Book Title: Gyanarnava Prakaranam Gyanbindu Prakaranam Savivaranam
Author(s): Yashovijay Gani
Publisher: Gulabchandra Devchandra
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020369/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shake A Gyan Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिजि - श्रीजैनग्रन्थप्रकाशकसभाग्रन्थाङ्को ५७- ५८ G आसन्नोपकारिणे श्रीमहावीरस्वामिने नमः ॥ हे नमः ॥ सकललब्धिसमसभीगौतमस्वामिने नमः॥ सर्थतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसमाह-सरिचकचक्रवति-जगदगुरु-तपागच्छाधिपति-प्रौढप्रभावशालि-प्रभूततीर्थोद्वारक-जगतुपति पिदितानेकाम्यमन्दर्भ-मट्टारकाचार्यमहाराजाधिराजश्रीविजयनेभिसूरीश्वरसद्गुरुम्यो नमः॥ निजप्रतिभाषरातसंस्मारितातीतपूर्वथुत केवलिभगवद् न्यायविशारद-न्यायाचार्य-कू लसरस्वती-पूर्वधरासनकालपति-चमत्वारिंशदुत्तरचतुर्दशशतसंख्यमवबिरहामन्यमासादसत्रधार श्रीहरिमद्रमरिपक्वलघुवाधिषाभूति विशदविरुदावलीविभूषित तार्किकशिरोरत्नमहामहोपाध्याय-श्रीयशोविजयगणिप्रणीते 28-58-58-5858-58-58-58-50). ॥सविवरणं श्रीज्ञानार्णवप्रकरणं-श्रीज्ञानबिन्दुप्रकरणञ्च ॥ 70RRESS-505862. सपियरणं धोज्ञानार्ण प्रकरणमिदं दुष्पारखडताचस्वैपुस्तका पत्र प्रकाशतामानीतं, ते चेमे पारणे राजनगरस्थप्रीमग्रन्थप्रकाशकसभाकार्यवाहकमेष्ठि-ईश्वरदासमूलचन्द्रेण भावनगरस्थ श्रीआनन्दनाम्नि मुद्रणालये तरधिपति मेष्ठिगुलाबचन्द्रदेवचन्द्रद्वारा मुद्रपित्या प्रकाशिते । वीर सं. २४०२ प्रतयः ७० सन् १९४६ अक्षयतृतीया विक्रम सं. २०१.. RRRRRRRR- मूल्य कप्यकपचकम् ॥ MSR5R5Rese Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHASHASTRORSPORDAR "गाथानुक्रमणिकाना पत्र पछीनुं अनुसंधान छे ." गाया दिपाद गायांक पत्र पंक्ति गाथाविवाद , गायांक पत्र पंक्ति गायादिपाद गायांक पत्र पंक्ति अणुससमयमणंतरिय ३६८ ७९ २ गतुमसंखेजाओ ३८१ ८१ ३ जइणेण पराधाओ ३९३ ८४ ११ गहणावेक्खाए तओ ३६९ ७९ ३ भिन्नाई हुमयाये ३८२ ८१ ४ | बंधो वि वीससाए ३९४ ८४ १२ निसिरिज्जइ नागहिय ३७० ७९ ४ एगदिसमाइसमये ३९५ ८४ गहणं मोक्खो भासाप्तमयं ३७१ ७९ १६ पठमसमये श्चि यजओ ३८४ ८१ १४ इहा अपोह वीमेसा ३९६ ८५ गहणं मोक्खो भासागहण ३७२७९ १६ । मैथंतरेहि तइये ३८५ ८१ १५ होइ अपोहोऽवाओ ३९७ ८५ गहणनिसम्मपयत्ता ३७३ ७९ २७ | दिसिद्वियस्स पढमो ३८६ ८१ २१ मइपन्नाभिणिबोहिय ३९८८५२ १ तिविहम्मि सरीरभ्मि ३७४८० होह असंखेज्जइभे ३९० ८२ ३ | सव्यं वाभिणिबोहिय ३९९८५ २४ ओरालियबेउब्विय ३७६ ८० ६ कत्थइ देसम्ाहणं ३८८ ८३ ८ उग्गहणमोदो ति य ४०० ८६ सच्चा हिया सतामिह ३७६ ८. चउसमयमझगहणे ३८७ ८३ ११ अवगमणमवाओ त्तिय ४०१ ८६ ५ अर्णाहगया जा तीसु वि३७७ ८० चउसमयविमाहे सति ३८९८३ १३ तं पुण चउन्विहं नेय ४०२ ८६ कइहि समयेहिं लोगो ३७८८० १२ आपूरियम्मि लोगे ३९१८ १३ आएसोत्ति पगारो ४०३ ८६ २७ चउहि समयेहिं लोगो ३७९८० २० भासासमसेढोओ ३५१८३ २५ खेत्तं लोगालोग ४०४ ८६ २८ कोइ मंदपयत्तो ३८०८१ २]न समुग्धायगइये ३९२ ८४ १० आएसोति व सुतं ४०५८७१ RECORRESIDIORGARH Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S andra Acharya ShaliKattassigarsanGyanmantire ॥ सविवरण श्रीज्ञानार्णव तथा ज्ञानबिन्दु अंगे प्रकाशकीय निवेदन । PDAY HOMEPASSIBNepal ज्ञानपीयूषपिपासु सहृदय सौजन्यप्रालि विद्वानोना करकमलमा प्राप्त थतो एक जैन ज्ञानकोषोना भूगर्भमा छुपाइ रहेल अणमोल रत्न तुल्प स्वोपन विवरण समेत श्री ज्ञानार्णव नामनो आ प्रकरणग्रंथ प्रतिभाप्रभावथी पूर्व श्रृतः । केवली भगवंतोनी स्मृति करावनार अनेक लक्ष श्लोकोप्रमाण ग्रंथोना प्रणेता, भवविरहाकविभूषित चौदसो चुम्मालीश ग्रंथप्रासादोना सूत्रधार भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिजीना लघु बांधव तरीके ख्याति पामेला, न्यायविशारद, न्यायाचार्य, कूर्चालसरस्वती विरुदधारक महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजे रचलो छे. ते निर्विवादनिर्णीत सिद्ध वस्तु आ ग्रन्थने मंगलपद्य "ऐन्दवीं तां कलां स्मृत्या, धीमान्यायविशारदः । ज्ञानार्णवसुधास्नानपवित्राः कुरुते गिरः ॥१॥" तथा प्रथम तरंगना अन्तिम प्रशस्तिपद्य 'प्रोदि ये विधेषु जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरु-स्तत्सातीर्थ्यभृतो नयादिविजयप्राज्ञाः श्रयन्ति श्रियम् ॥ तेषां न्यायविशारदेन शिशुना ज्ञानारे निर्मिते, पूर्णों भाष्यवचोमृतैरतितरामायस्तरङ्गोऽभवत् ।।२॥" तथा तेओश्रीना पोताना ज रचेला शास्त्रयातासमुच्चयवृत्ति, स्याद्वादकल्पलता, न्यायालोक, ज्ञानबिन्दु विगरे अनेक ग्रन्थोमां "अधिक मत्कृतज्ञानार्णवादवसंयं" इत्यादि वाक्यो पूर्ण साक्षि आपे छे. वळी प्रायः एकाद ग्रंथ अपवादरूप बाद करी तेोश्रीना सर्व ग्रंथोनो PिROFEBRBREASONSTRESS For Prime And Personal Lise Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकाशकीय ॥ १॥ /www.ketatirth.org प्रारंभ ऐंकार पद (सरस्वती बीजक ) थी थाय छे तेम आ ग्रंथमां देखातुं होवाथी आ ग्रन्थ तेओश्रीनो ज छे ते निःसंदेह छे. अर्णव-समुद्र जेम घणा तरंगोथी विभूषित होय के तेम आ ज्ञानार्णवमां पण ग्रंथकार भगवंते अनेक तरंगोनी रचना करी छे, जो के आज ज्ञानार्णव नामनो एक ग्रंथ दिगम्बरीय साहित्यमा शुभचंद्राचायें रचेलो विद्यमान छे अने ते मुद्रित पण छे, परंतु तेमां कलिकालसर्वज्ञ भगवंत श्रीहेम चंद्रसूरिजीनिर्मित योगशास्त्रना प्रकाशोनी जेम मुख्यतया योगस्वरूप विगेरेनुं निरूपण होवाथी तेने योगार्णव- योगप्रदीप-ध्यानशास्त्र विगेरे नामोथी ओळखाववामां आव्यो छे, ज्यारे आ श्री ज्ञानार्णव प्रकरणनुं ग्रन्थान्तर्गत अभिधेयने अनुसरतुं ज निःशंक यथार्थ नाम राखवामां आन्युं छे. प्रस्तुत ग्रन्थकारे एक ज्ञानबिन्दु नामनुं प्रकरण पण रच्युं छे, जे आ साथै संयुक्त छे तेमां सामान्यतः चार ज्ञानोनुं निरूपण करी मुख्यत्वे केवळ ज्ञान केवळदर्शनना विषयमां सम्मति गाथाओना अनुसारे अभेदपक्षनुं समर्थन कर्या बाद नयभेदथी विचारो आपतां शासनप्रभावक धुरंधर श्री सिद्धसेन दिवाकरजी, श्रीमल्लवादिजी, श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजी ए त्रणेय प्रभावक आचार्य भगवंतोना विचारोनो समन्वय क्यों छे. आ ज्ञानार्णवमां पांचय ज्ञानोनो यथार्थ तस्वरूप केवळ अमृत प्रवाहज भरेलो छे. आ ज्ञानार्णव ग्रंथनुं अगाध गांभीर्य माहात्म्य यथार्थ वर्णवनुं ते विशाल अटवीनो पगथी चाली पार लेवा इच्छता पांगळा माणसनी जेम अमो पामरनी बुद्धिने अगोचर छे. आ ग्रंथनुं अगाध अर्थ गांभीर्य स्वरूप जाणी पोतेज स्वोपज्ञ विवरण रच्युं छे. परम खेदनो विषय तो एटलो ज के आ ग्रंथ वचमां वचमां तेमज अंतभागनां त्रुटितरूपे उपलब्ध थयो छे. साधे परम हर्ष स्थान ए के के हजु पण भव्यजीवोना परमभाग्योदये शासनस्तंभ समा पूर्वना महापुरुषोए रचेला जगदुपकारक शासन For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir निवेदनम् !! ॥ १ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAHARASHISHES | प्रभावक अबाधित ग्रंथो विश्वमा विद्यमान छ जेना आलम्बनथी पुण्यात्माओ आत्मकल्याणना मार्गे प्रवर्ती रह्या छे. हालमां यावदुपलब्ध सविवरण आ ग्रकरण प्रकाशित कयु छे. आ ज्ञानार्णवनो प्रथम तरंग जे पत्र २७ मे पूर्ण थयो छ ते तो श्री संघना प्रबळ पुण्योदये परिपूर्ण अखंड छे, बीजा तरंगना सविवरण १६ पद्यो सुधी पण अखंड छे. सत्तरमा पद्यना विवरणांशथी २४ मा पद्यना विवरणांश सुधी खंडित छे. सहृदय सुज्ञ वांचकोने अर्थानुसंधानमा क्षति न थाय ने खातर तेमना प्रणीत न्यायालोक ग्रंथ विगेरेथी ते भाग संयोजित करी यथामति संगत कयों छे, जे संयोजित पाठ ३५ मा पत्रना वीजा पृष्ठनी पंक्ति अग्यारथी ३७ मा पत्रना प्रथम पृष्ठनी बीजी पंक्ति सुधी [ ] आवा काटखुण कॉसथी चिन्हित करी आ पुस्तकमां छपायेल के तेवीज रीते ज्या ज्यां संयोजित पाठो जोडवामां आव्या छे त्या त्या सर्वत्र ते ज प्रमाणे काटखूण काँसमा दाखल कर्या छे तेज बीजा तरंगना चालीसमा पद्यना चोथा चरणना 'यदृष्टं ए पदथी प्रारंभी बीजो आखोय तरंग अने त्रीजा तरंगना चोथा पद्यना विवरणांश सुधीनो खंडित भाग विशेषावश्यक महाभाष्यनी गाथाओ तथा तेना विवरणानुसारे योजित कयों छे ते भाग ४७ मा पत्रना प्रथम पृष्ठनी आठमी पंक्तिथी प्रारंभी ६० मा पत्रना प्रथम पृष्ठनी बारमी पंक्ति सुधी जोडवामां आव्यो छे. वळी त्रीजा तरंगना २० मा पद्यना विवरणांशथी २९ मी माथाना विवरणांश सुधी खंडित छे ते पण एकोतेरमा पत्रना प्रथम पृष्ठनी चारमी पंक्तिथी प्रारंभी व्याशीमा पत्रना प्रथम पृष्ठनी आठमी पंक्ति सुधी जोडयो छे. |ते पछी तेत्रीशमा पद्यना विवरणांशथी आगळनो सर्व ग्रंथ खंडितज छे ते स्थाने दिशासूचन मात्र पंचाशीमा पत्रना बीजा पृष्ठनी नवमी पंक्तिथी प्रारंभी सत्याशीमा पत्रना प्रथम पृष्ठ संपूर्ण सुधी अर्थसूचक पाठ जोड्यो छे. कुल ६० पृष्ठप्रमाण योजित पाठ छे PRESHPARDA Far Private And Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदनम् ।। प्रकाशकीय आ मुद्रित ८७ पत्र एटले १७४ पृष्ठ प्रमाण ग्रंथ भागमा मत्तिज्ञान प्ररूपणा पण अधूरी रही छे. शेष श्रुतज्ञानादि प्ररूप- ॥२॥ Pणानो तो अध्यक्त गंध पण आवी शक्यो नथी जेथी तेना जिज्ञासुओनी तत्वबोधेच्छा पूर्ण करवाने पूज्पचरण तेश्रोश्रीन प्रणीत ज्ञानार्णव पीयूपना विन्दुतुल्य (आपणा माटे तो ते पण अर्णवांशज छे) ज्ञानबिन्दु नामनुं प्रकरण जोडवामां आव्यु छे. आ बेउ ग्रंथमा आवतो विषय प्रतिपृष्ठ आपेल होवाथी जुदो प्रयास का नथी.मात्र एकज प्रति उपरथी छपाएल आ ग्रन्थोना संशोधनमां पूज्य मुनिमहाराजश्री शिवानन्दविजयजी विगेरेए यथाक्षयोपशम प्रयास कयों छे. शुद्धिपत्रक आप्युं छे. छतां पण छमस्थ जीवोने भूल थवी सुलभज छ, विगरे कारणोथी टाइपोना वर्णोना स्थानथी खसी जवाना कारणथी, इस्व, दीर्घ, इकार, एकार, ऐकार, ओकार, औकार रेफ विगेरेनी उपरनी पांखडीओ खसी जवाथी तेम ज घ+ध,-प+4-4-व-म+म-य-थ विगेरे प्रायः समान आकृतियाळा वर्णोना फेरफार थई जवा विगेरे कारणोथी थएली अशुद्धिओ विद्वान् पुरुषो सुधारी वांचशे अने ते बदल अमोने श्री संघ क्षमा आपशे, तेम श्री श्रमण संघ पासे नम्रभाव क्षमा प्रार्थनापूर्वक आ निवेदन पूर्ण करवामां आवे छे. लि. श्रीसंघचरणकमलोपासिका श्री जैन ग्रंथप्रकाशक सभा-राजनगर (अमदावाद) BREARRIORDARSHRESIDENSHORS SARDHASHRESSURE Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Released ज्ञानार्णववृत्तिगतानां योजितपाठगतानां च साक्ष्योधृतानां भाष्यगाथानामनुक्रमः। (पंक्तिसंख्यांकः द्वयोः पृष्ठयोः सम्मील्य कृतः ॥) गाचादिषाद गायांक पत्र पबित गावाविवाद गायांक पत्र पक्ति गाथादिपाद गाद्यांक पत्र पंक्ति नं सामिकाल कारण ११ १२ जमभिणिबुज्झइतमभिणि ९८६ २२ । कज्जतषा णउ कमसो ११० ९ ९ मइपुच्चं जेण सुर्य ८६ १२१/ सुयकारण जो सो ९९ ६२४ | दरसुअं मइपुव्वं १११ ९ २२ कालविवजयसामि ८७१ २२ जइ सुअजवखणमेयं १०१ ७ १३ दव्वसुझं बुद्धीओ ११२ ९ २५ अंते केवलमुत्तम ८१ भावसुर्य भासासाय १०२ ७ १५ भावसु मइपुर्व ११२ १०२ जीवो अक्सो अस्थध्वा ८९ २ जह सुहम भाविंदिय १०३ ७ १७ सुअविनाणप्पभवं ११३ १० देसि चि इंदियाई ९१ २ १० एवं सवपसंगो १०४ ७ २८ अविसेसिया मइच्चिय ११४ १० उबलद्धा तत्थाया ९२ २ १२ | मइपुर्व सुयमुत्तं १०५ ८२० सदसदविसेसणाओ ११५ ११ इंदियमणोणिमित्तं ९३ २ पूरिज्जइ पाविजइ १०६ ८ २२ भेयकयं च विसेसण ११६ १२ १० एगतेण परोक्ख ९५ ४ ४ नाणाणण्णाणाणिय १०७ र २८ इंदियविभागओ बा ११६ १२ १४ सामिताइविसेसा ९६ ६ ३ इह मद्धिमइसुयाई १०८ ९ १ सोइंदियोवलदी होइ ११७ १२ इंदियमणोनिमितं जे १०. ५ ९| सोऊण जामई इमे १०९. ९ । (पूर्वगत गाथा) ARRASRASHROORORROROR Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra भाष्य एतद्ग्रन्थ । स्थविशेषावश्यक SAKAL गाथानुक्रमः RAMASSADORE सो ओवलद्धि नइ सुर्य ११८ १२ २४ जे सुभबुद्धिद्दिदु १२९१५ २१ । कत्तो एत्तियभेत्ता १.१८ | सोइंदिभोबलद्धी चेव १२२ १३ १ | इयरत्थवि होज सुअं १२८ १६ । | पण्णवणिज्जा भावा १४१ १८ १६ के ई बिंतस्स सुयं ११९ १३ इयरत्थवि भावसुये १३० १६ ४ जं चोद्दसपुब्वधरा १४२ १८ २५ किंवा नाणेहिगये १२० १३ १० सह उबलद्धीए वा १५११६ ५ अक्खरलंभेण समा १४३ १८ भणमओ सुणओ व सुअं १२१ १३ ११ । केइ बुद्धिहिढे १३२ १६ १७ | जे अक्खराणुसारेण १४४ १९ १ तु समुच्चयवयणाओ १२३ १३ २६ | किं सद्दो मइरुभयं १३२ १६ २४ | केइ अ भासेज्जता १४५१९१२ पत्ताइगय सुयका १२४ १४ ३ | सहो ता दव्वसुअं १३३ १६ २५ | किह मइसअनाणविउ १४६ १९ १२ भावसुअमक्खराणं १२९ १४ १३ भासापरिणइकाले १३४ १५ १ सामन्ना वा बुद्धो १४७ १९ २४ जइ सुअमक्खरकाभो १२५ १४ १६ | इयरस्थ वि मइनाणे १३६ १७ ११ । मइसहियं भावसुदं १४८ १९ २५ सो वि हु सुअक्खराणं १२६ १५ अहव मइ दव्वसुअ १३६ १७ १७ जे भासद एवं तरं १४९ २० दासु भावसुअं १२७१५ र इयरम्मि वि महनाणे १३७ १७ १९ एवं धणिपरिमाण ११. २. ७ बुद्धिढेि अत्थे १२४ १५ १३ कह महसुओवलद्धा १३८ १८ १० इयरं ति म्इन्नाणं १५१ २०१३ (पूर्वगतगाथा) | तीरंति ण बोत्तं जे १३९ १८ ११ | अभिलप्पाणभिलप्पा १५२२. ARRORESORRORK For Private And Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जं भासह तंपि ओ भन्ने मन्नंति मह भावसुआभावाओ १५३ २० १७ ११४ २२ १४ १११ २२ १६ कप्पेज्ज व सो भाव ११६ २२ २३ असुक्खरपरिणामा १५७ २२ २४ इह जेणाहिगओ १५८ २२ णय दव्वभावमेत्तेवि ११८ २३ मह वग्गा सुबत्तण ११९ ३३ अह उवयारो कीरइ १६० २३ भावसुवं तेण मह १६१ २३ भन्ने अणक्खरक्खर १६२ २३ २५ जइ मरणक्खरश्चिय १६३२३ २७ सुयनिस्सियघयणाओ १६४ २४ ५ ७ ९ 4 २६ ४ www.kurth.org अह सुयओ वि विवेगं १६९२४ मइकाले वि भइ सुयं १६६ २४ अइ सुयनिस्सियमक्खर १६७२४ भरनित्थरणसमत्या ९४३ २४ जइसे सुयेण ण तओ १६८ २१ पुवि सुपरिकम्मि १६९ २५ उभयं भावक्खर भो १७० २५ १७१ २६ १६ ३ १७२ २६ ५ १७३ २६ ६ १७४ २६ २७ १७१ २६ २८ १७६ २७ २४ स परपश्चायणओ सुयकारणं ति सद्दो न परपवोहाई दव्वसुभयसाहारण सा वा सद्दत्यो थिय मसुमनाण विसेसो For Private And Personal Use Only २० २२ २४ २८ ५ ७ उग्गहवाओ य अस्थाणं उग्गहणं सामण्णत्थावग्गहण सामनविसेसस्स वि हा संसयमेत्तं जमणे गत्यालंबण तं चिय सत्हेऊ केइ तयन्नविसेसा १८५२९ ३ कासह तयन्नवइरेग १८६ ३० सव्यो वि य सोवाओ १८७ ३० काणुवओगंमि धिई १८८ ३० न साऽवाय महिया १८९ ३१ तं इच्छंतरस तु १९० ३१ १२ 8 २८ ९ ७ १७८ २८ १७९ २८ १५ १८० २८ १७ १८१ २८ २५ १८२ २९ २ ५ १८३ २९ १८४ २९ % ६ २७ Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Matavir Jain Arathana Kendra एतद्ग्रन्थ स्थविशेषा भाष्यमाधानुक्रम वश्यक ॥४॥ KERASHRESS तुझं बहुअरभेया १९१ ३१ १५ | नयणमणोदजिदिय २०४ ३३ १४ | सव्वगमो ति य वुद्धी २१६ ३७ १५ | ता भिन्नलवखणा बिहु१९२ ३१ १७ जुञ्जइ पत्तविसयया २०५ ३३ २३ सव्यासव्वग्गहण २१६ ३९ ९ तत्थोग्गहो दुरूवो १९३ ३१ पाथंति सदगंधा २०५ ३३ २५ दमणो विन्नाया २१७ ४२ ७ बंजिब्बइ जेणत्यो १९४ ३२ जंते पोग्गलमइया २०६ ३४ २ करणत्तणओ तणुसं २१८ ४२ अन्नाणं सो बहिरा १९५ ३२ ६ धूमोब्ब संहरणओ २०७ ३४ २। नजइ उवघाओ से २१९ ४२ तकासंमि विनाण १९६ ३२ ९ गेइंति पत्तमत्थं २०८ ३४ २६ । | जइ दब्वमणोतिबलो २२० १२ १८ जइ वन्नाणमसंखेज २०० ३२ लोयणमपत्तविसय २.९३५ ८ नीउं आगरिसिउ बा २२२ ४२ २२ अं सम्पहा ण वीसुं २०१ ३२ डझेल पाविउ रवि २१० ३५ ९ मो पुग सयमुवधायण २३३ ४२ समुदाये जइ नाणं २०२ ३२ गंतु ण रूवदेसं २११ ३५ १. इट्ठाणिट्टाहार २२१ ४३ ८ तंतू पडोक्यारी .२०३ ३२ नइ पत्तं गेण्हेजउ २१२ ३६ १५ सिमिणो ण तहारूवो २२४ ४३ कहमव्यत्तं नाणं १९७ ३३ गंतु नेएण मणो २१३ ३७ ४ इह पासुको पेच्छइ २२५ ४३ लक्खिाइ त सिमिणा १९८ ३३ नाणुग्गहोवघाया २१४ ३७ ६ दीसन्ति कासइ फुडं २२६ ४४ जगतो विन माणइ १९९ ३३ दबं भावमणो वा २१५ ३७ ११ [न सिमिणबिन्नाणाओ २२७ ४४ RRRRROR For Private And Personal use only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra -৬AR २० सिमिणे वि सुरयसंगम २२८ ४४ सो अञ्झवसाणकओ २२९ ४४२१ सुरयपडिवत्ति रइसुह २३० ४४ १२ न सिमिणगमवि कोइ २२१४४ पुण विनाणं तप्फलं २३२ ४४ देहप्फुरणं सहसोइयं च २३३ ४४ सिमिणमिव मन्नमाणस्स २३४४५ पोग्गलमोअगदन्ते २३१ ४७ जह देहत्थं चक्खु २३५ ४७ विसयम संपत्तरस वि २३७ ४७ समयेमु मणोव्वाई २३८ ४७ देहावणिग्गयस्स वि २३९ ४७ गिज्झरस भणाणं २४० ४८ २२ २९ ६ १ ५ १९ २० २७ ३ www.khatirth.org सचिंत होन २४१ ४८ समये समये गिन्हइ २४२ ४८ होइ मणोवावारो २४३ ४८ नेयाउ श्चिय जं सो २४४ ४९ जह नयणिदियमपत्त २४५ ४९ विषयपरिमाणमनियय २४६ ४९ अत्थगहणेसु मुज्झइ २४७ १०. कम्मोदयओ व सह । २४८ ९० सामत्याभावाओ तोए ण मग पिव २४९ ५० २५० ५० २५१ ५१ द भाणं पूरिय सामन्नमणिदेसं सदेति भइ बत्ता २५२ ५१ २५१ ११ For Private And Personal Use Only १३ २१ २३ १२ २१ २६ ६ ११ १९ २८ ५ ११ २० सहबुद्धिमेत्तय थोत्रमियं नावाओ २५४ ५२ २५५ ५२ इय सुवणादि काले २५६ १२ किं सो किमसो २१७ ५२ किं तं पु गहि १ १३ १८ अहव मइव्वं चिय २६३ १४ अत्थि तयं अव्वत्तं २६४ ५४ अत्योति बिसयगहणं २६५ ५४ जे जत्थोग्गहकाले २६६ ५४ २४ २९८ १३ १९ अत्थोग्गहओ पुब्वं २५९ १३ जइ सोत्ति न गहियं २६० ६३ सव्वत्थ देसयतो २६१ ५३ अहसुए चिय भणियं २६२ ५३ २४ २० १ ६ 6. १३ २० Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra भाष्यगाथानुक्रमः॥ एतद्ग्रन्थस्थविशेषावश्यक BAPSARASADAR सामण्णतयण्णविसे २६७ १४ २४ । खिप्पेयराइभेओ२८० १७ १६। थाणुपुरिसाइकठु २९३ ६२ १५ अण्णे सामण्णगह २६८ ५५ स किमोग्गहोत्ति भण्णइ २८१ ९७ २७ | एवं चिय सिमिणाइसु २९४ ६३ १३ तदवत्थमेव तं पुव्व २६९११ ५ | सामण्णमेत्तगहणं २८२ १८ ११ | उकमोऽइकमभो २९५ ६३ ११। अत्थोग्गहो न समयं २७० ११ ११ । सो पुणरीहावाया २८३ १८ १२ ईहिजडू णागहियं २९६ ६३ १३ एगो वाऽवाओ चिय २७१ ११ १२ | तत्तोणतरमोहा २८४ १८ १३ | एत्तो थिय ते सम्वे २९७ ६३ १५ सामण्णं च विसेसो २७२ ५५ १३ | सम्वत्येहाबाया २८५ १८ २३ | अब्भत्थेवाओ चिय २९८ ६३ १८ केइदिहालोयणपुब २७३ ६६ २ तरतमजोगाभावे २८६ ५९ १ उप्पलदलसयवेहे व्व २९९ ६४ तं बंजणोग्गहाओ २७४ १६ ९ | सहोत्ति य सुयभणिय २८७ ५९ | सोइंदियाइभेएण ३.०६४ अत्थोग्गहो विवं २७१ ५६ १५ खिप्पेयराइभेओ २८८ ५९ ८ अठ्ठावीसइभेयं एवं ३०१ ६४ तं च समालोयणम २७६ ५६ २१ इय सामण्णम्गहणा २८९ ५९ २० केइत्तु बंजणोम्गह ३.१ ६४ आलोयणत्ति नाम २७७ ५६ २६ महुराइगुणत्तणओ २९० ६. १ अस्सुयणिस्सियभेयं ३०२ ६४ | गहियं व होउ तहियं २७८ ५७ ३ वयणतरं तयस्था २९१ ६. ६ चउवइरित्ताभावा ३०३ ६४ २२ अत्थानग्गहसमये २७९५७ ७ | सेसेसु वि इवाइसु २९२ ६२ ११ किह पडिकुकुडहीणो ३०४ ६४ २४ POROADIEOPOROSSIPUR ॥५॥ For Private And Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R Shindra Acharya ShalkalasssagarmanGyanmantire PHOTORRHO जह उम्गहाइसामा २.५ ६५ २|इहवत्युमत्यवयणा ३१६६८ ११ | विवरीयवत्युगहणे ३३० ७१ र अठ्ठावीसहभेयं सुय ३०६ ६५ अहवा ण सव्वधम्मा ३१७६८ १२ | मइ सो वि तस्स धम्मो ३३१ ७१ १९ जं बहुबहुविहखिप्पा ३०७ ६५ १८ जड़ एवं तेण तुह ३१८६८ १९ जोगगाजोगविसेस ३३२ ७१ २. नाणासद्दसमूह ३०८ ६६ १५ एग जाणं सव्व ३२०६९ १ काले सिक्खइ नाणं (कृत्ति) १७१ खिप्पमचिरेण तं चिय ३०९ ६६ जे संसयाइगम्मा ३२१ ६९ १२ काले य भत्तपा २७१ २५ एत्तो च्चिय पढिववर्ख ३१० ६६ पज्जायमासयन्तो ३२२ ६९ १३ एवं समायरन्तो ३ ७१ २५ | निस्सिये विसेसो वा ३१० ६६ २० निण्णयकाले विजओ १२३ ६९ १८ सयलसुरासुरपणमिय , ४ ७१ एवं बज्झन्भंतर ३११६७ कट्ठयरं वन्नाणं ३२४ ६९ २० | सत्तटुभवाहण ,१७१ इह संसयादणंत ३१२६७ १. अहवा जहिंदनाणो ३२५ ७० १५ तत्थ य अरजम्मणमरण,, ६ ७१ नणु संदि संसय ३१३६७११ तुल्लमिणं मिच्छस्स वि ३२६ ७. १९ उग्गहो एक सभयं ३३३ ७२ इह सज्झमोमाहाइ ३१४ ६७ २३ | निण्णओवओगे वि ३२७ ७. २. अत्थोग्गहो जहन्नो ३३४ ७२ तहविणाम अन्भुव ३१४ ६८१. अहवा नह सुयनाणा ३२८ ७. २८ सोत्ताइणं पत्ताइ ३३५ ७२ वत्थुस्स देसगमग ३१५ ६८ १० एसा सम्माणुगया ३२९ १ ३ पुढे सुणेइ सई ३३६ १२ ODAEBOB OPERABARI For Private And Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतद्ग्रन्थस्थविशेषावश्यक २१ on, BAEBARRORRORSCRE पुढे रेणुं व तणुंमि ३३७ ७२ एगबीस खलु लक्खा ,२७४ १९| गिण्हइ य काइएणं ३५५ ७६ ११ मायगाथाबहुमूहुमभावुगाइ ३३८ ७२ इति नयणविसयमाणं , ३ ४ २० गिपिहज काइएणं ३९६ ७६ नुक्रमः ॥ फरिसागातरमत्त २३९ ७२ लक्खेहिं एकवीसाए ३४५ ४ २६ बाया न जीवनोगो ३५७ ७६ जेणं नया मणूमा (टोका)१ ०३ नरणिदियस्स तम्हा ३४६ ७४ २७ मह सो तणुसंरंभो ३५८ ७६ परमाणू तसरेणू , २ ७३ ६ जह सुत्ते भणियं १(टो०) ७५ ५ किं पुण तणुसरंभेण ३५९ ७७ उस्सेगुलमे , ३ ७३ सुत्ताभिप्पाओऽयं ३४७ ७५ ७ तणुजोगो चिय मणवइ ३६० ७७ भायंगुलेण बन्धु, ४ ७३ ८ बारसहिंतो सोत्तं ३१८ ७५ १४ तुळे तणुनोगत्ते २६१ ७७ अप्पत्तकारि नयणं १४० ७३ दब्याणमंदपरिणा ३४९ ७५ १९ कायकिरियाइरित ३६२ ७७ नणु भणियमुस्सयंगुल ३४१ ७३ १७ संखेजइभागाओ ३५० ७५ २. अहवा तणुनोगाहिय ३६३ ७८ जं तेण पंचधणुसय १४२ ७३ भासासमसेडोओ ३५१ ७६ ७ तह तणुवावाराहिय ३६१ ७८ इदियमाणे वि तय ३४३ ७४ सेढी पएसपंतो ३५२ .६ ९ जह गामाओ गामो ३६५ ८ तणुमाण चिय तेणं ३४४ ७४ १२ भासासमसेठिओ ३५३ ७६ ९ केइ एगतरिय २६६ ८ १५ सीयालीससहस्सा (टोका)१७४ १६ | अणुसेढिगमणामओ ३५४ ७६ १२ | आह सुये चियनिसिरइ ३६७ ७९ २६॥ RoROPERAऊ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra HAR sales ~: શ્રી ૧ હિરભદ્રાષ્ટકત્તિ ૩૩૧, સવાદ-પાપુક્તવૃત્તિ ઈંગપેપર ૩-૦ બેઝપેપર ૨૮ 210 ૩-૦ =x -૧૨ ૫-૦ ૨ સમામ પ્રકરણ ૩ હરિભદ્રસૂરિમન્થમ ગ્રહ જેજ્જ હરિભદ્રાષ્ટક પ્રકરણ [મૂલ] પ સ્યાદIહસ્ય પત્ર સટીક ન્યાયાલા સટીક હું ૭ સહસ્રતાપવિવરણ ૮ સમુદ્ધાતતવ હું જૈન ન્યાય મુક્તાવલી ટીક સમુ. ભેગા ' "1 ૧૦ નવ તત્વ વિસ્તરાય ૧૧ દંડક વિસ્તા જૈન ગ્રન્થ પ્રકાશક સભા પ્રકાશિત ગ્રન્થા :૧૨ હૈધાતુમાલા ૧૩ જૈનતવ પરીક્ષા ૧૪ રોાત્રભાનુ ૨-૮ ૨-૦ ૭=૪ ૭૧ થી ૩૪ ભાષારહસ્ય પ્રકરણ સટીક, રાત્રિશિકા વ્યાખ્યા, તત્ત્વવિવેકવિવરણ સમેતકૂષદ્રષ્ટાન્તવિશદ કરણ પ્રકરણ, નિશાભકતે સ્વપના દૂધનવિચાર ૫ જ્ઞાનાણૢવ પ્રકરણ મૂલ ૬ થી ૪૬ શ્રી યશે વિજયવાચક ગ્રન્થસ’ગ્રહ, પાતંજલયેાગદશનવિવરણ, નયરહસ્ય, સપ્તભ’ગીનયનપ્રદીપાદિ ૧૧ પ્રથા ૨-૦ ફુલ વિવરણ વ`પરીક્ષા ટિપ્પણુયુક્ત ૪૪૮ અનેકાન્તવ્યવસ્થા પ્રકરણ જૈન તર્ક ૪-૦ ---૪૯ થી પર. ઉપાદાદિસિદ્ધિવિવરણ ૧૧૯ સમ્મતિ પ્રારણ સટીક વાદમાળા જ ગ્રન્થ અમા • પ્રથમ વિભાગ ૧-૦૦ યાગયાદિવસ-પાકારાદિ− ૫૩ જમતુવ મીમાંસા ૧-૪, ૫૫ પારમય વ્યાખ્યાનમાલા બેઢ,૫૬ વૃદ્ધિનેમિ જૈન સ્તવનાદિ સ’ગ્રહ ૦-૮, ૫૭-૫૮ જ્ઞાનાણુંવ સટી*માગ પરિશુદ્ધિ-તિલક્ષચુસસુયઃ સંસ્કૃત છાયા સહિત ૦-૮ ૬૧ ધૂર્તાખ્યાન સંસ્કૃત ૦-૧૨ પ્રાપ્તિસ્થાન:-રોઝ ઇશ્વરદાસ મૂલચ'દ કીભટ્ટની પોળ-અમદાવાદ. ૨૪-૨૫ યોગદિષ્ટ રાખનુટી ૨૧૨૫-૧૫-૩૫૦ ગાથાનાં વિગેરે સ્તવના, દ્રષ્મગુપર્યાયરાસ, સમ્યકત્વ ચાગદૃષ્ટિ, સમમઍવિ સઝાય, સ્તવન વિચારાઈ સયત્રશ્રેણિયંત્રાદિ વિવિધ સવ્રત ૦–૮ ૨૭ પારમ" સ્વાધ્યાય સંગ્રહ [મુક] ૦-૬ અન્ય સ'મહ ૧૪ ૩૮ પારમય સ્વાધ્યાય હું ગ્રન્થા પત્રકારે ટ 1000 -t ૧-૪ 3-0 ૧-૨ -૧૨ ૫૪ ત્રિમાયુકત મસૂદૂન જ્ઞાનબિન્દુય (૨) ૫-૦, ૫૯-૬૦ www.krintirth.tra - For Private And Personal Use Only ૪-૦ = - ૫-૦ Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shatkailassicasam-Gyanmanttir स्थाद्वादमहात्म्य पघासमाजलि WEREGARKAAREEne ॥ स्याद्वादकल्पलतान्तर्गतस्याद्वादमाहात्म्यतपद्यकुसुमाञ्जलिः॥ व्यालाचेद् गरुडं प्रसपिंगरलज्वाला जयेयुर्जबाद, गृहीयुरिदाश्च यद्यतिहठात् कण्ठेन कण्ठीरवम् । सूरं चेत् तिमिरोस्कराः स्थगयितुं व्यापारयेयुर्बलं बघ्नीयुर्चत दुर्नयाः प्रसृमराः स्याद्वादविद्यां तदा ॥१॥ नयाः परेषां पृथगेकदेशा, क्लेशाय नेवाईतशासनस्य । सप्तार्चिषः कि प्रसृताः स्फुलिका, भवन्ति तस्यैव पराभवाय ॥२॥ . एक छेकधिया न गम्यत् इह न्यायेषु बाह्येषु यो, देशप्रेक्षिषु यच कश्चन रसः स्याद्वादविद्याश्रयः । यः प्रोन्मीलितमालतीपरिमलोद्वार समुज्जम्मते, स वैरं पिचुमन्दकन्दनिकरचोदादून मोहावहः ॥३॥ अभ्यास एकः प्रसरद्विवेकः स्याद्वादतत्वस्य परिच्छिदाप्यः । कषोपलाद् नैव परः परस्प निवेदयत्यत्र सुवर्णशुद्धिम् ॥४॥ माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्ष्यमाणाः क्षणं परे लक्षणमस्य किञ्चित् । जानन्ति तानन्तिमदुर्नयोत्था कुवासना द्राक कुटिलीकरोति ।।५।। अतो गुरूणां चरणार्चनेन कुवासनाविनमपास्य शश्वत् । स्याद्वादचिन्तामणिलब्धिलुब्धः प्राक्षः प्रवर्तेत यथोपदेशम् ॥ ६॥ चार्वाकीयमतावकैशिषु फलं नैवास्ति बौद्धोक्तयः, कर्कन्धूपमितास्तु कण्टकशतैरत्यन्तदुःखप्रदाः । उन्मादं दधते रसैः पुनरमी वेदान्तताल द्रमाः, गीर्वाणद्रुम एव(प) तेन सुधिया जैनागमः सेव्यताम् ॥७॥ न काकैश्वावकि सुगततनयैर्नापि शाशकैर्वकैनद्वितज्ञैरपि च महिमा यस्य विदितः। मरालाः सेवन्ते तमिह समयं जैनयतयः, सरोज स्वाद्वादप्रकरमकरन्दं कृतधियः । ॥८॥ कचिद् भेदच्छेदः क्वचिदपि हताऽभेदरचना क्वचिद् नात्मख्यातिः कचिदपि कृपास्फातिविरहाः। कलकानां शङ्का न परसमये कुत्र १ तदहो! श्रिता यत् स्याद्वादं सुकृतपरिणामः स विपुलः । ॥९॥ ॥ ७ ॥ Far Private And Personal use only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra /www.khatirth.org ॥ ॐ अहँ नमः ॥ H अनन्तलब्धिनिधानाय सकलविघ्नविच्छिदे श्रीगौतमस्वामिने नमो नमः ॥ सर्वतन्त्र स्वतन्त्र - शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवर्ति- जगद्गुरु-तपागच्छाधिपति प्रौढप्रभावशालि प्रभूततीर्थोद्धारकमट्टारक- आचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद् विजयने मिसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमो नमः ॥ प्रौढप्रतिभावदातसंस्मारितातीतपूर्व श्रुतकेवलिभगवद्-न्यायविशारद - न्यायाचार्य-कूर्चालसरस्वतीपूर्वघरनिकटकालवर्तिश्रीहरिभद्रवरिपुङ्गवलघुवान्धवप्रभृत्यनेकविशदावरुदावलीविभूषित महामहोपाध्याय–श्रीयशोविजयगणिसन्दृब्धं स्वोपज्ञविवरणसमलङ्कृतम् ॥ श्रीज्ञानार्णवप्रकरणम् ॥ ऐन्दवीं तां कलां स्मृत्वा, घीमाश्यायविशारदः ॥ ज्ञानार्णवसुधास्नान - पवित्राः कुरुते गिरः ॥ १ ॥ स्पष्टम् ॥ १ ॥ तत्र पूर्व ज्ञानानि निरूपयितुं तद्विभागमाह १. ज्ञानं पञ्चविधं प्रोक्तं, मंतिः श्रुतमथावधिः ॥ मनःपर्यवसंज्ञं च केवलं चेति नामतः ॥ २ ॥ अत्र स्वाम्यादिनिरूपणसाम्यात् तद्भाव एव शेषज्ञानोत्पत्तेश्चादौ मतिश्रुतयोरुपन्यासः । यदाह भाष्यकारः- “ जं सामिकालकारण-विसयपरोक्खचणेहिं तुलाई । तन्भावे सेसाणि य, तेणाईए महसुआई ।। ८५ ।। ति " [ यत्स्वामिकालकारण For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir मङ्गलाचरणम् मतिश्रुता वधिमनापर्य वकेवलमेदेन ज्ञानस्य पक्षविधत्वं मत्ति श्रुतयोरादा वुपन्यासे हेतुकधनं तत्र भाष्य सम्मतिश्र || Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra सक्विरणं 8 श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥ विषयपरोक्षत्वैस्तुल्यानि ॥ तद्भावे शेषाणि च, तेनादौ मतिश्रुते] । अत्र प्राच्यो हेतुरेकत्रोपन्यासेऽन्त्यस्त्वादावुपन्यासे इति ध्येयम् । भाष्यसस्वाम्यादिसाम्यं चैवम् । मतिश्रुतयोः स्वामी तावदेक एव । 'जत्व मइनाणं तत्थ सुअनाणं ।' इति वचनात् ममत्या कालोऽप्यनयो नाजीवापेक्षयानाद्यनन्तः, एकजीवापेक्षया च नैरन्तर्येण सातिरेकषट्पष्टिसागरोपमप्रमाणस्तुल्य एव । कारण मतिश्रुतयोमपीन्द्रियमनःक्षयोपशमादिरूपं द्वयोस्तुल्यम् । सर्वद्रव्यविषयत्व-परनिमित्चत्वाभ्यां विषय-परोक्षत्वयोरपि तुल्यतेति। ततः गाप यासकालेनोक्तरूपेण, विपर्ययेणाज्ञानापत्तिरूपेण, स्वामित्वेन स्वस्वामिनोरभेदाश्रयणादेकस्वामिकत्वेन, लाभेन च युगपत्रयाणा हेत्वादिनिमपि लाभसम्भवेन साधादवधेः ॥ तत छअस्थस्वामिकत्व-पुद्गलमात्रविषयकत्व-क्षायोपशमिकत्वादिसाधान्मन: रूप्प क्रमेपर्यवज्ञानस्य ॥ तत उत्तमयतिस्वामित्वसाम्यादवसान एव लाभाच्चान्ते केवलज्ञानस्योपन्यासः॥ आह च-"मइपुब्वं जेण सुर्य, ॥ण चावधितेणाईए मई, विसिट्ठो वा ॥ मइभेओ चेव सुयं, तो मइसमणंतरं भणियं ॥८६॥ काल-विवजय-सामित्त-लाभसाहम्मओ मनःपर्यववही तत्तो॥ माणसमिचो छउमत्थ-विसय-भावादिसामना ।। ८७॥ अंते केवलमुत्तम-जइसामित्तावसाणलाभाओ ।। एत्थं च केवलानामुमइसुवाई, परोक्खमियरं च पञ्चक्खं ॥८८॥" [मतिपूर्व येन श्रुतं तेनादौ मतिः ॥ विशिष्टो वा मतिभेद एव श्रुतं, ततो मतिसमनन्तरं भणितम् ॥ कालविपर्ययस्वामित्वलामसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः ॥ मानसमित छबस्थविषयभावादिसामान्यात् ॥ वर्शितं, मति द अन्ते केवलमुत्तमयतिस्वामित्वावसानलाभात् ॥ अत्र च मतिश्रुते परोक्षमितरच प्रत्यक्षम् ॥] इदश्च पूर्वानुपूर्व्या निरूपणप्रयो तयोः परो क्षत्वमन्येषां जकेच्छया विषयोपवर्णनं, अन्यथेच्छाविशेषण पश्चानुपूर्व्यादिनापि निरूपणसम्भवादन चान्यथा निरूपणस्यासाम्प्रदायि प्रत्यक्षत्वश्च। कत्वेनानिष्टसाधनत्वान्नान्यादृशेच्छया तदिति ध्येयम् ॥२॥ अथ प्रत्यक्षत्वपराधत्वाभ्यां तद्विलक्षणन्यवस्थामाह ॥१॥ प-यासे बीज For Private And Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Man anda Acharya ShaliKalassingarsandyanimantir सत्यत्यक्ष परोक्षं च, प्रत्यक्षं स्वक्षमात्रजम् ॥ यविन्द्रियोपलब्धिस्त-तन, यत् स्पष्टतैव सा ॥३॥ प्रत्यक्षपरोक्षतद्ज्ञानं द्वेषा,प्रत्यक्षं परोक्षं चेति,तत्राश्नुते च्याप्नोति ज्ञानात्मना सर्वार्थान् , अश्नाति स्वःसमृद्धयादीन्, पालयति मुक्ते IP भेदेन ज्ञानवेति 'उणादिनिपातनाद्' अक्षो जीवस्तं प्रति साक्षादगतमिन्द्रियनिरपेक्षं वर्तते यत् तत्प्रत्यक्षम् । आह च-"जीवो अक्खो अत्यच्या विध्य, व्युवणमाअणमुणनिओ जेण ॥ तं पइ वट्टा नाणं, ज पञ्चक्खं तयं तिविहं ॥८९ ॥ ति॥"[जीवोऽक्षोऽर्थव्यापन-भोजनगुणान्वितो तत्खनुसायेन ॥ तं प्रति वर्तते ज्ञान, यत्प्रत्यक्षं तत्रिविधम् ] । इत्थं चेदं व्युत्पत्चिनिमित्वमेव । नैश्चयिकं प्रवृत्तिनिमिचं तदेव च लक्षणम्, | रेण प्रत्यक्ष'उत्पचाविन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वम् पर्यवस्यति । तेनावच्यादेः क्षयोपशमभावापरकर्मपुद्गलजन्यत्वेऽपि तस्य न क्षतिर्वस्तुतस्त- लक्षणम्,गौखेतोरितिन्यायात्स्वाभिमगुणजन्यत्वमेव तस्य । तेन न वक्ष्यमाणपरोक्षलक्षणातिच्याप्तिरिति । एवं च 'आत्ममात्रजन्यत्वम्' इति तमसम्मताया यथाश्रुतमेव ज्यायः। न च सांव्यवहारिकप्रत्यक्षेऽन्याप्तिस्तस्यालक्ष्यत्वाचत्रोपचारेणैव प्रत्यक्षत्वव्यवहाराद्, न हि वाहीको गोव्य- इन्द्रियोपवहाराद् गौरेवायरिवन्द्रियोपलब्धिःप्रत्यक्षमित्यक्षपादमतानुयायिनःप्रचक्षते तन्न, इन्द्रियाणामचेतनत्वेनोपलब्ध्य- लब्धेः तत्त्वं भावाचद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणमात्मन एव ज्ञातृत्वात् ।। उक्तञ्च-"कोसिंचि इंदिआई, अक्खाई सदुबलद्धि पच्चक्खं तिमोताई खंडितम् जमचेअणाई, जाणंति ण घडो ब्व" ॥९१॥ [केषाश्चिदिन्द्रियाणि, अक्षाणि तदुपलब्धिः प्रत्यक्षम् । तत्र तानि यदचेतनानि, जान एवामीन्द्रिकन्ति न घट इव] 'उवलद्धा तत्थाया, तस्विगमे तदुवलद्धसरणाओ।मेहगवक्खोवरमेवि तदुवलद्धाणुसरियाव।।९२शाति'[उपलब्धा तत्रा जन्यज्ञानत्मा,तद्विगमे तदुपलन्धस्मरणात्।। गेहगवाक्षोपरमेऽपि,तदुपलब्धानुस्मतेव] अथेन्द्रियजन्यज्ञानमेव प्रत्यक्षमिति तदपिन समीचीनम्, त्वस्य च ॥ तस्य परजन्यत्वेनाऽतथात्वात्, न चेन्द्रियजन्यज्ञानत्वमेव प्रत्यक्षत्वं अवध्यादौ तु तदौपचारिकमिति वाच्यम्, लिङ्गाधजन्य For Private And Personal use only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra सविवरण श्रीवाना इन्द्रियमनी जन्यज्ञाने परोक्षत्वेनुमानं दर्शितं, प्रकरणम् ॥ ॥२॥ त्वेन तस्य प्रत्यक्षत्वावश्यकत्वात्प्रत्यक्षपरीक्षातिरिक्तज्ञानस्यालीकत्वाताअपि चेन्द्रियमनोनिमित्रं ज्ञानं परोक्षं संशयविपर्ययानध्यव- सायसम्मवाद्विनिश्चयसम्भवाद्वा सामासानुमानवत्सम्यगनुमानवच्चेति हेतोस्तस्य परोक्षत्वसिद्धौ न प्रत्यक्षत्वम् ॥ आह च"इंदिअमणोणिमित्र, परोक्खमिह संसयादिभावाओ। तकारणं परोक्खं, जहेह साभासमणुमाण।।९३|| ति"[इन्द्रियमनोनिमिर्च,परोक्षमिह संशयादिभावात् । तत्कारणं परोक्षं, यथेह सामासमनुमानम्]। एवं च संशयादिप्रतिवन्धकतावच्छेदकतया सिद्धं प्रत्यक्षत्वमवघ्यादिप्येव व्यवस्थितमिति भावः । ननु तद्वचाज्ञानं प्रति तद्विरुद्धनिश्पत्वेनैव प्रतिवन्धकताऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकैश्वानुमितिरेव प्रतिबद्ध्यते नत्वनुमित्यनन्तरं सन्देह एवाधीयत इति चेत्,न, तथापि साक्षात्कृतेऽर्थे सन्देहसामग्रयाएवानवतारादित्याशय इत्याहुः।। वस्तुतइन्द्रियजन्यज्ञानत्वंनप्रत्यक्षत्वं,तन्मतेज्ञानमात्रस्यमनोरूपन्द्रियजन्यत्वात् नचेन्द्रियत्वेनेन्द्रियजन्यत्वं विवक्षितं इन्द्रियत्वस्य प्रत्यक्षघटितत्वेन तेन रूपेणाहेतुत्वात्पृथिवीत्वादिना साङ्कर्येण तस्याजातित्वादीश्वरनानेऽव्याप्तेश्च,नापिज्ञानाकरणकज्ञानत्वं जन्यप्रत्यक्षस्याऽदृष्टद्वाराऽस्मदादिज्ञानस्येश्वरज्ञानस्य वा जन्यत्वेनाव्याप्तिवारणायादृष्टाद्वारकत्वावशेषेणदानस्याऽऽवश्यकत्वेऽपि निदिध्यासनद्वारा मननजन्ये तत्वज्ञानेऽव्याप्तेः,विजातीयादृष्टद्वारा मननस्य तद्धेतुत्वापेक्षया विजातीयनिदिध्यासनद्वारैव तद्धेतुत्वौचित्यात्, नापि जन्यधीजन्यमात्रवृत्तिजातिशून्यज्ञानत्वं जन्यधीमात्रस्यादृष्टद्वारा जन्यधीजन्यत्वात् ,साक्षातजन्यत्वाविवक्षणेचस्मृतावतिव्याप्तेरहटाद्वारकत्वविशेषणे जन्यपदयात्, अनुमित्यादरप्यदृष्टद्वारा हविविषयकव्याप्तिज्ञानादिजन्यत्वाच्च,अदृष्टव्यापारानिरूपितजन्यधीजन्यतावन्मात्रवृत्तिजातिमत्त्वविवक्षणेऽपि जन्यधीमात्रस्य कालिकेन जन्यधीजन्यत्वात् सामानाधिकरण्यप्रत्यासच्या जन्यत्वविवक्षावश्यकत्वे जन्यपदवैयर्थ्यात् । कितानि लक्षणानीतरमेदोपयोगीनि न तु व्यवहारोपयोगीनि,अयोमयोपयोगिसाक्षात्कारित्वमेव ज्ञानत्वस्व प्रत्यक्षलक्षगत्वेदोषोपवर्शनं,ज्ञानाकरणकज्ञानत्वादीनां प्रत्यक्षब्द _णानां खंडनम् ॥ ॥२॥ & For Private And Personal use only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDUCAMERABOUT तल्लक्षणमस्तु, तच साक्षात्करोमीतिप्रतीतिसिद्धो जातिविशेषो निर्विकल्पकेश्वरज्ञानयोश्च धर्मिग्राहकमानासिद्धं तदिति चेत्, नून | साक्षात्कास्पष्टतैव तत् साक्षात्करोमि स्पष्टमवैमीतिप्रतीत्योरेकाकारत्वात्केवल कपर्धनम्युपगमाद् ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषजन्यतावच्छेद रित्वस्य कत्वेन तत्क्षयजन्यतावच्छेदकत्वेन च स्पष्टताद्वयसिद्धिः । स्पष्टतात्वेनानुगतीकृता च स्पष्टता तल्लक्षणमिति ॥ न च प्रत्यभिज्ञाया स्पष्टतास्वमतिव्याप्तिः, तस्याः केवलेन्द्रियसंस्काराजन्यत्वेन स्मृतिव्यावृत्तपरोक्षधीरूपत्वादिति वाच्यम् , तस्या अस्पष्टत्वादिदन्तोल्लेखमात्रे रूपस्य प्रत्य स्पष्टताया अनियामकत्वात्, उक्तञ्च-" भवति च परोक्षस्यापि साक्षादिवाध्यवसाये प्रत्यक्षसर्वनाम्ना परामर्श इति। " स्पष्टत्वेन क्षलक्षणत्वं तत्प्रतीतिस्तु सन्निहितविषयत्वादिकमवगाहते, यचिन्द्रियजन्यत्वेन तस्याः प्रत्यक्षत्वमेव लाघवादिन्द्रियजन्यत्वस्यैव प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञाया त्वप्रयोजकत्वात्, न च संस्कारजन्यत्वेन स्मृतित्वापत्तिः, विशिष्टानुभवं प्रत्यव्यवहितविशेषणज्ञानस्य हेतुत्वेन प्रत्यभिज्ञायाः पूर्व अस्पष्टत्वानियमतस्तत्चास्मृतिकल्पनेन तस्याः संस्काराजन्यत्वादिति, तदसत, तत्र नानास्मृतिकल्पनापेक्षया विशेषणज्ञानजन्यतावच्छेदकप्रत्यक्षत्वाभावस्यैव कल्पयितुमुचितत्वात् प्रत्यभिजानामीत्यनुगतप्रतीतिसाक्षिकजातिविशेषस्य च चाक्षुषत्व-वाचत्वादिना साङ् त्परोक्षत्वं, कर्यभिया प्रत्यक्षव्यावृत्तत्वाच, अस्माकं तु तत्तांशे उपनय इतरांशे च सन्निकर्षों हेतुरिति प्रत्यभिज्ञायां न कारणान्तरकल्पनागौ - तत्र प्रत्यक्षखम्, भवतां तु प्रत्यभिज्ञात्वावच्छेदेन कारणान्तरकल्पनागौरवम् तचासंस्कारस्यैव तत्तोपनायकत्वाच नोक्तनानास्मृतिकल्पनागौ तत्वाम्युपगमः रखमपि, इन्द्रियनिरपेक्षसंस्कारजन्यत्वस्यैव स्मृतित्वप्रयोजकत्वात्, प्रयोजककल्पनायाः कारणविशेषकल्पनानुपजीव्यत्वेन परस्य तद्गौरवस्यादोषत्वादिति चेत्, न, स्मृतिप्रत्यभिज्ञयोर्विषयतावलक्षण्यस्य कारणवैलक्षण्याधीनत्वेन तत्र विलक्षणहेतुकल्पनाव-| श्यकत्वात्, अत एवाऽसनिकृष्टेऽपि विषये स एव वहिरनुमीयते स एवार्थः कथ्यत इत्यादि प्रत्यभिज्ञानम्, एवं चेन्द्रियार्थ का For Private And Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥ ॥३॥ UKECAP सभिकर्षोऽपि तत्र संस्कारोबोधकसदृशदर्शनादिहेतुतयोपक्षीयते, तदिदमभिप्रेत्योक्तं " अनुभूततया परोक्षमप्येकं साक्षादि स्पष्टतालवाघ्यवस्यतः पश्यतचापरं प्रत्यभिज्ञैवेयमिति"। अन्यथा प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वयोः साकर्यप्रसङ्गाज्जातेरव्याप्यवृत्तित्वे स्पष्टतायाक्षणस्य भ्रविषयताविशेषरूपत्वे वा किञ्चिदशे परोक्षत्वं किश्चिदशे च तस्याः प्रत्यक्षत्वम्, साक्षादिवेत्यस्य साक्षात्कारसामग्रीसम्पत्ता- | मेऽतिव्याविवेत्यर्थः, अनुमानादेः सर्वथा परोक्षत्वं चासनिकृष्टांश एव, एवं च प्रत्यभिज्ञात्वमपि तदेवेति विषयताविशेष एव मिथोऽन्तर्भा- प्तेरवनवानन्तर्भावौ च विवक्षाधीनावित्यपि वदन्ति । ननु तथापि संशयादीनां लक्ष्यत्वे संशयानध्यवसाययोरस्पष्टयोरव्याप्तिः, हेऽव्याअलक्ष्यत्वे च स्पष्टे भ्रमेऽतिव्याप्तिरिति चेत्, न, प्रतिनियतवर्णसंस्थानाद्याकाराभिव्यङ्गथायाः स्पष्टतायास्तत्राभावात्तत्र प्तेश्च परि. स्पष्टताप्रतीतेभ्रमत्वात, न च भ्रान्तभ्रान्तिज्ञसाकर्यम्, भ्रान्तिज्ञानस्य तत् स्पष्टतशि भ्रमत्वेऽपि विषयांशेऽतथात्वात | न च सांव्यवहारिकावग्रहेऽव्याप्तिस्तत्र प्रतिनियतमनुष्यत्वाद्याकाराभिव्यङ्गयस्पष्टताया निरपायत्वात् । नन्वेवं सांव्यवहारिकत्वं यदि व्यवहारनयाभिमतत्वं तदाऽतिप्रसङ्गोऽवध्यादावपि स्पष्टत्वेन तद्व्यवहारात्, अथापारमार्थिकत्वं तदपि तथा त्वस्य प्रश्नकास्न्यैनास्पष्टत्वरूपस्य तस्य विकलप्रत्यक्षेऽभावात् क्षायोपशमिकत्वरूपस्यापि तस्य तथात्वात् परजन्यत्वस्यापि तथात्वाद् । वस्तु तथात्वाद् । वस्तु- प्रतिविधातोऽवध्यादेर्गुणजन्यत्वे च मतिश्रुतयोरपि लब्धीन्द्रियगुणजन्यत्वात्पारमार्थिकगुणजन्यत्वाभावस्योभयत्र तुल्यत्वात् । अथेन्द्रियव्यवहितात्मजन्यत्वं तदिति चेत्, न, कुडयादेर्घटस्येवेन्द्रियस्यात्मनोऽव्यवधायकत्वादिति चेत्, न, इन्द्रियजन्यस्य सांव्यवहारिकत्वे नाम्या नावधिमनःपर्याययोस्तु विकलप्रत्यक्षत्वेन परिभाषणात्, कथमित्थमिति चेत्, न, स्वतन्त्रपरिभाषाया अपर्यनुयोज्यत्वादाभो निर्णयः ॥ गकरणे परानपेक्षत्वं वाऽपारमार्थिकत्वविवक्षायां तन्वमिति दिग् ॥३।। परोक्षलक्षणमाह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shin Matarr Jain Arahan Kendra AAKKAKKARE परोक्षं च परापेक्ष-मनुमानादि सर्वथा ॥ येन संव्यहारेणा-ध्यक्षमैन्द्रियकं स्मृतम् (जगुः)॥४॥ | परोक्षस्व - परापेक्ष परोक्ष, तवं चात्मातिरिक्तजन्यत्वं उत्पचाविन्द्रियाद्यपेक्षत्वं वाऽस्पष्टत्वं तदिति तु व्यावहारिकाः, तच्चोक्तस्प- म, एकातृत्वाभावो विषयताविशेषो वेत्यन्यदेतत्, नियतवाद्याकारणाप्रतिभानमिति तु प्राचा,तत्रैकान्ततः परोक्षमनुमानादिकम् इन्द्रिय- तेन परोक्षजन्यज्ञानस्य सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत्वेनातथात्वात्, एवञ्चैकान्ततः प्रत्यक्षमप्यवध्यादिकमेवेति स्थितम् । आह च-"एगतेण परोक्खं त्वमनुमानालिंगिअ-मोहाइच पञ्चक्खं । इंदिअमणोभवं ,तं संववहारपञ्चक्खं ॥९५ ॥ ति" [एकान्तेन परोक्षं लैङ्गिक, अवध्यादिकं च अवघ्याप्रत्यक्षं । इन्द्रियमनोभवं यत्तत्संव्यवहारप्रत्यक्षम्]। नन्वस्मदादिसाक्षात्कारस्य कुतो नैकान्ततः प्रत्यक्षत्वं विवक्षामात्रस्य वस्तुस्वभा-2 देरेकान्तेन वस्याकर्तुमन्यथाकर्तुं वाऽशक्यत्वादिति चेत्, न, अत्र प्रत्यक्षपरोक्षपदयोस्तद्व्यवहारविषयपरत्वात्, न च निश्चयस्य न व्यवहारोप प्रत्यक्षत्वं योगित्वमिति वाच्यम्,शब्दाभिलापरूपव्यवहारे तस्याप्युपयोगित्वात् यत्तु व्यवहारनिश्चयाभ्यामेवास्य स्पष्टास्पष्टत्वं भेदाभेदवदिति, तदसत्, सतोरेव भेदाभेदयोस्ताभ्यामवगाहनात्तयोरसत्करणाक्षमत्वात्, अन्यथा विकल्पव्यवहारेण शशशृङ्गमपि सिद्धयेत्, सिद्धथे स्यापोन्द्रिदेवेति चेत्, न, खण्डशः प्रसिद्धेरेव तत्र तत्र सिद्धयर्थत्वात्, अन्यथा "असतो णत्थि णिसेहो" इत्यादि भाष्यविरोधप्रसङ्गादिति वय यमनोजन्यमुत्पश्यामः ॥ यदि व्यवहारेण न स्पष्टतासिद्धिरपि तु संशयाधनवतारनियामकत्वेन तदाप्यस्यैकान्तपरोक्षत्वमुक्तरीतिं विना न निवा मानस्य सव्वरयितुं शक्यम्, एतेन 'वस्तुस्वभावो निश्चयाधीनो व्यवहारस्तु व्यवहाराधीन इत्युक्तावपि न क्षतिः ॥ नन्वन्द्रियकज्ञानस्य परोक्षत्वप्रतिपादनमुत्सूत्रं, सूत्रे तस्य प्रत्यक्षत्वेनैव प्रतिपादनाद् । यदार्षम्-" पञ्चक्खं दुविहं पण्णत्तम् । तं जहा-इन्दियपचक्खं जोइन्दियपचक्खं चेति," तन्त्र, “परोक्खं दुविहं पण्णत्वम् । तं जहा-आमिणिबोहिअनाणपरोक्खं सुअनाणपरोक्खं चेति॥ प्रत्यक्षत्य। परोक्ष वहारेण 4 For Private And Personal use only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ।। ॥ ४ ॥ www.ketatirth.org [ प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञतं । तद्यथा-इन्द्रियप्रत्यक्षं च नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च ॥ ] [ परोक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं । तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानपरोक्षं श्रुतज्ञानपरोक्षं चेति ।। ] प्रदेशान्तरे तस्य परोक्षत्वेनापि प्रतिपादनात्, न चाभिनिबोधकत्वस्य सामानाधिकरण्येन परोक्षत्वप्रतिपादनाच सूत्रविरोधः, ऐन्द्रियकस्य तस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि लैङ्गिकस्य तस्य परोक्षत्वात् । एवं हि 'इंदिअपचक्ख'इत्यत्र प्रत्यक्षपदे न लक्षणाऽक्षप्रतिगतत्वस्य व्युत्पत्तिनिमित्तत्वेऽपि स्पष्टताया एव प्रत्यक्षपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वात्, अत एवाक्षपदस्येन्द्रियार्थकत्वेऽपि न क्षतिः, प्रतिपूर्वादक्षिशब्दाच्चव्ययीभावापश्यैव न तादृशं रूपं 'अर्श आदेरचोऽसार्वत्रिकत्वात्' इत्याहुः । ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वेन प्रत्यक्षेऽपि प्रत्यक्षवृत्तेस्तदपीष्टमित्यन्ये, विषयताया वृत्यनियामकत्वादिदम युक्तमित्यपरे, तादृशादपि प्रत्यक्षशब्दात् प्रत्ययान्तरमिच्छन्त्येके, न च लक्षणबाधाल्लक्षणाssवश्यकी, लक्षणासिद्धौ लक्षणबाघस्तत्सिद्धौ च सेत्यन्योन्याश्रयादिति चेत्, न, व्यवहारेण तथाबोधसम्भवेऽपि व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्तं व्यवस्थापयता निश्येन तथाबोधाऽसम्भवादुक्तव्यवस्थयैव सूत्रोपपत्तेः, तदिदमभिप्रेत्योक्तं 'तथा च सति मतिश्रुतयोः परोक्षत्वे तस्यापि पारमार्थिकं परोक्षत्वमेवेति' सामानाधिकरण्येन बाधानवताराच्च न सामाधिकरण्येन बोधकल्पनापीति प्रतिभाति । यत्तु नोइन्द्रियप्रत्यक्षामित्यत्र नोइन्द्रियपदस्य मनोर्थकत्वात्तन्निमित्तकं ज्ञानं प्रत्यक्षमेवेति, तदनागमिकं तत्र नोइन्द्रियपदस्येन्द्रियाभावार्थकत्वादन्यथाऽपर्या - शावस्थायामपि भाविनोऽवधिज्ञानस्यामनस्कप्रत्यक्षस्य चासग्रहप्रसङ्गादिति ॥ ४ ॥ नन्वेवं कृता सप्रसङ्गं विभागव्यवस्था, न चेयमुपपत्तिमती मतिश्रुतयोः स्वाम्यादिसाधर्म्यप्रतिपादनेन तदभेदशङ्काया एवोदयात् न च मेदगर्भसाधर्म्यज्ञानाश्च तदुदय इति वाच्यम्, असाधारण धर्मज्ञानेन तदुदयादित्यत आह For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir इन्द्रियज ज्ञानस्य प रोक्षत्वक थनमुत्सूत्रमिति प्रश्नप्रतिविधा नम्, तत्रा न्यदपि शङ्कासमाधानाम्यां चर्चितम् ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org भन्ने स्वाम्यादिसाधर्म्या - यद्यपि मतिश्रुते ॥ लक्षणादिकृतो भेद-स्तथापि स्फुटमेतयोः ॥ ५ ॥ • साधर्म्यं खल्वभेदो वैधर्म्य च भेदः, न चानयोरसमावेशः, प्रमेयत्वादिना सर्वेषां साधर्म्येऽपि मिथो भेददर्शनात्, एवं च मतिश्रुतयोः स्वाम्यादिसाम्येऽपि लक्षणभेदादविरुद्धो भेदः । उक्तश्च - "सामिचाइविसेसा - भावाओ महसुएगया णाम ।। लक्खणभेआइकयं णाणत्तं तयविसेसेवि ॥ ९६ ॥ " [ स्वामित्वादिविशेषाभावाद्मतिश्रुतैकता नाम । लक्षणभेदादिकृतं नानात्वं तदविशेषेऽपि ] अथ भेदे लक्षणादिकृतत्वं तज्ज्ञानज्ञाप्यत्वं साध्यसाधनयोरभेदे न सम्भवतीति चेत्, न, श्रुतलक्षणेन श्रुते मतिवैधर्म्यरूपस्य तस्य मत्यवृत्तिधर्मत्वेन साध्यत्वे तदविशेषाच्छ्रते श्रुतत्वग्रहेऽपि मत्यष्वा तत्वेन तदग्रहेसिद्व साधनानत्र का शादिति ॥ ५॥ अथ लक्षणादयश्र लक्षण - हेतु - फल - भाव-भेदेन्द्रियविभाग - वलका - Sक्षर-मुकेतराणि, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्प्रथमं लक्षणभेदमेवाह श्रुतं श्रुतानुसारि स्यान्मतिरन्यत्परोक्षजम् ॥ श्रुतं शब्दात्मकं गौणं, व्युत्पत्त्यर्थात्तु (थे तु) लक्षणे ॥ ६ ॥ श्रुतानुसारि ज्ञानं श्रुतं, तदननुसारित्वे सतीन्द्रियमनोजन्यं च ज्ञानं मतिः । एवं च - " इन्दियमणोनिमित्तं, जं विभाणं सुआणुसारेणं ।। णिययत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुअं मई सेसं ॥ १०० ॥ " [ इन्द्रियमनोनिमित्तं यद्विज्ञानं श्रुतानुसारण | निजकार्थोक्तिसमर्थं तद्भावश्रुतं मतिः शेषम् ॥ ] इत्यत्र इन्द्रियमनोनिमित्तमिति विशेषणं शेषमित्यत्र योज्यं श्रुतानुसारिवस्यैव श्रुतलक्षणत्वे निजकार्थेक्तिसमर्थत्ववत्तस्य स्वरूपविशेषणत्वेनाऽव्यावर्त्तकत्वात् श्रुताननुसारित्वस्यावध्यादाव|तिप्रसक्तत्वेन तद्वारणाय मतिलक्षणे तु तदुपयुक्तमिति, अथ किं तत् श्रुतानुसारित्वं न तावच्छन्द जन्यत्वं शब्दावग्रहादीनामपि तथात्वात्, नापि तद्धीजन्यत्वं तदनुव्यवसायेऽतिव्याप्तेः, नाऽपि पदजन्यपदार्थोपस्थितिजन्यत्वं शाब्दातिरिक्त श्रुतज्ञानाऽव्याप्तेः, For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalasagarsun Gyanmandir माध्यसंवादेन | मतिश्रुतयोः स्वाम्यादि साधर्म्याद भेदेऽपिलक्षणादिकतो भेद:, मतिश्रुतबोलक्षणभेदनिरूपणं, श्रतानुसारिवे प्रश्नश्व || Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना RSE व प्रकरणम्॥ 2SARKAR नाऽपि पदधीजन्यत्वाव्यभिचारिजातिमञ्च, शाम्दोपमित्यतिरिक्ताव्याप्ते, श्रुतनिश्रितमतिज्ञानेऽतिव्याप्तेश्य । स्यादेतत्, श्रुत- I त्वजातिः साक्षात्परम्परया वा पदधीजन्यत्वं न व्यभिचरति, अभिलापप्लावितानां घटत्वादीनामपि पचरागत्वादेरिवोपदेशसहकृतेन्द्रियवेद्यत्वात्, अन्यथा कदाचिदप्यनाकलितघटपदसस्केतानां घटत्वादिग्रहप्रसङ्गात्, अथ पद्मरागत्वादिकमप्युपदेशासहकृतेन्द्रियवेद्यमेव 'कान्तिविशेषवान्मणिः पाराग' इत्युपदेशस्तु परागपदवाच्यत्वोपमितावुपयुज्यत इति चेत्, न, एवं सत्यनाकलितोपदेशानां पद्मरागमहं वेधीत्यनुव्यवसायप्रसङ्गात्पश्चरागपदाभिलापप्रसङ्गाच, मतिज्ञानं तु न तथेति । न तवातिव्याप्तिः। न च तथापि पदधीजन्यत्वाव्यभिचारिश्रुतनिश्रितत्वजातिमति मतिज्ञानेऽतिव्याप्तिस्तस्य सकेतग्रहशाब्दबोधप्रसूतसंस्कारजन्यत्वनियमात्संस्काराद्वारकजन्यत्वविवक्षणे शब्दानुभूतस्मरणाव्याप्तरिति वाच्यम् , जातिपदस्य ज्ञानत्वसाक्षाव्याप्यजातिपरत्वे दोषाभावात् , श्रुतनिश्रितस्यापि संस्कारद्वारा श्रुताजन्यत्वाच, अन्यथा तस्य स्मृतित्वापत्तेः, अथ "पुचि सअपरिकम्मिअ-मइस्स जं संपर्य सुआई। तं सुअनिस्सिों " इत्यागमेन व्यवहारकाले श्रुताननुसारित्वे सति श्रुताभ्या- सपाटवप्रसतत्वस्य निश्रार्थत्वे मतेदृढतरसंस्कारद्वारा श्रुतजन्यत्वं तस्य निर्वाधमिति चेत्, न, तत्राऽभ्यासपाटवपदस्य क्षयोपशमपाटवार्थकत्वात्, अन्यथा संस्कारस्यानुभूतमात्रोपनायकतया श्रुतनिश्रिते श्रुताननुभूतानां नानाधर्माणामभानप्रसङ्गाद् , एवं सूत्रेऽपि परिकर्मितपदं पटुकृतपरं, मतिपदं मतिलब्धिपरमिति न कोऽपि दोषः, अन्यथा तत्र श्रुतातीतत्वस्यानुक्तिसहत्वात्कालव्यवधानस्य विविच्य दुग्रहत्वात, मैवं, पदधीप्रयोजकविवक्षारूपश्रुतवानस्य पदनानाजन्यत्वेन श्रुतत्वस्य पदधीजन्यत्वव्यमिचारित्वात्परागत्वादिग्रह इब घटत्वादिग्रहेऽप्युपदेशानपेक्षणाच, नापि सामिलापत्वं, तद्धि साकारत्वं वा शब्दविषयत्वं वामिलाप I शब्दक भ्यत्वशब्द धीजम्यत्व| पदजन्यपदा योऽपस्थितिजन्यत्वपदघीजन्य त्वाव्यभिचारिजातिम| त्वानां श्रुता नुसारित्वरूपतायाः खण्डनम् । For Private And Personal use only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । CREARRIERSON योग्यत्वं वा, त्रितयस्य तस्य साकारत्वाच्छब्दविषयत्वादभिलापयोग्यत्वादिदमवघ्यादावतिव्याप्त भाषावर्गणादिमतोऽभिलाप्यज्ञानस्यैवामिलाप्यप्रयोजकत्वाच, अथ शब्दोपरागेणार्थावगाहित्वं तत्, तदुपरागश्च संज्ञास्मृतिजन्यतावच्छेदको विषयताविशेषः सच नावच्यादौ तस्य स्मृत्यजन्यत्वाद्, अस्ति च श्रुतज्ञाने सर्वत्र सः पूर्व शब्दार्थयोः सङ्केतग्रहादर्थदर्शनोदबुद्धसंस्कारेण प्रतिसम्बन्धिशब्दस्मरणोत्तरमेव तदभ्युगमात्, अत एव घटमनुभवामीति शब्दोपरागेणैव तदनुव्यवसाय इति चेत्, न, ईहादिरूपमतिज्ञानातिव्याः , संज्ञास्मरणाजन्यशाब्दबोधादावव्याप्तेरवग्रहोचरं संज्ञास्मरणाविलम्वेनैवेहादिदर्शनाच, एतेन 'शब्दानुपरागेणार्थावग्राह्यवृत्तिज्ञानत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिमत्त्वं तत्'इत्यपि निरस्तमिति चेत्, अत्रोच्यते, पदधीविषयकधीजन्यत्वाव्यभिचारिजातिमत्वं तत्, विवक्षारूपश्रुतस्यापि पदेष्टसाधनताधीरूपपदविषयकधीजन्यत्वादुपदेशनिरपेक्षेन्द्रियजन्यज्ञानस्य च मतिज्ञानरूपत्वेनालक्ष्यत्वात् यद्वा व्यक्तश्रुतस्यैव लक्ष्यत्वेनाऽव्यक्तश्रुताव्याप्त्यभावात्, अथवा शब्दानुपरागेणार्थावग्राह्यवृतिज्ञानत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिमत्त्वं तद्, अस्ति हि सर्वत्र श्रुतेऽर्थदर्शनोबुद्धसंस्कारप्रसूतशब्दोपरागशालित्वम्, न तु मतिज्ञानादौ, अवग्रहादिरूपे तत्र तदभावात्, न च संस्कारजन्यत्वेन स्मृतित्वापत्तिः, प्रत्यभिज्ञाया इव संस्कारजन्यस्यापि श्रुतवि- शेषस्यातथात्वसम्भवात्, न च संस्कारेणेहाद्युत्पत्तिकाले स्मृत्युत्पत्त्यापत्तिः स्मृतिसामग्रथपेक्षयाऽनुभवसामग्रथा बलवत्त्वाद, अथवा श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रयोज्य एव सर्वत्र श्रुते शब्दोपरागः, अत एवैकेन्द्रियाणां तादृशसंस्कारविरहेऽपि न क्षतिरिति । अर्थावभासिनि श्रुते समानसंविसंवेद्यतयैव पदोपराग इत्यपरे, प्रत्यक्षे विद्यमानत्वमिव श्रुतज्ञाने पदवाच्यत्वं संसर्गतयैव भासते स एव शब्दोपराग इत्यन्ये, यत्तु शब्दाननुविद्धं ज्ञानमेव नास्ति । तदुक्तं-" न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, साकारत्वशब्दविषय. स्वाभिलायोग्यत्वशदोपरागेणाविगाहित्वैतदन्यतमरूपस्य साभिलापत्वस्य च तानुसारित्व| रूपताया, खण्डन तत्पतिविधानं च । BI Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥ ६ ॥ www.khatirth.org यः शब्दानुगमादृते ॥ अनुविद्धमिव ज्ञानं, सर्वं शब्देन गम्यते ॥ १ ॥ " इति वैयाकरणमतं तदसत्, केवलार्थदर्शनं विना संस्कारोद्बोधाभावेन शब्दानिर्भासादर्थ भासकसामग्रथैव शब्दावभासाम्युपगमे चाव्युत्पन्नानामपि तदवभासप्रसङ्गात्, व्युत्पन्नानां विविच्य पदोपरागेणार्थप्रत्ययोऽव्युत्पन्नानां तु सामान्यत इति चेत्, अर्थविशेषे भासमाने शब्दविशेषनिर्मासस्यैव प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति दिग्। ननु यद्येते मतिश्रुतलक्षणे तदा, 'अभिणिबुझइति आभिणिबोहिअं, सुणेइ ति सुअं'ति सूत्रोक्ते लक्षणे कथं समगंसातामिति चेत्, अत्रासाधारणधर्मरूपलक्षणोक्तेस्तत्र च व्युत्पत्तिनिमित्तरूपतदुक्तेः, तथापि श्रूयत इति श्रुतमिति कर्मव्युत्पत्त्या शब्द एव श्रुतं स्यात्, न चायमात्मभाव इति चेत्, वक्तृमुखनिर्गतस्य तस्य श्रोतृश्रुतज्ञानकारणत्वेन वक्तृश्रुतोपयोगस्य च व्याख्यानादौ शब्दकारणत्वेनोपचारादेव तस्य श्रुतत्वाभिधानात् परमार्थतस्तु श्रुणोतीतेि श्रुतमिति कर्तृव्युत्पच्या जीवानन्यश्रुतोपयोगस्यैव श्रुतपदप्रवृत्तिनिमित्ताक्रान्तत्वात् ॥ आह च - "जमभिणिबुज्झइ तमभिणिबोहो जं सुणइ तं सुखं भणिअं || स सुइ जइ तओ नाणं तो नाऽऽयभावो तं ।। ९८ ।। [ यदभिनिबुध्यते तदभिनिबोधो यत् शृणोति तत् श्रुतं भणितं ॥ शब्दं शृणोति यदि सको ज्ञानं ततो नात्मभावस्तत् ] सुअकारणं जओ सो सुअं च तकारणं ति तो तम्मि ॥ कीर सुओवआरो, सुअं तु परमत्थओ जीवो ।। ९९ ।। " [ श्रुतकारणं यतः स श्रुतं च तत्कारणमिति ततस्तस्मिन् ॥ क्रियते श्रुतोपचारः श्रुतं तु परमार्थतो जीवः]त्ति । अत्रापि व्युत्पत्त्यर्थमुपजीव्य जातिगर्भलक्षणे न दोषः ॥ ६ ॥ यथाश्रुतं लक्षणमव्याप्तिप्रसङ्गपरिहाराभ्यां समर्थयति ॥ कथमेकेन्द्रियाणां तद्, नूनं सुप्तयतेरिव ॥ भाषाओंत्राद्यभावेऽपि, क्षयोपशमसम्भवम् ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir शब्दाननुविद्धं ज्ञान मेव नास्तीति वैयाकरण मतस्य खण्ड नम्, प्रकृत मतिश्रुतक्षणविलक्ष सूत्रो लक्षणसङ्गतत्वापवर्णनं च ॥ ॥ ६ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra 85656 पद्ययेकेन्द्रियाणामव्यक्तं श्रुतं नोक्तलक्षणाक्रान्तं तथापि सुप्तयतिश्रुतस्योक्तजातिगर्भलक्षणाक्रान्तत्वाद् व्यक्तश्रुतस्यैव लक्षणभेदालक्ष्यत्वाद्वा न दोषः॥ न चाव्यक्तश्रुते मानाभावः १, खापाद्यवस्थोत्तरमपि व्यक्तीभवद्भाव श्रुतं दृष्ट्वा पयसि सर्पिष इव । न्मतिश्रुतप्रागप्यव्यक्तश्रुतस्यानुमानात्, इति सम्प्रदायः।। ननु भावश्रुतव्यक्तीभावस्य न तज्जातीयशक्त्यनुमापकत्वं पर्यायव्यक्तेद्रव्य- योर्भेदप्रसगे रूपशक्तरेव व्याप्यत्वात्,तावतैव सदसत्कार्यवादनिर्वाहात्,अन्यथाऽस्मदादीनामपि केवलज्ञानव्यक्तिजातीयतच्छकिप्रसङ्गात्, इति श्रुतोक्तलक्षचेत, न, मावश्रुतेन तदा स्वकारणक्षयोपशमानुमाने तेन तत्कार्याव्यक्तश्रुतानुमानमित्याशयाद्, वस्तुतः सुषुप्ताधवस्थायामाप णस्याव्याश्वासप्रश्वासादिसन्तानोऽव्यक्तचैतन्यप्रयुक्त एवेति तेन तदनुमानम्, अत एव सुप्तमूञ्छितादीनां जलसेकादिप्रतिकारेणा- |प्त्यादिपरिव्यक्तचैतन्यमेवाभिव्यज्यत इति अनुभवः, सुषुप्तोत्थितस्य 'सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदेवेदिषम्' इत्यनुभवस्तु नकिश्चित्पदो- हारेण निष्टपरागेणाऽव्यक्तज्ञानमेवावगाहते । स्यादेतत्, इन्द्रियवृत्तिनिरोधेन सुषुप्तौ ज्ञानमनुपपन्न, न च तदैवाघ्राणोपनीतकुसुमगन्धादि- इन,एकेन्द्रिमानापत्तिा, जन्यज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति त्वङ्मनोयोगस्य विजातीयात्ममनोयोगस्य वा हेतुत्वेन तदानीं तदभावे जन्यज्ञानमात्र- १५येष्वपि श्रुतस्यैवानुपपत्तेरिति, मैवं, द्रव्येन्द्रियोपरोधेऽपि तदानीं भावेन्द्रियज्ञानसम्भवाद्दर्शनावरणकर्मप्रकृतिविशेषरूपाया: सुषुप्तेर्व्यक्तचक्षुर्द सिद्धिश्च ।। र्शनादरेवोपघातित्वात् अत एव 'भाषाश्रोत्रलब्धिविरहेण सुप्तयतेरिवैकेन्द्रियाणां भावश्रुतं न भवति' इत्यपि परास्तं,द्रव्येन्द्रियोपरोधेडपि भावेन्द्रियज्ञानवद् भाषाश्रोत्रलब्धिद्रव्यश्रुतादिवैकल्येऽपि तेषां भावश्रुतसम्भवाद्, वृद्धिसङ्कोचनादिनिधानमूलनिधानकामिनीस्पर्शजनितातिशयलिङ्गकाहारभयपरिग्रहमैथुनसज्ञानां तेषु साक्षादुपलम्भाच॥आह च भाष्यकार:-"जइ सुअलक्खणमेयं, तो न तमेगिदिआण संभवद ॥ दब्बसुआभावम्मि वि, भावसुअं सुत्तजइणो व्व ॥१०१॥"[यदि श्रुतलक्षणमेतत्ततो न तदेकेन्द्रियाणां BREAKING For Private And Personal use only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHI व्यक्तमा सविवरणं श्रीज्ञाना वप्रकरणम् ॥ Raisi सम्भवति ॥ द्रव्यश्रुताभावेऽपि, भावश्रुतं सुप्तयतेरिव ] " भावसुअं भासासो-अलद्धिको जुजए ण इयरस्स ॥ भासाभिमुहस्सट एकेन्द्रियेष्वजयं, सोऊण यजं हवेज्जाहि ॥१०२।।" [भावश्रुतं भाषाश्रोत्र-लब्धेर्युज्यते नेतरस्य ॥ भाषाभिमुखस्य यत्, श्रुत्वा च यद् व्यक्तमतिभवेत् ] “जह सुहुमं भाविंदिअ-नाणं दव्विदिआवरोहे वि ।। तह दश्वसुआभावे, भावसुझं पत्थिवाईणं ॥१०३॥" श्रुतसमर्थनं, [ यथा सूक्ष्म भावेन्द्रियज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि ॥ तथा द्रव्यश्रुताभावे, भावभुतं पृथिव्यादर्दानाम् ] त्ति ॥ परममुनि तेषु च मतिवचनप्रामाण्याचदमित्थमवगन्तव्यम् । यत्वर्थग्रहणशक्तिरूपस्य लब्धीन्द्रियस्यार्थग्रहणे व्यापाररूपेणोपयोगेन्द्रियेण 50 श्रुतपदव-" व्यवधानादहेतुत्वम्, आकरे व्यवस्थापितं च सुषुप्ती ज्ञानानुत्पत्तिनिर्वाहायार्थग्रहणच्यापाररूपत्वमुपयोगस्य, तत्प्रमाण- ध्यातिसंभात निरूपणप्रस्तावाद् व्यक्तज्ञानमाश्रित्यावसेयम्, अन्यथा सामग्रीसच्चे उपयोगाभावोऽपि तदानीं कुत इत्यत्र किमभिधानीय साशंकानिरास्याद् विना क्षयोपशमवृत्त्यलाभ, तदभावे तु क्षयोपशमविशेषस्यैवोपयोगहेतुतया 'तद्धेतोः' इति न्यायेनान्ततस्तद्वारार्थग्रहणहेतु सश्च ।। त्वकल्पनौचित्यात् ॥ स्वत एव केवलिनो विहाय शेषसंसारिणां तारतम्येन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्स्वपि लब्धीन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमनिष्पना मतिरस्त्येवेति परममुनिवचनम् ॥ ७॥ नन्वेवमेकेन्द्रियाणामव्यक्तमतियुते इव विनिगमनाविरहादव्यक्तावस्यादिप्रसङ्ग इत्याशङ्कायामाहन चावध्यादिकं तत् स्या-दागमानुपदेशतः ॥ तत्कारणगुणाभावा-वक्षजन्यतया तथा ॥ ८॥ न खल्वेकेन्द्रियाणामव्यक्तं ज्ञानमवध्यादिकं भवितुमर्हति, केवलज्ञानस्य तावत् क्षायिकत्वाद् , अवधिमनःपर्याययोश्च क्षयोपशमस्य तत्कार्यादर्शनेन तेष्वनुपदेशात्, उक्तश्च-"एवं सवपसंगो, न तदावरणाणमक्खओवसमा ॥ मइसुअनाणावरण %E4 ॥ ७॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org बखओवसमओ मइसुआई ॥ १०४ ॥ " [ एवं सर्वप्रसङ्गः न - तदावरणानामक्षयोपशमात् ।। मतिश्रुतज्ञानावरण-क्षयोपशमतो मतिश्रुते ] चि ॥ अपि चावध्यादौ गुणस्य हेतुत्वात्, सद्विरहादेव नैकेन्द्रियेषु तदुत्पत्तिसम्भवः, व्यक्तावधित्वादेर्गुणजन्यतावच्छेदकत्वकल्पने चातिगौरवात् न च व्यक्तमत्यादिकल्पनेऽपि व्यक्तमत्यादाविन्द्रियादिहेतुत्वकल्पने समानं गौरवमिति वाच्यम्, मतिलब्ध्यादावनुगतप्रत्यासत्तिविरहेण, इन्द्रियत्वादिनाऽहेतुत्वे विशिष्यतद्धेतुत्वावश्यकत्वात्, अत्र चानुगतस्य गुणस् हेतुत्वेन तदसाम्यात्, स्यादेतद्, अवधिज्ञानस्य भवप्रत्ययकत्व - गुणप्रत्ययकत्वाभ्यां द्वैविध्यात्, विजातीयावधिज्ञान एव गुणस्य हेतुत्वात्, तद्विजातीयमव्यक्तं तदेकेन्द्रियाणां भविष्यति, युक्तं चैतत्, मतिश्रुतयेोर्द्वयोरव्यक्तत्वकल्पनापेक्षयैकस्यैवावधेस्तत्वकल्पनौचित्यात्, मैवम्, भवप्रत्ययिकेऽपि तत्र गुणस्य हेतुत्वात्तत्र भवनिमित्ततामात्रेणैव तत्प्रत्ययकत्वव्यवहाराद्, भवस्य हेतुत्वेऽपि देवभवादेर्विशिष्यैव हेतुत्वात्, प्रत्येकमादायोक्तगौरवस्याविशेषाच्च, किश्वावध्यादेरात्ममात्र जन्यत्वं व्यवस्थितम्, न चै केन्द्रियाणां ज्ञानोत्पत्चावात्ममात्राधिकार इति न तेषामवध्यादिकमित्याद्यूहनीयम् ॥ ८ ॥ उक्तो लक्षणभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः, अथ हेतुफलभावात्तद्भेदमुपदर्शयति- श्रुतस्य मतिपूर्वत्वं श्रुतमित्यनयोर्भिदा । यौगपद्यं तु तलब्ध्यो-रिष्टमेवोपयोगयोः ॥ ९ ॥ 'मइपुव्वगं सुतम्' इत्यागमेन हि श्रुतस्य मतिहेतुकत्वं प्रतिपाद्यते, पूर्वपदस्य हेतुत्वार्थकत्वात्, 'सम्यग्ज्ञानपूर्विका पुरुषार्थसिद्धिः' इत्यादी तथादर्शनात् पृधात्वर्थस्य कारण एवान्वयात्, तथाहि कारणेनैव सताऽनुप्रेक्षादिकालीनोहापरपर्यायेण मतिज्ञानेन श्रुतज्ञानं पूर्यते वृद्धि नीयत इति यावत् एवञ्च दृढस्मृतिरूपश्रुतज्ञाने ऊहस्य हेतुत्वं पर्यवस्यति तथाभूतमत्यैव For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kailassagarsun Gyanmandir एकेन्द्रियेष्व वध्यादिशा नाभावसम नं, हेतुफ लभावान्म प्रतिश्रुतयोर्भेदोपदर्शनोपक्रमश्र ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SimMatiavt JaimArashana.kindra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम्॥ ॥८॥ हेतुफलमावान्मतिश्रुतयोर्भेदोपदर्शनं तत्र पृधात्वर्थ चान्यतस्तत्प्राप्यते, गृह्यते परोपदेशश्रवणादिरूपमतरेव तदाहितसंस्कारद्वारा श्रुतहेतुत्वाद्, एवं च श्रुतमात्र एव द्रव्यश्रुतग्रहणस्य हेतुत्वं लभ्यते, तथाभूतयैव च तयाञ्ज्यस्मै तद् दीयते व्याख्यायते, एवञ्च व्याख्यानुकूलश्रुतसङ्कल्पे तदिष्टसाधनतामतेहेतुत्वं व्यज्यते तथाभूतयैव च मत्या परावर्त्तनचिन्तनद्वारा गृहीतं श्रुतं स्थिरीक्रियते, इत्थं चाविस्मृत्यनुकूलधारणाव्यापाररूपाया मतेरुत्तरकालिकपरिस्फूर्तिरूपश्रुतहेतुत्वं व्यवस्थाप्यते, यद्यपि 'पृपालनपूरणयोः' इतिपाठात्प्राप्त्यादेर्नेतद्धात्वर्थत्वम् , तथापि प्राप्तिदानयोः पूरणविशेषत्वाद्न किश्चिदनुपपन्नम्, एवञ्च मतिश्रुते कार्यकारणभावादेव परस्परं भिद्यते ॥ अभेदे सव्येतरगोविषाणयोरिख कार्यकारणभावाभावात् , आह च-" मइपुवं सुअमुर्त, ण मई सुयपुब्बिआ विसेसोयं ॥ पुचि पालणपूरण-भावाओ जे मई तस्स ।। १०५॥" [मतिपूर्व श्रुतमुक्त, न मतिः श्रुतपूर्विका विशेषोऽयम् ॥ पूर्व पालनपूरणभावात् यन्मतिस्तस्य ] "पूरिज्जह पाविज्जइ, दिज्जइ वा जं मईइ नाऽमहणा ॥ पालिज्जइ अ मईए, गहियं इहरा पणस्सज्जा ॥१०६॥" [पूर्यते प्राप्यते दीयते वा यन्मत्या नाऽमत्या ॥ पाल्यते च मत्या गृहीतं, इतरथा प्रणश्येत् ॥] यद्यपि प्रागभावावच्छिनकालसम्बन्ध एवं पूर्वपदार्थो नतु कारणत्वं गौरवात, अकारणेऽपि पूर्वपदव्यवहाराच, तथाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मतेः । श्रुतहेतुत्वावधारणादत्र पूर्वपदस्य कारण लक्षणा, न चात्र बीजाभावस्तात्पर्यान्यथानुपपरेवैतद्वाजत्वात्, तथातात्पर्य विनतदभिधानस्य निष्प्रयोजनत्वात्, ननु ज्ञानाज्ञानरूपयोर्मतिश्रुतयोः पृथक् समकालमेव लाभोपदेशात् कथं तयोर्हेतुहेतुमद्भावः, अन्यथाप्रतिपत्तौ तु मतिज्ञानलाभकाले श्रुतज्ञानालाभाव, श्रुताज्ञानानहानिप्रसङ्मादन्यज्ञानस्याज्ञानानिवर्तकत्वादिति चेत्, लन्धिरूपमतिश्रुतयोलाभस्यैव योगपद्योक्तेः, उपयोगयोस्तु तथास्वाभाच्यात्क्रमोपचेखे व्यवस्थितत्वात्, आह च-"नाणाण प्रपञ्चनं तत्र |भाष्यसंवादः पूर्वपदस्य | कारणत्वेल क्षणायां वीजप्रदर्शन IN ॥ ८ ॥ For Private And Personal use only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Arathana Kendra HPUROCRACHAR पणाणाणि य, समकालाई जओ मइसुआई ॥ तो न सनं मडव्वं, मइनाणे वा सुअन्नाण॥१०७॥ इह लद्धिमइसुआई, समकालाई, मतिश्रतलनतूबओगो सिं ।। मइपुवं सुमिह पुण, सुओवगो मइप्पभवो ॥ १०८॥ ति ॥ [ज्ञाने अज्ञाने च समकाले यतो मतिश्रुते । योः समततो न श्रुतं मतिपूर्व मतिज्ञाने वा श्रुताऽज्ञानम् ॥ इह लब्धिमतिश्रुते समकाले, नतूपयोगोऽनयोः । मतिपूर्व श्रुतमिह पुनः, श्रुतो- कालत्वेन तपयोगो मतिप्रभवः] ॥९॥ अथ श्रुतस्य मतिपूर्वत्वमिव मतेरपि श्रवणजन्यायाः श्रुतपूर्वत्वमस्तीत्यविशेष निराकर्तुमाह योरित्यत्र न भावभुतजन्यापि, द्रव्यश्रुतभवा मतिः॥ न तस्यामस्ति वैजात्य-मुत्कर्षों वा पुरस्कृतः॥१०॥ ४ भाष्यसंवादः परस्माच्छब्दं श्रुत्वा प्रादुर्भवन्ती मतिर्न भावश्रुतजन्या किं तु द्रव्यश्रुतप्रभवैव, श्रवणानुकूलक्षयोपशमोद्बोधकस्य शब्द- मते: भावस्यैव तद्धेतुत्वाद्, अन्यादृशश्रुतपूर्वत्वं तु मतेन वारयामः श्रुतोपयोगाच्च्युतस्य मत्युपयोग एवावस्थानाद् ।। आह च-"सोऊण जा श्रतजन्यत्वमई मे, सा सुअपुब्ब ति तेण ण विसेसो ॥ सा दव्वसुअप्पभवा, भावसुआओ मई णत्थि ॥१०९।।"[श्रुत्वा या मतिभवता, सा । शाऽपाकर सुतपूर्वेति तेन न विशेषः ।। सा द्रव्यश्रुतप्रभवा, भावभुतान्मतिर्नास्ति।]"कज्जतया ण उ कमसो, कमेण को वा मई णिवारेइ १॥ णम द्रव्यजं तत्थावत्थाणं, चुअस्स सुत्तोवोगाओ ॥११०॥" कार्यतया न तु क्रमशः, क्रमेण को वा मतिं निवारयति ।। यत्तवावस्थान, श्रुतजवे च्युतस्य श्रुतोपयोगात् ॥ ]त्ति । यद्यप्यनयोरविशिष्टमपि पौर्वापर्य भेदकमेव, तथापि वस्तुगत्यनुरोधेनायं प्रयास इति ऋजवः, सम्मतिः एकजातीयत्वेऽपि व्यक्तिपौर्वापर्यसम्भवावात्यैव पौर्वापर्यस्य भेदकत्वात् तन्निर्वाहककार्यकारणभावव्यवस्थापन, तन्निर्वाहाय च विशेषसमर्थनं सफलमिति यौक्तिकाः॥ कार्यकारणभावेन भेदनिरूपणापयिकप्रासङ्गिकसूत्रसमर्थनायेदमिति साम्पदायिकाः। ननु मतिर्न श्रुतजन्येत्यसङ्गतं श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्य श्रुतजन्यत्वात्, इति चेत्,न, श्रुतप्रसूतक्षयोपशमविशेषस्यैव तद्धेतु TRAN Sie For And Po se Day Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMahavt Jain ArarthanaKendra सविवरण श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥ ॥९ ॥ SAHARSHA त्वात, श्रुतजन्यतावच्छेदकजातिकल्पने मानाभावाद्, अस्तु वा तत्र तहेतुत्वम्, तथाप्यत्र सामान्यतो हेतुत्वलक्षण उत्कर्ष एव[31 मतौ श्रुतसामान्यतो भेदापयोगितया ग्राह्यः, अन्यथा सामानाधिकरण्येन भेदग्रहेऽपि सामान्यतो भेदाग्रहेण न्युनत्वप्रसङ्गाद, अपि च । जन्यतावपौर्वापर्येण निरूपणोपयिकोऽपि सामान्यत एवोपजीव्योपजीवकभाव इत्युक्तसूत्रौपयिकतयाप्युक्तोत्कर्ष एव ग्राह्य इति दिग् * च्छेदकवैजा॥१०॥ मतिपूर्व श्रुतमित्यत्र व्याख्यान्तरं विदधतां केषाश्चिन्मते दृषणमाह ॐल्याभावः मकेचिद् द्रव्यश्रुतं प्राहु-मतिपूर्व न चापरम् । तेषां भावश्रुताभावो, नि:जा कल्पना पुनः॥११॥ | तिपूर्व श्रुतमतिपूर्व श्रुतमित्यत्र श्रुतपदं द्रव्यश्रुतपरं 'न ह्यविवक्षितं कोऽपि भाषते,' यश्च विवक्षाज्ञानं तत्किल मतिरित्येतन्मति- | मित्यत्रोत्कजन्यत्वं द्रव्यश्रुतस्यैव व्यवतिष्ठत इति केषाश्चिदाशया,तेषां विवक्षाज्ञाने प्राप्तमपि भावश्रुतलक्षणमुपेक्षमाणानामन्यत्रापि तदपेक्षाया विशेषादरः अन्याय्यतया भावश्रुताभाव एव प्रसजेत,इति निमग्नाऽनयोर्विशेषचिन्ता। आह च-"दव्वसुअंमइपुवं,भासइ जनाविचिन्तियं केह।। व्याख्यान्तरे भावसअस्साभावो, पावइ तेसिं ण य बिसेसो ॥१११॥"[ द्रव्यश्रुतं मतिपूर्व, भाषते यद् नाऽविचिन्तितं केचित् ।। भावश्रुत- दूषण तत्र स्याभावः प्राप्नोति तेषां न च विशेषः।।] न च मतिशब्दयोरेवात्र भेदचिन्ता सतामौचितीमश्चति तद्भेदस्यासन्दिग्धत्वेनाचिन्त- भाष्यसनीयत्वात, न च मतिपूर्वतया द्रव्यश्रुतस्य ततो भेदोऽपि, मतेरपि शब्दपूर्वत्वेनाविशेषाद् । आह च-"दव्बसुअं बुद्धीओ, सा वि म्मतिः ॥ तओ जमविसेसओ तम्हत्ति [द्रव्यश्रुतं बुद्धेःसापि ततो यदविशेषतस्तस्मात्।।] वस्तुतोऽनयोः सामान्यतो हेतुहेतुमद्भावाभावेन सामान्यतो भेदाऽसाधनाच्यूनत्वमपि, तस्माद् भावश्रुतं मतिपूर्वमित्येव व्याख्यानं सम्यग्, अन्यथा श्रुतपदस्य शब्दे लक्षणा निर्बीजा स्यात, तथाहि किमत्रान्वयानुपपत्त्या लक्षणाऽऽश्रीयते, ताानुषपच्या वा, नायो भायश्रुते जन्यत्वान्वयस्यावाधात्, न द्वितीया, For Private And Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४% रा www.kotuatirth.org 'सुणेइति सु' इत्यत्र व्युत्पस्यर्थगृहीते शब्दे मतिजन्यत्वतात्पर्यानुपपच्या तदाश्रयणस्य वक्तुमयुक्तत्वाद्, भेदचिन्ताया अप्रस्तुतत्वेन तत्र तज्जन्यत्वतात्पर्यानाकलनात्, स्यादेतत् मत्यादीयमानस्य श्रुतस्य शब्दद्वारैव मतिजन्यत्वात्तत्र तत्पूर्वत्वं प्रतिपाद्यमानं श्रुत एव पर्यवस्यतीति, मैवम्, एतादृशमतिपूर्वत्वस्य सर्वत्रासम्भवात् एतेन द्रव्यश्रुते मतिपूर्वत्वप्रतिपादनस्य भावश्रुतभेदचिन्तौ - पयिकतया नार्थान्तरत्वमित्युक्तावपि न क्षतिः, नन्वेवमत्र द्रव्यश्रुते व्युत्पत्त्यर्थानुसरणमप्ययुक्तम नौपयिकत्वात्, इति चेत्, न, भावश्रुतलक्षणत्वेन तस्योपादेयत्वाद् । आह च - "भावसुअं महपुवं, दव्वसूअं लक्खणं तस्स ॥ ११२ ॥ [भावश्रुतं मतिपूर्व, द्रव्यश्रुतं लक्षणं तस्य] अत्र लक्ष्य गम्यतेऽनेनेति लक्षणं लिङ्गमित्यर्थ इत्याहुः, वस्तुतो लक्षणं लक्षणघटकमित्यर्थोऽपि प्रागुक्तरीत्याऽनुसरणीयः, एवञ्च कार्यभूतेन लक्षणघटकेन वा शब्देन स्वकारणीभूतस्य स्वघटितलक्षणलक्ष्यस्य वा विवक्षारूपस्य भावश्रुतस्यैव लक्षणात्, तत्र मतित्वप्रतिपादनं परेषां विपरीतमिति ध्येयम् ।। आह च- "सुअविश्राणप्पभवं, दव्वसुअमियं जओ विचिन्तेउं ॥ पुचि पच्छा भासह, लक्खिज्जह तेण भावसु ॥ ११३ ॥ |” [ श्रुतविज्ञानप्रभवं द्रव्यश्रुतमिदं यतो 'विचिन्त्य ॥ पूर्वं पश्चाद् भाषते, लक्ष्यते तेन भावश्रुतम् ।। ] || ११ || अथ नन्द्यध्ययने मतिश्रुतयोः कार्यकारणभावेन भेदप्रतिपादनानन्तरं स्वस्थाने सम्यक्त्वमिध्यात्वपरिग्रहासयोर्भेदप्रतिपादनायेदं सूत्रमस्ति, तद्यथा ॥ “अविसेसिआ मई मइनाणं मइअन्नाणं च विसेसिआ मई सम्मद्दिस्सि मई मइनाणं, मिच्छादिस्सि मई मइअन्नाणं || अविसेसिअं मुअं सुअनाणं सुअअन्नाणं च विसेसिअं सुयं सम्मद्दिहिस्स सुअं सुअनाणं, मिच्छदिस्सि सुअं सुअअन्नाणंति” [ अविशेषिता मतिर्मतिज्ञानं च मत्यज्ञानं च ॥ विशेषिता मतिः सम्यग्दृष्टेर्मतिर्मतिज्ञानं, मिथ्यादृष्टेर्मतिर्मत्यज्ञानं ॥ एवं अविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं च विशेषितं श्रुतं सम्यग्दृष्टेः श्रुतं श्रुतज्ञानं, मिध्यादृष्टेः For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir व्याख्या न्तरे श्रुतपदस्य द्रव्य श्रुते लक्षणा बीजाभावः व्युत्पत्त्यर्थ अनुसरणौपदिमिकफले भाप्यसंवादः, तयोः सम्य क्त्व मिथ्यात्वे विवेचितेन दिसूत्रसं वादात् ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ।। ॥ १० ॥ www.khatirth.org तं श्रुताज्ञानम् ] अतोऽत्राप्येनमर्थं भाष्यसम्प्रदायमनुरुन्धानोऽनुविवदिषुराह मतिश्रुते निर्विशेषे, ज्ञानाज्ञाने विशेषिते || सम्यग्दृशां हि ते ज्ञाने, अज्ञाने कुदृशां पुनः ॥ १२ ॥ सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिभावेनाऽविशेषिता मतिरेवोच्यते न तु मतिज्ञानं मत्यज्ञानं वा, सामान्यपदेन विशेषानभिधानात् विशेषाऽभाने सामान्यस्याप्यभानापत्तिः, इति चेत्, न, तथापि सामान्यरूपेण विशेषभानेऽपि विशेषरूपेण तदभानाद्, एवं चाविशेषिता मतिरित्यस्य विशेषबोधकसमभिव्याहारविनिर्मुक्तमतिपदजन्यबोधविषयो मतिरित्यर्थः, न च मतिज्ञानमत्यज्ञानयोरपि वस्तु|तस्तादृशबोधविषयत्वात्, अविशेषितमतिव्यवहारापत्तिरित्याशङ्क्यम्, मतिज्ञानमविशेषिता मतिरिति व्यवहारो मतिज्ञानत्वावच्छेदेनातादृशबोधविषयत्वमवगाहते तस्यासम्भवादिति तत्त्वम्, एवं सम्यग्दृष्टित्वविशेषिता मतिर्मतिज्ञानम्, मिध्यादृष्टित्वविशेषिता च मत्यज्ञानं, एवं श्रुतेऽपि ज्ञेयम् ।। आह च - "अविसेसिया महच्चिय, सम्मद्दिट्टिस्स सा महन्नाणं ।। मइअन्नाणं मिच्छा-दिट्ठिस्स सुअं पि एमेव ॥ ११४ ॥”[अविशेषिता मतिरेव सम्यग्दृष्टेः सा मतिज्ञानम् || मत्यज्ञानं मिथ्यादृष्टेः श्रुतमप्येवमेव ||] अत्र मतिज्ञानमत्यज्ञानयोर्मतिरिति सामान्यसंज्ञा, मतिज्ञानं मत्यज्ञानश्चेति विशेषसंज्ञा द्रष्टव्या ॥ १२ ॥ ननु यथैव मतिश्रुताभ्यां सम्यगुष्टिर्घटादिकं जानीते व्यवहरति च तथा मिथ्यादृष्टिरपीति कथमेकस्य ज्ञानमपरस्य चाज्ञानमिति व्यवस्थेत्यत्राह - अविशेषात्सदसतो -भवहेतुतया तथा ॥ यादृच्छिकतयाऽज्ञानं, मिथ्यादृष्टेः फलं विना ॥ १३ ॥ मिथ्यादृष्टिज्ञानं हि सदसतोर्विशेषं न प्रतिपद्यते, सर्वथा घट एवायामित्यवधारणे पटगतानामपि प्रमेयत्वादीनामतथात्वेनाध्यवसायात्, अन्यथा पटगतधर्मद्वारा पटरूपताया अपि तत्र सम्भवे 'सर्वथा घट एवं' इत्यवधारणानुपपत्तेः, एवं सर्वप्रकारैर्घटेोऽस्त्ये For Private And Personal Use Only Acharya Shui Kalassagarsun Gyanmandir अविशेषितमतिश्रुत योमंतिश्रुत त्वे विशेषि तयोश्व तयोः सम्यग्दृष्टेर्म तिश्रुतज्ञानवे मि थ्यादृष्टेर्मत्यज्ञानश्रुताज्ञानत्वे च ॥ ॥ १० ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra H PROCESCRECRUCLAGHRELCC वेत्यवधारणे तत्राऽसतामपि पटत्वादीनामध्यवसायः, अन्यथा सर्वथापदत्यागप्रसङ्गाद् , एवं विपर्यस्तत्वादेव भवकारण तत, भवहेतुषु हिंसादिषु मोक्षहेतुत्वाध्यवसायात, मोक्षहेतुषु वाहिंसादिषु भवहेतुत्वाध्यवसायाद्, यादृच्छिकोपलम्भरूपं च तद्, विरतिलक्षणं फलं विना फलशून्यं च, इत्येतहेतुभिरज्ञानमेवेदम् ॥आह च-"सदसदविसेसणाओ, भवहेउजदिच्छिओवलंभाओ॥ नाणफलाभावाओ, मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं ॥ ११५ ॥" [सदसदविशेषणाद् भवहेतुत्वाद्यदृच्छोपलंभात् । ज्ञानफलाभावाद् मिथ्यादृष्टरज्ञानम् ।।] चि ॥ १३ ॥ ननु घट एवायं घटोऽस्त्येवेत्येवमेवाध्यवसायः परेषामपि नतु सर्वथेत्याकारस्तत्र च विशेषणक्रियासमतेवकाराभ्यामन्ययोगव्यवच्छेदात्यन्तायोगव्यवच्छेदयोरेव लाभात्क सदसदविशेष इति चेद् , उच्यते । सर्वथाऽनुपरागेण, घटधीर्ज्ञानमेव नः ।। कथञ्चित्परसत्ताया, आपत्तौ चेन्न तद्ग्रहः॥ १४ ॥ यदि हि घटे कथञ्चिदन्ययोगव्यवच्छेदः कथञ्चिदेव चास्तित्वात्यन्तायोगव्यवच्छेदोऽध्यवसीयते तदा ज्ञानमेव तत्, अन्यथा त्वज्ञानमेव, नहि घटभिने पटादौ प्रमेयत्वादिनापि योगो घटे व्यवच्छिद्यते, न वा पटास्तित्वादेरपि घटेऽत्यन्तायोगव्यवच्छेद इति । अथ घटे घटभिननिष्ठभेदप्रतियोगितावच्छेदकधर्मवचमन्ययोगव्यवच्छेदः, अस्तित्वे च घटनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगत्वमत्यन्तायोगव्यवच्छेदः सर्वथास्त्येव, नहि तादृशप्रतियोगितानवच्छेदकधर्मवत्वं तदभावः, येन सर्वथात्वव्याघात:, किन्तु तादृशधर्मवत्वाभावः। न च तादृशधर्मवति तादृशधर्माभावो विरोधादप्रतीतेश्च,नच सर्वेः प्रकारैरिति सर्वथार्थः, किन्तु तदभावानधिकरणत्वे सतीति चेत्,न, प्रतियोगिमत्यपि पररूपेण तदभावात, विशेषग्रहे च कथञ्चित्पक्षप्रसङ्गाद्, अधकः स्याद्वादरहस्ये विस्तर: ॥१४॥ ननु तत्रापि कथमेतदज्ञानम्, कथश्चित्पक्षग्रहात किञ्चवमप्यवधारणविनिर्मुक्तं निर्विकल्पकादिकं कथं मिथ्याशां न ज्ञान, ARSHACHI मिथ्यादृष्टेमतिश्रुतयोरज्ञानत्वे हेतवो निरूपिता:वथाऽनुपरागे ज्ञानत्वमन्यथा त्वज्ञानत्व मिति दर्शितम् ॥ For Private And Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra Acharya ShalkalasssagarmanGyanmantire भव सविकरणं नच स्यात्पदविनिर्मोकात्तस्याज्ञानत्वं नाम, सम्यग्दृशामपि स्यात्पदविनिर्मोकण क्वचिदज्ञानदर्शनात्संसर्गतया स्यात्पदार्थविषय | मिथ्यादृष्टिश्रीज्ञानातायास्त्वन्यत्राऽप्यनिवारणीयत्वात्,सम्यग्दर्शनस्यैव तादृशंसंसर्गकज्ञानहेतुत्वम् ,इति चेत्,न, तथापि सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनोऽसंसर्ग ज्ञाने व्यवकस्यावग्रहस्याज्ञानत्वप्रसङ्गात्, किञ्च संवादिप्रवृत्तिजनकतावच्छेदकं तद्वति तत्प्रकारकत्वलक्षण प्रामाण्यं मिथ्यादृशां ज्ञानेऽतिव्याप्तं, हारौपयिक प्रकरणम् ॥ अव्याप्तं च सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिसंशयादौ, इति चदे, उच्यते ज्ञानत्वं निज्ञानं तदपि संवादि-प्रवृत्तिजनक यतः ॥ अज्ञानं बन्धहेतुत्वा-न्मोक्षाऽहेतुतयाऽथवा ॥१५॥ ॥११॥ श्चयतोऽज्ञाव्यवहारौपयिकं हि ज्ञानत्वं मिथ्यादृशां ज्ञानेऽस्त्येव, तथापि निश्चयतो बन्धहेतुतावच्छेदकमज्ञानत्वमपि तत्राऽस्तीति ज्ञान नत्वम् , परमपि तदज्ञानमित्येव निश्चीयते, ननु ज्ञानेऽज्ञानत्वकल्पने मानाभावो मिथ्यादर्शनविशिष्टज्ञानत्वेनैव विशिष्टबन्धहेतुत्वसम्भवात्, प्रश्नपतिइति चेत्, न, मिथ्यादर्शनविशिष्टज्ञानत्वेन ज्ञानविशिष्टीमथ्यादर्शनत्वेन वा हेतुतेत्यत्र विनिगमकाभावाद्, मिथ्यादर्शनज्ञानत्वयोः, विधानञ्च ॥ सम्बन्धभेदेन व्यासज्यवृत्त्यवच्छेदकताऽसम्भवात, अन्यथा दण्डविशिष्टचक्रत्वादिनाऽपि हेतुत्वप्रसङ्गात, न च ज्ञानत्वाज्ञान-IG त्वयोरसमावेशो पृथग्धयोस्तयोः समावेशाज्जातिसाङ्कयेस्यापि क्वचिददोषत्वाद्,ननु मिथ्यादर्शनाविरतिकपाययोगानामेव तत्तरन्धहेतुत्वोपदेशात्सामान्यतो बन्धविशेषे मिथ्यादर्शनत्वेन मिथ्यादर्शनजन्यतावच्छेदकजातिव्याप्यजात्यवच्छिन्नं प्रति चमिथ्याद र्शनविशेषत्वेनैव हेतुता प्रामाणिकी 'यत्सामान्ययोः' इति न्यायात्, ज्ञानं तु तत्सहभूततया तत्राऽन्यथासिद्धमेवेति न तस्याज्ञानत्वेन PI तद्धतुतेति चेत्, न, मिथ्यादर्शनद्वाराऽज्ञानस्य हेतुत्वे द्वयोर्हेतुत्वसमर्थनात्, अथवा मिथ्यादृष्टिज्ञाने सम्यक्प्रवृत्त्यादिद्वारा मोक्षहेतु१४|| तावच्छेदकज्ञानत्वाभाव एवाज्ञानत्वं, न चोक्तज्ञानत्वव्याप्यत्वमस्यास्त्विति वाच्यम्,सम्यग्दृष्टिसंशयादौ व्यभिचारात,न चैकवि FORESOLUKHRELES ११ For Private And Personal use only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Matavir Jain Arathana Kendra FACACARALLUMAMA शेषवति विशेषान्तराभावेन सामान्याभावाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, एकसामान्यवति सामान्यान्तराभावस्यैव स्वीकाराद्, भेदभेदान्मद्वयोः सामान्ययोरेकपदवाच्यतायामेव नयविभागाद्यत्सामान्यवत्येतत्सामान्याभावस्तरसामान्यमेव मिथ्यात्वोदयजन्यतावच्छेदक, | 18 तिश्रुतयोबन्धहेतुतावच्छेदकञ्चाज्ञानत्वमेवेति प्राच्यपक्ष एव युक्त इति चेत्,न, अज्ञानत्वेन बन्धाहेतुतायामेतत्पक्षस्यैव युक्तत्वात्, इति दिग।। दाभिधानं. इत्थमेव बन्धहेतुत्वादयो हेतवो ज्ञानत्वगमकाः सम्भवेयुरिति सर्वमवदातम् ॥ १५॥ इन्द्रियविउक्तो हेतुफलभावान्मतिश्रुतयोर्भेदः, अथ भेदभेदात्तमभिधातुमाह भागाद्भेदावक्ष्यमाणभिदाभाजो-रेतयोरथवा भिदा ॥ विशेषनिश्चये जाति-भेदानुमितिगोचरः ॥ १६ ॥ भिधानोपमतिज्ञानस्यावग्रहादयोऽष्टाविंशतिभेदाः, श्रुतज्ञानस्य चाङ्गानङ्गप्रविष्टादयश्चतुर्दश वक्ष्यन्त इति भेदभेदादनयो/दो घटितः, | क्रमश्च ॥ नन्ववान्तरभेदस्य न सामान्यभेदानुमापकत्वम्, अन्यथा पृथिव्याधन्यतमभेदस्य द्रव्यभेदानुमापकत्वप्रसङ्गात्, इतिचेत्, न, तत्र साध्याभाववति हेतुसन्देहादननुमितेः, अत्र तु साध्याभाववति हेत्वभावनिश्चयेनानुमित्यप्रतिरोधात् व्याप्तिग्राहकादागमादेव साध्यसिद्धावपि सिसाधयिषया तदग्रहदशायां वाऽनुमानावतारात्पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन । आह च-भेयकर्य च विसेसण-मट्ठावीसइविहंगमेआई [भेदकृतं च विशेषणमष्टाविंशतिविधाङ्गभेदादि]चि वैधय॑मसिमेव साध्यत इत्यप्याहुः॥१६॥ समर्थितो भेदभेदाद् भेदः, अथेन्द्रियभेदाद् भेदमभिधातुमाहअथवेन्द्रियभेदेन, भेदः सिध्येत्तयोर्द्वयोः ॥ श्रुतं पूर्वगते यस्मात् , तभेदप्रतिपादनम् ॥१७॥ स्पष्टः॥ आह च-"इंदिअविभागओवा,मइसुअभेओ जओ भिहि॥११६॥" [इन्द्रियविभागतो वा मतिश्रुतमेदो यतोऽभि RECHARGoodies Far Private And Personal use only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ।। ॥ १२ ॥ শভলজলk www.ketatirth.org हितम् ] || पूर्वगताभिहितं चेदम्- "सोइंदिओवलद्धी, होइ सुअं सेसयं तु मइनाणं ॥ मोचूणं दव्वसु, अक्खरलंभो असेसे ॥११७॥ [ श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्भवति श्रुतं शेषकं तु मतिज्ञानम् ॥ मुक्त्वा द्रव्यश्रुतं, अक्षरलंभव शेषेषु ॥ ] ति ॥ १७ ॥ इमामेव गाथां यथाभाष्यं सप्रसङ्गप्रबन्धेन [विवरीपुराह-] श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धीति - पदार्थ व्याप्तिसिद्धये ॥ द्रव्यभावश्रुते ग्राह्ये, उचिताद्विग्रहद्वयात् ॥ १८ ॥ श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरित्यत्र श्रोत्रेन्द्रियेण श्रोत्रेन्द्रियस्य वा उपलब्धिः, इति तत्पुरुषेण भाव श्रुतम्, श्रोत्रेन्द्रियादुपलब्धिर्यस्येति बहुव्रीह्याश्रयणेन च द्रव्यश्रुतं सङ्गृह्यते, एवमुपयुक्तस्य वदत उभयश्रुतमपि उमयविग्रहाश्रयणाद् ग्राह्यम् ॥१८॥ श्रोत्रेन्द्रियोलब्धिः श्रुतमित्यस्य सावधारणत्वाद्विपरीतावधारणमवयुध्यमानः शङ्कते श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्चेत् श्रुतमेवावधार्यते । तद्द्द्वारकं मतिज्ञान-मुच्छियेत तदा न किम् ? ॥ १९ ॥ यदि श्रुतमेव श्रोत्रोपलब्धिस्तदा तस्या मतिरूपत्वासम्भवात् श्रोत्रावग्रहाद्यभावेन मतेरष्टाविंशतिभेदाः समुच्छिद्येरन्, यदि च सा मतिस्तदैतदुक्त्यसङ्गतिः, उभयं चेत्सङ्करः । आह च- "सोओवलद्धि जह सुअं, न णाम सोउग्गहादओ बुद्धी ॥ अह बुद्धी तो अं, अहोभयं सङ्करो णाम ||११८|| [ श्रोत्रोपलब्धिर्यदि श्रुतं न नाम श्रोत्रावग्रहादयो बुद्धिः॥ अथ बुद्धिस्ततो न श्रुतं, अथोभयं संकरो नाम ] ॥ १९॥ अत्रोच्यते श्रोत्रोपलब्धिरेवात्र, श्रुतं न श्रुतमेव सा । शब्दः सैवेत्यपव्याख्या, तद्भेदानधिकारतः ॥ २० ॥ अत्र हि गम्य एवकारो विशेषणेन सह योज्यते, तन्महिम्ना व 'चैत्रो धनुर्धरः' इत्यत्रेवायोगव्यवच्छेद एव प्रतीयत इति, For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kailassagarsun Gyanmandir इन्द्रियवि भागान्मति श्रुतभेदामि धाने साक्ष्योद्धृतायाः पूर्वगतगा थाया भा प्यानुसारि विवरणम् ॥ ॥ १२ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतमिति पर्यवसानेऽपि तस्या मतिरूपाया अपि सम्भवात्रोक्तदोषः॥ आह च-"सोइन्दिओवलद्धी, चेव सुझं इन्द्रियविभान उ तई सुझं चेव ।। सोइन्दिओवलद्धी वि, काइ जम्हा मइनाणं॥१२॥" [श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव, श्रुतं न तु सा श्रुतमेव ।।श्रोत्रे-12 गान्मतिश्रुन्द्रियोपलब्धिरपि,काचिद्यस्मान्मतिज्ञानम् ] केचित्तु 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरित्यत्र केवलबहुव्रीद्याश्रयणेन श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः भुतमेवतभेदाभिधाशब्द एव,स च ब्रुवतः श्रूयत इति श्रुतं, अण्वतस्तु श्रोतुरखग्रहादिना मन्यत इति मतिरित्युभयमुपपन्नम्,उपपन्नाश्चाष्टाविंशतिरपि | Gने साक्ष्योद्धमतेर्मेदा' इत्याहुः, तत्र,धात्वर्थमात्रभेदेन शब्दस्य द्रव्यश्रुतमात्रत्वाप्रतिघाते द्वैविध्याभावात्, आह च-"कई बिन्तस्स सुरं, सदो तायाः पूर्वसुणउ मइति तं ण हवे ।। जं सव्वोच्चिअ सदो, दव्वसुअंतस्स को भेओ?॥११९॥"[केचित्रुवतः श्रुतं शब्दः शृण्वतो मतिरिति तद् गतगाथाया न भवेत् ॥ यत्सवे एव शब्दो, द्रव्यश्रुतं तस्य को भेदः१] वस्तुतस्त्वेतदवधारणोक्तिर्न मतिश्रुतज्ञानयोर्भेदनिरूपणौपयिकी भाष्यानुसाशब्दभेदनिरूपणं त्वनधिकृतमित्यर्थान्तरम, यदि च श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिपदार्थः शब्दविज्ञानमेव कार्यतया चोपचाराच्छब्द रिविवरएवेत्युच्यते तदापि वक्तृश्रोतगतत्वेन तस्यातिशयाभिधानं श्रुत्वा युवतश्च सैव मतिः, तदेव च श्रुतमिति सार्यम् , पारम्पर्यश्रुतोच्छेदश्च स्यात्,आह च-"किं वा नाणेहिगए, सदेणं जइ असद्दविन्नाणं ।। गहिअंतो को भेओ,भणओ सुणओ च जो तस्सा॥१२०॥" [किं वा ज्ञानेधिकृते ? शब्देन यदि च शब्दविज्ञानं । गृहीतं ततः को भेदो, भणतः शृण्वतश्च यस्तस्य] “भणओ सुणओ व सुश्र, तं जमिह सुआणुसारि विण्णाणं ॥दोण्हं पि सुआईअं, जं विण्णाणं तयं बुद्धी ॥१२१॥" [भणतः शृण्वतो वा श्रुतं, तद्यदिह श्रुतानुसारि विज्ञानं ।। द्वयोरपि श्रुतातीतं, यद्विज्ञानं तद्बुद्धिः] किञ्च शब्दविज्ञप्तिः शब्द एवेत्युक्ते किं केन सङ्गतामिति श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेः शेषाक्षरलाभस्य च शब्दविज्ञानत्वप्रतिपादनेनैव फलतः श्रुतत्वप्रतिपादनमनाकाङ्क्षितमेव श्रोत्रेन्द्रियोपल CHR KATARA Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ She Man Arah Kenda सविवरण श्रीज्ञाना-1 ॐRG प्रकरणम् ॥ ॥१३॥ ब्धौ मतित्वविलक्षणश्रुतत्वसिद्धावेव शेषे मतिजिज्ञासाप्रवृत्तः, अपि च श्रोत्रद्वारिकाप्युपलब्धिर्न शब्द एव, एककारणपरिशेषापातात इन्द्रियविभाशब्दाजन्यत्वस्य निरभिलापत्वस्य वा व्यावृत्तिरेव श्रुतत्वव्यापिकावधारणफलमेवेति चेत्,न, तथापि व्यापकधर्मपुरस्कारेण तद्धर्म- EN | गाम्मतिश्रुवत्तानिश्चयस्याहत्य व्याप्यधर्म पुरस्कारेण तद्वत्तासंशयानिवर्तकत्वात्, अन्यथा इदं द्रव्यमेवेति निश्चये इयं पृथिवी न वेति ५ तभेदाभिधासंशयाभावप्रसङ्गात्, एवं च शेषन्द्रियाक्षरलाभे मतित्वशङ्कापि न निवर्तेत तत्र तद्विलक्षणश्रुतत्वाप्रतिपादनाच्चनियतशब्दजन्य- है ने साक्ष्योद्धृ. त्वप्रतिपादने चोक्त एव दोषः, यत्तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिपदं सामिलापज्ञानपरम् , इति सामिलापज्ञानं श्रुतमेवेति तद्भिन्नं तु तायाः पूर्वमतिरेवेत्यत्र तुशब्दस्यैवकारार्थकत्वोपपत्तिः, तन्नैतव्याख्यानस्येन्द्रियविभागानुपयोगित्वात, न च तद्विभागलभ्याभिधान- गतगाथाया मेवेदम्, अर्थान्तरत्वात्, किञ्चैवं शेषन्द्रियाक्षरलामे मतित्वशङ्कानिवृत्तये 'अक्खरलम्भो अ सेसेसु' इत्यभिधानौचित्येऽपि भाष्यानुसाशेषपदस्य यथावदर्थानुपपत्तरित्यपव्याख्यानमेतत् ॥२०॥ तुशब्दश्चात्र समुच्चयार्थक एवेति व्याचष्टे रिविवर__मतेरपि श्रोत्रधीत्वात्, तुशब्दोऽत्र समुच्चये ॥ नाऽवधारणवन्ध्यत्व-मेकत्रैवावधारणात् ॥२१॥ णम् ॥ श्रोत्रावग्रहादिरूपाया मतेरपि श्रोत्रोपलब्धिरूपत्वात्, तुशब्दोऽत्र समुच्चयार्थकः, तथा च श्रोत्रावग्रहादिकन श्रोत्रातिरिक्तन्द्रियजन्यश्च ज्ञानं मतिः, इति पर्यवस्यति, न चात्रावधारणं सम्भवति सप्रयोजनं वा, एकत्रावधारणादेव विभागोपलम्भादेतादृशतुशब्दव्याख्यानादपि स मतिभेदभङ्गानापत्ति समर्थयति ॥आह च-"तुसमुच्चयवयणाओवकाई सोइंदिओवलद्धीवि ।। मइरेवं सति सोउम्गाहादओ होन्ति मइभेआ॥ ॥१२॥" [तुसमुच्चयवचनाद्वा, काचिच्छ्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि ।। मतिरेवं सति श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः] ॥ २१ ॥ ननु शेषं मतिज्ञानमित्युक्ते पत्रादिगतं अक्षरविन्यासरूपं मतिज्ञानं मा प्रसांक्षीदिति “मोत्तूणं REPX For Private And Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra FREE दव्वसुअं" इत्युक्तं तत्र तस्य द्रव्यश्रुतत्वे किं मानं कथश्च शेषेन्द्रियाक्षरलाभो न मतिरित्याशङ्कायामाह है इन्द्रियविभा____ व्यञ्जनाक्षरवद् द्रव्य-श्रुतं लिप्यक्षरं मतम् ।। भावश्रुतं वर्णलाभः, शेषं तु मतिरिष्यते॥ २२ ॥ गान्मतिश्च लिप्यक्षरं द्रव्यश्रुतं व्यञ्जनाक्षरवदित्यत्र भावश्रुतकारणत्वात्, इतिहेतुर्गभ्यः।। यदाह-"पत्ताइगयं सुअकारणं ति, सद्दो व्व तभेदाभिधातेण दच्वसुअं॥ भावसुयमक्खराणं, लाभो सेसं मइनाणं ॥१२४॥ [पत्रादिगतं श्रुतकारणमिति शब्द इव तेन द्रव्यश्रुतम् ।। भावश्रुत-दने साक्ष्योमक्षराणां, लाभः शेष मतिज्ञानम् ] ननु द्रव्यश्रुतत्वमत्र साध्यम्, तच्च भावश्रुतकारणश्रुतत्वमेवेति हेतुसाध्ययोरभेद इति चेत्, न, तायाः पूर्वद्रव्यश्रुतव्यवहारीवषयत्वस्यैव साध्यत्वाद्, हेतौ कारणपदस्य नियतान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वपरत्वाद्वा, ननु भावश्रुतप्रयोजक- गतगाथाया त्वमात्रं, व्यमिचारि व्यजनाक्षरसाधारणं, परम्परया च न लिप्यक्षरस्य शाब्दज्ञानानुकूलत्वं तादृशानुपूवींकलिप्यक्षरज्ञाना- ल भाष्यानुसाजन्यतादृशानुपूवाकव्यञ्जनाक्षरज्ञानोत्तरमेव पदार्थोपस्थित्या शाब्दबोधोदयाद्, न च व्यजनाक्षरेणेव लिप्यक्षरेणाऽपि रिविवरणम्॥ सममर्थस्य सम्बन्धग्रहात्ततोऽप्याहत्य तदुपस्थितिरिति वाच्यम् , अर्थाव्युत्पन्नानां ततः शब्दस्यैवोपस्थित्याज्यत्रापि तदुपस्थितिद्वारैव तस्यार्थोपस्थापकत्वात्, साधुत्वाद्यभावेन तस्य शाब्दवोधाहे तुत्वाच्चेति चेत्, न, व्यञ्जनाक्षरादिव लिप्यक्षरादपि पट्वाकलितसङ्केतानां झटित्येवार्थोपस्थितेः, साधुत्वस्य सर्वत्रातन्त्रत्वादर्थोपस्थितिकारणतत्कारणसाधारणप्रयोजकत्वस्यैव वा व्यवहारानुकूलत्वात्सम्प्रदायभङ्गस्य विपक्षवाधकतर्कत्वादित्यायूहनीयम्, लब्ध्यक्षरं तु श्रुतानुसारित्वात् , भावश्रुतं न मतिरिति शेषं मतिज्ञानमिति सुव्यवस्थितम् । आह च-"भावसुअमक्खराण लाभो सेसं मइनाणं ॥ [ भावश्रुतमक्षराणां लाभः शेष मतिज्ञानम् ॥]ति ॥२२॥ ननु यदि शेषाक्षरलाभोऽपि श्रुतं तर्हि श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवेत्यवधारणं भग्नमित्यत आह TE Cancestococca Fer Private And Personal use only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ १४ ॥ /www.ketatirth.org श्रुतत्वं न जहात्येव, लब्धिरक्षरगर्भिणी ॥ श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः सा, यतो योग्यतया स्मृता ॥ २३ ॥ शेषेन्द्रियद्वारकज्ञानेऽपि प्रतिभासमानमक्षरं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धियोग्यमिति श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव तत् । आह च - " जइ सुअमक्खरलाभो, न णाम सोओवलद्धिरेव सुअं ॥ सोओ वलद्धिरेवक्खराई सुइसम्भवाओ” चि ।। १२५ ।। ।। [ यदि श्रुतमक्षरलाभो न नाम श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम् । श्रोत्रोपलब्धिरेवाक्षराणि श्रुतिसंभवादिति ] ||२३|| नन्वेवं द्रव्यश्रुतस्योपलब्धिविषयस्य तथात्वसमर्थनेऽप्यक्षरोपलब्धेस्तथात्वमसमर्थितं न खलु सापि श्रोत्रग्रहणयोग्या, न चाभिलापस्य तथात्वे तदाकारपरिणतज्ञानस्यापि तथात्वम्, परिणामपरिणामिनोः सर्वथैकत्वाभावात्, एवं सति केवलबहुव्रीह्याश्रयणप्रसङ्गाच्च, इति चेत्, उच्यते - शेषाक्षरलाभोऽपि श्रुतानुसारितया सङ्केतग्रहमपेक्षमाणः साक्षात्परम्परया वा तदनुकूलां श्रोत्रजन्यां पदधियमुपजीवतीति श्रोत्रद्वारिकोपलान्धरेव सा, न चेन्द्रियान्तरमपि तत्र द्वारमित्यवधारणानुपपत्तिः, श्रोत्राद्वारकत्वव्यावृत्तेरेव तत्फलत्वादस्मादेवावधारणादिन्द्रियविभागः सङ्गच्छते, अन्यथा द्वयोरपि मतिश्रुतयोः सर्वेन्द्रियापेक्षाया अविशेषादित्याशयेनाह - अवधारणमाश्रित्ये-न्द्रियभेदोऽपि युज्यते ॥ उपेक्ष्यमेव व्याख्यान-मतो निरवधारणम् ॥ २४ ॥ तथाविधविरुद्धधर्माध्यासलक्षणभेदौपयिकाऽवधारणेनैव हि मतिश्रुतयोरिन्द्रियभेदो युज्यते, विनाऽवधारणं तदलाभात्, अथ श्रुतं श्रोत्र।पलब्धिरेवेति सावधारणव्याख्याने शेषाक्षरला भासङ्ग्रहेणाऽनन्वयात् श्रोत्रोपलब्धिपदस्य तद्योग्यत्वार्थकतया 'अक्खरलंभोसेसेसु' इत्यभिधानानुपपत्तेः, न च तत्रोत्सर्गव्याप्तं मतित्वमपोदितुं तदभिधानं, प्रथमार्थानुपपत्तेः, न चाक्षरलाभे श्रुताभेदान्वयादेव तदपवादो, वाक्य भेदप्रसङ्गात्, न च द्वितीयार्थ एवेयं प्रथमा, अक्षरलाभपदस्य श्रुतानुसार्यचरलाभपरतया द्रव्यश्रुत इव तत्रापि For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kalassagarsun Gyanmandir इन्द्रियविमागान्मतिश्रुतभेदाभिधासाक्ष्यो - तायाः पूर्व गतगाथाया भाष्यानुसा रिविवर णम् ॥ ॥ १४ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Arattuna Kendra CRICAR D COMCH मुक्त्वेत्यन्वयसम्भवेऽप्यप्रामाणिकाविभाक्तिव्यत्ययकल्पनानाचित्यात, तस्मानिरवधारणब्याख्यानमेव सम्यक् कलतोयधारणला- [इन्द्रियविमाभाचेन्द्रियविभागोपपत्तिरिति चेत, न, एकावधारणलामेध्यभजनाशङकया तदभिधानात. अत एवोभयाव्यभिचारस्थलेपि निय-||गान्मतिश्रुतमद्वयाभिधानं तत्र तत्रोपवीक्ष्यते॥२४॥ ननु यदि शेषाक्षरलाभः सर्वोऽपि श्रुतं तर्हि अवग्रहरूपैव मतिः स्यात्, इत्यत आई- 6 भेदाभिधाने भावः श्रुताक्षराणां यः, स एव श्रुतमिष्यते । ईहादयो मतेर्मेंदा, नोच्छिोरन् कुतोऽन्यथा ॥ २५ ॥ IM साक्ष्योधृता यदि सर्वोऽप्यक्षरलाभः श्रुतं ताक्षरानुविद्धा ईहादयोऽपि श्रुतरूपा एव प्रसजेयुरित्यवग्रहैकमूर्तिरेव मतिः पर्यवस्येत्,तस्माच्छुता-18 या"सोइंदिनुसार्यक्षरलाभ एव श्रुतमिति । आह च-" सोवि हु सुअक्खराणं, जो लाभो तं सुअं मई सेसा ।। जइ वा अणक्खरचित्र, | ओवलब्धीसा सव्वा ण पवत्तज्जा।।१२६॥" [सोऽपि खलु श्रुताक्षराणां यो लाभस्तच्छ्रुतं मतिः शेषा। यदि वाऽनक्षरैव, सा सर्वो न प्रवर्तत] इत्थं ति"पूर्वगतव्याख्याता 'सोइंदिओवलम्धीति' पूर्वगतगाया ॥२५।। अथाग्रिमपर्वगतगाथासम्बन्धाय “दव्वसुअंभावसुअं,उभयं वा किं कह | गाथाया विव होनाचि।। को वा भावसुअंसो, दव्वाइसुअं परिणमज ॥१२७॥" [द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं, उभयं वा किं कथं वा भवेदिति।। को वा वरणसमाप्तिः भावश्रुतांशो द्रव्यादिश्रुतं परिणमेत ] ति ॥ भाष्योक्ता सङ्गतिमनुवदति । भाष्योक्ताद्रव्यभावश्रुते युग्मं, किं कथं वा भवेदिति ॥ कियान् भावभुतस्यांशो-द्रव्यादीत्यनुभाषते ॥ २६ ॥ |ग्रिमपूर्वगत द्रव्यश्रुतं भावश्रुतमुभयश्रुतं वा किं कथं च तद्भवेत्कियान्वा भावश्रुतस्य भागो द्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वेत्यनुभाषितुमिमां गाथा- गाथासङ्ग| माह-पूर्वगतप्रणयनप्रवण:-"बुद्धिढेि अत्थे, जे भासइ तं सुझं मईसहि ॥ इयरत्थवि होज्ज सुश्र, उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा ॥१२८॥[बुद्धिदृष्टेऽर्थे यान्भाषते तत्श्रुतं मतिसहितम् ॥ इतरत्रापि भवेत् श्रुतं, उपलब्धिसमं यदि भणेत् ॥२६॥ इमामेव च्याचष्टे तिव For Private And Personal use only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव अकरणम् ॥ 31 १५ ।। www.ketatirth.org बुद्धा बुद्धिगतानर्थान् वदतो शुभयश्रुतम् ॥ द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य, भावतो जानतः परम् ॥ २७ ॥ बुद्धया दृष्टानर्थान् मतिसहितान् यान् भाषते तद्द्रव्यभावलक्षणम्भयश्रुतम् अत्र बुद्धिशब्दो मतिशब्दश्च श्रुततात्पर्यकः, निरूपणप्रयोजकविवक्षारूपज्ञानस्य प्रयोगसमकालीनोपयोगस्य च मतिरूपस्यासम्भवात् उभयत्वं चात्र प्रयोगोपयोगाभ्यां बोध्यम्, न तु विवक्षया, तया सबै कविशिष्टापरत्वरूपो भयत्वासम्भवात्, अनुपयुक्तस्यैव वदतो द्रव्यश्रुतम्, अथानुपयुक्तस्यैव प्रयोगो भवति नोपयुक्तस्य, प्रयोगकाल एव तदधीनार्थोपयोगस्यासम्भवात्, तथा च कथमयं विभाग इति चेत्, न, सोपयोगप्रयोगाभिधित्सया केवलप्रयोगाभिधित्सया च प्रयोगद्वैविध्यसम्भवाद्वर्णार्थादिषुच्छिन्नज्वालादृष्टान्तेनैव वोपयोग इति व्यक्तमध्यात्ममतपरीक्षायाम्, तदिदमभिप्रेत्याह- "जे सुअबुद्धिदिडे सुअमइसहिओ पभासई भावे ।। तं उभयसुअं भण्णइ, दव्वसुअं जेउ अणुवउत्तो ।। १२९ ।।” [ यान् श्रुतबुद्धिदृष्टान, श्रुतमतिसहितः प्रभाषते भावान्। तदुभयश्रुतं भण्यते, द्रव्यश्रुतं यांस्त्वनुपयुक्तः ] अत्राभाषमाणस्यैव श्रुतबुद्धया पर्यालोचयतस्तु भावश्रुतमेवेति सामर्थ्यगयं, सामर्थ्यं च न तत् भावश्रुतमेवेति साध्ये द्रव्योभय श्रुतभिन्नत्वे सति श्रुतत्वम्, एवकारेण साध्यार्थस्यापि तादृशस्य पर्यवसाने हेतुसाध्याभेदप्रसङ्गात्, किन्तु प्रयोगाकालीन श्रुतत्वमेवेति बोध्यम् || सूत्रे तु श्रुतपदस्योभय श्रुतपरतयाऽनुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतमेवेत्यपि सामर्थ्यगम्यमेव, एवश्च द्रव्यभूतं भावश्रुतमुभयश्रुतं वा किं कथञ्च भवेदित्याकांक्षाः पूरिताः ॥ २७॥ अथ द्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वा भावश्रुतस्य कियानंश इत्याकांक्षापूरणौपयिकमुत्तरार्धं व्याख्यायते तात्पर्यतः केवलश्रुतकालेऽपि, तदाऽऽत्मन्युभयश्रुतम् । भवेद्यद्युपलब्धार्थान् सर्वान् वक्तुं क्षमेत सः ॥ २८ ॥ For Private And Personal Use Only *202 Acharya Shui Kalassagarsun Gyanmandir इन्द्रियविभा गान्मतिश्रुतभेदाभिषा ने 'बुडिदिट्ठे अत्थे' इति पूर्वगत गाथाया भाष्यानुसा रिपूर्वार्ध विव रणम् ॥ ।। १५ ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org “ इयरत्थ वि होज्ज सुअं उबलद्धिसमं जइ भणिज्जा ॥ १२८ ॥" इत्यस्यायमर्थः, इतरत्र भावश्रुते, भवेद्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वा यद्युपलब्धिसमं भणेत् प्राकृतशैल्या सहस्य समभावनिपातनात्समशब्दस्य तुल्यार्थकत्वात्समकालार्थकत्वाद्वोपलब्ध्या सहोपलब्धि तुल्यमुपलब्धिसमकालं वा भणेद्, अत्राद्यन्तयोः सहभावयौगपद्ययोः सामान्येन ग्रहणादीप्सितार्थसिद्धि:, तदिदमाह-" इयरत्थत्रि भावसुए, होज्ज तयं तस्समं जइ भणिज्जा ॥ ण य तरह तत्तियं सो, जमणेगगुणं तयं ततो ॥१३०॥ [इतरत्रापि भावश्रुते, भवेत्तत्तत्समं यदि भणेत् ॥ न च तरति तावत्सः यदनेकगुणं तत्ततः ] “ सह उबलब्धीए वा, उवलब्धिसमं तया व जं तुलं ॥ जं तस्समकालं वा, ण सव्वहा तरह वोतुं जे ॥ १३१ ॥ " [ सहोपलब्ध्या वोपलब्धिसमंता | यत्तुल्यम् ॥ यत्तत्समकालं वा न सर्वथा तरति वक्तुम्] एवञ्च द्रव्यश्रुतादुभयश्रुताच्चानन्तगुणं भावक्षुतं प्राप्तमिति सम्प्रदायः ॥ व्यक्तीभविष्यति चेदमुपरिष्टात्, भावश्रुते द्रव्यश्रुतमप्रसक्तमिति सूत्रे श्रुतपदं प्रागुक्तश्रुतपदसमानार्थकमुभयश्रुतपरमेव, न चैवं तच्छब्देन तस्य परामर्शो युज्येत, सूत्रकृतांगतेर्विचित्रत्वात्, न चैकविशेष विशेषान्तरमापादनार्हमिति, इतरत्रेत्यस्य | केवलभावश्रुतोत्पत्तिकाल इत्यर्थः । एवश्च तदा भावश्रुतसामग्रीसत्त्वेऽपि द्रव्यश्रुतसामग्र्यभावादुभयश्रुताभावो न ह्युभयमतिरिक्तमस्ति, प्रत्येकातिरिक्तसमुदायाभावादित्येतत्तात्पर्यम् ||२८|| अथाऽत्र केषाञ्चिन्मतिश्रुतभेदोपयिकं पूर्वार्द्धव्याख्याकौशलमपहस्तयितुमुद्भावयति त्या सह तया दृष्टान् ब्रुवतो ह्युभयश्रुतम् ॥ द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य, तदेकालोचनं मतिः ।। २९ ।। 'बुद्धिद्दिट्ठे ' इत्यत्र बुद्धया मत्या दृष्टेष्वर्थेषु मध्ये अत्र ' वर्णेषु क्षत्रियः शूर' इत्यत्रेव मध्यार्थे सप्तमी, एकवचनं बहु For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir इन्द्रियविभामान्मतिश्रुत भेदाभिघाने उक्त पूर्वगत... | गाथोत्तरार्द्ध स्य भाष्यानुसारिविव रणम् ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं| श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ है तमेदाभिषा ARRICUDAEIDOE0% वचनार्थकं जात्यभिप्रायकं वा, बुढ्या मत्या दृष्टान् यानर्थान् मतिसहितान् भाषत इति सम्मुखीनैव व्याख्या, तच्छुतमुपयोग इन्द्रियविभाप्रयोगाभ्यामुभयश्रुतं भवति। ननु मतिसाहित्यं कथमर्थानां विशेषणमनन्वयादिति चेत्, अत्राहुः-मईसहियमित्यत्र मत्युपयोगे १४ गान्मतिश्रुवत्तेमानस्य वक्तुग्रहणात् , तस्य मत्युपयोगसाहित्येनार्थानामपि तदुपचर्यत इति। अत एवाह-"कई बुद्धिद्दिढे, मइसहिए भासओ सुअंति।।"[केचिद् बुद्धिष्टान् मतिसहितान्माषमाणस्य श्रुतम् ॥] इदं च भाष्यानुरोधादुक्तम्, सूत्रे तु मइसहियमित्यत्र ने उक्तपूर्वगमतिसाहित्यस्य क्रियाविशेषणत्वलाभान्मत्युपयोगसहितम्, मतिदृष्टार्थभाषणं श्रुतमिति सम्मुखोर्थ एव युक्तो, नहि मतिसहिता तगाथाया भाष्यमाणा अर्थास्तव , अपि तु तादृशः शब्द इति । अत एवाह-तत्सहितं यथा भवत्येवं यान् भावान् भाषते इति अनुप- 6 व्याख्यानाक्तस्यैव वदतो द्रव्यश्रुतं, अभापमाणस्य पदार्थमात्रपर्यालोचनं तु मतिः,इति मतिश्रुतयोर्भेद इति ॥२९॥ तदेतद्दषयति न्तरस्य केचिदाहुरिवं, तन्नो, युक्तं भावश्रुतव्ययात् । नाधिक्यं नान्यथात्वं वा, भाषाव्यापारतो मतेः ॥ ३० ॥ खण्डन तदिदं व्याख्यानमयुक्तं भावयतोच्छेदप्रसङ्गात, नहि प्रयुज्यमानः शब्दो मतिजानं वा तद, अत एव नोभयं प्रत्येकाभावे | भाष्यानुसासमुदायाभावाद् , आह च-"तत्थ ।। किं सदो मइरुभय, भावसुअं सव्वहाऽजुत्तं ॥१३२॥ [तत्र किं शब्दो मतिरुभय, भावश्रुतं सर्वथाऽयुक्तम् ] " सद्दो ता दन्यसुअं, मइरभिनि-मोहिन वा उभयं ॥ जुत्तं, उभयाभावे भावसुअं कत्थ तं किं वा ॥१३३॥ [शब्दस्ताबद्रव्यश्रुतं मतिराभिनियोधिकं नवा उभयं।। युक्तं, उभयाभावे, भावश्रुतं कुत्र तत्किं वा] न च भाषापरिणतिकाले मतेराधिक्यमुपक्षयो वा जायते, न वा भाषारम्भ एवात्र विशेषस्तस्य तत्स्वरूपपरावृत्यसहत्वात्, अन्यथा धावनवल्गनादिक्रियानन्त्यान्मतेरानन्त्यप्रसङ्गात्, अथ द्रव्यश्रुतसामग्र्या एव भावभुतसामग्रीत्वान्मतिदृष्टार्थप्रयोगसमानकालीन उपयोगः श्रुतमेव ॥१६॥ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra Acharya ShalkalasssagarmanGyanmantire PROM तस्य च मतिजन्यतया मतित्वं श्रुतत्वं चेत्युभयमप्यविरुद्धमिति चेत्, न,एवं सति श्रुतोहाद्यामिलापस्थलेऽवध्यादिमूलकाभिलापस्थले | 3 । इन्द्रियविभाच तत्प्रसङ्गात, तदिदमभिप्रेत्याह-" भासापरिणइकाले, मईए किमहियमहवन्नहर्च वा-भासासंकप्पविसेसमेतओ वा || गान्मतिश्रुसुअमजुत्तं ॥१३४ ॥” [भाषापरिणतिकाले मतेः किमधिकमथवाज्यथात्वं वा ।। भाषासंकल्पविशेषमात्रतो वा श्रुतमयुक्तम् ।।] तभेदाभिषा॥३०॥ ननु मतेः श्रुतहेतुत्वात् नावध्यादिस्थले तत्प्रसङ्गः, श्रुतानुसाराभावाच नाश्रुताभिलापस्थलेऽपीत्यत आह ने उक्तपूर्वमत्या श्रुतानुसारस्या-श्रयणाजन्यते श्रुतम् ।। इति चेच्छृतसङ्कल्पः, श्रुतमेवावधायेताम् ।। ३१ ॥ गाथोत्तराईश्रुतमनुसृत्य मतिज्ञानेन यदि श्रुतज्ञानं जन्यते तर्हि भाषासङ्कल्पोऽपि श्रुतानुसारितया श्रुतमेव स्यात्, न तु मतिरिति बुद्धया व्याख्याना न्तरस्य मामतिज्ञानेनेति व्याख्यानमनुपपन्नम् ॥३१ ॥केषाश्चिदेवोत्तरार्द्धव्याख्यानमधरयतिइतरोत्पत्तिकाले च, श्रुतं स्यादिति दुर्वचम् ॥ भिन्नहेतुकतासिद्धेः, स्वस्वावरणभेदतः ।। ३२ ॥ ष्यानुसारिइतरत्र केवलमतिज्ञानोत्पत्तिकाले, तदा श्रुतं स्याद्यधुपलब्धिसमं भणेदित्याद्यापादनानह, तदा श्रुतज्ञानसामग्रीविरहनिश्चयेन खण्डनम् ॥ तदनापत्तेः, भिन्नलक्षणावरणत्वेन द्वयोर्व्यवस्थितत्वात्, न च तदा श्रुतलब्धिसत्चात्तदापतिः, विशेषसामग्र्यभावेन तदभावात्सा च परोपदेशाद्वचनाद्यनुसाररूपा, अत एवाह-"इयरत्थवि मइनाणे, होज्ज सुअंति किह तं सुअं होइ ।। किह व सुअं होइ मई, | सलक्खणावरणभेआओ ॥ १३५ ॥" [इतरत्रापि मतिज्ञाने भवेच्छृतमिति कथं तच्छृतं भवति ।। कथं वा श्रुतं भवति मतिः, स्वलक्षणावरणभेदात् ।।] परव्याख्या बाधकत्व(वाधितार्थ)गोचरा भ्रान्तैव निसर्गात इति न किश्चिदेतत्।।३२।। श्रुतोपलब्धानां तु बहुत्वादेव कात्स्न्येन वक्तुमशक्यत्वं कौशलमादधानस्य मति वश्रुतं न स्यादेव द्रव्यश्रुतत्वं तु तत्र निगद्यमानं हृद्यमपीत्याशयेनाह REP For Private And Personal use only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साविवरण साम्प्रतं शब्दहेतुत्वा-न्मतिद्रव्यश्रुतं भवेत् ॥ शुद्धा तु सा तदा तत्स्याद्, यदि ज्ञप्तिसमं भणेत् ॥३३॥ श्रीज्ञाना-18 मतिदृष्टानान्मत्युपयोगेन भाषमाणस्य द्रव्यश्रुतरूपशब्दकारणतया मतिद्रव्यश्रुतत्वमास्कन्देदेव, प्रयोगानुकुला च मतिस्तु गान्मतिश्रु. र्षक- | तथात्वमनुवीत,यदि नाम मतिमानुपलब्धिसमं भणितुं शक्नुयात् आह च-"अहव मई दव्वसुअचमेउ,भावेण सा विरुज्झेज्जा।। प्रकरणम्॥ जो असुअक्खरलाभौ, तं मइसहिओ पभासेज्जा ॥१३६॥" [अथवा मतिद्रव्यश्रुतत्वमेतु, भावेन सा विरुध्येत ॥ योऽश्रुताक्षरलाभस्तं ने उक्तपूर्व॥१७॥ मातिसहितः प्रभाषेत।।] "इयरम्मि वि मइनाणे, होज्ज तयं तस्सम जइ भणेज्जा ॥ण य तरइ तत्तियं सो, जमणेगगुणं गतोत्तराध तयं तत्वो ॥ ॥ १३७॥" [इतरस्मिनपि मतिज्ञाने, भवेत्चत्समं यदि भणेत् ॥ न च तरति तावत्स यदनेकगुणं तत्ततः ॥] | व्याख्यान ननु शुद्धापि मतिः शब्दकारणत्वात्कुतो न द्रव्यश्रुतं, नहि कार्यमजनयतोऽपि कारणस्याकारणत्वं नाम, अरण्यस्थ-2 दण्डादेर्घटाहेतुत्वप्रसङ्गात्, किश्चैतद्व्याख्यानस्याविरोधाभिधानसावधानत्वेन मतिद्रव्यश्रुतयोर्भेदनिरूपणोपयिकत्वेऽपि मति भाष्यानुसाश्रतयोस्तनिरूपणानौपयिकत्वमिति चेत्, न, सहकारियोग्यताया एव द्रव्यघटकत्वात्, उक्तातिदेशन श्रुतेऽपि तद्भेदलाभेन रिहातोपप्रयोगभेदेन मतिश्रुतयोरपि भेदलाभाच [चानुना विप्रयोगेऽप्यात्मानमलभमानाः शब्दाः पावेतिच्छाय]॥ [अत्राशुध्धमवभासते]। ननूपलब्धितुल्यं भाणतुमशक्यमित्यत्र को हेतुरित्यत आह दर्शनम् ॥ अस्वाभाब्याद बहुत्वाच्च, न सर्वत्र गिरां गतिः ।। अपि प्रज्ञापनीयाना-मनन्तोंऽशो न्यबन्धि यत ॥३४॥ मत्याद्युपलब्धार्थानामनभिलाप्यत्वस्वभावादेव वक्तुमशक्यत्वं, यद्यपि कतिपयास्तैरप्यमिलाप्या एव तथापि श्रुताविषयत्वेन तेषामनभिलाप्यत्वं बोध्यं, भाष्ये शेषोपलब्धिपदं वा श्रुतोपलब्ध्ययोग्यत्वपरम्, यत्तु कश्चिदाह न सन्त्येवानभिलाप्या भावा Pi|| १७॥ विशेषस्य RASHTRAremo 18 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAAKADASIADRI अभिधेयत्वस्य केवलान्वयित्वात्, इति, तत्तुच्छं, सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वादित्यत्राभिधाविषयत्वस्य साध्यत्वे सिद्धसाधनादनभिलाप्यानामप्यनभिलाप्यपदाभिधेयत्वात, तत्तत्पदबोध्यत्वप्रकारित्वावच्छिन्नेच्छाविषयत्वस्य साध्यत्वे क्वचिदेकस्येव सर्वस्यापि सक्केतग्रहासम्भवेन विपक्षबाधकतर्कविरहेणाप्रयोजकत्वात्, न च विपक्षस्याऽभिधानानमिधानाम्यां व्याघात एव तद्बाधकस्तर्कः, अनभिधानेऽपि वस्तुस्वरूपाप्रच्युतेः, अथ न सङ्केतमात्रमभिधा, आधुनिकसङ्केतितेष्वपि तत्प्रसक्यात, सादी वाऽस्मदादिसङ्केतानुत्थानाच, किन्त्वीश्वरेच्छेव सा, तस्याच नित्यतया न कारणविरहप्रयुक्तो विरह इति तद्विषयत्वमेव सार्वत्रिकमनुमेयमिति चेत, न, शाब्दबोधानुकूलसङ्केतमात्रस्यार्थोपस्थापकत्वात्सर्गादेरसिद्धरीश्वरस्याप्यसिद्धेस्तज्ज्ञानविषयत्वस्येव तदिच्छाविषयत्वस्थ साध्यत्वेऽप्युद्देश्यासिद्धेस्तदिच्छाविशेषविषयत्वस्य साध्यत्वेअयोजकत्वाद्, अर्थानां बाहुल्येन शब्दानां चाल्पत्वेन सर्वत्र तदप्रसरात, न हि तत्तत्क्षणेष्वेवानन्तेषु विशेषपदप्रयोगः सम्भवी, किमङ्ग शेषेषु भावेषु, न चोलब्धेष्वपि बहुत्वं हेतूभवितुमुत्सहते, तथापि फलाभावे स्वरूपायोग्यत्वमेव हेतुरिति तत्रास्वाभाव्यमेव हेतुरुक्तः, उपायस्योपायान्तरादूषकत्वाद्वा, तदिदमाह-"कह मइसुओबलद्धा, तीरंति न भासिउं बहुत्ताओ ॥ सव्वेण जीविएण वि, मासइ जमणंतभागं सो ॥१३८॥" [कथं मतिश्रुतापलब्धास्तीयन्ते न भाषितुं बहुत्वात् ।। सर्वेण जीवितेनापि, भाषते यदनन्तभागं सः।।] "तीरंति ण वोत्तुं जे, सुओबलद्धा बहुत्तभावाओ ॥ सेसोवलद्धभावा साभव्वबहुत्तओमिहिआ ॥१३९॥" [तीयन्ते न वक्तुं, श्रुतोपलब्धा बहुत्वभावात् ।। शेषोपलब्धभावाः स्वाभाव्यबहुत्वतोऽभिहिताः ननु मतिश्रुतोपलब्धार्थानां कथमीदृशं बहुत्वं यदनन्तभाग एव कृत्स्नेनायुषा भाष्यत इति चेत्, उच्यते, तदनन्तभागनिवन्धस्यैव सूत्रोक्तत्वात, आह च-"कत्तो एत्तियमेत्ता, भावसुअमईण पज्जया जेसि ।। | गान्मतिश्रु तभेदाभिधाहै ने सर्वार्थानां वक्तुमयोग्यत्वं भाष्यानुसारिचचितम् ॥ 16CTextCit Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ १८ ॥ www.ketafirth.org भास अतभागं, मण्णइ जम्हा सुए भणियं ॥ १४० ॥" [कुत एतावन्मात्रा मावश्रुतमत्योः पर्याया येषाम् || भाषतेऽनन्तभागं भण्यते यस्माच्छ्रुतेऽभिहितम् ] “पणवणिज्जाभावा, अनंतभागो उ "अणमिलप्पाणं ॥ पण्णवणिज्जाणं पुण, अनंतभागो सुअनिबद्धो” ॥ १४९ ॥ [ प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभागस्त्वनभिलाप्यानाम् ॥ प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ॥ ] एवं च भागकारेण गुणकारानुमानादनन्तगुणत्वं तेषां सिद्धमिति भावः ||३४|| उक्तमेवोपपादयितुमाह अत एव च पूर्वज्ञा, नूनं षट्स्थानगामिनः । समाक्षरा अप्यसमाः, श्रुताभ्यन्तरया धिया ।। ३५ ।। यतोऽभिलाप्य भावानामनन्तभाग एव सूत्रे निबद्धोऽत एव पूर्वज्ञानां ।। " अगंतभागहीणे वा, "असंखिज्जभागहीणे वा, संखिज्जभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अणतगुणहीणे वा" इति सूत्रोक्तं हीनत्वघटितं, “अणंतभागन्भहिए वा, असंखेज्जभाग भहिए वा, संखेज्जभागन्भहिए वा, संखेज्जगुणन्भहिए वा, असंखेज्जगुण भहिए वा, अणतगुणन्भहिए वा" इति सूत्रोक्तं चाधिक्यघटितं षट्रस्थानगामित्वं सङ्गच्छते । सर्वश्रुतार्थनिबन्धे च सर्वेषां साम्यापत्तिः ।। ननु हीनाधिकभावः कथं सर्वेषां चतुर्दशपूर्वविच्चे । उच्यते तावदक्षरलाभाविशेषेऽपि तदभ्यन्तरमतिवैषम्यात्, नन्वेवमपि श्रुतापेक्षया न षटूस्थानोपनिपातोऽपि तु मृत्यपेक्षयेति चेत्, न, श्रुताभ्यन्तरमतेरपि श्रुतानुसारितया श्रुतस्वरूपत्वात् । तदिदमाह-"जं चोदसपुव्वधरा, उडाणगया परोप्परं होंति ।। तेण उ अणतभागो, पनवणिज्जाण जं सुतं ।। १४२ ।।" [ यच्चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानगताः परस्परं भवन्ति । तेन त्वनन्तभागः, प्रज्ञापनीयानां यत्सूत्रं ।।] " अक्खरलंभेण समा ऊणहिआ हुंति मइविसेसेहिं ॥ ते उण (विय) मईविसेसे, सुअना - मंतरे जाण ।। १४३ ॥ [ अक्षरलाभेन समा ऊनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः ।। तानपि च मतिविशेषान्, श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे For Private And Personal Use Only 67 Acharya Shel Kalassagarsun Gyanmandir इन्द्रियत्रिभागान्मतिश्रुत भेदाभिधाने मतिश्रुतोपल्लब्धार्थानन्त भाग एव भाप्यतइत्या स्य भाष्या नुसार्युपपादनम् ॥ ।। १८ ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketatirth.org जानीहि ||] “ जे अक्खराणुसारेण, मईविसेसा तयं सुअं सव्वं ॥ जे उण सुअणिरवेक्खा, सुद्धं चिय तं मइनाणं ॥ १४४॥ " [ येऽक्षरानुसारेण, मतिविशेषास्तच्छुतं सर्वम् || ये पुनः श्रुतनिरपेक्षाः, शुद्धमेव तन्मतिज्ञानम् || ] अत्र 'सुअनाणं चैव जाणाहि ॥' [ श्रुतज्ञानमेव जानीहि ] इति पाठमुपेक्ष्य 'सुअनाणन्भंतरे जाण' [ श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि ] इति पाठकरणं चैवयोर्वैयर्थ्याच्छन्दोभङ्गभयादङ्गाभ्यन्तरादिपदवदभेदार्थकस्याभ्यन्तरपदस्यातिसान्निध्यव्यञ्जकत्वाच्छ्रुतपदस्य चतुर्दशपूर्व श्रुतार्थकत्वेऽभ्यन्तरपदस्य तज्जातीयत्वबोधकत्वाद्वेत्याहुः || ३५ ॥ ननु पदजन्यं ज्ञानमेव श्रुतं, तदुपजीविज्ञानान्तरं तु मतिरेव, नहि तदुपजीवित्वेन तत्त्रं नाम, प्रत्यक्षोपजीवित्वेनानुमानस्यापि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् इति चेत्, उच्यते श्रुतानुसारिणी बुद्धि-र्मतिरेव यदीष्यते । तदा षट्स्थानता भज्येत्, स्वस्थाने वा मियस्तयोः ॥ ३६ ॥ यदि पदजन्यो बोध एव श्रुतं तदनुस। रिविशेषभानं तु मनसोपनीयमानं मतिरेव, तर्हि श्रुतस्यापि मननलक्षणेन मतित्वातदुच्छेदप्रसङ्गे कथं मतिश्रुतयोः पदस्थाननिवेशव्यवस्था, अस्तु वा तत् श्रुतं तथापि तस्य प्रयोगाधीनत्वात्प्रयोगस्य सङ्ख्येयवर्षायुषां सख्येयविषयस्यैव सम्भवात् स्वस्थाने सध्येयेनैव न्यूनाघि कभावव्यवस्था स्यान्मतिज्ञानस्य च सर्वदा प्रयुज्यमा - नानन्तगुणविषयत्वान्मतिश्रुतयोर्मिथोऽनन्ततैव सा स्यादिति श्रुतस्य स्वस्थाने मतिश्रुतयोश्व मिथः षट्स्थानोपनिपातोच्छेदः ॥ आह च - " के अभासेता, सुअमणुसरओ वि जे महविसेसा | मण्णंति ते मइ चिप, भावसुआभावओ तन्नो ॥ १४५ ॥ किह महसुअनाणविऊ, छट्टाणगया परोप्परं होज्या || भासिज्जंतं मोतुं, जइ सब्बं सेसयं बुद्धी ॥ १४६ ॥ " [ केचिदभाष्यमाणाः श्रुतमनुसरतोपि ये मतिविशेषाः || मन्यन्ते तान्मतिरेव भावश्रुताभावतस्तत्रो || कथं मतिश्रुतज्ञानविदः षट्स्थानगताः परस्परं ४ For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalasagarsun Gyanmandir इन्द्रियविभागान्मतिश्रु तभेदाभिधा ने साक्ष्योद्ध ताया: पूर्व गतगाथाया भाष्यानुसा रिविवरणम् ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Man A nda www.kathuatinth.org Acharya ShalkalasssagarmanGyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम् ॥ % ॥१९॥ EG FRESHERECTECHIKANCHAL भवेयुः। भाष्यमाणं मुक्त्वा यदि सर्व शेषकं बुद्धिः॥] एवं च श्रुतादवगतमिदमिति प्रत्ययाऽविशेषाच्छाब्दवोधस्येव इन्द्रियविभातदनुसारिणोऽपि श्रुतत्वं निर्बाधं तस्य स्मृतित्वानुमितित्वादिना सहभावाविरोधात्, न चैवमनुमानस्यापीन्द्रियापेक्षया ||2| गान्मतिश्रुऐन्द्रियकत्वं स्याद् , इष्टत्वात, केवलं श्रुतानुसारिणि श्रुतस्येव तत्रेन्द्रियाणां नातिशयेनापेक्षेति तत्त्वम् ॥३६॥ तदेवं श्रुतस्वरूपा- तभेदाभिधामिधानप्रकारेण बुद्धिहिटे इत्यादिगाथा व्याख्याता, अथ भाष्यकारोक्तया दिशा मतिश्रुतभेदोन्नयनानुकूलतयेयमेव व्याख्यायते दि ने साक्ष्योड़बुद्ध्या सामान्यया दृष्टान, भाषते सम्भवेन यान् ॥ श्रुतोपयुक्तस्ते तस्य, श्रुतमन्या मतिः स्मृता ॥ ३७॥ तायाः पूर्व 'बुद्धिढेि' इत्यत्र बुद्धिशब्दो मीतश्रुतसामान्य बुद्ध्यर्थको, 'मतिसहितमित्यत्र' मतिशब्दश्च श्रुततात्पर्यकः, भाषत इत्यत्र गतगाथाया योग्यत्वमाख्यातार्थस्तच तद्धे तुविकल्पाश्रयत्वं श्रुतपदश्च भावश्रुतार्थकमिति श्रुतोपयुक्तः सन् बुद्धिदृष्टयदर्थभाषणानुकूलविक- भाष्यानुसाल्पवान् यस्तस्य तेा विषयविषयिणोरभेदोपचाराद् भावभुतं भवन्तीति पर्यवसितोऽर्थः । इयं ह्यनभिलाप्यविषयिणी श्रुतमननुसृत्यैवाभिलापविषयिणी चेति सामान्यबुद्धि दृष्टत्वं चार्थानां श्रुतदृष्टानामपि मतिदृष्टत्वनियमात्सम्भवति । एवञ्च श्रुतोपयुक्तस्यैव णम् ॥ विकल्पयतो मावश्रुतं, तदनुपयुक्तस्यैव तु मतिरिति तयोर्मेदात्तथात्वम् ॥आह च-“सामन्ना वा बुद्धी, मइसुअनाणाई तीइ जे दिदा ॥ भासइ सम्भवमेचं, गहि न उ भासणाभित्तं ।। १४७॥ मइसहि भावसुअंतं निययमभासओ वि मइरना ।। मइसहियंति जमुत्, सुओवउत्तस्स भावसुअं॥ १४८॥" [सामान्या वा बुद्धिर्मतिश्रुतज्ञाने तया ये दृष्टाः ॥ भापते सम्भवमात्रं गृहीतं न तु भाषणामात्रम् ॥ मतिसहितं भावश्रुतं तन्नियतमभाषमाणस्यापि मतिरन्या । मतिसहितमिति यदुक्तं श्रुतोपयुक्तस्य भावश्रुतम् ॥] 'सहितमित्यस्य' क्रियाविशेषणत्वे तु भाषणयोग्यत्वस्य धात्वर्थत्वाद्यद्विषयकश्रुतोपयोगस रिविक्र RECE For Private And Personal use only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra REPSARKARKARKAREERS | हितभाषणयोग्यतावान् यस्तस्य ते मावश्रुतमित्यर्थः ॥३७॥ अवधारणविधिमुपदर्य फलितमुपदर्शयति ६ इन्द्रियविभाश्रुतमेव न ते किन्तु, श्रुतं भाषत एव यान् ।। परिणामो ध्वनेरेव, श्रुतं तद्भजना मतेः ॥ ३८॥ गान्मतिश्रुतयान सम्भवतो भाषत एव तच्छुतमित्यवधारणं युक्तम्, न तु ते श्रुतमेवेति अभिलाप्यगोचरया मत्यापि तदवगाहनात, 18 भेदाभिधाने न च श्रुतोपयोगेन भाष्यमाणाः श्रुतमेवेति कुतो न वक्तुं युक्तं, तेषामेव कदाचिन्मत्यापि भाषणसम्भवात्, एवं च श्रुतं ध्वनि- साक्ष्योध्धृता. परिणाम एव श्रतोपनीतशब्दगोचरस्यास्यांतजल्पविकल्पस्वनियमान्मतिज्ञानं त्वमिलाप्यानभिलाप्यविषयकमिति तत्र तद्- याः पूर्वगतभजनेत्यनेन वैधयेणानयोर्भेदः ।। आह च-"जे भासइ चेव तयं, सुअंतु नउ भासओ सुअं चेव ॥ केइ मईए वि दिट्ठा, जे 16 गाथाया भादव्वसुअत्तमवयन्ति ॥१४९ ॥ एवं धणिपरिणाम, सुअनाणं उभयहा मइमाणं । जं भिनसहावाइ, ताई तो भिष्णरूवाईटप्यानसारि॥ १५०॥" [ यान भाषत एव तत्, श्रुतं तु न तु भाषमाणस्य श्रुतमेव । केचिन्मत्यापि दृष्टा यद्रव्यश्रुतत्वमुपयान्ति ॥ विवरणम् ॥ एवं ध्वनिपरिणाम, श्रुतज्ञानमुमयथा मतिज्ञानम् ॥ यद्भिन्नस्वभावे ते ततो भिन्नरूपे ॥] ॥ ३८ ॥ इयरत्थवीत्यादि व्याचष्टे इतरत्रापि शब्दस्य, परिणामाद् भवेच्छूतम् ॥ मत्या श्रुतोपलब्ध्या वा, यदि नाम समं भणेत् ।। ३९॥ इतरत्र मतिज्ञाने शब्दपरिणामरूपश्रुतधर्मदर्शनाच्छूतत्वं तदा कल्प्येत यदि तत्र यावन्त उपलब्धिविषया अर्थास्तावन्तो भणनयोग्या मवेयुः, न च भणनयोग्याभणनयोग्योभयविषयत्वान्मतेर्मतिश्रुतोभयरूपत्वमस्त्विति वाच्यं, भणनयोग्यानामप्यर्थानां मतिज्ञानेन श्रुतोपलब्ध्येव श्रुतानुसारेणाभाषणात्, तदिदमाह-"इयरं ति मइनाणं, तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो ॥ तो तम्मि वि किं न सुअं, भासइ जं नोवलद्धिसमं ॥१५१॥" [इतरदिति मतिज्ञानं ततोऽपि यदि भवति शब्दपरिणामः ॥ ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतं For Private And Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णत्रप्रकरणम् ॥ ॥ २० ॥ www.khatirth.org भाषते यद् नोपलब्धिसमं] “अभिलप्पाणभिलप्पा, उवलद्वा तस्समं च नो भणइ ।। तो होउ उभयरूवं, उभयसहावंति काऊण ।। १५२ ।। " [ अभिलाप्यानभिलाप्या, उपलब्धास्तत्समं च नो भणति । ततो भवतूभयरूपं, उभयस्वभावमिति कृत्वा ।। ] "जं भासह तं पि जओ, ण सुआदेसेण किं तु समईए || ण सुओवला द्वैतुल्लंति, वा जओ णोवलासमं ॥ १५३ ॥” [यद्भाषते तदपि यतो न श्रुतादेशेन किन्तु स्वमत्या || न श्रुतोपलब्धितुल्यमिति वा यतो नोपलब्धिसमं ॥ ] ॥ ३९ ॥ मतिज्ञाने न शब्दपरिणामरूपश्रुतसाधर्म्येण श्रुताशङ्कयेतरत्रेत्याद्यभिधानं श्रुतत्वाभावव्याप्य श्रुतोपयोगासाहित्यनिर्णये तदनुत्थानात्, किन्तु शब्दपरिणामरूपसाधारणधर्मदर्शनात्तदाशङ्कयेत्यतोऽपरथा व्याचष्टे तदा श्रुतोपयोगः स्याच्छ्रुतविज्ञप्तिहेतुभिः ॥ प्रयोगः स्याद् यदा (घ) पंतु, नाक्षराय (रस्या) नुसारतः॥ ४० ॥ सम्भवेन फलतो वा प्रयोगकाले मतिज्ञानस्य श्रुतोपयोगस्तदा स्याद् यदि श्रुतधीहेतुसन्निधानं स्यात्, तदेव चात्र नास्ति, अभिलाप्येऽनभिलाप्ये वा मतिविषयेऽक्षरानुसाररूपसहकारिविरहात्, नहि सह कारिसन्निधानानुद्बुद्धश्रुतलब्ध्या श्रुतोपयोगः स्यादिति तद्विरहेणैव तत्र तद्नापत्तिरिति भावः एवञ्च इयरत्थत्रीत्यादौ श्रुतपदं श्रुतोपयोगपरं, उपलब्धिसममिति च श्रुतोपलब्धिसमहेतुकमित्यर्थकं क्रियाविशेषणं, भणेदित्यत्र मतिज्ञानोपयुक्त इतिशेषः॥ ४० ॥ नन्वत्र भाष्यकारव्याख्याने श्रुतोपयुक्तस्य भाषासम्भवः श्रुतमित्येतावदेवास्तु, विषयग्रहणं पुनरनतिप्रयोजनमितिचेत्, न, वि षयभेदेन तद्भेदोपदर्शनार्थं तद्ग्रहणादित्याशयेनाह - भेदो विषयभेदेन, हेतुभेदोपजीवि वा ॥ नूनं मतिश्रुते भेत्तुं दर्शितो व्याख्ययाऽनया ॥ ४१ ॥ स्पष्टः || ४१ ॥ अथ विषयता भेदात्तद्भेदप्रतिपादनार्थमियमपरथा व्याख्यायते— For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir इन्द्रियविभागान्मतिश्रुतभेदाभिधा ने साक्ष्योड़ ताया: पूर्व गतगाथाया भाष्यानुसारिविवर णम् ॥ ॥ २० ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BADDRESPECTOR श्रुतमेव श्रुतं ज्ञेयं, भाषासम्भवशालि वा ।। इतरत्र तदापत्ति-भिन्नाऽनुभववदूगिरा ।। ४२ ।। श्रुतोपयुक्तः सन् श्रुतसहितं यथा स्यात्तथा श्रुतसहितान् वा बुद्धिदृष्टान् यानर्थान् सम्भवतो भाषतेऽन्तर्जल्पविकल्पे ज्ञेयाकारतया परिणामयति तथापरिणामापनास्ते तस्य श्रुतमेव, नहि श्रुतविषयता न श्रुतमिति, नन्वेवमभिलाप्यविषयकं मतिज्ञानमपि श्रुतज्ञानसमानाकारमिति तत्रापि कथं न श्रुतत्वं, उच्यते, मतिश्रुत्योः स्फुटमेव विषयतावैलक्षण्यानुभवेन समानाकारताया एवासिद्धेः, न च विषयाभेदे कथं विषयताभेद इति वाच्यम्, ज्ञानस्वरूपाया विषयतायास्तदभेदेऽपि ज्ञानसामग्रीभेदेन भेदात्, अनुभवेन न तभेदोऽनुभूयत इति चेत्, न, कालविशेषाद्यवभासभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, तथा चात्र बुद्धिपदं बुद्धिसामान्यार्थक, श्रुतपदं च श्रुतोपयोगार्थक, भाषत इति च भाषणयोग्यतावानित्यर्थक, अध्याहियमाण एवकारश्च श्रुतमित्यनन्तरं योज्यः । तत्पदश्च नार्थमात्रपरामर्शकं ते श्रुतमेवेत्यस्य बाधात्, किन्तु भाषासङ्कल्पविषयत्वविशिष्टार्थपरामर्शकं, इतरत्रेति च मतिज्ञानकाल इत्यर्थक, श्रुतपदं च भावश्रुतार्थकं, उपलान्धसममिति च समानानुव्यवसायत्वार्थकं साम्यं च सावधिकमिति सन्निधिसिद्धतया मतिज्ञानमेवावधित्वेनोपतिष्ठते, भणदित्युत्तरं च श्रुतमित्यनुषज्यत इति मविज्ञानकाले श्रुतज्ञानं भवेद्, यदि मतिज्ञानसमानानु व्यवसायकं श्रुतं कश्चिदपि भणेदित्युत्तरार्द्धार्थः, एवं च विषयतावैलक्षण्येन कारणभेदानुमानात्तत्र कारणाभावनिश्चयेन कार्योलत्पत्तिशंकोच्छेद इतिभावः, अथवा श्रुतमिति भावप्रधाननिर्देशाश्रयणादितरत्र मतिज्ञाने श्रुतत्वं तदा स्यादित्याद्यर्थो बोध्यः ॥४२॥ हेतुविषयभेदोनयनानुकूलेन प्रकारान्तरेण व्याचष्टेअयवा बुद्धिदष्टेऽर्थे, श्रुतं मत्यै(सत्ये)व भासते ॥ इतरत्राप्ययं न्यायो, द्वयोः साम्ये परं भवेत् ॥४३॥ इन्द्रियविमागान्मतिनुतभेदाभिषाने साक्ष्योडतायाः पू| वंगतगाथाया भाष्यानु| सारिविवर णम् ॥ BREARRRRE RERes For Private And Oy Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम्।। PROSPERSTARSHA 'बुद्धिद्दिष्टे अत्थे' इति सप्तम्येकवचनान्तं विशेषणविशेष्यपदद्वयं,जे इति पादपूरणार्थो निपातः, भासइ भासते, तत्पदं प्रसि-६ इन्द्रियविभाद्धार्थकं प्रक्रान्तार्थकं वा, श्रुतपदं भावश्रुतार्थकं, 'मइसहिये' इत्यत्र मतिः सहिता कारणत्वेन यस्य तदिति विग्रहः, पौर्वापर्यभावे गान्मतिश्रुतमत्या सहितमित्येव वा, एवञ्च बुद्धिदृष्टेऽर्थे सति तच्छ्रुतं मतिहेतुकमेव भासत इति समुदायार्थः॥ न चात्र बुद्धिदृष्टेऽर्थे सती- भेदाभिधाने त्यभिधानमनतिप्रयोजनं, अस्य मतिसाहित्योपपादनार्थत्वाद् बुद्धिशब्दस्यात्र मत्यर्थकस्य ग्रहणात् श्रुतविषयोपदर्शिकां मतिं श्रुत- साक्ष्योडतमवश्यमपेक्षत इत्यनेन समर्थ्यते, अथवा सप्तमी 'तत्र निष्पुल(ण्य)को हत' इत्यत्रेवान सप्तम्या निमित्तत्वाद्विशिष्टे निमित्तत्वस्य पूर्वगतगाथाविशेष्यबाधे विशेषणमात्रपर्यवसायित्वात्तच्छब्दसापेक्षत्वेन यदित्यध्याहाराद् बुद्धिदृष्टार्थदर्शननिमित्तं यदिति श्रुतस्वरूपमनूद्य तत्र या भाष्यानुमतिसाहित्यनियमविधानमभिधानीयं, ये इति यदित्यर्थकमित्यपि कश्चित्, अन्यत्रापि मतिज्ञानेऽपि भवेत् श्रुतपूर्वकत्वनियम सारिविवरइत्यर्थाद् गम्यते यदि श्रुतज्ञानं उपलब्धिसमं मतिज्ञानतुल्यं भणेत, तच्च न भणितं तयोः परस्परं पदस्थानोपनिपातोपदेशात्, एवञ्चानभिलाप्यविषयकमतिज्ञाने कथञ्चिदपि श्रुतापेक्षाया अभावाद् व्यभिचारेण न तस्य तद्धेतुकत्वमिति भावः ।। ४३ ॥ उभयश्रुतमतिभेदपरतया व्याचष्टेज्ञात्वा वा श्रुतदृष्टार्थान, ब्रुवतो ह्युभयश्रुतम् ॥ भवेन्मत्युपयुक्तस्य, श्रुतं यदि समं भणेत् ॥ ४४ ॥ बुद्धया श्रुतबुद्धथा, दृष्टान् यानर्थान् मतिसहितं श्रुतोपयोगेन, भाषते तत् श्रुतं उभयश्रुतमेव,इतरत्र मत्युपयोगकाले, भवेत् श्रुतपदानुषङ्गात् उभयश्रतं, यधुपलब्धिसमं मतिसमानाकारश्रुतं श्रुतानुसारं, भणेत्कोऽपि कथयेत्, श्रुतं भणेदनुसरेदिति वा, एवं चोभयभेदे सिद्धे प्रत्येकभेदः सुसाधः, उभयभेदकसामग्रीभेदस्यैव प्रत्येकभेदकत्वात्, अथवा मति ॥ २१॥ For Private And Personal use only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra /www.khatirth.org सहितमित्यस्य श्रुतानुसारेणेत्यर्थकत्वादग्रे एवकारयोजनाच्च श्रुतानुसारेणैव भाषमाणस्योभयश्रुतमित्यर्थः इत्थं चाग्रे इतरत्र मतिज्ञाने भवेच्छ्रतानुसारो यदि स्वोत्प्रेक्षामात्रमतितुल्यं भुतं भणे तदभणनांच्च न तदनुसारः, तं विना च न त्वदेकजीवितमुभयश्रुतमिति भावः ॥ ४४ ॥ प्रकारान्तरेण व्याचष्टे श्रुतं मत्युपलब्धार्थ, मतिसङ्गतमेव तत् ॥ तादृशं स्यात् तदान्यत्तु श्रुतं यदि समं भणेत् ॥ ४५ ॥ बुद्धया मतिलक्षणया, दृष्टा विवक्षिता, येऽर्थास्तान् भाषमाणस्य, मतिसहितमेव द्रव्यश्रुतं भवेत्, इतरत्र श्रुतविवक्षितप्रयोगस्थले च मतिसङ्गतं श्रुतं तदा स्यात् यदि श्रुतं मतितुल्यं कथयेत्प्रेक्षावान्, तच न कथ्यते श्रुतानुसाराननुसाराभ्यां तद्विशेषप्रतिपादनात्, अथ चेतरत्र तत्तदा स्याद् यदि श्रुतं मतिसमकालं भणेत्कश्चित्तदेव च भणितुमशक्यं उपयोगयौगपद्यनिषेधात् एवञ्च श्रुतोपयोगकाले मत्युपयोगा भावादेव न मतिसहितश्रुतमित्यर्थः, अथवेतरत्र मतिसङ्गतं श्रुतं तदा स्याद् यदि मया सह श्रुतं भणन्मत्युपयोगेन शब्दमुच्चरेदि त्यर्थः ॥ ४५ ॥ तदेवं सप्रसङ्गं पूर्वगतगाथाद्वयव्याख्यानेन समर्थित इन्द्रियभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः, अथ वल्कसुम्बोदाहरणात मभिधित्सुः प्रथमं परेषां तदुदाहरणोपन्यासविधि निराकुरुते केचिदाहुर्वक मां, मतिं, सुम्बसमं श्रुतं ॥ तदयुक्तं तथाऽभेदे, श्रुतोच्छेदादिदूषणात् ॥ ४६ ॥ केचिद् वदन्ति वल्कसदृशी मतिरेव सुम्बसदृशशब्दसन्दर्भकाले श्रुतत्वमास्कन्दति, तथा च श्रुतपदं कर्मव्युत्पच्या शब्दार्थकमिति, तदसत्, मत्युत्तरं शब्दमात्रस्य भावेऽपि भावश्रुतस्याभावाच्छन्द सन्निधिमात्रेण मतेः श्रुतत्वोपगमेऽतिप्रसङ्गात्साङ्कर्य - प्रसङ्गानिर्विशेषभावे विशेषाभिधायक श्रुताप्रामाण्यप्रसङ्गाच्च । आह च - " अन्ने मन्नंति मई, वाय ( बग्ग) समा सुबसरिसयं सुतं । For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir बल्कसुम्ब दृष्टान्तेन म |तिश्रुतभेदो पपादनं, तत्र परविप्रतिपत्तिख ण्डनम् ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं | दाहरणेन म| तिश्रुतमेदनिरूपणेपरविप्रतिपत्तिखण्डनम् ॥ का दिट्ठतोयं जुत्तिं, जहोवणीओ ण संसहइ ॥१५॥" [अन्ये मन्यन्ते मतिर्वल्कसमा सुम्बसदृशं सूत्रम् ।। दृष्टान्तोऽयं युक्तिं यथो- | श्रीज्ञाना-18| पनीतो न संसहते]. "भावसुआभावाओ, संकरओ णिव्विसेसभावाओ ॥ पुव्युत्तलक्षणाओ, सलक्खणावरणभाओ ॥१५५॥" र्णव- टा[भावश्रुताभावात् संकरतो निर्विशेषभावात् ।। पूर्वोक्तलक्षणात्स्वलक्षणावरणभेदात् ] ॥ ४६॥ प्रकरणम् ॥ अनेनैव दृष्टान्तेन द्रव्यभावश्रुतयोमतिद्रव्यश्रुतयोश्च भेदनिरूपणाभिप्रायमधरयति-.. ॥२२॥ द्रव्यभावश्रुते भेत्तुं, युज्येत नैतया दिशा ।। मतिद्रव्यश्रुते वा यदू, ज्ञानभेदेऽत्र मृग्यते ॥४७॥ भावश्रुतं बल्कसमं कारणत्वात् कार्यत्वाच्च तज्जनितः शब्दः सुम्ब इति नेत्थमनयोर्भेदोऽभिधेयः। मतिश्रुतभेदचिन्तावसरे तभेदस्यानधिकृतत्वात्, एवमश्रुतानुसारिणी मतिर्वल्कसमा तज्जनितः शब्दः सुम्बसमः श्रुतानुसारिणी मतिस्तु थुतमित्यपि बचो नोच्चार्यमाणं चारुतामञ्चति, अनेनोदाहरणेनाधिकृतं मतिश्रुतयोर्भेदमुपेक्ष्य भेदान्तरसाधनेनार्थान्तरप्रसङ्गात् । आह च"कप्पेज्जेज्ज व सो भाव-दब्बसुत्तेसु तेसु विण जुत्तो । मइसुयभेआवसरे, जम्हा किं सुअविससेण ॥१५६॥" [कल्प्येत वा स भावद्रव्यश्रुतयोस्तयोरपि न युक्तः॥ मतिश्रुतभेदावसरे, यस्मात्किं श्रुतविशेषण 1]"असुयक्खरपरिणामा, वजा मई वग्गकप्पणा तम्मि॥ दव्वसुयं सुम्बसमं, किं पुण तेसि विसे सेणं? ॥१५७॥" [अश्रुताक्षरपरिणामा वा या मतिर्बल्ककल्पना तस्याम् ।। द्रव्यश्रुतं सुम्बसम, दकिं पुनस्तयोर्विशेषेण ] "इह ईजेणाहिगओ, नाणविसेसो ण दब्बभावाणं ॥ नयदव्वभावमिचेवि, जुजए सोऽसमंजसओ॥१५८॥" | [इह येनाधिकृतो ज्ञानविशेषो न द्रव्यभावयोः ॥ न द्रव्यभावमात्रेपि युज्यते सोऽसमञ्जसतः] ॥४७॥ किच भेदघटितकार्यकारणभावशालिनोरनयोर्न वल्कसुम्बोदाहरणं परमार्थतः सम्भवतीत्युपदिश्य वास्तवव्याख्याप्रकारमाह RECASHREST RBARSAROROSCARS ॥२२॥ For Private And Personal use only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org नायं न्याय: पृथग्भावे, तयोर्गुणकथा वृथा ॥ मतिर्वल्कं ततो भाव- श्रुतं सुम्वमिति स्थितिः ॥ ४८ ॥ सुम्बकदृष्टान्तो हि कार्यकारणयोरभेदमपेक्ष्य व्यवस्थितः कथं चेतनाचेतनधर्मयेोर्ज्ञानशब्दयोर्वक्तुमवकाशं लभेत १, 'अथ आयुर्धृतम्' इतिवद्भिन्नयोरपि तन्मयत्वव्यवहारो नानुपन्न इतिचेत्, न, तथापि सम्भवति मुख्यार्थे उपचारकल्पनाऽयोगात्तस्माद्वल्कसमा मतिः सुम्बसमं तु भावश्रुतं तस्य तत्पूर्वकत्वस्या (मा) गमे व्यवस्थितत्वादिति तदुभयनं युक्तम् || आह् च - "ण यदब्वभावमेते वि, जुज्जए सोsसमंजसओ ॥ १५८ ।। " [न च द्रव्यभावमात्रे ऽपि युज्यते सोऽसमञ्जसतः ॥] "जह वग्गा सुबत्तण-मुर्वेति सुंबं च तं तओनं ॥ ण मई तहा धणित्तण-मुवेह, जं जीवभावो सा || १५९||” [यथा वल्काः सुम्बत्वमुपयान्ति सुम्बं च तत्त तोऽनन्यत् । न मतिस्तथा ध्वनित्वमुपैति यज्जीवभावः सा ॥] "अह उवयारो कीर, पभवइ अत्यंतरं पि जं जत्तो ॥ तं तम्मयं ति भण्णइ, तो मइपुब्वं जओ भणियं ॥ १६० ॥" [अथोपचारः क्रियते प्रभवत्यर्थान्तरमपि यद्यस्मात् ॥ तत्तन्मयमिति भण्यते ततो मतिपूर्वं यतो भणितम् ॥] "भावसुअं तेण मई, वग्गसमा सुंबसरिसयं तं च ॥ जं चिंतिऊण तया, तो सुअपरिवाडि - मणुसरइ ॥ १६१||”[भावश्रुतं तेन मतिर्वल्कसमा, सुम्बसदृशं तच्च ।। यच्चिन्तयित्वा तया ततः श्रुतपरिपाटिमनुसरति ||]॥४८॥ नन्वेतदभिधानस्य हेतुफलभावेन भेदाभिधानात्को विशेष इत्यत्राह दृष्टान्तेनामुनाऽभेदा- श्लिष्टभेदप्रदर्शनम् ॥ विशे षोऽस्य ततो हेतु-फलभावप्रदर्शनात् ॥ ४९ ॥ हेतुफलभावेन हि भेदमात्रं साध्यते, अनेन तु भेदाभेद इत्यनयोविंशेषः, तथाहि श्रुतं मत्यभिन्नत्वे सति तद्भिन्नं, एकद्रव्यत्वे सति तद्धेतुकत्वात्, यद् यदेकद्रव्यत्वे सति यद्धेतुकं तचदभिन्नत्वे सति ततो भिन्नं यथा वल्कैकद्रव्यं सुम्बं वल्क For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir मतिश्रुतभेदनिरूपणे वल्कसुम्बदृष्टान्तस्य वास्तवाभिप्रायप्रकटीकरणम् ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra सविवरणं श्रीज्ञाना व प्रकरणम् ॥ NAGARIKUKUMACHAR हेतुकमिति तदभिन्नत्वे सति ततो भिन्नमिति, न च भेदमात्रस्याकांक्षितत्वादधिकाभिधाने निग्रहः एकद्रव्यत्वेनाऽभेदोपस्थिती कथमभेदे भेद इत्याशङ्कायामेतदभिधानाद्.अथवाऽभेदे कार्यकारणभाव एव कथं मतिश्रुतयोः, इत्याशङ्कोत्थानादेतदभिधानं, तदुच्छेदश्च वल्कसुम्बयोरिवाऽनुकृतान्वयव्यतिरेकयोस्तयोरभेदेऽपि कार्यकारणभावानुमानाद्, न चार्थान्तरं भेदग्राहकहेतुफलभावग्रहापयिकत्वादेवास्य ॥ ४९ ॥ वल्कसुम्बोदाहरणान्मतिश्रतयोमैदमभिधायाक्षरानक्षरतस्तमभिधित्सुः परमतं दूषयतिअनक्षराक्षरभेदा-दुक्ताव(ट्रिन्दन्त्य)न्ये मतिश्रुते ॥ तदसत्, साभिलापा य-न्मतिरेवं विलीयते ॥५०॥ मतिज्ञानमनक्षरमेव, श्रुतज्ञानं तु श्रुतरूपमक्षरवदुच्छ्वसितादि चानक्षरमित्युभयात्मकमित्यनयोर्भेद इति केचिदाहः, तत्रैवं सत्ययं स्थाणुवों पुरुषो वेति विकल्परूपाया ईहामतरूच्छेदप्रसङ्गात, न हि शब्दनिर्भासं विना विकल्पत्वं नाम, किञ्चैवमवग्रहवदीहादीनामन्वयव्यतिरेकधर्मपरामर्शित्वरूपो विवेको न स्यात्, अथ सप्रकारकज्ञानत्वेनैव विवेचकत्वं, नतु साक्षरत्वेनेति, ईहादेः सप्रकारकत्वेऽपि नाक्षरानुगतत्वमिति चेत्, तर्हि श्रुतस्यापि साक्षरत्वे प्रमाणमन्वेषणीयं, किञ्च ज्ञानविषययोः स्वरूपविशेष एव प्रकारता, इतीहादौ शब्द एव विशेषः प्रकारताख्यामाबिभर्तीति कथमस्यानक्षरत्वं, न चातिरिक्तैव प्रकारतेति युक्तं, 'धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी'इति न्यायेन ज्ञाने शब्दाकारपरिणामरूपाया एव तस्याः कल्पयितुं युक्तत्वात्, तदिदमाह-"अन्ने अणक्खरऽक्खर-विसेसओ मइसुआई भिंदति ।। जं मइनाणमणक्खर-मक्खरमियरं च सुयनाणं ।।१६२॥" [अन्येऽनक्षराक्षरविशेषतो मतिश्रुते भिन्दन्ति । यन्मतिज्ञानमनक्षरमक्षरमितरच्च श्रुतज्ञानम् ॥] "जइ मइरणक्खरच्चिय, हवेज्ज नेहादओ णिरभिलप्पे ।। थाणुपुरिसाइपज्जाय-विवेगो किह णु होजाहि ? ॥ १६३ ॥" [यदि मतिरनक्षरैव भवेन्नेहादयो निरभिलाप्ये ॥ स्थाणुपुरुषादि अक्षरानक्ष रतो मतिश्रुतभेदनिरूपणे परविप्रतिपत्तिखण्ड नम् ॥ RECRUS ॥ २३॥ For Private And Personal use only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh k enda RECENSARALE पर्यायविवेकः कथं नु भवेत् ॥ ५० ॥ अथैवं भ्रान्तस्योत्तरं निराकुरुते श्रुतनिश्रितभावेन, मतिरेषा यदि श्रुतम् ॥ तवग्रहरूपैव, मातिरन्यच्छ्रतं भवेत् ॥५१॥ श्रुते हि मतिविधोपदिष्टा श्रुतनिमित्तमवग्रहादिचतुष्टयमश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादिचतुष्टयं चेति ।। तत्र चाक्षररूपतया श्रुतव्यापारात्मकं श्रुतनिश्रितमीहादिकं श्रुतमेव, मतिस्त्वन्यैवेत्यनक्षरमय्येव सेति पराशयोऽयुक्तः, अवग्रहरूपाया एव मतेः पर्यवसानप्रसङ्गादक्षररूपायाः श्रुतव्यापारात्मकत्वेन श्रुतत्वाद्, आह च-" सुअनिस्सिअवयणाओ, अह सो सुयओ मओ ण बुद्धीओ ।। जइ सो सुअवावारो, तओ किमन्नं मइनाणं? ॥ १६४ ॥" [श्रुतनिश्रितवचनादथासौ श्रुततो मतो न बुद्धेः ॥ यदि स श्रुतण्यापारः ततः किमन्यन्मतिज्ञानम् ॥] ॥५१॥ अभिप्रायान्तरं निराकुरुते श्रुतोदितविवेकश्चे-न्मतिरेवं श्रुतोच्छिदा॥ योगपy द्वयोभावे, एकदा चोपयोगयोः ।। ५२॥ यदि हि मत्यभावभिया श्रुतानुसारी ईहादिविशेषोऽप्यक्षरात्मकत्वान्मतिरेवेष्यते तनक्षरमेव श्रुतं मृगयमाणस्य कथं तदा। शापूर्तिस्तस्यैवाभावाच्छ्रुतजन्यस्याप्यक्षरात्मकत्वेन मतित्वाद् । अथ स्थाणुपुरुषविवेककाले तदा मतिः श्रुतं चेत्युभयं स्वीक्रियते केव ला तु मतिरनक्षरैव भविष्यतीति चेत्, न, एवं सति उपयोगयोगपद्यप्रसङ्गाद्,एकतरोत्पत्तिस्वीकारे च 'सावकाशानवकाशयोरनवकाशो विधिबलीयान् इति न्यायेनान्यत्रानवकाशस्य मतिज्ञानस्यैव स्वीकर्तुं युक्तत्वादिति माञ्चः ।। नन्वयं नात्रोपयुज्यते विधिविषयत्वात्तस्य, तथाहि निर-सहशब्दयोनिर्धनः सधन इत्यत्रेवाल्पबहुत्ववाचकत्वाद् 'बहुविषयादल्पविषयो विधिबलीयान्' इत्यर्थः, एवं च वृक्षरित्यत्र परमपि एद् बहुस्भोसि'इति(सिद्ध हैम १-४-४)सूत्रं बहुविषयत्वाद् बाधित्वा पूर्वमप्यल्पविषयं 'भिस MAKERCHOOLGIRCONSIDER अक्षरानक्ष रतो मतिश्रुतभेदनिरूपणे परविप्रतिपत्तिखण्ड नम् ॥ For Private And Personal use only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव HHERA प्रकरणम् । ॥२४॥ अक्षरानव स्तो मतिश्रुतमेदनिरूपणे परविप्रतिपत्तिखण्ड नम॥ 48644%BSPEEPER ऐस' इति (२) सूत्रमुपतिष्ठत इत्युपपादितं भवति तथा च परादीनां बलवत्त्वव्याप्तौ सावकाशभिन्नत्वं सङ्कोचकविशेषणं देयमिति ४ व्युत्पादितं भवति,एवं च निरवकाशस्थले सावकाशप्रवृत्तेरसाधुत्वज्ञापकतयाऽस्योपयोगो नतु तत्प्रवृत्तिप्रतिबन्धकतया,अज्ञेन भ्रान्तेन वा कृतस्य तादृशप्रयोगस्य साधुत्वप्रसङ्गात्, तदसाधुत्वज्ञापकान्तरकल्पने गौरवाद्, व्युत्पन्नस्य तथाप्रयोगकारणविघटकतया तदुपयोग इत्यपि कश्चित् ।। किश्चाऽवग्रहस्थले सावकाशं मतिज्ञानमपि कथं कल्पनीयमिति चेत्, न, क्लप्तश्रुतकारणाभावात् क्लुप्त मतिकारणसवाच्च, मतिज्ञानमेव तदोत्पत्तुमर्हतीति तात्पर्यात्, अपि चाऽक्षरानुगता श्रुतनिश्रिता मतिः, अन्या त्वश्रुतानिश्रितेत्यम्युपगमे औत्पत्तिक्यादेरपि श्रुतनिश्रितत्वप्रसङगादपसिद्धान्तः॥ आह च-"अह सयओ वि विवेगं, कुणओ ण तयं सुअं सुअं णस्थि ।। जो जो सुअवावारो, अनो वि तओ मई जम्हा ।। १६५ ॥"[अथ श्रुततोऽपि विवेक, कुर्वतो न तच्छूतं श्रुतं नास्ति ।। | यो यः श्रुतव्यापारोऽन्योऽपि सको मतिर्यस्मात् ] "मइकाले वि जइ सुअं, तो जुगर्व महसुओवओगा ते ।। अह नेवं एगयर, पवज्जओ जुज्जए ण सुअं॥१६६॥" [मतिकालेऽपि यदि श्रुतं ततो युगपन्मतिश्रुतोपयोगी ते ॥ अथ नैवमेकतरं प्रपद्यमानस्य युज्यते न श्रुतम् ] "जइ सुअनिस्सिअमक्खर-मणुसरओ तेण मइचउक्कं पि || सुअनिस्सिअमावन, तुह तंपि जमक्खरप्पभवं ॥१६७॥" [यदि श्रुतनिश्रितमक्षरमनुसरतस्तेन मतिचतुष्कमपि ॥ श्रुतनिश्रितमापन्नं तव तदपि यदक्षरप्रभवम् ] ॥५२॥ ननु यद्यक्षरानुगतत्वं न श्रुतनिश्रितत्वं तर्हि किमन्यदिति जिज्ञासायामाह श्रुताऽभ्याससमुदबुद्ध-क्षयोपशमसम्भवम् ।। श्रुतानुसारहीनं य-तदेव श्रुतनिश्रितम् ॥५३॥ श्रृतानुसारहीनं श्रुतनिश्रितमित्युक्ते औत्पत्तिक्यादावतिव्याप्तिस्तद्वारणाय श्रुताभ्यासेति विशेषणं, यद्यपि "भरनित्थरण ॥२४॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra SHREGALLECTREKeratulack समत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला।।उभओलोगफलबई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी।।९४३॥"(आव० भाष्य[भरनिस्तरणसमर्था त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारा (प्रमाणा)। उभयलोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः] इतिवचनाद् वैनयिक्यामश्रुतनिश्रितायामपि श्रुताभ्यासापेक्षास्ति, तथापि श्रुतानुबुद्धक्षयोपशमजन्यावृत्तिश्रुतानुसारहनिवृत्तिजातिमज्ज्ञानत्वं श्रुतोबुद्धक्षयोपशमजन्यत्वाव्यभिचारि तादृशजातिमज्ज्ञानत्वं वा श्रुतनिश्रितत्वमित्यत्र तात्पर्यम् , अत एवाह "किन्तु सकृच्छ्रतनिश्रितत्वे सत्यपि बाहुल्यमङ्गीकत्याश्रुतनिश्रितं तदुच्यत इत्यदोष" इति, इदमेवाभिप्रेत्य चाह भाष्यकारः।। "जइ तं सुएण ण तओ, जाणइ सुअनिस्सिमें कह मणियं ॥ जं सुअकओवयारं, पुचि इण्डिं तयणवेक्खं ॥१६॥" [यदि तत् श्रुतेन न स जानाति श्रुतनिश्रितं कथं भणितं ॥ यत् श्रुतकृतोपचार, पूर्वमिदानीं तदनपेक्षम् ] "पुचि सुअपरिकम्मिअ-मइस्स जं संपयं सुआईयं ॥ तं निस्सिअमियरं पुण, अणिस्सिों मइचउकं तं ॥१६९॥"[पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्वत्सांप्रतं श्रुताततिम् । तनिश्रितमितरत्पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत्।। यद्यपि विशेषणधीत्वेन श्रुतानुसारो विशिष्टेऽश्रुतनिश्रितेऽपि पदधीत्वेन च न श्रुतनिश्रितेऽपि, तथापि श्रुतादवगतमिदमिति प्रतीतिसाक्षिको विषयताविशेष एव श्रुतानुसारोव ग्रायः॥५३ ।। नन्वेवं यदि श्रुतनिश्रिताऽश्रुतनिश्रिता वा मतिरवग्रहरूपा निरभिलापा, इंहादिरूपा च साभिलापा, श्रुतमपि च प्रागुक्तरीत्या द्विविधं तर्हि कोऽनयोर्भेद ? इति सुहृद्भावेन पृच्छाम इति चेत्, उच्यते द्विविधापि मतिस्तस्माद, द्विरूपैवेति का भिदा ॥ तद् द्रव्याक्षरभेदेन, भावनीया भिदाऽनयोः॥५४॥ यद्यपि भावाक्षरेणावग्रहेहादिरूपमतेर्भावद्रव्याक्षराभ्यां च श्रुतस्य द्वैविध्यमापततोऽविशिष्टं, तथापि मतौ पुस्तकादिगतं ताल्वादिव्यापारजन्यं च द्रव्यश्रुतं नास्त्येव द्रव्यश्रुतस्य द्रव्यमतित्वेनारूढत्वादिति, द्रव्याक्षरेणानक्षरैव मतिः, श्रुतं तु द्रव्यश्रुत अक्षरानक्षरतो मतिश्रुतमेदनिरूपणे शु. तनिभितत्वश्रुतानि श्रितत्वयोनिरूपणम्॥ SHREEKRESS For Private And Personal use only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञानार्णवप्रकरणम् ॥ ॥ २५ ॥ XXX www.krahatirth.org त्वेनापि रूढं तदपि शब्दरूपमक्षरमयम्, उच्छ्वसितादिरूपं चानक्षरं भावश्रुतमपि विकल्पात्मकत्वाद् भावाक्षरेण साक्षरं, द्रव्याक्षरास्वभावत्वाच्च तेनानक्षरमित्यनयोर्भेदः ॥ तदिदमाह -" उभयं भावक्खरओ, अणक्खरं होज वंजणक्खरओ ॥ मइनाणं सुतं पुण, उभयं पि_ अणक्खरक्खरओ ॥ १७० ॥ " [ उभयं भावाक्षरतोऽनक्षरं भवेद्व्यञ्जनाक्षरतः । मतिज्ञानं श्रुतं पुनरुभयमप्यनक्षराक्षरतः ] || ५४ ।। पर्यवसितार्थमाह द्रव्यश्रुतव्यवहृतेर्भावाभावे विभिन्दतः ॥ मतिश्रुते इतरथा, व्यवहारस्य सङ्करात् ॥ ५५ ॥ मतिज्ञानस्य द्रव्यश्रुतव्यवहाराविषयत्वादेव श्रुतज्ञानाद् भेदः, अन्यथा द्रव्यश्रुतमितिवद् द्रव्यमतिरिति व्यवहारः स्यादर्थाsभेदाद्, अथ भेदेऽपि मतिकारणे शब्दे द्रव्यमतित्वेनाव्यवहारे इच्छेव बीजमित्यभेदेऽपि व्यवहर्तुरिच्छेव नियामिकेति चेत्, न, भेदेSसाधारण्येनापेक्षाया व्यवजिहीर्षावीजत्वाद्, अभेदे तदसम्भवाद्, एवं च मतिज्ञानं श्रुतज्ञानाद् भिद्यते द्रव्यश्रुतव्यवहाराविषयत्वाद्, अवधिज्ञानवत्, श्रुतज्ञानं वा मतिज्ञानाद् भिद्यते द्रव्यश्रुतव्यवहारविषयत्वाद्, व्यतिरेकेऽवध्यादिदृष्टान्त इति प्रयोगः । न च द्रव्यश्रुतव्यवहारविषयत्वं शब्द एवेत्यपक्षधर्मत्वं हेतोस्तथात्वेऽपि हेतौ पक्षीयसाध्यान्यथानुपपत्तिप्रतिसन्धानेन पक्षीयसाध्यसिद्धेः, अत एव जलचन्द्रेण नभचन्द्रानुमानमितिप्राञ्चः ॥ अस्तु वा द्रव्यश्रुतव्यवहारघटककारणतानिरूपितकार्यताशालित्वादिति हेत्वर्थः ॥ ५५ ॥ उक्तोऽक्षरानक्षरभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः, अथ मूकेतरभेदात्तमभिधित्सुस्तदर्थमुपन्यस्यापाततो दूषयतिस्वपरज्ञप्तिहेतुत्वा-त्तयोर्मूकान्यवद्भिदा । चेष्टादिमतिहेतोर -प्यन्यार्थत्वान्न युज्यते ॥ ५६ ॥ द्रव्याक्षररूपस्य श्रुतस्य परप्रतीतिजनकत्वान्मतेस्तु तदभावेनात्ममात्रप्रत्यायकत्वान्मूकामूकयोरिव तयोर्भेदमन्येऽभिदधति, For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kailassagarsun Gyanmandir अक्षरानक्षरतो मति श्रुतभेदनिरूपणसमा. ति: मूकेत रभेदान्मति श्रुतभेदनि रूपणम् ॥ ।। २५ ।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra LAKHAIRECENGERSEASOKARACHAR तचिन्त्यम्, यतः श्रुतज्ञानं हि न स्वतः परप्रत्यायकं किं तु श्रुतज्ञानकारणे शब्दे तदुपचारं कृत्वा तस्य परप्रत्यायकत्वमभिधीयत इति परत एव तत्तथा, एवं च करवक्त्रसंयोगादिका अपि चेष्टा अनक्षररूपत्वेन मतिहेतुतां भजन्त्यः परस्मिन् भुजिक्रियादिप्रतीतिं जनयन्ति, इति मतेरपि परतः परप्रत्यायकत्वमविशिष्टम् । आह च-"सपरपञ्चायणओ, भेओ मूएतराण वाभिहिओ ।। जं मूअं मइनाणं, सपरप्पञ्चायगं मुत्त।।१७१।।" [स्वपरप्रत्यायनतो भेदो मूकेतरयोरिवाभिहितः।। यद् मूकं मतिज्ञानं, स्वपरप्रत्यायक श्रुतम् ] "मुअकारणंति सद्दो, सुअमिह सो य परबोहणं कुणइ ।। मइहेअवो वि हि परं, बोहिंति कराइचेट्ठाओ ॥ १७२ ॥" [श्रुतकारणमिति शब्दः, श्रुतमिह स च परबोधनं करोति ।। मतिहेतवोऽपि हि परं बोधयन्ति करादि चेष्टाः] “न परप्पबोहयाई, |जं दोवि सरूवओ मइसुआई ॥ तक्कारणाई दोह वि, बोहिंति तओ ण भेओ सिं ॥ १७३ ॥" [न परप्रबोधके यद् द्वे अपि स्वरूपतो मतिश्रुते ॥ तत्कारणानि द्वयोरपि बोधयन्ति ततो न भेदोऽनयोः ॥] ॥ ५६ ।। वस्तुस्थितिमुपदर्शयतिपरप्रत्यायने शब्दो, ह्यसाधारणकारणम् ॥ चेष्टापि शाब्दहेतुळ (त्वात् ), तदियं युज्यते गतिः॥५७ ॥ यद्यपि द्रव्यश्रुतं श्रुतज्ञानं जनयितुमान्तरिकान्मतिविवर्तानवग्रहेहादीन् जनयति तथाप्यक्षररूपतया मुख्यत्वात् श्रुतज्ञानस्यैव तदसाधारणं कारण, करादिचेष्टास्तु न मतिज्ञानस्यैवासाधारणं कारणं, 'भोक्तुमिच्छत्ययम्' इत्यादिश्रुतानुसारिविकल्पस्यापि जनकत्वात्, अथवाऽऽचारादिपुस्तकाक्षरस्य गुरुजनोदीरितशब्दस्य वा श्रुतस्य यथा मोक्षं प्रत्यसाधारणकारणानां क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्राणां कारणत्वं न तथा परप्रत्यायिकानां चेष्टादीनामिति विशेषः ॥ वस्तुतः शब्दस्येव चेष्टादीनामप्यर्थविशेषेण सह सम्बन्धग्रहात्पदार्थोपस्थितिद्वारा शाब्दप्रतीतिजनकत्वमेव, न तु मतिज्ञानजनकत्वं, मुकेतरभेदान्मतिश्रुतभेदनिरूपणेऽन्याभिप्रेतमपाकत्य स्वाभी टस्योपदर्शनम् ॥ For Private And Personal use only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ।। अत एव शब्दोदीरणासामर्थ्याभावे प्रतिपिपादयिषवस्तथा तथा चेष्टमाना दृश्यन्ते, न च चेष्टादिना व्याप्तिप्रतिसन्धानपुरस्सरमनुमितिरेब जन्यते, न तु शाब्दबोध इति वाच्यम् , एवं सति शब्दादप्यर्थप्रतीतिरनुमानेनैवेति गतं शब्दप्रमाणचर्चयैव ।। अथ शाब्दबोधे पदोपस्थित एवार्थों भासते नतूपस्थितमात्रं, अन्यथा घटपदात्सम्बन्धितयोपस्थितस्याकाशस्य शाब्दबोधप्रवेशप्रसङ्गात्तथा च चेष्टोपस्थितोऽर्थः कथं शाब्दबोधे निविशतामिति चेत्, न, सकैतग्रहाधीनोपस्थितिकस्यैव तत्प्रवेशनियमात, अथ चेष्टादिना शब्दानुमानादेव शाब्दबोधस्तस्यैव तद्धेतुत्वेन क्लुप्तत्वाद् , अन्यथा लिप्यक्षरादेरपि तद्धेतुत्वकल्पने गौरवादिति, तदिदमभिप्रेत्योक्तं "प्रयत्नजन्या शरीरतदवयवक्रिया चेष्टा सा च नाव्यशास्त्रादिसमयबलेन पुरुषाभिप्रायविशेष अर्थविशेषं च गमयन्ती नागमाद् भिद्यते लिप्यक्षरादर्थप्रतिपत्तिवदिति" इति चेत्, न, चेष्टायाः शरीरवृत्तित्वेन शब्दस्य चाऽऽकाशवृत्तित्वेन तत्र व्याप्तिग्रहासम्भवात्, चेष्टया तदभिप्रायस्थः शब्दः कल्प्यते, इत्यपि वार्तम् ।। आकाशं घटमानयेतिशब्दवदित्यनुमित्याद्याकलितशब्दस्येव तस्य स्वतन्त्रानुपस्थितत्वेन शाब्दबोधाहेतुत्वात, किञ्चैतादृशव्याप्तिप्रतिसन्धान विनापि चेष्टादेराहत्यार्थप्रतीतिदर्शनात्तस्याः स्वतन्त्रतयैव हेतुत्वं युक्तम्, अथ चेष्टाजन्यज्ञानस्य शाब्दत्वे शब्दात्प्रत्येमीति तत्र प्रतीतिः स्यान्न तु संज्ञया प्रत्येमीति चेत्, न, तस्य ज्ञानस्य शाब्दत्वेऽपि शब्दाजन्यत्वात्, तादृशप्रतीतौ शब्दजन्यत्वस्य नियामकत्वात्, अत एव चेष्टायां लक्षणाभावेऽपि व्यजनयैव बोधकत्वमित्यालङ्कारिकाः॥ तदिदमखिलं चेतसि निधाय बभाषे भगवान् भाष्यकार:“दव्वसुअमसाहारण-कारणओ परविबोहयं हुजा ।। रूढं ति व दव्वसुर्य, सुअंति रूढा ण दब्बमई ॥ १७४ ॥" [द्रव्यश्रुतमसाधारणकारणतः परविबोधकं भवेत् ॥ रूढमिति वा द्रव्यश्रुतं श्रुतमिति रूढा न द्रव्यमतिः ॥] " सा वा सद्दत्थो चिय, तया | मूकेतरमेदान्मतिश्रुतभेदनिरूपणे चेष्टाया: शाब्द जनकत्वं व्यवस्थापितम्। HASHARABAD ॥२६॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketafirth.org विजं तंमि पच्चओ होइ ॥ कत्ता वि हु तदभावे, तदभिप्पाओ कुणइ चिठ्ठे ॥ १७५ ॥ " [ सा वा शब्दार्थ एव तयापि यत्तस्मिन्प्रत्ययो भवति ।। कर्तापि खलु तदभावे तदभिप्रायः करोति चेष्टाम् ।। ] अत्र शब्दार्थ इति शब्दो वक्तुः समुदीरितवचनरूपस्तस्यार्थः शब्दार्थः श्रोतृगतज्ञाने प्रतिभासमानस्तदभिधेयवस्तुस्वरूपः श्रुतज्ञानमिति तात्पर्य, तथा च कारणे कार्योपचार आश्रयणीय इति हृदयम् ।। वस्तुतः शब्दस्यार्थः प्रयोजनमिति सम्मुख एवार्थः ॥ ननु मूकेतरभेदस्याऽवधारणगर्भोऽयमर्थः कुतो न स्याद्यत् श्रुतज्ञानं सुखरमेव मतिज्ञाने तु न नियम इति चेत्, न श्रुतज्ञानस्यापि सर्वस्यामुखरत्वादनन्तभागस्यैव निबन्धादि - योग्यतया मुखरत्वोक्तौ चाऽभिलाप्यानभिलाप्यविषयविभागादनतिरेकप्रसङ्गादितिदिग् । ननु तथापि खपरप्रत्यायकत्वाऽप्रत्यायकत्वाभ्यां मतिश्रुतहेतूनामेव विशेष उक्तो न तु मतिश्रुतयोः । न च श्रुतमपि शब्दप्रयोगद्वारा परप्रत्यायकमितिवाच्यम्, मतिज्ञानस्यापि तद्द्द्वारा तथात्वादितिचेत्,न, स्वकारणद्वारा परस्मै स्वसमर्पकत्वस्य विशेषकत्वात् । असार्वत्रिकमिदमभेदकमिति चेत्, न, तज्जातीयत्वस्य सार्वत्रिकस्य भेदकत्वात् ॥५७॥ उक्तो मूकेतरभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदस्तत्प्रतिपादनेन च कृतं सर्वप्रकारैर्भेदनिरूपणमित्याह मिथेो मतिश्रुतभिदा, तदेवं सर्वहेतुभिः ॥ दिशा प्रदर्शिताऽकम्प-सम्प्रदायपवित्रया ॥ ५८ ॥ स्पष्टः || नवरं प्रदर्शितेति क्तप्रत्ययबलेन मतिश्रुतभेदस्य सिद्धत्वज्ञानेन प्रतिबन्धकजिज्ञासानिवृत्या मतिस्वरूपनिरूपणप्रयोजकजिज्ञासा शिष्याणां कृता भवति ।। ५८ ।। सविवरणे श्रीज्ञानार्णवप्रकरणे प्रथमस्तरङ्गः सम्पूर्णः ।। ये विबुधेषु जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरु- स्तत्सातीर्थ्यभृतो नयादिविजयप्राज्ञाः श्रयन्ति श्रियम् ॥ तेषां न्यायविशारदेन शिशुना ज्ञानार्णवे निम्मिते, पूर्णे भाष्यवचोमृतैरतितरा-मायस्तरङ्गोऽभवत् ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir भूकेतरमेदासन्मति श्रुतमेदनिरूपणसमाप्तिसर्वप्रकारैर्मति श्रुतभेदनिरूपणोपसंहारः ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम् ॥ RECAUSERSabdateHARANILODA ग्रन्थान्तरं रत्नजिघृक्षयान्ये, जडास्तडागं परिशीलयन्ति । रत्नाकरं जैनवचोरहस्य, वयं तु भाष्यं परिशीलयामः ॥२॥ नमोऽस्तु भाष्यकाराय, भगवन्मतभानवे ॥ पराहतेषु तर्केषु, भाष्यजीवातुदायिने ॥३॥ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे न्यायविशारदविरचिते मतिश्रुतभेदचिन्ताधिकारः प्रथमस्तरङ्गः सम्पूर्णः ।। अथ द्वितीयस्तरङ्गः ॥ अथावसरसङ्गत्या मतिज्ञाननिरूपणं प्रतिजानीते । भेदपर्यायसुव्यक्त-मथ तत्त्वनिरूपणात् ॥ निरूप्यते मतिज्ञान-मुद्देशक्रमसङ्गतम् ॥१॥ ५९॥ अथ' यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् पूर्व मतिज्ञानमुद्दिष्टमिति तदेव पूर्व निर्दिश्यते, एवं चोद्देष्टुरिच्छयोद्देशक्रमः, उद्देशक्रमाच्च निर्देशक्रम इति लभ्यते उद्देश इव निर्देशेऽपीच्छैव नियामिकाऽसाम्प्रदायिकत्वेन बलवदनिष्टानुबन्धित्वज्ञानाच्च नोद्देशक्रमविपरीतक्रमेण निर्देशेच्छेति तु युक्तं, अत्राऽथेत्यनेन प्रतिबन्धकजिज्ञासापगमलक्षणाऽवसरसङ्गतियोंत्यते, तथा चासङ्गताभिधानशंका निवर्तिता भवति, प्रतिज्ञया च शिष्यावधानं कृतं भवति । तथाह च भाष्यकारोपि-"मइमुअनाणविसेसो, भणिओ तल्ल यखणाइभएणं ॥ पुचि आभिणिबोहिय-मुद्दिटं तं परूविस्स||१७६॥"[मतिश्रुतज्ञानविशेषो भणितस्तल्लक्षणादिभेदेन ।। पूर्वमाभिनिवोधिकमुद्दिष्टं तत्प्ररूपयिष्ये ॥१॥ तत्र निरूपणं तावत्तच्चभेदपर्यायः कर्तव्यं तत्र तस्य भावस्तत्वमिति निरुक्त्या तत्वं सामान्यलक्षणं तच पूर्व कृतमेवेति भेदनिरूपणमवसरप्राप्तं चिकीपुराह प्रथमतरज समाप्तिः द्वितीयतरझारम्भः,तत्र मतिज्ञान तत्त्वनिरूपणप्रतिज्ञा ॥ Halesites: GARH ॥ २७॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra /www.ketatirth.org श्रुतनिश्रितमन्यच्च तद्विधाऽवग्रहादिभिः ॥ औत्पत्तिक्यादिकै भेदै-रेकैकं स्याच्चतुर्विधम् ॥ २ ॥६०॥ तन्मतिज्ञानं द्विविधं श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च तत्स्वरूपं च प्रागुक्तं, तदपि प्रत्येकं चतुर्विधं श्रुतनिश्रितमवग्रहेहापायधारणालक्षणं,अश्रुतनिश्रितञ्चौत्पत्तिकी वैनयिकी - कार्मिकी- परिणामिकीलक्षणं चेति, यद्यप्यश्रुतनिश्रितेऽप्यवग्रहादिकमस्ति तथापि - 'असाधारणेन व्यपदेश' इति न्यायादित्थं विभागः प्रदर्शितः || २ || आदिपदेन संक्षिप्योपदर्शितं प्रभेदं प्रपञ्चयति भिदाश्च ताश्चतस्रोऽव-ग्रहेहापायधारणाः ॥ औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी पारिणामिकी || ३ || ६१ || स्पष्टः ।। नवरं पारिणामिकीत्यस्यान्ते चेतीतिशेषः, अत्र च श्रुतनिश्रिताधिकारादवग्रहादिभेदानामेवाधिकारः । आह च निर्युक्तिकार :- "उग्गह - ईहवाओ य, धारणा एव होंति चत्तारि । आभिणिवोहिअनाणस्स, भेअवत्थू समासेणं ।। १७८||" [अवग्रह Feesपायश्च धारणैव भवन्ति चत्वारि ।। आभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि समासेन ], अत्र चकारोऽवग्रहादेः पर्यायत्वनिरासेन स्वातन्त्र्य प्रदर्शनार्थः, तत्प्रदर्शकत्वं चास्य भेदार्थत्वादवसेयं, अनुशास्यते च ' चार्थो भेद ' इति, एवकारथ अवगृहीतमेवेह्यते ई हितमेव निश्चीयते, निश्चितमेवावधार्यत इति क्रमद्योतनार्थः । भेदा एव वस्तूनि विविक्तवस्तुस्वरूपाणि भेदवस्तूनि, तेन भेदस्य पदार्थान्तरत्वनिरासः, समासेनेति विस्तरेणाधिकानामपि सम्भवादितिभावः ||३|| अवग्रहादीनां लक्षणमाह अपग्रहोsवग्रहः स्यादीहा भेदगवेषणम् ॥ इदमेवेत्यपायो धी-र्धारणा तदविच्युतिः ॥ ४ ॥ ६२ ॥ अपकृष्टः सामान्य मात्रावभासी ग्रहोऽवग्रहो निष्प्रकारकं ज्ञानमित्यर्थः, भेदगवेषणं तद्व्याप्यान्वयव्यतिरेकधर्मसम्भवग्रहणमीहा, इदमित्थमेवेत्यवधारणमपायो, निश्चिताऽर्थाविच्युतिर्धारणा, अविच्युतिस्मृतिवासनारूपाणां तिसृणामपि धारणानां विच्युतिविरोधित्वा For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalasagarsun Gyanmandir मतिभेदप्रभेदनिरूपण तत्र अवग्र हादीनां लक्षणम् ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Not सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम्॥ ॥२८॥ i fRNSHREE RESPERak माव्याप्तिः। आह च नियुक्तिकारः॥"अत्थाणं उम्गहण,अवग्गहं तह विआलणं ईही। ववसायं च अवार्य, घरण पुण धारण बिति मतिमेदपमे| ॥१७९॥ [अर्थानामवग्रहणमवग्रहं तथा विचारणमीहां।।व्यवसायं चापायं धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते] "अत्थाणं उग्गहणम्मि उम्गहो" दनिरूपणे इतिपाठे विभक्तिव्यत्ययो द्रष्टव्यः । भाष्यकारोऽप्यभ्यधात्-“सामण्णत्थावग्गहण-मोग्गहो भेअमग्गणमहेहा ।। तस्सा-1 * वग्रहादिवगमोऽवाओ, अविच्चुई धारणा तस्स ।। १८०॥" [सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमथेहा ।। तस्यावगमोऽपायोऽविच्यु लक्षणे नियुतिर्धारणा तस्य] एतेषां लक्षणानां निष्कर्षमग्ने वक्ष्यामः ॥ ४॥ क्किभाष्यसअत्र चावग्रहादारभ्य परैः सह बढयो विप्रतिपत्तयः सन्तीत्यवग्रहविषयान्तां तावनिरोकरोति वाद: अबअवग्रहेऽपि सामान्य-विशेष विषयं परे ।। प्राहुस्तषामपायस्य, प्रवृत्तिरतिदुर्घटा ॥ ५॥ ६३ ॥ ग्रहहाविषसामान्यमात्रावगाहिज्ञानत्वं नावग्रहत्वं शब्दादिसामान्यविशेषग्रहस्यापि तथात्वात्, किन्तु इदं तदिति वेत्याकारकविमर्श यविप्रतिफ पूर्वभाविज्ञानत्वमेव, प्रवर्तते च शब्दोऽयमिति ज्ञानोत्तरं किमयं शांखः शारें बेत्यादिविमर्श इति, सोऽप्यवग्रह इति केचिदाहुः, तेत्तिनिरासः॥ तन्न, तादृशविमर्शानुपरमेनापायस्य कदाप्यप्रवृत्तिप्रसङ्गाद् , ईहाया अपीहान्तरपूर्वमावित्वेनाऽवग्रहत्वप्रसङ्गात, सामान्यविशेषभानस्यापि सामान्यमात्रभानं विनाऽसम्भवाद्विशेषधर्मभानेावग्रहस्य हेतुत्वादित्यादि बहुतरं वक्ष्यते, आह च-"सामनविसेसस्स वि, केइ उग्गहणमुग्गई विति ।। जं महरिदं तयं ति च तन्नो बहदोसभावाओ ॥१८॥" [सामान्यविशेषस्यापि केचिदवग्रहणमवग्रहं खुवते ॥ यन्मतिरिदं तदिति च तन्नो बहुदोषभावात ॥५॥ईहाविषयिणीं विप्रतिपत्तिं निरस्यति ईहां संशयमेवाहुः, परे तत्प्रकृतासहम् ॥ हेतृपपत्तिव्यापारा, न चेहा संशयात्मिका ॥६॥॥६४ ॥ 1४॥२८॥ RRRRRR Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh k odra GENERADEGRECOGIte स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यनिश्चयात्मकं संशयमेवेहां केचिदुपयन्ति, ते भ्रान्ताः,ज्ञानाधिकारेऽज्ञानरूपाया ईहाया उपन्यासायोगाद्,13 मतिनिकआह च-"ईहा संसयमेतं, केई न तयं तओ जमन्नाणं ।। मइनाणंसा चेहा, कहमन्नाणं तई जुत्तं ॥१८॥' [इंहा संशयमात्र केचिक |पणे ईहातत्स यदज्ञानम् । मतिज्ञानांशश्वेहा-कथमज्ञानं सा युक्तम्] संशयेहयो.लक्षण्यं न वीक्षामहे इति चेत्, सोऽयं पुरुषदोषो न तु वस्तु संशययोलेदोषस्तयोर्मेदस्यानुभविकत्वात्, तथाहि 'एकत्र विधिनिषेधोभयज्ञानं संशयः, 'हेतूपपत्तिव्यापारप्रवणं ज्ञानमीहा' इति लक्षणभेदा क्षणमेदतो दनयोर्भेदः,यदाह-"जमणेगत्थालवण-मपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं । सेय इव सव्वप्पयओ,तं संसयरूवमण्णाण।।१८३॥” [यदने भेदस्य व्यकार्थालम्बनमपयुदासपरिकुंठितं चित्तम्।। शेत इव सर्वात्मतस्तत्संशयरूपमज्ञानम्] "तंचिय सयस्थहेऊ-ववत्तिवावारतप्परममाहं ॥ वस्थापनम्।। भूआभूअविसेसा-याणच्चायाभिमुहमीहा।।१८४॥"[तदेव सदर्थहेतूपपतिव्यापारतत्परममोघम् ।। भूताभूतविशेषादानत्यागाभिमुखमीहा] अत्रानेकार्थालम्बनमित्यत्रालम्बनपदैनकालम्बनत्वविवक्षणाद्,अनेकार्थपदेन विरुद्धार्थत्वलाभाद्, “एकविशष्यकं विरुद्धधर्मप्रकारकं ज्ञानं संशय" इति लक्षणं, अपर्युदासपरिकुंठितमिति च स्वरूपाभिधानानुपलक्षणादविधिपरिकुंठितत्वमपि द्रष्टव्यं, 'सय' इत्यादि च, सं सर्वात्मना शेत इवेति संशय इति व्युत्पत्त्यर्थाभिधानं, अत्र विरुद्धनानाधर्मप्रकारकत्वं परस्परग्रहप्रतिबन्धकग्रहविषयतावच्छदकनानाधर्मप्रकारकत्वं विवक्षितं, तेन तदभावव्याप्तिपर्यवसायिनो विरोधस्य संशयेऽभानपिन क्षतिः, न वा इदं रजतमेतद्रूपबच्चेति ज्ञानस्य संशयत्वापतिः, यत्तु 'एकपर्मिकतत्चदभावोभयप्रकारकज्ञानमेव संशय' इति, तन्न, अयं स्थाणुः पुरुषो वेति भावाभावानात्मकविरुद्धधर्मद्यप्रकारकज्ञानस्यापि संशयत्वात् , तत्र चतुष्कोटिकसंशयस्यासिद्धत्वादिति दिग् ।। यच्च ज्ञानं स्वार्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परं तदीहा, भूताभूतेत्यादिकं च स्वरूपकथनं, तत्र हेतुव्यापारः स्थाणुरयं बल्ल्युपसर्पणकाकादि UCHERWEARINARS For Private And Personal use only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMahavt Jain ArarthanaKendra P सविवरण श्रीज्ञाना मतिनिरू. पणे ईहाया अपायाभेद: अपायधारणाविप्रतिपत्तिनिरासश्च॥ प्रकरणम्॥ ॥२९॥ निलयादित्याकारः, उपपत्तिव्यापारध सम्भवपर्यालोचनं यथा सूर्यास्तसमये महति तमिले स्थाणुरयं सम्भाव्यते नतु पुरुषः, | तस्यासम्भवादिति, न चाशुनश्वरज्ञाने कथमेतावत्पोलोचनमिति वाच्यं, इहाया बहुसामयिकत्वाद्, अत एव बहुकालममुमर्थमनुभवामीति प्रतीतिः सङ्गच्छते, एवञ्च हेतूपपत्योः परमार्थत एकरूपत्वाचसंशयविरोधितव्याप्यधर्मवत्ताज्ञानमेव तदीहेत्यायाति, तत्संशयविरोधिता च तदभावानवगाहित्वेन विवक्षितेति न व्याप्यव्याप्यवचापरामर्शप्रसूतव्याप्यवत्चानुमितेरपायरूपाया ईहात्वापत्तिः, तत्संशयनिवर्चकापायानुकूलपरामर्शत्वं चहालक्षणं, तेन न तोद्यतिव्याप्तिः,स्यादेतत् तदभावाप्रकारकत्वे सति तत्प्रकारक ज्ञानं निश्चयः, स एव चापायः, ईहापि संशयभिन्नत्वाचादृश्येवेतीहापाययोः को भेद ? इतिचेत्,न,इदमित्थमेवेत्यनुभवसाक्षिकविषयताविशेषवतोऽपायादतादृश्या ईहाया भिन्नत्वात् । तादृशविषयताभावः संशयत्वेन व्याप्त इतिचेत्,न,अवग्रहेण व्यभिचारात, स्पष्टज्ञानत्वविशिष्टः स तथेतिचेत्,न, तादृशव्याप्ती मानाभावाद्,अपि चामुमर्थ विचारयामि, अमुमर्थं च निश्चिनोमीति प्रतीतिभ्यामीहात्वापायत्वयोः स्फुटमेव स्वतन्त्रतया भानमिति दिग् ॥ ६॥ अपायधारणागतविप्रतिपत्तिनिरासाय परमतमुपदर्शयति केचिदन्यविशेषस्या-5भावव्यवसितिं जगुः॥ अपायमिदमेवेति, निश्चयं धारणां पुनः ॥ ७ ॥६५॥ 'ववसायंमि अवाओं' इत्यत्र विशेषेण एककोटिव्याप्यधर्माभावप्रकारेणावसायो ज्ञानमिति यथाश्रुतार्थभ्रान्ताः पुरुषत्वव्याप्यशिरःकण्डूयनादिधर्माभाववानयमित्यादिज्ञानमपायं, 'वरणं पुण धारणं विति' ति यथाश्रुतार्थभ्रान्ताश्च तदुत्तरोत्पन्न स्थाणुरेवाडयमित्यादिज्ञानं धारणां केचिदाहुः।। आह च-"केइ तयनाविसेसा-वणयणमित्तं अपायमिच्छति । सन्भूयत्थविसेसा-वधारणं धारण विति ॥१८५॥" [केचित्तदन्यविशेषापनयनमात्रमपायमिच्छन्ति ।। सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणां ब्रुवते ॥ ॥७॥ तद्दषयति HODAEKAR CAREECE5% ॥२९॥ L For Private And Personal use only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra HOWKARNALASSAGE अन्वयाद् व्यतिरेकाद-प्यन्वयव्यतिरेकतः॥ अपायस्योदयात्तन्नो, भिदाः पञ्च स्युरन्यथा ॥ ८॥६६॥ | मतिनिरूप अन्वयधर्मवत्ताज्ञानाव्यतिरेकधर्मवत्ताज्ञानादुभयधर्मवत्ताज्ञानाच्चाविशेषेणेहीतापायस्यैव प्रवृत्तेरसद्भूतधर्मनिषेधाकलनमाहा, णेऽपायतज्जन्यनिश्चयश्चापायः, परमित्युक्तेऽन्वयधर्मगवेषणजन्या धारणा न स्यात् । आह च-"कासइ तयन्नवहेरग-मेत्तओवगमणं भवे धारणाविप्रभृए। सम्भृअसमन्नयओ,तदुभयओ कासइ ण दोसो॥१८६॥ सव्वो वि य सोवाओ, भेए वा होंति पंच वत्थूणि।। आहेवंचिय चउहा, तिपत्तिनिमई तिहा अन्नहा होइ ।। १८७॥"[कस्यचित्तदन्यव्यतिरेकमावतोऽवगमनं भवेद् भूते ।। सद्भुतसमन्वयतस्तदुभयतः कस्यचिन्न रासः ।। दोषः॥ सर्वोऽपि च सोऽपायो भेदे वा भवन्ति पंच वस्तूनि ॥ आहेवमेव चतुर्धा मतिस्त्रिधाऽन्यथा भवति ॥ ननु स्थाणुत्वव्याप्यवक्रकोटरादिमानयमित्यन्वयधमेज्ञानात् स्थाणुरेवायमित्यपायोस्तु पुरुषत्वव्याप्यकरचरणाद्यभाववानयमितिव्यतिरेकधर्म-18 ज्ञानात्तु कथं सः, नहि तदभावोऽन्वयेन व्यतिरेकेण वा स्थाणुत्वव्याप्यो घटादौ व्यभिचारात्, न च पुरुषत्वव्यापककराद्यभाववत्तानिश्चयादेव पुरुषत्वाभावज्ञानादभावप्रतिपत्तिः, व्यापकाभावज्ञाने व्याप्याभावज्ञानावश्यंभावनियमादिति वाच्यम् । एवं सत्ययं न पुरुष इत्यपायेऽपि अयं स्थाणुरेवेत्यपायाऽभावात्, न चोक्ताभावविशिष्टसाधारणधर्मवत्ताज्ञानमेव तदपायजनकमिति वाच्यम्,संशयहेतोः साधारणधर्मवत्ताज्ञानस्य तदानीमननुसरणादितिचेत्, न, एककोटिनियतधर्माभावज्ञानस्याप्यपरकोटिनिश्चायकत्वाद्, अथवोक्ताभावज्ञानानन्तरं पुरुषत्वाभावज्ञानात्तद्विशिष्टसाधारणधर्मवत्ताज्ञानादेवायं स्थाणुरेवेति निश्चयस्तत्र तावदालोचनरूपायाईहाया अनुभवसिद्धत्वादिति दिग। ननु व्यतिरेकधर्मगवेषणमीहेत्यस्य व्याप्यधर्मवत्ताज्ञानमपायोऽसावित्यर्थः, तच्चान्वयेन व्यतिरेकेणान्वयव्यतिरेकेण वास्तु,तज्जन्ययथाभूतार्थज्ञानं तुधारणा इत्युक्तौ को दोषो येन स्वमतव्यावर्णनमेव भ्राजमानं भवेत्, उच्यते, व्याप्य For Private And Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ।। ॥ ३० ॥ 26-166. www.ketatirth.org धर्मव्यवसितेर्जायमानो निश्चयो यदि धारणाख्यामाविभृयात्तदा स्मरणस्यादु रुपह्नवत्वेनावग्रह ईहाऽपायो धारणं स्मरणश्चेति मतिज्ञानस्य पञ्च भेदाः प्रसजेयुः, एवञ्चागमविरोधः, किश्चैवं धारणाजनकं व्याप्यधर्मवत्ताज्ञानमपाय एवेतीहासंशय एव स्यात्तथाचोक्तदोषप्रसङ्गः । अथ व्यतिरेकधर्मज्ञानाज्जायमानो निश्चयोऽपायोऽन्वयधर्मज्ञानाज्जायमानस्तु धारणेति चेत्, न, उभयधर्मज्ञानाज्जायमानस्य निश्चयस्योभयरूपत्वप्रसङ्गादुक्तदोषप्रसङ्गाच्च, एतेन व्यतिरेकधर्मावगाही निश्चयोऽपायोऽन्वयधर्मावगाही तु धारणेत्यपि निरस्तम् ॥ ८ ॥ ननु धारणा नामाऽविच्युतिस्मृतिवासनालक्षणं मतिभेदान्तरं नास्तीत्यपायविशेष एव स इति न मम भेदपञ्चक प्रसङ्गो व्यक्तिभेदमनादृत्य जातिभेदान्वेषणनिष्टानां भवतामेव प्रत्युत भेदत्रयप्रसङ्ग इत्याशङ्कतेअविच्युतिरपायो हि, संस्कारो ज्ञानमेव न ॥ अन्योऽपायः स्मृतिस्तेन, चतुर्भेदा मतिः कथम् ? ॥९२॥६७॥ इह तावद्घटादिके वस्तुनि अवग्रहेहापाय रूपतयान्तर्मुहूर्तिक एवोपयोगो जायते तत्रापायोत्पत्त्युत्तरं उपयोगसातत्यलक्षणा चाsविच्युतिर्भवद्भिः स्वीक्रियते सा तावत्तावत्कालीनापायस्वरूपान्नातिरिच्यते नहि कालभेदेन वस्तुभेदो नाम क्षणभङ्गप्रसङ्गात् या चोपयोगोपरमे सति संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाऽवतिष्ठत इत्यभ्युपगम्यते सा किं वस्तुविकल्पो वा स्मृतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमो वा तज्ज्ञानजननशक्तिर्वा, नाद्य एतावन्तं कालं तद्वस्तुविकल्पायोगात्, नोत्तरौ अज्ञानरूपत्वेन तस्य मति - भेदत्वाऽसम्भवाद्, या चानुभूतस्य कालान्तरोपयोगलक्षणस्मृतिराविर्भवति साप्यन्वयधर्मेणापि निश्चयोऽपाय एवेति त्वदभ्युपगमादपायान्तरमेवेति अवग्रह ईहाऽपायश्चेति तिस्र एव मतेर्भिदाः सम्भवन्तीति कथं न विभागवाक्यविरोधः । आह च"काणुत्र ओगम्मि धिई, पुणोवओगे अ सा जओबाओ । तो णत्थि धिई ।। ति ।। ९ ।। [ कानुपयोगे धृतिः पुनरुपयोगे च For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir मतिनिरूपणेऽपाय धारणाविप्रतिपत्तिनिरासः ॥ ॥ ३० ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sha n dra GEORG पनन् । सा यतोऽपायः ॥ ततो नास्ति धृतिः ॥ १८८ ॥ ]ति ॥ ९॥ अत्रोच्यते मतिनिरूपणे अविच्युतिज्ञोनधारा, वासना ज्ञानकारणम् ।। स्मृतिश्चेदं तदेवेति, धीरतः किन्नु दूषणम् ॥१०॥६८॥ 15 अविच्युति यचावदुक्तं उपयोगसातत्यलक्षणाऽविच्युतिरपायानातिरिच्यत इति, तदयुक्तम् , प्रथमापायोत्पत्त्युत्तरं क्वचिदुत्पद्यमानस्य १४ स्मृतिवासनास्थाणुरेवायं स्थाणुरेवायमित्याकारस्यान्तर्मुहूर्तमविच्युतस्य धारावाहिकापायसन्तानस्य प्रथमापायादभ्याधिकत्वात्, न च गृहीत- नांधारणाअाहित्वादस्याप्रामाण्यं, अन्यान्यकालविशिष्टत्वेन स्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमभिन्नधर्मकवासनाजनकत्वेन वा भिन्नस्यैव वस्तुनो ग्रहणा- त्वव्यवस्थादिति पाश्चः, वस्तुतो गृहीतग्राहित्वं नाप्रमात्वे तन्वं, अपि तु तदभाववति तत्प्रकारकत्वम्' इति न तस्याप्रामाण्यं इति दिग्॥ वासना च यद्यपि स्वतो न ज्ञान तथाप्यपायकार्यत्वात्स्मृतिकारणत्वाचोपचारतस्तस्य ज्ञानत्वं, 'इदं वस्तु तदेव, यत्प्रागुपलब्धं मया इत्याकारिका स्मृतिरपि वस्तुनिश्चयमात्रफलादपायादतिरिच्यते, पूर्वापरदर्शनानुसन्धानरूपा हि सेति, तस्मादविच्युतिस्मृतिवासनालक्षणानां तिसृणामपि धारणानां व्यवस्थितत्वान विभागव्याघातः। आह च-"भण्णइ इदं तदेवेति जा बुद्धी॥१८८ानणु ५ साऽवायब्महिआ, जओ असा वासणाविसेसाओ।जा यावायाणन्तर-मविच्चुई सा धिई णाम ॥१८९॥"[भण्यते इदं तदेवेति या बुद्धिः । ननु सापायाभ्याधिका यतश्च सा वासनाविशेषात् ।। या चापायानन्तरमविच्युतिः सा धृतिनाम] यदि चोक्तरीत्याऽपायविशेष एव धारणाभ्युपगम्यते स्मृतिरपिचाधिकाऽभ्युपेयते तदा भेदपश्चकप्रसङ्गो वज्रलेपायत एव । आह च-"तं इच्छंतस्स तुई, वत्थूणि य पंच, नेच्छमाणस्स ॥ किं होउ सा अभावो, भावो नाणं व तं कपरं ॥१९०॥"[ तामिच्छतस्तव वस्तूनि च पंच, नेच्छतः ॥ किं भवतु साऽभावो भावो ज्ञानं वा तत्कतरत् ] ननु भवतामपि धारणानां विरूपत्वाद्विभागातिक्रम इति चेत्, न, * SEPTESCG * For Private And Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं ज्ञाना प्रकरणम् ॥ धारणात्वेन सर्वासामप्येकीकृत्य ग्रहणाद्, यथा द्विरूपयोरप्यवग्रहयोरखग्रहत्वेन ग्रहणम् , आह च-"तुम्भं (झ) बहुयरमेआ, भणइ मई होइ धिइबहुत्ताओ । भन्नइ न जाइभेओ, इट्ठो मज्झं जहा तुझ ॥ १९१ ॥" [तव बहुतरभेदा भणति मतिर्भवति धृतिबहुत्वात् ॥ भण्यते न जातिभेद इष्टो मम यथा तव ॥] “सा भिन्नलक्खणा वि हु, घिइसामनेण धारणा होइ ।। जह उग्गहो दुरूवो, उग्गहसामनओ इक्को ।। १९२ ॥” [सा भिन्नलक्षणापि खलु धृतिसामान्येन धारणा भवति ॥ यथाऽवग्रहो द्विरूपोऽवग्रहसामान्यत एकः] नन्वषायसन्ततिरूपाविच्युतिः कथं धारणेति चेत्, अपायजन्यत्वाद्धारयामीत्यनुभवाच्च, स्मृतेरिव प्रत्यभिज्ञाया अपि धारणात्वात्तिमृणां धारणानां ग्रहणे न्यूनत्वमिति चेत्, न, स्मृतिपदेन तत्वाविषयकज्ञानविशेषग्रहणादिति दिग् ॥ १०॥ तदेवं विप्रतिपत्तीनिराकृत्य विभागं व्यवस्थाप्य प्रागुद्दिष्टमवग्रहं निरूपयतितत्र द्विधाऽवग्रहः स्याद्-व्यञ्जनार्थावलम्बनः॥ तत्रेन्द्रियार्थसम्बन्धो-व्यञ्जनावग्रहः स्मृतः ॥११॥६९॥ तत्रावग्रहहापायादिषु मतिभेदेषु, अवग्रहो द्विविधो व्यञ्जनावग्रहोर्थावग्रहश्च, तत्र प्रथमोपदिष्टत्वाद् व्यञ्जनावग्रहः प्राग्निरूपणीय इत्यत आह तति, आह च-"तत्थोग्गहो दुस्वो, गहणं जं होज्ज बंजण-स्थाणं ॥ वंजणओ य जमत्थो, तेणाईए तयं वुच्छं॥१९३॥"[तत्रावग्रहो द्विरूपो ग्रहणं यद् भवति व्यञ्जनार्थयोः॥ व्यञ्जनतश्च यदर्थस्तेनादौ तकं वक्ष्ये ।।] इन्द्रियार्थसम्बन्ध इति तत्समयभावीति तात्पर्यार्थः, योगार्थमाह-स्वयं व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं, कदम्बकुसुमगोलकधान्यमसूरकाहलाक्षुरप्राकारमांसगोलकरूपाणामन्तनिवृत्तीन्द्रियाणां शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुशक्तिविशेषलक्षणमुपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यनिकुरम्बम्, तदुभयसम्बन्धश्च, ततश्च व्यञ्जनेनेन्द्रियेण व्यञ्जनस्यार्थस्य तत्सम्बन्धस्य वाऽवग्रहो व्यञ्जना मतिनिरूपण प्रसो अवअहमेदनिरूपर्ण तत्र व्यञ्जनावग्रहलक्षणोपदर्शनम् ॥ ॥३१॥ RECORAKARE ॥३१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kath.org वग्रहइति मध्यमपदलोपेन समास आश्रयणीयः, अर्थभेदेऽपि पदसारूप्येणैकशेषाश्रयणाद्, एकशेषेण व्यञ्जनानामवग्रह इत्यपि स्यात् ॥ आह च "जिज्जइ जेणत्थो, घडोच्च दीवेण वंजणं तं च । उबगरनिंदिय सद्दाइ परिणयद्दव्यसम्बन्धो ॥ १९४ ॥ " [व्यज्यते नार्थी घट इव दीपेन व्यञ्जनं तच्च॥ उपकरणे न्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्य सम्बन्धः ॥] नन्वयं व्यज्जनावग्रहो न ज्ञानमित्यत आहस तदन्ते ज्ञानभावा- दव्यक्तं ज्ञानमिष्यते (ताम् )|| अन्यथा प्रागलाभं तदन्तेऽपि न जनुर्लभेत् ||१२|| ७० || व्यञ्जनावग्रहसमयो ज्ञानवान्, ज्ञानोत्पत्तिघटकान्त्य समयशालित्वात् यदन्त्यसमये ज्ञानमुत्पद्यते स कालो ज्ञानवान्, यथा ईहाद्यसमयः इत्यनुमानाद् व्यञ्जनावग्रहस्य ज्ञानत्वसिद्धिः । आह च - "अन्नाणं सो वहिरा- इणं व तक्कालमणुवलंभाओ ॥ ण, तदंते तत्तो च्चिय, उबलभाओ तओ नाणं || १९५ || [अज्ञानं स बधिरादीनां वा तत्कालमनुपलम्भात् ॥ न तदन्ते तत एवोपलम्भारस ज्ञानम्] ननु यदि व्यञ्जनाऽवग्रहो ज्ञानं तर्हि बधिरादीनामपि शब्दादिज्ञानापत्तिस्तत्कालेऽपि तदुपलम्भापत्तिश्चेति चेत्, न, बधिरादीनांव्यञ्जनव्यञ्जनपूर्तिघटक शक्त्यभावादव्यक्तत्वेन तदनुपलम्भसम्भवाच्च, आह च - " तक्कालम्मि वि नाणं, तत्थस्थि तनुं ति तो तमव्वत्तं ॥ बहिराईणं पुण सो, अम्माणं तदुभयाभावा ॥ १९६ ॥ " [ तत्कालेऽपि ज्ञानं तत्रास्ति तनु इत्यतस्तदव्यक्तम् ॥ बधिरादीनां पुनः सोऽज्ञानं तदुभयाभावात् ||] एतेन 'यदन्त्यसमये ज्ञानमुत्पद्यते स कालो ज्ञानवानिति न व्याप्तिः, अवग्रहप्राक्काले व्यभिचाराद्' इति निरस्तं, ज्ञानसामग्री सम्पन्नत्वस्य हेतुविशेषणत्वाद्, अत एव सर्वेषु शब्दादिद्रव्यसम्बन्धसमयेषु ज्ञानमस्ति ज्ञानोपकारिशब्दादिद्रव्यसम्बन्ध समय समुदायक देशत्वादर्थावग्रह समयवदित्यपि प्रयोगः, यदि च कारणसाम्राज्येऽपि प्राक्समयेषु ज्ञानोत्पत्तिर्न स्वातन्त्य समयेऽपि न स्यादविशेषाद्, आह च " जइ वडमाणमसंखज्ज - समय सदाइदव्यसन्भावे || किह चरिमसमयसदाइ For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir मतिनिरूपण प्रसङ्गे व्यञ्जनावप्रहस्य ज्ञानत्वव्यवस्थापनम् ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra Acharya ShalkalasssagarmanGyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ३२ ॥ AKADUCCECRUCK दबविण्णाणसामत्थं ॥ २०० ॥" [यदि वाज्ञानमसंख्येयसमयशब्दादिद्रव्यसद्भावे । कथं चरमसमयशब्दादिद्रव्यविज्ञान- मतिनिरूपण सामर्थ्यम् ॥] "जंसबहाण वीसु, सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं च ।। पत्तयमणिच्छंतो, कहमिच्छसि समुदये नाणं ॥२०१॥"[यत्सर्वथा प्रसले न विष्वक्सर्वेष्वपि तन्त्र रेणुतैलमिव ।। प्रत्येकमनिच्छन्कथामिच्छसि समुदये ज्ञानम् ॥] ननु समुदायनिष्पीडनमात्रं न तैलजनक व्यञ्जानावग्र येन सिकतासमुदायनिष्पीडनातैलानुद्भवदर्शनेन प्रत्येकशक्त्यभावः समुदायशक्त्यभावे प्रयोजकः स्यात्, किन्तु तिलसमुदाय- तहस्य ज्ञानत्व निष्पीडनमेव तज्जनकमिति विषमो दृष्टान्तः, अन्यथा दण्डचक्रादिसमुदाये घटोद्भवदर्शनाद्दण्डादिप्रत्येकसत्वेऽपि सूक्ष्मघटोत्पत्ति व्यवस्थाप्रसङ्गादिति चेत्,न,कारणसमुदयाधीनसाकल्यशालिनि कायें देशस्य देशोपकारितायामेतद्दष्टान्ताभिधानस्य न्याय्यत्वाद।।अत पनम् । | एवाह-"समुदाये जइ नाणं, देसूणे समुदये कहं णत्थि ॥ समुदाए वाऽभ्यं, कह देसे होज तं सयलं? ॥२०॥"[समुदाये * यदि ज्ञानं, देशोने समुदये कथं नास्ति । समुदाये वाऽभूतं, कथं देशे भवेत् तत्सकलम् ॥] "तंतू पडोक्यारी, ण समत्तपडो यसमुदिआ ते उ । सव्वे समतपडओ तह नाणं सव्वसमएसु ॥२०३॥"[ तन्तुः पटोपकारी, न समस्तपटश्च समुदितास्ते तु ॥ सर्वे समस्तपटकस्तथा ज्ञानं सर्वसमयेषु ॥] ननु सहस्रतन्तुकपटादौ सहस्रतन्तूनां तत्संयोगानाश्च हेतुत्वात, द्वितन्तुकपटादौ च | तन्तुद्यसंयोगादीनां हेतुत्वादस्तु तत्र खण्डपटोत्पत्तिक्रमेणाखण्डपटोत्पत्तिः, अत्र तु ज्ञानस्य निरवयवत्वात्कथं खण्डज्ञानो| त्पत्तिक्रमणाखण्डज्ञानोत्पचिरिति चेत्, न, असङ्ख्यातसमयनिष्पाचे सांशे महति ज्ञानेऽङ्सख्यातानामंशानां हेतुत्वाद्, अत एव महज्ज्ञानमेवाभिव्यज्यते महत्तेजोवन तु सूक्ष्ममेकतेजोऽवयवदिति व्यञ्जनावग्रहस्य मूक्ष्मत्वं ज्ञानान्तराणां च महत्त्वमुपपद्यते, | नन्वन्यक्तं ज्ञानं दृष्टविरुद्धमिति चेत्, न, सुप्तमत्वादिसूक्ष्मबोधस्याऽव्यक्तस्य दृष्टत्वाद्, ज्ञानं विना स्वापावस्थायां बचनचेष्टा- ॥३२॥ For Private And Personal use only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shindra णे व्यञ्जनावग्रहस्य ज्ञान नत्वव्यवस्थापन तदूभेदनिरूपणश्च ॥ REA MOCRASHRECRUG घनुपपत्तेः, अन्यथा काष्ठादीनामपि तत्प्रसङ्गाद, आह च-"कहमवत्तं नाणं, च सुत्तमचाइसुहुमबोहु व्य ।। सुत्तादओ सर्प चि य, विमाणं नावबुझंति ।। १९७॥" [कथमव्यकं ज्ञानं च, सुप्तमत्तादिसूक्ष्मबोध इव ।। सुप्तादयः स्वयमपि च, विज्ञान नावबुद्धयन्ते ] "लक्खिज्जा तं सिमिणा-यमाणवयणदाणाइचेट्टाहिं ॥ जं नाऽमइपुब्बाओ, विजते वयणचेट्ठाओ। १९८॥" [लक्ष्यते तत्स्वमायमानवचनदानादिचेष्टाभ्यः ॥ यद नाऽमतिपूर्ण विद्यन्ते वचनचेष्टाः] ।। ननु सुप्ते स्वीय चेष्टितं कुतो न । स्वस्य ज्ञानगोचर इति चेद् , ज्ञानावरणवैचित्र्यात, नहि जाग्रतापि सर्वस्वीयं चेष्टितं ज्ञायते, मुहूर्वेनाप्यसंख्याताध्यवसायोल्लानाद् कस्यचिदेव कदाचिदेव वा तदभिव्यक्तः, आई च-"जम्गतो विन याणइ, छउमत्थो हिअयमोअरं सव्वं ।। जं तज्झवसाणाई, जमसंखजाई दिवसेण ॥ १९९॥ [जाग्रदपि न जानाति, छद्मस्थो हृदयगोचरं सर्वम् ॥ यत्तदध्यवसानानि यदसंख्ये यानि दिवसेन] एवश्च यथाऽध्यवसायस्थानान्यसंख्येयानि सूक्ष्माण्यपि केवलिदृष्टतया श्रद्धेयानि तथा व्यञ्जनावग्रहज्ञानमपीति भावः ॥ १२ ॥ अथ व्यञ्जनावग्रहतत्वं निरूप्य तभेदानिरूपयतिस चतुर्धा भवेच्चक्षु-मनोवर्जेन्द्रियोद्भवः ।। उपघातानुग्रहाभ्यां प्राप्यकारीणि तानि यत् ॥१३॥ ७१ ॥ सचव्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधोघ्राणरसनश्रोत्रत्वग्लक्षणोन्द्रियभेदात्, नन्वेतेषामेवेन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहो नतु नयनमनसोरित्यत्र किं प्रमाणमिति चेत्, तेषां कर्कशकम्बलादिस्पर्शने त्रिकटुकाद्यास्वादने अशुच्यादिपुद्गलाघ्राणे भेर्यादिशब्दश्रवणे चोपघातदर्शनाव,चन्दनद्रवादिस्पर्श क्षीरशर्कराधास्वादने करिपुद्गलाद्याघ्राणे मृदुमन्त्रशब्दाद्याकर्णने चानुग्रहदर्शनात्प्राप्यकारवासिद्धेः,नयनमनसोस्तु जलज्वलनाद्यवग्रहेणानुग्रहोपघातादर्शनादतथात्वाद्, आहच-"नयणमणोवजिदिअ-भेआओ वंजणोग्गहो चउहा।।उवधा RSHA For Private And Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना - प्रकरणम् ॥ ॥ ३३ ॥ www.ketatirth.org याणुग्गहओ, जं ताई पत्तकारीणि ॥ २०४॥” [ नयन मनोवर्जेन्द्रियभेदाद्वयञ्जनावग्रहश्चतुर्धा । । उपघातानुग्रहतो यत्तानि प्राप्यकारीणि] नन्वनुग्रहोपघातौ यदि सुखदुःख विशेषौ न तर्हि तौ प्राप्यकारित्वलिङ्गे यदि तु विषयेन्द्रियसंयोगकार्यविशेषौ तदा ताभ्यां घ्राणादीनां स्वहेतुभूतं प्राप्तिमात्रं सिध्यतु न तु प्राप्यकारित्वं, तार्द्ध वस्तु प्राप्यैव ज्ञानजनकत्वमिति चेत्न, श्रोत्रादीनां प्राप्यकारित्वानुमाने नयनमनसोवाप्राप्यकारित्वानुमानेऽनुग्रहोपघातच्यावर्णनस्य विपक्षबाधक तर्कः प्रदर्शनार्थत्वात् एवञ्च श्रोत्रादीनि प्राप्यकाराणि नयनमनोभिनेन्द्रियत्वाद्, व्यतिरेके नयनमनावदित्यनुमानमप्यवदातमितिद्ग् ि॥ १३ ॥ श्रोत्र घ्राणयोरप्राप्यकारित्वं निराकुरुतेदूरार्थग्रहणाच्छ्रोत्र- घाणे अप्राप्यकारिणी ॥ स्यातां न ते शब्दगन्धौ यदि प्राप्नुवतः स्वयम् ॥१४ ॥ ७२ ॥ श्रोत्रघाणे अप्राप्यकारिणी असम्बद्धार्थग्राहकत्वात् न चायमसिद्धो हेतुः, दूरस्थस्यापि भेर्यादिशब्दस्य श्रवणाद् दूरस्थस्यैव कुसुमादेः परिमलग्रहणाच्च न चात्रान्यतरकर्मणो भय कर्मणा वेन्द्रियविषययोः संयोगोऽनुभूयत इति केचिदाहुः । आह च“जुज्जइ पत्त विसय या, फरिसणरसणेण सोत्तघाणेसु । गिन्हति सविसयमिओ, जं ताई भिन्नदेसंपि॥ २०५ ॥ |” [युज्यते प्राप्तविषयता स्पर्शनरसनयोर्न श्रोत्रघाणयोः । गृह्णीतः स्वविषयमितो यते भिन्नदेशमपि ] तदिदं तदा युज्येत यदि शब्दगन्धयोः स्वकर्मणेन्द्रियप्राप्तिर्न स्यात्, तथा च दूरस्थावपि तौ तत्रागत्यैव ज्ञानं जनयत इति न किञ्चिदनुपपन्नम् ॥ उक्तं च- " पार्वति सद्दगंधा, ताई गंतुं सयं न गिण्हंति” ॥ २०६ ॥ [ प्राप्नुतः शब्दगन्धौ, ते गत्वा स्वयं न गृहणीतः ]त्ति ॥ १४ ॥ तयोः सक्रियत्वे प्रमाणमाहसक्रियौ तौ संहरणाद, वायुना वहनादपि ॥ द्वारानुपाताच्छैलादि - प्रतिघातात्समूर्तिकौ ॥ १५ ॥ ७३ ॥ संहरणाद् गृ(गु)हादिषु पिण्डीभावाद्, वहनादपि वायुना नयनात्, तौ (शब्दगन्धौ) सक्रियौ समूर्तिकौ च धूमवद्वि For Private And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir मतिनिरू पणे व्यञ्ज नाव ग्रहभेद निरूपणे प्राणादीनां चतुर्णा प्राप्यकारि त्वं चक्षुर्मन सोरप्राप्य कारित्वञ्च निरूपितम् ॥ ॥ ३३ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEEG शेषेण, द्वारानुपाताद्वा जलवद् वेगवद्विरलद्रव्यस्य पवनाभिमुखमेव प्रसर्पणादनयोः प्रायो द्वारानुधावनमिति बोध्य, पर्वतादिषु 18 मति० व्य. प्रतिस्खलनाद् वा तौ तथा पाषाणवद्, आह च-"जं ते पोग्गलमइआ, सक्किरिया वाउवहणाओ ।। २०६ ॥ धूमोव्व श्रोत्रवाणसंहरणओ, दाराणुविहाणओ विसेसेणं ॥ तोयं व णितंबाइसु, पडिघायाओ य वाउव्व ॥२०७ ॥" [ यत्तौ पुद्गलमयौ योरप्राप्यसक्रियौ वायुवह नात् ॥ धूम इव संहरणत: द्वारानुविधानतो विशेषेण ॥ तोयमिव नितम्बादिषु, प्रतिघाताच्च वायुरिव ॥] कारित्वस्य ननु पवनोपनीतगन्धवद्रव्याणां घाणेन सह संयोगोऽस्तु शब्दस्त्वाकाशगुण इति न श्रोत्रेण तस्य संयोगः प्रत्यासत्तिः किं तु खण्डनं शश्रोत्रस्य कर्णशष्कुल्यवरिछनाकाशरूपत्वाच्छब्दस्य च तद्गुणत्वात्समवाय एव, गतिस्तु तत्र पवनगतैवारोप्यते न तु स्वाभाविकी, ब्दे आकास्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्तरिति चेत्, न, प्रतिघातजनकत्वेन तस्य द्रव्यत्वसिद्धेः, न च तीव्रतरपवमानस्यैव प्रति शगुणत्वस्य घातजनकत्वं न तु शब्दस्येति वाच्यम्, भर्यादिशब्दजनकपवनसदृशपवनान्तरेणापि बाधिर्याधुदयप्रसङ्गात्, अपि च श्रोत्रमपि खण्डनश्च नाकाशं बाधिर्याद्यभावप्रसङ्गारिकन्तु मूर्तमेवेन्द्रियमिति न तस्य शब्दो गुणः॥ किश्च शब्दस्याकाशगुणत्वे सर्वस्य सर्वशब्दग्रहणापत्तिः श्रोत्रसमवायाविशेषात, तत्पुरुषीयकर्णशकुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतायास्तत्पुरुपीयशब्दग्रहं प्रति हेतुत्वकल्पने महागौरवात्, द्रव्यत्वे तु संयोगेनैव श्रोत्रेण ग्रहणोपपत्तौ न किञ्चिदनुपपन्न, एवं च शब्दस्य द्रव्यत्वे समवायसमवेतसमवायप्रत्यासत्यकल्पनया लाघवं द्रष्टव्यं, शब्दस्य मूर्तत्वे तत्साक्षात्कारो न स्याद्विषयतया मूर्तप्रत्यक्षत्वावच्छिक प्रति समवायेनोभूतरूपवश्वस्य हेतुत्वादिति चेत्, न, द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिनं प्रति योग्यताविशेषस्यैव हेतुत्वात्स चच्यावृत्तिविशेषः शक्तिविशेषो वेत्यन्यदेतत्, श्रोत्रेन्द्रियव्यवस्थापकत्वेन शब्दस्याम्बरगुणत्वसिद्धिरिति तु मन्दं, इन्द्रियान्तराग्राह्यग्राहकत्वस्यैव भिन्नोन्द्रयत्वव्या GRO Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ।। ॥ ३४ ॥ www.ketatirth.org प्यत्वात्, तत्र गुणप्रवेशस्य गौरवकरत्वात्, एतेन ' श्रोत्रेन्द्रियं द्रव्याग्राहकं रूपस्पर्शाग्राहकवहिरिन्द्रियत्वाद् रसनवद्' इत्यपि निरस्तं, अप्रयोजकत्वाद् द्रव्यग्रहप्रयोजकप्रत्यासत्याभिधानेन तद्विरहरूपविपक्षवाधकतर्कानुत्थानात् । इत्थं च शब्दो न पौद्गलिकः स्पर्शशून्याश्रयत्वाद्, अतिनिबिड प्रदेश प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात्, पूर्व पचाद्या (चा) ऽवयवानुपलब्धेः, सूक्ष्ममूर्त्तान्तराप्रेरकत्वाद्, गैगनगुणत्वाचेति हेतवो निरस्ता वेदितव्याः, भाषावर्गणादेस्तदाश्रयस्य स्पर्शवत्वेन स्पर्शशून्याश्रयत्वस्यासिद्धेः भियादिकमुपभिद्य प्रसर्पिणा मृगमदादिद्रव्येण द्वितीयस्याऽनैकान्तिकत्वात् तृतीयचतुर्थयोथोरकादिना धूमादिना च तथात्वात्, पञ्चमासिद्धतायास्तु प्रदर्शितत्वात् उच्छृंखलनैयायिकास्तु “ निमित्तपवनस्यैव गुणः शब्दः, अत एव निमित्तपवननाशानाशः, समवायिकारणनाशस्य समवेतकार्यनाशं प्रति हेतुत्वात्, कर्णसंयुक्त निमित्त पवनसमवायाच्च तद्ग्रहः, न च वीणावेणुमृदङ्गादेरेव कुतो नायं गुण इति वाच्यं, तेषां अननुगतत्वातु, निमित्त पवनस्यैवानुगतत्वेन समवायिकारणत्वौचित्यात् तेषां निमित्तकारणत्वे क्लृप्तेऽपि समवायिकारणत्वा कल्पनात्सम्बन्धभेदेन कारणताभेदाद्" इत्याहुः, तदसत्, पवनगुणत्वे शब्दस्य तत्स्पर्शस्येव स्पार्शनप्रसङ्गात्, तस्य स्पार्शनप्रतिबन्धकत्वकल्पने च महागौरवात्, शब्दगुणस्पार्शनजनकतावच्छेदकजात्यभावान्न दोष इति चेत्, न, तादृशजातेरसिद्धेः, गुणचाक्षुषजनकतावच्छेदिकया साङ्कर्यादिति दिग्।। अधिकं स्याद्वादरहस्येऽनुसन्धेयम् ।। तस्माच्छ्रोत्रघाणे अपि प्राप्यकारिणी इति व्यवस्थितम् ।। आह च - "गेण्डंति पचमत्थं, उवघायाणुग्गहो जलद्धी ओ । बाहिज्जपूरणासारिसादओ कहम संबद्धे || २०८ || " [गृह्णीतः प्राप्तमर्थं उपघातानुग्रहोपलब्धेः || बाधिर्यपूतिनासार्श आदयः कथमसम्बद्धे ] || १५॥ तदेवं नयनमनोवर्जेन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं व्यवस्थापितम् । अथ नयनमनसोरप्राप्यकारित्वस्य व्यवस्थापनीयतया मनो For Private And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir ॥ मति व्य० शब्दस्या काशगुणत्व खण्डने शब्दे पौगालिकत्वा भावसाधक हेतूनामव्या कर शब्दस्य पवनगुणत्वखण्डनःश्च ॥ ॥ ३४ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिनिरूपये व्यञ्जनाक ग्रहनिरूपये चक्षुषोप्राप्यकारित्वव्यवस्थाप नम् ॥ CIRCUCURUKSHARMA दृष्टान्तेन तावच्चक्षुषोऽयाप्यकारित्वं व्यवस्थापयतिअमाप्यकार्यधिष्ठाना-सम्बद्धग्राहि लोचनम् ।। अनुग्रहापघाताभ्यां, विषयाद् भाव्यमन्यया ॥१६॥७४॥ चक्षुरप्राप्यकारि अधिष्ठानासम्बध्धार्थग्राहकेन्द्रियत्वाद्, मनोवद्, अधिष्ठानेत्यादिविशेषणेन स्पर्शनादाविन्द्रियपददानेन च प्रदीपप्रभायां व्यभिचारः परिहतः, न चाप्रयोजकत्वं सम्बद्धार्थग्राहकत्वे तस्य करवालजलावलोकनादिनोपघातानुग्रहप्रसङ्गात्, न चासिद्ध एव तस्योपघातानुग्रहाभावो भूयो भूयः सूरकरावलोकनेन जलावलोकनेन च दाहशत्यलक्षणतदर्शनादिति वाच्यम्, अवलोकनानन्तरं चक्षुर्देशं प्राप्तेन मूर्तेन रविकरादिनोपघातस्य सम्भवाजलावलोकनादौ चोपघाताभावेनानुग्रहाभिमानात् स्वतस्तद्देशं प्राप्तेन च चन्द्रमरीचिनीलादिनाऽनुग्रहोऽपि भवत्येव, यदि च चक्षुः स्वत एवानुग्राहकोपघातकवस्तुनी संमृज्यानुग्रहोपघातौ लभेत तर्हि सूरकरावलोकनादिव करवालावलोकनादप्यभिघातः स्यात्, तदिदमाह-"लोअणमपत्तविसय, मणोच्च जमणुग्गहाइसुबंति ॥ जलसूरालोआइसु, दीसन्ति अणुग्गहविघाया ॥२०९।। डझेज पाविउ रवि कराइणा फरिसणं व को दोसो ॥ मन्नेज अणुग्गई पिवु-वघायाभावओ सोमं ॥२१०॥ गंतु ण रूवदेस, पासइ पत्तं सयं व णियमोयं ॥ पत्तेण उ मुत्तिमया, उबघायाणुग्गहा होज्जा ॥२११॥" [लोचनमप्राप्तविषय, मन इव यदनुग्रहादिशन्यमिति ॥ जलसूरालोकादिषु दृश्यते अनुग्रहविघातौ ॥ दयेत प्राप्य रविकरादिना स्पर्शनमिव को दोषः ॥ मन्येतानुग्रहमिवोपघाताभावतः सौम्य! ।। गत्वा न रूपदेश, पश्यति प्राप्त स्वयं वा | नियमोयं ।। प्राप्तेन तु मर्तिमतोपघातानग्रही भवेताम ॥॥१६॥ननु नयनान्नायना रश्मयो निर्गत्य प्राप्य च वस्तु रविरश्मय इव प्रकाशमादधति सूक्ष्मत्वेन तैजसत्वेन च तेषां वन्यादिभिर्दाहादयो न भविष्यन्तीति चेत्, न, चक्षुषस्तैजसत्वस्यैवासिद्धेः, तथाहि EHAS * Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना वप्रकरणम् ।। ।। ३५ ।। www.ketafirth.org अदृष्टकल्पनापत्ति-स्तैजसत्वे हि चक्षुषः ॥ न च तत्साधकं किञ्चिद्-वलवन्मानमीक्ष्यते ॥ १७ ॥ ७५ ॥ चक्षुषस्तैजसत्वकल्पनेऽनुद्भूतरूपानुद्भूतस्पर्शतेजोन्तरं कल्पनीयमित्यदृष्टकल्पनापत्तिः परमते, न च तत्तैजसत्वसाधकं किञ्चिद्बलवत्प्रमाणमीक्षामहे, न च चक्षुस्तैजर्स रूपादिषु मध्ये रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्प्रदीपवदित्यनुमानात्तत्सिद्धिः, स्वस्पर्शव्यञ्जकत्वेन प्रदीपदृष्टान्तस्य साधनवैकल्याद्विषयेन्द्रिय संयोगनानैकान्तिकत्वाद्, द्रव्यत्वे सतीति विशेषणेऽप्यञ्जनविशेषेणानैकान्तिकत्वाच्च, एतेन "रूपसाक्षात्कारासाधारणकारणं तैजसं रसाव्यञ्जकत्वे सति स्फटिकाद्यन्तरितप्रकाशकत्वात्प्रदीपवद्" इत्यपि निरस्तम् ।। अञ्जनादिभिन्नत्वे सतीति विशेषणदाने चाप्रयोजकत्वाच्चक्षुः प्रदीपयोरेकया जात्या व्यञ्जकत्वासिद्धेः। एतेन "स्वप्नादिकमिवाञ्जनादिकं सहकृत्य मनसैव साक्षात्कृते निध्यादौ चाक्षुषत्वभ्रम एवेत्युक्तावपि न क्षतिः ॥ किं चैवं तवाखनादेः पृथक्प्रमाणत्वापत्तिः, मनो यदसाधारणं सहकार्य्यासाद्य बहिर्गोचरां प्रमां जनयति तस्य प्रमाणान्तरत्वनियमात् न च पटपटलाच्छन्नचक्षुषामञ्जनादिजनितो निध्यादिसाक्षात्कारो न प्रमेत्युक्तिर्युक्तिसहा, यथार्थप्रवृत्तिजनकत्वेन तत्प्रमात्वस्य व्यवस्थितत्वात् न च कारणबाधादप्रमात्वं, तस्यैवासिद्धेः, न च स्वप्नादिवदञ्जनादेर्निध्यादि सूचकत्वमेवेति युक्तं व्याप्तिग्रहादिकं विनाऽनुमितिरूपतत्सूचनाऽसम्भवात्, स्वमादिस्थले तु व्याप्तिग्राहकस्वमशास्त्राद्यनुसरणनियमादिति दिग् । ननु चक्षुर्यदि न प्राप्यकारि तदाऽसन्निहितत्वाऽ[विशेषात्कुड्यादिव्यवहितस्यापि ग्रहणप्रसङ्ग इति चेत्, न, अतिसन्निहितस्य गोलकादेवि भित्त्यादिव्यवहितस्यापि योग्यताऽभावादेवाग्रहात् । नन्वग्रावच्छेदेनैव चक्षुः संयोगस्य ग्राहकत्वान्न मूलावच्छेदेन तत्संयुक्तगोलकादिग्रहप्रसङ्गः । कुड्यादिव्यवहितानां स्वरूपयोग्यता च स्थैर्यपक्षे न परावर्तते, क्षणिकत्वपक्षेऽप्यप्रत्यासन्नानां सहकारिणां नातिशयजनकत्वं, प्रत्यासत्तिश्च परेषां निरन्तरोत्पादः अस्माकं तु संयो For Private And Personal Use Only Acharya Sai Kalassagarsu Gyanmandir मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्र हनिरूपणे परकल्पितस्य चक्षुषस्तैज सत्वस्य स्व ण्डनम् ॥ ॥ ३५ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kotuatirth.org गः, तदुभयमपि कृष्णसारस्यार्थेन न सम्भवतीति चेत्, न, शक्तिप्रत्यासन्त्यैवातिशयाधानाल्लोहाकर्षकायस्कान्तादावतिरिक्तप्रत्यासत्यदर्शनात्सामीप्यविशेषस्य तत्र सम्बन्धत्वे चात्रापि तेनैवोपपत्तेः । युक्तं चैतत् संयोगादिनानाप्रत्यासत्य कल्पनलाघवात्, न चवमप्राप्यकारित्वभङ्गः, चक्षुः संयोगस्य चाक्षुषाजनकत्वेनैव तदुपपत्तेः । वस्तुतः सन्निहितविषयग्रहे व्यवधानाभावकूट एव विषयनिष्ठा योग्यता व्यवहितविषयग्रहे चाञ्जनादिनिष्ठैव शक्तिलक्षणा योग्यता हेतुः, विषयपुरुषादिभेदेन तद्वैचित्र्यात् । अत एवास्मदादीनामालोकापेक्षयैव विषयग्रहः पेचकादीनां तु न तथेत्युपपद्यते । इत्थं चाव्यवहितचाक्षुषसाक्षात्कारे चक्षुर्व्यवधानाभावादीनां व्यवहितचाक्षुषे च चक्षुरञ्जनादीनां विलक्षणशक्तिमत्त्वेन हेतुत्वान्न किञ्चिदनुपपन्नम्, भित्त्यादेश्चक्षुःसंयोगप्रतिबन्धकत्वे तु स्फटिकादीनामपि तथात्वप्रसङ्गात्तद्व्यवहितानामप्यनुपलब्धिप्रसङ्गः । प्रसादस्वभाववतां स्फटिकादीनां न नायनरश्मिगतिप्रतिबन्धकत्वमिति चेत्, तर्हि भित्त्यादीनां चक्षुःप्राप्तिप्रतिबन्धकत्वापेक्षया लाघवाच्चाक्षुषप्रतिबन्धकत्वमेव कल्प्यताम् । स्वप्राचीस्थपुरुषसाक्षात्कारे स्वप्रतीचीवृत्तित्वसम्बन्धेन भित्त्यादीनां तत्त्वसम्भवात् । यदि च तत्तत्क्रियातत्तदुत्तरदेशादीनामेव संयोगनियामकत्वेनानतिप्रसङ्गाद्भित्त्यादीनां न प्रतिबन्धकत्वमिति विभाव्यते तदा 'तद्धेतोः' (तद्धेतोरेव तदस्तु किं तेन ) इति न्यायेन लाघवात्तत्तन्नयनोन्मीलनस्यैव तत्तच्चाक्षुषहेतुत्वमस्तु किमनन्तसंयोगादिकल्पनया, इन्द्रियसम्बन्धत्वेन प्रत्यक्षहेतुत्वकल्पनात्फलमुखं गौरवं न दोषायेति चेत्, न, इन्द्रियसम्बन्धत्वस्यैकस्याभावेन तथाहेतुताया एवासिद्धेः । तथापि द्रव्यचाक्षुषत्वाद्यवच्छिन्नं प्रतिचक्षुः संयोगत्वादिना हेतुत्वमनुगतमेव । तदुक्तं मणिकृता 'प्रत्यक्षविक्षेषे इन्द्रियार्थसन्निकर्षविशेषो हेतुरनुगत एवेति' इति चेत्, न, परमाण्वाकाशादौ व्यभिचारात् । न च महत्त्वसमानाधिकरणोद्भूतरूपवत्त्वस्यापि सहकारित्वान्न दोष इति वाच्यम्, समा For Private And Personal Use Only Acharya Sai Kalassagarsu Gyanmandir मतिनिरूपणे व्यञ्ज नावग्रह प्रस्तावे चक्षुषः प्राप्यकारित्व स्य खण्डनम् ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArarthanaKendra सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥5 AR कलितसकलनेत्रगोलकस्य दासनतिमिररोगावयविन उपलम्मप्रसङ्गाव, आह च-"जइ पर्च गेण्हेज उ, तग्गयमंजणरओमलाईयं ॥४॥ मतिनिरू. पणे व्य पेच्छज्ज नपासइ, अपचकारि तओ चक्टुं ॥२१२॥"[यादि प्राप्तं गृणीयाचद्गतमञ्जनरजोमलादिकम् ॥ प्रेक्षेत यन्न पश्यति, नावग्रहअप्राप्तकारि ततश्चक्षुः॥] अत्यन्तासत्यभावस्यापि सहकारित्वे चाधिष्ठानसंयुक्ताञ्जनशलाकाया अप्यप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, अग्रा प्रस्तावे वच्छेदेन चक्षुःसंयोगस्य हेतुत्वेऽप्युदीची प्रति व्यापारितनेत्रस्य काञ्चनाचलोपलम्भप्रसझाव, दूरत्वेन नेत्रगतिप्रतिवन्धे च चक्षुषः प्राशशधरस्याप्यनवलोकनप्रसङ्गात् । तदभीषुभिरिव तिग्मकराभाधुभिरपि तदभिवृद्धवाविशेषात्, तिग्मत्वेन तिग्मकररश्मीनां तत्प्रति प्यकारित्वघातकत्वे च तदालोकपरिकलितपदार्थमात्राभानप्रसल्गादिति रत्नप्रभाचार्यप्रभृतयः(रत्नाकरावतारिकाद्वितीयपरि० स्य खण्डसूत्र ५) इन्द्रियसम्बन्धत्वेन प्रत्यक्षहेतुत्वेऽपि सामीप्यविशेषेण संयोगस्यान्यथासिद्धिरित्यपि युक्तमुत्पश्यामः॥ प्राप्यकारित्वे नम् ॥ च चक्षुषः शाखाचन्द्रमसोयुगपद्ग्रहानुपपतिः, युगपदुमयसंयोगाभावात् । न च शतपत्रशुचीवेधम्पतिकरण तत्र योगपद्यामिमान एव क्रमेणैव वेगातिशयादुभयसंयोगेनोभयसाक्षात्कारजननादिति वाच्यम् ,चन्द्रज्ञानानुव्यवसायसमये शाखाज्ञानस्य नष्टत्वेन शाखाचन्द्रौ साक्षात्करोमीत्यनुव्यवसायानुपपत्तेः, न च क्रमिकतदुभयानुभवजनितसंस्काराम्यां जनितायां समूहालम्बनस्मृताववानुभवत्वारोपात तथानुव्यवसाय इति साम्प्रतम्, तादगारोपादिकल्पनायां महागौरवात् । न च तिर्यग्भागावस्थितयोः शाखाचन्द्रमसोयुगपत्संयोग इति साम्प्रतम्, सन्निहितव्यवहितयोर्युगपत्संयोगेऽतिप्रसङ्गात् । नयनान्निासरता नायनेन तेजसार्थसंसर्गसमकालमेव बाह्यालोकसहकारेणान्यचक्षुरारम्भाच्छाखाचन्द्रमसोर्युगपग्रह इत्यपि तुच्छम्,उद्भूतरूपवत्चेजसंसर्गेणानुद्भूतरूपवतेजस आरम्भानभ्युपगमाद्वाह्यचक्षुषा पृष्ठावस्थितवस्तुग्रहप्रसङ्गाच्चेत्यधिकंमत्कृतस्याद्वादरहस्यादवसेयम्(न्यायालोकादुध्धृतम्) , For And Penal Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire VACHARGEOGAVARANA मतिनिरूपर्ण व्यञ्जनावप्र हप्रस्तावे मनसः प्राप्यकारित्वस्य खण्ड नम्॥ द्धृतम्)।किश्च मनोयाप्यकार्यपि प्रतिनियतस्यैव ग्राहकम,ननु मनसोऽपि सर्वग्राहकत्वप्रसङ्गतो नाप्राप्यकारित्वं किन्तु प्रतिनियतग्रा- हित्वेन] तत्प्राप्यकारि स्यादिति चक्षुषोप्राप्यकारित्वसाधने दृष्टान्तीकृतस्य मनसः साध्यसाधनोभयवैकल्यमिति चेत्, न, ज्ञेयसम्पर्ककृतानुग्रहोपघातलक्षणलिङ्गाभावेन तस्य तत्सम्पर्कासि द्वेः,अन्यथा जलज्वलनादिचिन्तया तस्य क्लेददाहादिप्रसङ्गः, अमुकत्र गतं मे मन इति प्रयोगस्य च गत्यर्थानां धातूनां ज्ञानार्थत्वेनैतदर्थग्रहणाय व्यापृतं मे मन इत्यर्थः ॥ आह च-'गंतुं नेएण मणो, संवज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा ।। सिद्धमिदं लोमिवि, अमुगत्यगओ मणो मित्ति ॥२१३॥"[गत्वा ज्ञेयेन मनः, सम्बध्यते जाग्रतो वा स्वमे वा ।। सिद्धमिदं लोकेऽपि अमुकत्रगतं मनो मे इति।।] "नाणुग्गहोवघाया-भावाओ लोअर्णव, सो इहरा ।। तोयजलगाइ चिंतणकाले जुजेजदोहिंपि।।२१४॥"[नानुग्रहोपघाताभावाल्लोचनमिव तदितरथा ॥ तोयज्वलनादिचिन्तनकाले युज्येत द्वाभ्यामपि]॥१७॥ किञ्च भावमनो द्रव्यमनो वा बहिर्गत्वा ब्रेयेन सम्बध्यत इति विकल्प्य दोषमाहकिश्च भावमनो गच्छेद्-बहिर्द्रव्यमनोऽथवा ॥ नाद्यः शरीरवृत्तित्वा-दात्मनोऽनिर्गमाद् बहिः॥२५॥८३| उक्तविकल्पद्वये हि प्रथमविकल्पो न प्रथते भावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपस्य जीवानन्यत्वाज्जीवस्य च शरीरमात्रवृत्तित्वेन तद्रूपादीनामिव बहिनिर्गमासम्भवाद्,आहच-"दव्वं भावमणो वा, वएज्ज जीवो अहोइ भावमणो ।। देहव्यावितणओ, न देहवाहिं तओ जुत्तो।।२१५॥"[द्रव्यं भावमनोवा ब्रजेज्जीवश्च भवति भावमनः॥ देहव्यापित्वान्न देहबाहिस्ततो युक्तः॥]२५।। नन्वात्मनः शरीरव्यापित्वमेवासिद्ध सर्वगतत्वादिति चेद्, उच्यते-[प्रतावस्येह द्वे पत्रे सप्तगाथाश्च गता इति लिखित्वापरावृत्तिश्च कृता] कर्तृत्वं व्योमवन्न स्यात्-सर्वगत्वे किलात्मनः । प्रकृतेरेव कर्तृत्वं, युज्यते न कथञ्चन ॥२६॥८॥ For Private And Penal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना हप्रस्तावे प्रकरणम् ॥ ॥३७॥ आत्मनः सर्वगतत्वे ह्याकाशवत् कर्तृत्वभोक्तृत्वादिकं न स्यात्सर्वगतत्वस्याकर्तृत्वादिव्याप्तत्वाद्, आहच-"सच्यगओ ति य | मतिनिरूपणे बद्धी, कचाभावाइदोसओ तो ॥२१६॥"सर्वगत इति च बुद्धिःकत्रभावादिदोषतस्तन]। अत्र सांख्याः सनिरन्ते-कूटस्थ व्यञ्जनावग्रनित्यत्वश्रुतेरात्मा तावदकारणमकार्य च, कारणत्वेऽपि तस्यानित्यकार्यपरिणामित्वेनानित्यत्वप्रसङ्गाद्, अत एव जन्यधर्मानाश्रयत्वं ५ कूटस्थपदार्थों गीयते । तदुक्तं-"न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः"इति, आदिकारणं च प्रकृतिरेव।।ततुक्तं-"मूलप्रकृतिरविकृतिरिति" मनसः प्राअचेतनत्वेन चेयं परिणामिनी ततो महदहकोन्द्रियतन्मात्रमहाभूतानां सर्गः, न च पुरुषार्थप्रयोजकत्वात्प्रकृतिपरिणामस्य प्यकारित्वतदनुगुणशब्दादिपरिणाम एवास्तु किमान्तरालिकमहदादितत्त्वेनेति वाच्यम्, तत्सर्गस्य विषयबन्धनार्थत्वात्, न च चितिरेव खण्डने आविषयसम्बन्धस्वभावा, स्वभावस्यानुच्छेद्यत्वेनानिर्मोक्षप्रसङ्गात् , न च प्रकृतिरेव तदीयभोगोपकरणसम्पादनस्वभावा, नित्य त्मनो विभुत्वेन तस्याः कदाचिदग्यात्मनो निरुपाधिकत्वाभावेन तत एव, न च घटादिरेवाहत्य तदीयो, दृष्टादृष्टविभागानुपपत्तेः, नापीन्द्रि- त्वखण्डने यप्रणालिकयैव चिद्विषयसम्बन्धः, व्यासङ्गायोगात, नापीन्द्रियमनोद्वारा, स्वप्नदशायां वराहव्याघाद्यभिमानिनो नरस्यापि सांख्यप्रश्नः।। नरत्वाभिमानानुदयात् , नवयं बाह्येन्द्रियवृत्त्यभावकृतो जाग्रदवस्थायामपि तस्य तनिरपेक्षत्वदर्शनात् , न च मनोविरहकृतः, तस्य स्वप्नेऽपि व्यापारात तस्माद् यद्विरहकृतः स्वप्नेऽभिमानानुदयस्तदतीन्द्रियं तत्कारणमहङ्कारतत्वमवश्यमभ्युपेयमिति, न चाहङ्कारपर्यन्तव्यापारेणैव चिद्विषयसम्बन्धस्वभावः,सुषुपयवस्थायां तद्व्यापारविरामेऽपि श्वासप्रश्वासप्रयत्नसन्तानावस्थानात्, तद् यदेतास्ववस्थास्वनुवर्तमानमेकं सव्यापारमवतिष्ठते यदाश्रया चानुभववासना तबुद्धितत्त्वाख्यमन्तःकरणमिन्द्रियमनोऽहङ्कारपरम्परयोपारूढोऽर्थः पुरुषस्य भोगाय भवति । तदुक्तं-"एते प्रदीपकल्पाः, परस्परविलक्षणा गुणविशेषाः॥ पुरुषस्यार्थ स्वच्छं, प्रकाश्य बुद्धौ ॥ ३७॥ ortanter Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U SMA Kenda Acharya Star Kiss Gyan SUICIAN प्रयच्छन्ति ॥३६॥"इति, तस्मिनचेतनेऽपि चेतनत्वाऽभिमानोऽकर्तरि च चेतने पुरुषत्वाभिमानो भेदाग्रहादेव शरीर आत्मत्वामिमानवत् । तदुक्तं-"तस्मात्तत्संयोगा-दचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् ।। गुणकर्तृत्वे च तथा, कर्चेव भवत्युदासीनः ॥२०॥" इति, कर्मवासनापि च बुद्धितत्त्व एव, पुरुषस्त्वनुभवतद्वासनातत्फलैः कर्मतद्वासनातत्फलैश्च निर्लेप एव, आलोचनमिन्द्रियाणां व्यापारो विकल्पस्तु मनसः, अभिमानोऽहङ्कारस्य, 'ममेदं कर्तव्यम्' इति कृत्यध्यवसायश्च बुद्धेः, अत्र हि पुरुषोपरागो विषयोपरागो व्यापारावेशश्चेति त्रयोंशाः, तत्र ममेति पुरुषोपरागो दर्पणस्येव मुखोपरागो भेदाग्रहादताविको, यद्यपि ममेत्यभिमानो न बुद्धधर्मस्तथापीदमा प्रतिनिर्दिष्टस्य विषयस्य ममेत्यत्र पुरुषस्यैव ग्राहकत्वेनाभिमानः पुरुषोपराग एव, इन्द्रियप्रणालिकोपनीतपरिणतिभेद इदमिति विषयोपरागः, मुखनिश्वासोपहतस्य मुकुरस्य मलिनिमोपराग इव पारमार्थिकः, एतदुभयोपपत्तौ च कर्त्तव्यमिति व्यापारावेशोऽपि, अस्यायं बुद्धौ विषयोपरागो ज्ञानं, दर्पणप्रतिविम्बितमुखस्य तद्गतमलिम्नैव पुरुषोपरागस्य विषयोपरागेण सह सम्बन्ध उपलब्धिरिति, बुद्ध्युपलब्धिज्ञानानां नानान्तरत्वं, तदेवमष्टावपि धर्मा बुद्धेरेव सामानाधिकरण्येनाध्यवसीयमानत्वात्, न च बुद्धिरेव स्वभावतश्चेतना परिणामित्वाद्, उक्तञ्च-अध्यवसायो बुद्धि-धर्मो ज्ञान, विराग ऐश्वर्यम् ।। सात्त्विकमेतद्रूपं,तामसमस्माद्विपर्यस्तम् ॥२३॥ इति बुद्ध्यादयो नैयायिकाभिमता आत्मविशेषगुणा अप्यत्रैवान्तर्भवन्ति, अध्यक्तस्यैव ज्ञानस्य स्मृतिजनकत्वाभ्युपगमेन केवलं वासनाया ऐवानभ्युपगमात्,एवं आत्मा न कर्तेत्यभिमतमेवास्माकमिति चेत्।। तदेतदखिलं पवनप्रेरिततूलवत्तरलतरमेव।। कृति-४ चैतन्ययोः सामानाधिकरण्यानुभवेन चेतनस्यैव कर्तृत्वात्, न चायं भ्रमो, बाधकामावाद,न चाऽऽत्मनः कर्तृत्वे परिणामित्वप्रसङ्गो बाधका, बुद्धेः कृतिसमवायेऽपि तस्य बाधकत्वात् परिणामिनो घटादेरकर्तृत्वस्य दृष्टत्वाद् दृष्टविरोधादयमदोष इति तु तुल्यं, कर्तु PRORK मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रह प्रस्तावे आत्मविभुस्वखण्डने सांख्यमतस्योपवर्ण नपूर्वकं खण्डनम् ॥ For Private And Penal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव PROC प्रकरणम् ।। ॥३८॥ रचेतनकार्यत्वादचेतनत्वापत्तिर्वाधिकेति चेत्, न, 'वीतरागजन्मादर्शनाद्' इति न्यायेन तस्यानादित्वस्यैव सिद्धः, बुद्धेरनित्यत्वेन तत्र मतिनिरूनानाभवार्जितवासनावस्थानायोगात्प्रकृतेश्च पूर्वबुद्धिवासनानुवृत्त्यम्धुपगमेऽपसिद्धान्ताद् बुद्धिनिष्ठवासनाया अनियामकत्वाच, नच पणे व्यजसम्बन्धविशेषानियमोपपत्तिः, स्थूलरागे सूक्ष्मवासनाया अप्रयोजकत्वात्, न च प्रकृतौ सूक्ष्मतदम्युपगमेऽपि प्रमाणमस्ति, अन्यथा नावग्रहसूक्ष्मरागादियोगाद् भावाष्टकसम्पन्नतया प्रकृतिरेव बुद्धिर्भवेत्, स्थूलतद्योग एव बुद्धिवनियत इति चेत्, तथाप्यप्रामाणिक प्रस्तावे आत्मविमुसूक्ष्मतदभ्युपगमे घटादावपि तदापत्तिः, तस्य प्रकृतिकार्यत्वात्कारणधर्माणां च कार्ये सङ्कमाभ्युपगमात् स्थूलबुद्धिविलयेऽपि त्वखण्डने सूक्ष्मतत्सचाभ्युपगमाबानुपपचिरिति चेत्, न, मुक्तावपि तत्सच्चप्रसङ्गात, आधिकाराभावाबायमिति चेत्, नन्वयमाधिकारोऽपि | धर्माधर्मवासनायोगः, धर्माधौ च बुद्विधर्माविति कथं तत्सचे तद्विलयः, स्थूलताद्विलय एव निरधिकारित्वमिति चेत्,तर्हि स्थूल सांख्यमतस्व बुद्ध्यनुत्पादसमये सूक्ष्मबुद्धिसचाभ्युपगमेऽपि तस्या निरधिकारित्वेन कार्याजनकतया संसारोच्छेदप्रसङ्गः, अन्यथा तु मोक्षो खण्डनम्॥ च्छेदप्रसङ्गः । किञ्चैवमधिकार एव संसारहेतुरस्तु किं प्रकृत्या,बुद्धिस्तु चेतनैव न तत्वान्तरं, मानाभावात्, न च दर्पणे मुखस्येव बुद्धौ पुरुषस्योपरागः सम्भवति,अताचिकस्य सम्भवे शशशृङ्गस्यापि सम्भवप्रसङ्गात्, असतो विज्ञानस्याप्यभावात्तवैज्ञानिकाकारस्यापि दुरुपपाइत्वाद्,अन्यथा सर्वदेवासद्भावानापत्तेः,विषयोपरागोऽपि न तत्र सम्भवी,अन्यथा मेोदिज्ञाने मेद्याकारोऽपि तत्र स्यात्, तस्माद् बुद्ध्युपलब्धिज्ञानशब्दानां पर्यायत्वमेव युक्तं,अहङ्कारोऽपि विकल्परूपो मानस एव व्यापारोऽन्यथा स्वमे यथार्थाहङ्कार इव विपरीताहङ्कारोऽपि न स्याद् , इदं पुनरवशिष्यते यत्कस्यचिदहमिति सङ्कल्पात्स्वगुणाभिष्वङ्गपरगुणद्राहेपारणाम: समुज्जृम्भते कस्यचित्तु नेत्यत्र किं नियामकमिति,तत्र तु मानं मोहनीयकर्मण उदयाऽनुदये एव तन्त्र,एकस्यापि कपायमोहनीय-121॥३८॥ 612 + C ORGAR + + For Private And Penal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire CH ARCOARDHARY कर्मणः क्रोधादिव्यापारभेददशेनेन भेदकल्पनात, एवं च कृत्यादीनां चेतनासामानाधिकरण्ये सिद्ध युदयादितचकल्पना यक्तिही-IOमातानरूपये नैवेति सङ्केपः ।।स्यादेतद् , आत्मनो जन्यधर्माश्रयत्वे कौटस्थ्यावरोधो धर्मधर्मिगोरभेदे कार्यानित्यत्वेन कारणस्याप्यानत्यत्वप्र । व्यअनावसङ्गात्, न च तयोरभेद एव युक्तो विरुद्वधर्माध्यासलक्षणस्य भेदस्य घटपटयोखि प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति वाच्यं, श्यामत्वर ग्रहप्रस्तावे क्तत्वाम्यां वैधयेऽपि घटस्येव गुणगुणिभावेन गुणगुणिनोरन्योन्याभावायोगादिति, मैवं, आत्मनो नित्यानित्यत्वस्यैत्र मनसःप्रायुक्तिसिद्धत्वाद् धर्मधर्मिगार्भेदाभेदस्य समपञ्चं स्याद्वादरहस्ये व्यवस्थापितत्वात्, कूटस्थत्वं तु तत्र समानजातीयद्रव्यपर्या- प्यकारित्वयद्वारा परिणामित्वं अना(आ)त्मेतरभिन्नत्वं वेति सर्वमदातम् ॥ २६ ॥ सांगतत्वे दूषणान्तरमप्याह *खण्डने आ5. सर्वासर्वग्रहोऽप्येवं, नित्यस्यान्यानपेक्षणात् ।। अपेक्षणेऽपि देहस्या-पेक्षायामतिगौरवात् ॥२७॥ ॥८५॥ | मविभुत्वस्व ___आत्मनः सर्वगतत्वे त्रिभुनभानादरसञ्चापिदार्थसार्थप्राप्त्यवश्यम्भावात मनसः प्राप्यकारित्ववादिनः सर्वोपलब्धिप्रसङ्गा, खण्डनम् । प्राप्त्यविशेषेपि कतिपयार्थानुपलम्भे चाविशेषात्सर्वानुपलम्भप्रसङ्गः, यदुक्तं-"सबासधग्गहण-प्पसंगहोसाइओ वावि | ॥२१६॥"[सासर्वग्रहणप्रसङ्गदोपादितो वापि] अथ मनसो बहिरस्वातन्त्र्याद् बहिरर्थग्रहसामग्रीनियमादेव मनसो बहिरर्थग्रहनियम इति चेत्, तथापि शरीरावच्छेदेनैव सुखादिकमुपलभ्यते न घटाद्यवच्छेदेनेत्या किं नियामकं, आत्मनः स्वगुणजनने शरीरस्यापि सहकारित्वान्नान्यत्र तदुत्पचिरिति चेत्,न,नित्यस्य सहकार्यपेक्षायोगात्, तथाहि, सहकारिणा किं तत्र कश्चिदतिशयः क्रियते न वा, क्रियते चेत्, स किं अर्थान्तरभूतोऽनन्तरभतो वा, आये न किश्चित् कृतं स्यात्, अन्त्ये तु तदनान्तरभूतातिशयकरणे तस्यापि करणप्रसङ्गः । अकरणपक्षे तु न तस्य सहकारित्वम्, अन्यथा जगतोऽपि सहकारित्वप्रसङ्गादित्याहुः, ननु सह SCRIBRAREEKSEX For Private And Penal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra सावरण[४ कारित्वं नातिशयजनकत्वं कार्यजन्माजन्मनोः सहकास्सिविधानासविधानाम्यामेवोपपचावतिशयस्याकल्पनात. किं त्वेककार्य-1मातनिरूपण श्रीज्ञाना- कारित्वं, तच्च नित्यत्वेऽप्यात्मनः शरीरे निराबाधमिति चेत्, न, तथापि ज्ञानादावनन्तशरीरादिहेतुत्वकल्पने गौरवात्, आत्मनः व्यञ्जनावव- शरीरव्यापित्वकल्पनस्यैव युक्तत्वात् ॥२७॥ न चाऽत्मनो विभुत्वसाधनसावधानं बलवत्प्रमाणमपि जरीजृम्भत इत्याह ग्रहप्रस्तावे विभुत्वसाधकं किञ्चित् , प्रमाणमपि नेक्ष्यते ॥ स्वसम्बन्धविशेषेणा-दृष्टं यत्कार्यमर्जति ॥२८ ॥ ८६॥ प्रकरणम् ॥ मनसः प्रा. न बदृष्टस्य कार्यमा प्रति हेतुत्वात्तस्य च स्वाश्रयसयुक्तसंयोगेनैव हेतुत्वकल्पनादात्मनो विभुत्वसिद्धिः, प्रध्वंसे व्यभि प्यकारित्व॥३९॥ चारात् कालिकादिसम्बन्धेनैव तस्य तत्र हेतुत्वौचित्याद्, वस्तुतस्तु कार्यत्वं कालिकसम्बन्धेन घटत्वपटत्वादित्ववमननुगतमिति खण्डने आन कार्यतावच्छेदकं, न च कार्यमानहेतुत्वे तस्य प्रमाणमस्तीति सुखदुःखयोरेव धर्माधर्मरूपस्यादृष्टस्य हेतुत्वमास्थेयम्, अथ | स्मविभुत्वस्य वनरूद्धज्वलनादावदृष्टमवे नियामकम् । तदुक्तम्। “न ज्वलत्यनलस्तिर्यग्, यवं वाति नाऽनिलः ।। अचिन्त्यमहिमा तत्र, खण्डनम् ॥ धर्म एव निबन्धनम् ॥१॥" न च शरीरख्यापित्वे प्राणिनोऽदृष्टस्य वयादिसम्बन्धः सम्भवतीति तस्य विभुत्वमेव युक्तमिति चेत्, न, स्वाश्रयसंयुक्तसयोगसम्बन्धनादृष्टस्य घटादावपि सवाद् , बहित्वविशिष्टस्वाश्रयसंयुक्त सयोगसम्बन्धेन तस्य हेतुत्वे | तु स्वाश्रयसंयुक्त संयोगीवशिष्टवहित्वसम्बन्धेन तथात्वे विनिगमनाविरहात्सम्बन्धविशेषेणैव तदैतुत्वौचित्यात्, एतेन (यदपि) "शत्रुजिघांसया कृतेन श्येनयोगेन यज्वन्येवादृष्टविधानात्तस्य च शत्रावसम्बन्धात्कथमात्मविभुत्वं विना तत्फलोपपत्तिः (तदपि न, शक्तिविशेषरूपस्य कारणत्वस्यासम्बन्धेऽप्यविरोधात्सम्बन्धघटितत्वे वा तस्य प्रकृते सम्बन्धविशेषकल्पनावश्यकत्वाद) इति" परास्तम् ॥ २८॥ विभुत्वसाधकान्तरं निराकरोति ॥३९॥ SHARU छ For And Penal Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire अथ नित्यमहत्त्वेन, व्योमवद्विमुतास्य चेत् ॥ नैवं तत्परिमाणं हि, यदुत्कर्षापकर्षभाक् ॥ २९ ॥ ८७॥ अथ परे प्रतिपादयेयुरात्मनो महत्त्वं तावनिर्विवादं द्रव्यचाक्षुषप्रति कल्पनीयहेतुभावस्य महत्वस्य लाघवेन जन्यद्रव्यसाक्षाकारत्वावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वकल्पनात्, आत्मसाक्षात्कारनिर्वाहायात्मनि महत्त्वस्यावश्यकत्वात, तच्च महत्त्वं न जन्यं, कार्य हि महत्त्व अवयवबहुत्वजन्यं स्यात्तन्महत्त्वजन्यं वा प्रचयजन्यं वा, न च त्रितयमपि निरवयवस्यात्मनः सम्भवतीति ।। एवं चायं प्रयोगा, आत्मा विभुनित्यमहत्त्वादाकाशवदिति चेत्, अत्रोच्यते-अत्र हि परमप्रकृष्टपरिमाणवत्त्वलक्षणं विभुत्वं साध्यते, न च नित्यमहत्त्वस्य परमप्रकर्षविपक्षबाधको जागर्ति तर्कः, अपकृष्टत्वे तस्य जन्यत्वापत्तिर्वाधिका, गगनमहत्त्वावधिकापकर्षस्य बहुत्वजन्यतावच्छेदकत्वादिति चेत्, न, परमाणुपरिणामसाधारणतया तस्य कार्यतानवच्छेदकत्वात् परमाणुपरिमाणे व्यभिचारेण त्रुटिमहत्त्वावधिकोत्कर्षेण समं साङ्कर्यात्तादृशापकर्षस्य जातित्वासिद्धथा बहुत्वजन्यतानवच्छेदकत्वाच्च, वस्तुत आत्मपरिमाणमपि प्रचयविशेषादुत्कर्षापकर्षों भजज्जन्यमेवेति हेतोरेवासिद्धिः ॥२९॥ नन्वेवमात्मनः सावयवत्वापत्तिरिति चेत्, किचातः। सावयवत्वे सति तस्य कार्यत्वं स्यादिति चेत्, किमिदं कार्यत्वं प्रागसतः सचालामः पूर्वाकारपरित्यागेनोचराकारोपादानं वा, नाद्या, असत उपायसहस्रगाप्युत्पादयितुमशक्यत्वात, अन्यथा शशविषाणस्याप्युत्पत्तिप्रसङ्गात्, अन्त्ये तु तादृशं कार्यत्वमात्मन इष्टमेवेत्यभिप्रेत्याह एवं सावयवत्वं त-न्नित्यत्वं नैव बाधते ॥ कथञ्चित्परिणामित्वं, विना तन्न घटेत यत् ॥३०॥८॥ न हि सावयवत्वेनात्मनः कथश्चित्परिणामित्वलक्षणेऽनित्यत्वे द्रव्यैकरूप्यलक्षणनित्यत्वव्याघातः येन प्रतिसन्धानाद्यभावप्रसङ्गः,नच सावयवत्वे तस्य प्राश्रीसद्धसमानजातीयावयवारम्यत्वप्रसक्तिः, अवयवजन्य एव कार्येऽवयवानां जनकत्वात्, अस्य ६ मतिनिरूपणे व्यञ्जनाव ग्रहप्रस्तावे | मनसः प्रा| प्यकारित्वखण्डने आमविभुत्वस्य खण्डनम् ॥ * ARE For Private And Penal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥ ४० ॥ www.katatirth.org त्वतथात्वात्, न च तादृशक्कार्येऽपि घटादौ प्राक्प्रसिद्धसमानजातयिकपालसंयोगारम्यत्वं दृष्टं, कुम्भकारादिव्यापारान्वितान्पृत्पिण्डात्प्रथममेव पृथुनोंदराद्य कारस्योत्पत्तिप्रतीतेरित्यप्याहुः ||३०|| प्रमाणसिद्धेऽर्थे न किञ्चिदन्यद्वाधकमित्यन्यत्रातिदिशति — मूर्त्तत्वादिप्रसङ्गोऽपि, वारणीयोऽनया दिशा ॥ मानराजादरे दुष्टा, हन्तापत्तिर्न पत्तिवत् ||३१||८९ ॥ एवञ्च मूर्तशरीरानुप्रवेशेनात्मनो मूर्तत्वापत्तिरपि परास्ता, यतः किमिदं मूर्तत्वं इयत्तावच्छिन्न परिमाणयोगो रूपादिसन्निवेशो वा, आद्ये इष्टापत्तिः, न ह्यविश्वद्रव्यस्य मूर्तत्वं न मन्यते कश्चिद्विपश्चित्, नान्त्यो मूर्वानुप्रवेशिनो रूपादिमत्यव्याप्तिविरहान्मनस्येव व्यभिचारात्, न च मूर्तमहच्येनापि तद्व्याप्तिरस्ति, अप्रयोजकत्वाद्, एवमात्मनो मूर्तद्रव्यत्वेऽचेतनत्वापतिरपि परास्ता, सहचारदर्शनमात्रेण व्याप्त्यग्रहाद्, अन्यथा विश्रुत्वेऽप्याकाशादिवत्तथात्वं स्यात्, एवं चबालयुत्र शररिपरिमाणभेदेनात्मनो भेदापत्तिः, परिमाणभेदे द्रव्यभेदावश्यम्भावात् तथाचान्यदृष्टस्यान्यस्य स्मरणानुपपत्तिरित्यधरीकृतं कथञ्चिद्भेदेऽपि तस्याभेदाभ्युपगमात्सर्वस्येव सफणविफणावस्थयोः, अत्यन्तभेदे तु प्रत्यभिज्ञाद्यनुपपत्तिरित्यन्यत्र विस्तरः । तथा शरीरखण्डने शरीरव्यापिनो जन्तोरपि खण्डनप्रसङ्ग इत्यप्यसमीक्षिताभिधानं, शरीरखण्डने कथञ्चित् तत्खण्डनस्येष्टत्वाच्डररिसम्बद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितशरीरप्रदेशानुप्रवेश आत्मनः खण्डनं, तच्चात्र विद्यत एव, अन्यथा खण्डितशरीरप्रदेशस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात्, नात्मवित्ववादेपि शरीरं तदवयवं विना वाऽन्यत्रात्मगुणेोपलब्धिः, न च खण्डितशरीरप्रदेशोऽपि शरीरमेत्र, अथ पूर्वावयवसंयोगाविशेषेऽपि संयोगान्तरेणाऽदृष्टवशात् खण्डशरीरद्वयोत्पत्तेर्न दोष इति चेत्, न, एकदा शरीरद्वयोत्पत्तेर्विरोधादविरोधे वैकदोभयत्र मनःसंयोगविरहात् कथश्चैकदैव तयोः कम्पोपलब्धिः, अदृष्टवशात् खण्डितशरीरे मनोन्तरप्रवेशाभ्युपगमान्न दोष इति चेत्, न, तथाप्यात्माविशेषगुणयोग For Private And Personal Use Only 50+ SSG Acharya Shei Kailassagarsun Gyanmandir मतिनिरूपणे व्यञ्जनाव ग्रहप्रस्तावे मनसः प्राव्यकारित्वस्व खण्डने आत्मविभुत्वस्व खण्डनम् ॥ ॥ ४० ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAClesCItKAAREE मविनिरूपपद्यानभ्युपगमसिद्धान्तविरोधात्, अवच्छेदकभेदेन विभुविशेषगुणानामपि युगपदुत्पत्तिरिष्टैव, शब्दस्वले दृष्टत्वादिति चेत, न,तथापि णे व्यञ्जनामुहानन्तरमपि छिन्नगोधाशरीरे कम्पोपलब्धिप्रसङ्गात, तदानीं ततो मनोविगमः करप्यत इति चेन, न, एतादृशकटकल्प- TH नापेक्षया तत्रात्मप्रदेशानुप्रवेशोऽदृष्टवशाच कालान्तरे तत्सबट्टनमिति कल्पनाया एव युक्तत्वादिति दिए ।। एवमदृष्टवदात्मसं ७ वग्रहप्रस्तावे मनसःप्राप्य योग विना परमाणुष्वाधकर्मानुपपत्तावन्त्यसंयोगं बिना तनिमित्तशरीरानुत्पनी शरीरव्यापित्ववादे सर्वेषामनायाससिद्धो मोक्षः । कारित्वखस्यादित्यप्युन्मत्तभाषितप्राय, विभुत्ववादेऽपि सकलपरमाणुग्रहणाभावस्थादृष्टस्वभावाधीनत्वेन शरीरव्यापित्ववादेऽप्यसम्बद्धानाम Xण्डने आत्म पि परमाणूनां स्वभावत एव नियतानां ग्रहणानियतशरीरोत्पत्तेराविरुद्धत्वात्, तदेवमसमुद्धतस्यात्मनः शरीर एव वृत्तिः, विभुत्वस्व समुद्घातमहिम्ना तु बहिरपीति सुव्यवस्थितम्, ॥३१॥ विभुत्वनये तु महतीयमनुपपचिरित्याह- . खण्डनम् । विभुत्वे पुनरात्मा स्या-देक एवान्तरिक्षवत् ॥ उपपत्तेर्व्यवस्थाया, विविधोपाधिभेदतः ॥ ३२॥१०॥ आत्मनो विभुत्ववादे धेकात्मपरिशेषापचिरेकत्रैव नानात्मकार्योपपत्तेः, एकत्रव्योम्न नानाघटसंयोगवदेकौवात्मनि नानामन:शरीरेन्द्रियसंयोगानामेकाकाशसमवेतनानाशब्दवच्चकात्मसमवेतनानासुख दुःखादीनां युगपदुत्पत्तिसम्भवात्, अथावच्छेदकतासम्बन्धेन शब्दोत्पत्ती संयोगादिरूपस्यासमवायिकारणस्य नियामकत्वादेकत्रापि व्योम्नि देशभेदेन नानाशब्दोत्पात्तयुज्यतामत्र तु कथमिति चेत्,न, अत्राप्यवच्छेदकतासम्बन्धनात्माविशेषगुणत्वावच्छिन्नं प्रति प्राणशरीरसंयोगादेरसमवायिकारणस्य नियामकत्वात् सुषुप्तिकाले ज्ञानानुत्पत्तिनिहाय च त्वङ्मनोयोगस्य शरीरनिष्ठतया हेतुता वाच्या, त्वयाप्यात्मनिष्ठतया तदेतताकल्पनात्,एवं च परामर्शादीनामपि शरीरनिष्ठतयैवानुमित्यादिहेतुत्वान चैत्रशरीरावच्छेदेन परामर्शान्मैत्रशरीरावच्छेदेनानुमित्याद्या RRIERROR Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं श्रीज्ञाना बप्रकरणम्॥ ॥४१॥ पतिः, वस्तुतश्चैत्रपरामर्शसमवायिनि मैत्रे न चैत्रशरीरावच्छिन्नानुमित्यापत्तिः, कार्यतानवच्छेदकरूपेणापत्त्यभावात्, न च | मतिनिरूतवैकैकात्मस्थलेऽनन्तशरीराणां तत्त्वतत्वेन तत्तदात्मगुणं प्रति हेतुता वाच्या, मम तु समवायेन तदात्मसमवेतगुणत्वावच्छिन्नं 13 पणे व्यञ्चनाप्रति तादात्म्यसम्बन्धेन तदात्मत्वनावच्छेदकतया तं प्रति च तदात्मशरीरत्वेन हेतुताद्वयं युक्तमेव कल्पनीयं, अथ तदात्मीयत्वं न वग्रहप्रस्तावे तदात्मसंयोगोऽतिप्रसङ्गात्किन्तु तदात्मादृष्टोपगृहीतत्वं तच्चाननुगतमेवेति तवापि नानैव हेतुत्यमिति चेत्, न, स्वसमवेतादृष्टोप- मनस:प्राप्यगृहीतत्वसम्बन्धेन तदात्मव्यक्ति बच्छरीरत्वेनानुगतस्यैव हेतुत्वादिति वाच्यं, शब्दादौ तच्छरीरावच्छिन्नं प्रति तच्छरित्वेन हेततया कारित्वस्य क्लप्सयैव निर्वाहाद्धतुत्वान्तराकल्पनया ममैव लाघवात, अथवाऽवच्छेदकतया कार्योत्पत्तावपि प्रागभाव एव नियामक इतिन किश्चि- खण्डने दनुपपत्रम्, अथादृष्टफलयोः प्रतिनियमदर्शनानानात्मानो व्यवस्थाप्यन्तेऽन्यशरीरजनितस्यादृष्टस्यान्यशरीरावच्छेदेन फलजनक- आत्म विभुत्वेऽतिप्रसङ्गानियामकान्तरस्य चादर्शनादिति चेत्, न, तच्छरीरजनिताऽदृष्टस्य तजन्यशरीरावच्छेदेन फलजनकत्वेऽतिप्रसङगाभा-131 त्वस्य खवात, एवं च जननमरणादिनियमोऽप्युपपादित इति दिग् ॥ नन्विदं भवतामपि समं दूपर्ण शरीरव्यापिनानात्मकल्पनापेक्षया IC | ण्डन, तत्रै. विभोरेकस्यैवात्मन:कल्पनौचित्यात, सिद्धान्तविरोधस्त्वावयोःसमान एव,एकात्मवादे मोक्षार्थितया कस्यापि प्रवृत्तिर्न स्यात्किश्चिच्छ-17 कात्मवादारीरावच्छेदेन सकलदुःखध्वंसलक्षणस्य मोक्षस्य सिद्धत्वात्सिद्धे इच्छाविरहात, तच्छरीरावच्छेदेन दुःखचसे तु नेच्छा, सर्व दुःखं पत्तिश्च ॥ नश्यत्विति कामनयैव परिव्रज्यादौ प्रवृत्तरिति समाधानमप्याक्योः समानमिति चेत्,न, सिद्धिपदप्राप्तीच्छयैव तदुपायेषु प्रवृत्तेः । प्रेत्यभावादिव्यवस्थया च नानात्मनां भेदस्याविभुत्वस्य च सियोभयनिरासे तात्पर्यात्, नहि दुःखध्वंसार्था पुरुषाणां प्रवृत्तिरपि तु मुखार्थेवेति सर्वमवदातम् । तदेवं भावमनो बहिर्गत्वा वस्तुप्रकाशयेदिति विकल्पो निरस्तः ॥३२॥ ॥ १ ॥ क For And Penal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क अथ द्रव्यमनो बहिर्गत्वा प्रकाशयिष्यतीति द्वितीयविकल्प निराकरोति सेमतिनिरूपणे बहिव्यमनो गच्छे-त्किं यद्धीहेतुरेव न ॥ निमित्तमपि नो तस्या-करणं वा बहिर्गतम् ॥३शा९१॥ ४ व्यञ्जनावकाययोगसाचिव्येन जीवगृहीतचिन्ताप्रवर्तकमनोवर्गणान्तःपातिद्रव्यनिकुरुम्बलक्षणं द्रव्यमनःपुद्गलस्कन्धत्वादात्मधर्म ग्रहप्रस्तावे स्य ज्ञानस्य जनकमेव न भवति कथगित, अत एव हेतुहेतुमद्भावातिक तद्वहिनिंगमाचिन्तयाऽजागलस्तनायमानया | अथ * हानामापातामागस्तनापमानात मनसःप्राप्य. तवापि चक्षुरादिनेव प्रेरितो जन्तु नं जनयतीति प्रदीपवत्चत्करणं स्यादिति चेत्, तथापि स्थितेनैव तेन ज्ञानं जननीय स्पर्शनादि-18 कारित्वस्य वत्करणत्वादेव च तत्र बहिरेति स्पर्शनादिवदिति सुव्यवतिष्ठते, एवं च शरीरस्थितस्यापि तस्य पचनालतन्तुन्यायेन बहिनिःसरणं | खण्डनम् ॥ भविष्यतीति शङ्का परास्ता । आह च-" दव्वमणो विनाया, ण होइ गंतुं वि किं तो कुणह।। अह करणभावओ तस्स, तेण जीवो विआणिञ्जा ॥२१७॥" [द्रव्यमनो विज्ञात, न भवति गत्वा च किं ततः करोतु ॥ अथ करणभावतस्तस्य, तेन जीवोऽपि विजानीयात् ॥] "करणतणओ तणुसंठिएण, जाणेज फरिसणेणं व ॥ एत्तोचिय हेऊओ, न नीइ चाहिं फरिसणं च ॥ २१८॥" [करणत्वतस्तनुसंस्थितेन, जानीयात्स्पर्शनेनेव ।।इत एव हेतोर्न निर्गच्छति बहिःस्पर्शनमिव ।।२१८॥]॥३॥ नन्वनुग्रहोपघातामा. वान्मनोप्राप्यकारीति प्राकप्रतिज्ञातं स एव चासिद्धचिन्ताहर्षादिना तदुपघातानुग्रहानुमानादितिभ्रान्तस्याशवां निराचिकीर्षुराह चिन्ताहर्षाविमा जीवो-पघातानुग्रही यदि ॥ किं ताभ्यां शेयसंसर्गा-मोती मनसो यतः॥३४॥९॥ परः खल्वेवमनुमन्यते यदौर्बल्योरःक्षतादिलिगमनसः शरीरापचयप्रयोजक आर्चरौद्राभिवृद्धिमहिना च द्रोगादिप्रयोजक उपघातो रोमाञ्चोदयाद्यनुमेयो हर्षादिरूपश्चानुग्रहो भवतीति तस्य तदभावाभिधानमसङ्गतमिति । यदाह-"नज्जइ उवघाओ से, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं श्रीज्ञाना SUCCCI मतिनिक| पणे व्या नावग्रहपस्तावे मनस.प्राप्य अस्त्विस्व खण्डनम् ॥ प्रकरणम्॥ ॥४२॥ दोब्बल्लोरक्खयाइलिंगेहि।।जमणुग्गहो य हरिसा-इएहिं तो सो उभयधम्मो, ॥२१९॥" [ज्ञायते उपघातस्तस्य दौर्बल्योरम्क्षतादिलिङ्गेमा यदनुग्रहश्च हपोदि-भिस्ततः स उभयधर्मा तदसतं, यतो द्रव्यमनस्तावन्मनस्वपारणतानि पुद्गलसवातरूपं शाकादिपीडया हृदयदेशाश्रितनिविडमरुग्रन्थिवज्जीव पीडयेत् तदेव चमनस्त्वपरिणतेश्च पुद्गलसकातरूपं हर्षाघभिनिवृत्त्या मेषजबज्जीवमनु गृहणीयात्तावता शेयनिमित्तकमनोनुग्रहोपघातकताभिधानमिदमायदाह-"जह दब्बमणोतिवली,पीलिज्जा हिययनिरुद्धवाउव्व । तयणुग्गहेण हरिसा-दओव्व नेएण किं तत्थ।।२२०॥"[यदि द्रव्यमनोऽतिबलि,पीडयेद् हृभिरुड्वायुरिव ।। तदनुग्रहेण होदय इव ज्ञेयस्य किं तत्र अन्तःकरणं हि न बहिर्गत्वा ज्ञेयमर्थ जानाति न वा तत्स्वसमीपमानीय प्रकाशयति न वा झेयकृतानुग्रहोपघातभाग भवतीति भुजमुत्क्षिप्य वयं वदामो,न तु तजीवस्यानुग्रहोपघातावपि जनयतीति वयं वदामः, पुद्गलेभ्य एव तेन तल्लाभात्तथा चेदमस्मान् प्रत्यनिष्टोपदर्शनं वादिनोऽविचार्यवादितामेव व्यञ्जयति। यदाह-"नीउं आगरिसिउं वा, न नेअमालंवइ चिणियमोऽयं ।। तन्नेयकया जेऽणु-ग्गहोवघाया य ते नत्थिा।२२२॥[निर्गत्याकृष्य वा न यमालम्बत इति नियमोऽयम्।।तज्जेयकृतो यावनुग्रहोपघातों च तोन स्तः] "सो पुण सयमुबघायण-मणुग्गहवा करेज को दोसो।। जमणुग्गहोवधाया, जीवाणं पोग्गलहिता ।।२२३॥"[तत्पुनः स्वयमुपघातमनुग्रह वा कुर्यात्को नाम दोषः। यदनुग्रहोपघातौ, जीवानां पुद्गलेभ्यः ] ॥३४॥ ननु चिन्तनीयवस्तुसंसर्गादेव हर्षशोकरूपावनुग्रहोपघातौ भविष्यतो न तु द्रव्यमनस इति चेत्,न,एवं सत्योदनादिचिन्तया बुभुक्षाद्यपगमप्रसङ्गात् । ननु तर्हि द्रव्यमनसस्तद्धेतुत्वे किं प्रमाणमित्यत आह देहोपचयवाचल्ये, मनःपुद्गलहेतुके । आहारपुद्गलादीनां, तद्धेतुत्वेन निश्चयात् ॥ ३५॥९३ ॥ CEREGLORR RCItates ॥४२॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org शरीरस्य पुष्टिहानी तावत्पुद्गलजन्ये इष्टा ऽनिष्टाहाराभ्यवहारेण तदर्शनाद्, अथेष्टादप्याहाराद्रोगिणां पुष्टचदर्शनादनिष्टादपि च | भेषजादेस्तदर्शनाद् व्यभिचार इति चेत्, न, धातुसाम्यवैषम्यद्वारा तयोस्तद्धेतुत्वात्, तदिह चिन्ताहर्षसमये जायमाने शरीरपुष्टिहानी पुद्गलसम्बन्धमपेक्षमाणे उपस्थितत्वान्मनः पुद्गलसम्बन्धकल्पनायैव प्रभवतो, नचौदर्याग्निपरिपाकजनित। तिशयानामेवाहारपुद्रलानां तद्धेतुत्वावधारणान्नानीदृशानां मनःपुद्गलानां तद्धेतुत्वमिति वाच्यम्, स्वत एवातिशयितानां मनःपुद्गलानां तद्धेतुत्वौचित्यात्, अन्यथा हृद्ग्रन्थेरपि दौर्बल्यजनकत्वं न स्यात्, ननु चिन्ताहर्षयोरेव साक्षात्तजनकत्वमस्तु किं नानामन: पुद्गलकल्पनया १, वदति च - "चिन्तया वत्स ! ते जातं, शरीरकमिदं कृशम्" इति चेत्, न, एकशक्तिमत्त्वेन पुद्गलत्वेन तद्धेतुत्वकल्पनात्प्रमाणावरोधेन तत्र्यागायोगात्तयोरपि मनोजन्यत्वेन मनस एवं तद्धेतुत्वकल्पनौचित्याच्च, आकाशवदमूर्तयोश्चिन्ताहर्षयोर्न तजनकत्वमिति प्राञ्चः ॥ चिन्तयेत्यादिकश्च प्रयोग औपचारिक इति दिग् ॥ तदिदमभिप्रेत्याह -" इठ्ठाऽणिहाहार-भवहारा होन्ति पुट्ठिहाणीओ ॥ जह तह मणसो ताओ, पोग्गलगुणओत्ति को दोसो १ ॥ २२१ ||” [ इष्टानिष्टाहाराभ्यवहारे भवतः पुष्टिहानी । यथा तथा मनसस्ते पुद्गलगुणत इति को दोषः ॥ ] स्यादेतत्, शोकहर्षव्यापारनैरन्तर्येण नाडीविशेषप्रयत्नप्रेरितद्रव्यान्तरादेव तदुपपत्तौ किं मनः-कल्पनयेति, मैवं, शोकहर्षादिकार्यजनकानां मनोद्रव्याणामेव कल्पनात्तत्र संज्ञामात्र एव परेषां विवादात् इष्टानिष्टमनोद्रव्योपादाननियम एव कुत इति चेत्, अदृष्टवशादेवेति सर्वमवदातम् ॥ ३५ ॥ स्वमविज्ञानेन मनसः प्राप्यकारित्वं सेत्स्यतीति निराकर्तुमाह मनसः प्राप्यकारित्वं, स्वप्नेनापि न सिद्ध्यति ॥ यदसौ न तथारूपौ, व्यभिचारादिदर्शनात् ॥ ३६ ॥ ९४ ॥ 'मम मनो मेरौ गतं' इति स्वप्नविज्ञानदर्शनात्र मनसः प्राप्यकारित्वं सिद्धयति तस्याप्रमाणत्वात्प्रबोधे तद्विपरीतदर्शनात्, ८ For Private And Personal Use Only Acharya Se Kalasagarsun Gyanmandir मतिनिरूपणे व्यञ्जनाव ग्रहप्रस्तावे - स्वप्नदृष्टांतेन मनसः प्राप्यकारित्वव्यवस्थापयितुः खण्डनम् ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ४३ ॥ www.ketafirth.org नचाशु गमनागमनशीलस्य मनसस्तदा ततः परावृच्या तद्विपरीतदर्शनमुपपत्स्यत इति वाच्यं, स्वप्नस्य प्रामाण्यानिश्चयेन तथाकल्पनाऽयोगाचेन शरीरस्यापि तत्प्राप्तिग्रहात् न च सापि सम्भवति, कुसुमपरिमलाद्यजनितश्रमाद्यनुग्रहोपघाताभावादिह स्थितैः सुप्तस्याचैव दर्शनाच्च, तदिदमाह -“सिमिणो ण तहारूवो, वभिचाराओ अलायचक्कं व ।। वभिचारो अ सदंसण-मुवघायाणुग्गहाभावा ॥२२४॥ |” [ स्वप्नो न तथारूपो व्यभिचारादलातचक्रमिव ।। व्यभिचारश्च स्वदर्शना-दुपघातानुग्रहाभावात् ] "इह पासुत्तो पेच्छड, सदेहमन्नत्थ ण य तओ तत्थ ।। ण य तग्गयोबघाया - णुग्गहरूवं विबुद्धस्स ॥ २२५॥ [ इह प्रसुप्तः प्रेक्षते स्वदेहमन्यत्र न च सकस्तत्र ॥ न च तद्गतोपघातानुग्रहरूपं विबुद्धस्य ] || ३६ || नमु प्रबुद्धस्य हर्षविषादोन्मादमाध्यस्थ्यदर्शनात् स्वप्नेऽपि जिनस्नात्र- तदपायकामिनी कुचकलश सम्पर्क संस्तारस्वरूपदर्शनाद्यर्थक्रियानुमानात् न तस्य व्यभिचारित्वं भविष्यतीत्यत आह— हर्षादिकं ज्ञानफलं स्वप्ने नैव क्रियाफलम् | तत्सम्भवे बुभुक्षाऽपि क्षीयेतीदनदर्शनात् ॥ ३७ ॥ ९५ ॥ न खलु स्वमे जिनस्नात्रादिकरणादेव प्रबुद्धस्य हर्षादिप्रादुर्भावः केनापि स्वप्ने तत्क्रियाऽदर्शनात्किं तु रागादिमहिम्ना तदभिमानादेव, दृश्यते हि जाग्रतोऽपि दूराज्जरतीमपि मदिरोन्मादविघूर्णमाननयनां गतिविलासविडम्बितकलहंसगमनां ससम्भ्रमं निजभुजोत्क्षेपविहितपीवर कुचकलशोन्नमनामादरेण तरुणीमिव पश्यतस्तरुणस्य हर्षोन्मादादिप्रादुर्भावस्तस्मादिष्टप्राप्त्यादेखि तदभिमानस्यापि सुखादिहेतुत्वमास्थेयं । अत एव रागसह कृतस्यैव तस्य तज्जनकत्वात्तद्विरहिणो मुनेः स्वमे कामिनीदर्शनादिनापि न हर्षादयोऽपि तु माध्यस्थ्यमेव, 'मोहहीनस्य स्वम एव न' इति तु न वक्तुं युक्तम्, मोहविगमाधीननिर्मोहत्वस्य दर्शनावरणोदयप्रसूतनिद्राद्यविरोधित्वात्, यदि तु स्वमेऽपि सुखादिकं क्रियाफलमिति क्रियैव स्यान्नान्यथा, तदा तदानीमोदनादिदर्शनाद् बुव For Private And Personal Use Only Acharya Shui Kalassagarsu Gyanmandir मतिनिरूपणे व्यञ्चना वग्रहप्रस्तावे - स्वमदृष्टांतेन मनसः प्राप्य कारित्वव्यवस्था पयितुर्मतखण्डनम् || ॥ ४३ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POMEGRACTOR क्षाविलयप्रसङ्गे बुभुक्षाक्षामकुक्षेनिद्रायामेव प्रवृत्तिः स्यान्न तु पाकादाविति विपरीतमेतद्, आह च-"दीसन्ति कासइ फुडं, हरिसविसायादओ विबुद्धस्सा।सिमिणाणुभूअसुह-दुक्ख-रागदोसाइलिंगाई।।२२६॥"[दृश्यन्ते कस्यचित्स्फुटं हर्षविषादादयो विबुद्धस्य।। स्वमानुभूतसुखदुःख-रागद्वेषादिलिङ्गानि “न सिमिणविन्नाणाओ, हरिसविसायादओ विरुज्झति।। किरियाफलं तु तिची-मदवहबंधादओणत्थि ॥२२७॥" [न स्वमविज्ञानाद् हर्षविषादादयो विरुध्यन्ते ।। क्रियाफलं तु तृप्तिमदवधबन्धादयो न सन्ति ननु कान्तादर्शनजन्ये सुखे तदर्शनमात्र हेतुरस्तु, मोदकमक्षणादिजन्यं तु सुखं कथं स्वमे मोदकज्ञानमात्रादितिचेत,न, अनन्यगत्या स्वमजनितेष्टप्राप्त्यभिमानस्यापि विलक्षणसुखहेतुत्वस्वीकारात् प्रबुद्धस्य तु स्वमशुभत्वज्ञानस्य तथात्वादिति दिग् ॥ ननु स्वप्नेऽपि कामिनीसुरतादिक्रियाफलं व्यञ्जनविसर्गादि प्रबोधावस्थायामपि साक्षात् दृश्यत एव तत्कथं स्वप्ने क्रियाफलं नास्तीत्युच्यत इति चेत्, न, जाग्रतोऽपि तीबमोहाध्यवसायेन व्यञ्जनविसर्गदर्शनात, स्वप्नेऽपि तस्य तद्धेतुकत्वेन क्रियाफलत्वासिद्धेः, अन्यथा स्वप्नविषयीकृतकामिनीनां गर्भाधानादिप्रसङ्गाद,आहच-"सिमिणे वि सुरयसंगम-किरियासंजणिअबंजणविसग्गो।।पडिबुद्धस्स वि कस्सइ, दीसइ सिमिणाणुभूअफलं ॥२२८॥"[स्वप्नोऽपि सुरतसङ्गम-क्रियासञ्जनितव्यञ्जनविसर्गः॥ प्रतिबुद्धस्यापि कस्यचित, दृश्यते स्वप्नानुभूतफलं]"सो अज्झवसायकओ, जागरओपि जह तिव्वमोहस्स ॥ तिव्वज्झवसाणाओ, होइ विसग्गो तहा सुमिणे ॥२२९॥"[सोऽध्यवसानकृतो जाग्रतोऽपि यथा तीव्रमोहस्य।। तीव्राध्यवसानाद्, भवति विसर्गस्तथा स्वप्ने] "सुरयपडिवत्तिरइसुह-गम्भाहाणाइ इहरहा होज्जा ।। सुमिणसमागयजुबईए, ण य जओ ताई तो विफला ॥२३०॥"[सुरतप्रतिपत्तिरतिसुखगर्भाधानादीतरथा भवेत्।। स्वप्नसमागतयुवतेः, न च यतस्तान्यतो विफला ] ननु व्यब्जनविसर्गस्य क्रियापूर्वकत्वदर्शनात्कथमध्यवसान मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रहप्रस्तावेस्वमदृष्टान्तेन मनसः प्राप्यकारित्वव्यवस्थापयितुर्मतखण्डनम् ॥ %ASHISH Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥४४॥ SECRESS जन्यत्वमिति चेत्, न, तीव्रवेदाध्यवसायजनकबहुतरमनोद्रव्यप्रेरितजीवप्रयत्नादेव तदुपपत्तेदृष्टार्थस्य बाधितुमशक्यत्वात् ॥३७॥ ननु भाविराज्यादिस्वप्नस्य सत्यत्वदर्शनान्मनसो मेरुप्राप्तिस्वप्नोऽपि कथं न तथेत्यत आहस्वप्नोऽपि न मृषा कश्चि-न तु सर्व इतिस्थितिः॥ तेन न प्राप्यकारित्वं, मनसः स समर्थयेत् ॥३८॥१६॥ नहि भाविराज्यादिसूचकस्वप्नस्यार्थक्रियाकारित्वेन प्रामाण्यमिति मेरुगमनादिस्वप्नस्यापि तथात्वं स्यात् अर्थक्रियाकारिस्वाभावेन तस्य स्फुटमेवाप्रामाण्यान ह्येकजातीयस्य कस्यचित्प्रामाण्ये सर्वस्य तथात्वं नाम, घटादिचाक्षुषस्य प्रामाण्ये रङ्गे रजत बुद्धपि तथात्वप्रसङ्गाद् आह च-"नणु सिमिणओ वि कोइ, सच्चफलो फलइ जो जहादिहो।।नणु सिमिणम्मि णिसिद्धं, किरिया किरियाफलाई च ॥२३॥"[ननु स्वप्नोऽपि कश्चित्सत्यफला, फलति यो यथादृष्टः। ननु स्वप्ने निषिद्धं, क्रिया क्रियाफलानि च "ज पुण विन्नाणं, तप्फलं च सिमिणे विबुद्धमेत्तस्स ।। सिमिणयणिमितभावं, फलं च तं को णिवारेइ ॥२३२॥"[यत्पुनर्विज्ञानं, तत्फलं च स्वप्ने विबुद्धमात्रस्य।।स्वप्ननिमित्तभावं, फलं च तत्को निवारयति?] ननु स्वमः सर्वोऽप्यप्रमैव निद्रादोषजनितत्वाद्, भाविराज्यस्वप्नादीनां तु देहस्फुरणसहसोदितवद् भाव्यर्थानुमापकत्वादेव प्रामाण्यं तत्चच्छास्त्रात्तथाविधव्याप्तिग्रहात्,तदुक्तम्"देहप्फुरणं सहसोइअंच, सिमिणो अकाइआईणि ॥ सगयाई निमित्चाई, सुभासुभफलं णिवेइंति ॥२३३॥"त्ति. [ देहस्फुरणं सहसोदितं च, स्वप्नश्च कायिकादीनि । स्वगतानि निमित्तानि, शुभाशुभफलं निवेदयन्ति] कथं कश्चिदेव स्वप्नः प्रमा नतु सर्व इत्यभिधीयत इति चेत्, न, 'आरोपे सति निमित्तानुसरणं नतु निमित्तमस्तीत्यारोप इति न्यायन क्वचिदेव कस्यचिद्दोषत्वकल्पनात्, न च तदिति स्थले इदमिति भानात्तस्याप्रमात्वं, स्मृतिप्रामाण्यव्यवस्थापितत्वात्, सर्वत्र स्वप्ने तथाभानाभावाद्, मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रहप्रस्तावेस्वप्नदष्टान्तेन मनसः प्राप्यकारित्वव्यवस्थापयितुर्मतखण्डनम् ॥ RECRUCk ॥४४॥ For Private And Penal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * * ABPRECRUARCHURRACEBOOK दृष्टार्थस्य कथं स्वप्ने भानमिति चेद् , एतन्महिम्नति संक्षेपः॥ ३८॥ ननु स्त्यानद्धिनिद्रोदये द्विरदरदनोत्पाटनादिप्रवृत्तेर्मनसः प्राप्यकारित्वव्यञ्जनावग्रही सेत्स्यत इत्यत आह-- स्त्यानधौ श्रवणादीनां, व्यञ्जनावग्रहादयः॥ भवेयुर्न तु चित्तस्य, स्वप्नोऽयमिति जानतः ॥३९॥१७॥ स्त्यानधिनिद्रोदये हि प्रेक्षणकरङ्गभूम्यादौ गीतादिकं शण्वतः श्रोत्रेन्द्रियादीनामेवावग्रहो भवति, न तु नयनमनसो,तत्प्राप्यकारिताया युक्तिरिक्तत्वात्, नन्वेवं बाह्येन्द्रियव्यापारे प्रबुद्धस्य स्वप्नोऽयमिति ज्ञानं कथमिति चेत्, गाढनिद्रोदयपारवश्येन तथाभिमानाद्, आह च-"सिमिणमिव मन्त्रमाणस्स, थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया । होज व ण उ सा मणसो, सा खलु सोइंदिआईणं ।। ॥ २३४ ॥" [खममिव मन्यमानस्य, स्त्यानगृद्धेळञ्जनावग्रहता । भवेद्वा न तु सा मनसः सा खलु श्रोत्रेन्द्रियादीनाम्] ननु निद्रोदय कथमीदृशी विशिष्टचेष्टेति चेत्, तदुदयसमये चक्रिवलार्द्धबलसम्पत्तेः ॥ श्रूयन्ते ह्यत्रोदाहरणानि-ग्रामे वचन कोऽप्यासी-त्कौटुम्बिकशिरोमणिः ॥ यस्य जिह्वा पलग्रास-रसव्यसनतत्परा।।१।। मांसानि खानिर्दोषाणां, यत्र यत्र स पश्यति ॥ और्वानल इवाम्भोधौ, चेतस्तत्रास्य धावति ।।२।। एष धर्मेधसां दाहे, वन्यदावाग्निरन्यदा ॥ आनीयोपशम वाग्भि-मेघधाराभिरञ्जसा ॥३॥ दुर्नीतिदलनान्वीक्षा, दीक्षा दचा महात्मभिः।।स्थविरैः स्थिरतां नीतो, जगद्गीतयशोभरैः ॥४॥ तेनान्यदा विहरता, ग्रामे वचन घातितः॥ सौनिकैर्महिषो दृष्टो, महिषघजमन्दिरे ॥५॥ अभिलापस्तदा तस्य, तदीयामिषभक्षणे ॥ प्रावतत हहा कर्म-स्थितिर्हि दुरतिक्रमा ॥६॥न न्यवर्चत तस्यासौ, व्यासङ्गेऽपि क्रियान्तरे ॥ कान्तासङ्ग विना याति, न नाम विरहज्वरः ॥७॥ तेनैव चाभिलाषेण, स्वापमाप दुराशयः । तस्य तत्सहकारेण, स्त्यानर्द्धिरुदियाय च ॥८॥ महिषध्वजवत् मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रह प्रस्तावे त्यानधिनि द्राप्रकारेण मनसः प्राप्यकारित्वव्यञ्जनावग्रहस्थापक्रमतखण्डनम् ॥ * * * * For And Pool Onty Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना GREGERED प्रकरणम्।। ॥४५॥ मतिनिरूपणे क्रूर-स्ततश्चोत्थाय शक्तिमान्।। महिषामिषपिण्डाथी,ययौ महिषमण्डलम्॥९॥तत्र व्यापाद्य महिषं,मांसलंमांसलम्पटः॥मांस भुक्त्वाऽ व्यञ्जनावग्रन्यदानीय, चिक्षेपोपाश्रयोपरि ॥१०॥ पुनः सुष्वाप पापा स, प्रत्यूषे च प्रबुद्धवान् ।। स्वप्नोऽयमिति विज्ञाय, तज्जगाद गुरोः | परः ॥११॥ उपाश्रयोपरि प्रेक्षि, साधुभिध तदा पलम् ।। पाटलं परिपाकेण, स्त्यानगृद्धिलताफलम् ।।१२।।न्यवाद तच गुरव-IVIL. तेन लिङ्गेन तैस्तदा ॥ धूमेनाग्निरिवाज्ञायि, तस्य स्त्यानदिसम्भवः ।।१३।। सङ्घन स द्रुतं लिङ्ग-मपहत्य विसर्जितः ।। भस्मच्छ प्यकारित्वान्नोऽपि नैवाग्निः, स्थाप्यते केलिवेश्मनि ॥१४॥ इति स्त्यानध्र्युदये प्रथमं मांसोदाहरणम्।। अथ द्वितीयं मोदकोदा रेकायां दहरणमुच्यते-भिक्षार्थ पर्यटन प्रामे, कोऽपि साधुर्व्यलोकत ।। भाजने स्थापितान् दिव्यान, मोदकान् मन्दिरे क्वचित् ॥१॥ शितानिसुरभिस्निग्धमधुरा-नुग्रीवं तानिमालयन् ।। स पाप नहि साधूनां, याञ्चापूर्वः प्रतिग्रहः ॥२॥ विच्छेदं न जगामास्याभिला स्त्यानध्युषस्तु तदाश्रयः ॥ अविच्छेदन सुप्तस्य, स्त्यानद्धिरुदियाय च ॥ ३ ॥ रजन्यां तद्गृहं गत्वा, महाद्विप इवाऽथ सः।। अभाक्षी दाहरणागि।। तत्कपाटानि, वृक्षाणीव मदोद्धतः ॥४॥ गत्वान्तः कवलीकृत्य, स्वैरं मोदकमण्डली ॥ शेषं पतद्ग्रहे क्षिप्त्वो-पाश्रवं तूर्णमाययौ ॥५॥ स्थाने निधाय सुष्वाप, तं पतद्ग्रहकं पुनः ॥ स्वप्नं ज्ञात्वा बभाषेऽथ, प्रबुद्धस्स गुरोः पुरः॥६॥ भाजनप्रत्युपेक्षायाः, समये तत्प्रतिलेखने । ददृशे मोदकश्रेणी,स्त्यानद्धिरिव पिण्डिता।।७।।गुर्वादिभिस्ततो ज्ञात्वा,तस्य स्त्यानदिदुष्टताम् ।।लिङ्गं पाराश्चिकं दवा, तथैवायं विसर्जितः ॥८॥ उक्तं द्वितीयम्।। अथ तृतीयं दन्तोदाहरणमुच्यते।।एकः साधुर्दिवा कश्चित्, खदितः करिणारिणा, प्रचण्डकरदण्डेन, नीरदेनेव गर्जता ॥१॥ पलाय स ततः कष्टा-न्मृगो दावानलादिव।। क्रोधोद्धरमनास्तूर्ण-मुपाश्रयमुपाययौ ॥२ ।। ज्वलतैव स कोपेन, रात्री स्वापमवीभजत् ॥ तदा सहचरीवास्य, स्त्यानगृद्धिरुपाययौ ॥३॥ ॥४५॥ BAMCE For Private And Penal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya SaikailassigarsanGyammandir केशवा बलेनाथ, मन्यमानस्तृणं जगत् ॥ भक्त्वा पुरकपाटानि, पर्पटानीव तत्क्षणात् ॥ ४॥ गत्वा च हस्तिनः स्थानं, मतिनिरूपणे केसरीव स हस्तिनम् ॥ व्यापाथ दन्तमुशल-द्वयं जग्राह शक्तिमान् ॥ ५ ॥ क्रोधाग्निमपनीयाऽथ, द्विपवरनिवारणात ॥ व्यञ्जनावप्रआगत्योपाश्रयद्वारि, क्षिप्त्वा तत् स्वपिति स्म च ॥ ६॥ उज्ज्वलं रुधिरार्द्रत-दन्तिनो दशनद्वयम् ॥ सपल्लवकषायद्-शा-11 | हप्रस्तावे खाद्वयमिवावभौ ॥ ७॥ प्रबुद्धः स तथारूपं, स्वयं स्वप्नममन्यत ।। स्त्यानद्धे जम्मितं चास्य, साधबो विविदुः क्षणात ॥८॥ न मनसः प्राहि स्त्यानर्द्धिपाथोधि-तरङ्गप्रसरं विना।। डिण्डीरपिण्डसङ्काश-दन्तिदन्तग्रहो भवेत् ।।९।।स्त्यानधैरुदयाद्ग्रस्त-गुणमेनमवेत्य च॥ प्यकारित्वाविससर्ज द्रुतं सङ्घो, लिङ्गमादाय धर्मधीः ॥ १० ॥ उक्तं तृतीयम् ।। अथ चतुर्थ कुम्भकारोदाहरणमुच्यते-कश्चिदेकर रिकायां स्त्याकुम्भकारो, गच्छे स्वच्छतरे गुणैः ।। प्रव्रज्यां खलु जग्राह, कुतश्चिदपि कारणात् ॥शाअन्यदा च प्रसुप्तं तं, स्त्यानर्द्धिरुपतस्थुषी।। नयुदाहरपूर्वाभ्यासं ततोऽस्माषी-न्मृत्पिण्डकोटनश्रमम्।।२। ततस्तदेकव्यापार-चिन्तासन्तापतापितः।। शिरांस्यभांक्षीत्साधूनां, मृपिण्डानिव णानि ॥ दुष्टधीमाशातद्रक्तरक्तधारामि-धौते(पापो)ऽप्येतस्य चेतसि।।अवर्द्धताहो नितरां,सर्वतः पङ्कसङ्करः ||४|| साधवोऽपसताः कोचत्, पाप्मनोऽस्मात्ततो भिया|नहि ज्वलति दावाग्नी, वने स्थातुं किलोचिती ॥५॥ उदेक्षन्त च ते प्रातः, पाप्मनोऽस्य विजृम्भितम् ।। सर्वतः पृथिवीं दृष्ट्वा, मुण्डमण्डलमण्डिताम् ॥६|| स्मशानवेश्मार्चनतो, नराणां मुण्डमण्डलैः ॥ स्मशानवास एवास्य, श्रेयानिति विचिन्त्य तम् ॥७॥ सङ्घः सद्धर्मनिरत-श्वकर्षांपाश्रयाद्वहिः ।। दूषणस्य फलं मुख्य-माश्रयभ्रंश एव हि।।८। उक्तं चतुर्थम्॥ अय वटशाखाभञ्जनोदाहरणं पञ्चममुच्यते-साधुग्रीमान्तरात्कश्चि-द्भिक्षा लात्वा न्यवर्तत।। तापेनाभिहतश्चैष, क्षुत्तृभ्यां बाधितस्तराम् ॥ १॥ छायां तां सेवितुं स्निग्धां, शीतला वटभूरुहः।। कामोपतापहतये, कामिनीमिव कामुकः ॥२।। आगच्छन् 613 CHUDAE For Private And Penal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ।। ॥४६॥ SHARMACOCALCRECRUGA5% शाखया नीचै-रुपतापातिविड्वलः। अपराद्धो हियेवासी, खेदं मेदस्विनं दधौ।॥३॥अविच्छिन्नेन कोपेन, ततो गत्वा प्रतिश्रयम्॥ क्रमेणावश्यकीः कृत्वा, क्रियाः सुष्वाप पापधीः ॥४॥ रजन्यां महतीं शक्ति, स्त्यान.विभ्रदुचकैः ।। अभाङ्क्षीद् बटशाखां तां, सह धर्मशाखया ।।५।। तामानीयाश्रयद्वारि, क्षिप्त्वाऽशेत पुनर्भशम् ।। बुद्धः स्वप्नाभिमानी च, जगौ सर्वे गुरोः पुरः ॥६॥ द्वारि तां महतीं शाखां, स्त्यानर्द्धिमिव रूपिणीम् ।। अवेक्ष्य लिङ्गमादाय, गुरुणा स विसर्जितः ॥ ७॥ उक्तं पश्चमम्।। तदेव * पतान्युदाहरणान्यन्यत्र सझेपत पवम्प्रदर्शितानि [] पकः कौटुम्बिको प्रामे, मांसमेवात्यनेकधा ॥ श्रुत्वा धर्म स केषाश्चित, समीपे व्रतमग्रहीत ॥१॥ विचरंश्च कचियामे, महिषं पिशितार्थिभिः। विभिधमानमद्राक्षीत्ततोऽभूत्तत्र सस्पृहः ॥२॥ सोऽन्युक्छिन्नतदाकांक्षीऽभुक्तो यातो बहिभुषम् ॥ सूत्रस्य पौरुपी चारयां, चके सुप्तस्तथा निशि ॥३॥ जातस्त्यानधिरेषोऽथ, गत्वा महिषमण्डलम् ॥ हत्येकं भुक्तवान, शेषमेत्य शालो मात्रयस्योपरि ग्यधात् ॥४॥ERष्टः प्रगे स्वप्न, इत्यालोचितवान्गुरोः ॥ दिशी पिढोकने तच, मुनिभिः मोसमीक्षितम् ।।५॥ सोऽथ त्यानधिमान, शात्या, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः॥ इति प्रथमम् [२] साधुभिक्षां भ्रमन्कोऽपि, मोदकान्धीक्ष्य कुत्रचित् ॥६॥ विरमेक्षिष्ट गृवस्तानलवाऽशेत तम्मनाः ॥ जातस्त्यानधिदत्याय, गत्वा तद्भवनं निशि ॥७il भिस्वा कपाटमत्तिस्म, मोदकानुतानथ ॥ पात्रे कृत्वाश्रये प्राप्तः, प्रातः स्वप्नं न्यवेदयत् ॥८॥रष्टाः पादोनपौरुष्या, ते पात्रपतिलेखने ॥ लिङ्गपार चिकः सोऽपि, ततो गुरुमिरादधे ॥९॥ इति द्वितीयम् ॥ [३] एकः साधुर्गतो भिक्षा त्रासितः करिणा ततः।। पलायितः कथमपि, तस्मिन, रुष्टश्च सुप्तवान्। १०ाजातरूपानधित्थाय गत्वा व्यापाच ते गजन || आनीय दन्तमुशले, विन्यस्योपाधयोपरि ॥११॥ पुन: सुप्तः प्रगे स्वप्नं,व्याचकेऽचतपोधनः।। रहा दन्तान्स विज्ञातो,लिङ्गपाराशिकः कृतः ॥१२॥ इतितृतीयम् गच्छे महति कस्मिश्चित् ,प्रावाजीकुम्भकारकासुप्तः स्त्यानधिभायात्रौ, मृत्तिकाभ्यासतस्ततः।। १३ ॥समीपस्थितसाधूनां, छेदं छेदं शिरां मतिनिरूपणे व्यञ्ज| नावग्रह। प्रस्तावे | मनसः प्राप्यकारिवारिकायां स्त्यानयुदाहरणानि । ॥४६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda ORDCORRORS-REAK मेतानि दर्शितानि स्त्यानयुदये पश्चाऽपि समयप्रसिद्धान्याहरणानि ॥ आहच-"पोग्गलमोअगदन्ते, फरुसगवडसालभञ्जणेचेव। थीणद्धिअस्स एए, आहरणा होन्ति णायव्वा ॥२३५।" [पुद्गलमोदकदन्ताः कुलालवटशालभञ्जने चैव ।। स्त्यानधेरेतान्युदाहरणानि भवन्ति ज्ञातव्यानि]।वदेवं जागरे स्वप्ने स्त्यानौं वा मनसः प्राप्यकारिता निषिद्धा,अमुकत्र मे गतं मन इति प्रयोगस्त्वन्यार्थकत्वेन समर्थितो,वस्तुतस्त्वयं प्रयोगो भ्रान्तिमूलक एव, चक्षुर्मे चन्द्रं गतमिति प्रयोगवत्, नहि सर्वे लौकिकप्रयोगाः सत्या एव, आह च-"जह देहत्थं चक्खू, जं पइ चंदं गयंति णय सच्च।।रुढं मणसो वितहा,ण य रुढी सच्चिआ सव्वा।।२३६॥"[यथादेहस्थं चक्षुयेत्प्रति चन्द्रं गतामेति न च सत्यम् ।। रूढं मनसोऽपि तथा, न च रूढिः सत्या सर्वा ] || तदेवं व्यवस्थापिते मनसोड प्राप्यकारित्वे पुनः परकृतामाशङ्कां परिहरति ।[*प्रतावत्र सवृत्तिषट्पञ्चाशद्गाथायुतानि दश पत्राणि गतानीति लिखितमितियोजितम्] सर्वासर्वग्रहापत्ति-न चित्तेमाप्यकारिण।। दृष्टस्यानुपपत्ती, यददृष्टं [परिकल्प्यते ॥ ४०॥९८॥ __ अप्राप्यकारिणि अप्राप्यकारितया सैद्धान्तिकाभ्युपगते चित्ते मनसि, प्रतिवन्दी गृह्णता परेणोद्भाविता सर्वासर्वग्रहा| पत्तिः यदि विषयमप्राप्यैव मनो गृह्णीयादप्राप्तत्वाविशेषात्सर्वस्य ग्रहणं स्यात, अप्राप्तत्वाविशेषेऽपि यदि कस्यचिदर्थस्याग्रहणं स्यधीः ॥ एकान्ते न्यक्षिपत्तानि शीर्षाणि च वपूंषि च ॥१४॥ शेषा अपमृता भूयः, सुप्तः स्वप्नं प्रगेऽवदत् ।। मृतान्वीक्ष्याथ साधून्स लिङ्गपाराश्चिकः कृतः ।।१५।। इतिचतुर्थम् ॥ [4] वटस्याऽधोऽध्वना कश्चि-द्भिक्षाचर्यागतो मुनिः ।।भूतपात्रो बलन्धेगात , क्षुत्तुडग्रीष्मातापितः ॥ १६॥ तच्छाखायामास्फलितो, कष्टस्तस्थामसौ निशि ॥ स्त्यानर्युदयतो गत्वा, भक्त्वा शाखां समागतः ॥१७॥ विन्यस्योपाश्रयद्वारे सुप्तः स्वप्नं न्यवेदयत् ।। प्रातः स्त्यानधिमान् ज्ञात्वा लिङ्गपाराश्चिकः कृतः ॥२८॥ इतिपञ्चमम् ॥ केऽप्याहुः प्राग् बनेभोऽभूत,सोऽथ स्त्यानधिमान्नरः ॥ सजातप्राग्भवाभ्यासाद, बटशाखां ततोऽभनक ॥ १९ ॥ इति ।। BACHEKADARSHASHTRICREASEX (योजितः पाठः) मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रहप्रस्तावे मनसः प्राप्यकारित्वस्थापनाय परकृतारेकाया: परि हारः॥ For Private And Penal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B सविवरणं मीज्ञाना प्रकरणम्॥ है ॥४७॥ तदा तथैवापरस्याप्यग्रहणमिति,सर्वाग्रहण वा स्यादित्येवंरूपा,न,यद यस्मात्कारणात,दृष्टस्यप्रतिनियतार्थग्रहणस्यानुपपत्ती सत्यां (योजितः तदुपपत्तये,अदृष्टं तत्कारणतया क्षयोपशमविशेषाख्यं,परिकल्प्यते,न चैवं प्राप्यकारित्वपक्षेऽप्येवमस्त्वितिवाच्यम्, अनेकप्राप्ति- पाठः) कल्पनेऽपि क्षयोपशमविशेषस्य तत्कारणतयावश्यं कल्पनीयत्वेनिष्फलस्यगौरवस्यतत्कल्पनापरिपन्थिनः सद्भावाद् ,अप्राप्यकारित्वे मतिनिरूपणे तु प्राप्तकल्पनाल्लाघवस्यानुकूलत्वादिति बोध्यम्॥४०॥मनसो विषयप्राप्त्यभावेऽपि कदाग्रहावेशाद्व्यञ्जनावग्रहं प्रतिपादयन्पर आह व्यञ्जनाव“विसयमसंपत्तस्स वि, संविज्जइ वंजणोग्गहो मणसो॥जमसंखेजसमइओ, उवओगो जं च सब्वेसु।।२३७।। ग्रहप्रस्तावे समएसु मणोदब्वाई, गिण्हए वंजणं च दब्वाई ॥ भणियं संबंधो वा तेण तयं जुज्जए मणसो ॥ २३८॥" मनसोऽ प्राव्याख्या-मेर्वादिविषयमप्राप्य गृह्णतोऽपि मनसो व्यञ्जनावग्रहो युज्यते, यस्मात्'च्यवमानो न जानाति इत्यादिवचना- प्यकारित्वेसर्वोऽपि छयस्थोपयोगोऽसङ्ख्येयसमयो निर्दिष्टः समये, न त्वेकद्वयादिसमयका, यस्माच्च तेषूपयोगसम्बन्धिष्वसङ्ख्येयसमयेषु सिद्धेऽपि व्यसर्वेष्वपि प्रत्येकमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवर्गणाभ्यो गृह्णाति जीवः, द्रव्याणि च तत्सम्बन्धो वा प्रागत्रैव भवद्भिर्व्यञ्जनमुक्तं, अनावग्रहतेन तत् द्रव्यं तत्सम्बन्धो वा व्यजनावग्रहो मनसो युज्यते। श्रोत्रादेरप्यसङ्ख्येयसमयगृह्यमाणशब्दादिपरिणतद्रव्याणि तत्सम्ब त्वस्थापन्धो वा व्यञ्जनावग्रहा, स मनसाऽपि समान इति तथा कि नेप्यत इति पराभिप्रायः ॥ २३७-२३८ ।। नायाभिनिविषयाप्राप्तावपि मनसो व्यञ्जनावग्रहमवस्थाप्येदानी तत्प्राप्त्या तं समर्थयबाह वेशिशङ्का देहादणिग्गस्स वि, सकायहिययाइयं विचिंतयओ॥ नेयस्स वि संबंधे, बंजणमेयं पि से जुत्तं ॥ २३९ ॥18 प्रदर्शनम् ।। व्याख्या-देहादनिर्गतस्यापि तत एव मेर्वाद्यर्थमगतस्यापि स्वकायहृदयादिकमतिसन्निहितत्वात्सम्बद्धं चिन्तयतो मनसो ॥४७॥ ACK Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org ज्ञेयेन स्वकाय स्थितहृदयादिना सम्बन्धेऽपि तस्य मनसो व्यञ्जनावग्रहो युक्त उक्तप्रकारेणेत्यर्थः ॥ २३९ ॥ उक्तप्रकाराभ्यां परेण मनसो व्यञ्जनावग्रहे समर्थिते तत्र प्रथमपक्षे प्रतिविधानमाचार्य आहगिज्झस्स बंजणाणं, जं गहणं वंजणोग्गहो स मओ ॥ गहणं मणो न गिज्झं, को भागो वंजणे तस्स ॥ २४० ॥ व्याख्या स्वपक्षपरपक्षरागद्वेषग्रहाविष्टचित्तेन परेण 'विसयमसंपचस्स वि' इत्यादि यदुक्तं तदसम्बद्धमेव, यतः श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टयग्राह्यस्य शब्दादेस्सम्बन्धिनां व्यञ्जनानां तद्रूपपरिणतद्रव्याणां यदुपादानलक्षणं ग्रहणं स व्यञ्जनावग्रहोऽस्माकं सम्मत इति परो जानात्येव, एवञ्च चिन्ताद्रव्यरूपं मनो यदि ग्राह्यं स्यात्स्यात्तदा तद्व्यजनं मनसो न त्वेवं, किन्तु अर्थपरिच्छेदकरणस्वरूपं ग्रहणं मनो न ग्राह्यं, अतः को भागः कोऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनोद्रव्यराशेर्व्यञ्जनावग्रहेऽधिकृते, न कोऽपीत्यर्थः ॥ २४० ॥ ' देहादणिग्गयस्स वि ' इत्यादिना मनसो व्यञ्जनावग्रहप्रसाधनायोक्तो द्वितीयपक्षोऽपि न सङ्गतः, स्वस्य स्वदेशेन सम्बन्धस्सर्वस्यापि, स्वदेशेन सहासम्बन्धे वस्तुनोऽसत्त्वमापद्येत, न च तावन्मात्रेण मनः प्राप्यकार्युपगन्तुं शक्यम्, तथा सति ज्ञानमात्रस्य स्वदेशात्मसम्बद्धस्य प्राप्यकारिता प्रसज्येत, तस्मात्स्वदेशं परित्यज्य बाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्वचिन्ता फलवती, बाह्यार्थ मनसाऽप्राप्त एव गृह्यत इति तस्याप्राप्यकारित्वनियमे न व्यभिचारः, मनसः स्वकीयहृदयादिचिन्तायां प्राप्यकारित्वाभ्युपगमेऽपि वा न व्यञ्जनविग्रहसम्भव इति दर्शयन्नाह तसचिन्तणे होज्ज, वंजणं जह तओ न समयस्मि । पढमे चैव तमत्थं, गेण्हेज्ज न वंजणं तम्हा ॥ २४९ ॥ व्या० स्वकीयहृदयादिदेश चिन्तने सति भवेन्मनसो व्यञ्जनावग्रहः यदि प्रथमसमय एव तं स्वकीयहृदयादिकमर्थं न For Private And Personal Use Only Acharya Se Kalasagarsun Gyanmandir ( योजित: पाठ: ) मतिनिरूप णे व्यञ्जनावग्रहप्रस्तावे मनसोऽप्रा प्यकारित्वे सिद्धेप्यभि निवेशतो व्यञ्जनावग्र महत्व स्थापना य परकृतारेकायाः परिहरणम् ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ४८ ॥ www.katatirth.org गृह्णीयात् न चैवम्, यतो मनसः प्रथमसंमय एवार्थावग्रहो जायते न तु श्रोत्रादीन्द्रियस्येव प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः, क्षयोपशमापाटवेन श्रोत्रादीन्द्रियस्य प्रथमं नार्थोपलब्धिरिति युज्यते तस्य व्यञ्जनावग्रहः, चक्षुरिन्द्रियस्येव पटुक्षयोपशमत्वान्मनसोऽर्थानुपलब्धकालाभावेन प्रथममर्थावग्रह एव जायत इति न व्यञ्जनावग्रहस्यावसरः, अत्र चानुमानप्रकार इत्थम्, इह यस्य ज्ञेयसम्बन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो नास्ति न तस्य व्यञ्जनावग्रहः, यथा चक्षुषस्तथा मनसः, तस्मान्न तस्य व्यञ्जनावग्रहः, व्यतिरेके तु श्रोत्रादिर्दृष्टान्तस्तस्य ज्ञेयसम्बन्धेऽर्थानुपलम्भकालसम्भवात्, तत्र व्यञ्जनावग्रहाभ्युपगमः, एवश्च परोक्तपक्षद्वयस्याप्यघटमानत्वान्मनसो व्यञ्जनावग्रहासम्भवमुपसंहरति । ' न वंजणं तम्हचि, ' तस्मादुक्तप्रकारेण मनसो न व्यञ्जनावग्रहः ॥ २४९ ॥ प्रथमसमय एव मनसोऽर्थग्रहणम्भवतीत्यत्रोपपत्तिमुपदर्शयति समए समए गिues, दव्वाई जेण मुणइ य तमत्थं ॥ जं चिंदिओवओगे वि, वंजणावग्गहेऽतीते ॥ २४२ ॥ होइ मणोवावारो, पढमाओ चैव तेण समयाओ । होइ तदत्थग्गद्दणं, तदण्णहा न प्पवत्तेज्जा ॥२४३॥ व्याख्या-येन कारणेन कस्यचिदर्थस्य चिन्तावसरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति मनोद्रव्यग्रहणशक्तिसम्पन्नो जीवः चिन्तनीयश्च तथा जानाति, एतत्प्रथमगाथापूर्वार्द्धार्थेन सह द्वितीयगाथाद्वितीयतृतीय चरणार्थी सम्बन्धनीयौ । ततश्च तेन कारणेन प्रथमसमयादेव भवति चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमित्यर्थः अर्थानुपलब्धिकालस्त्वेकोऽपि समयो नास्ति, कुत्र तस्य व्यञ्जनावग्रहइति भावः । नन्विन्द्रियव्यापाररहितस्य जीवस्य मनोमात्रेणैवार्थान्पर्यालोचयतो मा भवतु मनसो व्यञ्जनावग्रहः श्रोत्रादीन्द्रियेणार्थान् गृह्णतस्तु जीवस्य मनोऽपि तत्र व्यापिपर्तीति तत्र प्रथममनुपलब्धिकालसम्मवाद् व्यजनावग्रहः किन्न स्यादित्यत आह, For Private And Personal Use Only Acharya Shei Kailassagarsu Gyanmandir ( योजित: पाठ: ) मतिनिरूपणे व्यञ्जनाव ग्रहप्रस्तावे पटुक्षयोपश मत्वाच्चक्षुष इव मनसः प्रथमत एवाग्राहकत्वेन व्यअनावग्रहा भाव एवेति प्रदर्शनम् ॥ ॥ ४८ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VORIGANGANAGAUR 'जं चिंदिओवओगे वि' इत्यादि, यस्मात् श्रोत्रादेः शब्दाद्यर्थग्रहणलक्षणोपयोगकालेऽपि व्यञ्जनावग्रहेऽतीते सति मनसो व्यापारो भवति,यथा केवलेन मनसाऽर्थचिन्तनावग्रहादारभ्यैव मनोव्यापारस्तथा श्रोत्रादीन्द्रियेण सहापि तस्य व्यापारो●वग्रहादारभ्यैव न तु व्यजनावग्रहसमय इति न मनसस्तत्रापि व्यञ्जनावग्रहः । तत्र मनसो व्यञ्जनावग्रहे व्यापाराभ्युपगमे स व्यञ्जनावग्रहो मनसोऽपीति मतेरष्टाविंशतिभेदभिन्नता न स्यात्, तस्मात्प्रथमसमयादेव तस्यार्थग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् । एवमनभ्युपगमे दण्डमाह'तदण्णहा न प्पवत्तेजत्ति,' यदि प्रथमसमयादेव मनसोर्थग्रहणं नेष्यते तदा तस्य मनस्त्वेन प्रवृत्तिरेव न स्यादनुत्पत्तिरेच स्यादित्यर्थः, यथा भाषाऽवध्यादीनां भाषमाणावबुद्धधमानलक्षणान्वर्थमुपादायैव प्रवृत्तिस्तथा प्रथमसमयादारभ्य मननलक्षणान्वर्थमुपादायैव मनस्त्वेन मनसः प्रवृत्तिः, अन्यथा न स्यादेव मनोऽवध्यादिवत, तस्मादर्थानुपलब्धिसमयाभावान तस्य व्यञ्जनावग्रहः, श्रोत्रादीन्द्रियच्यापारकाले व्यञ्जनेऽतीत एव मनसो व्यापार इत्यत्राऽऽगमस्यापि संवादः। तदुक्तं कल्पभाष्य-"अत्थाणंतरचारी, चित्तं निययं तिकालविसयंति । अत्थे उ पडुप्पो, विणिओगं इंदियं लहइ ॥१॥" अर्थे-शब्दादौ श्रोत्रादीन्द्रियव्यञ्जनावग्रहेण गृहीतेऽनन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चरति प्रवर्तते इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले तस्य प्रवृत्तिरिति भावा, "त्रिकालविषयं चित,साम्प्रतकालविषयं त्विन्द्रियम्" ।। २४२-२४३ ॥ मनसोऽर्थानुपलब्धिकालासम्भवं सयुक्तिकं भावयत्राह नेयाउ चिय जं सो, लहइ सरूवं पईवसहव्व ॥ तेणाजुत्तं तस्सा-संकप्पियव्वंजणग्गहणं ॥२४४॥ व्याख्या-यस्माज्ञयादेव चिन्तनीयवस्तुन एव मनः स्वरूपं लभते नान्यतः, तस्माद्यदि प्रथमसमयमेव तज्ज्ञेयं नावगच्छेत् तर्हि ततो ज्ञेयादुत्पतिरप्यस्य न स्यात्, मनुते मन्यते वा मन इत्येवं सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभिधेयस्य मनसः, प्रदीपयतीति (योजितः पाठः) मतिनिरूपणे व्यसनावग्रहप्रस्तावे मनसोप्राप्यकारित्वं मनः शब्दान्वर्थनिरूपणेनागम| संवादेनच ५ निष्टतिम्॥ IC Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥ ४९ ॥ www.khatirth.org प्रदीपः, शब्दयति भाषत इति शब्दः, दहतीति दहनः, तपतीति तपनः इत्येवं सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभिधेयप्रदीपादेः प्रदी पनादिलक्षणार्थक्रियां कुर्वत एवात्मलाभो नान्यथा, तद्वन्मननादिक्रियां कुर्वत एवात्मलाभः, यथा च प्रदीपस्याप्रदीपनं भाषाया वाशब्दनमयुक्तं तथा मनसोऽप्यमननमयुक्तं, तेन कारणेन असङ्कल्पितशब्द दिविषय भावपरिगतद्रव्यलक्षणव्य अनग्रहणं मनसोऽयुक्तम्, किन्तु सङ्कल्पितानामेवार्थावग्रहद्वारेणावगतानामेव शब्दादिद्रव्याणां ग्रहणं युक्तम्, अतोऽर्थानुपलब्धिकालासम्भवाम मनसो व्यञ्जनावग्रहसम्भव इति ।। २४४ ॥ उक्तरीत्या नयनमनसोरप्राप्यकारित्वे विस्तरेण प्रसाधितेऽपि नयनस्याप्राप्यकारित्वे दूषणम्पश्यन्पर आहजड़ नयणिन्दियमपत्त-कारि सव्वं न गिण्हए कम्हा? || गहणाग्रहणं किं कय-मपत्तविसयत्तसामन्ने ॥ २४५ ॥ व्याख्या- यदि नयनेन्द्रियमप्राप्तकारि तर्हि सर्वमपि त्रिभुवनान्तर्वर्ति वस्तुनिकुरम्बं कस्मान्न गृह्णाति, अप्राप्तत्वस्य सन्निहित इवान्यत्राप्यविशिष्टत्वात्, अप्राप्तविषयत्वसामान्ये सति कस्यचिद्वस्तुनो ग्रहणं कस्यचिद्वस्तुनोऽग्रहणमित्येवं ग्रहणाग्रहणं किं कृतं स्यात् प्राप्यकारित्वे तु येन सह सम्बन्धस्तस्य ग्रहणं येन च तदभावस्तस्याग्रहणमित्युपपद्यत इति ॥ २४५ ॥ तस्मादप्राप्यकारित्वपक्षे चक्षुषो विषयपरिमाणनियमाभाव आपद्यत इत्याह[॥ २४६ ॥ विसयपरिमाणमनियय-मपत्तविसयंति तस्स मणसोव्व ॥ मणसोवि विसयनियमो, न कमइ जओ स सव्वत्थ व्याख्या- तस्य चक्षुषोऽपरिमितं विषयपरिमाणं प्राप्नोति, अस्यां प्रतिज्ञायां हेतुमाह अप्राप्तविषयमिति कृत्वा, मनस इवेति दृष्टान्तः, अत्रानुमानप्रयोग इत्थम्, यदप्राप्तमपि विषयं परिच्छिनति, न तस्य तत्परिमाणं युक्तम्, यथा मनसः, अप्राप्तञ्च For Private And Personal Use Only Acharya Shei Kalassagarsun Gyanmandir मतिनिरू. पणे व्यञ्चना वग्रहप्रस्तात्रे चक्षुर्मनसोर प्राप्यकारि स्वव्यवस्थापितेपिमनो दृष्टान्तेनच क्षुषोपविष यमानाभावा पत्तिरितिपरोक्त दोषदर्शनम् || ॥ ४९ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketatirth.org विषयमवगच्छति चक्षुः, तस्मान्न तस्य तत्परिमाणं युक्तमिति । अत्र प्रतिज्ञाहेत्वोरनुपदर्शनश्वावयवत्रयवादिनो मीमांसकादयोsप्यत्र चक्षुषः प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छन्तो वादितां विभ्रतीत्यभिप्रायेण, यदि नैयायिकोऽत्र वादी भवेत्तदा चक्षुर्न नियतविषयपरिमाणं स्यादिति प्रतिज्ञा, अप्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वादिति हेतुश्चोपदर्शनीयौ, अप्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वलक्षणहेतुमतोऽपि मनसो नियतविषयपरिमाणत्वेन तदभावलक्षणसाध्यवैकल्यादुक्तानुमाने मनसो दृष्टान्तता न सम्भवतीति सूरिरुत्तरयति- मनसो दृष्टान्तीकृतस्याप्राप्तकारिणो विषयनियमोऽस्त्येव, यतस्तदपि मनः सर्वेष्वर्थेषु न क्रामति न प्रसरतीति || २४६ || एतदेवोपदर्शयतिअत्थगहणेसु मुज्झइ, संतेसु वि केवलाइगम्मेसु । तं किं कयमग्गहणं, अपत्तकारित्तसामन्ने ॥ २४७ ॥ व्याख्या - अर्था एव मतेर्दुष्प्रवेश्यत्वाद् गहनानि अर्थगहनानि तेष्वनन्तेषु, सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि केवलज्ञानाव घ्यागमादिगम्येषु कस्यचिन्मन्दमतेर्मनो मुह्यति कुण्ठीभवति, तान्सतोऽप्यर्थान् न गृह्णातीति तात्पर्यम्, तदेतदर्थानां मनसोऽग्रहणं किं कृतम्, अप्राप्तकारित्वसामान्ये तुल्येऽपि, इति परम्प्रति सूरेः पृच्छा, तस्मात्साध्यविकलो दृष्टान्त इति ॥ २४७॥ अप्राप्तत्वाविशेषेऽपि यत एव कारणाद्विषय परिमाणनियमं मनसि परो ब्रूयात्तत एक चक्षुष्यपि विषयपरिमाणनियमस्सुपपाद इत्याशयवान् सूरिराहकम्मोदयओ व सहा- वओ व नणु लोयणे वि तं तुल्लं । तुल्लो व उबालंभो, एसो संपत्तविसए वि ॥२४८|| व्याख्या - यत्केषाञ्चिदर्थानां मनसोऽग्रहणं तत् तदावरणकर्मोदयाद्वा, स्वभावाद्वा, इति परो ब्रूयात्, नन्वेतल्लोचनेऽपि तुल्यम्, यतस्तदप्यत्राप्यकारित्वे तुल्येऽपि कर्मोदयात्, तत्स्वाभाव्याद्वा कांश्विदेवार्थान् गृह्णाति न सर्वानिति न परोक्तदूषणम् अथवा "यत्र भयोस्समो दोषः, परिहारोऽपि वा समः। नैकः पर्यनुयोज्यः स्यात, तादृश्यर्थविचारणे || १||" इति वचनात् चक्षु For Private And Personal Use Only Acharya Sai Kalassagarsu Gyanmandir ( योजित: पाठ: ) मतिनिरूपणे व्यञ्जनाव ग्रहप्रस्तावे - चक्षुषोप्राप्यकारित्वे परो कदूषणान्तः पतिमनो दृष्टान्तेऽपि विषयनियमसद्भावेनासङ्गतिनिरूप णम् ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम्॥ ॥५०॥ CHAUTA मनसोः प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छतो मते चक्षुषाऽतिसम्प्राप्ताञ्जनादेः किमिति न ग्रहः मनसैकदैव सम्प्राप्तानां घटपटादीनां किमिति न ग्रहो मेर्वादेरतिव्यवहितस्यापि ग्राहकस्य मनसो न कुत्राप्यसम्प्राप्तिरिति दोषोद्धाराय कर्मोदयस्य स्वभावस्य वा प्रतिनियतग्रहणे नियामकत्वं परेण तदुभयप्राप्यकारित्ववादिना वाच्यं तन्नयनस्याप्राप्यकारित्ववादिनाऽपि वक्तुं शक्यमेवेति दोपपरिहारयोस्समत्वेन नात्र वादिना यत्नो विधेय इति भावः ।। २४८ ॥ ततश्च यद्वयवस्थितं तदाहसामत्थाभावाओ,मणोब्व विसयपरओन गिण्हेइ ।।कम्मक्खओवसमओ, साणुग्गहओ य सामत्थम् ॥२४९॥ व्याख्या-चक्षुः सिद्धान्तनिर्दिष्टनियतविषयपरिमाणात्परतो न गृह्णातीति प्रतिज्ञा, सामर्थ्याभावादिति हेतुः, मनोवदिति दृष्टान्ता,तदावरणकर्मक्षयोपशमात्स्वानुग्रहतब सामर्थ्य येवप्राप्तेष्वर्थेषु चक्षुषस्समस्ति तेषामप्राप्तानामपि चक्षुषा ग्रहणम, येषु चाप्राप्तेघृक्तसामर्थ्य नास्ति तेषां चक्षुषा न ग्रहणमित्यर्थापत्या लभ्यते, अनुग्रहश्च चक्षुषो रूपालोकमनस्कारादिसामग्रीतो भवति, तस्माद्व्यवस्थितमप्राप्यकारित्वं नयनमनसोः, स्पर्शनादीनां चतुर्णामेवेन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रह इति तस्य चतुर्विधत्वम् ।। २४९ ।। व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपं नन्द्यध्ययनागमसूत्रे प्रतिबोधकमल्लकोदाहरणाभ्यां "वंजणोग्गहस्स परूवणं करिस्सामि पडिबोहगदिट्ठतेण मल्लगदिहतेण य" इत्यारभ्य "जाहे तं वंजणं पूरिय होइ, ताहे हुँ ति करेइ, नो चेव णं जाणाइ के वेस सदाइ" इत्यन्तग्रन्थेन प्रतिपादितं,तदेवमस्य व्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादकस्य नन्दिसूत्रस्य शेषं प्रायः सुगममिति मन्यमानो भाष्यकार: 'जाहे तं वंजणं पूरियं होइ" इत्येतद्व्याचिख्यासुराहतोएण मल्लगं पिव, वंजणमापूरियं तिजं भणियं ॥ तं दब्वामिदियं वा, तस्संजोगो व न विरुद्धम् ॥२५०॥ मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्र हप्रस्तावे मनोविषयनियमत्वे पराभिप्रेतहेत्वोर्ने।पि समत्वेन परदोपपरिहारः, नयनमनसोबिना व्यज्ज नावग्रहचतु* विधत्वनि टकनम् ॥ ॥५०॥ S For Private And Penal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIRECH व्याख्या-'जे भणिय' यदुक्तं नन्दिसूत्रकारेण, किं तत्, इत्याह, व्यञ्जनमापूरितमिति, केन किंवत् , इत्याह-तोयेन जलेन मल्लकं शरावं तद्वदिति, तस्मिन् सूत्रकारभणिते व्यञ्जनं द्रव्यं गृह्यते, इन्द्रियं वा, तयोर्वा द्रव्येन्द्रिययोः संयोगः सम्बन्धः, 1 इति सर्वथाऽप्यविरोधः, त्रिष्वपि व्यज्यते प्रकटीक्रियतेोऽनेनेति व्यञ्जनमित्यस्या व्युत्पत्तेर्घटनात् ।।२५०॥ व्यञ्जनशब्दवाच्येषु त्रिष्वपि द्रव्यादिषु प्रत्येकमापूरितत्वे विशेषमुपदर्शयतिदव्वं माणं पूरिय-मिंदियमापूरियं तहा दोण्हं ॥ अवरोप्परसंसग्गो, जया तया गिण्हह तमत्थं ॥२५१॥ व्याख्या-दव्वंति,द्रच्यव्यञ्जनेऽधिकृते 'जाहे तं वंजणं पूरिय होई' इत्यस्यार्थः शब्दादिद्रव्यस्य प्रमाण प्रतिसमयप्रवेशेन प्रभूतीकृतत्वात् स्वप्रमाणमानीतं प्रकर्षमुपनीत स्वग्राहकज्ञानोत्पादे समर्थीकृतमिति यावत्,अथेन्द्रियमितीन्द्रियव्यञ्जनेऽधिकृते तु तदर्थः तदा । पूरितं व्याप्तं भृतं वासितमित्यर्थः, द्वयोः द्रव्येन्द्रिययोः सम्बन्धलक्षणव्यञ्जनेऽधिकृते पुनः, तयोः परस्परं सम्यक्सम्बन्ध इति तदर्थः, द्रव्येन्द्रियसम्बन्धलक्षणव्यञ्जनपक्षे द्रव्येन्द्रिययोः परस्परमतीवसंयुक्तता वा अङ्गाङ्गीभावेन परिणाम एव सम्बन्धलक्षणव्यञ्जनस्यापूरणम्, यदोक्तप्रकारत्रयेण त्रिविधमपि व्यञ्जनमापूरितं भवति, तदा तं नामजात्यादिकल्पनारहितं विवक्षितं शब्दाद्यर्थ गृह्णाति, एतच्च 'ताहे हुँ ति करेइ' इत्यस्य व्याख्यानं, अयमेवार्थावग्रह एकसामयिकः, व्यञ्जनावग्रहस्तु द्रव्यप्रवेशादिरूपत्वादान्तौहूर्तिकः इति ।। २५१ ॥ अर्थावग्रहो यादृशमर्थ गृहाति तमुपदर्शयति सामन्नमणिद्देसं, सरूवनामाइकप्पणारहियं ॥ जइ एवं जं तेणं, गहिये सद्देत्ति तं किह णु ? ॥ २५२ ॥ व्याख्या सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो रूपादेः स्वरूपनामजातिगुणक्रियाद्रव्यकल्पनारहितत्वेन शब्दानभिलाप्यं सामा- (योनित: पा ) मतिनिरूपणे व्यञ्जनावग्रहप्र स्तावे नन्दिसूत्रोतपाठपठितव्यञ्जन शब्दस्य भाष्यकार व्याख्यानेन द्रव्येन्द्रियसम्बन्धरूपत्रि विधवाच्यत्व प्रदर्शनम् ॥ ARGEORGEMESH Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं भीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ५१ ॥ www.ketafirth.org न्यरूपमेवैकसामयिकत्वेन विशेष ग्रहणासमर्थोऽर्थावग्रहो गृह्णाति, एवमुक्ते पर आह- यद्येवं व्याख्यायते भवद्भिः तहिं यन्नन्द्यध्ययन सूत्रे प्रोक्तं " तेणं गहिये सदेत्ति" उपलक्षणत्वादित्थं सम्पूर्ण द्रष्टव्यम् - " से जहा नामए केइ पुरिसे अव्वतं स सुणेञ्जा तेणं सद्देति उन्गहिए, न उण जाणइ के वेस सहाइति” 'तं किह णु त्ति' तदेतत्कथमविरोधेन नीयते, उपदर्शितनन्दि सूत्रे तन प्रतिपत्राऽर्थावग्रहेण शब्दोऽवगृहीत इति प्रतिपाद्यते भवद्भिस्तु शब्दाद्युल्लेखरहितं सामान्यमवगृह्णातीत्युच्यत इति विरोधः स्पष्ट एवेति भावः ॥ २५२ ॥ अत्रोत्तरमाह सद्दे त्ति भइ वत्ता, तम्मत्तं वा न सहबुद्धीए ॥ जह होइ सद्दबुद्धी, तोऽवाओ चैव सो होज्जा ॥ २५३ ॥ व्याख्या - शब्दस्तेनाव गृहीत इति यदुक्तं तत्र शब्द इति वक्ता प्रज्ञापकः सूत्रकारो वा भणति प्रतिपादयति अथवा तन्मात्र शब्दमात्रं रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्याऽनवधारितत्वाच्छन्दतयाऽनिश्चितं गृह्णातीति एतावतांशेन शब्दस्तेनावगृहीत इत्युच्यते, न पुनः शब्दबुद्धया, शब्दोऽयमित्यध्यवसायेन तच्छब्दवस्तु तेनावगृहीतं, शब्दोल्लेखस्यान्तर्मुहूर्तिकत्वात्, अर्थावग्रहस्य स्वेकसामयिकत्वादसम्भव इति भावः, यदि भवति शब्दबुद्धिरर्थावग्रहे शब्दनिश्वयस्स्यात्, तदा, अपाय एवासौ भवेत्, न त्वर्थावग्रहः, निश्चयस्यापायरूपत्वात् एवं सत्यर्थावग्रहयोरभाव एव स्यात्, न चैवं दृष्टमभ्युपगम्यते वा ॥ २५३ ॥ ननु प्रथमसमय एव शब्दोऽयमिति ज्ञानमर्थावग्रहः, ततः माधुर्यादयः शङ्खशब्दधर्मा इह घटन्ते न तु खरकर्कशत्वादयः शार्ङ्गधर्मा इति विमर्शबुद्धिरीहा तस्माच्छाह एवायं शब्द इत्यपाय इत्येवमभ्युपगमेनावग्रहेहयोरभावप्रसङ्गः ' तेणं सदेति उग्गहिए' इति यथाश्रुतार्थक एवोपपद्यते 'नो चेव णं जाणइ ' इत्यादिरप्यविरोधः, इत्येतत्परोक्तमन्द्य सूरिदूषयति For Private And Personal Use Only Acharya Shei Kailassagarsun Gyanmandir (योजितःपा ठः) मतिनि रूपणे अर्थावग्रहविपयनिरूपणं तत्रपरकृत विरोधाश कारि हारश्च ॥ ॥ ५१ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Star Kiss Gyan S E CORDPRECRUCI055 जह सदबुद्धिमत्तय-मवग्गहो तव्विसेसणमवाओ॥ नणु सहो नासद्दो, न य रूवाई विसेसोऽयम् ॥ २५४ ॥ योनित: व्याख्या-यदि शब्दोऽयमिति निश्चयज्ञानमप्यवग्रहः शाल एवायं शब्द इत्यादिविशेषज्ञानमवायो भवताऽङ्गीक्रियते, तर्हि पाठः) मतिज्ञानस्य प्रथमभेदोऽवग्रहो न स्यादेव, विशेषज्ञानस्यापायरूपतया भवताऽपि स्वीकृतत्वेन शब्दोऽयमिति निश्चयस्य शब्द- हेमतिनिरूपणे स्खलक्षणविशेषग्राहकत्वेनापायत्वस्यैव भावात् , यथा च शब्दत्वस्थावान्तरसामान्यरूपतया शाङ्गत्वादिकं विशेष इति तज्ज्ञानस्या अर्थावग्रहपायता, यतः शाङ्गत्वेनाशाजव्यवच्छेद इति कृत्वा शाङ्खत्वं विशेष इति, तथैव महासामान्यस्यावान्तरसामान्यतया शब्दत्वादिक विषयनिरूमपि विशेषस्तेनापि नाशब्दो न रूपादिरयमित्येवमन्यविशेषव्यावृत्तिः क्रियत इति तज्ज्ञानस्यापायतैवेत्याह-नणु' इत्यादि, पणे पुन:परनन्वित्यक्षमायां परामन्त्रणे वा, शब्दत्वस्य रूपत्वादिना विरोधाचनिश्चयेन रूपादिरिति निश्चयस्यावश्यम्भावादित्याह-न च । कृतयुक्त्यारूपादिरिति रूपादिव्यावृत्तिनिश्चयबलादेव रूपोऽयमिति निश्चयस्ततो नारूपोऽयमिति निश्चयस्ततोऽपायत्वेऽस्य निर्णीतेऽवग्रहा पायाभावाभावप्रसङ्गः, अवग्रहत्वेन कक्षीकृतस्यापायत्वस्यैव भावादिति भावः ॥ २५४ ॥ पत्तिदोषोपस्तोकविशेषग्राहकत्वेन शब्दोऽयमिति निश्चयस्यावग्रहत्वं ततोऽधिकविशेषग्राहकत्वेन शाल एवायमितिनिश्चयस्यापायत्वमित्ये दर्शनम् ॥ वमवग्रहापाययोर्विषयविभागमवलम्ब्यावग्रहसमर्थनं यदि परः कुर्यात्तदा शाङ्खोऽयमितिनिर्णयस्यापि तदुत्तरोत्तरमन्द्रमधुरत्वादितरुण-मध्यम-वृद्ध-स्त्री-पुरुषसमुत्थत्वावगाहिनिर्णयापेक्षया स्तोकविशेषग्राहकत्वेनावग्रहत्वमेव स्यादित्यपायाभावप्रसङ्ग इत्याहथोवमियं नाऽवाओ, संखाइविसेसणमवाओ त्ति । तम्भेयावेक्खाए, नणु थोवमेवे त्ति नावाओ ॥ २५५॥ अवतरणावेदितार्थेयं गाथेति ॥ २५५ ।। उत्तरज्ञानापेक्षया स्तोकविशेषग्राहिणो निर्णयस्यावग्रहत्वाभ्युपगमे उत्तरोचरज्ञान For Private And Penal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ५२ ॥ www.ketatirth.org स्यापि तदुत्तरोत्तरज्ञानापेक्षया स्तोकविशेषग्राहकत्वेनावग्रहत्वप्राप्तौ विशेषाणामनन्तत्वेन यदपेक्षयोत्तरविशेषो न भवत्येवेत्यस्यासम्भवेनोत्तरोत्तर विशेषनिर्णयेऽपि तदुत्तरोतरविशेषाकाङ्क्षायास्सद्भावतोऽन्तिमविशेषावगमोऽयमेवेति निर्णयस्य कर्तुमशक्यत्वेन शाङ्खोऽयमित्यादिज्ञानानामपि स्वोत्तरविशेषग्राहिज्ञानापेक्षया स्तोकविशेषग्राहकत्वेनावग्रहत्वेऽपायाभावप्रसङ्गस्सुस्पष्ट एवेत्याहइय सुबहुणावि काले-ण सध्व भेयावहारणमसज्यं ॥ जम्मि हवेज्ज अवाओ, सव्वो चिय उग्गहो नाम ॥ २५६ ॥ व्याख्या - इति शब्द उपदर्शनार्थः, यथा शाङ्खोऽयं शब्द इति बुद्धौ शब्दगतविशेषावधारणमिदानीमसाध्यं मन्द्रत्वाधुतरोत्तरबहु विशेषसद्भावात् तेन स्तोक विशेषग्राहित्वेनेयं नापायः किन्त्ववग्रहस्तथा सुबहुनापि कालेन सर्वेणापि पुरुषायुषा शब्दगतमन्द्रत्वाद्युत्तरोतरावशेषावधारणं तद्भेदानामनन्तत्वेनासाध्यं, यस्मिन्विशेषावधारणेऽन्यविशेषाकाङ्गानिवृच्याऽपायत्वम्भवेत्, तस्मात्सर्वेऽपि विशेषावगम उत्तरोत्तरापेक्षया स्तोकत्वाद्भवदभिप्रायेणार्थावग्रह एव स्याच्छन्दोऽयमिति निश्चयवन्नापाय इति ।। २५६ ।। अथ शब्द एवायमितिज्ञानमर्थावग्रहतया परसम्मतमपि तदीहापूर्वकमेव ततो नास्यार्थावग्रहत्वसम्भव इत्याहकिं सहो किमसहो-तणीहिए सद्द एव किह जुतं ॥ अह पुत्र्वमीहिऊणं, सहोत्ति मयं तई पुव्वं ॥ २५७ ॥ व्याख्या- किं शब्दोऽयम्, आहोस्वित अशब्दो रूपादिः, इत्येवं पूर्वमनीहितेऽकस्मादेव शब्द एवेति निश्चयज्ञानं कथं युक्तम्, विमर्शपूर्वकस्य तस्य तमन्तरेण न सम्भवः, अन्यव्यावृत्तिग्रहणे सत्येव विशेषरूपेण निश्चयः, अन्यव्यावृत्तिग्रहणश्च न विमर्श विना विमर्शश्रेति, अथ निश्रयकालात्पूर्वमीहित्वा शब्द एवायमिति निश्चयज्ञानं भवतोऽप्यभिमतं तहिं निश्चयज्ञानात्पूर्वमीहा भवद्वचनतोऽपि सिद्धा ॥ २५७ ॥ ततः किमित्यपेक्षायामाह - For Private And Personal Use Only Acharya Shui Kalassagarsu Gyanmandir ( योजित: पाठः) मतिनिरूपणे अर्थावग्रहविषयनिरू पणे शङ्कापरिहारादिप्र दर्शनम् ॥ ॥ ५२ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire किं तं पुब्वं गहिय, जमीहओ सह एव विपणाणं ।। अह पुवं सामण्णं, जमीहमाणस्स सहोत्ति ॥२५८ ॥ (योजितः ____ व्याख्या-शब्द एवायमिति निश्चयस्येहापूर्वकत्वे त्वयाऽभ्युपगते तत्र वक्तव्यं किमीहायाः पूर्व तद्वस्तु प्रमात्रा गृहीत ____पाठः) यस्मिन्नीहिते शब्द एवायमिति निश्चयप्रवृत्तिः ज्ञात एव वस्तुनि भवतीहा नाज्ञात इत्याशयः, उत्तरदानेऽसमर्थे परे स्वयमेवो- हमतिनिरूपणे प्रेक्ष्य तन्मतमाशङ्कते, अथ-ब्रूयात्परः सामान्यं नामजात्यादिकल्पनारहितं वस्तुमात्रमीहायाः पूर्व गृहीतं, यदीहमानस्य शब्द अर्थावग्रहइति निश्चयज्ञानमुत्पद्यत इत्यर्थः ॥ २५८ ॥ अत्र सूरिः स्वसमीहितसिद्धिमुपदर्शयन्नाह विषयनिरूअत्थोग्गहओ पुब्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं ।। पुव्वं च तस्स वंजण-कालो सो अस्थपरिसुण्णो ॥२५९॥ पणे परकता व्याख्या-ईहायाः पूर्व यत्सामान्यग्रहणन्तदस्मन्मतेविग्रह एकसामायिकः तस्य कालो य एकसमयस्तेनैव ग्रहणकालेन रेकापरिहाभवताऽपि सामान्यग्रहणकालस्य व्यवहृतावस्मन्मतसिद्धार्थावग्रह एव भवतोऽप्यभिमत इति न शब्दोऽयमिति ज्ञानस्यार्थावग्रह- रादिप्ररूत्वं स्यादतस्तदनुरोधेनास्मदभिमतार्थावग्रहात्पूर्वमेव भवदभिमतेन ईहायाः पूर्व गृह्यमाणस्य सामान्यस्य ग्रहणकालेन भवितव्यं, पणम् ॥ अस्मदभिमतार्थावग्रहस्य पूर्व व्यञ्जनकालः व्यञ्जनानां शब्दादिद्रव्याणामिन्द्रियमात्रेणादानकाला, सोऽर्थेपरिशून्यः न हि तत्र || सामान्यरूपो विशेषरूपो वाऽर्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहितेन्द्रियमात्रव्यापारात्, अत ईहायाः पूर्व यत्सामान्यग्रहणमथावग्रहत्वेनास्माभिरुपेयते तत्तथैव भवताऽप्युपेयमिति, तस्यार्थावग्रहत्वे सिद्धं शब्द एवायमिति निर्णयस्यान्वयव्यतिरेकधर्मपर्यालोचनरूपेहोत्तरकालभाविनोऽपायत्वमिति ॥ २५९॥ “न उण जाणइ के वेस सद्दोचि" इति नन्दिसूत्रानुरोधाच्छन्दोऽयमिति ज्ञानं प्रथमतोऽभ्युपगमनीयमेव अन्यथा तथा सूत्रनिर्दिष्टस्यायुक्तत्वं स्यादित्याशयेन पर आह For And Pascal Lenty Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.katuatinharo Actiarva stul Kadassiansun Cranmandir सविवरण श्रीज्ञाना-3 प्रकरणम् ॥ ॥५३॥ ACCIRECRUGARCREDIO जह सदोत्ति न गहियं, न उजाणइ जंक एस सहोत्ति ॥ तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मग्गिजइ विसेसो ॥२६॥ व्याख्या-यदि प्रथममेर शब्दोऽयमित्येवं तद्वस्तु न गृहीत, तर्हि 'न उण जाणइ के वेस सदोत्ति इति यत् नन्दिसूत्रे निर्दिष्टं तदयुक्तं, यतः शब्दसामान्ये रूपादिव्यावृत्ते गृहीते सति पश्चान्मृग्यतेऽन्विष्यते विशेषः, 'किमयं शब्दः शाङ्खः उत शाङ्ग' इति, 'न उण' इत्यादिना सूत्रे विशेषस्यैवापरिज्ञानमुक्तं, शब्दसामान्यमात्रग्रहणं त्वनुज्ञातमेव, सामान्याग्रहणे विशेषमार्गणासम्भवात्, विशेषजिज्ञासायां सामान्यज्ञानस्य कारणत्वात् ।। २६० ॥ अत्रोत्तरमाहसव्वत्थ देसयंतो, सद्दो सहोत्ति भासओ भणइ॥ इहरा न समयमेत्ते, सहोत्ति विसेसणं जुत्तम् ।। २६१ ॥ व्याख्या-सर्वत्र पूर्वस्मिन् अत्र च सूत्रावयवे, अवग्रहस्वरूपं प्ररूपयन् भाषकः प्रज्ञापक एव शब्दः शब्द इति वदति, न त्ववग्रहे शब्दप्रतिभासोऽस्ति, अन्यथा समयमात्रेऽवग्रहकाले शब्द इति विशेषणं न युक्तम्, शब्दनिश्चयस्यान्तर्मुहर्तिकत्वात, सांव्यवहारिकार्थावग्रहमाश्रित्य वा सूत्रमिदं व्याख्यास्यते ।। २६१ ।। सूत्रावलम्बिनम्प्रति सौत्रमेव परिहारमाह अहव सुए चिय भणियं, जह कोइ सुणेज सहमवत्तं ॥ अव्वत्तमणिदेसं, सामण्णं कप्पणारहियं ॥२२॥ व्याख्या-अथवा सूत्र एव भणितं प्रथममव्यक्तस्यैव शब्दोल्लेखरहितस्य शब्दमात्रस्य ग्रहणम्, तत्प्रतिपादकसूत्रावयवमुल्लिखति-'जह कोई सुणेज सदमव्वचं 'ति अस्य नन्द्यध्ययन इत्थमुपन्यासः “से जहा नामए केइ पुरिसे अवर्च सई सुणेज्जत्ति" तत्राव्यक्तमित्यनिर्देश्य, तदपि सामान्य, तच्च नामजात्यादिकल्पनारहितम्, शाखशाङ्गभेदापेक्षया शब्दोल्लखस्याष्यव्यक्तत्वमिति नाशङ्कनीयं, सूत्रेऽवग्रहस्यानाकारोपयोगरूपतयैव भणनात्, अनाकारोपयोगो हि सामान्यमात्रविषयक एव, (बोजितः पाठः) मतिनिरूपणे अर्धावग्रहविषयनिरूपणे परकृतारेकापरिहारादिप्ररूपणम् ॥ For And Pascale Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OURCESSHRECORACETA) किश्च शब्दोऽयमित्यस्य प्रथममेव स्वीकारे तस्यापायरूपत्वेन तत्पूर्वनियतयौरवग्रहहयोरभावप्रसङ्ग इत्यस्य पूर्वमुपदर्शितत्वाच्च न प्रथमं तस्य भावः ।। २६२ ॥ अथ सूरिरुत्प्रेक्ष्य पराभिप्रायमाशल्कतेअहव मई, पुवंचिय, सो गहिओ वंजणोग्गहे तेणं ।। जं वंजणोग्गहम्मि वि, भणियं विण्णाणमब्वत्तं ॥२६॥ व्याख्या-अथवा परस्यैषा मतिः यदुत सोऽव्यक्तोऽनिर्देश्यादिस्वरूपः शब्दोविग्रहात्पूर्वमेव व्यञ्जनावग्रहे तेन श्रोत्रा गृहीतः, यस्माद्व्यञ्जनावग्रहेऽपि भवद्भिव्यक्तं विज्ञानमुक्तम्, ज्ञानस्याव्यक्तता चाव्यक्तविषयग्रहण एवोपपद्यत इति भावः ।। २६३ ।। अत्रोत्तरमाहअस्थि तयं अव्वत्तं, न उतं गिण्हइ सांप सो भणियं ।। न उ अग्गहियाम्मि जुज्जइ,सहोत्ति बिसेसणंबुद्धी २६४ ___व्याख्या--अस्ति श्रोतुळजनावग्रहे, तद्,अव्यक्तं ज्ञानं, न पुनरसौ श्रोताऽतिसौक्ष्म्यात् तत् स्वयमपि गृह्णाति संवेदयते, एतच्च प्रागपि भणितम् “ सुत्त-मत्ताइसुहुमबोहोब्ब" इति वचनाद, तथा, "सुत्तादओ सयं पि य विन्नाणं नावबुझंति" इति वचनाच, तस्माद्वयञ्जनमात्रस्यैव तत्र ग्रहणं, न शब्दस्य, व्यञ्जनावग्रहत्वान्यथानुपपत्तेरेव, न च सामान्यरूपतयाऽव्यक्ते शब्द. ऽगृहीतेऽकस्मादेव शब्दः इति विशेषणबुद्धियुज्यते,अनुस्वारस्यालाक्षणिकत्वं,अस्याः प्रथमतो भावेऽवग्रहकालेऽप्यपायप्रसङ्गः।२६४ व्यञ्जनावग्रहेऽव्यक्तशब्दरूपार्थभाने दोषमुपदर्शयतिअत्थोत्ति विसयगहणं,जइ तम्मिवि सोन बंजणं नाम । अत्थोग्गहो चिय तओ,अविसेसो संकरोवावि॥२६५॥ व्याख्या-अर्थावग्रहे अर्थ इत्यनेन विषयस्य रूपादिभेदेनानिर्धारितस्याव्यक्तस्य शब्दादेब्रहणममिप्रेतम् , यदि च तस्मि (योजितः पाठः) मतिनिरूपणे अर्यावग्रहविषयनिरू. पणे परकता| रेकापरिहा रादिप्ररू पणम् ॥ HERegles Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥ ॥५४॥ AISEARCORROR बपि व्यञ्जनावग्रहेऽसावव्यक्तशब्दः प्रतिभासत इत्यभ्युपगम्यते, तदा न व्यञ्जनं नाम व्यञ्जनावग्रहो न स्यादित्यर्थः, एवञ्च व्यञ्जनावग्रहकथैवोच्छिद्येत, व्यञ्जनमात्रसम्बन्धस्यैव तत्रोक्तत्वात् , भवता तु तत्राव्यक्तशब्दरूपार्थग्रहणस्याभिधीयमानत्वात् , अव्यक्तशब्दग्रहणेत्वसावर्थावग्रह एव, एवमपि सूत्रोक्तत्वाद् व्यञ्जनावग्रहत्त्वे द्वयोरपि व्यञ्जनार्थावग्रहयोरविशेषः स्यात्, मेचक | मणिप्रभावात्सकरो वा स्यादिति ।। २६५ ॥ एतावता व्यञ्जनावग्रहे व्यञ्जनसम्बन्धमात्रम्, अर्थावग्रहे त्वब्यक्तशब्दाद्यर्थस्यैव ग्रहणं न तु व्यक्तशब्दायर्थग्रहणमिति प्रतिपादितम् , इदानीमर्थावग्रहे युक्त्यन्तरेण व्यक्तशब्दाद्यर्थसंवेदनं निराकरोति जेणत्थोग्गहकाले. गहणेहावायसंभवो नत्थि ॥ तो नत्थि सद्दबुद्धी, अहत्यि नावग्गहो नाम ॥२६६ ॥ व्याख्या-येनार्थावग्रहकाले क्रमोत्पित्सुस्वभावानामर्थग्रहणेहापायानां मतिज्ञानभेदानां सम्भवो नास्ति, ततोऽर्थावग्रहे नास्ति शब्द इति विशेषबुद्धिः, तस्या अपायरूपाया अर्थग्रहणेहापूर्वकत्वात् , अथास्त्यसौ तत्र, तर्हि नायमर्थावग्रहः किन्त्वपाय एव स्यात्, तथाप्युपगमे त्वर्थावग्रहेहयोरभाव एव स्यात् ।। २६६ ।। अर्थावग्रहे शब्द इति विशेषबुद्धधुपगमे दोषान्तरमाहसामण्णतयण्णविसे-सेहा-वजण-परिग्गहणओ से ।। अत्थोग्गहेगसमओ-वओगबाहुल्लमावणं ॥ २६७ ॥ व्याख्या-अर्थावग्रहैकसमये भवतोपगम्यमाना निश्चयरूपा शब्द इति विशेषबुद्धिरकस्मादनुपजायमानाऽव्यक्तशब्दसामान्यग्रहणशब्दसामान्यविशेषशब्दान्यरूपादिविशेषधर्मालोचनलक्षणेहारूपादिविशेषधर्मपरिवर्जनशब्दविशेषधर्मपरिग्रहणतः श्रोतुरुपजायत इत्यर्थावग्रहैकसमये उपयोगबाडुल्यमापन्नम्, न चैतद्युक्तम्, उपयोगयोगपद्याभावप्रतिपादकागमविरोधादिति नार्थावग्रहकाले शब्द इति विशेषबुद्धिः किन्तु शब्द इति प्रज्ञापको भणतीति सिद्धम् ॥२६७।। अथास्मिन्नेवार्थावग्रहे परवाद्यभिप्रायं निराचिकीर्षुराह (योजितः ४॥ पाठः) मतिनिरूपणे | अर्थावग्रह| विषयनिरू पणे परस्ता रेका परिहारादिपरू पप्पम् ॥ CBIRBAR ॥५४॥ For Private And Penal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.katuatinth.org अण्णे सामण्णग्गह-णमाहु बालस्स जायमेत्तस्स ॥ समयम्मि चेव परिचय-विसयस्स विसेसविन्नाणं ॥२६॥ अन्ये वादिन एवमाहुः-जातमात्रस्य तत्क्षणजातमात्रस्य बालस्य सङ्केतादिविकलत्वेनापरिचितविषयस्य सामान्यमात्रस्याशेषविशेषविमुखस्याव्यक्तस्य सामान्यस्य ग्रहणमालोचनम्, परिचितविषयस्य तु, समय एवाद्यशब्दश्रवणसमय एव, विशेषविज्ञान जायते, ततस्तमाश्रित्य "तेणं सद्दे ति उग्गहिये" इत्यादि यथाश्रुतमेव व्याख्यायते न कश्चिद्दोष इत्याशयः।।२६८॥अत्रोचरमाहतदवत्यमेव तं पुव्व-दोसओ तम्मि चेव वा समये । संखमहुराइसुबहुय-विससगहणं पसज्जेजा ॥२६९॥ 'जेणत्थोग्गहकाले 'इत्यादि 'सामण्णतयण्णविसेसेहा' इत्यादिग्रन्थोक्तपूर्वदोषतस्तदेतत्परोक्तं, तदवस्थमेव दूषितावस्थमेव, नान्यदूषणाभिधानप्रयासोऽत्राभिधेय इत्याशयः, वा अथवा, तस्मिन्नेव समये शब्दोऽयमित्येकोपयोगसमय एव शङ्खमधुरादिसुबहुविशेषग्रहण प्रसज्येत, 'न पुण जाणइ के वेस सद्दे' इतिसूत्रावयवस्य सर्वप्रमातन्प्रत्यविशेषेण प्रवृत्तस्य विरोधेन कस्यचित्प्रथमसमये एव सर्वविशेषविषयकं ग्रहणम्भवत्येवेत्यभ्युपगन्तुमशक्यमेव,शब्दरूपधर्मिग्रहणमन्तरेण प्रकृष्टमतेरप्युत्तरोत्तरबहुधर्मग्रहणत्वा- सम्भवादिति ॥ २६९ ।। एकसमये शब्दोऽयमितिविज्ञानमम्युपगच्छन्तम्प्रति समयविरोधादिदोषान्तरमुपढौकयतिअत्योग्गहो न समय,अहवा समओवओगवाहुल्लं ।। सव्वविसेसग्गहणं, सव्वा विमइरवग्गहो गिज्झो ॥२७॥ एगो वाऽवाओ चिय, अहया सोऽगहियणीहिए पत्तो । उक्कम-वहक्कमा वा पत्ता धुवमोग्गहाईणं ॥२७१।। सामण्णं च विसेसो, सो वा सामण्णमुभयमुभयं वा । न य जुत्तं सव्वमियं, सामण्णालवणं मोत्तुं ॥२७२।। विशेषविज्ञानस्यासङ्ख्येयसामयिकत्वेनार्थावग्रहे विशेषविज्ञानाभ्युपगमे “ उग्गहो एक्कं समयं" इति सिद्धान्तनिर्दिष्टः ॥ द्वितीय: तरङ्गः ॥ (योजितः पाठः) मतिनिरूपणे अर्थावग्रहविषयक पर कृतारेका परिहारादिमरूपणम् ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire В सविवरणं भीज्ञाना ОЕ प्रकरणम्।। सामयिकोऽसौ न स्यात्, अथवा “ सामण्ण-तयण्णविसेसेहा ॥२६७॥” इत्यादिपूर्वग्रन्थोक्तं समयोपयोगबाहुल्यं स्यात्, अथवा परिचितविषयस्य विशेषविज्ञानेऽभ्युपगम्यमाने परिचिततरविषयस्य तस्मिन्नेव सर्वविशेषग्रहणमनन्तरोक्तं प्रसज्येत, अथवा सर्वाऽपि मतिरवग्रहो ग्राह्यः प्राप्तः स्यात्, विशेषविषयकत्वेन वा सर्वाऽपि मतिरपाय एव स्यात् , एवं सत्यपायस्यैक सामयिकत्वप्राप्तौ "ईहावाया मुहुत्तमन्तं तु" इति विरुध्यते । अथवा तथाऽभ्युपगमेऽनवगृहीतेऽनीहितेऽपायः प्राप्तः। एवश्वावगृहीते DIईहिते चाऽपाय इत्युपपादकस्य सिद्धान्तस्य विरोधः, अथवा पाटववेचियेणावग्रहहाऽपायधारणानां ध्रुवमुत्क्रमव्यतिक्रमो स्याताम, 'पश्चानुपूर्वीभवनमुत्क्रमः,' 'अनानुपूर्वीभावस्तु व्यतिक्रमः,' एवमुपगमे "उग्गहो ईहा अवायो य, धारणा एव होन्ति चत्तारि" इति परममुनिनिर्दिष्टस्य तेषां क्रमस्य विरोधः स्यात्, तथा यत्प्रथमसमये गृह्यते स विशेष इतिनियमाऽभ्युपगमे सामान्य विशेषस्स्यात् प्रथमसमये सामान्यस्यैव ग्रहणात् , अथवा प्रथमसमये सामान्यमेव गृह्यत इति वस्तुस्थितिमाश्रित्य भवन्मते प्रथमसमये गृह्यमाणो विशेषः सामान्यं स्यात्, अथवा सामान्यं विशेषश्चेत्युभयं, उभयं वा स्यात्, सामान्य सामान्यविशेषोभयरूपं, विशेषश्च सामान्यविशेषोभयरूपः स्यात्, तथाहि, 'अव ईषत् सामान्यं गृह्णातीत्यवग्रह' इतिव्युत्पत्या वस्तुस्थितिसमायातं यत्सामान्यं तत्स्वरूपेण तावत्सामान्यं भवदभ्युपगमेन तु विशेष इत्येकस्यापि सामान्यस्योभयरूपता, तथा योऽपि भवदभ्युपगतो विशेषः सोऽपि त्वदभिप्रायेण विशेषः, वस्तुस्थित्या तु सामान्यम्, इति विशेषस्याप्येकस्योभयरूपता, अर्थावग्रहस्य सामान्यमालम्बनं मुक्त्वा न च युक्तं सर्वमिदम्, अघटमानकत्वात्, पूर्वोक्तस्यापि दृषणस्यात्र प्रसङ्गायातत्वेन न पौनरुक्त्यावहत्वमिति ।। २७०.२७१-२७२ ॥ प्रथम सामान्यमात्रग्राहि आलोचनाज्ञानं तदनन्तरं रूपादिविशेषव्यावृत्तशब्दत्वग्राही अर्थावग्रह है। द्वितीयः तरङ्गः॥ (योजितः पाठः) मतिनिरूपणे अर्थावग्रह| विषयक पर कृतारेकापरिहारादिप्ररूपणम् ॥ - 4+4 +34 ॥ ५५॥ For Private And Penal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketatirth.org इति केषाञ्चिन्मतं निराकर्तुमुपन्यस्यति - केहदिहालोयणपु-व्वमोग्गहं बेंति तत्थ सामण्णं ॥ गहियमहत्थावग्गह-काले सहेत्ति निच्छिण्णं ॥ २७३ ॥ केचिद्वादिन इहास्मिन् प्रक्रमे आलोचनपूर्वमालोचनं पूर्व यत्र स तथा तं आलोचनपूर्वकमित्यर्थः । तथाभूतमवग्रहं ब्रुवते प्रथममालोचनाज्ञानं ततोऽर्थावग्रह इत्येवं व्याचक्षते, तथा च तैरुक्तम्- "अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं, प्रथमं निर्विकल्पकम् ॥ बालमूकादिविज्ञान-सदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ १ ॥” इति तत्र आलोचनाज्ञाने सामान्यमव्यक्तं वस्तु गृहीतं, प्रतिपत्रेति गम्यते, अथानन्तरम्, अर्थावग्रहकाले निच्छिन्नं पृथक्कृतं रूपादिभ्यो व्यावृत्तं शब्दविशेषणविशिष्टं तदेव, गृहीतमित्यनुवर्तते, एवमुपगमे "से जहानामए केइ पुरिसे अब्बतं सर्वं सुणेजा" इत्येतदालोचनाज्ञानापेक्षया नीयते 'तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए' एतचर्थावग्रहापेक्षयेति सर्वं सुस्थम् || २७३ || तदेवं वादिनमीषद्भर्वाध्यातमज्ञं विज्ञाय परं मार्गावतारणाय विकल्पयन्नाह सूरिः तं वंजणोग्गहाओ, पुव्वं पच्छा स एव वा होज्जा | पुव्वं तदत्थवंजण-संबन्धाभावओ णत्थि || २७४ || तद्भवदुत्प्रेक्षितमालोचनं व्यञ्जनावग्रहात्पूर्वं पश्चात्स एव वा भवेत्, स्थानान्तराभावात्, अर्थव्यञ्जनसम्बन्धाभावात्पूर्वं तावचनास्ति, अर्थः शब्दादिविषयभावेन परिणतद्रव्यसमूहः, व्यञ्जनं श्रोत्रादीन्द्रियं तयोस्सम्बन्धस्य सामान्य विषयग्राह्यालोचनस्य सर्वत्र सर्वदोत्पत्तिप्रसङ्गपरिहाराय तत्कारणतयाऽवश्यमभ्युपेयत्वेन तदभावे तदसम्भवात्, यद्युक्तालोचनोत्पत्तयेऽर्थव्यञ्जनसम्बन्धाभाव उपेयते तदा तत्स्वरूपस्य व्यञ्जनावग्रहस्यैवोक्त्तालोचनात्पूर्वं सत्त्वं न त्वालोचनस्य व्यञ्जनावग्रहात्पूर्वं सच्चमिति प्रथमविकल्पो नात्मानमासादयेदित्याशयः ॥ २७४ ॥ व्यञ्जनावग्रहात्पश्चादुक्तालोचनं भवतीति द्वितीयविकल्पमधिकृत्याह For Private And Personal Use Only Acharya Sai Kalassagarsu Gyanmandir ॥ द्वितीयः तरङ्गः ॥ ( योजित: पाठ: ) मति निरूपणे अर्थावग्रह विषयनिरू पणे पुनरन्यकृतयुक्त्या ऽऽलोचना पूर्वकत्वं तस्येतिमतं विकल्प्य परास्तम् ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरण | मीज्ञाना वप्रकरणम् ॥ MORE अत्योग्गहो विव-जणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि ।। पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होजा ॥२७५॥ ॥ द्वितीयः अर्थावग्रहोऽपि यस्माद्वयञ्जनावग्रहस्यैव चरभसमये भवतीति निणीतं प्राग, तस्मात्पश्चादपि व्यञ्जनावग्रहादालोचनज्ञानं तरकः॥ न युक्त, ब्यञ्जनार्थावग्रहान्तरालकालस्यैवाभावेन तदानीं तदुत्पत्तेर्वक्तुमशक्यत्वात्तदेवं पूर्वपश्चात्कालयोस्तत्सत्त्वनिषेधे पारिशेष्या (योजितःपान्मध्यकालवर्ती तृतीयविकल्पोपन्यस्तो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह एव भवताऽऽलोचनाज्ञानत्वेनाभ्युपगतो भवेत्, एवं च न कश्चिदोषः, 125) मतिनिनाममात्र एव विवादात् ॥२७५॥ किञ्च तद्व्यञ्जनकालेऽभ्युपगम्यमानमालोचनं किमर्थस्य व्यञ्जनानां वा, प्रथमपक्षे व्यञ्जनाव रूपणे अर्थाप्रहत्वाभावान व्यञ्जनावग्रहस्य नामान्तरमप्यालोचनमिति, द्वितीयपक्षेर्थविषयकत्वाभावादन्वर्थादालोचनसंज्ञाभावप्रसङ्ग इत्याह वग्रहवितं च समालोयणम-स्थदरिसणं जहन वंजणं तोतं ।। अह वंजणस्स तो कह-मालोयणमत्थसुण्णस्स ॥२७६॥ पयनिरूपणं तत्समालोचनं यदि सामान्यरूपस्यार्थस्य दर्शनमिष्यते, ततस्तर्हि न व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहात्मकं भवति व्यञ्जनावग्रहस्य तत्र पुनरन्यव्यञ्जनसम्बन्धमात्ररूपत्वेनार्थशून्यत्वात, अथ व्यञ्जनस्य शब्दादिविषयपरिणतद्रव्यसम्बन्धमात्रस्य तत्समालोचनमिष्यते, तर्हि || सम्मतालोकथमालोचनं कथमालोचकत्वं तस्य घटते, तत्र हेतुः अर्थशन्यस्येति, व्यञ्जनसम्बन्धमात्रान्वितत्वेन सामान्यार्थालोचकत्वानुपप-1* चनापूर्वकत्वं चरित्यर्थः ॥२७६।। नन्वेतदालोचनाज्ञानं शास्त्रान्तरे प्रसिद्धमस्ति तत्किं स्वरूपमुररीकृत्येत्यत्र प्रतिविधानं वक्तव्यमित्यत्राह- विकल्स्य आलोयणत्ति नामं, हवेज तं वंजणोग्गहस्सेव ॥ होज कहं सामण्ण-ग्गहणं तत्वत्थसुण्णम्मि ॥ २७७ ॥ परिहृतम् ।। _____तस्मादालोचनमिति यत्राम तदन्यत्र निर्गतिकं सत् पारिशेष्यात् व्यञ्जनावग्रहस्यैव द्वितीयं नाम भवेत्, एवं सति भवतो | यदभिमतं सामान्यमात्रग्रहणमालोचनन्तन तत् , यतः प्रागुक्तयुक्तिभिः अर्थशून्ये तत्र कथं सामान्यग्रहणं भवेत्,तस्मादर्थावग्रह ॥५६॥ M AUR For Private And Penal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya StarKalassingaisait.Gyanmantire REME% एव सामान्यार्थग्राहकः, “अस्ति झालोचनाज्ञानम्" इत्याद्यपि तमाश्रित्यैव घटत इति ॥ २७७ ॥ । द्वितीयः 'तुष्यतु दुर्जन' इति न्यायेन व्यञ्जनावग्रहे सामान्यं गृहीतमित्युपगम्याप्याह तरङ्गः ॥ गहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि । अत्यावग्गहकाले, विसेसणं एस सदो त्ति ।। २७८॥ (योजितः अथवा भवतु तस्मिन्व्यञ्जनावग्रहे सामान्यं गृहीतम् , तथापि कथमनीहितेऽविमर्शिते तस्मिन्नकस्मादेवार्थावग्रहकाले शब्द पाठः) एषः इति विशेषणं विशेषज्ञान युक्तम्, न हि निश्चयो झगित्येवेहामन्तरेण युज्यते, तस्मानार्थावग्रहे शब्द इत्यादिविशेषबुद्धि मतिनिरूपणे युज्यते ॥ २७८ ।। अर्थावग्रहसमय एवेहापायौ भविष्यत इति मन्यमानम्परम्प्रत्याह परस्यार्थावअत्यावग्गहसमए, वीसुमसंखेजसमइया दो वि॥तक्का-वगमसहावा, ईहा-ऽवाया कहं जुत्ता ? ।। २७९॥12॥ ग्रहसमका___अर्थावग्रहसम्बन्धिन्येकस्मिन् समये कथमीहापायौ युक्तौ? इति सम्बन्धः, यतः तर्कावगमस्वभावौ, तों विमर्शस्तत्स्व- लमोहापा भावेहा, अवगमो निश्चयस्तत्स्वभावोऽपायः, द्वावपि चैतौ पृथगसङ्खथेयसमयौ, तथा च यदिदमर्थावग्रहसमये विशेषज्ञानं त्वये- ययोः सत्त्वप्यते सोऽपायः स चावगमस्वभावो निश्चयस्वरूपः, या च तत्समकालमीहाऽभ्युपगम्यते सा तर्कस्वभावानिश्चयात्मिका, तथा च सम्भावना विरुद्धनिश्चयाऽनिश्चयस्वभावयोरनयों कस्मिनवग्रहसमये भावो युक्तः परस्परपरिहारव्यवस्थितत्वात, इत्येकानुपपत्तिः।। युपस्यातथा, अवग्रहस्यैकस्समयः, अनयोश्च पृथक् पृथक् असंख्येयाः समयाः, एवञ्च पृथगसंख्येयसमययोरीहापाययोरेकस्मिन् समये पहस्तयति। भावोऽपि समयविरोधान्न सम्भवति, इति द्वितीयानुपपत्तिः ॥ अतोऽत्यन्तासम्बद्धत्वादुपेक्षणीयमेतत् ॥ २७९ ॥ सामान्यमात्रग्राहित्वेऽवग्रहस्य ग्रन्थान्तरोक्तक्षिप्रेतरादिभेदासम्भवाद्विशेषग्राहित्व एव तस्य घटनाद्विशेषग्राह्यवग्रह इति निः % स For And Penale Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरण भीवाना SEARCH जैव प्रकरणम्॥ ॥५७॥ संख्यप्रेरकान्तर्गतप्रेरकाविशेषस्यावशिष्टामाशङ्कामपहस्तयितुं सरिरुपन्यस्यति-- खिप्पेयराइभेओ, जमोग्गहो तो विसेसविण्णाणं । जुज्जइ विगप्पवसओ, सहोत्ति सुयम्मि जं केइ ॥२८॥ क्षिप्रेतरादिभेदो यस्मादवग्रहः, ततः शब्द इति विशेषविज्ञानं युज्यते, अर्थावग्रहे इति प्रस्तावाल्लभ्यते, तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए' इत्यादिवचनात् यत्सूत्रे निर्दिष्टमिति शेषः, विशेषविज्ञानत्वे हेतुः विकल्पवशतः इहान्यत्रोक्तनानात्ववशतः, अवग्रहस्य द्वादशमेदोपदर्शनार्थमिह शास्त्रान्तरे तत्त्वार्थादौ चैवमुक्ति:-क्षिप्रमवगृह्णाति १, चिरेणावगृह्णाति २, बह्ववगृह्णाति ३, अबढ़वगृह्णाति ४, बहुविधमवगृह्णाति ५, अबहुविधमवगृह्णाति ६, एवमनिश्रितं ७, निश्रितं ८, असन्दिग्धं ९, सन्दिग्धं १०, ध्रुवम् ११, अध्रुवमवगृह्णाति १२ इति ॥ ततः क्षिप्रं चिरेण वाऽवगृहातीति विशेषणान्यथानुपपया ज्ञायते नैकसमयमात्रमान एवार्थावग्रहः, किन्तु चिरकालिकोऽपि, तथा बहूनां श्रोतृणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थे शङ्खमेर्यादिबहुतूर्यनिघोंषे क्षयोपशमवैचित्र्यात् कोऽप्यवहु सामान्यमवगृह्णाति,अन्यो बह्ववगृह्णाति भिन्नांस्तांस्तान् शब्दान्गृह्णाति,अपरः स्त्रीपुरुषवाद्यत्वादिबहुविधविशेषधर्मविशिष्टत्वेन बहुविधमवगृह्णाति, तदन्यस्त्वबहुविधविशिष्टत्वादबहुविधमवगृह्णाति, अत एतस्माद् बहुबहुविधाघनेकविकल्प नानात्ववशादवग्रहस्य क्वचित्सामान्यग्रहणं क्वचितु विशेषग्रहणमित्युभयमप्यविरुद्धं, ततो यत् सूत्रे 'तेणं सद्दे चि उग्गहिए' इतिवचनात् शब्दः इति विशेषविज्ञानमुपदिष्टम् , तदप्यर्थावग्रहे युज्यत एव, इति केचित् ॥ २८० ।। अत्रोत्तरमाह-- स किमोग्गहो ति भण्णइ, गहणेहाऽवायलक्खणत्ते वि ।। अह उवयारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सोवि॥२८॥ बहुशः समाहितमप्यर्थ पुनः पुनः प्रेरयन्तं प्रेरकं साक्षेपं काक्वा सरिः पृच्छति, किंशब्दः क्षेपे, स पूर्वोक्तो विशेषावगमः, || द्वितीय: तरङ्गः॥ (योजितः पाठः) अर्थावग्रहे क्षिप्राक्षि पादिभेदा सम्भवतो विशेषग्राहित्वमेव यु क्तमितिप्रे| रकविशेषा|रेकाया: स. माधानम् ॥ ॥ ५७॥ ! For Private And Penal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketafirth.org अवग्रहोऽर्थावग्रहो भण्यते ग्रहणेहापायलक्षणत्वेऽपि क्षेपार्थककिंशब्दसमभिव्याहारात्कथं ग्रहणेहापायलक्षणत्वे सत्यपि बहुबहुविधादिविशेषग्राहकत्वेन निश्चयरूपतयाऽपायः समर्थावग्रह इति भण्यते १, ग्रहणेहयोः पूर्व भावित्वेन अपायस्य स्वस्वभावत्वेनापायलक्षणत्वं बोध्यम्, स्वस्वरूपस्यापि च लक्षणत्वं भवत्येव । यदाह ॥ “विषामृते स्वरूपेण, लक्ष्येते कलशादिवत् । एवं व स्वस्वभावाभ्यां व्यज्येते खलसज्जनौ ||१||" इति।। बहुबहुविधादिग्रहणस्योक्तलक्षणत्वबलादपायत्वे कथं शास्त्रान्तरेऽवग्रहादीनां बह्वादिग्रहणमुक्तम् १, सत्यमुक्तम्, किन्तूपचारतः बह्वादिग्राहकस्यापायस्य कारणेष्ववग्रहादिषु योग्यतया कार्यस्वरूपमस्तीति कृत्वोपचारतस्तेऽपि बह्वादिग्राहकाः प्रोच्यन्ते, अथ यदि उक्तन्यायेन त्वयाऽप्युपचारं कृत्वा विशेषग्राहकोऽर्थावग्रह इत्युच्यते स वाङ्मात्रेण तव न युज्यते, “ यत्र मुख्यार्थो न घटते तत्र प्रयोजने सति उपचारः प्रवर्तते, " त्वया त्ववग्रहस्य विशेषविषयकत्वोपपादनाय यद्यदुक्तं तदन्यथैव समर्थितमिति प्रयोजनाभावान्नोपचारो युक्तः, यदि मां शिष्यो भूत्वा पृच्छसि त्वं ‘कथमुपचारः क्रियमाणो घटत इति ?' ततः शृणु समाकर्णय, सोऽपि यथा युज्यते तथा कथयामि ।। २८१ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव सम्पादयन्नाह सामण्णमेत्तगहणं, नेच्छइओ समय मोग्गहो पढमो ॥ तत्तोऽणतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ ||२८२॥ सो पुणावाया - वेक्खाओ वग्गहोत्ति उवयरिओ || एस्सविसेसावेक्खं, सामण्णं गेण्हए जेणं ॥ २८३ ॥ तत्तोऽणतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स ।। इय सामण्णविसेसा - वेक्खा जावंतिमो भेओ ।। २८४ ॥ इहैकसमयमात्र मानो नैश्वयिको निरुपचरितः सामान्यवस्तुमात्र ग्राहकोऽथविग्रहः प्रथमः, निश्चयवेदिपरमयोग्यवगम For Private And Personal Use Only ABstEx Acharya Se Kalasagarsun Gyanmandir ॥ द्वितीयः तरङ्गः ॥ ( योजित: पाठ: ) मतिनिरूपणे अर्थावग्र हे प्रेरकविशेषारेकां निरस्य व हादिया हित्वोपचा रोपपादनम् || Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMA Kenda Acharya Sulkalasssagarmail.Gyanmantire सविवरणं श्रीज्ञाना Rel प्रकरणम् ॥ ॥५८॥ विषयत्वानश्चीयकोऽयमुच्यते, ततो नैश्चयिकार्थावग्रहादनन्तरमीहितस्य वस्तुविशेषस्य योऽपाय. स पुनर्भाविनीमीहामपायं चापे- 15॥ द्वितीयः क्ष्योपचरितोऽवग्रहोऽर्थावग्रहः, स छमस्थव्यवहारिभिर्व्यवह्रियमाणत्वाद्वथावहारिकोर्थावग्रहः, उपचारे निमित्तान्तरमाह-एस्सेत्यादि, एष्यो भावी योऽन्यो विशेषस्तदपेक्षया येन कारणेनायमपायोऽपि सन् सामान्यं गृह्णाति, सामान्यग्राहित्वात्प्रथमनैश्च (योजितः यिकार्थावग्रहवदयमर्थावग्रहः, ततस्सामान्येन शब्दनिश्चयरूपात्प्रथमापायादनन्तरं किमयं शाङ्खः शब्दः शाङ्गों वेत्यादिरूपेहा पाठः) मतिनिरूपणे भवति, ततस्तद्विशेषस्य शाङ्घत्वादेरीहितस्य शाङ्घ एवायमित्यादिरूपेणापायश्च निश्चयरूपो भवति, अयमपि च भावितद्विशेषहा अर्थावग्रहेमपायञ्चापेक्ष्य सामान्यालम्बनत्वादुपचरितोऽर्थावग्रहः, इयं च सामान्यविशेषापेक्षाऽसम्भवत्स्वविशेषान्तरान्त्यविशेषं यावद्भवति, गाथात्रयेण अथवा यतो विशेषात्परतः प्रमातुर्विशेषजिज्ञासा निवर्तते तमन्त्यविशेष यावत् व्यावहारिकार्थावग्रहहापायार्थ सामान्यविशेषापेक्षा बहादियाकर्तव्या एवमिहोपचारघटना युज्यते ॥२८२-२८३-२८४ । उक्तगाथात्रयपर्यवसितमर्थमुपदर्शयति हित्वोपचासब्वत्थेहावाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं । संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ ॥ २८५।। र उपपादि. आदिसामान्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकसामयिकं ज्ञानं मुक्त्वा सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत तः,गाथाइहापायौ भवतः, ईहा, पुनरपाया, पुनरीहा, पुनरप्यपाय, इत्येवंक्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, न त्वर्थावग्रहः, अर्थावग्रहस्तु सामा- त्रयदम्पर्यान्यमात्रालम्बनमेकसामयिकं प्रथमज्ञानमेव,न तदीहाऽपायो वा संव्यवहारार्थ पुनः सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरेहापायापेक्षयैष्य थेश्च निविशेषापेक्षया चोपचारतोविग्रहः ।। २८५ ॥ यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकांक्षा प्रवर्तते तावदवग्रहः, तरतमयोगाभावे त्वपाय | रूपितः ॥ एव भवति न तस्यावग्रहत्वमिति दर्शयति ॥ ५८।। REGUAGENDER a BOLCOMAU For And Penale Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.krtuatirth.org तरतमजोगाभावे-वाओ चिय धारणा तदंतम्मि ॥ सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालंतरे सई य|| २८६ ॥ तरतमयोगाभावे ज्ञातुरग्रेतनविशेषाकाङ्क्षानिवृत्तावपाय एव भवति, तस्यावग्रहत्त्वाभावात्तनिमित्तानामहादीनामभावे तदन्ते धारणा तदर्थोपयोगाप्रच्युतिरूपा भवति, वासना वक्ष्यमाणरूपा कालान्तरे स्मृतिचेति धारणाभेदद्वयं पुनः सर्वत्र भवति ॥ २८६ ॥ सांव्यवहारिकार्थावग्रहापेक्षयेदानीं " तेणं सद्दे ति उग्गहिए ' इत्यादिसूत्रं विशेषविज्ञानपरतयाप्युपपादयितुं शक्यत इत्याहसो ति व सुभणियं विगप्पओ जइ विसेसविण्णाणं ॥ घेप्पेज्ज तं पि जुज्जइ, संववहारोग्गहे सव्वं ॥ २८७॥ वा अथवा, शब्द इति सूत्रभणितं शब्दस्तेनावगृहीत इति सूत्रे प्रतिपादितं यदि विकल्पतो विवक्षावशतो विशेषविज्ञानं गृह्येत, संव्यवहारोपग्रहे गृह्यमाणे सति सर्वं तदपि युज्यते ॥ २८७ ॥ व्यावहारिकार्थावग्रहाभ्युपगमे सविशेषं गुणनुपदर्शयन्नाहत्रिप्पेयराइभेओ, पुव्वोइयदोसजालपरिहारो ॥ जुज्जह संताणेण य, सामण्णविसेसववहारो ॥ २८८ ॥ क्षिप्रेतरादिभेदं यत्पूर्वोदितदोषजाल मेकसामयिकसामान्यमात्र ग्राहकनैश्वयि कार्थावग्रहव्याख्यातारम्प्रत्येक सामयिकत्वेऽस्य कथं क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणं १ सामान्यमात्रग्राहकत्वे च कथं बहुबहुविधादिविशेषणोक्तं विशेषग्रहणं, तथाऽस्यैव विशेषग्राहकत्वे समयोपयोगबाहुल्यमित्यादिस्वरूपम्, तस्य परिहारो व्यावहारिकार्थावग्रहे सति युज्यते, नैश्चयिकार्थावग्रहवादिभिरपि उपचाराव्याबहारिकार्थावग्रहस्यासंख्येयसमयनिष्पन्नविशेषग्राहकज्ञानरूपस्य स्वीकृतत्वेन तत्र क्षिप्रेतरादिभेदस्य बहु-बहुविधादिविशेषणोक्तविशेषग्राहकत्वस्य सम्भवात्, तस्य चाऽसंख्येयसामयिकत्वेनैकसमयोपयोगबाहुल्यस्यावकाश एव नास्ति, एवं च क्षिप्रेतरादिविशेषणकलापो मुख्यतया सांव्यवहारिकार्थावग्रह एव घटते कारणे कार्यधर्मोपचारतस्तु नैश्वयिकार्थावग्रहेऽपीत्युक्तं प्राग्, सन्तानेन च For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ॥ द्वितीया तरङ्गः ॥ (योजित: पा ठः) मतिनि रूपणे अर्था वग्रहस्यनैश्वयिकव्याव हारिकभेदौ व्युत्पाद्याs वग्रहतत्व निष्टङ्कनम् ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरण भीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ।।। ५९ ।। www.krtutirth.org सामान्यविशेषव्यवहारो लोकरूढोऽपि व्यावहारिकार्थाऽवग्रहे युज्यते, लोके विशेषोऽप्यपेक्षया सामान्यं, यत्सामान्यं तदप्यपेक्षया विशेषः इत्येवमन्त्यविशेषं यावत्, एतच्चौपचारिकावग्रहे सत्येव घटते, नान्यथा, 'यदनन्तरमीहादि प्रवृत्तिः सोऽवग्रह' इत्येवमवग्रहलक्षणस्य नैविग्रह इव विशेषग्राहिज्ञानेऽपायरूपे औपचारिकार्थावग्रहतया स्वीक्रियमाणेऽपि भावात् ॥ २८८ ॥ ॥ इति सविवरणे श्रीज्ञानार्णवे मतिज्ञानाऽऽद्यमेदलक्षणद्विविधावग्रहतत्त्वप्ररूपणात्मको द्वितीयस्तरङ्गः सम्पूर्णः॥ अथ तृतीयस्तरङ्गः ॥ अथ मतिज्ञानद्वितीय भेदलक्षणामीहां व्याचिख्यासुराह— इय सामण्णग्गहणा-णंतरमीहा सदत्थवीमंसा ।। किमिदं सद्दोऽसद्दो, को होज्ज व संख-संगाणं १ ॥ २८९ ॥ इत्येवं प्रागुक्तेन प्रकारेणाभिहिताऽव्यक्तवस्तुमात्रग्रहणलक्षणनैश्चयि कार्थावग्रहशब्दादिसामान्यग्रहणलक्षणव्यावहारिकार्थावग्रहात्मकसामान्यग्रहणानन्तरमीहा प्रवर्तते सा सदर्थमीमांसा, सतस्तत्र विद्यमानस्य गृहीतार्थस्य विशेषविमर्शद्वारेण मीमांसा विचारणा, किमिदं वस्तु मया गृहीतं शब्दोऽशब्दो वेत्येवंस्वरूपा, इयं विचारणा निश्चयार्थावग्रहानन्तरभाविनी, वा अथवा शाङ्खशार्ङ्गयेोर्मध्ये कोऽयं भवेत् शब्दः शाङ्खः शाङ्खों वा, इयं विचारणा व्यवहारार्थावग्रहानन्तरभाविनी, यद्यपीत्थं विचारणा संशयात्मिका नेहा, तथाप्यनयाऽनन्तरभावी व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरः अन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायाभिमुख एव बोध उपलक्षित ईहा || तद्यथा-" अरण्यमेतत् सवितास्तमागतो, न चाधुना सम्भवतीह मानवः । प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ॥ १ ॥ " इति ॥ एतेन स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयानन्तरं पुरुषधर्मव्यतिरेकतः स्थाणुधर्मसमन्वयतश्च प्रायः स्थाणुरेवायमिति बोध ईहेत्युपदर्शितम्भवतीति ।। २८९ ॥ अथ मतिज्ञानतृतीय भेदस्यापायस्य स्वरूपमाह For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ( योजित: पाठ: ) द्वितीय तरङ्गो पसं हारः । तृतीय तरङ्गोपक्रमः मतिज्ञान निरूपणे द्वि तीयभेद - रूप-ईहा तव निरू पणम् ॥ ॥ ५९ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire SERIE RASHRECAUSA महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेव त्ति जं न संगस्स ॥ विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगमवइरेगभावाओ ॥ २९० ॥ व्याख्या-भधुरस्निग्धादिगुणत्वात् शङ्खस्यैवायं शब्दो न शृङ्गस्य इत्यादि यद्विशेषविज्ञानं सोऽपायो निश्चयज्ञानरूपः, तत्र हेतुः, अनुगमव्यतिरेकभावतः इति, पुरोवयर्थधर्माणामनुगमभावात् तत्राविद्यमानार्थधर्माणां व्यतिरेकभावात्, अनुगमव्यतिरेको अस्तित्वनास्तित्वनिश्चयो । अयं च व्यवहारावग्रहानन्तरभावी अपाय उक्तः। निश्चयावग्रहानन्तरभावी तु श्रोत्रग्राह्यत्वादिगुणतः शब्द एवायं न रूपादिरिति ।। २९० ।। अथ मतिज्ञानतुरीयभेदलक्षणां धारणां सभेदामाहतयणंतरं तयत्था-विच्चवणं जो य वासणाजोगो ॥ कालंतरे य जं पुण-रणुसरणं धारणा सा उ ॥२९॥ व्याख्या-तस्मादपायादनन्तरं यत्तदर्थादविच्यवनम्, उपयोगमाश्रित्याभ्रंशः, यश्च वासनाया जीवेन सह योगः सम्बन्धः, यच्च तस्यार्थस्य कालान्तरे पुनरिन्द्रियैरुपलब्धस्यानुपलब्धस्य वा एवमेव मनसाऽनुस्मरणं स्मृतिर्भवति, सेयं पुनखिविधाऽप्यर्थस्यावधारणरूपा धारणा विज्ञेया, वासना च तदावरणक्षयोपशमरूपा ज्ञेया॥ २९१ ॥ इदमन्त्रैदम्पर्य-धारणाया अविच्युतिलक्षणभेदस्य दधिोपयोगमाश्रित्याभ्युपगमादेव पराभ्युपगतनिरन्तरसमानविषयकज्ञानसन्तानलक्षणधारावाहिकज्ञानफलस्य स्थिरार्थग्रहणस्योपपत्तौ निष्प्रयोजनमेव धारावाहिकज्ञानकल्पन, पूर्वज्ञानमुत्पाद्य व्यपरतव्यापारस्य कारणस्य पुनव्योपारान्तराभावेन कारणाभावाचन निरन्तरज्ञानसन्तानलक्षणधा(सप्तचत्वारिंशपत्रादिह यावद्योजितःपाठः) रावाहिकज्ञानाभ्युपगमो युज्यते न चैकापायोत्पत्तावपि सामग्रीसत्त्वात्पुनस्तदुत्पत्तेरवारणीयत्वात्तत्सन्तानोत्पचिर्नासङ्गतेति वाच्यम्, अपायस्यापायोत्पत्तिप्रतिबन्धकत्वात्प्रागभावस्य तद्धेतुत्वाद्वा पुनस्तदुत्पत्त्यापत्तेरभावात्, अन्यथैकवारं घटोत्पादेऽपि सा ॥ तृतीय तरङ्गः॥ (योजितः पाठः) मतिज्ञाननिरूपणे अपायस्वरूप तृतीयभेदस्य धारणास्व रूपचतुर्थ भेदस्य तद्भे दस्य च निरूपणम् ॥ RRESTER Fat PW And Penal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना मग्रीमहिम्ना कपाले पुनस्तदुत्पत्त्यापत्तिप्रसङ्गादिति चेत्, उच्यते, घटोऽयं घटोऽयमित्यनुभवधारादर्शनेन तदपलापो दुष्करोऽपायसत्त्वेऽपायान्तरोत्पत्तिप्रतिबन्धस्याप्रामाणिकत्वात् स्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमवासनाजनकत्वेनापायजन्यापायपरम्पराया अवश्याम्युपेयत्वादीहावग्रहादिभेद इवापायनानात्वेऽप्युपयोगभेदानापचेरेकसन्ततिकैकविषयकज्ञानस्यैवोपयोगत्वात् , तस्य च नानात्वेऽप्येकत्वाविरोधात् ततश्चापायसमानाकारस्मृतिजननी स्मृतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपा वासना विजृम्भते, कालान्तरे च तद्विषयिणी स्मृतिः प्रवर्तते इति,यद्यपीयं भिन्नोपयोगरूपत्वाभावाचाधिकीभवितुमुत्सहते, तथापि क्षयोपशममहिम्नाऽव्यक्ततया स्थित पूर्वज्ञानमेबोद्बोधकवशात् स्मृत्युपयोगरूपतामास्कन्दत्कथञ्चिदभेदोपविद्धं सन्तानगामित्वलक्षणं भेदमास्कन्दतीति द्रष्टव्यं, ननु स्मृतिने प्रमाऽतीतश्यामत्वे वर्तमानावगाहिन्याः पाकरक्ते श्यामोध्यमिति प्रतीतेरिवातीततत्तांशे वर्तमानत्वावगाहिन्यास्तस्या अयथार्थत्वात्तत्ताविशिष्टस्यानागतवर्तमानस्य वर्तमानत्वानुभवचलादननुभूतस्य वा तत्र वर्तमानत्वस्य ज्ञानसामग्रीमहिम्नैव भानात्, अन्यथा विषयस्य वर्त्तमानत्वाझाने तत्र प्रवृश्यनुपपत्तिप्रसङ्गादत एव यदा धूमस्तदा वहिरिति व्याप्त्यप्रतिसन्धानेऽपि ज्ञानसामग्रीमहिम्नेव वन्यनुमिती बर्वर्तमानत्वज्ञानात्तत्र निःशवं प्रवृत्तिरिति चेत्, न,पाकरक्ते श्यामोऽयमिति प्रतीतेरयथार्थत्वासिद्धेरिदानीमयं श्याम इत्याकाराभावेन तत्र श्यामतांशे वर्तमानस्वानवगाहनात, अथ प्रकारतया तत्र विद्यमानत्वाभावेऽपि विशेष्यावच्छेदककालावच्छिन्नविशेषणसम्बन्धस्य संसर्गत्वात्संसर्गतया तानात्सा प्रतीतिरयथार्थेति चेत, तथापि पूर्व श्याम इत्यत्रातीतश्यामतायामिव स घट इत्यत्राऽप्यतीतधर्मवैशिष्ट्यरूपायां तचायां विद्यमानत्वप्रतिसन्धानायोगेन स्मृतियाथार्थ्यस्य बाधितुमशक्यत्वात्कादाचित्कसम्बन्धपुरस्कारेणातीतधर्मज्ञानस्याप्यप्रामाण्ये च कादाचित्कसम्बन्धेन सत्प्रतिपक्षितत्वज्ञाने हेतुरपि हेत्वाभासतां भजेव, अपि । प्रकरणम् ॥ ॥६ ॥ तृतीय स्तरक मतिज्ञाननिरूपणे धारणास्वरूपचतुर्थभेदावान्तर भेदतत्त्वनिरूपणम्॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire RCMOUC5505555 CR चानुभवस्मरणयोर्विषयकृतविशेषाभावेऽपि प्रत्यक्षज्ञानस्येदम्पदप्रयोगहेतुत्वात्संस्कारजन्यज्ञानस्य तच्छब्दप्रयोगहेतुत्वात्तदुभयामिलापवलक्षण्यात्स्मृतेरप्रामाण्येऽनुभवस्याप्यप्रामाण्यापत्तिः, स्मृतेर्याथार्येऽप्यनुभवप्रमात्वपारतन्त्र्यादप्रमात्वमितिचेत्,न,अनुमितेरपि व्याप्तिज्ञानादिप्रमात्वपारतन्त्र्येणायथार्थत्वप्रसङ्गाद्, अनुमितरुत्पत्चौ पयपेक्षा विषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्यमेवेति चेत्, न, स्मूतेरप्युत्पत्तावेवानुभवसव्यपेक्षत्वात्स्वविषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्यात्,अनुभवविषयीकृतभावावभासिन्याः स्मृतेविषयपरिच्छेदेऽपि न स्वातन्त्र्यमिति चेत्, तर्हि व्याप्तिज्ञानादिविषयीकृतानर्थान् परिच्छिन्दन्त्या अनुमितेरपि प्रामाण्य दूर एव, नैयत्येनाभात एवार्थोऽनुमित्या विषयीक्रियत इति चेत्, तर्हि तत्तयाऽभात एवार्थः स्मृत्या विषयीक्रियत इति तुल्यमिति न किञ्चिदेतत् ।। वस्तुतः स्मृतित्वप्रमात्वे जन्यत्वप्रयोज्यत्वरूपं नानुभवप्रमात्वपारतन्त्र्यं यदृच्छोपकल्पितं त्वप्रयोजकं, यदि वानुभूतधर्माश्रयत्वरूपा तत्ता स्मृतौ भासते इदन्तांशे उद्बुद्धसंस्कारस्यैव तत्तांशे स्मारकत्वात्फलबलेन तथात्वकल्पनाद्धर्मविशेषमादाय सहप्रयोगस्य समर्थनाद् ,अनुभवस्मरणयोर्विषयकृतविशेषाभावेऽपि संस्कारजज्ञानत्वेन स्मृतेस्तच्छब्दप्रयोगहेतुत्वे तु प्रमुष्टतत्ताकस्मरणादपि तच्छब्दोल्लेखप्रसङ्गात्, अनुभवे यद्धर्मवैशिष्टयभानं तस्यातीतत्वं तत्ता स्मृतौ भासत इत्यभ्युपगमे चानागतविषयकस्मरणादौ तत्तांशेऽप्ययथार्थत्वप्रसङ्गादिति विभाव्यते, तदाप्यनुभूतधर्मे विद्यमानत्वस्याबाधान तस्या अयथार्थत्वम् ।। सम्पदायानुसारिणस्त्वनुभूयमानत्वलक्षणेदन्तानुभवे भासतेऽनुभूतत्वरूपा च तत्ता स्मृतौ भासतेऽत एव स घट इति स्मृत्यभिलापस्य यः प्रागनुभूत इति विवरणं सङ्गच्छते, इदन्ताविषयकानुभवादेव च तत्ताविषयकं स्मरणमुन्मीलति तं विना तु प्रमुष्टतत्ताकं तत्, न चानुभूतत्वमेव यदि तत्ता तदा तदवगायनुमितावपि तचोल्लेखप्रसङ्ग इति वाच्यम् , उल्लेखो यदि विषयता ११ ॥ मतिज्ञानमेदधारणाप्ररूपणाप्रसङ्गेन पराभिमतस्मत्यप्रामाण्याशंकापरिहारः अनुमितिनिदर्शनेन युक्त्या च तत्प्रामाण्य व्यवस्थापन x साम्प्रदायिक तत्त्वप्रदर्शनंच RANGEECH Fat PW And Penal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R सविवरण श्रीज्ञाना नवप्रकरणम् ॥ ॥६१॥ BRECRUA तदा तदभ्युपगमेऽविवादाद, यदि पुनरभिलापस्तदा संस्कारजज्ञानत्वेन तद्धेतुत्वेन तदापत्यभावात्, तथाप्यनुभूतो घटोऽनुभूयमानो घट इत्यनुभवप्रभवस्मरणे तत्तोल्लेखप्रसङ्ग इति चेत्, न, पूर्वानुपस्थितानुभूतत्वानुभ्यमानत्वयोरेव तदन्तापदार्थत्वात्, प्रागनुभूतस्यापि कस्यचित् संसर्गत्वस्येव प्रकारत्वस्यापि सम्भवादित्याहुः, इदन्तानुल्लेख्यनुभवप्रभवस्मरणेऽपि तत्ताभानात्स्वसामग्रीमहिम्नैव तत्र तत्ता भासत इत्यन्ये, यत्तु तत्तेदन्ते स्मृत्यनुभवभासिनी अखण्डे एव वस्तुनी, एवं चेदन्तासंस्कारेणेदन्तैव तत्तया स्मयते प्रमुष्टतचाकं तु स्मरणं नास्त्येव ॥ हरिहराधनुचिन्तन( ना) च कविकाव्यमूलज्ञानवन्मनःप्रभवेति सर्वा स्मृतिरयथार्थेव, न च क्वचित्प्रमितस्यैवान्यत्रारोपात्कथमन्यत्राप्रमितायास्तचायाः स्मृताबारोप इति वाच्यम्, इदन्तायाः पृथग्भानेन विषयकत्वेन प्रत्यभिज्ञायां तत्तायाः प्रमितत्वात् स्मृताविदन्तायां तत्वारोपसम्भवात्, न च स्मृतेभ्रंमत्वे तन्नियामकनानादोषकल्पने गौरवमिति वाच्यम्, इदन्तांश उद्बुद्धसंस्कारस्यैव दोषत्वात्, इदन्तानुल्लेख्यनुभवप्रभवस्मरणेऽपि तत्तया धर्मान्तरस्यैवावगाहनान्न तस्या याथार्थ्यमिति, तत्तुच्छं, तत्तास्मृतेः पूर्वमिदन्तोपस्थिति विना तदारोपासम्भवादिदन्तोल्लेखानन्तरमेव तदारोप इत्यत्र मानाभावाद्, भावे वा इदन्तात्वेन तदुल्लखे विशेषदर्शनादारोपस्यैवाऽसम्भवात्, अपि चदन्ताविषयकसंस्कारस्य स्वरूपत एव तत्ताविषयकस्मृतित्वावच्छेदेनैव हेतुत्वाव स्मृतौ तत्तयेदन्ताभानासम्भवः, तत्वावच्छिन्नप्रकारताकस्मृतित्वावच्छेदेन तद्धेतुत्वकल्पनेतु तत्र तत्तया जगद्विषयकत्वप्रसङ्गात्,तत्तावच्छिन्दन्ताप्रकारकत्वस्य च स्वरूपतस्तत्वा प्रकारकत्वापेक्षया गौरवात्, अपि च तत्ताया अखण्डत्वे स्वरूपतस्तत्प्रकारकत्वावच्छिनं प्रत्येव प्रत्यभिज्ञानसाधारण्येनेइन्तांशे उबुद्धसंस्कारस्य हेतुत्वमुचितम्, न च प्रकारतयाऽनुभवत्वावच्छिन्नं प्रति विषयतया ज्ञानत्वेनैव हेतुत्वात्,अन्यथा दण्डाज्ञानेऽपि ॥ तृतीयस्तरङ्गः मतिज्ञाननिरूपणप्रसङ्गे युक्त्या धारणाभेदरू पस्मृति प्रामाण्यव्यवस्थापन। KAKKARA ॥६१। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym AMOURCTCHECIRCULAR तत्संस्काराद्दण्डीतिबुद्धिप्रसङ्गात्, तत्ताज्ञानं विना कथं तदनुभव इति वाच्यम्, प्रकारतया संस्काराजन्यज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रत्येवमतिज्ञानविषयतया ज्ञानत्वेन हेतुत्वात्, इत्थं च तच्छब्दप्रयोगहेतुतापि तत्ताप्रकारकज्ञानत्वेनैवेति स्मृतिप्रत्यभिज्ञयोस्तचोल्लेख इति न निरूपणप्रकिश्चिदेतत, किंबहुना ? स घटः सोऽयं घट इति स्मृतिप्रत्यभिज्ञानयोस्तत्वांशे समानाकारत्वात्प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्ये स्मृतेरपि | | सङ्गेस्मृतेः प्रामाण्यं,स्मृतेरप्रामाण्ये च तथा प्रत्यभिज्ञाया अपि तथात्वं प्रसजेदिति दुरुद्धरा प्रतिबन्दी,न चेदन्तासंस्कारस्यातीततत्तद्धर्मवैशिष्टय- प्रामाण्ये प्रस्मृतावेव हेतुत्वमिति युक्तं,एकाकारत्वभङ्गप्रसङ्गाद् गौरवाच्च, यत्तु'स्मृतेर्याथार्थेऽपि न प्रमात्वं यथार्थानुभवत्वस्यैव तत्त्वात्, माणविभागअन्यथा स्मृतेः प्रमात्वे तदसाधारणकारणस्य संस्कारस्य पृथक्प्रमाणत्वप्रसङ्गे मुनिप्रणीतप्रमाणविभागव्याघातप्रसङ्गादिति', व्याधातातत्तु स्वगृह एव प्रोच्यमानं भ्राजमानतां भजेन तु कथायां, अस्माकंतु प्रत्यक्षत्वपरोक्षत्वाभ्यां द्विधैव प्रमाणविभागाभिधानात्, शंकापरिहार: स्मृतेः परोक्षकुक्षावेव निक्षिप्तत्वान किश्चिदनुपपन्नं ।। तस्मात्सत्यप्रवृत्तिजनकत्वादनुभवस्येव स्मृतेरपि प्रामाण्यस्य निराबाधत्तात् तदुपसंहारः। साधूक्तमवग्रहेहापायधारणाभेदाच्चतुर्विधं मतिज्ञानमिति, अत्र चावग्रहादीन् शब्दोदाहरणेन सूत्रकारः प्रतिपाद्य “ एवं एएणं अभिलावेणं अव्वत्तं रूर्व रसं गंध फास" इत्याचतिदेशसूत्रमाह,ईहादीनामुभयवस्त्ववलम्बनं प्रति नियमकारणं पूरयंस्तदेवानुवदतिस्म भाष्यकार:-"सेसेसु वि रूवाइसु, विसएसु हुन्ति रूवलक्खाई ॥ पायं पच्चासन्न-तणेणमीहाइवत्थूणि ॥ २९२॥ [ शेषेष्वपि रूपादिषु, विषयेषु भवन्ति रूपलक्षाणि ॥ प्रायः प्रत्यासनत्वेनेहादिवस्तूनि ॥] प्रायः 'प्रत्यासत्तिर्हि बहुभिर्द्धः सादृश्य' तत्प्रतियोग्यनुयोगिनावेव धर्मिणावालम्ब्येहादीनां प्रवृत्तिस्वभाव इति, किमयं स्थाणुरुत पुरुष इतिवक्किमयं स्थाणुरुतोष्ट्र इति नेहोदयः, उष्ट्रे स्थाणुप्रत्यासत्यभावादत एव श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यासन्नवस्तूपदर्शनं बहुशः प्रदर्शितमिति शेषेन्द्रियप्रत्यासन्नवस्तूनि Fat PW And Penal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire सविवरण श्रीज्ञाना पाव प्रकरणम्।। ॥६२॥ BACHCECEILLGES सञ्जिवृक्षुराह-"थाणुपुरिसाइकुछ-प्पलाइसंभियकारल्लमसाइ । सप्पुप्पलणालाइ व, समाणरूवाई विसयाई ।। २९३ ॥" [ स्थाणुपुरुषादिकुष्ठोत्पलादिसम्भृतकरीलमांसादि ॥ सोत्पलनालादिवत्समानरूपादिविषयाणि ॥ ] संभियकरिल्लत्ति संभृतानि संस्कृतानि, करीलानि वंशजालफलानि, स्पष्टमन्यत् ॥४॥ ननु प्रत्यासत्तियदि स्वरूपसतीहानिबन्धमं तबैकत्र धर्मिणि दृष्टे सकलतस्प्रत्यासमवस्त्ववलम्बीहोदयप्रसङ्गोऽविशेषात, न च प्रत्यासत्तिग्रहस्य तद्धेतुत्वान्न दोष इति वाच्यम्, सद्गर्भाया: सादृश्यरूपप्रत्यासत्तेग्रहे संशयाभावात्तत्पूर्वकेहाया अप्रवृत्तेरित्यत आह सारूप्यज्ञानमीहादी, कोटिस्मारकतां भजत् ॥ नियन्तुं प्रभवत्युच्चै-रुभयस्यावलम्बनम् ॥५॥ __ स्थाणुपुरुषयोः सादृश्यज्ञाने सति हि स्थाणुदर्शनोतरमुबुद्धसंस्कारेण स्थाणुत्वपुरुषत्वोभयकोटिस्मरणेन तदुभयसहचरितधर्मवत्ताज्ञानेन दोषमहिम्नाऽसंसर्गाग्रहाच्च संशयोत्पत्तावीहादिप्रादुर्भावातत्रोभयावगाहित्वं नानियतं, एतेन ' भ्रमसंशयोत्तरप्रत्यक्षं प्रत्येव विशेषदर्शनस्य हेतुत्वात्सर्वत्र प्रत्यक्षनिर्णये ईहाया हेतुत्वमप्रमाणिकमिति' निरस्तं, संशयोत्तरमेव निर्णयाभ्युपगमाद् , वस्तुतः संशयोत्तरप्रत्यक्षत्वं न विशेषदर्शनकार्यतावच्छेदकं, संशयोत्तरत्वस्य दुर्वचत्वात, संशयोत्तरं विशेषदर्शनं विनाऽपि संशयानुत्तरप्रत्यक्षप्रसङ्गाच्च, संशयानुत्तरप्रत्यक्षे संशयाभावस्य हेतुत्वकल्पनेऽतिगौरवात् प्रत्यक्षनिश्चयत्वावच्छिन्नं प्रतीहाया हेतुत्वस्यैव युक्तत्वात्, ॥१॥ अथ " से जहा णामए केइ पुरिसे अवत्तं सुमिणं पासिज्जा" इत्यादि सूत्रमनुसृत्येन्द्रियाणामिव मनसोऽप्यवग्रहादयः स्वप्नादौ सम्भवन्तीत्याह स्वप्नादावपि शब्दादि-विषयावग्रहादयः ॥ मनसोऽपि लसन्त्येव, हृषीकव्यापृति विना ॥६॥ तृतीयस्तरङ्गः मतिज्ञाननिरूपणप्रस नेहादि. निरूपणे द्दष्टान्तीकृतप्रत्यासन्नवस्तु प्ररूणं प्रत्यासत्ति|स्वरूपं च ॥ ॥६२॥ Fat PW And Penal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire INCRECORRECICROC3% मनसोऽपि स्वमादाविन्द्रियव्यापार विनाऽवग्रहादयः प्रादुर्भवन्ति, तथाहि, स्वप्ने गीतादिश्रवणे प्रथममव्यक्तशब्दज्ञानं 12॥मतिज्ञानभवति, ततः किमयं शब्दोऽशब्दो वेतीहा प्रवर्तते, ततः शब्द एवायमित्यपायः, ततश्च धारणेति ॥ एवं जाग्रतोऽपि मनसैव | प्रसङ्गे स्वामचहलतमे तमसि घटादिपदार्थपर्यालोचनदशायां मानसा अवग्रहादयो द्रष्टव्या' । आह च-"एवं चिय सिमिणाइसु, मणसो दृष्टान्तेन सद्दाइएसु विसएसु । होन्तिदियवावारा-भावे वि अवग्गहादीया ॥२९४ ॥" [एवमेव स्वप्नादिषु, मनसः शब्दादिषु मानसावविषयेषु ।। भवन्तीन्द्रियव्यापारा-भावेऽप्यवग्रहादयः ॥] ॥६॥ अथावग्रहादीनां सूत्रोक्तक्रमनियमे हेतुमाह ग्रहादिप्ररूव्यतिक्रमोत्क्रमौ नतै-नैतेषां तत्त्वनिर्णयः ।। नेहा ज्ञेयस्वभावोऽपि, तदेते नियतक्रमाः॥७॥ पणं, अवनअनानुपूर्वीभवनं व्यतिक्रमः, पश्चानुपूर्वीभवनमुत्क्रमः, अन्यतरवैकल्यं शून्यत्वमेतैर्वस्तुनस्तत्त्वनिर्णयो न स्यात् , तदेते एव हादिक्रमवस्तुनिर्णयाय सर्वेऽपि क्रमनियमेनान्वेषणीयाः, न बनवगृहीतमीह्यते, धर्मिणोप्रसिद्धौ निरालम्बनविचाराप्रवृत्तेः, न चानी कारणप्रदहित निश्चीयते, तस्य विचारपूर्वकत्वात् , न च विचारं विनाऽपि कारणमहिम्ना तदुत्पादो युक्तो विचारस्यापि तत्कारणत्वेन शेनं च ॥ तद्विरहे कारणमहिम्न एवासिद्धेः, न चानिश्चितं धार्यते, अन्यथा सन्देहादपि तत्प्रसङ्गादिति, वस्तुनोऽपि च सामान्यविशेषरूपः स्वभावस्तथा ज्ञानयोग्यतयैव व्यवस्थित इति तस्य तथाभावो युक्तः ॥ यदाह-" उक्कमओइकमओ, एगाभावे वि वाण वत्थुस्स ॥ जं सम्भावाहिगमो, तो सव्वे णियमियकमा य ॥२९५॥" [ उत्क्रमतोऽतिक्रमत, एकाभावेऽपि वा न वस्तुनः । यत्स्वभावाधिगमः, ततः सर्वे नियमितक्रमाश्च ॥] "ईहिज्जइ णाऽगहियं, णज्जइ नाणीहियं न याणायं ॥ धारिज्जइ जं वत्थु, तेण कमोवम्गहाईओ ॥२९६॥" [ईद्यते नाऽगृहीतं, ज्ञायते नानीहितं न चाजातम् ॥ धार्यते यद्वस्तु तेन, क्रमोध्यग्रहादिका] KARE Fat PW And Penal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire सविवरण भीशाना प्रकरणम् ॥ ॥१३॥ " एतो चिय ते सव्वे, भवन्ति भिन्ना य व समकालं ॥ न बइक्कमो य तेसिं, ण अन्नहा नेयसन्भावो ॥२९७॥" [इत एव ते सर्वे भवन्ति भिन्नाश्च नैव समकालं ॥ न व्यतिक्रमश्च तेषां, नान्यथा ज्ञेयसद्भावः] ॥७॥ नन्वभ्यस्ते पुरुषेऽयं पुरुष इति प्रथममेव निर्णयः समुन्मीलति, अनुभूते च संस्कारोबोधात्प्रथममेव स पुरुष इति स्मृतिरुल्लसत्य नुभूयते च झटित्येवायं पुरुषो निरणायि. झटित्येव चैनमस्मार्षमिति च, तथा च कथमन्यतराभावे न वस्तुभावज्ञानम् ॥ आह च-"अब्भत्थेऽवाओ चिय, कत्थइ लक्खिज्जइ इमो पुरिसो ॥ अण्णत्थ धारण चिय, पुरोवलद्धे इमं तं ति ॥२९८॥"[अभ्यस्तेऽपाय एव क्वचिल्लक्ष्यतेऽसौ पुरुषः ।। अन्यत्र धारणैव पुरोपलब्धे इदं तदिति ॥] अत्रोच्यते अभ्यस्ते निर्णयस्मृत्यो-लेक्ष्यः सौम्येण न क्रमः॥ पद्मपत्रशतच्छेदे, यथा वाऽन्यत्र बुद्धिषु ॥ ८॥ उक्तापायस्मृत्योरवग्रहेहादिष्वीहादेः कालसौम्यादलक्षणेऽप्युक्तक्रमस्य प्रमाणसिद्धत्वान्न तत्र तदपलापः कर्तुं शक्थः, न हि पद्मपत्रशतच्छेदे सत्यपि कालभेदे तदलक्षणेन तदभावो नाम, न वा दीर्घशुष्कशष्कुलीभक्षणे तद्रूपदर्शनतज्जनितशब्दश्रवणतद्गन्धाघ्राणतद्रसास्वादनतत्स्पर्शोपलब्धीनां योगपद्याभिमानेऽपि कारणक्रमनियतस्तत्क्रमो प्रमाणसिद्धोऽपि नास्तीति वक्तुं शक्यते, एकदैकोपयोगस्वभावत्वान्मनसः सर्वेन्द्रियेषु तदसम्बन्धादाशुसञ्चारित्वेनैव तेनाशुकार्यजननात्, तथा च पारमर्ष-"जो मणे देवासुरमणुआणं, तंसि तंसि समयंसिति ॥" ननु भवतां मनसः शरीरव्यापित्वेन सर्वदा सर्वेन्द्रियसंयोगाधुगपदनेकज्ञानोत्पनिर्दुर्वारा तदणुत्वाभ्युपगम एवेन्द्रियेषु तत्संयोगक्रमेण ज्ञानक्रमसम्भवादिति चेत्, न, अणुत्वाभ्युपगमेऽपि तस्य रसनेन्द्रियसंयोगकाले स्वसंयोगस्य दुनिंवारत्वाद् युगपदुभयज्ञानोत्पतेरनिवार्यत्वात्, अदृष्टवैचित्र्यमहिम्नैव तद्वारणे च चित्तोपयोगक्रमादेव ज्ञानक्रम तृतीयः तरङ्गः॥ मतिज्ञानप्रसङ्गे अवहा|दिक्रम हेतु प्रदर्शनं तत्र चाभ्यस्ते कमाभावशंका परिहारश्च ॥ Fat PW And Penal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KHESARI-RINCRECT इति युक्तमभ्युगन्तुमिति दिग् ॥ तदिदमभिप्रेत्याह-"उप्पलदलसयवेहे ब्व, दुब्विभावत्तणेण पडिहाई ।। समयं व सुकसक्कु-६॥ मतिज्ञान लिदसणे, विसयाणमुवलद्धी ॥ २९९ ॥" [ उत्पलदलशतवेध इव दुर्विभावत्वेन प्रतिभाति ।। समयं वा शुष्कशपकुलीदवने प्ररूपणप्रसविषयाणामुपलब्धिः ॥] अभ्यासस्थलेऽप्ययं पुरुष इति निर्णयेऽयं पुरुष इति प्रयोगे कुत इति कस्यचिदाकाङ्क्षायां करचरणा- | सामान्यदिमचादिति प्रयोगात्तदनुगुणहादेरनुमानात्तत्र तत्सत्त्वं सिद्धयतीत्यप्याहुः ॥ ८॥ अथ 'भेयवत्थू समासेणं' ति नियुक्तिगाथा:- | तो विशेषतवयवेनावग्रहादयो मतिज्ञानस्य सामान्यभेदा इत्युक्तमिति विशेषभेदाः किमधिका अपि सम्भवन्तीति शिष्याकाङ्क्षायामाह- श्रमतिज्ञानश्रोत्रादिभेदात् षोढा स्यु-र्यदर्थावग्रहादयः।। चतुर्दा व्यञ्जनं तेन, स्युरष्टाविंशतिर्भिदाः॥९॥ भेदप्रदर्शनं श्रोत्रादीन्द्रियपञ्चकं नोइन्द्रियश्च मन आश्रित्यार्थावग्रहादयश्चत्वारो भेदाः पड्भिः संगुणिताश्चतुर्विशतिर्भवन्ति तत्र च तत्र परारेका | नयनमनोबजेन्द्रियभेदाच्चतुर्विधव्यञ्जनावग्रहप्रक्षेपे पूर्वोक्तभेदचतुष्टयापेक्षया विस्तरेण वक्ष्यमाणभेदापेक्षया च सरक्षेपेणाष्टा- परिहारश्च ।। विंशतिः श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्य भेदाः सम्पद्यन्ते । आह च-"सोइंदिआइभेएण, छब्बिहावग्गहादओऽभिहिया ॥ ते हुन्ति चउव्वीस, चउब्विहं वंजणोग्गहणं ॥३००॥ अठ्ठावीसइभेयं एवं सुअणिस्सिों समासेणं ति ॥ [श्रोत्रेन्द्रियादिभेदेन पड्विधा अब ग्रहादयोऽभिहिताः ॥ ते भवन्ति चतुर्विंशतिचतुर्विध, व्यञ्जनावग्रहणम् ॥ अष्टाविंशतिभेदमेतच्छृतनिश्चितं समासेन ॥] ॥९॥ अथ केचित्तु चतुर्विधव्यञ्जनावग्रहस्थले औत्पत्तिक्यादिभेदेन चतुर्विधमश्रुतनिश्रितं प्रक्षिप्य सामान्यतो मतिज्ञानस्याष्टाविंशतिभेदानुपपादयन्ति तन्मतं पूर्वमनूध दूषयति व्यञ्जनावग्रहस्थाने, चतुर्दा श्रुतनिश्रितम् ॥ केचित् क्षिपन्ति तदस-त्तदन्तर्भूतिसम्भवात् ॥१०॥ RECEOCTOBER Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym INI सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम् ॥ PUCEROSCACHECK नखलु व्यञ्जनावग्रहार्थावग्रहाववग्रहत्वेन रूपेणकीकृत्यौत्पत्तिक्यादिभेदचतुष्टयप्रक्षेपेण श्रुतनिश्रिताश्रुतनिश्रितसाधारण्येनाष्टाविंशतिभेदपरिगणनं युक्तं, औत्पत्तिक्यादीनां चतुर्णां भेदानामवग्रहादिष्वेवान्तर्भावात्, तथा हि 'द्वितीयकुर्कुटमन्तरेण मदीयः कुकुंटो योद्धव्य ' इति राज्ञादिष्टे परीक्षापात्रस्य भरतस्यौत्पत्तिकी प्रादुर्बभूव, तत्र दर्याध्मातत्वादयं खप्रतिविम्बं दृष्ट्वा युध्यतेत्यवगृह्यते, तत्प्रतिविम्बं किं तडागपयःपूरादिगतं तदनुगुणीभवति दर्पणादिगतं वेति तदनन्तरमीद्यते, ततः कल्लोलादिभिः प्रतिक्षणमपनीयमानत्वादस्पष्टत्वाच्च जलादिगतं विम्ब न तथा, स्थिरत्वेन स्पष्टत्वेन चरणघाताद्यन्वीक्षणयोग्यत्वेन च दपेणगतमेव तत्तथेति निश्चीयते इति । आह च-"केइत्त बंजणोग्गह-वज्जे छोदणमेयम्मि ॥३०१॥ अस्सुअणिस्सिअमेयं, अट्ठावीसइविहन्ति भासन्ति ॥ जमवग्गहो दुभेओ-वग्गहसामन्नो गहिओ ।। ३०२॥" [ केचित्तु व्यञ्जनावग्रहवर्जे क्षिप्त्वैतस्मिन् ॥ अश्रुतनिश्रित काचतुव्यञ्जनावग्रहवजापतास्मन् ॥ अवतानाजत मेवमष्टाविंशतिविधमिति भाषन्ते ।। यदवग्रहो विभेदोऽवग्रहसामान्यतो गृहीतः।]" चउवइरित्ताभावा, जम्हा ण तमोग्गहाइओ भिन्नं ।। तेणोग्गहाइसाम-नओ अतं तग्गयं चेव ॥३०॥"[चतुर्व्यतिरिक्ताभावाद्,यस्मान तदवग्रहादयः ।। भिन्नं तेनावग्रहादिसामान्यतश्चतत्तद्गतमेव ।।] किह पडिकुकुडहीणो, जुज्झे विवण वग्गहा ईहा।। किं सुसिलिट्ठमवाओ, दप्पणसंकेतविम्ब ति ॥३०४॥" [कथं प्रतिकुकूटहीनो युध्येत बिम्बेनाऽवग्रह ईहा ।। किं सुश्लिष्टमपायो दर्पणसंक्रान्तप्रतिबिम्बमिति । ] नन्नवग्रहादिस्य औत्पत्तिक्यादीनामपि कथश्चिभेदोऽस्त्येव सर्वथा भेदस्त्ववग्रहोत्तरविशेषाणामपि नास्त्येवावग्रहत्वेन तयोरभेदादिति चेत्, न, अश्रुतनिश्रितविभाजकोपाधीनामवग्रहादिविभाजकोपाध्यच्याप्यत्वेनोत्तरभेदासम्भवात्, औत्पत्तिक्यादिभेदेन मतिज्ञानस्य साक्षाद्विभागे तु न्यूनत्वापातात, अवग्रहाधन्तर्भावेन विभागे त्वाधिक्याद् व्याप्यव्याप्योपाधिना साक्षाद्विभागाध्योगाच्च, अत एव श्रुत तृतीयस्तर गतिज्ञानप्ररूपणप्रसकेऽष्टाविंशतिसंख्यापू. रणाय परकल्पितस्यौत्पत्तिक्यादिक्षेपणस्य तेषामवनहादिष्वन्तर्भावेन परिहरणम्॥ ॥६४॥ Fat PW And Penal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org निश्रितत्वाश्रुतनिश्रितत्वाभ्यां मतिज्ञानत्वसाक्षाद्व्याप्योपाधिभ्यां द्विघा तद्विभागः सूत्रोक्तो न विशीर्येत मतिज्ञानत्वेन तयोरभेदेऽपि प्रातिस्विकरूपाभ्यां भेदसम्भवाद्, अवग्रहत्वेनाभिन्नानामिव श्रोत्राद्यवग्रहाणाम् । तदुक्तम्- " जह उग्गहाइसामण्ण वि, सोइंदिआइणा भयो | तह ओग्गहाइसामण्णए वि, तमणिस्सिया भिण्णं ॥ ३०५ ॥ " [ यथाऽवग्रहादिसामान्येऽपि श्रोत्रेन्द्रियादिना भेदः । तथाऽवग्रहादिसामान्येऽपि तदाश्रितत्वाद् भिन्नम् ॥ ] एवं च श्रुतनिश्रितविभाजकोपाधिभिरौत्पतिकत्वादिभिस्तस्यापि चतुर्द्धा विभागः सङ्गच्छते । तस्मान्मतिज्ञानस्य श्रुतनिश्रितत्वा श्रुतनिचितत्वाभ्यां सामान्यतो द्विधाविभागः, श्रुतनिश्रितस्य चाष्टाविंशतिर्भेदैरश्रुतनिश्रितस्य च चतुर्भिर्भेदैर्विशेषविभाग इति विवेकः, अत एव सम्पूर्ण श्रुतनिश्रितं प्ररूप्य 'से किं तं अस्सुअणिस्सिअं ' इत्यादिना ग्रन्थेन सूत्रेऽश्रुतनिश्रितप्ररूपणं प्रत्यज्ञायि, अन्यथा तु प्रागेव तदनिरूपणे न्यूनत्वप्रसङ्गः । आह च- 'अट्ठावीसइमेअं, सुअणिस्सिअमेव केवलं तम्हा || जम्हा तम्मि समते, पुणरस्सुअणिस्सिअं भणिअं ।। ३०६ ॥ [ अष्टाविंशतिभेदं श्रुतनिश्रितमेव केवलं तस्मात् ॥ यस्मात्तस्मिन्समाप्ते, पुनरश्रुतनिथितं भणितम् ॥ ] ननु मतिज्ञानस्यावग्रहादयश्चत्वार एव भेदा अवग्रहादिभेदास्तु प्रभेदा इति कथमुच्यतेऽष्टाविंशतिर्मतेर्भेदा इति, सत्यम्, प्रभेदानामपि भेदत्वेन विवक्षणादाधिक्येऽपि तावतां भेदानां तावदन्यतरत्वेन मतिज्ञानत्वव्यापक (प्य) त्वाद्विभागवचनस्याव्याघाताच्च सम्प्रदायानुरोधादिकं विनैव हि क्वचिदेतादृशविभागस्याप्रामाणिकत्वमिति, अथवा 'समासेन भेदवस्तूनि' इत्यत्र भेदवस्तुत्वे समासेनेत्यनुकूलं विशेषणं प्रभेदास्तु बहवोऽपि भवन्तीत्यर्थः ॥ १० ॥ अथैवमष्टाविंशतिविधत्वं मतिज्ञानस्योपदर्श्य प्रकारान्तरेण प्रभेदबाहुल्यघटितं बहुभेदत्वमुपदर्शयति For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kailassagarsun Gyanmandir 1 मतिज्ञानप्ररूपणप्रस त्रेऽष्टाविशतिसंख्या पूरणाय परकल्पितस्य अश्रुतनिश्रितभेद क्षेपणस्य तेषामवग्रहादावन्तर्भावप्रदर्शना स्परिहारः ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym विवरण SAGES प्रकरणम् ॥ ॥६५॥ नाना-नानाविध-क्षिप्रा-ऽनिश्रिता-निश्चित-ध्रुवैः ॥ षट्त्रिंशच्छतभेदाः स्युः सेतरावग्रहादिभिः ॥११॥४॥ तृतीयः अवग्रहादयः प्रागुक्तदिशाष्टाविंशतिभेदभाजो बहुबहुविध(धादिभिः)नानानानाविधक्षिप्राऽनिश्रितानिश्चितध्रुवैः सप्रतिपक्षैः तरङ्गः॥ द्वादशभिर्मेदैर्गुणिताः षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि भेदा भवन्ति । अत्र बहुबहुविधेतिस्थाने नानानाविधेति बन्धानुलोम्यादुक्तम् । मतिज्ञानप्रतदाह-"जं बहुबहुविहखिप्पा-ऽणिस्सिअणिच्छियधुवेयरविभिन्ना । पुणरुग्गहादओ तो, तं छत्तीसतिसयभे ॥३०७||" [यद् रूपणप्रसबहुबहुविघक्षिप्राऽनिश्रितनिश्चितधुवेतरविभिन्नाः ।। पुनरवग्रहादयस्ततस्तत्पत्रिंशत्रिशतभेदम् ॥]॥११॥ अथ बवादीनां स्वरूपमाह- विशेषतो नानार्थानां बहुत्वं हि, पृथग्जात्यवभासिता ॥ नानात्वान्नैवत्वेन न) तज्ज्ञप्ति-रबहुत्वं प्रचक्षते ॥१२॥ मतिज्ञानप्रत्येक बहुधमाणां, ज्ञान बहुविधं मतम् । प्रत्येक स्वल्पधमाणां, विज्ञान तद्विपर्ययः ॥ १३ ॥ प्रभेदबहुक्षिप्रं त्वरितमुत्पन्न-मक्षिप्रं तु विलम्बितम् ॥ अनिश्रितमलिङ्गोत्थं, निश्रित लिङ्गसम्भवम् ॥ १४ ॥ स्वप्रदर्शनिश्चितं संशयातीतं, तेन अस्तमनिश्चितम् ।। सर्वदा यत्तथाग्राहि, ध्रुवं तच्चान्यदाऽध्रुवम् ॥१५॥ नार्थ बहुबहूनां विषयाणां प्रातिस्विकधर्मप्रकारकग्रहो बहुज्ञान, यथा तत्त्वं बहुत्वं च 'सकलस्वविषयनिष्ठयावदसाधारणधर्मप्रकारकत्वं,' बहुविधादि| साकल्यब्चानेकाशेषत्वं, न त्वशेषत्वमात्र, यावचं च व्यापकत्वं, तेन घटोऽयमित्याद्यव्यावहारिकावग्रहेऽशेषस्वविषयनिष्ठाशेष- भेदनिरूधर्मग्राहिण्यपि बहुत्वव्यवहाराभावे न क्षतिर्ने वा नानातूर्यजनितेषु शब्देषु कतिपयविशेषावभासेऽपि बहुत्वव्यवहारः, कतिपयविशेषावभासेऽपि ततः स्वल्पविशेषापेक्षया बहुत्वव्यवहाराद् , यावत्वमनेकत्वमेव वा विवक्षित, नैश्चयिकार्थावग्रहापेक्षयाऽऽद्य व्यावहारिकार्थावग्रहेऽपि बहुत्वव्यवहारे तु साकल्यमप्यशेषत्वमेव, अबहुत्वं च तद्भिमज्ञानत्वं,' तत्वं चासाधारणधर्मानुपरागेण SAR पर्ण ॥ ROGROGREC Fat PW And Penal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya Shalatan Gyaan R बहुविषयग्राहित्वं 'नानाशब्दा एते' इत्यादिसामान्यज्ञानं हि तदिति, एवम् अशेषस्वविषयनिष्ठानेकासाधारणधर्मव्याप्यबहुतरधर्मावगाहिज्ञान' बहुविधं, न चैवं बहुविधस्यापि बहुत्वापत्तिस्तल्लक्षणसत्त्वादिति वाच्यम्, उपधेयसङ्करेऽप्युपाध्योरसङ्कराद्विवक्षाद्वैविध्येन तत्र द्विधाव्यवहाराच्च, अबहुविधत्वं च न बहुविधभिन्नज्ञानत्वं, बहुज्ञानेऽतिव्याप्तेः, किन्त्वच हुविधमित्यत्र नञः पर्यदासाश्रयणाद्'अशेषस्वविषयनिष्ठानेकासाधारणधर्मव्याप्यस्वल्पतरधर्मावगाहित्वं तदिति, बहुबानेन पृथग्भिन्नजातीयतया गृहीतेषु नानाशक्खपणवादिशब्देषु एकक शखभेयोदिशब्दमाश्रित्य स्निग्धत्वमधुरत्वतरुणमध्यमपद्धपुरुषवाद्यत्वा- दिबहुविधधर्मवशिष्टचं गृहदेव हि बहुविधज्ञानमुदाहियते, तत्र स्निग्धमधुरत्वादिस्वल्पधर्मवैशिष्टयज्ञानश्चाबहुविधमिति । क्षिप्रत्वं च नाविलम्बितोत्पत्तिकत्वम्, अक्षिप्रत्वञ्च न विलम्बितोत्पत्तिकत्वं, सामग्रीसन्निधानासन्निधानाभ्यां सर्वस्यापि विलम्बिताविलम्बितोत्पत्तिकत्वात्,नापि विमर्शानपेक्षोत्पत्तिकत्वं क्षिप्रत्वम्, अपायस्य सतो विमर्शसव्यपेक्षत्वनियमात्, किन्तु 'झटित्युपनतसामग्रीकत्वं' क्षिप्रत्वं, अतादृशत्वं त्वक्षिप्रत्वमिति ॥'झटिति सामग्रथुपनिपातनियामकादृष्टजन्यतावच्छेदकजातिविशेषववं' क्षिप्रत्वमित्यपि कश्चित्, 'प्रबलतरसंस्काराधीनझटित्युपस्थितिकविमर्शजन्यत्वं' तत्त्वमित्यन्ये ॥ अनिश्रितं लिङ्गानपेक्षोत्पत्तिकं पताकादिनिश्रया देवकुलादिदर्शनवद्, यम लिङ्गनिश्रामपेक्षते यद्यप्यन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणरूपामीहामपेक्षमाणः सर्व एवाऽपायो लिङ्गमपेक्षत एव तथाप्यनुमितिसामग्रीसम्पत्तिरूपा लिङ्गनिश्रा यत्र नास्ति तदनिश्चितं, अन्यत्तु निश्रितमिति ध्येयम् । निश्चितत्वमसन्दिग्धविषयकत्वं 'प्रामाण्यसंशयादिरूपविषयसंशयसामग्रथनास्कन्दितत्वम्', तद्विपरीतत्वमनिश्चितत्वं, ध्रुवत्वं च 'सर्वकालमेकजातीयसामग्रीसमुत्पाद्यत्वम्', अतादृशत्वं त्वध्रुवत्वमिति । आह च अMCGleeCUPECHAR ॥मतिज्ञानप्ररूपणप्रसङ्गे बहुबहुविधादिदाना णानि तात्पर्यप्रकाशन EGISTRA Fat PW And Penal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सचिवरण श्रीज्ञाना णेवप्रकरणम्॥ निजर SHORE " नाणासहसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजातीयं ॥ बहुविहमणेगभेयं, एकेकं णिद्धमहुराइ ॥ ३०८॥ [नानाशब्दसमूह, 13॥ तृतीयः बहु पृथग्जानाति भिन्नजातीयम् ।। बहुविधमनेकमेदमे-कैकं स्निग्धमधुरादिम् ॥] "खिप्पमचिरेण तं चिय, सरूवओ जं अणि- तरङ्गः॥ स्सिअमलिंगं ।। निच्छियमसंसयं , धुवमच्चतं न य (उ) कयाइ ॥३०९||" [क्षिप्रमचिरेण तमेव स्वरूपतो यमनिश्रितमलिङ्गम् । मतिज्ञाननिश्चितमसंशयं ध्रुवमत्यन्तं नतु कदाचित् ॥]" एचो चिय पडिवक्खं साहिन्जा [एतस्मादेव प्रतिपक्षं कथयेद् ] ||३१०॥" प्ररूपणनिश्रितानिश्रितयोश्चायमपि विशेषः, यद् 'अतस्मिंस्तद्धर्मग्रहो निश्रितं' यथा गव्यश्वत्वग्रह इति, इतरच्चानिश्रितमिति ॥ आह च प्रसङ्गे बहु"निस्सिए विसेसो वा ॥ परधम्मेहि विमिस्सं, निस्सिअमविणिस्सियं इयरं ।।३.१०॥" [निश्रिते विशेषो वा, परधर्मविमिश्र बहुविवादिनिश्रितमविनिश्रितमितरत् ] स्यादेतत् , बवादयो भेदाः स्पष्टार्थग्राहकष्वपायादिषु सम्भवन्तु, अस्पष्टार्थग्राहिण्यर्थावग्रहे तु कथं भेदलक्षणतत्सम्भवः? न च नैश्चयिकार्थावग्रहे तदसम्भवेऽपि व्यावहारिकार्थावग्रहे तत्सम्भवान्न दोष इत्युक्तमिति वाच्यम्, तथापि व्यञ्ज- संवादः तत्र नावग्रहे सर्वथा तदसम्भवेनोक्तसङ्ख्याव्याघातादिति, मैवं, व्यञ्जनावग्रहादीनामप्यपायादिकारणत्वेन तद्गतबहुत्वादिविशेषस्य चारेकापरियोग्यतया व्यञ्जनावग्रहादिष्वपि सत्वाद्, 'न ह्यविशिष्टात् कारणाद्विशिष्टं कार्यमुत्पत्तुमर्हति' कोद्रववीजादेरपि शालिफलादिप्रसव- हारादिप्ररूप्रसङ्गादिति सम्प्रदायः। ननु कार्यगतयावद्धर्माणां कारणगतत्वाभ्युपगम एव सूक्ष्मतारूपयोग्यतया तत्र तत्सचमभ्युपगमाई पणं च ॥ स्यात्, तच्च साङ्ख्यप्रक्रियादूषण एव दूषितं 'अविशिष्टात् कारणाद्विशिष्ट कार्यानुत्पत्तिस्तु' तादृशातिशयव्यतिरेकाद्वा तथाविधसहकारिव्यतिरेकाद्वेत्यन्यदेव, तथा च कथमेतदुक्तमिति चेत्, न, एकसन्तानगामित्वरूपयोग्यतां पुरस्कृत्य बह्वादिविशेषस्य व्यञ्जनावग्रहादिषु सम्भवाभिप्रायेण तदभिधानात् । नन्वेवविध वैचित्र्यं मतिज्ञानस्य विवक्षाभेदादनवस्थितमित्यनवस्थितो विभागा 14 Fat PW And Penal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire S SHRAICTERCIBRUAR स्यादिति चेत्, सत्यं, सामान्यविशेषभावेन विभागस्य विवक्षाधीनव्यवस्थितिकत्वाद् बाह्यनिमित्तस्यालोकविषयादिकस्य । स्पष्टाध्यक्तमध्यमाल्पमहत्त्वसन्निकर्षप्रकर्षादिभेदेन वैचित्र्यादभ्यन्तरनिमित्तस्य चावरणक्षयोपशमोपयोगोपकरणन्द्रियरूपस्य शुद्धाशुद्धमतिभेदेन वैचित्र्यान्मतिज्ञानस्य नानात्वसम्भवाद् यथोक्तनिमित्तद्वयस्य केनचिद्रूपेण विशेषे तु मतिज्ञानवतां जीवानामनन्तत्वात्तेषां क्षयोपशमादिभेदेन मतिज्ञानस्यानन्तत्वात् ,आह च-"एवं वज्झन्भन्तर-णिमित्तबइचित्तओ मइबहुतं ।। किंचिम्मेत्तविसेसेणं,भिज्जमाणं पुणोणतं ॥३१॥"[एवं बाह्याभ्यन्तरनिमित्तवैचित्र्यतो मतिबहुत्वम् ।। किश्चिन्मात्रविशेषेण, भिद्यमानं पुनरनन्तम् ॥] नन्ववग्रहादयः स्पष्टार्थनिर्भासाभावान ज्ञानं,न च संशयाधनन्तर्भावात्तेषां ज्ञानत्वमनुमानवदिति वाच्यम्,असिद्धेः,तथाहि, सन्दिग्धे ज्ञानसंशयस्तावद् व्यक्त एव ज्ञानप्रामाण्यसंशयमहिम्ना जनितस्यापि विषयसंशयस्यैकोपयोगसन्तानान्तर्भावित्वेन निश्चयस्वरूपपरावर्तकत्वात्सन्दिग्धे च कदाचिनिश्चयाद्विपर्ययोऽपि भवत्येव, दोषमहिम्ना विपरीतविशेषदर्शनेन सत्यकोटिज्ञानप्रतिबन्धे र्थात्तत्सम्भवात्, अथवेहैव स्पष्टं संशयरूपां गामश्वत्वेनावगाहमानं निश्रितज्ञानं च व्यक्तं विपर्यय एवेति किमितरगवेषणया, नैश्चयिकोर्थावग्रहश्च स्पष्टमनध्यवसाय एवानिर्देश्यसामान्यमात्रग्राहित्वादिति । आह च-"इह संसयादणन्त-भावाओ वग्गहादओ नाणं । अणुमाणमिवाह,ण सं-सयाईसम्भावओ तेसुं ॥३१२।। नणु संदिद्ध संसय-विवजया संसओत्थ चेहा वि।। वच्चासो वा निस्सिअ-मवग्गहोऽणज्झवसिअं तु ॥३१३॥ "[इह संशयाद्यनन्त वादवग्रहादयो ज्ञानम् ॥ अनुमानमिवाऽऽह,न,संशयादिसद्भावतस्तेषु ।। ननु संदिग्धे संशय-विपर्ययौ संशय इह चेहापि ॥ व्यत्यासो वा निश्रितमवग्रहोऽनध्यवसितं तु] अबाहुः। यदुक्तम्'सन्दिग्धे संशयविपर्ययाविति । तदयुक्तम्-वस्त्वप्रापकसन्दिग्धत्वस्य तत्राभावात्, अन्यादृशसन्दिग्धत्वमात्रेण चाज्ञानतानापत्ते मतिज्ञान प्ररूपणप्रसङ्के तढ़ेदानां निमित्त मेदाद्विभागवैचित्र्यं, अवग्रहादीनां ज्ञानत्वव्यवस्थापनं च ॥ ECRECURES Fat PW And Penal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम् ॥ ॥ ६७ ॥ www.khatirth.org रन्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात्, न खलु धूमबलाकादेः सकाशात्सम्यग्दहनजलादौ निश्चितेऽपि मुखेन तनिश्चयं ब्रुवतामपि सर्वषां श्रमातॄणां चेतसि शङ्कामात्र विनिवर्त्तनेन च ते सर्वेऽपि निश्चितं वस्तु न प्राप्नुवन्तीति । वस्तुतः सन्दिग्धस्थले सन्देहाननुविद्धस्वरूपो निश्चय एव वस्तुप्रापको ज्ञानप्रामाण्यसंशयाद्विषयसंशयस्तु भिन्नोऽप्यन्तर्गत एवेति, न तत्र निष्कम्पप्रवृत्तिजनकताव - च्छेदकनिश्चयत्वाभावोऽपि सुवचः, ईहायाश्च संशयत्वं प्रागेव निराकृतं निश्चयादन्यज्ञानमात्रस्यैव संशयत्वेनाज्ञानताभ्युपगमे निश्वयोपादानलक्षणस्यापि सर्वथाऽज्ञानत्वप्रसङ्गे निश्चयस्याप्यज्ञानतापत्तिः, 'न ह्यविशिष्टात् कारणात्कार्योत्पत्तिः' इति परधर्ममिश्र च निश्रितं यद्यत्र संगृह्यते तदा तत्र तटस्थतयैव परधर्म मिश्रितत्वं विवक्षणीयं यथा गौरवायं केवलमश्व इव प्रतिभातीति न त्वत्यन्तोपरागेणेति, न, तद्यज्ञानं परधर्माणामाशंकामात्रमेव विमिश्रणम्, अनिश्रिते तु वस्त्वभावस्यैवाशंका न तु परधर्माणामित्यस्याप्ययमेवार्थः, उक्तोदाहरणे इवार्थसादृश्यस्यैव भानात्, अवग्रहश्च नाऽनध्यवसाय एकोपयोगान्तर्भूतत्वलक्षणयोग्यतया तत्राध्यवसायसम्बन्धात्, अतिमत्तमूच्छितानामेव ज्ञानस्य योग्यतयाऽप्यध्यवसाय मस्पृशतोऽनध्यवसायत्वाभ्युपगमाद्, आह च - "ह सज्झमोग्गहाई-णं संसयाइत्तणं ॥ ३१४ || ” [इह साध्यमवग्रहादीनां संशयादित्वम् ] यद्यपीयं वस्तुस्थितिस्तथाप्यभ्युपगम्योच्यतेन निश्रितादयोऽज्ञानं ज्ञानं यत्संशयादयः ॥ वस्त्वेकदेशग्राहित्वं, समानं निश्चयेऽपि नः ॥ १६ ॥ संशयादयोऽपि ज्ञानमेव वस्त्वेकदेशगमकत्वाद्, इह हि घटादिकं वस्तु मृन्मयत्वाद्यर्थपर्यायैर्घटकुम्भकलशादिवचनपर्यायैः परव्यावृत्तिपर्यायैवानन्तधर्माशकं न तु निरंशं, तस्य चैकैकदेशपरिच्छेदं संशयादयोऽपि कुर्वन्त्येवेति तेऽपि ज्ञानमेव, अथ समस्तवस्तुग्राह्येव ज्ञानं न तु तदेकदेशग्राहकमिति चेत्, तर्हि निर्णयोऽपि ज्ञानं न स्याद्, गौरयमित्याद्याकारस्य तस्य For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ॥ तृतीयः तरङ्गः ॥ मतिज्ञानप्ररूपण प्रसङ्गे तत्र परोक्तारेका परि हारेण वस्तुव्यवस्थापनम् ॥ ॥ ६७ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra /www.khatirth.org गोवा दिवस्त्वेकदेशग्राहित्वात्, देशग्रहणद्वारा तदभिन्नवस्तुग्रहणं च संशयेऽपि तुल्यं, अथ निर्णयेन तथाभूत एवार्थी गृहात इति तज्ज्ञानं, संशयादीनां स्वतथाभूतार्थग्राहित्वान्न ज्ञानत्वमिति चेत्, न, अर्थग्राहित्वेनैव तेषां ज्ञानत्वाद्, विशेषाभावस्य सामान्याभावनियतत्वात्सम्यग्दृष्टिसम्बन्धासादितनैश्वयिकज्ञानत्वरूपस्य मतिज्ञानसामान्यस्यैवात्र निरूपयितुमुपक्रान्तत्वात् ॥ न चैवमवग्रहेहापायधारणाः संशय विपर्ययानध्यवसायाचेति मतिज्ञानस्य सप्तभेदप्रसङ्ग इति वाच्यम् । अनध्यवसायस्याऽवग्रहे, संशयस्येहायां, विपर्यासस्य चापाये व्यक्तमन्तर्भावात् इत्थं चैतदवश्यमङ्गीकर्त्तव्यम्, अन्यथा संशयादिकाले सम्यग्दृशामज्ञानित्वप्रसङ्गः एवञ्च - " सम्मदिट्ठी णं भंते! किं नाणी अन्नाणी १, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी" इत्याद्यागमविरोधः, न चानेन सूत्रेण सम्यग्दर्शन सामानाधिकरण्येनैव ज्ञानित्वप्रतिपादनान्न दोष इति वाच्यम् ॥ च्युतसम्यक्त्वस्य मिध्यात्वं प्राप्तस्य तत्सामानाधिकरण्येन ज्ञानसत्त्वाद् ज्ञानित्वप्रसङ्गः । "मिच्छद्दिड्डी णं भंते ! नाणी अन्नाणी १, गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी" इत्याद्यागमविरोधस्य दुरुद्धरत्वाद्, ज्ञानस्य कालतः सम्यक्त्वनियतत्वप्रतिपादनात्संशयादीनामपि ज्ञानत्वमेव प्रामाणिकं, तदिदमभिप्रेत्याह - " तहवि णाम । अब्भ्रुवगन्तुं भण्णइ, नाणं चित्र संसयाईआ ॥ ३६४ ॥ वत्थुस्स देसगमगत्त-भावओ परमयप्पमाणं व ।। किह वत्थुदेसविष्णाण हेयवो सुणसु तं वोच्छम् ॥३१५॥ इह वत्थुमत्थवयणाइ - पजवाणंत सत्तिसम्पन्नं ॥ तस्सगदेसविच्छेयकारिणो संसयाईआ || ३१६|| अहवा ण सव्वधम्मा-वभासया तो न नाणमिट्ठन्ते ॥ नणु निण्णओ वि, तदेस मेत्तगाहित्ति अमाणं ॥३१७॥ " [ तथापि नाम ॥ अभ्युपगम्य भण्यते, ज्ञानमेव संशयादयः ।। वस्तुनो देश गमकत्वभावतः परमतप्रमाणमिव ॥ कथं वस्तुदेशविज्ञानहेतवः, श्रृणु तद् वक्ष्ये ॥ इह वस्त्वर्थवचनादिपर्यायानन्तशक्तिसम्पन्नम् ॥ तस्यैकदेशविच्छेदकारिणः संशयादयः ॥ For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ॥ मतिज्ञान प्ररूपणप्रस ङ्गे परोक्तारेका परिहारेण वस्तु व्यवस्था पनम् ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण भीज्ञाना वप्रकरणम् ।।१४ 11६८ PORNKHOREGAO KEEKE अथवा न सर्वधर्मावभासकास्ततो न ज्ञानमिष्टं ते ।। ननु निर्णयोऽपि तद्देशमात्रग्राहीत्यज्ञानम् ॥ ] ॥१६॥ ननु सम्यग्दर्शनकाल इव मिथ्यादर्शनकालेऽपि ज्ञानसामान्यसत्त्वात्कथमयं विभाग इत्यत्राहज्ञानं मिथ्यादृशां सर्व-मज्ञानमुपवर्णितम् । एकग्रहेपि सर्वस्य, ज्ञानं सम्यग्दृशां ग्रहात् ॥ १७ ॥ मिथ्यादृशां हि संशयादिरूपमतथाभूतं वा सर्वमेवाज्ञानमिति "सदसदविसेसणाओ" इत्यत्र सप्रपञ्च व्यवस्थापितमिति, अत्र पुनस्तदुपदर्शनं पिष्टमेव पिनष्टि,अत एव "जइ एवं तेण तुह, अन्नाणी कोवि नस्थि संसारे(री)। मिच्छदिट्ठीणं ते, अन्नाणं नाणमियरेसिं॥३१८॥"[यद्येवं तेन तवाज्ञानी कोऽपि नास्ति संसारे(री)। मिथ्यादृष्टीनां तेऽज्ञानं ज्ञानमितरेषाम् इति प्रतिज्ञाय भाष्य. कारोऽपि 'सदसदविसेसणाओ' इति गाथामेवानेडितवान् ,सम्यग्दृशस्त्वकं वस्तु गृह्णतः सर्वग्रहात् ज्ञानमेव सर्वोऽपि बोधः,तथाहि, इह तावदेकैकं वस्तु समस्तत्रिभुवनमयं अनन्ताऽनन्तानां स्वपर्यायाणामिवान्यव्यावृत्तिरूपाणां परपर्यायाणामपि तत्र वृत्ते,तथापि परे पदार्थाः कथं तत्र वर्तिष्यन्त इति चेत्,अभाववृत्तिद्वारा प्रतियोगिनामपि तवृत्तित्वाद्, अभावस्य तत्र विशेषणत्वलक्षणः साक्षात्सम्बन्ध प्रतियोगिनां तु स्वाभाववृत्तित्वलक्षणः परम्परासम्बन्धः, इत्येव हि विशेषः, एवञ्च याथात्म्येनेकवस्तुज्ञाने सर्ववस्तुज्ञानमिति नियमः,सर्ववस्तुज्ञान एव चैकवस्तुज्ञानमिति नियम इति ॥ “जे एनं जाणइ से सब्बं जाणइ, जे सर्व जाणइ से एगं जाणइ ।।" इत्यागमो व्यवस्थितः,तथा चैकं वस्तु गृह्णतः सर्ववस्तुग्रहो निराबाध एव,अयैवविध परिज्ञान केवलिन एव सम्मवति, नतु सूक्ष्मव्यवहितार्थाग्राहिण छद्मस्थस्येतिचेत्,न,साक्षात्तस्य तथापरिज्ञानाभावेऽपि “जो एग जाणइ" इत्याद्यागमप्रामाण्याभ्युगमद्वारा तस्यापि तथा परिज्ञानात्,तस्माजाग्रतः स्वपतस्तिष्ठतश्चलतो वा परमगुरुप्रणीतयथोक्तवस्तुस्वरूपाभ्युपगमस्य चेतसि सर्वदैवाविचलनात् ॥ तृतीयः तरङ्गः।। मतिज्ञानप्रसङ्गे सम्यम्हशां ज्ञान मिथ्यादृशां चाज्ञानमित्युपपादनम् ॥ ||६८॥ OR Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire मतिज्ञाननिरूपणप्रसङ्गे सम्यग्दृशां संश यादयोऽपि ज्ञानमित्युपपादनम् ॥ BABISEASES सम्यग्दृष्टिः सर्वदा ज्ञान्येव, आह च-"एगं जाणं सर्व, जाणइ, सव्वं च जाणमेगंति ॥ इय सब्वमयं सव्वं सम्मदिद्विस्स जंवत्थु ॥३२०।। [एक जानन्सर्वं जानाति सर्व च जाननेकमिति ।। इति सर्वमयं सर्व सम्यग्दृष्टेः यद्वस्तु] ॥१७॥ तस्मातत्त्वाभ्युपगमविशिष्टस्य ग्रहणमात्रस्यैव ज्ञानत्वात्स्थाणौ व्यावृत्तिरूपाणामपि पुरुषत्वादिपर्यायाणां पररूपतया ग्रहेऽपि अनन्तपर्यायस्यापि वस्तुनः प्रयोजनवशादेकपर्यायग्रहेऽपि याथात्म्याभ्युपगमस्य निरुपप्लवत्वात्सम्यग्दृशो न ज्ञानं प्रच्यवत इत्याह तत्त्वोपगममाहात्म्याद, ज्ञानमेवास्य संशये ॥ प्रयोजनवशादेक-पर्यायग्रहणेऽपि च ॥१८॥ न खलु व्यवहारमात्रेणाज्ञानरूपा अपि सम्यग्दृशः संशयादयो निश्चयतो न ज्ञानं, तत्वोपगमविशेषितवस्तुधर्मग्रहणस्य तत्रानपायात्सिद्धान्तनियन्त्रितेन समभिरूढनयेनैवम्भूतार्थाबाधेन तादृशस्यैव ज्ञानस्याभ्युपगमाद्नचैकपर्यायमात्रग्रहे वस्तुनोज्यथाग्रहात्तस्याज्ञानित्वप्रसङ्गः, यतः प्रयोजनवशादनन्तधर्मात्मकेपि वस्तुनि यद्यप्यसावेकं पर्यायमासादयति यथा सौवर्णघटे दृष्टे घटार्थी घटत्वमध्यवस्यति सुवर्णार्थी तु सुवर्णत्वं जलानयनार्थी तु जलभाजनत्वमिति व्यवस्यति, उपलक्षणं चेदं, अभ्यासपाटवप्रत्यासत्यादिभिरपि पर्यायविशेषग्रहाद् यथा ब्राह्मणे द्वारि दृष्टे कोऽप्यभ्यासवशाद् भिक्षुकोऽयमिति जानाति, अन्यस्तु पाटववशाद् ब्राह्मणोऽयमिति, अपरस्तु यस्तदभ्यणे भणति स प्रत्यासत्तिवशान्मदुपाध्यायोऽयमिति, तथापि तदानीं तस्य भावतोऽनन्तपर्यायात्मकतया वस्तुग्रहणपरिणामो न क्षीयत इति, तदाह-“जे संसयाइगम्मा, धम्मा वत्थुस्स ते वि पज्जाया ।। तदहिगमत्तणओ ते, नाणं चिय संसयाईआ ॥ ३२१ ॥ पज्जायमासयन्तो, एक पि तओ पओअणवसाओ । तत्तियपज्जायं चिय, तं गिण्हइ भावओ वत्थु ॥ ३२२॥" [ये संशयादिगम्या धर्मा वस्तुनस्तेऽपि पर्यायाः ॥ तदधिगमत्वतस्ते ज्ञानमेव संशयादयः॥ REGUSA Fat PW And Penal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं भीज्ञाना ॥६९॥ RECASHBACUAEKACHAR पर्यायमाश्रयमेकमपि तकः प्रयोजनवशात् ।। तावत्पर्यायमेव तद् गृह्णाति भावतो वस्तु ॥] ननु भावतस्तथा ग्रहणं न सार्वत्रिक ४ ॥ तृतीयघटाधुपयोगकाले तदुपयोगानियमादत एव तथाविधागमप्रामाण्याऽभ्युपगमोऽपि न तथेति तद्विशेषितं ग्रहणं ज्ञानमिति पर्यवसि- तरङ्गः मतितार्थानुपपत्तिः, नचाऽभ्युपगमपदेनात्र तयोग्यतैव विवक्षणीया, सा च सम्यग्दर्शनरूपैवेति सम्यग्दर्शनविशेषितमेव ज्ञानं नैश्चयिक ज्ञाननिरूज्ञानं, अत एव “निन्नयकाले वि जओ, ण तहारूवं विदन्ति ते वत्थु ॥ मिच्छट्ठिी तम्हा, सव्वं चिय तेसिमन्नाणं ॥ ३२३॥" पणप्रसङ्गे [निर्णयकालेऽपि यतो न तथारूपं विदन्ति ते वस्तु ।। मिथ्या दृष्टयस्तस्मात्सर्वमेव तेषामज्ञानम् ] इति गाथया मिथ्याशां निर्णयकाले- सम्यम्हां ऽपि ज्ञानत्वनियामक तत्वाभ्युपगमयोग्यताभावभणनाद्शानाभावलक्षणमज्ञानमुक्तं,यदुक्तं "कट्ठयरं वन्नाणं,विवज्जओचे मिच्छ- सर्व ज्ञानरूदिट्ठीणं ।। मिच्छाभिणिवेसाओ, सव्वत्थ घडेव्य पडबुद्धी ॥३२४॥" [कष्टतरं वाऽज्ञान, विपर्ययत एव मिथ्यादृष्टीनां ।। मिथ्या- ४ पमेव मिथ्याभिनिवेशात्सर्वत्र, घट इव पटबुद्धिः] इति गाथया चाऽभिनिवेशव्यपदेश्यमिथ्यादर्शनरूपायास्तदयोग्यताया एव कष्टतरत्वात्तज्ज्ञान- दृशां चाज्ञान जनकसम्यग्दर्शनविरोधि मिथ्यादर्शनजन्यं स्वतन्त्रमेवाज्ञानमुक्तं कष्टतरपदेनातिदुस्सहमहादुःखहेतुत्वाभिधानात्तच्चाभ्युपगमाभावनियामकत्वोक्तावपि तस्य स्वतः संसाराहेतुत्वात् , विपर्ययनियामकमिथ्याभिनिवेशोक्त्या फलतस्तद्धेतुभूतमिथ्यादर्शन | पादनम् ॥ सत्चाभिधानाज्ञाननियामकत्वे मिथ्याभिनिवेशयोग्यताविशिष्टस्वरूपज्ञानस्य तत एवातिप्रसङ्गादिति वाच्यम, सम्यग्दृष्टौ सम्यग्दर्शनविशिष्टज्ञानस्य प्रसिद्धत्वेन तमुद्दिश्य सम्यग्दर्शनविशिष्टज्ञानस्य प्रश्नप्रतिवचनाऽभावप्रसङ्गाद्विशिष्याज्ञातस्यैवार्थस्य प्रश्नारोहात , न चापर्याप्ताद्यवस्थायां सम्यक्त्वकालेऽपि ज्ञानाभावशङ्कया प्रश्नावतारो मनोव्यापाररूपस्य व्यक्तज्ञानस्य तदानीमभावेऽपि ज्ञानसामान्यस्याप्रत्यूहत्वाच निर्वचनं फलवदिति वाच्यम् , तथापि विशेषमन्तर्भाव्य निर्वचनस्याऽनतिप्रयोजन- ॥६९॥ मित्युप AC Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kratatirth.org त्वात् न च निर्वचनेनैव विशेषान्तर्भाव इति शङ्कनीयं मिथ्यादृष्टिसूत्रानुरोधेन तत्र विशेषान्तर्भावावश्यकत्वात् न च मोक्षहेतोः सम्यग्दर्शनविशिष्टज्ञानस्य सम्यग्दृष्टौ विशेष्यशङ्काप्रयुक्तशङ्कया] प्रश्नस्तन्निर्वचनश्च सङ्गच्छेते इति वाच्यम्, सम्यग् - दर्शन विशिष्टज्ञानत्वेन मोक्षा हेतुत्वाद्विशिष्टज्ञानत्वेनैव तथात्वात्सामान्यपदेन विशेषप्रश्नानौचित्याच्च, अपि च सम्यग्दृष्टिसूत्रस्थप्रश्नवाक्यद्वये ज्ञानपदस्यैकरूपस्यैव निवेशात्कथं निर्वचनसूत्रयोविंशेषगर्भत्वं प्रश्नसमानाकारस्यैवोत्तरस्य युक्तत्वात् नहि भूतले घटोsस्ति नवेति प्रश्न भूतले नीलघटोऽस्तीत्युत्तरमुञ्चन्ति विपश्चितः, एवश्व स्वस्थितशङ्काविरहेऽपि शिष्यजिज्ञापयिषोत्थापितशङ्कया प्रश्न इत्युक्तिरपि न युक्तेति चेत्, न, सम्यग्दर्शनविशिष्टज्ञानस्यैव मोक्षौपयिकतया नैश्वविक ज्ञानत्वात्प्रश्ननिर्वचनवाक्ययोस्तु सामान्यपदगर्भयोरपि विशेषाभिप्रायप्रयुक्ततया विशेषे पर्यवसानात्, तथाहि निश्चयाभिप्रायेण सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी नवेति प्रयुक्तस्य प्रश्नवाक्यस्य सम्यगृष्टिर्मोक्षौपयिकज्ञानवान्न वेत्यर्थात् ततः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञान्येवेति निर्वचनवाक्यस्य सम्यग्दृष्टिर्मोक्षौपयिकज्ञानवानेवेत्यर्थात् यदभिप्रायेण प्रश्नस्तदभिप्रायेणैवोत्तर प्रदानात्, एवं मिथ्यादृष्टिसूत्रेऽपि भावनीयं, न च विशेषाभिप्रायेणापि प्रयुक्तात् सामान्यपदान्न विशेषोपस्थितिरिति शङ्कनीयं, भोजनाभिप्रायेण सैन्धवप्रश्ने तदुत्तरवाक्यस्थसैन्धवपदालवणानुपस्थितिप्रसङ्गादिति दिग् ॥ १८ ॥ अथ प्रकारान्तरेण संशयादिकालेऽपि सम्यग्दृशो ज्ञानं मिथ्यादृशश्च निर्णयकालेऽप्यज्ञानं समर्थयतिसम्यग्दृशः संशयो वा, ज्ञानं ज्ञानोपयोगतः ॥ मिथ्यादृशां किलाज्ञानं, सर्वो बोधस्तमन्तरा ॥ १९ ॥ सम्यग्दृशः संशयः, उपलक्षणाद्विपर्यासानध्यवसायौ च ज्ञानमेव ज्ञानोपयोगात्, 'यो यदुपयुक्तः स तन्मयो' यथेन्द्रज्ञानोपयुक्तो दरिद्रोऽपीन्द्र एव वर्तते च सम्यग्दर्शनलाभकाल एव मत्यादिज्ञानलाभात्सम्यग्दृशः सर्वदैव ज्ञानपरिणामरूपज्ञानोपयोग For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir | मतिज्ञानप्ररूपणात्रसङ्गे सम्य म्हशां संशयादीनामपि | ज्ञानत्वं मि. थ्यादृशां चा ज्ञानत्वमि 'युक्त्य न्तरेणाप्यु | पपादनम् ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra सविवरण श्रीज्ञाना र्णवप्रकरणम्॥ ॥७०॥ मात्र, तस्मात्तस्य संशयादिकालेऽपि मौलज्ञानोपयोगयोगादप्रत्यूहमेव ज्ञानमिति । तदाह-"अहवा जहिंदनाणो-वओगओ तम्मयत्तण होइ ।। तह संसयाइभावे, नाणं नाणोवओगाओ ॥३२५॥ [अथवा यथेन्द्रज्ञानोपयोगतस्तन्मयत्वं भवति । तथा संशयादिभावे ज्ञानं ज्ञानोपयोगात् ] मिथ्यादृशस्तु निर्णयकालेऽपि सम्यग्दर्शनाविनाभाविज्ञानोपयोगयोर(स्याऽ)भावादज्ञानमेव, उपयोगग्राहिणा नयेन तत्कार्यान्तरमनपेक्ष्य तदुपयोगेनैव तन्मयत्वव्यवस्थापनादिन्द्रपदार्थ परमैश्वर्यमनपेक्ष्यैवेन्द्रोपयोगवत इन्द्रत्वाभ्युपगमात् ।। तदाह-"तुल्लमिणं मिच्छस्स वि, सो सम्मत्ताइभावसुन्नोति ।। उबओगंमि वि तो तस्स, णिच्चमन्नाणपरिणामो ॥३२६।। जं निन्नओवओगे वि, तस्स विवरीयवत्थुपडिवत्ती ।। तो संसयाइकाले, कत्तो नाणोवओगो से।।३२७॥" [तुल्यमिदं मिथ्यादृष्टेरपि स सम्यक्त्वादिभावशून्य इति ।। उपयोगेऽपि ततस्तस्य नित्यमज्ञानपरिणामः ।। यनिर्णयोपयोगेऽपि तस्य विपरतिवस्तुप्रातिपत्तिः । ततः संशयादिकाले कुतो ज्ञानोपयोगस्तस्य ॥] ॥ १९ ॥ तदेवं साधितमभ्युपगम्यानिश्रितादीनां संशयादिरूपत्वेऽपि सम्यग्दृशां ज्ञानत्वम् , अथ सामान्यतो ज्ञानाज्ञानरूपाया एव मतेर्निरूपणीयत्वान्न किश्चिद्दष्यतीत्याहसामान्यतो निरूप्यत्वा-न्मतेः कापि न च क्षतिः । ज्ञानाज्ञानविभागस्तु, ज्ञेयो फलविभागतः ॥ २०॥ इह हि 'आभिणिवोहियनाणं, सुअनाणं च' इत्यादिगाथायां श्रुतज्ञानं तावद् योगार्थमात्रपुरस्कारेण ज्ञानज्ञानोभयसाधारणमेव निर्दिष्टमिति, यथा-"अक्खरसन्नीसम्म' इत्यादिनाऽभिधास्यमानेषु चतुर्दशसु तद्भदेषु मिथ्याश्रुतस्यैषां ग्रहप्रसङ्गाद्, एवं च मतिज्ञानमपि सङ्ग्रहलाघवाद् ज्ञानाज्ञानोभयसाधारणमेवोक्तमिति सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां संशयादीनामज्ञानत्वेऽपि न क्षतिरिति।।तदाह"अहवा जह सुयनाणा-वसरे सामनदेसणं भणिअं ।। तह मइनाणावसरे, सबमइनिरूवणं कुणइ ।।३२८॥" [अथवा यथा श्रुतज्ञा तृतीयस्तरहः मतिज्ञाननिरूपणप्रस ड्रेन सम्यम्हशामुपयोगप्रकारेण | ज्ञानत्वं मि ध्यादृशां चा४ज्ञानत्वमिति सगर्थितम् ॥ IM Fox PW And Penciale Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym नावसरे सामान्यदेशनं भणितम्।।तथा मतिज्ञानावसरे, सर्वमतिनिरूपणं करोति] ज्ञानाज्ञानविभागचिन्तायां तु सम्यक्त्वानुगता सम्यग्दशा मतिमेतिज्ञानं, मिथ्यात्वविशेषिता तु सा मत्यज्ञानमिति द्रष्टव्यं, 'अविसेसिया मइ' इत्यादिसूत्रेण प्राक्तथाविवेचितत्वाद्।। आह च मोक्षफलसा"एसा सम्माणुगया, सव्वा नाणं विवज्जए इय।।अविससिया मइ च्चिय, जम्हा णिदिट्ठमाईए॥३२९॥ [एषा सम्यक्त्वाऽनुगता, कत्वेन ज्ञासर्वा ज्ञानं विपर्यये इतरत् ।। अविशेषिता मतिरेव यस्मानिर्दिष्टमादौ । नन्वेतत्सूत्रव्यावर्णन एव मतिज्ञानपदं सम्यग्दृष्टित्वविशषि- दिन मिथ्याटशा तायामेव मती प्रवर्तत इत्युक्तम्, तत्कथमाभिनियोधिकज्ञानपदेन ज्ञानाज्ञानोभयरूपाया मतेः सङ्ग्रह इति चेत्, सत्यम्-रूढिपुर- | तदसाधकत्वे151 स्कारेणैव सम्यगदृष्टित्वविशेषितं मतिज्ञानं ज्ञानमित्यक्तयोगार्थमादायोभयसङमहाविरोधात.योगार्थस्य साधारणत्वेऽपि मोक्षसंसार-18| न चाज्ञान लक्षणफलभेदेनैव सम्यग्मिथ्यादृष्टिसम्बन्धिनोनियोरनाद्यलौकिकसकेतलक्षणज्ञानाज्ञानपदरूढिप्रवृत्तेर्निश्चयेन फलवत एव मिति समर्थिवस्तुनोऽभ्युपगमात्, अत एवाह-"विवरीयवत्थुगहणे, जं सो साहणा विवज्जयं कुणई ।। तो तस्स अन्नाणफलं, सम्मट्ठिस्स नाण | तम् ॥ लेखफलं।।३३०॥" [विपरीतवस्तुग्रहणे, यत्स साधनविपर्ययं करोति ।। ततस्तस्याज्ञानफलं सम्यग्दृष्टे नफलम् ॥] विपरीतवस्तु- पुस्तकेज ग्रहणशीलो हि मिथ्यादृष्टियोगीयहिंसादिकं संसारसाधनमपि मोक्षसाधनत्वेनाध्यवस्यतीति विपरीतफलकत्वेन तदज्ञानमिति गाथा इतोपरिभाष्यते, सम्यग्दृष्टिस्तु यथावद्ज्ञात्वा यथास्थानं साधनं विनियुक्त इति फलवत्चात्तदीयो बोधो ज्ञान xxx VSटपञ्चाशद्वि(योजितः पाठः)[मेव।। ननु सर्वमयं सर्वमेव वस्त्विति भवसिद्धान्ततो मोक्षसाधनस्य सम्यग्ज्ञानादित्रिकस्य सम्यग्ज्ञानादि. शीर्णावृत्तिवन्मिथ्याज्ञानादिरपि धर्म इति सम्यग्दृष्टिना मोक्षसंसिद्धये ।यस्य साधनस्य धर्मोऽङ्गीकृतः मिथ्यादृष्टिनापि तस्यैव सङ्गता" धर्मस्तत्सिद्धये स्वीकृतः, धर्मग्रहणद्वारेण च तस्य धर्मिणोऽपि कथञ्चिद्ग्रहणं समस्त्येवेति न मिथ्यादृष्टेविपरीतत्वमिति चेत्. न, | इतिलिखित मस्ति ॥ 45 Fat PW And Penal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सविवरण भीज्ञाना (योजितः पाठः) तृतीयस्तरङ्गः र्णव मतिज्ञान प्रकरणम्॥ ॥ ७१ ॥ CBSEBRUARKARAN यतोऽनन्तधर्माऽध्यासितस्यापि वस्तुनो न सर्वेऽपि धर्मा एकमर्थं साधयन्ति, किन्तु यो धर्मो यत्रार्थे योग्यस्स एव तमेवार्थ साधयति यथा कलशमल्लकादीनां मृद्धर्मत्वे समानेऽपि कलश एव मङ्गलादिकार्येषु व्याप्रियते, एवं यद्यपि मोक्षादिसाधनस्य मिथ्याज्ञानादिकोऽपि व्यावृत्तिरूपतया धर्मः, तथापि नासौ मोक्षस्य साधकः, किन्तु तद्विपक्षभूतस्य संसारादिकस्यैव, मोक्षादेस्तु तत्साधनयोग्यः सम्यग्ज्ञानादिको धर्म एव साधक इति वस्तुस्थिती मोक्षेऽयोग्यं मिथ्याज्ञानादिकमयोग्यतयाऽपश्यंस्तत्र व्यापारयति मिथ्यादृष्टिरतस्साधनविपर्ययं कुर्वतोऽस्याज्ञानमेव, तदाह भाष्यकार:-"जइ सो वि तस्स धम्मो, किं विवरीयत्तणं तितं न भवे ।। धम्मो वि जओ सब्बो, न साहणं किंतु जो जोग्गो॥३३१ ।। जोग्याजोग्गविसेस, अमुणतो सो विवजयं कुणइ ।। सम्मट्ठिी उण कुणई, तस्स सट्ठाणविणिओगं ।।३३२॥” [यदि सोऽपि तस्य धर्मः किं विपरीतत्वमिति तम भवेत् । धर्मोऽपि यतः सर्वो न साधनं किन्तु यो योग्यः॥ योग्यायोग्यविशेषमजानन् स(मिथ्यादृष्टिः) विपर्ययं करोति । सम्यग्दृष्टिः पुनः करोति, तस्य स्वस्थानविनियोगम] इति । योग्यमयोग्यञ्च धर्म जानन् स्थाने व्यापारयश्च सम्यग्दृष्टिः सम्यगाराधको भूत्वा समीहितफलभाग्भवति ॥ उक्तं च-"काले सिक्खइ नाणं, जिणभणिअं परमभत्तिराएण । दसणपभावगाणि अ,सिक्खइ सत्थाई कालम्मि ॥१॥ काले य भत्तपाणं, गवेसए सयलदोसपरिसुद्धं ॥ आयरियाईणट्ठा, पवयणमायासु उवउत्तो ।। २ ॥ एवं समायरंतो, काले कालं विसुद्धपरिणामो ॥ असवन्तजोगकारी, सलाहणिज्जो य भुवणम्मि ॥ ३ ॥ सयलसुरासुरपणमिय-जिण-गणहरभाणियकिरियविहिकुसलो ॥ आराहिऊण सम्म-त्त-नाण-चरणाई परमाई ॥ ४ ॥ सत्तट्ठभवग्गहण-भतरकालम्मि केवलन्नाणं । उप्पाडिऊण गच्छइ, विहुयमलो सासयं मोक्खं ॥५॥ तत्थ य जर-जम्मण-मरण-रोग-तण्हा-छुहा-भय-विमुक्को । साइ अपञ्जवसाणं, ॐॐॐ प्ररूपणप्रस सभ्यग्दशां ज्ञानस्य मोक्षसाधकत्वं तदनुकूलाऽनुष्ठान क्रमोपदर्शनश्च ।। AkRS ॥ ७१॥ Fat PW And Penal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kratatirth.org कालमर्णतं सुहं लहइ ॥ ६ ॥” इति ।। [काले शिक्षते ज्ञानं, जिनभणितं परमभक्तिरागेण || दर्शनप्रभावकाणि च शिक्षते शास्त्राणि काले | काले च भक्तपानं, गवेषयेत्सकलदोषपरिशुद्धम् । | आचार्यादीनामर्थाय प्रवचनमातृषूपयुक्तः । एवं समाचरन्काले काले विशुद्धपरिणामः ॥ अस्रवद्योगकारी श्लाघनीयश्च भुवने । सकलसुरासुरप्रणतजिन - गणधरभाषितक्रियाविधिकुशलः | आराध्य सम्यक्त्वज्ञान चरणानि परमाणि ।। सप्ताष्टभवग्रहणाभ्यन्तरकाले केवलज्ञानम् ।। उत्पाद्य गच्छति विधुतमलः शाश्वतं मोक्षम् ।। तत्र च जराजन्ममरणरोगतृष्णा क्षुधाभयविमुक्तः ॥ साद्यपर्यवसानं कालमनन्तं सुखं लभते ।।] तेषु मतिज्ञानभेदेषु चतुर्षु अर्थवग्रहादिषु एकसमयोऽर्थावग्रहः समयः सर्वजघन्यः कालविशेषः, ईहापायावन्तमुहूर्तम्, व्यञ्जनावग्रहव्यावहारिकार्थावग्रहावपि तथैव, अविच्युतिस्मृतिवासनाभेदात् त्रिविधा धारणा, तत्राऽविच्युतिः स्मृतिश्च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तं भवति, स्मृतिबीजभूता तदर्थज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा वासना तु संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालम्, असंख्येयवर्षायुषां तु पल्योपमादिजीविनाम संख्येयं कालम्भवति, तदुक्तं निर्युक्तिकृता ॥ “ उग्गहो एवकं समयं, ईहा वाया मुहुत्तमेतं तु ॥ कालमसंखं संखं च, धारणा होइ नायव्वा ॥ ३३३ ॥ " इति [ अवग्रह एकं समयं ईहापायौ मुहूर्तान्तस्तु ।। कालमसंख्यं संख्यं च धारणा भवति ज्ञातव्या ] नैयिकार्थावग्रह एकसमयः, वासनारूपधारणाम्मुक्त्वाऽन्ये व्यञ्जनावग्रह - व्यावहारिकार्थावग्रहापाया विच्युतिस्मृतिरूपा मतिभेदाः पृथगेकमेवान्तर्मुहूर्तं भवन्ति । यदाह भाष्यकारः ॥ “ अत्थोग्गहो जहनो, समयं सेसोग्गहादओ वीसुं ।। अंतमुत्तमेगं तु, वासनाधारणं मोतुं ॥ ३३४ ॥ | " [ अर्थावग्रहो जघन्यः समयं शेषाऽवग्रहादयो विश्वक् अन्तर्मुहूर्तमेकं तु वासनाधारणां मुक्त्वा ] इति स्थितिविचारः ॥ नयनमनोभिन्नानां श्रोत्रादीनां चतुर्णामिन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वव्यवस्थापनतस्तेषां For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ( योजित: पाठ: ) | मतिज्ञान प्ररूपणप्रस ङ्गेऽअर्थावग्र महादीनां का लमानप्रदर्शनं ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सविवरणं श्रीज्ञाना RAS व प्रकरणम् ॥ ॥७२॥ PLEASEARCLEARCH व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा नयनमनसोरप्राप्यकारित्वव्यवस्थापनतस्तयोर्न व्यञ्जनावग्रहः, इत्येवं पूर्वमेव निर्णयः कृतः, इदानीं तेषु तत्र विशेष उपदर्यते-श्रोत्रं स्पृष्टमात्राण्येव शब्दद्रव्याण्युपलभते, तानि प्राणेन्द्रियादिविषयीभूतद्रव्येभ्यः सूक्ष्माणि, बहूनि, भावुकानि च, विषयपरिच्छेदे घ्राणेन्द्रियादिगणात्पटुतरं च श्रोत्रेन्द्रियम्, घ्राणरसनस्पर्शनेन्द्रियाणि स्वस्वविषयं बद्धस्पृष्टं गृहान्ति, घ्राणस्य विषयो गन्धः, रसनाया विषयो रसः, स्पर्शनस्य विषयः स्पर्शः। स्पृष्टमित्यालिङ्गितं, बद्धं तु गाढतरमाश्लिष्टमात्मप्रदेशैः, घाणेन्द्रियादिविषयभूतानि गन्धादिद्रव्याणि शब्दद्रव्यापेक्षया स्तोकानि,बादराणि,अभावुकानि च,विषयपरिच्छेदे श्रोत्रापेक्षयाऽपटूनि च घ्राणादीनि,अत एव बद्धस्पृष्टमेव स्वस्वविषयं गृह्णन्ति,न स्पृष्टमात्रम्, चक्षुरिन्द्रियन्तु अप्राप्तमेव विषयं गृह्णाति, अप्राप्तत्वाविशेषे कथं न सर्वस्य ग्रहणमिति नाशङ्कथं, यतोऽप्राप्तमपि योग्यदेशस्थमेव पश्यति, नायोग्यदेशस्थमिति, उक्तार्थोपोद्वलिकां 'पुढे सुणेइ सई' इत्यादिनियुक्तिगाथां सम्बन्धयन्नाऽह भाष्यकारः॥ “सोत्ताईणं पत्ताइ-विसयया पुव्वमस्थओ भणिया । इह कंठा सट्ठाणे, भण्णइ विसयप्पमाणं च ॥३३५॥ पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपुढं तु ॥ गन्धं रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे।।३३६॥ इति, 'पुढे सुणेइ सई' इति नियुक्तिगाथाव्याख्यानरूपाश्चेमा भाष्यगाथाः, तद्यथा-"पुढे रेणुं व तणुम्मि, बद्धमप्पीकयं पएसेहि।। छिकाई चिय गिण्हइ, सहदव्वाई ताई।।३३७॥बहुसुहुमभावुगाई, जे पटुयरं च सोत्तविण्णाणं ।। गंधाईदव्वाई, विवरीयाई जओ ताई।।३३८।। फरिसाणंतरमत्त-प्पएसमीसीकयाई घेप्पंति ।। पड्डयरविण्णाणाई, जंच न घाणाइकरणाई॥३३९॥"[श्रोत्रादीनां प्राप्तादि-विषयता पूर्वमर्थतो भणिता।।इह कण्ठात्स्वस्थाने,भण्यते विषयप्रमाणं च।।स्पृष्टं श्रृणोति शब्दरूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टं तु । गन्धं रसं च स्पर्श च बद्धस्पृष्टं व्यागृणीयात् ।। स्पृष्टं रेणुरिव तनौ बद्धमात्मीकृतं प्रदेशैास्पृष्टा ( योजितः पाठः) ॥ तृतीयः तरङ्गः ॥ | मतिज्ञान प्ररूपणसक्ने इन्द्रियाणां विषयग्रहणस्वरूपोपदर्शनम्॥ BHIBHRECE ॥७२॥ Fat PW And Penal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra CHECRECORRECRUKEBACHELOR न्येव गृह्णाति,शब्दद्रव्याणि यत्तानि।।आत्मागुलेन लक्षमतिरिक्त योजनानां तु ।। बहुमुक्ष्मभावुकानि यत्पटुतरं च श्रोत्रविज्ञानम् ॥ गन्धादिद्रव्याणि विपरीतानि यतस्तानि ॥ स्पर्शानन्तरमात्मप्रदेशैमिश्रीकृतानि गृह्यन्ते ॥ पटुतरविज्ञानानि यच्च न घाणादिकरणानि ॥] इति ॥ स्पष्टाश्चमा गाथाः । नयनं मनश्चाप्राप्तस्यैव वस्तुनः परिच्छेदकारि, तेन नयनं रूपमस्पृप्टमेव पश्यति, नयनस्य चात्माङ्गुलेन सातिरेकं योजनलक्षमुत्कृष्टतोऽपि विषयपरिमाणमागमेभिहितं, तेनाप्राप्तत्वाविशेषेऽपि परतो न पश्यति, आत्माङ्गुलोच्छ्याङ्गुलप्रमाणाङ्गुलभेदेनाङ्गुलं त्रिविध ॥ तत्रायं “जेणं जया मणूसा, तेसि जे होइ माणरूवं तु ॥ तं भणियमिहायंगुल-मणिययमाणं पुण इमं तु ॥१॥" द्वितीय तु "परमाणू तसरेणू, रहरेणू अग्गयं च वालस्स ।। लिक्खा जूया य जवो, अट्ठगुणविवलिया कमसो॥२॥” इत्यादिग्रन्थोक्तम्, तृतीयं तु-"उस्सेहंगुलमेगं, हवइ पमाणगुलं सहस्सगुणं ॥ तं चेव दुगुणियं खलु, वीरस्सायंगुलं भणियं ॥शा आयंगुलेण वत्), उस्सेहपमाणो मिणसु देहं।।नग-पुढवि-विमाणाई, मिणसु पमाणंगुलेणंति॥॥[ये यदा मनुष्यास्तेषां यद्भवति मानरूपं तु तद्भणितमिहात्माश्गुल-मनियतमानं पुनरिदं तु।।परमाणुखसरेणू, रथरेणुरग्रकं च वालस्यालिक्षा यूका च यवोऽष्टगुणविवर्धिताः क्रमशः। उत्सेधाङ्गुलमेकं,भवति प्रमाणागुलं सहस्रगुणम्॥ तदेव द्विगुणितं खलु, वीरस्यात्मागुलं भणितम्।। आत्माङ्गुलेन वस्तु, उत्सेध(धागुल)प्रमाणतो मिनु देहम्।। नगपृथ्वीविमानानि, मिनु प्रमाणाङ्गुलेनेति ॥] उक्तोपपतिप्रदर्शिका च भाष्यगाथा यथा-"अप्पत्तकारि नयणं, मणो य, नयणस्स बिसयपरिमाणं । आयंगुलेण लक्खं, अइरित्तं जोयणाणं तु ॥ ३४॥" [अप्राप्तकारि नयनं मनश्च, नयनस्य विषयपरिमाणम् । आत्मागुलेन लक्षमतिरिक्त योजनानां तु ॥ ] इति ॥ ननु " उस्सेहपमाणओ मिणे देहं" इतिवचनादेहस्य तावदुच्छ्याङ्गुल (योनितः पाठः) मतिज्ञानविषयमाननिरूपणप्रस्तावेऽङ्गलभेदत्रिकस्य तद्गोचर स्य च प्रदर्शनम्। Fox PW And Penciale Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sara Kendra Achatya Sas s Gym सविवरणं श्रीज्ञाना प्रकरणम्॥ BALKALANCERABASABREAKER प्रमाणत्वं सिद्धमेव, देहग्रहणस्योपलक्षणत्वात्तत्रस्थमिन्द्रियं तद्विषयश्च गृह्यत इति चक्षुषस्तद्विषयस्य चोच्छ्याङ्गुलप्रमाणमेयत्वे| नात्मागुलेन नयनविषयपरिमाणकथनमयुक्तमिति चेत्,न, देहग्रहणस्योपलक्षणार्थत्वास्वीकारेण देहस्यैवोच्छ्याङ्गुलप्रमाणमेयत्वेनेन्द्रियविषयपरिमाणस्यात्मागुलेनैव मेयत्वात्, तदुक्तं भाष्यकृता "नणु भणियमुस्सयंगुल-पमाणओ जीवदेहमाणाइ ।। देहपमाणं चिय तं, न उ इंदियविसयपरिमाणं ॥३४॥" [ननु भणितमुछ्या -गुलप्रमाणतो जीवदेहमानानि ॥ देहप्रमाणमेव तद्, न विन्द्रियविषयपरिमाणम् ] इति, युज्यते चेन्द्रियविषयपरिमाणमात्माङ्गुलेनैव, न तु उच्छ्याब्लेन, यतः पश्चार्धपञ्चमधनु:शतादिप्रमाणानां भरतादीनां चायोध्यादिनगर्यः स्कन्धावारश्चात्माङ्गुलेन द्वादशयोजनायामतया सिद्धान्ते निीताः, भरतचक्रवाद्यात्माङ्गुलं च प्रमाणामुलं तद् उच्छ्याङ्गुलात्सहस्रगुणं " उस्सेहंगुलमेगं हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं" इति वचनात्, ततश्चायोध्यादिनगर्यः स्कन्धावारश्च उत्सेधाङ्गुलेन पुनरनेकानि योजनसहस्राणि भवन्ति, एवञ्चायुधशालादिषु ताडितभेर्यादिशब्दश्रवणं सर्वेषामिन्द्रयविषयस्योछ्याङ्गुलमेयत्वपक्षे न प्रामोति, यतः श्रोत्रं "चारसहिं जोअणेहिं, सोयं अभिगिण्हए सई" इत्यादिवचनात् द्वादशभ्य एव योजनेभ्यः समागतं शब्दं शृणोति न परतः, उक्तपक्षे च एतानि द्वादशयोजनानि किलोच्छ्याङ्गुलेन मीयन्ते, अत उच्छ्याङ्गुलनिष्पन्नेभ्योऽनेकयोजनसहस्रेभ्यः समागतं भेर्यादिशब्द कथं श्रोत्रं गृह्णीयात्, इष्यते | च भरतादिनगरीस्कन्धावारेषु तच्छ्रवणम्,अत आत्माङ्गुलेनैवेन्द्रियाणां विषयपरिमाणं नोत्सेधाङ्गुलेनेतिसिद्धम् , तदुक्तं भाष्यकृता "जं तेण पंचधणुसयनराइ-विसयववहारवोच्छेओ ।। पावइ सहस्सगुणियं, जेण पमाणंगुलं तत्तो ॥ ३४२॥" [यत्तेन पञ्चधनुःशतनरादिविषयव्यवहारव्यवच्छेदः ॥ प्रामोति सहस्रगुणितं, येन प्रमाणागुलं ततः॥] इति ।। RABIRE | (योजितः पाठः)तुतीयस्तरङ्गः देहम्योत्सेघाङ्गलप्रभा णत्वादेहस्थत्वेनेन्द्रियाणां तहि षयस्य च | तन्मेयत्व मेवोचितमित्यारेकाया युक्त्यादिभिरपाकरणम् ॥ ॥७३॥ Fat PW And Penal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (योजितः पाठः) देहस्पर्शनेन्द्रिययोरे वोत्सेधाङ्ग COURAGHATAR किञ्च देहस्यात्मभूतान्यपीन्द्रियाणि सर्वाणि नोच्छ्याङ्गुलेन मीयन्ते यदा तदा कैव कथा तद्विषयाणामुच्छ्याङ्गुलमेयत्वस्य, यतः स्पर्शनेन्द्रियमेकमुच्छ्याङ्गुलेन मीयते शेषाणि तु द्रव्येन्द्रियाण्यात्माङ्गुलेनैव मीयन्ते, त्रिगब्यूतादिमानानां युगलधर्मिणां जिहन्द्रियादिमानस्योच्छ्याङ्गुलेन ग्रहणे क्षुरप्राकारतयोक्तस्य जिह्वेन्द्रियस्य विशालदेहानुसारित्वेन विशालमुखगतत्वेन विशालस्याङ्गुलपृथक्त्वलक्षणो विस्तारो गृह्येत, एवञ्चात्यल्पतया सर्वामपि जिह्वां न व्याप्नुयात्, तदव्याप्तौ च सर्वया जिह्वया रसवेदनलक्षणो व्यवहारो न घटेत, तस्मादात्मागुलेनैव जिह्वादिमानं घटत इति, तदुक्तं भाष्यकृता "इंदियमाणेवि तयं, भयणिज्जं जं तिगाउआईणाजिभिदियाइमाणं,संववहारे विरुज्झेज्जा।।३४३।।"[इन्द्रियमानेऽपि तद् भजनीयं यत् त्रिगव्यूतादीनाम् । जिह्वेन्द्रियादिमानं संम्यवहारे विरुध्येता।]इति,चक्रवर्तिभरतनगर्यादिषु भेर्यादिशब्दश्रवणव्यवहारस्य युगलधर्मिणां रसवेदनव्यवहारस्य चाभावप्रसङ्गेनेन्द्रियविषयपरिमाणस्येन्द्रियपरिमाणस्य नोच्छ्याङ्गुलमेयत्वं किन्त्वात्माङ्गुलमेयत्वमेवेति व्यवस्थितौ "उस्सेहपमाणओ मिणे देह" इत्यत्र देहशब्देन देहमानमेव पारिशेष्याद् गृह्यते, किञ्च परस्येन्द्रियतद्विषयपरिमाणयोरुच्छ्याङ्गुलमितत्वेापत्तिरेव प्रमाणं न त्वागमवचनं, आगमे तु "इचेएणं उस्सेहंगुलप्पमाणेणं नेरइअ-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं सरीरोगाहणाओ मिअंति" [इत्येतेनोच्छ्याङ्गुलप्रमाणेन नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानां शरीरावगाहना मीयन्ते ] इत्यस्मिन् शरीरावगाहनवोच्छ्याङ्गुलमयत्वेनोक्ता न त्विन्द्रियविषयपरिमाण, ततस्तदात्माङ्गुलेनैवेति, तदाह भाष्यकृत्-" तणुमाणं चिय तेणं, हविज भणियं सुए वितं चेव ॥ एएण देहमाणाई, नारयाईण मिजंति ॥ ३४४ ॥" [तनुमानमेव तेन, भवेद् भणितं श्रुतेऽपि तदेव ॥ एतेन देहमानानि,नारकादीनां मीयन्ते ॥ इति । ननु पुष्करवरद्वीपस्य मानुषोत्तरपर्वतद्विधाकृतस्य अर्वाग्भागवर्ति કનકનનનનનનનનન लमेयत्वमन्येन्द्रियतद्विषयाणामात्माङ्ग लभयत्वं व्यवस्थापितम् ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra सविवरण श्रीज्ञाना प्रकरणम् ॥ ।। ७४ ॥ LAPUREGARDAROGERCODA न्यधैं मानुषोत्तरसन्निधाबुत्कृष्टे दिवसे कर्कटकसंक्रान्त्यामुदयेऽस्तमये च सातिरेकैरेकविंशतिलक्षयोजनानां व्यवस्थितं सूर्य मनुप्याः पश्यन्ति, यदुक्तं “सीयालीससहस्सा, दो य सया जोयणाण तेवट्ठी ।। एगवीस सट्ठिभागा, ककडमाइम्मि पेच्छ नरा ॥१॥" [ सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते योजनानां त्रिषष्टिं । एकविंशतिं षष्टिभागान्कादौ प्रेक्षन्ते नराः] इति, यथाञ्च तथा पुष्कराधेऽपि मानुषोत्तरसमीपे प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नः सातिरेकैकविंशतियोजनलझर्व्यवस्थितमादित्यं तत्र दिने तन्निवासिनो लोकाः समवलोकयन्ति, तदुक्तम्-" एगवीसं खलु लक्खा, चउतीसं चेव तह सहस्साई ।। तह पंच सया भणिया, सत्त साए अइरित्ता ॥१॥ इति नयनविसयमाणं, पुक्खरदीवद्धवासिमणुआर्ण । पुच्वेण य अवरेण य, पिहं पिहं होइ नायच्वं ।।२॥" इति । [ एकविंशतिः खलु लक्षाणि चतुत्रिंशदेव तथा सहस्राणि ॥ तथा पश्च शतानि भणितानि सप्त. त्रिंशतातिरिक्तानि ।। इति नयनविषयमानं पुष्करद्वीपार्धवासिमनुजानाम् ।। पूर्पण चापरेण च पृथक् पृथक् भवति ज्ञातव्यम् ॥] तस्मान्नयनेन्द्रियस्य सातिरेकयोजनलक्षस्वरूपं विषयपरिमाणं यथा प्रज्ञापनादिसूत्रेऽभिहितं तथाऽऽत्माङ्गुलोत्सेधाङ्गुलप्रमाणागुलानामेकेनापि गृह्यमाणं न युक्तं, प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नस्यापि योजनलक्षस्य तनिष्पन्नसातिरेकैकविंशतियोजनलक्षेभ्य एकविंशतितमभागवर्तित्वेन बृहदन्तरत्वात्, तस्मादकत्र सातिरेकं लक्षम् , अन्यत्र तु सातिरेकैकविंशतिलक्षाणि योजनानां नयनस्य विषयप्रमाणं त्रुवतः सूत्रस्य पूर्वापरविरोधः, उदाह भाष्यकृत्-"लक्खेहिं एक्कवीसाए, साइरेगेहिं पुक्खरद्धम्मि ।। उदये पेच्छन्ति नरा, सूरं उक्कोसए दिवसे ॥३४५॥ नयणिदियस्स तम्हा, विसयपमाणं जहा सुएभिहियं ।। आउस्सेहपमाण-गुलाण एकेण वि न जुत्तं ॥ ३४६ ॥" [ लक्षरेकर्विशत्या, सातिरेकैः पुष्करार्धे ॥ उदये प्रेक्षन्ते नराः, सूर्यमुत्कृष्टे (योजितः | पाठः)तृतीयस्तरङ्गः नयनविपयप्रमाण स्य ययासा सूत्रामिहितवं तथा त्मोत्सेधाङ्गलपमाणान्यतमेनापि न युक्तस्वमित्याशकनन् । ॥७४॥ Fat PwAnd Personale Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya Shalatan Gyaan पाठः) RECASSECRECASSA दिवसे ॥ नयनेन्द्रियस्य तस्मा-द्विषयप्रमाणं यथा श्रुते भणितम् ॥ आत्मोत्सेधप्रमाणा-मुलानामेकेनापि न युक्तम् ॥]| है (योजितः माइतीति चेत्, न, सातिरेकयोजनलक्ष नयनविषयप्रमाण प्रतिपादयतः सत्रस्याभिप्रायापरिज्ञानात, तथाहि-स्वयं तेजोरूपप्रकाशरहि-101 तत्वात्परप्रकाशनीये पर्वतगर्तादिवस्तुन्येव सातिरेकयोजनलक्षं नयनविषयप्रमाणं, न तु स्वयमेव तेजोयुक्तत्वेन प्रकाश्ये चन्द्रार्का-४ सूत्राभिषादिके प्रकाशके वस्तुनि, तत्र स्वनियम एव, "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति तु सन्देहादलक्षणम्" इति न्याया व्याख्यानात्सूत्र हुँ योपवर्णनेनोविषयविभागेन धरणीयं न तूभयपक्षोक्तिमात्रभ्रमितैस्तद्विरोध उद्भावनीयः, तदुक्तं-" जं जह सुते भणिय, तहेव जइ तं विया क्ताशङ्कालणा नस्थि ।। किं कालियाणुओगो, दिट्ठा दिटिप्पहाणेहिं ।।१।।" [यद्यथा सूत्रे भणितं, तथैव यदि तद् विचारणा नास्ति ।। किं का प्रतिक्षेपः, लिकानुयोगो, दृष्टो दृष्टिप्रधानैः] ।। इति, इदमेवात्र प्रतिविधानमुपाददे भाष्यकार:-"सुत्ताभिप्पाओऽयं, पयासणिज्जे तयं न प्रविभज्य उ पयासे । बक्खाणओ विसेसो, न हि संदेहादलक्खणा ॥३४७॥"[सूत्राभिप्रायोऽयं. प्रकाशनीये तन्न तु प्रकाशे । व्याख्यान श्रोत्रादिवितो विशेषो, नहि सन्देहादलक्षणता ॥] इति । श्रोत्रं मेघगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतो द्वादशयोजनेभ्यः समायातं गृह्णाति, घाणरसस्पर्श षयपरिमाणनानीन्द्रियाणि तु गन्धरसस्पर्शलक्षणमर्थमुत्कर्षतो नवयोजनेभ्यः प्राप्तं गृह्णन्ति, अतः परतोऽप्यायातं शब्दादिकमेतानि न गृह्णन्ति, प्रदर्शनञ्च ॥ यथा प्रथमप्रावृषि मेघगर्जितादिविषय शब्दः प्रथममेघवृष्टौ सत्यां मृत्तिकादिगन्धश्च दूरादप्यागतो गृधमाणः समनुभूयते तथैव दूरादागतानां गन्धद्रव्याणां रसोऽपि रसनया सम्बन्धे सति केनचिद् गृह्यत एव, अत एव कटुकस्य तीक्ष्णादेर्वा वस्तुनः सम्बन्धी अयं गन्ध इति वक्तारो भवन्ति, दूरादपि सरित्समुद्रादेमध्येनायातस्य वातादेः स्पर्शोऽपि शीतादिरनुभूयत एव, तदाह भाष्यकार:-"बारसहिता सोनं, सेसाई नवहिं जोयणेहितो । गिण्हंति पत्तमत्थं, एत्तो परओ न गिण्हंति ॥३४८॥" FASHREGMIRECG Fat PW And Penal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं भीज्ञाना नव प्रकरणम् ।। 11 104 11 www.ketafirth.org [द्वादशभ्यः श्रोत्रं, शेषाणि नवभ्यो योजनेभ्यः । गृह्णन्ति प्राप्तमर्थ - मितः परतो न गृह्णन्ति ॥] इति।। द्वादश-नवयोजनेभ्यः परतः समागतानि शब्दगन्धादिद्रव्याणि मन्दपरिणामभावेन स्वस्वज्ञानानुकूलपरिणामानासादनतो न श्रोत्रघ्राणादिविज्ञानं जनयन्ति श्रोत्रादीन्द्रियाण्यपि तथाविधसामर्थ्याभावान्न परतः समागतानि शब्दादिद्रव्याणि गृहीत्वा स्वविज्ञानं जनयन्ति, तदिदं विषयपरिमाणमुत्कृष्टत इन्द्रियाणां ज्ञेयं, जघन्येन तु नयनभिनेन्द्रियाणां असङ्ख्याततमादङ्गुला संख्येयभागादागतो विषयो ग्रहणगोचरः, तदुक्तं भाष्यकृता " दव्वाण मंदपरिणा-मयाए परओ न इंदियबलंपि ॥ अवरमसंखेज्जंगुल - भागाओ नयणवज्जाणं ।। ३४९ ।। " [ द्रव्याणां मन्दपरिणामतया, परतो नेन्द्रियबलमपि || अपरमसंख्येयांगुल भागाद् नयनवर्जानाम् ॥ ] नयनस्य त्वतिसन्निकृष्टाञ्जनशलाकादेरग्राहकस्य जघन्येनाङ्गुलसङ्ख्ये य भागाद्विषय परिमाणनियमः, मनसस्तु मृर्तामूर्तसमस्तविषयक स्थानियमेन दूरे आसने च प्रवर्तमानस्य पुद्गलमात्र निबन्धनियतत्वाभावात्केवलज्ञानवन्नास्त्येव विषयपरिमाणम्, पुद्गलमात्रनिबन्धनियतश्रोत्रादीन्द्रियप्रभवयोर्मतिश्रुतज्ञानयोरपि विषयपरिमाणस्य सद्भावान्न ताभ्यां व्यभिचार इति बोध्यम्, तदुक्तं भाष्यकृता " संखेज्जइभागाओ, नयणस्स, मणस्स न विसयपमाणं || पोग्गलमित्तनिबन्धा-भावाओ केवलस्सेव ॥ ३५० ॥" [संख्येयभागतो नयनस्य, मनसो न विषयप्रमाणम् ॥ पुद्गलमात्रनिबन्धा - ऽभावात्केवलस्येव ॥] इति, श्रोत्रस्य प्राप्तकारित्वेऽयमपि विशेषो ज्ञेयः, यदुत, भाषकस्यान्यस्य वा भेर्यादेः समश्रेणिव्यवस्थितः श्रोता भाषक भेर्यादिसम्बन्धिनं भाषकोत्सृष्टशब्दद्रव्याणि तद्वासिताऽपान्तरालस्थद्रव्याणि चेत्येवं मिश्रं शब्दद्रव्यराशिं शृणोति न तु वासकं वास्यमेव वा केवलम् विश्रेणिव्यवस्थितः श्रोता तु भाषकोत्सृष्टशब्दद्रव्यैः भेर्यादिशन्दद्रव्यैर्वा वासितानि समुत्पन्नशब्दपरिणामानि द्रव्याण्येव शृणोति, न तु भाषकाद्यु For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailasagasun Gyanmandir ( योजित: पाठः ) तृतीयस्त रङ्गः ॥ श्रोत्रादीन्द्रियविषय परिमाणमु त्कृष्टतो बिभागेनोपदयं जघन्येन | तदुपदर्शितं नयनस्य तत्र विशेष:, म नसं विषय परिमाणाsनियमः श्रो. त्रे विशेषान्तरच ॥ 11 194 11 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sara Kendra Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire RECENGALOR PAGE त्सृष्टानि, तेषामनुश्रेणिगामित्वेन विदिग्गमनासम्भवात्, कुड्यादिप्रतिघाततोऽपि न तेषां विदिक्षु गमनमतिसूक्ष्मत्वात्, लेष्टादिवादरद्रव्याणामेव ततो विदिक्षु गमनात्, निसर्गसमयानन्तर समयान्तरेषु तेषां भाषापरिणामेनानवस्थानादेव न स्वतो विदिक्ष गमनसम्भवः "भाष्यमाणैव भाषा भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषाऽभाषेव" इतिवचनात्, द्वितीयादिसमयेषु भाषाद्रव्यैर्वासितानि समुत्पन्नशब्दपरिणामानि द्रव्यान्तराण्येव भाषा तामुपादायैव "चउहि समयेहिं लोगो भासाए निरंतरं तु होइ फुडो" इति वचनप्रवृत्तिरविरुद्धा, समश्रेणिव्यवस्थितः श्रोता वक्तृनिसृष्टं शब्दं शृणोति, विश्रेणिस्थः तद्वासितानि द्रव्याणि द्वितीयसमये विदिक्षु गतानि शब्दस्वभावमापन्नानि शृणोतीत्येवं समयभेदेऽपि तदनुपलक्षणमतिसौक्ष्म्यात् । घ्राणादीन्द्रियग्राह्याणां मिश्रस्वभावानां गन्धादिद्रव्याणां चादरत्वेनानुश्रेणिगमननियमो नास्तीति, तदुक्तं नियुक्तिकृता "भासासमसेढीओ, सई जं सुणइ मीसयं सुणइ ।। वीसेढी पुण सई, सुणेइ नियमा पराघाए ।। ३५१॥" इति, भासासमसेढीओ इति गाथार्थोपोद्वलकं भाष्यगाथात्रयं यथा "सेढी पएसपंती, वदतो सव्वस्स छदिसि ताओ । जासु विमुक्का धावइ, भासा समयम्मि पढमम्मि ॥ ३५२ ।। भासा- | ६ समसेढिठिओ, तब्भासामीसियं सुणइ सई ।। तद्दव्वभावियाई, अण्णाई सुणइ विदिसत्थो ॥ ३५३ ॥ अणुसेढीगमणाओ, पडि- धायाभावओऽनिमित्ताओ ।। समयंतराणवस्था-णओ य मुक्काई न सुणेइ ।।३५४॥” [भाषासमश्रेणीतः, शब्द यं शणोति मिश्रकं शृणोति । विश्रेणिः पुनः शब्दं, शृणोति नियमात्पराधाते ॥ श्रेणिः प्रदेशपंक्तिर्वदतः सर्वस्य षट्सु दिक्षु ताः।। यासु विमुक्तो धावति भाषासमये प्रथमस्मिन् ॥ भाषासमश्रेणिस्थितस्तद्भाषामिश्रितं शृणोति शब्दम् ।। तव्यभावितान्यन्यानि, शृणोति बिदिकथः ॥ अनुश्रेणिगमनात्प्रतिघाताभावादनिमित्तात् ।। समयान्तरानवस्थानाच मुक्तानि न शृणोति ॥ ] ॥ इति ॥ व्यक्तार्थमदः ।। (योजितः पाठः) श्रोत्रविषय शब्दतो घ्राणादिग्रा. ह्यगन्धादीना | मनुश्रेणिग| मननियमाभावो विशेष उपपादितः । Foc w And Personal Lise Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरण श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥ ७६ ॥ www.kratatirth.org वाग्द्रव्याणामादानोत्सर्गावेवम्, सर्व एव वक्ता कायिकेन योगेन शब्दद्रव्याणि गृह्णाति वाचिकेन च योगेन निसृजति, प्रतिसमयं गृह्णाति मुञ्चति चेति, उक्तं च निर्युक्तिकृता “गिण्हइ य काइएणं, निसिरइ तह वाइएण जोएणं ।। एगंतरं च गिण्डइ, निसिरइ एगंतरं चैव ।। ३५५ ॥” इति, विवेचिता चेयं गाथात्रयेण भाष्यकृता तद्यथा - " गिण्डिज काइएणं, किह निसिरह वाइएण जोएणं ॥ को वाऽयं वड्जोगो, किं वाया, काय संरंभ १ ।। ३५६ || वाया न जीवजोगो, पोग्गलपरिणामओ रसाइन्छ । न य ताए निसिरिज्जइ, स च्चिय निसिरिज्जए जम्हा || ३५७|| ग्रह सो तणुसंरंभो, निसिरइ तो काइएण वक्तव्वं । तणुजोगविसेस च्चिय, मण-बइजोगत्ति जमदोसो || ३५८॥ [ गृह्णाति च कायिकेन, निसृजति तथा वाचिकेन योगेन । एकान्तरं च गृह्णाति निसृजत्येकान्तरमेव ॥ गृह्णीयात्कायिकेन कथं निसृजति वाचिकेन योगेन ।। को वाऽयं वाग्योगः किं वाग्बा काय संरम्भः । वाग् न जीवयोगः, पुद्गल परिणामतो रसादिरिव । न च तथा निसृज्यते, सैव निसृज्यते यस्मात् ॥ अथ स तनुसंरम्भो, निसृजति ततः कायिकेन वक्तव्यम् । तनुयोगविशेषावेव मनोवाग्योगाविति यददोषः] अत्र सार्धगाथाद्वयं परप्रश्नरूपं तदनन्तरमुत्तरम्, अत्र चेत्थं वृहद्वृत्ति:- "अत्र परः प्राह - ननु 'गिव्हइ य काइएणं' इति यदुक्तं तन्मन्यामहे, यतो गृह्णीयात् कायिकेन योगेन वाग्द्रव्याणि भाषकः, नेदमयुक्तं कायव्यापारमन्तरेण तद्ग्रहणायोगात्, यत्पुनरुक्तं 'निसिरइ तह वाइएण जोएणं' इति तदेतन्नावगच्छामः, यतः कथं नाम निसृजति वाचिकेन योगेन, गृह्यमाणाया वाचो जीवव्यापाररूपयोगाभावान्नैतद् घटत इत्यर्थः, इति संक्षेपेणोक्त्वा विस्तराभिधित्सया प्राह - को वाऽयमित्यादि, वेत्यथवा, किमनेन संक्षेपेण, विस्तरेणापि पृच्छामः कोऽयं नाम वाग्यांगः, येन निसृजतीत्युक्तं, किं वायति वागेव निसृज्यमाना भाषापुद्गलसमूहरूपो वाग्योगः १, किं वा कायसंरम्भः कायव्यापारस्व For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir ( योजित: पाठः ) तृतीयस्तरङ्गः ॥ मतिज्ञाननि -रूपणप्रसङ्गे इन्द्रियविषयमाननिरूपणं तत्र च शब्दद्रव्यादानो सर्वप्रक्रि पवनम् ॥ ॥ ७६ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire निसर्गहेतुर्वाग्योगः २, इति विकल्पद्वयम् , तत्र प्रथमविकल्पपक्षं निराकुर्वाह-वाया न जीवजोगो' इत्यादि, योगोऽत्र | 12 (योजितः शरीरजीवव्यापारः प्रस्तुतः, स च वाग् न भवति, पुद्गलपरिणामत्वात्तस्याः, रसगन्धादिवत्, यस्तु जीवव्यापाररूपो योगः स5 पाठः) पुद्गलपरिणामोऽपि न भवति, यथा जीवाधिष्ठितकायव्यापारः, अपि च न य ताएत्ति' न च तया वाचा किश्चिनिसृज्यते, मतिज्ञानतस्या एवं निसृज्यमानत्वात्, न च कर्मैव करणं भवति, अतो वागेव बाग्योग इति प्रथमविकल्पो न घटते, अथ द्वितीयमधि- पसले इन्द्रिकृत्याह-'अहेत्यादि ' अथासौ वाग्योगस्तनुसंरम्भः कायव्यापारः, ततः कायिकेन निसृजति इत्येवमेव वक्तव्यं स्यात्, अतः यविषयप्ररूकिमुक्तं 'निसिरइ तह वाइएण जोएणं' इति, अत्रोत्तरमाह 'तणुजोग' इत्यादि, ननु द्वितीयविकल्प एवात्राङ्गीक्रियते, केवलम- पणप्रस्तावे विशिष्टः काययोगो वाग्योगतया नास्माभिरिष्यते, किन्तु तनुयोगविशेषावेव कायव्यापारविशेषाव मनोवाग्योगाविष्येते, यद् वाम्योगमनोयस्मात्, ततोऽयमदोषः, न हि कायिको योगः कस्याश्चिदप्यवस्थायां शरीरिणां जन्तूनां निवर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेव योगयोस्त तन्निवृत्तेरिति, अतो वाग्निसर्गादिकालेऽपि सोऽस्त्येवेति भावः ॥ ३५६, ३२७, ३५८ ।। परमार्थतस्सर्वत्र कायिकस्य योगस्य त्वनिर्णवः ।। VI सद्भावेऽप्युपाधिभेदाद्योगत्रयविभजनं नानुपपत्र, तथाहि, येन संरम्भेण मनोवाग्द्रव्याणामुपादानं करोति स कायिको योगः, IA येन तु संरम्भेण वाग्द्रव्याणि मुञ्चति स वाग्योगः, येन च मनोद्रव्याणि चिन्तायां व्यापारयति स मानसिको योग इत्येवमुपाधिभेदात्रिधा विभक्तः कायिको योगः,तदाह भाष्यकृत् "किं पुण तणुसंरम्भेण,जेण मुंचइ स वाइओ जोगो।।मण्णइ य स माणसिओ, तणुजोगो चेव य विभत्तो॥३५९॥" [किं पुनस्तनुसंरम्येण, येन मुश्चति स वाचिको योगः। मन्यते च स मानसिक-स्तनुयोग एव च विभक्तः ॥] इति,अनुमानाच्च मनोवाग्योगोभयस्य तनुयोगरूपत्वं,प्रयोगश्च,मनोवाग्योगौ काययोगस्वरूपौ,कायेनैव तद्व्यग्रहणात् REMEMBER Fat PW And Penal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सविवरणं मीज्ञाना प्रकरणम्॥ स्तरङ्गः ॥ ता'तुल्लं तणुजोगत्ते, कीस बजो प्राणापानवदिति,न च दृष्टान्तासिद्धिः, प्राणापानव्यापारस्य तनुयोगत्वाभावे योगचतुष्टयप्रसङ्गात्,तदिदमाह भाष्यकृत् "तणुजोगो (योजितः च्चिय मण-वइ-जोगा काएण दव्वगहणाओ ॥ आणापाणव्व न चे, तओ वि जोगंतर होजा ॥३६०॥" [तनुयोग एव मनोवा पाठः) ग्योगी कायिकेन द्रव्यग्रहणात् । आनप्राणवद् न चेत्सोऽपि योगान्तरं स्यात् ।।] इति,तुल्येऽपि तनुयोगत्वे प्राणापानयोगस्य न तृतीयपृथग्रहणं मनोवाग्योगयोश्च पृथग्रहणमित्यत्र लोकलोकोत्तररूढतया व्यवहारप्रसिद्धिरेव नियामकं, लोके लोकोत्तरे च कायिकबाचिकमानसिकयोगानामेव त्रयाणां व्यवहारो न प्राणापानयोगस्य, तदिदमुक्तं भाष्यकृता'तुल्ल तणुजोगत्ते, कोस व जोगतरं योगी तओ न कओ॥ मण-वइजोगा व कया, भण्णइ ववहारसिद्धत्थं ॥३६॥" [तुल्ये तनुयोगत्वे कस्माद्वा योगान्तरं स न कृतः॥ योगयोस्तमनोवाग्योगौ वा कृतौ भण्यते व्यवहारसिद्धयर्थम् ।।] इति, कायक्रियातिरिक्तं स्वाध्यायविधान-परप्रत्यायनादिकं वाचः, धर्म नुयोगत्वेऽपि ध्यानादिकं मनसश्च विशिष्ट स्फुटं फलं यथोपलभ्यते नैवं प्राणापानयोरित्यस्मात् कारणात्प्राणापानयोगस्य न पृथग्व्यवहारः, पृथग्ग्रहणं न किन्तु मनोवाग्योगयोरेच, जीवत्यऽसावितिप्रतीतिजननादिलक्षणं फलश्च प्राणापानयोगस्य न पृथग्योगत्वप्रयोजक, तथा सति प्राणापानधावति वलगतीत्यादिप्रतीतिफलजननाद्धावनवल्गनादिव्यापारस्यापि पृथम्योगत्वं प्रसज्येतेति, तदाह भाष्यकारः "कायकिरि योगस्य तथायाइरि,नाऽऽणापाणफलं जह वईए ।। दीसइ मणसो य फुड,तणुजोगम्भतरो तो सो ॥३६२॥” [कायक्रियाव्यतिरिक्तं, नाऽऽनप्राण स्वमित्यफलं यथा वाचः । दृश्यते मनसश्च स्फुटं तनुयोगाभ्यन्तरस्ततः सः॥] इति, तनुयोगान्तर्गतत्वेऽपि वाग्योगमनोयोगयोरुपाधि-AL भेदेन पृथगभिधानमित्येकः पक्षो व्यावर्णितः, अस्ति चात्र स्वतन्त्राव वाग्योगमनोयोगाविति तयोः पार्थक्येन विभजनमिति दर्शिता। द्वितीयोऽपि पक्षः। स चैव-कायच्यापारगृहीतेन वाग्द्रव्यसमूहेन सहकारिणा वाग्निसर्गार्थ जीवस्य व्यापारो वाग्योगः, कायव्या ॥ ७७॥ STEM Ge Fat PW And Penal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire KAMASKAROBARAMAKAR पारगृहीतेन मनोद्रव्यसमूहेन सहकारिणा वस्तुचिन्तनाय जीवस्य व्यापारो मनोयोगः, प्रथमेन परप्रत्यायनं द्वितीयेन जिन-18 (योजितः मृादिचिन्तनमित्येवं स्वतन्त्रावेव तौ, यद्यपि प्राणापानद्रव्यसाचिव्यात्तन्मोचने जीवव्यापारः प्राणापानयोग इति सोऽपि पाठः) स्वातन्त्र्येण पृथग व्यपदेष्टुं शक्यस्तथापि लोकलोकोत्तररूढव्यवहारसिद्धयर्थ तयोरेव पार्थक्येनाभिधानं न तु स्वतन्त्रस्यापि स्वतन्त्रत्वाप्राणापानयोगस्येति बोध्यम् , अत्रार्थे गाथाद्वयं भाष्यस्य यथा-"अहवा तणुजोगाहिअ-वइदब्बसमूहजीववावारो ।सो वइजोगो13 देव बाग्योभण्णइ, वाया निसिरिजए तेणं ॥३६३।। तह तणुवावाराहिअ-मणदव्वसमूहजीववावारो ।सो मणजोगो भण्णइ,मण्णइ नेयं जओ गमनोयोगतेणं ॥३६४॥"[अथवा तनुयोगाहृत-वारद्रव्यसमूहजीवव्यापारः॥स वाग्योगो भण्यते वाग् निसृज्यते तेन ।। तथा तनुव्यापाराहत- योः पार्थमनोद्रव्यसमूहजीवव्यापारः। स मनोयोगो मण्यते, मन्यते ज्ञेयं यतस्तेन ।।] इति, प्रतिसमयं गृह्णाति मुश्चतीत्येवमेकान्तरं गृणाति क्येन विभमुन्नतीत्येतत्स्वरूपं प्रागुक्तं तत्कथमित्यपेक्षायामुच्यते, यथैकस्माद् ग्रामादन्योऽनन्तरितोऽपि लोकरूढ्या ग्रामान्तरमुच्यते, पुरुषा- ६ जनं न तु प्राद्वाऽन्यः पुरुषोऽनन्तरोऽपि पुरुषान्तरमभिधीयते तथेहापि एकस्मात्समयादन्यः समयोऽनन्तरोपि समयान्तरमुच्यते णापानयोगतेनानुसमयमेव गृहाति मुश्चति चेति सिद्धं भवति, तदुक्तं भाष्यकृता-"जह गामाओ गामो, गामंतरमेवमेग एगाओ। 1स्येतिविचारः एगंतरंति मण्णइ, समयादर्णतरो समओ ॥ ३६५ ॥ " [यथा ग्रामाद् ग्रामः, प्रामान्तरमेवमेक एकस्मात् ।। पतिसमयं गृएकान्तरमिति भण्यते, समयादनन्तरः समयः ॥ ] इति, ये तु मन्यन्ते ग्रहणं विसर्जनं च शब्दद्रव्याणामेकैकेन समये बाति मुखनान्तरितमित्येकान्तरमिति, तेषामेवम्मननं न युक्तं तथा सति अन्तराऽन्तरा विच्छिमरत्नावलीरूपो ध्वनिः स्यात्, एवञ्चाविच्छेदेन तोत्येतद्विशब्दग्रहणानुपपचिप्रसङ्गः, प्रतिसमयग्रहणप्रतिपादकत्वेन प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपचितात्पर्यकस्य "अणुसमयमविरहि निरंतरं चार ॥ REGARAMA Rec Fat PW And Penal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सविवरणं श्रीज्ञाना-18 SCIEOS SAGRESS प्रकरणम् ॥ ॥ ७८॥ गिम्हइ " इति सूत्रस्य विरोधश्च, तदाह भाष्यकार:-"केई एगंतरिय, मण्णन्तेगंतरं ति तेसिं च ॥ विच्छिन्नावलिरुवा,होइ धणी, (योजितः सुयविरोहो य ॥३६६॥"[केचिदेकान्तरितं मन्यन्ते, एकान्तरमिति तेषां च ॥ विच्छिमावलीरूपो, भवति ध्वनिः श्रुतविरोधश्च ॥] पाठः) इति, ननु "संतरं निसिरइ नो निरंतरं निसिरह, एगेणं समएणं गिण्हइ, एगेण समएणं निसिरह" इत्यादि प्रज्ञापनोक्तसूत्रमस्म ॥ तृतीयः स्पक्षसमर्थकमपि समस्तीति तत्कथमुच्यते अनुसमयं गृह्णाति मुश्चति चेति चेत्, उच्यते, अनुसमयग्रहणेऽनुसमयनिसर्गोऽपि युक्त तरङ्गः॥ एव गृहीतस्यावश्यमेवानन्तरसमये निसर्गात्, न चैवं 'संतरं निसिरह' इत्यस्यासङ्गतता, विषयविभागेन तदुपपत्तेः, निसर्गो हि ग्रहण अनुसमय मपेक्ष्य भवति, यस्मिन् प्रथमादिसमये यानि भाषाद्रव्याणि गृहीतानि न तानि तस्मिन्नेव ग्रहणसमये नैरन्तर्येण निसृजति, किन्तु 16 गृहाति मुग्रहणसमयादनन्तरसमये निसृजति,यथा प्रथमसमयगृहीतानां न तस्मिन्नेव समये निसर्गः,किन्तु द्वितीयसमय एव, एवं द्वितीयसमय श्वति चेति गृहीतानां तृतीयसमये, तृतीयसमयगृहीतानां चतुर्थसमये इत्यादि, तदेवं ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तर एव, द्वितीयादिषु सर्वेष्वपि ५ सिद्धान्ते प्र. समयेषु निरन्तरं तद्भावात्समयापेक्षया तु निसर्गो निरन्तर एच,नागृहीतं कदापि निसृज्यत इति नियमाद् ग्रहणपरतन्त्रतया निसर्गस्ये ज्ञापनापाठति 'संतरं तेणं ति प्रज्ञापनायां ग्रहणान्तरितत्वेन निसर्जनं सान्तरमुक्तं, नानिसृष्टं गृह्यत इति नियमस्य तु प्रथमसमये निसर्गमन्तरे विरोधाप | तिपरिहाणापि ग्रहणसद्भावतोऽभावेन खतन्त्रं ग्रहणमिति विषयविभागेन "संतरं निसिरह" इत्युपपद्यते, 'ननिरंतरं' इत्यपि निरन्तरशब्दस्य | रेण तत्त्वोसमशन्दपर्यायत्वेन न ग्रहणसमकालं निसृजति किं तु पूर्व पूर्व गृहीतमुत्तरोत्तरसमयेषु निसृजतीत्येवंपरतयोपपद्यते " एगेणं पपादनम्।। समयेणं गिण्हइ, एगेणं समयेणं निसिरह" इत्यपि आधेनकेन समयेन गृह्णात्येव न निसृजति, द्वितीयादिसमयादारभ्यैव निसर्गस्य भावाद्, पर्यन्तवर्तिना त्वेकेन समयेन निसृजत्येव न तु गृणाति भाषाभिप्रायोपरमादित्येवं परतया एकेन पूर्वपूर्वसमयेन ॥ ७८॥ RECECASS Fat PW And Penal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGRABHASABHASHA गृणाति, एकेनोत्तरोत्तरसमयेन निसृजतीत्येवम्परतया वोपपद्यत इति, तमिममर्थ प्रतिपादयति भाष्यगाथाचतुष्टयं यथा"आह, सुए चिय निसिरइ, संतरियं न उ निरंतर भणियं ॥ एगेण जओ गिण्हइ, समयेणेगेण सो मुयइ ॥३६७।। अणुसमयमणतरियं, गहणं भणियंजओ विमुक्खो वि ।। जुत्तो निरंतरो चिय, भणइ, कह संतरो भाणओ ॥३६८।। गहणावेक्खाए तओ, निरंतर जम्मि जाई गहियाई ॥न वि तम्मि चेव निसिरइ, जह पढमे निसिरणं नस्थि ॥३६९।। निसिरिजइ नागहियं, गहणंतरियति सतरं तेण ॥ न निरंतरंति न समयं, न जुगवमिह होंति पजाया ॥ ३७० ॥" [आह, श्रुत एव निसृजति, सान्तरितं न तु निरन्तरं भणितम् ॥ एकेन यतो गृह्णाति, समयेनेकेन स मुञ्चति ॥ अनुसमयमनन्तरितं, ग्रहणं भणितं यतो विमोक्षोऽपि ॥ युक्तो निरन्तर एव, भणति कथं सान्तरो भणितः १ ॥ ग्रहणापेक्षया तको, निरन्तरं यस्मिन्यानि गृहीतानि । नापि तस्मिन्नेव निसृजति, यथा प्रथमे निसर्जनं नास्ति ॥ निसृज्यते नाऽगृहीतं, ग्रहणान्तरितमिति सान्तरं तेन ॥ न निरन्तरमिति न समयं, न युगपदिह भवन्ति पर्यायाः ॥] इति, ग्रहणादेजघन्यमुत्कृष्टश्च कालमानमेवं प्रतिपत्तव्यं, तथाहि-ग्रहणनिसर्गभाषा इत्येवं त्रीण्यपि प्रत्येकं जघन्यत एकसमयानि भवन्ति, ग्रहणनिसर्गोभयन्तु प्रथमसमये ग्रहणं द्वितीयसमये निसर्ग इति कृत्वा द्विसमयम्, निसर्गादभेदेऽपि भाषाया भाष्यमाणैव भाषा न तु गृह्यमाणेति निसर्गस्यैव भाषात्वं न तु ग्रहणनिसर्गोभयस्येत्येतत्प्रतिपत्तये पृथगभिधानं, उभयस्य भाषात्वे द्विसमयत्वापत्तिः, ग्रहणस्य तु भाषाव्युत्पत्तिनिमित्ताभावादेव न भाषात्वं, भाषायाः पृथगग्रहणे तु कश्चित्तदुभयस्यापि योग्यतया भाषात्वं प्रतिपद्येत, तत्र 'भासिजमाणा भासा' इत्यागमविरोधः, निसर्गभाषयोरभेदेऽपि मन्दधियः निसर्गकालमानानुक्तिभ्रमोन्मूलनार्थ निसर्गस्यापि पृथग्वचनम्, सर्वाण्यप्येतानि उत्कृष्टता प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तकालं GERRHEARREARRRRRRES (बोजितः पाठः) अनुसमय वाति मुच्चमातीत्येतत्स४ वादकं भाष्य | वचनं ग्रहॐणादेर्जघन्य मुत्कृष्टश्च कालमान मुपपादि तम् ॥ १४ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणं भीज्ञाना कप्रकरणम्॥ ॥७९॥ CREASANAORE | भवन्ति, अन्तर्मुहूर्तमपि महाप्रयत्नस्य लघु भवति अल्पप्रयत्नस्य तु बृहत्प्रमाणं भवतीति, उक्तार्थसंवादिन्यौ भाष्यस्येमे गाथे "गहणं मोक्खो भासा, समयं गह-निसिरणं च दो समया ॥ होंति जहणंतरओ, तं तस्स च बीयसमयम्मि ।। ३७१ ॥ गहणं मोक्खो भासा, गहणविसग्गा य होंति उक्कोसं ॥ अंतोमुहुत्तमेवं, पयत्तभेएण भेयो सिं ॥३७९॥" [ग्रहणं मोक्षो भाषा समय, ग्रह-निसर्जनं च द्वौ समयौ। भवन्ति जघन्यान्तरतस्तत् तस्य द्वितीयसमये॥ ग्रहणं मोक्षो भाषा ग्रहणविसौ च भवन्त्युत्कर्षतः॥ अन्तर्मुहूर्तमानं प्रयत्नभेदेन भेद एषाम् ॥] इति, प्रथमसमये ग्रहणमेव चरमसमये निसर्ग एच, मध्यसमये तु द्वावपि भवतः, एकस्मिन् समये कथं तदुभयं विरोधादिति नाशङ्कनीयम्, यस्यैव यस्मिन् समये ग्रहणं तस्यैव तस्मिन्नेव समये निसर्ग इत्युपगमे स्याद्विरोधः, न चैवमुपगमः, किन्तु प्रथमसमये यस्य ग्रहणं तस्य द्वितीयसमये निसर्गोऽन्यस्य च तदानीं ग्रहणमित्येवमुत्तरोत्तरसमयेऽभ्युपगमे विषयभेदेन विरोधाभावात, एकस्मिन् समये उपयोगद्वयस्यैवासम्भवो न तु. क्रियादयस्य "जुगवं दो नत्थि उवओगा" इतिवचनादागमे उपयोगद्वयस्यैव यौगपद्यनिषेधो न तु क्रियाद्वयस्य, "भंगियसुयं गणतो, वट्टइ तिविहे विज्झाणम्मि" इत्यादिवचनेन वामनःकायक्रियाणामेकत्र समये प्रवृत्तिरभ्युपगतैव, अगुल्यादिसंयोगविभागक्रिययोः, संघातपरिसाटक्रिययोः, उत्पादच्ययक्रिययोश्चैकत्र समयेऽनेकस्थानेष्वागमेऽनुज्ञा विहितैव, तथाऽध्यक्षतोऽपि जिनप्रतिमामर्चयतः पुंसः एकस्मिन् समये करणभेदेन घण्टिकाचलनधूपदानप्रतिमादिवीक्षणस्तुतिपठनादीनां बह्वीनामपि क्रियाणां युगपत् प्रवृत्तिदृश्यत इति ॥ तदाह भाष्यकारः “गहणविसग्गपयत्ता, परोप्परविरोहिणो कहं समए । समए दो उवओगा, न होज, किरियाण को दोसो ॥३७३ ॥" [ग्रहणविसर्गप्रयत्नौ, परस्परविरोधिनौ कथं समये ? ॥ समये द्वावुपयोगौ न भवेतां क्रियाणां को दोषः] (योजितः पाठः) ग्रहणादेर्जघन्योत्कृष्टकालमानोपदर्शने भाष्यसंवादः एकसमये क्रियायौगपद्याविरोधे भाष्य- . संवादश्च ॥७९॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym (योजितः पाठः) औदारिक क्रियाहार इति, कायिकेन योगेन भाषापरिणमनयोग्यानि द्रव्याणि प्रथमसमये गृह्णातीति सामान्येनोपदर्शितं परमत्र मौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदेन पञ्चविधेषु कायेषु औदारिकवैक्रियाहारकशरीरेषु जीवप्रदेशाः भवन्ति नान्यत्र, तैर्जीवप्रदेशैर्जीवाभिन्नैर्भाषणाभिप्रायादिसामग्रीपरिणामे सति भाषापर्याप्तिमान् भाषको वाग्द्रव्यनिकुरम्बं गृहीत्वा सत्यां सत्यामृषां मृषां असत्यामृषां चेत्यन्यनमा भाषां भाषते निसृजति, तथा चौदारिकशरीरवान् वैक्रियशरीरवान् आहारकशरीरवान् वा जीवो गृह्णाति मुश्चति चेति पर्यवसितम्, तदुक्तं नियुक्तिकृता"तिविहम्मि सरीरम्मि, जीव-पएसा हवंति जीवस्स ।। जेहि उगेण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥३७४ । ओरालिय वेउब्बिय-आहारओ गेहइ मुयइ भासं ॥ सच्च सच्चामोसं, मोसं च असच्चमोसं च ॥३७५६ [त्रिविधे शरीरे जीव-प्रदेशा भवन्ति जीवस्य ।। यैस्तु गृह्णाति ग्रहण,ततो भाषते भाषको भाषाम्।। औदारिको वैक्रियआहारका गृह्णाति मुश्चति भाषाम् । सत्यां सत्यामृषां मृषा चासत्यामृषां च ॥] इति, तत्र सद्भधः साधुभ्यो मुनिभ्यो हिता इहपरलोकाराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका अथवा सद्भयो मूलोत्तरगुणरूपेभ्यो गुणेभ्यो जीवादिपदार्थेभ्यो वाऽविपरीतयथावस्थितस्वरूपप्ररूपणेन हिता सत्या भाषा १, विपरीतस्वरूपा तु मृषाभाषा २, तदुभयस्वभावा सत्यामृषा ३, या तूक्तत्रितयलक्षणानन्तर्भाविनी आमन्त्रणाज्ञापनादिविषयो व्यवहारपतितः शब्द एव केवलः साऽसत्यामृषा ४, एताश्चतस्रोऽपि भाषाः सभेदलक्षणोदाहरणा दशवैकालिकनियुक्त्यादिकसूत्रतोऽवसेयाः, तथा चाह भाष्यकारः "सच्चा हिता सयामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा ।। तश्विवरीआ मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा ।। ३७६ ॥ अणहिगया जा तीसु वि, सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा ।। एया सभेयलक्खण-सोदाहरणा जहा सुत्ते।।३७७॥"[सत्या हिता सतामिह, सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा । तद्विपरीता मृषा, मिश्रा या तदुभयस्वभावा । अनधि. कान्यतमशरीरवान् भाषक: स. त्यादिचतुभेदान्यतमभाषां गृह्णाां ति मुञ्चतीस्वत्र नियुक्तिगाथासंवादः सत्यादिनिरु कौ भाष्यसंवादश्च ॥ AREE Fat PW And Penal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra सविवरणं भीवाना प्रकरणम्॥ ॥८ ॥ | कृता या तिसृष्वपि शब्द एव केवलोऽसत्यमृषा ॥ एताः सभेदलक्षण-सोदाहरणा यथा सूत्रे ॥] इति, औदारिकादिशरीरवता जीवेन | मुक्ता भाषा समस्तमपि लोकं व्यामोति, तेन द्वादशभ्योऽपि योजनेभ्यः परतो गतिरस्त्येव शब्दद्रव्याणां, यथा स्वविषयद्वादशयोजनाभ्यन्तरे नैरन्तर्येण तद्वासनासामर्थ्य, तथा बहिरपि केषाश्चिच्छब्दद्रव्याणां कृत्स्नलोकव्याप्तानां,चतुर्दशरज्वात्मका क्षेत्रलोकश्चतुर्भिस्समयैः कस्यचित्सम्बन्धिन्या भाषया पूर्यते, लोकस्य पर्यन्तवय॑सङ्ख्येयभागे च समस्तलोकव्यापिन्या भाषाया अपि चरमान्तोऽसंख्येयभागो भवति, तदिदमाह शङ्कासमाधानाभ्यां नियुक्तिकारः-"कईहिं समएहिं लोगो, भासाए निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य कइभाए, कइभाओ होइ भासाए ॥३७८|| चउहि समयेहिं लोगो, भासाए निरंतर तु होइ फुडो । लोगस्स य चरिमंते, चरिमंतो होइ भासाए ॥३७९॥"[कतिभिः समयलोंको भाषया निरन्तरं तु भवति स्फुटः, ॥ लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः॥चतुर्भिः समयैर्लोको,भाषया निरन्तरं तु भवति स्फुटः।। लोकस्य च चरमान्ते चरमान्तो भवति भाषायाः] इति, सर्वस्यापि वक्तुर्भाषा न लोकं व्यामोति किन्तु कस्यचिदेव, तथा हि-वक्ता द्विविधस्तत्रैक: उरग्क्षतायुपेतत्वेन मन्दप्रयत्नो वक्ता सर्वाण्यपि भाषाद्रव्याण्यभिन्नानि निसृजति, अन्यस्तु नीरोगतादिगुणस्तीव्रप्रयत्नो वक्ता भाषाद्रव्याणि आदाननिसर्गप्रयस्नाभ्यां सूक्ष्मखण्डीकृत्य मुञ्चति,अनन्तभापाद्रव्यस्कन्धाश्रयभूतक्षेत्रविशेषरूपावगाहना वर्गणा असंख्येया गत्वा ततो मन्दप्रयत्नवक्तृनिसृष्टान्यभिन्नानि भाषाद्रव्याणि भिद्यन्ते, संख्येयानि च योजनानि गत्वा ध्वंसन्ते, उक्तञ्चप्रज्ञापनायां भाषापदे 'जाई अभिनाई निसिरइ, ताई असंखेजाओ ओगाहणाओ गंता भेयमावअंति, संखिजाई जोयणाई गंता विद्धंसमागच्छंति" यानितु महाप्रयत्नो वक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निसृजति तानि सूक्ष्मत्वात् बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नु (योजितः पाठः) कस्यचिद्धचतुर्भाषा चतुर्मिस्समयैर्लोकं व्यामोति न सा सर्वस्य तथेत्यस्योपपादकंनियुक्तिवचनं तथा प्रज्ञापनाबचनश्च ॥८ ॥ Fox PW And Penciale Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGAR (योजितः पाठः) भाषया लोकपूर्ती भाष्यसंवादूदः केवलिस मुद्धातदिशा MULAGEBCAMESSAEBACODIA वन्ति, शेषन्तु तत्पराघातवासनाविशेषाद्वासितया भाषयोत्पन्नभाषापरिणामद्रव्यसंहतिरूपया सर्व लोकं निरन्तरमापूरयन्ति, उक्तश्च " जाई भिन्नाई निसिरइ ताई अणंतगुणपरिवड्डीए परिवड्डमाणाई लोयतं फुसन्ति" इति, तदाह भाष्यकार:-"कोई मंदपयत्तो, निसिरइ सयलाई सम्बदब्वाई । अन्नो तिब्वपयचो, सो मुंचइ भिंदिउं ताई ॥३८०॥ गंतुमसंखेजाओ, अवगाहणवग्गणा अभिबाई ।। 'भिज्जति धंसंति य, संखिज्जे जोयणे गंतु ॥३८१॥ भिन्नाई सुहुमयाए, अर्णतगुणवड्डिाई लोगतं ।। पार्वति पूरयंति य, भासाए निरंतर लोग।।३८२॥" [कोऽपि मन्दप्रयत्नो निसृजति सकलानि सर्वद्रव्याणि।। अन्यस्तीव्रप्रयत्नः, स मुञ्चति भिवा तानि।। गत्वाऽसंख्यया अवगाहन-वर्गणा अभिन्नानि ।। भिद्यन्ते ध्वसन्ते च संख्येयानि योजनानि गत्वा । भिन्नानि सूक्ष्मतयाऽनन्तगुणववि॒ितानि लोकान्तम्।प्राप्नुवन्ति पूरयन्ति च,भाषया निरन्तरं लोकम्]।। इति,दण्डं प्रथमे समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये ।। मन्थानमथ तृतीये, लोकव्यापी चतुर्थ च।।१।।इत्यादिग्रन्थोक्तेन केवलिसमुद्घातक्रमेण चतुर्भिः समयैः सर्वोऽपि लोको भाषाद्रव्यैरापूर्यत इति केचित्,त्रिभिः समयैः सर्वो लोकः पूर्यत इत्यन्ये,तत्रैवं क्रमः-लोकमध्यस्थितेन महाप्रयत्नभाषण मुक्तानि भाषाद्रव्याणि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति 'जीवसूक्ष्मपुद्गलानामनुश्रेणिगमनात्,' ततो द्वितीयसमये त एव षट् दण्डाश्चतुर्दिशमेकैकशोऽनुश्रेण्या वासितद्रव्यैः प्रसरन्तः पट् मन्थानो भवन्ति, तृतीयसमये तु मन्थान्तरैः पूरितैः पूरितो भवति सर्वोऽपि लोकः, स्वयम्भूरमणपरतटवर्तिनि लोकान्तेऽलोकस्यात्यन्तं निकटीभूय भाषमाणस्य भाषकस्य त्रसनाड्या बहिर्वा चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि भाषमाणस्य भाषकस्य चतुर्भिस्समयैर्लोकः सर्वोऽपि पूर्यते। तदुक्तं भाष्यकृता “जइणसमुग्धायगईए,केई भासंति चउहि समएहि ।। पूरइ सयलो लोगो, अण्णे उण तीहि समएहिं ॥३८३ ।। पढमसमए चिय जओ, मुक्काई जति छदिसिं ताई ।। चतुर्भिस्स| मौर्लोकपूरणमिति मत तथा त्रिभिस्समथैरितिमतं तत्क्रमश्वेत्युभयत्र भाष्यसंवादः॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णव प्रकरणम् ॥ ॥ ८१ ॥ www.krahatirth.org बितियसमयम्मि ते च्चिय, छ दंडा होंति छम्मंथा ॥ ३८४ ॥ मंथंतरेहिं तईए, समये पुनेहिं पूरिओ लोगो || चउहिं समएहिं पूरइ, लोगंते भासमाणस्स ॥ ३८५ ॥ [ जैनसमुद्घातगत्या, केचिद् भाषन्ते चतुर्भिः समयैः ॥ पूर्यते सकलो लोकोऽन्ये पुनस्त्रिभिः समयैः ॥ प्रथमसमय एव यतो मुक्तानि यान्ति पसु दिक्षु तानि ॥ द्वितीयसमये त एव, पद्दण्डा भवन्ति षड्मन्थानः ॥ मन्थान्तरैस्तृतीये समये पूर्णैः पूरितो लोकः ॥ चतुर्भिः समयैः पूर्यते लोकान्ते भाषमाणस्य ।। ] इति ।। अथ लोकान्तवर्तनसनाडी बहिर्व्यवस्थितस्य वा भाषकस्य भाषाद्रव्यैश्चतुर्भिः समयैर्लेीकपूरणं प्रतिपादितं त्रसनाडीबहिर्विदिग्व्यवस्थितस्य च पञ्चभिः समयैर्लोकापूरणं भवति तदेतत्सर्वं कथं मिलतीति चेत्, अत्रार्थे सविवरणे भाष्यगाथे एव तत्स्वरूपप्रदर्शिके प्रदर्शयेते, तथाहि - " दिसिवडियस्स पढमोऽतिग मे ते चैव सेसया तिन्नि ।। विदिसि द्वियस्स समया, पंचातिगमम्मि जं दोण्णि || ३८६ | | " व्याख्या - सनाढ्या बहिश्चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थितस्य भाषकस्य प्रथमः समयोऽतिगमे नाडीमध्यप्रवेशे भवति । शेषसमयत्रयभावना तु 'होइ असंखेजहमे भागे' इत्यादिवक्ष्यमाणगाथावृत्ती कथमिति चेदित्यादिना वक्ष्यते । लोकान्तेऽपि स्वयम्भूरमणपरतटवर्तिनि चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थितस्य भाषकस्योर्ध्वाधोलोकस्खलितत्वाद्भाषाद्रव्याणां प्रथमः समयोऽतिगमे लोकमध्यप्रवेशे, त्रयस्तु समयाः शेषास्तथैव, त्रसनाडीबहिर्विदिग्व्यवस्थितस्य तु भाषकस्य भाषाद्रव्यैः सर्वलोकापूरणे पश्च समया लगन्तीति विशेषः । कुतः इत्याह- 'अतिगमम्मि जं दोणि त्ति' विदिशः सकाशाद्भाषाद्रव्याणि सनाडीबहिरेव प्रथमे समये दिशि समागच्छन्ति, द्वितीये तु लोकनाडीमध्ये प्रविशन्ति इत्येवं यस्मादतिगमे नाडीमध्यप्रवेशे द्वौ समयौ लगतः । शेषास्तु त्रयः समयाश्चतुःसमयव्याप्तिवद् द्रष्टव्याः इत्येवं पञ्चसमयाः सर्वलोकापूरणे प्राप्यन्त इति ॥ ३८६ ॥ For Print And Personal Use Only Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir ( योजित पाठः ) लोकान्तवत्रिसना डी. बहिर्व्यव स्थितवक्तृ भाषाद्रव्यैश्वतुस्समयैर्लो कपूरणं त्रसनाडीहदिविस्थतव क्तृभाषया पञ्चसमयैलोकपूरमित्युपदर्शनम् ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire कर ACCOUGREEKALASHRES अथ शेषसमयत्रयभावनार्थ 'होइ असंखेजइमे भागे' इत्यादि यदुक्तं तदाह-किश्च नियुक्तिकृता 'लोगस्स य कइभाए कइ- योजितः भाओ होइ भासाए' इति यत्प्रतिपादितं तद्वयाचिख्यासुभंगवान् भाष्यकार आह पाठः) भा. "होइ असंखेजइमे, भागे लोगस्स पढमविइएसु ॥ भासा असंखभागो. भयणा सेसेसु समयेसु ॥ ३९॥" षायाः त्रिव्याख्या-चतुर्दशरज्जूच्छ्रितस्य लोकस्याऽसंख्याततमे भागे भाषाया अपि समस्तलोकव्यापिन्या असंख्याततम एव चतुःपञ्चसभागो भवति । कदा?, इत्याह-प्रथमद्वितीयसमययोः । इदमुक्तं भवति-त्रिसमयव्याप्ती, चतुःसमयव्याप्ती, पञ्चसमयव्याप्तौ मयलोकव्याच प्रथमसमयद्वितीयसमययोस्तावद् नियमेन सर्वत्र लोकासंख्येयभागे भाषाऽसंख्येयभागलक्षण एव विकल्पः सम्भवति, प्तिषु प्रथमनान्यः । त्रिसमयव्याप्तौ हि प्रथमसमये दण्डषट्कं भवति, द्वितीयसमये तु पड् मन्थानः सम्पद्यन्ते । एते च दण्डादयो दैर्येण । यद्यपि लोकान्तस्पर्शिनो भवन्ति, तथापि वक्तृमुखविनिर्गतत्वात्तत्प्रमाणानुसारतो बाहल्येन चतुरङ्गुलादिमाना एव भवन्ति, द्वितीयस. चतुरादीनि चागुलानि लोकासंख्येयभागवर्तिन्येव । इति सिद्धस्त्रिसमयव्याप्तौ प्रथमद्वितीयसमययोलौकासंख्येयभागे मययोर्लोभाषाऽसंख्ययभागः । चतुःसमयव्याप्तावप्येतदित्थमवगम्यत एव, प्रथमसमये लोकमध्यमात्र एवं प्रवेशात, द्वितीय- कासंख्येयसमये तु वक्ष्यमाणगत्या दण्डानामेव सद्भावादिति । पञ्चसमयव्याप्तिपक्षे तु सुबोधमेव, प्रथमसमये भाषाद्रव्याणां भागे भाषासंविदिशो दिश्येव गमनात् , द्वितीयसमये तु लोकमध्यमात्र एव प्रवेशात् । तस्मात् व्यादिसमयव्याप्ती सर्वत्र प्रथम ख्येयभागस्य द्वितीयसमययोर्लोकासंख्येयभागे भाषाया असंख्येयभाग एव भवति । 'भयणा सेसेसु समएसुत्ति' उक्तशेषेषु तृतीय-५ नियमोऽन्यत्र चतुर्थपञ्चमसमयेषु भजना विकल्परूपा बोद्धव्या, क्वापि लोकासंख्येयभागे स एव भाषाऽसंख्येयभाग एव भवति, भजनेत्युप पादितम् ।। RECEMECC Fat PW And Penal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना प्रकरणम् ॥ ॥८२॥ HORECARRAHASHISHEKEGAONG क्वचित्पुनर्लोकस्य संख्येयभागे भाषासंख्येयभागः, क्वापि समस्तलोकव्याप्तिः । तथा हि-त्रिसमयव्याप्तौ तृतीयसमये भाषायाः समस्तलोकव्याप्तिः, चतुःसमयव्याप्तित्तीयसमये तु लोकसंख्येयभागे भाषासंख्यभागः । कथं १, इति चेद् , उच्यते-स्वयम्भूरमणपश्चिमपरतटवर्तिनि लोकान्ते असनाडीबहिर्वा पश्चिमदिशि स्थित्वा ब्रुवतो भाषकस्य प्रथमसमये चतुरगुलादिवाहल्यो रज्जुदी| दण्डस्तिरश्चीनं गत्वा स्वयम्भूरमणपूर्वपरतटवर्तिनि लोकान्ते लगति, ततो द्वितीयसमये तस्माद्दण्डाद् |ऽधश्चतुर्दशरज्जूच्छ्रितः पूर्वापरतस्तिरवीनरज्जुविस्तृतः पराघातवासितद्रव्याणां दण्डो निर्गच्छति, लोकमध्ये तु दक्षिणत उत्तरतश्च पराघातवासितद्रव्याणामेव चतुरङ्गुलादिवाहल्यं रज्जुविस्तीर्ण दण्डद्वयं विनिर्गत्य स्वयम्भूरमणदक्षिणोत्तरवर्तिनोर्लोकान्तयोर्लगति । एवं च सति चतुरगुलादिवाहल्यं सर्वतोऽपि रज्जुविस्तीर्ण लोकमध्ये वृत्तच्छत्वरं सिद्धं भवति, तृतीयसमये तूर्खाधोव्यवस्थितदण्डाच्चतुर्दिशं प्रमृतः पराघातवासितद्रव्यसमूहो मन्थानं साधयति, लोकमध्यव्यवस्थितः सर्वतोरज्जुविस्तीर्णाच्छत्वराधिःप्रसृतः पुनः स एव बसनाडी समस्तामपि पूरयति, एवं च सति सर्वापि त्रसनाडी उधिोव्यवस्थितदण्डमथिभावेन तदधिकं च लोकस्य पूरितं भवति । एतच्चतावत्क्षेत्र, तस्य संख्याततमो भागः । तथा च सति चतुःसामयिक्या व्याप्तेस्तृतीयसमये लोकस्य संख्याततमे भागे भाषाया अपि समस्तलोकव्यापिन्याः संख्याततमो भाग इति स्थितम् ॥ पञ्चसामयिक्यास्तु व्याप्तेस्तृतीयसमये लोकासंख्येयभागे भाषाऽसंख्येयभागः । कुतः १, इति चेत्, उच्यते-तस्यां तस्य दण्डसमयत्वात् , तत्र च संख्येयभागवर्तित्वस्य प्रागेव भावितत्वादिति । चतुर्थसमये चतुःसामयिक्यां व्याप्तौ मन्थान्तरपूरणात्समस्तलोकव्याप्तिः । पञ्चसामयिक्यां तु व्याप्तौ चतुर्थसमये लोकसंख्येयभागे भाषासंख्येयभागा, तस्यां तस्य मथिसमयत्वात्, तत्र (योजितः पाठः). भाषायात्रिचतुःपञ्चसमबलोकव्याप्तिषु तृतीयसमयादौ भजनाप्रकार उपवर्णितः॥ ७ ॥ ८२॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BREAKINGAA च संख्येयभागवर्तित्वस्य प्रागेव भावितत्वादिति।पञ्चमसमये तु पञ्चसामयिक्यां व्याप्तौ मन्थान्तरालपूरणात्समस्तलोकव्याप्तिरिति । एवं तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भाविता भजना, तद्भावने च व्याख्यात 'भयणा मेसेसु समयेसु' इति । एतच्च महाप्रयत्नवक्तृनिसृष्टद्रव्यापेक्षयैवोक्तं, मन्दप्रयत्नवक्तृनिसृष्टानि तु लोकासंख्येयभाग एवं वर्तन्ते. दण्डादिक्रमेण तेषां लोकपूरणाऽसम्भवादिति । अथ यद्युक्तप्रकारेण त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिश्च समयैर्वाग्द्रव्यलोकः पूर्यते तर्हि चतुर्दशपूर्वविदा श्रुतकेवलिना नियुक्तिकारेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना 'चउहिं समएहिं लोगो, भासाए निरंतरं तु होइ फुडो॥ इति किमिति निर्धार्य चतुम्समयग्रहणमेव कृतमिति चेत्, सत्यम् , तुलादण्डग्रहणन्यायेन चतुःसमयग्रहणात् त्रयाणां पश्चानामपि समयानां ग्रहणस्य नियुक्तिकृता विहितत्वादेव ॥ व्यवहारे यथा तुलादण्डमध्यभागग्रहणेन तदाद्यन्तभागयोरपि ग्रहणं विहितमेव, एवमत्रापि विज्ञेयं, सत्रेऽप्येवंविधो न्यायो दृश्यते, यतो भग]वतः सूत्रस्य विचित्रा प्रवृत्तिः ॥ उक्तश्च-"कत्थइ देसग्गहणं, कत्थइ घेप्पन्ति णिरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई, कारणवसओ णिउत्ताई ॥ ३८८ ॥" [कुत्रचिद् देशग्रहणं, कुत्रापि गृह्यन्ते निरवशेषाणि ।। उत्क्रमक्रमयुक्तानि, कारणवशतो नियुक्तानि ॥ न चैतादृशदेशनिबन्धः श्रुते न दृष्टो भगवत्यामष्टमशते महाबन्धोद्देशके सत्यपि चतुःसामयिक विग्रहे त्रिसामयिकस्यैव तस्य निबन्धाद, आह च-"चउसमयमज्झमहणे, तिपंचगहणं तुलाइमज्झस्स ।। जह गहणे पर्जत-ग्गहणं चिचा य सुत्तगई ॥३८७॥ [चतुःसमयमध्यग्रहणे, त्रिपञ्चग्रहणं तुलादिमध्यस्य ।। यथा ग्रहणे पर्यन्तग्रहणं चित्रा च सूतगतिः ॥] नघूर्वाधोगतदण्डादन्यद्रव्याणां पराघातो नास्ति ।। " चउसमयविग्गहे सति, महल्लबन्धमि तिसमयो जह वा ॥ मोतुं तिपंचसमए, तह चउसमओ इह णिबद्धो ॥३८९।।” [चतुःसमयविग्रहे सति महावन्धे (योजितः पाठः) चतुर्भिस्समयैर्माषाद्रव्यैर्लोकपूरणमितिनियुक्तिकारनिर्धारितचतुस्समयग्रहणतोडपि त्रिपञ्चसमयव्या प्स्योर्लाभ * उपपादितः॥ A Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना र्णयप्रकरणम् ।। ॥ ८३ ॥ www.khatirth.org त्रिसमयो यथा वा ।। मुक्त्वा त्रिपञ्चसमयांस्तथा चतुःसमय इह निबद्धः] यदि पुनरेवं व्याख्यायते चतुर्भिरपि समयैर्लोको निरन्तरं स्पृष्टो व्याप्तो भवति, तुरप्यर्थ एवानुक्तत्रिपश्चसमयसमुच्चये, तदेप्सितार्थलाभो न्यायाश्रयणादिप्रयासं विनेति द्रष्टव्यं, तुरेवकारार्थ एव, तस्य च निरन्तरमित्यत्रा व्यवहितान्वयो भाषयेत्यस्य च कस्यचित्सम्बन्धिन्या भाषयेति विवक्षितमित्यप्याहुः, लोकस्व च चरमान्ते सर्वलोकव्याप्तिविशिष्टाया भाषायाश्चरमान्तो भवति यदाहुः || “आपूरियम्मि लोगे दोन्ह, वि लोगस्स तह य भासाए ॥ चरिमंते चरिमंतो, चरिमे समयम्मि सव्वत्थ ।। ३९१ ॥ " [आपूरिते लोके द्वयोरपि लोकस्य तथा च भाषायाः ॥ चरमान्ते चरमान्तश्वरमे समये सर्वत्र || ] अत्र विवक्षयाऽऽदेरप्यन्तत्वाच्चरम ग्रहण मिति तु पक्षद्वयेऽपि सम्मुखम् ।। २९ ।। अथ जैनसमुद्घातगत्या चतुर्भिः समयैर्भाषाद्रव्यैर्लोकः परिपूर्यत इत्यादेशस्यानादेशत्वं ख्यापयितुमाहसर्ववेदिसमुद्घात - गतिरत्र न युज्यते । एकदा षदिशां व्याप्तिः, पराघातेन तत्र यत् ॥ ३० ॥ जैनसमुद्घातगत्या हि भाषाद्रव्याणां लोकव्याप्तावङ्गीक्रियमाणायां प्रथमसमये ऊर्ध्वाधोगाम्येव दण्डः स्यान्न तु पदिक इति पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरदिक्षु विदिविव वक्तृनिसृष्टद्रव्याणामगमनेन पराघातवासितद्रव्याणामेव श्रवणान्मिश्रशब्दश्रवणं न स्यात् ॥ श्रूयते च - "भासासमसेढीओ, सदं जं सुणइ मीसर्य सुणइ ।। ३५१ ||" [ भाषासम श्रेणीतः शब्दं यच्छृणोति मिश्रकं शृणोति] इत्यादावविशेषेण सर्वासु दिक्षु मिश्रशब्दश्रवणमेवेति । अथ विदिक्षु नियमेन पराघातवासितशब्दश्रवणाभिधानाद्दिक्ष्वनियमेन तत्पर्यवस्यतीत्यनियमोपपादनाय मिश्रशब्दश्रवणं समभिधीयत इत्यूर्ध्वाधोदिशोर्मिश्रश्रवणमन्यासु च दिक्षु पराघातवासितश्रवणमिति व्याख्यानतो विशेषः प्रतिपद्यत इति चेत्, न, यो धूमवान् सोऽग्निमानित्यत्रेव भाषासम श्रेणीतो यं शब्दं शृणोति तं मिश्र For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir जैनसमुदूघातगत्मा भाषाद्रव्यै कपूरण मित्यादे शस्यानादेशत्वख्या पनम् ॥ ॥ ८३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire जैनसमु ISINESSIBILE मृणोतीत्यत्र यत्तच्छब्दाभ्यां नियमाभिधानादनियमानुपपत्तेः, अपि चोर्ध्वाधोगमनसमय एव भाषा चतुर्दिशमप्यविशेषण शब्दप्रायोग्यद्रव्याणि पराहत्य द्वितीयसमये मन्थानं साधयतीति त्रिभिरेव समयैस्तस्या लोकव्याप्तिः सम्भवति, न च जीवप्रदेशानामिव भाषाद्रव्याणामपि लोकव्याप्तौ प्रथमसमये दण्डो द्वितीयसमये कपाटं तृतीयसमये मन्थाश्चतुर्थसमये चान्तरालपूरणमिति वाच्यम् ॥ भाषाद्रव्याणां पराघातसम्भवेनोर्ध्वाधोगमनोत्तरं द्वितीयसमये चतुर्दिक्ष्वनुश्रेणिगमनसमये सर्वतः पराघातवासितद्रव्याणां मथिभावेन कपाटव्याघातात् ।। न चैतेषां लोकव्याप्तौ चतुर्दिक्ष्वनुश्रेणिगमनपराघातस्वभावेभ्योऽधिकं नियामकमस्ति, केवली तु द्वितीयसमये केवलज्ञानरूपयेच्छया गुणदोषपर्यालोचनाद् भवोपग्राहिकर्मवशात्स्वभावाद् वा द्वितीयसमये मन्थानं न करोति किन्तु कपाटमेवेति तस्य चतुःसामयिकी लोकव्याप्तिः, अचित्तमहास्कन्धस्तु विस्रसापरिणामेनैव लोकमापूरयतीति द्वितीयसमये तस्य कपाटमात्रभावाच्चतुःसामयिकी व्याप्तिर्विनसापरिणामस्य पर्यनुयोगानहत्वाद् , अथवाऽसौ निजपुद्गलैरेव लोकमापूरपति, नतु पराघातेनान्यद्रव्याणामात्मपरिणामं जनयतीति तस्य चतुःसामयिक्येव व्याप्तिर्निजपुद्गलजन्ये मथि निजपुद्गलजन्यकपाटस्य हेतुत्वात्तं विना तदभावाद्, आह च "न समुग्धायगईए, मीसयसवणं मयं च दंडमि ।। जइ तो वि तीहिं पूरइ, समएहिं जओ पराघाओ।।३९२।।जइणे ण पराघाओ, स जीवजोगोय तेण चउसमओ॥ हेऊ होज्जाहि तहिं, इच्छा कम्मं सहावो वा ॥३९३।। खंधो वि वीससाए, ण पराघाओ अ तेण चउसमओ॥ अह होज पराघाओ, हविज तो सो वि तिसमइओ ॥३९॥" [न समुद्घातगत्या, मिश्रकश्रवणं मतं च दण्डे । यदि ततोऽपि त्रिभिः पूर्यते समयैर्यतः पराघातः॥ जैने न पराघातः, स जीव| योगश्च तेन चतुःसमयः॥ हेतुर्भवेचत्रेच्छा कर्म स्वभावो वा ।। स्कन्धोऽपि विश्रसयान पराघातश्च तेन चतुःसमयः।। अथ भवेत्पराघातो दूधातगत्या भाषाद्रव्यलॊकपूरणमित्यादे शस्याऽ. नादेशत्वख्यापनम।। KUGUSARAISEX Fat PW And Penal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण श्रीज्ञाना प्रकारान्तरे|ण चतुर्मिसमर्भाषाद्रव्यैर्लोक प्रकरणम् ॥ ॥८ ॥ SCHOOSINGAROOO भवेत्ततः सोऽपि त्रिसामयिकः॥] स्यादेतत्-मथिमात्र एव कपाट कारणमिति कपाटं विना मथोऽभावाच्चतुःसामयिक्येव भाषाया लोकव्याप्तियुज्यते, मैवं, मध्यनुकूलविस्तारे कपाटस्येव पराघातस्यापि शक्तत्वादुभयोरप्येकशक्तिमत्त्वेन माथिहेतुत्वाद्,अत एवापराघातस्य स्कन्धस्य लोकव्याप्तौ कपाटापेक्षेति सिद्धान्तः, अथ जातस्यैव दण्डस्यैव विस्तारे पराघातः क्षमो नतूत्पद्यमानस्य तस्य न बोदासीनद्रव्यमात्रस्यान्यथा द्वितीयसमय एव लोकव्याप्तिप्रसङ्गात्, न च स्वभावमात्रं समयविलम्बनियामकमतिप्रसङ्गादिति चेत्, तर्हि प्रथमसमये भाषाद्रव्याणां षड्दण्डास्त एवं प्रसृमरा द्वितीयसमये षण्मन्थानस्तृतीयसमये चान्तरालपूरणमिति प्रागुक्ता वस्तुस्थितिरभ्युपगम्यता, अपराघातद्रव्याच्याप्तावेव दण्डकपाटमन्थानहेतुत्वादिति दिक् ॥ ३० ॥ प्रसङ्गादनादेशान्तरं दूषयति दण्डमेकदिशं कृत्वा, चतुर्भिः समयैः परे ।। लोकपूरणमिच्छन्ति, न च युक्त्यागमक्षमम् ॥ ३२ ॥ परे प्रत्युत भाषाद्रव्याणां चतुर्भिः समयलॊकपूरण इमां प्रक्रियामाहुः, प्रथमसमये ताव दिशि दण्डो भवति, द्वितीयसमये च तत्र मन्थाः, अधोदिशि पुनर्दण्डं, तृतीयसमये चोर्ध्वदिश्यन्तरालपूरणमधोदिशि तु मन्था,चतुर्थसमये तु तत्राप्यन्तरालपूरणालोकव्याप्तिरिति, तन्मतं न युक्तिं क्षमते, अनुश्रेणिगमनस्वभावानां पुद्गलानामेकयैव दिशा गमनं नान्यत्रेत्यत्र नियामकाभावात्, न च वक्तृमुखताल्बादिव्यापाराभिमुख्यमेव नियामकं विश्रेण्यभिमुखे भाषके विश्रेणावपि गमनप्रसगात्, पटहादिशब्दपुद्गलानां वक्तृमुखव्यापारनिरपेक्षतया चतुःसमयानियमप्रसङ्गाच्च, न चात्र कश्चिदागमोऽप्यस्ति यद्बलात्तथाव्याप्तिस्वभावः कल्पयितुं शक्येत।। आह च-“एगदिसमाइसमए, दंड काऊण चउहिं पूरेइ । अन्ने भणन्ति,तं पि य, नागमजुचिरकर्म होइ ॥३९५॥" [एकदिकमादिसमये, दण्डं कृत्वा चतुर्भिः पूरयति ॥ अन्ये भणन्ति तदपि च नागमयुक्तिक्षम भवति ॥] ॥ ३२॥ देशस्य वस्तु| तोऽनादेशस्य खण्ड नम् ॥ GAUR ॥ 2 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym तदेवं सप्रसङ्गं व्याख्यातं भेदतो मतिज्ञानं, अथ तत्पर्यायानभिधित्सुराह मतिज्ञानईहापोहौ च मीमांसा, मार्गणा च गवेषणा ॥ संज्ञा स्मृतिर्मतिः प्रज्ञा, सर्वमाभिनिबोधिकम् ॥ ३३॥ पर्यायकथनं ईहाऽन्वयव्यतिरेकधर्मगवेषणा, अपोहो निश्चयो, मीमांसा विमर्शोऽपायात्पूर्व ईहायात्रोत्तर सम्भवसम्प्रत्यया, मार्गणम- ४ ईहादीनामान्वयधर्मान्वेषणं,गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनं,संज्ञाऽवग्रहोत्तरभावी मतिविशेष एव,स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थानुसन्धानम्,मतिः कथ- |भिनिबोधिश्चिदर्थपरिच्छिचावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिः, प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुयथातचालोचनं, सर्वमिदं कथ कस्बे भाष्यश्चिभेदेऽप्याभिनिवोधिकमेव मन्तव्यम् । यदाह परममुनि:-[नियुक्तिगाथा] "ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा च गवसणा॥ १४ संवादः मतिसण्णा सई मई पण्णा, सव्वमाभिणिबोहियं ॥३९॥"[ईहापोहो विमर्शो, मार्गणा च गवेषणा।। संज्ञा स्मृतिर्मतिः प्रज्ञा, सर्वमाभि प्रज्ञादीनां निबोधिकम् ॥] भाष्यकृदयाह-" होइ अपोहोऽवाओ, सई घिई सब्वमेव मइपनाईहा सेसा, सव्वं, इदमामिणिबोहियं वचनपर्यायजाण ॥ ३९७ ॥ [ भवत्यपोहोपायः स्मृति तिः सर्वमेव मतिप्रज्ञे ॥ ईहा शेषाणि सर्वमिदमामिनिबोधिकम् ] अत्र स्वमवग्रहामतिप्रज्ञामिनिबोधिकबुद्धिलक्षणाश्चत्वारः शब्दा वचनपर्यायास्तैमतिज्ञानसामान्याभिधानाद्, अवग्रहादिशब्दाचाऽथेपर्यायास्त- दीनामर्थदेकदेशाभिधानाद्, अथवा सर्वेषामपि वस्तूनामाभिलापवाचकाः शब्दा वचनपर्यायाः, तदभिधेयार्थस्यात्मभूता भेदास्त्वर्थपर्याया; पर्यायत्वं यथा कनकस्य कटककेयूरादयः, तदाह-"मइपनामिणिबोहिय-बुद्धीओ होन्ति वयणपजाआ॥ जा ओग्गहाइसना, ते सव्वे चेतिप्ररूपअत्यपजाया ॥ ३९८ ॥"[मतिप्रज्ञामिनिबोधिकबुद्धयो भवन्ति वचनपर्यायाः॥ या अवग्रहादिसंज्ञा ते सर्वे अर्थपर्यायाः॥] णम् ॥ नन्वर्थपर्यायास्तावद् भेदा एव तनिरूपणं चावाप्रकृतं शब्दभेदादर्थभेदभ्रमनिरासाय मतिपर्यायज्ञानशब्दाभिधानस्यैवात्र BRUARIUREGIBABHISHE. Fat PW And Penal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरणं श्रीज्ञाना - प्रकरणम् ॥ ॥ ८५ ॥ www.ketafirth.org प्रकृतत्वात्, यथा न्यायनये " बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् " इति सांख्याभिमतस्य शब्दभेदादर्थभेदस्य निरासाय ज्ञानपर्यायाभिधानम्, एकरूपेणैकार्थबोधकशब्दद्वयं च पर्यायः, अन्यथा पृथिवीघटशब्दयोरपि पर्यायत्वव्यवहारप्रसङ्गादिति, तथा च कथमीहापोहादीनां मतिज्ञानपर्यायत्वमिति चेत्, सत्यं - अवग्रहणादियोगार्थ भेदेऽप्यवग्रहादिशब्दानां मतिसामान्यप्रवृत्तिकत्वेन पर्यायत्वात् योगार्थभेदस्यापि पर्यायत्वप्रतिपन्थित्वे घटकलशादिपदानामपि तवं न स्यात्, न चैवमवग्रहेहादिसङ्करप्रसङ्गः १, अवग्रहादीनां सामान्या दिग्राहित्वेऽप्यव्यक्तव्यक्ततत्तदवभासविशेषेण विशेषात्, नहि यथाभूतमवग्रहे सामान्य मात्रार्थस्यावग्रहणं तथाभूतमेवेहायां, किन्तु विशिष्टं विशिष्टतरं विशिष्टतमं चाऽपायधारणयो:, यथाभूता चेहायां मतिचेष्टा ततो विशिष्टतरा विशिष्टतमा चापायधारणयोः, अविशिष्टतरा चाऽवग्रहे, अर्थावगमनमप्यपायाद्विशिष्टं धारणायां, अविशिष्टमविशिष्टतरं चेहावग्रयोः, अर्थधारणमप्यवग्रहेहापायेभ्यः सर्वप्रकृष्टं धारणायामिति । तदिदमाह - Xxx [इयानेवोपलब्धोयं ग्रन्थः,अग्रेतनः समाप्तिं यावत्प्रभूततमो ग्रन्थभागः खण्डित इति तद्बुभुत्सूनां किश्चिद्दिक्सूचकप्रायं प्रदर्श्यते ] [सव्वं वाभिणिबोहिय- मिहोग्गहाइवयणेण संगहियं ॥ केवलमत्थविसेसं, पर भिन्ना उग्गहाईया ।। ३९९ ।। [सर्व वाऽभिनिबोधिकमिहावग्रहादिवचनेन सङ्गृहीतम् ॥ केवलमर्थविशेषं प्रति भिन्ना अवग्रहादयः ] अथावग्रदेहापायधारणानामविशिष्टविशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमार्थप्रतिपादकत्वेन कथं ततच्छब्देनाभिनिबोधिकं सगृह्यत इति चेत्, अत्राह - अविशिष्टयौगिकार्थाश्रयणेन सर्वेषामप्येकवाचकत्वेनाभिनिबोधिकत्वेऽविरोधात् ! इदमुक्तं भवति, अवग्रहणमवग्रह इतिव्युत्पत्तिमाश्रित्य सर्वमप्याभिनिबोधिकमवग्रहः, यथाहि, कमप्यर्थमवग्रहोsवगृह्णाति, तथेहापि कमप्यर्थमवगृह्णात्येव, एवमपायधारणे अपि कमप्यर्थमवगृहीत इति सर्वमप्याभिनिबोधिकं For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir ( योजितः पाठ: ) पोहा दोनां मति ज्ञानपर्याथ त्वस्यावग्र हणादितारतम्यस्य च व्यवस्थापनम् । सर्व स्याभिनिबोधिकस्यावग्रहादिश ब्देन सय होपपादन वा ॥ ८५ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire BABASKAR सामान्येनावग्रह उच्यते । एवमीहनमीहा मतिचेष्टेतीहाया व्युत्पत्ति, अवगमनमवायोऽर्थावगम इत्यवायस्य, धरणं धारणा अर्थस्या- (योजितः विच्युत्यादिस्वरूपमिति धारणायाश्च व्युत्पत्तिमवलम्ब्याधग्रहापायधारणानामपि मतिचेष्टाविशेषरूपत्वात्सामान्यत ईहात्वे अवग्र- पाठः) हेहाधारणानामप्यर्था वगमात्मकत्वात्सामान्यतोऽपायत्वे अवग्रहेहापायानां सामान्यतोऽर्थधरणस्वरूपत्वाद्धारणात्वे न कश्चिद्विरोधः, सर्वेषामवनयथैतेषामवग्रहादीनां सङ्करप्रसङ्गो न भवति तथा प्रागेवोपपादितं पूज्यैरित्यलमतिपल्लवितेन । तदिदमाह भाष्यकारः॥"उग्गहण- हादीनां प्र. मोग्गहो ति य, अविसिट्ठमवग्गहो तयं सव्वं ॥ ईहा जं मइचट्ठा, मइवावारो तयं सव्वं॥४००॥अवगमणमवाओत्ति य, अत्याव त्येकमवनगमो तयं हवइ सव्वं ॥ धरणं च धारणत्ति य, तं सव्वं धरणमत्थस्स।।४०१।" [अवग्रहणमवग्रह इति, चाविशिष्टमवग्रहस्तत्सर्वम् ।। हादित्वं तद्रूईहा यद् मतिचेष्टा,मतिव्यापारस्तत्सर्वम्।।अवगमनमवाय इति चार्थावगमस्तद् भवति सर्वम् ।। धरणं च धारणेति च तत्सर्व धरणम- IG पस्याभिनिर्थस्य] अथैवं तत्त्वभेदपर्यायैाख्यातस्वरूपस्यास्याभिनिवोधिक ज्ञानस्य समासतो ज्ञेयभेदेन चातुर्विध्यं,यन्नन्दिसून "ते समासओ बोधिकस्य चउन्विहं पातं, तंजहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ दव्वओ णं आभिणिवोहियनाणी आएसेणं सव्वदन्वाई ज्ञेयभेदेन जाणइ न पासई" इत्यादि [तत्समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-द्रव्यतः,क्षेत्रतः, कालतो, भावतः।। तत्र द्रव्यत आभिनिवोधकज्ञानी चातुर्विध्ये आदेशेन सर्वद्रव्याणि जानाति न पश्यति] अथास्तु पदार्थानां द्रव्यक्षेत्रकालभावभिन्नत्वेन चतुर्विधत्वाज्ञयचातुर्विध्यं ततो ज्ञान नन्दिसूत्रस्य चतुर्विधत्वे किमायातमिति चेत्, उच्यते, ज्ञानन्तावद्विषयाधीनसत्ताकं विषयमवगच्छदेव ज्ञानं ज्ञानत्वमृच्छति, तथा चाभिनियो- संवादश्च धिकमादेशेन द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधमपि विषयमवगृहातीति विषयभेदेन ज्ञानस्यापि चतुर्विधत्वं सिद्धम् । तदाह-"तं पुण चउन्विहं ने-य भेयओ तेण जं तदुवउत्तो । आदेसेणं सव्वं,दब्वाइ चउन्विहं मुणइ ॥४०२॥" [तत्पुनश्चतुर्विधं ज्ञेय-भेदतस्तेन यत्तदुपयुक्तः।। Fat PW And Penal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सविवरण श्रीज्ञाना र्णय प्रकरणम् । ॥ ८६ ॥ www.ketafirth.org आदेशेन सर्वं द्रव्यादि चतुर्विधं जानाति ॥] ननु द्रव्यादिचतुर्विधमामिनिबोधिकज्ञानी जानातीत्युक्तं तत्केन स्वरूपेण, न च किंज्ञानस्य ज्ञातव्यप्रकारभेदोऽस्तीति स्वरूपं पृच्छसीति वाच्यं ज्ञातव्यप्रकारस्य द्वैविध्यात्, तथाहि, ओघादेशो विभागादेशश्च सामान्यप्रकारो विशेषप्रकारचेति तदर्थः, अतः केन स्वरूपेणेति प्रश्नः, अत्रोत्तरं, ओघादेशेन सामान्यप्रकारेण, तथाहि, द्रव्यसामान्येन असंख्येयप्रदेशात्मको लोकव्यापकोऽमूर्तः प्राणिनां पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भनहेतुर्धर्मास्तिकाय इत्यादिना सामान्यप्रकारेण कियत्पविशिष्टानि षडपि धर्मास्तिकायादीनि सर्वद्रव्याणि सामान्येनाभिनिवोधिकज्ञानी जानातीति तच्चम् | विभागादेशेन विशेषप्रकारेण पुनः सर्वैः पर्यायैः केवलिदृष्टैरवच्छिन्नानि सर्वद्रव्याणि न जानाति केवलज्ञानावसेयत्वात्सर्व पर्यायाणामिति, एवं क्षेत्रमपि सर्व सामान्यतः कियत्पर्यायावच्छिन्नं सामान्यादेशेन जानाति न विशेषादेशेन सर्वपर्यायविशिष्टं, कालमपि सर्वाद्धारूपं अतीतानागतवर्तमानभेदतस्त्रिविधं वेत्यादिरूपेण, भावतस्तु सामान्येन सर्वभावानामनन्तभागं, औदयिकक्षायिकौ पशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकान्वा पञ्चभावान्सामान्यादेशेन जानाति न परतः । एतावत एवाभिनिबोधिकविषयत्वात् ॥ इह क्षेत्रकालयोः सामान्येन द्रव्यान्तर्गतत्वेऽपि भेदेन रूढत्वात्पृथगुपाद कृत सूत्रार्थत्वे वाऽऽदेशस्य सूत्रादेशतः श्रुतोपलब्धेष्वर्थेषु सर्वद्रव्यादिविषयं मतिज्ञानं प्रवर्तते । न च श्रुतोपलब्धेष्वर्थेषु ग्राहकत्वेन प्रवृत्तस्य ज्ञानस्य श्रुतज्ञानत्वमेव न्याय्यं न मतिज्ञानत्वमिति साम्प्रतम्, इह पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतेरपि साम्प्रतमाभिनिबोधिकज्ञानस्य श्रुतोपयोगमृते तदुपलब्धेष्वर्थेषु तद्वासनामात्रेणैव प्रवृत्तत्वात्, यदवादि, “पुव्वि सुयपरिकम्मिय - मइस्स जं संपयं सुयाईयं" इत्यादि, सर्वमप्येतद्भाष्यकारोऽप्याह “आएसोति पगारो, ओहादेसेण सव्वदव्वाई || धम्मत्थिकाइयाई, जाणइ न उ सब्बभेएणं ॥ ४०३ || खेतं लोगालोगं, कालं सव्वद्धमव तिविहं ति ।। पंचोदइयाईए, भावे जं नेयमेवइयं For Print And Personal Use Only Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir (योजित: पाठः) द्रव्यादि चतुर्विधमा भिनिबोधि कज्ञानी सामान्यप्र कारेण सर्व जानाति न विशेषप्रका रेण सर्वमि ति प्रपञ्चि तम् । ॥ ८६ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORRECOROSHO ॥४०४॥ आएसोति व सुत्न, सुओबलहेसु तस्स मइनाणं ।। पसरइ तब्भावणया, विणा वि सुत्तानुसारेण ॥४०५॥" [आदेश इति सत्पदपरू| प्रकार ओघादेशेन सर्वद्रव्याणि ॥ धर्मास्तिकायिकादीनि जानाति न तु सर्बभेदेन ॥ क्षेत्रं लोकालोकं कालं सर्वाद्धामथवा त्रिविध- पणताद्यन्योमिति ॥ पश्चौदयिकादीन्भावान्यज्ज्ञेयमियद् ॥ आदेश इति वा सूत्रं श्रुतोपलब्धेषु तस्य मतिज्ञानं ।। प्रसरति तद्भावनया विनापि गहारैमतिसूत्रानुसारेण।।] तदेवं मतिज्ञानस्य तवभेदपर्यायनिरूपणं द्रव्यादिविषयप्ररूपणं च प्रदर्शितम् ॥ अथ सत्पदप्ररूपणतादिभिर्नव ज्ञानप्ररूपभिरनुयोगद्वारमतिज्ञानं विचायते, अनुयोगद्वाराणि च गत्यादिमार्गणाभेदेषु विधीयन्ते, अतः पूर्व द्वाराणि मागंणाभेदाचोच्यन्ते तत्र णस्य श्रुतसत्पदग्ररूपणता, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काला, अन्तरं, भागः, भावः, अल्पबहुत्वं चति नवानुयोगद्वाराणि, अनुयोगो ज्ञानादीनां व्याख्यानं तस्य द्वाराणीव द्वाराणि व्याख्यानपुरप्रवेशमार्गाः, मार्गणाश्च 'गह इंदिय काये' इत्यादिगाथोक्ताः, सत्पदाद्यनुयोग चतुर्णा प्रतिद्वारावतारस्थानानि, एतेषां स्वरूपं प्रतिपद्यमानप्रतिपन्नजीवानां मार्गणाविचारोऽनुयोगद्वारविचारश्च महाभाष्यतद्वृत्त्यादि* भ्यो विशेषजिज्ञासुनाऽवधेयः॥ तत्र महाभाष्ये पडतरचताशततमगाथात आरभ्य त्रिचत्वारिंशदाधिकचतुम्शततमी याबदष्टा-₹ पत्तयेमहात्रिंशता गाथाभिस्सत्पदप्ररूपणतादिभिरनुयोगद्वारैमतिज्ञानं चिन्तितम्।। ततः षट्पष्टधुत्तरपञ्चशततमी गाथां यावत्रयोविंशत्य: भाष्यनिधिकशतसंख्यगाथाभिः श्रुतज्ञानं निरूपितम् । ततोऽष्टोत्तराष्टशततमी गाथा यावद्विचत्वारिंशदधिकद्विशतप्रमाणामिर्गा रूपितप्रतिथाभिरवधिज्ञानं प्ररूपितम् ।। ततो द्वाविंशत्युत्तराष्टशततमी गाथां यावच्चतुर्दशभिर्गाथाभिर्मनःपर्यायज्ञानप्ररूपणा नियतगाथाकृता ॥ ततः पत्रिंशदुत्तराष्टशततमी गाथा यावच्चतुर्दशभिर्गाथाभिः केवलज्ञानं निरूपितम् ॥] || नांच संसून्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिप्रणीतं त्रुटितावस्थोपलब्धं श्रीज्ञानार्णवप्रकरणं समाप्तम्।। चनम् PRERAK O R Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym बीवान प्रकरणम्॥ 1८७॥ UCCCCISCRIMINALABHI ॥ इयता झानार्णवनयविभागेन मतिज्ञानरूपणमप्यवशिष्टमिति अतादीनां तत्त्वबुभुत्सापूरणाय पूज्यप्रणीतमेव तदीय- १४ मङ्गलं ज्ञानविषयविन्दुरूपत्वाम्नाम्ना श्रीज्ञान बिन्दुप्रकरणमन्यत्र पूर्व विधा मुव्रितमप्येतत्संलग्नतासत्यापनायेद प्रकाश्यते ॥ निरूपणे के ॥अथ श्रीज्ञानबिन्दुप्रकरणम् ॥ वलज्ञानस्वऐन्द्रस्तोमनतं नत्वा, वीरं तत्त्वार्थदेशिनम् ॥ ज्ञानबिन्दुः श्रुताम्भोधेः, सम्यगुद्धियते मया ॥१॥ रूपोपदर्श तत्र ज्ञानं तावदात्मनः स्वपरावभासकोऽसाधारणो गुणः, स चाभ्रपटलविनिर्मुक्तस्य भास्वत इव निरस्तसमस्तावरणस्य नं, जीवस्वजीवस्य स्वभावभूतः केवलज्ञानव्यपदेशं लभते । तदाहुराचार्या:-"केवलनाणमणतं, जीवसरूवं तयं निरावरणं ॥" इति । भावस्य ज्ञानच स्वभावं यद्यपि सर्वघातिकेवल ज्ञानावरणं कास्न्र्थेनैवावरीतुंच्याप्रियते, तथापि तस्यानन्ततमो भागो नित्याऽनावृत एवावतिष्ठते, स्यानन्ततमतथास्वाभाव्यात् ।। (नन्दीसूत्र)'सव्वजीवाणं पि य ण अवखरस्स अणंततमो भागो णिच्चुग्धाडिओ चिट्ठइ, सो वि अ जइ भागो नि आवरिया, तेणं जीवो अजीवत्तणं पाविजा" इति पारमर्षप्रामाण्यात् । अयं च स्वभावः केवलज्ञानावरणावृतस्य जीवस्य त्यानावृत ए| घनपटलच्छन्नस्य खेरिख मन्दप्रकाश इत्युच्यते । तत्र हेतु: केवलज्ञानावरणमेव । केवलज्ञानव्यावृत्तज्ञानत्वव्याप्यजातिविशे-४ वेत्यस्य व्य. पावच्छिन्ने तद्धेतुत्वस्य शास्त्रार्थत्वात् । अत एव न मतिज्ञानावरणक्षयादिनापि मतिज्ञानाद्युत्पादनप्रसङ्गः । अत एव चास्य वस्थापनम्। विभावगुणत्वमिति प्रसिद्धिः। स्पष्टप्रकाशप्रतिबन्धके मन्दप्रकाशजनकत्वमनुत्कटे चक्षुराद्यावरणे वस्वादावेव दृष्ट, न तूत्कटे कुख्यादाविति कथमत्रैवमिति चेत्, न, अभ्राद्यावरणे उत्कटे उभयस्य दर्शनात्, अत एवात्र (नन्दी) "सुट्ट वि मेघसमुदए, होति पभा चंदसराणं ॥" इत्येव दृष्टान्तितं पारमर्षे, अत्यावृतेऽपि चन्द्रसूर्यादौ दिनरजनीविभागहेत्वल्पप्रकाशवजीवेऽप्यन्यव्यावर्तकचै ॥८७॥ 15 Fat PW And Penal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध AUKRESMUKHRESEACHERE तन्यमात्राविर्भाव आवश्यक इति परमार्थः । एकत्र कथमावृतानावृतत्वमिति त्वर्पितद्रव्यपर्यायात्मना भेदाभेदवादेन निलों- ठनीयम् । ये तु चिन्मात्राश्रयविषयमज्ञानमिति विवरणाचार्यमताश्रयिणो वेदान्तिनस्तेषामेकान्तवादिनां महत्यनुपपत्तिरेव, अज्ञानाश्रयत्वेनानावृतं चैतन्यं यचदेव तद्विषयतयाऽऽवृत्तमिति विरोधात् । न चाऽखण्डत्वाद्यज्ञानविषया, चैतन्यं त्वाश्रय इत्यविरोधः, अखण्डत्वादेश्विद्रूपत्वे भासमानस्यावृतत्वायोगात्, अचिद्रूपत्वे च जडे आवरणायोगात् । कल्पितभेदेनाखण्डत्वादि विषय इति चेत्, न, भित्रावरणे चैतन्यानावरणात् । परमार्थतो नास्त्येवावरणं चैतन्ये, कल्पितं तु शुक्तौ रजमिव तत्तत्राविरुद्धं, तेनैव च चित्त्वाखण्डत्वादिभेदकल्पना 'चैतन्य स्फुरति नाखण्डत्वाद्'इत्येवंरूपाऽऽधीयमाना न विरुद्धेति चेत्, न, कल्पितेन रजतेन रजतकार्यवत्कल्पितेनावरणेनावरणकार्यायोगात् । 'अहं मां न जानामि' इत्यनुभव एव कर्मत्वांशे आवरणविषयकः कल्पितस्यापि तस्य कार्यकारित्वमाचष्टे, अज्ञानरूपक्रियाजन्यस्यातिशयस्यावरणरूपस्यैव प्रकृते कर्मत्वात्मकत्वात्, अत एवास्य साक्षिप्रत्यक्षत्वेन स्वगोचरप्रमाणापेक्षया न निवृत्तिप्रसङ्ग इति चेत्, न, 'मां न जानामि' इत्यस्य विशेषज्ञानाभावविषयत्वात्, अन्यथा मां जानामीत्यनेन विरोधात, रष्टवेत्थ 'न किमपि जानामि'इत्यादिमध्यस्थानां प्रयोगः । किञ्च विशिष्टाविशिष्टयोर्मेंदा भेदाभ्युपगम विनाऽखण्डत्वादिविशिष्टचैतन्यज्ञानेन विशिष्टावरणनिवृत्तावपि शुद्धचैतन्याप्रकाशप्रसङ्गः, विशिष्टस्य कल्पितत्वादविशिष्टस्य चाननुभवात्, महावाक्यस्य निर्धर्मकब्रह्मविषयत्वं चाग्रे निलोठयिष्यामः । एतेन 'जीवाश्रयं ब्रह्मविषयं चाज्ञानम्' इति वाचस्पतिमिश्राभ्युपगमोऽपि निरस्तः । जीवब्रह्मणोरपि कल्पितभेदत्वात्, व्यावहारिकभेदेऽपि जीवनिष्ठाविद्यया तत्रैव प्रपश्चोत्पत्तिप्रसङ्गात् । न चाहङ्ककारादिप्रपञ्चोत्पत्तिस्तत्रेष्टैव, आकाशादिप्रपञ्चोत्पतिस्तु विषयपक्षपातिन्या अविद्याया ईश्वरे स ज्ञानस्य कथचिदावृतवानावृतत्वं, चिन्मात्राश्रयविषयम ज्ञानमिति |विवरणाचाथमतस्य मीवाश्रयं ब्रह्मविषयश्चा ज्ञानमितिवाचस्पतिमिश्रमतस्य चखण्ड नम् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym अनेकान्तः मीवानबिन्दु प्रकरणम्॥ 11८८॥ ANG TU चेन तत्रैव युक्तत्यपि साम्प्रतम्, अज्ञातब्रह्मण एवैतन्मते ईश्वरत्वेऽप्यज्ञातशुक्ते रजतोपादानत्ववत्तस्याकाशादिप्रपञ्चोपादानत्वाभिधानासम्भवात, रजतस्थले हीदमंशावच्छेदेन रजताभावाऽज्ञानम्, इदमंशावच्छेदेन रजतोत्पादकामिति त्वया क्लसं वाद एवज्ञाशुक्त्यज्ञानं त्वदाविप्रकर्षण तथा, प्रकृते तु ब्रह्मण्यवच्छेदासम्भवान्न किश्चिदेतत्, अवच्छेदानियमेन हेतुत्वे चाहङ्कारादेरपीश्वरे नस्वभावउत्पत्तिप्रसङ्गादिति किमतिप्रसङ्गेन, तस्मादनेकान्तवादाश्रयादेव केवलज्ञानावरणेनावृतोऽप्यनन्ततमभागावशिष्टोऽनावृत स्यावृतत्वाएव ज्ञानस्वभावः सामान्यत एकोऽप्यनन्तपर्यायकीर्मीरितमूर्तिमन्दप्रकाशनामधेयो नानुपपन्नः, स चापान्तरालावस्थितमतिज्ञाना नावृतत्वोपद्यावरणक्षयोपशमभेदसम्पादितं नानात्वं भजते, घनपटलाच्छन्नरवर्मन्दप्रकाश इवान्तरालस्थकटकुट्याद्यावरणविवरप्रवेशात् ॥ पत्तिः, मन्द इत्थं च जन्मादिपर्यायवदात्मस्वभावत्वेऽपि मतिज्ञानादिरूपमन्दप्रकाशस्योपाधिमेदसम्पादितसत्ताकत्वेनोपाधिविगमे तद्धि-|| प्रकाशस्य गमसम्भवान्न कैवल्यस्वभावानुपपत्तिरिति महाभाष्यकार, अत एव द्वितीयापूर्वकरण तात्विकधर्मसन्न्यासलामे वाया | तस्य नानापशामिकाः क्षमादिधर्मा अप्यपगच्छन्तीति तत्र तत्र ( योगदृष्टिसमुच्चयादौ) हरिभद्राचार्यनिरूपितम् । निरूपितं च योगय त्वं क्षयोपशनकमनिर्जरणहेतुफलसम्बन्धनियतसत्ताकस्य क्षायिकस्यापि चारित्रधर्मस्य मुक्तावनवस्थानम् । न च वक्तव्यं केवलज्ञानाव मप्रक्रियोपरणेन बलीयसावरीतुमशक्यस्यानन्ततमभागस्य दुर्बलेन मतिज्ञानावरणादिना नावरणसम्भव इति, कर्मणः स्वावार्यावारक क्रमश्च ॥ तायां सर्वघातिरसस्पर्धकोदयस्यैव बलत्वात् तस्य च मतिज्ञानावरणादिप्रकृतिष्वप्यविशिष्टत्वात् । कथं तर्हि क्षयोपशम इतिचेत्, अत्रेयमहन्मतोपनिषद्वेदिनां प्रक्रिया-इह हि कर्मणां प्रत्येकमनन्तानन्तानि रसस्पर्घकानि भवन्ति, तत्र केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणा-ऽऽद्यद्वादशकषाय-मिथ्यात्वे-निद्रीलक्षणानां विंशतः प्रकृतीनां सर्वघातिनीनां सर्वाण्यपि रसस्पर्धकानि ॥een RESS Fat PW And Penal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAN SCALCULARKODA सर्वघातीन्येव भवन्ति, उक्तशेषाणां पञ्चविंशतिघातिप्रकृतीनां देशघातिनीनां रसस्पर्धकानि यानि चतु:स्थानकानि यानि च त्रिस्थानकानि तानि सर्वघातीन्येव, द्विस्थानकानि तु कानिचित् सर्वघातीनि कानिचिच्च देशघातीनि, एकस्थानकानि तु सर्वाण्यपि देशघातीन्येव । तत्र ज्ञानावरणचतुष्कदर्शनावरणत्रयसञ्चलनचतुष्कान्तरायपश्चकपुवेदलक्षणानां सप्तदशप्र- कृतीनामेकद्वित्रिचतुःस्थानकरसा बन्धमाश्रित्य प्राप्यन्ते, श्रेणिप्रतिपचेर्वागासां द्विस्थानकस्य त्रिस्थानकस्य चतु:स्थानकस्य वा रसस्य बन्धात् । श्रेणिप्रतिपत्तौ त्वनिवृत्तिबादराद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेष्वत्यन्तविशुद्धाध्यवसायेनाशुभत्वादासामेकस्थानकरसस्यैव बन्धात्, शेषास्तु शुभा अशुभा वा बन्धमधिकृत्य द्विस्थानकरसास्त्रिस्थानकरसाश्चतुःस्थानकरसाश्च प्राप्यन्ते, न कदाचनाप्येकस्थानकरसाः । यत उक्तसप्तदशव्यतिरिक्तानां हास्याद्यानामशुभप्रकृतीनामेकस्थानकरसबन्धयोग्या शुद्धिरपूर्वकरणप्रमत्ताप्रमत्तानां भवत्येव न, यदा त्वेकस्थानकरसबन्धयोग्या परमप्रकर्षप्राप्ता शुद्धिरनिवृत्तिवादराद्धायाः संख्येयेभ्यो भागेभ्यः परतो जायते, तदा बन्धमेव न ता आयान्तीति ॥ न च यथा श्रेण्यारोहेऽनिवृत्तिवाद राद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु परतोऽतिविशुद्धत्वान्मतिज्ञानावरणादीनामेकस्थानकरसबन्धः, तथा क्षपकश्रेण्यारोहे सूक्ष्मसम्परायस्य चरमद्विचरमादिसमयेषु वर्तमानस्यातीवविशुद्धत्वात् केवलद्विकस्य सम्भवद्धन्धस्यैकस्थानरसबन्धः कथं न भवतीति शङ्कनीयम् ? । स्वल्पस्यापि केवलद्विकरसस्य सर्वघातित्वात् , सर्वघातिनां च जघन्यपदेऽपि द्विस्थानकरसस्यैव सम्भवान्, शुभानामपि प्रकृतीनामत्यन्तशुद्धौ वर्तमानश्चतुःस्थानकमेव रसं बनाति, ततो मन्दमन्दतराविशुद्धौ तु त्रिस्थानकं द्विस्थानकं वा, सक्केशाद्धायां वर्तमानस्तु शुभप्रकृतीरेख न बनातीति कृतस्तद्तरसस्थानकचिन्ता । यास्त्वतिसशक्लिष्टे |सवातिप्र६ तिरसस्प कानां सर्वघातित्वमेव देशघातिना च रसस्पर्धकेPषु सर्वदेशधा तित्वव्यवस्थोपपादनं रसस्पर्धकेषु चतु:स्थानकादिनियमानियमप्रदर्श नश्च Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोबान प्रकरणम् ॥ ॥८९॥ SHRUADHUN मिथ्यादृष्टौ नरकगतिप्रायोग्या वैक्रियतैजसाद्याः शुभप्रकृतयो बन्धमायान्ति, तासामपि तथास्वाभाव्याज्जघन्यतोऽपि द्विस्थानक एव रसो बन्धमायाति नैकस्थानक इति ध्येयम् । ननूत्कृष्टस्थितिमात्र सक्क्लेशोत्कर्षेण भवति, ततो येरेवाऽध्यवसायैः शुभप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिर्भवति तैरेवैकग्थानकोऽपि रसः किं न स्यादिति चेत्, उच्यते-इह हि प्रथमस्थितेरारभ्य समयसमयवद्ध्या संख्येयाः स्थितिविशेषा भवन्ति, एकैकस्यां च स्थितावसंख्येया रसस्पर्धकसङ्घातविशेषाः, तत उत्कृष्टस्थितौ वध्यमानायां प्रतिस्थितिविशेषमसंख्यया ये रसस्पर्धकसबातविशेषास्ते तावन्तो द्विस्थानकरसस्यैव घटन्ते नैकस्थानकस्येति न शुभप्रकृतानामुत्कृष्टस्थितिबन्धेऽप्येकस्थानकरसबन्धः। उक्तंच-"(पंचसंग्रह)उक्कोसठिईअज्झव-साणेहिं एगठाणिओ होइ।। सुभिआण तं न जठिई, असंखगुणिआ उ अणुभागा॥३-६४ ।। इति" । एवं स्थिते देशघातिनामवधिज्ञानावरणादीनां सर्वघातिरसस्पर्धकेषु विशुद्धाध्यवसायतो देशघातितया परिणमनेन निहतेषु, देशघातिरसस्पर्धकेषु चातिस्निग्धेष्वल्परसीकृतेषु, तदन्तर्गतकतिपयरसस्पर्धकभागस्योदयावलिकाप्रविष्टस्य क्षये, शेषस्य च विपाकोदयविष्कम्भलक्षणे उपशमे, जीवस्यावधिमनःपर्यायज्ञानचक्षु दर्शनादयो गुणाः क्षायोपशामकाः प्रादुर्भवन्ति । तदुक्तम्-"णिहएसु सव्वघाई-रसेसु फडेसु देसघाईणं ॥जीवस्स गुणा जाय-ति ओहीमणचरकुमाईआ॥३-३०॥" निहतेषु देशघातितया परिणमितेषु ॥ तदावधिज्ञानावरणादीनां कतिपयदेशघातिरसस्पर्धकक्षयोपशमात् कतिपयदेशघातिरसस्पर्धकानां चोदयात् क्षयोपशमानुविद्ध औदयिको भावः प्रवर्तते, अत एवोदीयमानाशक्षयोपशमवृद्ध्या वर्धमानावधिज्ञानोपपत्तिः । यदा चावधिज्ञानाऽऽवरणादीनां सर्वघातीनि रसस्पर्घकानि विपाकोदयमागतानि भवन्ति तदा तद्विषय औदयिको भावः केवलः प्रवर्तते । केबलमवपिज्ञानावरणीयसर्वघातिरसस्पर्धकानां देशघातितया शुभप्रकृतीनां | नकस्थानर सवत्त्वमित्युपपादन तत्संवादिपंचसङ्ग्रहग्रन्थपाठः, क्षयोपशमविचारश्च ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Actiarva srul Kalassiansun Cranmandir ShiMatiavr-Jain Arashna.kendra RECE skG परिणामः कदाचिद्विशिष्टगुणप्रतिपल्या कदाचित्र तामन्तरेणैव स्यात्, भवप्रत्ययगुणप्रत्ययभेदेन तस्य द्वैविध्योपदर्शनात् ।। मनःपर्यायज्ञानावरणीयस्य तु विशिष्टसंयमाप्रमादादिप्रतिपच्चावेव तथास्वभावानामेव बन्धकाले तेषां बन्धनात, चक्षुर्दर्शनावरणादेरपि तत्चदिन्द्रियपर्याप्त्यादिघटितसामय्या तथापरिणामः । मतिश्रुतावरणाचक्षुर्दशनावरणान्तरायप्रकृतीनां तु सदैव देशघातिनामेव रसस्पर्धकानामुदयो न सर्वघातिनां, ततः सदैव तासामौदयिकक्षायोपशमिको भावौ सम्मिश्री प्राप्येते, न केवल औदयिक इति उक्तं पञ्चसमहमूलटीकायाम् । एतच्च तासां सर्वघातिरसस्पर्घकानि येन तेनाध्यवसायेन देशघातीनि कर्तुं शक्यन्ते इत्वम्युपगमे सति उपपद्यते, अन्यथा बन्धोपनीतानां मतिज्ञानावरणादिदेशघातिरसस्पर्धकानामानिवृत्तिबादराद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेष्वेव सम्भवातदवोग मतिज्ञानाद्यभावप्रसङ्गा, तदभावे च तबललभ्यतदवस्थालाभानुपपत्तिरित्यन्योऽन्याश्रयापातेन मतिज्ञानादीनां मूलत एवाभावप्रसङ्गात् । एवं मतिश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनादीनामपि क्षायोपञ्चमिकत्वेन भणनात्सर्वघातिरसस्पर्धकोदये तदलामाद्देशघातिरसस्पर्धकानां चार्वागबन्धादध्यवसायमात्रेण सर्वघातिनो देशघातित्वपरिणामानभ्युपगमे सर्वजीवानां तल्लामानुपपचिरिति भावनीयम् । ननु यदि येन तेनाध्यवसायेनोक्तरसस्पर्धकानां सर्वघातिनां देशघतितया परिणामस्तदाग्दिशाय । तद्वन्ध एव किं प्रयोजनमिति चेत्, तरिक प्रयोजनक्षतिभिया सामग्री कार्य नार्जयंतीति वक्तुमध्यवसितोऽसि ? । एवं हि पूर्णे प्रयोजने दृढदण्डनुबं चक्रं न भ्राम्येत्, तस्मात्प्रकृते हेतुसमाजादेव सर्वघातिरसस्पर्घकबन्धौपयिकाभ्यवसायेन तद्धन्धे तत्तदध्यवसायेन सर्वदा तदेशघातित्वपरिणामे च बाधकामावः। तदेवं ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां विपाकोदयेऽपि क्षयोपशमोऽविरुद्ध इति स्थितम् । मोहनीयस्य तु मिथ्या क्षयोपशमप्रक्रियायां चमत्यावर रणादीनां सर्वघातिरसस्पर्धकान्यपि देशघातितयैवोपभुज्यन्ते तत्र च परकृतारेका तत्परिहारश्च ॥ C MALAUGUAR RECAREE Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीज्ञान बिन्दुप्रकरणम् ।। ॥ ९० ॥ www.kath.org स्वानन्तानुबन्ध्यादिप्रकृतीनां प्रदेशोदये क्षायोपशमिको भावोऽविरुद्धो न विपाकोदये, तासां सर्वघातिनीत्वेनं तद्रसस्पर्वकस्य तथाविधाभ्यवसायेनापि देशघातितया परिणमयितुमशक्यत्वाद्, रसस्य देशघातितया परिणामे तादात्म्येन देशघातिन्या हेतुत्वकल्पनात् । विपाकोदयविष्कम्भणं तु तासु सर्वघातिरसस्पर्धकानां क्षायोपशमिकसम्यक्त्वादिलब्ध्यभिधायक सिद्धान्तबलेन क्षयोपशमान्यथानुपपत्त्यैव तथाविधाध्यवसायेन कल्पनीयम् । केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोस्तु विपाकोदयविष्कम्भायोग्यत्वे स्वभाव एव शरणमिति प्राञ्चः । हेत्वभावादेव तदभावस्तद्धेतुत्वेन कल्प्यमानेऽध्यवसाये तत्क्षयहेतुत्वकल्पनाया एवौचित्यादिति तु युक्तं, तस्मान्मिथ्यात्वादिप्रकृतीनां विपाकोदये न क्षयोपशमसम्भवः, किं तु प्रदेशोदये । न च सर्वघाति. रसस्पर्धक प्रदेशा अपि सर्वस्वघात्यगुणघातनस्वभावा इति तत्प्रदेशोदयेऽपि कथं क्षायोपशमिकभावसम्भव इति वाच्यम्, तेषां सर्वघातिरसस्पर्धक प्रदेशानामध्यवसायविशेषेण मनाग्मन्दानुभावीकृतविरलवेद्यमानदेशघातिरसस्पर्धकेष्वन्तः प्रवेशितानां यथास्थितस्वबलप्रकटनासमर्थत्वात् । मिथ्यात्वाद्यद्वादशकपायरहितानां शेषमोहनीयप्रकृतीनां तु प्रदेशोदये विपाकोदये वा क्षयोपशमेोऽविरुद्धः, तासां देशघातिनीत्वात्, तदीय सर्वघातिरसस्य देशघातित्वपरिणामे हेतुश्चारित्रानुगतोऽध्यवसायविशेष एव द्रष्टव्यः परं ताः प्रकृतयोऽध्रुवोदया इति तद्विपाकोदयाभावे क्षायोपशमिके भावे विजृम्भमाणे प्रदेशोदयवत्योऽपि न ता मनागपि देशघातिन्यः । विपाकोदये तु वर्तमाने क्षायोपशमिकभावसम्भवे मनाग्मालिन्य कारित्वादेशघातिन्यस्ता भवन्तीति सङ्क्षेपः ॥ विस्तरार्थिना तु मस्कृतकर्मप्रकृतिविवरणादिविशेषग्रन्था अवलोकनीयाः । उक्ता क्षयोपशमप्रक्रिया ।। इत्थं च सर्वघातिरसस्पर्धकवन्मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमजनितं मतिश्रुतावधिमनः पर्याय भेदाच्चतुर्विधं क्षायोपशमिकं ज्ञानं पञ्चमं च क्षायिकं For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir मोहनीयमकृतिषु क्षयोपशमव्य बस्थोपपा दर्न क्षयोपपशमप्रक्रि योपसंहा रश्च ॥ चतु विषं ज्ञानं क्षायोपश मिकं पंचमं च क्षायिकमिति नि टंकनं च ॥ ॥ ९० ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.krtutirth.org 44 केवलज्ञानमिति पञ्च प्रकारा ज्ञानस्य ॥ तत्र मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयितज्ञानत्वं अवग्रहादिक्रमवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा, अवध्यादिकमतिशयितमेव, श्रुतं तु श्रुतानुसार्येवेति न तयोरतिव्याप्तिः । श्रुतानुसारित्वं च धारणात्मकपदपदार्थसम्बन्धप्रतिसन्धानजन्यज्ञानत्वं, तेन न सविकल्पक ज्ञान सामग्रीमात्र प्रयोज्य पदविषयताशालिनी हा पाय धारणात्म के मतिज्ञानेऽव्याप्तिः । ईहादिमतिज्ञानभेदस्य श्रुतज्ञानस्य च साक्षरत्वाविशेषेऽप्ययं घट इत्यपायोत्तरमयं घटनामको न वेति संशयादर्शनात्, तत्रानोऽप्यपायेन ग्रहणात् तद्धारणोपयोगे 'इदं पदमस्य वाचकं, अयमर्थ एतत्पदस्य वाच्य' इति पदपदार्थसम्बन्धग्रहस्यापि धौव्येण तज्जनितश्रुतज्ञानस्यैव श्रुतानुसारित्वव्यवस्थितेः । अत एव धारणात्वेन श्रुतहेतुत्वात् “ महपुत्रं सुअं" इत्यनेन श्रुतत्वावच्छेदेन मतिपूर्वत्वविधिः, "न मई सुअपुब्विया" इत्यनेन च मतित्व सामानाधिकरण्येन श्रुतपूर्वस्वनिषेधोऽभिहितः सङ्गच्छते । कथं तर्हि श्रुतनिश्रिताश्रुतनिश्रितभेदेन मतिज्ञानद्वैविध्याभिधानमिति चेद्, उच्यते - स्वसमानाकारश्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोध समान कालनित्वे सति श्रुतोपयोगाभावकालीनं श्रुतनिश्रितमवग्रहादिचतुर्भेदं, उक्तवासनाप्रबोधो धारणादाययोपयुज्यते श्रुतोपयोगाभावश्च मतिज्ञानसामग्रीसम्पादनाय, उक्तवासनाप्रबोधकाले श्रुतज्ञानोपयोगबलाच्छ्रुतज्ञानस्यैवापत्तेः, मतिज्ञानसामग्र्याः श्रुतज्ञानोत्पत्चिप्रतिबन्धकत्वेऽपि शाब्देच्छास्थानीयस्य तस्योत्तेजकत्वात् । मतिज्ञानजन्यस्मरणस्य मतिज्ञानत्ववत् श्रुतज्ञानजन्यस्मरणमार्प च श्रुतज्ञानमध्य एवं परिगणनीयम् । उक्तवासनाप्रबोधासमानकालीनं च मतिज्ञान मौत्पत्तिक्पादिचतुर्भेदम श्रुतनिश्रितमित्यभिप्रायेण द्विधाविभागे दोषाभावः । तदिदमाह महाभाष्यकार:- "पुत्रि सुपरिकम्मिय - महस्स जं संपयं सुआईअं । तं निस्मियमियरं पुण, अणिस्सिधं महचउकं तं ॥ १६९ ॥ ( ज्ञानार्णव पत्र २५) इति " । अपूर्वचैत्रादिव्यक्ति बुद्धौ त्वौत्पचिकीत्वमेवाश्रयणीयम् । १६ For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir मतिज्ञानकक्षणोपदर्शनं तत्र श्रुतानुसारित्वं क क्षितं श्रुतनिश्रिताs श्रुतनिश्रितमेदेन मतिद्वैविध्योपपादनश्च ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym भविानबन्धु ॥९१॥ AARAKAR ऐन्द्रियकश्रुतज्ञानसामान्ये धारणात्वेन तदिन्द्रियजन्यश्रुते तदिन्द्रियजन्यधारणात्वेनैव वा हेतुत्वात् । प्रागनुपलब्धेऽर्थे श्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधाभावेन श्रुतनिश्रितज्ञानासम्भवात, धारणायाः श्रुतहेतुत्व एव च मतिश्रुतयोर्लब्धियोगपद्येऽप्युपयोगक्रमः सङ्गच्छते, प्रागुपलब्धार्थस्य चोपलम्भे धारणाहितश्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधान्वयाच्छुतनिश्रितत्वमावश्यकम् , धारणादिरहितानामेकेन्द्रियादीनां त्वाहारादिसंज्ञान्यथानुपपत्यान्तर्जल्पाकाराविवक्षितार्थवाचकं शब्दसंस्पृष्टार्थज्ञानरूपं श्रुतज्ञानं क्षयोपशममात्रजनितं जात्यन्तरमेव, आप्तोक्तस्य शब्दस्योहाख्यप्रमाणेन पदपदार्थशक्तिग्रहानन्तरमाकाङ्क्षाज्ञानादिसाचिव्येन जायमानं तु ज्ञानं स्पष्टधारणाप्रायमेव, शाब्दबोधपरिकरीभूतश्च यावान् प्रमाणान्तरोत्थापितोऽपि बोधः सोऽपि सर्वः श्रुतमेव । अत एव " पदार्थवाक्यार्थमहावाक्याथैदम्पर्यार्थभेदेन चतुर्विधवाक्यार्थज्ञाने ऐदम्पर्थिनिश्चयपर्यन्तं श्रुतोपयोगव्यापारात सर्वत्र श्रुतत्वमेव" इत्यभियुक्तैरुक्तमुपदेशपदादौ । तत्र "सव्वे पाणा सब्वे भूआ सव्वे जीवा सव्वे सचा ण हंतव्वा" इत्यादौ यथाश्रुतमात्रप्रतीतिः पदार्थबोधः। एवं सति हिंसात्वावच्छेदेनानिष्टसाधनत्वप्रतीतेराहारविहारदेवार्चनादिकमपि प्राणोपघातहेतुत्वेन हिंसारूपत्वादकर्तव्यं स्यादिति वाक्यार्थबोधः । यतनया क्रियमाणा आहारविहारादिक्रिया न पापसाधनानि, चिचशुद्धिफलत्वात्, अयतनया क्रियमाणं तु सर्व हिंसान्तर्भावात् पापसाधनमेवेति महावाक्यार्थबोधः । 'आजैव धर्मे सार' इत्यपवादस्थलेऽपि गीतार्थयतनाकृतयोगिकारणपदैनिषिद्धस्याप्यदुष्टत्वं, विहितक्रियामात्रे च स्वरूपहिंसासम्भवेऽप्यनुबन्धहिंसाया अभावान्न दोषलेशस्याप्यवकाश इत्यैदम्पर्यार्थबोधः । एतेषु सर्वेष्वेकदीर्घोपयोगव्यापारान श्रुतान्यज्ञानशङ्का, ऐदम्पर्यबोधलक्षणफलव्याप्यतयैव श्रुतस्य लोकोत्तरप्रामाण्यव्यवस्थितेर्वाक्येऽपि क्रमिकतावद्बोधजनके तथात्वव्युत्पत्तिप्रतिसन्धानवति व्युत्पचिमति पुरुषे न विरम्यव्यापारादिषणावकाशः। शाब्दबोध. परिकरीभूतबोधमात्रस्य श्रुतत्वं पदार्थबोधादिचतुर्विघवाक्यार्थबोधस्य श्र. तत्वमुपपादितम् । CMOUGBODHAN ॥९ ॥ Fat PW And Penal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire CAMERICAREER सोऽयमिषोरिख दीर्घदीर्घतरो व्यापारो, 'यत्परः शब्दः स शब्दार्थ' इति नयाश्रयणात् । एतेन 'न हिंस्यादित्यादिनिषेधविधी विशेषविधिवाधपर्यालोचनयाऽनुमितौ व्यापकतानवच्छेदकेनापि विशेषरूपेण व्यापकस्येव शाब्दबोधे तत्ताद्वहितेतरहिंसात्वेन वृश्यनवच्छेदकरूपेणापि निषेध्यस्य प्रवेश' इति निरस्तम् । उक्तबाधपर्यालोचनस्य प्रकृतोपयोगान्तर्भावस्मदुक्तप्रकारस्यैव साम्राज्यात, तदनन्तर्भावे च तस्य सामान्यवाक्यार्थबोधेन सह मिलनाभावेन विशेषपर्यवसायकत्वासम्भवात् । अव्यवहितद्वित्र- क्षणमध्ये एकविशेषवाधप्रतिसन्धानमेव सामान्यवाक्यार्थस्य तदितरविशेषपर्यवसायकमिति कल्पनायां न दोष इति चेत्, न, द्वित्रक्षणाननुगमात, पटुसंस्कारस्य पञ्चपक्षणव्यवधानेऽपि फलोत्पत्तेश्व, संस्कारपाटवस्यैवानुगतस्यानुसरणौचित्यात, तच्च गृहीतेऽर्थे मतिश्रुतसाधारणविचारणोपयोग एवोपयुज्यते, अत एव सामान्यनिषेधज्ञाने विरोधसम्बन्धेन विशेषविधिस्मृतावपि विचारणया तदितरविशेषपर्यवसानम् । अपि च 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यत्र यथा परेषां प्रथमं स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येनैव यागकार्यताग्रहोऽनन्तरं चानुगतानतिप्रसक्तकार्यगतजातिविशेषकल्पनं, तथा प्रकृतेऽपि हिंसात्वसामानाधिकरण्येन पापजनकत्वबोधेऽनन्तरं तद्गतहेतुतावच्छेदकानुगतानतिप्रसक्तरूपकल्पने किं बाधकं, सर्वशब्दबलेन हिंसासामान्योपस्थितावपि तद्गतहेतुस्वरूपानुबन्धकृतविशेषस्य कल्पनीयत्वात् । सैव च कल्पना वाक्यार्थबोधात्मिकेति न तदुच्छेदः॥ किञ्च पदार्थबोधाद्धिंसासामान्येऽनिष्टसाधनत्वग्रहे आहारविहारादिक्रियास्वनिष्टसाधनत्वव्याप्यहिंसात्वारोपेणानिष्टसाधनत्वारोपलक्षणतर्कात्मक एव वाक्यार्थबोधः, तस्य युक्त्या विपर्ययपर्यवसानात्मको महावाक्यार्थबोधः, ततो हेतुस्वरूपानुबन्धत्रयविषय एव हिंसापदार्थ इत्यैदम्पर्यार्थबोधः, इत्येते बोधा अनुभवसिद्धत्वादेव दुर्वाराः । श्रुतज्ञानमूलोहादेश्च श्रुतत्वं HORSHASTRORESTMETROPER सवे पाणा सब्बे भूआपण हंतव्वा इत्यादौ पदार्थबोधादिच तुर्विधवाक्यार्थबोधस्थोपपाद. नम्। Fat PW And Penal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra Acharya Shet.KailassincarsamGyammandir भीमान प्रकरणम्॥ PLE मतिज्ञानमूलोहादेमंतिज्ञानत्ववदेवाभ्युपेयम् । अत एव श्रुतज्ञानाभ्यन्तरीभूतमतिविशेषैरेव षट्स्थानपतितत्वं चतुर्दशपूर्वविदा- मप्याचक्षते सम्पदायवृद्धाः। तथा चोक्तं कल्पभाष्ये-" अरकरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेहिं । ते वि य मईविसेसा, सुअनाणभंतरे जाण ॥१॥" (विशे. गा. १४३ ज्ञानार्ण०प०१८) यदि च सामान्यश्रुतज्ञानस्य विशेषपर्यवसायकत्वमेव मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानाभ्यन्तरीभूतत्वमुपयोगविच्छेदेऽप्येकोपयोगव्यवहारश्च फलप्राधान्यादेवेति विभाव्यते, तदा पदार्थ चोधयित्वा विरतं वाक्यं वाक्यार्थबोधादिरूपविचारसहकृतमावृत्या विशेष बोधयदैदम्पर्यार्थकत्वव्यपदेशं लभत इति मन्तव्यम् । पर शब्दसंसृष्टार्थग्रहणव्यापृतत्वे पदपदार्थसम्बन्धग्राहकोहादिवत्तस्य कथं न श्रुतत्वम् , "शब्दसंसृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेष: (त्रिकाल 'सा)धारणसमानपरिणामः श्रुतम् ” इति नन्दीवृत्यादी दर्शनात् ॥ [ नन्दीवृत्तावयं पूर्णपाठः-तथा श्रवणं श्रुत वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहतुरुपलब्धिविशेषः, 'एवमाकारं वस्तु जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थ घट. शब्दवाच्यम् ' इत्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारीन्द्रियमनोनिमित्तोड़वगमविशेष इत्यर्थः] "सोइंदिओवलद्धी, होइ सुश्र सेसयं तु मइनाणं ॥ मोत्तर्ण दव्वसुधे, अस्करलंभो अ सेसेसु ॥११७॥" (ज्ञानार्ण०प०१२)इति पूर्वगतगाथायामप्ययमेव स्वरसो लभ्यते । तथा चास्या अर्थः-श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरेव श्रुतमित्यवधारण, न तु श्रोत्रेन्द्रियेणोपलाब्धिः श्रुतमेवेति । अवग्रहादिरूपायाः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेरपि मतिज्ञानरूपत्वात् । यद्भाष्यकार:"सोइंदिओवलद्धी,चव सुन उतई सुअंचेच । सोइंदिओवलद्धी,विकाई जम्हा महनाणं ॥१२२॥"(ज्ञाना०प०१३) शेष तु यच्चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं तन्मतिज्ञान, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थर, स चावग्रहादिरूपां श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिमपि समुचिनोति, यदभा अनशाना लोहादेः श्रुतत्वं, ततः श्रुतज्ञानाम्क न्तरीभूतमतिविशेषेरेव पूर्वविदोषट्स्थानपतितत्वं तत्र संवादोपदर्शनश्च ॥ ९२॥ Fox PW And Personal use only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym BAPERCEDUCARE प्यकार:-"तु समुच्चयवयणाओ, काई साइंदिओवलद्वी वि । मई एवं सइ सोउ-गहादिओ होति मईभेया॥१२३॥"(ज्ञानाना०प० श्रोत्रेन्द्रियो१३) अपवादमाह-मुक्त्वा द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रादिन्यस्ताक्षररूपं,तदाहितायाः शब्दार्थपोलोचनात्मिकायाः शेषेन्द्रियोपलब्धेरपि पलब्धेः श्रुश्रुतत्वात् । अक्षरलाभश्च यः शेषेष्वपीन्द्रियेषु शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः, न तु कालः, तस्येहेहादिरूपत्वात्, तमपि मुक्वेति सोपस्कार | तत्वं द्रव्यव्याख्येयम् । नन्वेवं शेषेन्द्रियेषप्यक्षरलाभस्य श्रुतत्वोक्त श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतमिति प्रतिज्ञा विशीर्यत, मैत्रम्। तस्यापि श्रुतं मुक्त्वाओषेन्द्रियोपलब्धिकल्पत्वादिति बहवः। श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिपदेन श्रोत्रेन्द्रियजन्यव्यञ्जनाक्षरज्ञानाहिता शाब्दी बुद्धिा, द्रव्यश्रुत शेषेन्द्रियोपदेन च चक्षुरादीन्द्रियजन्यसंज्ञाक्षरज्ञानाहिता सा, अक्षरलाभपदेन च तदतिरिक्तश्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजनिता बुद्धिगृह्यत पलब्धेर्मतिइति सर्वसाधारणो धारणाप्रायज्ञानवृत्तिः शब्दसंसृष्टार्थाकारविशेष एवानुगतलक्षणम् । त्रिविधाक्षरश्रुताभिधानप्रस्तावेऽपि स्वमुपपादिसंज्ञान्यजनयोर्द्रव्यश्रुतत्वेन, लब्धिपदस्य चोपयोगार्थत्वेन व्याख्यानाच । तत्र चानुगतमुक्तमेव लक्षणमिति । इह गोवृषन्यायेन तम, मतिल्लात्रिविधोपलब्धिरूपभावश्रुतग्रहणमिति स्वस्माकमाभाति । अवग्रहादिक्रमवदुपयोगत्वेनापि च मतिज्ञान एव जनकता,न श्रुतज्ञाने ने अवग्रहातत्र शाब्दोपयोगत्वेनैव हेतुत्वात्, मतिज्ञाने च-"नानवगृहीतमीयते, नानीहितमपेयते, नानपेतं च धार्यते," इति क्रमनिबन्धनमन्व- १५. दीनां कायव्यतिरेकनियममामनन्ति मनीषिणः। तत्रावग्रहस्येहायां धर्मिज्ञानत्वेन, तवान्तरधर्माकारहायां तत्सामान्यज्ञानत्वेन वा। ईहा- र्यकारणयाश्च तद्धर्मप्रकारतानिरूपिततद्धमिनिष्ठसिद्धत्वाख्यविषयतावदपायत्वावच्छिन्नेतद्धर्मप्रकारतानिरूपिततद्वामिनिष्ठसाध्यत्वारूपविष- भावोपयतावदीहात्वेन,घटाकारावच्छिन्नसिद्धत्वाख्यविषयतावदपायत्वावच्छिन्ने तादृशमाध्यत्वाख्यविषयतावहिात्वन वा,धारणायांचापायस्य समान्प्रकारकानुभवत्वेन,विशिष्टभेदे समानविषयकानुभवत्वेन वा कार्यकारणभावातत्रावग्रहो द्विविधो व्यञ्जनावग्रहार्थावग्र दर्शनम् । CERICA Fat PW And Penal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीज्ञानबिन्दु प्रकरणम् ।। ॥ ९३ ॥ /www.ketatirth.org हमेदात् । तत्र व्यञ्जनेन शब्दादिपरिणतद्रव्य निकुरम्बेण व्यञ्जनस्य श्रोत्रेन्द्रियादेवग्रहः सम्बन्धो व्यञ्जनावग्रहः, स च मल्लकप्रतिबोधकदृष्टान्ताभ्यां सूत्रोक्ताभ्यामसङ्ख्ये य समयभावी । तस्यामप्यवस्थायामव्यक्ता ज्ञानमात्रा, प्रथमसमयेऽशेनाभवतश्चरमसमये भवनान्यथानुपपत्त्या भाष्यकृता प्रतिपादिता । युक्तं चैतत् निश्चयतोऽविकलकारणस्यैव कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वाद्, अविकलं च कारणं ज्ञाने उपयोगेन्द्रियमेव, तच्च व्यञ्जनावग्रहकाले लब्धसत्ताकं कथं न स्वकार्य ज्ञानं जनयेदिति, अयमुपयोगस्य कारणांशः । ननु व्यञ्जनावग्रहः प्राप्यकारिणामेवेन्द्रियाणामुक्तो नाप्राप्यकारिणोभक्षुर्मनसोरिति तत्र कः कारणांशो वाच्यः १, द्यर्थावग्रस्त सर्वत्र स एवास्त्विति चेत्, न, तत्राप्यर्थावग्रहात्प्राग् लब्धीन्द्रियस्य ग्रहणोन्मुखपरिणाम एवोपयोगस्य कारणांश इत्यभ्युपगमात् । न च सर्वत्रैकस्यैवाश्रयणमिति युक्तम्, इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्वव्यवस्थाप्रयुक्तस्य ह्रस्वदीर्घकारणांशभेदस्यागमयुक्त्युपपन्नत्वेन प्रतिबन्दिपर्यनुयोगानवकाशात् । अर्थावग्रहः सामान्यमात्र ग्रहः, यतः किञ्चिद्दृष्टं मया न तु परिभावितमिति व्यवहारः, स चैकसामयिकः, तत ईहोपयोग आन्त मौहूर्तिकः प्रवर्तते, स च सद्भूताऽसद्भूतविशेषोपादानत्यागाभिमुख बहुविचारणात्मकः पर्यन्ते तत्तत्प्रकारेण धर्मिणि साध्यत्वाख्यविषयताफलवान् भवति । अत एव "फलप्रवृत्तौ ज्ञानप्रामाण्यसंशयवत्करणप्रवृत्तावपीन्द्रियादिगतगुणदोपसंशयेन विषयसंशयादिन्द्रियसाद्गुण्यविचारणमपीइयैव जन्यते, केवलमभ्यासदशायां तज्झटितिजायमानत्वात् कालसौक्ष्म्येण नोपलक्ष्यते, अनभ्यासदशायां तु वैपरीत्येन स्फुटमुपलक्ष्यत" इति मलयगिरिप्रभृतयो वदन्ति । एवं सति स्वजन्यापाये सर्वत्रार्थयाथात्म्य निश्चयस्येहयैव जन्यमानत्वात् " तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वत: परतश्च” इत्याकर (प.१-२०) सूत्रं विरुध्येत, तदुभयं प्रामाण्यमप्रामाण्यं च, परत एवेति कारणगतगुणदोषापेक्षयेत्यर्थः, स्वतः For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir व्यञ्जनार्थी वग्रहभेदे - नावग्रह है विध्यं व्य जनस्वरू पद्वैविध्यं व्यञ्जनावग्र हनिरूपणश्च ततोऽर्थावग्रहादीनां निरूपणम् । ॥ ९३ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org परतयेति, संवादक बाधक ज्ञानानपेक्षया जायमानत्वं स्वतस्त्वं तच्चाभ्यासदशायां, केवलक्षयोपशमस्यैव तत्र व्यापारात्, तदपेक्षया जायमानत्वं च परतस्त्वं तच्चानभ्यासदशायां, अयं च विभागो विषयापेक्षया स्वरूपे तु सर्वत्र स्वत एव प्रामाण्यनिश्चय इक्षरार्थ इति । " ईयैव हि सर्वत्र प्रामाण्यनिश्चयाभ्युपगमे किं संवादकप्रत्ययापेक्षया १, न खल्वेकं गमकमपेक्षितमिति गमकान्तरमप्यपेक्षणीयम् । न चेहाया बहुविधत्वाद्यत्र न करणसाद्गुण्यासाद्गुण्य विचारस्तत्रैवोक्तस्वतस्त्वपरतस्त्वव्यवस्थेति वाच्यम्, ईहायां क्वचिदुक्तविचारव्यभिचारोपगमे आभ्यासिकापाय पूर्वेहायामनुपलक्ष्यमाणस्यापि तद्विचारस्य नियमकल्पनानुपपत्तेः । न चोक्तविचार ईहायां प्रमाजनकतावच्छेदको न तु तज्ज्ञप्तिजनकतावच्छेदक इत्यपि युक्तम्, करणगुणादेव प्रमोत्पत्तौ तस्यातथात्वात् । न च भाविज्ञानस्यासिद्धत्वादुक्तविचारवत्यापीहया तद्गतप्रामाण्याग्रह इत्यपि साम्प्रतम्, विचारेण करणसद्गुण्य हे भाविज्ञानप्रामाण्यग्रहस्यापि सम्भृतसामग्री कत्वादित्यादिविचारणीयम् । ननु भवतां सैद्धान्तिकमते उपयोगे - वग्रहादिवृत्तिचतुष्टयव्याप्यत्वं, एकत्र वस्तुनि प्राधान्येन सामान्यविशेषोभथावगाहित्वपर्याप्त्याधारत्वं वा, तार्किकमते च प्रमेयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम योग्यत्वादभ्यासेनापि दुर्ग्रहं समर्थप्रवृत्त्यनौपयिकत्वेनानुपादेयं च । पौद्गलिकसम्यक्त्ववतां सम्यक्त्वदलि कान्वितोऽपायांशः प्रमाणं, क्षायिक सम्यक्त्ववतां च केवलोऽपायांश इति तत्त्वार्यवृत्त्यादिवचनतात्पर्यपर्यालोचनायां तु सम्यक्त्व समानाधिकरणापायत्वं ज्ञानस्य प्रामाण्यं पर्यवस्यति, अन्यथाऽननुगमात्, तत्र च विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहः । ज्ञानं प्रमाणमितिवचनं विनिगमकमिति चेत्, तदपि समर्थप्रवृत्यैौपयिकेन रूपेण विनिगमयेत् न तु विशिष्टापायत्वेनानीदृशेन, 'सम्यक्त्वानुगतत्वेन ज्ञानस्य ज्ञानत्वं, अन्यथा त्वज्ञानत्वं' इति व्यवस्था तु नापायमात्रप्रामाण्यसाक्षिणी, सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir मलयगिरिप्रभृत्यभिप्रायेण स हथैव प्रामाण्यनिश्रयोपगमे रत्नाकरसूत्रविरोध उपदर्शितः, जैनाभिमते. प्रामाण्या प्रामाण्य स्वतस्य परतस्त्वानैकान्ते दोषोपदर्शनम् । .. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीज्ञानबिन्दुप्रकरणम् ॥ ।। ९४॥ www.khatirth.org संशयादीनामपि ज्ञानत्वस्य महाभाष्यकृता परिभाषितत्वात् । न च सम्यक्त्वसाहित्येन ज्ञानस्य रुचिरूपत्वं सम्पद्यते, रुचिरूपं च ज्ञानं प्रमाणमिति सम्यक्त्वविशेषणोपादानं फलवदित्यपि साम्प्रतम्, एतस्य व्यवहारोपयोगित्वेऽपि प्रवृत्यनुपयोगित्वात् । न च घटाद्यपायरूपा रुचिरपि सम्यक्त्वमिति व्यवहरन्ति सैद्धान्तिकाः, जीवाजीवादिपदार्थ नवकविषयक समूहालम्बनज्ञानविशेषस्यैव रुचिरूपतयानातत्वात्, केवलं 'सत्संरूपादिमार्ग गास्थानैस्तनि र्गयो भावसम्यक्त्वं, ''सामान्यतस्तु द्रव्यसम्यक्त्वम्' इति विशेष इति । न च घटाद्यपायेऽपि रुचिरूपत्वमिष्टमेव, सदसद्विशेषणाविशेषणादिना सर्वत्र ज्ञानाज्ञानव्यवस्थाकथनात्, तदेव च प्रामाण्यम प्रत्यूहमिति वाच्यं, अनेकान्तव्यापकत्वादिप्रतिसन्धानाहितवास नाव तामेव तादृशबोधसम्भवात् तदन्येषां तु द्रव्यसम्यक्त्वेनैव ज्ञानसद्भावव्यवस्थिते: । अत एव "चरणकरणप्रधानानामपि स्वसम पपरसमय मुक्त व्यापाराणां द्रव्यसम्यक्त्वेन चारित्रव्यवस्थितावपि भावसम्यक्त्वाभावः" प्रतिपादितः सम्मतौ महावादिना। द्रव्यसम्यक्त्वं च, "तदेव सत्यं निःशंकं यजिनेन्द्रः प्रवेदितमिति'ज्ञानाहितवासनारूपं, माषतुषायनुरोधाद् 'गुरुपारतंत्र्य रूपं वा' इत्यन्यदेतत् । तस्मान्नैते प्रामाण्यप्रकाराः प्रवृत्ययोगिकाः । तद्वति तत्प्रकारकत्वरूपं ज्ञानप्रामाण्यं तु प्रवृथ्यौ पथिकमवशिष्यते, तस्य च स्वतो ग्राह्यत्वमेवोचितम् । न्यायनयेऽपि ज्ञाने पुरोवर्तिविशेष्यताकत्वस्य रजतत्वादिप्रकारकत्वस्य चानुव्यवसाय ग्राह्यतायामवित्रादात्, इमं रजतत्वेन जानामीति प्रत्ययात्, तत्र विशेष्यत्वप्रकारत्वयोरेव द्वितीयादतीयार्थत्वात् तत्र पुरोवर्ति इदन्त्वेन रजतत्वादिनापि चोपनयवशाद्भासताम् । न चेदन्त्ववैशिष्टयं पुरोवर्तिनि न भासत इति वाच्यम्, विशेष्यतायां पुरोवर्तिनः स्वरूपतो मानानुपपत्तेः तादृशाविशेषण ज्ञानाभावात्, अन्यथा प्रमेयत्वादिना रजतादिज्ञानेऽपि तथाज्ञानापचेः, जात्यतिरिक्तस्य किश्चिद्धर्मप्रकारेणैव माननियमाच्च । किञ्च प्रामाण्य For Print And Personal Use Only Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir उपयोगेऽव ग्रहादिवृत्ति चतुष्टयव्या प्यत्वादि लक्षणं सम्यक्त्वसमाना धिकरणापायत्वादिलक्षणं च प्रामा यं न प्रभुयौपयिकं तादृशं चत इति तत्प्रका रकर स्वतो ग्राह्यमेवेति प्रश्नः॥ ॥ ९४ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShrMatiavr Jain ArachanaKendra प्रवृत्त्यौपविकनिरुक्तमामाण्यस्य ज्ञप्तौं स्वतस्त्वमेवेति प्रश्ननिगमनम्।। OMGURUCKBUSIk संशयोत्तरमिदं रजतं नवेत्येव संशयो, न तु रजतमिदं न चा, द्रव्यं रजतं न वेत्यादिरूप इति, यद्विशेष्यकयत्प्रकारकजानत्वावच्छेदेन प्रामाण्यसंशयस्तद्धर्मविशिष्ट तत्प्रकारकसंशय इति नियमादिदन्त्वेन धर्मिभानमावश्यकं,इदन्त्वरजतत्वादिना पुरोवर्तिन उपनयसत्त्वाच्च तथाभानमनुव्यवसाये दुर्वारमिति किमपरमवशिष्यते प्रामाण्ये ज्ञातुम् । न चैकसम्बन्धेन तद्वति सम्बन्धान्तरेण तत्प्रकारकज्ञानव्यावृत्तं, तेन सम्वन्धेन तत्प्रकारकत्वमेव प्रामाण्यं, तच दुग्रहमिति वाच्यं, व्यवसाये येन सम्बन्धेन रजतत्वादिकं प्रकारस्तेन तद्वतोऽनुव्यवसाये भानात् , संसर्गस्य तु तत्वेनैव भानात् । तत्प्रकारकत्वं च वस्तुगत्या तत्सम्बन्धावच्छिन्नप्रकारताकत्वमिति प्रकारताकत्वकुक्षिप्रवेशेनैव वा तदानम् । अत एवेदं रजतमिति तादात्म्यारोपव्यावृत्तये मुख्यविशेष्यता प्रामाण्ये निवेशनीयेति मुख्यत्वस्य दुहत्वमित्युक्तेरप्यनवकाशो, वस्तुगत्या मुख्पविशेष्यताया एव निवेशात , तादाल्यारोपे आरोप्यांश समवायेन प्रामाण्यसवेऽप्यक्षतेश्च । एतेन 'तद्वद्विशेष्यकत्वे सति तत्प्रकारकत्वमात्रं न प्रामाण्यं,'इमे रखरजते' 'नेमे रङ्गरजते' इति विपरीतचतुष्कभ्रमसाधारण्यात् , किं तु तद्वद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नतत्प्रकारकत्वं, तच्च प्रथमानुष्यवसाये दुहम्' इत्यपि निरस्तम् ।। .. वस्तुगत्या तादृशप्रकारताकत्वस्य सुग्रहत्वादेव तद्हेऽनुव्यवसायसामनघाऽसामर्थ्यस्य व्यवसायप्रतिबन्धकत्वस्प चा कल्पनमभिनिवेशेन स्वबुद्धिविडम्बनामात्र,तथाकल्पनायामप्रामाणिकगौरवात् । एतेन 'विधेयतवाऽनुव्यवसाये स्वातन्त्र्येण प्रामाण्यमाने व्यवसायप्रतिबन्धकत्वकल्पनापि' परास्ता । तत्र तद्वद्विशेष्यकतोपस्थितितदभाववाद्विशेष्यकत्वाभावोपस्थित्यादीनामुचेजकत्वादिकल्पने महागौरवात् । यदि च विशेष्यत्वादिकमनुपस्थितं न प्रकारः, तदा विशेष्यतासम्बन्धेन रजतादिमचे सति प्रकारितया रजतत्वादिमत्त्वमेव प्रामाण्यमस्तु । एतज्ज्ञानमेव लाघवात्प्रवृत्यौपयिक । तस्माज्ज्ञप्ती प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वमेव युक्तम् । ABRSPEAK ER Fox PwAnd Personal use only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym बवानविन्दु प्रकरणम्॥ ॥९५॥ HिUMKASBA अप्रामाण्यं तु नानुव्यवसायग्राह्य, रजतत्वाभाववचेन पुरोवर्तिनोऽग्रहणे तथोपनीतभानायोगात्, रजतत्वादिमत्तया शुक्त्यादिधीविशेष्यकत्वं रजतत्वप्रकारकत्वं च तत्र गृह्यते, अत एव, 'अप्रमापि प्रमेत्येव गृह्यते' इति चिन्तामणिग्रन्थः 'प्रमेतीत्येव व्याख्यातस्तांत्रिकैः इत्यप्रामाण्यस्य परतस्त्वमेव । न च प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वे ज्ञानप्रामाण्यसंशयानुपपत्तिा, ज्ञानग्रहे प्रामाण्यग्रहात्तदग्रहे धर्मिग्रहाभावादिति वाच्यं, दोषात् तत्संशया मीन्द्रियसन्निकर्षस्यैव संशयहेतुत्वात् । प्राक् प्रामाण्याभावोपस्थितौ धर्मिज्ञानात्मक एव वाऽस्तु प्रामाण्यसंशय इति स्वतस्त्वपरतस्त्वानेकान्तः प्रामाण्याप्रामाण्ययोजनानां न युक्त इति चेद्, अत्र ब्रूमः। रजतत्ववद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नरजतत्वप्रकारताकत्वरूपस्य रजतज्ञानप्रामाण्यस्य वस्तुतोऽनुव्यवसायेन ग्रहणात, स्वतस्त्वाभ्युपगमेऽप्रामाण्यस्यापि स्वतस्त्वापाता, रजतभ्रमानुव्यवसायेनापि वस्तुतो रजतत्वाभाववद्विशेष्यकत्वावच्छिन्नरजतत्वप्रकारताकत्वस्यैव ग्रहात्, तत्र चास्माभिरनेकान्तवादिभिरिष्टापत्तिः कर्तुं शक्यते, द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षस्य योग्यद्रव्यप्रत्यक्षीकरणवेलायां तद्गतानां योग्यायोग्यानां धर्माणां सर्वेषामभ्युपगमात, 'स्वपरपर्यायापेक्षयाऽनन्तधर्मात्मकं तत्त्वम्' इति वासनावत एकज्ञत्वे सर्वज्ञत्वध्रौव्याभ्युपगमाच, (आचाराङ्ग) "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ति" पारमर्षस्यत्थमेव स्वारस्यव्याख्यानात् । अवोचाम चाध्यात्मसारप्रकरणे-(प्रवन्ध २) "आसचिपाटवाभ्यास-स्वकार्यादिमिरा- श्रयन् ।। पर्यायमेकमप्यर्थ, वेत्ति भावाद् बुधोऽखिलम् ॥वै. भेदप्र. ३०॥" इति । न चेयं रीतिरेकान्तवादिनो भवत इति प्रतीच्छ प्रतिबन्दिदण्डप्रहारम् । ननु रजतत्ववद्विशेष्यकत्वरजतत्वप्रकारत्वयोरेव ज्ञानोपरि भानं, अवच्छिन्नत्वं तु तयोरेव मिथः संसर्गः, एकत्र भासमानयोईयोर्धमयोः परस्परमपि सामानाधिकरण्येनैवावच्छिन्नत्वेनाप्यन्वयसम्भवादित्येवं प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वं, अप्रामाण्यस्य तु परतो ग्राह्यत्वमेवेति प्रामाण्याप्रामाण्ययोः स्व तस्त्वपरनस्त्वानेकान्तो जैनानां नयत इति प्रश्नपति ॥९५॥ Fat PW And Penal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org अप्रामाण्यस्य तु न तथात्वं रजतत्वाभावस्य व्यवसायेऽस्फुरणेन तद्वद्विशेष्यकत्वस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् ज्ञानग्राहकसामय्यास्तूपस्थितविशेष्यत्वादिग्राहकत्व एव व्यापारादित्येवमदोष इति चेत्, न, प्रामाण्यशरीरघटकस्यावच्छिन्नत्वस्य संसर्गतया मानोपगमे कार्त्स्न्येन प्रामाण्यस्य प्रकारत्वासिद्धेः, अंशतः प्रकारतया भानं च स्वाश्रयविशेष्यकत्वावच्छिन्न प्रकारतासम्बन्धेन रजतत्वस्य ज्ञानोपरि भानेऽपि सम्भवतीति तावदेव प्रामाण्यं स्याद् ॥ अस्त्वेवं ज्ञानग्राहक सामय्यास्तथाप्रामाण्यग्रह एव सामर्थ्यात्, अत एव नाप्रामाण्यस्य स्वतस्त्वमिति चेत्, न, एवमभ्युपगमे अप्रमापि प्रमेतीत्येव गृह्यते इत्यस्य व्याघाताचत्र रजतत्वस्य ज्ञानोपर्युक्तसम्बन्धासम्भवात्, कम्बुग्रीवादिमान्नास्ति वाच्यं नास्तीत्यादावन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताया इव प्रकृते उक्तसम्बन्धस्य तत्तदवगाहितानिरूपितावगाहितारूपा विलक्षणैव खण्डशः सांसर्गिकविषयतेति न दोष इति चेत्, न, तत्रापि लक्षणादिनैव बोधः, उक्त प्रतियोगितायास्तु घटो नास्तीत्यादावेव स्वरूपतः संसर्गत्वं, उक्तं च मिश्रः- “ अर्थापत्तौ नेह देवदत्त इत्यत्र प्रतियोगित्वं स्वरूपत एव भासत इत्येवं समर्थनात् " वस्तुतोऽस्माकं सर्वापि विषयता द्रव्यार्थतोऽखण्डा, पर्यायार्थतश्च सखण्डेति सम्पूर्ण प्रामाण्य विषयताशालिबोधो न संवादकप्रत्ययं विना, न वा तादृशाप्रामाण्यविषयताकबोधो बाधकप्रत्ययं विना, इत्युभयोरनभ्यासदशायां परतस्त्वमेव, अभ्यासदशायां तु क्षयोपशम विशेषसधी चीनया तादृशतादृशेद्दया तथा तथोभयग्रहणे स्वतस्त्वमेव, अत एव प्रामाण्यान्तरस्यापि न दुर्ब्रहत्वं स्वोपयोगापृथग्भूते हे। पनीतप्रकारस्यैवापायेन ग्रहणात् तादृशी च प्रामायविषयता नावग्रहमात्रप्रयोज्यत्वेन लौकिकी, नापि पृथगुपयोगप्रयोज्यत्वेनालौकिकी, किन्तु विलक्षणैवेति न किञ्चिदनुपपन्नमनन्तधर्मात्मकवस्त्वभ्युपगमे । अत एव 'वस्तुसदृशो ज्ञाने ज्ञेयाकारपरिणाम' इति विलक्षणप्रामाण्याकारवादेऽपि न क्षतिः । एवञ्च For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir प्रामाण्यस्य शप्तौ स्वत स्त्वमेवाप्रामाण्य स्य परतस्त्व मेवेति मुरारिमिश्रम तस्य खण्डनं अनम्यासद शायामुभयोः परतस्त्वमम्यासद शायाश्च स्वतस्त्वम् ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym सविवरणं ६ भीवाना र्णव BANKA प्रकरणम्॥ ॥९६॥ सप्तौ प्रामाभ्रमेजतनिमिचो रजताकार, संवृतशुक्त्याकारायाः समुपाचरजताकारायाः शुक्तरेव तत्रालम्बनखात, प्रमायां तु रजतनिमित्त ण्यामामाइत्याकारतथात्वस्य, परतास्वतोग्रहाभ्यां 'प्रामाण्याप्रामाण्ययोस्तदनेकान्त' इति-प्राचां वाचामपि विमर्शः कान्त एवेति द्रष्टव्यम् । INण्ययोः स्वन्यायाभियुक्ता अपि "यथाऽभावलौकिकप्रत्ययस्तद्धर्मस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वमवगाहमान एकतर्मविशिष्टस्य प्रतियोगित्व 13 तस्त्वपरतमवगाहते, तथा ज्ञानलौकिकसाक्षात्कारोऽपि तद्धर्मस्य विशेष्यताधवच्छेदकत्वमवगाहमान एव तद्धर्मविशिष्टस्य विशेष्यतादि त्वानेकान्तकमवगाहत इति इदन्त्वविशिष्टस्यैव विशेष्यत्वमवगाहेत, इदन्त्वस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वात्, न तु रजतत्वादिविशिष्टस्य, स्योपसंहारः, रजतत्वादेरतथात्वाद, इत्थं नियमस्तु लौकिके। तेनोपनयवशादलौकिकतादृशसाक्षात्कारेऽपि न क्षतिः" इति वदन्तो विनोपनयं अपायस्य प्राथमिकानुव्यवसायस्य प्रामाण्याग्राहकत्वमेवाहुः । यदेव च तेषामुपनयस्य कृत्यं तदेवास्माकमीहायाः साध्यमिति कुन प्रसङ्गेन । निरूपण प्रकृतमनुसरामः । एताववग्रहहाख्यौ व्यापारोंशी, ईहानन्तरमपाया प्रवर्तते 'अयं घट एवेति,' अत्र चासत्यादिजनित तस्योत्तरक्षयोपशमवशेन यावानीहितो धर्मस्तावान् प्रकारीभवति, तेनैकत्रैव 'देवदत्तोऽयं ब्राह्य गोय' 'पाचकोऽयं इत्यादिप्रत्ययमेदोपप विशेषावचिः। इत्थं च रूपविशेषान्मणिः पद्मराग इत्युपदेशोचरमपि तदाहितवासनावतो रूपविशेषाद् 'अनेन परागेग भवितव्यम्' इतीहो गमापेक्षया चरमेव 'अयं पद्मराग' इत्यपायो युज्यते, उक्तोपदेशः पद्मरागपइवाच्यत्वोपमितावेवोपयुज्यते । अयं पद्मराग इति तु सामान्यावग्रहे | व्यावहारिहाक्रमेणैवेति नैयायिकानुयायिनः । घट इत्यपायोत्तरमपि यदा किमयं घटा सौवर्णो माों वेत्यादिविशेषजिज्ञासा प्रवर्तते, काग्रहत्वतदा पाश्चात्यापायस्योत्तरविशेषावगमापेक्षया सामान्यालम्बनत्वाद्वथावहारिकावग्रहत्वं, ततः सौवर्ण एवायमित्यादिरपाया, प्रदर्शनम् ॥ तत्राप्युत्तरोत्तरविशेषजिज्ञासायां पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य व्यावहारिकावग्रहत्वं द्रष्टव्यम् । जिज्ञासानिवृत्तौ त्वन्त्यविशेषज्ञानमवाय क Fat PW And Penal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.khatirth.org एवोच्यते नाऽवग्रहः, उपचारकारणाभावात् । अयं फलांशः ॥ कालमानं त्वस्यान्तर्मुहूर्तमेव, सौदामिनी सम्पातजनितप्रत्यक्षस्य चिरमननुवृत्तेर्व्यभिचार इति चेत्, न, अन्तर्मुहूर्तस्यासख्य भेदत्वात्, अन्त्यविशेषावगमरूपापायोत्तरमावि च्युतिरूपा धारणा प्रवर्तते, साप्यान्तमौहूर्तिकी । अयं परिपाकांशः ॥ वासनास्मृती तु सर्वत्र विशेषावगमे द्रष्टव्ये । तदाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः, सामन्नमित्तगहणं, णेच्छइओ समय मोग्गो पढमो ॥ तचोणंतरमीहिय- वत्धुविसेसस्स जोवाओ।। २८२ ।। तो पुणरहिावायावेरकाए ओग्गहोति उवयरिओ | एस विसेसावेरकं, सामन्नं गिण्इए जेणं ॥ २८३॥ तचोणंतरमीदा, तओ अवाओ अ तव्विसेसस्स ॥ इह सामन्नविसेसा - वेरका जावंतिमो भेओ ।। २८४ ॥ सव्वत्येहावाया, णिच्छयओ मोतुमाइसामन्नं ॥ संववहारत्थं पुण, सव्वत्थावग्गहोवाओ || २८५ ॥ तरतमजोगाभावे - वाओ चिय धारणा तदवमि ॥ सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालन्तरे सई य ॥ २८६॥।” (ज्ञानार्णवप. ५८-५९ ) ति । न चाविच्युतेर पायावस्थानात्पार्थक्ये मानाभावः, विशेषजिज्ञासानिवृत्यवाच्छिनस्वरूपस्य कथञ्चिद्धिमत्वाद्, अवगृह्णामि, ईहे, अवैमि, स्थिरीकरोमीतिप्रत्यया एव च प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धा अवग्रहादिभेदे प्रमाणं, स्मृतिजनकतावच्छेदकत्वेनैव वाऽविच्युतित्वं धर्मविशेषः कल्प्यते, तत्तदुपेक्षान्यत्वस्य स्मृतिजनकतावच्छेदक कोटिप्रवेशे गौरवादिति धर्मविशेषसिद्धौ धर्मिविशेषसिद्धिरित्यधिकं मत्कृतज्ञानार्णवादव सेयम् ॥ तदेवं निरूपितं मतिज्ञानं ॥ तन्निरूपणेन च श्रुतज्ञानमपि निरूपितमेव । द्वयोरन्योऽन्यानुगतत्वा च चैव व्यवस्थापितत्वाच्च । अन्ये वङ्गोपाङ्गादिपरिज्ञानमेव श्रुतज्ञानमन्यच मतिज्ञानमित्यनयोरपि भजनैव, यदुवाच वाचकचक्रवर्ती "एकादी न्येकस्मिन्भाज्यानि त्वाचतुर्म्य इति" (तार्थ अ ०१ - ३१) । शब्दसंसृष्टार्थमात्रग्राहित्वेन श्रुतत्वे त्ववग्रहमात्रमेव मतिज्ञानं प्रसज्येत, धारणो वरं स्वसमानाकार श्रुतावश्य १७ For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir मतिज्ञाननि रूपणे व्या वहारिका ऽवग्रहत्व मवायस्थ, अविच्युतेर. पायात्पार्थ क्यं मति ज्ञाननिरू पणतः श्रुतज्ञाननिरूप णातिदेशः ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीज्ञान बिन्दु अकरणम् ॥ ॥ ९७ ॥ www.khatirth.org म्भावकल्पनं तु स्ववासनामात्रविजृम्भितं, शब्दसंसृष्टाया मतेरेव श्रुतत्वपरिभाषणं तु न पृथगुपयोगव्यापकमिति शाब्दज्ञानमेत्र श्रुतज्ञानं न त्वपरोक्ष मिन्द्रियजन्यमपीत्याहुः। नव्यास्तु "श्रुतोपयोगो मत्युपयोगान्न पृथक्, मत्युपयोगेनैव तत्कार्योपपत्तौ तत्पार्थक्य कल्पनाया व्यर्थत्वात् । अत एव शब्दजन्यसामान्यज्ञानोत्तरं विशेषजिज्ञासायां तन्मूलकमत्यषायांशप्रवृत्तौ न पृथगवग्रहकल्पनागौरवं शाब्दसामान्यज्ञानस्यैव तत्रावग्रहत्वात् । न चाशाब्दे शाब्दस्य तत्सामय्या या प्रतिबन्धकत्वधौव्यान्नेयं कल्पना युक्तेति वाच्यम्, अशाब्दत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वे प्रतियोगिकोटौ शब्दमूलमतिज्ञानस्यापि प्रवेशात्, अन्यथा श्रुताभ्यन्तरीभूतमतिज्ञानोच्छेदप्रसङ्गात् । किश्च शाब्दज्ञानरूपश्रुतस्यावग्रहादिक्रमवतो मतिज्ञानाद्भिन्नत्वापगमेऽनुमानस्मृतितर्कप्रत्यभिज्ञानादीनामपि तथात्वं स्यादित्यतिप्रसङ्गः, सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत्वाभावस्यापि तेषु तुल्यत्वात् । यदि चावग्रहादिभेदाः सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपस्यैव मतिज्ञानस्य सूत्रे प्रोक्ता अनुमानादिकं तु परोक्षमतिज्ञानमर्थतः सिद्धमितीप्यते, तर्हि श्रुतशब्दव्यपदेश्यं शाब्दज्ञानमपि परोक्षमतिज्ञानमेवाङ्गीक्रियतां किमर्धजरतीयन्यायाश्रयणेन । मत्वा जानामि श्रुत्वा जानामीत्यनुभव एवानयोर्भेदोपपादक इति चेत्, न, अनुमाय जानामि स्मृत्वा जानामीत्यनुभवेनानुमानस्मृत्यादीनामपि भेदापतेः । अनुमितित्वादिकं मतित्वव्याप्यमेवेति यदीष्यते, शाब्दत्वमपि किं न तथा १ । मत्वा न जानामीति प्रतीतिस्तत्र बाधिकेति चेत्, न, वैशेषिकाणां नानुमिनोमीति प्रतीतेरिव शाब्दे तस्या विशेषविषयत्वात् । नच निसर्गाधिगमसम्यक्त्व रूपकार्य भेदान्मतिश्रुतज्ञान रूपकारणभेद इत्यपि साम्प्रतम् तत्र निसर्गपदेन स्वभावस्यैव ग्रहणात् । यद्वाचकः - ( प्रशमरति ) “शिक्षागमोपदेश- श्रवणान्येकार्थिकान्यधिगमस्य । एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ।। २२३ ।। इति" । यत्रापि मतेः श्रुतभिन्नत्वेन ग्रहणं तत्र गोबलीवर्दन्याय एवाश्रयणीयः। तदिदमभिप्रेत्याह महा For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir श्रुतज्ञान निरूपये श्रु तस्य मतिज्ञानादभि त्वमेवेति नव्यमतस्योपदर्शनम् ॥ ॥ ९७ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire XLADASHISROADS वादी सिद्धसेनः (निश्चयद्वात्रिंशिका) वैयर्थ्यातिप्रसङ्गाभ्यां,न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्॥१२॥इति।।" इत्याहुः।।इतिश्रुतज्ञानम्।। "अवधिज्ञानत्वं रूपिसमव्याप्यविषयताशालिज्ञानवृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिमत्त्वम्।।" रूपिसमव्याप्यविषयताशालिज्ञानं परमावधिज्ञानं "रूवगयं लहइ सव्वं" (गा.६८५) इतिवचनात् ,तवृत्तिनित्वव्याप्याजातिरवधित्वमवधिज्ञानमात्र इति लक्षणसमन्वयः समव्याप्यत्वमपहाय व्यापकत्वमात्रदाने जगद्व्यापकविषयताकस्य केवलस्य रूपिव्यापकविषयताकत्वनियमात् तद्वृत्तिकेवलत्वमादाय केवलज्ञानेऽतिव्याप्तिः, समव्याप्यत्वदाने त्वरूपिणि व्यभिचारात्केवलज्ञानविषयताया रूप्यव्याप्यत्वात्तन्निवृत्तिः। न च परमावधिज्ञानेऽप्यलोके लोकप्रमाणासङ्ख्यारूप्याकाशखण्डविषयतोपदर्शनादसम्भवः । यदि तावत्सु खण्डेषु रूपिद्रव्यं स्यात्तदा पश्येदिति प्रसङ्गापादन एव तदुपदर्शनतात्पर्यात् । न च तदंशे विषयबाधेन सूत्राप्रामाण्यं, स्वरूपबाधेऽपि शक्तिविशेषज्ञापनेन फलावाधात् । एतेनासद्भावस्थापना व्याख्याता बहिर्विषयताप्रसञ्जिका तारतम्येन शक्तिवृद्धिश्च लोकमध्य एव सूक्ष्मम्क्ष्मतरस्कन्धावगाहनफलवतीति न प्रसङ्गापादनवैयर्थ्यम् । यद्भाष्यं-"वळतो पुण बाहि, लोगत्थं चेव पासई दब्बं ॥ सुहुमयरं सुहुमयरं, परमोही जाव परमाणुं ॥ ६०६ ॥” इति । अलोके लोकप्रमाणासङ्ख्येयखण्डविषयतावधेरिति वचने विषयतापदं तर्कितरूप्यधिकरणताप्रसञ्जिततावदधिकरणकरूपिविषयतापरमिति न स्वरूपबाधोपीति तत्त्वम् । जातौ ज्ञानत्वव्याप्यत्वविशेषणं ज्ञानत्वमादाय मत्यादावतिव्याप्तिवारणार्थम् । न च संयमप्रत्ययावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानसाधारणजातिविशेषमादाय मनःपर्यायज्ञानेऽतिव्याप्तिः,अवधित्वेन साङ्कर्येण तादृशजात्यसिद्धेः । न च 'पुद्गला रूपिण' इति शाब्दबोधे रूपिसमव्याप्यविषयताके तिव्याप्तिा, विषयतापदेन स्पष्टविशेषाकारग्रहणादिति सङ्केपः ॥ इत्यवधिज्ञानप्ररूपणम् ।। अवविज्ञान| निरूपण तत्रावधिज्ञानलक्षणे विरोषणानां व्यावृत्युपदर्शनम् ॥ ABPSPEECORRUAGE Fat PW And Penal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym पाव श्रीज्ञान- "मनोमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यायज्ञानम्।" न च तादृशावधिज्ञानेऽतिव्याप्तिः,मनःसाक्षात्कारिणोऽवधेःस्कन्धान्तर- मनःपर्या | स्यापि साक्षात्कारित्वेन तादृशावधिज्ञानासिद्धेन च मनस्त्वपरिणतस्कन्धालोचितं बाह्यमप्यर्थ मनःपर्यायज्ञानं साक्षात्करोतीति बज्ञाननिअवारणम्॥ तस्य मनोमात्रसाक्षात्कारित्वमसिद्धमिति वाच्यम्, मनोद्रव्यमात्रालम्बनतयैव तस्य धर्मिग्राहकमानसिद्धत्वात् , बाह्यार्थानां रूपणे त॥९८BC तु मनोद्रव्याणामेव तथारूपपरिणामान्यथानुपपत्तिप्रसूतानुमानत एव ग्रहणाभ्युपगमाव। आह च भाष्यकार:-" जाणइ बज्झे- लक्षणेऽतिगुमाणेणं ति"(गा.८१४)वाशार्थानुमाननिमित्तकमेव हि तत्र मानसमचक्षुर्दर्शनमङ्गीक्रियते,यत्पुरस्कारेण सूत्रे मनोगव्याणि जानाति व्याप्त्यादिपश्यति चैतदिति व्यवहियते । एकरूपेऽपि ज्ञाने द्रव्याद्यपेक्षक्षयोपशमवैचित्र्येण सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया दोषोद्धारः पश्यतीति, विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया च जानातीत्येवं वा व्याचक्षते । आपेक्षिकसामान्यज्ञानस्यापि व्यावहारि- मनःपर्यावकावग्रहन्यायेन व्यावहारिकदर्शनरूपत्वात् । निश्चयतस्तु सर्वमपि तज्ज्ञानमेव, मनःपर्यायदर्शनानुपदेशादिति द्रष्टव्यम् । नव्यास्तु ज्ञानस्वाक्बाह्यार्थाकारानुमापकमनोद्रव्याकारग्राहकं ज्ञानमवधिविशेष एव, अप्रमत्तसंयमविशेषजन्यतावच्छेदकजातेखधित्वव्याप्याया एव विज्ञानत्व कल्पनाधर्मि(कल्पनात)इति न्याया। इत्थं हि जानाति पश्यतीत्यत्र दृशेरवधिदर्शनविषयत्वेनैवोपपत्तो लक्षगाकल्पनगौरवमपि परि- मेवेतिनहृतं भवति । सूत्रे भेदाभिधानं च धर्मभेदाभिप्रायम् । यदि सङ्कल्पविकल्पपरिणतद्रव्यमात्रग्राह्यभेदात्तग्राहकं ज्ञानमतिरिक्तमित्यत्र व्यमतस्योनिर्वन्धस्तदा द्वीन्द्रियादीनामपीष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्तजनकसूक्ष्मसङ्कल्पजननपारणतद्रव्यावषयमपि मनःपर्यायज्ञानमभ्यु पदर्शनम् ॥ | पगन्तव्यं स्यात् ,चेष्टाहेतोरेव मनसस्तद्ग्राह्यत्वात्। न च तेन द्वीन्द्रियादीनां समनस्कतापतिः, कपर्दिकासचया धनित्वस्येव,एकया |गवा गोमचस्येव(वा),सक्ष्मेण मनसा समनस्कत्वस्यापादयितुमशक्यत्वात् , तदिदमभिप्रेत्योक्तं निश्चयद्वात्रिंशिकायां महावा-12 1.॥९८॥ SARPURWA NA Fat PW And Penal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire दिना-"प्रार्थनाप्रतिघाताभ्यां, चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः॥ मनःपर्यायविज्ञान, युक्तं तेषु न चान्यथा ॥१॥" इति । न चैवं | ज्ञानस्य पञ्चविधत्वविभागोच्छेदादुत्सूत्रापत्तिा, व्यवहारतश्चतुर्विधत्वेनोक्ताया अपि भाषाया निश्चयतो द्वैविध्याभिघानवनय - विवेकेनोत्सूत्राभावादिति दिक् (इत्याहुः)॥ इतिमन:पर्यायज्ञानप्ररूपणम् ॥ | "सर्वविषयं केवलज्ञानम् ॥"सर्वविषयत्वं च सामान्यधर्मानवच्छिन्ननिखिलधर्मप्रकारकत्वे सति निखिलधर्मिविषयत्वम् । | प्रमेयवदिति ज्ञाने प्रमेयत्वेन निखिलधर्मप्रकारकेऽतिव्याप्तिवारणायानवच्छिन्नान्तं, केवलदर्शनेतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तं, विशेष्यभागस्तु पर्यायवाद्यभिमतप्रतीत्यसमुत्पादरूपसन्तानविषयकनिखिलधर्मप्रकारकज्ञाननिरासार्थः । वस्तुतो "निखिलजेयाकारवर केवलज्ञानत्व" । केवलदर्शनाभ्युपगमे तु तत्र निखिलदृश्याकारवचमेव",न तु निखिलनेयाकारवचमिति नातिव्याप्तिान च प्रतिस्वं केवलज्ञाने केवलज्ञानान्तरवृत्तिस्वप्राकालविनष्टवस्तुसम्बन्धिवर्तमानत्वाद्याकाराभावाइसम्भव:, स्वसमानकालीननिखिलजेयाकारववस्य विवक्षणात् । न च तथापि केवलज्ञानग्राह्ये आद्यक्षणवृत्तित्वप्रकारकत्वावच्छिन्नविशेष्यताया द्वितीयक्षणे नाशो, द्वितीयक्षणवृत्तित्वप्रकारकत्वावच्छिन्नविशेष्यतायाश्चोत्पादः, इत्थमेव ग्राह्यसामान्यविशेष्यताध्रौव्यसम्भेदेन केवलज्ञाने त्रैलक्षण्यमुपपादितमित्येकदा निखिल याकारवचासम्भव एवेति शङ्कनीयम् , समानकालीनत्वस्य क्षणगर्भवे दोषाभावात् , अस्तु वा निखिल याकारसङ्क्रमयोग्यतावचमेव लक्षणं,प्रमाणंच तत्रज्ञानत्वमत्यन्तोत्कर्षववृत्ति, अत्यन्तापकर्षववृत्तित्वात् परिमागत्ववद्'इत्याद्यनुमानमेव । न चाप्रयोजकत्वं ज्ञानतारतम्यस्य सर्वानुभवसिद्धत्वेन तद्विश्रान्तेरत्यन्तापकर्षोत्कर्षाम्यां विनासम्भवात् । न चेन्द्रियाश्रितज्ञानस्यैव तरतमभावदर्शनाचत्रैवान्त्यप्रकर्षों युक्त इत्यपि शक्कनीयं, अतीन्द्रियेऽपि मनोबाने शास्त्रार्थावधारणरूपे शास्त्रभावना केवलज्ञान निरूपणे तडक्षणाना मुपदर्शनं तत्रातिव्याप्त्यादिदोपोद्धारश्र केवलज्ञाने प्रमाणोपदर्शनश्च ॥ KARO Fat PW And Penal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sara Kendra Achatya Sas s Gym केवलज्ञान प्रकरणम्॥ १९९॥ ORDERNANCLASS प्रकर्षजन्ये शास्त्रातिक्रान्तविषयेऽतीन्द्रियविषयसामर्थ्ययोगप्रवृत्तिसाधनेऽध्यात्मशास्त्रप्रसिद्धप्रातिभनामधेये च तरतमभावदर्शनात् । नन्वेवं भावनाजन्यमेव प्रातिभवत्केवलं प्राप्त, तथा चाप्रमाणं स्यात् , कामातुरस्य सर्वदा कामिनी भावयतो व्यवहितकामि निरूपणे नीसाक्षात्कारवद्भावनाजन्यज्ञानस्याप्रमाणत्वव्यवस्थितेः, अथ न भावनाजन्यत्वं तत्राप्रामाण्यप्रयोजकं, किं तु बाधितविषयत्वं, केवलज्ञानभावनानपेक्षेऽपि शुक्तिरजतादिभ्रमे बाधादेवाप्रामाण्यस्वीकारात् , प्रकृते च न विषयबाध इति नाप्रामाण्य, न च व्यवहितकामिनीवि स्थ भावनाभ्रमादौ दोषत्वेन भावनायाः क्लृप्तत्वातज्जन्यत्वेनास्याप्रामाण्यं, बाधितविषयत्ववदोषजन्यत्वस्यापि भ्रमत्वप्रयोजकत्वाव, तथा जन्यत्वे चोक्तं मीमांसाभाष्यकारेण-'यस्य(त्र) च दुष्टं कारणं यत्र च मिथ्येत्यादिप्रत्ययः स एवाऽसमीचीनो नान्य इति। वार्तिककारे दोषोपदणाप्युक्तम-"तस्मादोधात्मकत्वेन,प्राप्ता बुद्धेःप्रमाणता।। अर्थान्यथात्वहेतूत्थ-दोषज्ञानादपोद्यते॥१॥इति"अत्र हि तुल्यवदेवाप्रा शकः प्रश्न: माण्यप्रयोजकद्वयमुक्तं, तस्माद्बाधाभावेऽपि दोषजन्यत्वादप्रामाण्यमिति वाच्यं, भावनायाः क्वचिद्दोषत्वेऽपि सर्वत्र दोषत्वानिश्चयात् , अन्यथा शङ्खपीतत्वभ्रमकारणीभूतस्य पीतद्रव्यस्य स्वविषयकज्ञानेऽप्यप्रामाण्यप्रयोजकत्वं स्यादिति न किश्चिदेतत् , क्वचिदेव कश्चिदोष इत्येवाङ्गीकारात् , विषयबाधेनैव दोषजन्यत्वकल्पनाच, दुष्टकारणजन्यस्याप्यनुमानादेविषयावाधेन प्रामाण्याभ्युपगमात्, अन्यथा परिभाषामात्रापत्तेः। मीमांसाभाष्यवार्तिककाराभ्यामपि बाधितविषयत्वव्याप्यत्वेनैव दुष्टकारणजन्यत्वस्याप्रामाण्यप्रयोजकत्वमुक्तं न स्वातन्त्र्येणेति चेत्,मैवम्, तथापि परोक्षज्ञानजन्यभावनाया अपरोक्षज्ञानजनकत्वासम्भवात् । न हि वहथनुमितिज्ञानं सहस्रकृत्व आवृत्तमपि वह्निसाक्षात्काराय कल्पते। न चाभ्यस्यमानं ज्ञानं परमप्रकर्षप्राप्त तथा भविष्यतीत्यपि शङ्कनीय, लखनादकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि परमप्रकर्षायोगात् । न च लङ्घनस्यैकस्यावस्थितस्याभावादपरापरप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयि- IF॥९९ ॥ CONCERCORECAKAKAR Fat PW And Penal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलवनोत्पादन एवं व्यापाराधावल्लवयितव्यं तावन्नादावेव श्लेष्मादिना जाड्यात्कायो लक्ष्ययितुं शक्नोत्यभ्यासासादितश्लेष्मक्षयपटुभावश्चोत्तरकालं शक्नोतीति तत्र व्यवस्थितोत्कर्षता, उदकतापे त्वतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयान तत्राप्यग्निरूपतापत्तिरूपोऽन्त्योत्कर्षः, विज्ञानं तु संस्काररूपं शास्त्रपरावर्तनाद्यन्यथानुपपत्त्योत्तरत्राप्यनुवर्तत इति तत्रापरापरयत्नानां सर्वेषामुपयोगादत्यन्तोत्कर्षों युक्त इति तद्वता भावनाज्ञानेनापरोक्षं केवलज्ञानं जन्यत इति टीकाकृदुक्तमपि विचारसहं, तस्य प्रमाणान्तरत्वापत्तेः, मनो यदसाधारणमिति' न्यायात्,अन्यथा चक्षुरादिव्याप्तिज्ञानादिसहकृतस्य मनस एव सर्वत्र प्रामाण्यसम्भवे प्रमाणान्तरोच्छेदापत्तेः । चक्षुरादीनामेव(वा)साधारण्यात्प्रामाण्यमित्यभ्युपगमे भावनायामपि तथा वक्तुं शक्यत्वात् । एवञ्च परोक्षभावनाया अपरोक्षज्ञानजनकत्वं तस्याः प्रमाणान्तरत्वं चान्यत्रादृष्टचरं कल्पनीयमिति महागौरवमिति चेद्,अनुक्तोपालम्भ एषा, प्रकृष्टभावनाजन्यत्वस्य केवलज्ञानेऽभ्युपगमवादेनैव टीकाकृतोक्तत्वात् । वस्तुतस्तु तज्जन्यात्प्रकृष्टादावरणक्षयादेव केवलज्ञानोत्पत्चिरित्येव सिद्धान्तात् (न्तः)। यैरपि योगजधर्मस्यातीन्द्रियज्ञानजनकत्वमभ्युपगम्यते,तैरपि प्रतिबन्धकपापक्षयस्य द्वारत्वमवश्यमाश्रयणीयम्, सति प्रतिबन्धके कारणस्याकिश्चित्करत्वात् ,केवलं तैर्योगजधर्मस्य मनःप्रत्यासत्तित्वं,तेन सन्निकर्षण निखिलजात्यंशे निरवच्छिन्नप्रकारताकज्ञाने षोडशपदार्थविषयकविलक्षणमानसज्ञाने वा तत्त्वज्ञाननामधेये मनसः करणत्वं, चाक्षुषादिसामग्रीकाल इव लौकिकमानससामग्रीकालेऽपि तादृशतत्त्वज्ञानानुपपत्तेस्तत्त्वज्ञानाख्यमानसे तदितरमानससामय्याः प्रतिबन्धकत्वं, तत्त्वज्ञानरूपमानससामग्र्याश्च प्रणिधानरूपविजातीयमनःसंयोगघटितत्वं कल्पनीयमित्यनन्तमप्रामाणिककल्पनागौरवम् । अस्माकं तु दुरितक्षयमात्र तत्र कारणमिति लाघवम् । अत एव 'इन्द्रियनोइन्द्रियज्ञानासाचिव्येन केवलमसहायमिति' प्राञ्चो व्याचक्षते । स चावरणाख्यदुरित केवलज्ञान निरूपणे उक्तप्रश्ने टोकाकदुक्तैरपाकरणम्, उकृतप्रश्नपति विधानम्, भावनाजन्यप्रष्टावरणक्षयतः केवलोत्पत्ति व्यवस्थापनम् ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ ॥ १०० ॥ www.ketafirth.org क्षयोऽपि भावनातारतम्याचा रतम्येनोपजायमानस्तदत्यन्तप्रकर्षादत्यन्तप्रकर्षमनुभवतीति किमनुपपन्नम्। तदाहाकलङ्कोऽपि - "दोपावरणयोर्हानि-र्निःशेषास्त्यतिशायनात् ॥ क्वचिद्यथा स्वहेतुम्यो, बहिरन्तर्मलक्षय इति ॥ १॥" न च निम्बाद्यौषधोपयोगाचरतमभावापचीयमानस्यापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकक्षय इति व्यभिचारः, तत्र निम्बाद्यौषधोपयोगोत्कर्षनिष्ठाया एवापादवितुमशकयत्वात्, तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदैवासेवनात्, अन्यथौषधोपयोगाधारस्यैव विनाशप्रसङ्गात्, चिकित्साशास्त्रं बुद्रिक्त धातुदोषसाम्यमुद्दिश्य प्रवर्तते, न तु तस्य निर्मूलनाशं, अन्यतरदोषात्यन्तक्षयस्य मरणाऽविनाभावित्वादिति द्रष्टव्यम् । रागाद्यावर णापाये सर्वज्ञज्ञानं वैशद्यभाग्भवतीत्यत्र च न विवादो रजोनीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिज्ञाने तथा दर्शनात् । न च रागादीनां कथमावरणत्वं कुव्यादीनामेव पौगलिकानां तथात्वदर्शनादिति वाच्यम्, कुड्यादीनामपि प्रातिभादावनावारकत्वात्, ज्ञानविशेषे तेषामावरत्वचातीन्द्रियज्ञाने रागादीनामपि तथात्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव सिद्धम् । रागाद्यपचये योगिनामतीन्द्रियानुभवसम्भवात्पौनलिकत्वमपि द्रव्यकर्मानुगमेन तेषां नासिद्धम् । स्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य तदग्राहकताया विशिष्टद्रव्यसम्बन्धपूर्वकत्वनियमात्पी तहृत्पूरपुरुषज्ञाने तथादर्शनादिति ध्येयम् । बार्हस्पत्यास्तु - "रागादयो न लोभादिकर्मोदय निबन्धनाः, किं तु ककादिप्रकृतिहेतुका ॥ तथाहि, कफहेतुको रागः, पिचहेतुको द्वेषः, वातहेतुकच मोहः । कफादयश्च सदैव सन्निहिताः, शरीरस्य तदात्मकत्वात् ततो न सार्वज्ञमूलवीतरागत्वसम्भव” इत्याहुः । तदयुक्तम्, रागादीनां व्यभिचारेण कफादिहेतुकत्वायोगात् दृश्यते हि वातप्रकृतेरपि रागद्वेषौ, कफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरागाविति । एकैकस्याः प्रकृतेः पृथक सर्वदोषजननशक्त्युपगने च सर्वेषां समरागादिमच्चप्रसङ्गात् । न च स्वस्वयोग्यक्रमिकरागादिदोषजनक कफाद्यवान्तरपरिणतिविशेषस्य प्रतिप्राणि कल्पनान्नायं दोष For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir केवलज्ञाननिरूपणे आवरणास्यदुरितक्षया त्यन्तिकत्वे समन्तभद्रं संवादः, रागादीनां तत्रावरणत्वं तेषां - फादिहेतुक स्वस्थ प्रतिक्षेपः ॥ ॥ १०० ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire CIM COPERHOREOGURUKUL इति वाच्यम्, तदवान्तरबैजात्यावच्छिन्नहेतुगवेषणायामपि कर्मण्येव विश्रामात् । किं चाभ्यासजनितप्रसरत्वात्प्रतिसंख्याननिवर्तनीयत्वाच्च न कफादिहेतुकत्वं रागादीनाम् । एतेन 'शुक्रोपचयहेतुक एव रागो नान्यहेतुक इत्याद्यपि चिरस्तम् , अत्यन्तस्त्रीसेवापरस्य क्षीणशुक्रस्यापि रागोद्रेकदर्शनात् , शुक्रोपचयस्य सर्वस्वीसाधारणाभिलाषजनकत्वेन कस्यचित् कस्याश्चिदेव रागोद्रेक इत्यस्यानुपत्तश्चेप। न चासाधारण्ये रूपमेव हेतुः, तद्रहितायामपि कस्यचिद्रागदर्शनात् । न च तत्रोपचार एव हेतुः, द्वयेनापि विमुक्तायां रागदर्शनात् । तस्मादभ्यासदर्शनजनितोपचयपरिपाकं कर्मैव विचित्रस्वभावतया तदा तदा तत्तत्कारणापेक्षं तत्र तत्र रागादिहेतुरिति प्रतिपत्तव्यम् । एतेन 'पृथिव्यम्बुभ्यस्त्वे रागा, तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषः, जलवायुभ्यस्वे मोह इत्यादयोऽपि प्रलापा निरस्ताः, तस्य विषयविशेषापक्षपातित्वादिति दिक् । कर्मभूतानां रागादीनां सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां क्षयेण वीतरागत्वं सर्वज्ञवं चानाविलमेव। शौद्धोदनीयास्तु-"नरात्म्यादिभावनैव रागादिक्लेशहानिहेतुः, नैरात्म्यावगतावेवात्मात्मीयाभिनिवेशाभावेन रागद्वेपोच्छेदात् संसारमूलनिवृत्चिसम्भवात्,आत्मावगतौ च तस्य नित्यत्वेन तत्र स्नेहात्तन्मूलतृष्णादिना क्लेशानिवृत्तेः।। तदुक्तम्-"य:पश्यत्यात्मानं,तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः।। स्नेहात्सुखेषु तृष्यति,तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥शा गुणदर्शी परितृप्य-त्यात्मनि तत्साधनान्युपादत्ते ।। तेनात्माभिनिवेशो, यावत्तावच्च संसारः ॥२॥ इति"। ननु यद्येवमात्मा न विद्यते, किंतु पूर्वापरक्षगाटतानुसन्धाना: पूर्वहेतुप्रतिबद्धा ज्ञानक्षणा एव तथा तथोत्पद्यन्त इत्यम्युपगमस्तदा परमार्थतो न कश्चिदुपकार्योपकारकस्वभाव इति कयमुच्यते "भगवान् सुगतः करुणया सकलसचोपकाराय देशनां कृतवान्" इति,क्षणिकत्वमपि यद्येकान्तेन, तर्हि तचवेदी क्षणोऽनन्तरं विनष्टः सन्न कदाचनाप्य भूयो भविष्यामीति जानानः किमर्थ मोक्षाय यतत इति?,अत्रोच्यते-"भगवान् हि प्राचीनावस्थायां सकलमपि जगदाखितं केवलज्ञाननिरूपणे शु क्रोपचया४ादीनां रागा दिहेतुत्कप्रतिक्षेप -- रात्यादिभावनाया रागादिक्षवहेतुत्वमितिबौद्धभतोपक्रमः॥ Cle Fat PW And Penal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym मशान ४ प्रकरणम् ॥ ॥१०१॥ CLICADAINIK पश्यस्तदुहिधीर्षया नैरात्म्यक्षणिकत्वादिकमवगच्छन्नपि तेषामुपकार्यसत्त्वानां निष्क्लेशक्षणोत्पादनाय प्रयतते, ततो जातसकलजगत्साक्षात्कारः समुत्पत्रकेवलज्ञानः पूर्वाहितकृपाविशेषसंस्कारात् कृतार्थोऽपि देशनायां प्रवर्तते, अधिगततत्तात्पर्याश्च स्वसन्ततिगतविशिष्टक्षणोत्पत्तये मुमुक्षवः प्रवर्तन्ते,"इति न किमप्यनुपपन्नमित्याहुः तदखिलमज्ञानविलसितम् ।आत्माभावे वन्धमोक्षाघेकाधिकरणत्वायोगात्। न च सन्तानापेक्षया समाधिः,तस्यापि क्षणानतिरेके एकत्वासिद्धेः, एकत्वे चद्रव्यस्यैव नामान्तरत्वात्, सजातीयक्षणप्रबन्धरूपे सन्ताने च न कारकव्यापार इति समीचीनं मुमुक्षुप्रवृत्त्युपपादनम् । अथाक्लिष्टक्षणेऽक्लिष्टक्षणत्वेनोपादानत्वमिति सजातीयक्षणप्रबन्धोपपत्तिः, बुद्धदेशितमार्गे तु तत्प्रयोजकत्वज्ञानादेव प्रवृत्तिरिति चेत्,न, एकान्तवादेऽनेन रूपेण निमित्तत्वमनेन रूपेण चौपादानत्वमिति विभागस्यैव दुर्वचत्वात् । अक्लिष्टक्षणेऽक्लिष्टक्षणत्वेनैवोपादानत्वे आद्याक्लिष्टक्षणस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गादन्त्यक्लिष्टक्षणसाधारणस्य हेतुतावच्छेदकस्य कल्पने च क्लिष्टक्षणजन्यतावच्छेदकेन साकाजन्यजनकक्षणप्रबन्धकोटावेकैकक्षणप्रवेशपरित्यागयोर्विनिगमकाभावाच । एतेन 'इतरव्यावृत्त्या शक्तिविशेषेण वा जनकत्वम् इत्यप्यपास्तम् । न चैतदनन्तरमहमुत्पन्नमेतस्य चाहं जनकमित्यवगच्छति क्षणरूपं ज्ञानमिति न भवन्मते कार्यकारणभावा, नापि तदवगमः, ततो याचितकमण्डनमेतदेकसन्ततिपतितत्वादेकाधिकरणं बन्धमोक्षादिकमिति । एतेन उपादेयोपादानक्षणानां परस्परं वास्यवासकभावादुत्तरोत्तरविशिष्टविशिष्टतरक्षणोत्पत्तेः मुक्तिसम्भव' इत्यप्यपास्तम्, युगपद्धाविनामेव तिलकुसुमादीनां वास्यवासकभावदर्शनात् । उक्तश्च-"वास्यचासकयोश्चैव-मसाहित्यान्न वासना ।। पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरक्षणः ॥१॥इति"। कल्पितशुद्धक्षणैकसन्तानार्थितयैव मोक्षो. पाये सौगतानां प्रवृत्तिः, तदर्थैव च सुगतदेशनेत्यभ्युपगमे च तेषां मिथ्यादृष्टित्वं,तत्कल्पितमोक्षस्य च मिथ्यात्वं स्फुटमेव, अधिक ROGROCERes केवलज्ञान निरूपणे निरुक्तबौद्धमतस्य खण्ड. नं बौद्धमते आत्माऽभावे बन्धमोक्ष काधिकरण्यासम्भवः कार्यकारणभावाद्यसम्भवश्च। Fat PW And Penal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire CRECORG AMALACHERECRECRUKHRS लतायाम् । एतेन ' अखण्डाद्वयानन्दैकरसब्रह्मज्ञानमेव केवलज्ञान, तत एव चाविद्यानिवृत्तिरूपमोक्षाधिगम' इति वेदान्तिमतमपि निरस्तम्, तादृशविषयाभावेन तज्ज्ञानस्य मिथ्यात्वात्, कीदृशं च ब्रह्मज्ञानमज्ञाननिवर्तकमभ्युपेयं देवानांप्रियेण, न केवलचैतन्यं,तस्य सर्वदा सत्त्वेनाविद्याया नित्यनिवृचिप्रसङ्गात्,ततश्च तन्मूलसंसारोपलब्ध्यसम्भवात्सर्वशाखानारम्भप्रसङ्गादनुभवविरोधाच, नापि वृत्तिरूपं, वृत्तेः सत्यत्वे तत्कारणान्ताकरणाविद्यादेरपि सच्चस्यावश्यकत्वेन तया तन्निवृत्तेरशक्यतया सर्ववेदान्तार्थविप्लवापत्तेः, मिथ्यात्वे च कथमज्ञाननिवर्तकता । न हि मिथ्याज्ञानमज्ञाननिवर्तकं दृष्टम्, स्वमज्ञानस्यापि तत्त्वप्रसङ्गात् । न च "सत्यस्यैव चैतन्यस्य प्रमाणजन्यापरोक्षान्तःकरणवृत्त्यभिव्यक्तस्याज्ञाननिवर्तकत्वाद्वृत्तेश्च कारणतावच्छेदकत्वेन दण्डत्वादिवदन्यथासिद्धत्वेन कारणत्वानगीकारात् , अवच्छेदकस्य कल्पितत्वेऽप्यवच्छेद्यस्य वास्तवत्वं न विहन्यते, यद्रजतत्वेन भातं तच्छुक्तिद्रव्यमितिवत्, तार्किकैरप्याकाशस्य शब्दग्राहकत्वे कर्णशष्कुलीसम्बन्धस्य कल्पितस्यैवाबच्छेदकत्वाङ्गीकारात, संयोगमात्रस्य निरवयवे नभसि सर्वात्मना सत्वेनातिप्रसञ्जकत्वात् । मीमांसकैश्च कल्पितइस्वत्वदीर्घत्वादिसंसर्गावच्छिन्नानामेव वर्णानां यथार्थशानजनकत्वोपगमाद्ध्वनिधर्माणां ध्वनिगतत्वेनैव भानात , वर्णानां च विभूनामानुपूर्वीविशेषाज्ञानादतिप्रसङ्गात, वर्णनिष्ठत्वेन इस्वत्वादिकल्पनस्य तेषामावश्यकत्वात् , तद्वदस्माकमपि कल्पितावच्छेदकोपगमे को दोष" इति मधुसूदनतपस्वि. नोऽपि वचनं विचारसह, मिथ्याग्दृष्टान्तस्य सम्यग्दृशां ग्रहणानौचित्यात् , नैयायिकमीमांसकोक्तस्थलेऽपि अनन्तधर्मात्मकैकवस्तुस्वीकारे कल्पितावच्छेदककृतविडम्बनाया अप्रसरात,विस्तरेणोपपादितं चैतत्सम्मतिवृत्तौ । न चोक्तरीत्या वृत्तेरवच्छेदकत्वमपि युक्तं,प्रतियोगितयाऽज्ञाननिवृत्तौ सामानाधिकरण्येन समानविशेष्यकसमानप्रकारकवृत्तरेव त्वन्मते हेतुत्वस्य युक्तत्वात्। अत एव RRIGIBAGES केवलज्ञाननिरूपणे बह्मज्ञानलक्ष णकेवल| शानस्याविद्यानिवृत्तिलक्षणमोक्षहेतुत्वमितिवेदा. न्तिमतस्य खण्डन,तत्र| मधुसूदनोतरपाकरण ञ्च । Fat PW And Penal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym श्रीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ ॥१०॥ M BREAKERGRECRURA स्वयमुक्तं तपस्विना सिद्धान्तविन्दी-'द्विविधमावरणं, एकमसत्तापादकमन्त:करणावच्छिन्नसाक्षिनिष्ठं, अन्यदभानापादकं विष-18|| केवलज्ञानयावच्छिन्नब्रह्मचैतन्यनिष्ठ, घटमहं न जानामीत्युभयावच्छेदानुभवाद्, आद्यं परोक्षापरोक्षसाधारणप्रमामात्रेण निवर्तते, अनुमितेऽपि निरूपणे नास्तीति प्रतीत्यनुदयात् , द्वितीयं तु साक्षात्कारेणैव निवर्तते, यदाश्रयं यदाकारं ज्ञानं तदाश्रयं तदाकारमज्ञानं नाशयतीति वयादौ वेदान्तिमतनियमाद्' इत्यादि, तत्किमिदानी क्षुत्क्षामकुक्षेः सद्य एव विस्मृतं ? येनोक्तवृचेरवच्छेदकत्वेनान्यथासिद्धिमाह, एवं हि घटादावपि खण्डने मधुदण्डविशिष्टाकाशत्वेनैव हेतुतां वदतो वदनं कः पिदध्यात् १, अनयैव भिया "चैतन्यनिष्ठायाः प्रमाणजन्यापरोक्षान्तःकरणवृत्तेरेवा सूदनोक्तके ज्ञाननाशकत्वाङ्गीकारेऽपि न दोषः, पारमार्थिकसत्ताभावेऽपि व्यावहारिकसत्ताङ्गीकारात्। न च स्वमादिवन्मिथ्यात्वापत्तिः, स्व दान्तप्रक्रि रूपतो मिथ्यात्वस्याप्रयोजकत्वात, विषयतो मिथ्यात्वस्य च बाधाभावादसिद्धे, धूमभ्रमजन्यवयनुमितेरप्यबाधितविषयतयाऽ- या अपाप्रामाण्यानमीकाराच,कल्पितेनापि प्रतिबिम्बेन वास्तवबिम्बानुमानप्रामाण्याच,स्वमार्थस्याप्यरिष्टादिसूचकत्वाच,क्वचित्तदुपलब्ध करणम् ॥ मन्त्रादेर्जागरेऽप्यनुवृत्तेरवाधाचेति" तपस्विनोक्तमिति चेत्,एतदप्यविचाररमणीयम्,त्वन्मते स्वमजागरयोर्व्यवहारविशेषस्यापि कर्तुमशक्यत्वात्, बाधाभावेन ब्रह्मण इव घटादेरपि परमार्थसच्चस्याप्रत्यूहत्वाच, प्रपञ्चासत्यत्वे बन्धमोक्षादेरपि तथात्वेन व्यवहारमूल एव कुठारदानात् । एतेन 'अज्ञाननिष्ठाः परमार्थव्यवहारप्रतिभाससच्चप्रतत्यिनुकूलास्तिस्रः शक्तयः कल्प्यन्ते, आद्यया प्रपञ्चे पारमार्थिकसत्त्वप्रतीतिः, अत एव नैयायिकादीनां तथाभ्युपगमः, सा च श्रवणायभ्यासपरिपाकेन निवर्तते, ततो द्वितीयया शक्या व्यावहारिकसत्त्वं प्रपञ्चस्य प्रतीयते, वेदान्तश्रवणादम्यासवन्तो हि ने प्रपञ्चं पारमार्थिकं पश्यन्ति,किंतु व्यावहारिकमिति,सा च तत्वसाक्षात्कारेण निवर्तते, ततस्तृतीयया शक्क्या प्रातिमासिकसचप्रतीतिः क्रियते,सा चान्तिमतत्वबोधेन सह निव- १०२॥ Fat PW And Penal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym GORAKHPURAKSHARE तते,पूर्वपूर्वशक्तरुत्तरोत्तरशक्तिकार्यप्रतिवन्धकत्वाच न युगपत्कार्यत्रयप्रसङ्गः,तथा चैतदभिप्राया श्रुतिः- "तस्यामिभ्यानाद् यो केवलज्ञान जनात्तत्वभावाद्यश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिरिति" अस्या अयमय:-"तस्य परमात्मनः,अभिमुखायानाच्छ्वणाभ्यासपरि निरूपणे पाकादिति यावत्, विश्वमायाया विश्वारम्भकाविद्याया निवृत्तिः, आद्यशक्तिनाशेन विशिष्टनाशात्, युज्यतेऽनेनेति योजनं तत्व दावेदान्तिमत ज्ञानं तस्मादपि विश्वमायानिवृत्तिः, द्वितीयशक्तिनाशेन विशिष्टनाशात्, तत्त्वभावो विदेहकैवल्यमन्तिम साक्षात्कार इति यावत्, खण्डने, तत्र तस्मादन्ते प्रारब्धक्षये सह तृतीयशक्त्या विश्वमायानिवृत्तिः,अभिध्यानयोजनाम्यां शक्तिद्वयनाशेन विशिष्टनाशापेक्षया भूयाष्टिस्टष्टिका शब्दोऽम्यासार्थक इति इत्यादि निरस्तम्.अमिध्यानादेःप्रागपरमार्थसदादौ परमार्थसत्त्वादिप्रतीत्यभ्युपगमेज्यथाख्यात्यापातात् । | दमाशय न च तत्तच्छक्तिविशिष्टाज्ञानेन परमार्थसत्वादि जनयित्वैव प्रत्याय्यत इति नायं दोष इति वाच्यम्, साक्षात्कृततत्त्वस्य न किमपि नव्यवेदावस्त्वज्ञातमिति प्रातिमासिकसवोत्पादनस्थानाभावात्, ब्रह्माकारवृच्या ब्रह्मविषयतैवाज्ञानस्य नाशिता, तृतीयशक्तिविशिष्ट न्युपेक्षित्वज्ञानं यावत्प्रारब्धमनुवर्तत एवेति ब्रह्मातिरिक्तविषये प्रातिमासिकसचोत्पादनादविरोध इति चेत्, न, धर्मसिदयसिदिभ्यां | तत्वेन खव्याघाताद, विशेषोपरागेणाज्ञाते तदुपगमे च ब्रह्मण्यपि प्रातिमासिकमेव सचं स्यात् , तत्वज्ञे कस्यचिदज्ञानस्य स्थिती विदेह [ण्डितवान्। कैवल्येऽपि तदवस्थितिशङ्कया सर्वाझानानिवृत्ती मुक्तावनाश्वासप्रसङ्गाच । अथ दृष्टिसृष्टिवादे नेयमनुपपचिा,तन्मते हि वस्तुसद् ब्रसव, प्रपश्चश्व प्रातिमासिक एव, तस्य चाभिध्यानादेः प्राक् पारमार्थिकसचादिना प्रतिभासः पारमार्थिकसदाघाकारबानाम्युपगमादेव सूपपाद इति चेत्, न, तस्य प्राचीनोपगतस्य सौगतमतप्रायत्वेन नव्यरुपोक्षितत्वात् , व्यवहारवादस्यैव वैरातत्वात् , व्यवहारवादे च व्यावहारिकं प्रपञ्च प्रातिभासिकत्वेन प्रतीयतां तत्रज्ञानिनामत्पन्तम्रान्तत्वं दुर्निवारमेव । अथ व्यावहारिकस्यापि Fat PW And Penal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ ॥ १०३ ॥ www.katuatirth.org प्रपञ्चस्य तत्वज्ञानेन बाधितस्यापि प्रारब्धवशेन बाधितानुवृत्त्या प्रतिभासः तृतीयस्याः शक्तेः कार्यम् तेन बाधितानुवृत्या प्रतिमासानुकूला तृतीया शक्तिः प्रातिभासिक सच्चसम्पादनपटीयसी शक्तिरुच्यते सा चान्तिमतस्वबोधेन निवर्तत इत्येवमदोष इति चेत्, न, बाधितं हि त्वन्मते नाशितं, तस्यानुवृत्तिरिति वदतो व्याघातात् । बाघितत्वेन बाधितत्वावच्छिन्नसत्तया वा प्रतिभासस्तच्चप्रारब्धकार्यमिति चेत्, तृतीया शक्तिर्व्यर्था, यावद्विशेषाणां बाधितत्वे तेषां तथाप्रतिभासस्य सार्वज्ञाभ्युपगमं विनानुपपत्तेश्थ, द्वितीयशक्तिविशिष्टाज्ञाननाशात् सचितकर्म तत्कार्य च नश्यति, ततस्तृतीयशक्त्या प्रारब्धकार्ये दग्धरज्जुस्थानीया बाधितावस्था जन्यते, इयमेव बाधितानुवृतिरिति चेत्, न, एवं सति घटपटादौ तत्त्वज्ञस्य न बाधितसस्त्रधीः, न वा व्यावहारिकपारमार्थिकसच्वधीरिति तत्र किञ्चिदन्यदेव कल्पनीयं स्यात्, तथा च लोकशास्त्र विरोध इति गुष्ठक्तं हरिभद्राचार्यै: - ( षोडशक १६) "अग्निजलभूमयो यत्, परितापकरा भवेऽनुभवसिद्धाः || रागादयश्च रौद्रा, असत्प्रवृत्यास्पदं लोके ॥८॥ परिकल्पिता यदि ततो, न सन्ति तस्वेन कथममी स्युरिति ॥ परिकल्पिते च तत्त्वे, भवभव विगमौ कथं युक्तौ ।। ९ ।। इत्यादि । तस्माद्वृत्तेर्व्यावहारिकसचयापि न निस्तारः । प्रपचे परमार्थदृष्टथेव व्यवहारदृष्ट्यापि सतान्तरानवगाहनादिति स्मर्तव्यम् । किं च "सप्रकारं निष्प्रकारं वा ब्रह्मज्ञानमज्ञाननिवर्तकमिति वक्तव्यं, आये निष्प्रकारे ब्रह्मणि सप्रकारकज्ञानस्यायथार्थत्वामाज्ञाननिवर्तकता, तस्य यथार्थत्वे वा नाद्वैतसिद्धिः, द्वितीयपक्षस्तु निष्प्रकारकज्ञानस्य कुत्राप्यज्ञान निवर्तकत्वादर्शनादेवानुद्भावनाई ।। " किं च निष्प्रकारकज्ञानस्य कुत्राप्यज्ञाननिवर्तकत्वं न दृष्टमिति शुद्धब्रह्मज्ञानमात्रात्कथमज्ञाननिवृत्तिः १ न च सामान्यधर्ममात्राप्रकारक समान विषयप्रमात्वमज्ञाननिवृत्तौ प्रयोजकं, अत्र प्रमेयमिति ज्ञानेऽतिव्याप्तिवारणाय सामान्येति, प्रमेयो घट इत्यादावव्याप्तिवारणाय मात्रेति, तेनेदं विशेषप्रकारे निष्प्रकारे For Print And Personal Use Only Acharya Shel Kailassagarsun Gyanmandir केवलज्ञाननिरूपणे वेदान्तिमत्र खण्डने तस्व ज्ञानानन्तरं मायानुवृत्तेः खण्डने तत्र लोकशास्त्र विरोधे ह रिभद्रसूरि संवादो ब ह्मज्ञानस्या ज्ञाननिवर्त कत्वासम्भवश्व ॥ ॥ १०३ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire केवलज्ञान R निरूपणे वे दान्तिमतखण्डने तत्र ब्रह्मज्ञानस्याज्ञाननिर्वत्त RUARBARMER चानुगतमिति निप्रकारकब्रह्मज्ञानस्यापि ब्रह्माज्ञाननिवर्तकत्वं लक्षणान्वयात् । न च सामान्यधर्ममात्रप्रकारकज्ञानेऽव्याप्तिः, इदमनिदं वा, प्रमेयमप्रमेयं वेत्यादिसंशयादर्शनेन (संशयाद्यदर्शनात्सामान्यमात्रप्रकारकाज्ञानानङ्गीकारेण) तदनिवर्तकस्य तस्यासङ्ग्रहादिति वाच्यम्, निष्प्रकारकसंशयाभावेन निष्प्रकारकाज्ञानासिद्ध्या निष्प्रकारकब्रह्मज्ञानस्यापि तन्त्रिवर्तकत्वायोगाव, एकत्र धार्मािण प्रकाराणामनन्तत्वे प्रकारनिष्ठतया निरखच्छिमप्रकारतासम्बन्धेनाधिष्ठानप्रमात्वेन तया तदज्ञाननिवर्तकत्वौचित्यात् । अधिष्ठानत्वं च भ्रमजनकाज्ञानविषयत्वं वाऽज्ञानविषयत्वं वाऽखण्डोपाधिर्वा ?, न च विषयतयैव तत्वं युक्तम्, प्रमेयत्वस्य च केवलान्वयिनोऽनङ्गीकाराम प्रमेयमिति ज्ञानाद् घटाद्याकाराज्ञाननिवृत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, द्रव्यमिति झानाचदापत्तरवारणात् । न च तस्य द्रव्यत्वविशिष्टविषयत्वेऽपि घटत्वविशिष्टाविषयत्वात्तद्वारणं, द्रव्यत्वविशिष्टस्यैव घटावच्छेदेन घटत्वविशिष्टत्वात्, सत्चविशिष्टब्रह्मवत्, विशिष्टविषयज्ञानेन विशिष्टविषयाज्ञाननिवृत्त्यभ्युपगमेऽपि च ब्रह्मणः सच्चिदानन्दत्वादिधर्मवैशिष्टयप्रसङ्गः । एतेन “ अन्यत्र घटाज्ञानत्वघटत्वप्रकारकामात्वादिना नाश्यनाशकभावेऽपि प्रकृते नमाझाननिवृत्तित्वेन ब्रह्मप्रमात्वेनैव कार्यकारणभावः, न तु ब्रह्मत्वप्रकारकेतिविशेषणमुपादेयं गौरवादनुपयोगाद्विरोधाच" इत्यपि निरस्तम्, विशिष्टब्रह्मण एव संशयेन विशिष्टाज्ञाननिवृत्त्यर्थं विशेषोपरागेणैव ब्रह्मज्ञानस्यान्वेषणीयत्वात् शुक्तिरजतादिस्थले - पि विशिष्टाज्ञानविषयस्यैवाधिष्ठानत्वं वलुप्तमित्यत्राप्ययं न्यायोऽनुसर्तव्यः । किं च ब्रह्मणो निर्धर्मकत्वे तत्र विषयताया अप्यनुपपनत्वाचीद्वषयज्ञानत्वमपि तत्र दुर्लभं, विषयता हि कर्मतेति तदङ्गीकारे तस्य क्रियाफलशालित्वेन घटादिवज्जडत्वापत्तेः, तद्विषयज्ञानाजनकत्वे च तत्र वेदान्तानां प्रामाण्यानुपपचिः । न च तदज्ञाननिवर्तकतामात्रेण तद्विषयत्वोपचारः, अन्योन्याश्रयात् । वे ब्रह्मणो ज्ञानविषयत्वासम्भवोपपादनम् ॥ Fat PW And Penal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym जीज्ञान प्रकरणम् ॥ १०४॥ PRECAUSEGORK केवलज्ञान निरूपणे के न च कल्पिता विषयता कर्मत्वाप्रयोजिका, वास्तवविषयतायाः कुत्राप्यनङ्गीकाराव्यावहारिक्याश्च तुल्यत्वात् । न च ब्रह्मणि ज्ञान- दान्तिमनविषयताऽसम्भवेऽपि ज्ञाने ब्रह्मविषयता तद्विम्बग्राहकत्वरूपाच्या वा काचिदनिर्वचनीया सम्भवतीति नानुपपत्तिः, विषयतैवाकारः खण्डने बप्रतिविषयं विलक्षणः, अत एव ब्रह्माकारापरोक्षप्रमाया एवाज्ञाननिवर्तकत्वं, अज्ञानविषयस्वरूपाकारापरोक्ष प्रमात्वस्य सर्वत्रानुग झज्ञानस्यातत्वात् । न चेदमित्याकारं घटाकारमिति शकितु मपि शक्यं, आकारभेदस्य स्फुटतरसाक्षिप्रत्यक्षसिद्धत्वादिति वाच्यम्, ज्ञान- ज्ञाननिवर्त निष्ठाया अपि ब्रह्मविषयताया ब्रह्मनिरूपितत्वस्यावश्यकत्वेन ब्रह्मणि तनिरूपकत्वधर्मसच्चे निधर्मकत्वव्याघातात्, उभयनिरूप्य कत्वास स्य विषयविषयिभावस्यैकधर्मत्वेन निर्वाहायोगात् । न च ब्रह्मण्यपि कल्पितविषयतोपगमे कर्मत्वेन न जडत्वापातः, स्वसमा- म्भवे ज्ञाने नसत्ताकविषयताया एवं कर्मत्वापादकत्वात्, घटादौ हि विषयता स्वसमानसत्ताका, द्वयोरपि व्यावहारिकत्वात्, ब्रह्मणि तु ब्रह्मनिरूपि परमार्थसति व्यावहारिकी विषयता न तथेति स्फुटमेव वैषम्यादिति वाच्यम्, सत्ताया इव विषयताया अपि ब्रह्मणि पारमार्थि- तविषयत्व कत्वोक्तावपि बाधकाभावात्, परमार्थनिरूपितधर्मस्य व्यावहारिके व्यावहारिकत्ववद्यावहारिकनिरूपितस्य धर्मस्य पारमार्थिके भावव्यक पारमार्थिकताया अपि न्यायप्राप्तत्वात् । सत्ताधुपलक्षणभेदेऽप्युपलक्ष्यमेकमेवेति न दोष इति चेद्, विषयतायामप्येष एव न्यायः । स्थापन एवं चानन्तधर्मात्मकधर्म्यभेदेऽपि ब्रह्मणि कौटस्थ्यं द्रव्यार्थादेशादव्याहतमेव । तथा चान्यूनानतिरिक्तधर्मात्मद्रव्यस्वभाव- व्यादेशाद् लाभलक्षणमोक्षगुणेन भगवन्तं तुष्टाव स्तुतिकारः(सिद्धसेनद्वात्रिंशिका ४)"भवबीजमनन्तमुज्झितं, विमलज्ञानमनन्तमर्जितम्।। ब्रह्मकौटस्थ्ये न च हीनकलोऽसि नाधिका, समतां चाप्यतिवृत्य वर्तसे ॥ २९ ॥ इति"। एतेन "चैतन्यविषयतैव जडत्वापादिका, न तु | सिद्धसेनम् वृत्तिविषयतापि, “यतो वाचो निवर्तन्ते," "न चक्षुषा गृह्यते, नापि वाचा," "तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि" "नावेदविन्मनुते तं Dरिसंवादः. 15॥ १४॥ Fat PW And Penal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire बृहन्तं वेदेनैव यद्वेदितव्यम्" इत्याधुभयविधश्रुत्यनुसारेणेत्थ कल्पनात् "फलव्याप्यत्वमेवास्य, शास्त्रकृद्भिर्निवारितम्।।"ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय, वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता ॥१॥” इति कारिकापामपि फलपदं चैतन्यमात्रपरमेव द्रष्टव्यं, प्रमाणजन्यान्तःकरणवृत्यमिव्यक्तचैतन्यस्य शास्त्रे फलत्वेन व्यवड़ियमाणस्य ग्रहणे तद्वयाप्यताया अन्वयव्यतिरेकाम्यां जडत्वापादकत्वे ब्रह्मण इव साक्षिमास्यानामपि जडत्वानापत्तेः, चैतन्यकर्मता तु चिद्भिन्नत्वावच्छेदेन सर्वत्रैवेति सैव जडत्वप्रयोजिका, न च वृत्तिविषयत्वेऽपि चैतन्यविषयत्वं नियतं वृत्तेश्चिदाकारगर्भिण्या एवोत्पत्तेः, तदुक्तम्-"वियद्वस्तुस्वभावानु-रोधादेव न कारणात् ।। वियत्सम्पूर्णतोत्पत्ती कुम्भस्यैवं द(ह)शा धियाम् ॥१॥ घटदुःखादिहेतुत्वं, धियो धर्मादिहेतुतः॥ स्वतः सिद्धार्थसम्बोध-व्याप्तिर्वस्त्वनुरोधतः ॥२॥ इति," तथा च जडत्वं दुर्निवारमिति वाच्यम्, वृत्युपरक्तचैतन्यस्य स्वत एव चैतन्यरूपत्वेन तद्वयाप्यत्वाभावात् , फले फलान्तरानुत्पत्तस्तद्भिनानां तु स्वतो भानरहितानां तद्वयाप्तेरवश्याश्रयणीयत्वाद् इत्यादि" मधुसूदनाक्तमप्यपास्तम्, वृत्तिविषयताया अपि निर्धर्मके ब्रह्मण्यसम्भवात्, कल्पितविषयतायाः स्वीकारे च कल्पितप्रकारताया अपि स्वीकारापत्तेः, उभयोरपि शानभासकसाक्षिभास्यत्वेन चैतन्यानुपरजकत्वाविशेषात्, ज्ञानस्य स्वविषयानिवर्तकत्वेन प्रकारानिवृत्तिप्रसङ्गभयस्य च विषयताद्यनिवृत्तिपक्ष इव धर्मधर्मिणोर्जात्यन्तरात्मकभेदाभेदसम्बन्धाश्रयणेनैव सुपरिहरत्वात्, कृतान्तकोपस्त्वेकान्तवादिनामुपरि कदापि न निवर्तत इति तत्र का प्रतिकारः । यदि च दृग्विषयत्वं ब्रह्मणि न वास्तवं, तदा सकृद्दर्शनमात्रेणात्मनि घटादाविव गपगमेऽपि द्रष्टुत्वं कदापि नापतीत्यु(त्याधु)क्तं न युज्यते । तथा च-"सकृत्प्रत्ययमात्रेण,घटद्भासते तदा।स्वप्रकाशोऽयमात्मा किं,घटवच्च न भासते ॥शास्वप्रकाशतया किंते,तबुद्धिस्तत्त्ववेदनम् । बुद्धिधक्षणनाश्येति, चोयं तुल्यं घटादिषु ॥२॥ घटादौ निश्चिते बुद्धिर्नश्यत्येव यदा घटः॥ केवलज्ञाननिरूपणे के रान्तिमतलVण्डने बह णि पञ्चदशीवचनतो त्तिविषयत्व व्यवस्थापिकाया मधु सूदनोळे खण्डनम्॥ Fat PW And Penal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणम्॥ (इ)टो नेतु तदाशक्य, इति चेत्सममात्मनिशा निश्चित्य सकृदात्मानं, यदापेक्षा तदैव तम् ।। वक्तुं मन्तुं तथा ध्यातुं, शक्रोत्येव हि || केवलज्ञानतत्त्ववित्।।४।उपासक इव घ्यायें-लौकिकं विस्मरेद्यदि ॥विस्मरत्येव सा ध्याना-द्विस्मृतिर्न तु वेदनात् ॥५॥" इत्यादि ध्यानदीपवचनं विप्लवेतेति किमतिविस्तरेण। तस्माद्ब्रह्मविषया ब्रह्माकारावा वृत्तिरविवेचितसारैव । कथञ्चास्या निवृत्तिरिति वक्तव्यं, स्वकार ६ निरूपणे वेणाज्ञाननाशादिति चेत् , अज्ञाननाशक्षण इवावस्थितस्य विनश्यदवस्थाज्ञानजनितस्य वा दृश्यस्य चिरमप्यनुवृत्तौ मुक्तावनाश्वासः। दान्तिमतउक्तप्रमाविशेषत्वेन निवर्तकता दृश्यत्वेन च निवयतेति दृश्यत्वेन रूपेणाविद्यया सह स्वनिवर्त्यत्वेऽपि न दोषः, निवर्त्यतानिवर्तकत | खण्डने बयोरवच्छेदकैक्य एव क्षणभङ्गापचेरिति चेत्, प्रमाया अप्रमा प्रत्येव निवर्तकत्वदर्शनेन दृश्यत्वस्य निवर्त्यताऽनवच्छेदकत्वात् । नच नाकारवृत्तिज्ञानस्याज्ञाननाशकतापि प्रमाणसिद्धा, अन्यथा स्वमाद्यभ्यासकारणीभूतस्याज्ञानस्य जागरादिप्रमाणज्ञानेन निवृत्तौ पुनः स्वमाध्या नाशकख ण्डने ज्ञानसानुपपत्तिः, तत्रानेकाज्ञानस्वीकारे स्वात्मन्यपि तथासम्भवेन मुक्तावनाश्वासः, मूलाज्ञानस्यैव विचित्रानेकशक्तिस्वीकारादेकशक्ति स्याज्ञाननाशेऽपि शक्त्यन्तरेण स्वमान्तरादीनां पुनरावृत्तिः सम्भवति, सर्वशक्तिमतो मूलाज्ञानस्यैव निवृत्तौ तु कारणान्तरासम्भवाद, नाशकत्वद्वितीयस्य च तादृशस्यानङ्गीकारान्न प्रपश्चस्य पुनरुत्पत्तिरिति तु स्ववासनामात्र, चरमज्ञानं वा मूलाज्ञाननाशक क्षणविशेषो | खण्डनम् ॥ वेत्यत्र विनिगमकामावादनन्तोत्तरोत्तरशक्तिकार्येष्वनन्तपूर्वपूर्वशक्तीनां प्रतिबन्धकत्वस्य, चरमशक्तिकार्ये चरमशक्तेः, तमाशे च चरमज्ञानस्य हेतुत्वकल्पने महागौरवात्,पूर्वशक्तिनाश इव चरमशक्तिनाशेऽपि पण्डमूलाज्ञानानुवृत्यापत्त्यनुद्वाराचेति न किञ्चिदेतत्। एतेन "जागरादिभ्रमेण स्वमादिभ्रमतिरोधानमात्रं क्रियते, सर्पभ्रमेण रज्ज्वां धाराभ्रमतिरोधानवत, अज्ञाननिवृत्तिस्तु ब्रह्मात्मैक्यविज्ञानादेव" इत्यपि निरस्तम् । एवं सति ज्ञानस्याज्ञाननिवर्तकतायां प्रमाणानुपलब्धेस्तभिवृत्तिमूलमोक्षानाश्वासाद् माभूदुदाह SARKARS Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire UCK रणोपलम्मा,श्रुतिः श्रुतार्थापत्तिचैतदर्थे प्रमाणतामवगाहेते एव । तत्र श्रुतिस्तावत्-"तमेव विदित्वातिमृत्युमेति"मृत्युरविद्येति शाने प्रसिद्ध,तथा "वभावाद्भ्यश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः"स्मृतिश्च-(गीता अ०७)"देवी झेषा गुणमयी,मममाया दुरत्यया ।। मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते॥१४॥ (अ०५)ज्ञानेन तु तदज्ञानं, येषां नाशितमात्मनः॥ तेषामादित्यवज्ज्ञानं, प्रकाशयति तत्परम् ॥१६॥" इत्यादि । एवं "ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति" "तरति शोकमात्मवित्." "तरत्यविद्यां वितता हृदि यस्मिनिवेशिते॥ योगी मायाममेयाय,तस्मै ज्ञानात्मने नमः ॥१॥"इति "अविद्यायाः परं पारं तारयसि" इत्यादिः श्रुतार्थापत्तिश्च-"ब्रह्मज्ञानाद्न ब्रह्मभावः श्रयमाणस्तस्यवधायकाज्ञाननिवृत्तिमन्तरेण नोपपद्यत इति ज्ञानादज्ञाननिवृत्चिं गमयति"1" अनृतेन हि प्रत्यूढाः" "नीहारेण प्रावृता,"अन्यथुष्माकमन्तरं," (गीता अ०५) "अज्ञानेनावृतं ज्ञानं,तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥१५॥" इत्यादि श्रुतिस्मृतिशतेभ्योऽज्ञानमेव मोक्षव्यवधायकत्वेनावगतम्, एकस्यैव तत्त्वज्ञानेनाज्ञाननिवृत्त्यम्युपगमाञ्च, नान्यत्र व्यभिचारदर्शनेन ज्ञानस्याज्ञानीनवर्तकत्वबाधोऽपीति चेत्, न, एतस्यैकजीवमुक्तिवादस्य श्रद्धामात्रशरणत्वात्, अन्यथा जीवान्तरप्रातभासस्य स्वामिकजी वान्तरप्रीतभासवद्विभ्रमत्वे जीवप्रतिभासमात्रस्यैव तथात्वं स्यादिति चार्वाकमतसाम्राज्यमेव वेदान्तिना प्राप्तं स्यात् । उक्तश्रुतयस्तु कर्मण एवं व्यवधायकत्वं क्षीणकर्मात्मन एव च ब्रह्मभूयं प्रतिपादयितुमुत्सहन्त इति किं शशशृङ्गसहोदराज्ञानादिकल्पनया तदभिप्रायविडम्बनेन । निर्विकल्पकब्रह्मबोधोऽपि शुद्धद्रव्यनयादेशतामेवावलम्बताम्, सर्वपर्यायनयविषयव्युत्क्रम एव तत्प्रवृत्ते, न तु सर्वथा जगदभावपक्षपीततामिति सम्यग्दृशांवचनोगारः ॥ शाब्द एव स इत्यत्र तु नाग्रहः, यावत्पर्यायोपरागासम्भवविचारसहकृतेन मनसैव तद्ग्रहसम्भवाद, न केवलमात्मनि, किं तु सर्वत्रैव द्रव्ये पर्यायोपरागानुपपत्तिप्रसूतविचारे मनसा निर्विकल्पक निरूपणे वेदान्तिम तखण्डने | ज्ञानस्याज्ञानिवर्त कत्वे प्रमाणतया वेदान्त्युपदर्शितयोःश्रुतिश्रुतार्थापयोरेकजोववादखण्डनेन जैनेष्टकमंगतमुक्तिव्यवधायकपरतयानय all Til Fat PW And Penal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Achatya Sas s Gym श्रीज्ञान-15 IP एव प्रत्ययोऽनुभूयते ।उक्तंच सम्मती-"पज्जवणयवुकतं,वत्य दवट्ठियस्स वत्तव्यं ।।जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्व- बिन्दु यणो ॥१-८॥ इति"। पर्यायनयेन व्युत्क्रान्तं गृहीत्वा विचारेण मुक्तं, वस्तु द्रव्यार्थिकस्य वक्तव्यं, यथा घटो द्रव्यमित्यत्र प्रकरणम् ॥ घटत्वविशिष्टस्य परिच्छिन्नस्य द्रव्यत्वविशिष्टेनापरिच्छिन्नेन सहाभेदान्वयासम्भव इति मृदेव द्रव्यमिति द्रव्यार्थिकप्रवृत्तिः, तत्रापि ॥ १०६॥ सक्ष्मेक्षिकायामपरापरद्रव्यार्थिकप्रवृत्तिर्यावद्रव्योपयोगः, न विद्यते पश्चिमे उत्तरे विकल्पनिर्वचने सविकल्पकधीव्यवहारौ यत्र स तथा शुद्धसङ्ग्रहावसान इति यावत्, ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेः इत्येतस्या अर्थः।। "तत्वमसि" इत्यादावप्यात्मनस्ततदन्यद्रव्यपर्यायोपरागासम्भवविचारशतप्रवृत्तावेव शुद्धद्रव्यविषयं निर्विकल्पकमिति शुद्धदृष्टौ घटज्ञानाद्ब्रह्मज्ञानस्य को भेदः। एकत्र सद्वैतमपरत्र च ज्ञानाद्वैतं विषय इत्येतावति भेदे त्वौत्तरकालिकं सविकल्पकमेव साक्षीति सविकल्पकाविकल्पकत्वयोरप्यनेकान्त एव श्रेयान् । तदुक्तम्-" सविअप्पणिव्विअप्पं, इय पुरिसं जो भणेज अविअप्पं । सविअप्पमेव वा णि-च्छएण ण स णिच्छिओ समए ॥१-३५॥ इति" न च निर्विकल्पको द्रव्योपयोगोऽवग्रह एवेति तत्र विचारसहकृतमनोजन्यत्वानुपपत्तिः, विचारस्येहात्मकत्वेनहाजन्यस्य व्युपरताकाङ्क्षस्य तस्य नैश्चयिकापायरूपस्यैवाभ्युपगमात्, अपाये नामजात्यादियोजनानियमन्तु शुद्धद्रव्यादेशरूपश्रुतनिश्रितातिरिक्त एवेति विभावनीयं स्वसमयनिष्णातैः । ब्रह्माकारबोधस्य मानसत्वे "नावेदविन्मनुते तं बृहंत वेदेनैव तद्वेदितव्यं" "तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि" इत्यादिश्रुतिविरोध इति चेत्, शाब्दत्वेऽपि “यद्वाचानम्यु. दितं," "न चक्षुषा गृह्यते, नापि वाचा," "यतो वाचो निवर्तन्ते" इत्यादिश्रुतिविरोधस्तुल्य एव । अथ वाग्गम्यत्वनिषेधकश्रुतीनां मुख्यवृत्याविषयत्वावगाहित्वेनोपपत्ति हदजहल्लक्षणयैव ब्रह्मणि महावाक्यगम्पत्वप्रतिपादनात्, मनसि तु मुख्यामुल्यभेदाभावात् केवलज्ञान निरूपणे वेदान्तिमतखण्डने नि विकल्पका बोवस्य | शुद्धद्रत्र्यनयादेशतासमर्थनेसाक्षि. तयादर्शिता यासम्मतिगाथाया अर्थः, निर्विकल्पकद्रव्यो पयोगस्व मानसत्कसमर्थनञ्च॥ १०६॥ Fat PW And Penal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire केवलज्ञान SPEAKEECURUCACHECK निरूपणे " यन्मनसा न मनुते " इत्यादिविरोध एव ॥" सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्ति स मानसीन आत्मा मनसैवानुद्रष्टव्यः " इत्यादि-18 वेदान्तिमतश्रुती मानसीनत्वं तु मनस्युपाधावुपलभ्यमानत्वं, न तु मनोजन्यसाक्षात्कारत्वं, मनसैवेति तु कर्तरि तृतीया आत्मनोऽकर्तृत्व खण्डने ब्रह्मप्रतिपादनार्था मनसो दर्शनकर्तृत्वमाह, न करणतां, औपनिषदसमाख्याविरोधात् । “कामा सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिहींर्धार्मीरित्येतत्सर्व मन एवं"इति श्रुती मृद्घट इतिबदुपादानकारणत्वेन मनासामानाधिकरण्यप्रतिपादनात् , तस्य ज्ञानस्य न निमित्तकारणत्वविरोधाचेति चेत्, न, कामादीनां मनोधर्मत्वप्रतिपादिकायाः श्रुतेर्मनःपरिणतात्मलक्षणभावमनोविषयताया एवं मानसत्वं न्याय्यत्वात्, "मनसा ह्येच पश्यति, मनसा शृणोति" इत्यादौ मनःकरणस्यापि श्रुतेदर्दीर्घकालिकसंज्ञानरूपदर्शनग्रहणेन चक्षुरा किन्तु शा दिकरणसत्त्वेऽपि तत्रैवकारार्थान्वयोपपत्तेः, त्वन्मतेऽपि ब्रमणि मानसत्वविधिनिषेधयोवृत्तिविषयत्वतदुपरक्तचैतन्याविषयत्वा ब्दत्वमेवेति भ्यामुपपत्तेश्च । शब्दस्य त्वपरोक्षज्ञानजनकत्वे स्वभावमङ्गप्रसङ्ग एवं स्पष्ट क्षणम् । न च प्रथमं परोक्षज्ञानं जनयतोऽपि शब्द वेदान्तिक स्य विचारसहकारेण पश्चादपरोक्षज्ञानजनकत्वमिति न दोष इति वाच्यम्, अर्धजरतीयन्यायापातात् । न खलु शब्दस्य परोक्षज्ञा. श्नपतिकि नजननस्वाभाव्यं सहकारिसहस्रेणाप्यन्यथाकतुं शक्यं, आगन्तुकस्य स्वभावत्वानुपपत्तेः। न च संस्कारसहकारेण चक्षुषा प्रत्यभि पाने तस्य मानसत्कज्ञानात्मकप्रत्यक्षजननवदुपपचिा, यदशे संस्कारसापेक्षत्वं तदंशे स्मृतित्वापातो यदंशे च चक्षुःसापेक्षत्वं तदंशे प्रत्यक्षापात इति स्थापनं शभियैव प्रत्यभिज्ञानस्य प्रमाणान्तरत्वमिति जैनः स्वीकारात् । “स्वे स्वे विषये युगपज्ज्ञानं जनयतोश्चक्षुःसंस्कारयोरार्थसमाजे. ब्दस्य परोनैकज्ञानजनकत्वमेव पर्यवस्यति, अन्यथा रजतसंस्कारसहकारेणासनिकृष्टेऽपि रजते चाक्षुषज्ञानापत्तेरन्यथाख्यात्यस्वीकारभङ्गप्र क्षज्ञानजनसङ्ग" इति वदस्तपस्वी तूमयात्मकैकज्ञानाननुव्यवसायादेव निराकर्तव्या,अन्यथा रजतम्रमेऽप्युभयात्मकतापत्तेः,पर्वतो वहिमा कत्वमेवेति स्थापनश्च। Fat PW And Penal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ She Mal a kanda www.katuatith.oro नीबानबिन्दु विन .१०७॥ नित्यनुमितावपि उभयसमाजादंशे प्रत्यक्षानुमित्यात्मकतापचेश्च । अथ मनस इव शब्दस्य परोक्षापरोक्षज्ञानजननस्वभावामी *केवलज्ञानकाराददोषः, मनस्त्वेन परोक्षज्ञानजनकता, इन्द्रियत्वेन चापरोक्षज्ञानजनकतेत्यस्ति मनस्यवच्छेदकभेद इति चेत्, शब्दस्यापि निरूपणे विषयाजन्यज्ञानजनकत्वेन वा ज्ञानजनकत्वेन वा परोक्षज्ञानजनकता योग्यपदार्थनिरूपितत्वम्पदार्थाभेदपरशब्दत्वेन चापरोक्षज्ञान वेदान्तिमजनकतति कथं नावच्छेदकभेदः । धार्मिकस्त्वमसीत्यादौ व्यभिचारवारणाय निरूपितान्तं विशेषणं, इतरत्र्यावयं तु स्पष्टमेव । तखण्डने पुएतच्च 'दशमस्त्वमसि' 'राजा त्वमसि' इत्यादिवाक्याद्दशमोऽहमस्मि राजाहमस्मीत्यादिसाक्षात्कारदर्शनात्कल्प्यते, नाई नब्रह्मापरोदशम इत्यादिभ्रमीनवृचरत इत्थमेव सम्भवात् । साक्षात्कारिभ्रमे साक्षात्कारिविरोधिज्ञानत्वेनैव विरोधित्वकल्पनात् । न च क्षज्ञानजनतत्र वाक्यात्पदार्थमात्रोपस्थितौ मानसः संसर्गबोध इति वाच्यम्, सर्वत्र वाक्ये तथा वक्तुं शक्यत्वेन शब्दप्रमाणमात्रोच्छेदप्र कत्वस्य शसङ्गादिति चेत्, मैवम्, दशमस्त्वमसीत्यादौ वाक्यात्परोक्षज्ञानानन्तरं मानसन्मानान्तरस्यैव भ्रमनिवर्तकत्वकल्पनात्, धार्मिकस्त्व ब्दे व्यवस्थामसीत्यादौ विशेष्यांशस्य योग्यत्वादेव योग्यपदार्थनिरूपितेत्यत्र योग्यपदार्थतावच्छेदकविशिष्टत्यस्यावश्यवाच्यत्वेन महावा ४ पनपक्षे वेदाक्यापि तत्पदार्थतावच्छेदकस्यायोग्यत्वेनापरोक्षज्ञानासम्भवाच, अयोग्यांशत्यागयोग्यांशोपादानाभिमुखलक्षणावत्वमेव योग्य- | पदार्थत्वमित्युक्तौ च धार्मिकस्त्वमसीत्यादावपि शुद्धापरोक्षविषयत्वे तथावर्तकविशेषणदानानुपपचिः,तथा च योग्यलक्ष्यपरत्वग्रहे | न्त्याशङ्कोउदाहरणस्थानदौलम्यं । अयं च विषयोऽस्माकं पर्यायविनिर्मोकेण शुद्धद्रव्यविषयतापर्यवसायकस्य द्रव्यनयस्येत्यलं ब्रह्मवादेन ॥ न्मूलिता ॥ किच त्वम्पदार्थाभेदपरशब्दत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वोक्तौ 'यूयं राजान' इत्यतोऽखिलसम्बोध्यविशेष्यकराजत्वप्रकारकापरोक्षशाब्दापचिा, तत्र तादृशमानसाभ्युपगमे चान्यत्र कोऽपराधः । एतेन" एकवचनान्तत्वम्पदार्थग्रहणेऽपि न निस्तारः,"एकस्मिन्नेव ॥१०७॥ AM Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LABE सूयमिति प्रयोगेजतेश्च,एकाभिप्रायकत्वम्पदग्रहणे च तत्तदभिप्रायकशम्दत्वेन तपच्छान्दोघहेतुत्वमेव युक्तम् । अत एव 'वाफ्यादपि | द्रव्यार्यादेशावखण्डः,पदादपिच पर्यायादेशात् सखण्ड: शाब्दबोध' इति जैनी शास्त्रव्यवस्था । तस्माष शब्दस्यापरोक्षज्ञानजनकत्वम् एतेन"अपरोक्षपदार्थामेदपरशब्दत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वं,अत एव शुक्तिरियमिति वाक्यादाहत्य रजतम्रमनिवृतिः, एवं च चैतन्यस्य वास्तवापरोक्षत्वादपरोक्षज्ञानजनकत्वं महावाक्यस्य" इत्यपि निरस्तम्, वास्तवापरोक्षस्वरूपविषयत्वस्व स्वनीत्या | तत्वमस्यादिवाक्ये सम्भवेऽपि 'दशमस्त्वमसि'इत्यादावसम्भवात्, निवृत्चाज्ञानविषयत्वस्य च शाब्दबोधात्पूर्वमभावात् यदा कदाचिभिवृचाज्ञानत्वग्रहणे पर्वतो बहिमानित्यादिवाक्यानामप्यपरोक्षस्वरूपविषयतयाऽपरोधज्ञानजनकत्वप्रसस्गात् “ यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' "सत्यं ज्ञानमनन्तं" इत्यादिवाक्यानामपरोक्षस्वरूपविषयतयाऽपरोक्षज्ञानजनकत्वे महावाक्यवैयापाताच्च ।। किवं घटोऽस्तीतिशाब्दे चाक्षुषत्वमप्यापतेव,अपरोक्षपदार्थाभेदपरशब्दादिवापरोक्षपक्षसाध्यकानुमितिसामग्रीतोऽपरोक्षानुमितिरपि च प्रसज्येत । एवं च मिन्नविषयत्वाद्यप्रवेशेनैवानुमितिसामग्या लाघवादलवच मिति विशेषदर्शनकालीनभ्रमसंशयोत्तरप्रत्यक्षमात्रोच्छेद इति बहुतरं दुर्घटम् । एतेन"प्रमात्रमेदविषयत्वेनापरोक्षज्ञानजनकत्वम्" इत्यपि निरस्तम् , 'सर्वज्ञत्वादिविशिष्टोऽसि इत्यादिवाक्यादपि तथाप्रसगात् , ईश्वरो मदभित्रः, चेतनत्वाद्, मद्, इत्यनुमानादपि तथाप्रसङ्गाचेति । "महावाक्यजन्यमपरोक्षं शुद्धनमविषयमेव केवलज्ञानम्" इति वेदान्तिनां महानेव मिथ्यात्वाभिनिवेश इति विभावनीयं सूरि(सुधी)भिः॥ हदमिदानी निरूप्यते-केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणकेवलदर्शनसमानकालीनं न वा,' 'केवलज्ञानक्षणत्वं स्वसमानाधिकरणदर्शनक्षणाव्यवीहतोचरत्वव्याप्यं न वा ?' एवमाद्याः क्रमोपयोगवादिनां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां, BAR केवलज्ञाननिरूपणे वेदान्तिमत| खण्डनेऽपरोक्षाभेदपरत्वेन प्रमात्रमदविषयत्वेन च शब्दस्यापरोक्षज्ञानजनकत्वमितितत्पश्नपतिविधानं वेदान्तिमतखण्डनसमाप्तिः॥ R DASTI Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya saikastassingaisanGyanmantire मीवानबिन्दु ॥१०८॥ RECIRCTCan | केवलज्ञान दर्शनयों दाभेदविचारे युगपदुपयोगवादिनां च मल्लवाविप्रभृतीनां, 'यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनम्' इतिवादिनां च महावादिश्रीसिद्धसे भेदेफिक्रमनदिवाकराणां साधारण्यो विप्रतिपत्तयः ॥ यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्तं तदम्पुपग वादि पूज्य मवादाभिप्रायेन, न तु स्वतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाक्रमोपयोगद्ववपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मतावुभावितत्वा-1BIR जिनभद्रगणि दिति द्रष्टव्यम् । एतच्च तत्त्वं सयुक्तिकं सम्मतिगाथाभिरेव प्रदर्शयाम:-"मणपज्जावनाणतो, नाणस्स य दरिसणस्स या क्षमाश्रमणाविसेसोकेिवलनाणं पुणद-सणंति नाणंति य समाणीकाण्ड२-३॥"युगपदुपयोगद्वयाभ्युपगमवादोऽयम्-मनापयोंयज्ञानमन्त: Mनां योगपछपर्यवसानं यस्य स तथा, ज्ञानस्य दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्भाव इति साध्यम्।अत्र च छद्मस्थोपयोगत्वं हेतुर्द्रष्टव्या, IPI |बादिमकतथा च प्रयोगा-चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथकालानि, छबस्थोपयोगात्मकज्ञानत्वातू, श्रुतमन:- i वादिप्रभृपर्यायज्ञानवत् । वाक्यार्थविषये श्रुतज्ञाने, मनोद्रव्यविशेषालम्बने मनःपर्यायज्ञाने चादर्शनस्वभावे मत्यवृधिजादर्शनोपयोगा- तोनाम, कनिकालत्वं प्रसिद्धमेवेति टीकाकृतः । दर्शनत्रयपृथकालत्वस्य कुत्राप्येकस्मिन्नसिसाधयिषितत्वात् , स्वदर्शनपृथकालत्वस्व च भेद एवं सिसाधयिषितस्योक्तदृष्टान्तयोरभावात्सावरणत्वं हेतुः, व्यतिरेकी च प्रयोगः, तजन्यत्वं वा हेतुः, 'यद्यजन्यं तमतः पृथकालम्' तयोरितिइति सामान्यच्याप्तौ यथा दण्डात् घट इति च दृष्टान्त इति तु युक्तं, केवलज्ञानं पुनर्देशन दर्शनोपयोग इति वा जान बानो तदैत्यवादि | सिद्धसेनपयोग इति वा समान तुल्यकालं तुल्यकालीनोपयोगद्वयात्मकमित्यर्थः, प्रयोगश्च-केवलिनो बानदर्शनोपयोगावेककालीनौ, दिवाकराणां युगपदावि तस्वभावत्वात, यावेवं तावेवं, यथा रखेः प्रकाशतापौ । अयमभिप्राय आगमविरोधीति केषाश्चिन्मतं, तानविक्षिपनाह | विचारास्त(सम्मतिः)-" केई मणति जइया, जाणइ तइजाण पासह जिणो ति ॥ सुत्तमवलंबमाणा, तित्यपरासायणामीक ॥२-१॥" त्रसम्मति| तात्पर्यम् ॥ १०८॥ MSRR Fat PW And Penal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.ketafirth.org केचिनि भद्रानुयायिनो भणन्ति- 'यदा जानाति तदा न पश्यति जिन' इति । सूत्रं - "केवली णं मंते इमं रयणप्पमं पुढवि आयारहिं पाणी हेऊदि संठाणेहि परिवारहिं जं समयं जाणइ णो तं समयं पासह १, ईता गोयमा ! केवली णं" इत्यादिकं अवलम्बमानाः । अस्य च सूत्रस्य किलायमर्थस्तेषामभिमतः - 'केवली सम्पूर्णबोधः, णमिति वाक्यालङ्कारे । भंते इति भगवन् ! इमां रत्नप्रभा मन्वर्थाभिधानां पृथ्वीमा कारैः समनिम्नन्ननादिभिः, प्रमाणै र्घ्यादिभिः, हेतु भिरनन्तानन्तप्रदेशिकैः स्कन्धैः, संस्थानैः परिमण्डलादिभिः, परिवारैर्धनोदधिवलयादिभिः । जं समयं णो तं समयमिति च 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (पा. २-३-५.) इति द्वितीया सप्तमीबाधिका, तेन यदा जानाति न तदा पश्यतीति मावः । विशेषोपयोगः सामान्योपयोगान्तरितः, सामान्योपयोगच विशेपोपयोगान्तरितः, तत्स्वाभाव्यादिति प्रश्नार्थः । उत्तरं पुनः 'हंता गोयमा 'इत्यादिकं प्रश्नानुमोदकं इंतेत्येतन्निगमनप्रकार, गौतमेति गोत्रेणा मंत्रणं प्रश्नानुमोदनार्थं पुनस्तदेव सूत्रमुच्चारणीयं हेतु प्रश्नस्य चात्र सूत्रे उत्तरं । “सागारे से नाणे हवइ, अणागारे से दंसणे" इति,साकारं विशेषावलम्बि अस्य केवलिनो ज्ञानं भवति, अनाकारमतिक्रान्ताविशेषं सामान्यावलम्बि दर्शनं । न चानेकप्रत्ययोत्पतिरेकदा निरावरणस्यापि तत्स्वाभान्यात् । न हि चतुर्दर्शनकाले श्रोत्र ज्ञानोत्पत्तिरुपलभ्यते । न चावृतत्वाचदा तदनुत्पत्तिः, स्वसमयेऽप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न चाणुना मनसा यदा यदिन्द्रियसंयोगस्तदा तज्ज्ञानमिति क्रमः परत्राद्यभिमतोऽपि युक्तिमान् ः, सर्वाङ्गीणसुखोपलम्भाद्युपपचये मनोवर्गणा पुद्गलानां शरीरव्यापकत्वस्यैव कल्पनात् सुषुप्तौ ज्ञानानुत्पत्तये त्वमनोयोगस्य ज्ञान - सामान्ये हेतुत्वेन रासनकाले त्वाचरासनो भयोत्पत्तिवारणस्येत्यमप्यसम्भवाच्च । ततो युगपदनेकप्रत्ययानुत्पचा स्वभाव एव कारणं नान्यत्, सन्निहितेऽपि च द्वयात्मके विषये सर्वविशेषानेव केवलज्ञानं गृह्णाति, सर्वसामान्यानि च केवलदर्शन मिति स्वभाव १९ For Print And Personal Use Only Acharya Shal Kalassagarsun Gyanmandir केवलज्ञानानिरूपणे केवलज्ञानदर्शनोपयो गविषये मोपयोग द्यभिमतम ज्ञापनाविंशतितमपदसू त्रार्थः क्रमो पयोगसाध कोपपत्त्युपदर्शनं च ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोज्ञान केवलज्ञान विन्दु अकरणम्॥ एवानयोरिति । एते च व्याख्यातारस्तीर्थकराशातनाया अभीरवः तीर्थकरमाशातयन्तो न विभ्यतीति यावत् । एवं हि नि:सामान्यस्य निर्विशेषस्य वा वस्तुनोऽभावेन न किञ्चिजानाति केवली न किश्चित्पश्यतीत्यधिक्षेपस्यैव पर्यवसानात् । न चान्य निरूपणे केवलज्ञानतरमुख्योपसर्जनविषयतामपेक्ष्योभयग्राहित्वेऽप्युपयोगक्रमाविरोधः, मुख्योपसर्जनभावेनोभयग्रहणस्य क्षयोपशमविशेषप्रयोज्यत्वात् , केवलज्ञाने छद्मस्थज्ञानीययावद्विषयतोपगमेऽवग्रहादिसङ्कीर्णरूपप्रसङ्गाद्, उक्तसूत्रस्य तु न भवदुक्त एवार्थः, किं त्वयं, हैदर्शनोपयोग. 'केवलीमा रत्नप्रभा पृथिवीं यैराकारादिभिः समकं तुल्यं जानाति, न तैराकारादिभिस्तुल्यं पश्यतीति किमेवं ग्राह्यं १, हंता-एवमि विषये युगपत्यनुमोदना, ततो हेतौ पृष्टे सति तत्प्रतिवचनं भिन्नालम्बनप्रदर्शकं तज्ज्ञानं साकारं भवति यतो दर्शनं पुनरनाकारमित्यतो | दुपयोगद्वयभिन्नालम्बनवितौ प्रत्ययाविति' टीकाकृतः । अत्र यद्यपि जं समयं इत्यत्र जं इति अम्भावः प्राकृतलक्षणात् , यत्कृतमित्यत्र जं बादि-नदकयमिति प्रयोगस्य लोकेऽपि दर्शनादिति वक्तुं शक्यते, तथापि तृतीयान्तपदवाच्यैराकारादिभिर्खप्ततृतीयान्तसमासस्थयत्पदार्थस्य भेदवादिमसमकपदार्थस्य चान्यूनानतिरिक्तधर्मविशिष्टस्य रत्नप्रभायां भिन्नलिङ्गत्वादनन्वय इति यत् समकमित्यादिक्रियाविशेषणत्वेन तेनोक्तस्व्याख्येयम् । रत्नप्रभाकर्मकाकारादिनिरूपितयावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकज्ञानवान् न तादृशतावदन्यूनानतिरिक्तविषयताकदर्श- त्रार्थः,तद्वि. नवान् केवलीति फलितोर्थः । यदि च तादृशस्य विशिष्टदर्शनस्य निषेध्यस्याप्रसिद्धेर्न तनिषेधः "असतो णस्थि णिसेहो" (विशे. | पवारेकाम१५७४) इत्यादिवचनादिति सूक्ष्ममीक्ष्यते, तदा 'क्रियाप्रधानमाख्यातम्' इति वैयाकरणनयाश्रयणेन रत्नप्रभाकर्मकाकारा- तिविधान दिनिरूपित्यावदन्यूनानतिरिक्त विषयताकं ज्ञानं, न तादृशं केवलिकर्तृकं दर्शनमित्येव बोधः, सर्वनयात्मके भगवत्प्रवचने यथो. पपनान्यतरनयग्रहणे दोषाभावादिति तु वयमालोचयामः । हेतुयोगपद्यादपि बलेनोपयोगयोगपद्यमापततीत्याह-"केवलनाणा- १०९॥ EKAR Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Actuarva srul Kadassaarsun Cranmandir Ma a kunta PिUR वरण-क्खयजायं केवलं जहा नाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ,णिय आवरणक्खयरसते ॥२-५॥" स्पष्टा,नवरं निजावरणक्षयस्यान्त इति दर्शनावरणक्षयस्यानन्तरक्षण इत्यर्थः । न चैकदोभयावरणक्षयेऽपि स्वभावहेतुक एवोपयोगक्रम इत्युक्तमपि साम्प्रतं, एवं सति स्वभावेनैव सर्वत्र निर्वाह कारणान्तरोच्छेदप्रसङ्गात् , कार्योत्पत्चिस्वभावस्य कारणेनैव तत्क्रमस्वभावस्य तत्क्रमणैव निर्वायत्वाच । एतेन “सर्वव्यक्तिविषयकत्वसर्वजातिविषयकत्वयोः पृथगवावरणक्षयकार्यतावच्छेदकत्वादर्थतस्तदवच्छिन्नोपयोगद्वयसिद्धिः" इत्यप्यपास्तम् । तत्सिद्धावपि तत्क्रमासिद्धेरावरणद्वयक्षयकार्ययोः समप्राधान्यनार्थगतेरप्रसराच्च । न च मतिश्रुतज्ञानावरणयोरेकदा क्षयोपशमेऽपि यथा तदुपयोगक्रमस्तथा ज्ञानदर्शनावरणयोयुगपत्क्षयेऽपि केबलिनामुपयोगक्रमः स्यादिति शनीयं, तत्र श्रुतोपयोगे मतिज्ञानस्य हेतुत्वेन शाब्दादौ प्रत्यक्षादिसामयाः प्रतिवन्धकत्वेन च तत्सम्भवात् । अत्र तु वीणावरणत्वेन परस्परकार्यकारणभावप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाद्यभावेन विशेषात् । एतदेवाह-"भण्णइ खीणावरणे, जह मइनाणं जिण ण संभवइ ।। तह खीणावरणिज्जे, विसेसओ दंसणं णत्थि ॥२-६॥" भण्यते निश्चित्योच्यते, क्षीणावरणे जिने यथा मतिज्ञानं मत्यादिज्ञानं अवग्रहादिचतुष्टयरूपंवा ज्ञानं न सम्भवति, तथा क्षीणावरणीये विश्लेषतो ज्ञानोपयोगकालान्यकाले दर्शनं नास्ति क्रमोपयोगत्वस्य मत्याद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात्सामान्यावशेषोभयालम्बनक्रमोपयोगत्वस्य चावग्रहाद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात्केवलयोः क्रमोपयोगत्वे तत्त्वापत्तिरित्यापादनपरोऽयं ग्रन्थः ।प्रमाणं तु-"केवलदर्शनं केवलज्ञानतुल्यकालोत्पत्तिकं, तदेककालीनसामग्रीकत्वात् , तादृशकार्यान्तरवत्", इत्युक्ततर्कानुगृहीतमनुमानमेवेति द्रष्टव्यम् । न केवलं क्रमवादिनोऽनुमानविरोधः, अपि वागमविरोधोऽपीत्याह-"सुचमि चेव साइ-अपज्जवसियं ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरू-हि तं च दट्ठन्वयं केवकज्ञाननिरूपणे केवलज्ञानदर्शनयोरुपयोगयोगपद्यसमर्थनं क्रमवादि| नोनुमानाम मादिविरोध प्रदर्शन ज॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya shikailassimarsanGyammandir श्रीज्ञान IN प्रकरणम् ॥ ११०॥ RecGAR होइ ॥२-७" साद्यपर्यवसिते केवलज्ञानदर्शने सूत्रे प्रोक्त, क्रमोपयोग त द्वितीपसमये तयोः पर्यवसानमिति कृतोपर्यवसिक्ता। केवलज्ञान तेन सूत्राशातनाभीरुभिः क्रमोपयोगवादिभिस्तदपि द्रष्टव्यं । चोऽप्यर्थः । न केवलं "केवली गं भंते इमं रयणप्पभं पुढवि' निरूपजे इत्याधुक्तसूत्रयथाश्रुतार्थानुपपत्तिमात्रमिति भावः । न च द्रव्यापेक्षयाऽपर्यवसितत्वं समाधेयं, द्रव्यविषयप्रश्नोत्तरा श्रुतेः । न च केवलज्ञान'अर्पितानर्पितसिद्धे इति तत्वार्थ (५२०३१) सूत्रानुरोधेन द्रव्यार्पणयाऽश्रुतयोरपि तयोः कल्पन युक्तं,अन्यथा पर्यायाणामुत्पाद- दर्शनयोः विगमात्मकत्वाद् भवतोऽपि कथं तयोरपर्यवसानतेति पर्यनुयोज्यम?, यद्धर्मावच्छिन्ने क्रमिकत्वप्रसिद्धिः तद्धर्मावच्छिन्ने ऽपयेवसि साधनन् तत्वान्वयस्य निराकक्षित्वात् , अन्यथा ऋजुत्ववक्रत्वे अपर्यवसिते इति प्रयोगस्यापि प्रसङ्गात् , मम तु रूपरसात्मकैकद्रव्यवद क्रम स्थितिक भाषिभिन्नोपाधिकोत्पादगिमात्मकत्वेऽपि केवलिद्रव्याव्यतिरेकतस्तयोरपर्यवसितत्वं नानुपपन्नम् । अथ पर्यायत्वावच्छेदकधर्म- नापि युगक विनिर्मोकेण शुद्धद्रव्यार्थादेशप्रवृत्तः क्रमैकान्तेऽपि केवलयोरपर्यवसितत्वमुपपत्स्यते, अत एव पर्यायद्रव्ययोरादिष्टद्रव्यपर्यायत्वं दुपयोगव्यक सिद्धान्त गीयते । तत्तदवच्छेदकविनिर्मोकस्य विवक्षाधीनत्वादिति चेत्, किमयमुक्तधर्मविनिर्मोकस्तत्तत्पदार्थतावच्छेदकविशिष्टयो स्थापन । रभेदान्वयानुपपत्त्या शुद्धद्रव्यलक्षणया, उत उक्तधर्मस्य विशेषणत्वपरित्यागेनोपलक्षणत्वमात्रविवक्षया ?। आधे आद्यपद एवं लक्षणायां शुद्रव्यं शुद्धात्मद्रव्यं वाऽपर्यवसितमित्येव बोधः स्यात् , सादित्वस्यापि तत्रान्वयप्रवेशे तु केवलिद्रव्यं साद्यपर्यवसितमित्याकारक एव, उभयपदलक्षणायां तु शुद्धद्रव्यविषयको निर्विकल्पक एव बोध इति केवलज्ञानदर्शने साबपर्यवसिते इति बोधस्य कथमप्यनुपपचिः । अन्त्ये च केवलत्वोपलक्षितात्मद्रव्यमात्रग्रहणे तत्र सादित्वान्वयानुपपत्तिः, केवलिपर्यायग्रहणे च नवविधोपचारमध्ये 'पर्याये पर्यायोपचार' एवाश्रयणीयः स्यादिति समीचीनं द्रव्यार्थादेशसमर्थनं । नियतोपलक्ष्यतावच्छेदकरूपा-12 ११०॥ Fox And Pence Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya shikatassigaran.Gyammandir A- KACREDIRECACHESEX भावपि सम्मुग्धोपलक्ष्यविषयकताशवोधस्वीकारे च 'पर्यायोऽपर्यवसित' इत्यादेरपि प्रसक्तिद्रव्यार्थतया केवळजानकेवलदर्शनयोरपर्यवसितत्वाभ्युपगमे द्वितीयक्षणेऽपि तयोः सद्भावप्रसक्तिः, अन्यथा द्रव्यार्थत्वायोगात् । तदेवं क्रमाभ्युपगमे तयोरागमविरोध इत्युपसंहरन्नाह-"संतमि केवल द-सणम्मि नाणस्स संभवोणस्थि । केवलनाणम्मि य दं-सणस्स तम्हा अनिहणाई ॥२-८॥" स्वरूपतो द्वयोः क्रमिकत्वेऽन्यतरकालेऽज्यतराभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तवक्ष्यमाणदूषणगणोपनिपाता,तस्माद् द्वावप्युपपोगो केबलिन: स्वरूपतोऽनिधनावित्यर्थः । इत्थं ग्रन्थकृदक्रमोपयोगद्वपाम्पुपगमेन क्रमोपयोगवादिनं पर्यनुयूज्य स्वपवं दर्शयितुमाह"दसणनाणावरण-क्वए समाणम्मि कस्स पुब्बयरो(रं) ॥ होज व समओप्पाओ, हंदि दुवे णस्थि उवोगा ॥२-९॥" सामान्यविशेषपरिच्छेदावरणापगमे कस्प प्रथमतरमुत्पादो भवेत् । अन्य तरोत्पादे तदितरस्याप्पुत्पादप्रसङ्गात् , अन्यतरसामग्या अन्यतरप्रतिबन्धकत्वे चोभयोरप्यभावप्रसङ्गात् “ सब्याओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्सेति” वचनप्रामाण्यात्प्रथमं केवल. ज्ञानस्य पश्चात्केवलदर्शनस्योत्पाद इति चेत्, न, एतद्वचनस्य लब्धियोगपद्य एव साक्षित्वादुपयोगक्रमाक्रमयोरीदासीन्यात् । योगपद्येनापि निर्वाहेऽर्थादर्शनेऽनन्तरोत्पपसिद्धः एकक्षणोत्पत्तिककेवलज्ञानयोरेकक्षणन्यूनाधिकापुष्कयोः केवलिनोः क्रमिकोपयोगद्वयधाराया निर्वाहयितुमशक्यत्वाच । अथ ज्ञानोपयोगसामान्ये दर्शनोपयोगत्वेन हेतुतेति निर्विकल्पकसमाधिरूपच्छमस्थकालीनदर्शनात् प्रथमं केवलज्ञानोत्पत्ति केवलदर्शने केवलज्ञानत्वेन विशिष्य देतत्वाच द्वितीयक्षणे केवलदर्शनोत्पतिः, ततथ ऋमिकसामग्रीद्वयसम्पच्या क्रमिकोपयोगद्वयधारानिर्वाह इति, एकक्षणन्यूनाधिकायुष्कयोस्त्वेकक्षणे केवलज्ञानोत्पपस्वीकार एवं गतिरिति चेत् ,न, "दसणपृथ्वं नाणं (२-२२)" इत्यादिना तथाहेतुत्वस्य प्रमाणाभावेन निरसनीयत्वात् , उत्पन्नस्य केवलज्ञानस्य निरूपणे केवलज्ञान दर्शनयोगपयोगाक बादिमतेन कमवादिमतं निरस्य ज्ञानदर्शनयोः के वलिन्यैक्यमिति स्क सिद्धान्त मर्थनमेकक्षणन्धिमा युर्टष्टान्तेन कमपक्षनि रामश्च। For And Penal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire मोक्षान-15 क्षायिकभावत्वेन नाशायोगाच्च । न च मुक्तिसमये क्षायिकचारित्रनाशवदुपपत्तिः क्षायिकत्वेऽपि तस्य योगस्थैर्यनिमित्तकत्वेन | निमित्तनाशनाश्यत्वात् , केवलज्ञानस्य चानैमित्तिकत्वादुत्पत्तौ ज्ञप्तौ चाबरणक्षयातिरिक्तनिमित्तानपेक्षत्वेनैव तस्य स्वतन्त्रप्रमाणप्रकरणम्॥ त्वव्यवस्थिते, अन्यथा ' सापेक्षमसमर्थम्' इति न्यायात्तत्राप्रामाण्यप्रसङ्गात् । एतेन 'केवलदर्शनसामग्रीत्वेन स्वस्यैव स्वना शकत्वमिति केवलज्ञानक्षणिकत्वम्' इत्यप्यपास्तम् , अनैमित्तिके क्षणिकत्वायोगात् , अन्यथा तत्क्षण एव तत्क्षणवृत्तिकार्ये नाशक इति सर्वत्रैव सूक्ष्म सूत्र नयसाम्राज्यस्य दुर्निवारत्वादिति किमतिपल्लवितेन ? । नन्वियमनुपपत्तिः क्रमोपयोगपक्ष एवेत्यक्रमौ द्वावुपयोगौ स्तामित्याशङ्कते मल्लवादी, "भवेद्वा समयमेककालमुत्पादस्तयोरिति” तत्रैकोपयोगवादी ग्रन्थकृत् सिद्धा न्तयति, हंदि ज्ञायतां, द्वावुपयोगी नैकदेति, सामान्यविशेषपरिच्छेदात्मकत्वात्केवलज्ञानस्य, यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनमित्यत्रैव निर्भर।, उभयहेतुसमाजे समूहालम्बनोत्पादस्यैवान्यत्र दृष्टत्वान्नात्रापरिदृष्टकल्पनाक्लेश इति भावः । अस्मिन्नेव वादे केवलिन: सर्वज्ञतासम्भव इत्याह-"जइ सव्वं सायारं, जाणइ एकसमएण सव्वण्णू।।जुजइ सया वि एवं, अहवा सव्यं न जाणाइ।।२-१०॥" यदि सर्व सामान्यविशेषात्मक जगत्, साकार तत्तजातिव्यक्तिवृत्तिधर्मविशिष्टं। साकारमिति क्रियाविशेषणं वा । निरवच्छि- | बतत्तजातिप्रकारतानिरूपिततत्तद्वयक्तिविशेष्यतासहितं परस्परं यावद्र्व्यपर्यायनिरूपितविषयतासहितं वा यथा स्यात्तथेत्यर्थः । जानात्येफसमयेन सर्वज्ञः पश्यति चति शेषः, तदा सदापि सर्वकालं युज्यते,एवं सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं चेत्यर्थः । अथवेत्येतद्वपरीत्ये, सर्व न जानाति सर्व न जानीयादेकदेशोपयोगवर्तित्वान्मतिज्ञानवदित्यर्थः । तथा च केवलज्ञानमेव केवलदर्शनमिति स्थितम्। अव्यक्तत्वादपि पृथग्दर्शनं केवलिनि न सम्भवतीत्याह-"परिसुद्धं सायारं, अविअत्तं दसर्ण अणायारं ।। ण य खीणा केवलज्ञाननिरूपणे केवलज्ञानदर्शनयोरैक्यमित्यस्मि न्यक्ष एव सर्वज्ञतासम्भवस्य यु: तित: साधनम् ॥ KAKKALA Fat PW And Penal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShaikailassigarsanGyanmanttire म वरणिज्जे, जुञ्जह स(सु)वियत्तमविअत् ॥३-११॥" ज्ञानस्य हि व्यक्ततारूपं, दर्शनस्य पुनरव्यक्तता । न च क्षीणावरणेऽर्हति व्यक्तताऽव्यक्तते युज्यते,ततः 'सामान्यविशेषज्ञेयसंस्पश्युभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्यया', न च ग्राह्यद्वित्वाद्वाहकद्वित्वमिति सम्भावनापि युक्ता, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापचेः, विषयभेदकृतो न ज्ञानभेद इत्यभ्युपगमे तु दर्शनपार्थक्ये का प्रत्याशा, आवरणद्वयक्षयादुभयै कस्वभावस्यैव कार्यस्य सम्भवात् । न चैकस्वभावप्रत्ययस्य शीतोष्णस्पर्शवस्परस्परविभिन्न स्वभावद्वयविरोधः, दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयात्मकैकदेवदत्तवत्स्वभावद्वयात्मकैकप्रत्ययस्य केवलिन्याविरोधात् । ज्ञानत्वदर्शनत्वधर्माभ्यां ज्ञानदर्शनयोर्मेदः, न तु धर्मिभेदेनेति परमार्थः । अत एव तदावरणभेदेऽपि स्याद्वाद एव, तदुक्तं स्तुती ग्रन्थकृतव (निश्चयद्वात्रिंशिका) "चक्षुर्दशनविज्ञानं, परमाणाचौष्ण्यरौक्ष्यवत् । तदावरणमप्येकं, न वा कार्यविशेषतः ॥ ८॥" इति । परमाणावुष्णरूक्षस्पर्शद्वयसमावेशवच्चाक्षुषे ज्ञानत्वदर्शनत्वयोः समावेश इत्यर्थः । इत्थं च चाक्षुषज्ञानदर्शनावरणकर्मापि परमार्थत एक, कार्यविशेषत उपाधिभेदतो वा नैकमिति सिद्धम् । एवमवधिकेवलस्थलेऽपि द्रष्टव्यम् । तदाह-"चक्षुर्वद्विषयाख्याति-वधिज्ञानकेवले ॥शेषवृत्तिविशेषात्तु, ते मते ज्ञानदर्शने ॥३०॥ इति"। चक्षुर्वचाक्षुषवद्विषयाख्यातिः स्पृष्टज्ञानाभावः अस्पृष्टज्ञाने इति यावत्, भावाभावरूपे वस्तुन्यभावत्वाभिधानमपि दोषानावहं, शेषा वृत्तयोऽस्पृष्टज्ञानानि ताभ्यो विशेषः, स्पृष्टताविशेपेण वक्ष्यमाणरीत्या स्पृष्टाविषयवृत्तित्वव्यङ्गयेन, तस्माचे अवधिकेवले ज्ञानपदेन दर्शनपदेन च वाच्ये इत्येतदर्थः ।। क्रमाक्रमोपयोगद्वयपक्षे भगवतो यदापद्यते तदाह-" अद्दिष्टुं अण्णायं, च केवली एव भासइ सया वि।। एगसमयम्मि हंदी, वयणविगप्पो ण संभवइ।।२-१२॥" आद्यपक्षे झानकालेऽदृष्टं,दर्शनकाले चाज्ञातं, द्वितीयपक्षे च सामान्यांशेऽज्ञातं विशेषांशे चादृष्टं,एवमुक्तप्रकारेण केवली सदा -ря-х-хххаха केवलज्ञाननिरूपणे ज्ञानदर्शनयोळसाऽव्यक्तरूपत्वेन भेदवाश्मितं वेविलिनि तद नुपपत्तिप्र दर्शनेन ४निराकृतम् ॥ पस Fat PW And Penal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECRUS केवलज्ञान निरूपणे श्रीवान-13 भाषते तत “एकस्मिन् समये ज्ञातं दृष्टं च भगवान भाषते," इत्येष वचनस्य विकल्पो विशेषो भवदर्शने न भवतीति गृयतां । क्रमतोऽक न चान्यतरकालेऽन्यतरोपलक्षणादुपसर्जनतया विषयान्तरग्रहणाचोक्तवचनविकल्पोपपत्तिः, एवं सति भ्रान्तच्छवस्थेऽपि तथाप्रयो- मतो वोपयोप्रकरणम् ॥ गप्रसङ्गात् । यदा कदाचित् शृङ्गाग्राहिकया ज्ञानदर्शनविषयस्यैव पदार्थस्य तयुद्धावनुप्रवेशादिति स्मर्तव्यम् । तथा च सर्ववत्वं गद्वयाम्यु१११२॥ न सम्भवतीत्याह-"अण्णायं पासतो, अदिटुं च अरहा विषाणतो। किं जाणइ किं पासइ, कह सवण्णू त्ति वा होइ॥२-१३॥" दागमे भगकअज्ञातं पश्यन्नदृष्टं च जानानः किं जानाति किं वा पश्यति न किञ्चिदित्यर्थः । कथं वा तस्य सर्वज्ञता भवेत् | तो ज्ञातहन कथमपीत्यर्थः । ज्ञानदर्शनयोषियविधयकसंख्याशालिवादप्येकत्वमित्याह-"केवलनाणमणतं. जहेव तह दंसणं पि पण्ण ॥ भाषित्वा सागारग्गरणाहि य, णियमपरि अणागारं ॥२-१४॥" यद्येकत्वं ज्ञानदर्शनयोर्ने स्थाचदाऽल्पविषयत्वादशेनमनन्तं न स्यादिति संमवदोष"अर्णते केवलनाणे अर्णते केवलदसणे" इत्यागमविरोधः प्रसज्येत. दर्शनस्य हि जानाद्भेदे साकारग्रहणादनन्तर्विशेषयति- सस्य निरूर ज्ञानादनाकार सामान्यमात्रावलम्बि केवलदर्शनं, यतो नियमेनैकान्तेनैव परीतमल्यं भवतीति कृतो विषयाभावादनन्तता। न चाणम ॥ कि उभयोस्तुल्यविषयत्वाविशेषेऽपि मुख्योपसर्जनभावकृतो विशेष इति वाच्यं, विशेषणविशेष्यभावेन तत्चनपजनितवैज्ञानिकसम्बन्धा षयसंख्या वच्छिन्नविषयतया वा तत्र कामचारात् । आपेक्षिकस्य च तस्यास्मदादिबुद्धावेवाधिरोहात् । एतच्च निरूपितं तत्वं “जज जे जे भावे" विचारणा इत्यादि(आवश्यक)नियुक्ति(२८२)गाथाया नयभेदेन व्याख्याद्वयेऽनेकान्तब्यवस्थायामस्माभिः(पत्र ८३२) अक्रमोपयोग-18 aat द्वयवादी तु प्रकृतगाथायां साकारे यद्ग्रहणं दर्शन तस्य नियमोऽवश्यम्भावो यावन्तो विशेषास्तावन्त्यखण्डसखण्डोपाधिरूपाणि जाति पि ज्ञानदर्श R नयोरक्यरूपाणि वा सामान्यानीति हेतोस्तेनापरीतमनन्तमित्यकारप्रश्लेषेण व्याचष्टे, क्रमवादे ज्ञानदर्शनयोरपर्यवसितत्वादिकं नोपपद्यत इति kसमर्थन । ११२॥ MECHARAKHTARNAGAR Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S a kanda Acharya ShatkadassigaisanGyanmantire DESCRed यदुक्तं तत्राक्षेपमुट्टय समाधत्ते-" भण्णइ जह चउनाणी, जुज्जइ णियमा तहेव एवं पि । भण्णइ ण पंचनाणी, जहेव अरहा तद्देयं केवल जानपि ।।२-१५॥" भण्यते आक्षिप्यते यथा क्रमोपयोगप्रवृत्तोऽपि मत्यादिचतुर्सानी तच्छक्तिसमन्वयादपर्यवसितचतुर्तानी निरूपणे ॐ ज्ञातदृष्टभाषी ज्ञाता द्रष्टा च नियमेन युज्यते । तथैतदप्येकत्ववादिना यदपर्यवसितत्वादिक्रमोपयोगे केवलिनि प्रेयते, तदपि साव- पयोगक्रम दिककेवलज्ञानदर्शनशक्तिसमन्वयादुपपद्यत इत्यर्थः । भण्यतेज़ोत्तरं दीयते-यथैवाईन्न पश्चज्ञानी, तथैवैतदपि क्रमवादिना वादिविहियदुच्यते, 'भेदतो ज्ञानवान् दर्शनवांश्च,' तदपि न भवतीत्यर्थः । मत्याद्यावरणक्षयेऽप्येकदेशग्राहिणो मतिज्ञानादेरिव, दर्शनावरण- तस्य दोषोक्षयेऽपि तादृशदर्शनस्य केवलिनि भेदेनानुपपत्तेरिति भावः । इयांस्तु विशेष:-यदभेदेनापि केवलज्ञाने दर्शनसंज्ञा सिद्धान्तसम्मता, ४.द्धारस्य सान तु मतिज्ञानादिसंज्ञेति, तत्र हेतू अन्वर्थोपपत्त्यनुपपत्ती एव द्रष्टव्ये । अयं च प्रौढिवादः, वस्तुतः क्रमवादे यदा जानाति तदा क्षेपं परिपश्यतीत्यादरनुपपत्तिरेव, आश्रयत्वस्यैवाख्यातार्थत्वात् । लब्धेस्तदर्थत्वे तु घटादर्शनवेलायामपि घर्ट पश्यतीतिप्रयोगप्रसङ्गात्, हरगं घटदर्शनलब्धेस्तदानीमपि विद्यमानत्वात् । चक्षुष्मान् सर्व पश्यति, न त्वन्ध' इत्यादौ त्वगत्या लब्धेर्योग्यताया वाऽऽल्यातार्थत्वमभ्युपगम्यत एव, न तु सर्वत्राप्ययं न्यायः, अतिप्रसङ्गात् । न च सिद्धान्ते विना निक्षेपविशेषमप्रसिद्धार्थे पदवचिरवधायेते, षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वादिकमपि मतिज्ञानादेर्लब्ध्यपेक्षयैवेति दुर्वचं, एकस्या एव क्षयोपशमरूपलब्धेस्ताव कालमनवस्थानात् , द्रव्याद्यपेक्षया विचित्रापरापरक्षयोपशमसन्तानस्यैव प्रवृत्युपगमात् । किं त्वेकजीवावच्छेदेनाज्ञानाविरि क्तविरोधिसामग्र्यसमवहितषट्षष्टिसागरोपमक्षणत्वच्याप्यस्वसजातीयोत्पत्तिकत्वे सति तदधिकक्षणानुत्पत्तिकस्वसजातीयत्वरूप | तत्पारिभाषिकमेव वक्तव्यं, एवमन्यदप्यूह्यम् । क्रमेण युगपद्धा परस्परनिरपेक्षस्वविषयपर्यवसितज्ञानदशेनोपयोगी केवलिन्पसा SHKURTESHIRRSPRUCHSCREECHIRSASCASAR T ROCIRCResult Fat PW And Penal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावान- C प्रकरणम्॥ ॥१३॥ POLKHPURes 8. र्थत्वान्मत्यादिज्ञानचतुष्टयवत्र स्त इति दृष्टान्तभावनापूर्वमाह-"पण्णवणिज्जा भावा, समत्तसुअनाणदसणाविसओ। ओहिमणपज्ज-131 यत्वान्मत्लापक्षाएe केवलज्ञानवाण य, अण्णोष्णविलक्खणाविसओ ॥२-१६॥ तम्हा चउविभागो, जुज्जइ ण उ नाणदसण जिणाणं । सयलमणावरणमणं- निरूपणे तमक्खयं केवलं जम्हा॥२-१७"प्रज्ञापनीया शब्दाभिलाप्या भावा द्रव्यादयः समस्तश्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गवाक्यात्मकस्य केनलज्ञानदर्शनाया दर्शनप्रयोजिकायास्तदुपजाताया बुद्धेः विषय आलम्बन, मतेरपि त एव शब्दावसिता विषया द्रष्टव्याः, शब्दपरिक- दर्शनयोरनामणाहितक्षयोपशमजनितस्य ज्ञानस्य यथोक्तभावविषयस्य मतित्वान्मतिश्रुतयोरसर्वपर्यायसर्वद्रव्यविषयतया तुल्यार्थत्वप्रतिपाद- GI बरणत्वादिनाच,अवधिमनःपर्याययोः पुनरन्योन्यविलक्षणा भावा विषयः, अवधे रूपिद्रव्यमात्र, मनःपर्यायस्य च मन्यमानानि * समस्वरूपद्रव्यमनासीत्यसर्वार्थान्येतानि ।। तस्माचतुर्णा मत्यादीनां विभागो युज्यते तत्तत्क्षयोपशमप्रत्ययभेदात, न तु जिनानां त्वेनाण्यैक्यज्ञानदर्शनयोः । 'नाणदंसण चि' अविभक्तिको निर्देशः सूत्रत्वात् । कुतः पुनरेतदित्यत आह, यस्मात् केवलं सकलं परिपूर्ण । मितिसमर्थितदपि कृतः १ यतोऽनावरणं,न बनावृतमसकलविषयं भवति । न च प्रदीपेन व्यभिचारः,यतोऽनन्तमनन्तार्थग्रहणप्रवृत्तं । तदपि तम् ॥ कुतः १ यतोऽक्षयं,क्षयो हि विरोधिसजातीयेन गुणेन स्यात्तदभावे तस्याक्षयत्वंततश्चानन्तत्वमनवद्यमिति भावः। तस्मादक्रमोपयोगद्वयात्मक एक एव केवलोपयोगः । तत्रैकत्वं व्यक्त्या, द्वयात्मकत्वं च नृसिंहत्ववदांशिकजात्यन्तररूपत्वमित्येके । माषे स्निग्धोष्णत्ववद्वयाप्यवृत्तिजातिद्वयरूपमित्यपरे । केवलत्वमावरणक्षयात्, ज्ञानत्वं जातिविशेषो, दर्शनत्वं च विषयताविशेषो, दोषक्षयजन्यतावच्छेदक इति तु वयम् । ननु भवदुक्तपक्षे 'केवली गं' इत्यादिसूत्रे 'जं समयं' इत्यादौ यत्समकमित्याद्यों न सर्वस्वरससिद्धा,तादृशप्रयोगान्तरे तथाविवरणाभावात्,तथा (भगवतीशतक १८ उद्देश १०) नाणदसणयाए दुवे अहं' इत्याद्या Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P योरमेदवा REPARATORS गमविरोधोऽपि, यद्धर्मविशिष्टविषयावच्छेदेन भेदनयापणं तद्धर्मविशिष्टापेक्षयैव द्वित्वादेः साकांक्षत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गादि- कवलज्ञानत्याशय युक्तिसिद्धा सुत्रार्थों ग्राह्यस्तेषां स्वसमयपरसमयादिविषयभेदेन विचित्रत्वादित्यभिप्रायवानाह-" परवत्तव्ययपक्खा, निरूपणे केवअविसुद्धा तेसु तेसु अत्थेसु । अत्थगइओ अ तेसिं, विअंजणं जाणओ कुणइ ॥२-१८॥" परेषां वैशेषिकादीनां यानि दलज्ञानदर्शनवक्तव्यानि तेषां पक्षा अविशुद्धास्तेषु तेष्वर्थेषु सूत्रे तत्तभयपरिकर्मणादिहेतोनिबद्धाः। अर्थगत्यैव सामध्येनैव तेषामर्थानां व्यक्तिं सर्वप्रचादमूलद्वादशाङ्गाविरोधेन ज्ञको ज्ञाता करोति । तथा च 'जं समयं' इत्यादेर्यथाथुतार्थे केवली श्रुतावधिमनःपर्याय-3 | दिनं प्रत्याकेवल्यन्यतरो ग्राह्य, परमावधिकाधोवधिकच्छ अस्थातिरिक्तविषये स्नातकादिविषये वा तादृशसूत्रप्रवृत्तौ तत्र परतीर्थिकवक्तव्य- पादितस्म ताप्रतिबद्धत्वं वाच्यमेवमन्यत्रापीति दिक् । केवलनाणे केवलदसणे' इत्यादिभेदेन सूत्रनिर्देशस्यकार्थिकपरतैवेत्यभिप्रायेणो भगवतीविपक्रमते-"जेण मणोविसयगया-ण सणं णत्थि दबजादाणं ।। तो मणपञ्जवनाणं, नियमा नाणं तु णिहिटुं ॥२-१९॥" रोषस्य सोयतो मनःपर्यायज्ञानविषयगतानां तद्विषयसमूहानुप्रविष्टानां परमनोगव्याविशेषाणां बाशचिन्त्यमानार्थगमकतापयिकविशेष- पपत्तिकः रूपस्यैव सद्भावाद् दर्शनं सामान्यरूपं नास्ति, तस्मान्मनःपर्यायज्ञानं ज्ञानमेवागमे निर्दिष्टं,ग्राह्यसामान्याभावे मुख्यतया परिहारः तहणोन्मुखदर्शनाभावात् । केवलं तु सामान्यविशेषोभयोपयोगरूपत्वादुभयरूपकमेवेति भावः। सूत्रे उभयरूपत्वेन परिपठितत्वाद निर्देशभेदप्युभयरूपं केवलं, न तु क्रमयोगादित्याह(द्विषयभेदाद्वेत्यभिप्रायवानाह)-"चक्खुअचक्खुअवधिके-वलाण समयम्मि दसणवि स्य तात्पर्य अप्पा ॥ परिपठिआ केवलना-णदसणा तेण विय(ते) अण्णा ॥२-२०॥" स्पष्टा । चक्षुरादिज्ञानवदेव केवलं ज्ञानमध्ये पाठात् ज्ञानमपि, दर्शनमध्ये पाठाच दर्शनमपीति परिभाषामात्रमेतदितीति ग्रन्थकृतस्तात्पर्यम् । मतिज्ञानादेः क्रम इव केवलस्याक्रमपि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ ११४ ।। ৬ন৬ল /www.ketatirth.org सामान्यविशेषाजहद्वृत्यैकोपयोगरूपतया ज्ञानदर्शनत्वमित्येकदेशिमतमुपन्यस्यति - "दंसणमुग्गहमेतं, घडोति निव्वन्नणा हवइ नाणं । जह इत्थ केवलाण वि, विसेसणं इत्तियं चैव ॥२- २१॥" अवग्रहमात्रं मतिरूपे बोधे दर्शनं, इदं तदित्यव्यपदेश्यं, घट इति निश्चयेन वर्णना तदाकाराभिलाप इतियावत् । कारणे कार्योपचाराच्च घटाकारा भिलापजनकं घटे मतिज्ञानमित्यर्थः । यथाऽत्रैवं (कं) तथा केवल योरप्येतावन्मात्रेण विशेषः । एकमेव केवलं सामान्यांशे दर्शनं विशेषांशे च ज्ञानमित्यर्थः । एकदेश्येव क्रमिकभेदपक्षं दूषयति- “ दंसणपुचं नाणं, नागणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । तेण सुविणिच्छयामो, दंसणनाणा ण अण्णत्तं ॥ २-२२ ॥ " दर्शनपूर्व ज्ञानमिति उपस्थोपयोगदशायां प्रसिद्धम् । सामान्यमुपलभ्य हि पश्चात्सव विशेषमुपलभत इति, ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्ति कुत्रापि तथाऽप्रसिद्धेः । तेन सुविनिश्चिनुमः 'दंसणनाणा' इति दर्शनज्ञाने नान्यत्वं न क्रमापादितभेदं केवलिन भजतइति शेषः । क्रमाभ्युपगमे हि केवलिनि नियमाज्ज्ञानोत्तरं दर्शनं वाच्यं सर्वासां लब्धीनां साकारोपयोग प्राप्त (प्य)त्वेन पूर्व ज्ञानोत्पच्युपगमौचित्यात् । तथा च ज्ञानहेतुकमेव केवलिनि दर्शनमभ्युपगन्तव्यं, तच्चात्यन्तादर्शनव्याहतमिति भावः । यत्तु क्षयोपशमनिबन्धनक्रमस्य केवलिन्यभावेऽपि पूर्व क्रमदर्शना राज्जातीयतया ज्ञानदर्शनयोरन्यत्वमिति टीकाकृद्वयाख्यानं, तत्स्वभावभेदतात्पर्येण सम्भवदपि दर्शने ज्ञाननिमित्तत्वनिषेधानतिप्रयोजनतया कथं शोभत इति विचारणीयम् । ननु यथा परेषां कल्पितः क्रमो वर्णनिष्ठो बुद्धिविशेषजनकतावच्छेदकोऽस्माकं च भिन्नाभिन्नपर्यायविशेषरूपः, तथा केवलिज्ञानदर्शननिष्ठस्तादृशः क्रम एवावरणक्षयजन्यतावच्छेदकः स्यादिति नोक्तानुपपत्तिरिति चेत्, न, वर्णक्रमस्य क्रमवत्प्रयत्नप्रयोज्यस्य सुवचत्वेऽप्यक्रमिकात्ररणक्षयप्रयोज्यस्य केवल्युपयोग क्रमस्य दुवैचत्वादनन्यगत्या क्रमिकादप्यावरणद्वपक्षयात् क्रमवदुपयोगोत्पत्यभ्युपगमे For Print And Personal Use Only Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir केवलज्ञानदर्शनयोंमें दाभेदविचारे एकदेशोयन तेन मतिज्ञा नदृष्टान्ततो ज्ञानदर्शनयो भेदविचारः क्रमिकपक्ष निरासश्र ॥ ११४ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sattakcietectices | च तन्नाशकारणाभावादधिकलकारणात्तादृशोपयोगान्तरधाराया अघिच्छेदाच “ सव्वस्स वि केवलिणं)जुगवं दो णस्थि उवओगा" केवलज्ञान| (आव०नि०गाथा ९७९)इति वचनानुपपतिः। न च ज्ञानस्य दर्शनमेवार्थान्तरपरिणामलक्षणो धंस इत्युपयोगाऽयोगपद्यं साम्प्रतम्, निरूपणे साद्यनन्तपर्यायविशेषरूपध्वंसस्यैवावस्थितिविरोधित्वादर्थान्तरपरिणामलक्षणध्वंसस्यातयात्वात् । अन्यथा तत्तत्संयोगविभागादि केवलज्ञानमात्रेणानुभूयमानघटावस्थित्युच्छेदापत्तः । न च "जुगवं दो णत्थि उवओगा" इत्यस्योपयोगयोर्युगपदुत्पत्तिनिषेध एव तात्पर्य, 15 दर्शनोपयोगन तु युगपदवस्थानेऽपीत्युपयोगद्वयधाराणां नाशकारणाभावेन सहावस्थानेऽपि न दोष इति साम्प्रतं, अक्रमवादिनाप्येवं क्रमा यौगपद्यवावच्छिनोपयोगद्वययोगपद्यनिषेधपरत्वस्य वक्तुं शक्यत्वात् , सूत्रासङ्कोचस्वारस्यादरे “यदेव ज्ञानं तदेव दर्शनम्" इत्यस्मदुक्त दिमतेन क्रम स्यैव युक्तत्वादिति दिक। वायुक्तदोष-- मतिज्ञानमेवावग्रहात्मना दर्शन, अपायात्मना च ज्ञानमिति यदुक्तं दृष्टान्तावष्टम्भार्थमेकदेशिना तद्पयन्नाह-"जह उग्ग- परिहार:हमित्तं द-सणंति मण्णसि विसेसिया नाणं ॥मइनाणमेव सण-मेवं सइ होइ णिप्फनं ॥ २-२३॥" यदि मतिरेवावग्रहरूपा स्तुतोऽभेददर्शनं विशेषिता ज्ञानमिति मन्यसे, तदा मतिज्ञानमेव दर्शनमित्येवं सति प्राप्तं । न चैतद्युक्तं, “स द्विविधोऽष्ट- पक्षसमर्थन चतुर्भेद" इति ( तत्वार्थ अध्याय २ सूत्र ९) सूत्रविरोधान्मतिज्ञानस्याष्टाविंशतिभेदोक्तिविरोधाच्च-"एवं सेसिदियदं-समि तत्र चैकदेशि णियमेण होइ ण य जुत्तं ।। अह तत्थ नाणमित्तं, घेप्पड़ चक्खुमि वि तहेव ॥२-२४ ॥" एवं शेषन्द्रियदर्शनेष्वप्यवग्रह मतनिरस एव दर्शनमित्यभ्युपगमेन (गमे नियमेन) मतिज्ञानमेव तदिति स्यात् , तच्च न युक्तं, पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः। अथ तेषु श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु दर्शनमपि भवज्ज्ञानमेव गृह्यते, मात्रशब्दस्य दर्शनव्यवच्छेदकत्वात् , तद्वयवच्छेदश्च तथाग्यवहाराभावात् , GREHABRECIRBARDASRAGAR Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ ॥ ११५ ॥ www.khatirth.org श्रोत्रज्ञानं घ्राणज्ञानमित्यादिव्यपदेश एव हि तत्रोपलभ्यते, न तु श्रोत्रदर्शनं प्राणदर्शनमित्यादिव्यपदेशः क्वचिदागमे प्रसिद्धः, तर्हि चक्षुष्यपि तथैव गृह्यतां चक्षुर्ज्ञानमिति नतु चक्षुर्दर्शनमिति । अथ तत्र दर्शनम्, इतरत्रापि तथैव गृह्यतां युक्तेस्तुल्यत्वात् । कथं तर्हि शास्त्रे चक्षुर्दर्शनादिप्रवाद इत्यत आह-" नाणमपुट्ठे जो अविसए अ अत्यंमि दंसणं होई ॥ मुत्तण लिंगओ जं, अणागयाईयविसएसु ।।२-२५।। " अस्पृष्टेऽर्थे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः स ज्ञानमेव सच्चक्षुर्दर्शनमित्युच्यते इन्द्रियाणामविषये च परमाण्वादावर्थे मनसाय उदेति प्रत्ययः स ज्ञानमेव सदचक्षुर्दर्शनमित्युच्यते । अनुमित्यादिरूपे मनोजन्यज्ञानेऽतिप्रसङ्गमाशङ्कयाऽऽह, अनागतातीतविषयेषु यलिङ्गतो ज्ञानमुदेति 'अयं काल आसन्नभविष्यदृद्दृष्टिकस्तथाविधमेघोन्नतिमत्त्वात्, ' 'अयं प्रदेश आसन्नवृष्टमेघः पूरविशेषवच्चाद्' इत्यादिरूपं तन्मुक्त्वा । इदमुपलक्षणं, भावनाजन्यज्ञानातिरिक्त परोक्षज्ञानमात्रस्य तस्यास्पृष्टाविषयार्थस्यापि दर्शनत्वेनाव्यवहारात् । यद्यस्पृष्टाविषयार्थज्ञानं दर्शनमभिमतं तर्हि मनःपर्यायज्ञानेऽतिप्रसङ्ग इत्याशङ्कय समाधत्ते - "मणपञ्जवनाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं । भन्नइ नाणं णोई दियंमि ण घडादओ जम्हा ॥२- २६ ॥ ' एतेन लक्षणेन मनःपर्यायज्ञानमपि दर्शनं प्राप्तं, परकीयमनोगतानां घटादीनामालम्व्यानां तत्रासच्वनास्पृष्टेऽविषये च घटादावर्थे तस्य भाना (बा)त्, न चैतद्युक्तं, आगमे तस्य दर्शनत्वेनापाठात् । भण्यतेऽत्रोत्तरम् - नोइन्द्रिये मनोवर्गणाख्ये मनोविशेषे प्रवर्तमानं मनःपर्यायबोधरूपं ज्ञानमेव, न दर्शनं, यस्मादस्पृष्टा घटादयो नास्य विषय इति शेषः, नित्यं तेषां लिङ्गानुमेयत्वात् । तथा चागमः (विशेषावश्यक गाथा ८१४ ) - " जाणइ बज्झे णुमाणाओं ति " मनोवर्गणास्तु परात्मगता अपि स्वाश्रयात्मस्पृष्टजातीया एवेति न तदंशेऽपि दर्शनत्वप्रसङ्गः । परकीय मनोगतार्थाकारविकल्प एवास्य ग्राह्यः, तस्य चोभ For Print And Personal Use Only Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmandir केवलज्ञाननिरूपणे केवलज्ञान दर्शनोपयोग प्रसङ्गे मतिज्ञानदर्शन दृष्टान्तेन तत्त्वनिरू पणम् ॥ ।।। ११५ ।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh enda Acharya ShatkailassicaisanGyanmantire SAHARANASI यरूपत्वेऽपि छानस्थिकोपयोगस्यापरिपूर्णार्थग्राहित्वान्न मनःपर्यायज्ञान दर्शनसम्भव इत्यप्याहुः। किं च-"मइसुअनाणणिमित्तो, छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो॥ एगयरंमि वि तेसिं, ण दंसणं दसणं कत्तो ।। २-२७॥" मतिश्रुतज्ञाननिमित्त छद्मस्था. नामर्थोपलम्भ उक्त आगम । तयारेकतस्मिन्नपि न दर्शन सम्भवति । न चावग्रही दर्शन तस्य ज्ञानात्मकत्वात, ततः कुतो दर्शन ?, नास्तीत्यर्थः । ननु श्रुतमस्पृष्टेऽर्धे किमिति दर्शनं न भवेत्तत्राह-"ज पच्चक्खग्गहणं, ण इति सुअनाणसमिया अत्था ।। तम्हा सणसहो, ण होइ सयले वि सुअनाणे ।।२-२८॥" यस्माच्छ्रतज्ञानप्रमिता अर्थाः प्रत्यक्षग्रहणं न यान्ति, अक्षजस्यैव व्यवहारतः प्रत्यक्षत्वात् । तस्मात्सकलेऽपि श्रुतज्ञाने दर्शनशब्दो न भवति । तथा च 'व्यञ्जनावग्रहाविषयार्थप्रत्यक्षत्वमेव दर्शनत्वम् इति पर्यवसन्नम् । प्रत्यक्षपदादेव श्रुतज्ञानवदनुमित्यादेावृत्तौ परोक्षभिन्नत्वे सतीति विशेषणं न देयम् “मुत्तूण लिंगओ जं" इत्युक्तस्याप्यत्रैव तात्पर्य द्रष्टव्यम् । इत्थं चाचक्षुर्देर्शनमित्यत्र नञः पर्युदासार्थकत्वादचक्षु. दर्शनपदेन मानसदर्शनमेव ग्राह्यं, अप्राप्यकारित्वेन मनस एव चक्षुःसदृशत्वान्न घ्राणदर्शनादीति सर्वमुपपद्यते । तथाचावधि दर्शनमपि कथं सङ्गच्छते, तस्य व्यञ्जनावग्रहविषयार्थग्राहित्वेऽपि व्यवहारतः प्रत्यक्षत्वाभावादित्याशङ्कायाः प्रत्यक्षपदस्य व्यवहारनिश्चयसाधारणप्रत्यक्षार्थत्वात् , अवधिज्ञानस्य च नैश्चयिकप्रत्यक्षत्वाव्याहतेः परिहारमभिप्रयन्नाह-"जं अप्पुट्ठा भावा, ओहिन्नाणस्स होंति पच्चक्खा ॥ तम्हा ओहिन्नाणे,दसणसद्दो वि उवउत्तो॥२-२९ ।। स्पष्टा।। उपयुक्तः लब्धनिमित्तावकाशः।। केवलज्ञानेऽपीदं लक्षणमव्याहतमित्याह-“जं अप्पुढे भावे, जाणइ पासइ य केवली णियमा । तम्हा तं नाणं दं-सणं च अविसेसओ सिद्धं ॥२-३०॥” यतोऽस्पृष्टान भावानियमेनावश्यन्तया केवली चक्षुष्मानिय पुरःस्थितं जानाति केवलज्ञाननिरूपणे केवलज्ञानदर्शनोपयोगप्रसङ्गे मतिज्ञानादिदृष्टा न्तेनतत्त्वप्ररूपणम् ॥ Fer Private And Personal use only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh u nda Acharya ShalkattassigarsanGyanmantire श्रीज्ञान केवलज्ञान प्रकरणम् ॥ पश्यति चोभयप्राधान्येन, तस्मात्तत्केवलज्ञानं दर्शनं चाविशेषत उभयाभिधाननिमित्तस्याविशेषात्सिद्धं । मनःपर्यायज्ञानस्य तु व्यजनावग्रहाविषयार्थकप्रत्यक्षत्वेऽपि वाह्यविषये व्यभिचारेण स्वग्राह्यतावच्छेदकावच्छेदेन प्रत्यक्षत्वाभावाम दर्शन निरूपणे त्वमिति निष्कर्षः । अत्र यट्टीकाकृता "प्रमाणप्रमेययोः सामान्यविशेषात्मकत्वेऽप्यपनीतावरणे युगपदुभयस्वभावो बोधः, केवलज्ञानछमस्थावस्थायां त्वनपगतावरणत्वेन दर्शनोपयोगसमये ज्ञानोपयोगाभावादप्राप्पकारिनयनमनःप्रमवार्थावग्रहादिमतिज्ञानो दर्शनोपयोगपयोगप्राकाले चक्षुरचक्षुर्दर्शने, अवधिज्ञानोपयोगप्राक्काले चावधिदर्शनमाविर्भवति" इति व्याख्यातं तदर्धजरतीयन्यायमनुहरति, प्रसङ्गे मतिप्राचीनप्रणयमात्रानुरोधे श्रोत्रादिज्ञानात् प्रागपि दर्शनाभ्युपगमस्यावर्जनीयत्वात् , व्यञ्जनावग्रहार्थावग्रहान्तराले दर्शनानुपलम्मा है ज्ञानादिदृष्टात्तदनिर्देशाच, असङ्ख्येयसामयिकव्यञ्जनावग्रहान्त्यक्षणे "ताहे हुंति करेइ" इत्यागमेनार्थावग्रहोत्पत्तरेव भणनात् , व्यञ्जना भन्तेन तत्त्वप्रवग्रहप्राक्काले दर्शनपरिकल्पनस्य चात्यन्तानुचितत्वात् ॥ तथा सति तपेन्द्रियार्थसनिकर्षादपि निकृष्टत्वेनानुपयोगप्रसङ्गाच, रूपणं नव्यप्राप्यकारीन्द्रियजज्ञानस्थले दर्शनानुपगमे चान्यत्रापि भिन्नतत्कल्पने न किश्चित्प्रमाण, 'नाणमपुढे' इत्यादिना ज्ञानादभेदेनैव दर्श- तार्किकमतनस्वभावप्रतिपादनात, "चक्षुर्वद्विषयाख्यातिः (द्वा-१०-३०)इत्यादिस्तुतिग्रन्थैकवाक्यतयापि तथैव स्वारस्याच । छमस्थज्ञानो- निष्कर्षश्च ॥ पयोगे दर्शनोपयोगत्वेन हेतुत्वे तु चक्षुष्येव दर्शनं नान्यत्रेति कथं श्रद्धेय ? तस्माच्छीसिद्धसेनोपज्ञनब्धमते न कुत्रापि ज्ञानादर्शनस्य कालभेदः, किंतु स्वग्राह्यतावच्छेदकावच्छेदेन व्यञ्जनावग्रहाविषयीकृतार्थप्रत्यक्षत्वमेव दर्शनत्वमिति फलितम् । यदि च चाक्षुषादावपि ज्ञानसामग्रीसामर्थ्यग्राह्यवर्तमानकालायंशे मितिमात्रायंशे च न दर्शनत्वव्यवहारस्तदा विषयताविशेष एव दर्शनत्वं, स च क्वचिदंशे योग्यताविशेषजन्यतावच्छेदका, क्वचिच्च भावनाविशेषजन्यतावच्छेदका, केवले च सर्वाशे आवरण ११६॥ POHORSHIPSCIRECRUARCHSEBR Fer Private And Personal use only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KeCHEMERecketC. क्षयजन्यतावच्छेदक इति प्रतिपत्तव्यं । न च 'अर्थेनैव धियां विशेष' इति न्यायादर्थाविशेषे ज्ञाने विषयताविशेषासिद्धिरिति शकनीयं, अर्थेऽपि ज्ञानानुरूपस्वभावपरिकल्पनात् , अर्थाविशेषेऽपि परैः समूहालम्बनाद्विशिष्टज्ञानस्य व्यावृत्तये प्रकारिताविशेषस्याभ्युपगमाच्च । न हि तस्य तत्र भासमानवैशिष्टयप्रतियोगिज्ञानत्वमेव निरूपकविशिष्टज्ञानत्वं वक्तुं शक्यं, दण्डपुरुषसंयोगा इति समूहालम्बनेऽतिप्रसङ्गात् । न च भासमानं यद्वैशिष्ट्यप्रतियोगित्वं तद्वत् ज्ञानत्वमेव तथा, दण्डपुरुषसंयोगप्रतियोगित्वानुयोगित्वानीति शाने दण्डविशिष्टज्ञानत्वापत्तेः । न च स्वरूपतो भासमानमित्यायुक्तावपि निस्तारा, प्रतियोगित्वादेरतिरिक्तत्वे प्रकारित्वादेाननिष्ठस्य कल्पनाया एवं लघुत्वात् । अनतिरेके तु दण्डदण्डत्वादिनिर्विकल्पकेऽपि दण्डादिविशिष्टज्ञानस्खापत्तेः। एतेन 'स्वरूपतो भासमानेन वैशिष्टयेन गर्भितलक्षणमपि'अपास्तम्, संयुक्तसमवायादेः सम्बन्धत्वे स्वरूपत इत्यस्य दुवेंचत्वाच । तस्मात्पराभ्युपगतप्रकारिताविशेषवदाकारविशेषः स्याद्वादमुद्रयाऽर्थानुरुद्धस्तदननुरुद्धो वा ज्ञाने दर्शनशब्दव्यपदेशहेतुरनाविलस्तरसमय एवार्थज्ञानयोरविनिगमेनाकाराकारिभावस्वभावाविर्भावादित्येष पुनरस्माकं मनीषोन्मेषः ॥ तस्माद्वयात्मक एक एव केवलावबोध इति फलितं स्वमतमुपदर्शयति-"साईअपञ्जवसियं, ति दोषि ते ससमयं हवइ एवं।।परतित्थियवत्तव्यं, च एगसमयंतरुप्पाओ ॥२-३१॥" साद्यपर्यवसितं केवलमिति हेतोझै अपि ज्ञानदर्शने ते उभयशब्दवाच्यं तदिति यावत् । अयं च स्वसमयः स्वसिद्धान्तः । यस्त्वेकसमयान्तरोत्पादस्तयोभण्यते, तत्परतीथिंकशास्त्रं, नाईद्वचनं, नयाभिप्रायेण प्रवृत्त्वादिति भावः । एवम्भूतवस्तुतत्वश्रद्धानरूप' सम्यग्दर्शनमपि सम्यग्ज्ञानविशेष एव, सम्यग्दर्शनत्वस्यापि सम्यग्ज्ञानत्वव्याप्यजातिविशेषरूपत्वाद्विपयताविशेषरूपत्वाद्धेत्याह-"एवं जिणपण्णचे, सद्दहमाणस्स भावओ भावे ।। पुरिसस्सा OMPORAREECRECRECIPIERRORE केवलज्ञाननिरूपणे केवलज्ञानदएशिनद्वयात्मक एक एव केव लोपयोग इति ६ निश्चित श्री सिद्धसेन दिवाकरमतफलि तप्रदर्शनम् ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh enda Acharya ShalkattassigarsanGyanmantire केवलज्ञान श्रीज्ञान बिन्दु प्रकरणम् ॥ 1॥११७॥ R भिणिबोहे, सणसद्दो हवइ जुत्तो ॥२-३२॥" जिनप्रज्ञप्तभावविषयं समूहालम्बनं रूचिरूपं ज्ञानं मुख्य सम्यग्दर्शनं तद्वासनो पनीतार्थविषयं घटादिज्ञानमपि भाक्तं तदिति तात्पर्याथैः ।। ननु सम्यग्ज्ञाने सम्यग्दर्शननियमबद्दर्शनेऽपि सम्यग्ज्ञाननियमः कथं। न स्यादित्यत्राह-"सम्मन्नाणे णियमे-ण दंसणं देसणे उ भयणिज्ज ।। सम्मन्नाणं च इम, ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥ २-३३॥" सम्यग्ज्ञाने नियमन सम्यग्दर्शन, दर्शने पुनर्भजनीयं विकल्पनीयं, सम्यग्ज्ञानं एकान्तरुचौ न सम्भवति, अनेकान्तरुचौ तु समस्तीति । अतः सम्यग्ज्ञानं चेदं सम्यग्दर्शनं चेत्यर्थः, अर्थतः सामर्थ्य नै (र्थ्यादे)कमेवोपपमं भवति । तथा च सम्यक्त्वमिव दर्शनं ज्ञानविशेषरूपमेवेति नियूंढम् । (अथ ग्रन्धकृत्प्रशस्तिः ) प्राचां चाचां विमुखविषयो-न्मेषसूक्ष्मेक्षिकायां, येरण्यानी-भयमधिगता नव्यमार्गानभिज्ञाः॥ तेषामेषा समयवणिजां सम्मतिग्रन्थगाथा, विश्वासाय स्वनयविपणिप्राज्यवाणिज्यवीथी । १॥ भेदग्राही(हि) व्यवहृतिनयं संश्रितो मल्लवादी, पूज्याः प्रायः करणफलयोः सीम्नि शुद्धर्जुसूत्रम् ॥ भेदोच्छदोन्मुखमधिगतः सङ्ग्रहं सिद्धसेन-स्तस्मादेते न खलु विषमाः सूरिपक्षास्त्रयोऽपि (मी) ॥२॥ चित्सामान्य पुरुषपदभाकवलाख्ये विशेषे, तद्रूपेण स्फुटमभिहितं साद्यनन्तं यदेव ।। __ सूक्ष्मैरंशः क्रमवदिदमप्युच्यमानं न दुष्टं, तत्सूरीणामियममिमता मुख्यगौणव्यवस्था ।। ३ ।। तमोऽपगमचिजनुःक्षणभिदानिदानोद्भवाः, श्रुता बहुतराः श्रुते नयविवादपक्षा यथा ॥ तथा क इव विस्मयो भवतु सूरिपक्षत्रये, प्रधानपदवी धियां क नु दवीयसी दृश्यते ॥ ४ ॥ TOSEBERROREGERMA निरूपणेकेवलज्ञानदर्शनयोरमिनत्वप्ररूप कसम्मतिगाथाकदम्बो पसंहारः | प्रशस्तौ च स्याद्वादमते नयभेदेन पक्षत्रयनिदीतापरूपण. मनेकान्तमाहात्म्यपदर्शनश्च ॥ ECHECK 131११७॥ Fer Private And Personal use only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh enda Acharya ShaikailassicarsanGyammandir स्वाद्वादमाहात्वं ग्रन्थस्तो गुरुपरपराप्रशस्ति च॥ ASIASHARA BBREC प्रसघ सदसत्त्वयोन हि विरोधनिर्णायकं, विशेषणविशेष्ययोरपि नियामकं यत्र न ॥ गुणागुणविभेदतो मतिरपेक्षया स्यात्पदा, किमत्र भजनोजिते स्वसमये न सङ्गच्छते ॥५॥ प्रमाणनयसङ्गता स्वसमयेऽप्यनेकान्तधी-नेयस्मयतटस्थतोल्लसदुपाधिकिमीरिता॥ कदाचन न बाधते सुगुरुसम्प्रदायक्रम, समञ्जसपदं वदन्त्यरूधियो हि सद्दर्शनम् ॥६॥ रहस्य जानन्ते किमपि न नयानां हतधियो, विरोधं भाषन्ते विविधबुधपक्षे बत खलाः ।। अमी चन्द्रादित्यप्रभू(कृ)तिविकृतिव्यत्ययगिरा(रो), निरातङ्काः कुत्राप्यहह न गुणान्वेषणपराः ॥७॥ स्याद्वादस्य ज्ञानबिन्दोरमन्दा-न्मन्दारद्रोः कः फलास्वादगः ॥ द्राक्षासाक्षात्कारपीयूषधारा-दारादीनां को विलासश्च रम्यः॥८॥ गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोःस्वच्छे गुणानां गणैः, प्रौढिं प्रौढिमधानि जीतविजयाः प्राज्ञाः परामैयरुः॥ तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशु-स्तत्त्वं किश्चिदिदं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान् ९ ॥ इति श्रीज्ञानविन्दुप्रकरणं समाप्तम् ।। प्रभूतावधानधारि-कूर्चालसरस्वती-न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्यायश्रीयशोविजयग[णिप्रणीते अपूर्णावस्थं सविवरणं १ श्रीज्ञानार्णवप्रकरणं २ पूर्ण श्रीज्ञानबिन्दुप्रकरणं च सम्पूर्णे || RECEIReci Fer Private And Personal use only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sh u nda Acharya ShalkattassigarsanGyanmantire RX छ शुद्धिपत्रकम् बानार्णवछानबिन्दु ॥११८ ॥ बन्धनं . 9COME ।। सूचना-पंक्त्यङ्कः चतुर्दशसंख्यां याक्त प्रथमपृष्ठस्य, तदुपरितनी च संख्या द्वितीयपृष्ठस्य ॥ ॥श्री ज्ञानार्णव-ज्ञानबिन्दु ग्रन्थद्वयशुद्धिपत्रकम् ॥ moooooor अशुद्धम् शुद्धम् पत्रं पक्ति भशुद्धम् शुद्धम् पत्रं पंक्तिः | अशुभम् स्वावंशपेण त्वविशेषण २२३ निरूपणोपयि निरूपणौपयि १७ २२|बन्धी योधक स्वस्य चोधिकस्यस्य ५१९वद्भिरा बद्राि (भङगुरा) २१ १ मिश्चित निधित वृति झानत्व वृसिहानत्व ६९ वानवृत्तिनवृत्ति २५ ३ ग्यदेव, न्यदेतत्, भूतस्यो श्रुतस्येप तस्यो ७१ अदिति षपथदिति ३२७ | भ्यूनम भ्युपगम रेग्यव रेव्यपस्थापित, व्यथ७२० पयुक्ता एव" इत्युक्ता ३६२१ षिपर्गत विपरीत न च व्यक्त नचाऽव्यक्त हङ्कोन्द्रिय कारेन्द्रिय ३७ १९ झान ज्ञानो __ज्ञानाज्ञानो तापानुर नात्पर्यानुप कचिदज्ञान क्वचिद्ज्ञान १११५ द्रापारीणाम द्रोहपरिणाम ३८ पतितया पातितया योलब्धिः भबनादेरस भवनोदरत ३९ योपब्धिः मवे तथास्वाद, नधास्वाद, मेव गम्य पत्र योगेन यागेन मयस्याकृत्यं नयस्य कृत्य तत्र, तन्त्र, स्पातयु त्यत्तिर्यु नुपतधेप नुपपत्तेच तन्नेत ता, पतद १३२० जिगरस विम्गयस्त सीद्वपय विषय ७२७ युद्धया दुन्या तन अर्भारवः अभीरवः अनुपअनुपयु- १६२. विशेष्याव विशेषयताष ६. २५ बरयेन ज्यान o0oo न GRAND Fer Private And Personal use only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shin Mataan A nak Gyan