Book Title: Alpaparichit Siddhantik Shabdakosha Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N. NI I N 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nama Doord a da.... s omemummmmmmmmmmmmmmmmad .... ..... ..com.dada.oooom..doam... ...ORA ..... . Maitacode FApropaper S ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ श्रेष्ठि-देवचन्दलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १०१॥ आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनंदसागरसूरिसङ्कलितः HOOOOOOOOOOOOOOOODaaaaaaa ..sdbooodaiDOOR ..... Poo." अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ।। a .. ...boora (प्रथमः स्वरपर्यन्तो विभागः) सम्पादको-आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरान्तेवासिनौ ___ कञ्चनविजय-क्षेमङ्करसागरौ। संग्राहकः-आगमोद्धारकान्तेवासी गुणसागरः । प्रकाशकः-सुरतवास्तव्य-श्रेष्ठि-देवचन्दलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारकोशस्यावैतनिक-( कार्यवाहकः-चोकसी मोतीचंद मगनभाई। .. aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaanduadi.com Dombivosdodotcmddubbccanadba MORE DonbodoosanbounuoudhaJanardanoondoRODood PROPermoOK. DARI वीराब्दः २४८०। वैक्रमाऽन्दः २०१०। शाकाब्दः १८७६। ख्रिस्ताब्दः १९५४ Good Pampaqamme प्रथमं संस्करणम् ] निष्क्रयः रुप्यषट्कम् । [प्रतयः ५०० 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं पुस्तकं सूर्यपुरे श्रेष्ठि-देवचन्दलालभाई जैनपुस्तकाद्धारसंस्थाया अवैतनिककार्यवाहक-मोतीचंद-मगनभाई चोकसी इत्यनेन सरस्वतीमुद्रणालये, गोपीपुरा, मुद्रणमन्दिरे बालुभाई हीरालाल लालनद्वारा मुद्रापितम्। अस्य पुनर्मुद्र गाद्याः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकैरायत्तीकृताः। All Rights Reserved By The Trustees of the Fund. Printed By :Balubhai Hiralal Lalan at the 'Sarasvari Mudranlaya' Gopipura, Surat, Published By Sheth :-Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund, At Sheth Devchand Lalbhai Jain Boarding House for Shri Ratansagarji Jain Boarding, Badekhan Chakla, Gopipura, Surat. By the Hon: Managing Trustee, Motichand Maganbhai Choksi. 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE LATE SHETH DEVCHAND LALBHAI JAVERI. BORN 1853 A. D. SURAT. DIED 13TH JANUARY 1906 A. D.. BOMBAY श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जहवेरी. जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे । निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्दे कार्तिकशुक्लैकादश्यां (देवदीपावलीदिने) पौषकृष्णतृतीयायाम (मकरसंक्रान्ततिथौ) सूर्यपूरे. मोहमयीनगर्याम. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sheth Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund Series No. 101 Shree Alpaparichit Saidhantik Shabda - Kosh. FIRST PART ( A TO AOU] -: Author :Agmoddharak Acharya Shree Anandsagarsarishwarji i : Editor :Agmoddharak Shree Anandsagarsurishwarji 's Sishyo Muni Kanchanvijay and Muni Kshemankarsagar Collected: SHREE GUN SAGARJI SHREE ANANDSAGARSURISHWARJI'S ANTEWASI -: Publisher :Motichand Maganbhai Choksi Managing Trustee For :Sheth DEVCHAND LALBHAI JAIN PUSTAKODDHAR FUND SURAT First Edition ) Vikram Samvat 2010. Price Rs. 6-0-0 Copies 500 Christation Era 1954. 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Board of Trustees: Nemchand Gulabchand Derchand Zaveri Talakchand Motichand Babubhai Premchand Amichand Zaverchand Keshrichand Hirachand Motichand Maganbhai Choksi Hon. Managing Trustee. 卐 संस्थानुं ट्रस्टी मंडळ :श्री नेमचंद गुलाबचंद देवचंद झवेरी ,, तलकचंद मोतीचंद ,, बाबुभाई प्रेमचंद ,, अमीचंद झवेरचंद ,, केशरीचंद हीराचंद ,, मोतीचंद मगनभाई चोकसी ऑन. मेनेजींग ट्रस्टी . 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष प्रथमो विभागः Sy n onyakuTS MAINS सङ्कलयिता :आगमोद्धारक-आचार्य श्रीआनन्द सागरसूरीश्वरजी प्रकाशक:शेठ देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार फण्डस्य कार्यवाहक :चोकसी मोतीचंद मगनभाई : सुरत. चित्र परिचय :हिन्दुस्तानना नक्शामां आवेला तीर्थानो (१) श्री सिद्धाचळजी. (२) श्री तारंगाजीनु जिनालय. (३) श्री चितोडनो किर्तिस्तंभ. Jainpucation.ormational 2010_05 . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ-देवचंद-लालभाई-जैनविद्यार्थी भुवन जेमां शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोध्धार फंड तरफथी पुस्तकालय अने प्रसिद्धथतां पुस्तकोनो संग्रह अने वेचाण थाय छे. गोपीपुरा, बडेखांनो चकलो, सुरत. 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आ अवसर्विणी कालना दुःपम आरामां चरमशासनपति श्रमण भगवान महावीर स्वामीना शासनमां शासनना पुण्य प्रतापे ते ते समये आचार्य भगवंतो 'आगम' वगेरे साहित्यनो उद्धार, पुनरूद्धार करीने आ कलिकालमां वीसमी सदीमा जे विद्यमान राख्युं छे ते आपणुं अहोभाग्य छे. तेथी तेवा साहित्यने प्रकाशन करवा माटे अमारी आ संस्था सं. १९६४मां प. पू. आगमोद्धारक गुरुदेवधीना उपदेशथी स्थपाई हती. आ संस्था मारफत अमे आज सुधी १०० ग्रन्थो प्रकाशीत करी चूक्या छीअने अमे १०१मा ग्रन्थाङ्क तरीके श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषना नामे आ ग्रन्थने सहर्ष प्रगट करीओ छीओ. तारक आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीए आ कलिकालना विषम वातावरणमां आगमोनो बोध दुर्बोध न थई जाय ते हेतु आगमोदयसमितिनी स्थापना करावी अने आगमवाचना आपवान कयु. तेथी ते समिति आगमो छपाववान काय शरू कर्यु. तेमज आ संस्थाए पण अनुयोगद्वार वगेरे आगमो छपाव्या. ते वखते अने पछीथी आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीर आगमोना जुदा जुदा विषयो तारवतां 'आगमकोष'नो पण अक विषय तारव्यो हतो अने कोष छपाववो हतो. आ विचारोत्पत्ति आजथी पांत्रीस वर्ष पहेलां थई हति प. ता. गुरुदेवश्रीना सदुपदेशथी नीचेना सद्गृहस्थो तरफथी नीचेनी रकमो अमारी संस्थाने मळी हती. ते आ प्रमाणे - १. अमदावादिनिवासी शा. डाह्याभाई पीतांबरदास रू. १५०१. २. सुरतनिवासी झवेरी सोभागचंद सुरचंद रू. १००१. ३ सुरतनिवासी झवेरी सांकळचंद सुरचंद रू. ५०१. आचार्य देवनो विहार माळवा, बंगाळ तरफ लंवायो होवाथी ते कार्य घणी मुदत सुधी पडी रघु हतुं. ते (छपायवान कार्य ) अमे आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी संमतिथी शरू कयु. आ नीर्णय सं. २००४मां थयो. आथी प. ता गुरुदेवश्रीनी आज्ञा अनुसार पू. मुगिमहाराज श्रीगुणसागरजी पासेथी श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनुं प्रेस मेटर अमे मेळव्युं. ते श्रीसरस्वतीमुद्राणालय, सुरतमां छपाचवा माटे आप्यु अने तेनुं संपादन करवा माटे मुनिमहाराज श्रीकंचनविजयजी तथा श्रीक्षेमकरसागरजीने विनंति करी. तेओश्रीओ आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना अनन्य पटघर, विद्याव्यासंगी, श्रुतस्थविर, आचार्य महाराज श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजनो संयोग मल्यो त्यां सुधि प्रूफ वंचायवा पूर्वक अने ते पछीथी स्वतंत्रपणे (ते मुनिवर्योओ) आ संपादन कार्य कयु तेथी अमो आ अद्वितीय आगमतलस्पर्शीज्ञाता, आगामतत्त्व पारदृश्वा, आगमज्योतिर्धर, शासनसंरक्षणवद्धकक्ष, तत्त्वशिरोमणि, आगमाव्युवित्तिकर शिलाताम्रपत्रोत्कीर्णागमकारापक, गंभीरानेकग्रन्थप्रणेता, अन्त्यसमये पक्षावधि अर्धपद्मासनस्थायी, ध्यानस्थस्वर्गत 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारक आचार्यवर्य श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजे 'संकलित' करेलो श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनो 'संपूर्ण स्वर' सुधीनो पहेलो भाग सहर्ष प्रकाशित करीए छीए. आ संस्थाना प्रथम पुस्तकना संपादक तरीके पण आचार्य देव श्रीआणंदसागरसूरिश्वरजी म हता अने बीजा सेंकडानी शरुआतना प्रथम पुस्तक तरीके पण तेओश्रीनो संकलीत अमूल्य कोष प्रसिद्ध करीए छीए. कोषनी विशिष्टता अंगे संपादकिय निवेदनमा घणु का छे, छतां अमारी संस्थाए आना प्रकाशनमां वधारे रस लीधो तेनु मुख्य कारण ए छे, के आज सुधी छपायेला प्राकृतकोषोमां अभिधानराजेन्द्रकोष, पाइयसद्दमहण्णवो आदि केटलाक कोषो छे पण तेमां न्यूनाधिकरुपे विचार करतां उपयोगितामा बाध आवे छे-जेमके अभिधान राजेन्द्र कोष प्रमाणमां एटलो बधो मोटो छे के तेमांथी कोइ शब्द शोधवा माटे वधारे परिश्रम पडे अने छपाईमां के सम्पादनमा त्रुटी रहेवाने लीधे सूत्रो अने ते ते प्रकरणो घणा परिश्रम पछी पण जडतां नथी पाईयसद्दमहण्णवोमां जैनसैद्धान्तिक शब्दो उपर वधारे भार मूक्यो होय तेम जणातुं नथी. पण प्रस्तुत ग्रन्थमां कोई पण जैन के जेनेतर विद्वान् प्रवलित जन पारिभासिक शब्दोनो यथार्थ परिचय ढूंकमां अने सहेलाइथी प्राप्त करी शके एवी तक छे, तथा मुनिराजो पण अन्य सम्पादनना कार्योमां सहायता लइ शके तेम पण छे. अमे इच्छीए छीए के आना प्रकाशनने विद्वज्जनो योग्य आदर करशे ज. __ आ कोषने अंगे संज्ञाओनी समजणो तथा ते ते ग्रन्थोनां पानांओनी सूची पण संपादक पू. महाराजोए आपी छे. ते अंगे 'संपादकीय' यांचया वांचक वर्गने अमारी विनंति छ. आ ग्रन्थना संकलनाकार प पू. आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीनुं स्तोत्र सुमनोहर गूंथी ग्रंथने अलंकृत करनार सदा झानोद्यमीव्याकरण-साहित्य-न्यायविसारद x x x x नो उपकार मानीए छीए. अमारा प्रकाशन कार्यमा जे जे महाशयोए अमने मदद करी छे ते ते महाशयोना अमे ऋणी छीए. वि. सं. २०१० लि० भवदीय आशो सुद १५ विजयादशमि मोतीचंद मगनभाई चोकसी ता. ७-९-१९५४ विगेरे ट्रस्टीओ १ तेओश्रीनो सुरत उपर तो अनहद उपकार छे. तेओश्रीने संवत १९७४ ना वैशाख सुद १० ना सुरतमा ज 'आचाय' पदवी अपाइ हती. श्रीजैनानदपस्तकालय. श्रीवर्धमानजनताम्रपत्रागममंदिर वगेरे सुरतमा ज छ. अने सं. २००६ ना वैशाख वद ५ मे ‘स्वर्गवास' पण सुरतमा ज थयो छे. तेओश्रीनो अग्निसंस्कार पण सुरत शहेरनी मध्यवती गोपीपुरामां आगमनमंदिरना सामे जनीअदालतश्री ओळखाती जमीनमां थयो हतो. वळी तेज जग्या उपर गुरुदेवश्रीना स्मरण तरीके संपूर्ण इतिहासने जणावनाएं 'श्री आगमोद्धारकगुहमंदिर' बंधाववामां आव्यं छे. २. तेओश्रीनु मूख्य कार्यक्षेत्र सुरत ज रह्यु हतुं. तेनी प्रतिकतरीके अनेक ज्ञान पिसानी संस्थाओ स्थाइ हति. (१) शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्त कोद्धार फंड. (२) शेठ नगीनभाई मंछुभाई जैन साहित्योद्धार फड. (३) श्रीरत्नासागरजीजैनमीडलस्कुल ( विद्याशाला) कायमि फंड. (४) श्रीजैन तत्वबोध बोध पाठशाला वीगेरे अनेक संस्थाओ तेभोना उपदेशन ज परिणाम छे. 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ संपादकीय वक्तव्य फ्र “ॐ णमो उवीसाए तित्ययराणं उसभाई महावीर पजवसाणाणं । णमो गोयमाईमहामणीणं । इक्कारस अंगाई, बारसुवंगा पन्नगा दस य । छेया छ चऊ मूला, नंदी अणुओगा णमंसामि ॥१॥" साहित्यमां ऊंडा ऊतरेला रसिकोने विविध विषयोना बोधनी आवश्यकता रहे छे. जे विषयनो बोध जे मनुष्यने होवो जोइओ ते बोध सिवायनो मनुष्य ते विषयने ग्रहण करवा जाय तो अज्ञानी वांदरानी जेम "मने पकडयो - मने पकडयो" जेवी अनी दशा थाय. तेथी ते विषयना बोध माटे ते विषयना शब्दना ज्ञाननी, अर्थना ज्ञाननी अने तेना भावार्थना ज्ञाननी, अर्थात् ते पदार्थना शब्दार्थ, भावार्थ अने पर्यानी जरूर छे. जो ते समज्या सिवाय प्रवृत्ति कराय तो भोजन करवा बेठेलो 'सैंधव' मंगावे अने 'घोडो' लावे तेना जेवुं थाय. शब्दना बोध करनारूं जे साहित्य होय तेने 'शब्दकोष' आदि शब्दथी संबोधी शकाय एवा 'शब्रकोषोनी उत्पत्ति कां तो आगमोमां आवेला पर्यायो रूपे आपी होय कां तो निघण्टु जेवा 'शब्दकोष' रूपे होय, अथवा बीजा घणाओ 'शब्दकोषो' रूपे होय. आधी दरेक भाषावार अनेक 'शब्दकोषों' योजाया छे अने योजाय छे. जैन दर्शन माटे तो ते शब्दोना अर्थ टीकाकारोप प्रकरणना आधारे जे रीते मंजुर कर्या छे ते तेज लेवा योग्य छे. शब्दो यौगिक, रूढ अने मिश्र एम साहित्यकारोप मान्या छे, ते यथार्थ छे. आधी जैन दर्शनमां ऊंडा ऊतरवावाळाने पण ते बोधनी जरूर तो छे ज, तेथी तेवा प्रकारना 'शब्दकोष 'नी जरूरियात मानवीज पडे. आ उद्देश लक्ष्यमां लइशुं तो जैन दर्शनमां आवता शब्दोना अर्थवाला अनेक कोषो होवा छतां पण आ नवा कोष माटे स्थान छे ज. संकलनाकार - ग्रन्थकार स्वतंत्र लेखिनीथी जे ग्रन्थ करे तेमनी ज कृति कहेवाय छे. परंतु ग्रन्थोमांथी अत्रित करेलुं होय तो आ वधुं बीजा ज ग्रन्थोमांनुं छे, एम जणाववा माटे पोते संकलना करी छे एम जणावे छे. तेथी महत्त्वपूर्ण अनेक जैन ग्रन्थोना संपादक अने संशोधक, तेमज संस्कृत, पाकृत अने गुजरातीमां विविध विषयोनी कृतिओ रचनारा, र आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरसरीश्वरजी महाराजे सैद्धान्तिक शब्दोनी आ कोषमां संकलना करी छे, आथी आ ग्रन्थना 'संकलनाकार' प. ता. आगामोद्धारक गुरुदेवश्री छे. ( १ ) मंगळाचरण तरीके आपलं समग्र अर्धमागधी छेला ओक शब्दने छोडीने 'शिलोत्कीर्ण आगमों'नी पीटिकामांनु छे. जुओ-आगमरत्नमंजूषा शिला नं. १/१. 2010_05 (२) जुओ अमारी संपादन करेली पुस्तिका - ( १ ) प्रशमरति अने संबंध कारिका, परि. ३ श्री ८ 'आगमोद्धारकनी साहित्यसेवा', (२) उपदेशरत्नाकर ( भावार्थ ) पृ. १९ - २७ ' आगमोद्धारकनी साहित्यसेवा, ( ३ ) आचारांगसूत्र पृ. २५२-२५६ ‘आगमोद्धारकनी साहित्यसेवा', (४) आनंदसुधा सिन्धु भा. २. परि. ४ ' आगमोद्धारकना व्याख्यानोनी सूत्रों तथा 'आगनोद्धारककृत चेत्यावंदनादि', (५) आराधनामार्ग भा. १ पृ. २२ - २३ ' आगमोद्वारककृत चैत्यवंदनादि . (३) आ संबंधनां जुओ - " आगमोद्धारक बिरुद" से नामनों प्रो. हीरालाल २. कापडियानो लघु लेख. जे लेख गुरना "प्रभाकरपत्रना ता. १४-५-५०ना अंकमां छपायो छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोनुं मुद्रण-याचना-आ कलिकालमा विक्रमनी वीसमो सदीमां एवो पण एक समय आव्यो के ज्यां शास्त्रीय बोघ ओछो थवा लाग्यो अने हस्तलिखित प्रतो वांचवानी तेमज वांचवा माटे प्रतो मेळववानी पण मुश्केलीओ ऊभी थई. आथी जो लखाण छापेलु मळी जाय अने तेनो जो बोध अपाय तो ते हितावह निवडे. आ हेतुथी आगमो छपाववा अने तेनी वाचनाओ आपकी एम प. पू. आगमोद्धारकगुरूदेवश्रीनी प्रेरणाथी नक्की थयु. अने संपादननुं कार्य अने वाचनानुं कार्य आगमज्योतिर्थर, अप्रमादी. आगमोद्धारकश्रीने ज कर गर्नु थयु. आधी जेम जेम आगभो छपाता तेम तेम पाटण५ आदि स्थलोए 'वाचनाओ' अपाई अने तेनो सेंकडो साधुसाध्वीओए लाभ लीघो. आगमो रूपी सागर अने तेमां आवता विषयो पण ए सागरना उपसागरो जेवा छे. परंतु ते अखात रूपे छूटा छूटा पडया होय तो उपसागर रूपे देखाय, तेथी ते बधा प्रवाहो एकत्र करी जुदा जुदा उपसागरो बनाववा. आ मुद्दाप जेम आगमो छपाता गया तेम तेम वर्तमान श्रुतना शाता आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीए आगमोमां जुदा जुदा विपयोने जणावनारा त्रेपन (५३) अंको पाड्या अने 'शब्दकोष' माटेना शब्दो अंगे पण 'फूल'नुं एक निशान कयु. ए निशानो एवां हतां के-अंकोमा क्या शब्दथी क्यां सुधीनो भाग लेवानो छे ते जणाववा माटे आदिमां अने अंतम निशाननी साथे अंक मूकवामां आवतो हतो. ज्यारे आ कोषना शब्दोने अंगे फूलनु निशान मूरवामां आवतुं हतं. तेमां पण खूबी करवामां आवती हती के जो शब्द एक अक्षरनो होय तो एकनी नीचे, बेनो होय तो बेनी वच्चे, यावत् जेटला अक्षरनो होय तेना मध्य बिन्दुए निशान मूकवामां आवतुं हतुं आवी रीते शब्दोनी संकलना थई. आ वधा विषयो अने शब्दो लहिया द्वारा उताराईने एकत्रित करावाता हता. ___नाम--आ कोषनुं नाम 'श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष' राखवामां आव्यु छे. कारण एछे के-आ कोषमां आगमोमां वपरायेला तमाम शब्दो नथी, परंतु जे शब्दनो परिचय अल्प ४ आगमो छपाववा माटे भोयणीतीर्थमां सं. १९७१ना गहा सुद १० ने सोमवार २५-१-१९१५ना दिवसे श्रीआगमोदयसमितिनी स्थापना थई. आना अंगेनु आगमोद्धारककृत 'आगमसमितिस्थापनास्तव' अमारा संगदित आचारंगसूत्र (भाग १) (व्या. सं.) मां छपायु छे. स्थळ वि. सं. __ वाचना आपेल ग्रन्थोन नाम पाटण १९७१ श्रीदशवकालिक, श्रीसूत्रकृतांगसूत्र, २॥ पटनिशिकाओ। करडवणज श्रीललितविस्तरा, श्रीयोगदृष्टिसमुच्चय, श्रीअनुयोगद्वारसूत्र १२. श्रीआवश्यकसूत्र ५८ श्री उत्तराध्ययनसूत्र १३। अमदावाद १९७३ श्रीनिशेषावश्यकसूत्र ८४, श्रीस्थानांगसूत्र १२। सूरत श्रीविशेषावश्यकसूत्र १२, श्रीस्थानांगसूत्र १२, श्रीऔरपातिकसूत्र श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २३, श्रीआचारांगसूत्र । । श्रीआवश्यकसूत्र ३५, आचारांगसूत्र १२, श्रीअनुयोगद्वारसूत्र १/२, धीनन्दीसूत्र। पालीनाणा श्रीओधनियुक्ति, श्रीविण्डनियुक्ति, श्रीभगवर्त सूत्र ८४१, श्रीप्रज्ञापनासूत्र ३३/३६। रतलाम (मालवा) १९७७ श्रीभगवतीसूत्र ३३ ८१, श्रोप्रज्ञापनासूत्र ३.३६, श्रीसमवायांगसूत्र सूरत 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, तेवा आगमगत-सैद्धान्तिक शब्दोनो आमां संग्रह करवामां आवेलो छे. आ 'श्रीअल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोष' माटे हवे पछी 'अ. सै. श.' एवी संज्ञानो उपयोग कराशे. शब्द अने तेना अर्थो-अ. सै. श. मां जे शब्दो जणाव्या छे ते शब्दो घणे भागे तो जेवा छे तेवा ज राखवामां आव्या छे. अर्थात् अकार अने थोडा आकार सिवायना बाकी बधा शब्दो जे मूलना छे ते अर्धमागधीमा छे अने टीकाकारोए टीकामां आपेला जे शब्दो जे भाषामां छे तेज भाषामां मोटे भागे कायम राख्या छे. एटले के अकार अने थोडा आकारमां आवेला संस्कृत शब्दो अर्धमागधीमां पण आप्या छे. शब्दोना बहुश्रुत टीकाकारोए भिन्न भिन्न टीकाओमां भिन्न भिन्न अर्थो कर्या छे, तेथी भिन्न भिन्न स्थळोमांथी ते ते अर्थो लईने ते ते टीकाकारोना अर्थाने कायम राख्या छे. आकारणथी आ अ. सै. श.मां छेदना अणना ज शब्दो लेवामां आव्या छे. तेमज बृहत्कल्प जेवा कोईकमां आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना हाथना ऊतारेला शब्दो छे. तेमा टीकाकारोना आधारे अर्थोनुं टुंकाववापणुं पण छे. ६ तारवेला ५३ अंकोनां नामो- (चोथा पानानी फुटनोट) १ विषयानुक्रमः * १४ छन्दोविचारः २७ खण्डनपक्षाः ४. वैद्यकम् २ अधिकारानुक्रमः १५ अलंकाराः २८ पाठान्तराणि ४१ नयाः ३ विषेशोपयोगिनो विषयाः १६ न्यायाः २९ प्रस्तावना ४२ स्थापनानि ४ विशिष्टाः १७ साझिभूतग्रन्थाः ३० सूत्राधकारादिक्रमः ४३ विधिः ५ साक्षिपाठानामकारादिक्रमः १८ उपोद्धात: प्रशस्तिश्च ३१ शङ्कासमाधानानि ४४ अकार्थिकशब्दाः ६ वादाः १९ आचार्यनामानि ३२ काटिन्यार्थः ४५ अल्पबहुत्वम् ७ लक्षणदूषाणाधिकारः २० प्राचिनमतानि ३३ सुभाषितानि ४६ अनुमानानि ८ विशेषनामानि २१ मतानां समाधानानि ३४ निक्षेपानां संग्रहः ४७ सङ्कलनाः ९ इतिहासः २२ सूक्तावलिः ३५ वायुवृष्टिः ४८ प्रत्येकबुद्धनामानि १० भूगोल: २३ राजकीय विभाग: ३६ समानशब्दानां पर्यायः ४९ विसंवादा ११ ज्योतिष्क २४ प्रज्ञाप्यम् ३७ गच्छाः पट्टावलयश्च ५० संग्रहश्लोकाः १२ प्रचलितमतानि २५ लोकोक्तिसंग्रह: ३८ दृष्टान्ताः ५१ स्थलनिर्देशः १३ व्याकरणविचारः २६ व्याख्यानान्तराणि ३९ सम्प्रदायाः ५२ सामुद्रिकम् ५३ निशीथाद्यकारानुक्रमः निशीथभायगाथाद्यपदानि च * नन्दी आदि २७ना विषयानुक्रम अने सूत्रादि अकारादि वगेरे छपायां छे, तेमां नीचे प्रमाणेना नंबरो सूत्रोने अपाया छ १ नन्दी, २ अनुयोगद्वार, ३ आवश्यक, ४ ओधनियुक्ति, ५ दशवकालिक, ६ पिण्ड नियुक्ति, ७ उत्तराध्ययन, ८ आचाराङ्ग, ९ सूत्रकृताङ्ग, १० स्थानाङ्ग, ११ समवायाङ्ग, १२ भगवती, १३ ज्ञाताधर्मकथा, १४ उपासक, १५ अन्तवृदिशा, १६ अनुत्तरोपपातिकदशा, १७ विपाकवत, १८ प्र नव्याकरण, १९ औषपातिक, २० राजप्रश्नीय, २१ जीवाजीवाभिगम, २२ प्रज्ञापना, २३-२४ सूर्यचन्द्रप्रज्ञप्तियुग्म, २५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २६ निरयावलिका अने २७ प्रकीर्णकदशक। (५३ नंबरोमांना नं. २२, २५, ३३ अने ५० आगमीयसूक्तावलीना नामे छपाया छे.) 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ अ. लै. श. मां भिन्न भिन्न शब्दो व्याकरणना प्रयोगो रूपे, कोई तेवां नामो रूपे, कोई इतिहास तरीके, कोई भूगोळ तरीके तथा कोई पर्यायो तरीके पण आव्या छे. काचो खरडो-शरूआतमां लहियो एकेक आगम लईने कापलीमा ते शब्दने ऊतारतो अने टीकाकारनो बतावेल अर्थ लक्ष्यमां आवे तो ते अर्थ लखतो. आवी रीते ऊतारेली छूटी कापलीओने प. पू. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना विनयगुणसंपन्न, तीक्ष्णबुद्धि, स्वर्गस्थ मुनिराज श्रीमहेन्द्रसागरजीए अकारादि क्रममां गोठवी कागलमा सलंग चोटाडीने तैयार करी ते उपरथी ए लखाण लहिया आदि द्वारा लखावीने तेमज तेओश्रीए (श्रीमहेन्द्रसागरजीए) पोते पण लखीने काचो खरडो तैयार कर्यो. प्रकाशननी तैयारी-आ अ. सै. श. ने छपाववानी प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी घणी इच्छा हती. तेथी लगभग त्रण दशका उपर सदगृहस्थो पासेथी अ. सै. श. ना प्रकाशनने अंगे रूपिया शेठ देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धारकफंडने अपाव्या हता. ते पछी वि. सं. २०७४ मां ते संस्थाए आ अ. सै श. छपावत्रा माटे ठराव कर्यो. आथी मुद्रणालयपुस्तिका करवानुं कार्य पू स्व. मुनिश्री महेन्द्रसागरजीना शिष्य मुनिश्रीसौभाग्यसागरजीने (तेओश्रीना लघुबन्धुने) सोंपायुं. तेथी तेओ दरेक आगमना ते ते पत्रमा ते ते शब्दो मेळवता अने तेना अर्थाने पण मेळवता. तेमज ज्यां टीकाकारना शब्दो लेवाना हता त्यां प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्री पासेथी तेना मूळ शब्दो बनोवी लेता अने जे शब्दोना अर्थ टीकाकारे न आप्या होय तेना अर्थो पण पूछी लेता. आवी रीते तेमणे लगभग बार फार्म सुधीनु मेटर तैयार कर्यु. ___उपर जणावेली संस्था (दे +ला.)ना ट्रस्टीओओ प ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी जीवन पर्यंत सेवा करनार मुनिराज श्रीगुणसागरजी महाराज पासेथी आ कोपीनुं लखाण मेळयुं अने छपाववा माटे प्रबंध कर्यो. तेमज अमने संपादन माटे विज्ञप्ति करी. तेथी अमे शरू कयु. साथोसाथ मेटर पण तैयार करवा मांडयुं. ___ संपादन पद्धति-दरेके दरेक शब्द ते ते आगमनी साथे मेळवयो अने तेमां जणावेल अर्थ मेळवी लेवो. ते रीते कार्य करतां केटलाक आगमोना अंगे शब्दोना प्रश्नो ऊभा थया. तेमां श्रीव्यवहारसूत्रना त्रीजा उद्देशाना शब्दो हता पण ते सिवायना बाकीना उद्देशाना शब्दो न हता. तेथी प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीए व्यवहारनी आखी प्रतमां निशानो करी आप्यां. आथी तेनी कापलीओ उतारी तेना शब्दोनो उमेरो कर्यो. आगळ जतां बीजा पण आगमोना शब्दो नथी एम देखायुं, तेनी तपास करतां-नंदी, अंतगड, अगुत्तरोवाइय, उपासकदसा, रायपसेणीय, अने निरयावलिना शब्दो न हता. तेथी तेना शब्दो पण उतार्या. अने ते शब्दो धीरे धीरे मेळववामां आव्या. आगळ चालतां नायाधम्मकहाना शब्दो बिलकुल नथी एम मालम पडयु. नायाधम्मकहानी प्रत तो प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी निशानवाळी प्राप्त न थई, तेमज जे समये शब्दो नथी तेवी शंका थईते समये तो अमारु पण्य पण न हतं के प गरुदेवश्री विद्यमान है अमे अमारी मंदमति अनुसारे आ आगमनी सटीक प्रतमां निशानो का, शब्दो तारव्या अने ते तारवेला शब्दोने कोशमां स्थान आप्यं - आ अ. से. श. मां अग्यार अंग, बार उपांग, त्रण (बृहत्कल्प, व्यवहार अने निशीथ) छेदसूत्र, चार मूल, ओधनियुक्ति, विशेषावश्यक, नंदी, अनुयोगद्वार, अने दशवैकालिकचूर्णिना शब्दोनो संग्रह ७. विस्तारथी चूर्णि वगेरे जेना पर नथी तेपा जीत कल्प, पंचकल्ल, दशाश्रुतस्कंध, अने महानिशीथना शब्दो लीधा नथी HA 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवामां आवेल छे. तेमज दशाश्रुतस्कन्ध, दशप्रकीर्णक, पउमचरिय, उपदेशमाला, अने तस्वार्थ: सूत्रना केटलाक शब्दो पण लेवामां आवेल छे. संज्ञा पत्रक-अ. से. श. मां जे शब्दोनो संग्रह करवामां आव्यो छे अने तेमां आगमो-शास्त्रो वगेरेनी जे संज्ञाओ आपवामां आवेली छे, ते संज्ञाओना स्पष्टीकरण माटे तेमज लीधेली प्रस-टीका वगेरे शेनी छे ते जणाववा अने तेना संपादक तथा प्रकाशक जणाववा एक संज्ञापत्रक नामथी प्रकरण राख्यु छे. तेमज बीजी बीजी प्रतोनी साथे पण शब्दो मेळववानुं शक्य बने ते उद्देशथी पत्राङ्कसूचा नामथी एक प्रकरण आप्यु छे. वर्णक्रम-अ. सै. श. मां अनुस्वारने पहेलुं स्थान आपवामां आव्यु छे. कारण के शरूआतमा प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीए आ रीते शरू करवानुं जणाव्यु हतुं. आथी ए पद्धति कायम राखी छे. पण आनो हेतु हमे जाणी शक्या नथी, तेथी अत्रे हेतु. आप्यो नथी. विद्वज्जनो प्रत्ये-सुज्ञ विद्वज्जनो! अमो गूर्जर भाषाना संपादनना कार्यमा अनुभव मेळवतां संपादनमा आगळ घध्या छीए. ते रीते संस्कृत अने प्राकृतना संपादनमा प्रवेश करता थया एवा समयमां प. ता. गुरुदेवश्रीनी सेवाना प्रतापे अमने 'अ. सै. श.' - संपादन ल्यु. आथी अमे ते कार्यमां रस लीधो ने संपादन कार्य शरु कयु. आथी पंडितोनी अपेक्षाए के विद्वानोनी अपेक्षाए अमारा आ संपादनना अंगे जे सूचनाओ करवी उचित छे ते अमे विद्वज्जनोनी समक्ष रजू करीए छीए.१ मूळ शब्दो विभक्तिवाला तेम विभक्ति वगरना अम बन्ने प्रकारना छे. तेथी ते जे लिंगनो जे शब्द होय ते शब्द तेवी तेवी विभक्तिथी ते ते लिंगमां समजी लेवो. जेमके-अंकुर (पृ. १, २), अंकूसयं (पृ. १, २) इत्यादि (कोईक शब्दकोशमां विभक्ति सहित शब्दो नथी तेवु पण प्राये अमारा जाणवामां छे. २. जो के शब्दो बधा अक जातना विभक्ति विगर अगर अक विभक्तिथी मेगा लेवा जोई, परंतु आमां भिन्न भिन्न लेवाया छे. जेमके-अंकावइ (प्र. १, २), अंकावइओ (प्र. १,१) इत्यादि. ३. वैकल्पिक शब्दोना विकल्पने साचववा माटे अर्थात् तेवा प्रयोगोने साचवी राखवा माटे आमां भिन्न लेवाया छे. जेमके-अंकवडेंसर (पृ. १,१), अंकावडिसए (पृ. १, १) इत्यादि.. ४. टीकाकार महाराजे जे शब्दोना प्रयोगो टीकामां कर्या छ ने ते शब्दो मूळमां नथी तेवा शब्दोनुं प्राकृत जे कौंसमां अपायं छे ते प. पू. आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीने पूछीने मुनिश्रीसौभाग्यसागरजीओ आपेलुं छे. वळी तेवा शब्दो कोई वखत शरुआतमां अपाया छे. अने कोइ वखत संस्कृतशब्दनी पछी पण अशया छे. तेनी बन्ने बाजुओ बनतांसुधी कौस आप्यो छे. जेमके (अंकील्ल नर्तकः । पृ. १, १), अंगारः (इंगाल). (पृ. २२) इत्यादि. ५. शरूआतमां तो शब्दोना अर्थों अने शब्दोना संग्रहनी शैलि नियमित रही नथी, पण जेम जेम अनुभव थतो गयो अने तेना अभ्यासमां वधारो थतो गयो तेम तेम पद्धतिमा सुधारो थतो गयो छे. छतां अटलं कहेवानी जरूर छे के पहेला भाग करतां बीजा भागमां पद्धति इत्यादिनो सुधारो मळेला अनुभव प्रमाणे करी शकीशं ओवी आशा छे. ६. (१) अध्पयन, (२) विशेषनाम, (३) वनस्पतिना नामना अंगे तेनी साथे अर्थना रूपमा संस्कृतमां अपायुं छे. जेमके (१) अंडे-विपाकश्रताद्यश्चत० (पृ. २, २), (२) अंगारवई अंगारवती संवेगोदाहरणे० (पृ. २, २), (३) अंकोल वृक्षविशेषः (पृ २, १) इत्यादि. ७. टीकाकारोए शब्दोना जे जगो पर अर्थ नथी कर्या तेवा शब्दो पण अत्रे अर्थ वगर अपाया छे. जेमके ओली (पृ. २२३, २), उबट्टगा (पृ. २०७, २) इत्यादि. वळी आ शब्दोना अर्थो जो कदाच मेळवी शकी| तो परिशिष्मां आपवा विचार छे, 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. देशी शब्दोना अंगे 'देशीय' अगर 'देशी' एवं कौंसमां लखायुं छे. अर्थात् टीकाकारे आपलं कायम राख्युं छे. जेमके - उत्तइउ ( देशी० ) - ग (पृ. १८७, १ ). ९. चूर्णिकार महाराज चूर्णिनी अंदर प्राकृत अने संस्कृत अम बन्ने भावाना प्रयोगो करे छे, तेथी चूर्णिना शब्दाना अर्थोमां प्राकृतना अने संस्कृतना बन्नेना प्रयोगो छे. परंतु बहुधा तो प्राकृत ज होय छे. १०. आ 'अ. सै. श. मां पवा पण शब्दों छे के जे अभिधानराजेन्द्र के पाइयसहमहण्णवोमां न होय. असं. श. नुं संपादन कार्य शरू थतां सुरतमां हता त्यां सुधी एक वखतनुं प्रुफ जोई आपवा प. ता. आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना एकत्र पट्टधर, श्रुतवारिधि, शास्त्रतत्त्वदर्शी, गच्छनायक, आचार्य श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजे कृपा करी हती. ते संपादन कार्य चालतुं हतुं, तेमां प्रथम भागनुं पंदर आनी काम थई गया पछी सुरतथी दक्षिण तरफ विहार थवाना कारणे अने प्रेस आदिना प्रतिकूल संयोगोमां अमारी अनिच्छा पण नहि जेवा कार्यमां वर्षोनां वर्षो वीती गया बाद आजे आ श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक - शब्दकोषनो 'प्रथम भाग' विद्वानोना करकमळमां उपस्थित करी शक्या छीए. आ प्रथम भागमां 'संपूर्ण स्वरो' आपवामां आवेला छे. स्वरोमां तेमज बीजा रही गयेला 'शब्दो' तथा देशीनाममालाना शब्दो श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष पूर्ण थतां 'परिशिष्ट ' तरीके आपवा विचार छे. प. पू. आगमवाचनादाता, देवसूरतपोगच्छसामाचारीसंरक्षणकटिबद्ध, अनेक ग्रन्थोना प्रणेता, वादीमानमर्दक, चरमशासनपति महावीर परमात्माना शासनमां आगममंदिरोना संस्थापक, जैनआनन्दपुस्तकालयादि संस्थाना संस्थापक, शैलाना नरेशप्रतिबोधक, युगप्रधान सदृश, वर्तमान श्रुतना ज्ञाता, स्वआराधनर्थे आराधनामार्ग करनारा, मौनपणे रही अर्धपद्मासने खर्गे संचरनार, प. पू. आगमोद्धारक *आचार्यवर्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजनी पुनित सेवाना प्रतापे जे कई बोध-शक्ति मेळवेल छे, ते आधारे अमे अमारी बुद्धि केळवीने काळजीपूर्वक आ श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष संपादन कर्तुं छे. मुनिराज श्री अभयसागजी महाराजे संजोग मळतां आमां मार्ग बताव्यो छे. तेओश्रीने तेमज प्रो. हिरालाल र. कापडीयाने पण हमे अत्रे भूलता नथी. मां जे अशुचिओ जणायी छे तेनुं शुद्धिकरण पण आप्युं छे, छतां विद्वज्जनो प्रति अमारी प्रार्थना छे के क्षति देखाय तो जणाववा उदारता दाखवे. वीरसं. २८८०, वि. सं. २०१० ज्येष्ठ पुर्णिभा गनघाट ( मध्यप्रदेश ) आगमोद्धारकउपसंपदाप्राप्त शिष्याणु कंचनविजय तथा 2010_05 आगमोद्धारक शिष्यलव क्षेकरसागर * जेमना स्मरणार्थे सुरतमां ' आगमोद्धारक गुरुमंदिर' झलहळी रह्युं छे. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमा १ २ ३ ४ ५ ६ G ९ संज्ञा १७ सूत्रनाम मल्लधारगच्छीयश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितवृत्तियुक्तं श्री अनुयोगद्वारसूत्रम् । अनुत्त. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरि सूत्रितविवरणयुतं श्रीअनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम् । श्रीचान्द्र कुलीनाचार्यभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीअन्तकदृशाङ्गम् । अन्त. आउ. श्रीआतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् ( गाथा ) | आचा. नियुक्तिकलितशीलाङ्काचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीआचारा अनु. १८ ङ्गसूत्रम् । निर्युक्तियुतभाष्यकलितश्रीभवविरह हरिभद्रसूरिविहितवृत्तियुतं श्री आवश्यकसू म् । नियुक्तियुतानि श्वादिवेतालश्री शान्तिसूरि सूत्रितवृत्तियुतानि श्रीउत्तराध्ययनानि । उप. मा. श्रीधर्मदासगणिदधा श्रीउपदेशमाला ( गाथा ) । गा. उपा. आव. उत्त, संज्ञापत्रकम् । १० ओघ भाष्ययुता श्रीद्रोणाचार्यसूत्रितवृत्तिविभूषिता श्री ओघनियुक्तिः ११ औप. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरि सूत्रितविवरणयुतं श्रीउपासकदशाङ्गम् । १२ ग. श्री गच्छाचारप्रकीर्णकम् ( गाथा ) | १३ गणि. श्रीगणिविद्याप्रकीर्णकम् ( गाथा ) । १९ तं. श्रीचान्द्र कुलीनाचार्याभयदेवसूरित्रित विवरणयुतं श्री औपपातिको पाङ्गम् । १४ चउ. १५ जं. प्र. १६ जीवा. ज्ञाता. श्री चान्द्र कुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । ठाणा. श्रीचन्द्रकुलीनाभयदेवसूरिसूत्रित विवरणयुतं श्रीस्थानाङ्गसुत्रम् | श्रीतन्दु वैचारिक प्रकीर्णकम् ( गाथा ) | श्रीचतुः शरणप्रकीर्णकम् ( गाथा ) | उपाध्याय श्री शान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्गम् । श्रीमल गिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीजीवाजीवाभिगमोपाम् । १ दे. ला. जै. शेडदेवचन्दलालभाई जैनपुस्तकोद्धारफंड । २ आ. स. श्रीआगमोदयसमिति । 2010_05 सम्पादकः प्रकाशकः आगमोद्धारकः दे. १ ला. जै. " " "" " ور در "" "" "" "" " " " " "" اد आ. स. आ. स. आ. स. आ. स. आ स. दे. ला. जै. आ. स. अ. स. आ. स. आ. स. आ. स. आ. स. दे ला. दे. ला. जै. आ. स. आ. स. आ. स. 15 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० | तत्त्वा. | भाष्योपेतं श्रीतत्त्वार्थसूत्रम (अध्यायः, सूत्रम्)। आगमोद्वारकः | क्र. के. २१ | दश. | नियुक्तिभाष्योपेतं श्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविरचित___विवरणयुतं श्रीदशवकालिकसूत्रम् । दे. ल. ज. | दशचू. | श्रीदशवैकालिकघृणिः * हस्तपोथी | जै.४ पु. नं. १६७३ २३ दशाश्रु श्रीदशाश्रुतस्कन्धः | देव. | श्रीदेवेन्द्रस्तवप्रकीर्णकर । आगमोद्धारकः | आ. स. नंदी. | श्रीमलगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीनन्दीसूत्रम् । आ. स. निरय. | श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं श्रीनिरयावलिकापंचकम् । श्रीदानविजयगणी वीर.५ नि. चू. *भाष्यचूर्युपेतस्य श्रीनिशीथसूत्रस्य प्रथमो विभागः | हस्तपोथी जै. पु. नं ४८३ द्वितीयो , | , जै. पु नं ४८५ तृतीयो , ज पु. नं.४८५ श्रीविमलाचार्यविरचितं 'पउमचरियं' ( उल्लासः) । प्रो,हर्भन जेकोबी जै. घ. भाष्यश्रीमलयगिर्याचायविहितवृत्तियुता पिण्डनियुक्तिः | आगमोद्धारकः | दे. ला. जै. श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम।। आ. स. श्रीचान्द्र कुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीप्रश्णव्याकरणाङ्गम्।। बृ. प्र. | नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य प्रथमो विभागः हस्तपोथी जे. पु.नं ३०३ | वृ.द्वि । तीयो । जै. पु. नं, ३०४ तृतीयो ., ज. पु नं. ३०५ | श्रीभक्तपरिज्ञाप्रकीर्णकम् (गाथा)। आगमोद्धारकः श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवमूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीभगवतीसूत्रम् (श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिः)। | श्रीमरणसमाधिप्रकीर्णकम् (गाथा )। आ. स. | श्रीमहाप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् (गाथा )। प्रज्ञा. | आ. स. भक्त. भग. आ. स. मरण.. आ. स. महा . ।। महाप्र। ३ ऋ. के. शेठऋषभदेवजीकेशरीमलजी, रतलाम ४ जै. पु. नं. श्रीजनआनंदपुस्तकालय, सुरत, हस्तपोथी नंबर ५ वीर. श्रीवीरसमाज, अमदावाद. ** सूत्र, नियक्ति अने भाष्यगाथानां मात्र प्रतीक छे. ६. ज.ध.=श्रीजैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर. 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज. | श्रीमलयगिर्याचार्यमूत्रितविवरणयुतं श्रीराजप्रश्नीयोपाङ्गम| आगमोद्धारकः । विपा. | श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवमूरिमूत्रितविवरणयुतं श्रीविपाकश्रुताङ्गम। , आ. स. मल्लघारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितबृहद्धत्तियुतं । ___ श्रीविशेषावश्यकभाष्यम् । पं हरगोवनदासः य जे. व्य. प्र. नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीव्यवहारमूत्रस्य प्रथमो विभागः | हस्तपोथी जै. पु. नं. ४८७ ___द्वितीयो , " जै. पु.नं. २६६ | श्रीसंस्तारकप्रकीर्णकम् (गाथा)। आगमोद्धारकः | आ. स. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरि त्रितविवरणयुतं श्रीसमवायाङ्गम्। नियुक्तिभाष्यशीलाङ्काचार्यविरचितविवरण यु श्रीसूत्रकृताङ्गम् । श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीसूर्यप्रक्षप्त्युपाङ्गम् । आ. स. आ. स आ. स. १ य. जै.=श्रीयशोविजयजीजनग्रन्थमाला. * सूत्रादिना मात्र प्रतिक ज छे. 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंधः अध्ययनानि आपत्रं १ २ ४ १ द्वितीयः श्रुतस्कंधः चूला - १ २ ३ ४ ५ ६ ७ चूला - २ ३ ४ " رو १ ८१ १२१ १४८ १४१ १७४ १५३ १९५ १६५ २३१ १७५ २५८ ९ १८६ २९६ १० १९५ ३१७ ११ २०७ १२ २२९ १३ २४० १४ २५२ १५ २६० १६ २६६ द्वितीयः श्रुतस्कंधः २ ३५८ ३७४ ३८४ ३९१ ३९८ ४०१ ४२७ ४२९ ४३२ श्रीसूत्रकृताङ्गम प्रथमः श्रुतस्कंधः अध्ययनानि आपत्रं ५२ ७७ अध्ययनानि आपत्रं १ २ ३ ४०६ ४ १०१ 2010_05 ४ ५ ६ ७ ८ ५ ६ ७ १ श्रीस्थानङ्गम् २ ३ ४ ३०३ ३४२ ३६० ३७० ३८५ ४०५ ४२७ ५ ६ पत्राङ्क सूचा अध्ययनानिआपत्रं ७ ८ ९ १० श्रीसमवायाङ्गम् आविषयं आपत्रं सागरोवम गणिपिटकं अवसरपिणि निगमनम् १ २ ३ ४ १२ श्रीभगवतीजी शतकानि आपत्रं ५. ६ ७ ८ ९ ३८ १०१ ११ १७९ १२ २८९ १३ ३५२ १४ ३८० १५ १० ४१५ १६ ४४३ १७ ४६९ १८ ५२८ १९ २० २१ २२ कोटा कोटी १०५ २३ १३३ २४ १५२ २५ १६० २६ २७ २८ २९ ३० ३१ १०८ शतकानि आवत्रं १५२ २०२ २०६ २४९ २८६ ३२ ३३ ३४ ३२७ ३५ ४२४ ३६ ४९२ ३७ ५०८ ३८ ५५२ ३९ ५९२ ४० ६२९ ६५८ ६९६ ४१ ७१९ ७३१ ७६० ७७३ ८०० ९४८ | श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम प्रथमः श्रुतस्कंधः अध्ययनानि आपत्रं ८०२ ८०४ ८०५ ८५१ ९२८ ९३७ ९३८ १२ ९३९ १३ ९४१ १४ ९७१ १ २ ३ ९७१ ९७५ ९८१ ४ ६ 6 ू ८ ९ १० ११ १७७ १८२ १९२ १९५ ९५० २२६ ९५३ २३४ ९६४ १८ २४२ ९७० १९. २४५ ९७१ द्वितीयः श्रुतस्कंधः ९७१ १-१० २५४ ९७१ १५ १६ १७ १-१० ७७ ९० ९.६ ९९ ११३ ११४ वर्गाः १२० १५५ १६९ १७० श्रीउपाशकदशाङ्गम् 9-6 १७३ श्रीअन्तकृदृशाङ्गम् ५४ आपत्रं ३२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक | श्रीराजप्रश्नीयं दशाङ्गम् आपत्रं | आविषय : आपत्रं पदानि आपत्रं ! पदानि आपत्रं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः वक्षस्काराः आपत्रं वर्गाः १७८ ८८ ५४२ १७८ सूर्याभः १७ यानविमानादि ४४ श्रीप्रश्रव्याकरणाङ्गम्। कुटाकारदृष्टान्तः ५९ अध्ययनानि आपत्रं स्नानपूजादि ११३ मोक्षवर्णनं १५० २१८ ३८० २ ३८२ ४२४ ४३२ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिः प्राभूतकानि आपत्रं २८३ श्रीनिरयावलिका आपत्रं १२९ श्रीजीवाजीवाभिगमं १८ १४१ । प्रतिपत्तयः आपत्रं ३९४ श्रीविपाकशुताङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंधः ४०७ ३३तः ४३४ १९६ ४५२ २०१ २-१० ४९१ द्वितीयः धृतस्कंधः १-१० २४३ ४९४ ४९७ ५२४ २५७ श्रीऔपपातिकसूत्रम् आविषयः आपत्रं श्रीप्रज्ञापनोपानम् राजधाण्यादि २४ | पदानि आपत्रं साधुगुणा ४८ | १ पर्षनिर्गम ७७ | २ | सिद्धवर्णनं ११९ । ३ ११२ ५३१ २८४ २९७ ____ 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ २१९ ४७८ ३ श्रीनिशीथसूत्रम् श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् | श्रीव्यवहारसूत्रम् हस्तपोथी लीथोप्रिन्ट - हस्तपोथी हस्तपोथी मुद्रितः भाग: उद्देशक: आपत्रं भाग: आपत्रं | भागः उद्देशकः आपत्रं आगाथा भाग: उद्देशक: आपत्रं उद्देशकः आपत्रं १ १२९ १ २०२ / १ १ ७ ५०० / १ १ १७४ | १ १-६१ २ १८२ - २ ३०८ १६६ १००० १-९९ ५९४ २३५ १५०० १-३७० ३१७ २१३० १-८७ २४७ ४४५ १११ ३००० ३२९२ ४ १-१०४ २ २०३ ४६४ ५ १-२२ २७० ७२८ ६ १७१ ६४ ११९२ | १-६० ५ २१२ ३७५ ९ १-२३ ६ २६७ ४३० १० ४५८१०१-११४ १०३ -: मुदितः :१२३ २७३ १००८ १ १ २५४ ८०५ ११४१ / २ ६ १० २१२४ ११६० ३२८९ ११६७ १०२२ ३६७२ १२१२ ३ १३०६ ४८७६ १३३८ ५ ४ १५०२ ५६८१ + २ ५ १५९९ ६०५९ 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आविषयः पिठिका प्रथमवरवरिका द्वितीयवरवरिका श्री आवश्यक सूत्रम् गणधरवादः निव्हववाद: नियुक्ति: १ सामायिक नियुक्तिः २ अध्ययनम् ३ મ ५ " در "" "2 श्रीविशेषावश्यकम् पृष्ठं आविषयः आभिनिबोधिकज्ञानं केवलज्ञानं उदेशादिद्वारव्याख्या गणधरवादः निण्हववाद: अर्हन्नमस्कारः सिद्धनमस्कारः प्रशस्तिः श्री ओधनियुक्तिः आविषयः प्रतिलेखनादि पिण्डद्वारम् विशुद्विद्वारम् 2010_05 आपत्रं श्रदवैकालिकम् चूर्ण : हस्पोथी मुद्रितः श्रीउत्तराध्ययनानि मुद्रितः अध्ययनानि आपत्रं आपत्रं आपृष्ठं अध्ययनानि आपत्रं अध्ययनानि आपत्रं ५० १३६ १८८ २५६ ३२५ ४५२ ४९२ ५१० ५५० ९ ७६३ ८०१ ८६६ १ २ ३ ४ ६ 60 4 १० टीका चू. १ चू. २ आपत्रं आविषयः २४९ पिण्डनिरुपणम् २९९ उद्गमादिदोषाः ६६२ उत्पादनादोषाः ८३६ प्रषिषणाः १०४४ ११८० १२२७ १३६० आविषयः पर्षद् १५ आपत्रं १२७ केवलज्ञानम् २०७ मतिज्ञानम् २३७ श्रुतज्ञानम् अवधिज्ञानम् मनः पर्यवज्ञानम् ८१ ३२ ४१ श्रीनंदी सूत्रम् ७० ९९ ११९ ५२ १६० ७२ १९० ८९ २०६ १०१ २३४ २२३ ११५ २६५ २३८ १२८ २९४ २५८ १४३ ३२९ ९ २६८ १५२ ३४८ १० २७७ १६० ३६६ ११ २८६ १६६ ३८० १२ १३ श्रीपिण्डनिर्युक्तिः १४ १५ १६ ९२ ११७ १५८ २०६ आपत्रं २८ ११९ १४६ १७८ आपत्रं ६४ ९८ १२१ १२९ १८४ २४७ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १७ १८ ७० १४० १८९ २२८ २५४ २७० २८५ २९७ ३१९ ३४१ ३५३ ३७३ ३९२ ४११ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ४१९ ३३ ४३० ३४ ४३६ ३५ ४४९ ३६ १९ ४६५ २० ४८१ २१ २२ २३ २४ श्री अनुयोगद्वाराणि आविषयः आवश्यकश्रुतस्कंध निक्षेपा आनुपूर्वी दशनामाधिकारः प्रमाणद्वाराधिकारः निक्षेपाधिकारः अनुगमाधिकारः नयाधिकारः ४८७ ४९६ ५१२ ५१९ ५३१ ५४७ ५५३ ५६९ ५९७ ६०९ ६१८ ६३९ ६४८ ६६२ ६६८ ७१४ आपत्रं ४३ १०४ १५० २४१ २५७ २६२ २६७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्र क म् पृष्ठं विभाग: पंक्ति: अशुद्धम् | पृष्ठं विभागः पंक्ति: अशुद्धम् १ ९ विषत. विषयतृ. ८७ २ २९ द्वापः द्वीपः ५ १ ३४ दशायध्य. दशाध्यय. ८९ १ १ अहा. अछात्रसानां स्था७ १ ४ अन्त. आन्त० वराणां वा आत्मनः २ ३५ शब्दो-प० शब्दोप. परस्य वोपकाराय हिंसाऽर्थदण्ड:, १ १८ .त्त •त्तुण | ९६ १ २८ दिगार दिग्गा० नक्षत्र नक्षत्रगोत्र |११५ १ ७ आचायः आचार्यः १ १६ ष्टपदिष्टयु ट्युपदिष्ट. ११९ २ २ ०युष्ममा० ०युष्मां० २१ १ ३३ सा ८सा वा |१२१२ १३ समा० सम० २४ १ ९ क्षिप्ते क्षिप्यन्ते १२८१ १२ नियुक्त्या० । सूत्रव्याख्यानं नियु२५ २ १७ त् ०द् अजीवप्राद्वेषिकी रक्या० रुचिः२७ १ ९ आर्जवम् ऋजो:-रागद्वेषवक श्रद्धानम् त्ववर्जितस्य सामा- | १३६ १ २६ हेत्वः हेतवः यिक पतः कम भावो | १३९ १ २ इति ० इति आदानः वा आर्जवः संवर |१३९ १ ९ नेति नेति आदान: इत्यर्थः, तस्य स्था- १४८ १ २१ ०देवाता० ० देवता० नानि-मेदा आर्ज- |१६२ २८ सदो ०सद्दो वस्थानानि १ १ तीथ० तीर्थ २ २५ प्रझा प्रज्ञा उक. उत्क. कर० उक्षि० उत्क्षि . ४१ १ १९ अनिश्रेयसः अनिःश्रेयसाय पनाका पनक: ४३ २ ५ ०न० २ २२ ०शास्त्र ० शस्त्र ५३ १ ३३ भाषी भासी १ २६ विषय. विषयी० ५६ : १-२ ३५,१ अर्यते-गम्यत इति अर्यते-गम्यत इति अर्थः १ २५ नादका० नारका ५८ १ ६. आद्रा० आर्द्रा० अतद्रपं अतद्रूपं ५९ १ १९ द्वापे ०वचसि ०वचसि ६० १ ३० अधर्म अधर्मः साद् साधु० २ २५ श्रतम् अर्वाका. अर्वाका २३ .त्ति-नि० त्तिनि २३१ २ २८ ०चरा ० वराः १ २७ कलिका ०कल्पिका २३२ २ १. ओमद्विया ओमदिया ७८ १९ नाथे नार्थ प्रयुजान |२३३ २ २७ मांसाथिस्ना. मांसास्थिस्ना० १६३ १७२ १८९ दीपे श्रुतम् इत्यर्थः 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0-900 )य आमद्वारा ध्यानभ्यस्ताचार्भनर्माण -चित्रहारबंदरास्ताने वि a Y.MRANIन-सासरस्प र मदास चित्रहारबन्धः [ छन्दः- शार्दूलविक्कीडित: ] शश्वच्छान्तिप्रयान महामतिमत: कल्यङ्करान कर्मठान , भव्यापत्तिभरापहान जलजवजन्तुभ्य आनन्ददान् । दान्तान नौमितमां विभावितविधीन व्याख्यानसव्यासनान् , प्रौढान् सत्यसखान सदा नतिधियाऽऽनन्दाब्धिसूरीश्वरान् ॥ १२८ ।। 2010.05 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -) समर्पण आगमोद्धार आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजना चरणकमलमां समर्पण. जेओए अमारा शहेर सूर्यपुर अने संस्थाना सर्वोदय माटे अहोनीश अमोघउपदेशोद्वारा कृपा वरसावी उत्कर्ष सधाव्यो छे. अमारी संस्थाना बीजा सेंकडानु प्रथम पुष्प प्रतिक पण तेओने ज समर्पण करवामां अमो अमारी कर्तव्यता अनुभवीशु. अा ग्रन्थ तेश्रोश्रीना अागमोद्धारना दोहन रूपे जीवनकार्य गणाशे - प्रकाशको - -4 ___ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 श्राआगमपुरुषः (द्वादशांग) શ્રી તામ્રપત્રાગમ મંદીર - સુરતના ભૂમિગૃહમાં ઉત્કૃષ્ટ ॥ॐ॥ श्रुतभी२भा स्थित स्वाक्षरीमागम ५३५ ॥ सकलनाकार ॐ आगमोद्धारक श्री आनन्दसामरसूरीश्वरजी 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गीतार्थसूरये नमः ॥ ॐ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः ॥ [ अनुष्टुप छन्दः ] श्रीमत्पा– १ सदापार्श्व, नत्वा ध्यात्वा च सद्गुरुन् । प्रकुर्वे भक्तिप्रबोऽहमागमोद्धारकस्तवम् ॥ १ ॥ [ उपजातिछन्दः] सद्भिः प्रशस्येन सुधर्मभाजा, जैनागमज्योतिसमर्थन सत् ।। कृतं २ सदाराद्धश्रुतेन येन, जीयात्स 'आनन्दसूरीश्वरेन्दुः ॥२॥ [वसन्ततिलकाछन्दः ] शैलाणराजमनसि श्रुतधर्मतुध्या, ३ हिंसानिषेधविधिना कृतधर्मपुष्टिम् । गीतार्थहेमनिकषं श्रुतसारमुष्टि 'मानन्दसागरगुरुं' नुत मुक्तरुष्टिम् ॥ ३॥ [ मन्दाक्रान्ताछन्दः ] स्वस्तिङ्काराद्विवुधमहिताध्यात्मतत्त्वात्प्रकृष्टे, ६ धर्मार्थश्रीन्द्रियसुखभरे ‘भारते 'भारतेऽस्ति । ७ जैनेन्द्राज्ञाऽप्रहतविधया राजमानो वदान्यः, । ___ श्रीधीप्राज्यः प्रथितमहिमा 'गूर्जरत्रा'ख्यदेशः ॥ ४॥ तस्यापाऽचेऽधरितधनदश्रेष्ठिधर्मिष्ठकीर्ण, शोभाभासे सुगुणबहुले मण्डले खेटकाख्ये। ८ धर्मज्ञप्तौ सुविशदमतेर्लब्धतत्त्वप्रतिष्ठ, सर्वोत्कृष्टं 'कपडवणजं' राजते पूर्गरिष्ठम् ॥५॥ यत्रोत्तुङ्गं नवजिनगृहं 'पाश्वनाथादि'मुख्यं, यद्वास्तव्याः बहुभवभयाः दीक्षिताः नैकभन्याः पट्टावल्या ९ 'अभयमुनिप'-स्वर्गभूमिः सुगीता, 'वाणिज्या ख्यं 'कपड'सहितं तन्नु वण्येत केन ? ॥ ६॥ १ मध्यमपदलोपिसमासोऽत्रज्ञेयः । २ सत्सम्यक् आराद्धं श्रुतं येने ति विग्रहः । ३ अमारिपटहार्थपरकोऽयं शब्दः । ४ सारसंचयार्थपरकोऽयं शब्दः । ५ क्रोधवाची शब्दोऽयम्। ६ धमस्यार्थ श्री: इन्द्रियाणि सुखभरश्च यस्य (देशस्य ) इति ग्रिोऽत्र बोध्यः । , जैनेन्द्राज्ञायाः अप्रहतस्वरूपप्रकारेणेत्यर्थः । ८ धर्मावबोधे । ९ नवाङ्गीवृत्तिकारश्रीअभयदेवसूरीश्वरस्येत्यर्थः । 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक स्तवः तस्योत्तंसे कलिमलहरे वर्यदालालपाटे,' मीठाभ्रातुः, भवभयमथोपाश्रयस्योपकण्ठम् । ख्यातं रम्यं जनिततिहरं 'वासुपूज्य'स्य चत्यं, तत्सान्निध्ये विहितकुशलः 'भाइचन्दो'ह्यवात्सीत् ॥ ७ ॥ तस्यासीद्वै सुकृतरुचिरा सुज्ञ मञ्छा ख्यपत्नी, शीलोदात्ता सुगुणसदना धर्मतत्त्वे प्रवीणा । धर्माबाधं समनुभवतोः १ पुण्यसारं तयोर्वे, 'ताराचन्द्रा'नुज मगनलाला'ख्यपुत्रो बभूव ॥८॥ २ यः पूर्वाराधित सुचरणज्ञानवैराग्यसारात , ३ सारूप्याप्तेवर धनगिरेः' कालवैषम्यवारी । शास्त्राभ्यासाद् तनुभवरतिस्ताधुभावस्पृहालु 'वज्रस्वामेजनक इव यो जातरागाल्पभावः ॥९॥ यद्वद् भोगान् किल धनगिरिमन्यमानो ६ विधातार , ___७ वाग्दानार्थ सुबहु यततः शुद्धबुद्धिः समाख रत् । दीक्षा लास्ये सपदि सुतरां कार्यमालोच्य कार्य मेतच्छुत्वा चकितमनसः श्रेष्ठिनो मौनमासुः ॥ १० ॥ तद्वद्गाढं शमितमनसा 'मग्नलाले'न कन्या ८ दानात्स्वेटप्रभवनलपाः श्रेष्ठिनोऽकारि मोघाः । किन्त्यम्बादेस्लमधिकमुहः मानसं तोषयन् वे, औपायंस्तातिरति यमुना ख्यां १० कणेहत्य कन्याम् ॥ ११ ॥ मोहाद्वैते जगति सुतरामुन्मनीभूय सम्यक्, संसारीयां कृतिकुशलतां व्यज्य विश्वास्य सर्वात् । कालच्छिद्राधिगतिमुदितः संविजानोऽग्रहीद्यः, सार्वी दीक्षां सुमुनिसविधे भावशुद्धिप्रकर्षात् ॥ १२ ॥ १ शुभानुबन्धि सुखमित्यर्थः । २ पूर्व जन्मन्याराधितानां सच्चरणज्ञानवैराग्यानां सारभूतान्निर्विकारभावादित्ययः । ३ श्रीवज्रस्वामिपितुः धनगिरिमहर्षगृहस्थावस्थायां यादृशी मनोदशाऽऽसीतादृशीं शुभां परिणति समधिगम्य तत्सादृश्यवता येन मग्नलालेन चरित्रनायकजनकेनाअज्ञप्रमादिजनयुक्तिछलरुपकालदिषमतोया असारत्वं प्रथितमिति द्वितीयपादरहस्यम। मोह जन्यासक्तिसूचकमिदं पदम्। ५ वेदोदयसूचकमिदं पदम् । ६ मोक्षमागेऽन्तरायभूतानित्यर्थः । । व्यवहारे ‘सगाई' पदेन अतदर्थः प्रतीतः। ८ स्वस्य इष्टस्य लानसम्बन्धस्थापनरूपस्य प्रभवनं लषन्ति-कामयन्ति ये ते इति विग्रहः । ९ प्रबलमोहवत इत्यर्थः। १० 'अनिच्छये'त्यर्थकमेतदव्ययम् । 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN श्रीआगमोद्धारक-स्तवः किन्त्वज्ञानाहितमतिभराः 'मग्नलाल'स्थ स्वीयाः, ___दीक्षाच्यावां प्रचुरविधयाऽकार्जस्विचेष्टाम् । झञ्झावातैरचलप्रतिमं नैकविघ्नैश्च मत्वा, राजद्वारेऽसदभियुजनात् कार्यसिद्धि प्रचक्रुः ॥ १३ ॥ एवं दैवाद् विषमभवके चारके ३ बद्धरूपात्, भोगान् भव्यान् प्रबलविधिना भुञ्जमानादकामम् । लेभे पत्युः सुभग यमुना'देस्तथा पुत्ररत्नं, शुक्तिमुक्तां लभति हि यथा स्वातिजाद् वारिवर्षात् ॥ १४ ॥ ऊर्वीब्रह्मग्रहशशधराब्दे सदाषाढमासे, ४ दर्शाख्याहे ५ विदितमहसः धुर्यस्वप्नात्सुतस्य । ६ सच्चन्द्रार्कशभृगुसहिते कर्कलग्ने सुरम्ये, जातास्वाधुः मुदितपितरो 'हेमचन्द्रे'ति संक्षाम् ॥ १५ ॥ यो व बाल्ये धृतिमतियुतः ७ मार्गदीपस्य भङ्गे नाभिव्येजे पुलिससविधे छद्मतां सत्यनिष्ठः । धर्माभ्यासं व्यबहृतिकलां द्राग् समभ्यस्य चित्रं, वाचां पत्युः सुमतिलघुतां स्वीयवुद्धया हि व्येजे ॥ १६ ॥ जनाचारे स्वपितुरनिशं प्रेरणाल्लुब्धनिष्ठ स्तत्त्वज्ञानाद् विमलमनसा भोगवैगुण्यमानी । आत्मोन्नत्यै प्रगुणमतिकः मोहभूपं जिगीषुः सच्चारित्रग्रहणपरतां व्येज उद्वाहकाले ॥१७॥ ६ पूज्यवर्याणां जन्मकुण्डलिकेयम् । १ व्यवहारे ह्येतत्पदभावार्यः 'धमाल-तोफान'शब्देन व्यज्यते। २ लग्नविधान ( कायदो स्यासदालम्पनेनासदारोपहेतुकाधिकरण( दावो-केस )प्रयोगेनेत्यर्थः । ३ आगमोद्धारकरीणां जन्मकुंडली बद्धसदृशादिति भावः । ४ अमावास्यायामित्यर्थः । ५ वृषभस्वप्नादिति भावः । म १.श ७ म्युनिसिपालिटीफानस' इत्यर्थपरसोऽयंशब्द । 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ श्रीआगमोद्धारक - स्तवः किन्तु प्रेम्णा परवशधियां १ बन्धूनां विघ्नरूपा २ सन्निर्बन्धाश्ञ्चरणमलनाच्छन्दतस्स्निग्धमातुः । मन्वानो वै परिणयविधि ३ चारकापत्तिरूपां 'माणका' ख्यां कुलजसुकन ४ पर्यणैषीद्विचेताः ॥ १८ ॥ मोहान्ध्यादये जगति विश्रमं ५ ग्रस्तरूपोऽपि दुःखायुक्त्तापाद्ये: ६ प्रकृतिमजहन् 'हेमवच्चन्द्र' शुद्धः । ज्येष्ठभ्रातुः सुमुनिभवनाच्चेरणाद् भूरि ७ वष्तुः, छिवा मोहं समयमिषतः प्राब्रज' द्धेमचन्द्रः ॥ १९ ॥ ८ किन्तून्मुह्यच्छ्वशुरजननिस्वीयकैर्थ्यान्ध्यवृत्ते न्यायागारे १० परिणयविधेः वाजतो ११ रावितं वै । धैर्यसारैस्सदुक्तैः, न्यायाध्यक्षं चकित ममसं १२ कृत्वाऽप्याप्तद द्विगुणचरणात्कर्मणा व्यावितोऽसौ ॥ २० ॥ १३ नन्द्यार्द्रादिप्रकृति जहनात्कर्मणोऽपूर्व शक्ते महाकान्तोऽपि १४ जनक सुचोद्यात् स्त्रियो भूषणार्थम् । १५ आम्म पुरि शुभविधेर्जग्मुषो जम्बुरासात्, दीक्षोत्कोऽगाज्जनकसहगो 'निम्बपुर्या' ' सुराष्ट्रे ' ॥ २१ ॥ 'झव्हेराब्धी 'न् कुमततिमिरोज्जासकान् दिव्यधाम्नः, ५ माघशुक्लपुत्र । 2010_05 ७ ४ ९ १ निश्रायेतिश्रुतिनिधिविधौ प्रव्रज्या' नन्दयुतजलधि' हेमचन्द्रो' बभूव, तुष्टो वप्ता निजसुतहितश्रेष्ट रीतिप्रसेधात् ॥ २२ ॥ १ विघ्नभूताद सदाग्रहादित्यर्थः । २ चारित्रस्यान्तरायभूतादित्यर्थः, अतद्धि' छंदतः 'पदविशेषणं ज्ञेयम् । ३ कारागार प्रसन रूपा - मित्यर्थः । ४ विमनस्क इत्यर्थः । ५ ग्रस्तसदृशोऽपीति भावः । ६ स्वजनसम्बन्धिवर्गजनितनानाकष्टरूपाग्नेरुतापादिभिरित्यर्थः । ७ पितुरित्यर्थः । ८ प्रकर्षेण मोहाधीना इत्यर्थः । ९ तत्पदस्यार्थो हि लोकभाषायां 'धांधल' इति पदेन व्यवह्रियते । १० लग्नविधान ( कायदो ) स्येत्यर्थः । ११ लोके हि 'फरियाद करी' इति कथ्यते । १२ अतत्पादस्यायं भावार्थ:हेमचन्द्रो हि कर्मणा विवशीभूतरसन् द्विगुणवरणात् द्विविधचरणात् ( अकं च बाह्यवेषरूपं द्वितीयं चान्तरभावस्फीतिरुपं ) च्यावितः इति । १३ ( कर्मविवशतया चरणपतितानां ) नंदिषेणार्द्रकुमारादीनां प्रकृतेः ( स्वभावस्य ) जहनं ( त्यागः - परिवर्तनमितियावत् ) यस्मादिति विग्रहः, इदं च 'कर्मण: ' इत्यस्य विशेषणम् । १४ पितुःशुभप्रेरणयेत्यर्थः । १५ अहमदाबादनगरे इत्यर्थः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः 'आनन्दान्धिः' शिवसुखजनौ संयमे दत्तचित्त श्चातुर्मासं प्रथममुषितः 'लीम्बडौ' गुर्नुपान्ते । बह्वभ्यस्तं यतिजनहितं तत्र दैवात्प्रतीपात् , मार्गस्यावेतभवदिवसे पूज्यपादा ययुः स्वः ॥२३॥ उद्यद्रोहे हिमपतनवद् गुर्वभावाधिक्षिप्तो ऽप्युद्यद्धयों गुरुवरवचो धारयन्नागमीयम् । 'आनन्दाख्या' गुणमनसा क्षिप्तमोहो द्वितीयां, चातुर्मासी सुविधि विदधे 'ऽहम्मदे शाहपूरे' ॥ २४ ॥ यात्रां कुर्वन् विहरणविधेः 'केशरीयादितीर्थे' वातीत्याप्तस्सदुदयपुरे' लोकसंख्यां सुवर्षाम् । मौने धर्मे सुबहु सुयतन् शास्त्रवार्तासु विक्ष स्तीर्थोद्भासी कुसमयमथान् ‘मारवाडे' व्यहार्षीत् ॥२५॥ सिद्धान्तोतया विशकलयिता लुम्पकादिप्रचारं, कृत्वा यात्रां वरमुनिमतां ‘गोलवाडे'षु तीर्थ्याः । 'पालौ' तुर्य जिनमतमहैष्टिकालं व्यतीत्या स्थात् सद्वत्तः पठनसुयती ‘सोजते'ऽक्षाङ्कवर्षाम् ॥ २६ ॥ सार्व तत्वं सुविशदमथो बोधयन् भव्यजन्तून , विहृत्योधे 'मरुधरभुवि' प्राप्तवान् गूर्जरत्रान् । तस्योत्तसे 'चरुतरभुवो' भूषके 'पेटलादे,' संजुष्टौ 'जीव-मणिविजयो' वप्तृबन्धू सुदीक्षौ ॥ २७ ।। ऐहामुत्रोपकृतिचतुरं रुग्णमायुक्तचेताः, ___ निर्याम्याप्ताचरितचतुरः षष्ठवर्षामवात्सीत् । 'संवत्सर्या अवमतिथिजे बुद्धिभेदप्रसङ्गे, पर्यायाल्पोऽप्यधिगतरहश्शास्त्रमान्यं जुघोष' ॥२८॥ १ मार्गशीर्षकृष्ण एकादशीतिथौ इत्यर्थः। २ श्रीमद्भिः झव्हेरसागरपूज्यपादैरन्तिमसमये स्वशिध्यायानन्दसागराय आगमाभ्यासपरतायाः श्रुतप्रचारस्य च भारपूर्वकं शिक्षादत्ताऽऽसीत् । ३ अहमदावादनगरे शाहपुरमध्ये इत्यर्थः । ४ तृतीयां। ५ गोलवाडीयपंचतीयाः। ६ पंचमीमित्यर्थः । ७ पिता ज्येष्ठभ्राता चेत्यर्थः । 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः वर्षान्ते 'चारुतर'जनतां बोधयित्वायतत्त्वं, 'छाणीग्रामे'ऽवसदृषिमितं वृष्टिकालं सुधीरः। मूर्तिन्हावाञ्जिनमतरिपून दुण्ढकान् जोषमाऽऽस्य, 'कल्लोलाख्ये'पुरि विहरता येन दीप्तं सुचारु ॥ २२ ॥ शास्त्रव्याख्याचकितसुबुध स्तम्भने यो ह्यकार्षी च्चातुर्मासं वसुमितमथो कृप्तधर्मप्रचारः । प्रशोत्कर्णाजिनमतहितात् पार्श्वचन्द्रान्यतीर्थान , कृत्वा वादे प्रतिहतधियो भासिता जैनदृष्टिः ॥ ३० ॥ वर्षान्ते षड्रियुतभविक सङ्घमादाय भव्यं, यात्रां कृत्वा विमलगिरिसत्तीर्थराजस्य सम्यक् । भव्योद्बोधं सुविधिविचरन वर्ष साणं 'पुर्या', चातुर्मासं नवममवसच्छास्त्रतत्त्वप्रकाशी ॥ ३१ ॥ चातुर्मासत्रय महमदावाद'माश्रित्य लब्धा, शाब्दे न्याये रुचिरपटुता येन विद्वत्सुमान्या। कृत्वा रम्यां सुविधि तमसां नोदिकां तीर्थयात्रां, दुष्कालात्तों सहकृतिनिधिः कारिता ‘पट्टणे' येः ॥ ३२ ॥ नागाक्षाङ्केन्दुमितशरदो माघराकाहिरम्ये, प्रायच्छद्धर्मजजरणछोडाय दीक्षा सुशिक्षाम् । आद्यं शिष्यं 'विजयसहितं सागरान्तं विधाय, वर्षा ब्रह्मेषुनिधिकुभवां 'भावपुर्या मवात्सीत् ॥ ३३ ॥ १ सप्तमम् । २ मूर्तेरपलापकारिणः । ३ अष्टमम् | ४ एष हि शब्दः भाषायां 'छरीपालतो संब' इत्युच्यते । ५ व्याकरणे इत्यर्थः । ६ पापानामित्यर्थः । ७ 'सहायकारी फंड' इति भावः । ८ गूर्जरदेशीयाणहिट्रपुराख्य पट्टणे इति भावः। ९ (पेटलादासन्न ) धरमजवासिने रणछोडदासाख्यपाटीदारज्ञातिकाय भव्यारेत्यर्थः । १० भावनगरे इत्यर्थः । 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः शास्त्रोपझं हितमुपदिशन भूरिभव्यप्रबोधं, वर्षाकालं मनुमितमथो ‘राजपुयी'मुवास । सत्रा श्री नेमिमुनिपति'नोदूह्य सिद्धान्तयोगान , 'पन्यासाख्यं' पदमलभत ज्येष्ठशुक्ले दशम्याम् ॥ ३४ ।। वर्षा नीत्वा ‘कपडवणजे' धर्मकृत्यैस्सुरम्यै यात स्सौराष्ट्र मथ विचरन देशनादानदक्षः । कृत्वेतस्तारणवरगिरेस्स्पर्शनां धर्मवाचा, प्रोतैः 'पेथापुर परिषदो योजकैस्सत्कृतोऽभूत् ॥ ३५॥ मजभव्यान् भवजलनिधौ रक्षिता जैनवाग्भि वर्षे नीत्वाऽऽगमविधियुते 'भावराजाख्य पुर्योः'। 'सूर्यद्रङ्गे' विविधसुमहैस्सत्कृतस्सूरतीयै श्चातुर्मासीं 'सुरतनगरे' यापयास रम्याम ॥ ३६ ॥ चैत्यान् सर्वान् सविधि 'सुरते'श्राद्धसङ्घन नत्त्वा, __ गत्वा 'मुम्बापुरि भविजनैः प्रार्थितः 'लालबागे'। गौराङ्गाणां ‘समितशिखरे' हर्म्यसन्निमिमीषां, धैर्यात् सत्ताभियमगणयन ध्वस्तवान् यः क्षणेन ॥ ३७ ।। 'दे ला. भ्रातु'निधिमपि वरं स्थापयित्वोपदेशा दारेभे सद्विषयखवितग्रन्थरत्नप्रकाशम । सङ्गं नीत्वाऽभयविधु'मुखं 'चान्तरीक्षाबतीर्थे,' यात्रां चक्रे रसरिनिरतैः श्राद्धवर्यैस्समेतः ॥ ३८ ॥ धार्थ नग्नस्सुबहु विहितं तत्र पूजाप्रसङ्गे, मिथ्याभ्याख्यानमपि च ततो न्यायगेहे प्रयुक्तम् । जित्वाऽकार्युः झगिति गुरवस्सत्यतत्त्वप्रयोगा ___ दाङ्ग्लन्यायाधिपतिहृदये जैनधर्मप्रकाशम् ॥ ३९ ॥ १ चतुर्दशममित्यर्थः । २ राजनगरे-अहमदावादपुरे। ३ तारंगातीर्थस्येत्यर्थः । ४ पेथापुरीयप्रान्तिकपरिषदि गुरुवरस्य जातसत्कृतेस्सूचकोऽयंपादः । ५ चातुर्मासद्वयमित्यर्थः। ६ भावनगरे-राजनगरे। ७ अभयचंद्रझवेरिणस्संघपतिपदेन नियोजितमित्यर्थः। ८ 'छरी पालतो संघ' इतिभावः । ९ दिगम्वररित्यर्थः । ___ 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः बाणार्यकेन्दुमितसमसि प्रावृषं 'येवलायां,' स्थित्वोद्वाह्य प्रथममुपधानवतं श्रावकाणाम् । 'सूर्यद्रङ्गे' जलदसमयौ यापितौ धर्मकृत्य गपं 'माणिक' चान्यभव्यान् ॥४०॥ धर्मक्रान्तिच्छलमुपदधन लालनाख्यो हि विद्वन मन्यस्सिद्धाचल'भुवि तदाऽपूजयत्स्वं शिवायैः । पाखण्डं तत् भृशमपगतं कर्तुकामैर्गणीन्द्रे मन्दधीः कान्तिविजय मुखैस्सङ्घबाह्यः कृतस्सः ॥ ४ ॥ स्थित्वा वर्षे बिषयजिनमो 'स्तम्भतीर्थे च'छाण्यां,' ज्येष्ठभ्रात्रे ‘विजयमणये' वर्यपन्न्यासभूषाम । दत्त्वा तीर्थाणि सविधि नमन 'पत्तनं चाणहिलं.' भव्यश्रोतृन जिनमतसुधां पाययन्नाप रम्यम ॥ ४२ ॥ तत्रायाप्य श्रुतवरमुदाप्यायिनी भव्यव, ___ सङ्घस्थित्यां तपसि धवले दिक्तिथी महितीथे । अज्ञानान्धंतमसमथनायागमोद्धारकी. __ श्रीज्या संस्थाप्य समितिमथो हर्षयामास भव्यान ॥४३॥ १२ आक्षप्तं यत्स्वगुरु जयवीराभिधैरागमाना मुद्धारार्थ चरमसमये' पालितुं तद् यथेष्टा । बह्वायासेन च गणिवरस्साधुसङ्घोपकृत्यै, ... प्रारेभे मुद्रणमथ महत् स्वाश्रयेणागमानाम ॥४४॥ १ वर्षे । २ वर्तमानकालीनगच्छाधिपतिमिति भावः । ३ शिवजीदेवशीप्रभृतिभिः । ४ प्रवर्तककान्तिविजयमहाराजमुख्यैः सूरिभिरित्यध्याहार्यम् । ५ चातुर्मासद्वयम् । ६ त्रयोविंशति-चतुर्विशतितममित्यर्थः । ७ श्रुतज्ञानस्य बरमुदः-हर्षस्याप्यायिनी-पोषिकां। ८ चतुर्विधसंघस्योपस्थितिसूचकमिदं पदम् । ९ वैशाखमासे । १० दशम्याम् । ११ भोयणीतीर्थे । १२ आगमोदयसमितिसूचकोऽयं शब्दः । ____ 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः वर्षायां 'पाटण'मुपगतैर्वाचनाऽद्या ह्यकारि, निर्ग्रन्थानां वरमतिमतामागमाभ्यासवृद्धयै । तस्यां श्री'सूयगडदशवेकालषत्रिंशिकादी'न , __ व्याख्यायाऽयुः ‘कपडवणजे' वाचनायै गणीशाः ॥४५॥ तत्र व्याख्याय पटु ‘ललितावश्यकादी'न् सुयत्न जग्मुर्वर्थ महमदपुर्यो' स्वधर्माभिवृद्ध्यै । तत्र स्थानाङ्ग'मथ सविशेषाकरं वाचयित्वा, वर्षामस्थात् 'सुरतनगरे' भासयन् जैनधर्मम् ॥ ४६॥ तत्राकाषुर्युगशरमिते वाचने 'चानुयोग श्रीनन्द्याचारमुखमहदावश्यकाद्या'गमानाम् । एवंकारात् सुयतिसमजे कालदोषात्प्रहीणं, सच्छास्त्राणां विततपठनं संततं वृद्धिमाप ॥ ४७ ॥ 'आनन्दाब्धेः' प्रवरगणिनस्तत्त्वनिष्ठागरिष्ठौ, भत्तयुत्साहौ श्रुतजिनमतस्फीतिकायषु दृष्ट्वा । (४)(७)(९)(१) वर्षे यात्रिग्रहतनुमते राधशुक्ले दशम्या माच यत्वं 'कमलविजया'स्सूरयः ‘सूरते'ऽदुः ॥४८॥ स्वणे माणिक्यमिव स्खचित योग्यसाः च सूरे क्ष्य प्रोतस्सुमहमकरोत् सूर्यपुर्या' स्सुसङ्घः । . न्यायागारे ललनविषयानिष्टवादं विजित्य, धर्मभ्राजी मुनिपतिरथो 'मोहमय्यां' समेतः ॥४९॥ १ ललितविस्तरा-आवश्यकसूत्र-अनुयोगद्वारसूत्र-योगदृष्टिसमुच्चय-उत्तराध्ययनसूत्र ग्रन्थानित्यर्थः। २ अमदाबादनगरे । ३ विशेषावश्यकभाष्यसहितमित्यर्थः । ४ चतुर्थो-पंचमो चेति भावः। ५ ललितविस्तरा-योगदृष्टि० अनुयोग०१-आवश्यक. १-उत्तराध्ययन-विशेषावश्यक०४- स्थानांग०३-सूत्राणामित्यर्थः । ६ साधुसङ्गे इति भावः । ७ वैशाखशुक्ले । ८ लालनशिवजीप्रकरणे न्यायागारेऽपि विजित्येत्यर्थः । 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः (२८) १ लब्ध्यङ्कप्रावृषि वृषमहिम्नोऽर्जको नैककार्य दुमिक्षार्तीयनिधिकरणेऽप्रेरयद् दानशौण्डान् । 'कीकाभ्रातु भवनमुषितस्सूरिराड् ‘भायखल्ले,' । स्वागःक्षान्त्यै विहितविनयः प्रार्थितो लालनेन ॥५०॥ चातुर्मासे शरमुनिनवेन्दौ श्रुतप्रोक्तरीत्या, देवस्वोत्सर्पणविवदने वादगल्भान विजेतुः । सूरेस्सङ्घार्पितनिखिलसद्ग्रन्थरत्नानि सङ्घो जैनानन्दश्रुतवरगृहे'ऽस्थापयत्सूरतीयः' ॥५१॥ 'सिद्धाने वणनवलचन्द्रों हि यत्प्रेरणातो, यात्रासङ्घ विविधसुमहैः पादचारं निनाय । कृत्वा यात्रां सह सुभविकैस्सूरिवर्यश्चकार, 'पालीताणे' गुहमुखमितां वाचनां साधुसो ॥ ५२ ॥ 'पिण्ड-प्रज्ञापन-भगवतीनोपनियुक्तिका'ञ्च, व्याख्यायो राह्य शुभमुपधानवतं भाविकानाम् । विज्ञप्ति मालववसिमतां मानयित्वा च सूरि शिष्यैःसाकं किल 'रतिललामाख्यपुर्या' समेतः ॥ ५३॥ धर्मोन्नत्या 'ऋषभसहितां केशरीमल्लनाम्नी, संस्थां' तत्राखिलजिनमतोद्भासिकां स्थापयित्वा । 'व्याख्याप्रज्ञप्तिसमवयसूत्रादिप्रशापना'नां, चक्रे व्याख्यां कुलगिरिमितां वाचनां कत्तकामः ॥५४॥ 'शैलाणाख्य' पुरमथ यतीन्द्रो हि सङ्घाग्रहेण, चातुर्मासार्थमुपगमितो धर्ममुढान् प्रबोद्धम् । मत्वा धन्यं नृपतिरपि यच्छास्त्रवाचो निशम्या मायुद्घो दयितहृदयर स्वीयराज्ये चकार ॥ ५५ ॥ १ धर्मप्रभावनाया इत्यर्थः । २ उत्सपण(बोली)स्याशास्त्रीयताया देवव्यस्य च चर्चासूचकमेतत्पदम् । ३ श्रीजैनानन्दपुस्तकालये इत्यर्थः । ४ षष्ठीमित्यर्थः । ५ रतलामनगरे इत्यर्थः । ६ खिलशब्दो हि विनापरपयोऽतोऽत्र निर्विघ्नतया जिनमतस्योद्भासकारिणीमित्यों झेयः । ७ छन्दोभंगभिया विहितः श्रीसमवायाङ्गसूत्रार्थे ऐतादृशपदप्रयोगः. मर्षणीयः धीधनैः विद्वद्भिः । ८ सप्तमीम् । 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः पूर्णे शैलाणनृपविषये' ह्यष्टमीरुद्रदर्शा ऽऽख्याताहःपर्युषणदिवसे मारीचारं न्यषैधीत् । प्राच्यं वृत्तं ह्यकबरविबोध्धुः स्मृति 'हीरसूरे' रानीयायाद्विविधनिगमान पावयन 'रत्नपुर्याम् ॥५६॥ २ प्रेमक्षप्त्या श्रुतवरतपस्सम्यगुद्वाह्य चान्यैः पुण्यैः कृत्यर्जलदसभये भ्राजयित्वा सुधर्मम् । 'माण्डूतीर्थ'प्रचलितविधौ बाधकं 'धारभूपं,' हस्तक्षेपोनिरसविधयेऽबोधयत्तत्र गत्वा ॥५७ ।। 'माण्डू-भोपावर'लसितसञ्चैत्ययोस्स्वोपदेशा ज्जीर्णोद्धारं प्रवरभविकैः कारयित्वा यतीन्द्रः । बोध पञ्चेडपुरपतये' 'सेमलीठक्कराय' प्रादात्ताभ्यां निजभुवि ततो मारयो वारिता वै ॥५८ ॥ वर्षाकाले जिनमतविभां वर्धयन् 'रत्नपुर्या,' शास्त्रैर्वादे यतिपविजयं त्रिस्तुतीयं व्यजेषीत् । सङ्घस्याभ्यर्थनमनिशम्योपधानं सुवाह, 'सम्मेतादिवजितुमभिबङ्ग' प्रतस्थे मुनीन्द्रः ॥५९ ॥ मध्ये मार्ग निजप्रतिभया धर्मभासं वितन्यन् , लोकं नानाविधमुपदिशान् ‘कालिकाता मयासीत् । चातुर्मासे युगगुणमिते तत्र चत्यादिधर्म्य ___ स्थानस्थित्यै बहुतरनिधिः कारितो देशनातः ॥ ६॥ १ अष्टम्यामेकादश्याममावास्यायां पर्युषणासु चेत्यर्थः । २ रतलामनगरे। ३ मांडवगढार्थपरकमिदं पदम्। ४ धारसंस्थानाधीशमिति भावः। ५ उत्कर्षण निरसनार्थमित्यर्थः । ६ हिंसाः । ७ श्रीयतीन्द्रविजयाहृमितिभावः । 2010_05 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री आगमोद्धारक - स्तवः (0) (2) तीर्थेशानां खयमलमितानां सुनिर्वाणभूमे'सम्मेताद्वे': प्रथितयशसः पुण्ययात्रामकार्षीत् । राज्ञो 'दुद्धेडियविजअ सिंहस्य भक्त्या विहृत्य, वर्षाहतोस्तुमुनिपतयोऽजीमगञ्ज' न्यवात्सुः ॥ ६१ ॥ बाबूलोकं विषयजसुखास्वादलीनं विबोध्य, संवेगापूरितसुवचनैर्धर्ममार्गे न्ययुङ्क्त । दीक्षाब्रह्मव्रतविधियुतानुत्सवान कारयित्वा पाव पावं विविधनिगमान् 'सादडी' ग्राममापुः ॥ ६२ ॥ पात्रं पावं जिनमतसुर्धीर्भव्यलोकं यतीन्द्रः, प्राग्वाटानां मरुजसहजं वैमनस्यं चिरत्नम् । कृत्वा दूरे श्रुततपविधि सोत्सवं कारयित्वा, बोद्ध धर्म शिथिलकृतिकान् 'मेदपाट' विज ॥ ६३ ॥ (७) (3) नीत्वा वर्षामुदयनगरे' सम्मितां धातुत्व १ मुस्सङ्खेन सह गुरवः 'केशरीया' ख्यतीर्थम् । २ तत्रौद्दण्डयं क्षपणककृतं स्वीयबुद्धया व्यपास्या ध्यारोप्येाच्चैस्सितपटयशोऽवर्धयन् सद्धजं वै ॥ ६४ ॥ વ नग्नाटयैः प्रतिहतमथो धर्मतेजो विद्धर्थ, 2010_05 न्यायागारेऽधिगतविजया आययुर्गुर्जरत्रान । चातुर्मासं सुमुनिसहिता हम्मदाबादपुर्या,' तस्थुर्भध्यान् विविधममलं जैनतत्त्वं दिशन्तः ॥ ६५ ॥ 'माकुभ्रातु' विनतिवशगा 'आश्विनीं सद्धचक्री मोलीं' दिव्यां नवपदमहो बोधिकां कारयन्तः । ३ संस्थां संस्थाप्य च नवपदाराधिकां स्वोपदेशा ४ द्यं मेन्सोसायटिविनयतंश्चख्युरास्तिक्यतत्त्वम् ॥ ६६ ॥ १ उदयपुरे | २ दिगंबरविहितम् । ३ श्रीनवपद आराधक समाज स्थापनायाः सूचक भेष पादः । ४ विद्याशाला (डोशीवाडानी पोळ ) मध्ये आस्तिक-नास्तिक चर्चा स्कोटस्वरूपप्रसिद्वव्याख्यान वार्ता सूचकोऽयं पादः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ तद्व्याख्यानात् क्षुभितमतिकान् शिक्षितान् शास्त्रपाठे २ सन्तोष्यार्थ' धनवितरणौचित्यतत्त्वं विबोध्य | श्री आगमोद्धारक - स्तवः याताः 'श्रीदेशविरतिसमाजं' ततस्स्थापयित्वा, .३ 'श्रीभोण्या' मतिशुभम हैराद्यतन्मेलकाय ॥ ६७ ॥ ४ (९) (३) वर्षावासं निधिगुणमितं याषितुं 'जामपुर्या' यान्तौ मार्गे'sहमदनगरे' 'तीर्थसिद्धाचलस्य' । रक्षात सपदि निधये प्रेरयित्वा सुभव्यान्, G स्थाने स्थाने जिनमतमहं वर्द्धयन्तो गणीन्द्रा ६ स्थित्वा वर्षा 'नवलनगरं' चारुवाग्भिस्स्वकीयैः । लक्षाधिक्यं द्रविणचयनं कारयामासुराशु ॥ ६८ ॥ सत्रचामाम्लगृहमथ चास्थापयन् छात्रगेहूं, ९ दान्ताः पूज्यैः धृतिमतिबलात् बालदीक्षाविरुद्धाः ॥ ६९ ॥ १० पश्वादेता सुरतनगरे' जैनसाहित्यवृद्धि - ११ सत्कोशार्थं धनिक 'नगिनं मछुपुत्र व्यबोधन् । 'मुर्शीदाबादपविजयसिंह 'रसमेतोऽत्र सूरे 2010_05 भक्तिव्यक्ती रणपटुको भावतो दर्शनाय ॥ ७० ॥ १२ आसीच्छ्री 'देशविरतिसमाजस्य' पर्षत्सुरम्या, दत्ता तस्यां भविकहितदा देशना सारंगर्भा । १३ 'रत्नाम्भोधेः' पठन सदनस्थायि कोशं विवद्धर्थ, धा 'तत्त्वप्रसारणकरी बोधमालाख्यसंस्था' ॥ ७१ ॥ १ आंग्ल शिक्षाप्रभावितान् नवयुवकानित्यर्थः । २ धनस्य व्यये दाने वा पात्रापात्र विवेकमित्यर्थः, एतद्धि तस्मिन् समये ज्ञानप्रवारनाम्नी भौतिकवादसमर्थक केलवणीपोषक कॉलेज-हाइस्कूल - बोर्डिगादीनां हिताहित करत्वमीमांसा सूचकं पदमस्ति । ३ श्री देशविरतिसमाजस्य प्रथमाधिवेशनायेत्यर्थः । ४ जामनगरे । ५ षष्टिसहस्राणि रूप्यकानां वार्षिकं दत्त्वा तीर्थस्वामित्व निर्णयस्यानुकूल्याय श्रीसिद्धाचलर खोपाफंडपोषण प्रवृत्तिरेतच्छ्लोके प्रदर्शितास्ति । ६ जामनगर मित्र्थः । ७ सत्रं = भोजनशाला, आचाम्लगृहं=आंबिलखातुं । ८ बोर्डिगाख्यविद्यार्थिगृहमिति भावः । ९ निष्फलप्रवृत्तिमंतः कृता इत्यर्थः । १० जैन साहित्योद्धारक - फंड मित्यर्थः । ११ नगीन भाई - मंछुभाई - श्रेष्ठिनमित्यर्थः । १२ अधिवेशनमित्यर्थः । १.३ श्रीरत्नसागर जैन बोर्डिगस्थाथि फंडमिति भावः । १३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः प्रव्राज्यानेकभविकजनान् पावयन्त स्तुराष्ट्रान्', प्रावृट्कालं शुभकृतिभरै स्तम्भतीर्थ व्यतीयुः । संस्था प्याहम्मदपुर मितास्तत्रसंस्थाय वर्षा , श्रुत्वोद्यच्छन् 'घटपुरनृपाज्ञां सुदीक्षाविरुद्धाम् ॥ ७२ ॥ सूरेश्शास्त्राभ्यसनमुदिता जङ्गमशानशाले त्येवं चाशंसदतिविदुषी जानी फाउझाख्या' । (२) (४) २ नेत्राम्भोधिप्रमितजलमुक्काललाभस्पृहावन मुम्बापुर्यागतभविजनप्रार्थनातो विज ॥ ७३ ॥ शास्त्रव्याख्याप्रथितयशसो 'लालबागे' हि सूरे दीक्षापुष्टि प्रवचनविधेः क्षुब्धयूनां प्रचारैः । व्यामूढाया ऋनुजनततेोहहत्य समित्या, . पत्र संस्थाप्रथनजनितं चालितं 'सिद्धचक्रम्' ॥ ७४ ॥ 'माणेकाम्भोनिधि'सदुपदेशात्प्रकृतोपधाने, मालारोपोत्सवमुपगता ‘घट्टकाढे पुरे' वै। व्याख्यानैस्स्वैस्समयसहितस्संयमायोग्यसूचि नाट्यं रुद्धा युवजनमतं भासितं शीसनं हि ॥ ७५ ॥ पश्चाद्यातास्सुरतनगरं' शिष्यवृन्दैस्समेता स्संवत्सर्यास्तिथिगतविसंवादमुन्मुद्य शास्त्रैः। भाव्युत्सूत्राध्वगविषमता याञ्जसा व्यञ्जिता सा, किन्नोऽद्यापि प्रकटविदिता वर्त्तते पर्वतिथ्याः ? ॥ ७६ ॥ १ वडोदराराज्यदीक्षाप्रतिबन्धककायदार्थपरकमेतत्पदम् । २ चातुर्मासवाची अयं शब्दः । ३ श्रीसिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमितेः स्थापनं सिद्धचक्राख्यपाक्षिकप्रारंभश्चेत्यर्थः। ४ घाटकोपरे इत्यर्थः। ५ दीक्षाया अयोग्यताप्रदर्शकं युवकसंघप्रेरित नाटकमित्यर्थः। .. 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ नानाप्रश्नोत्थितम तिगतभ्रान्तिशान्त्यै सुपर्षत्, श्री आगमोद्धारक - स्तवः सङ्घायासात् सितपटमतालम्बिनां सद्यतीनाम् । (९) (९) (१) 'आकाशाङ्काशिसहिते वत्सरे राजपुर्या, २ ० जाता यस्यां यतिपतिवरास्सम्यगामन्त्रिता वै ॥ ७७ ॥ शङ्कापङ्कं भविकमनसो क्षालितुं दत्तचित्ताः, गत्वा तत्र स्वकमतिभराच्छास्त्रपाठैश्च सर्वान्' । सन्तोष्यैता भविकविनयान्नीरदैस्साकमेवा सेक्तुं सांसारिकजनगणं सूरयो 'मेहसाणाम् ॥ ७८ ॥ ३ मध्ये वर्षे सुबहु विहितश्शासनोन्नायिकायै ५ रत्नः क्षेत्रे सुभविकनृणां धर्मपीयुष सेकः । यूरोपीय: श्रुतिपटपुटैर्ब्राउन:' सूरिशंसां, 2010_05 पीत्वाऽत्रेत मृतवचनैर्वीततृकः शशंस ॥ ७१ ॥ काले काले पुनरपि पुनः सूरयः पालितेभ्यः, शिक्षा-दीक्षा-वितरणमपि प्रायशो योग्यमेव । तस्मात् पादार्पणकरुणया पावयन्त्वेषमोऽस्मा नेवसङ्घादरभरभृतः संययुः' पालिताणाम् ॥ ८० ॥ चातुर्मास गतवति यथा भ्राजते शारदी श्रीः, पद्मव्याजैस्सरसि सरसा सन्ततं तद्वदेव । सज्ज्ञानश्रीरपि गुरुवराणां च सन्तन्यमाना, नानारूपैर्नवनवमहैर्धर्मकृत्यैश्च रेजे ॥ ८१ ॥ १ संमेलन मित्यर्थः । १२ राजनगरे - अहमदावादे । ३ चातुर्मासमध्ये इत्यथः । ४ शासनप्रभावक कार्यैरिति भावः । ५ अन्तःकरणरूपक्षेत्रे इति भावः । ६ आता नहि । १५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः 'श्रीमाणिक्यः' 'कुमुदविजय'श्वेत्युपाध्यायवो. पन्यासौ द्वौ बहुगुणयुतौ भक्ति'ते-'पद्माभिधौ च । अत्युत्साहैस्सह शुभकृपासिन्धुवद्भ्यो भवद्भ्यो १ लब्ध्वाऽऽचार्याह्वयमुपदवीं धर्मभ्राजो विरेजुः ॥ ८२ ॥ 'आनन्दस्याम्बुनिधिरिति यद् वर्तते नाम सत्यं, ... प्रत्यक्षम्तत् भुवि विदधती किं न जैनी प्रजाऽभूत् । तस्मात् सूरीन झगिति 'नगरे जामपूर्वे'ऽपि सङ्घः, प्रार्थ प्रार्थ कथमपि. चतुर्मासवासाय निन्ये ॥ ८३ ॥ अझैः कैश्चित् श्रुतकथितसिद्धान्तवाचा विरुद्ध, प्रोक्तं वृद्धिक्षयविषयकं पर्वतिथ्याः मतं यत् । उग्रं तत्खण्डनमथ कृतं शास्त्रदृष्टयापि लोकं . बोधित्वाऽरं नवमतवतो लजितास्थान प्रचक्रः ॥ ८४ ॥ तत्रैवाग्ने जलदसमये स्थापितो 'देवबाग लक्ष्म्या'नाम्नाऽऽश्रमवर उपादिश्य लोकः सुखेन । पश्चाद् भक्तो 'नगरधनपः पोपटाहस्सुभक्त्या, . सौराष्ट्रीयाखिलजिनपसत्तीर्थसंस्पर्शनाय ॥ ८५ ॥ सङ्घ नीत्वाचरणचलनं षडिसम्पालनोत्कं, सानन्दोऽगात् , सकलमपि तद्वर्णनं चारुरीत्या। 'तीर्थाः सौराष्ट्रविषयभवाः सङ्घयात्रा च' नाम्नाख्याते ग्रन्थे लसति तदिवाऽऽयोक्तुमाकेतयन्नन् ॥ ८६ ।। (संदानितकम् ) १ श्रीमाणिक्यसागरोपाध्याय श्रीकुमुद विजयोगध्याय-श्रीभक्तिविजयपन्यास-श्रीपद्मविजयपन्यासेभ्य आचार्यपदप्रदानसूचकमिदं पूर्वाद्धम् । २ जामनगरे। ३ आनन्दसागरसूरीश्वरेण सहेत्यर्थः । ४ 'सौराष्ट्रनां तीर्थो भने संधयात्रा' इत्याख्या थे इति भावः । 2010_05 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः (८) (४) एवं वस्वब्धिमितमथ ये वृष्टिवासं जनानां, पुण्याढयानामतिविनयतः सिद्धक्षेत्रे हि कृत्वा । 'खातारम्मं चरमजिनपस्याह्वया ह्यागमानां, रक्षागेहस्य च' सुभविकैः कारयामासुरत्र ॥ ८७ ॥ अन्यत्तत्र श्रमणनिकरग्रन्थसंग्राहि सङ्घ, संस्थाप्यारं शुभ महमदाबादपुर्या' यतीन्द्राः । भक्त श्रीमोहन' इति महच्छेष्ठिना सव्रतानां, ... रम्ये हाधापनविधिमखेऽभ्यर्थ्यमानाः प्रजम्मुः ॥ ८८ ।। सिद्धं शास्त्रैरुपकृतिकरं लक्षशो रूप्यकैस्तं, सम्पाद्योद्यापनविधिमलं 'शाम्पडापोल' मध्ये । तत्रावात्सुः शरनवनवैकाञ्चितेऽध्देऽब्दकाले. चाळ वीथ्यां सुगुरुचरणाः 'नागजिद् भूधराणाम् ॥ ८९ ॥ पश्चादेताः क्षरणसमयं यापयित्वाऽऽगमाना मागारस्य प्रचलितविधिं वीक्षितुं पालीताणाम् । साङ्गोपाङ्गं त्रुटिविरहितं सत्यमारब्धकृत्यं, ___ त्यक्त्वा सर्वस्वमपि सततं साधयन्त्येव सन्तः ॥ ९० ॥ कृत्वा लोकोत्तरसुचरितं ये तरन्तीह लोकं, धन्यास्ते वै सफलजनना भूभराः सन्ति चान्ये । सत्यामेतां भणितीमथ ते कर्तुकामा यतीन्द्रा स्तत्रातिष्ठन् घरसलिलदाऽऽसेककालत्रयीं ते ॥ ९१ ॥ १ श्रीवर्धमानजैनागमभंदिरस्य खातमुहृत्तमिति भावः । २ श्रमणसंचपुस्तकालयाख्यज्ञानालयस्थापनामित्यर्थः। ३ श्रेष्ठिवर्यश्रीमोहनलाल छोटालाल इति भावः। ४ वृष्टिकाले। ५ पोलवाची अयं शब्दो ज्ञेयः। ६ चातुर्मासमिति भावः । ७ शिलोत्कीर्णागममदिरस्येत्यर्थः । ८ चातुर्मासत्रयमित्यर्थः । ___ 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः दीर्घायासैर्गणधरवरप्रोक्तजैनागमानां, __पाठं शुद्धं दृषदुदरंग शिल्पविद्याप्रवीणैः । कारं कारं किमु न कलितं सूरिभिः कर्म चित्रं, यस्माज्जातो ह्युपलनिकरोऽप्यागमज्ञः(भ्राट) परे के ? ॥ ९२ ॥ रम्योपाध्यायकपदमदुः 'श्रीक्षमासागरेम्यः, श्रीमच्चन्द्रेभ्य उचितपदं. चारू पन्न्यासकाढम् । वर्षे चाग्रे गणधरगृहं सिद्धचक्रापूर्व, संस्थाप्येवं जिनमतविभाभासकं सत्समाजम् ॥ ९३ ॥ (९)(९) ९) १). अङ्काकाङ्काजमितशरदि ह्यागमानां गृहस्य, सत्यां पूर्तावभिनवप्रतिष्ठाविधिं माघमासे । पञ्चम्यामञ्जनशुभशलाकोत्सवेनापि सत्रां, सन्मूर्तीनां श्रुतविधियुतं कारयामासुरत्र ॥ ९४ ॥ सम्पाद्यैवं 'कपडवणजश्रेष्ठिचीमन्नलाल डाह्याभाईत्यभिधपरमश्रावकप्रार्थनातः । निश्रायां सूरिवरसुगुरोश्वारु संयोजिताया पताश्चैव्या नवपदसमाराधनायाः सुसिद्धये ॥ ९५ ।। चातुर्मास भविकहितकृञ्चापि तत्रैव कृत्वा, श्रीसङ्घस्यानुनयसहितप्रार्थना मोहमय्याः' । धर्मोद्भासं विहृतिममलां कुर्वतां भक्तवृन्द स्स्थाने स्थाने मुदितमनसा स्वागतं सुष्टु चक्रे ॥ २६ ॥ १ श्रीसिद्धचक्रगणधरमंदिरमित्यर्थः । २ श्रीजैनधर्मप्रभावकसमाजाख्यसंस्थास्थापनसूचकोऽयं पदसमूहः । 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारक - स्तवः शाम शामं चिरसमयजां सद्दिदृक्षा पिपासां, व्याख्यानैः स्वैरपि च जनता अभ्यषिश्चन् प्रकामम् । सम्प्राप्ताः 'श्रीसुरतनगरं' यत्र चाभूतपूर्व, भव्यं भव्यैः कृतमतितमां स्वागतं भासमानम् ॥ ९७ ॥ १ अर्धक्रोशादपि चलसमारोह आसीद् दवीयान्, २ यस्मिन् केतुप्रवरलसितप्राग्रहस्ताञ्च केचित् । ३ (५७) सुप्रेष्ठास्संवरगुणमिताः बेण्डवाघीयसङ्घाः (!) वाद वादं शुभततधनानद्धवाद्यान् विरेजुः ॥ ९८ ॥ लक्षाधिक्या नगरजनता राजमार्गेऽभिसूरिं, शीर्षाण्युच्चैर्गुणरतिभरान्नम्रयन्ती बभूव । मार्गे मार्गे वसन- कुसुम-स्वर्ण - रुप्यादिपात्र, वालं द्वाराण्यति विरचितान्यार्थ सद्भक्तिभावैः ॥ ९९ ॥ गिन्नीमुक्ताप्रभृतिसमुहघैश्व रत्नगेहूंली, 2010_05 बह्वचजातश्शुचिगुणलसद् रागदार्थ्याद् यतीशे । ५ स्वर्णैः रौप्यैर्वरसुमभरैस्सत्यमुक्तासुलाजैः प्रोद्य विविधसुम है सत्कृर्त 'स्सूरतीयैः' ॥ १०० ॥ (७) (५) साम्बेलानांभयशरमितानां मुदापादिदीप्ति, सूरेर्नानासुगुणमहिमाख्यायकास्साधुवादाः । रीत्या चैवं प्रचुरनिरावणितुञ्चाप्यक्या, ग्रन्थाझेया प्रविशनकथा 'सागर स्वागता' - ख्यात् ॥ १०१ ॥ ू ू ६ वक्खारीयाकुलजसुजनैः क्षत्रियैः मीलपैवें, esta विंशतिमिसहस्त्राधिकं राव्ययित्वा । सूरेः पादार्पणमुदितया कारयित्वा सुभक्त्या, पायें पाये जिनमतसुधां सूरिवक्त्राजहर्षुः ॥ १०२ ॥ १ स्वागतयात्रा (सामैयुं ) २ झंडा - निशानघारिणः । ३ उत्तमाः । ४ श्रेष्ठकुसुमसमूहैः । ५ सत्यमुक्ताफलानां वर्धापनैरितिभावः । ६ व्यवहारे हि एतच्छब्दार्थः " साइन बॉड" इतिपदेन कथ्यते । ७ अन्यालयपतिरिति । १९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारक स्तवः सत्रा सङ्घन च विधियुता 'चैत्ययात्रा सुरम्या___ऽकार्यास्ते यद् समविवरणं मुद्रितं पुस्तके वै। सोत्साहं विंशतिमणमितान् मोदकान् संवितीर्य, धन्या जाता 'सुरत'-जनता देशनादर्शनाभ्याम् ॥ १०३ ॥ चातुर्मासं तदनु विहितं 'मोहमय्यां' प्रशस्तं, यस्मिन् धर्मोन्नतिततिकृतीः कारयित्वा सुबहव्यः। भूयोऽप्येतास्सुरतनगरं श्रावकाभ्यर्थनात स्तत्राभूवन् रुचिरचरमाः वृष्टिवासाश्च पञ्च ॥ १०४ ॥ द्वया-काशाभ्रद्विमितशरदो माधवे मासि शुक्ने, __ोकादश्यां शुभशनिदिने श्रावकेभ्यः सुशस्ता । संस्थाऽस्थापि प्रयतमनसा ताम्रपत्रागमानां, भव्यादर्शस्थितिकरमहन्मन्दिरस्थापनायै॥ १०५ ॥ वर्षे चाग्रेऽहमदवरपू.श्रेष्टिनो माकुनाम्नः हस्ताभ्यामागमवरगृहस्यादिम खातकर्म । संस्कार तदनु च शिलारोपणं वाडीलाले .. त्याख्यश्रेष्ठिप्रवरकरतः कारितं मोदपूर्वम् ॥ १०६ ॥ वर्षे रुद्राक्ष-ख-ख-मिथुने ह्याश्विने शुक्लपक्षे, आशातिथ्यां सुजिनप्रतिमाः पालिताणात इद्धाः। सविंशत्युत्तरशतमिता. आगमागारहेतो रानाय्याकारि च सुविधिना तत्र भव्यप्रवेशः ॥ १०७ ॥ 'तुर्योर्द्ध-द्वयभ्र-नयन-मिते हायने माघशुक्ले, शुक्रे श्रेष्ठे क्षणतिथियुते सन्मुहूर्ते समासाम् । सन्मूर्तीनामपरिगणितोत्साहयुक्तैर्जनौघे रम्ये तस्मिन् श्रुतवरगृहे कारिता सुप्रतिष्ठा ॥ १०८ ॥ १२ १३ १ चैत्यपरिपाटीत्यर्थः। २ 'सूर्यपुरनुं स्वागत' इत्याह इति शेषः । ३ मुंबाईनगरे । ४ धर्मस्योन्नतिविस्तारकारिकार्याणीत्यर्थः । ५ वैशाखे इत्यर्थः। ६ श्रावकद्वारेत्यर्थः । ७ २००३ वर्षे इत्यर्थः । ८ अमदावादनगरवासिन इत्यर्थः। ९ मांकुभाईत्यभिधया प्रसिद्धस्य माणेकलाल- मनसुखलालाख्यश्रेष्ठिन इत्यर्थः । १० मुंबापुरीयख्यातव्यापारि श्रीवाडीलाल चत्रभुजाह्वश्रेष्ठिकरत इत्यर्थः। ११ दशमीदिने। १२ १२० संख्याकाः। १३ क्षणशब्दस्य कालवाचित्वमन्न ज्ञेयं, कालस्य च भूतवर्तमानभाविरूपेण त्रैविध्यस्य विदितत्वात् तृतीयायामित्यर्थो बोध्यः । ___ 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारक - स्तवः संवत्सर्या स्तिथिवरसमाराधनायाः प्रसङ्गे ऽस्मिन्नेवाब्दे समुदित विसंवादनिर्यासकार्ये । नैः प्रचलितविधेयै श्रुतप्रोक्ततां वैः संसाध्यान्यानपि जिनपथ: पोषणोत्कान् प्रचकुः ॥ १०९ ॥ काले गच्छत्यविरतमितो ग्रिमे पौषमासे, कृष्णे पक्षे 'शरतिथिगतेऽचिन्तितो वायुरोगः । वृद्धि यातो बहुतरचिकित्साविधिज्ञैः सुयत्नात्, सैवाऽपूर्वा स्थितिरथ तदाऽऽसीन्नचाल्पाप्यशान्ति स्थित्यां सज्जाः जातास्समुपचरिताः किन्तु शान्तो न जातः ॥ ११० ॥ ० २ २ बड़-खा- काश द्वि-मितपरवाणौ श्वेतोऽप्राक्षीजिनपतिपदेऽभूदपूर्वोऽनुरागः । तस्यामपि नवनवलोकनिर्माणकार्य, ज्ञानध्यानादिकमपि मनाङ् नावरुद्धं कदाचित् ॥ १११ ॥ ये ० मध्ये यस्य स्थितिपरवशाच्छ्रीनमस्कारमन्त्र पुनर्वायुवेगो वारंवारं प्रबलरभसा पीडयामास देहम् । 2010_05 आदेः स्वभ्यस्तमथ च तथा देहस्थित्यादि सम्यग् दाद येनेतरजनगणासारोगेऽपि शान्त्या । स्यायातोऽभूदहह ! सततं श्रावणस्य प्रसङ्गः ॥ ११२ ॥ स्तम्भाद्याश्रयविरहिताश्चारु पद्मासन, स्वष्टस्मृत्यामथ निजमनो योजयामासुरारात् ॥ ११३ ॥ esser भृशमुपगता डॉक्टर अप्यवोचन्, धन्य ते यदि विषमस्थेऽपि रोगे सुशान्ताः । अन्यः कश्चिद् यदि गदहतोऽस्यां स्थितौ स्यात्तदा तु, स्वान्तर्भीतः स खलु सहसान्यां दशामेव यायात् ॥ ११४ ॥ १ पंचमी तिथौ । २ अयंशब्दः संवत्सरापरपर्याय इति हैमलिंगानुशासने । २१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीआगमोद्धारक-स्तवः एवं रुग्णां स्थितिमथ निजां वीक्ष्य विज्ञाय चास्या ऽनित्यत्वं वै सपदि वपुषो माधवे शुक्लषष्ठ्ठ्याम् । सर्वानाहूय च निजशरीरं ततो व्युत्सृजन्तो ऽस्मार्षर्भक्त्या जिनपतिवरान् ह्यर्धपद्मासनस्थाः ॥ ११५ ॥ एकादश्यां निशि कविदिनेऽप्येकवारं त्वतीव वेगादाक्रान्तिरभवदहा ! येन सर्वेऽप्यचेष्टाः। सन्त्यक्ताशाः जिनवरवचः श्रावयामासुराशु, सत्पुण्यानामतिबलतया किन्त्वितं दुदिनं तत्॥ ११६ ॥ वैशाखस्यासितदलगते पञ्चमेऽहन्यस्तकाले, सूर्यस्याभूत् त्रिदशनिलये श्रीगुरूणां प्रयाणम् । हन्ताकस्माद् सुरतजनताऽचिन्त्य दम्भोलिपाताद , भीता व्यग्रा प्रकृतिविधुरा कृत्यशून्या वभूव ॥ ११७ ॥ सङ्ग्रेनोच्चैस्तरशिखरिता चारु दोला ह्यकारि, प्रासादस्यानुकरणकरी सत्कलाभिश्च युक्ता। विद्युत्पत्रैरधिगतसमाचारवन्तश्च भक्ताः ग्रामादग्रामादरमुपगता अन्त्ययात्रार्थमाशु ॥ ११८ ॥ दोलोत्थानाय च कृतसहस्रादिमुद्रापणा वै, __ भक्ताः स्वीयं मनुजजननं सार्थकीचक्रुरेव । अन्ये प्रादुर्द्रविणनिचयं वह्निसंस्कारकार्य, __भव्या यात्रा निखिलनगरे भ्रामिता भक्तिभावः ॥ ११९ ॥ पश्चाद्गोपीपुरपरिसरे स्वागमौकःसमीपं, संस्थित्यां चापरिमितजनानां गुरूणां सुभव्यम् । नानाकाष्ठैमलयगिरिजर्दाहसंस्कारकृत्यं, __नाभूत् पूर्व न च परमितो भावि तादृग् बभूव ।। १२० ॥ १ वैशाख मासे। २ किंतु इतं = गतम् इति पदच्छेदोऽत्र बोध्धः।३ गूजरदेशीयपद्धत्येदं ज्ञेय, पूर्णिमान्तमास (शास्त्रीय ) पद्धत्या तु ज्येष्ठस्येति बोध्यम्। ४ तार-टेलिग्रामाख्याधुनिकशीघ्रसदेशावहपत्रैरित्यर्थः । ५ अरम् शीघ्रम् । ६ सुंदरागममंदिरपाव। 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ३८ शिष्याः पादोत्तरशतमिताः अटत्रिंशत् सुसंस्थाः, १२ श्री आगमोद्धारक - स्तवः २ ७ यैचाकारि श्रुतहितकरी वचनाः सप्त यासु, १ ज्ञानागारा: मुनिमितमताः सन्ति यत्कीर्त्तिदीपाः । ग्रन्थाः लक्षद्वयधिकगणितश्लोकमात्रा ह्यवाचि ॥ १२१ ॥ सप्तत्रिंशत्सुरपनयनाङ्गाधिकाना नवीन लोकानां ते भुवि रचयितारः कथं स्युर्न नम्याः । १७९ ऊनाशीत्युत्तर गतशतग्रन्थसम्पादकास्ते, ५० धन्याः पञ्चाशदधिकशुभग्रन्थसङ्ग्राहकाश्च ॥ १२२ ॥ व्याख्यानानामपि कतिपये ग्रन्थवर्याः प्रसिद्धाः, येषां सन्ति प्रथितविभवा भूमिकाः प्राथमिक्यः । ७८ नाशीतिप्रमितरुचिरग्रन्थरत्नेषु येषां मागे लोकान् जनिहितकरं बोधयन्त्यो लसन्ति ॥ १२३ ॥ १२ आदित्याङ्काः सुततमुपधानव्रताः कारिताः यैः, 2010_05 शोधं शोधं सकलसुजिनोत्तागमानां सुपाठान् । सल्लोकानामुपकृतिहितं मज्जु मुद्रापयित्वा नैकान् योग्यानभ्यसकृतिनोऽधीतयेऽयूयुजश्च ॥ १२४ ॥ एवं नानावतजपतपोध्यानदीक्षाप्रतिष्ठा यात्रास्नात्रादिक बहुविधोद्यापनैश्चोपधानैः । भव्यान् जीवान् जिनपगदिते रम्यमार्गे नियुज्य, त्यक्त्वा देहं सुरपतिगृहं संययुः सूविर्याः ॥ १२५ ॥ १. २३३३४२ श्लोकप्रमाणग्रन्था वाचनासु वाचिताः । २ सप्तत्रिंशत्सहस्र मितानामित्यर्थः । ३ प्रस्तावना इत्यर्थः । २३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्री आगमोद्धारक स्तव : येषां कीर्ति विमलविमलामश्मताम्रागमाना १ मागारस्था दिशि दिशि दिशन्त्यः पताका नितान्तम् यावच्चन्द्रारुणकिरणवन्तौ दिवि द्योतमानौ, गायं गायं तदवधि मुद्दा रज्जयिष्यन्ति लोकम् ॥ २२६ ॥ 100 O ॥ अन्त्यमंगलम् ॥ (शिखरिणी) कृतं यैलोंकानामुपकृतिहितं वाचनिकया, श्रुतानामभ्यासस्त्र टिविरहितः सम्प्रचलितः । सुपूज्याँस्तान् 'श्रीसागर' इति शुभाख्याप्रथितकान्, नमामः सूरीन्द्रान् श्रुतवरसमुद्वारनिरतान् ॥ १२७ ॥ चित्र-हार-बन्ध* SANS ( शार्दूलविक्रीडितम् ) २ 3 शश्वच्छान्तिमयान् महामतिमतः कल्यङ्कारान् कर्मठान्, भव्यापत्तिभरापहान् जलजवज्जन्तुभ्य आनन्ददान् । 2010_05 ४ दान्तान् नौतिमां विभावितविधीन् व्याख्यानसव्यासनान्, प्रौढान् सत्यसखान् सदा नतधियाऽऽनन्दाब्धिसूरीश्वरान् ॥ १२८ ॥ ( स्रग्धराछन्दः ) गुणिगणगणनास्वग्रगण्या महान्तो, धन्या मान्या वदान्याः विद्वद्गोष्ठी गरिष्ठाः ७ वादीन्द्रा देशकेन्द्रा अविकलनिगमज्ञाततत्त्वा महिष्ठा. 'आचार्यानन्दवर्याः प्रथितगुणगणाः 'सागरान्ता' जयन्ति ॥ १२९ ॥ ५ जिन पतिचरणेन्दीवरेन्दिन्दिराश्च । ६ ॥ आगमपर्यालोचनप्राणः आगमोपजीवी च श्रमणः श्रामण्यसारमवाप्नोति लभते च निर्वृतिम् ॥ ॥ जीयासुरागमोद्धारकाः सद्गुरवः । १ यावच्चन्द्रार्कावित्यर्थः । २ कल्यशब्दो हि कल्याणापरपर्यायभद्रवाचकस्ततः भद्रङ्करानित्यर्थोऽत्र ज्ञेयः । ३ क्रियाकुशलान् । ४ व्याख्यानलब्धप्रतिष्ठानित्यर्थः । ५ तीर्थकुच्चरणकमलभ्रमरा इत्यर्थः । ६ शास्त्रापरपर्यायोऽयम् । ७ पूज्याः । * अयं हि श्लोकः आधुनिकभूषणपरिभाषया नेकलेसेत्याख्य स्वर्णमय रत्नहाररुपेण संयोजितोऽस्ति तत्रतिकृतिरप्यस्मिन्नेव ग्रंथे मुद्रिताऽस्त्यन्यत्र । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अर्हम् ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । शेठ देवचन्द्रलालभाइ-जैन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्के-१०१ आगमोद्वारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितःअल्पपरिचितसैद्धांतिकशब्दकोषः अकार: अंकुर-अंकुरः, प्रवालः । जं० प्र० ३० । अंकुर-अंकुरः, शाल्यादिबीजसूचिः । भग. ३.६ । जं. अंक:-लाञ्छनम् । जीवा० पृष्ठ २७० । अङ्कः, उत्सङ्गः प्र. १६८ । । ओघ० १४३ । रत्नविशेषः । जं. प्र. २३ । अंकुल्ल-अकोठः । वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ ।। अंककरेलुग-शाकविशेषः । आचा० ३४८ । अंकुसं-महाशुक्रे विमानविशेषः । सम० ३२ । अंकुश, अंकणं-अङ्कन, तप्तायःशलाकादिना चिह्नकरणम् । प्रश्न० २२ । २२।। येन रजोहरणमङ्कुशवत्करद्वयेन गृहीत्वा वन्दते तत् । लाञ्छनम् श्वशृगालचरणादिभिः । आव० ५८८ । कृतिकर्मगि षष्ठदोषः । आव० ५४३ । अंकधाती-अंकधात, धात्रीदोषे । नि० चू० द्वि. ९३आ। | अंकुस-अंकुशः, सृणिः । प्रश्न० २२ । (अंकपतिता)-दासी । उत्त० २६२. । अंकुसपलंब-महाशुक्रे विमानविशेषः । सम० ३२ । अंकमुहसंठिया-अङ्कमुखसंस्थिता, पद्मासनोपविष्टोत्संगमुख अंकुसयं-अंकुशकम् , तरुपल्लवग्रहणार्थमंकुशाकृतिः । भग. वत् अर्धवलयाकारः । सूर्य० ७१ । ११३ । अंकलिवी-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । अंकुसये-अंकुशका, देवार्चनार्थवृक्षपल्लवाकर्षणार्थम् । औप. अंकवडेंसए-ईशान कल्पपूर्वदिगावतंसकः । भग० २०३ ।। ९५ । अंकविद्या-(अंकविज्जा) गणितम् । जं० प्र० १३६ । अंकुसो-अंकुशः। अंकुशाकारो मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूतः अंकहरो-अङ्कधरः, चन्द्रमाः । जीवा० २७० । ।जीवा० २१० । अंकावर-अङ्कावती, वक्षस्कारपर्वतः । जं० प्र० ३५७ । अंके-अंककाण्डं खरकाण्डे चतुर्दशं काण्डम् । जीवा० ८९ । अंकावई-अङ्कावती, रम्यविजये राजधानी नाम । जं.प्र. अंकः, । प्रज्ञा० २७ । उत्सझे । जं० प्र०३८ । मणिभेदः ३५२ । शीतोदादक्षिणकूले वक्षस्कारः । ठाणा. ८० ।। उत्तः ६८९ । श्वतरत्न उत्त० ६८९ । श्वेतरत्नविशेषः । प्रज्ञा०३६१। रत्नविशेषः दक्षिणवर्ती वक्षस्कारः । ठाणा० ३२६ । । जीवा० २३ । अंकाईओ-महाविदेहे विजयराजधानी । ठाणा० ८० । अंकेल्लण-अंकेलण, तर्जनकविशेषः । जं० प्र० २३५ । अंकावडिंसए-अङ्कावतंसकः, ईशानस्य पूर्वस्यामवतंसकः । अंको-अङ्कः, पृथिवीभेदः । आचा० २९ । रत्नविशेषः । भग० । जीवा. ३९१ । ४७९ । एकोरुमैथुनं । नि० चू० प्र० २५५आ। रूढिगम्यः, अंकितो-अङ्कितः, चिह्नितः । आव० ८२२ । शंख जातिविशेषः । प्रश्न. ३७ । रत्नविशेषः । जीवा० १८०, (अंकिल्ल)-नर्तकः । औप० ३ । १९१ । पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूपः आसनबन्धः । सूर्य० ७१ (अंकुडिओ)-अंकुटिकः, नागदत्तकः, । जं० प्र० ५० । जीवा० २०५ । . . अंकोल-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा. ३२ । 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकोल्ल | अंकोल - वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । अंकोल्लाणं - गुल्मविशेषः । भग० ८०३ । अंगं - अङ्गम्, अङ्गविषयम् । आव० ६६० । कारणमवयवः । ठाणा ० ३ । कारणम् । प्रश्न० १०३ । शरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादिविकार फलोद्भावकं शास्त्रम् । सम० ४९ 1 समयं वपुः । जीवा० २७० । कारणम् । जं० प्र० ९९ । अज्यते व्यक्तीक्रियतेऽस्मिन्नित्यङ्गम् । आचा० ५ । भेदः कारणं वा दश० ९० । शिरःप्रभृति । दश० २३७ । आंगं-अक्षिबाहुस्फुरणादिकम् । सूत्र० ३१८ । शिरःस्फुरणादि । ठाणा० ४२७ । अंग - अङ्गानि । शिक्षादीनि षडङ्गानि । भग० ११४ । अंगओ - अङ्गकः, भद्रप्रकृतिकः । आव ० ७०४ । अंगचूलिया - अंगचूलिका, अंगानामुपासकदशाप्रभृतीनां पंचानां चूलिका - निरयावलिका । व्य० द्वि० ४५४ अंगणं - मंडवथाणं । नि० चू० प्र० १९२अ | अजिरम् | प्रश्न० १३८ । अङ्गणं - षट्स्थंडिलभूमिस्थानम् । ओघ० २०० । अंगणेत्रिका - हस्तमालक आभरणविशेषः । औप० ५५ । अंगद - बाहुशीर्षाभरणविशेषः । जीवा० १६२ । केयूरम् | जं० प्र० १०६ । आचायश्राआनन्द सागरसूरि सङ्कालतः | अगारा ष्टशिष्यः । आव ० ७०४ । येनोपशमे सत्यवाप्तं सामायिकम् । आव ० ३४७ । अंगलोअं - अङ्गलोकं, म्लेच्छजातीयजनाश्रय स्थानम् । जं० 2010_05 प्र० २२० । अंगवंसो - अङ्गवंशः, अङ्गराजसन्तानस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्ततिराजानः प्रव्रजिताः । सम० ८५ ॥ अंगविगारं - अङ्गविकारः, शिरः स्फुरणादिस्तच्छुभाशुभसूचक शास्त्रमपि । उ० ४१७ । अंगविज्जं - अङ्गविद्याम् शिरःप्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकां विद्याम् । उत्त० २९५ । अंगविजा-अङ्गविद्या, अ-पादः विद्या - प्रासादपातनात्मिका ( सत्कारपुरस्कारपरिषहे दृष्टांतपदम् ) । उत्त० १२५ । अंगहारिका - नृत्यकला द्वितीयभेदः । सम० ८४ । अंगा - अंगाः, जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । अंगाई- अंगानि, शिरःप्रभृतीनि । प्रज्ञा० ४६९ । एकादशांगानि प्रज्ञा० ५६ । अवयवाः । ठाणा० १७० । शिरः प्रभृतीनि । उत्त० ४२८ । अंगाणं - देशविशेषः । भग० ६८० । अंगादाणं - मेढ्रम् | नि० चू० प्र० ११६अ । अंगादानं मेहनम् । नि० चू० द्वि० ३०आ । अंगारः - ( इंगाल), विगतज्वालोऽभिः । भग० १२२ । विगतधूमज्वालो दह्यमानेन्धनात्मकः । उत्त० ६९४ । कृष्णवर्णवस्तु | आचा० २९ । अंगारओ - अंगारकः, महाग्रहः । जीवा० ३३६, ३३७ । अंगारकारिका - ( इंगालकारिया), अग्निशकटिका | भग० ६९७ । अंगारदोषः - ( इंगालदोस ), आहाररागाद्गाद्धर्याद्भुञ्जानस्य चारित्रांगारत्वापादनाद् | आचा० ३५१ । अंगारमर्द्दकः - (अंगारमद्दय) द्रव्यप्रत्रजितः । दश० ११५ । उत्त० ५६६ । विशे० १०६४ । अंगारय - अंगारकः, मंगल: । औप० ५२ । अंगारवई - अंगारवती, संवेगोदाहरणे शिशुमारपुर पतिधुन्धुमारदुहिता श्राविका । आव० ७०९ । अंगदे - केयूरे | ठाणा० ४२१ । अनिका | उत्त० ७८ । अंगनाम - शिरउरः पृष्ठबाहूदरपादनामानि । तत्त्वा० ८ | अंगपडिहारिणि - अन्तःपुरप्रतिहारिणी । आव० ७०० । अंगपविट्ठे- गणधरकृतं मातृकापदत्रयप्रभवं वा ध्रुवश्रुतं वा । ठाणा० ४९ । अङ्गप्रविष्टम् । ठाणा० २०० । अंगप्रविष्टं - गणधरहन्धमाचारादि । तत्त्वा० १-२४ । अंगबाहिरे - अङ्गबाह्यम्, स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरणनिबद्धमध्रुवश्रुतं वा उत्तराध्ययनादि । ठाणा० ५१ । अंगमंर्ग - अङ्गमङ्गम्, गात्रम् । औप० ११ । अंगमंगो - अङ्गमङ्गम्, अङ्गप्रत्यङ्गम् । जीवा० २७७ । अंगमंदिरं मि- चंपाचैत्याभिधानम् । भग० ६७५ । अंगमद्दियाओ - अंगखल्पमर्दन कारिकाः । भग० ५४८ । अंगयं-अङ्गदं, ब्राह्वाभरणविशेषः । जीवा० २५३ | प्रश्न० ७१ । बाहुशीर्षाभरणविशेषरूपम् । प्रज्ञा० ८८ । अंगय - अङ्गके, मूर्द्धादौ । जं० प्र० १८९ । अङ्गदम्, बाह्वा - अंगारवई प० - अंगारवती प्र० । आव ० ६७ । अंगारशकटिका - ( इंगालकारिया ) | आचा० ३०९ । भरणविशेषः । भग० १३२ । अंगरिसी - अङ्गर्षिः, आर्जवोदाहरणे भद्रकः कौशिकार्यज्ये- अंगारा- ( इंगाल), लघुतराग्निकणाः । ठाणा० ४२० । ( २ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगारियं ] अंगारियं - अंगारकितं, विवर्णीभूतम् । आचा० ३४९ । अंगिरसा - गौतम गोत्रोत्तरभेदः । ठाणा० ३९० । अंगुटुं - अंगुष्टम् । आव ० ८४५ । अंगुट्टपसिणा - विद्याविशेषः । नि० चू० प्र० १७७अ । अंगुट्ठि - स्नानम् । नि० चू० प्र० १९१आ । अंगुट्टी - अंगुष्टी, शिरोऽवगुण्ठनम् । आव० ९५ । अंगुलपुहुत्तिया - अंगुल पृथक्त्वम् | जीवा० ३९ । अंगुलभावो - अंगुलभावः, शुभाशुभपदार्थः । विशे० ८७६ । अंगुलिं - अंगुलिः, करशाखा | आचा० ३८ | अंगुलिको चर्ममयोपकरणम् । नि० चू० प्र० १३७अ । नखभंगादिरक्खट्टा । नि० चू० द्वि० १८अ । अंगुलिकोशः, श्रमयो दारुमयो वंशमयो वा येनाङ्गुलिसंलग्मेन तन्त्री आहन्यते सः । जीवा० १९५ । अंगुलिकोशकः शृङ्गदारुदन्तादिमयः । जं० प्र० ४० । अंगुलिजं - अंगुलीयकम्, अंगुल्याभरणविशेषः । औप० ५५ अंगुलिजग- अंगुलीयकम्, मुद्रिका | जं० प्र०१०६ । अंगुलिज्जयं - अंगुलीयकम् । आव० १७० । अंगुलिधणुहओ - अंगुलधनुः । आव० ४८४ | अंगुलिभमुहा - कार्योत्सर्गदोषः । आव ० ७९८ । अंगुलिसत्थयं - शस्त्रकोशविशेषः । नि० चू० द्वि० १८अ । अंगुलीय गं - अंगुलीयकं, भूषणविधिविशेषः । जीवा ० २६९ । अंगुले - प्रमाणभेदः । भग० २७५ । अंगुष्ठ-प्रश्नभेदः । ठाणा० । ३०१ | अंगुष्ठप्रश्नः शुभाशुभसूचकः प्रश्नः । उत्त० ४४६ । अंगोवंगाई- अंगोपांगानि । प्रज्ञा० ४६९ । अंगोह लिं- अंगरुक्षणम्, देशस्नानम् । आव० ४१७ । व्य० द्वि० ४०५अ । अंचइ-अञ्च्चति, उत्पादयति । जं० प्र० ४२१ । जीवा० २५५ । अंचिअं-अचिंत, नृत्यविशेषः । जं० प्र० ४१२ । अंचि अंचियं - उत्पतनिपतां पार्श्वतः करोति । ठाणा ० ५२२ । अंचिओ - अश्चितः, व्याप्तः । आव ० १६७ । अश्चितनामा पञ्चविंशतितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । अंचितरिभितं - अश्चितरिभितनामा सप्तविंशतितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । अंचितांचि - गमागमः । भग० ६८३ । अञ्जिते सकृद्रते । भग० ६८३ । अल्पपरिचित सैद्धांतिकशब्दकोषः 2010_05 [ अंजणपव्वय अञ्चियं - दुर्भिक्षः । नि० चू० प्र० १४८आ । दात्रसंधी | नि० चू० प्र० १८३आ । नाट्यभेदः । नि० चू तृ० १अ । अञ्चितं, नाट्यम् | जं० प्र० ४१७ । आव ० ३९९ । अंचेइ-आकुञ्चयति । औप० २५ । अंछति - आकर्षन्ति । विशे० ३८३ । आव ० ४८ । अंछणं - पण्हपसरणं । नि० चू० प्र० १९१आ । अंगुल्या लिप्तस्य रंगितस्य । ओघ० १४४ । आकर्षण-समारणम् । ओघ० १४४ | छमाणाणं- आकर्षताम् । आव ० ४८ । अंछवियंडियं- आकर्षविकर्षम् । आव ० ८३२ । अंछिऊण - आकृष्य । आव० ४२७ । अंछित्ता - अपह्रियतां माया । व्य० द्वि० ८४ | अंछिय- आकृष्यते, प्रक्षाल्यते । बृ० प्र० ८१अ । अंछियनयना - आकृष्टनेत्राः । प्रश्न० २१ । (जिन्भिन्दियं - छि) आञ्छित आकृष्टम् ( आकृष्ट जिह्वेन्द्रियाः) । प्रश्न० ६० । अंछिया - आकृष्टा । आव० २२७ । अंजणं - आणतकल्पे विमानविशेषः । सम० ३५ । सौवीरा• अनादि । बृ० द्वि० ९२अ । सोवीरयं रसंजगं वा । निं० चू० प्र० २१८आ । अञ्जनम्, सौवीरादि । आव ० ५३० । अंजण - अजनं, तप्तायः शलाकया नेत्रयोः म्रक्षणम् वा देहस्य क्षार तैलादिना । सम० १२६ । अञ्जनं, सौवीराञ्जनादि । प्रज्ञा० २७ | सौवीराजनम् । जं० प्र० ६० । अञ्जनाः, अजनरत्नमयत्वात् । जं० प्र० १६३ । अंजणई - वलीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ | अंजणाए -अञ्जनकः, वनस्पतिविशेषः । औप० १० । अंजणकेसिया-अज्जन केशिका, वनस्पतिविशेषः । जं० प्र० ३३ । वनस्पति अंजणकेसियाकुसुमं -अञ्जनकेसिकाकुसुमम्, विशेषपुष्पम् । प्रज्ञा० ३६१ । अंजणगं -अञ्जनकः, पर्वतविशेषः । आव० ८२७ । अंजणगपव्वय -अञ्जनकपर्वतः । आव ० ३८९ । सम० ९० । अंजणगा -अञ्जनकाः, नन्दीश्वरचक्रवालमध्यवर्त्तिनः पर्वताः । प्रज्ञा० ९६ । ठाणा० ४८० । अंजणगिरि अञ्जन गिरिः । जं० प्र० १९६ | अंजणपव्वय- अजंनपर्वतः नन्दीश्वरद्वीपे पर्वतविशेषः । जीवा० ३५८ । (३) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणपुलए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ अंतचरे अंजणपुलए-अञ्जनपुलककाण्डम् , एकादश, अञ्जनपुलाकानां अंजू-प्रगुणोऽव्यभिचारी। सूत्र० ५१ । अंजू , व्यक्तम् , प्रगुणेन विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८९ । न्यायेन स्वरसप्रवृत्त्या वा । सूत्र. २९६ । अंजुः, व्यक्तः, अंजणप्पभा-अञ्जनप्रभा, पुष्करिणीनाम । जं० प्र० ३६० । निर्दोषत्वात्प्रकटः, (ऋजुर्वा) वकान्तपरित्यागादकुटिल: । अंजणमओ-अजनमयः, अञ्जनरत्नात्मकः । जीवा० ३५८ । सूत्र. ३९३ । अंजूः, सार्थवाहसुता । विपा० ३५ । अजः, अंजणसमग्गयं-अंजनसमुद्कम् । जीवा० २३४ । धनदेवसार्थवाहसुता । विपा० ८८। शकस्याग्रमहिषीनाम (अंजणसिज्झ)-अंजनसिद्धः । दश० १२८ । । जं० प्र० १५९ । भग० ५०५ । अंजणा-पर्वतविशेषः । ठाणा० ८० । अंजना, पुष्करिणीनाम | अंजूए-शकाग्रमहिषीराजधानी । ठाणा० २३१ । । जं. प्र. ३३५ । जं० प्र० ३६० ।। अंड-अण्डम् , काष्ठनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । अंजणागिरि-अंजनागिरिः,दिग्हस्तिकूटनाम।०प्र०३६०।। अंडए-अण्डजः, हंसादिः ममायमित्युलेखेन वा प्रतिबन्धः, अंजणि-अंजनिका, कजलाधारभूता नलिका। सूत्र० ११७। | अण्डज-पट्टसूत्रजम् । ठाणा० ४६५ । हंसादिः मयूराण्डकादिः अंजणे-प्रभंजनेंद्रलोकपाल: । ठाणा० १९८ । सीता- वा अण्डजः, पक्षी कोशिकारकीटाण्डकप्रभवं वखं वा । दक्षिणवर्ती तृतीयवक्षस्कारः । ठाणा० ३२६ । अंजनः, औप. ३६ । अंडओ-अण्डकः, जन्तुयोनिविशेषः । प्रश्न. ३३ । वेलम्बाभिधानवायुकुमारराजस्य लोकपालः, वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० ३९८ । राप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषाः | अंडग-अण्डकम् , आहारः । भग० २९२ । मुखं । व्य० द्वि० ३३३आ। अण्डजाः, अण्डाजाताः । ठाणा० ११४ । । सूर्य० २८७ । अंजनकाण्ड दशमं, अञ्जनानां विशिष्टो अंडय-अण्डजः, हंसादिः । भग० ३०३ । अण्डजाः, पक्षिभूभागः । जीवा० ८९ । कर्मजीवमालिन्ये हेतुत्वात् । जं० गृहकोकिलादयः । दश० १४१ । प्र. १४८ । अजनो वक्षस्कारः । जं० प्र० ३५२ । सौवीराअनं रत्नविशेषो वा । प्रज्ञा० ३६१ । रसाञ्जनादि । अंडसुहुम-अण्डसूक्ष्मम् , मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकाब्राह्मणी कृकलासाद्यण्डम् । दश० २३० । अण्डसूक्ष्मम् , मक्षिकादश० १७० । कीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीककलास्याद्यण्डकमिति । ठाणा० अंजणेह-अञ्जनं, सौवीराजनं रत्नविशेषो वा। ज० प्र०३२। अञ्जनं, कृष्णरत्नविशेषः । ठाणा० २३२ । अजनं सौवीराज | अंड-अण्डु, अन्दुकं काष्टमयं लोहमयं वा हस्तयोः पादयो । नादि । जीवा० २३ । कज्जलम् । उत्त० ६५२ । समीरकम् औप० ८७ । उत्त० ६८९ । रजोभेदः । आचा० ३४२ । अंडे-विपाकश्रुताद्यश्रुतस्कंधतृतीयाध्ययनम् । ठाणा० ५०७ । अंजणगपब्वय-अंजनकपर्वतः । सम० ९० । ज्ञातायां तृतीयाध्ययनम् । आव० ६५३ । सम० ३६ । अंजलिं-अञ्जलिः, हस्तन्यासविशेषः । सूर्य० ६ । भग० १४। अण्डम् , षष्टांगे तृतीयं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । अअलिं, मुकुलितकमलाकारकरद्वयरूपम् । जं० प्र० १८७ । अन्तःकरणम्-मन: । आव० ५८५ ।। अंजली-अञ्जलिः, हत्थुस्सेहो । द० चू० १२९ । नि० चू० अन्तःशल्यः-(अंतोसल्ल), अन्तः-मध्ये मनसीत्यर्थः, शल्यप्र. ७अ । अञ्जलिः, द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरितांगुलिकयोः मिव शल्यमपराधपदं यस्य सो अन्तःशल्यो--लज्जाभिसम्पुटरूपतया यदेकत्रमीलनं सा । जीवा० २४३ । संयुतह मानादिभिरनालोचितातिचारः । सम० ३४ । स्तमुद्राविशेषः । जं• प्र० १७ । प्रसूतिद्वयम् । नि० चू० । अंतं-अन्तः शब्दो मध्यवचनः । विशे० १९७ । परिजीर्णम, द्वि० १२०आ । । बृ० द्वि० १७५आ । वस्त्रस्य दशान्तम् । बृ० द्वि० अंजु-ऋजुः, ऋजोः-संयमस्यानुष्ठानात् । आचा० ३०३ । २३५अ । अन्त्यम् , अन्ते भवम् , जघन्यधान्यम् । औप० मायाप्रपञ्चरहितत्वादवकः । सूत्र० १७७ 1 ४० । अन्त्रम्-पुरीतत् । प्रश्न. ८ । कुल्माषादिकम् । अंजुया-शान्तिजिनप्रवर्तिनीनाम । सम० १५२ । अंजुका, बृ० प्र० २२०आ । शक्रदेवेन्द्रस्याग्रमहिषी । जीवा० ३६५।। (अंतचरे)-आन्तम्-अन्ते भव-आन्तम्-भुक्तावशेषं वल्लादि अंजुल-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । । (तच्चरति) । ठाणा. २१८ । 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अंतंतं अल्पपरिचितसैद्धांतिकशब्दकोषः अंतरंतगो] अन्तयोः-अंचलयोः। भग० ४७७ । भूभागः ।भग०१२२ । | अंतगडो-अन्तकृत् , ज्ञानावरणीयादिकान्तकृत् । आव० अवसानम्। पज्ञा० ३९७ । भूमिभागः । भग० ३२३ । १६३ । तेनैव भवेनेति । आव० ११७ । अन्तकृताःठाणा. १३९ । समीपम् । जं० प्र० ४५५ । वल्लचणकादि। तीर्थकरादयः । सम० १२१ । प्रश्न० १०६ । समीपः । ठाणा० ११७ । अधिकरणप्रधान- | अंतगतावधिः-(अंतगतावही)-आत्मान्तगतः, शरीरान्त: मव्ययम् । उत्त० २६१ । (अंतचरे)-आन्तम् , अन्ते भव | गतः, अवधिक्षेत्रान्तगतः (पुरःपृष्ठपार्श्वेषु )। प्रज्ञा० ५३७ । आन्तम् , भुक्तावशेषवल्लादि ( तच्चरति)। ठाणा० २९८ । अंतगो-अन्तकः, विनाशकारी, आत्मनि वा गच्छतीति, अंतंतं-पर्युषितं वल्लचणकादि । ओघ० १८८ । आन्तरः आत्मगो वा। सूत्र० १७८ । अन्तंगः, अन्तं अंत-अन्त:.निश्चयः । भग० २९०। परिच्छेदः। ठाणा. १७४।। गच्छतीति. दष्परित्यज्यः। सत्र. १७८ । अंतओ-अन्तकः, विषतृष्णायाः पर्यन्तवर्ती। सूत्र० २५९ / अंतचारी-अन्तचारी. पार्श्वचारीति । ठाणा० ३४२ । अन्तकम् , पर्यन्तम् । उत्त० ६२८ । अंतदीवगं-सव्वेहिं अभिसवज्झात अमज्जमसासी भवेज्जा । अंतकडे-अन्तकृत् । भग० १११ । अन्तो भवस्य कृतो येन | दश० चू० १६३ । सः अन्तकृतः । ठाणा० ३६ । | अंतदीपकम्-प्रागुक्तेष्वपि समन्वयः । विशे० ३३० । अंतकम्म-अन्तकर्म, अञ्चलकर्म वा म लक्षणम् । औप. अंतद्धाणं-अदृश्यः । नि० चू. प्र. ७६ अ। ५५ । अन्तकर्माणि, अञ्चलयोर्वा न लक्षणानि । जं० प्र० अंतद्धाणपिंडो-अप्पाणं अंतरहितं करेत्ता जो पिडं गेण्हति २७५ । अन्तकर्म, अञ्चलयोर्वा न लक्षणम्। जीवा० २५३ । | सो अंतद्धाणपिंडो भण्णति । नि० चू० द्वि० १.२ अ। अंतकम्मा-अन्तकर्मा, प्रान्तः। औप० ११। अंतरं-उववासो। नि० चू० प्र० १७४ आ। अन्तरं प्राप्तिः । अंतकरे-अन्तकरः, भवच्छेदकरः । भग० २१९ ।। विशे० २४७। मझं। नि० चू० तृ. १४० अ । समुद्रमध्यम्। अंतकरो-अन्तकरः, प्रशस्तभावकरविशेषः, कर्मणः संसारस्य उत्त० ७०० । उत्तरम् । आव० ४४२ । विशेषः। उत्त. वा अंतकरः । आव० ४९९ ।। २१७ । अवसरः । आचा० १०७ । अवकाशः। प्रज्ञा० अंतकिरिआ-अन्तक्रिया, निर्वाणलक्षणा। आव० १३५ । ६९ । मध्यः । जीवा० ४६ । शैलान्तरम्-कन्दरान्तरम् , अंतकिरिय-अन्त्य(न्त )क्रिया, अन्त्या च सा पर्यन्त- वनान्तरम् वा आश्रयरूपं । प्रज्ञा० ६९। अन्तरालम् । वर्तिनी क्रिया चान्त्यक्रिया। अन्त्यस्य वा कर्मान्तस्य आव० ३३। विशेषो रूपनिर्माणादिभिः । ठाणा० क्रिया अन्तक्रिया । कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिम्। २०३। पूर्वत्यागापरवस्त्रादानकाले-प्रतिमाविशेषः । नि० भग० ४९। चू० द्वि. १६३ आ। पार्श्वरूपम् । जं० प्र० ३८७ । अंतकिरिया-अन्तक्रिया, अन्तः-कर्मणामवसानं तस्य व्यवधानम्। जीवा० १२२। अन्तरायम्। ओघ० क्रिया-करणम् , कर्मान्तकरणं मोक्ष इति । प्रज्ञा० ३९६ । १७६। उपवासः। आव० २०३। राजगमनस्यान्तरम्। निर्वाणम् । भग० ९१। प्रज्ञापनाया विशतितमं पदम्। प्रज्ञा० विपा० ५३। अवसरः। विपा. ७३। अपान्त६। मोक्षः। सम० ११८। भवस्यान्तकरणम्।। रालम्। सूर्य० ४९। अवसरः। प्रश्न० ४२ । ठाणा० १८.। प्रामादीनामर्धपथः। प्रश्न. ५२। पृष्ठोदरयोरन्तरालं अंतकुलाणि-अन्तकुलानि वरुटछिम्पकादीनाम् । ठाणा. पाश्वे इति। जीवा० २७७ । विचालं । व्य० प्र० १२८ । ४२० । अंतरंजिया-अन्तरञ्जिका, नगरी यत्र त्रैराशिकदृष्टिरुत्पन्ना, अंतक्खरिया-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६1 . बलश्रीराजधानी। उत्त० १६८। पुरी यत्र त्रैराशिकनिहवस्य अंतगडदसा-अन्तकृद्दशा, अन्तो-भवान्तः कतो विहितो दृष्टिरुत्पन्ना। आव० ३१८ । नगरी। विशे० ९८१। येस्तेऽन्तकृताः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा:-दशायध्यनरूपा अंतरंत-अंतरतो नाम असहा मूधा । व्य. द्वि० १० आ। ग्रन्थपद्धतय इति। अन्त. १। | अंतरंतगो-गिलाणो। नि० चू० प्र० १९८ अ। 2010_05 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अंतर आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अंतरोदगाणं ] अंतर-वस्त्रैषणाभेदः । आचा० २७७ । अन्तरशब्दो मध्य- । अंतरवीहिअं-अन्तरवीथी,अवान्तरमार्गः । ज. प्र. १८८। वाची। प्रज्ञा० ५०। अन्तरे, पृष्ठोदरयोरन्तराले, पार्श्वे । | अंतरा-अगृहीतवीप्सा । जीव. १९९।' जं० प्र० ११७। अंतरागि-पार्श्वदेशः । प्रश्न० ८३।। अंतराइयदोसो-अन्तरायिकदोषः, अन्तर्भवो दोषः । अंतरकंदे-अन्तरकन्दः । जलजवनस्पतिविशेषकन्दः । प्रज्ञा० आव० ८३८ । अंतराए-अन्तरायः, शक्त्यभावः । सूत्र. १८४ । अन्तराअंतरकरणं-औपशमिककालः । प्रज्ञा० ३८७। यिकः (मध्यभव )। आचा० ३४० । अंतरगए-अन्तरगतः, संस्पर्शी । सूर्य• ७९ । अंतराणि-उत्कर्षापकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि । उत्त० ७०१।। अंतरगामम्मि-अपान्तराल एव यो ग्रामस्तस्मिन् । अंतरापहे-अन्तरापन्थाः, अन्तरालमार्गः । भग० ११६ । ओघ० ७७ । अंतरगिरिपरिरओ-अन्तगिरिपरिरयः, गिरेरन्तः परिक्षेपः।। अंतरायं-अन्तरायः , असङ्खडाखाध्यायादिभिः । आव० ५८० । जीवा० ३४३। अंतरालं-अन्तरालं, अन्तरम् । उत्त० ३८१ । आव० ३३ । अंतरजातम्-भावभाषाजातः तृतीयो भेदः। अन्तरे अंतरावर्ण-अन्तरापणं । उत्त० २२२ । आवणान्तरम् । भाषाद्रव्यमिश्रणं । आचा० ३८५। उत्त० २०९ । राजमार्गमध्यभागवर्तिहम। विपा० ५८ । अंतरतेणो-गामदेसंतरेसु हरंतो। नि० चू० द्वि० ३८ आ । अंतरावासं-वृष्टरवसरः, वर्षाकालश्च । भग० ६६ ।। अंतरदीव-अन्तरद्वीपः । भग० ४२५ । अंतरिए-लघ्वन्तररूपाः । जं० प्र० ४९ । अंतरदीवगा-अन्तरद्वीपगा, अन्तरे लवणसमुद्रस्य मध्ये | अंतरिओ-अन्तरितः, । आव० ४२९ । द्वीपा अन्तरद्वीपाः, तद्गता अन्तरद्वीपगाः। प्रज्ञा०५०।। अंतरिका-अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका। जं. प्र. अंतरदीवगो-अन्तरद्वीपः, लवणसमुद्रमध्ये अन्तरेऽन्तरे । १५० । द्वीपः । जीवा० १४४ । अंतरिक्खं-अन्तरिक्षं, आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलअंतरदीविगा-आन्तरद्वीपजाः। ठाणा ११५ । निवेदकशास्त्रम् । सम० ४९ । अंतरद्धा-अन्तर्धानम् , भ्रंशः। आव० ८२७ । अंतरिक्खो -मेहो । दश. चू० ११४ । अंतरद्धाए-अन्तरकालेऽर्धसंलिखिते देहे । आचा० २९१। | अंतरिच्छा-अन्तरेच्छा, अन्तरा-मध्ये इच्छा-अभिमतअन्तरद्वीपजा:-अन्तरम् , इह समुद्रमध्यं तस्मिन् वस्त्वभिलाषः । उत्त० ४७४ । द्वीपास्तेषु । उत्त० ७०० । अन्तरद्वीपजाः, सम० १३५।। अंतरिजं-अंतरिज्जं णाम पाउरणं अथवा जं सिजाए अन्तरद्वीपाः, अन्तरम् । इह समुद्रमध्यं तस्मिन् द्वीपाः। हे दुल्लापातं । नि० चू० द्वि० १६३ आ । उत्त० ७०० । अंतरिया-अन्तरिका । सूर्य० १४१ । लध्वन्तररूपा । अंतरपल्ली-अन्तरपल्लिकावृषभग्रामयोरन्तरालम् । बृ० प्र० जीवा० २०४ । विच्छेदकरणम् । भग० २२० । अंतरीयं-परिधानं । बृ० प्र० ९८ अ । अंतरपल्ली-बहिःसन्निवेशः । नि० चू० प्र० ३३६अ । मूल अंतरुच्छुअं-इक्षुपर्वमध्यम्। आचा० ३५४ । प्रामादर्धतृतीयगव्यूतान्तर्गतो ग्रामः । बृ० तृ० १२१ आ। | अन्तरे-पथि । ओघ० ६६ । मध्ये परस्परविभागः । ठाणा० तस्मादामात्परतो योऽन्य आसन्नग्रामः । ओघ० १०४ । । २२७। अन्तरे, अन्तराले । उत्त० ३८१ । अन्तरे, अवसरः। अंतरभासिल्ल-अन्तरभाषिल्ल, अन्तरभाषावान् , गुरुवचना- भग० ३८१ पान्तराल एव स्वाभिमतभाषकः। उत्त० ५५२। अंतरो-अन्तरः, अवसरः । आव० ४२१ । अंतरभासा-अन्तरभाषा, आचार्यस्य भाषमाणस्यान्ते अंतरोदगाणं-अन्तरोदकानाम् , जलान्तर्वतिसन्निवेशविशेयद्भाषते सा। आव० ७९२। षाणाम्। जं.प्र. २७७ । 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अंतर्मुहूर्त्तम् अल्पपरिचितसैद्धांतिकशब्दकोषः अंधकण्टकीयम् ] अंतर्मुहूर्त्तम्-मुहूर्तस्यान्तरं, मुहूर्तमपि न्यूनम् । उत्त. ४०२।अन्तः निवेशनस्य। आव० ७४५/ अन्तो,रोगः,भङ्गः, ६९७ । भिन्नमुहूर्तम् । जीवा० १३० ।। विनाशः। विशे० १३०७। अन्तः, मध्यभागे। जीवा० २०१। अंतर्हितः-(अंतद्धिओ) अदृश्यः। ठाणा० ५१३। मार्गः । आव० ६८६ । विभागः । जं० प्र० ४५९ । भिन्नम्। अंतलिक्खं-अन्तरिक्ष, ग्रहभेदादिविषयम् । आव० ६६० । आव० ५८४ । मार्गः। आव०४८५ । आव० १८९ मध्ये। प्रज्ञा० ४७ । इन्द्रियाननुकूल आश्रयः। प्रश्न. १३८ । अंतलिक्ख-अन्तरिक्षम्, नभः । दश० २२३। अमोघादिकम्। सूत्र. ३१८। मध्यकरणम्। आव० ५८३ । चतुर्दशभेदान्तरग्रन्थः । उत्त० २६१। अंतलिक्खं-अन्तरिक्षम्-गंधर्वनगरादि । ठाणा० ४२७ । अतोजलगयपन्वय-जलान्तर्गतपर्वतः । उत्त० २६४ । अंतवाले-अन्तपालः, अन्त-त्वदादेश्यदेशसम्बन्धिन पाल अंतोधूम-अभ्यन्तरधूमम् । आव० ६६२ । यति-रक्षयति उपद्रवादिभ्य इति। जै० प्र० २०३ । अंतोनायं-अन्तोनादं ,हृदये सदुःखमारसन् । आव० ६६१ । अंतसो-अन्तशः, निरवशेषतः । सूत्र० १७१। अतोनियंसणी-निग्रंथ्युपकरणविशेषः । ओघ० २०९ । अंता:-अवयवाः । उत्त० ४५९। उत्त० ५८५। अंतोमुहुत्त-अन्तर्मुहूर्त्तम् , भिन्नमुहूर्तम् । भग० २९ । अंता-अंते ठिता, ण अंता अणंता । नि० चू० प्र० २५५ आ। उत्त० ६९७ । अंताक्षरिका-(अंतक्खरिया ) क्रीडाविशेषः । उत्त० ४७ । । अंतोवणीते-आहरणतद्दोषविशेषः । ठाणा० २५३ । अंतिए-अन्तिके, समीपे। भग० ९०। उत्त० २७७ । अंतोवाहिणी-अन्तर्वाहिनी नदी । ज० प्र० ३५७ । अंतिमधनं-अंतिमे-अंकस्थाने परिमाण । व्य० प्र. ७६ । । ठाणा ८० । अंतिमराइयंसि-रात्रेरवसाने। ठाणा० ५०२। भग० ७११।। अंतोवेइया-प्रतिलेखनादोषः । नि० चू० प्र० १८२ अ। अंतिमसरीर-अन्तिमशरीरम् , चरमशरीरम्। भग० २१९ । अंतोसंबुक्कावट्टा-गोयरपिंडेसणाए कमेणं ति, तत्थ गोयअंतियं-समीपम्। भग० ६५९ । अत्यन्तमरणं, मरणस्य रातिमे अभिग्गहविसेसतो जाणियव्वा। नि० चू० तृ० १२ अ। तृतीया मदः। उत्त० २३० । आन्तिक, सामीप्यम्। अंतोसलं-अन्तःशल्यमरणम्। मरणस्य षष्ठो भदः । आव० २६७। उत० २३० । अंतिय-अन्तिकम् , आसन्नम्। भग०२१७। अत्यन्तमरणम्। अंतोसल्लमरणे-अन्तःशल्यमरणम् , अन्तःशल्यस्य द्रव्यउत्त० २३० । देः, भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तत्। अंतिया-आन्तिकी समीपाभ्युपगता । उपा० १५ । - भग० १२० । सम० ३३ । अंते-अन्तः, पर्यन्तः, अतिदूरं वा। सूत्र० २०४ । अन्ते, अंतोहिंतो-गृहादेर्मध्यादहिनयन्तः । ठाणा० ३५३ । अग्रे। उत्त० ६०१ । परिसमाप्तिः । बृ• द्वि० १९९ आ। अंत्य:-आनुपूर्व्यन्त्यपक्त्यकाः। सूत्र. १०। विशेषम् । अंतेउरे-(आंतःपुरिकी), आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनोउंग ठाणा० ३९१ । प्रमार्जयति-आतुरश्च प्रगुणो जायते । व्य• द्वि० १३३ आ। अंदुकम्-हस्तिबन्धनविशेषः । उत्त० ४११।। अंतेण-मार्गण । नि० चू० प्र. ६ आ। अंदेरे-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२।। अंतेणं-आन्त्रेण । ठाणा० ५०२। अंदोलगा-पश्यन्दोलकाश्च तत्र यत्रागत्य २ मनुष्या । नि० चू० प्र० २५० अ। आत्मानमन्दोलयन्ति । जं. प्र. ४४ । अंतेवासी-शिष्यः । जे० प्र० १५ । भग० ११ अंदोलगो-आन्दोलकः यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमन्दोअंतेहि-अरसतया सर्वधान्यान्त वर्तिभिर्वलचणकादिभिः । लयति सः । जीवा० २००। . भग० ४८४ । रागद्वेषौ । आचा० १५८ । आचा० १६६ ।। अंध-अन्धः, अज्ञानः। भग. ३१२ । अंतो-अन्तो, विभागः। भग० ३९३ । विभागः । ठाणा. अंधकण्टकीयम--अतर्कितसम्भवो न्यायविशेषः । आचा. ३८० । अन्तः, परिच्छेदः । प्रज्ञा० ५३२। मार्गः। आव० । १८। अंतेवा (७) 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अंधकारे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अंबरिसी] अंधकारे-अन्धकारम् , तमोरूपम्। भग० २७० । । अंबखुज-आम्रकुब्जः, आम्रफलवत् कुब्जो वक्रः । भग० अंधकारेति-तमस्कायनाम । ठाणा. २१७ । ९० । पादतलमध्यम् । बृ.द्वि० २२३ अ। तं० अंधगवहि T-वृक्षास्तेषां वह्नयस्तदाश्रयत्वेनेत्यं- | अंबगपाणगं-पानकविशेषः। आचा० ३४७ । हिपवह्नयो बादरतेजस्कायिकाः। भग० ७४६ । अंबगपिंडी-आम्रपिण्डी। आव० ६९७ । अंधगवण्ही-अन्धकवृष्णिः, द्वारवयां राजा यादवविशेषः। | अंबचोयए-आम्रत्वक् । भग० ६८१ । । अन्त० २। दश० ९७। अंबचोयगं- , आम्रछल्ली। आचा० ४०५ । अंधतमसं-अन्धतमसम् । आव० ३६६। अंबजज्झं-पादतलमध्यम् । नि० चू० प्र० १३७ अ। अंधपुरं-नगरविशेषः। बृ० तृ० १०८ आ० । नि० चू० | अंबट-अम्बष्टः, ब्रह्मपुरुषेण वैश्यस्त्रियां जातो वर्णः । द्वि० ४२आ। आचा० ८। अंधप्रदीप्तपलायनम्-(अंधपलितपलाणं)। दश० १५८ ॥ अंबट्ठो-अम्बष्ठः, ब्राह्मणेन वैश्यायां जातः । उत्त० १८२ । अंधमूढि--अविमर्शकारिता। आचा० ६२ । अंबडे-अम्बडः, माहणपरिव्राजकभेदः। औप० ९१ । अंधय-अन्धकम् , नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः, कुत्सिताङ्गम् ।। (अंमडः) परिव्राजकविद्याधरश्रमणोपासकः । ठाणा० ४५७ । विपा० ३६। अम्बडः । सम० १५४। . अंधलीभूय-अन्धीभूतः। आव० ६८८ । अंबडो-अम्बडः, अमूढदृष्टित्वोदाहरणे लौकिकऋषिः । अंधिय-चतुरिन्द्रियविशेषः। प्रज्ञा० ४२ । दश० १०२। सुलसाश्राविकापरीक्षकपरिव्राजकः। व्य. अंधिया-चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ । चतुरिन्द्रिय- प्र. १८ आ। म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । अम्बडपरिजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ । व्राजकः । प्रज्ञा० ६१। अंधिल्लगो-अन्धिल्लकः, जात्यन्धः। प्रश्न० १६२। अंबपलंब-फलविशेषः । आचा० ३४८ । अंधीयताम्-अन्धीभवतु । दश० १०६ । अंबपेसी-आम्रपाली। आचा० ४०५ । अंधो-अन्धः, चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४। | अंबप्पहारो-प्रहारातः । उत्त० १९३ । अंधोपल:-(अंधोवल), अन्धपाषाणः । दश० ४०। अंबमित्तयं-आम्रार्द्धम् । आचा० ४०५ । अंधोपलादिः-छायारहितपाषाणः। विशे० ९१८ । अंबय-आम्रः । आव० ४१७ । अंध्र-(अंध), अंध्रादिदेशोद्भवा म्लेच्छप्राया, आर्यभाषामजा- अंबयरुक्खे-अष्टादशजिनचैत्यवृक्षः। सम० १५२ । नाना। व्य. द्वि० २८अ । अम्बरतलम्-(गगनयलं)। सूर्य० २६४।। अंधी-(अंधी), अन्ध्रदेशीया स्त्री, उत्कृष्टरूपा। आव० ५८१। अंबरवत्थं-अम्बरवस्त्रं, स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पम् । जं. अंब-अम्लवचनयोगाद् परुषवचनव्यवहारः। व्य० प्र. २५६ प्र. ४०६ । स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनम् । भग० १७४ । अंब-आम्र । प्रज्ञा० ३१।। अंबरसे-अम्बा--पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मात् तन्निअंब-आम्रम् । प्रज्ञा० ३२८ । फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६४ ।। रुक्तितोऽम्बरसम्। भग० ७७६ । थोवेण ऊणं अंबं भण्णति। नि० ० द्वि० १२४आ। | अंबरिस-अम्बरीषः, द्वितीयः परमाधार्मिकः । भग० १९८ । अंबए-अग्रप्रलंबविशेषः। बृ० प्र० १४३आ। अंबरिसी-नारकान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा अंबकंजिय-सुगंधिकाञ्जिकम् । ओघ १६० ।। भ्राष्ट्रपाकयोग्यान करोति। सम० २८ । अम्बर्षिः, द्वितीयः अंबकुजं-पादतलमध्यम् । बृ. द्वि० २२३ आ। परमाधार्मिकः। सूत्र. १२४ । पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु अंबकूणए-आम्रास्थिकम् । भग० ६८१ । द्वितीयः। उत्त० ६१४ । नरके द्वितीयः परमाधार्मिकः । अंबकृणगहत्थगए-आम्रफलहस्तगतः । भग० ६८४ । । आव.६५०। विनयविषये उज्जयिन्यां ब्राह्मणः श्रावकः । अंबक्खलगं-अम्लखलम् । आव० ३५३ । आव० ७०८ । (८) 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अंबरिसे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अंसी ] अंबरिसे-अम्बरीषः, कोष्टकः । जीवा० १२४ । अम्बरीषम्- | अंबिलि-आम्लभाजनम्, चिञ्चिणिकापात्री। आव० ६२४ । भ्राष्ट्रम्। प्रश्न० १७ । अम्बरीषा-भ्राष्ट्रा आकरणानि ।। रब्बा। बृ० प्र० २८आ। ठाणा० ४१९। अंबिलिबीयं-अम्लिकाबीजम् , चिञ्चिणिकाबीजम् । आव० अंबले-अम्बरागि । बृ० द्वि० २८३ अ। ६२४ । अंबसालवणं-आम्रशालवनं, आमलकल्पानगर्या वनवि- | अंबिलोदए-आम्लोदकम् ,अतीवस्वभावत एवाम्लपरिणामम्। शेषः। उत्त.. १५९ । चैत्यविशेषः । आव. ७०७॥ जीवा० २५। आम्लोदकम्, स्वभावत एवाम्लपरिणाम आम्रशालवनम् । आव० ३१४ । काञ्जिकवत् । प्रज्ञा० २८ । अंबा-विद्याविशेषः । आव०४११ । जलम् । भग० ७७६ । -आम्रकुब्जः । आव० ६४८ । अंबे-आम्लः । नि० चू० प्र० ३५६ आ। प्रथमपरमाअंबाडगं-अम्बालकम् , फलविशेषः । अनुत्त०६। अंबाटक धार्मिकः । सम० २८। अम्बः, नरके प्रथमः परमाधाफलविशेषः, अधोगतिमत् । प्रज्ञा० ३२८ । र्मिकः । आव० ६५० । पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु प्रथमः । अंबाडग-बहुबीजको वृक्षः। भग० ८०३। अंबाडक उत्त० ६१४ । अम्बः, प्रथमः परमाधार्मिकः। सूत्र० १२४ । बहबीजविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आम्राटकः-कापोतलेश्यारसे। अचेल्ली- (रब्बा)। आव० ९१। । प्रज्ञा० ३६४। अंबो-आम्रवृक्षः, भावुके दृष्टांतः । ओघ० २२३ । अंबाडगपलंबं-फलविशेषः । आचा० ३४८ । अंमिया-प्राप्ता। नि० चू० द्वि० १० आ। अंबाडगपाणगं-पानकविशेषः । आचा० ३४७ । अंमेउ-प्राप्तुम् । नि० चू० प्र० २०२ अ । अंबाडिओ-तिरस्कृतः । बृ० प्र० ३०आ। तिरस्कृतः । अंवाडेति-खरंटेति । नि० चू० प्र० २११ आ। आव० ९१। तर्जितः। आव० १८७ । उपालब्धः। संस-अस्तिः पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं, आसनस्य आव० ३९८ । ललाटोपरिभागस्य चान्तरं, दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनअंबाडिय-निर्भत्सितः । आव. ३०६ । श्वान्तरं, वामस्कन्धस्य दक्षिणज़ानुनश्चान्तरम् । चतुर्दिग्विअंबाडिया-तिरस्कृता । आव० २२५। भागोपलक्षितः शरीरावयवो वा। भग० ११ । अस्रेषुअंबाडेइ-तिरस्कुरते। उत्त. १४७ । उपलभते। आव० कोणेषु । जं. प्र. ११५। अंशः, सत्पर्यायोऽयं शब्दः। २२३ । नि० चू० प्र० २११ आ । उत्त० ५८९। अंबाण-गंधाने, आम्राः। बृ० प्र० १४३आ। अंसलग-अंसगतः । तं०1 अंबारेवर्ड-अम्बारेवती, व्यन्तरीविशेषः । आव० ६९१ | अंसहारा-अंशधरा. अंश-प्रक्रमाज्जीवितव्यभाग चारअंबावल्ली-वल्लीविशेषः। प्रज्ञा० ३२ । यन्ति-मृत्युना नीयमानं रक्षन्ति । उत्त० ३८८ । अंश:अंबियपहारो-प्रहारातः । आव० ६६६ । दुःखभागस्तं हरन्ति अपनयन्ति ये ते । उत्त० ३८९ । अंबिया-प्राप्ता गवेषितलब्धा वा । बृ० द्वि० ८२अ 1 अंसातो-एकस्मात् । ठाणा० २३६ ।। अंबिलं-अम्लम् । आव. २०० । अम्लम् , तक्रारना- अंसिया-अविभक्तोऽशः । बृ० द्वि० १९९ आ। गामलादि। दश. १८०। आचाम्लम्-अवश्यानम् । ततियभागादि । नि० चू० द्वि० ७०आ। शिका-यत्र आचा० ३४६ । . ग्रामस्यार्द्ध, आदिशब्दात् त्रिभागो वा चतुर्भागो वा गत्वा अंबिल-पर्वगवनस्पतिः । भग० ८०२। अम्बोऽम्लिका- स्थितः सा ग्रामस्थांश एव अंशिका । बृ.प्र. १८१ आ । द्याश्रितः । जं. प्र. १७४ । हरितविशेषः । प्रज्ञा०३३। अंसियालए-अंख्यालये। दश० ३७ । रब्बा । बृ० प्र० २९अ । अंसी-अस्रिः, चतुर्दिग्विभागोपलक्षितः शरीरावयवः । अंबिलजवागू-अम्लयवागूः । आव० ९१ । जीवा० ४२ । प्रज्ञा० ४१२ । ( अर्शासि ) रोगविशेषः । अंबिला-आम्लिका। ओघ २१५ । नि० चू० प्र० १८९ अ। (९) 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अंसुप अंसुप लक्ष्णपट्टः । बृ० द्वि० २०१ आ । अंसुयं वस्त्रम् । नि० चू० प्र० २५४ आ । दुकूल - अइक्कमे - अतिक्रामेत्, प्रविशेत् । उत्त० ६० । विशेषरूपम् । जीवा० २६९ । अंसुय - श्लक्ष्णपट्टः । ठाणा० ३३८ । असुयाणि - अंशुकानि, वस्त्राणि | आचा० ३९३ | अंसो - अंशः, मेदः । विशे० २५१ । अत्रिः, चतुर्दिग्वि भागोपलक्षितः । सूर्य ० ४ । अस्त्रिः पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं १, आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम् २, दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम् ३, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरं ४ । सूर्य ० ४ । अंश:-भेदः । प्रज्ञा० ६०१ । अंश :- भागः । उत्त० १८८ । भागः । आचा० १७७ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अइबले | अकमओ - अतिक्रमः, अनानुपूर्वी भवनम् । विशे० १७४ । अतीवोत्कट अइकाय - अतिकायः, महोरगेन्द्रः । जीवा ० १७४ । अइकुंडियं - अतिबाधितम् । आव० ५७४ । अइकोहग्गहघत्थं-अतिक्रोधग्रहग्रस्तम्, रोषग्रहाभिभूतम् । आव० ५८८ । अइक्वंतं-अतिक्रान्तम्, अतिक्रान्तकरणात् । आव ० ८४० । अइकंत - अतिक्रान्तम्, अतिक्रान्तकरणादतिक्रान्तम् । भग० २९६ ॥ आचा० १७८ । अतो- अतिक्रान्तः, पर्यन्तवर्ती । प्रज्ञा० ९१ | 2010_05 अइक्कमो - अतिक्रमः, आधाकर्मनिमन्त्रणे प्रतिशृण्वति साधुक्रियोल्लङ्घनरूपः दोषविशेषः, यावदुपयोगकरणम् । आव ० ५७६ | अतिलङ्घनम् । आव० ८२३ । पीडात्मको महाव्रतातिक्रमो वा मनोऽवष्टब्धतया परतिरस्कारं वा । सूत्र० १७३ | अहं - अमुना । बृ० द्वि० २१३ अ ।. अहंताणं- अतियतां - आगच्छतां । व्य० द्वि० ३६६ आ । अइंति - प्रविशन्ति । ओघ० ६७ । आगच्छन्ति । प्रश्न० १२० । अतु- प्रविशन्तु । ओघ ७९ । अहंते - प्रविशति । बृ० द्वि० ६०अ । अतो- आगच्छन् । आव० २६५ । अइ- अयि, आमन्त्रणे । उत्त० ३५४ । अइअश्व-अतिगत्य, अत्येत्यातिक्रम्य । आचा० २४१ । अविगणय्य | आचा० ३०३ । अइआरो-अतिचारः, पापम् । आव० ७७८ । अतिक्रमः। अइच्छओ-अतिक्रामन्, भिन्दानः । वृ० प्र० आव० ५७५ । स्खलना । ओघ० ३८ । अइण्णं - आकीर्णम्, सव्वलोगो आयरइ । अइकार - अतिकायः, दक्षिणनिकाये सप्तमो व्यन्तरेन्द्रः । २७४ अ । भग० १५८ । अइगच्छिहिति- अतिगमिष्यति । आव० ३६९ । अइगतो - पविट्टो । नि० चू० तृ० १३ आ । अतिगतः । आव० ३४९ । अइगमणं - अतिगमनम् अतिगमनकथा, राज्ञ आगमनसम्बन्धी विचारः, राजकथाया द्वितीयभेदः । आव ० ५८१ । उत्तरायणम् । भग० १४७ । अइगया - अतिगता । ओघ० १५८ । अइगुविलगव्वरा - अतिगुपिलगह्वरा । आव० ३८४ | अइचारो - अतिचारः, स्खलना । ओघ० ३८ । मिथ्यात्वमोहनीय कर्मोदयादात्मनोऽशुभः परिणामविशेषः । आव ० ८१३ । अतिचरणानि-चारित्रविराधना विशेषाः । विशे० ५५०। अइचिराविओ - अतिचिरायितः । आव ० ५१२ । अइच्छ-अतीच्छा, अदाने सत्यतिगच्छेति आव० ४७८ । वचनम् । भ्राम्य । प्रज्ञा० ६०० । अपहार - अतिप्रभाते । आव० ६४१ । अइकंता - अतिक्रान्ता, जाता। उत्त० २१५ । अतीताः । अइप्पयं - अतिप्रभाते । ओघ० ९८ । अइणा - गोरमिगादिणो । नि० चू० प्र० २५५ अ । अइनिद्धं - अतिस्निग्धम्, हविः प्रचुरम् । आव० ५६८ । अपंडुकंबल सिला- अतिपाण्डुकम्बलशिला । आव ० १२४ । अइपडागा - अतिपताका, एकां पताकामतिक्रम्य या पताका सा । औप० ५ । पताको परिवर्तिनी । भग० ४७६ । अइ ( णु ) परियट्टित्ता - अति (नु ) परिवर्त्य, सामस्त्येन परि १७ आ । नि० चू० प्र० अइबले - आगामिन्यां पञ्चमो हरिः । सम ० १५४ । अतिबल:भरतसंताने तृतीयः । ठाणा० ४३० । (१०) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अइभद्दा अइभद्दा - अतिभद्रा, प्रभासमाता । आव० २५५ । अइभारे - अतिभारः, प्रभूत पूगफलादेः स्कन्धपृष्ट्यादिष्वारोपणम् । आव ० ८१८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः अइभूमि - अतिभूमिः, गृहस्थैरनुज्ञाता यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्ति । दश० १६८ । अइमत्तं - अतिमात्रः, अतिरिक्तम्, अतिक्रान्तमर्यादम् । उत्त० ४२९ । अइमत्ते-अतिमात्रे, बृहत्प्रमाणे । ओघ० १७० । अइमुत्तग- पुष्पविशेषः । नि० चू० प्र० ११८ आ । अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिते-अतिमुक्तकचन्द्रसंस्थान संस्थितम् घ्राणेन्द्रियसंस्थानम् । प्रज्ञा० २९३ । अइमुत्तगणा-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । अइमुत्तय - लताविशेषः । प्रज्ञा० ३८२ । अइमुत्ते - अतिमुक्तः, महावीरस्वामिनः कुमारश्रमणः शिष्यः । भग० २१९ । अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य पञ्चदशाध्ययनम् । अन्त० १८ । अइयंचिय-अतिक्रम्य | ठाणा० ३०० । अइयारो-अतिचारः, गृहीते आधाकर्मणि दोषविशेषः, यावसतिं गत्वेर्यापथप्रतिक्रमणाद्युत्तरकालं लम्बनोत्क्षेपः । आव० ५७६ | अतिचरणं - चारित्रस्खलनाविशेषः । आव ० ७८ । अपराधम् । उत्त० २३३ । अइर - अचिरा, शान्तिमाता । आव० १६१ । अइरत्त- अतिरात्रः, अधिकदिनं, दिनवृद्धिः । ठाणा० ३७० । अइरत्तकं बलसिला ओ-मेरुमस्तकशिला । ठाणा० ८० । अइरा - अचिरा, शान्तिजिनमाता । आव ० १६० । 