SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरित नेह-नधनौर नित, परसत सुरस प्रयोर । जयति अपूरब घन कोऊ, ललि नाचत मन मोर ॥ ऐसा पहले श्लोक तथा इस दोहे में कैसा बिम्ब-प्रतिधिम्म भाव है ? भास्सु जो कुछ हो सोफामाद ही हर शिलान् थे ! कभी २ यह बात मेरे मन में आजातो हैं कि कहीं अर्थ के अनर्थ कर डालने के भय से अईहास जीने स्वयं "काव्यरत्न" की टीका रख दी हो। बल्कि इसी लिये दूसरे पद्य में स्विमसितः" आपने लिखा है। तीर्थदर मुनिसुव्रत नाथ के चरितात्मक काव्य को सानोपांग निर्विघ्न सम्पन्न कर देने से आपके मन में आत्म-भक्ति उमड़ आना कोई अस्वाभाविक बात नहीं हैं। अथवा स्वरथिस काव्य की भक्ति भी इस पद का अर्थ हो सकता हैं या स्पेष्ट देव मुनिसुबत नाथ की भी भक्ति सूचित होती है। दूसरी बात यह है कि आपने अपने काव्य-गुरु पण्डित आशा. धरजी का अनुसरण किया हो । क्योंकि आशाधर सूरि ने अपने "सागरधर्मामृत" तथा "मनगारधर्मामृत" की टीका स्वयं ही बनाई है। अतः “यद्यदाचरति श्रेष्ट" के अनुसार आईस्कवि ने भी अपने काव्य की स्वयं टीका बनाकर गुरु मार्गानुसरण का ज्वलन्त उदाहरण उपस्थित किया हो।। - भाशा है कि सहृदय साहित्य-रसिक विज्ञवृन्द टोकाकार के प्रकृत परिचय पाने का प्रयास करेंगे। विनीतहरनाथ द्विवेदी ( काव्य-पुराण तीर्थ)
SR No.090442
Book TitleMunisuvrat Kavya
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorBhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1926
Total Pages231
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy