड़ी प्रखर जल-धाग को धारण किये हुआ, भगवती पृथ्वी के ऊपर लटकी हुई बड़ी २ मुक्ता माला घाला ब्रह्मा के द्वारा फैलाये गये विशाल छिद्ररहित तम्बू के समान मेत्र-मण्डल मालूम पड़ता था :॥१६॥ रेजुः प्रसृत्य जलधि परितोऽप्यशेष मेघा मुहुर्मुहुरभिप्रसूताभ्रभागाः ॥ पादानवर्षणमिषात्पयसां पयोधि व्योमापि मान्त इव संशयिताशयेन ॥१७॥ रेजुरित्यादि। अशेष न शेषं अशेष त सकलं । जलधिं जलानि धीयंतेस्म जलधिस्न समुद्र । परितः सर्वनः । प्रसृत्य प्रसरण पूर्व० व्याप्य । मुहुर्मुहुः भूया भूयः । अभिप्रसृताभुभागाः ममित: प्रसूताः अभुस्य भागा: मम भागा: अभिप्रसमा अभुभागा येस्ते तथोक्ता: अभिव्यामगगरप्रदेशयुक्ताः । मेघाः जलधराः। प्यमा जलानां । भादानवर्षणमिषात् मादाने व वर्षणं व तथोक्त आदानवर्षण पत्र मिर्ष भादानवर्षणमिषं तस्मात् स्यीकरणावर्षणग्याजात् । संशयिताशयेन संशेतेसा संशयितः स वासाषाशयश संशयिताशयस्तेन शकि. तामिप्रायेण। पयोधि जलधिं । ज्योमापि दिवौष । भात इव मांतीति मातस्तव मामाने शत्रतः प्रमिति कुर्वति इव । रेनुः बभुः । राज दोप्तो लिट् उत्प्रेक्षा ॥ १७॥ भा. १०-सारे समुद्र के चारो तरफ बार बार फेल कर आकाश-गण्डल को घेरे हुए मेष जलों को लेने और वर्षण करने के बहाने से संदिग्ध चित्त हो मानो समुद्र और आकाश को नापते हैं ।१७। कांतारभृमिषु विदीर्णदरीविधानदेदीप्यमानमणिराशिमुपोपविष्टाः ॥ अंगारपुंजमनमा किल सेवमानाः शाखामृगाः शुशुभिरे नववृष्टिशीर्णा:॥१८) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ नवमः सर्गः। कांतारेत्यादि । कांतारभूमिषु कांताराणा भूमयः कांतारभूमयः सासु अरण्यभूमिषु । नववृष्टिशीर्णाः नया चासो वृष्टिच नववृष्टिस्लपा शीर्णाः नूतनपा कदर्थिताः । विदीर्णहरीभिधानदीप्यमानमणिगशिं विदीर्णाश्च ता दर्यश्च विदीर्णदर्यः देदीप्यंत इति देदीप्यमानास्ते च ते मणयश्र तथोक्ता विदीर्णदरीषु विचमाना देदीप्यमानमण यस्तेषां शिस्तं प्रागनिदाघभयस्फुटितसुदरीष भामास्यमानाक्षगशिं । उपोपधिष्टाः उगोपविशतिस्म तमोक्ताः समीपस्थिताः । प्रोपोत्संपादपूरणे द्विः । अंगारपुजमना अंगाराणां जस्तथोक्तः अंगारपुंज इनि मनस्तेन अंगारराशियुद्ध या । सेत्रमाना: सेवंत इति सेवमानाः। शाखामृगाः कपयः । शुशुमिरे किल घकाशिर किल । शुभ दीप्तौ लिन् । भानिमानस्लंकारः ॥१८॥ मा००-धन-भूमियों में वितीर्ण कन्दराओं में विद्यमान रक्षपुज के निकट नई दृष्टि से भारी हो भगाग्ज के ख्याल से बैठे हुए अन्दर सोभते थे ॥ १८॥ नीलोपलायीनलमणितोरणातभाह परिनुहुर्विचा हधूकैः ॥ किमीरिता जलधरास्तुरचापर या विद्यद्यता विविदिरे नगरेषु वर्षेः॥१६॥ भोलापलेत्यादि। नगरेषु पत्तनेषु । अंतः मध्ये । यहि बाह्य । परि परितः । मुहुः पुनः पुनः। विनरद्वधूकः विवरतीति विचात्यः विचरत्या वध्वे। येषां ते विचाद्वधूमास्तैः संघरनितायुतः । मणितारणा: मणिमिनिर्मिनास्तोरणास्तथोकाः मणिरणा अप्रै येषां ते मणितारणायास्त: गनभाग बनतोरणयुक्तः। नीलोपलानिलयः नीलचासौ उपलब्ध नौलोपलम्तेन निर्मिता अनिलयाः नीलेपलानिलयास्तः नीलरत्नाचिन. सौधेः। किम्मोरिताः मिश्राः । सुरचादरम्याः सुरचापेन रम्या: इंद्रधनुषः मनोगः । विद्य - साः विधता युतांस्तथोक्काः तधि नी: 1 जलधराः मलामि धरतीति जलधरा; मेषाः । वर्षे : वृष्टिभिः । यिचिदिर रेजिरे । विद माने लिट् । सापमानापमेयपदानां चिपतिविवभावेन परस्परोपमा १॥ भा० अ०-बाहर, भीतर तथा चारो तरफ जहाँ शर २ युवतियाँ विचरण कर रही हैं ऐसी मणिमय तोरण चाली नीलम-जडिन अट्टालिकाओं से स्पृष्ट और इन्द्र धनुष तथा चंचला-युक्त मेत्र शहरों में दृष्टि द्वारा हो जाने जाते थे अर्थात् आकाशपशिनी इन्द्रमणिस्वचित अटारियों से समुद्भासित स्वच्छाकाश के भी नील बने रहने की वजह से प्रकृत जलद वृष्टि होने पर ही प्रतीत होता था। १६ । उन्मार्गवर्त्यपि जगज्जनमान्यवृत्तिालासभासुरकुजोप्युरुवाप्पसीतः ॥ भभोमुचामशमयत्प्रन्चयो रजांसि प्रत्याहतामल दिगंबरदर्शनोऽपि ॥२. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम्। १७४ .. उन्मात्यादि । उन्मार्गवयपि उद्तो मार्गस्तस्मिन् पर्तत इत्येय शोला मावर्ती दुर्भागवयपि पक्षे व्याममा ययपि । जगजनमान्यवृत्तिरपि जगतो जनाः जगमना: मानितु योग्याः मान्या: जगजनेर्मान्या तथोक्ता जगजनमान्या वृत्तिर्यस्य सः लोकजामपूज्यवर्तनायुक्तः। दुर्भागवतिने। जगजनमान्यवृत्तित्वविरधिः याकाशमार्गवर्तीति परिहारः। उल्लासभासुरकुजेोऽपि उल्ललनमुलासरलेन भासंत इत्येवं शीला उल्लासमासुरा को जायंत इति कुमा: उल्लासभासुराः कुजाः यस्य सः दणमासनशीलसीतायुतः। पने बल्लासमा सुरा: पलवलाशत्रचूनादिभिभासमानाः फुजाः वृक्षा यरूप सः तथोक्त. लापि । उसयासितः उरु यावं यस्यास्सा तथोक्ता उरुवाष्पा सीता यस्य सः महद य. सीतादेवीसहितः पक्षे जमायमाणलांगलपद्धतिसहितः । “बापो नेत्रजलाध्मणोः। सोता. रामफलत्रं स्यात्तथा लागलपद्धती इत्युभयत्रापि विश्वः । उल्लासभामरसोतावतः उचाई सीतापत्य विरोधः । किन्तु उल्लसनभासनशीलश्नवत्वं जयवृष्टिवशादुम्मायमाणलांगलस्व. पतिवरमिति परिहारः । प्रत्याइतामलादगंबरदर्शनाऽपि प्रत्याहान्यतस्म प्रत्यात न विद्यते मलं यस्य तदमलं दिश एनांवर पाते दिगंबरा: तेरा दर्शनं तयांत प्रत्याइत ममल दिनयादर्शनं येन सः तथोक्तस्सोऽपि निराकृतनिर्मलजिनमतवानपि पक्षे दिशश्च भेषरं च दिगंबराणितेषां दर्शन प्रत्याइतं समलदिगम्बरदर्शनं येनसः इत्यत्रापि बहुपदो बलः। प्रक्षितविशदादगाकाशवाक्षणवानपि । “दर्शनं गयनस्वामधुद्धिधर्मोपलब्धिषु । शानदर्पणयोश्वापि" इति विश्वः । अंभोमुचां अंभांसि मुञ्चत्यम्मुचस्तेषां मेवानां । प्रचयः प्रकरः । रजांसि पापानि रेणूखा । अशमयत् अदमयत् । शम् दमू उपशमन ल। निराकृजिनमतस्य पापशमनत्वं विधिः । प्रतिहतनिमलदिगाकाशाप्रक्षणस्थाब्दकालस्य धूलिशमनत्यमिति. परिहारः । घिराधमासालंकारः॥ २० ॥ भा० अ० विपथ गामा (आकाश पथचारो ) होते हुए भी सांसारिक लोगों से मान्य वृत्ति होकर, हर्प से प्रकाशन-शाल सांता (वृक्ष) युक्त होते हुए मा अत्यन्त बाष्प सम्पन्न लांगल ( साता देवा ) सहित तथा स्वच्छ दिशावलांकन (पवित्र जिनमन दर्शन) को अरुरूम किए हुए भी मेघ-मंडल ने रजस्लमूह ( रजोगुण ) को शान्त किया । २० ॥ कि केतकी कुसुमिता किमयं तडित्वान संबाधतो जलमुचां पतितः पृथिव्यां ।। किंवा धृतदुशकलस्तम सां समूहः किं शाकिनी शितरदा तरुणादनाय ॥२१॥ किमित्यादि । कुसुमिता कुसुमागि संजातान्यस्यामिति तथोक्ता संजासकुखुमयुक्ता । केतकी वृक्षः । किं भवेत् किंनु । अयं एषः । जलमुचां जलं मुंचंताति जलमुन्नस्तेषां । संयाधतः संवाधनं संबाधस्तस्मात् तथोक्तं परस्परसंमर्दनतः। पृथिव्यां भूभ्यां । पतितः Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ नवमः सर्गः । पततिस्म पतितः च्युतः। तडित्वान् तडिदस्यास्तातिमडिवान् “सव" जिवालाः विद्यु धु कमेधः । किंस्यादुत । धृतेंदुशकलः नोयतेस्म धृतं ईदाः शकलमिधुशकलं धृतमिटुशफलं येन सः धृतचंद्रभागः । "मित्तशफलखंडे वा” इत्यमरः । तमसां तिमिराणां । समूहः निवहः । किं वा भवेद्वा । तरुणादनाय तरुणानामदन तरुणादनं तस्मै कामोद्दीपनहेतुस्वाध वजनभक्षणार्थमित्यर्थः । शितरदा शिता रदा यस्यास्सा तथोक्ता निशितरदना "शितं शात च निशिते कशे शान्तश्च कर्मणि" इति विश्वः। शाकिनी शाकिनी नाम देवी । किं भवति किं। संशयालंकारः ॥२१॥ भा० अ०---क्या यह विकसित केतकी की गाछ है या परस्पर मेघ के संघर्षण से ज़मीन पर गिरी हुई बिजलो है अथवा चन्द्रमा का टुकड़ा लिये हुआ अन्धकार-समूह है या युवकों का भक्षण करने के लिए कटिबद्ध उजले दाँत वाली राक्षसी तो नहीं है । २१ । गोत्रारिगोपकरका व्यरुचन्धरायां मेघागमेन दयितेन कृतांकपाल्याः ॥ व्योमश्रियः स्तनतत्रुटितोरुहारस्वरतावकीर्णनवविद्रुममौक्तिकाभाः॥२२॥ गोप्रारीत्यादि । मेधागमनेन आगमनमागमः मेघस्यागमा यस्मिन् तेन प्रावृष्ट्रकालेन दयितेन प्राणनायकेन । कूतांकपाल्याः क्रियतेस्म कृता कृता अंकपालियस्यास्सा तथोक्ता तस्याः पिहितालिंगनायाः। "क्रोडधात्रिकापरिरंभेष्वंकपालिः" इति नानार्थकोशे। व्योमश्रियः व्योनः श्रोः व्योमैव वा श्रोस्तस्याः गगनलक्ष्म्याः । स्तनतत्रुटितोरहारस्त्रस्तावकीर्णनवविद्यममौक्तिकाभाः स्तनयोस्त स्तनतट तस्मात त्रुटिनः तथोक्तः उरुश्चासौ हारच तथोक्तः स्तनतत्रुटितश्चासौ उरुहारश्च स्तनतत्रुटिनोरुहार: प्रस्ताश्च ते अवकीर्णाध स्त्रस्तावकीर्णाः स्तनतत्रुटितोशहारात् स्त्रस्तावकीर्णाः विद्रुमाश्च मौक्तिकान विद्रुममौक्तिकाः नवाश्च ते विदुममौक्तिकाश्च नवविद्रुममौक्तिकाः स्तनतत्रुटितोरुहारसस्तावकीणांश्च ते नवविद्रुममौक्तिकाच तथोक्ताः तेषामामाः कुचप्रदेशत्रुटितपृथुठाराच्छिथिलितधिकीर्णनूतनप्रवालमुक्काफलसदृशाः । गोत्रारिगोपकरका गोत्रारिगोपाध करकाच तथोक्ताः द्रगोपक्रिमिवर्षोपलाः। धरायां भूमौ । व्यरुचन विशेषेण रेनुः । रुचि अभिप्रीत्यांस लुक "युद्धपोलुङ्" परस्मैपदम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥२२॥ भा० अ०---वर्षा-काल-रूपी वल्लभ से आलिंगित आकाश-लक्ष्मी के स्तन-प्रदेश से ट्टी हुई माला के गिरे हुए नये मोती और मूंगे की सी आभा वाले इन्द्र कीट तथा ओले पृथ्वी पर चमकने लगे । २२॥ पालप्य खल्वतितरां चतुरैरमुष्मिन्नारूढधन्वनि सतामवमानहेतौ ॥ काले हि राजविकले कलुषात्मनीति कामं पिकोऽभवदुरीकृतमूकभावः॥२३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिमुमतकाव्यम् । __ आलप्येत्यादि । पिकः कोकिलः | आरूढधन्वनि आरुह्यतेस्म आरूढं आल धन्व यस्मिन् तस्मिन् आमढधनुष्मति कलहतत्पर इत्यर्थः पश्ये प्ररूढ़ेद्रायुधवति । सतां सत्पुरुपाणां पक्षे नक्षत्राणां । "सत्प्रशस्त विद्यमाने त्रिषु स्त्रीसत्यतारयोः" इति शाश्वतः। अवमानतो अवमानस्य हेतुस्तथोक्तः तस्मिन् तिरस्कारकारणे । राजधिकले राज्ञा विफलस्तथोक्तस्तस्मिन् उत्तमक्षत्रियहोने पक्षे चंद्रप्रभारहिने “राजा चंद्रमहीपत्योः" इति धनंजयः । कलुषात्मनि कलुष आत्मा यस्य तस्मिन् पापात्मनि पक्षे मलिमसस्वभावे । अमुष्मिन् काले पक्ष एतद्वर्षाकाले । चतुरैः पंडितमनोरंजन निपुणे: पक्षे पंचमध्यनिनिपुणः । अतितरां अत्यंत । आलप्य आलपनं पूर्व० उक्त्वा । खलु "निषेधेऽलं खलौलकेति"त्या प्रत्ययः । "कोऽननाप्यः" प्रति प्यादेशः । “निषेधचाक्यालंकारजिज्ञासानुनये खलु" इत्यमरः । एवमाशयेन । दूरीकृतमूक. भावः दूरीक्रियतेस्म दूरीकृतः मूकस्य भावो मूकभावः दूरीकृतो मूकभावो येन सः अंगीकृत मौननियमः । काम पर्याप्त' । “काम प्रकामं पर्याप्तम्" इत्यमरः । अभवत् भू सत्तायां लङ् ॥ २३ ॥ भा० अ०. कलह-तत्पर अथवा इन्द्र-चाप-युक्त, सज्जनों अथवा नक्षत्रों के अपमान के कारण उत्तम राजहीन अथवा चन्द्र प्रकाश से रहित पापात्मा अथवा कृष्णता-युक्त इस वर्षाऋतु में कोकिलने पंचम राग से मनमाना कजन कर अब एकदम चुप्पी साधली । २३ । प्रत्युन्मिषन्नवकदंबरजोभिरुच्चैश्चित्रं दिगंबरहदप्यनुरक्तमाशु ॥ चित्तान्यरंजयत रागिजनस्य तस्येत्याश्चर्यमल किमु पश्चिमगंधवाहः ॥२४॥ प्रत्युन्मिपमित्यादि । अत्र प्रावृधि । पश्निमगंध वाहः पश्चिमश्चासौं गंधवाहश्च तथोक्तः पश्चिमवायुः । प्रत्युन्मिापनघकदवरजोभिः प्रत्युन्मिषतीति प्रत्युन्मिषन् नवश्चासौ कदंबच नवकषः प्रत्युन्मिपश्चासौं नवकदंवश्च तथोक्तः प्रत्युन्मिषनवकवस्य रजी. सि तैः धिकसत्कुसुमनूतननोपवृक्षस्य रजोभिः। दिगंबरहुदपि दिश एवाय एषां ते दिगं. परास्तेषां हृत् चित्त नदपि पो दिशश्च अंबराणि च दिगंबराणि तेषां हृदंतर्भागो मुनींद्रहृदयमपि पझे दिगाकाशमध्यमपि। उश: अधिक। आशु शीघ्र । अनुरक्त अनुरज्यतेस्मानुरक्त प्रोणाति पक्षे अरुणित।चक विदधे। तस्य प्रसिद्धस्य । रागिजनस्य रागोऽस्यास्तीति रागी स चासौजनवरागिजनस्तस्य कामुकजनस्य। चित्तानि मनांसि। अरंजयत अमीणयत् । इति एवं तत् । आश्चर्य किमु अद्भुतं किं चि न भवति इति यावत् ॥ २४ ॥ भा००-जब पश्चिमी वायु ने विकसित नूतन कदम्ब-पुष्प के परागों से आकाश के मध्यसाग अथवा दिगम्बर मुनियों के चित्त को बहुत शीघ्र अधिक अनुरक्त कर लिया तब भला या कामी जनों के हृदय को अनुरंजित करे तो क्या आश्चर्य है ।२४। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ नवमः सर्गः । इत्यत्राहसमयोऽपि विभमाणां वज्रानलं जनपदेषु ससर्ज नेपत् ॥ चक्रेऽतिवृष्टिमितरां न च दुर्दिनानि तस्य द्रुमूल गतलोकपतेः प्रभावात् ॥ २५ ॥ इत्येत्यादि । इति एवं प्रकारेण । विजृंभमाणः प्रवर्धमानः । अंबुवाहसमयोऽपि अंतु वह त्वाहः स वासौ समयच तयोः वर्षाकालोऽवि । डुमूलगतलोकपतेः दोर्मूलं द्रुमूलं तद्गच्छतिस्म द्रुमुलगऊ: लोकस्य पतिलोकपतिः द्रुमूलगतश्चासौ लोकपतिश्च मूगतलोकपतिस्तस्य वृक्षमूलस्थित जिनेश्वरस्य । प्रभावात् सामर्थ्यात् । जनपदेषु देशेषु । ईषत् स्तोकं व 1 वज्रानले वज्रस्यानलो वज्रानस्तं वज्राग्निः । "वज्र' हीरकभोलिबाट कामलकेषु च” इति विश्वः । न ससृजे न चकार । सृज विसर्गे लिए | अतिवृष्टि अधिकवृष्टिं । इतरां अनावृष्टिं । दुर्दिनानि च मेघनदिनानि च । न चक्रे न विदधे ॥ २५ ॥ भा० अ० यों बहुत बढ़े बढ़े हुए भी वर्षा काल ने वृक्ष के नीचे स्थित श्रीजिनेन्द्र देव के प्रभाव हो से देशों में सभी जगह बज्रपात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा दुर्दिन आदि बाधायें संघटित नहीं कां । २५ । सुष्टिकांतमथ सीत्कृतगर्भकंटं निस्स्वेददीर्घसुरतं स्वदमानवहूनि ॥ कर्पूर खंडविकलकमुकोपभोग कचिद्वभूव विषयः समयो जनानां ॥ २६ ॥ सुश्लिष्टं त्यादि । अथ प्रावृकालानंतरे । कश्चित् कोऽपि समयोऽपि । कालः हिमकाल इत्यर्थः । सुष्टिकां कांता च कांता फोतो एकशेषः सुलिष्येतेस्म सुलिष्टौ कांतौ यस्मिन् कर्मणि तत् गाढालिंगितदंपति यथा तथा । सीत्कृतगर्भकंठं सीत्कृतमेव गर्भ यस्य सः तथोक्तः सीत्नगर्भः कंठो यस्मिन् कर्मणि तत् सीत्कारांतसहितगलयुक्तं यथा तथा । "सोत्कृतं भणितं कामे" इति धनंजयः अनुकरणध्यनिः । निःस्वेदोर्धसुरतं स्वेदान्निर्गतं निःस्वेदं दीर्घ च तह सुरतं व तथोक्तं निःस्वेदं दीर्घसुरतं यस्मिन्कर्मणि तत् धर्मरहितायतनिधुवनं यथा तथा ! स्वदमानव स्वयते इति स्वदमानः स्वदमानो वह्निस्मित् कर्माणि तत् अंगकृतायुक्तं यथा तथा । कर्पूर खंडविकलकमुकोपभोगं कर्पूरात्य खंड तथोक्तं कर्पूरवंडेन विकलः कर्पूरखंडविकलः क्रमुकस्योपयोगः क्रमुकोपभोगः कर्पूरेखंडविकलः कमुकोपभोगो यस्मिन् कर्मणि तत् शीतहेतुत्वेन धनसारखंडरहितक्रमुकेापभोगयुक्तं यथा तथा । जनानां लोकानां । विषयः गोचरः । “विषयः स्यादिद्रियार्थे देशे जनपदेऽपि च । गोचरे च प्रवन्धाये यस्य ज्ञातस्तु तत्र च " इति विश्वः । बभूव भवतिस्म भू लत्तायां लिट् । रूपकः ॥ २६ ॥ भा० अ० वर्षा काल के बाद परस्पर दम्पती को आलिङ्गन कराती हुई, अत्यन्त ठंढक सूचित करने वाला सीत्कार ( सीसीसी ऐसी ध्वनि ) गलेसे निकलवाती हुई, और अधिक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रत काध्यम् । १७८ देर तक संभोग होते रहने पर भी खेद ( पसीना ) का अभाव दिखलानी हुई कार रहित सुपारी के सेवनोपयुक्त हेमन्त ऋतु लोगों की गष्टि-गोचर हुई । २६ । उच्चाटनाय शरदः सितसर्षपौधो निर्दग्धुमब्जनिलयानिलयं तुषामिः ॥ आलंभचूर्णमसहायजनस्य कामंप्रालेयसीकरमिषेण कुतोऽप्यपतत ॥२७॥ उच्चाटनायेत्यादि । शरदः शरत्कालस्य । उच्चाटनाय उच्चाटनकर्मनिमित्त । सितसर्षपौधः सिताश्च ते सर्वपाश्च सितसर्पपास्तेषामोधस्तथोक्तः सिद्धार्थसमूहः । अञ्जनिलयानिलयं अजमेव निलयो यस्यास्सा तथोक्ता अञ्जनिलयाया निलयस्तथोक्तस्तं लक्ष्मीनिवास कमलमित्यर्थः । रूपकः । निर्दग्ध निःशेष. दहनाय । तुषाग्निः तुषरुयाग्निस्तथोक्तः पलालाग्निः । असहायजनस्य न विद्यते सहायो यस्य सः असहायः स त्रासौ जनश्च असहायजनस्तस्य असहायजनस्य वियोगिजनस्य। आलंभचूर्ण आलभार्थं चूर्ण तथोक्त मारणचूर्ण । "पालभपिजविशरघातोन्माथवधा अपि" इत्यमरः । प्रालेयसीकरमिपेण प्रालेखस्य सीकरास्तथोक्ताः प्रालेयसीकराइति मिलेम्सोकपि देव शिममात्यानेन । मानिमीलनम्" इत्यभिधानात् । कुतोऽपि कस्मादपि। अपप्तत अपनत् । पल्लु गतौ लुङ् । “शर्तिशास्ति' इत्या. विना अज प्रत्ययः । “श्चयत्यश्वचप्रताऽङ्यथ गुम्पम्" इति पमागमः ॥ २७॥ भा० अ०--शरत्काल के उच्चाटन के लिए उजले सरसो, कमल को जलाने के लिए तुषाराग्नि और जनो के लिए मृत्युवर्ण ओस के बिन्दू के बहाने न मालूम कहां से आ जुटे ।२७। रेजुःप्रभातसमयेषु लताबनद्राः क्षोणीमहन्तुहिनवारिकणैविकीर्णैः ।। भालिंगितस्तबकचारुकुचा रतांतप्रादुर्भवद्भिरिव धर्मल_युवानः ॥२८॥ रेजुरित्यादि। प्रभातसमयेषु प्रभातान्येव समयाः प्रभानसमयास्तेषु विभातकालेषु । लतायनद्धाः अवनहातेस्म अपनद्धाः लनाभिरबनधास्तथोक्ताः बलरीसंबद्धाः। आलिंगिनस्तबकचारुकुचा चारूच तो कुचौ च बारकुचौ स्तरका एव चारकुनी आलिंग्यतेस्म आलिंगितौ स्तषकचारुकुचौ यैग्ने नयोक्ताः परिभगुन्च्छकमनोरमस्तना: "स्यादु गुच्छकस्तु स्तयकः" इत्यमरः । क्षोणीरुहः क्षोण्या भूम्यां महंनीति विनो हकारांनाः वृक्षाः । विकीण: विप्रकीर्णैः । नुहिनवारिकण: वारिणां कणाः बारिकणाः तुहिनस्य चारिकणाः तैः हिमजलशीकरैः । रतांसप्रादुर्भवद्धिः रतस्यांत ग्तांतं प्रादुर्भयतीति पादुर्भवतः रत्तोते प्रामुर्भवतः तथोक्तास्तैः निधुबनायसानानिर्भवद्भिः। धर्मलवैः घप्रस्य लबा धर्मलवास्तैः स्वेदबिंदुभिः। युवान इब नरुणा इव । रेजुः बभुः । राज दीप्तौ लिट् ।। २८ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नवमः सर्गः। ___ भा. अ-प्रातःकाता में लनारों से लिपटे हुदा प्रा शादी सुन्दर कुचों का आलिंगन किए हुए वृक्ष बिखरे हुए. ओस के यिन्दुओं से संभोगान्त में निकले हुए पसीने के कणों से युधक गण के समान सोभने लगे । २८ । कालेऽल तीवहिमभाजि न वासरेंद्रसांद्रांशुकोऽपि सहतेम्म हिमाद्रिवालम् ॥ दूरस्थमप्यथ ययौ मलयाचलेंद्रं गोशीर्षकोटरफणिश्वसितैः कवोधाम् ॥२६॥ काल इत्यादि। नीवहिमभाजि नीमच तत् हिमं च नथोक्त नीवहिम भजनिस्म तीनहिमभाम् नस्मिन् नीवहिमभाजि निष्ठुरहिमसहिते। अत्र अस्मिन् । काले समये । सांद्राशुकोऽणि सांद्रमशुकं यस्य सोऽपि दृढवस्त्रवानपि पक्षे सांद्रोऽशुर्यम्य स नथोक्तः धनकिरणोऽपि । वासरेंद्र: वासरस्येवस्तथोक्तः सूर्यः । हिमाद्रिवास हिमेन युक्तोऽद्रिहिमाद्रिः हिमानिवासस्तथोकः न हिमवत्पवनयिनि । न सहतेस्म न भर्षतिस्मा पहल मर्षणे "स्मे च लिट" इति भूतार्थे लट्। अथ अननरे। भूगस्पमपि विप्रकष्टदेशस्थितमपि । गोशीर्षकोटरफणिश्वसित: गोशीर्यस्य कोटर नथोक्तं गोशीर्षकोटरे स्थिताः फणिनः गोशीकोटरफणिनस्तेयं श्वसितास्तथोक्तास्तैः श्रीगंधवृनकोटरस्थिनसर्पनिश्वासः । कयोष्णं ईषदुष्णं कघोषणं तथा "काकोदोषणे" इनि कोः कयादेशः। मलयाचलेंद्र मलयाश्च ते अन्नलाश्च मलयाचलास्तेशमिठो मलयाचलेंद्रस्तं यद्वा अचलानामिद्रस्तथोक्तः स वासाचिंद्रश्च मलयात्रलेंद्रम्नं । ययौ प्राप। या प्रापणे लिट् || २ || भा० अ०-इस मध्य-कालीन निष्ठुर हेमन्त ऋतु में अत्यन्त सघन किरण-रूप वस्त्र यक्त होते हुए भी सूर्य हिमाचल पर्वतर नहीं रह सके, प्रत्युन अत्याधिक दूरस्थ होत हुए भी चन्दन वृक्ष के खोखले में बैठे हुए साँपों के फुकारों से कुछ कुछ उष्ण मल्याचल पर्वत को चल दिथे । २६ । लौधेण सौरभसनद्रितदिङ्मुखेन रणोत्करेण पिहितानि वनानि रेजुः ॥ लोकातिदुःसहसहस्यमयादिवात्तपत्रांगचारुतरभूरिनिशारकाणि ॥ ३० ॥ लौ णेत्यादि । सौरभसनदिनदिङ्मुखन सौरभेण सनद्रितं सौरभसनद्रित दिशा मुखै दिङ्मुखं सौरभसनद्रित दिलमुत्रं यस्य सः सौरभसनहितदिङमुखस्तेन परिमलव्याप्तदिग्धिवरेण । लौन ण लोध्रस्यायं लोध्रस्तेन लौधसंबन्धिना 1 "मालयः शायरो लोधस्तिरीट. स्तिल्यमार्जनौ" इत्यमरः । रेणोत्करण रेणूनामुत्करो रेणूत्करस्तेन । पिहिनानि अफ्धिीयंतेस्म पिहितानि आच्छादिनानि । वनानि अरण्यानि 1 लोकातिदुःसहसहस्यभयात् अनिदुःखेन महता काटन साह्यत इति दुःसहस्तथोक्त लोकनिदुःसाहस्तथोक्तः स थालौ सहन्ध लोकातिदुःसहसहस्तस्य भयं तस्मात् "पौधे तैपसहस्यौ द्वौ" इत्यमरः । जनातिदुःसहसहिष्णुहिम Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः सर्गः। कालस्य भीतः। आत्तपत्रांगचास्तरभूरिनिशारकाणीध आदीयन्तेस्म आप्ताः निशार एष निशा रकाः भूरयश्च ते निशारकाच भूरिनिशारकाः प्रष्टाचारपश्चारुतरा: पत्रांगण चारतराः पत्रागचारुतराः आताः पत्रांगवारुतराः भूरिनिशारका यस्तानि तथोक्तानोव "निशारः स्यात्प्रा. वरणे हिमानिलनिवारणे" इत्यमरः। स्योक्तगगविशेषा मनोहरबालाच्छादनवनवत्य इव । रेजुः बभुः। राज दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ३०॥ भा० अ०-सुगन्ध से सभी दिशाओं को व्याप्त किए हुए ऐसे लोन के पराग-पुंज से आच्छादित वन लोगों के लिए अत्यन्त दुस्सह हेमन्त ऋतु के भय सं मानों विविध रंग के घेटनों से आवेष्टित से सोभने लगे। ३० । संतापितारतिपतेस्त्रिजगज्जयार्थ नाराचिका सुनिशिता इव निर्विचारम् ।। कातर्यमंबुजदृशो दिदिशुर्जनानां काश्मीररेणु कलितांगलता हिमती ॥३१॥ संतापिता इत्यादि । हिमतौं हिमश्चासौ ऋतुश्व हिमतुस्तस्मिन् हेरी र काले। काश्मीर. रेणुकलितांगलताः काश्मीरस्य रेणुः तेन कलिता अंगमेव लता तथा का काश्मोररेणुकलिता मंगलता यासा तास्तथोक्ता कंकमपरागोद्ध लितदेहयष्टयः। अंबुजशशः अंबुर्जामिय दशौ यासा तास्तथोक्ताः सरोजाक्ष्यः । रतिपतेः रत्याः पतिः रतिपतिः तस्य स्थ। त्रिजगजयायं त्रीणि च तानि जगति च निजति तेषां जयस्तयोक्तस्त्रिजगया जगज्जयाई लोकत्रयजयनिमित्त | संतापिताः संताप्यतेस्म संतापिताः । सुनिशिताः अधिकतोक्षणाः । नाराविका इच अयोनाराचा श्च । जनानां लोकानां । निर्विचार विचाररहितं । कातर्य कातरस्य भावः कातयं अधीरत्वं । दिविशुः दद्धतिस्म । दिश प्रतिसर्जने लिट् ।। ३१ ।। भा० अ०- हेमन्त ऋतु में केशर को धूलो से परिलिप्त अंगलतिका :..., और कमल कीसी आँख वाली युवतियां त्रिभुवन को जातने के लिये कामदेव के अत्यन्त ताक्षण तथा सन्तप्त लोहे के अस्त्र के समान विचार रहित होकर लोगों को अधोर करने लगा। ३१ । कांतावियोगदहनेन नितांतदग्धाः पांथास्तुषारपतनेन विशायदंगा: ॥ ऊष्मायमाणबदना: श्वसितैरशंकं चूर्णोपलारसमभवन्सलिलापलिर: ॥३२॥ कांतेत्यादि । कांतावियोगदहनेन कांतायाः वियोगः कांतावियोगः स पव दहनः कांतावियोगदहनस्तेन वनितावियोगामिना । सूयकः । नितांतदात्राः दस्म ग्वाः नितांतं दग्धास्तयोक्ताः अत्यंत दग्धाः। तुषारपतनेन तुकारस्य पतनं तेन हिमस्य पतनेन । विशीयदंगा: विशीर्थतीति विशीर्थत् विशीर्यदंग येषां ते तथोक्ताः माध्यमानावयवाः । श्चसित: उपचासैः। ऊष्मायमाणावदनाः: ऊष्माणमुद्रमतीत्युष्मायते ऊष्मायते इति अमायमा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूनिसुनतफाव्यम् । १८१ घदन येषां ते तथोक्ताः ऊणोद्धमदाननाः "वाव्योमफेनादुद्धमि" इति त्यङ्ग प्रत्ययः । पांथाः पंथान नित्य यांत पाथा: "नित्यं णः पंथश्च" इति ण पत्ययः पंथादेशश्च पथिकजनाः। सलिलो. पसिक्ताः सलिनोलिका तथोक्ताः जलेनोपसिकताः। चूर्णोपलाः चूर्णस्योपलाः चूर्णोपलाः सुधाशमानः । "चूर्ग क्षोदे क्षारमेरे चूर्णा निवासयुक्नि" इति विश्वः । अशंकं न विद्यते शंका यस्मिकर्मणि तत् निस्संदेहं यथा तथा। समभवन् समभृवन् । भू सत्तायां लछ। मन्मथालिसाः बभूवुरितिभावः ॥ ३२॥ भा० अ०-पथिकगण अपनी कान्ता के विरह से अत्यन्त दग्ध होते हुए ठंढक पड़ने से जड़ी भूत (विशीर्ण ) अंगवाले हो तत्पश्चात् आह मरने से सवाष्प मुख होते हुए जलसे सींचे गये चूने के पत्थर के समान होगये । ३२ । सत्यं तुषारपटल: शमिना नहाः सिद्ध: पुनः परिचयाय हिमतुलदम्या ।। छन्ना दुकूलबसनैनु पटीरपंलिप्ता नु मौक्तिकगुणैर्यदि भूषिता नु ॥३३॥ सत्यमित्यादि । शमिनः शममस्त्येषामिति शमिनः यतयः कायोत्सर्गस्थिता इति शेषः । तुषारपटले. तुषाराणां पटलानि तुपारपटलानि तः हिगसमुदायैः “समूहे पटलं न ना" इत्यामरः । द्धातस्मरुद्धा: आवृताः । न भवति। सत्यं तथ्यमेव । पुनः पश्चात्किमिति चेत् । सिद्धेः मोक्षलक्ष्न्याः। परिचयाय संगनिमित्त । हिमतुलक्ष्म्या हिमश्चासौ ऋतुश्च हिमतुः स एव लक्ष्मीस्तथोक्ता तया हेमर्तु स्त्रिया । दुकूलघसनेः दुकूलानि च तानि वसतानि च तैः क्षामवस्त्रः। छन्नाः छाद्यतेस्म छन्नाः संवृताः । नु किमु । पटोपको पीरस्य पंकाः पटोरगंकाः तैः श्रीगंधकर्दः। लिप्ता: लिप्यते स्म लिप्ता: उपदिग्धाः । नु किमु । यदि चेत् । मौक्तिकगुगः मौक्तिकानां गुणा मौक्तिकगुमास्नेः मुस्तामालाभिः । "मौर्याप्रधानपारदेद्रियसूत्रसरवादिसंज्ञादिहरितादिषु" इति नानार्थरनकोश । भूषिताः भूष्यतेस्म भूषिताः अलंकृताः । नु किमिति संशयः “नु पृच्छायां बितर्के " इत्यमरः ॥३३॥ भा० अ०–खड्डासन-पूर्वक स्थित यनिगण दिमसमूह से आच्छन्न हैं ? या मोक्षलक्ष्मी का साथ करने के लिये हेमन्त श्री के द्वारा महीन कपड़े से ढके गये तो नहीं है याश्रीचन्दन से उपलित तो नहीं है अथवा मुक्ता-माला से तो भूषित नहीं है ? अर्थात् कायोत्सर्ग से पड़े हुए मुनिगणों को देव पर शीतकाल में तुषारणात होने से फयि उत्प्रेक्षा करते हैं कि चन्दन-लित, मणिहार-भूषित अथवा समुज्ज्वल दुकुलाच्छन्न तो ये मुनिगण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नवमः सर्गः । इत्थं सुदुस्महतुषारतुषावपातैर्निर्दग्धनीरजकुले समयेऽपि तस्मिन् ॥ म्लालानि नैव कमलानि महानुभावो यम्या स्थितः स भगवान सरितःप्रतीरे॥३४॥ इत्यमित्यादि। इत्थं अनेन एकारण “कामत्थमुः" इति साधुः । सुदुस्सहनुवारनुषाक्पातैः सुख दुःखेन महता कष्टेन सुसह्यत इति सुदुस्साहः स चासौ तुषारश्च तथोवनः सुदुःसाहतुपारस्य तुगस्तथोक्तास्तेषामधपानास्त: सोढुमशक्यहिमदेशगतनः । निर्दग्धनीरजकुले निर्दह्यतेम्म निर्द्वग्धं नीर जायन इति नीरजानि तपां कुल निर्दग्धनीरजकुल यस्मिन्तस्मिन निःशेषभस्मीकृतकमलयूथयुक्ते । तस्मिन् समये हिमकाले । यम्याः कस्याश्चि. स्। सरितः सरोवरस्य । पनीरे तटे "कृलं रोधश्च तीरं च प्रतीरं चन्ट तियु"इत्यमरः । महानुभावः महाननुभावो यस्य सः तथोक्तः उत्कृष्टसामर्थ्यसहिनः। सः भगवान ज्ञानवैराग्यसंपन्नः । स्थितः तिष्ठतिम्म स्थिरः । नत्र कमलानि सरोजानि । लालानि "कयोः” इत्यादिना यतस्य मः हर्षरहितानि। नैव नैवाभवन् ॥ ३४ ॥ ___ भा० अ०. यों असह्य नया जोरों की ठंडक पड़ने से सभी कमलों को जलाने वाले भी इस शीतकाल में महा प्रतापशाली यह श्रीमुनिसुव्रत नाथ स्वामी जिस नदी के तौर पर पधार ते थे वहां के कमल कमी लान नहीं होते थे । ३४।। कायक्लेशाभिधाने तपसि जिनपतिनिष्ठितो वर्षमेकम् । बाह्यान्तविग्रहद्वादश विधतपसां मध्यमेऽप्यन इत्थम् ॥ दीक्षाकल्याणमादौ समभवदभवद्यत्र तत्रैव भूयो । नीलारगये शगये भवचकितधियामात्तपुगये वरेण्ये ॥३५॥ कायेत्यादि । जिनपनिः मुनिसुवनाह दीश्वरः। बाबांनर्विग्रहवादविधरपसा थाहा च अंतरं च बायांना ते एव विग्रहो येषां द्वाभ्यामधिका दश द्वादशविधा येषां तानि द्वादशविधानि तानि न तानि तपांसि व नथोक्तानि चाहातर्विग्रहाणि च नानि द्वादविधापांसि च बाह्मांतर्यिग्रहद्वादशविधतपांसि तेरी बहिरंगा-रंगदादाभेदतपसां। मध्यमेऽपि मध्ये मर्य मध्यमं तस्मिन् “मध्यान्मः” इति म प्रत्ययः मध्येगतेऽपि। अग्रे उत्तमे उपरि गते व | *अग्रमालंबने बाते परिमाणे पलस्य च। प्रति पुरस्तादधिवो प्रधाने प्रथमोज्योः इनि" विश्वः काय. क्ले शामिधाने कायस्य क्लेशस्तथोक्तः कायल श इत्यभिधानं यस्य तत्तरिमः प्रायशनामधेये । तपसि नपश्चरणे। इत्ये अनेन प्रकारेण इत्थं । एक वर्ष एमपर्यतं "कालाध्यनोातो" इति ठितोया। निष्ठितः निस्तिष्ठतिस्म निष्ठितः निष्पन्नः । यत्र यस्मिन्बने । आदौ पूर्वस्मिन् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुतकाव्यम् । १८३ दीक्षा कल्याण दीक्षायाः कल्याणं तथोक्तं परिनिष्क्रमणकल्याणं । समभवत् समजायत । तथैव तस्मिन्नेव । भववक्तित्रियां भवे भवाद्वा चकिताधीर्येषां तेषां संसार भीतबुद्धिनां । शरण्ये रक्षणभूते । "शरणं गृहरक्षित्रोः" इत्यमरः । आप्तपुण्ये आदीयतेस्म आन्त पुण्यं यस्मिन् भध्योपार्जित्सुकृते । वरेण्ये उभयकल्याणनिलयत्षादुत्कृष्टे । “मुख्यवर्यवरेण्याश्व" प्रत्यमरः । नीलारण्ये नीलं व तत् अरण्यं व नीलारण्यं तस्मिन् नीलघने । भूयः पूर्ववत्यमाणरीला मलवसू सूतायां लक्ष् ॥ ३५ ॥ भा० अ० - मुनिसुव्रतनाथ स्वामी वाह्य तथा आभ्यन्तर बारह प्रकार की तपस्या के मध्य होते हुए सर्वोत्तम कायक्लेश नामक रापचरण में यों एक वर्ष तक सन्नद्ध थे तदन न्तर पहले जहां इनका दीक्षाकल्याणक हुआ संसार से त्रस्त जीवों के शरणद तथा सुरू - वन में रहे। ३५ । तिलक्ष्य श्रं श्राव्यरत्नस्य टोकार्या सुखबोधिन्यां भगवतपोवर्णनो नाम नघमः सर्गः इत्यर्द्धद्दारा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशमः सर्गः। श्रीमंतमेनमखिलार्चितमात्मधाम प्राप्तं स्वयं सपदि तहनभृजषण्डम् ।। शाखाकरेपु धृतपुष्पफल प्रनानमामीदिवाचयितुमुद्यतमादरेण ॥१॥ भीम मित्यादि । भाना मानो धाम आत्मधाम पुनस्नत् परमात्मभावं “गृहदेहत्विट्प्रभावाधामानि” इत्यमरः । स्वर्ग आत्मनेव ! प्राम प्राप्नोतिस्म प्राप्त कर्तरि क्तः । श्रीमत श्रीरस्यास्तीति श्रीमान त उभयलक्ष्मीनायकं । अग्विलार्चित आखिलैगर्चितस्तं समस्त. नृसुरार्चित। पनं मुनीशं मुनिसुव्रततीर्थाधिनाशं । तद्वनभूजचंड तच तत् वनं च तद्वनं भुवि जायत प्रतिभूजाःन इनस्य भूजाःतनभूजा: तेषां पंड पुनरसत् नीलबनवाकर्दछ । आद. रेण भक्त्या । अर्चयितुं अर्चनाय अर्चयितुं पूजयितुं । उद्यतमिव उधु कमिय। सपदि शोण | शाहाकरेषु शाखा एव कराः तेषु शास्त्राहस्तेषु । रूपयः। धृतपुष्पफलप्रतानं पुष्पाणि च फलानि च पुष्पफलानि नेषां प्रतानं तथोक्तं धृतं पुष्पफलपूतानं येन नत्तथोक्तं आत्तकुसुमफलमिषयं । आसीत् अभवत् अस भुधि लङ्ग । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ६ ॥ भा० अ०..--सबों से पूजित तथा परमात्म-भाव को प्राप्त श्रीमुनिसुवन नाथ को मानो आवर के साथ अर्चना करने के लिये ही उस नील वनके सभी वृक्ष-समूह शाखारूपी हाथों में पुष्य और फल लिये हुए स्वयम् उघत थे। १ । तस्यैव कीलकलनाः किमु पल्लवानि तस्य स्फुलिंगनिकरो ननु कुड्मलानि॥ तस्यैव धूमविततिर्न पुनहिरेफा गत्वा बने यमनल मदनो निमनः ॥ २ ॥ तस्येत्यादि । बने नीलवने । मदनः रतिपतिः । यं अनतां यनयानाग्निं । गत्वा मोहादुपेत्य । निमनः निपतिनः । तस्य ध्यानाग्नः। कोलकलना एव कीलानां कलनाः कल इनि धातुः कवीनां कामधेनुः ज्वालाकलापा एव । पल्लवानि किसलयानि। किमु किंवा | तस्य यद्धया. नानलस्य । स्फुलिंगनिकरः स्फुलिंगानां निकरस्तथोक्तः अग्निकणगणः । कुड़मलानि मुकुला. नि । ननु किया । पुनः तस्य ध्यानाग्न। धूमविततिरेव धूमानां वितनिधुमविततिस्तथोक्ता धूमाजिख । द्विरेफा: भ्रमराः । न भवति। अपल त्यलंकारः ॥२॥ भा० अ० --उस नीलारण्य में जिस मुनिसुव्रत नाथ की ध्यानानि में गिर कर मदन स्वयं भस्मी भुत हो गये उसी की अग्नि-उघाला तो ये पत्तियां नहीं हैं ? उसकी चिनगारी. शायद ये कलियाँ हों और उसके धूनसमूह ही संभवतः ये समर हैं।२। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसुव्रत काव्यम् । १८५ अरिमन्नमूनि न पलाशदलान्यधारे रुहेलशांत रससागरविडुमा नु ॥ वान्ता मृगैविर विरोधलवा मिथो नु चन्यैरततार्चनमणिप्रकर। नु रेजुः ॥ ३ ॥ अस्मिन्नित्यादि । अस्मिन् एतस्मिन्वने । अमूनि इमानि । पलाशदलानि पलाशानां दलानि तथोक्तानि किंशुकपुष्पदलानि । न न भवति । अघारे: अघानां अरिस्तथोक्तस्तस्य पाहारिजिनेशस्य । उद्देशांतरससागरविदुमाः शांतभ्य रसस्तथोक्तः शांतरस पत्र सागरः शनिरलसागर वेलामुद्गन उल्लेस्स चासौ शांतरससागरच उद्वेदसागरः तस्य fager: तथोक्ताः । नु "तु प्रश्नच वितर्के व" इत्यमरः । मृगैः । वांदाः वास्तस्य धांनाः मुनींद्रसनिधिवशात् उद्गीर्णाः । मिथः अन्योन्यं । चिरविरोधलवाः विरोधानां लवाः aster: त्रिये स्थिताः विरोधवास्तथोक्ताः बहुलस्थित विरोधाः । तु किमु । ar: वने भवाः वन्यास्तैः वनवासिभिः । तार्चनमणिः तत्यते ततः अर्चनाय योग्या मणस्तथोक्तास्तेषां प्रकरा: अर्चनमणिप्रकाराः नेता ने अर्चनमणिप्रकराश्व तथोक्ताः विस्तृतपूजायोग्यरत्नविशराः । विमु तु रेजुः बभुः । गजू दीसौ लिट् । संशयालंकारः ॥ ३ ॥ 1 भा० अ०- - इस नील धन में ये पलाश पुरुष नहीं हैं बल्कि अब विनाशक श्रीजिनेन्द्रभगवान के उद्घ लिन शान्तरसमहोदधि के मूंगे हैं ? अथवा हरिणों से उद्रोर्ण किये हुए faraश्चित पारस्परिक विरोधांश तो नहीं हैं ? या घनवासियों से बिखराये गये अर्थनार्थ मणिसमूह तो नहीं लोभ रहे हैं । ३ । अध्यास्य चंपक रोस्तलमात्तषष्ठो धर्म्याणि विभ्रदवलंबितशुभ्रलेश्यः ॥ शुद्धात्मतत्वमित्र जातविवनमीशो ध्यानं दधे दुग्तनचुचु शुक्कं ॥४॥ अध्यास्यैत्यादि । चंपकनरो: चंपकालो तक चंपकतरुः तस्य हैमपुष्पक वृक्षस्य । तलं मूलं "शास्थासोराधारे" इति द्वितीया । अध्याम्य अध्यासनं पूर्व पश्चात् स्थित्वा आतपष्ठः आदीयते म आत्तः आत्तः पम्रो येनासौ तथोक्तः स्वीकृत पोपवासः । धर्म्याणि धर्मादनपेतानि तथोक्तानि आशावित्र्यादिधर्मध्यानानि । विभ्रत् त्रिभनति विभ्रन स्वीकुर्वन् । अवलंबित शुभ्रलेश्यः अथलंध्यतेस्म अवलंबिता शुभ्रा चासौ लेश्या य शुभ्रलेश्या अवलं पिता शुभ्रलेश्या येन सः स्वीकृत शुक्ललेश्यः । ईश: त्रिलोकस्वामी । शुद्धात्मतत्त्वमिच तस्य भावः आत्मनस्तएवं वात्मैव स्वमात्मनस्त्वं शुद्धच तदात्मतत्वं च शुद्धात्मतत्त्वं पुनस्तत्तदिव निर्मलात्मस्वरूपवत् । जातविवर्त' जातं विवर्त यस्मिन् तत् उत्पश्नपर्यायें । I मनधुं दुरितस्य दूनने तथोक्तं दुरितवूननेन विशं दुरितननचंधु "तेन विश्लेष Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ दशमः सर्गः । चुचणौ” इति धुं प्रत्ययः पापनाशप्रतीतं । शुक्लध्यानं शुक्लनामैकाग्रचिंतां । दधे धरतिस्म । धा धारणे लिट् ॥४॥ भा० अ चम्पक वृक्ष के तल में स्थित हो धमं ध्यान करते हुए छठवें उपवास का नियम लिये हुए शुक्र लेश्या वाले मुनिसुव्रत नाथ ने शुद्धात्मस्वरूप के ऐसा उत्पन्नपर्याय वाला पापनाशक शुक्लध्यान लगाया । ४ । स्त्यानत्रयं जिनपति: क्रमशो रजांसि नाम्नि त्रयोदश पुरा हतसप्तमे हः ॥ मोहकविंशतिपचपयन्ददाह श्रीगोऽथ षोडशचिदीक्षा विज्ञान ॥५॥ I हत्यानत्रयमित्यादि । पुरा तृतीयभवे । हतसतमोहः सप्त च ते मोहार सप्तमोहाः हतासप्तमोहा येन सः तथोक्तः विनष्टसप्तप्रकृतिः। जिनपतिः जिनानां पतिस्तथोक्तः जिनेश्वरः । क्रमशः क्रमात् क्रमशः "बहवल्पात्यत्कारकाच्छस निष्टानिएं " निशस् प्रत्ययः । क्षपकश्रेणिका । अथ आतशुक्लध्यानधारणानंतरं । स्त्यानत्रयं स्त्यानानां त्रयं निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला. स्त्यानगृद्धित्रयं । नाम्नि नामकर्माणि । त्रयोदश त्रिभिरधिका दश तथोक्ता I "द्वाष्टात्रयोऽनशिनौ प्राकादाहो" इत्यनेन त्रयादेशः । रजांसि कर्माणि । मोदेकविंशतिमपि एकेनात्रिका विंशतिस्तथोक्ता मोहानामेकविंशनिर्मोहकविंशनिस्तां अष्टाविंशनिमोहना येषु सप्तप्रकृतीनां तृतीयभवे विजत्वात् शेषाणीत्यर्थः । क्षपयन क्षपयतीति क्षपयन् अनिवृष्टिकर णसूक्ष्मसांपरायगुणस्थानद्वये नाशयन्नित्यर्थः । क्षीणे क्षीणकषायगुणस्थाने । विदीक्षणरोध. विज्ञान विश्व ईक्षणं न चिर्दक्षणे तयोः रोधाः चिदीक्षणरोधाः ते च विनाच चित्रदीक्षपरोधविनास्तान् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयांतरायान् । पोडश परिधिका दश तथोक्तास्तान् " एकादश पोडशोडषोढा पढा" इत्यनेन साधुः । ज्ञानावरणीयपंचकं दर्शनावरणीयप्रकृतिषु स्त्यानगुज्रित्रयस्य प्रागस्तत्त्वात्त षु षट्कं अंनरायपंचकं चेति षोडशप्रकृतयः । ददाह दहतिस्म दद्द भस्मोकरणे लिट् ||५|| भा० अ० - पहले ही तृतीय भाव में अनन्तानुबन्धी क्रोधमान माया लोभादि सप्त मोह को विन किये हुए जिनेन्द्र भगवान् ने क्रमशः निद्रानिद्रा आदि स्थान श्य को, तेरह नामक तथा शेष इक्कांस मोहनीय कर्म प्रकृतियों को नए करते हुए क्षीण कवाय गुणस्थान में हानावरणीय और दर्शनावरणीय आदि सोलह अन्तराय धर्म-प्रकृतियों को भस्मी भूत किया । ५। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुनतकाव्यम् । घातीन्यपि प्रबलशक्त्यतिगर्वितानि देवस्य योगकरवालदितान्यभूवन् ।। वात्मनः किमिति चिंतनयेव दग्धरज्जूपमं सममघातिबलं बभूव ॥६॥ घातीत्यादि । प्रबलशक्त्यतिगर्वितानि प्रयला चासो शक्तिश्च प्रवलशक्तिः अत्यन्तगर्वितान्यतिर्वितानि प्रयलशक्त्यतिगर्वितानि तथोकानि प्रबलसामनाहकारित तानि। घातीन्यपि घानयत्येवं शीलानि धातीनि आत्मस्वरूपतिरोधकानि कर्माण्यपि अपिशब्देन अबातिषु त्रिषष्टिपरिमितदुरिसान्यपीत्यर्थः । देवस्य जिनेश्वरस्य। योगकरवालदितानि योग पर करवालो योगफरवालः तेन दितानि खंडितानि तथोक्तानि शुक्लध्यानखङ्कन छिनानि । अभूचन् आसन् । भृ सत्तायां लुइ । आत्मनः स्वस्य । वर्त्म मार्गः किं इति को चेति । चिंतगयेव चिंतनेन एव । अघातिवलं अघातिनां बलं तथोक्त अधातिकर्मसेनासमं सहघातिक्षयसमं एव इत्यर्थः । दग्धरज्जूपम' दह्यतेस्म दग्धा सा बासौ रज्जुश्च दग्धरज्जुस्तस्यास्सम निःशक्तिकमिति यावत् । बभूव भवनिम्म भू सस्तायां । लिट् ॥६॥ भा० अ०-जिनेन्द्र मुनिसुपत भगवान् के शुक्म्यान कपी खड्ड से अत्यन्त शक्तिमत्तासे सगर्व धानिया कर्म भी छिन्न भिन्न हो गये। तदनन्तर अपना कौन सा मार्ग रहा इस चिन्तन से ही जली हुई रस्सी के समान अघातिया कर्म भी शक्ति हीन हो गया । ६। इत्यस्तपापरिपुराप सहैव लब्धि वैशाखकृष्णदशमीश्रवणेऽपराहने ॥ सक्षायिकीर्णवदशातिशयास्पदं च प्राप्तोदय नभसि पंचसहस्रदंडः ॥७॥ इत्यस्सेत्यादि। इति उत्तप्रकारेण। अस्तपापरिपुः पापमेव रिपुः पापरिपुः अस्तः पापरिपुः येन सः तथोक्तः नष्टकर्मशत्रुः। सः तीर्थकरपरमदेवः । वैशाखकृष्णदशमीश्रवणे वैशाख्या पौर्णमास्यां युक्तो मासः वैशाख: “सास्यपौर्णमासी" इत्यण वैशाखस्य कृष्णस्तथा कः बैशाखकृष्णस्य दशमी तथोक्का वैशाखकृष्णदशम्या श्रवणस्तथोक्तस्मस्मिन् वैशाखमासस्य कृष्णपक्षस्य दशमीतिथौ श्रवणे | अपराङ्के अहोऽपरः अपरागस्तस्मिन् “संख्याज्ययसर्वा शात्" इत्यट अलादेशश्च सायाह । क्षायिककर्मक्षयेन जाता नवलब्धिः सम्यक्त्व. चारित्रमानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणीति नवकेबललब्धिः दशातिशयान् दश च ते अतिशयाश्च दशातिशयास्तान् घातिक्षयजगव्यूतिशतचतुष्टयमुभिक्षाविदशातिशयान् । नभसि आकाशे । पंचसहनः पंव च तानि सहस्त्राणि च पंचसहस्राणि पंचसहस्रःप्रमिताः दंडाः तथोकाः सै: अथवा पंखचारान् सहस्राणि पंचसहस्रा: "सुज्याधै" इत्यादिना समासः पंचसहस्राश्च ते दंडाश्च तथोक्तास्तैः पंचसहनचापः । प्राप्तोदयं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ नवमः सर्गः। प्राप्यते स्म प्राप्तः प्राप्त उदयं यस्य नत् प्राप्तोदयं पुतत्तत् लब्योन्नतिक। पदं स्थान। सहैव युगपदेव । आप प्रामोतिस्म । आप्ल, व्याप्ती लिट् ॥ ७॥ मा० अ.--यों कर्म-रूपो शत्रु को नए किये हुए उन तीर्थकर देव ने बैशाख कृष्ण दशमी को श्रवण नक्षत्र के अपराद में कर्म क्षयले उत्पन्न हुए सम्यक् चारित्र, ज्ञान, दर्शन दान लाभादि नय केवल लत्रियों को घाति-क्षयज चार सौ कोश तक सुभिक्षादि दस अतिशयों तथा आकाश में पंचसहस्र वाप-प्रमित उन्नत स्थान को साथ ही साथ प्राप्त किया ॥७॥ अत्रांतरे सकललोकपतेरमुष्य शक्राज्ञया रचितवान्धनद: सभा ताम् ॥ यस्याः प्रमाण मुदित मुनिभिः पुरागरध्ययोजनयुगं बहुग्नमय्याः॥८॥ अग्रेत्यादि । यस्याः सभायाः ! यदुरत्नमय्याः बहूनि च तानि रत्नानि च बहुरत्नानि तेषां विकारो बहुरत्नमया तस्याः नानारत्ननिर्मिताः । प्रमाण मान । पुराणे: पूर्वकालभवैः। “पुराणम्"इनि साधुः । मुनिभिः गणधरादिभिः। अध्ययोजनयुगं योजनयोयुगंयोजनयुग:अधिकमध यस्य तत् अध्यध लश्च तत् योजनग्रुगं च तयो साधिका योजनव्यं । उशिरा उ । न स स.व.भूति: सकलडापतेः सकलाश्च ते लोकाश्च तथोकताः तेषां पतिस्तस्य समस्तजगत्स्वामिनः । अमुच्य एतस्य जिनपतेः। शक्राशया शक्रस्याज्ञा नथोक्ता तया देवेंद्राज्ञया । धनदः धनं ददाताति धनदः कुबेरः । अत्र अस्मिन् । अंतरे आकाशे। रचितवान् निर्मितवान ॥ ८॥ मा० अ० -प्राचीन गणधरादि प्राचार्यों ने इस जगत्वामा जिनेन्द्र भाधान को जिस यहरत-जटित समवशरण को उच्चतर ढाई योजन की बतलाई है उसी की रचना इन्द्र की आहा से कुबेर ने आकाश में को ॥ ८ ॥ रेजेतरां दिविजराजदृषत्प्रतिष्ठा संसन्मही विनयसंकुचिताखि लांगा ॥ व्योमस्थलीव भुवि यः समवाप्य सेव्यः सोऽयं स्वयं गुणनिधिःसमगच्छति ॥९॥ रेजेतरामित्यिादि । यः देवः । भुवि भूमौ । लमबाप्य समन्नापनं पूर्व ५० समेत्य । सेव्यः सेवितुं योग्यः सेव्यः आराध्यः । सोऽयं सः एषः । गुणनिधिः गुणानां निधिस्तथोक्तः अनंतज्ञानादिनिलयः । स्वयं आत्मैव । समगच्छतेति समेयादिति । "समोऽर्तिस्वरनिशुद्भश्चिद्गप्रच्छृच्छः" इति तङ् गम्ल गतौ लङ् । विनयसंकुचिताखिलांगा विनयेन संकुचितानि विनयसंकुचितानि अखिलानि च तान्यंगानि च अखिलांगानि विनयसंकुचितानि अखिलागानि यस्यास्सा तथोक्ता भक्त्या संहृतसकलावयवा। व्योमपलीव श्योनः स्थली व्योम Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रत काव्यम् | १८६ स्थली आकाशप्रदेश: सेव । विविजराजदूत्प्रतिष्ठा दिविज्ञानां राजा दिविजराजस्तस्य पत् तस्याः प्रतिष्ठा यस्यास्सा तथोक्ता इंद्रनीलाधिष्ठानयुक्ता । संसन्मही संसदो मही तयोक्का नशरणभूमिः । रेजेतरां अधिक बभौ । राज़ दीप्तौ लिट् ॥ ६ ॥ भा० अ० जो जिनेन्द्र भगवान् भूतल पर अवतीर्ण होकर अत्यन्त आराधनीय होते हैं गुणनिधि जिनेन्द्र स्वयं आ मिले मानो इस कारण से व्योमस्थली के समान तथा भक्ति से संकुचित अन्तरंगवाली इन्द्रनील जड़ित समवसरण भूमि अत्यन्त सुशोभित हुई । ६ । प्रासाद चैत्यपरिखालतिकाद्रुममा जाता ध्वजकुजहर्म्यगणक्षमा || पीठानि चेति हरसंख्य भुवस्तदंतरे कांत के लिसदनं जिनबांधल दम्याः ॥१०॥ प्रासादेत्यादि । प्रासादचेत्यपरिखालतिकादुममाः प्रासादेर्भुक्तं चेत्यं तथोक्तं प्रासादचेत्यं च परिखा व लतिका व दुमश्च प्रासादचैत्य परिचालतिकानुमास्तेषां क्ष्माः तथोक्ताः चैत्यप्रासादभूमिः खादिकाभूमिः वल्लिकाभूमिः वनभूमिच । ध्वजय जहगणक्षमाश्च ध्वजश्व दिवः कुजो कुजे कुजश्च ह न गणश्च ध्वजय कुजहर्म्यगणास्तेषां क्षमाः तथोक्ताः ध्वजभूमिः कल्पवृक्षभूमि: हर्म्यभूमिः गणभूमिश्च । पीडानि चेति त्रिपदानि चेति । हरसंख्यभुवः हराणां रुद्राणां संख्या यासां तास्तथोक्ताः हरसंख्याश्च ताः भुवन तथोकाः एकादश भूमयः । जाताः जायते स्म जातः । ततः जिनयोधलक्ष्म्याः बोध एव लक्ष्मीस्तथोक्ता तासामंतस्ततः भूमीनां मध्ये | जिनस्य बोधलक्ष्मीः तस्या: जिनेश्वर कैवल्यज्ञानश्रियः । एकांतकेलिसदनं केल्याः सदनं केलिसदनं एकांतां च तत्केलिसदनं च तथोक्तं गंधकुटीत्यर्थः ॥ १० ॥ भा० अ० - प्रासाद चैत्य, खांतिका वल्लिका, वन, ध्वज, कल्पवृक्ष हमें और गण मूमि तथा विपीठ आदि ग्यारह भूमियां थीं। इन्हीं के बीच में जिनेन्द्र भगवान् की मुक्ति-लक्ष्मी की एक मात्र क्रीड़ा-स्थली अर्थात् गन्धकुटी थी ॥ १० ॥ प्रासादचैत्यनिकरः परिखा व्रतत्यो वृक्षा ध्वजाः सुरकुजाः कमशोऽष्टभृषु ॥ आसन् गृहाणि च गणास्त्रिषु विष्टरेषु श्रीधर्मचक्रत्रिविधध्वजमंगलानि ॥११॥ प्रासादेत्यादि । अनुभूषु अथ च ता भुवध अष्टभुवस्तासु अष्टपृथिवीषु । क्रमशः क्रमात् क्रमशः परिपाच्या । प्रासादचैत्यनिकरः प्रासादश्च चेत्यानि च प्रासादचैत्यानि तेषां freeram: प्रथमभूमौ प्रासादचैत्यसमूहः । परिखा द्वितीयभूमौ खातिका । व्रतंत्यः तृतीयभूमौ लताः । वृक्षाः तुर्यभूमौ वृक्षाः । ध्वजाः पंचमभूमौ पताकाः सुरकुजाः जयंत इति कुजाः सुराणां कुजास्तथोक्ताः षष्ठभूमौ कल्पवृक्षाः । गृहाणि समभूमी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः हम्माणि ! गणाः अष्टमभूमौ द्वादशगणाः । त्रिषु विष्टरेपु निमेखलापीठेषु प्रथमे श्रीधर्मचकाणि श्रिया उपलचिनानि धर्मत्रकाणि दिनोये अष्टमहाध्वजाः तुतीये अपृयंगलानि । आसन् अभवन् । अस भूचि लग् भा• अ---आठो भूमियों में क्रमश: प्रथम में प्रासादचैत्यालय समूह, द्वितीय में परिखा, तृतीय में खातिका वल्ली, चतुर्थ में लतावृक्ष, पञ्चम में वृक्षध्वज, पट में पनाका कल्पवृक्ष, सप्तम में हर्म, अष्टम में द्वादश गण और प्रथम पीठ में धर्म चक्र, द्वितीय में अष्ट महायज तथा तृतीय में अष्ट मंगल थे । ११ । सालेश्चतुर्भिरपि पंचभिरप्युदाग्वेदीभिरुन्नतिस्वापि चतुगुणव ।। लोकोन्नतादपि जिनाधिपतेग्मुष्माज्जैनप्रदक्षिणकृतेः फलमीदृशं हि ॥१२॥ सालैरित्यादि । चतुभिरपि । सालैः प्राकारैः । पंचभिरपि । उदारघेदीभिः उदाराश्च ताः वैद्यश्च उदारवेद्यस्ताभिः सहाचेदिकाभिः। लोकोन्ननादपि लोकादुन्नको लोकोन्ननो लोकस्योन्ननो धा लोकोन्नतस्तस्मादपि जगदुत्कृष्पाच्च। अमुष्मान एनन्मुनिमुधमतीर्थकरात् । जिनपतेः जिनालासो पनिश्च जिनानां पतिळ : मार जिननाथात् । चतुर्गुणैव चत्वारो गुणा यम्यास्सा तथोका चतुर्भिग जैस्सहिनी । उन्ननिः उत्सेधं श्रेष्ठत्वं च अशीतिचायोत्सेधमित्यर्थः । अधापि अचाप्यत आपलव्याप्तौ कर्मणि लुङ् । तथा हि जैनप्रदक्षिणकृतेः प्रदक्षिणस्य शनिः प्रदक्षिणनिः जिनस्येयं जैनी सा चासौ प्रदक्षिणतिश्च जैनप्रदक्षिणकुनितस्याः । फलं निष्पत्तिः । ईदृशं इदमिव द्दश्यत इति ईदृशं एतादृशं । हि । अर्थान्तरन्यासः ।। १२॥ भा० अ०-चार यहार दिवालियों तथा पांच वेदियों के द्वारा इस समरसरण भूमि ने संसार में सभी से समुन्नत श्रीमुनिसुव्रत स्वामो से भी चौगुनी उन्जति ( उंचाई ) प्राप्त की थी। ठीक है जिनेन्द्र भगवान की प्रदक्षिणा का.यही फल होता है । १२ । भावेष्ट्य संसदवनीतलवारिवाहं प्रारभ्यमाणसुकृतामृतपूरवर्षम् ॥ सालेन सर्वमणिचूर्णमयेन तेने तेनावितानसुरकामुकसंपुटश्रीः ॥३३॥ आयेष्टयेत्यादि । प्रारभ्यमाणसुस्तामृतपूरवर्ष प्रारभ्यमाणं सुकृतमेवामृतं सुकृतामृत तस्य पूरस्तथोक्तः मुतामृतपूरस्य वर्ष तथोक्त प्रारभ्यमाणं सुकृतामृतपूरवर्ष येन सः तं उपझम्यमाणपुण्यफर्मामृतप्रवाहवर्षसंयुक्त । संसदवनीतलयारियाई अवन्यास्तलमयनीतलं संसदोऽचनीतल तथोक्त धारिवहतीति वारिचाहः संसदोऽचनितलमेव चारिवाहस्तथोक्तस्तं समसारणभूतलमेघ । रूपकः । आवेष्टय विचरित्या । सर्वमणिचूर्णमयेन सर्वे च ते Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसुव्रतकाव्यम् । मणयश्च सर्वमणयस्तेषां चूर्णः सर्वमणिचूणः तस्य विकारः सर्वमणिचूर्णमयस्तेन सकलरनबूलीकृतेन तेन । सालेन प्राकारेण । अबितानसुरकार्मुकरम्पुटश्रीः न विताने अविताने पृथुले “अनुचिस्तारयोरस्त्री विनानं कि दुके" र सुरक्षा मार्ग सुरक्षा के अविताने व सुरकार्मुके च अदितानसुरकार्मुके नयोस्संपुटर्न तथोक्त तस्य श्रीस्तथोका रुद्र चापयुग्मसंपर्कशोमा तेने विस्तार्यतेस्म ननूङ् विस्तार ॥१३॥ भा० अ०- पुण्यरूपी अमृत-प्रवाह की बृष्टि प्रारंभ किये हुए भूतल पर समवसरणरूपी मेध को घेर कर उसी सर्व मणिमय चूर्णवाली चहार, दिवाली ने रुद्र तथा इन्द्र के विशाल धनुष की शोभा फैलायी । १३।। लोकेषु कूटरहितेषु महामहिम्नो देवस्य तस्य निकटेऽपि कृताधिवासः ॥ प्रासादचैत्यनिलयाः प्रथयांबभूवुः कूटान्दिगंबरपथप्रतिरोधिनो धिक् ॥१४॥ लोफेष्वित्यादि । देवस्य स्वामिनः । महामहिन्ना महाश्चासौ महिमा च महामहिमा तेन महाप्रभावेण । लोकेषु जनेषु । कूटरहितेषु कूटेन रहितास्तथोक्तास्तेषु कपटरहितेषु मंगहीनेषु । *मायानिश्चलाने धु केतवानृतराशिः । अयोधने शैलगे सीरंगे कुटमलियाम्" इत्यमरः । तस्य जिनस्य । निकटे समीपे। कृताधिवासा अपि कनः अधिवासो यौस्ते तथाका विहि. तास्थितयोऽपि । प्रासादचैत्यनिलयाः चैत्यानां निलयास्तथोक्ताः प्रासादाश्च चैत्यनिलयाश्च तथोक्ताः प्रासादचैत्याचासाः। दिगंबररावप्रतिरोधिनः दिगांवर येषां ते दिगंबरास्तेषां पंथाः दिगंबरपथः अथवा दिशश्न अंबराणि च दिगंबराणि तेषां पंथास्तथोक्ताः त रुधन्त्येषशीलास्तथोक्तास्तान् मुनिमार्गघिरोधिनः दिगाकाशमार्गातिरोधकांश्च 4 फूटान् शिखराणि कपटान् । प्रथयां बभूवुः प्रकटयामासुः प्रथि प्रख्याने लिट । धिक् निंदायां “कुधिनिर्भर्त्सन निंदयोः”इत्यमरः। विरोधालंकारः ॥१४॥ भा० अ०–श्रीमुनिसुव्रत नाथ के समुज्ज्वल प्रभाव से लोगों के कपट-रहित अथवा शिवर-हीन होने पर उस भगवान के निकट वास किये हुए भी प्रासाद जिन-चैत्यालयों ने आकाश-मार्ग ( दिगम्बर मुनिमार्ग ) को रोके हुए शिखरों (कपों) को प्रकटित किया अतः उन्हें धिक्कार है । १४ । मार्गेष्वपि तिषु चिरभ्रमणेन भिन्ना भिन्ना पुरैव भवलालनया धुसिंधुः ॥ शंके जिनेंद्रचरणं शरणं प्रवेष्टुं संप्रापसंप्रति सभां जलखातिकात्मा ॥१५॥ मार्गचित्यादि । पुरैव पूर्वमेव । भवलालनया भवस्य संसारस्य ईश्वरस्य लालना भयलालन तथासंसारस्य रुद्रस्य वा तात्पर्येण । “जन्म याशंकरेषु भवः”। इति नानार्थरसको Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दशमः सर्गः । वे । भिन्ना विदीर्णा । त्रिषु मार्केति त्रिषु पथिष्यति । चिरभ्रमणेन विरं भ्रमणं चिग्भ्रमणं शेष विपर्ययजेत । मनःसिंधु "सिंधुर्ना सरिति खियाम्" इत्यमरः । जिनेन्द्रचरणं जिनानां इंद्रो जिनेंद्रस्य चणां तथोक' जिनेश्वरपादशरणं प्ररक्षणं । प्रवेष्ट प्रवेशाय प्रवेषु । संप्रति इदानीं । जलखातिकात्मा जलस्य खातिका जलखानिका सेव आत्मा स्वरूपं यस्यास्सा स्वीकृत जलपरिखास्वरूपा । सभां समघसरणं । संप्राप संययौ | आम्ल व्याप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ १५ ॥ .. भा० अ० - पहले ही संसार अथवा शंकर से लालित पालित होकर पीछे मांगों में बहुत देर तक भटकती रहने से खिन्न होती हुई देव-गंगा ने श्रीभगवान के चरणों की शरणीभूत होने के लिये ही मानों जल-खानि स्वरूप से समवशरण को प्राप्त किया ॥ १५ ॥ बहिक्षितौ सुमनसो रतिवल्लभस्य मल्लक्रियागतजगल्लयपातकानि ॥ संलप्य भृंगरणितेन विशुद्धिहेतो: किं लोकनाथमभजन्सुमनोनिषेयम् ॥१६॥ ५ यद्विक्षिनावित्यादि । लिक्षितः शिनिशिम्मिस्य सुमनसः पुष्पाणि कोविश्व | रतिलभ्य त्या वल्लभस्तथोक्तस्तस्य कामस्य । भल्लकियागनजगलयपातकानि स्य क्रिया भल्लकिया तथा गतः जगतां ल्यो जगल्लयः भल्लुक्रियागनश्च जगल्लयश्चासौ भल्लकिया गनजगल्लयस्तेन जानानि पानकानि तथेोकानि पुनस्तानि वाणव्यापारेण गनजगल्लयजतपापानि । भृंगरणितेन भृंगार्ना रणितं भृंगरणितं तेन भ्रमरध्वनिना । संलप्य संल पनं पूर्व० आलोच्य विशुद्धिहेतोः विशुद्ध हेतुस्तथोक्तरय प्रायश्विशनिमित्त' । सुमनोनिषेव्यं शोभनं मनो येषां ते सुमनसः निषेवितुं योग्य: निषेव्यः सुमनोभिर्निव्यस्तं विबुधजनेराराध्यं “कुतुमको विदामरेषु सुमनः" इति नानार्थरताशे | लोकनाथं लोकस्य नाथस्तथोक्तस्तं त्रलोक्यस्वामिनं । अभजत् असेवन । भज सेवायां लङ् । किं किमुत । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ १६ ॥ भा० अ० - चल्लोमयी भूमि पर पुष्पों ने कामदेव के पुष्पमय बाण से संसार का जो नाश किया है उस पातक को भृगों के गुंआर के द्वारा कह कर मानों प्रायश्चित्त के निमित्त श्री देवताओं से सेव्य जगत्पति श्री मुनिसुव्रतनाथ की सेवा की ॥ १६ ॥ केके लिसप्तदल चंपक चूतषंडा: कामारिसन्निधिवशादिव शांतकामाः || पुष्पाणि वामचरणाहतिचाटुवादच्छायाकटाक्ष निरपेक्षमधुर्वधूनाम् ॥१७॥ कंकेलीत्यादि । ककेलिसप्तच्छद चंपक चून षंडाः कंकेलयश्च सप्तै चन्दा येषां ते तथोसप्तच्छद्दाश्त्र चंपकाश्च चूताश्च कंकेलिसप्तच्छदपकचूतास्तेषां पंडाः I क्ताः I Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মুনিদ্ভুনাল। अशोकविषम छदपकयूतपंडाः द्रुसमूहाः । कामारिससिधियशात् कामस्या. रि: कामारि: कामारेस्सन्निधिः कामारिसनिधिस्तन्य बशस्तस्मात मन्मथ रिजिनेश्वरल्य सनिधानाधीनात्। शांतकामा इध शांतः कामो येषां ते तथोक्ताः निःकामा इव | धधूनां नारीणां । वामचरणाहतिवाद्यवादच्छायाकटामनिरपेक्षं यामश्चासौ चरणश्च तथोक्तः तस्याहतिस्तथोक्ता चाटुश्चासौ वादश्च चाटुवादः यामधरणाहनिश्च चाटुवादश्च च्छाया च कटाक्षश्च नथोक्ताः वामन्त्ररणाहनिचाटुवादच्छायाकटाक्षाणां निरपेनं यस्मिन्कमणि तत् वामपादनाउनमनोहरवत्रनच्छायोपांगदर्शनापेक्षारहितं यथा तथा अशोकादीनां यथाक्रम वामचरणाहत्यादिनिरपेक्षत्वमित्यर्थः। पुष्पाणि कुररमानि । अधुः अधरन् दुधाङ धारणे लुङ् । यथासंख्यालंकारः ॥ १७॥ । भा० अ०--काम-नाशक श्रोजिनेन्द्र भगवान के निकटस्य होने के कारण मानो शान्त हुए केसे अशोक, सप्तछद, चम्पक तथा आन-समूह अंगनाओं के वशम चरण प्रहार, सुमिष्ट पचन, छायापात और कटाक्ष-निक्षेप की अपेक्षा विना किये ही पुष्पिन हो गये। अर्थात् कनियों के सिद्धान्तानुसार अशोक स्त्रियों के वायें और के प्रचार करने से स्था लामछद स्त्रियों के सुमिष्ट भाषण से, चम्पक स्त्रियों के छायापात से नया आवृक्ष स्त्रियों के कटाक्ष-मात्र से पुष्पित होते हैं सो जिनेन्द्र भगवान् के वहाँ रहने से ये वृक्ष उलिखित उपचार हुए घिमा ही कुसुमित हो गये ॥ १७ ॥ अर्चा जिनम्य वनचैत्यमहीरुहाणामच्छिन्नधारमकरन्दमुचां तलेषु॥ चक्रनिरत्ययतपात्यययोगनिष्ठानिष्कम्पगात्रजिनयोगिवगभिशंकां ॥१८॥ अर्चेत्यादि । अच्छिन्नधारमकरंदमुन्नां न च्छिन्नधारा यस्य स अच्छिन्नधारश्वासौ मकरंदच तथोक्तः त मुचतीति अछिनधारमकरंदमुचस्तेषां अविच्छिन्नप्रधाहयुक्तपुष्परसहो । वनचैत्यमहीलहाणां चैत्यैर्युक्ता महीरुहाश्चैत्यमष्टोरुहाः वनस्य चैत्यमहीमहास्तेषां वनभूमिस्थितन्त्रत्यक्षाणां । तलेषु मृलेषु । जिनस्य जिनेश्वरस्य। अर्थाः प्रति कृतयः। निरत्ययसपात्यययोगनिष्ठानिष्कपगात्रजिनयोगिवराभिशंका सपात्ययस्य योगस्तथोक्तः निरत्ययश्चासौ तपात्यययोगश्च तथोक्तः निरत्ययतपात्यययोगस्य निष्ठा तथोक्ता योगोऽस्त्येषामितियोगिनः जिनाश्च ते योगिनश्च जिनयोगिनः तेषां वरास्तथोक्ता: कंपाभिर्गतं निष्पं निरत्ययतपात्यययोगनिष्ठया निष्कप गोत्रं येषां ते तथोक्नाः निरत्ययतपात्यययोगनिष्ठाः निष्कंपगात्राश्च ते जिनवराश्च तथोक्का मिरत्ययतपत्यययोगनिष्ठाः निष्कम्पगाजिनयोगिवराध तथोक्ताः तेषामभिशंका तथोक्ता तां निरतिचारवर्षाकालयो Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः । गमिष्पत्या निश्चलशरीरजिनमुनिवरेण्यसंशयं । चक्र: विदधुः जुहम् करणे लिद । उत्प्रेक्षा ॥ १८ ॥ मा० अ० -अविच्छिन्न रूप से मकरन्दधारा प्रवाहित करते हुए वनभूमिस्त्र चैत्य वृक्षों के नीचे विमान जिनेन्द्र भगवान् को प्रतिमाओं ने मानों अतिचार-रहित वर्षा-काल योग को सिद्धि से निश्चल शारि षाले जिन मुनिवर का सन्देह धारण किया ॥ १८॥ . ज्ञानोदये जिनपते: स्थिरभावमाप्ते लोक स्वयं च तडितः स्थिरभावमाप्ता ।। प्रायः प्रलंबितघनास्तमुपासतेस्म प्रखत्पताककनकध्वजदंडदभात ॥१६॥ ज्ञानोदय इत्यादि। लोके भुवने। जिनपतेः जिनानां पतिस्तथोक्तस्तस्य जिनेशस्य । ज्ञानोदये ज्ञानस्योदय तथोक्तस्तस्मिन् केवलज्ञानोत्पसौ। स्थिरमापं स्थिरस्य भावस्तथोक्त खिरत्य। भातं आप्नोतिस्म आप्तस्तस्मिन् याते सति । प्रलंबितघनाः प्रलंबितो घनो याभिस्तथोक्ताः संश्लिष्टमेघाः। तडितः विद्युतः 1 स्वयं च । प्रसस्पताककनकध्वजडभान् प्रखंतांति प्रखंत्यः खंत्यः पनाका येषां ते पंखल्पताका: श्वजानां दंडाः ध्वजदंडाः कनकेन निर्मिता ध्वजदंडास्तथोक्ताः प्रवत्पताकाश्च ते कनकध्वजदंडाध तथाक्ताः अखत्यताककनकध्वजदंडा इति दंभस्तथोक्तस्तस्मात् वलद्धजसहितसुवर्णदंडव्याजात् । शिरमा खिरस्य भावस्तयोक्तस्तं सिर । संशययुवासेन तत्वेषु निश्चलचित्तत्वं । च आप्ताः प्रयुताः सत्यः । प्रायः भृशं । ततार्थनायक । उपासतेस्म सेवतेस्म । आसिउपवेशने लट् ॥ १६ ॥ भा० अ०-श्रोजिनेन्द्र भगवान् के केवल ज्ञान उदय होने पर मानों उमड़ हुए मंत्रवालो विय लतिकार्य कड़कड़ाती हुई पताका के सुषण-ध्वज दण्ड के बहाने से स्वयं स्थिरता को प्राप्त होती हुई कासा जिन मावान् का सेवा करने लगी । १६ । भव्यावलेदेशविधामरभूजकृत्यं वाञ्छ विनय विधात्ययमेक एव ॥ यत्तेतदेनमभितोऽप्यभजन जिनेंद्र रुंद्रा गुणैर्हि गुणिनः समुपाश्रयते ॥२०॥ भव्यावलेरित्यादि । यत् यस्मात् कारणात् । अयं पषः जिनः। भज्याबलेः भन्शनामावलिर्भव्यावलिस्तस्याः विनेयजनसमूहस्य । दशविधामरभूजकृत्य दशविधा येषां ते तथोक्ताः अमराणां भूजा अमरभूजाः दशविधाच ते अमरभूजाश्व दशचिधामरभृजास्तेषां कृत्यं हि तथोक्तं पुनस्तत दशप्रकारकल्पवृक्षकार्य। वांछां अभिलार्य विनव अंतरेणेव । विधाति फरोति। बुञ् करणे लट् । तत् तस्मात्कारणात्। ते कल्पवृक्षाः । एन जिनेद्र जिनानामिनो जिनेंइस्तं । अभितोऽपि परितोऽपि । अभजन असेवंत । भज सेवायो लङ्। तथा हि गुणिनः गुणाः Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १६५ संत्येषामिति तथोक्ताः गुणवतः गुणैः औदार्यादिभिः । संद्रान् महतः। समुपाश्रयते सेवते हि श्रि सेवायां लङ्ग। अर्थातरन्यासः ॥ २० ॥ भा० अ० –यह जिनेन्द्र स्वामी इकले चिना इच्छा के भी भविकों के दस प्रकार के कल्प वृक्ष के कार्य करते हैं। इसी से उन कल्पवृक्षों ने इनकी सब प्रकार से सेवा को । यह समुचित भी है क्योंकि गुणी लोग गुण द्वारा ही बड़ों का आश्रय करते हैं ॥ २० ॥ पाकीर्णकतुचमरीकहतालवृतकालाचिकाब्दकलशातपवारणादिः ।। हावनिर्जिनजितधृतपुष्पकेतौ सेनानिवेश इव चेलकुटीचितोऽभात् ॥२१॥ आकार्यात्यादि। आकीर्ण केतुबमरीमहतालतकालाचिकादकलशातपवारमादिः आकी यते । जानुस नगरीमहं व लालच कालाचिका च अन्दं च कलाशश्च आतपचारणं च केतुचमरारुहतालवृतकालाचिकादकलशातपधारणानि आकीर्णानि तान्यादीनि यस्यां ला तथोक्ता संपूर्णध्वजचामरव्यजनपतग्राहदर्पप्पकलशछत्रादिसहिता । हानि हाणामनिस्तथोक्ता प्रासादभूमिः । जिनजितधृतपुष्पकेतोः जीयतेस्म जितः जिनेन जितस्तथोक्तः धनिस्म धृतः · धृतश्चासौ पुष्पकेतुश्च तथोक्तः जिनजितश्चासौ धृतपुष्पकेनुश्च तथोक्तस्तस्य जिनेश्वरेण पजितालायितुकामस्य । चेलकुटोचितः चेलेन विरचिताः कुस्यः चेलकुट्यत्तासु चितः तथोक्तः वस्त्रकुटाविकीर्णः । सेनानिवेश इच सेनाया निशस्तथोक्तस्स व शिविरगत इव । अमात् ध्यराजत । भा दीप्तौलङ उत्प्रेक्षा॥ २१॥ भा० अ०-ध्वजा, थामर, दर्पण, कलश और छत्रादि अष्टमंगल द्रव्य से युक्त प्रासादभूमि जिनेन्द्र भगवान् से विजित तथा पलायित कामदेव की वस्त्रमयी कुटो से रचित सेना की छावनो कोसो सोभने लगे ॥२१॥ देवेंद्रनेत्रकुमुदात्सव चंद्रिकाया देदीप्यमानमणिकृतगंधकुट्याः ।। उच्चभ्रतीरिव विदिनु भृशं विरेजुः कोष्ठाःप्रकीर्णकवदुज्वलरूपभाजः ॥२२॥ देवत्यादि । तोरिव ऋतुविमानस्येव देवेंद्रनेत्रकुमुदोत्सवचंद्रिकायाः देवानामिस्तस्य नेत्राणि तथोक्तानि तान्येव कुमुदानि देवेंद्रनेत्रकुमुदानि तेषामुत्सबो देवेंद्रनेत्र. कुमुदोत्सवः तस्य चंद्रिका देवेद्रनेत्रकुमुदोत्सवचंद्रिका तस्याः देवेंद्रनयमकुवलयोत्सव कौमुद्याः। उच्च : अधिकं । देदोप्यमानमणिकृतगंधकुट्याः देदीप्यत इति देदीप्यमाना भृशं प्रकाशमाना विक्रियतेस्म विकृता विकृतैव वैकृता मणिभिर्व कृता मणिकता . गंधेनयुक्ला कुटोगधकुटो मणिकता बासौ गंधकुटी व मणिकृतगंधकुटी देवीप्यमाना Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्ग।। बासौ मणिकृतगंधकुटी व वेदीप्यमानमणियंकृतगंधकुटी तस्याः अत्यंतप्रकाशमानरक्षनिर्मितगंधकुट्याः । चिदिक्षु कोणेषु । प्रकीर्णकन्नत प्रकोर्णका इव प्रकीर्णकवत् "सुप इचे" इति पत्प्रत्ययः प्रकीर्णकविमाना इत्र । उज्वलरूपभाजः उबलं च तत् रूपं त्र उज्वलरूपं तद्भर्ज. नीत्युज्वलरूपभाजः प्रकाशमानरूपयुक्ताः । कोठाः,द्वादशकोमाः । भृशं अत्यंत । रेजुः बभुः। राज दीप्तौ लिट् ॥ २२ ॥ ___ भा० अ० -ऋतु विमान के समान देवेन्द्रों के नेत्ररूपी कुमुद के लिये चांदनी कोलो समुन्नत रत्नमयो समवशरण सभा के चारो तरफ प्रकीर्णक विमान के सदृश समुज्वल बारह कक्षायें अत्यन्त शोभायमान हुई । २२ । तेषु प्रदक्षिण मनुक्रमतो मुनींद्राः कल्पांगनाच नृपधूसहितार्यकाश्च ॥ ज्योतिष्कभौमभवनामरिकाश् च भोगीभौमोडुकल्पसुरमर्त्यमृगाश्च तस्थुः ।।२३॥ तेजित्यादि । तेषु कोप्ठेपु । प्रदक्षिणं यथा नया । अनुकमतः अनुक्रमादनुक्रमतः परिपाट्याः। मुनींद्राः मुनीनामिद्रास्तथोक्ताः महामुनयः । कल्पांगनाश्च कल्पानामंगनास्तथोक्ताः स्वर्गस्त्रियः। व समुच्चयार्थः । नृवधूसहितार्यकाश्न नृणां वनः नृयवः तामिस्सहितास्तथोक्ताः नबधूमहिनाश्च नाः आर्यकाश्व नधोक्ताः मनुष्यस्त्रीसहितार्यकाः । ज्योतिष्कभौमभवनामरिकाश्च ज्योतिररस्त्येषामिनि ज्योतिष्काः भूमौ भवा भौमा; ज्योतिकाश्च भौमाश्च भवनानि च नोक्तानि तेषां अमरिकाः ज्योतिलोकप्यंतरलोकभत्रमलोकस्त्रियश्च । भोगोमोमोडका लुम्मर्त्यमृगाः भोगोऽस्त्येषामिनि भोगिनः भूमौ भवाः भौमाः करपेषु विद्यमोनासुराः फम्पसुरः भोगिनश्च भौमाश्त्र उडवश्व कल्पसुराश्व मांश्च मृणाश्व तथोक्ताः भोग्युएलक्षणाद्वावनामरा उडूपलक्षणात् ज्योतिष्काश्य । तस्थुः तिष्ठतिस्म ॥१३॥ भा० अ०-व्यन्तर, भवन, ज्योनिष्क नया कल्प-वासी देव नथा चार प्रकार को देवांगनाएं, नर, मुनीन्द्र आयिका मनुष्य स्त्री और मृगादि तिर्यंच जीय उन बारह कक्षाओं में प्रदक्षिणा पूर्वक क्रमशः बठे हुए थे । २३ । वीथीषु नाथचतुरानननिर्यदुक्तिपीयूयनद्युभयचारुतटानुकाराः ॥ भ्रष्टायतस्फटिकभित्तय प्रावितेनुर्वृद्धेशमृतिविनिवेशितयष्टिशकाम् ॥२४॥ घीयीष्वित्यादि । बिर्थीषु । नाथचतुगाननियंदुक्तिपीयूपना भयबास्तटानुकाराः क्वानि च तान्यानमानि व चतुगननानि नाथस्य चतुराननानि तैनियनीति तथोक्ता नाथचतुरानननियंती चासौ उक्तिश्च तथोकना नाथचतुरानननिर्यदुक्तिरेय पीयूष तथोक्त Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । १९७ तस्य नदी नाथचतुरानननिर्यदुक्तिपीयूषनदी चारु च तत् तटं च चारुतट उभयं च तत् चारतरं न उभयचास्तटं नाथचतुरानननियंदुक्तिपीयूपनद्या उभयचारुमट तथोक्तं तदनु कुर्वतीति तथोक्ता: “कर्मणोऽण"इत्यण जिनाननचतुष्टयनिर्यदिव्यम्वनिसुधाधु भयतीरमनषु. त्यः। अष्टायतस्फटिकभित्तयः स्फटिकेन निर्मिना भित्तयस्तथोक्ताः आयताश्च ताः स्फटिकभित्तयश्च तथोक्ताः अष्ट च ता आँगनस्फटिकभित्तयश्न तथोक्ता: अष्टदीर्धभिसयः । वृद्ध शभूतिविनिवेशितयष्टिशंकां इंशस्य भूतिरीशभूतिः वृद्धा अतिप्रकृष्णा जरती वा सा चासौ ईशभूतिश्च तथोक्ता वृद्ध शभूत्या विनिवेशिताः तथोक्ताः ताश्च ताः यष्ट्रयश्च वृद्ध शभूतिविनिवेशिनयप्रयस्तासां शंका तथोक्ता ता समृद्धजिननाविभूत्या स्पापितइस्तावलंबनदंडसदहं । आवितेनुः तन्वंतिस्म तनूल विस्तार लिट् । उत्प्रेक्षा ॥२४॥ भा० अ० --समवसरण की रथयाओं में जिनेन्द्र भगवान् के चतुर्मुख से निकन्दी हुई दिव्य ध्वनिरूपिणी अमृतमयो नदियों के दोनों तटों का अनुकरण करने वाली आठ बड़ी २ स्फटिकमयी भित्तियाँ सम्वृद्ध जिनेन्द्र भगवान की विभूति से हस्तावलम्नननिमित स्थापित दण्ड का सन्देह सूचित करनी थीं । २३।। यच्छ्रयते सुरपथात्सुमनःस्रावती स्त्ररता तरंगिततनूरिति पुस्तकेषु ॥ तत्त्वात्तदित्यनुमिमे भगवत्मभाया यत्तीय॑पडतिचतुष्टयमशिल्पं ॥२५॥ यदीत्यादि । तगिनतनूः तरंगः संजातोऽस्यामिति तरंगिता नरंगिता तनूर्यस्यास्सा तथोक्ता संजानतरंगस्वरूपयुक्ता । सुमनःस्रवती सुमनसां स्वांतोनि नयोक्ता देवगंगा। सुरपथात् सुराणां पंथास्सुरपथस्तस्मात् "क्यू:पथ्ययोऽइत्यत्" इत्यनेनात् आकाशमार्गात् । खस्ता अवकीर्णा । इति एवं। पुस्तकेषु शास्त्र । यद्वचनं। शू यते आकर्यते । तवचन । भगवत्लभायाः भगवनस्सभा भगवत्समा तस्याः समवसरणभूमेः । अर्कशिल्पं अर्कस्य शिल्प यस्य तत् तथोक्तं स्फटिकनिर्मितं "अर्कस्फटिकसूर्ययोः” इत्यमरः। तीर्थपद्धतिचतुण्यं तीर्थाना पद्धतयस्तीर्थपद्धतयः चत्वारोऽवयवा यस्य चतुष्प्रयं तीर्थपद्धतीनां चतुपयं तथोक्त सोपानमार्गचतुष्टयं । यत् पतदिति इदमिति ! अनुमिमे अनुमन्ये माङ् । माने लङ् ॥ २५ ॥ मा० अ०- तरंगित देव गंगा आकाश से गिरी हैं यह बात शास्त्रों में ही देखी जाती थी। मैं अनुमान करताहूं कि, भगवान को समवसरण सभा की स्फटिकमयी चार सीढ़ियां इस बात को प्रत्यक्ष प्रमाणित कर रही हैं । २५ । वाराशितीर्थकरवारगासंख्यरूपा देवाद्रिरुद्रनगकज्जलभृधरास्तं ॥ दैय॑स्पृहो निखिलदिग्गतहेमरूप्यनीलामगोपुगनिभादभजंत देवम् ॥ २६॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमासर्गः। . पाराशीत्यादि । धाराशितीर्थकरयारणसंख्यरूपाः वारां राशिः तथोक्तः धाराशिव तीर्थकरराश्च वारणाश्च तेषां संम्या नथोक्ता धाराशिनार्थकरवारणसंख्येव रूप येषां ते तथोक्ताः चतुश्चतुर्विंशत्यष्टस्वरूपाः । दर्यस्पृहः देयं स्पृहंतीति तथोक्ताः महोनत्यभिलाषयुक्ताः संतः ! देवाद्विरुधनगकज्जलभूधराः देवानामद्रिवाद्रिः स्वस्य नगो रुद्रनाः कज्जलश्वासो भूधरश्च कज्जलभूधर: देवातिश्च रुद्रनगश्च कज्जलभूधरश्च नथोक्ताः महामेरुकैलासजिनपर्धनाः । निखिलदिग्गतमरुप्यनीलामगोपुरनिभान् नि खिलाश्च ताः दिश. श्व निखिलदिशः ता गच्छतिस्म निखिलदिग्गतानि हेमं च सप्यं च नीलामा च हेमरुप्य. नीलाश्मानस्तैर्निमितानि गोपुराणि हेमरूप्यनीलाश्मपुराणि निखिलदिगनानि हेमरूप्य. नीलाश्मगापुराणि तानीतिनिर्भतथोक्त तस्मात् सकलदिग्च्याप्नसुवर्णरजतनीलगोपुरख्याजान् । में देवं मुनिसुव्रतस्वामिनं । अभजन असेयंत | भज सेवा लङ्। यथासंख्यालंकारः ॥२६॥ भा० अ० ---बड़ी भारी उन्नति ( ऊंचाई ) के इच्छक चार सुवर्णमय महामेरु पर्बन चौबीस रजतमय कैलाश और आट नोलममय अंजन पर्वतों ने समो दिशाओं में व्याप्त होकर गोपुर के बहाने से श्रीजिनेन्द्र भगवान् को सेवा की । २६ 1 संप्राप्य चारुगुणरत्ननिधिं जिनेंद्रं लोकैकमंगलममुं समपक्षरागात् ।। शतानि मोक्तुमथ नो निधिमंगलानि हारेषु तस्थुरखिलेग्विह को वितर्कः।।२७॥ ___ संप्राध्येत्यादि । चारगुणरत्ननिधिं चारवश्व गुणाश्च चारुगुणास्त एर रमानि चारगुणरत्नानि तेषां निधिस्तं मनोहरगुणमणिनिधि । लोककमंगलं मंगं पुण्यं सतां लातीति में पापं गलयत्यपि मंगलं मंगलार्थज्ञरन्वर्थेन निरुच्यते एकं च तत् मंगलं च एकमंगल तथोक्त लोकानामेकमंगलं नथोक्त' त्रिभुवनमुख्यमंगलं ! अ# इमं । जिनेंद्र' जिनानामिद्रस्तथोक्तस्तं जिनेश्वर | समपक्षरागात् समश्चासौ पक्षश्च समाशस्तस्य इति रागस्तस्मात् समानवर्गप्रीत्याः । संप्राप्य संलभ्य । अथ असंतरे । मोक्तं मोचनाय मोक्तुं । नो शकानि सामयरहितानि। निधिमंगलानि निधयश्च मंगलानि च तथोक्तानि नवनियएमंगलानि । अखिलेषु समम्तेषु। द्वारेषु गृहनिर्गमस्थानेषु । तस्थुः तिष्ठन्तिस्त्र । इह अस्मिन् इह । प्रकृतेऽर्थे वितकेबिचारः। न कोऽपो-त्यर्थः। उत्प्रेक्षालंकारः। ष्ठा गतिनिवृत्तौ लिट् ॥ २७ ॥ भा० अ०-सुन्दर गुग-रूपो रत्न के निधि-स्वरूप तथा संसार के एकमात्र मंगल श्रीजिनेन्द्र भगवान को समान धर्म से पाकर मानो मुक्त होने में असमर्थ होने से ही नव निधि और अट-मंगल सभी दरवाजों पर विराजमान हुए तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ॥२७॥ ज्योति कयज्ञमणि कल्पसदः क्रमेण तेजस्विनः प्रतिदिशं मणिदंडहस्ताः॥ द्वारत्रयद्वितययुग्मयुगेषु तेनुािलकृन्यमपि जन्मशतैरलभ्यं ॥२८॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनित काव्यम् । १६६ ज्योतिष्केत्यादि । तेजस्विनः तेजोऽस्त्येपामिति तथोक्ताः पराक्रमिणः । मणिहस्ताः मणिभिर्निर्मिता दंडा: मणिदंडाः हस्ते येषां ते तथोक्ताः रत्नखचितदंडपाणयः । "प्रहरणात्सप्तमी" इति पूर्वनिपातः । ज्योनिष्कयक्षफणिकासदः ज्योतिष्काश्च यशाच फणिनश्च कल्पे सीदतीति कलासदः ते च ज्योतिष्कयक्ष फणिकल्पलदः ज्योतिर्भी मोरगकल्पवासिनः । प्रतिदिशं दिक्षु दिक्षु । क्रमेण अधूलिशालाद्यनुक्रमेण । द्वारत्रयद्वितिश्रयुग्मयुगेषु sarsarat अस्य वयं द्वावयवावस्य द्वितयं जयं वद्विनयं युग्मं च युगं न्त्र तथोक्तानि द्वाराणां त्रयद्वितययुग्मयुगानि तथेोकानि तेषु द्वारत्रये द्वारद्वये द्वारयुग्मे द्वारयुगे च । जन्मशतेरपि जन्मनां शतानि तैः जन्मानेकैरपि । अलभ्यं लघुमशक्यं । द्वालकृत्यं द्वारा: पाल: हार्पालः तस्य नृत्यं पुनरुतत् द्वारपालस्य कार्य । तेनुः विस्तारयामासुः तन्त्र विस्तारै लिट् ||२८|| I भा० अ० - तेजस्वी ज्योतिष्क, यक्ष, उग्ग तथा कल्पवासी देवों ने हाथों में मणिमय दण्ड लेकर क्रमश: प्रत्येक दिशा में तीन दो, दो तथा दो दरवाजों पर जन्मजन्मान्तर में भी अलभ्य द्वारपाल का काम किया । २८ । नुन्नांवरं प्रतिदिशं नवगोपुराणामष्टांतरेषु बहिरादिमगोपुराच्च ॥ नानाविधाभिनवशिल्पमनोभिरामं माणिक्यतो रणशतं पृथगाविरासीत् ॥२६॥ नांवरमित्यादि । नवगोपुराणां नत्र व तानि मधुराणि च नवगोपुराणि तेषां । अष्टांतरेषु | आदिमगोपुरात् आदौ भवमादिमं आदिमं च तत् गोपुरं व आदिमगोपुरं तस्मात् "पश्चादाय ताम्रादिम" इति स प्रत्ययः । प्रथमगोपुरात् । बहिश्र बाह्य च । प्रतिदिशं दिक्षु दिक्षु | नुवरं मुन्नमं बरं येन तत् तथोक्त' चुंबिताकाशं । “नुरानुनास्त निष्ट्य नाविद्धक्षिप्त रितास्वमाः" इत्यमरः । नानाविधाभिनवशिला मनोभिगमं नाना विधो यस्य तत् नानाविधं अभिनवं च तत् शिक्षां व अभिनवशिलां नानाविधं च तदभिनवशियां व नानाविधाभिनवशिल्पं च तन्मनसोऽभिरामं तथेोकं नानाविधाभिरामशिल्पेनाभिरामं नानाप्रकार कुशलेन मनोहरं । पृथक्। प्रत्येकमाणिक्यतोरणशतं माणिक्येन रचितानि तेषां शतं तथोक्त' रत्नतोरणाने । आविरासीत् प्रादुरभवत् । अस भुवि लङ् ॥ २६ ॥ 1 भा० अ० - नौ दरवाजों में से आठ के भीतर तथा पहले दरवाजों के बाहर अनेक प्रकार की नूतन कारीगरी से सुन्दर सैकड़ों मणिमय तोरण पृथक् २ शोभित हुए । २६ । श्राद्यंतरे निहतदुर्मतिमानगुंकाः स्तंभाचतुर्थ इह राजत नाट्यशालाः ॥ पछेऽपि नाट्यनिलयाः किल सप्तमेऽस्मिन् स्तूपाय तोरणशतांतरिता बभूवुः ॥ ३० ॥ आद्यंतरे इत्यादि । आद्यंतरे आदि च तदंतरं च आयत तस्मिन् प्रथमांतराले | Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० दशमः सर्गः। निहतदुर्मतिमानगुफाः निहन्यतेम्म निहतः दुष्टा मतिर्येव ते दुर्मतयः मानम्य गुंफो मानगुंफ: दुर्मतीनां मानगुंफस्तथोक्तः निहतो दुर्मनिमानगुंफो यस्ते तथोक्ताः धिनष्टमिथ्याष्टिमामरचनयुकाः । स्तंभा: मानस्तंभाः । इह अस्मिन् इह । चतुर्थे चतुणी पूरणं चतुर्थ तस्मिन् चतुर्थवलये । राजतनाट्यशालाः नाट्यस्य शालाः नाठ्यशाला: रजतेन निर्मिता राजनाः साध ताः नाट्यशालाश्च नथोक्ताः रूप्यरचिननर्तनशालाः। षष्ठऽपि षण्णां पूरण नथोक सस्मिन् षष्ठांतरालेऽपि । नाट्यनिलया: नाट्यस्य निलयास्तथोक्ताः नृत्यशालाः। निष्प्रतेति" निरुपसर्गरकारस्यायिगताधित्यस्य योगे लकारादेशः । अस्मिन् एतस्मिन् । सप्तमे सप्तानी पूरणं सप्तम तस्मिन् सप्तमवलये । तोरणशतांतरिता: तोरणानां शनानि तथोक्तानि तोरणशसस्तरितांस्तथोक्ताः शततोरणव्यवहिताः। स्तूपाः नवस्तूपाः । बभूवुः भवंतिम्म किल । भू सतायां लिट् । दशतोरणान्यनीत्य एकस्तूपस्तिष्ठतीति क्रमोक्तानुसंधेयः ॥ ३० ॥ भा० अ०-पहले के भीतर मिथ्या राष्ट्रियों के मान नष्ट करने वाले मानस्तम्भ, चौधे में रजतमयी नाट्यशाला तथा छठे में भी नृत्यशाला, और सानचे में संकड़ो तारण से आच्छन्न मौ स्तूप थे ।३०। दुःखौघसर्जनपटूस्त्रिजगत्यजेयान सानान्निहत्य चतुरोपि च घातिशत्रून ॥ स्तंभाजयादय इव प्रभुणा निखाता:रतंभा:बभुःप्रतिदिशं किल मानपूर्वाः॥३१॥ दुःखौघेत्यादि । त्रिजगति त्रयाणां जगतां समाहार स्त्रिजगद् तस्मिन् त्रिभुबने । दुःखोघसर्जनपटून दुःखानामाधो दुःखौघ्रस्तस्य सर्जनं नथाक्न दुःखौघसर्जने पटवस्तान दुःग्यपर परासृष्टयसमर्थान् । “ोघो वृदे पयोधेगे द्रुननृत्योपदेशयोः । ओघः परंपरायां च नि विश्वः । अजेयान जेतुं शक्या जैयाः न जेयास्तान् अभिभचिनुमशक्यान । चनुरोऽपि च चतुःसंरन्यानपि । घानिशन यानि एव शत्रबस्तथोक्तास्तान घानिकर्म रियून साक्षात गुगपत् । निपात्य निपातनं पूर्व चिहत्य । प्रभुणा स्वामिना । निखानाः निखन्य नेस्म निखाना: स्थाषिताः। जयादयः जय एवं आदिर्येषां ते तश्रोता: जयशब्दादिसहिताः। म्भा श्व जयस्सा इत्यर्थः मानपूर्वाः मान पर पूर्वस्मिन्नो ते तथोकाः आदौ मानशब्दयुक्ताः मानस्तंभा इति यावत् । प्रतिदिशं दिनु दिक्षु । वभुः किल चकाशिर किन्द । भा दीनो लिट् । रूपकः ॥ ३१॥ भा० अ०—त्रिमुधन में दुःखसमूह के निर्माण करने में विचक्षण तथा अजेय जो चार प्रातिया कर्म-रूपी शत्रु हैं उन्हें साक्षात् नष्ट करके ही मानो जिनेन्द्र देव से आरोपिन कि.ग गये विजय-स्तंभ के पैसे मानस्तंभ प्रत्येक दिशा में शोभायमान होते थे । ३१ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ सुनिसुतकाष्यम् । संसारदुस्तर महार्णवमद्मजन्तूत्तारकनावि सदसीश्वर कर्णधारे ॥ स्तंभश्रियं विरुज्वलरत्नमानस्तंभाः समीर चल के तुपटाभिरामाः ॥ ३२ ॥ संसारेत्यादि । संसारदुस्तर महार्णवमजंतू त्तार कनावि चतुर्गतिभ्रमणः संसारः महांश्चासौ अर्णत्रश्च महार्णवः दुःखेन तीर्यत इति दुस्तरस्स चासौ महार्णवश्च तथोक्तः संसार व दुस्तर महार्णवस्तथोक्तः मज्जतिस्म मन्नाः मन्नाश्च ते अंतश्च मग्नजेतचः संसारदुस्तरमहार्णवे मग्नजतवस्तथोक्तः उत्तरणमुत्तारः संसारदुस्तर महार्णवमग्नजंतूनामुत्तारस्तथोक्तः एका चासौ नौश्च पकनौः संसारदुम्नरमहार्णवमजंतू त्तारे एकनौस्तम्यां संसारदुःप्लवनमहासमुद्र मन्नाखिलजीवोत्तरणे मुख्यवहित्रे । ईश्वरकर्णधारे ईश्वर एव nara यस्य तम्मिन जिनेंद्रनाविकयुक्त सदसि समवसरणे समीरचलकेतुपटाभिरामाः समीरण चलम्समीरवलाः केतूनां पदाः केतुष्टाः समीरचलाच ते केतुपाच तथोक्ताः समीरचलकेतुपटैरमिरामाः वायुना चंचलध्वजवत्र मनोहराः । उज्वलग्क्षमानस्तंभा : रत्नर्निर्मिता मानस्तंभा रतमानस्तंभाः उज्वलाश्च ते रत्नमानस्तंभाच तथोक्ताः प्रकाशमानमणिमयमानस्तंभाः । स्तंभश्रियं स्तंभस्य श्रोः स्तंभनोस्तां नौगुणलक्ष्मीं । विदधुः कः । डु धाङ् धारणे लिट् । रूपकः ॥ ३२ ॥ भा० अ० - संसाररूपो दुस्तर महा-समुद्र में मग्न प्राणियों को पार लगाने में एक मात्र नौका के सम्मान तथा जिनेन्द्र देव रुपी कर्णधारखाली समवसरण सभा में हवा से प्रकम्पित ध्वजपट से सुन्दर और समुज्वल रत्नजड़ित मानस्तंभों ने नाव की यूग-श्री की शोभा धारण की । ३२ । मानाधिको कनकगोपुररूप्यसालव्याजेन मानमवितुं बहुरूपमाज ॥ मन्ये सुमेरुविजयानगरस्म मानस्तंभानुपेत्य भजतश्चतुरोऽपि भीत्या ॥ ३३ ॥ 1 मानाधिकावित्यादि । मानाधिको मानेन प्रमाणेन गर्वेण चाऽधिको प्रवृद्धौ । “त्रित्तोअतिग्रहगर्भप्रमाणस्यादिषु मानम्" इति नानार्थरत्नकाशे (वे) । बहुरूपभाजो यहूनि तानि रूपाणि बहुरूपाणि तानि भजन इति तथेोकानि नानारूपभाजौ । सुमेघविजयार्थनगौ सुमेरुश्च विजयार्धश्च सुमेरविजयार्थौ तौ तौ नगो व तथोक्तौ महामेरुविजयापर्वत । मानं गवं । अवितुं रक्षितुं । कनकगोपुररूप्यशालाव्याजेन कनकेन निर्मितानि गोपुराणि तथाकनि रूप्येण निर्मिता साला ( शाला ) रूप्यसालाः कनकपुराणि च रूप्यसालाख तथोक्ताः कनकगे। पुररूप्यसाला इति व्याजस्तस्मात् सुवर्णगोपुरजतप्राकारभात् । चतुरोऽपि चतुःसंयान् मानस्तंभान् । भीत्या भयेन । समीपं । उपेत्य यात्वा । भजन: Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः स्म सेवेतस्म । भज सेवायां लट् । इति मन्ये जाने । बुभ्रमनिशाने लट् उत्प्रेक्षा ॥३२॥ भा० अ० -गर्व से बढ़े चढ़े सुमेरु तथा विजया पर्वन अनेक रूप धारण करके सुवर्णमय गोपुर तथा रजतमय प्राकार के व्याज से अपने मान की रक्षा के लिये ही मानों डर से चारो मानस्तंभों के पास जाकर उनकी सेवा करने लगे। ३३ । मज्जरपुरंभ्रिकुचकुंकुमलालितानि पयंतखातसलिलानि वितेनुरेषाम् ॥ आलोकनेन सुचिरोपचिताभिमानीकै विवांतदृढमानग्साभिशंकाम् ॥३४॥ ___ मन्जत्पुधीत्यादि। माजत्पुरधिकुचकुंकुमलालितानि मज्जतीनि मर्जत्यः ताश्च नाः पुरधयश्च तथोक्ताः मन्जत्पुरंध्रीणां कुचास्तथोक्ताम्तेयं कंकुमं तथोक्त मज्जत्पुर. धिंकुचकुंकुमेन लालिनानि मज्जवनितास्तनकुंकुमेनरंजितानि । प्रयनग्नानसलिलानि पर्यनम्य खाता पर्यंतखाता पर्यंतखानानां सलिला नि तथाकानि समीपस्थसरोबरजलानि । एषां मानस्तभानां । आलोकनेन दर्शनेन । सुनिरोपचिताभिमानः सुनिरेगोपचिताम्सुचिरोपचिता: अभिमाना येषां ते सुचिरोपचिताभिमानास्त: विरकालेन संनिताभिमानसहितः । लोकः जनैः । विवांनढमानरसाभिशंका विवम्यतेम्म विवांतः मानस्य रसः माननसः दृढश्चातौ मानरसश्च दृढमानरसः विवांतश्चासौ दृढमानरसश्च वितिहमानरसः स इत्यभिर्शका विवांतहमानरसाभिशंका तो विशेषेण यांतगाद्वाहंकारद्रव इति शंका । वितेनुः विम्ता. रयंतिम्म । तनु बिस्तारै लिन् ॥ ३५ ॥ भा. अ.नान करती हुई स्त्रियों के कुच कंकमलेजित नागेनरफ फैले हग खानिका के जाल ने इन मानस्तंभों के देखने से ही मानो निरसचिन अभिमान वाले लोगों से उद्गा दूढ़ मानग्स की शंका प्रकटित की । ३४ । विश्रामसौंदरमृदंगनिनादगर्जा विद्यतायितनिलिंपनटीमनाथाः ॥ नाट्यालया विजितशाग्दवारिवाश्चित्तक्षितौ नवरसान्धवपुजनानाम् ॥३५॥ विश्रामेत्यादि। विश्रामसुन्दरमृदंगनिनादगर्जाः विश्रामेण सौंदरी विश्रामसौंदर: मृदंगस्य निनादो मृदंगनिनादः विश्रामसौंदरश्चासौ मृदंगनिनादश्च बायोक्तः विश्राम सौंदरमृदंगनिनाद एवं गर्ज एषां ते तथोक्ताः विश्रामेण मनोहरर रजध्वनिस्तनित. युक्ताः । विद्य लनायितनिलिंपनटीसनाथाः विद्यु नो लता विद्यु लतेध आचरतीति विद्यु लुतायतेस्म विद्यु लुतायिताः निलिंपानां नट्यो निलिंपनट्यः विद्यु लतायिताश्च ना: निलिंपनट्यश्च तथोक्ताः विद्यु लनायितनटीभिस्लनाथाः तटिल पनिभदेवनर्तकीसहिताः । विजितशारदयारिवाहाः शरदि भयः शारदः पारि बहतीति वारिषाहः शारद Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रत कानगम ! श्वासौ चारिवाहश्च तथोक्तः विजयतेस्म विजितः विजितः शारदद्यारिवाहो यैस्ते तथोक्ताः निरसितशारदमेघसहिताः । नाघ्यालयाः नाट्यस्थालयास्तथोक्ताः नर्तनशीलाः । जनानां प्रेक्षकलोकानां । चित्तक्षितौ चित्तमेव क्षितिः चित्तक्षितिस्तस्यां मनोभूमौ नबरसान् नवन ते रसाश्च नबरसास्तान चंगारादिनवरसान् अभिनवजलानि च । “रसो गंधरसे स्वादे चित्तादौ धिषराग्योः ।