2010_05 अओज्झा | भग० ५५२ । अतिपातः, हिंसादिदोषः । ओघ० ३६ । वधः । भग० २८९ । अइवालग-अजापालकः, वाचकविशेषः । बृ० तृ० २०आ । अइवेलं -अतिवेलं, स्वाध्यायादिवेलातिक्रमेण । उत्त० ११० । अतिवेला अन्यसमयातिशायिनी मर्यादा समतारूपा । उत्त० ११० । अइसंघणपरो-अतिसन्धानपरः, परवञ्चनाप्रवृत्तः । आव ० ५८९ । अइसंपओगो-अतिसम्प्रयोगः, गार्ध्यम् । सूत्र० ३२९ । आइस- अतिशयः, आमषैषध्यादिः । सम० १२४ । अर्थविशेषः । बृ० प्र० १९२ आ । असुहुमं - अतिसूक्ष्मम् । आव० ५३६ । अइसेस - अतिशयः, अतिशयनं, अवध्यादिप्रत्यक्षं ज्ञानं । ओघ ० १४ । अतिशयी - अवध्यादिज्ञानयुक्तः । दश० १०३ । सूत्रार्थसामाचारीविद्यायोगमंत्रातिशयः । बृ० प्र० २०३ आ । अइसेसी -- अतिशायिनी, स्निग्धमधुरद्रव्याणि । बृ० प्र० २४६ आ । अइसेसो- अतिशेषः, अतिशायी । जीवा० २७७ | शेषाणि - मत्यादिचक्षुर्दर्शनादीनि अतिक्रान्तं सर्वावबोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवत्केवलम् | ठाणा० २१३ । अईइ - अतीति, आगच्छति, प्रविशति । अईते - अतितेजा:- चतुर्दशरात्रिनाम । अईया - अतीताः, अतिक्रान्ताः । आचा० अईह - अतियासीः । आव ० १७३ | अउअंगाति - अयुतांगानि, संख्याविशेषः । ठाणा० ८६ । सूर्य० ९१ । भग० ८८८ । सम० १५२ । सम० १५१ । अइरित्तसिजआसणिए - अतिरिक्त शय्यासनिकः, चतुर्थम- अउआति - अयुतानि संख्याविशेषः । ठाणा ० ८६ । सूर्य ० समाधिस्थानम् । आव ० ६५३ । ९१ । भग० ८८८ । भग० २९० । भग० २७५ । प्रज्ञा० ८६ । अइरेगो- अतिरेकः, अतिशायिता । जीवा० २७४ | अति- अउज्झ - अयोध्यम्, अनभिभवनीयम् । जं० प्र० २१२ । शयः । जीवा० २६७ । अउज्झा - अयोध्यानि, परैर्योद्धुमशक्यानि । अइबत्तियं-पातकादतिपातिकां निर्दोषाम् । आचा० ३०५ । अउज्झाओ - नगरविशेषः । ठाणा० ८० । अइवाइज - अतिपातयेत् व्यथेत । आचा० १२८ । अए - अज:, बर्करः । प्रज्ञा० २५२ । उत्त अइवायमि- अतिपाते | ठाणा० ३२९ । अओज्झा - अयोध्या, राजधानी । जं० प्र० ३५७ । अजिअश्वाय - द्वादशशतके प्राणातिपातादिविषयः पञ्चमोद्देशकः । तस्य प्रथमपारणकस्थानम्, आव ० १४६ २७५ । (११) आव ० २३२ । जं० प्र० ४९१ । १७८ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः [ अओमुहदीवे अओमुहदीवे- अंतरद्वीप विशेषः । ठाणा० २२६ । अोहो - अयोमुखः, अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । अर्कटए - अकण्टकः, कण्टकरहितः । जीवा० १.८८ । अकंठगमणाइं-अकण्ठगमनादि, कण्ठेन भक्तकवलो नोपक्रामति । ओघ० ८० १ अकंडूयते - अकण्डूयकः, न कण्डूयत इति । ठाणा० २९९ । अकलं- सरोषभणितम् । नि० चू प्र० २७८ अ । अकंतता - अकान्तता, अकमनीयता । भग० असुन्दरता । भग० २५३ | अकान्तता । प्रज्ञा० ५०४ । अकंत दुक्खी - अनभिप्रेताशातावेदनीया । आचा० ४३० । अकंता - अकान्ताः, अकमनीया । भग० ७२ । अकंपिप- अकम्पितः, अष्टमगणधरः । आव ० २४० । अकक्कस - अकर्कशम्, सुखम् । भग० ३०५ । अकज्जं - अकार्यम्-मैथुनासेवालक्षणम् । व्य० प्र० २०५ आ । अकडजोगी - यतनया योगमकृतवान् । व्य० प्र० २५१ । अकडसामायारी - सामायारिं जो न करेति सो अकड अकरंडुअं ] अकम्मंलो-अकर्माशः, अंशा:- कर्मणोऽवयवास्तेऽपगता यस्य सः । उत्त० २५७ । बलात्कारेण । आव ० ६६२ । अकम्म- आक्रम्य, अकम्मगं- अकर्मकं, अविद्यमानदुश्चेष्टितं । सम० ५२ । अकम्मभूमगा-अकर्मभूमकाः, अकर्मा-यथोक्तकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमाः, ते एव अकर्मभूमकाः । प्रज्ञा० ५० । सम० १३५ । २३ || अकम्मभूमी - अकर्मभूमिः, हैमवतादिकभोगभूमिः । प्रश्न० ९६ । ठाणा० ११५ । सामायारी ! नि० चू० तृ० ८१अ । अण्णा - अकर्णनामा अन्तरद्वीपाः । प्रज्ञा० ५० । अकण्णो-अकर्णः, अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । अकति असङ्ख्याता अनन्ता वा । ठाणा० १०५ । अकतिसञ्चिता-असङ्ख्याता, एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते | ठाणा० १०५ । अकतिसंचया- कतिसंचिता न ये । भग० ७९६ । अनदीवे - अकर्णद्वीपः, अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । अकप्प - अकल्पः, शिक्षकस्थापनाकल्पादिः । दश० १९६ । अकपपप-अकल्पिके, वसतिपालके । व्य० द्वि० १३ अ । अकप्पट्टवणा--अयोग्यानीतपिंडवर्जनम् । नि० चू० प्र० 2010_05 बृ० तृ० १२५ अ । अकप्पो - अकल्पः, आव ० ७७८ । अकृत्यम् । आव० ७६१ । अकब्बरसुरत्राण - मोगलनृपः । जं० प्र० ८८ । अकम्मंसे - अकर्माशः । आव ० ६१५ । अम्मयं - अकर्मकं, अप्रमादम् । सूत्र० १६९ । उत्त०७००। अम्मयारो - अकर्मकारी, स्वभूमि कानुचितकर्मकारी । प्रश्न० ३६ । अम्मा-अकर्मा, न विद्यते कर्माऽस्येति, वीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्यम् । सूत्र० १६८ । अम्हा - अकस्मात् बाह्यनिमित्तानपेक्षम् । आव ० ६४६ । अकस्मात् क्रिया, अकस्माद्यत्करणम्, क्रियायाश्चतुर्थो भेदः । आव० ६४८ । ७०३ । अकृतकरणः । आव ० ३४४ । अकयकिरिए अकृत योगोद्वहनः । नि० चू० प्र० २९२ अ । अकयपरलोय संबलो -अकृतपरलोकशम्बलः । आव ० ३६७। अकयन्नुया - अकृतज्ञता । आउ० । अकयपुण्णे-अकृतपुण्यः । उत्त० ३२९ | अकयपुण्णो-अकृतपुण्यः, अविहिताश्रवनिरोधलक्षणपवित्रानुष्ठानाः । प्रज्ञा० ९८ । २४२ अ । अकप्पणारुमणा - अकल्पनारुग्मनसः । मरण० । अकप्पे-सामायिकसंयमः, अस्थितकल्पश्वतुर्यामधर्मो वा । अकयमुहो - अकृताक्षरसंस्कारमुखः । बृ० तृ० २५ आ । अकरूar-वकलपिंडठितो । नि० चू० द्वि० ८७ अ । अकयागम-अकृतकम्र्म्मोदयः । आव० २७४ ॥ अकमहादंडे - अकस्माद्दण्डः । सम० २५ । अकमहाभयं - अकस्माद्भयम्, बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेवावस्थितस्य रात्र्यादौ यद्भयम् । आव० ६४६ । सम० १३ । ठाणा ० ३८९ । अककरणो-अकृतकरणः, अनभ्यस्तविद्यः । आव० , अकरंडुअं-अकरण्डुकम्, अनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिकम् । औप० १९ । (१२) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अकरंडुयं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अकालियरिया ] - अकरंडुयं-अविद्यमानपृष्ठिपार्थास्थिकम् । प्रश्न० ८१। । रोधशीलता। दश० १७७ । निरभिप्रायः । भग० ३६ । अकरंडुय-अकरण्डुकः, अनुपलक्ष्यपृष्ठास्थिकः । प्रश्न०८४॥ | निर्जराधनभिलाषी। भग० ३६ । अकरणं-मैथुनम् । व्य० प्र० २५१ अ। अकामकामे-अकामकामः, कामान्-इच्छाकाममदनकामअकरण-अलेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो यदृश्ययोरर्थयोः केवलं भेदान् कामयते-प्रार्थयते यः स कामकामो न तथा ज्ञानं दर्शन चोपयुखानस्य . योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतियो अकामकामः, अकामो-मोक्षस्तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेस्तं वीर्यविशेषः सः । ठाणा० १०६ । भग० ५७ ।।. कामयते यः स तथा । उत्त० ४१४ ।। अकरणतयैव-अक्रिययैव संयमानुष्ठानमन्तरेण । आचा० | अकामणिजराए-अकामनिर्जरया। आव० ६५ । १४९ । अकामतण्हा-अकामतृष्णा । औप० ८६ । अकरणयाइ-अकरणेन, अपूर्वानुपार्जनेन । उत्त० ५८७ । । अकामनिकरणं-अकामनिकरणम् . अकामो वेदनानुभावेs अकरणयाए-अव्यापारतया । आचा० ३०५। निच्छाऽमनस्कत्वात् स एव निकरणं-कारणं यत्र तदकामअकरणिजं-अकृत्यम्, असंयम. मन्दधर्माणः। आव. निकरणं-अज्ञानप्रत्ययं, अनिच्छाप्रत्ययम् । भग० ३१२ । अकामनिर्जरा- पराधीनतयाऽनुरोधाच्चाकुशलवृत्तिराहाराअकरणिजो-अकरणीयः । आव ७७८ । दिनिरोधश्च । तत्त्वा०६-२०।। अकरितो-अकुर्वन् । आव० ५०९ । अकाममरणम्-बालमरणाद्यमप्रशस्तम्। उत्त० २४१ । अकलिजंता-अज्ञायमाना । ओघ० १६० ।। अकाममरण-उत्तराध्ययनेषु पञ्चमाध्ययनम् । उत्त० ९। अकलुसे-अकलुषः, द्वेषवर्जितं । अन्तक २२ । अकाममरणिजं-उत्तराध्ययनेषु पञ्चमाध्ययनम् । सम०६४ अकलेवरसेणि-अकडेवरश्रेणिः, कलेवर-शरीरं अविद्यमान | अकारए-अकारकः, अरोचकः । विपा० ४० । कडेवरमेषामकडेवराः सिद्धास्तेषां श्रेगिरिव श्रेगिः क्षपकवेगि अकारकम्-अपथ्यम् । ओघ० १३९। ओघ० १८३ । रिति । उत्त० ३४१ । शीतलम् । ओघ० १७६।। अकल्पम्-(अकप्पं)-असमर्थ । आचा० १०६ । | अकारिजणो-अकारिजनः । आव० १७६ । अकविल-अकपिला, श्यामा । जं० प्र० ११५ । अकसिणपवत्तगो-अकृत्स्नप्रवत्तेकः । आव० ४९३ ।। अकारिणो-अकारिणः आमोषाधविधायिनः । उत्त० ३१३॥ अकाल-अवर्षा । ठाणा० ३९९ । अकसिणा-आचारप्रकल्पस्य अष्टाविंशतितमो भेदः । सम. ४७ । अकृत्स्ना -यत्र किंचित् झोष्यते। व्य० प्र० १२४ आ। अकालपडिबोधी-रातो चेव पडिबुज्झति । नि० चू० अकसिणो-अकृत्स्नः । विशे० ४२४ । तृ० ४३ अ । एषां न कश्चिदपर्यटनकालः । आचा० ३७७ ॥ अकस्मात्-(आकस्मिकः ), नियुक्तिकः । आचा० २६६।। अकालपरिंभोगी-रातो सव्वादरेण भुजंति । नि० चू० अकस्मात्-कस्मादिति हेतुर्न कस्माद् अकस्मात् । आचा० तृ. ४३ । एषां न कश्चिदभोजनकाल: । आचा०३७॥ २६७। अकालपरिहीण-अविलम्बेन । भग० ७३८ । निर्विलम्बम् । अकस्माद्दण्ड:-अनभिसन्धिना दण्डः। प्रश्न० १४३।। जे० प्र० ३९७ । अकस्माद्भयम्-बाह्यनिमित्तानपेक्षम् । प्रश्न. १४३। अकालसज्झायकारए-अकालस्वाध्यायकारक।सम०३७॥ बाह्यनिमित्तमन्तरेणाहेतुकं भयम् । आव० ४७२।। | अकालसज्झायकारी-अकालस्वाध्यायकारी, यः कालिकअकहा-अकथा, मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां श्रुतमुद्घाटपौरुष्यां पठति, चतुर्दशमसमाधिस्थानम् । आव० काञ्चिदज्ञानी कथां कथयति सा। दश. ११५। ६५४ । अकालस्वाध्यायकरणम् , पञ्चदशमसमाधिस्थानम्। अकांडे-अकाले । बृ० प्र० १५५ अ। प्रश्न. १४४ । अकाऊण-अकृत्वा, अभणित्वा । ओघ० १५५ । अकालिचरिया-अकालचर्या, रात्रौ पथि गमनम् । व्य० अकाम-अकामः, मोक्षः । उत्त० ४१४ । अकामः, उप- प्र. १९ आ। .. 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अकालियं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अर्बतिया ] अकालियं-आकालिकं, यथास्थित्यायुरुपरमादर्वागेव । उत्त० ) अकुऊहले-अकुतूहल:, कुहकादिष्वकौतुकवान् । उत्त. ६४। अकाले-अकाल:, मध्याह्लादिः । विपा० ६९। अकुओभय-अकुतोभयः, संयमः, अप्कायलोको वा । अकाहलं-अमन्मनाक्षरम् । प्रश्न. १२० । आचा० ४४ । अकिंचणे-अकिञ्चनः, न विद्यते किमप्यस्येत्यकिञ्चनः, | अकुक्कुए-अकुक्कुचः, अशिष्टचेष्टारहितः । उत्त० १०९ । निष्परिग्रहः । आचा० ४०३ । अकिञ्चनं-निष्परिग्रहत्वम् । अकुत्कुचः, कुन्थ्वादिविराधनाभयात्कर्मबन्धहेतत्वेन कुत्सितं उत्त० ५९० । हस्तपादादिभिरस्पन्दमानः । उत्त० १०१। अकौत्कुच:अकिञ्चं-अकृत्यम् , अकरणीयम् , प्राणवधस्य पञ्चमः | मुखविकारादिरहितः । आचा० ३१५ । । पर्यायः । प्रश्न० ५। मेहुणं । नि० चू० प्र० ७९ आ। | अक्क यं-अकुक्कुचं, अस्पन्दमानम् । उक्त० ५८ । अनिर्वर्तनीयम् । भग० १०४ । अकुक्कुय-कुत्सितं कूजति-पीडितः सन्नाकन्दति कुकूजो न अकिटे-अकृष्टः, अक्लिष्टो वा, अविलिखितः, अबाधितो | तथेत्यकुकूजः । उत्त० ४८६ । निर्वेदनमिति वा । भग• १८० । अकुचो-निश्चलः । नि० चू० प्र० १६७ अ। अकित्तिम-अकृत्रिम, क्रमाद्रत्नखानिसम्भूतानुप्तसम्भतै- | अकुटुिले-अहे। दश• चू० १५१ । रुपशोभितः । जं० प्र० ७० । अकुट्ठो-( आक्रुष्टः )। जारजातोतिवयणेण । नि० । चू० अकित्ती-अवर्णवादभाषणम् । बृ० तृ. ९९ आ । प्र० २९६ अ। अकिरियं-अक्रिया, नास्तिवादः । आध० ७६२ । अकुसल-अकुशलः, अनिपुगः स्थूलमतिश्चरकादिः । दश. अकिरियवादी-अक्रियावादी, क्रियां-जीवादिपदार्थो नास्ती-| त्यादिकां वदितुं शीलं यस्य सः। सूत्र० २०८।। अकुसलो-अप्रधानः बन्धाय संसाराय । नि० चू० प्र० अकिरिया-अक्रिया। आव०३६८ । योगनिरोधः । भग० २५ आ। १४१। अक्रिया । आव. ४१२ । अवर्णः। आव० | अकुहए-कुहर्ग-ईदजालादी तं न करेइत्ति वाइत्तादि वा। ४२९ । आव०४१२ । __ दश० चू० १४०। अकिरिया-दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहतस्यामोक्षसाधकमनुष्ठा अकेल्ला-राजस्तोत्रपाठकाः । नि० चू प्र. २७७ अ। नम्। ठाणा. १५३ । योगनिरोधः । ठाणा० १५७ । अकोवणिजो-अकप्पो अदूसणिज्जोत्ति वुत्तं भवति । नि० योगनिरोधलक्षणा नास्तिकत्वं वा। सम० ५। अविद्य चू. द्वि० १३९ । मानक्रिय, व्युपरतक्रियाख्यं शुक्लध्यान चतुर्थभेदः। उत्त० | अकोसापंतं-विकाशीभवत् । औप० २०।। अकोहणे-अक्रोधनः,अपराधिन्यनपराधिनि वा न कथंचित् अकिरियाओ-अकप्पपडिसेवणं । नि० चू० तृ० २० । क्रुध्यति । उत्त० ३४५। अकिरियावाइ-क्रियाभाववादिनः, आत्माभाववादिनः, | अकोहे-अक्रोधः, स्वल्पक्रोधेण । जं० प्र० १४८ । चित्तशुद्धिवादिनः । भग० ९४४ ।। अकंडे-अकाले ( आउ०) अकिरियावाती-एकात्मकवाद्यादयोऽष्टौ । ठाणा० ४२५। | अकंता-आक्रान्ता । आव० ५०४ । अवष्टब्धा । आचा० 'नास्तिकाः । ठाणा. २६८। २५७ । अकीयकडं-अक्रीतकृतः, न क्रीयते-न क्रयेण साध्वर्थ | अक्कंतितो-अडाडाए बला हरतो। नि० चू० द्वि० कृतः । प्रश्न० १०८। ३८ आ। अकित्ती-अकीर्तिः, एकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिः । ठाणा० ४१८१ | अकंतिया-न कुतोऽपि बिभ्यति ये स्तेनाः । बृ०. द्वि० भग० ४९०। । ११८ अ. 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अर्कते अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अक्खर ] अकंते-अचित्तस्य प्रथमो भेदः । ओघ० १३३ । आक्रान्ते- | अक्खओदए-अक्षयोदकः, अक्षयसम्यग्ज्ञानोदकः । पादादिना भूतलादौ यो भवति सः । ठाणा० ३३६ । अक्षतोदयः, अक्षत उदयः प्रादुर्भावो वा । उत्त० ३५३ । अकंतो-आक्रान्तः । आव० २२७ । अक्षणिक-(अक्खणिए), व्यग्रः । ओघ० १७५ । अकंदणं-आक्रन्दनम् , महता शब्देन विरवणम्। आव० अक्खणिओ-अक्षणिकः, निर्व्यापारः । दश. चू० ५८ । ५८७ । अक्खति-आख्याति (गणि.) अक्क-(अर्कतूलम् )। नि० चू० द्वि० ६१ अ। अक्खपडिय-अक्षपतितः, अक्षपातनिका । आव० ४५३ । अक्कषोंदी-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । अक्खपाडओ-अक्षपाटक: । जीवा० २५७ । चतुरस्राकारः अकबोंदीणं-वल्लीविशेषः । भग० ८०३ । पाटकः । जीवा० २२८। अक्कम-आक्रमः, तदुच्छेद इतियावत् । आव० ६.।। अक्खपाद-हेतुसत्थं । नि० चू० तृ० ३० आ। अक्कमणं-आक्रमणम् । विशे० ४८६ । आक्रमण-पादेन | अक्खमाते-अक्षमाय-अयुक्तत्वाय । ठाणा० १४९ । अनु चितत्वाय असमर्थत्वाय वा । ठाणा० २९२ । असातत्वाय पीडनं । आव० ५७३ । अक्कमह-आक्रामति, अवष्टभ्नाति । उत्त० १३४ । अक्षान्त्यै वा । ठाणा० ३५८ । अवमित्ता-हत्वा । भग० ६३७ । आक्रम्य-मिश्रीकृत्य । अक्खयं-अक्षयम् , साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात् ततो नाशओघ. १९५। रहितः, महावीरः। भग० ७ । विनाशकारणाभावात् । अकिट्ठा-अक्लिष्टाः, खशरीरोत्थक्केशवर्जिताः । जं० प्र० जीवा० २५६ । अक्षयाः, अवयविद्रव्यस्यापरिहाणेः । जं. १२६ । प्र. २५७ । अपुनरावृत्तिक । सम० १२० । अकिट्ठो-अक्लिष्टः, स्वशरीरोत्थक्लेशरहितः । जीवा० २८४ । | अनाश-साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात् , अक्षतं वा परिपूर्णअक्कोडियाओ-प्रवेशिताः । बृ० प्र० ३० आ। त्वात् । सम० ५। अक्कोस-आकोशः, अनिष्टवचनम् , द्वादशः परीषहः । अक्खयणिहि-अक्षयनिधिः, देवभाण्डागारम् । विपा० ७७। आव० ६५६। यकारादिभिः । दश. २ अक्खयणिही-अक्षयनिधिः । आव० ३६० । | अक्खया-अक्षया, अक्षयत्वात् । जीवा. ९९ । न विद्यते परीषहः । सम० ४१ । क्षयो यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा । जं०प्र० २७ । अक्कोसेज-आक्रोशेत् , तिरस्कुर्यात् । उत्त० १११।। अक्कोसो-आक्रोशः, असभ्यभाषणम्। उत्त० ६२ । अक्खयायारचरित्तो-अक्षताचारचारित्री, अक्षताचार एव चारित्रं तद्वान् । आव. ७६३ । आकोशनं, असभ्यभाषात्मकः । उत्त० ८३ । म्रियस्वेत्यादि अक्खरं-अक्षरम् , निरुक्तिविधिनार्थकारलोपादक्षरम् , अथवा वचनम् । प्रश्न. १६० । क्षीयत इति क्षरं न क्षरमक्षरम्, अन्यान्यवर्णसंयोगेडअक्खं-अक्षम् , चन्दनकम् । आव. ७६७ । अक्षाटकम् । नन्तानर्थान् प्रतिपादयति, न च स्वयं क्षीयते येन आव० ३४४ । वराटकाः । आव० ८८ । आत्मा। ठाणा० तेनाक्षरमिति भावः । विशे० २५५ । अविशुद्धनयाभि४९ । इन्द्रियम् । प्रज्ञा० ८८ । अनीते नवनीतादिकमित्य प्रायेण सर्वमपि ज्ञानमक्षरम् , तथा सर्वेऽपि भावा अक्षक्षो-धूः । उत्त० २४७ । रास्तथापि रूढिवशाद्वर्ण एवेहाक्षरं भण्यते । विशे० २५४ । अक्ख-अक्षः, अक्षोपाङ्गदानवञ्चेति साधोरुपमानम् । दश. 'अक्खरं सो य चेयणाभावो' अक्षरं, क्षर-सचलने, न १८ । जीवः इन्द्रियं वा । भग० २२२ । संखाणियप्पदोसो क्षरति न चलति-अनुपयोगेऽपि न प्रच्यवत इत्यक्षरम् । अणतर इंदियजायं वा। नि० चू० प्र० २५५ अ। अक्ष विशे० २५३ । अक्षरम् । आव० ७९३। चक्रनाभिक्षेप्यकाष्ठम् । जं० प्र० १७१। अक्खर-अक्षरम् , न क्षरति न विनश्यति। विशे० अक्खए-अक्षयम् , अविनाशी । भग० ११९ । सदाभावेन, १११६ । अक्षराणां 'स्तृ' शब्दो-पतापयोः अक्षराणां अवयविद्रव्यापेक्षया अक्षतो वा परिपूर्णत्वात् । ठाणा०३३३।। व्यञ्जनानां स्वरणेन संशब्दनेन स्वरा अकारादयः प्रोच्यन्ते, 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अक्खरडियत्ति अथवा अक्षरस्य चैतन्यस्य स्वरणात् संशब्दनात्स्वराः । विशे० २५५ । न क्षरतीत्यक्षरं तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः आव० २४ | अक्खरडियत्ति-अखरंडितम् । ठाणा० ३८६ अक्खरपुट्टिया - लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । अक्खरसंन्निवाति- अक्षरसंनिपातः, अकारादिसंयोगाः । ठाणा० १७९ । अक्खरसमं तत्र दीर्घे अक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते, ह्रस्वे ह्रस्वः, प्लुते प्लुतः, सानुनासिके सानुनासिकः तदक्षरसमम् । ठाणा० ३९६ । अक्खराणि लिपिज्ञानम् । बृ० द्वि० १६३ अ । अक्खवाउ - अक्षपादः । विशे० ६४९ । विशे० ६४८ । अक्खसोय - अक्षश्रोतः चक्रधुरः प्रवेशरन्ध्रम्। भग० ३०९ । अक्खा - अक्षाः, चंदनकाः । नि० चू० प्र० अनुयोगे भङ्गचारणोपकरणम् । बृ० द्वि० आख्या, शब्दप्रथा । प्रज्ञा० ६०० | अक्खाइं - अक्षाणि, इन्द्रियाणि । प्रज्ञा० ६०० । अक्खाइ - आख्याति प्रथमतो वाच्यमात्रकथनेन । जं० प्र० ५४० । अक्खाइउवक्खाइया - आख्यायिकोपाख्यायिका । अक्खित्ते-ठिता । नि० चू० प्र० १८६ अ । अक्खित्तो- आक्षिप्तः । आव ० १७५ । अक्खिवणं- आक्षेपणम्, चित्तव्यग्रतापादनम् । प्रश्न० ४३ । ११९ । अक्खाइयं-आख्यातिकम्, नामिकादिपंचसु पदेषु चतुर्थ । अक्खीण-अक्षीण, अक्षीणायुष्कम प्रासुकम् । भग० ३७२ । अक्खीणझंझए-अक्षीणझञ्झः, अक्षीणकलहः । आव ०६६१। अक्खीण महाणसितो - अक्षीणमहानसिकः । उत्त० ३३२ । अक्खीणमहाणसियं-अक्षीणमहानसिकम् । आव ० २९१ । १०६ अ २५३ आ । आव० ३७९ । अक्वाइयाणिस्सिया - आख्यायिकानिः सृता, यत्कथाखसंभाव्याभिधानम् । प्रज्ञा० २५६ । भग० २७१ । अक्खाडगो - चतुरस्रः । ठाणा० १४५ । 2010_05 सभ० अक्खाइया - आख्यायिका । सम० ११९ । अक्खाओ-आख्यायिका, कथानका सम० ११९। अक्खाग- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । अक्खाडप-अक्खाटकः, महयुद्धस्थानम् । पिंड० १२९ । अक्खाङगा- आखाटका, प्रेक्षाकारिजनासनभूताः । ठाणा ० २३० ॥ अक्खाडगे - आखाटकः, प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणः । अक्खे ] अक्खाणं- आख्यानं, त्वाभिमुख्येन वाssदरेण वा । विशे० १३१८ । समवसरणस्य । आव० २६८ । अक्खाणग- आख्यानकम् । नि० चू० द्वि ७१ अ । अक्खाणयं - आख्यानकं । नि० चू० प्र० ३४६ आ । अक्खातित-आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः । ठाणा ० ४८९ । अक्खायं - आख्यातं, सकलजन्तु भाषाभिव्याप्त्या कथितम् । उत्त० ८० । अक्खाय - आख्यातम्, केवलज्ञानेनोपलभ्यावेदितम् । दश • १३६ । अक्खायगो - आख्यायकः, यः शुभाशुभमाख्याति सः । जीवा० २८१ । अक्खायपयं - आख्यातपदम् साध्यक्रियापदम् । प्रश्न ० ११७ । आख्यानक प्रतिबद्धश्रुतम् । अक्खासुयं-आख्याश्रुतम् प्रश्न० १०८/ अक्खिसंति-आख्यास्यन्ति । नि० चू० प्र० ३५० आ । अति-आक्षिप्तम्, आवर्जितम् । दश० ११४ । arrariant - आक्षिप्तनिवसना, आकृष्टपरिधान वस्त्रा । प्रश्न० ५६ : ठाणा० ३३२ : अक्खीणमहाणसी - अक्षीणमहानसी, अत्रुटितभिक्षालब्धभोजनवान् । औप० २८ । अक्खुडिय - आस्फालितः, स्खलितः । आव ० ५५५: अक्खुंदइ- चक्खिउं मुंचति । नि० चू० द्वि० १२४ अ । अक्खुन्नइ - आक्षुणत्ति, विलिखति । बृ० द्वि० ६६ अ । अक्खुना - अमर्दिताः । बृ० द्वि० ७८ अ । अक्खे - अक्षः, शकटावयवविशेषः । भग० २७७ । सम० ९८ । आख्या - प्रसिद्धिः । जं० प्र० ६२ । (१६) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अक्खे इ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अगणि] अक्खे इ-षण्णवतिरगुलानि एकोऽक्षः । ज० प्र० ९४ । | अक्षरकोविदपरिषद्-(विद्वत्परिषद् )। आचा० १४६ । अक्खेव-आक्षेपः, प्रश्नः। भग० ११४ । आव० ९७। | अक्षरश्रुतम्-ज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि तदाउत्त० ५२४ । वरणक्षयोपशमो वा। आव. २४ । अक्खेवणि-आक्षेपणी, धर्मकथायाः प्रथमो भेदः, आक्षि- अक्षि-नेत्रम् । आचा० ३७ । प्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इति । दश० ११०। अक्षीणमहानसीलन्धिः -येनाऽऽनीत भैक्षं बहुमिरप्यधर्मकथाभेदः । आचा० १४५ । न्यभुक्तं न क्षीयते किन्तु स्वयमेव भुक्तं निष्टां याति । अक्खेवणी-आक्षिप्यते-मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽ- | विशे० ३८५। नयेत्याक्षेपणी। ठाणा. २१० । आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं अक्षोपाङ्गन्यायः-( अक्खुवंजण )-चक्रोजनं । दश० १८०। प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरिति । औप० ४६ । । अखंड-अखण्डः, सम्पूर्णावयवः। आव०२३९ । अखण्डम् - अक्खेवी-आक्षेपी, आक्षिपति वशीकरणादिना यः स ततो। __अस्फुटितम् । दश० १९५। .. मुष्णाति सः । प्रश्न. ४६ । अखमे-अक्षमा, परकृतापराधस्यासहनं । भग० ५७२ । अक्खेवो-आक्षेपः, आक्षेपणम् , आशङ्का । आव० ३७७ ।। अखित्तं-इन्द्रकीलादियुतं प्रामादि । बृ० तृ. ३६ अ । पूर्वपक्षः। बृ० तृ० १२५ अ । परद्रव्यस्य, अधर्मद्वारस्यैकोन- अखुण्णा -अमर्दिता। नि० चू० प्र० ३३५ अ।। विंशतितमं नाम । प्रश्न. ४३ । अखेत्तं-जं० छिण्णमंडवं । नि० चू० प्र० ३४१ आ। सचिअक्खो-अक्षः, युतपासकः ! आव० ५०२ । फलविशेषः, तपृथ्व्यादिमदस्थण्डिलम् । बृ० द्वि० १४० आ। अनुत्त०६। अगंथिमा-कयलआ मरहट्टविसये फलाण कयलकपमाणाओ -क्रियाविशेषः । नि० चू० प्र. १८२ अ। पेण्डीओ एकमि डाले बहक्कीओ भवन्ति ताणि फलाणि खंडाअक्खोडभंगपरिहरणा-आस्फोटकभङ्गपरिहरणा, आस्को- खडीकयाणि । नि० चू० तृ० ३९ अ। टकानां यो भङ्गस्तस्य प्रतिलेखनादिविधिविराधनापरि- अगंधण-अगन्धनः, मानी सर्पः । दश० ३७॥ हरणा। आव० ५५२ ।। अगंधणा-अगन्धना, सर्पजातिविशेषः। उत्त० ४९५।. अक्खोडयं-अक्षोटकम् , अक्षोडवृक्षफलम् । प्रज्ञा० ३६४ । अगंधिं-दुर्गन्धि । बृ० तृ. ९९ अ। अक्खोभे-अक्षोभः, अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्याष्टमा- | अगइचरमे-अगतिचरमः, न गतिचरमः । प्रज्ञा० २४५) ध्ययनम्। अन्त० १। अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य । अगड-कूपः। बृ० प्र० १०९ आ । अवटः खड्डा । प्रथमाध्ययनम्। अन्त०३। आव. ६९१ । आव० २०४ । कूपः । भग० २३८ । जं. अक्खोलं-फलविशेषः । प्रज्ञा० ३२८ । प्र० १२३। अक्खोवंगं-चक्रोंजनं। गणि। अगडदत्तो-अगडदत्तः, अमोघरथरथिकपुत्रः। उत्त. अक्खोवंजण-अक्षोपाजनम् , शकटधूम्रक्षणम् । भग० २९४ २१३ । रक्षकविशेषः । व्य० द्वि० १७० आ। अक्रियावादिनः-क्रिया-अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्या- अगडमहेसु-कूपमहेषु। आचा० ३१८ । पिनी सैवायथावस्तुविषयतया कुत्सिता, अक्रिया नमः -अवटा-कूपाः। ठाणा० ८६। कुत्सार्थत्वात्तामक्रियां वदन्तीत्येवंशीलाः अक्रियावादिनः, -अवटेषु, कूपेषु । प्रज्ञा० ७२ । यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव अगडो-कूपः। नि० चू० प्र० ४३ अ। अवटः, कूपः । चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त इत्यर्थः । ठाण. ४२५ । प्रज्ञा० २६७ ।। (अकिरियावाई)-नियतकृष्णपाक्षिकाः । दशाश्रु० १६। अगणि-अग्निः, इन्धनस्य प्लोषक्रियाविशिष्टरूपस्तथा विद्युअक्षा-बिभीतकः । प्रज्ञा० ३१ । दुल्काशनिसर्षसमुत्थितः सूर्यमणिसंसृतादिरूपश्च । आचा. अक्षरः-घोलना स्वरविशेषः । जीवा० १९५। ४९। आव० ६२१ । अयःपिण्डानुगतः । दश० २२८ । अक्षरकुटी-अक्षरच्छेदेन । विशे० ८३२ । दश० १५४ । अग्निभयात्-प्रदीपन भयात् । ओघ० ११८ । 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अगणिज्झामिय आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अगुणरिणं ] अगणिज्झामिय-अग्निध्यामितम् , वह्निना ध्यामितं, श्यामी- | अगारट्रिय-अगारस्थितभाषा-गृहस्थभाषा। व्य० प्र० कृतम् । भग० २१३ । ५४ आ। अगणि-झूसिए-सेवितः, क्षपितः। भग० ६८३। अगारधम्म-अगारधर्मम् , गृहाचारं गार्हस्थ्यम्।उत्त०५७८। अगणिज्झसिय-अग्निना शोषित, पूर्वस्वभावक्षपणात् , | अगारबंधणं-गृहपाश पुत्रकलनधनधान्यादिरूपम्।आचा० अग्निना सेवितं वा। भग. २१३ । ४२९ । अगणिपरिणामिय-अग्निपरिणामितम् , सजाताग्निपरिणा- | अगारस्थेभ्यः-(गारत्थेहि ),अनुमतिवर्जसर्वोत्तमदेशविरति प्राप्तेभ्यः। उत्त० २५० मम्। भग० २१३ । अगणी-अग्निः । ओघ० १५६ । चतुर्दशशतके पञ्चमोद्देशकः । अगार-अगाराः, गृहिणः। ठाणा० ५३ । भग० ६३०। अगाराओ-गृहवासात्। जं० प्र० १४५ । अगतं-नकुलाजादि । नि० चू. प्र. ७६ अ । अगारिसामाइयगाई-अगारिणो-गृहिणः सामायिक-सम्यअगतो-अगदः, औषधिः। आव. ८३५ । क्तत्वश्रुतदेशविरतिरूपं तस्याङ्गानि-निःशङ्कताकालाध्ययनाणुअगस्थिओ-वृक्षविशेषः । अनुत्त० ५। व्रतादिरूपाणि अगारिसामायिकाङ्गानि । उत्त० २५१ । अगस्थिगुम्मा-अगस्त्यगुल्माः। जं० प्र० ९८। अगारी-अगारी, क्षत्रियादिकः। सूत्र० १४३ । गृही, असंअगत्थी-अगस्तिः,प्रहविशेषः। जं० प्र० ५३५ । ठाण।०७९ । यतः। ठाणा० १८१० प्र० १४५ । अगदो-अणेगदम्वेहि। नि. चू० द्वि०१८ आ। . अगारो-अगारः, गृहस्थस्तस्येदमगारिकं, देशचारित्रसामा यिक देशविरतिसामायिकम्। विशे० १०६३। अगमा-वृक्षाः । बृद्वि० १८३ आ। नि० चू० प्र० १५२ अगालिणो-अगारिणः । बृ. द्वि० २८२ अ। . आ, १८३ अ। अगमेत्त-ज्ञात्वा, आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति। आचा अगाहा-अगाधा, अपरिमितजला। आव० ८१९ । प्रायोग भीरम् । दश० २२० । २१९ । अगम्मगामी-अगम्यगामी,भगिन्याद्यभिगन्ता । प्रश्न०३६। अगिण्हियव्वं-अग्रहीतव्यम् , अनुपादेयं, हेयम् । दश. ८०। अगर-अगुरु:-दारुविशेषः । प्रश्न० १६२ । अगिला-अग्लानिः । नि० चू० प्र० १७ आ । अग्लानःअगरला-सुविभक्ताक्षरता। औप० ७८1 उचितकर्तव्यसहिष्णुः । आचा० २८१ । अगरिहिअं-अगर्हणीयम् , सामायिकनवमपर्यायः । आव० अगिलाए-अग्लान्या, अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः । ठाणा० ४७४। २९९ । विशे० ८७५ । अगलदत्तो-अगडदत्तः,। उत्त० २१५ । अगिलायउ-अग्लान्यैव, शरीरश्रममविचिन्त्यैव । उत्त. अगहणे-अग्रहणे-अकरणे। ओघ० १४९ । अगा-वृक्षाः । नि० चू० तृ० १४० अ। अगीयत्थं-अपरीणामग, अतिपरिणामगाय । नि० चू० प्र० अगामितं-अगामिक, अकामिक-अनभिलषणीय। ठाणा० ४५ आ । ३१४ । अगीयत्थत्त-अगीतार्थत्वम् । आव० ५२ । अगामियं-अगामिकां, अकामिकां वा-अनभिलाषविषय- अगीयत्थो-जेण आवस्सगादीयाण अत्थो ण सुतो। नि० चू० a nm भोगो भूताम्। भग० ६७२ । तृ. २५ अ । अगारं-अगैः कृतं गृहम् । नि० चू० तृ० १४० अ । गेहम्। | अगुण-अगुणः, अविद्यमानगुणः। दश० २६३ । प्रश्न० ८ । गृहम् । आव० ३२९ । अगारः, गृहस्थः । आव० अगुणगुणे-वक्रता। आचा० ८६ । ३२९। अगुणरिणं-अगुणा एव अणंतगुणाणं अणंति वा रिणति अगार-अगारम् , गृहम् । दश० ६२ । । वा एगट्ठा तं च। दश० चू० ८९ । (१८) 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अगुणा अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अग्गाई] अगुणा-अगुणाः, मिथ्यात्वादयो दोषाः। उत्त० ४३१। । अग्गपिंडो-जइ दिणे २ दाहिसि, अग्गपिंडो अग्गकरो। अगुत्ती-अगुप्तिः, इच्छाया अगोपनम् । परिग्रहस्य त्रयो- नि. चू० द्वि. ९. आ । अप्रपिण्डम्-निष्पन्नस्य शाल्योविंशतितमं नाम । प्रश्न० ९२। दनादेराहारस्य देवताद्यर्थ स्तोकस्तोकोद्धारं । आचा० ३३६ । अगुरु-अगुरुः, सुगन्धिद्रव्यः । आव० १०१ । काष्ठविशेषः। काकपिण्ड्यां। आचा० ३४० । शाल्योदनादेः प्रथममुद्धृत्य जीवा० १३६ । भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते। आचा. ३२६ । अप्रवृत्ते परिवेषणे अगुरुलहु-अगुरुकलघुकम् , अत्यन्तसूक्ष्मं भाषामनः आदावेव यो गृह्यते । ठाणा० ५१५। कमेद्रव्यादि। ठाणा० ४७५/ अग्गबीए-अग्रवीजाः, अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते ते तलतालीअगुरुलघु-यदुदयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूगि नापि । सहकारादयः शाल्यादयो वा, अप्राण्येवोत्पत्ती कारणतां लघूनि तत् । प्रज्ञा० ४७३ । सूक्ष्मपुद्गलद्रव्याणि । जं० प्र० प्रतिपद्यन्ते येषां कोरण्टादीनां ते वा। सूत्र. ३५० । १३०। अग्गबीय-अग्रबीजाः, कोरण्टकादयः। दश० १३९ । आचा. अगुरुलहुफासपरिणामे-स्पर्शविशेषः । सम० ४१।। ५८ । व्रीह्यादयः। ठाणा १८६। जपाकुसुमादि । आचा० ३४९ । अगेहि-अगृद्धिः-भोजनादिषु परिभोगकाले अनासक्तिः। भग० अग्गभावे-अप्रभावम् , धनिष्ठा गोत्रम् । जं० प्र० ५०० । अगो-अगः, विपाककालेऽपि जीवविपाकितया शरीरपुद्गला अग्गमहिसी-अग्रमहिषी, पट्टराज्ञी । जीवा० १६२ । ठाणा० ११७॥ दिषु बहिःप्रवृत्तिरहितः, अनन्तानुबन्ध्यादिः । उत्त ०१९ । अग्गरसो-अग्यः रसश्च, प्रधानो मधुरादिकश्च, अग्यो अगाधे-(गाधे ), पदप्रचारालङ्घनीये । विशे० ५७६। । रसः शृङ्गारादिकः । उत्त० ४०५ । अग्गं-अग्रम् , अपरिभुक्तम् । जीवा० २५४ । अग्यम् , प्रधा- | अग्गल-अर्गलम् ,गोपुरकपाटादिसम्बन्धि । दश० १८४ । नम्। प्रश्न० १३६ । अन्तः। भग० ३५। मूर्धा । प्रज्ञा० अग्गल-अर्गलः, षडशीतितमग्रहनाम। जं० प्र० ५३५ । १०८। परिणामः । सूर्य०२८०। आलम्बनम् , आव । अग्गलपासाया-अर्गलाप्रासादाः, यत्रार्गला नियम्यन्ते। २६५ । परिमारम् । भग० ३५। संयमतपसी मोक्षो वा। जं० प्र० ४८ । जीवा० २०४ । आचा० १६० । भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं । आचा० १६०।। अग्गला-गोवाडादीहारेसु भवति । दश० चू०८५। अर्गला, प्रमाणम् । ठाणा० ४६२ । कोटिः । उत्त० २८३ । अग्रं, वरं | प्रतीता। जीवा० २०४ । जीवा० ३५९। अधिकं । उत्त. प्रधान अहबा जं पढमम् । नि० चू० प्र. १४२ अ। ७, ६६०। अग्ग-निर्वाणस्थानम् । आव० १४८ । द्रव्यावगाहनायग्रेषु । अग्गलापासाय-अर्गलाप्रासादः, प्रासादे यत्रार्गला प्रविशति आचा. ३१८॥ सः । जीवा० ३५९। अग्गकूरमंडी-अग्रकूरमण्डी, ओदनस्योपरिभागः। आव. अग्गवपूरओ-परिधानविशेषः । बृ० तृ. १०२ अ। अग्गविडवं-अग्रविटपम् , शाखामध्यभागाय, विस्ताराम अग्गकोडीणं-अग्रकोटयः, प्रकृष्टा विभागाः। जं० प्र० ९५ । वा। प्रश्न. ९२। अग्गजायाणि-अग्रजातानि, वनस्पतिविशेषः । आचा० अप्रशिरः-(अग्गसिरा), उष्णीषलक्षणम् । जं० प्र० ११३ । अग्गसिंगं-अप्रशृङ्गम्। आव० १७४ । ३४९ । अग्गहणं-अनादरः । ओघ० ९४ । बृ० प्र० २४५ अ। अग्गजिम्मा-अप्रजिह्वा, जिह्वाग्रं । ठाणा० ३९५ । अग्गहत्था-अग्रहस्ता, बाहोरप्रभूताः शयाः । अनुत्त० ६ । अग्गतावसगोत्ते-अप्रतापसमोत्रम् । सूर्य० १५० । __ अग्रहस्तो, भुजौ । प्रज्ञा० ९१। अग्गपलंबं-आम्रातकफलं । बृ० प्र० १४३ आ। तलादि- | अग्गहस्थो-अग्रहस्तः,बाह्वप्रभागवर्ती हस्तः । जीवा० २७५ । प्रलंबा । नि. चू० द्वि० १२४ आ। | अग्गाई-अम्याणि, सद्यस्कानि । जं० प्र० २१८ । ____ 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अग्गासणे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अग्गो ] अग्गासणे कूरं-अग्रासनम् , प्रतिगृहं सदक्षिणं भोजनम् । अग्गियए-अग्निः, तितिक्षोदाहरणे प्रथमो दासचेटः । आव० आव• ६७९ । ७०२ । अग्निकः, भस्मकाभिधानो वायुविकारः। विपा० अग्गाहारो-अग्रासनम् । आव० ३०० । ४२ । अग्गितेण-अग्न्यन्तेन, अग्निमार्गेण । आव० ७१। | अग्गियओ-अमिः, दासचेटः । आव० ३४३ । अग्गियतो-अग्निकः, इन्द्रदत्तराजस्य दासचेटः। उत्त० १४८ । अग्गि-तीर्थकरविशेषशिबिका। सम० १५१ । अग्गिल्लए-ग्रहविशेषः । ठाणा० ७९ । अग्गिउत्तं-ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः । सम० १५३ । अग्गिओ-अग्निकः, उत्सन्नवंशजो दारकः । आव० ३९१ । अग्गिवेससगोते-कृत्तिकानक्षत्रनाम । सूर्य० १५० । अग्गिवेसाणं--अग्निवेशस्यापत्यं वृद्ध अग्निवेश्यो 'गर्गादेर्य'अग्गिकुमारा-अग्निकुमाराः, सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देश जिति यञ् प्रत्ययः तस्याप्यपत्यमाग्निवेश्यायनः। नंदी०४८ । वर्तिनो देवाः । भग० १९५। भवनपतिभेदविशेषः । प्रज्ञा० अग्गिवेसायणे-गोशालनिशाचरः । भग० ६५९ ।। अग्गिकुमारीओ-अग्निकुमार्यः, सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्दे अग्गिवेसे-अग्निवेश्यः, शास्त्रीयचतुर्दशदिवसनाम । सूर्य० १४७ । द्वाविंशतिमुहूर्तनाम । सूर्य० १४६ । जं० प्र० ४९१ । शवर्त्तिन्यो देव्यः। भग० १९५। अग्निवेश्म-शास्त्रीयचतुर्दशदिवसनाम। जं० प्र०४९० । अग्निअग्गिघरं-अमिगृहम्। आव. २९५ । वेश्य-कृत्तिकागोत्रम् । जं० प्र० ५०० । अग्गिश्चा-कौशिकगोत्रभेदः । ठाणा० ३९० । सुप्रतिष्ठाभविमानवासी अष्टमो लोकान्तिकदेवः। भग० २७१। अग्गिसिहा-अग्निशिखम् , वनविशेषः । दश० १०३ । अग्गिसिहे-अग्निसिंहः, दत्तवासुदेवपिता । आव० १६३ । ठाणा० ४३२ । अग्गिसिहो-विष्णुविशेषपिता । सम० १५२ । अग्गिश्चामे-कृष्णराज्यवकाशान्तरे लोकान्तिकविमानम् । अग्गिसीहे-अग्निसिंहः, दक्षिणदिग्वर्तिनामग्निकुमाराणाठाणा० ४३२ । सम० १४ । मधिपतिः। जीवा० १७० । ठाणा. ८४ । प्रज्ञा० ९४ । अग्गियो-अग्निः, मरुत् । आव. १३५ । पञ्चमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७ । अग्गिजोओ-अग्निद्योतः, पुष्पमित्रजीवः । आव० १७१ । अग्गिसेणं-ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः। सम० १५३ । अग्गितरोगी-अग्निकरोगी। आव० २७४ । अग्गिहोत्त-अग्निहोत्रः, अग्निकारिका । उत्त० ५२५ । अग्गिभीरु-अग्निभीरुः, प्रद्योतस्य रथः, द्वितीयं रत्नम् । अग्गिहोत्तसाला-अग्निहोत्रशाला । आव० २२५ । आव० ६७३ । अग्गी-अग्निः , ग्रहविशेषः । जं. प्र. ५३५ । वह्निः । अग्गिभूई-अग्निभूतिः, अग्निद्योतजीवः। आव० १७२ । आचा० ३३ । आव० २७३ । । द्वितीयगणधरः । आव० २४० । श्रीवीरस्य द्वितीयगणधरः । अग्गीसेणं-ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः । सम० १५३ । भग० १५३ । सम ८४ । अग्गजाणं-अग्रोद्यानम् , अग्न्युद्यानम् । आव० १९० । अग्गिमाणव-अमिमानवः, उत्तरनिकाये पञ्चम इन्द्रः । अग्गे-दसिकापर्यन्ते । ओघ. २१४ । 'भग० १५७ । अग्गेई-आग्नेयी, पूर्वदक्षिणमध्यवर्तिदिक् । आव० २१५ । अग्गिमाणवे-अग्निमाणवः, उत्तरदिग्वर्तिनामग्निकुमाराणाम अग्गेज्ज-आग्नेयः, मण्डलकोणः। सूर्य० २२ । धिपतिः। प्रज्ञा० ९४ । ठाणा० ८४ । जीवा० १७० । अग्गेणियं-द्वितीयपूर्वम् । सम० २६ । । अग्गिमेह-अग्निमेघाः, अग्निवद्दाहकारिजला मेघाः। भग० अग्गेणीयं-अग्रायणीयम् , द्वितीयपूर्वनाम । ठाणा. १९९। ३०६। अग्गेया-वत्सगोत्रान्तर्गतं गोत्रम् । ठाणा. ३९० । अग्गिमो-प्रथमः। ओघ. ३३।। अग्गेयी-अग्निकोणः । भग० ४९३ । ठाणा. १३३ । अग्गिय-व्याधिविशेषः । नि० चू० द्वि० ६० अ। । अग्गोवरयंकरेति। नि० चू० द्वि० ३५ अ ।। (२०) 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अग्गोदयं । 'अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अचियत्ता] अग्गोदयं-अग्रोदकम् , देशोनयोजनार्धजलादुपरि बर्द्धमानं ) अचरमसमयनियंठो-अचरमसमयनिर्ग्रन्थः, अचरमाजलम्। जीवा० ३०९ । षोडशसहस्रोच्छ्रिताया वेलाया | आदिमध्यास्तेषु यो वर्तमानः सः । उत्त० २५७ । यदुपरि गव्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं तदनोदकम् । अचरिमं-अचरमम् । प्रज्ञा० २३४ । अप्रान्तं, मध्यवर्ति । सम० ७५। प्रज्ञा० २२८ । अग्धं-अर्घम् । आव० ३०० । महाय॑म् । आव० ८२७ । अचरिमंतपएस-अचरमान्तप्रदेशः । भग० ३६६ । आव० २९५ । अर्घ्यम्-मूल्यम् । आव० ८२६ । . अचरिमो-अचरमः, अभव्यः सिद्धश्च । प्रज्ञा० १४३ । अग्धंति-अर्घन्ति, महार्घन्ति । आव० ८२९ । । जीवा० ४४४ । अग्घविए-अर्पितम् , कृतमूल्यम् । दश० ६१ । अचल-(अयलो) कलाशिक्षायामुदाहरणगतः पुरुषः । दश० अग्घाडग-गुच्छाविशेषः। प्रज्ञा० ३२ । . . १०९। अग्घाया-आघ्राताः, आहूताः। विशे० ९६०। अचलेन्द्रः -मेरुः । आव० ४७ । अग्घियं-बहुमोल्लं । नि० चू० प्र० १३९ अ। अचले-अचलः, अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्य पंचमाध्ययअग्धेइ-अर्हति । उत्त० १४२ ।। नम्। अन्त० ३। अग्घेऊणं-अर्घित्वा। आव० २६१ । अचवचवं-चवचवेतिशब्दरहितम् । प्रश्न. ११२। अचवअग्धो-अर्घः, मत्स्यकच्छपविशेषः । जीवा० ३२१।। चवम् । अनुकरणशब्दोऽयम् । भग० २९४ । वल्कमिव अग्निमानव-भवनपतीन्द्रविशेषः । ठाणा० २०५।' . चर्वयन् न चबचबावेइ। ओघ. १८७ । अग्निशर्मा-यो मिथ्यादृष्टपदिष्टयुतपसाऽपि अनन्त कालं अचवलं-अचपलम् , मानसचापल्यरहितम् । भग० १४० । संसारे पर्याटत् । सूत्र. ५७। अचवलो-अचपलः, कायिकादिचापल्यरहितः । प्रश्न० ७४ । अग्निशिख-भवनपतीन्द्रविशेषः । ठाणा० २०५। नाऽऽरब्धकार्य प्रत्यस्थिरः, अथवा अचपलो-गतिस्थानअग्निष्टोमः-यागविशेषः । दश० २७६ । __ भाषाभावभेदतः चतुर्धा। उत्त० ३४६ । अग्रश्रुतस्कन्धः-द्वितीयश्रुतस्कंधः। आचा० ३१८ । अचिअत्तं-अप्रीतिकरम् । दश० २२१ । अग्राह्यः-अप्रमेयः। जीवा० १८७ । अचिअत्तकुलं-अप्रीतिकुलम् , यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरअघा- गर्ता हृदो। बृ० प्र० १०९ आ। प्रीतिरुत्पद्यते तत्कुलम् । दश० १६६ । । अघोर-मन्त्रविशेषः। उत्त० २६७ । अचिअत्ति-यः साधुभिरागच्छद्भिर्दुःखेनास्ते। ओघ० ९३ । अङ्कुसल-अंकुशयुक्तः । (मर०) अचिणित्तु-आचित्य, आत्मप्रदेशैः सहोपचित्य । प्रश्न० ९८। अङ्गमंगो-अंगोपांगानि । (मर०) अचित्तं-आयुःक्षयेणाचित्तं न परसंयतार्थम् । बृ० द्वि० १०६ अचंड-अचण्डः, सौम्यः । उत्त० ४७ । अ । अचित्तम् , दग्धदेशादि । दश० १७८ । अचंडो-अचण्डः, कारणविकलकोपविकलः । प्रश्न० ७४ 1 -(अचित्तदव्वपरिज्जुण्ण), जीर्णप. अचक्किय-अचकिताः, अत्रासिताः । उत्त० ३५३ । टादिः। आचा० ३५। अचक्खुदंसणं-अचक्षुर्दर्शनम् , चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभि- अचित्त-अचित्तमहास्कन्धः । आव० ३५। दर्शनम् । जीवा० १८। अचित्तस्कन्धः-द्विप्रदेशिकादिस्कंधः । विशे० ४२४ । अचक्खुसे-अचाक्षुषम् , चक्षुरिन्द्रियाग्राह्यम् । दश० २०२। अचियत्त-अचियत्तः, स्वचेतसि करोति वाचा न किमपि अचक्खुस्सं-अनिष्टम् । बृ० तृ. ४१ अ। ब्रूते एष देशीभाषया । बृ० प्र० २४६ अ । अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा। ठाणा० ४४८ । अचियत्त-अदानशीलं । ओघ० १५६ । अप्रतीतिः । ओघ० अचरम-अचरमः, यस्य चरमो भवो न भविष्यति सो- १६९ । अप्रीतिकम् । आव० १९१ । आव० ११८ । ऽचरमः । भग० २५९ । अचियत्ता-न रोचते। ओघ० १९४ । - - - (२१) 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अचियत्ते आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः | अचियत्ते-अचियतः, अनभिमतः । सूत्र० ३३७ | अप्रीतिकरः । उत्त० ३४६ । अप्रीतिकानि - नास्ति प्रीतिः साधुषु गृहमुपगतेषु येषां तानि । बृ० प्र० २३५ अ । अचियत्तो - साधुन प्रत्यप्रीतिमान् । प्रश्न० १२४ । अप्रतीत्युत्पादकः । प्रश्न ० ६४ । अचियत्तोग्ग हो - अप्रीतिकावग्रहः । आव ० ३०४ । आव ० १८९ । ४९० । अच्छा - प्रतिमा । बृ० तृ० २६आ । नि० चू० प्र० ११७ आ । अर्चा, मनुष्यतनुर्भाविनी । औप ० ८१ । तनुः, शरीरं, पद्मादिका लेश्या वा । सूत्र० २३८ । लेश्या चित्तवृत्तिः । सूत्र० २३४ ॥ अचिरं - स्थानम्, स्थण्डिलम् । आचा० २९४ । अचिरकालकयं - अचिरकालकृतम्, द्विमासिके ऋतौ यद- अच्चासणयाए - अत्यन्तं सततमासनं - उपवेशनं यस्य सोऽ 1 अन्यादिना प्राशुकीकृतम् । ओघ० १२३ । अचिरवत्तवीवाहे - अचिरवृत्तवीवाहः । सूर्य ० २९२ । अचुल्ला - चुलीए समीवे । नि० चू० प्र० ३२८ आ । अचेल - अचेल, अल्पचेलो जिनकल्पिको वा । आचा० २४२ । अपगतचेलोऽल्पचेलो वा अचलनस्वरूपो वा । आचा० २४५ । यः साधुर्नास्य चेलं वस्त्रमस्तीति अचेलः, अल्पचेल इत्यर्थः । आचा० २४४। नास्य चेलं--वस्त्रमित्यचेलः | आचा० २४४ । षष्ठः परीषहः । आव० ६५६ । अचेलक :- अवमानि, असाराणि लघुत्व जीर्णत्वादिना चेलानिवस्त्राण्यस्येति । उत्त० ३५९ । अविद्यमान चेलकः कुत्सितचेलको वा । उत्त० ५०० । 1 अचोक्खं अचोक्षम्, अपवित्रम् । जीवा० २८२ । अचोक्षाः पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । अश्चतत्थावरा - अत्यन्त स्थावरा, अनादिवनस्पतिकाया दुवृत्त्य । आव ० ४६५ । अच्यंतिओ - आत्यन्तिकः, सर्वकालभावी । सूत्र० ३९५ । अच्यंतिया - तेन सह तत्रैषासितुकामाः । बृ० तृ० १३२ अ । अच्चइओ - व्यथितः, पीडितः । दश० ४४ । अवणिजं - अर्चनीयम् । सूर्य० २६७ । चन्दन गन्धादिभिः । औप० ५। अच्चणिजाओ - चन्दनादिना । भग० ५०५ । अञ्चणिय- अर्चनिका । आव० ३५० । अश्चणियवावडा-अर्चनिकाव्यापृता । आव० ८६३ । अचंतो- विबुद्धोविजं फुडं ण संभरति संभरतो वा जस्सत्थं वि बुज्झति सो अच्चतो । नि० चू० द्वि० ८६ अ । अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तः । उत्त० ६२१ । अनादिः । उत्त० ६२१ । अतिकान्तपर्यन्तम् । उत्त० ६३९ । अच्चिमाली ] अञ्चल्लीणो - आसण्णं । नि० चू० प्र० १७५ अ । अञ्चल्लूढो - अतीव प्रज्वलिते । नि० चू० प्र० १७५ अ । अच्चसणे - अत्यशनः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम । जं० प्र० 2010_05 त्यासनस्तद्भावस्तत्ता तया ठाणा० ४४६ । अच्चासणे - अत्यशनः, , शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम। सूर्य० १४७ । अच्चासाइत्तप-अत्याशातयितुम्, छायाया भ्रंशयितुम् । भग० १७५ । अच्चालायणा - अत्याशातना, किमेभिः कलहशास्त्रैरिति । आव० ५८० । अच्चि - ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः । सम० १४ । अच्चि - अर्चिः, छिन्नज्वालम् । दश० २२८ । मूलानिविच्छिन्ना ज्वाला | दश० १५४ । अनलविच्छिन्ना ज्वाला | जीवा० १०७ । अच्चितं - अर्चिः कान्तम्, विमानविशेषः । जीवा ० १३८ । अच्चिकूर्ड - अर्चिःकूटम्, विमानविशेषः । जीवा० १३८। अच्चिज्झयं-अर्चिर्ध्वजम् विमानविशेषः । जीवा० १३८ । अच्चिप्पभं-अर्चिः प्रभम्, विमानविशेषः । जीवा० १३८ । अचिचमालि- कृष्णराज्यवकाशान्तरे लोकान्तिकविमानः । सम० १४ । भग० २७१ । अच्चिमाली - अर्चिर्मालिः, अर्चिषां माला । प्रज्ञा० १०१ । अचिर्माली, चन्द्रस्य तृतीयाममहिषी । जं० प्र० ५३२ । शकाग्रमहिषीराजधानी । ठाणा ० २३१ । सूर्यस्य तृतीयाग्रमहिषी । ठाणा० २०४, भग० ५०५ । चन्द्रस्याग्रमहिषी । ठाणा ० २०४, भग० ५०५ । दक्षिणपूर्वरतिकर पर्वतस्यापरस्यां शक्रदेवेन्द्रस्य शच्या अग्रमहिष्या राजधानी । जीवा० ३६५ ॥ अचषि-किरणास्तेषां माला, साऽस्यास्तीति किरणमालापरिवृत इति । जीवा० ३८७ । चन्द्रस्य सूर्यस्य च ज्योतिषेन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिषी । जीवा० ३८४ । कृष्णराज्यव काशान्तरे लोकान्तिकविमानः । ठाणा० ४३२ । द्वितीयं लोकान्तिकविमानम् । भग० २७१ । (२२) · Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अच्चिरावत्तं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अच्छवी] अच्चिरावतं-अर्चिरावर्त्तम् , विमानविशेषः। जीवा० १३८ । अच्छ-ऋक्षः, प्रसिद्धः। भग. १९०, नि० चू० प्र० अच्चिरुत्तरावडिंसए-अचिरुत्तरावतंसकम् , विमान- १३८ आ। ऋक्षः। भग० ३०९ । ऋक्षाः, अच्छभल्लाः । विशेषः । जीवा० १३८ । जं० प्र० १२४ । अच्चिलेस्सं-अचिलेश्यम् , विमानविशेषः । जीवा० १३८ । अच्छउ-तिष्ठतु । दश० ३७ । अच्चिवन्नं-अचिर्वर्णम् , विमानविशेषः । जीवा० १३८।। अच्छणं-अवस्थानम् । बृ० प्र० २३६ अ। सन्निधौ आसअच्चिसिंगारं-अर्चिःशृङ्गारम् , विमानविशेषः। जीवा० नम्। आव० ५२४ ।। १३८ । अच्छण-उपविश्यावस्थानम्। बृ० प्र० ११० अ। अच्चिसिटुं-अर्चिःसृ(शि)ष्टम् , विमानविशेषः । जीवा० अच्छणए-यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्धिरास्यते। ओघ० ९४ । १३८ । अच्छणघरं-अवस्थानगृहकम् . यत्र यदा तदा वाऽऽगत्य अच्ची-अर्चिः, अनलाप्रतिबद्धा ज्वाला। प्रज्ञा० २९, बहवः सुखासिकयाऽवतिष्ठन्ते । जीवा० २००। जीवा. २९ । प्रथमं लोकान्तिकविमानम् । भग० २७१ । अच्छणघरगा-अवस्थानगृहकाणि । जं० प्र० ४५। कृष्णराज्यवकाशान्तरे लोकान्तिकविमानः। ठाणा० अच्छणजोए-अक्षणयोगः, अहिंसाव्यापारः । दश० २२८ । अच्छणिउपूरे-संख्याविशेषः । भग० ८८८। । ४३२ । अर्चिः, शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला। औप० ५०. अच्छणिउराति-संख्याविशेषः। ठाणा० ८६ । भग० १३२ । विमानविशेषः । जीवा०१३८ । स्वशरीरगतरत्नादितेजोज्वाला। जीवा० १६२ । अर्चिः, लेश्या । अच्छणिउरे-संख्याविशेषः। भग० २१०। भग० २७५ । सत्र १९० । दाह्यपतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः। आचा० अच्छणिकुरंगाति-संख्याविशेषः। ठाणा० ८६ । अच्छणे-आसने, प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने । उत्त० ५३५। अच्चीकरणं-गुणवण्णणं । नि० चू० प्र० १९५ आ। अच्छण्णपडिच्छण्णो-आच्छादितप्रत्याच्छादितः । जीवा० अच्चीसहस्समालिणीय - चन्द्रप्रभाशिबिकाविशेषणम् । १४५। आचा० ४२३ । अच्छते-तिष्ठति । आव०८३२ । अच्चुओ-अच्युतः, देवलोकविशेषः । आव० ११७ । अच्छभलु-ऋक्षः। नि० चू०.द्वि० ५८.अ । वनजीवा। अच्चुत्तवडिसग-अच्युतकल्पगतविमानविशेषः। सम० | (मर०) ४१। अच्छभल्लो-ऋक्षः । नि० चू० द्वि० १२९ अ। अच्चुदयं-अत्युदकम् , महान् वर्षः । ओघ० ३१।। अच्छर-आस्तरकम् , आच्छादनम् । जीवा० २१०। अच्चुयवडिंसए-अच्युतावतंसकः, अच्युतदेवलोकस्य मध्ये अच्छरसा-अच्छरसाः, अतिनिर्मलाः। 5. प्र. १९२ । ऽवतंसकः। जीवा०. ३९३ । अच्छरा-अप्सरा, चप्पुटिका । सूत्र० ३२५ । शकस्याप्रमहिअच्चुया-अच्युताः, कल्पोपपन्नवैमानिकभेदविशेषाः । प्रज्ञा० । षीनाम। भग० ५०५। ६९। अच्युत:-आयातः। अमेघ० ५० अच्छराणिवातो-अप्सरोनिपातः, चप्पुटिका। प्रज्ञा० ६००। अच्चुव्वाया-परिधान्ताः । बृ० द्वि० २११ आ। अच्छराते-शकस्याग्रमहिष्या राजधानीविशेषः। ठाणा० अच्चेइ-अत्येति, अतिक्रामति। आचा. १४४ । २३१ । अच्छं-ऋक्षम् । आचा. ३३८ । अतिस्वच्छम् । जीवा० अच्छरानिवाए-अप्सरोनिपातः, तिस्रश्वप्पुटिकाः। औप० । स्फटिकवच्छदम । जीवा० १२३ । आकाशस्फटिक- १०९। चप्पटिका। भग० २६९ । जीवा० १०९ । वदतिस्वच्छम्। प्रज्ञा० ८७।... अच्छरीयं-आश्चर्यम् । आव. ३९५।। अच्छंद-अच्छन्दः, अखवशः । दश० ९१। . | अच्छवि-अक्षपि, अशरीरः, अव्यथकः । भग० ८९२ । अच्छंदो-यथाछन्दः, पाषण्डस्थः । आव० १९३। । अच्छवी-अच्छविः, अव्यथकः । उत्त० २५५, ठाणा० ३३६ । (२३) 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अच्छह. आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अजताभासविवज्जी ] अच्छह-तिष्ठत । ओघ० १५८ ।, । अच्छियाइओ-स्थितवान् । आव० ६८३ । अच्छा-अच्छाः, आकाशस्फटिकवत् । ठाणा० : २३२।. | अच्छिरे-चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ । अच्छा-अच्छापुरी, वरणजनपदे आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । अच्छिरोडा-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । चतुरिः' सनखपदविशेषः। प्रज्ञा० ४५। आकाशस्फटिकवदति- न्द्रियविशेषः। प्रज्ञा. ४२। स्वच्छा। जं० प्र० २०। अच्छिवेयणा-अक्षिवेदना, नेत्रपीडा। भग० १९७ ॥ अच्छाडेइ-आच्छादयति। आव० ४३४। . अच्छिवेहए-चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ । अच्छारियभत्तं-लावकभक्तम् । आव. २०७। अच्छिवेहा-चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । अच्छारिया-लावकम् । आव २०७ । मूल्यप्रदानेन शालि अच्छिवेहो-अक्षिवेधः, चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२॥ लवनाय कर्मकराः, अस्तारिका-क्षेत्रे क्षिप्पंते ते। व्यद्वि० अच्छुत्ता-उद्धृत्य । नि० चू० द्वि० १४ आ। १६९ आ। अच्छुरंति-आस्तृण्वन्ति । ओघ० ८३ । अच्छाविजइ-स्थाप्यते। आव० ६३३ । -प्रचुरलामे। नि० चू. द्वि० १४ आ । अच्छावित्तो-स्थापितः। आव० ३५२ । अच्छुढं--अक्षिप्तम् । ओघ० १६५। अच्छावेइ-स्थापयति । आव० ६३१ । अच्छि -(रोडए), चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ ।। अच्छे-अच्छः, सुनिर्मलः, जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् मेरुनाम । जं. प्र. ३७५ । ऋक्षः-अच्छभल्लः । प्रज्ञा० २५३ । अच्छि-अक्षी। आव० १९२ । बीजप्रदेशस्थानानि यस्याः अच्छेओ-अच्छेकः, अविकलः । आव० ५२७ । सा निदिता। ओघ० २१८ । अच्छेज-आसीत । भग० ९०। आच्छेद्य-षष्ठशबलदोषे। अच्छिउं-स्थातुम् । उत्त० १५३ । प्रश्न० १४४ । अच्छिक्को-अस्पृष्टः । व्य० प्र० १८६ आ। अच्छेज्जे-आच्छेद्य-बलाद् मृत्यादिसत्कमाच्छिद्य यत्स्वामी अच्छिचमढणं-चक्षुषोर्मीलनम् । बृ० द्वि० २०७ आ। साधवे ददाति । ठाणा० ४६० । अच्छिज्जं-आच्छेद्यम् । आचा० ३२९ । अच्छेज्जेइ--भोजनदोषः । भग० ४६६ । अच्छिदोकणियं-अक्षिछादनम्। आव० ५६१ । अच्छिणिउपूरंगे-संख्याविशेषः । भग० ८८८ । अच्छेण्णं-आच्छेद्यं, यदाच्छिद्य भृत्यादिभ्यः स्वामी ददाति । अच्छिण्णे-अच्छिन्नः, अव्यवहितः,नान्यैः शब्दान्तरैर्वातादि- प्रश्न० १५५ । कैर्वाऽप्रतिहतशक्तिकः । प्रज्ञा. २९९ । अच्छेरं-आश्चर्यम् । जीवा० २७७ । अच्छिह-अच्छिद्रम् , अविरलम् , निर्दूषणं वा। भग०/ अच्छेरगा-आश्चर्याणि, अद्भतानि । ठाणा० ५२३ । अच्छेरियं-आश्चर्यम् , आश्चर्यवस्तु। दश० ५५ । अच्छिद्दजालो-अच्छिद्रजालः, अमुल्यन्तरालसमूहरहितः। अच्छो-अच्छः, स्वच्छः। सूर्य० ७८ । ऋक्षः । जीवा० जीवा० २७२ । ३८ । नाखरविशेषः । प्रश्न० ७। । अच्छिद्दे-गोशालकदिशाचरः। भग० ६५९ । । अच्छोड-आच्छोटनम् । ओघ० १३३ । अच्छिद्रपाणि-प्रतिमापन्नो जिनकल्पिको वा। आचा० अछिन्नछेयनयाई-अच्छिन्नच्छेदनयिका-सूत्रविशेषः। सम. २७७ । १२८। अच्छिन्न-अच्छिन्नः, अपृथग्भूतः। ठाणा० ४७२। अजगर-अजगरः, शयुपर्यायः, उरःपरिसर्पविशेषः । प्रश्न० अच्छिपत्ताई-अक्षिपत्राणि, नेत्ररोमाणि । जं० प्र० ८१।। ७ । सम | १३५। .. जीवा० २३४ । अजजो-अजय्यः, जेतुमशक्यः । उत्त० १६९ । अच्छिफुल्लयं-अक्षिपुष्पिका। नि० चू० प्र० ७ अ। अजताभासविवजी-अयताभाषाविवर्जी, दुष्टवाक्परिअच्छिय-वृक्षविशेष फलम्। आचा० ३४९ । । हो। आव० ७७५ । 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अजयं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अजीवारंभिया ] अजयं-अयतम् , अनुपदेशेन । दश० १५६ । अणुवएसेण । अजीरं-अजरणम् । ओघ० ६३ । दश० चू० ७०। अजीरगं-अजीर्णत्वम् । आव० ६५५ । अजय-अयतः, अयत्नपरः । ओघ० ३७ । तत्तत्पापस्थाने- अजीरय-अजीर्णम् । भग० १९७ । भ्योऽनुपरतः । उत्त० १९४।। अजीर्णम्-रोगविशेषः । जीवा० २८४ । अजरणं-अजीर्णम् । आव० १३१ । अजीव-अजीवाः, जीवविपरीतस्वरूपाः । प्रज्ञा० ॥ अजवणिजोदए-अयापनीयोदकाः, अयापनीय-न यापना- अजीवअपच्चक्खाणकिरिया - यदजीवेषु-मद्यादिष्वप्रयोजनमुदकं येषां ते। भग० ३०६ । प्रत्याख्यानात् कर्मबन्धन सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया। अजसो-छायाघातः। बृ० तृ. ९९ अ। ठाणा० ४१। अजहण्णमणुकोसे-अजघन्योत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्टस्थितिः। अजीवकरणं-अजीवभावकरणं, परप्रयोगमन्तरेणाभ्रादेर्नाआव. ३३५। नावर्णान्तरगमनम् । आव० ४६४ । अजाकृपाणीयम्-अवितर्कितसम्भवो न्यायविशेषः । आचा० अजीवकिरिया-अजीवक्रिया, अजीवस्य-पुद्गलसमुदायस्य १८॥ यत्कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रिया। ठाणा० ४० । अजाणंतिया-अजानती पर्षत् जे होइ पगयसुद्धा । बृ० प्र० अजीवणेसत्थिया-अजीवनैसृष्टिकी, यत्तु काण्डादीनां धनुरा५८ । दिभिः निसर्जनम् । ठाणा० ४३ 1 अजाणू-अज्ञस्य अज्ञानात् वा व्यावृत्तिः । ठाणा. १७४ । अजीवपाउसिया-अजीवप्राद्वेषिकी, अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्या अजाता-उत्तरगुणैश्वाधाकर्मादिभिरशुद्धा । ओघ० १९३1 क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा । भग० १८२ अजीव-पाषाणादा अजायकप्पिओ-अजातकल्पिको, अगीतार्थः । ६० प्र. स्खलितस्य प्रद्वेषात् । ठाणा० ४१। ११२ आ। अजीवपाओगि-अजीवप्रायोगिकम् , अजीवप्रयोगेन निअजाया-अजाता, याऽतिरिक्तनिरवद्याहारपरित्यागविषया। वृत्त, जीवप्रायोगिकद्वितीयभेदः । आव० ४५७ । आव. ६४१ । अजीवपारिग्गहिया-अजीवपारिग्रहिकी, पारिप्रहिकीक्रियाया अजिओ-अजितः, परीषहोपसर्गादिभिर्न जितः, द्वितीयजिनः, द्वितीयो भेदः । आव० ६१२। । यस्मिन् गर्भे सति माता राज्ञाऽजिताऽतः । आव० ५०२। अजीवमिस्सिया-अजीवमिश्रिता, प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु अजिणं-अजिनं, चर्म । सूत्र.३०७, आचा. ७१। जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु-अहो महानग्यं मृतो जीवराशिरिति अजिपणओ-अजीर्णम् । आव. ३५२ ॥ भाषा । प्रज्ञा. २५६ । अजिम्हं-अमन्दम् । प्रश्न. ८४ । अजीवमीसए-अजीवानाश्रित्य मिश्रमजीवमिश्रृं। ठाणा। अजिम्ह-अमन्दे, भद्रभावतया निर्विकारचपले। जं. प्र. ४९० । | अजीवमीसग-अजीवमिश्रा, सत्यामृषाभाषाभेदः । दश० अजियसतित्थयं-अजितशान्तिस्तवः । आव० ६३८ । २०९। अजियसेणं-ऐरवतावसर्पिणीतीर्थकरः। सम० १५३ ॥ अजीववेयारणिया- पुरुषादिविप्रतारणबुद्धयैव वाऽजीवं अजियसेणे-अजितसेनः, अज्ञातोदाहरणे कौशाम्बीराजा। भणत्येतादृशमेतदिति । ठाणा० ४३ । आव० ६१९ । अतीतोत्सर्पिणीकुलकरः । सम० १५०। अजीवसामंतोवणिवाइया - अजीवसामन्तोपनिपातिकी , अलोभोदाहरणे श्रावस्त्यामाचार्यः। आव. ०१ । सामन्तोपनिपातिकीक्रियाया द्वितीयो भेदः। आव० ६१३। वसंतपुरे नृपः खड्गप्रमादिसैनिकशिक्षकः । प्रज्ञा० ४४१ । अजीवसाहत्थिया-यच्च वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन-खगादिना अजियं-अपराजिता (आज्ञां)। आव० ५९६ । जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकी। ठाणा० ४२॥ अजिया-अभिनन्दनजिनप्रवर्तिनीनाम । सम० १५२ ।। अजीवारंभिया-जीवकडेबराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्चअजिरं-अङ्गणम् । प्रश्न. १३८ । वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारंभिकी । ठाणा० ४१ । (२५) 2010_05 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अजुतं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अजव अजुत-अयुतम् , चतुरशीतिरयुताङ्गशतसहस्राणि । जीवा० । अज्जगो-आर्यकः, वनस्पतिविशेषः लोके आजओ। जं. प्र० ४२४ । प्रत्येकवनस्पतिविशेषः। नि० चू० द्वि० ६० अ। अजुतंगं - अयुताङ्गम् , चतुरशीतिरर्थनिकुरशतसहस्राणि । अज्जगोविंदो-आर्यगोविन्दः, मिथ्योपस्थितायामुदाहरणम् । जीवा० ३४५। आव० ८६१। अजुत्तं-अयुक्तम् , अनुपपत्तिक्षमम् , सूत्रदोषविशेषः । आव० / अज्जचंदणा-आर्यचन्दना, आर्याविशेषः, यस्याः पार्वे मृगावत्याः केवलोत्पत्तिः । आव० ४८५, नि० चू० तृ. अजुत्तो-अनुपयुक्तः । बृ० तृ. ६ आ। १३४ आ। अजरणया-शरीरापचयकारिशोकानुत्पादनेन । भग० ३०५ । अज्जत्ताए-आर्यतया, पापकर्मबहिर्भूतया अद्यतया वा अजो-भजः, छगलको द्विखुरश्चतुष्पदः । जीवा० ३८ । अधुनातनतया वर्तमानकालतया । भग० ६५६ । अजोगवं-अयोगवम् , वैश्याशद्वाभ्यां जातो वर्णः। आचा०८। | अज्जपयं-आर्यपदम् , शुद्धधर्मपदम् । दश० २६९ । अजोगी-अयोगी, निरुद्धयोगः, शैलेश्यां गतो हूस्वपञ्चाक्षरो प्रभृति, सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्याद्य द्विरणमात्रकालं यावत् , भूतग्रामस्य चतुर्दशं गुणस्थानम् । यावत् । आव० ८१११ आव० ६५० । अज्जभावे-आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः। ठाणा. अयोनिभूतम्-(अजोणि भूए), विध्वस्तयोनि, प्ररोहासमर्थम् । २०९। दश० १४०। अज्जमंगू-आर्यमङ्गुः, ऋद्धिरससातगौरवदृष्टान्ते मथुरायाअजोसिया-अजुष्टा, असेविता, क्षयं वा अवसायलक्षणम माचार्यः । आव० ५७९ । अवसन्नाचार्यः । नि० चूक तीता। सूत्र० ७० । प्र० ३५१ अ। आचार्यातिसेवकः दुर्बलाऽऽचार्यः । व्य. अजंहिज्जो-अद्यश्वः । आव० ७१५। । दि. १७४ आ। अज्ज-अद्य, आरब्धः, आर्यः। उत्त. ३६३ । आर्यः | अज्जमणग-आर्यमणकः, आर्यश्चासौ मणकश्चेति विग्रहः, आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणैरित्यायः। प्रज्ञा० ५। षण्मासैर्दशवैकालिकस्याध्येता । दश० २८४ । भावाराधनयोगादाराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यः । दश० २८४ । आर्या-प्रशान्तरूपा चण्डिका। भग. १६४ । अज्जमहागिरि-स्थूलभद्रदत्तगणधारकाचार्यः । नि० ० अद्य-सान्प्रतम् । जं० प्र० २४६, आचा. १५८ । आर्यः प्र. २४३ अ।. ( गौतमः )। आचा० १५८ । पापकर्मबहिर्भूतत्वेनापापः अज्जमहागिरी-आयरिओ। नि० चू० तृ० ४४ आ। (क्षेत्रादिभेदेन नवधा)। ठाणा० २०८ । अज्जमूलं-आर्यमूलम् , मातामहपादमूलम् । आव० ६८४ । अज्जए-हरित विशेषः। प्रज्ञा० ३३ । अज्जय-आर्यकः, पिता। उत्त० ९८ । आव० ३०५ । अज्जकण्हा-आर्यकृष्णाः, आचार्याः । उत्त. १७८ । भग० ४७० । आव० ३५७ । अज्जकण्हो-आर्यकृष्णः, आचार्यः । आव० ३२३ ।। अज्जयमंजरी-आर्यमअरी । आव० १२५। . अज्जकालका-नाम आयरिया। बृ० प्र० ३९ अ। अज्जरक्खितो-मातृकानुज्ञाकृदाचार्यः । नि० चू.द्वि. अज्जकालगायरिए-चतुर्थीप्रवर्तको युगप्रधानः । नि.चू. १०९ अ प्र० ३३९ आ। . अज्जरक्खिय-गोष्ठामाहिलप्रेषकाचार्यः । नि० चू० प्र० अजकालगो-आर्यकालकः । आव० ३६९ । ३३५ आ, १०१ आ। उज्जयिन्यामचेलकत्वे । (मर०)। अजकालय-प्रज्ञादृष्टान्तः । (मर) आर्यरक्षितः । विशे० १.०२ । आचार्यविशेषः । व्य. द्वि. अज्जखउडो-विद्यासिद्ध आचार्यः । नि० चू० प्र०३०४ अ, ३१९ अ। नि० चू० प्र० २७६ अ, नि. चू० प्र० १६ अ। अजव-आर्जवम् , परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापदित्यामः । आर्यखपुटः, विद्यासिद्ध आचार्यविशेषः । आव० ४११ ।। दश० २६३ । (२६) 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अजवइरसामि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अज्यत्थं ] १८ । ६७४ । अज्जवइरसामि-आर्यरक्षितविद्यागुरुः। नि० चू० प्र० । अज्जिए-आर्जिका, आर्यिका मातुः पितुर्वा माता । दश. १०१ आ। २१६ । अज्जवहरा-आर्यवैरा । विशे० ९२८ । आर्यवज्रः, वात्स- अज्जिया-पितामही मातामही वा। बृ० द्वि० ५८ आ। ल्योदाहरणे आर्यः । दश० १०३। माउ पिउ वा जा माता सा । दश० चू० १०९ । अज्जवहरो-आर्यवैरः । आव० २८५ । आर्यवत्रः, युग- | अज्जिया-आर्यिका । आव० ७९३ । प्रधानः । आव० ३०२ । आर्यवैरः, चैत्यभक्तिद्वारे आचार्यः। अज्जियालाभो-आर्यिकालाभः,आर्यिकाभ्यो लाभः । आवं. आव० ५३६ । अज्जवट्टाणा नवम , संवरभेदाः। ठाणा ३०२। अज्जण-अर्जुन, वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । अर्जुनाभिधानं अज्जवे-आर्जवम् , ऋजुता योगसङ्ग्रहे दशमो योगः ।। यत्पाण्डुरस्वर्णम् । जं० प्र० २४२ । बहुबीजविशेषः । भग० आव०६६४ । ८.३। चौरविशेषः। व्य० द्वि० १७० आ । तृणविशेषः । अज्जसमिओ-आर्यसमितः, सुनन्दाभ्राता। आव. २८९।। प्रज्ञा० ३३ । आर्यसमितः । उत्त० ३३३ । अज्जुणए-अर्जुनकः, राजगृहे मालाकारविशेषः । अन्त. अज्जसमिया - आर्यसमिताः, वज्रस्वामिनो मातुलाः ।। आव० ४१२। अज्जुणओ-अर्जुनकः, राजगृहे मालाकारः । उत्त० ११२ । अज्ज़समुद्दा-आचार्यातिशेषानतिसेवि। व्य. द्वि० १४७ अज्जुणगस्स-अर्जुनकः, गोशालपरावर्तिस्थानम् । भग अ। नि० चू० प्र० १५१ अ। (अज्जसा)-अंजसा, प्रगुणेन न्यायेन । विशे० ७७९ ।। अज्जुणमालार-अर्जुनमालाकारः, आक्रोशसहः । (मर) अज्जसामस्स-आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः-प्राप्तो गुणैरि- अज्जुणसुवणं-अर्जुनसुवर्ण, श्वेतकाञ्चनम् । औप० ११५।। त्यायः स चासौ श्यामश्च आयश्यामः, तस्मै । प्रज्ञा० ५। अज्जुणस्स-गौतमगोत्रो गोशालगृहीतत्यक्तशरीरः । भग. अज्जसुनन्दा-आर्यसुनन्दा । उत्त. ३२१। अज्जसुहत्थी-आर्यसहस्ती, योगसग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते अज्जुण्णो-अर्जुनः, सुघोषनगरनृपतिः । विपा० ९५! आर्यस्थूलभद्रस्य लघु: शिष्यः । आव. ६६८ । स्थूलभद्र- अज्जुन्ने-गोशालकदिशाचरः । भग० ६५९ । दत्तगणधारकाचायः । नि• चू० प्र० २४३ अ। आयरिओ। अज्जे-आर्यः । उत्त० २८६ । अद्य, आय, स्वामिन । नि० चू० तृ. ४४, बृ० द्वि० १५३ आ। भग. १७६। अज्जमहम्मे-आर्यसुधर्मा, महावीर स्यान्तेवासी स्थविरः। अज्जो-आर्यः, पितामहः,तीर्थकराणाम् प्रथमः। आव० १६८ । प्रश्न० १। ___ आर्यः । आव० ७९३ । श्रीवर्द्धमानस्वामी। ज० प्र० ५४१ । अज्जहिजो-अद्ययः (श्वः)। आव० ६९२। अज्जोत्ति-आरात्पापकर्मभ्यो याता आर्यास्तदामन्त्रणं हे अज्जा-तुलसीसमो वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । मुनि- आयों। ठाणा० १३५ । सुव्रतजिनप्रवर्तिनीनाम। १५२ । आर्या, सप्तचतुःकल- अज्जोरुह-हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । गणादिव्यवस्थानिबद्धा मात्राछन्दोरूपा। जं. प्र. १३८ । अज्झत्त-अध्यात्मम् , चेतः । दश. १६। अज्जाकल्पं-आर्यानीतम् । ( गणि० ) अज्झत्थं-अध्यात्मम् , सुखदुःखादि । आचा. ७६ । आत्मअज्जाघरे-आर्यागृहे । ठाणा० ३७२ । विषयः । जीवा० २४२। आत्मस्था मिथ्यात्वादयः । अज्जावेयवा-आज्ञापयितव्याः । आचा. १७८ । उत्त० ४०२ । अन्तःकरणम् । आचा० २९० । अध्यात्मम् । अज्जासाढो-आर्याषाढः, स्थिरीकरणोदाहरणे उज्जयि- आचा० २०८ । अध्यात्मक्रिया-यत्केनापि कथञ्चनाप्यपरिन्यामार्याषाढः । दश ० . १०३ । वत्सभूम्यामाचार्यविशेषः ।। भूतस्य दौमेनस्यकरणम्। ठाणा० ३१६ । अध्यात्म:उत्त. १३३ । आचार्यः । आव० ३१५। परिणामः। व्य० प्र० १८१आ। अध्यात्मम्-मनः । ठाणा०५। 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अज्झत्थदंडे आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अज्झवलियं ] अज्झत्थदंडे-अध्यात्मदण्डः, शोकायभिभवः । प्रश्न० १४३ | | अज्झप्पसंवुडे-अध्यात्मसंवृतः, स्त्रीभोगादत्तमनाः सूत्रार्थेअज्झत्थनिप्फनं -अध्यात्मनिष्पन्नम्, अध्यवसानोद्गतम् । दश० २२६ । पयुक्तनिरुद्धमनोयोगः । आचा० २१९ । अज्झप्पे-अध्यात्मनि, आन्तरम् । सूत्र० २३० । अज्झयणं - अध्ययनम्, विशिष्टार्थध्वनिसन्दर्भरूपम् । जीवा ० ४। ठाणा० ६ । पाठः । आव० ७३२, विशे० ४५० । सज्झाओ। दश ० चू० १२५ । स्वस्वभावे आनीयतेऽनेनेति आनयनं प्रस्तावादात्मनः, निरुक्तविधिना । उत्त० ६ । निरुक्तविधिनाऽर्थनिर्देशपरत्वाद्वाऽस्य अयतेरेतेर्वाऽधिपूर्वस्य । उत्त० ७ । नाम । सूर्य० ९, १४६ । आव ०७१५ । अध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्धयापादनात् । दश० १३८ । अनेन करणभूतेन साधुर्बोधसंयममोक्षान् प्रत्यधिकं गच्छति यस्मादेवं तस्मादध्ययनम् । दश० १६ | अध्यात्मानयनं, अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते वा अर्था अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैल्या तथाविधार्थप्रदर्शकत्वाच्चास्य वचसोऽध्ययनमिति, अधिकं नयनमधिकनयनं चाध्ययनम् । दश० १६। अध्यात्मानयनं - अध्ययनश्रुतनाम | दश० १६ | शास्त्रम् । दश० २८४ । अज्झत्थवयणं-अध्यात्मवचनम्, अभिप्रेतमर्थं गोपयितुकामस्य सहसा तस्यैव भणनम् । प्रश्न० ११८ | यदन्यच्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्धयाऽन्यद् बिभणिषुरपि सहसा यच्चेतसि तदेव ब्रूते तत् । प्रज्ञा० २६७, आचा० ३८७ । अज्झत्थिए - अध्यात्मिकः, अभ्यर्थितः । विपा० ३८ । अध्यात्मिकः - आत्माश्रितः । भग० ४६३ । आध्यात्मिकःक्रियास्थान विशेषः । सम० २५ । अज्झत्थिओ - आध्यात्मिकः, आत्मविषयः, सङ्कल्पविशेषः । जीवा० २४२ । अज्झत्थिय-अध्यवसितं सङ्कल्पम् । आव ० ६६९ | आध्यात्मिकं - अन्तःकरणोद्भवम् । सूत्र० ३११ । अज्झत्थीओ-अध्यात्मस्थः । आव० ६४९ | अज्झत्थेव -अध्यात्मन्येव, ब्रह्मचर्ये व्यवस्थितः । आचा● २०८ । अज्झत्थो - आध्यात्मिकः, आत्मन्यध्यध्यात्मं 'दण्डविशेषः । सूत्र० ३०६ । अज्झम्पं- अध्यात्मं, सद्भावनारूढं चितमेव । प्रश्न० १३४ । आध्यात्मिकं, आत्मन्यधीत्यध्यात्मं तत्र भवम् । आन्तरशक्तिजनित सात्त्विकं । सूत्र० १६७। आत्मानमधिकृत्यात्मालम्बनम् । प्रश्न० १२८ । मनः । सूत्र० ६५ । अधि आत्मनि वर्त्तत इति अध्यात्मं - ध्यानम् । आव ०७७४ | रूढितो मनः । उत्त० ७ । आत्मनि । उत्त० ६१८ । चेतः । आव० ५२५ । धर्मध्यानादिकम् । सूत्र ० २६९ । मनः । आचा० २१९ । आत्मनि । उत्त० ४६५ । मनः । उत्त० ५९१ । अज्झष्पजोग - अध्यात्मयोगः । ( महाप्र० ) अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते- अध्यात्मयोगसाधनयुक्तः, अध्यात्मं-मनस्तस्य योगा - व्यापारा धर्मध्यानादयस्तेषां | अज्झवसाणेहि-अध्यवसानः, मनःपरिणामैः । जं० प्र० साधनानि एकाग्रतादीनि तैर्युक्तः । उत्त० ५९१ । अज्झप्पज्झाणं-अध्यात्मध्यानं, अमुकोऽहं अमुककुले अमु aferसे अमुगधम्माठइए न य तव्विराहणेत्यादिरूपम् । ४३३ । प्रश्न० १२८ । अज्झप्परप-अध्यात्मरतः, प्रशस्तध्यानासक्तः । दश० २६७ । । (२८) 2010_05 तत्रभवः अज्झयणछक्कं -अध्ययनषट्कं । विशे० ४१५ । अज्झल - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । अज्झवसाए-अध्यवसायः, सूक्ष्मो मनःपरिणामसमुत्थः । आचा० ६८ | सूक्ष्म आत्मनः परिणामविशेषः । आचा० ३१। अज्झवसाणं-अध्यवसानं, अन्तःकरणप्रवृत्तिः । सूत्र० ३४० । मनोविशेषः । औप० ९९ । जीवा० १३० । अन्तःकरणसव्यपेक्षम् । आव० १८४ । रागस्नेहभयभेदानि अध्यव सानानि । आव० २७२ । अध्यवसायाः । प्रज्ञा० ५४३ । श्रवणविधिक्रियाप्रयत्न विशेषरूपम् । औप० ६० । मन एकाग्रतालम्बनम् । आव ० ५८३ । रागस्नेहभयात्मकोऽध्यवसाय: । ठाणा० ४०० । विशे० ८४२ । अज्झवसाणावरणिजाणं भावचारित्रावरणीयानि । भग० २७९ । अज्झवलिए-अध्यवसितम्, परिभोगक्रियासंपादनविषयम् । भग० ८९ । अध्यवसानम् प्रयत्नविशेषः । भग० ८९ । अज्झवलियं - अध्यवसितं क्रियासंपादनविषयम् । औप ६० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अज्झवस्संति अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अवसट्टा ] अज्झवस्संति-अध्यवस्यतः। दश० ३५। . . | अज्झोववण्णं - अध्युपपन्नः, विषयपरिभोगायत्तजीवितः । अज्झाइतं-अधीतम् । आव. ३४७। । आचा० ७८ । .. . अज्झाय-अध्ययनम् । विशे० ५०६ । अध्यायः । भग० ४ । अज्झोववण्णो-अध्युपपन्नः, आसक्तः। ओघ० १९४ । कुबुद्धीनां मनःपीडानां वा आयः। भग० ४ । पाठः। अध्यपपन्नः । आव० ३५९. . ९२ ॥ उत्त० ७१३ । शास्त्रोऽशविशेषः। आव० ६८ । अध्यय- अज्झोववन-अध्युपपन्नः, आसक्तः । दश. ४५। अप्रानानि । उत्त. ७१२। प्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः । भग० ६५० । अज्झारुहो-अध्यारुहः, वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु कर्मोपादान- अज्झोववन्ने-अध्युपपन्नः, तदेकाग्रतां गतः । भग. निष्पादितेषु उपयुपरि अध्यारोहतीति, वृक्षोपरिजातो वृक्षः, २९२ । मूच्छितः । विपा० ३८। वल्लीवृक्षाभिधानः कामवृक्षाभिधानो वा वृक्षः। सूत्र. ३५२।। अज्झोववन्नो-अध्युपपन्नः । आव० ३९९।। अज्झावसित्त-अध्युष्येति । ठाणा० ३५१ . अज्झोववाय-अध्युपपातः, ग्रहणैकाग्रचित्तता। प्रश्न० १५३। अज्झियगं-उपयाचितकं । बृ० तृ० ७४ आ। अज्झोवात-अध्युपपातः-श्रद्धा । व्य० प्र० २१७ आ। अज्झीणं-अक्षीणम् । विशे० ४५० । अक्षीणश्रुतनाम । अझंझपत्ते- अझञ्झाप्राप्तः, अकलहप्राप्तः सम्यग्दगिर्वा । दश० १६। यद्दीयमानं न क्षीयते स्मः तद अक्षीगम। सूत्र. २३४ । वीतरागः। सूत्र. २३५। ठाणा० ६। अज्ञातोञ्छवृत्ति-(अन्नाउञ्छवित्ती), कुले कुले भिक्षणम् । अज्झुववातो-अगमगमणासवणे वि (आसक्तिः )। नि० उत्त० ४०४। चू० द्वि० ७१ आ। अज्ञानम्-अनाभोगः, अननुस्मरणं वा । दश० १७९ । अज्झुसिरं-अशुषिरम्-अग्गंथिला दशिका निषद्या च । अझै-आतम् , संक्लिष्टाध्यवसायः । दश० चू० १४ । ऋतस्य ओघ २१४ । पीडितस्येदं वचनमिति कृत्व।। अधर्मद्वारस्य षोडशनाम । अज्झुसिरे-तृणादिच्छन्नं न । ओघ० १२३ । .. प्रश्न. २६। आतध्यान - शोकाक्रन्दनविलपनादिलक्षणं अज्झुसिरो- गृहिसीवनिकारहितः प्रतिथिग्गलरहितो वा। ध्यानम् । आव० ५८२ । बृ० द्वि० २५२ आ। अट्टहासं-अट्टाहास्यम् | आव० १९१ । अज्झोअर - अध्यवपूरकम् , स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपम् । अट्टहासो-अट्टहासः । आव० ८३० ।। अट्टणसाला-व्यायामशाला । भग० ५४२ । अट्टनशाला । दश० १७४ । नि० चू० प्र० १४२ आ। औप० ६५। अझोयरए इ-भोजनदोषः। भग० ४६६। स्वार्थमू- | अटो-अनः, योगसङ्ग्रहे आलोचनादृष्टान्ते उज्जयिन्यां लादहणे साधा द्यर्थ कगप्रक्षेपणमध्यवरकः । ठाणा० मल्लविशेषः । आव० ६६४ । । अट्टणो-अनः, उज्जयिन्यां जितशत्रुराजमल्लः । उत्त० १९२ । अज्झोवगमियाए - आभ्युपगमिकी, प्रवज्याप्रतिपत्तितो अट्टदुहवसट्टे-आतंदुःखार्तवशातः । उत्त० ३३१ । ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुचनादीनामङ्गीकारेण निर्वृता वेदना ।। अदृदुहट्टा-आर्त्तदुःखस्थिताः, आर्सदुःखार्ताः। आव० ३९५ । भग०६५। अट्टदुहट्टो-आर्त्तदुःखार्त्तः। आव० २८८ ।.. अज्झोववजंति-अध्युपपद्यन्ते--तदेकचित्ता भवन्तीति तद- अनियट्टियचित्ता-आर्त्तनिर्वतितचित्ताः, आर्त' निर्वतितं र्जनाय वाधिक्येनोपपद्यन्ते उपपन्ना घटमानाः । ठाणा० २९२। चित्ते यैस्ते तथा, आर्ताद्वा निर्वतितं चित्तं यैस्ते । भग० अज्झोववजणं-अध्युपपादनं, क्वचिदिन्द्रियार्थेऽध्युपपत्तिर- १२१ । भिष्वङ्गः। ठागा० १७४ । अट्टमगा-अभिमारकाः। नि.चू० द्वि० ११ अ।। अज्झोवजिज-अभ्युपम येत, अभिष्वङ्गं कुर्यात्। दश० अट्टमट्टाइ-अर्दवितर्द । उप० गा० ४८६ । अवसट्टा-आर्तवार्ताः । आव० ३८८ । ____ 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्टहासं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः - अट्ठसयंसिओ] अट्टहासं-अट्टहासम् । आव० ६३४ । | अट्टगुणे-अष्टगुणाः। ठाणा० ३९४ । अट्टा-आर्ताः, दुखिनः रागद्वेषोदयेन । आचा० १८३ । अट्ठजायं-अर्थकार्या अर्थिकार्यां अर्थप्रयोजनां वा। बृ० तृ. अट्टाल-प्राकारसम्बन्धिन्यट्टालादौ। आचा० ४११।। २४२ अ। अट्टालकं-प्राकारकोष्टकोपरिवर्त्ति आयोधनस्थानम् । उत्त० अट्ठजुतं-अर्थयुक्तं-अर्थते-गम्यत इत्यर्थस्तेन युक्तमन्वितम । ३११। उत्त० ४६ । अट्टालक-अट्टालकः, प्राकारस्योपरि मृत्याश्रयविशेषः ।। यं-अष्टाष्टमिका, भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्त० २९ । जीवा० १५९। मिया-अष्टावष्टमानि । सम० ७७ । अष्टावष्टमम् । अट्टालका-प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः । सम० १३७ । ठाणा० ४४०। अद्यालगं-अट्टालकं। जीवा० १६९ । अट्ठपयंति-अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम् । ठाणा० २२२ । या)-अष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना । जीवा० अट्टालग-अट्टालकः, प्राकारोपरिवती आश्रयविशेषः । प्रश्न ८। अट्टालकम् , प्राकारोपर्याश्रयविशेषः । भग० २३८ । अट्टालगा-पागारस्स अहे अहत्थो मग्गो। नि० चू० अटपिटुणिट्टिया-अष्टपिष्टनिष्ठिता, अष्टभिः शास्त्र प्रसिद्धैः पिष्टैर्निष्टिता। प्रज्ञा० ३६४।। प्र० २६५ अ। अट्टालगो- अट्टालकः, प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषः । अट्टफास-अष्टस्पर्शम् , बादरपरिणामम् । भग० ९६ । जीवा० २५८ । अट्ठभाइया-अष्टमभागमात्रो मानविशेषः। भग० ३१३ । अदालयं-अट्टालकं। आव० ६७५ । अट्ठमंगलए-अष्टमङ्गलकानि, अष्टेति संख्याशब्दः, अष्टम. गलकानीति चाखण्डः संज्ञाशब्दः। जं० प्र० १९२ । अट्टालय-अट्टालकाः, प्राकारस्योपरिवाश्रयविशेषाः । जे० अट्रमभत्तं-अष्टमभक्तम् , त्रिरात्रोपवासः । आव० २२८ । प्र. ७६, १०६ । औप ३ । प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयवि. समयपरिभाषयोपवासत्रयं,यद्वाऽष्टमभक्तमिति सान्वयं नाम, शेषाः । प्रज्ञा० ८६ । प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषः । जीवा० तच्चैवम्-एकैकस्मिन् दिने द्विवारभोजनौचित्येन दिनत्रयस्य षण्णां भक्तानामुत्तरपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च त्यागे. अहालयसंठिओ-अट्टालकसंस्थितः । जीवा. २७९ । नाष्टम भक्त त्याज्यं यत्र। जं. प्र. १९७। उपवासअड़े नाणे-ध्यानस्य प्रथमो भेदः। भग. ९२३ ।। त्रयस्य संज्ञा। जं. प्र. ११८ । अट्टो-आर्तः, मनसा । विपा० ४३। अट्रमभत्तिआ-अष्टमभक्तिका. दिनत्रयमनाहारिणः । जं. अटुं-अर्थः । आव. ७९३ ।। प्र. २३९। अट्ठ-अर्थान , वर्णादीन् । जं० प्र० ९८ । अर्थाय । उत्त । प्रथीय। उत्त• अट्रमेणं-अष्टमेन, उपवासत्रयलक्षणेन । जं० प्र० १५१ । ३६०। अट्ठय-तलं। आव० ६४३ । अट्टकरण- अर्थकरणं, अर्थाभिनिवर्तकमधिकरण्यादि येन अट्टरससंपउत्त-अष्टभी रसैः शृङ्गारादिभिः सम्यक् प्रकद्रम्मादि निष्पाद्यते। अर्थार्थ वा करणं, यत्र राज्ञोऽर्थाश्चि र्षेण युक्तम् । जं० प्र० ३९ । न्न्यन्ते । अर्थ एव वा तैस्तैरूपायैः क्रियत इति । उत्त. अट्टसइआहिं - अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशति. कास्ताभिः, अथवा अर्थानां-इष्ट कार्याणां शतानि याभ्यस्ता अखंभसतसंनिविट्ठा-अष्टोत्तरस्तम्भशतमन्निविष्टा, सभा अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः। जं. प्र. १४३, भग. विशेषः। आव० ३४२। ४८२ । अट्ठग-अष्टकः । ओघ. १४४ । अष्टकम्-चतुर्विशत्य- अट्टसते-अष्टशतं । आव० ३४२। . धिकशतसत्कभागाष्टकप्रमाणम् । सूर्य० २३८ । असयं-अष्टाधिकं शतम् ! ज. प्र. ६० । अट्टगुणाए-अष्टगुणया। आव०६३।। अट्ठसयंसिओ--अष्टशतांत्रिकः । आव० ३४२ । (३०) 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्ठसहस्सं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अढे ] अट्ठसहस्सं-अष्टसहस्रम् , अष्टोत्तर सहस्रम् । जं० प्र०) अट्टाहि-अष्टाहिकाम् , अष्टानामह्नां-दिवसानां समाहारो४१०। ऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां सा अष्टाहिका ताम् । जं. अटुसहस्सवरकंचणसलागा-अष्टौ सहस्रागि-अष्ट सह- प्र. १६३ । स्रसङ्ख्याका वरकाञ्चनशलाका-वरकाञ्चनमय्यः शलाका येषु अट्टाहिया-अष्टाहिका, महामहिमाविशेषः । जीवा० ३६५ । तानि। जं० प्र० ५९। जं० प्र० ४२३ । अट्ठसिरे-अष्टशिराः, अष्टकोणः । औप० १०। अट्रि-अस्थि, कीकशम् । प्रश्न. ८, भग० १३५ । अट्ठसोवण्णि-अष्टसुवर्णा मानमस्येत्यष्टसौवर्गिक, सुव- अट्टिकच्छभा-ये अस्थिबहुलाः कच्छपास्ते अस्थिकच्छपाः। र्णमानमिदम्-चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः, षोडश प्रज्ञा० ४४ । इवेतसर्षपा एक धान्यमाषफल. द्वे धान्यमाषफले एका अट्टिकच्छभो-अस्थिकच्छपः, कच्छपविशेषः । जीवा० ३६ । गुञ्जा, पञ्च गुजा एकः कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषकाः एकः अट्टिकरकम्-तन्दुलोदकम् । दश०. १७७ । मुवर्णः । जं० प्र० २२६ । अहिखंडं-अस्थिखण्डं । आव० ३६९ । अट्ठा-अर्थक्रिया, अर्थाय यत्करणम् , क्रियायाः प्रथमो भेदः । अद्विग-अस्थिकम्-कीकसम् । भग. ३०८ । आव. ६४८ । अढिचम्मावणद्धे-अस्थिचविनद्धम् , अस्थीनि चर्मावनअट्ठाणं-अस्थानम् , अयुक्तं, असाम्प्रतं वा। सूत्र० १६० । द्धानि यस्य । भग० १२५॥ | अहिज्झामे - अस्थिध्यामम् , अस्थि च तद्ध्यामं चशब्दप्रतिबद्धावसतिः । बृ० तृ० १९७ आ। अग्निना ध्यामलीकृतं-आपादितपर्यायान्तरम् । भग०२१३ । अट्राणट्रवणा-अस्थानस्थापना-गुर्ववग्रहादिके अस्थाने अहितग्गाम-अस्थिकग्रामम् , पूर्व वर्धमानकनामकम् । पेक्षितोपधेः स्थापन-निक्षेपः। ठाणा० ३६२ । आव० १८९ । अट्ठादंडे-अर्थाय-शरीरस्वजनधर्मादिप्रयोजनाय दण्ड:-त्रस अट्रिभंजणं-अस्थिभजनम् , कीकसामईनम् । प्रश्न. २२ । स्थावरहिंसा। सम० २५। अद्विमिंज-अस्थिमिञः-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६९५ । अट्रावय-( अष्टापदः) पर्वतविशेषः। आव० ८२७ । अट्रिमिजा-अस्थिमिजा, अस्थिमध्यम् । सूत्र० ४०८ । भग अट्ठापदं-अर्थात्पदम्। आव० ३५२ । अट्ठारसवंको- अष्टादशवङ्कः, अष्टादशसरिको हारः । अट्ठिय-आर्थिकः, अर्यत इत्यर्थः-मोक्षः, स प्रयोजनमस्येति आव० ६८१। अर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीति। उत्त० ६५। अट्ठारसवंजणाउलं-अष्टादशव्यञ्जनाकुलम् । सूर्य० २९३ । अट्ठियकट्टट्ठियं-अस्थिकाष्ठोत्थितम् । उत्त० ३२९ । ठाणा० ११७। अहियगाम-अस्थिकग्राम - श्रीवीरस्य प्रथमचातुर्मासग्रामः । अट्ठावए-अष्टापदम् , द्युतम् , अर्थपदं वा। दश० ११७।। भग०६६१। अट्ठावओ-पर्वतविशेषः । आव. १४८ । अहिलग्गो -मुष्टिं कृत्वा। आव० ६९० । अदावयं-अष्टापदम् । जीवा० २७६ । अर्थपदम् । आव० अहिल्लगो-अस्थि (बीजम् )। नि० चू० प्र० ५६ आ। ४१२। शारिफलकद्यतं तद्विषयकलाम् । जं. प्र. १३७ ।। अद्विसरक्खा-अस्थिसरजस्का-कापालिकाः। व्य.द्वि. द्यूतफलकम् । प्रश्न० ८४ । पर्वतविशेषः । आव० १५१ । २७३ आ। द्यूतकीडाविशेषः । सूत्र० १८१ । द्यूतफलकं, कैलाशः पर्वत- अडिसेणा-वत्सगोत्रान्तर्गतं गोत्रम् । ठाणा० ३९० ! . विशेषो वा। प्रश्न. ७० । अष्टापदः, पर्वतविशेषः । आव अहि-अस्थि-मजा । अनुत्त० ५ । एड्सरक्खा । नि० च. ८२७ । यतफलकम् । जं० प्र० ११४ ।। द्वि० १७२ अ। अट्ठावयसेलसिहरसि - अष्टापदशैलशिखरे । जं. प्र. अप्पसी-ववहारो। नि० चू० तृ० १.१ अ। १५८| अढे-अर्थः, भावः । भग० ३४ । (३१) 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अट्रेति आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणंगकीडा] - 'अटेति-निवसति । नि० चू० द्वि० ६२ आ । अडुयालित्ता-आश्रित्य, बलात्कारं कृत्वा । दश०३८ । अट्ठो-अर्थित्वं च धर्मः । आव० ३४१ । अर्थः-विज्ञानम्। अडेइ-चढापयति, लगयति । आव० ६९।। सुत्र. ३९८ । अर्यत इत्यर्थो मोक्षः। उत्त०६५ अडो-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । अट्रियकप्पा-मध्यमजिनानां महाविदेहजिनानां वा साधवः। अडोलिया-यवोनाम राजा तस्य दुहिता । बृ० प्र० १९१ बृ. तृ० २५४ आ। अ. उंदोइयाए। बृ० प्र० १९१ अ। अंडडिमकुदंडिम-अदण्डिमकुदण्डिमम् , दण्डो निग्रहस्तेन अंडे-तिर्यग्वलितम् । जीवा० २०७ । तिर्यक् । आव० ३६० । निर्वृत्तं राजदेयतया व्यवस्थापितं दण्डिमं, कुदण्डः-अस- अड्डपल्लाणं-लाटविषये प्रसिद्धम् , यदन्यविषये थिल्लीरिति म्यग्निग्रहस्तेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिमं, ते अविद्यमाने यत्र रूढम् । जीवा० २८२ । प्रमोदे सः । विपा० ६३। अडुया-कंबिका । नि० चू० प्र० १६७ अ । थिली । भग. अडडं-चतुरशीतिरडडागशतसहस्राणि । जीवा० ३४५ अडडंग-अडडाङ्ग, चतुरशीतित्रुटितशतसहस्राणि । जीवा. अवियडूं-अर्दवितर्दम्-क्रमहीनम् । ओघ० १७७ । विप्र३४६ । संख्याविशेषः । ठाणा ८६ । भग० ८८८। कीर्णम् । नि. चू० तृ. १३ अ । अडडाङ्गः, संख्याविशेषः। सूर्य० ९१। अडुवियड्डा-अक्रमम् । ओघ. १७६ । अडडाति-संख्याविशेषः। ठाणा० ८६ । अड़िया-अडिका, द्वात्रिंशत् , लौकिकमबद्धकरणम् । आव० अडडे-अडडः, संख्याविशेषः । सूर्य० ९१। भग० २१०, ४६५। २७५, ८८८। अड्ड-आढ्यम् , परिपूर्णम् । औप० १०१। अड्यालं-अष्टचत्वारिंशत् , प्रशस्तं वा। जीवा० १६.1 अढ-आढ्यः, धनधान्यादिभिः परिपूर्णः । भग० १३४ । अडयालशब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाची । प्रज्ञा० ८६ । अडग-आब्यः, सम्पन्नः। आव० २६४ । देशीशब्दः प्रशंसावाची अष्टचत्वारिंशद्वेदभिन्नविच्छित्तयः। अडरत्त-अर्द्धरात्रः, निशीथः । दश० १०४ । आर्धरात्रिकः । कृता वनमाला येषु तानि। जं. प्र. ७६ । व्य. द्वि० २५५ आ। अडयालकोटगरइय - अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविचित्रच्छ अड्डाई-धनवन्ति । ठाणा० ४२१ । न्दगोपुररचितानि । सम० १३८ ।। अड्ढाइजा-अर्द्धतृतीयानि । आव० ३९ । अडयालकोट्ठरइयं-अष्टचत्वारिंशत्कोष्ठकरचितम् , अष्ट- अड्ढायति-आद्रियते। आव० ८४८।। चत्वारिंशद्भदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः - अपवरका अड्ढेऊण-अवष्टभ्य । आव० ६२० । रचिताः-स्वयमेव रचनां प्राप्ता येषु तत् । प्रशस्तकोष्टक हेज- आध्यत्वं-धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखं अथवा रचितं वा। जीवा० १६० । आढयः क्रियमाणा इज्या-पूज्या आढ्यज्या। ठाणा० ४८८ । अडयालिय (ल)-शब्दः किल प्रशंसावाचकः । सम० कंति-अर्धापकान्त्या। नि० चू० प्र. ११७ आ। १३८ । अड्ढोकंती-अर्धापक्रान्तिः । वृ० द्वि० १९ । अडपिंगतो-देसं देसेण हिंडइ । व्य० प्र० १६२ अ। अड्ढोरुगो-कटिविभागाच्छादकं निग्रथ्युपकरणम् । आघ० अडविणीहुत्तं - अटवीनिःसृतम् , अरण्यान्निष्क्रान्तम् । २०९। निग्रन्ध्युपकरणविशेषः । नि० चू० प्र० १७९ आ। उत्त० ३७५। अणं-कम्मं । दश० चू. १४५। पापम् । विशे० ११०९। अडविमिगी-अटबीमृगी। आव० ३९२ । अणं-अगति-गच्छति तासु तासु जीवो योनिष्वनेनेति अडवी, अटवी, अटव्यो-दृरतर जननिवासस्थाना भूमयः। पापम् , सावद्ययोग वा। आव० ३७३ । कर्म । आचा० जं० प्र०६६। १४७ । ऋणम् , कर्म । दश० २६२ । अडिला-चर्मपक्षिविशेषः। जीवा० ४१ । अडिल्ला, चर्मप- अणंगकीडा-अनङ्गक्रीडा, अनझं-कुचकक्षोरुवदनादि, मोहोक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । दयोद्भतस्तीत्रो मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो वा, तेन तस्मिन (३२) ____ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणंगपडि सेवणी अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः अणतवतियाणुप्पेहा ] क्रीडा कृतकृत्यस्यापि वलिङ्गेनाहायैः काष्ठफलपुस्तमृत्ति | अणतजीविया - अनंतजीविका-पनकादयः । ठाणा० १२२ ॥ काचर्मादिघटित प्रजननै योषिदवाच्य प्रदेशासेवनम् । आव० अणतणाणी - अनन्तज्ञानी, केवली । आव० ६६२ । ८२५। कुचकक्षोरुवदनादिमोहोदयोद्भुतस्तत्रो मैथुना- अणतते - अनन्तकम् - एकश्रेणिक क्षेत्रम् । ठाणा० १४७ ॥ ध्यवसायाख्यः कामः । आव ० ८२५ । मैथुनादावर्थक्रिया- अनंतमिस्सिया- अनन्तमिश्रिता, मूलकादिकमनन्तकार्य सम्प्राप्तकामस्य चतुर्दशो भेदः । दश० १९४ | तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येक वनस्पतिना अगपडि सेवणी-मैथुने प्रधानम मेहनं भगश्च तत्प्र- मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतो भाषा । तिषेधोऽनङ्गं तेनानङ्गेनाहार्यलिंगादिना अनङ्गे वा मुखादौ प्रज्ञा० २५९ । ठाणा० ४९० । प्रतिसेवाऽस्ति यस्याः अन वा - काममपरापरपुरुषसंपर्कतो- अणंतमीसग - अनन्तमिश्रा, सत्यामृषाभाषाभेदः । दश० ऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रतिषेविणी । ठाणा० ३१३ । २०९ । अनंतयं - अनंतकम् - जिनम् । सम० -१५३ । अनंग सेण - सुवण्ण गारो भद्रविमर्शे दृष्टान्तः । नि० चू० अणंतरं - अनन्तरम्, बहिर्भूतम् । सूर्य० ३४ । सम तृ० ५ अ । अणंग सेणा - अनङ्गसेना, गणिकामुख्या । अन्त० २ । अणंगसेणो- चम्पावास्तव्यः स्वर्णकृत् हासाप्रहासालुब्धः । वृ० द्वि० ४४ अ । अणंगरति अनङ्गक्रीडा । बृ० तृ० १०७ आ । अणतं - अनन्तम् । विशे० ३९६ । केवलात्मनाऽनन्तत्वात् । जीवा० २५६ । अनन्तः, अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वादन्तरहितः । भग० ७, सम० ५ । अपरिमाणम् । भग० ६६ । अनन्तकर्मपुद्गलनिर्वृत्तत्वात्तदनन्तमिति अनन्तानां वा भवानी हेतुर्यत्तदनन्तम् | ओघ १२८ । · १२८ । अनंतर गढिया - अनन्तरग्रथिता, अनन्तरं व्यवस्थापितैः • ग्रन्थिभिः सह प्रथिता ( जालिका ) । भग० २१४ अणंतरपज्जता - अनन्तरपर्याप्तकाः प्रथमसमय पर्याप्तकाः । ठाणा० ५१४ । अर्णतरपुरक्खडे - अनन्तरपुरस्कृतः, अनन्तरं - अव्यवधा'नेन पुरस्कृतः - अग्रेकृतो यः सः । सूर्य० ९० । अणंतरबंधे येषां पुद्गलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो वर्तते तेषामनन्तरबन्धः । भग० ७९१ । अणतरहिता-अंते ठिता-अंता न अंता-अनंता सचिता । निं० चू० प्र० २५५ आ । नि० चू० द्वि० ८२ आ । अव्यवहितया । अनंतकार्य- मूलकादिकम् । प्रज्ञा० २५९ । अनंतकिरिया - अनन्तक्रिया, परम्परामुक्तिफला । उत्त० अणंतरहियाए - अनन्तर्हि ( रहि) तथा ५८३ । आचा० ३३७ । अणतखुत्तो - अनन्तकृत्वः, अनन्तवारान्। भग० १३० । अनंतरा - अनन्तरौ एष्यातीतौ । अनंतगं कम्बलादिवस्त्रम् | ओघ० ३४ | अणंतगम जुत्त-अनन्ता - अपर्यवसिता गम्यते वस्तुस्वरूपमेभिरिति गमा–वस्तुपरिच्छेद काराः नामादयस्तैर्युक्तानि - अन्वितान्यनन्तगमयुक्तानि । उत्त० ३४२ । अनंतगुणपरिहाणीए - अनन्तगुणपरिहाणिः, अनन्तगुगानां परिहाणिः । जं० प्र० १२९ । अनंतगुणविसितरा - अनन्तगुणांवेशिष्टतरा । सूर्य | 2010_05 आव ० ७६९ । अणतरिया-अनन्तरिका, अन्तरस्य विच्छेदस्य करणम् । भग० २२० । , अनंतरो - अनन्तरः- वर्तमानः समयः । ठाणा० ५१४ । अणंतरोगाढं - अनन्तरावगाढम् येषु प्रदेशेष्वात्मावगाढस्तेष्वेव यदवगाढं तदन्तराभावेनावगाढत्वादनन्तरावगा डम् । भगः २१ । अव्यवधानेनावगाढम् । जीवा० २० । अणंतरोगाढे - उत्पत्त्यनन्तर समयावगाढत्वम् । भग० ९.३७ । अनंतवण्णगा - उपप (प ) त्तिप्रथमसमयवर्तिनः । प्रज्ञा० ३०४ । २९४ । अणतघाई - अनन्तघाति -अनन्ते ज्ञानदर्शने हन्तुं शीलं येषां ते । उत्त० ५८० । अणंतजिणेण - रागद्वेषजेता, ज्ञानी नित्यश्व । आचा० ४३० । (३३) अणतवसियाणुप्पेहा - अनन्तवर्त्तितानुप्रेक्षा । ठाणा १९२ । भवसन्तानस्यानन्तवृत्तिनानुचिन्तनम् । औ० ४५ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणंतविजए आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणञ्चाविअं] -- १४। अणंतविजए-आगामिन्यां उत्सर्पिण्यां भरते चतुर्विंशे जिन- अणईइपत्तो- अनी,तेपत्रः, न विद्यते ईतिः-गडरिकादिरूपेति नाम । सम० १५४ । ऐरवते भविष्यज्जिनः । सम० १५४ । रहितपत्रः । जीवा० १८८ । अणंतवीरिय-अनन्तवीर्यः । आव. ३९२ । अणकरो- ऋणकरः, ऋगं-पापं करोतीति, प्राणवधस्य अणंतसंजयं-एकेन्द्रियादिषु सम्यग् यतः । आचा० ४२९ । । चतुर्विंशतितमः पर्यायः। प्रश्न. ६ । अणंतसंसारा-अपर्यवसितसंसारा अभव्याः । उत्त० ७१३ । | अणको-अणकः. चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न. अणतसंसारवडणा-अनन्तससारवद्धनः । उत्त० ३३० । अणंतसेणे- अनन्तसेनः, · अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य अणक्खित-परीक्षितः । नि० चू० द्वि० ८१ आ। द्वितीयाध्ययनम् । अन्त० ३ । भरतेऽतीतोत्सर्पिणीकुलकरः। अणगार-अनगारः, सूत्रकृताङ्गे पञ्चममध्ययनम् । आव. सम० १५० । ठाणा० ५१८ । ६५८ । साधुः । दश० ६२ । सूत्रकृताङ्गस्यैकविंशमध्ययनम् । अणंतसो-अनन्तशः, अविच्छेदेन । सूत्र. ३४ । उत्त० ६१६ । चतुर्दशशतके नवमोद्देशकः । भग० ६३० । भणंतहिअ-अनन्तहितम्-मोक्षः । दश० २५०। द्रव्यतो भावतश्चाविद्यमानागारः । दश. १५९ । न विद्यते. अणंता-तित्थकरा । ६० प्र० २२४ आ। ऽगारं गृहमेषामित्यनगाराः-यतयः । आचा० ३६ । तीर्थिकअणंताणुबंधी-अनन्तानुबन्धी, अनन्तं संसारमनुबध्नन्सी- प्रबजिताः । आचा. ३०९ । अनगारी-यतिः। उत्त० ५७८ । त्येवंशीलः । प्रज्ञा० ४६८ । षोडशकषाये प्रथमो भेदः। सम? साधुः। आव. ३२९ । ३१, आचा. ९१ | अनन्तं भवं अविच्छिन्नं करोति, अणगारमग्गे-उत्तराध्ययने पचत्रिंशत्तमाध्ययनम् । सम० अनन्तो वाऽनुबन्धो यस्य। ठाणा. १९४। अणंतियं-अनन्तिकम् , नमोऽल्पार्थत्वान्नात्यन्तमन्तिकम- अणगारसुयं-सूत्रकृताङ्गे एकविंशतितमाध्ययनम् । सम० दूरासन्नमित्यर्थः । भग० २१७ । अनासन्नम् । भग०२१७ । अणंतेहि-अनादित्वात् अनन्ताः । भग० ६१०। अणगारस्सभिक्खू-अनगारास्वभिक्षुः, अस्वेषु भिक्षुरस्त्रअणंतो- अनन्तः अनन्तकौशजयात , अनन्तानि बा भिक्षुः-जात्याद्यनाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव गृहिज्ञानादीन्यस्येति, चतुर्दशो जिनः, रत्नखचितमनन्तं दाम- णोऽन्नादि भिक्षत इतिकृत्वा, स च यतिरेव, ततोऽन गा. स्वप्ने जनन्या दृष्टमतः। आव० ५०४। अपर्यवसितः। रश्वासावस्वभिक्षुश्च। उत्त० १९ उत्त. २१३ । अनन्तानामेकैकं शरीरम् । ओघ० ३४।। अणगारियं-अनगारिकं ( अनगारितं वा), अनगारेषु-भावअथंधो-राजविशेषः । नि. चू० द्वि० ४२ आ। भिक्षुषु भा अनुष्ठानम्। उत्त० ३३९। अणंबिल-अनाम्लम्-स्वस्वादादचलितम् । आचाo ki अणगारे-अनगारः, न विद्यते अगारं- गृहं यस्यासौ साधुः । अण-अगाः, अणन्ति-शब्दयन्ति अविकल हेतुत्वेनासात जीवा० १४२ । भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात्। भग नारकाद्यायुष्कमिति, अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयो । ५९६ । न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासौ आव०८१। नारकाद्यायुष्कं च शब्दयन्त्याकारयन्तीपणा, संयत इति । प्रज्ञा० ३०३। न विद्यते अगार-गृहं यस्य सः । अनाः। विशे० ५६१। सूर्य० ४ । अगा:-वृक्षास्तैर्निष्पन्नमगारं तन्न विद्यते त्यक्तगृअणइक्कमणाइ - अनतिक्रमगं, संयमयोगानामनुङ्कनम्।। हपाशः । आचा० ४०३ । उत्त० ५४३ । अणगारो-ऋगकारः, ऋगमिव कालान्तरक्लेशानुभवहेत. अणइक्खा -अनाख्याता । (गणि) तया ऋणम्-अष्टप्रकारं कर्म तत् करोतीति. तथा तथा अणइवत्तिय- अनतिपत्य-यथावस्थितं वस्त्वागमामिहितं गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरूपचिनोतीति । उत्त० २० । तथाऽनतिक्रम्य । आचा. २५६ । अणगालो-दुष्कालः । बृ• तृ. २३ अ। अणइवर-अनतिवर, अविद्यमानहासतया प्रधान न विद्यते । अणघा-गिरोगा। नि० चू० प्र. ८० अ । ऽतिवरं यस्मानत। औप०.४ । | अणच्यावि-अनायितम। ओघ, १०९ । 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणच्चावितं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणभिग्गहिओ] अणञ्चावितं-वस्त्रमात्मा वा यत्र न नर्तितः। ठाणा० ३६१।। अणत्ते-ऋणपीडितः। ठाणा. १६५। प्रस्फोटनं प्रमार्जनं वा। उत्त० ५४० । अणत्थको-अनर्थकः, परमार्थवृत्त्या निरर्थकः, परिग्रहअणञ्चासादणाविणए-आशातना तनिषेधरूपो विनयो- स्याष्टाविंशतितमं नाम। प्रश्न. ९३ । ऽनत्याशातनाविनयः। भग. ९२२ । अणत्थदंडे-अनर्थदण्डः, अप्रयोजनदण्डः। आव० ८३० । अणज्ज - अनार्यम . अनार्यवचनत्वात . अधर्मद्वारस्य | अणथमियसंकप्पे- सूर्यानस्तसमयभोजनसंकल्पवान् । तृतीय नाम । प्रश्न० २६ । वृ० तृ. १७९ अ। अणजधम्मे-अनार्यधर्मः, करकर्मकारी। सूत्र. १५८। अणत्थो-अनर्थः अपायः। प्रश्न० ६२। अनर्थहेतुत्वात् अणजभावे-अनार्यभावः क्रोधादिमान् । ठाणा० २०९ । परिग्रहस्यैकविंशतितमं नाम। प्रश्न० ९२ । अणजे-अन्याय्यः, न न्यायोपेतः । प्रश्न. ५। अणदिटुं-अनादिष्टं-अविशेषितम् । बृ० तृ. ६६ अ। अणजो-अनार्यः, म्लेच्छचेष्टितः । दश० २७५ । पापकर्मा। अणन्नदंसी-अनन्यदशी-यथावस्थितपदार्थदृष्टा, भगवदुपप्रश्न. ४० । देशादन्यत्र न रमते। आचा० १४५ । अणज्झाए-अकाले, अस्वाध्यायिके वा। नि० चू० प्र० | अणनपरम-अनन्यपरमः-संयमः । आचा० .१६६ । १. आ। अणन्नारामे - अनन्यारामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते । अणट्टा-अनार्तः-आर्तध्यानविकलः । उत्त० ४४८ । सकल- आचा० १४५। दोषविगमतोऽबाधिता। उत्त० ४४९ । अणपज्झो-अजाणमाणो । नि० चू. प्र. १९ । अणद्वा-अनक्रिया, अनर्थाय यत्करणम् , क्रियाया द्वितीयो| अणपनिय-अवान्तरव्यन्तरभेदः। जीवा० १७२' भेदः । आव० ६४८ । अणप्पगंथो-अनल्पग्रन्थः । अनर्यग्रन्थः ) बहागमः अवि. अणट्ठादंडे-अर्थविलक्षणो दण्डः । सम० २५ । द्यमानो वाऽऽत्मनः सम्बन्धी ग्रन्थो-हिरण्यादिर्यस्य सः । अणणगामी-अननुगामुकः-स्थितप्रदीपवत् । आव० ४२।। भावधनयुक्तः। औप० ३७ । अणण्णं-अनन्य:-ज्ञानादिकः । आचा. १६३। अणप्पज्झ-(देशी) अनात्मवशः। बृद्वि० २०९ अ। अणण्हकर - 'स्नु-प्रश्रवण' इति वचनात् आस्नवः- अणप्पज्झो -अनात्मवशः। बृ० तृ० २५८ अ। आश्रवः कर्मोपादानं तत्करणशील आस्नवकरस्तन्निषेधा- अणप्पियं-अनर्पितविषयविभागम् । वृ० तृ. ११. अ५ दनास्नवकर:-प्राणातिपायाश्रववर्जित इत्यर्थः । ठाणा. अविशेषितम् । ठाणा० ४८१। । अणप्फिडतं-अचलत् । नि० चू० द्वि०. २२ अं। अणण्हय-अनाश्रवः । आव २८०। अणबलो-ऋणबलः, बलवानुत्तमर्णः । प्रश्न. ३० । अणण्हयत्तं-अनंहस्कत्वम्-अविद्यमान कर्मत्वं । उत्त०५८६। अणभुवगओ-अनभ्युपगतः, श्रुत सम्पदाऽनुपसम्पन्नोऽनिअणण्हयफले-अनाश्रवफलः, संयमः । भग. १३८। । वेदितात्मेत्यर्थः । विशे० ६२५।। अणति-प्रज्ञापयति। उत्त० १२८ । शब्दयति । आव. अणभश्चक:-ऋण-देयं द्रध्य भवति-न ददाति यः सः । ७८८ । आदत्ते-गृहाति। नि. चू० द्वि. ९ आ। प्रश्न. ४६। .. अणतिकमणिज-अनतिक्रमणीयम् , अचालनीयम् । भग० अणभिकंत-अनभिक्रान्तः, अनतिलपितः । आचा. १९३। नाभिकान्ता जीवितादनभिकान्ता सचेतनेत्यर्थः । आचा. अणत्तट्टिए-अनात्मार्थिकः, नात्मार्थ एव यस्यास्त्यसो पर- ३२३। मार्थकारी। प्रश्न १११। अणभिगताणं-अपरिगता: । वृ. प्र. १३. अ। अणत्ता -अस्वीकृतम्। आचा० ३२५ । | अणभिग्गहिओ- अविद्यमानमभीति-आभिमुख्येन गृहीतं अणत्तपन्ने-अनात्मप्रज्ञा:-नात्मने हिता प्रज्ञा येषां ते! ग्रहणं-ज्ञानमस्येत्यनभिगृहीतः - अनभिज्ञः। उत्त० ५६५ आचा. २३४ । । अनङ्गीकृता । उत्त ५। 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणभिग्गहिय आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणसणं ] अणभिग्गहिय - न विद्यते आभिमुख्येनोपादेयतया गृहीतं-1 ४७४ । सामायिकम् । आव० ३६४ । पापानुबन्धरहितम् । ग्रहणमस्येत्यनभिगृहीतः। प्रज्ञा० ६०। अनिश्चितमशिवा-| दश० ११५ । दिभिर्निर्गमभावात् । ठाणा० ३०९। अणवजय-अणवर्ण्यता, पापवय॑ता। आव० ३७३ । अणभिग्गहियमिच्छादंसणवत्तिया- अनभिगृहीतमि- अणवज्जुत्तो-तत्रस्थः, अपृथग्भूतः । आव० ७५८ । ध्यादर्शनप्रत्ययिकी, जेहिं न किंचि कुतित्थियमयं पडि- | अणवठ्ठप्पा-अनवस्थाप्यः-नावस्थाप्यते-नाधिक्रियते। ठाणा. वणं | आव० ६१२। १६४ । कृततपसो व्रतारोपणम् । भग० ९२० । अणभिग्गहिया-अनभिगृहीता, अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनि- अणवढप्पारिहे-कृततपसो व्रतारोपणम् । भग० ९२० । यतार्थावधारणं सा भाषा । प्रज्ञा० २५६ । असत्यमृषा अणवट्ठया-अनवस्थाप्यता, हस्ततालादिप्रदानदोषाद्दुष्टतरभाषाभेदः । दश० २१० । अर्थानभिग्रहेण योच्यते । भग. परिणामत्वाद् व्रतेषु नावस्थाप्यते इति अनवस्थाप्यः, तद्भावः। आव० ७६४ । ठाणा० २००। अणभिजोए-अनभियोगः, इच्छा । आव० ६६८।। अणवट्टिओ-अनवस्थितः ! बृ० प्र० १२५ अ। अणभिहियं-अनभिहितं, अनुपदिष्टं स्वसिद्धान्ते सूत्रदोष- अणयट्टियं-अनवस्थितं, सन्ततम् । जीवा० ३४५ । अनिविशेषः। आव० ३७५।। यतप्रमाणम्। सूर्य० ८७ । अणमिजय-अच्छिद्रे, अभिन्ने । (मर०) - अणवटिया-नावश्यंभाविनः । ठाणा० ३७४ । अणराए-रण्णो कालगते-णिब्भए वि जाव णो राया ठवि अणवट्टिया-अनवस्थिता-येन पुनः प्रतिसेवितेनोत्थापना या अप्ययोग्यः सन् कंचित्कालं न व्रतेषु स्थाप्यते यावन्नाथा. ज्जति। नि. चू० तृ० ७१ अ। अणरायं-राजयुवराजोभयाभिषेकरहितं राज्यम् । बृ० द्वि० पि विशिष्टं तपश्चीर्णं भवति पश्चाच्च चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते। व्य० प्र० १४ आ। ८२ अ। मते रायाणे जाव मूलराया युधराया य एते दोवि अणभिसित्ता। नि० चू० द्वि० १० आ। अणवत्था - अनवस्था, यद्यकार्यसमाचरणात्प्रायश्चित्तं न दीयते क्रियते वा सा। ओघ २२७ । अणलगिरि-अनलगिरिः । आव २९९ । अणवदग्गं-अनवदनम् , अनन्तम् । प्रश्न. ६३। ठाणा. अणला- अपर्याप्ताः, दीक्षापालनेऽसमर्थाः। बृ० द्वि० १२० । औप० ४८। अपर्यवसानम् । सूत्र. ३७२ । २८७ भा। अणवनिय - अणपत्रिकाः, व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिनी अणलो-अनलः, असमर्थः । आव० २५९। वेयावच्चं व्यन्तरजातिविशेषाः । प्रश्न. ६९। वाणमन्तरविशेषः । प्रति सुत्ते अत्थे अभिगमे परिहरण । नि० चू.द्वि प्रझा० ९५। ४९ आ। अणवयक्खित्ता-अनवेश्य पश्चाद्भागमनवलोक्य। भग. अणल्लिअंता-अनाश्रयन्तः। ओघ ९७ । अणवः-स्वल्पाः। उत्त० ४२० । अणवयग्गं-अनवनताग्रं-अपर्यन्तम् । ठाणा ०.