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________________ १२६ षष्ठः सर्गः । भा०1०-सपरिवार चन्द्रमा ने अपने कलङ्क की मुक्ति के लिये नत्र के बहाने से जिनेन्द्र भगवान के चरण की सेवा की। और उस फलक ने भी सजनों (मघवा नक्षत्रो) के साश्रयभूत उस चरण ( अथवा चन्द्रमा ) की "मैं इसे नहीं छोड़ता" इस विचार से नीलम से जड़ी हुई किकिणो के बहाने से सेवा की। अर्थात् सिमेन्द भगवान् के सरणनत्र चन्द्रमा के ऐसा समुज्वल था और नीलम से जड़ी हुई किंकिणी चन्द्रमा के कलंक के समान यो ॥ ३५ ॥ मुहुविलिप्तोऽपि जिनेंद्रगाने शचीशरत्नोज्वलभासि शच्या ॥ सिताविम्राजिपटीरपट्टः स्फुटोऽभवत्केवलसौरभेण ॥३६॥ मुहुरित्यादि । शचोशरतोचलमासि शमशः ईशश्शची शस्तस्य रत्नं तथाक्तं शची. शरतमिध उज्वलाभाः यस्य तत् शमीशरत्नोज्वलभास्तस्मिन् द्रनीलचटुम्बलकांतियुक्त । जिनेद्रगा जिनानामिवस्तस्य गात्र' जिने गात्र तस्मिन् जिनेश्वरशरोरे । शध्या इंद्राण्या। मुरः पुनः। विलिप्तोऽपि पिलिप्यतेस्म विलिप्तोऽपि ! सिताम्रविमा जिपटीरपङ्क: विधाजत इत्येवं शीलो विभ्राती सिताभं कर्पूण विभ्राजी तथोक्तः सितवासाचनश्च सिता. भ्रश्शारदाब स इघ धिभ्राजी तथोक्त इति घा पटीरस्य पङ्कः पटीरपङ्क: सितामधिनाजी चासी पटीरपङ्कश्य तथोक्तः कपूरण विराजमानः श्रीगंधकदमः "सिताम्रो हिमयालुका" इत्यमरः । फेवलसौरभेण सुरभिरेव सौरभ केवलं सौरमं केवलसौरभ वेन फेवलपरिमलेन । स्फुटः प्रध्यक्तः । अभवत् अभूत् । भू सत्तायां लङ् । नतु घनित्यंगवारीत्यतिशयः। अनु. मित्यलंकारः ॥ ३६॥ भा०भ०–इन्द्रनील-मणि की कान्ति से युक्त श्रोजिनेन्द्र-घेछ में इन्द्राणी से चार वार पलित होने पर भी कपूरमय स्वच्छ तथा उज्वल श्रीखण्ड चन्दन केवल सुगन्ध से मालूम पड़ता था न कि अपने रंग से ॥३६ ॥ __ अथाखिलेंद्रः सहितोऽमरेद्रः समर्चनाभिः स्तवनैश्च नाट्यैः॥ समाप्तजन्माभिषवं समग्रं कुशाग्रमेनं पुनरानिनाय ॥ ३७ ॥ मधेत्यादि । अथ अलंकरणानंतर । अखिलेंदः अखिलाश्वते इंद्राश्च अखिलेंद्रातः समस्तेंद्र। सहितः युक्तः । अमरेंद्रः अमराणामिदस्तथोक्तः सौधर्मेन्द्रः । समर्चनामिः प्रजाभिः। स्तवैध स्तोत्र व शस्समुच्चयार्थः । नाट्य : नर्तनः जम्माभिषवं जन्मनोऽभिषवो जन्माभिषवस्त जम्माभिषेक । समग्र सकलं । समाप्य समापन पूर्व पश्चातिक. ञ्जिदिति उमित्या । एन जिनेश । कुशा' राजपुरं। पुनः मुहुः । आनिनाय प्रापयांचकार णी प्रापणे लिट् ॥ ३७॥
SR No.090442
Book TitleMunisuvrat Kavya
Original Sutra AuthorArhaddas
AuthorBhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1926
Total Pages231
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size6 MB
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