गारादौ वे वीर्य देवधातौ च पारदे" इति विश्वः । वषुः सिषिचुः । वृषु सेचने लिट् । रूपकः उपमापि ॥ ३५॥ भा० अ० विधाम-समय के मृदंग की सुन्दर धनि है गर्जन जिसके-विद्यालतिका आचरण करती हुई देवांगना नर्तिका से युक्त तथा शरत्कालीन मेश्र को जीते हुई नाट्यशालाओं ने लोगों की चित्तभूमि पर नव रस की दृष्टि की । ३५ । सौवर्णधृपयटनिर्गतधूमजालं मौरभ्यशालि ददृशे जिनपूजनाय ॥ प्रायज्जनभ्य सुचिर हृदयारविंदगंधादिवासितमिव द्रवर्दधकारम ॥३६॥ सौवर्णेत्यादि । सौरभ्यशालि सुरभिरेव सौरभ्यं तेन शालि तथोक्त परिमलेन मनोहरं । सौवर्णरूपवनिर्गतधूमजालं मुवर्णेन निर्मिताः सौवर्णाः धूपस्य घटा; धूपघटाः सौवर्णाश्च ते धूपघटाध तथोक्ताः निर्गच्छतिस्म नितिं धूमाना जाले धूमजाले सौवर्णधूपप्रटैनिगतं सन्धोक्त सौवर्ण धूमघानिर्गतं च तत् धूमजाले च तथोक्त हेमनिमितधूपसपूहः । जिनपूजनाय जिनस्य पूजनं जिनपूजनं तम्मै। आयज्जनस्य एतीत्यायन् स चासो जनश्च नधातम्य आगच्छलोकस्य । सुचिर दीर्घकालं । हृदयारर्षिदगंधादिवासितं हृदयमेव अधिंदं हृदयारविंद नम्य गंधम्तथोक्तः हृदयारविंदगंधेनाधिवासितं तथोक्त वित्तकमलपरिमलेन अभिसंस्कृतं । यदंधकारमिय द्रवच्च तदंधकार व तथोक्त धावदज्ञानांधकारमिव । ददृशे ईश्ने। शिर प्रेक्षणे कर्मणि लिट । उत्प्रेक्षा ॥३६॥ मा० अ०–सुगन्ध से सोभने वाला सुवर्णमय धूप घट से निकला हुआ धून-समूह जिनदेव के पूजन के लिये आये हुए लोगों के हृदय-कमल की गंध से वासित भागते हुए चिरसञ्चि र प्रज्ञानान्धकार के ऐसा दीख पड़ा ! ३६ । जैनी सभा जिनपदांबुजसेवयैव सेत्स्यति मंच नवकेवललब्धयो वः ॥ इत्येवमुन्नतनवांगुलिसंज्ञयोस्तुपच्छलादुपयतां जिनसेवनार्थम् ॥३७॥ जैनीत्यादि । जैनो जिनम्न्येयं जैनी जिनेश्वरसंबंधिनी । सभा संसत् । जिनपदांबुजसे. वयव जिनस्य पदे ते पाबुजे जिनपदांबुजे तयोस्सेवा जिनपदांबुजसेवा तयैव जिनेश्वरचरणारविंदसेवनेनैव। वः युष्माकं । पदावाक्यस्वेत्यादिना षष्ठी वसावेशः । नत्रकेवललब्धयः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः केवलाश्च ता: लव्धयध तथोक्ता: नव च ताः केवललब्धयश्च तथोक्ताः सम्यक्त्वादिनप्रक्षायिकभाषाः । मञ्ज शीघ्र । सेत्स्यति फलिष्यतीति । विधु संराखौ लट । जिनसेवनार्थ जिनस्य सेचनं तस्यै जिनाराधननिमित्त । उययता उपयंतीत्युपयंतस्तेषां उपयत्तां आभयतां । उच्च स्तूपन्छलात उच्च श्च ते स्तूपोश्च तथोक्ताः स्तूप इति च्छलं तस्मात् उदअनघस्तूपव्याजात् । उन्नतनयांगुलिसंशया नव च ताः अंगुलयश्च तथोक्ताः उन्नताश्च ताः नांगुलयश्च तथोक्ताः उन्नतनवांगुलीनां संशा तथोक्ता तया प्रांशुनघांगुलिसूचनया । एवं प्रकारेण बभौ इत्यध्याहारः । उत्प्रेक्षा ॥ ३७ ॥ भा० अ०-- जिनेन्द्र देव के घरण की सेवा करने से ही आप सयों के सम्बकधादि नयक्षायिक भावों की प्राप्ति शीघ्र होगी इस बात को समवसरण जिनशरणागत भक्तों को जिनेन्द्र की सेवा के लिये ऊंचे २ नवस्तूपों के बहाने मानो लग्यो २ अँगुलियों से इशारा करती हुई कीसी हात होती थी । ३७ । रेजे विशालगणभूतलवेष्टितस्थ पतित्रयस्य शिरास हिपरिपीठम् ।। धर्तुं जिनेश्वरमुरागतभद्रशालरुनिसानुकनकाचलचूलिकेव ॥३८॥ रेज इत्यादि । विशालगणभूतलयेष्टितस्य भुवस्तलं भूतलं गणानां भूतलं गणभूतलं विशालं च तस् गणभूतलं च तथंक्ति' विशालगणभूतलेन बेनितं तथाक्त तस्य । पीठत्रयस्य अयोऽवयया अस्येति अयं पीठानां त्रयं पोउवयं तस्य त्रिमेखलापीठस्य । शिरसि अग्ने । द्विपचैरिपीठं द्विपानां गणानां गजानां वैरिणो द्विपवेरिणस्तधने पी सिंहासनं । जिनेश्वर' जिननाथं । ध धरणाय धतुं । उपागतभद्रशालरुद्धनिसानुकनकाचलचूलिकेव उपागच्छतिस्म उपागतः भद्रशालेन रुद्धो भवशालरुद्धः त्रयस्सानो यस्य सः त्रिसानुः कनकरूपोऽचल: कनकाचलः त्रिसानुश्चासौ कनकाचलश्च तथाक्तः भद्रशालरुद्धश्चासौ निसानुकनकाचलच तथोक्तः उपागतश्चासौ भद्रशालरुनिसानुकनकाचलश्न तथोक्तः उपागतभवशाल. रुद्धनिसानुकनकाचलस्य चूलिका तथोक्ता सेव उपायातभद्रशालवेष्ठितप्रस्थत्रयहितमेरुचूलिकेव । रेजे बभौ। राज दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥ ३८ ॥ भा० अ० --विशाल द्वादश गणों की भूमि से परिवेष्टित, तीन पीठिकाओं के ऊपर स्थित सिंहासन मानो जिनेन्द्र भगवान को धारण करने के लिये आये हुए भवशाल से वेष्टित तीन तटबाले सुमेरु की चूलिका के समान विराजमान हुआ । ३८ । तत्र त्रिकालविषयाखिलवस्तुवृत्तिसाक्षिप्रबोधमहसा सकलं स जानन् । जिज्ञासयोपगतसंघचतुष्टयस्य तज्ज्ञापनोत्सुकतयेव चतुर्मुखो ऽस्थात् ॥३॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ मुनिमुमत काव्यम्। तप्रेत्यादि । तत्र तस्मिन् सिंहपीठे । त्रिकालविण्याखिलवस्तुसिसाक्षिप्रयोधमहसा त्रयाणां कालानां समाहारः त्रिकालं तस्य विषयाः अखिलानि च तानि वस्नूनि च अखिलवस्तूनि त्रिकालविण्याश्च अखिलवस्तुनि च त्रिकालविषयाखिलवस्तृनि तेषां वृत्तिः उत्पादन्ययद्रव्यलक्षणवृत्तिः तथोक्ता तस्याः साक्षिप्रबोधस्तथोक्तः स एव महः त्रिकालविषयाखिलास्तुवृत्तिसाक्षिप्रयोश्रमहस्तेन त्रैकालयविषयनिखिलपदार्थसाक्षात्प्रबुध्यमानकेवलशानतेजसा । सकलं निखिलं । जानन जानातीति जानन बुध्यमानः । सः मुनिसुबततीर्थकरपरमदेवः। जिज्ञासया ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा नया ज्ञातुमिच्छया । उपगतसंप्रचतुषयस्य संघानां चतुर्थ संघच तुष्टयं उपगच्छतिस्म उपगतं तच्च नत् संघचानुष्टयं च तथोक्तं तस्य आगतचतुस्संघस्य । नशातोसुकनगेन नरम झापडलगकम्य पात्रः उत्सुकता तज्ज्ञापने उत्सुकता तजज्ञापनोत्सुकता तया सकलवस्तुज्ञापनोयुक्ततयेव । चनुमुर्ख: चत्वारि मुखानि यस्य सः चतुर्मुखः चतुराननः सन् । अस्थात् अतिष्ठत् । छा गतिनिवृत्तौ लुङ । उपमालंकार: ॥ ३६॥ मा० . उस सिंहासन पर त्रिकाल विषयक सभी पदार्थों का साक्षात् करने वाले केवल ज्ञान की प्रखरता से सभी बातों को जानते हुए मानो जानने की इच्छा से समुपस्थित चारो संघ को सूचित करने की उत्कण्ठासे ही चतुर्मुग्न होकर श्रीमुनिसुव्रतनाथ आसीन हुए 1 ३६1 भामंडलेन निकटोच्चलचामरेण संवेष्टितो दिवि जिनाधिपतिश्चक्राशे ॥ हंसान्यितेन शरदबुदमंडलेन नीलांबुवाह इव कोऽपि कृतोपत्रीतिः ॥१०॥ __ भामंडलेनेत्यादि। दिघि आकाशे। निकटोचालचामरेण उचलतोत्युचलं तच्च न. श्यामरं च नयोक' निकटोनलचामरं तेन समीपे कंपमानप्रकीर्णकलहितेन । भामंडलेन प्रभावलयेन । परिवेशितः आवृतः। जिनाधिपतिः जिनानामधिपतिस्तथोक्तः जिनेश्वरः । हंसान्वितेन दुसरनियतं हसान्वितं तेन हंसपलियुक्त ने । शरदबुदमंडलेन शरदोंऽबुदास्ते. मंडलं शादंबुमंडलं तेन शरत्कालमेघयूहेन । कृतोपवीतिः कना उपचीतिर्यस्य सः णा ! कोऽपि कश्चित् । नीलाम्वुवाह इब नौलश्चासौ अंबुवाहश्च तथोक्तम्स इव काश पौ । काट दीप्तौ लिट् । उत्प्रेक्षा ॥३२॥ ___ भा० अ०-निकट में डोलते हुए और भामण्डल से परिवेष्टित श्रीमुनिसुव्रत स्वामी आकाश में हंस-युक्त शरत्कालीन मेत्रमण्डल से आच्छन्न नील जलद के समान सोभते थे॥४०॥ T Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ दशमःमः। अस्याशरीरपदलिप्सुतयाऽशरीरं बोधासिना हतवतो भुवनैकमल्लम् ॥ वीरस्य पार्श्वमुपयाति तदा तदीयदिव्यायुधान्यनुचकार लतांतवृष्टिः ॥११॥ अस्येत्यादि । नदा तत्समये । लनांनवृष्टिः लनानग्य वृष्टिस्तथोक्ता पुष्पवृष्टिः। "पुष्पं प्रसवं कुसुमं प्रसूनमपि सुमनसो लनांत: फुल्लः" इति जन्यकीर्तिः । अशरीरपालपनया अशरीरस्य पद तथोक्त लन्धुमिच्छुः लिप्सु अशरीपदस्य लिप्तुः अंशरीर पदलिनुः तस्य भावः नया अनंगपदविं सिद्धपदविंच लब्धुमिन्छुनया। भुवनैकमललं । एकश्चासौ मलश्कमल: भुवनस्य एकमलः भुक्ने कमलः तं लोकमुख्यवीरं । अशरीरं न विद्यते शरीरं यम्य ने कार्म। योधासिना बोध एवासिधासिस्तेन सम्यग्ज्ञानखईन । हनवत: हनिम्म हलवान तस्य विनाशितयतः । अस्य एकम्य । वारस्य शूरस्य । पाश्वं । उपयंनि उपयंतीत्युपनि स्वयमेव समीपं गच्छति। तदीयदिव्यायुधानि दिव्यानि च तान्यायुधानि च तथोक्तानि नस्येमानि नदीयानि तदीयानि च तानि दिव्यायुधानि च नधोक्तानि पुनस्लानि कामसंबंधिदिव्यशस्त्राणि । अनुचकार अनुकरोतिस्म । डुरु करणे लिट् । उत्प्रेक्षा ॥४१॥ भार अ० -उस समय पुष्पवधि ने सिद्धपद वा कामदेव के पदको पाने की इच्छासे ही संसार में एकमात्र शावीर कामदेय को सम्यग्ज्ञान-रूगी मलयारमे मारे हु शर.. शिरोमणि श्रृंमुनिसुवन स्वामी के निकट आते हुए कामदेव के दिव्य अत्रों का अनुकरण किया ॥५॥ दिव्यध्वनिश्च सुग्दंदुभिनिवनश्च संत्यत्तशासनतदीयफलाभिलाषम् ॥ उत्पद्यमानमुभयं युगपज्ज हार श्रोत्रं मनश्च सुतरां परिपज्जनानाम् ॥४२॥ दिव्यध्यनिरित्यादि । दिव्यध्वनिः दिवि भयो दिव्यः दिव्यश्वासौ वनिश्च तथोक्तः दिव्यभाषा । समुच्चयार्थः। सुरदुंदुभिनिस्वनश्च सुरम्य दुंदुभिस्तथोक्तः सुरदुंदुभेः निम्वनस्त. थोक्तः देवबुंदुभिध्वनिश्च । संत्यक्तशासनतदीयफलाभिल्लाय तस्येदं नदीय नच्च नत फलं च तदीयफलं शासनं च तदीयफलं च शासनतदीयफले नयोगभिलाषस्तथोक्तः संत्यज्यतेस्म संत्यक्तः संत्यक्तः शासननदीयफलाभिलापो यमिन् कर्मणि नन् विहिनशाखोपदेशाभिलापं विहोनाजनिख्यातिलामपूजाभिलायं च यथा तथा। उत्पद्यमानं जायमान । उभये एतबुद्धयं । परिषजनानां परिषदि विद्यमाना जनास्तथोकाः तेषां समवसरणस्थितभब्यलोकानां 1 श्रोनं श्रवणं । मनश्च मानसं च । सुन अत्यतं । युगपत् सकन् । जहार अपहरतिस्म । हुजू हरणे लिट् ॥१२॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाम्यम् । भा० अ०-शासन तथा उसकी फलप्राप्ति की इच्छा निवृत्ति-पूर्वक उस समय होती हुई दिव्यध्वनि तथा देव-दुन्दुभि-ध्वनि ने समवसरण में सभागत सभी जीवों के कान और मन हठात् आकृष्ट कर लिये ॥४२॥ सर्वज्ञपादरतयो वयमप्यशोका मुग्धांघ्रिजातरतयः किल तेऽप्यशोकाः ॥ इत्यालपनलिनिनादपदादशोकः प्रत्युन्मिषत्कुसुमकैतवतो जहास ॥४३॥ सर्वोत्यादि।सर्वज्ञपादरतयः सर्व जानातीति सर्वज्ञः तस्य पादौ सर्वज्ञपादौ तयोरतिर्थे ते तथोक्ताः जिनेश्वरपादारविंदप्रीताः । वयमपि अशोकाः न विद्यते शोको येषां ते तथोक्ताः शोकरहिताः अशोकदुमाः । मुग्धांघ्रिजातपतयः मुग्धानामंध्रयो मुग्धांघ्रयस्तेषु जाता रतिर्येषां ते सथोक्ताः रमणीनां पादप्रीनिसहिताः । तेपि इनरतरवश्च | अशोकाः किल शोकरहिताः किल अशोकवृक्षाः किल । इति एवं । अलिनिनादग्दात् अलीनां निनादोऽलिनिनादः अलिनिनाद इति पद तथोक्त तस्मात भमरध्वनिव्याजात । आलपन अलपतीत्यालपनन बन्। अशोक: अशोकवृक्षः। प्रत्युन्मिपत्कुसुमकैनवतः प्रत्युन्मिपनि च तानि कुसुमानि च तथोक्तानि प्रत्युन्मिषत्कुसुमानीति फैनवं तथोक्तं प्रत्युन्मिपत्कुसुमकतवम् ततः विकसत्कुसुमव्याजास् । जहास हसतिस्म । इसि हसने लिट । भा० ४०-श्रीजिनेन्द्र भगवान् के चरणारविन्द में भक्ति करनेवाले हम सब भी अशोक ( अशोकवृक्ष ) अर्थात शोक रहित हैं तथा ललनाओं के चरणों में रति राखनेवाले साधारण अशोकवृक्ष भी अशोक ही हैं. ऐसा चाग्विलास समवसरणस्य अशोक वृक्षों ने आपस में किया ॥४३॥ छायां तिरस्कृतवतो जगदेकर्तुः छायां प्रधातुमितमेतदलं ललज्जे ॥ छत्रवयं न यदि शारदनीग्दा श्याम जिनांगरुचिसंगनिभात्कुतोऽभूत् ॥४४॥ ___ छायामित्यादि। छायां प्रनिविय अनातपं च । तिरस्कृतवतः निरम्करोतिस्म निरस्कतवान् तस्य निराकृतवतः। जगदेकभर्तुः एकश्वासी भर्ता च एकमता जगतामेकमा नथोक्तस्तस्य लोकानां मुख्यस्वामिनः । छायां प्रतिछायां । प्रधातुं प्रधानाय प्रधातुं । इतं एतिस्म इतं गतं । शारदनीरदाभ शरदोऽयं शारदः नीरं ददातीति नीरदः शारदश्चासौ नीरदश्च तथोक्तः शारदनीरख इवाभानीति तथोक्तम् शरत्कालमेघसदृशं । एतत् इदं । छत्रप्रय छत्राणां त्रयं छत्रत्रयं । यदि चैन् । अलं. अत्यंतं । न ललज्जेन जिजाय । तर्हि । जिनांगरूचिसंगनिभात जिनस्यांग जिनांगं तस्य रुचिः जिनांगरुचिः तस्यास्संगो Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दशमः सर्गः । जिनांगरुविसंगः स एव निभस्तस्मात् जिनेश्वराबायकांतिसंपर्कव्याजात् । श्यामं नीलं । कुसः कस्मात् कारणात् । अभूत् अभवत् । भू सत्तायां लुङ। अनुमित्यलंकारः ॥४॥ __ भा० अ०---प्रतिविम्ब को तिरस्कृत किये हुए अर्थात् संसार के एकमात्र स्वामी श्री मुनिसुवतनाथ की कान्ति ( छाया) की स्पर्धा करने के लिये समुपस्थित जो शरत्कालीन मेघवत् छात्रय है, वे यदि अत्यन्त लजित नहीं होने तो जिनेन्द्र देव की अंगकान्ति से श्याम क्यों होते ! ॥४॥ स्त्रीवालवृद्धनित्रहोऽपि सुखं सभा तामंतर्मुहूर्तसमयांतरत: प्रयाति ॥ निति च प्रभुमहात्मतयाऽश्रितानां निद्रामृतिप्रसवशोकरुजादयो न ॥४५॥ स्त्रीत्यादि । स्त्रीबालवृद्धनिचहोऽपि स्त्रियश्च बालाश्च वृद्धाश्च स्त्रीबालवृद्धास्तेषां निवहस्तथोक्तः चनिनामाणवकवृद्धानां समूहोऽपि । तां सभा समवसरणं । अंतर्मुहर्तसमयांतरतः मुहर्तस्यांतः अंतर्मुहूर्तरूस ना हास्यश्च तगोत. गाहमान औरतरं *तमुहूर्तसमयांत अंतर्मुहूर्तसमयानरे अंतर्मुहर्तसमयतिरटः अंतर्मुहर्तकालमध्ये । प्रभुमहात्मसया महांश्चासौ आत्मा च महात्मा तस्य माधो महात्मता प्रभोर्महात्मना नया स्वामिसाम यन | प्रयाति गच्छति । नियति च आगच्छति च । आश्रितानां समवसर पागतप्राणिनां । निद्रामृतिप्रसवशोकरुजादयः निद्रा च मृतिश्च प्रसवश्च शोकश्च स च तथोक्काः निद्रामुनिप्रसघशोकरुनः आयो येषां ते तथोक्ता: । न न भवेयुरित्यध्याहारः ॥॥ भा० अ०-स्त्री, बच्चे और वृद्ध सब के मत्र उस समवसरण सभा में अन्तर्मर्स में ही सुग्वपूर्वक जाते आते थे। श्रीजिनेन्द्रदेव के प्रसाद से समवसरण में सम्मिलिन किसी प्राणी को निद्रा, मृत्यु, प्रसव. शोक तथा रोगादिक नहीं होते थे ॥४५॥ मिध्यादृशः सदसि तत्र न संति मिश्राः सासादनाः पुनरसंज्ञिवदप्यभव्याः ॥ भव्याः परं विचितांजल यः सुचित्तास्तिछंति देववदनाभिमुखं गणोर्ध्याम्॥४६॥ मिथ्यादृश इत्यादि । तत्र तस्मिन् । सदसि समवसणे । मिथ्यादृशः मिथ्या दृक् येषां ते तथोक्ताः मिथ्याद्दष्टयः । मिश्राः सम्यग्मिथ्यागष्टयः । सासादनाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । पुनः पश्चात् । असं शिवत संज्ञास्त्येषामिनि संशिनः न संझिनोऽसंझिनस्त इस तथोक्ताः असंशिप्राणिनो यथा न संतीति तथा । अभव्याः रत्रत्रयाविर्भवनयोग्या भव्याः न भन्या अभव्याः तथोक्ता अपि अभल्या अपि । न संति । पर्व केवलं । विरचितांजलयः विरचितोऽजलियस्ते तथोक्ताः संघटिसकरपुड्मलाः । सुचित्ता सुष्ठु शोभनं चिरां येषां ते तथोक्ताः भट्टमानसाः । भव्याः रत्नश्याधिर्भवनयोग्या भव्याः । गणोळ गणानामों गणो: नस्यां गणभूमौ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिपुतकाव्यम् । २०६ देवबदनाभिमुखं देवस्य पदनानि देववदनानि तेषामभिमुखं यथा तथा । तिटतीति आसते। छा गतिनिवृत्तौ लट् ॥ ३६॥ मा० अ० उस समघसरण सभा में मिथ्याधि, सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि असंही और अभव्यजीच नहीं रहते थे। किन्तु द्वादश भूमि में केवल निर्मल चितवाले भध्यजीव ही बद्धाञ्जलि होकर जिनेन्द्रदेव के समक्ष रहते थे ॥४६॥ इत्याहुतां त्रिभुवनैकपतेः सभा तामागत्य वीक्ष्य निखिलं हरिणा जिनेंद्रम ॥ आकीर्णपुष्पमवनम्य पुनर्ममज्ज हबुधौ भवसमुद्रतितीऍगापि ॥४७॥ इत्यद्भुतामित्यादि । त्रिभुवनैकपतेः त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुनं एकश्चासौ पनिश्च एकपति: त्रिभुवनस्यकपतिस्त्रिभुवनैकानिः तम्य त्रिजगन्नाथस्य । इति एवं प्रकारेणा । अदना आश्चर्यरूपां । तां समां समवशरणं । आगत्य आगमन पूर्व पश्चा एल्य । निखिलं सकलं । वीक्ष्य दृष्ट्वा ! आकीर्णपुष्पं आकिर्णानि पुष्पाणि यस्मिन्कर्मणि तत् प्रकीर्णपुर्ण यथा भवति तथा क्रियाविशेषणं तम्मानपुंसकं । जिनेद्र जिनेश्वर । अवनभ्य अधनमनं पूर्व प्रणम्य । भवसमुद्रतिनीर्षुणापि भव एव समुद्रो भवसमुद्रः तर्तुमिच्छुः तितीर्घः भवसमुद्रस्य तिती[स्तथोक्तः तेन संसारसागरनरणाभिलाघुणापि । हरिणा देवेंद्रेण । पुनः भूयः । हर्षा बुधौ हर्ष एवांबुधिषी बुधिस्तस्मिन् संतोपसमुद्रे । ममज़ो सस्ने। डुमम्जौ शुद्धौ कर्मणि लिट् । रूपकालंकारः ॥४७॥ भा० अ०--त्रिलोकीपति श्रीजिनेन्द्र देव की उस अलौकिक सभामें आ सभी पदार्थों' को देखकर देवेन्द्र पुष्प-वृष्टि-पूर्वक श्रीमुनिसुव्रतनाथ की वन्दना करके संसार-समुद्र को तैरनेकी इच्छा करते हुए भी हपसमुद्र में गोता लगाने लगे ॥४॥ सक्षायिकाचल दृशाञ्चलसंयमेन सप्तर्धिसम्यगवबोधचतुष्कभाजा !! श्रीमल्लिषेण गणिनाथ तदीरितेन पृष्टः समस्तबिदसौ निजगाद तत्त्वम् ॥१८॥ सक्षायिकेत्यादि। अत्र अनंतरे। सनायिका बलशा अचला चासौ द्वक्च अन्चलक क्षायिकी चासौ अवलदृकच क्षायिकाचलद्रुक तया सह वर्तत इति सनायिकाचलगक तेन निश्चलक्षायिकसम्यक्त्वयुक्तन । उनलसंयमेन उज्ज्वल: संयमो यस्य सः तेन निर. तिवारचारित्रसहितेन । सप्तर्धिसभ्यगयोधचतुष्कभाजा सम्यञ्चश्च ते अवबोधाश्च स-. म्यगवयोधाः तेषां चतुष्क सम्यगयोधवतुष्कं सप्त व ता ऋद्धयश्च सप्तर्धयः सप्तर्धयश्च सम्यगवयोधचतुष्कं च सधोकानि जनिस्म सप्तधिसम्यगवयोत्रचतुवामाक् तेन । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१॥ दशमः सर्गः। तदीरितेन तेनेरितस्तदीरितस्तेन देवेंद्र ण प्रेरितन । श्रीमल्लिनाचगणिना गणोऽस्यास्तीति गणी धिया उपलक्षितो मलिनाथः श्रीमलिनाथः सचासौ गणी च श्रीमलिनाथगणी तेन । मानवैराग्यसंपद्य तालुनाथगणधरण | पृष्टः पृच्छतिस्म पृष्टः वशिन्यचीत्यादिना यम् इक् । विज्ञापितः। असौ अयं | समस्तविद् समस्तं वेत्तीति तथोक्तः सर्वशः । तत्त्वं जीवादिस्वरूप। निजगाद निरूपयामास । गद् व्यक्तायां वाचि लिट् ॥४८॥ मा० अ०-स्थिर क्षायिक सम्यक्त्य से युक्त, निरतियार चारित्रसहित, सात ऋद्धियों और चार सम्यग्ज्ञान के पात्र तथा देवेन्द्र से प्रेरित श्रीमलिनाथ गणि से प्रार्थित किये गये सवंत देव ने जीवाजीयादि तत्त्वों को निरूपित किया ॥३॥ अथ समयविदींद्रादेशती वाद्यदेवैर्विनिहतजिनसंख्योदारभरिप्रपादः ।। विघटितगिरिसंजिनिशिश्का त्रिभुवनविभागार मादत्तम् ॥४६॥ अथेत्यादि । अथ तत्त्वनिरूपणानंतरे। विटिगिरिसंधिः गिरीणां संधिनिरिसंधिः विघटितो गिरिसंधिर्येन सः तथोक्तः। समयचिदीन्द्रादेशतः समय येत्तीति तथोक्तः समयबिच्चासाबिंद्रश्च समगनिदींद्रनस्यादेशतः श्रीविहापाकालादेवेन्द्राशया। बाधदेवैः वायस्थ देवा वाद्यदेवास्तैः किल्विषदेवः । विनिहतजिनसंख्योदारभेरिप्रणादः उदाराश्च ना: भेर्यश्च तथोका जिनानां संख्या यासा तास्तथोक्ताः जिनसंख्याश्च ताः उदारमेयश्च तथोक्ताः विनिहन्यंत स्म चिनिहता: ताश्च ता जिनसंख्योदारभेयंश्च विनिहाजनसंख्योदारमेयस्तासां प्रणादस्तथोक्तः प्रहनन्त्रतुर्विंशनिमह रिध्वनिः । विश्वविश्व कम ः विश्वध विश्वश्च विश्वविश्व एकश्वासौ भर्ता च एकभर्ता विश्वविश्वस्य एकर्ता तथोक्तस्तस्य समस्तमुख्यस्वामिनः अथत्रा विश्वे च ते विश्वाश्च विश्वविश्वास्तेषां भर्ता तस्य त्रिलोकस्वामिनः । "नागरवचाजगत्समस्तेषु विश्वः" इति नानार्धरत्नकोशे । तं प्रकृतं । यात्रारंभ यात्राया आरंभो यात्रारंभस्तं श्रीविहारप्रारंभं ! त्रिभुवनमपि निजगदपि। आवेदयत् अवेदि कश्चित्तमन्यः प्रामुक्तेत्याचेदयत् । विद झाने णिभूनालाइ ॥ ४६ II भा० अ---तत्वनिरूपण के बाद समयज्ञ अर्थात् भगवान् के विहारसम्बन्धी समय को जाननेवाले इन्द्रके आदेशानुसार किल्विष देवों-द्वारा बनायी गयी तथा पर्वतों को विदीर्ण किये हुई बड़ी २ भेरियों की चौवोस ध्वनियों ने त्रिभुवनपति श्रीमुनिसुवातनाश को यात्रा के समारंभ की घोषणा से समस्त संसार को विज्ञान किया ॥४६ समवसरणमने भव्यपुण्यैश्चचाल स्फुटकन कसरौजश्रेणिना लोकवंद्यः॥ सुरपतिरपि सर्वान जैनसेवानुरक्तान कलितकनकदंडो योजयन्वस्त्रकृत्य॥५॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिमुमतकाच्यम् । समवसरणमित्यादि । समवसरणं समवसृतिः । भव्यपुष्यः भव्यानां पुण्यानि मध्य.. पुण्यानि तैः विनयजनसुरतः । अभ्र आकाशे । चचाल इयाय । चल कंपने लिट् । लोकवंद्यः लोकर्य यस्तथोक्तः त्रैलोक्यस्तुत्यो जिमः | स्फुटकनकसरोजश्रेणिना सरसि जायत इति सरोजानि कनकानि च तानि सरोजानि च तथोक्तानि स्फुटानि च तानि कनकसरोजामित्र तथोक्तानि स्फुटकनकसरोजानां श्रेपिस्तेन विकसदरुणारविंदोणिना। चखाल । फलितकनकदंडः कन्यतेस्म कलितः कलितः कनकदंडो यस्य सः तथोक्ता स्वीकृत सुवर्णदंडसहितः । सुरपतिः सुराणां पतिस्तथोक्तः । जनसेवानुरक्तान् जिनस्येयं जैनी साचासौ सेवा च जनसेवा मानिस्कार्थयोरित्यादिना पुंबद्भावः अनुरज्यतेस्म अनुरक्ताः जेनसेषायामनुरकास्तान् जिनेवराराधनायां प्रीतान् । सर्वानपि सकलानपि । स्वस्वकृत्ये स्वे च स्वेत्र स्वस्वे तेषां स्वस्वकृत्यं तस्मिन् निजनिजकार्य “चीप्सायाम्" इति द्विः। योजयन् योजयतीति तथोक्तः प्रेरयम् । चचाल ! मध्यदीपिकालंकारः ॥ ५ ॥ भा० अ-भव्य जीवों के पुण्यों से समवसरणसभा आकाश मार्ग से चली और विकसित रत्न कमलों के ऊपर त्रिभुवनवन्य श्रीमुनिसुव्रत नाथ भी चले तथा साथही साथ सुवर्णदण्डधारी इन्द्र भी जिनसेत्रानुरक्त सभी लोगोंको अपने २ काममें लगाते हुए चल पड़े ॥५०॥ सितचमरमहाली पार्श्वयोश्चिक्षिपात सुधिय उपरि श्रुभ्राण्यातपत्राणि देवैः ॥ उदधृषत तथाष्टौ मंगलान्याः सरोभिर्दिशि दिशि धृतमग्रे धर्मचक्रं च यः॥५१॥ सितवमरेत्यादि । सितचमरम्हाली चमरेपु रोहतीति चमरमहाणि "चमरं चामरे प्राहमंजरोमृगभेदयोः” इति विश्वः । सितानि च तानि चमररुहाणि च तथोक्तानि तेयामावली द्विवचनं शुभ्रचमरणी । सुधियः शोभना धीर्यस्मात् भव्यजनानां भवतीत्यसौ सुधीः तस्य जिनेश्वरस्य । पार्श्व योः उभयपार्श्वयोः । विक्षिपाते विक्षिपेतेस्म क्षिप प्रेरणे लिद । शुत्राणि श्वेतानि। आतपत्राणि। उपरि ऊर्चभागे। देवः सुरः। उदधृषत उध्रियतेस्म। धृ धारणे कर्मणि लुङ् । तथा तेन प्रकारेण । दिशि विशि दिशायां दिशायां । अप्सरोभिः देवगणिकाभिः । अमंगलानि भृगाराद्यष्टमंगलानि । उदधृषत । अग्रे पुरः। यक्षः यक्षदेवः । धर्मचक्र' धर्मरूपं चक तथोक्त। धृतं भृतं ॥ ५१॥ भा० अ०–श्रीजिनेन्द्र देव के दोनों ओर चमर डुलाये जाने लगे, ऊपर से देवोंने छत्र लगाया। अप्सरायें प्रत्येक दिशा में भृगारादि अष्टमंगल द्रव्य लेकर खड़ी थी तथा यक्षोंने बड़ी हृढ़ताके साथ धर्म-चक्र धारण किया था ॥५॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दशमः सर्गः। सपदि पवनदेवा: शारालोष्टधूलिक्रिमितृणमपनिन्युर्भूतलान्मेघदेवाः ॥ सुरभिसलिलसेकं चकुरवेदमासीन्मुकरदलबदच्छाकाशदिक्स्पर्धयेव ॥५२॥ सपदीत्यादि । पवनदेवाः पयनाच ते देवाध तथोक्ताः वायुकुमाराः । शर्करालोष्टधूलिकृमितृणम् शर्करा च लोष्टश्च धूलिश्च कृमिश्च तुणञ्चापि तथोकानि तेषां समाहारस्तथोक्त । भूतलात् भुवस्तलं भूतलं तस्मात् भूप्रदेशात्। सपदि सत्वरं । अपनिन्युः निवारयांचाः । यो प्रापणे लिट् । अत्र अस्मिन् भूतले । मेघदेवाः मेघकुमाराः। सुरभिसलिलसेकं सुरभि व तत् सलिलं च तथोक्त सुरभिसलिलस्य सेकस्तथोक्तः तं परिमलकलितजलसेवनं । चनु : विधुः। डुकृञ् करणे लिट् । इदं भूतलं । अच्छाकाशविक्स्पर्धयेष आकाशच दिशश्च आकाशदिशः अच्छाश्च ता आकाशदिशश्य तथोक्ताः आच्छाकाशदिग्भिस्सह स्पर्धा तयेत्र निर्मलगगनदिग्भिस्सार्क मात्सर्येणेय । बभुरिति यावत्। मुकुरतलवत् मुकुरस्य तल तथोक्त मुकुरालमिय सम्मुखीनतलवत् । आसोत् अभवत् । अस भुधि लछ। उपमा ॥५॥ भा० अ०-पवन देवों ने पृथ्वीसे कंकड़ो, रोड़े धूलि, कीड़े, तथा तिनके शीघ्र हटाकर जिनेन्द्र देव के प्रयाण-मार्ग-को परिष्कृत कर दिया। मेघों ने उसे सुगन्धित अलसे सिञ्चन किया तथा आकाश और दिशायें मानों स्पर्धासे आयने की ऐसी स्वच्छ होगयी ॥१२॥ धरणिरमरवृष्टैरुद्गमैस्सोपहारासुरमणिमकुटाचिःशकचापाचितं खम् ॥ सुरनरजयशब्दस्तोत्रकिर्मीरभेरीमुखरवमुखरं चाप्यास दिक्चक्रवालम् ॥५३॥ धरणिरित्यादि। अमरवृष्टः वर्षन्तिस्म वृष्टाः अमरैर्वृष्टा अमरवृष्टाः तैः । उद्गमैः पुष्पैः । “लसांतं प्रसवोद्गमम्"इतिधनंजयः । धरणिः भूमिः । सोपहारा उपहारेण सह वर्तत इति तथोका पूजासहितो। आस बभूव। खं आकाशं । सुरमणिमुकुटार्चिःशकचापार्मित सुराणां मणिमकुटानि तथोक्तानि तेषां अवौं षि तथोक्तानि शकस्य चार्प शक्रया सुरमणिमकुटार्ची ध्येव शक्रवापं तथोक्त अर्यतेस्म अर्चित सुरमणिमकुटार्थिःशकवापेनार्चितं तथोक्त देयानां रखमोलिकिरणेचापेन पूजितं । आस बभूव । विक्षनघाले चापि दिशां चक्रयालं तयोक दिग्मंडल। "चक्रवाल तु मंडलम्" इत्यमरः । सुरनरजयशब्दस्तोत्रकिम्मीरभेरिमुखरवमुखर व सुराश्च नराश्च सुरनराः जयेति शब्दो अपशब्द: जयशब्दच स्तोत्रच जयशब्दस्तोत्रे सुरनराणां जयशब्दस्तोत्रे ताभ्यां किसॆरस्तथोक्तः भेरीणां मुखं भेरीमुवं तस्य रयः सुरनरजयशब्दस्तोत्रक्रिोश्चासौ भेरीमुखरवश्च तथोक्तः सुरनरजयशब्दस्तोत्र Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसुव्रतकाव्यम् । किसैरभेरीमुखरवेण मुखरं तथोक्त' । देवमनुष्यजयनिनादस्तुतिमिश्रितभेरिमुखरवथ्य. निना याचाट। आस बभूव । दोषकालकारः । ॥५३॥ ___ भा० अ-देवतावों से की गयी पुष्पवृष्टि से पृथ्वी उपहार-सहित शाल होने लगी। आकाश-मण्डल भी देवताओं के मणिमय मुकुट की ज्योतिरूप इन्द्रधनुष से शोभित होता हुआ देवता और मनुष्यों की जयशब्द-स्नुनि-मिश्रित भेरी भांकार से मुखरित होगया ॥५३॥ गलितचिरविरोधाः प्राप्तवंतत्र मैत्री मिथ इव जिनसेवालंपटासंपदिडाः॥ षडपि च ऋतवन्ते तत्र तत्रान्वगच्छन व्यवहरदयमीशो यत्र यत्रैव देशे ॥५४॥ गलितेत्यादि । अयं एषः । ईशः स्वामी ! यत्र यत्रैव यस्मिन् यस्मिन्नेव! देशे जनपदे । व्यबहरत् व्यवगमत् । तत्र तस्मिन तस्मिन् वोप्सायामिति द्विः । गलितचिरविरोधाः गलतिस्म गलित: चिरं स्थितो विरोधश्विरविरोध: गलिचिरविरोधो येभ्यस्ते तथोक्ताः विगतबहुकालस्सिनविरोधभावाः । मैत्री मित्रस्य भावो मेरो ना "युवादिहायनान्तादण्" इत्यनेनाण मित्रभाव। मिथः इत्र अन्योन्यमित्र । प्राप्तवन्तश्च प्राप्त निगम प्राप्तवतः यातवन्तः। जिनसेवालंपटान जिनस्य सेवा जिनसेवा तस्या लंपटस्तथोक्तस्तस्मात जिनेशस्याराधनाया आसक्तः। संपदिद्धाः संपदा इद्धास्नथोक्ताः ऐश्वर्येण प्रथिताः। रडपि ते ऋतवः हेमंनादिपतवोऽपि। अन्धगच्छन् अन्वायन् गम्लू गनौ लङ्ग । षड्तूनां युगपदागमनत्वमेधविरोधरहितत्वमित्यर्थः॥५४॥ भा० अ० -श्रीमुनिसुव्रत नाथ ने जहाँ २ विहार किया वहाँ २ के जीवों ने चिरशत्रुना छोड़कर मैत्री करली । जिनेन्द्र भगवान की सेवा में अनुरक्त होने से लोग झट सम्पत्तिशाली हो गये । तथा छ: हो अतुणं परस्पर एक ही बार मिलीं-अर्थात् सभी ऋतुओं ने एकही वार अपने २ सामयिक ऋतु-सम्बन्धी दृश्य दिखलाये ॥५४॥ न परमखिललोकः प्रातिकमयं विहाय त्रिभुवनतिलकं तं वायुरप्यन्वियाय ! दिविजसरसि ममः पुष्पगंधोपवाही मधुकरकुलशब्दच्छद्मना संरतुवानः ॥५५॥ नेत्यादि । अखिललोकः अखिलश्चासौ लोकश्च तथोक्तः सकलजनः। प्रातिकूल्यं प्रतिकूलस्य भावः प्रातिकूल्यं प्रतिकूलत्वं । विहाय बिहानं पूर्व पश्चात्किंचिदिति त्यक्तधा। तं त्रिभुवनतिलकं त्रिभुवनेकतिलकः त्रिभुवनतिलकरतं त्रिजगच्छ ठ । परं केवल । अन्धियाय अनुजगाम । इण गती लिट् । किंतु पुष्पगंधोपवाहो पुष्पस्य गन्धः पुष्पगन्धः पुष्पगंधमुपत्रहतीत्येचं शीलस्तथोक्त: कुसुमपरिमलधारी । दिविजसरसि दिविज सरो . दिविजसरस्तस्मिन् दिव्यगंधायां । मनः मजतिस्म मनः सातः । मधुकरकुलशबाना Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ दशमः सर्गः । मधुकराणां कुलं मधुकरकुलं तस्य शब्दस्तथोक्तः मधुकरकुल एवं छा तो तेन । संस्तुवानः संस्तुत इति संस्तुधानः सन्नुवानः । वायुः मारुतोऽपि । अपिशब्दम्समुत्रयार्थः । अचियाय अनुजग्गाम । ax घायो: शैत्यसौरभ्यमांचलक्षणानि ते । दीपकः ॥ --- भा० अ० - विरोध छोड़कर केवल सभी लोगों ने ही त्रिभुवन श्रष्ठ श्रीजिनेन्द्र देव का नहीं अनुसरण किया प्रत्युत दिव्य सुगन्ध में सतकर पुष्पगन्ध को होती हुई वायु ने भो भ्रमर-समूह के गुंजार के बहाने स्तुति-द्वारा उनका अनुगमन किया ||२५|| अपि च सदसि भर्तुः कच्छपाकस्य रेजुः सवरुण बहुरूपियवहाराधितस्य ॥ गणधारपद भाजोऽष्टादशैतच्छतांका न परमत्रधिनेत्राः केवलज्ञानिनोऽपि ॥ ५६ ॥ अपीत्यादि । अपि च किंतु सवरुणवरूपिण्यवहाराधितस्य वरुणेन सह वर्तन इति सवरुणा सा चासौ बहुरूपिणी व सवरुणबहुरुपिणी अहरहनु अन्य आराध्यतेस्म आराधितः अन्वहमाराधितस्तथोक्तः सवगणचहुरूपिण्यन्वहाराधितस्तथोक्तस्तस्य वरुणयक्षबहुरूपिणीयक्षीभ्यां सततं पूजितस्य । कच्छपांकस्य एव अंको यस्य सः तस्य कूर्मलानस्य । भर्तुः जिनेश्वरस्य । सदसि सभायां । अष्टादश अष्टभिरधिका दश तथोक्ताः "द्वाष्टात्रय” इत्यादिनाभ्यादेशः । गणधरपदभाजः गणान् धरतीति गणश्वररुतस्य पदं गणधरपदं समजतीति तथोक्ताः गणधरपदवीं संप्राप्ताः गणधरा इत्यर्थः । रेजुः वभुः । राजू दौ लिट् । तच्छांकाः पतेषां शतं एतच्छतं तदेवांको येषां ते तथोक्ताः अष्टादशवारशतप्रमिताः शताकाधिक सहल प्रमिता इत्यर्थः । अवत्रिनेत्रा अवधिरेव ने येषां ते तथोक्ताः । न परं न केवलं रेजुः । किंतु केवलज्ञानिनोऽपि केवलं व तह ज्ञानं च केवलानं तत्येषा मिति तथोक्ताः तेपि तान एवेत्यर्थः । रेजुः बभुः ॥१६॥ भा० अ० वरुण, यक्ष तथा बहुरूपिणी यक्षों से प्रतिदिन पूजित और कच्छपलाञ्छनाङ्कित श्रीमुनिसुवन नाथ की समवसरण सभा में अट्ठारह गणधर त्रिराजमान हुए थे T अारह सौ अवधिज्ञानी भो सुशोमित हो रहे थे. केवल अवधिज्ञानी ही नहीं केवल शानी भी उतने ही थे ॥ ५६ ॥ शतविगलितमाना वादिनरतुर्य बोधास्त्रिशतग लितसंख्या विक्रियर्धिप्रमिद्धाः ॥ अधिकशतचतुष्काः केवलिभ्यो बभूवस्त्वधिगतदश पूर्वास्तुर्यबोधत्रिभागाः ॥ ५७ ॥ शतेत्यादि । केवलिभ्यः सकाशात् । शतविगलितमानाः शतेन विगलितः तथोक्तः शतविगलितः मानः येषां ते तथोक्ताः केवलज्ञानप्रमा ण । च्छतर हिनप्रमाणाः सप्तशताधिक सह Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युनिसुव्रतकाव्यम् । २१५ प्रमिता इत्यर्थः । वादिनः महाचादिनः । त्रिशतगलितसंख्या: त्रीणि च तानि शतानि च त्रिशतानि तैर्गलिता संख्या येषां ते तथोक्ताः शतत्रयरहित केवलज्ञानिप्रमाणाः पंबशताधिकसहमाना इत्यर्थः । तुर्योधाः चतुणी पूरणः तुर्यः तुर्थी बोधो येषां ते तथेोक्ताः मन:पर्ययज्ञानिनः । अधिकशतचतुष्काः शतानां चतुष्कं शतचतुष्कं अधिकं शतचतुष्कं येषां ते तथोक्ताः चतुःशताधिककेथलिप्रमाणाः द्विशताधिकद्विसहस्रपरिमिता इत्यर्थः । चिक्रियर्धिप्रसिद्धाः विक्रियो बालोद्विश्व विकियर्धिस्तथा प्रसिद्धा: विक्रियर्धिप्र तीताः । तुर्यबोधत्रिभागाः तुर्थी बोधो येषां ते तुर्यबोधास्तेषां त्रयो भागा येषां ते तथोक्ताः पंचशतप्रमिता इत्यर्थः । अधिगतदशपूर्वाः दश च तानि पूर्वाणि न दशपूर्वाणि अधिगम्यबभूवुः तेस्म अधिगतानि दशपूर्वाणि यस्ते तथोक्ताः ज्ञातदशपूर्वाः दशपूर्षधराः । भवतिस्म भू सतायां लिट् ॥ ५७ ॥ I भा० अ० - वहाँ वादी तथा महावादी सत्रह सौ, मन:पर्ययज्ञानी पन्द्रह लौ, चिकिया. ऋद्धि प्रसिद्ध देवगण तथा मुनिगण बाईस सौ और पांच सौ वहां दशपूर्व के धारक थे ॥ ५७ ॥ विह्तहयसहस्राययर्धलक्षं च लक्षं त्रिगुणतमपि लक्षं शिक्षकाश्चार्यकाश्च ॥ उपगतगृहमेधाः श्राविकाश्चाप्यसंख्याः सुरसुरसुकुमार्यः प्राप्तसंख्या मृगाश्चा५८ हितेत्यादि । हित हयसहस्राणि हयसंख्याप्रमितानि सहस्राणि हयसहस्राणि त्रिभिर्हतानि तानि च तानि सहस्राणि च तथोक्तानि एकविंशतिसहस्राणि | शिक्षकाः उपदेशकाः । अर्धलक्षं लक्षस्या अर्धलक्षं । आर्यकाः । लक्षं एकलक्षं । उपगतगृहमेधाः उपगता गृहमेधा येषां ते तथोक्ताः श्रावकाः । त्रिगुणितं त्रिभिर्गुणितं तथोक्तं । लक्षमपि त्रिलक्षाणीत्यर्थः । श्राविकाश्चापि । असंख्याः न विद्यते संख्या यासां ताः तथोक्ताः असंख्याताः । सुरसुरसुकुमार्यश्च सुराणां सुकुमार्यः सुरसुकुमार्गः सुराध सुरसुकुमार्यच तथोक्ताः देवदेव्यः । प्राप्तसंख्या: प्राप्ता संख्या येस्ते तथोक्ताः संख्याताः । मृगाश्च तिर्यचः । बभूवुः ॥ ५८ ॥ मा० अ-वहां इक्कीस हजार उपदेशक, पचास हजार आर्य का, एक लक्ष श्रावक, तीन लक्ष श्राविकायें, असंख्य देव और देवांगनायें तथा प्राप्त संख्या वाले पशु पक्षी आदि तिर्यग्योनि के जीव भी थे ॥५८॥ इति विषयमशेषं विश्ववंद्यो विहृत्य त्रिचरणपरिशिष्टं नूनमब्दायुतं सः ॥ सुजनहृदयवप्रेषुप्ततत्त्वार्थसस्यः प्रविशदमणिचूलं प्राप संमेदशैलम् ॥५६॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ दशमः सर्गः । इसीत्यादि । विश्ववंद्यः विश्ववंद्यः विश्ववंद्यः सकलैः स्तुत्यः । सुजनहृदयवप्रेषु शोभना जनाः सुजनाः तेषां हृदयानि तथोक्तानि सुजनहृदयान्येव वप्राणि सुजनहृदयवप्राणि तेषु भव्यचित्तक्षेत्रेषु । उत्तरवार्थसस्यः तस्वानि वार्थाश्च तत्त्वार्थाः यद्वा तस्यामां अर्थास्तवार्थास्त एव सस्यानि तथोक्तानि उपयंतेस्म उप्तानि तस्वार्थसस्यानि येन सः तथोक: उप्तसप्ततस्वनत्रपदार्थसस्यः । सः जिनेश्वरः । अशेषं न विद्यते शेषो यस्य तं निःशेषं विषयं देशं । त्रिवरण परिशिष्ट त्रयश्च ते चरणाश्च त्रिचरणास्तैः परिशिष्ट तथोक्त त्रिपादावशिष्ट मून किंविहीनम् त्रयोदशमासविकलमित्यर्थः । अब्दायुतं अब्दानामयुतं दशवर्षसहस्त्रपर्यंतं । इति एवं प्रकारेण । विहृत्य विहरणं पूर्व पश्चात्किचिदिति । प्रविशदमणिचूलं मणिमयी चूला मणिचूला प्रविशवा मणिचूला यस्य तं । संमेदशैलं संमेदवासौ शैलब्ध संमेदलस्तंसमेदपर्वतं । प्राप प्रययौ । आप्ल व्याप्तौ लिट् ॥ ५१ ॥ भा० अ० - सभी भविकों के वित्त रूपी क्षेत्र में तस्वरूपी बीजको वपन किये हुए लोकपूज्य श्रीजिनेन्द्र देव तेरह महीने कम दसहजार वर्षो तक सभी देश में यों बिहार कर मणिमय शिखर वाले श्री सम्मेदाचल को पधारे ॥ ५६ ॥ तत्र स्थियैकमासं व्यपगतविहृतिः फाल्गुने कृष्णपक्षे । द्वादश्यामर्धरात्रे सदशशतमुनिर्जन्मभेऽघात्यरातीन ॥ श्रारूढायोगिधामा द्विवरमसमये सप्ततिं द्विप्रयुक्तां । शुक्र ध्यानासियष्टया सचरमसमये वृत्तसंख्यान्जघान ॥ ६० ॥ I तत्रेत्यादि । तत्र तस्मिन् पर्वते । व्यपगत विहृतिः व्यपगता विहृतिर्यस्य सः तयोक्तः निरुद्धधोबिहारः । सदशशतमुनिः दश वारान् शता दशशतास्ते च ते मुनयश्च दशशतमुनयस्तैः सह वर्तत इति तथोक्तः सहस्रमुनिभिर्युक्तः सन् । एकमासं पत्रश्चासौ मासञ्च एकमासस्तं एकमास स्थित्वा फाल्गुने फाल्गुनमासे । कृष्णपक्षे अपरपक्षे । द्वादश्यां । अर्धरात्रे रात्रेरर्धमर्धरात्रं तस्मिन् । “पुण्यवर्यादीर्घसंख्या नैकाद्रात्रेः" इत्यनेनात्प्रत्ययः । जन्मभे जन्मनो भं जन्मभं तस्मिन् श्रवणनक्षत्रे । आरूढायोगिधाम आरुह्यतेस्म आरुद्ध अयोगिनो श्राम अयोगिश्राम आरूढ अयोगिधाम येन सः तथोक्तः आरूढायोगिगुणस्थानस्सन । सः जिनेश्वरः । द्विप्रयुक्तां वाभ्यां प्रयुक्ता तथोक्ता तां द्विसहितां द्वासप्ततिमित्यर्थः । अघात्यरासीन अघातिन येवारयः तथोक्ताः तान् अघातिशत्रून् । द्विवरमसमये द्वौ चरमौ यस्य सः द्विवरमचासौ समय तथोक्तः तस्मिन उपांत्यसमये । शुक्कुध्यानासियष्ट्या शुक्ल च तत्त् ध्यानं व शुक्रुध्यानं असेटर सियष्टिः शुक्लधानमेवासियष्टिस्तथोक्ता तया शुक्लध्यान Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عام 3 मुनिहाकाव्यम् । खलतया। जधान हंसिरम हन हिंसागत्योः लिट् । चरमसममे चरमश्वासो समयश्व बाससमयस्तस्मिन् । वृत्तसंख्यान् वृत्तस्य अशेविधचारित्रस्य संख्या येषां ते तथोक्तास्तान प्रयोदशघात्यरीन् । जघान ॥६॥ भा० अ० .-एक हजार मुनियों के सहित श्रीमुनिसुव्रत-नाथ ने अपनी बिहार-क्रिया समाप्त किये हुए एक महीने तक उस सम्मेदाचल पर्वत पर रह कर फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष द्वादशी तिथि तथा श्रवण नक्षत्र में अयोगिगुणस्थान को प्राप्तकर लगभग अन्त्य समय में शुक्ल ध्यानरूपी खड्ग से बहत्तर अघानिया शत्रुओं नथा नेगह धानियों शत्रुओं को नम कर दिया ॥६॥ ईषत्प्राग्भारसंज्ञेऽष्टमधरणितले मर्त्यलोकप्रमाणे । सिडक्षेत्रे विशुद्धः स जयति तनुवातांत्यभागे कृतौकाः ।। किंचिन्न्यूनांत्यदेहप्रमितिघननिजाकारभाक् क्षायिकैः स्वैः । सम्यक्त्वाद्यैरुपेतोऽष्टभिरमिशमुखांपादकै रतलामः ॥३॥ षदित्यादि । पत्माम्भारसंझं ईषत्प्राग्भार इति संज्ञा यस्य तस्मिन् पत्प्राग्भाग्नामधेये। अष्टमधरणितले अष्टमी चासो धरणिश्च अष्टमधरणिस्तस्याम्तलं तस्मिन् "मानिस्त्रै. कार्थयोः” इत्यादिना पुंवद्भावः अष्टमभूमिप्रदेशे। मर्त्यलोकप्रमाणे मर्त्यस्य लोकस्तधोक्तः मत्यलोकस्य प्रमाण यस्य तत् तस्मिन मनुष्यलोकप्रमिते । सिद्धक्षेत्र सिद्धानां क्षेत्र सिद्धक्षेत्र तस्मिन् । ननुवानात्यभागे तनुरिति वातस्तनुवातः अंत्यश्वासौ भागश्च अत्यभागः ननुषालस्यांसभागस्तमुवानांत्यभागस्तस्मिन तनुवानबरमभागे। कृतौकाः क्रियतेम्म कृत कनमोको येन सः तथोक्ता विहिननिलयः । अस्तकर्मा अस्यतिस्म अनानि अस्तानि कर्माणि यस्य सः व्यपगतसकलकर्मविशुद्धः अपगतद्रव्यभारकर्मत्यादिविशुद्धः 1 किंचिन्यूनोत्यदेहप्रमिनिजननिजाफारभाक् किंचित न्यून; किंचिल्यूनः अंत्यश्चासौ देहच अंत्यदेहः तस्य प्रमिनिरंत्यवहममितिः किचिन्न्प्यूनांत्यदेहामिनिर्यस्य सः तथोक्तः निजश्नासानाकारश्न तथोक्तः धनश्वासौ निजाकारश्य तथोक्त: किंचिन्यूनात्यदेहप्रमितिश्चासौ घननिजाकारश्च तथोक्तः तं भजनिस्म नथोक्तः किंचिन्मान्यूनचरमदेहप्रमाणधनस्वाभाविकाकृतियुक्तः । अमिमग्नुस्खापादक: अमितानि व नानि सुखानि च अमितसुखानि तान्यापादयंतीत्यमितसुदापादकास्तैः अनंतसुखापादकः । क्षायिकैः क्षयेण माता क्षायिकास्तैः कर्मणां क्षयेण जानः। म्यैः स्वकीयैः। सम्यक वायः सम्यक्त बमाद्य Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ दशमः सर्गः । येषां ते तैः सम्यक्त्वादिभिः। अष्टभिः अष्टगुणैः। उपेतः उपैतिस्म तथोक्तः युक्तः। सः सिद्धः। अयनि सर्वोत्कर्षण वर्तते ॥६॥ भा० अ०-ईपत्याग्भार नाम वाले आठवें भूप्रदेशमें, तनुधातवलयके अन्त्यभागमें, मध्यलोक-प्रमित सिद्धक्षेत्रमें विराजमान होते हुए अन्तिम शरीरसे कुछ कम तथा घनस्वभावाकारवाले और द्रव्यकर्म से रहित, अनन्त सुखजनक क्षायिक सम्यक्तवादि अष्टगुणों से युक्त तथा द्रव्य और भावकर्मसे रहित होकर विजयशाली होते थे ५६१ ॥ प्रास्ते तव स निर्वतः सुखसुधां चर्बन सदात्यंतिकीम् । स्वस्थः संमृतिनाटकं स्फुटरसं पश्यन्विभावादिभिः ॥ संपन्नैः सकलगुणैरनुपमैः स्थानं सिताम्राकृतेः । कीर्तरात्मसमैः सहैव पुरुषैः शुद्धैश्चः बुद्धैः परम् ॥६२॥ आस्त इत्यादि। सः सिद्धः सभापतिश्च । निवृतः मुक्तः । व्यापारांतराभिव सश्च । आत्यंनिकी अत्यंते भधा आत्यंतिकी तो अनंतकालभाविनी न । सुखसुधां सुखमेव सुधा सुखसुधा तां सुखामृतं । सहा सर्वस्मिन् काले । चर्वन अनुभवन् । स्वस्थ कर्मरहितः स्वरूपे खिनः निरातंकश्च सन् । विभावादिभिः विभाव आदिर्येषां ते विभावादयः तः विभावानुभावप्रमुखः। स्फुटरसं स्फुटा रसा यस्मिन् तं प्रादुर्भूतस्यायिभावरूप'गाराविरसयुक्त । संसृतिनाटकं संसृतेर्नाटकस्त संसारनर्तनं । प्रेक्षकजनानामिव मुक्तात्मनां सांद्रानंदविधानत्वात्संसृतिनाटकमभिनेयनाट्यविशेष इत्र । पश्यन् पश्यतीनि पश्यन् प्रेक्षमाणः । अनुपमैः न विद्यते उपमा येषां ते अनुपमास्तैः उपमारहितैः। सकलैः सर्वैः । गुण: सम्यक्त वादिगुणैः त्यागविशेषज्ञताद्यश्च संपन्नः समृद्धः । सिताम्राकृतेः सिताभ्रस्याकृतिर्यस्यास्सा सिताम्राकृतिः तस्याः कराकारायाः "सिताभ्रो हिमवालुका"इत्यमरः कीर्तः स्तवनस्य यशसश्च । स्थानं आस्पदं भूतस्सन् । आत्मसमैः आत्मनः समा आत्मसमास्तैः नितत्वादिभिः स्वसमानैः । शुद्धश्व शुध्यतेस्म शुद्धा: ३ः कर्मविरहितः उपधाशुद्धश्च । बुद्धः बुध्यते स्म बुद्धाः तैः । केवलज्ञानिभिः लौकिकन्नानिभिश्च ! पुरूपैः परमात्मभिरमात्यादिभिश्च । सहैव साकमेव । तत्र सिद्धक्षेत्रे । पर अत्यंत । आस्ते वर्तते आस उपवेशने ॥६२॥ ___ भा० अ०–बह सिल अथवा नाट्याधिपति. मुक्त वा कार्यान्तरसे रहित होकर उस सिद्ध क्षेत्रमें अनन्त कालभाधिनी मुक्तिरूपिणी सुधाका सदैव अनुभव करते हुए आत्मसुखमैं लीन वा निराफुल विभाव अनुभाव तथा सञ्चारी भावादिको से व्यक्त रसवाले संसाररूपी नाटक को दर्शक के समान देखते हुए, सभी अनुपम सम्यक्तदादि गुणोंसे सम्पन्न तथा स्वच्छ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यम् । २.१६ स्तुति और कीर्त्ति के एकमात्र पात्र, अपने समान कर्मरहित केवल- ज्ञानी परमात्माओके साथ बड़े हर्षसे रहने लगे ॥ ६२ ॥ श्रदासः सभक्तयुद्धसितमवसितं भूधरे तत्र कृत्वा | कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुल महितः प्रापदाप्मीयलोकम् ॥ अर्हद्दासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञ | गुम्फित्वा काव्यबन्धं कविकुलमहितः प्रापटुः प्रमोदम्॥ ६३ ॥ I I i अर्हहास इत्यादि । सुरकुलमहितः सुराणां कुलं सुरलं तेन महितः देवसमूहपूजितः । सः अर्हद्दासः भर्हतो दासः तथोक्तः जिनदासो देवेंद्रः । तत्र तस्मिन् । भूधरे संमेदपर्वते । तीर्थकर्तुः तीर्थ कर्ता तथोक्तः तस्य नोर्थकरस्य । भत्क्युलसितं भक्त्या उल्लसितं तथोक्त' भक्तिविराजितं । पापरिकल्याणं । कृत्वा विधाय । आत्मीयलोकं आत्मन अयमात्मीयः स वासौ लोकश्च तथोकस्तं । प्रापत् भागच्छत आप्ल व्याप्तौ लुङ् "सर्तिशास्ति" इत्यादिना अङ् । कविकुलमहितः कवीनां कुलं कविकुलं तेन महितः त्रिद्वत्समूदपूजितः । अयं एवः । अर्हहासः अर्हदास कवीश्वरः । गौतमस्वाम्युपाह taarat स्वामी व गौतम स्वामी तेन उपज्ञन्तथोक्तन्तत् गौतमस्वामिना प्रोक्तं । जिनपतिचरितं जिनानां पतिर्जिन पतिः जिनपतेश्चरितं तथोक्त' जिनेश्वर चरितं । इत्थं अनेन प्रकारेण | काव्यबंध कवेर्भावः कृत्यधा काव्यं तस्य वस्तं काव्यप्रयेधं । गुंफित्वा गुंफनं पूर्व० पूरयित्वा । उच्च भृशं । प्रमोदं परमसंतोत्रं । प्रापत् अगमत् ॥६३॥ भा० अ० – देवताओंसे पूजित तथा अद्भगवान् के वास इन्द्रदेव उस सम्मेद पर्वतपर तीर्थङ्कर भगवान सुनिसुव्रतनाथ का मोक्ष कल्याणका सम्पन्नकर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुल- पूजित अर्हइस कवि ने भी गौतमस्वामी से कहे गये श्रीजिनेन्द्र aft को काव्यरूप में अधितकर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की ॥ ६३ ॥ धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् । त्यक्त्वा श्रांततरचिराय कथमध्यासाद्य कालादसुम ॥ सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात् । पायं पायमितश्रमः सुखपदं दासो भवाम्यर्हतः ॥ ६४॥ धावन्नित्यादि । कापथसंभृते कुत्सिताः पन्थानः कापथाः “पथ्यक्षयोः” इति कादेशः "पुः पथ्यपोऽत्" इत्यत्प्रत्ययः कापथः संभूतः तथोक्तः तस्मिन् मिथ्या मार्गे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मुनिसुव्रतकाव्यम् । २२० गुणमार्गे चा संकीर्णे । भववने भव एव वतन संसार पर केस एकं । सन्मार्ग संचालौ मार्गका सन्मार्गः तं रत्नत्रयमार्ग यहा सद्भिर्मृग्यते संसारसमुदोत्तारणार्थमन्विष्यत इति सन्मार्ग आप्तागमादिप्रवाहं समीचीनमार्ग घा । त्यक्त्वा विमुच्य । चिराय बहुकालपर्यंत धावन् धावतीति धावन् । श्रांततरः अत्यंत मायस्थः । कालात् काललब्धिवशात् । अमुं इमं सन्मार्ग । कथमपि केन प्रकारेणापि । आसाद्य आसादनं पूर्व० प्राप्य । जिनवचः क्षीरोदधेः जिनस्य वचस्तदेव क्षीरोदधिस्तथोकस्तस्मात् परमागमक्षीरस मुद्रात् । उदधृतं धियतेस्म तथोक्तन्तत् पुनस्तत् आनीतं । सुखपथं सुखस्य पन्थाः तथोक सुखस्थानं । सद्धर्मामृतं संश्वासौ धर्म सद्धर्मः स एवामृतं पुनस्तत् सद्धर्मसु । आदरात् संतोषात् । पायं पायें पीत्वा पीत्वा । “पूर्वाग्रे प्रथमाभिक्ष्ण्ये खमुञ्” इति खमुञ् प्रत्ययः । इतश्रमः पतिस्म इतः श्रमो यस्मात्सः विगतपरिश्रमः । अर्हतः अर्हतीत्यर्द्दन् तस्य आईत्परमदेवस्य । दासः भृत्यः । भवामि अस्मि । भू सत्तायां लट् ॥६४॥ भा० अ० – मिथ्यात्यमार्ग तथा तृणसङ्कल मार्गमय संसाररूपी वन में चक्कर लगात हुआ रत्रयरूपी मार्ग अथवा समीचीन मार्ग को छोड़कर बहुत काल तक भटकता हुआ अत्यन्त थक कर किसी प्रकार काललब्धि से इस सन्मार्ग को पाकर जिनेन्द्र रूपी क्षीर. समुइसे उद्धृत की गयी कल्याण मार्गमयी सद्धर्मसुधा को पी पीकर परिश्रम राहत होता हुआ मैं अद्भगवान् का दास होता हूं ॥ ६४ ॥ मिथ्यात्वकर्मपटल विरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयाननिदानभृते ॥ श्राशाधरोक्तिल सदंजन संप्रयोगैरच्छीकृते पृथुल सत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥ ६५ ॥ I 1 मिथ्यात्वेत्यादि । मिथ्यात्वकर्मपदः मिध्याभावो मिथ्यात्वं कर्माण्येव पटलानि तथोक्तानि मिथ्यात्वेन जातानि कर्मपटलानि तथोक्तानि तैः अतरषश्रद्धानअनितदर्शनीयतिभिरैः । चिरं बहुकालपर्यंत आवृत्ते. निरुदुधं । कुपथयाननिदानभूते कुत्सितः पंथाः कुपथस्तस्य यानं तथोक्त' कुपथयानन्तस्य निदानं तद्भवतिस्म तथोक्त' तस्मिन् । मे म" यावेकत्वे " इति मयादेशः । द्वशोः द्वष्ट्योः । व्यवहारनिश्चयसम्यक् घयोर्नयनयोश्च । युग्मे युगले | आशाधरोक्तिलसदंजन संप्रयोगेः आशाचरस्योक्तिः आशाधयेक्तिः लसच्च तदंजन लसइंजन आशाघयेक्तिरेव लसदंजनं तथोक्त आशायरो तिलसरंजनस्य संप्रयोगास्तैः आशाधरसूरिवचनविशिष्टांजनसम्यग्व्यापारः । अच्छीकृते प्रागनच्छमिदानीमच्छं क्रियतेस्म मी कृतं तस्मिन् निर्मलीकृते सति । अद्य संप्रति । पृथुससत्पथं संचासौ पंथाश्च सत्यधः Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 दशमः सर्गः। पृथुपचासौ सत्पथश्व लसंश्चासौ सत्पथश्च तथोक्तः सुन्दरमहाजनमार्गस्तं। आश्रितः भानीयतेस्म आश्रित: आसेवितः / अस्मि भवामि / अस भुवि लट् // 65 // मा० अ०—मित्थ्यात्व-कर्मसमूह से अत्यन्त आच्छन्न तथा कुमार्ग-गमनकी कारण. भूत मेरी छोनों आँखों के आशाधर सूरि की उक्ति-रूप अच्छे अंजन के प्रयोगसे स्वच्छ होने पर में ने जिनेन्द्र भगवान् के सत्पथ का आध्रय लिया // 65 // इस्यईहासकृतकाव्यरजस्य टीकायां सुखबोधिन्यां भगवदुभयमुक्तिवर्णनो नाम दशमस्सर्गः। .इति