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________________ [] मुग्धाम्सराः कापि चकार सर्वात्कुलकानिकल धूपचूर्णम् । tereafter faपन्ति हसन्ति कांगरचयस्य बुद्धया || ५ मा स० ३१ लो०| कविता द्वारा प्रशंसा करना आप श्रीयह बात आपके अधोलिखित पद्य से राजा महाराज आदि धन-सम्पन्न मनुष्यों की जिनवाणी का अत्यधिक अपमान समझते थे । प्रकटित होती है। T "सरस्वतीं कल्पलतां स को वा सम्वर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । विमुच्य काञ्जीरतरूपमेषु व्यारोपयेत्शा कृत-नायके बु" ।। १म स० १२ क्लो० ॥ इस श्लोक से आपकी निर्भीकता तथा देवगुरु-शास्त्र-प्रियता प्रतिपद में प्रतीत होती है। आप अपनी कवित्वशक्ति का “दिल्लीश्वरो वा अगदोश्वरो वा" जैसी स्वार्थ सकुल रचना करने में दुरुपयोग नहीं करते थे एवं प्राकृत व्यक्ति की प्रशंसा करने वाले कवियों को आप बड़ी तुच्छ दृष्टि से देखते T : अस्तु 'इस काव्यरत' की एक संस्कृत टीका भी है। टीका बड़ी ही सरल तथा कोश व्याकरण और अलङ्कारादिके दिग्दर्शन तथा प्रमाणों से सम्बलित हैं। हां जहां तहाँ अपेक्ष्य बातें रह गई हैं। दुःख है कि पण्डित-वर्य टीकाकार ने अपना नाम तथा परिचय देने का कष्ट नहीं उठाया। आजकल के जमाने में जब कि दूसरों की कृतियों को हड़पने वाळे तथा इधर उधर कुछ उलट पुलट करके अपना नाम प्रख्यात करने वालों का बाजार गर्म होने अथवा 'कथिरनुहरति च्छायामयं कुकविः पदं चौरः अधिक परस्वद्दत्रै साहसकर्त्रे नमः पित्रे" आदि प्राचीन दृष्टान्त की भरमार होने पर भी इस काव्यरक्ष के टीकाकार का अपना परिचय नहीं देना उनकी निस्सीम निस्वार्थता प्रकटित करता है । I I आप केवल टीकाकार ही नहीं थे प्रत्युत एक सरस प्राञ्जल कवि भी । क्योंकि टीका के प्रारम्भ में जो आपने निम्नलिखित मंगलाचरण- विधायक दो श्लोक लिखे हैं वे बड़े ही सुन्दर : श्रीमर्देवेन्द्रसन्दोहबर्हिणानन्ददायिनम् । सुत्रताम्भूतं नौमि दिव्यश्रव्यनिनादिनम् ॥ तस्य गर्भावतारादिपञ्च कल्याणशंसिनः । काव्यरत्नाख्यकाव्यस्य षये टीकां स्वभक्तिः || 1 अलिखित प्रथम श्लोक पर दृष्टि पड़ते ही मुझे "भारतेन्दु” हिन्दी प्राण बाबू हरि श्री का निम्नलिखित दोहा याद आता है:--
SR No.090442
Book TitleMunisuvrat Kavya
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorBhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1926
Total Pages231
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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