४४ । अनन्तं, अणवं-ऋणवान् । सूर्य. १४६। जं. प्र. ४९१।। अपारं, अनवनताग्रं-अनवनत-अनासन्नं अग्रं-अन्तो यस्य अणवकंखवत्तिया-अनवकाक्षाप्रत्ययिकी, विशतिक्रिया तत् । अनवगताग्रं-अनवगतं-अपरिच्छिन्नं अग्रं-परिमाण मध्ये पञ्चदशी। आव० ६१२। अनवकांक्षा-स्वशरीराद्य यस्य तत्। भग. ३५। कालतोऽपरिमाणम्। व्य. प्र. नपेक्षत्वं सेव प्रत्ययो यस्याः सा । ठाणा० ४३ । इहलोकपरलोकापायानपेक्षस्येति । ठाणा । ३१७ । अणवयग्ग-अनवदत् , अन पगच्छत । उत्त० ८५ । अणवगल्ल-अनवकल्पः, जरसा अनभिभूतः। भग० : ७६ ।। अणविक्खया-अप्रेक्षणा (गणि. ) जं० प० ९.। अणसणं-अनशनं, भोजन निवृत्तिः । औप. बाद्यतपोमणवजं - अनवद्यम , मामायिकदशमपर्यायः। आव० शः । उन० ६१. ! ___ 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणसण अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणागारं अणसण-अनशनम् , आहारत्यागः । दश० २६ । भग० अकलुषः। प्रश्न. १११ । अकलुषः, शुद्धस्वभावः। प्रश्न १३६ । अणसणा-अनशनम् , व्रतविशेषः, उपवासः । भग० १२८। अणाइसेसि-अनतिशयी, अवध्याद्यतिशयरहितः। आव० अणसायणा-अनाशातना, अहीलना । दश० २४१। मनो- २४० । वाकायैरप्रतीपप्रवतेनम । उत्त० १७॥ अणाई-अनादिः, नास्यादिरस्तीति संसारः । सूत्र० ३४१ । अणसिओ- अनशितः, न अशितः-भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन अणाउट्टी-अनाकुट्टिः । आव० ३७३ । लोकेनाभ्यर्हितः । आव० १४४ । अणाउत्तं-असावधानता। औप० ४२। अनुपयुक्तः । अणहं-अनघं, अक्षतम् । सूर्य० २९२ । अणहशब्दोऽक्षत- | ठाणा० ४३ । पर्यायो देश्यस्तेनाणहं-अक्षतं । जं. प्र. २२१ । अणाउत्तआइयणया - अनायुक्तवस्त्रादिग्रहणता। ठाणा. अणहवीया-अविणट्ठवीया। नि० चू० प्र० ८० अ। अणहारए-ऋणधारकः । विपा. ७२ ।। अणाउत्तपमजणया-अनायुक्तपात्रादिप्रमार्जनता। ठाणा.. अणहारेणं-स्वदेशजाहाराभावेनेति । ठाणा० ५४ । ४३ । अणहिअपरमत्था-अनधिगतपरमार्थाः। (गणि०) अणाउत्तो-अनाकुल:-अक्षणिकता। बृ० तृ. ४४ आ। अणहिकडा-अनधिकृता-तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्त विनी। अणाउल-अनाकुलः, क्रोधादिरहितः। दश० १६६। प्रज्ञा० २४८१ अणाउले-अनाकुलः । आचा० ४२४ । अणहियासिया-अनध्यासिनी। आव. ४२८ । ... अणाउलो-अनाकुल: । आव० ४०४ । अणहियासी-अनधिकासिकाः, सज्ञावेगोत्पीडितः सन् या | अणाए-अनया। आव० ३९९ । अणापसे-अनादेशः, न आदेशः, सामान्यम्। उत्त० ३२ । याति सा । ओघ० २०० । अणागई-अनागतिः, सिद्धिः, अशेषकर्मच्युतिरूपा लोकानाअणहे-अनघः, नास्याघमस्तीति, निरवद्यानुष्ठायी। सूत्र० काशदेशस्थानरूपा वा। सूत्र. २२३ । अणागतं-अनागतम् , अनागतकरणात् , पर्युषणादावाचाअणहो-अनघः, अक्षतशरीरः । प्रश्न. ११५ । अणाइण्णं-पणगपरिहाणीक्रमेण पत्तं । नि, चू० द्वि० र्यादिवैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणम् । आव० ८४०, ठाणा० ४९८ । १५७ अ। अणागमणधम्मिणो-अनागमनधर्माण:-यस्मिन् मनुष्यअणाइण्णा-अणासेविय । नि. चू० द्वि० १४४ आ। लोके अनागमनं धर्मो येषां ते, न पुनर्गृहं प्रत्यागमनेप्सवः । अणाइनं-अनाकीर्ण:-असंकुलः । उत्त० ४२८ । आचा० २४३। अणारय-अणातीतं. अनादिकं, अज्ञातिकं, ऋणातीत अणा- अणामो-अनागमः-अनवसरः । आचा० १२२ । तीतं वा, अविद्यमानादिकं, अविद्यमानस्वजनं, ऋणं वाऽ अणागयं-अनागतम् , एष्यत्कालम् । आव० ५०९ । तीतं ऋणजन्यदुःस्थतातिक्रान्तम् , दुस्थतानिमित्ततयेति अणागय-अनागताम्-आयत्याम् । आव० ५०९। अनाऋणातीतं, अणं वा अणकं-पापमतिशयेनेतं-गतमणातीतम् । गतं, अनागतकरणादनागतम् । भग० २९६ । भग० ३५ । आ-समन्तादतीव इतो-गतोऽनायनन्ते संसारे अणागलिय-अनिर्गलित:-अनिवारितोऽनाकलितः। भग. आतीतः, न आतीतः अनातीतः, अनादत्तो वा संसारो येन | स तथा, संसारार्णवपारगामी । आचा० २८६ । अणागारं-अनाकारम् , अविद्यमानाकारम् । आव० ८४० । अणाइत्तो-अनुपयुक्तः । (महाप्र०) ठाणा. ४९८ । अविद्यमानाकारं-यद्विशिष्टप्रयोजनसम्भवाअणाइयंतो-विवादानतिक्रामन् । व्य० प्र० १० । भावे कान्तारदुर्भिक्षादौ महत्तराद्याकारमनुच्चारयद्भिर्विधीयते अणाइले-अनाविलः, अदीनस्य चतुर्थं नाम । अन्त० २२।। तदनाकारम् । भग० २९६ । (३७) 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणागारपासणया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणायण ] अणागारपासणया-अनाकारपश्यत्ता-चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं | अणादीओ-अणादिकः, अणं-पापं कर्म आदि:-कारणं यस्य परिस्फुटरूपमीक्षणमवसेयम् । प्रज्ञा० ५३० । सः। ऋणातीतः, ऋण-अधर्मेण न देयं द्रव्यं तदतीतोअणागारो-अनाकारः, यथोक्ताकारविकलः । जीवा० १८॥ ऽतिदुरन्तत्वेनातिकान्तः। प्रश्न० ४। अनादिकः, प्रवाहासामान्यग्राही । भग० ७३ । पेक्षयाऽऽदिविरहितः। प्रश्न. ४ । अणाजीवी-अनाशंसी । नि० चू० प्र० १८ । अनाजीविको- अणादीयं-नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं । ठाणा० ४४ । निःस्पृहः । दश० १०६ । । अणादेज-अनादेयम्-यदुदयवशादुपपन्नमपि ब्रुवाणो नोपाअणाडिया-अनातिः । आव ९५। अपराधः। बृ० देयवचनो भवति, नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि प्र. ३० आ। समाचरति । प्रज्ञा० ४७५ । । अणादायमाणे अनाद्रियमाण:-संखडिमनादरयन् । आचा अणापुच्छा-अनापृच्छा। आव० १९८ । ३२९ । अणाबाहं-अनाबाधकत्वं वेदनाभावत्ववत् । उत्त० ५१०। अणाढिअस्स-अनादृतनाम्नः जम्बूद्वीपाधिपतेः । जं० प्र० अणाबाहि-अनाबाधः-मोक्षसुखम् । ठाणा० ४८८ । ३३४, जीवा० ३२६ । अणाभिगता-अगहियसुत्तत्था। नि० चू० तृ. १४३ अ । अणाढिउ-जम्बूवृक्षस्थो देवः । ठाणा० ६९ । अणाभिडंतो-अस्पृशन् । नि० चू० प्र० १८७ अ । अणाढियं - अनादृतम् , अनादरं सम्भ्रमरहितम् , कृति- अणाभोगं-अनाभोगम् , अतिचारविशेषः । आव० ५६४ । कर्मणि प्रथमदोषः । आव० ५४३ । विस्मृतिः। ठाणा० ४८५ । अणाढिय-अनादृतः, जम्बूद्वीपाधिपतिय॑न्तरसुरः । उत्त० अणाभोगनिव्वत्तिए - अनाभोगनिवर्तितः, यदा त्वेवमेव ३५२। अनादृताद्-अनादराद्या सा अनाहता, शिथिलस्य तथाविधमुहूर्त्तवशाद्गणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं या सा। ठाणा० ४७४ । कुरुते तदा सकोपः। प्रज्ञा० २९१ । अणाणत्ता-अनानात्वा:-नानात्ववर्जिता येष्वेवाधारभूता- अणाभोगबकसो-अनाभोगबकशः. योऽनाभोगेनाजानन् काशप्रदेशेष्वेके तेष्वेवेतरेऽपि। भग०९६१। नानात्ववर्जिताः करोति सः, बकुशस्य द्वितीयो भेदः। उत्त० २५६ । देशभेदेनालक्षितनानात्वाः। प्रज्ञा० ७४ ।। सहसाकारी। ठाणा० ३३७ । अणाणाए-अनाज्ञया, स्वैरिण्या बुद्धया। आचा० ११३ । | ण्या बुद्धया। आचा० ११३ । अणाभोगवत्तिया - अनाभोगप्रत्ययिकी, विंशतिक्रियास्वमनीषिकाचरितोऽनाचारः । आचा० २२७ । मध्ये चतुर्दशी। आव० ६१२ । अनाभोगेन पात्राद्याददतो अणाणुकित्ती-जो एवं ण कथयति । नि० चू० प्र० ३३३ ॥ निक्षिपतो वा। ठाणा०३१७। अनाभोग-अज्ञानं प्रत्ययोअणाणुगामिते-अवधिज्ञानस्य द्वितीयो भेदः। ठाणा ३७० ।। निमित्तं यस्याः सा। ठाणा० ४३ । भणाणुगामियत्ताते-अननुगामिकत्वाय-अशुभानुबन्धाय । अणाभोगे-अनाभोग-अज्ञानम् । भग० ९१९ । एकान्तठाणा. १४९, ३५८ । विस्मरणम् । व्य. द्वि० ३३२ आ। अणाणुपुवी-अनानुपूर्वी, यत्र पूर्वपश्चाद्विभागो नास्ति । अणाभोगो-अनाभोगः, अत्यन्तविस्मृतिः। आव० ८५० । भग. ८० । अत्थरगहणाईए पदे अप्पत्तो। नि० चू० नि० चू०प्र० २९ आ। अज्ञानं । नि० चू० प्र० १४७ आ। द्वि० ५३ अ। अनियतक्रमानुपूर्वी । ठाणा० ४। यथोक्तप्र. विस्मृतिः। आव. ८४८ । कारद्वयातिरिक्तस्वरूपा। अनु० ७३ । अणायगे-अनायकः, अन्यो न विद्यते नायकोऽस्येति अणाणुबंधि-न विद्यतेऽनुबन्धः-सातत्यप्रस्फोटकादीनां यत्र । अनायकः-स्वयम्प्रभुश्चक्रवादिः । सूत्र०६१। अविद्यमानतदननुबन्धि ! ठाणा० ३६१ । नायको राजा। सम० ५३ ।। अणादिट्ठी-अनादृष्टिः, अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य त्रयो- अणायण-अनायतनम् , विरुद्धस्थानम्। दश० २२६ । दशमध्ययनम् । अन्त० ३ । अस्थानम् , वेश्यासामन्तादि । दश० १६५। (३८) 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणायतणं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणिमूहियबलविरिए ] अणायतणं-अनायतनं, साधूनामनाश्रयः। प्रश्न. १३८ । अणासन्नं-अनासन्नं, यद्व्यासनं भावासनं वा न भवति । नि० चू० प्र० ११६ अ । स्त्रीपशुपण्ड कसंसक्तं स्थानम् । ओघ० १२३ । ओघ० १२। | अणासवो - अनाश्रवः, मध्यस्थो रागद्वेषरहितः । सूत्र. अणाययणं-पशुपक्षिमद्गृहं । बृ० तृ. १९५ आ। २४४ । कर्मबन्धनिरोधोपायत्वात् . अहिंसायाः पञ्चत्रिशप्तम अणाययण-स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तगृहवजणं । नि० चू० तृ० नाम । प्रश्न० ९९ । अनास्रवा-व्रतविशेषाः । आचा. १८२ । २५ आ। अणासायणाविणअ- अनाशातनाविनयः, उपचारविनअणायरिया-अनार्या-अर्द्धषडविंशजनपदबाह्यानि । आचा0 यभेदः। दश. २४९ ।। अणासेवियं-अनास्वादितम् । आचा० ३२५ ।। अणायवेतियं-छायायाम् । नि० चू० द्वि० ७६ आ। अणाहपब्वज्जा-उत्तराध्ययनस्य विंशतितमाध्ययननाम। अणाया-अनात्मा घटादिपदार्थः । सम० ५। सम० ६४ । अणायार-अनाचारः, सावद्ययोगः। दश. २३३ । अणाहप्पाओ-अनाथात्मानौ। आव० ७१ । अणायारो-अनाचारः। आव० ७७८ । गिलिते सति आधा- अणाहसाला - अनाघशाला-आरोग्यशाला। व्य० द्वि० कर्मगि दोषविशेषः, यावलम्बनोत्क्षेपोत्तरकालम् । आव० ५७ आ। नि० चू० द्वि० ३८ आ। . ५७६ । व्यभिचारः। आव० ५७८ । आचारस्य साध्वा- अणाहसालालओ-अनाथशालालयः । आचा० ११९ । चारस्याभावः परिभोगतो ध्वंसः। व्य० प्र० ९. अ। अणाहारो-अनिष्ट शोभनमपि न रोचते परि अणाहारो अणारद्धं-अनारब्धम् , अनाचीर्णम् । आचा० १४८ । भवति | नि. चु० द्वि० ५१ अ. अणारिओ-अनार्यः म्लेच्छादिः । प्रश्न० ५। करकणिः । अणाहूय - अनाहूतः, अनित्यपिण्डः, अनभ्याहृतो वा, आचा० १८६ । स्पर्धारहितः। भग. २९३ । भग० २९४ । अणारिय-आचार्य मुक्त्वा । बृ० प्र० २४५ अ । म्लेच्छाः । अणिंगालं-रागपरिहारेणेत्यर्थः । प्रश्न० ११२ । ठाणा० ३०९। अणित-अनिर्गच्छन् । नि० चू० प्र० २५८ आ । अणारिया-कामकहा। नि० चू० प्र० २५८ अ । अनार्यः- अणिंदियं-अनिन्दितं-शिष्टनिन्येन - स्वपरप्रशंसादिहेतुनाऽ क्षेत्रभाषाकर्मभिर्बहिष्कृतः। सूत्र. ३९३ । उत्त० ३५८ ।। नुत्पादितम् । उत्त० ६६७ । अनार्यः-न आर्यः, अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायी। सूत्र. ३३! अणिदिआ-अनिन्दिता, अष्टमी दिकुमारी। जं० प्र० ३८३! अणारोहए-अनारोहकः, योधवर्जितः। भग० ३२२ अणिदिया - अनिन्दिता, अधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारी। अणालावे-अनालापः-कुत्सित आलापः। ठाणा. ४०७।। __ आव० १२१ । अणालिओ-अचेष्टा । आव० ३७० । अणिदिया - अनिन्द्रियाः अपर्याप्ताः, केवलिनः, सिद्धाः अणावडंतो-अस्पृशन् । नि० चू० प्र० १८७ अ। उपयोगतः। ठाणा० ३५५, ५१९ । अणावसं-अवशम् । (मर०) अणिगणा-अनग्मा, अनग्ना नाम द्रुमगणाः । जं० प्र० ९९ । अणावाय-अनापातः । आचा० ३३५। अनापात-आपा- अणिगामसुक्खा -अनिकामसौख्या:-अप्रकृष्टसखाः । उत्त. तादिरहिता उच्चारभूमी । दश०२३१। उत्त० ५१८। विज- ४०० । नम् । आचा० ३३९ । स्याद्यापातरहितः । उत्त० ६०८ । अणिगिण- अनग्नत्वम् , सवस्त्रत्वं तद्धेतत्वादनमा इति । अणावायमसंलोए-अनापातासंलोकम् । ओघ० १२२ । । सम० १८ । अणाबाहो-मोक्खो। दश. चू० १३। अणिगहंतो-अनिगृहन् , प्रकटयन् । आव० ५३४ । अणासगं-परिज्ञा। नि० चू० प्र० ३५२ आ। अनशनं । अणिगृहियबलविरिए -- अनिगृहितबलवीर्यः, न निगृहिते नि० चू० प्र० २५८ अ। बलबीर्ये येन सः बलं-शारीरं वीर्य-आन्तरः शक्तिविशेषः । अणासए-अनश्वः, अश्वरहितः । भग० ३२२ । । आव० २५९ । 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणिग्गहो आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अणिसिहं ] अणिग्गहो - अनिग्रहः, अनिषेधो मनसो विषयेषु प्रवर्त्तमान- | अणिद्यन्तियं - ( अणिज्जत ) कम्मं ण कारविज्जति । नि० स्म, अब्रह्मण एकादशं नाम । प्रश्न० ६६ । स्वैरः। प्रश्न० ३१ । अणिचं - अनित्यम्, न नित्यमस्थिरत्वात् । प्रश्न० ९६ । अणिचमावासं - अनित्यावासः - मनुष्यादिभ वस्तच्छरीरम् । आचा० ४२९ । अणिचाणुप्पेहा - अनित्यानुप्रेक्षा- जीवितादेरनित्यस्यानु प्रेक्षा । ठाणा० १९० । अणिश्चेऊण-अ (न) र्चयित्वा | आव० १४६ | अणिच्छियत्ता - अनीप्सितता, आप्तुमनिष्टता । भग० २३ । प्राप्तुमनभिवाञ्छितत्वम् । भग० २५३ । प्रज्ञा० ५०४ । अणिच्छियव्वो-अनेष्टव्यः, मनागपि मनसाऽपि न प्रार्थनीयः । आव० ५७२, ७७८ । अणिजिण्णा - अनिर्जीणः, सामस्त्येनात्म प्रदेशेभ्योऽपरिशा टितः । प्रज्ञा० ६०२ । अणिज्जुहियाअंसी - अनिर्यूढा - कृतविभागापि नान्यत्र नीतांशिका | बृ० द्वि० १९९ आ । अणिज्झापत्ता - अनिद्धर्याय, चक्षुरव्यापार्य । भग० ३१२ । अणिट्ठे-अनिष्टम्, सतामनभिलषणीयम् । आव० ५८९ । अणिट्टत्ता-अनिष्टता, इष्टा–मनंसा इच्छाविषयीकृता तद्विपरीता अनिष्टा तस्या भावः । प्रज्ञा० ५०४ । अनिष्टता, इच्छाया अविषयता । भग० २५३ । अणिण्हवणं - अनपलापः । नि० चू० प्र० ९ अ । अणितणा वस्त्रदायिनः । ठाणा ० ५१७ । चू० द्वि० १०६ अ । अणिमिसच्छो-अनिमेषाक्षः, निथलनयनः । आव ० ७८४ । अणिमिसनयणे- अनिमिषनयनम् विकसित नयनम् । भग० १७१ । अणिमिसा - अनिमेषा । आव० १२४ । अणिमिसे- अनिमिषाः, मत्स्याः । दश० १०२ । अणियं - अणिक, अग्रम्- तुण्डम् । प्रश्न० ११५ । अनीकं - कटकम् । उत्त० ४३८ । अणियट्ट - अनिवर्त्तः, मोक्षः । आचा० १९३ । अणियट्टिबायरो - अनिवृत्तिबादरः, निरृत्तिबादरादूर्ध्वं लोभाणुवेदनं यावत् भूतग्रामस्य नवमं गुणस्थानम् । आव ० ६५० । 2010_05 अणिअट्टी - भरते भविष्यजिनः । सम० १५४ । अणियण- अननकारणत्वादनमा विशिष्ट वस्त्रदायिनः संज्ञाशब्दो वाऽयमिति । ठाणा ० ३९९ । अणियणो - अनमः । आव ० १११ । . अणियतो-अनियतः, अनियमवान्, अनवस्थितः । प्रश्न २८ । अणियत्तो - अनिवृत्तः । आव ० ८२३ । अणियदरिसणं - हयगजरथपदात्यनीकदर्शनम् । नि० चू० द्वि० ७१ अ । अणियया-अनियता-अनिर्धारिता । प्रज्ञा० ३३९ । अणिया-अनिदा, अकारणम्। आचा० ३४ । मेधाधारणेन्द्रियपादवदेहायुर्वर्धनकारी । नि० चू० प्र० २५४ अ । अनाभोगतः । सम० १४६ । अणियाणे - प्रार्थनारहितः । भग० १२३ । अणियाहिवई - अनीकाधिपतय: -गजादिसैन्यप्रधाना ऐरा । वतादयः । ठाणा० ११७ । अणितिप- अनितिकः - अविद्यमाननियतस्वरूपः । भग० ४६९ अणित्थंत्थं - अनित्थंस्थम्, इतीदं प्रकारमापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं, न इत्थंस्थं अनित्थंस्थमिति, केनचित्प्रकारेण लौकिकेनास्थितमिति । आव ० ४४५ । नेत्थं तिष्ठतीति, अनियताकारम् । जीवा० २५ । अणिलामयी - वातरोगिणी । बृ० द्वि० २१९ अ । अणित्थंथे - अनित्थंस्थं परिमण्डलादिव्यतिरिक्तम् । भग० अणिलो - निलओ जस्स नत्थि । दश० चू० ९८ । अणिवारिए - अनिवारितः, निषेधकरहितः । विपा ५२ । अणिदा- अनिदा-अनिर्द्धारिणा । भग० ४४ । चित्तविकला अणिविद्धं - कम्मं ण कारविज्जति । नि० चू० द्वि० १०६ अ । सम्यग्विवेकविकला वा । प्रज्ञा० ५५७ । अणिवणं- सचित्तं । नि० चू० प्र० ४३ आ अणिदाणो-अनिदानः, देवेन्द्रायैश्वर्या प्रार्थकः । प्रश्न० १४७। अणिसिद्धं अनिसृष्टं, बहुसाधारनं सत् यदेक एव ददाति । अणिसं-अनिर्देश्यं । विशे० १५५ । प्रश्न० १५९ । परिहारिकम् । नि० चू० प्र० १६१ आ । मृदु ८५८, ८५९ । (४०) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणिसिद्धो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणुओगो] कर्तव्यं । ओघ० २१४ । ठाणा० ४६० । भग० ४६६ । | अणीयसे- अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । नि० चू० तृ. १६ अ, ४८ आ। तत्स्वामिनाऽनु- अन्त० ३ । त्संकलितम्। आचा० ३२५ । दोषविशेषः । आचा० अणीसहूं-हस्तमानावग्रहादस्फिटितम् । बृ० द्वि० २३९ अ । ३२९। साधारणं बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानम्। अणीहारि-अनि रि, तपोभेदः । उत्त० ६०० । ठाणा० ४६७ । दोषविशेषः। प्रश्न १४४। | अणीहारिमे-अनिर्हरणाद् गिरिकन्दरादौ अनशनम् । ठाणा० अणिसिद्धो-अनिषिद्धः, अनुपयुक्तः। आव० २६७ । ९४ । जइ बहिं पडिवजइ । नि० चू० द्वि० ५८ अ। . अणिस्सि(भि )अप्पा-अनिभृतात्मा, अनिदानः । आव० अणु - अनु-प्रतिदिवसम् । सूर्य० १३६, १३३ । थेवे । दश० चू० ८९ । स्तोकप्रदेशम् । प्रज्ञा० २६३ । पश्चाद्भावे अणिस्सिए-अनिश्रितः, द्रव्यभावनिश्रारहितः प्रतिबन्ध- | स्तोके च । बृ० प्र० ३३अ, । स्तोकम् । प्रज्ञा ५०२ । विमुक्तः । दश. २२३। प्रमाणतो वज्रादि। दश० १४७ । लघुः, हीनः । सूर्यक अणिस्सिओवहाणे-अनिश्रितोपधानं, ऐहिकामुष्मिकापेक्षा २६१ । जं० प्र० ५२२ । विकलं तपः, योगसंग्रहे चतुर्थो योगः । आव० ६६४ । अणुअतणुअ-अनुकतनुकानां-अतिसूक्ष्माणाम् । जे. प्र.. २३७ । अनिश्रितं तपः । प्रश्न. १४६ । अणुओग - अनुयोगः, अर्थकथनम् सूत्रादनु-पश्चादर्थस्य अणिस्सितं-अनिश्रितम् । आव० ३५८ । सर्वाशंसारहितः। योगोऽनुयोगः सुत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनम् । अगोर्वा लघीभग० ३८५। यसः सूत्रस्य महताऽर्थेन योगोऽनुयोगः। आचा. २। अणिस्सियं-अनिश्रितम् . कादिनिरपेक्षम् । प्रश्न व्याख्यानः। ओघ० ७१। १२६ । अणुओगत्थो-अनुयोगार्थः, व्याख्यानभूतोऽर्थः । आचा० । अणिस्सिय - अनिश्रितम् , कुलादिष्वप्रतिबद्धम् । दश अणुओगदारं - अनुयोगद्वारम् , सूत्रविशेषः । आव.. ७४. । अस्वाध्याये परिहर्तव्यसूत्रविशेषः। नि. चू० अणिस्सेयस - अनिश्रेयसः-अमोक्षाय । ठाणा.. १४९ ।। तृ० ७१ आ० । अकल्याणाय, अमोक्षाय । ठाणा० २९२। अकल्याणाय । अणुओगदारे-अनुयोगद्वारम् , अनुयोगद्वारसूत्रम् । भग० ठाणा० ३५८ । २२१ । अणिस्सो-अनिश्रः-कस्यचित्संबन्धिनाऽवष्टम्भेन रहितः । अणभोगस्स-अनुयोगस्य । विशे० ५९३ । उत्त० ६३३ । अणुओगो- अनुयोगः, सूत्रस्यार्थेनानुयोजनम् , अभिधेये अणिहय-अनिहतः, अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य तृतीयम व्यापारः सूत्रस्य योगो वा, अनुकूलोऽनुरूपो वा योगः । ध्ययनम् । अन्त० ३ । आव. ८६, ठाणा. ४८१ । निजेनाभिधेयेनार्थेनानुयोजनअणिहे-अनिभः, अमायः । दश० २६८ । अनिहः, परीषहो सम्बन्धनम् । विशे० ५९३। सूत्रपाठानन्तरमनु-पश्चात्सूपसँगैनिहन्यत इति निहः, न निहः अनिहः-उपसर्गरपरा- त्रस्यार्थेन सह योगो-घटना। जीवा० २। अनुकूल:-अबिजित इति । सूत्र. ६९। अस्निह:-अष्टकर्मरहितः, . रोधी सूत्रस्यार्थेन सह योगो वा। जीवा० २। सूत्रस्यार्थेन अरागः-रागद्वेषरहितः,भावरिपुभिरनिहतः । आचा० १९०। सह सम्बन्धनं, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगो व्यापारः सत्रस्नियत इति स्निहः, न स्निहः अस्निह:- सर्वत्र ममत्वरहित । स्यार्थप्रतिपादनरूपः। अगोः-लघोः पश्चाज्जाततया वाऽनुशइति । सूत्र० ६९ । अहिले । दश० चू. १.१ । ब्दवाच्यस्य योऽभिधेयो योगो-व्यापारम्तत्सम्बन्धो वाऽणुअणीए-अनीकम् , सैन्यम् । भग० ८९। योगो अनुयोगो वा। जं. प्र. ४ । दृष्टिवादचतुर्थो अणीयजसे-अनीकयशाः, नागस्य गाथापतेः कुमार: भेदः। सम. १२८ नियोगः। आव० ६९४ । अन्त० -४ । अनुयोजनम् , अनुकुलो वा योगः । अणु-मूत्रं, महान (४१) ____ 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणुकंपं. आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणुग्घाडिया ] अर्थस्ततो महतोऽर्थस्याणुना सूत्रेण योगो वा। ओघ० | अणुगमिओ-अनुगमितः, अनुनीतः । आव० ५५ । ४। विचारः। ठाणा० ४८१, ४९५ । अनुरूपोऽनुकूलो अणुगमो-अनुगमः, सूत्रार्थयोरनुरूपसंबंधकरणम् । विशे० वा योगः। सम० १३१ । अध्ययनार्थः । आव० ५४॥ ४३१ । निक्षिप्तसूत्रस्यानुकूलः परिच्छेदोऽर्थकथनम् । जं. सूत्रस्पर्शकनियुक्तिः सूत्रानुगमश्च। आव० ८६ । परीक्षा। प्र. ५।। आव० १५७। अणुगयं-अनुगतं, अनवच्छिन्नम् । प्रश्न० ६६ । युक्तम् । अणुकंपं-अनुकम्पां-उपष्टम्भम् । ठाणा० १७० । दश० २०७ । अभिप्रायानुवर्तिनमात्मानम् । उत्त० ३२२ । अणुकंपो -अनुकम्पकः-अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः। उत्त० ३५९। | युक्तः। उत्त० ६३१ । अणुकंपा-अनुकम्पा, अनुग्रहः । दश० ६७ । भक्तिः । ओघ० | अणुगाम-अनुग्रामः, ग्राममार्गानुकूल: लघुर्वा ग्रामः, रूढित १९६ । आव०३४८ । सम्यक्त्वगुणविशेषः । आव० ५९१। एकस्माद्वा ग्रामादन्यो ग्रामः । उत्त० ९९ । अनुक्रोशः । सम० १२७ । दीनानाथविषयं दानम् । ठाणा. अणुगामियत्ताए-अनुगामिकता-परम्परया शुभानुबन्धसु खाय भविष्यति । जीवा० २४२ । अणुकंपाए-अनुकम्पया-अनुग्रहेण । व्य० द्वि० १७२ आ। अणुगीया-अनुगीता तीर्थकरादिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता। अणुकंपे-अनुकम्पते, उपकुरुते। उत्त. ४१९ । उत्त० ३८५। अणुकड्डइ-अनुकर्षयति। आव. २१८ । अणुग्गह-अनुग्रहः, अनुग्रहपरिहरणा अक्खोडभंगपरिहरणा, अणुकुएति-प्रच्छादयति, अणुक्षिप्ता । नि० चू० प्र०१८० अ। ( अकृष्टभूशुल्कपरिहारः) आव० ५५२ । ज्ञानाद्युपकारः । अणुकुयितं-अश्लथम् । बृ० द्वि० २५२ अ। ठाणा० १५५। अणुकूला-संजमविग्घकरा ( राज्यार्पणादिकाः )। नि० चू० अणुग्गहकसिणं-छण्हं मासाणं आरोवियाणं छदिवसा प्र. १९४ आ। गता, ताहे अण्णो छम्मासो आवण्णो, ताहे जं तेण अद्धवढं मो-अनुक्रान्तः-अनुचीर्णः । आचा० ३०६ । तं ज्झोसितं जं पच्छा आवणं छम्मासितं तं वहति, अणुकर्म-अनुक्रमः । आव० ३४२ । पारम्पर्यम् । उत्त० एत्थ पंचमासा चउव्वीसं च दिवसा जेग ज्झोसिया। नि० १४७॥ चू० तृ० १३५ अ। । अणुक्कमंतो-अनुक्रम्यमाणः, प्रेर्यमाणः। सूत्र. 1३६।। अणुग्गहत्थं - अनुग्रहार्थ-अनुग्रहः - उपकारोऽभिधीयते, अणकसाई-अनत्कशायी. अणकषायी. उत्कण्ठितः सत्का- अथशब्दः प्रयोजनवचनः । ओघ ४ ।। रादिषु शेत इत्येवं शील उत्कषायी, न तथा। यो न अणुग्गहपरिहारो-अनुग्रहपरिहारः-राजकृतानुग्रहवशेन एसत्कारादिकमकुर्वते कुप्यति, तत्सम्पत्तौ वा नाहङ्कारवान् | कद्वित्र्यादिवर्षमर्यादया यथोक्तरूपं खोटादिभंजन एक द्वे त्रीणि भवति सः । उत्त० १२४ । अणवः-स्वल्पाः संज्वलननामान वर्षाणि यावत् वसति, यावन्तं वा कालं राज्ञानुग्रहः कृतइतियावत् कषायाः-क्रोधादयो यस्य। उत्त० ४२० । स्तावन्तं कालं वसति, न च हिरण्यादि प्रददाति, नापि वेष्टिं अणुगच्छइ-अनुगच्छति, आसन्नो भवति । ज० प्र० १८७।। करोति, न चापि चारभटादीनां भोजनादि प्रदानं विधत्ते, एष अणुगच्छण-अनुगमनम् , आगच्छतः प्रत्युद्गमनम् । दश० खोटादिभंगो । व्य० प्र० ४५ अ । तत्तियं कालं सो दव्वादिसु २४१। परिहरिजति तावत्काल न दप्पेतेत्यर्थः । नि०० त०८९आ। अणुगच्छमाणो-अनुगच्छन्-अवगच्छन्-बुद्धयमानः सन् । अणुग्गहो-अनुग्रहः, उपकारः। ओघ ४ । आचा०२२२ । अणुग्गामो-अनुग्रामः, विवक्षितग्रामानन्तरो ग्रामः । औप. अणुगम-अनुगमः, अनुगमनमनेनास्मादस्मिन्निप्ति वा अर्थ कथनम् । आचा० ३। अन्वयः । विशे० ९६४ । अणुग्घाई-अनुवातिक-यत्र गुरुमासादि प्रायश्चित्त वर्ण्यते । अणुगमणं-अनुगमनम् , आगच्छतः प्रत्युद्गमनम् । उत्त० प्रश्न० १४५। अणुग्घाडिया-अनुवाटिता, अस्पृष्टा । दश. ४१। (४२) 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणुग्घाता अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणुण्णासं ] अणुग्घाता गुरवः । नि० चू० प्र० ८७ अ। अणुजीवंति - अनुजीवन्ति-तदुपार्जितवित्तायुपभोगतः उपअणुग्घातियं-जं गिरतरं वहति गुरुं। नि० चू० प्र० जीवन्ति । उत्त० ४४१ । ३०५ आ । गुरुगं । नि० चू० प्र० २५७ अ। अणुजोगगत - तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रंथो गण्डिअणुग्घायं-आचारप्रकल्पस्य सप्तविंशतितमो भेदः । आव० कानुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां निर्वाणगमनानुत्तरविमान६६०। वक्तव्यताध्याख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनयोगे गतोऽनयोगअणुग्घायकसिणं-जं कालगं जहा मासगुरुगादि अहवा गतः । ठाणा० ४९१ । जं गिरंतरं दागं एस मासलहुगादिपि णिरंतरं दिजमाणं अणुजोगी- अनुयोगी-अनुयोगो-व्याख्यानं प्ररूपणं वा । अणुग्घातं भवति। नि० चू० तृ० १३५ आ। ठाणा० ३७५ अणुग्घायण-अणोद्घातन-अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं | अणुजोगो-अणो:-लघोः पश्चाजाततया वा अनुशब्दवाच्यस्य संसारमित्यगं-कर्म तस्योत्-प्राबल्येन घातनम्-अपनयनम्। सूत्रस्य योऽभिधेये योगो-व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोआचा० १४७। ऽणुयोगोऽनुयोगो वेति । ठाणा० ३ । अणु-पच्छाभावओ अणुग्घायाणि-गुरूणि प्रायश्चित्तानि । बृ० तृ. ६७ अ । य थेवे य।बृ०प्र० ३३ अ । विचारः । सम०५०। सूत्रस्यार्थन अणुघटुंता-अतृप्यन्तः । ओघ० ७८। सह सम्बन्धनम् , सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः। ठाणा० ३ । अणुघाइय-अनुद्वातं , न विद्यते उद्घातो--लघुकरणलक्षणो अणुजंगी-अनवद्याङ्गी, शिवादेवीविशेषणम् । उत्त० ४९६ । यस्य तपोविशेषस्य तत् यथाश्रतदान, तद्येषां प्रतिषेवा- श्रीमहावीरस्वामिनः सुता जमाले र्या, प्रियदर्शनाऽपरविशेषतोऽस्ति ते। ठाणा० ३११ । नाम । उत्त० १५३ । अणुचरिया-चरिका, नगरप्राकारयोरपान्तराले । बृ० तृ० अणुजइजमाणाई-एकं स्वरूपतोऽनृजूनि अपरं च तेषां क्वचित्कार्येऽनुपयोगात्केनचिदनृतक्रियमाणानि। उत्त०५४९ । अणुचिण्णो-अनुचीर्णम् , आचरितम् । आव. २२७ । अणुज्जता-ऋजुभावविरहितः । नि० चू० प्र० २८९ आ। अनुष्ठितः। ओघ. १०३। अणुज्जा-अनवद्याङ्गी, श्रीमहावीरस्वामिनो ज्येष्ठा भगिनी, अणुचिंतणं-अनुचिन्तनम् , पर्यालोचनम् । आव० ५८९। सुदर्शनाऽपरनाम । उत्त० १५३ । महावीरस्वामिनः पुत्रीअणुचिन्नं--अनुचीर्णम् , सम्यक् तदर्थावगमासंगशक्तिग- नाम । आचा० ४२२ । भनिवर्तकसमभावप्राप्त्या धर्ममेघनामकसमाधिरूपेण परिणमि- अणुजियत्तं-वराकत्वम् । बृ० तृ. २ आ । तम् । जीवा० ४ । अनुचीर्णाः-कायसंगमागताः सम्पाति- अणुज्जुए - अनृजुकः, कश्चिदृजूकर्नमशक्यतया । उत्त० मादयः । आचा० २१७॥ अणुचिय-अनुचितः-भावितः शैक्षो वा । बृ० द्वि० २३८ अ। अणुज्जुकं-अनृजुकम् , वकम् , अधर्मद्वारस्य नवमं नाम । अणुजत्तं-अनुयात्रम् | उत्त० ३०४ । अनुयात्रा, राजपा- प्रश्न. २६ । टिका । आव० ७२० । अणुट्ठाणे-अनुत्थाने । ठाणा० ३३० । अणुजत्ता-अनुयात्रा । आव० ३६५ । अणुट्टिएसु-अनुत्थितेषु-श्रावकादिषु । आचा० २५६ । अणुजाए-अनुजातः, सहशः । सूर्य० २३३ । | अणाट्ठया-अनुत्थिता, निविष्टा । आव० ७२७ अणुजाणं-रथयात्रा। बृ० द्वि० १५५ अ । बृ० प्र० २५८ | अणट्रिहंतो-अनुत्तिष्ठन्तः । बृ० तृ. ४ अ । आ। व्य० द्वि०१७ आ। अणुण्णवण-अनुज्ञापयति । ओघ० १९९। अणुजाणपेक्खओ-अनुयानप्रेक्षकः । आव० ५७७ । अणुण्णवणाजयणा - वसत्याद्यनुज्ञापनदोषगुणाः। नि० अणुजाणे-अनुजानन् । उत्त० २९३ । चू० तृ. १२ आ। अणुजाते-पितृसमः । ठाणा० १८४ । अणुण्णवैति-अनुज्ञापयन्ति । आव० ११७ । अणजायं-अनुयात, भृतम् । जं० प्र० २१२ । | अणुण्णासं-नासिकाविनिर्गतस्वरानुगतम् । जं० प्र० ४० । (४३) 2010_05 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणुण्णेत्ता आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणुपालात्ता] %3 अणुषणेत्ता-अनुनीय-प्राप्य ध्यात्वा । सम० १२३ । अणुद्धरी-अनुद्धरी, आत्मदोषोपसंहारविषये द्वारवत्यामहमिअणुतडियमेय-अनुतटिकाभेदः, अवटतटमेदवद् यो भेदः। श्रेष्टिभार्या । आव० ७१४ । भग० २२४ । अणुद्धअ - अनुभृताम् , आनुरूप्येण यथामार्दशिकविधि अणुतडियामेदे-अनुतटिकाभेदः, इक्षुत्वगादिकः । प्रज्ञा० उद्धृता-वादनार्थमुत्क्षिप्ता । जे० प्र० १९४ । २६७ । अणुधम्मो -अनुधर्मः । सूत्र० ३९९ । अणुत्तपत्तो-लजनीय। नि० चू० प्र० २६६ आ। अणुनई-अनुनदि, नदी नदी प्रति । आव० ४५३ । अणुत्तरं-अनुत्तरम् , सम्यक् । दश० १५९ । अनन्यसदृशः । अणुनवन-अनुज्ञातम् । ओघ० १६० । आव० ६० । अनुत्तरं-सर्वसंयमस्थानोपरिवर्तिनं । उत्त० | अणुनाओ-अनुज्ञातः । ओघ० २१५ । ३९३ । अनुत्तरां-सर्वलोकाकाशोपरिवर्तिनीमतिप्रधानां वा। अणुनासं-सानुनासिकं नासिकाकृतस्वरम् । ठाणा०३९६ । उत्त० ३९३ । अणुन्नया-अनुनया-नोर्ध्वमुखा । व्य. द्वि० २३७ आ। अणुत्तर-अनुत्तरम् , वृद्धिरहितम् । आचा० १४।। अणुनवणा-अनुज्ञापना, वन्दनके द्वितीय स्थानम् । आव० अणुत्तरणवासो-अनुत्तरणपाशः, आत्मनः पारतन्त्र्यहेतु ५४८ । तया पाशवत्पाशः, अनुत्तरणश्चासौ पाशश्च । उत्त० ४३ । अणुनविय - अनुज्ञापितः। आचा० ४२६ । अनुज्ञाप्यअनुत्तरणवासः-न विद्यते उत्तरण-पारगमनमस्मिन् सती याचित्वा। आचा० ३३८ । त्यनुत्तरणः, स चासौ वासश्च-अवस्थानम् । उत्त० ४३ । अणुन्नवेमाण - तत्स्वजनादीस्तत्परिष्ठापनायानुज्ञापयन्तः । अणुत्तरनाणी-केवलज्ञानवान् । उत्त० २७० । ठाणा० ३५४ । अणुत्तरधरे-न विद्यते उत्तरमन्यत्प्रधानमेषामिति। उत्त. अणुन्ना-अनुज्ञा, अनुमोदनम् । सूत्र० ३२९ । सूत्रार्थयोरन्य३५७ । अणुत्तरधरो-अनुत्तरधरः, न विद्यते उत्तरं-अन्यत्प्रधानमे प्रदानम् । व्य० प्र० २६ अ । अधिकारदानं । ठाणा० १३९। षामित्यनुत्तराः, ते च प्रक्रमात्प्रकर्षप्राप्ता ज्ञानादय एव गुणास्तान् धारयतीति। अनुत्तरान् गुणान् धारयतीति वा।। अणुनायं-अनुज्ञातम् , भोग्यतयैव वितीर्णम् । प्रश्न० १०२ । उत्त० ३५७। अणुपभु - जुवराया, सेणावति । नि० चू० प्र० १७४ आ। अणुत्तरविमाणे-नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्ति इति सेनाधिपतिः । ६० प्र. ९.आ। अनुत्तरविमानानि । अनु० ९२ । अणुपरियन्ति-अनुपरियन्ति, सातत्येन पर्यटन्ति। उत्त० अणुत्तरे- स्थित्यादिभिः सकलनरकज्येष्ठेऽप्रतिष्ठान इति । उत्त० ३९२ । अणुपरिवट्टइ - अनुपरिवर्तयते, आत्मनश्रावयते। सूर्य. अणुत्तरो-अनुत्तर:-न विद्यन्ते उत्तराः-प्रधानाः स्थितिप्र १०७ । भावसुखद्युतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवाः । उत्त० ७०२ । अणुपरिवट्टिय - अनुपरिवर्त्य, प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य । अणुत्तरो-अनुत्तरः, कृष्णवासुदेवागमनम् । आव० १६३ । जीवा० ३७५, ३९९ । अचल १ विजयभद्र २ बलदेवत्रयागमनम् । आव० १६३ । अणुपरिहारी-जतो जतो परिहारी गच्छति ततो ततो अणुत्तरोववाइय-अनत्तरोपपातिकम् । भग० २२२ । । अणुपिट्ठतो गच्छति । अणु-थोवं पडिलेहणादि माहेज्ज अणुत्तरोववाइया-अनुत्तरोपपातिकाः । प्रज्ञा०६९।। करेतीति । नि० चू० तृ. १३२ आ । अणुदिनं-( अनुदीर्णम् )। भग० ५८ । अणुपविढे अनुप्रविष्टः-तदुदयवर्ती । ठाणा० २१९ । अणुदिसा-अनुदिशः, प्रतिदिशः । दश० २०१ । एकप्रदेशा अणुपस्सओ-अनुपश्यतः-पर्यालोचयतः । उत्त० ३१० । अनुत्तराः (दिक्कोणाः)। ठाणा०. १३३ । अणुपातं-कर्मण कारविज्जतित्ति । नि० चू० द्वि० १०६अ। अणुद्दिट्टो-अनुद्दिष्टः,यावन्तिकादिभेदवर्जितः । प्रश्न० १०८। अणुपालइत्ता-अनुपाल्य-सततमासेव्य । उत्त० ५७२ । 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणुपालणा अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष : 'अणूभवो] अणुपालणा-अनुपालना, अनु. विशुद्धिः, प्रत्याख्यान- | अणुप्पवादपुव्वं-अनुप्रवादपूर्वम् । आव० ३१६ । शुद्धयाः पञ्चमो भेदः । आव०:८४७ । अणु-पविसे-अनुप्रविशेत् , मनसि लब्धास्पदो भवेत् । अणुपालणासुद्ध-अनुपालनाशुद्ध-कान्तारादिषु न भग्नं | उत्त० ९९ । यत्प्रत्याख्यानम् । ठाणा० ३.४९ ।। अणुप्पसूयाई-अनुप्रसूता-आश्रिता। आचा. ३४८ । अणपालियं-अनुपालित, पूर्वकालसा धुभिः पालितत्वाद्विव- अणप्पियं अनुमतम । बृ० द्वि०३ अ। क्षितसाधुभिश्चानु-पश्चात्पालितमिति । प्रश्न :११३ । अणुप्पेच्छा-अविह्वला । उप० मा० १४० । अणुपालिया-आत्मसंयमानुकूलतया पालिता। ठाणा० | अणुप्पेह-- धर्मध्यानस्य पश्चात्प्रेक्षणानि-पर्यालोचनान्यनू. १४० । प्रेक्षा । भग. ९२६ । अणुपालेइ-अनुपालयति । भग० १२५ । अणुप्पेहा-मनसा । बृ० द्वि० ५४ आ । अनुप्रेक्षा, अहेद्गुणानां अणुपालेमि अनुपालियामि, पौनःषुन्यकरणेन । आव० मुहुर्महुः सततमनूचिन्तना। आव. ७८६ । यो मनसा परिवर्तयति, न वाचा । दश० ३२ । ध्यानोपरमकालभाअणुपिट्टि-अनुपूर्व्या । सम० ६८। विनी अनित्यत्वाद्यालोचनारूपा। आव० ५९० । सूत्रार्था'अणुपुटवसोअनुपूर्वतः, क्रमेण । उत्त० २५२ । आनुपूा . नूस्मरणं ध्यानस्य पश्वात् पर्यालोचनानि, भावना । ठाणा. : कमेग । उत्त० ५१८ । १९. । सूत्रवदर्थेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभाअणुपुब्बि-अ नुपूर्वी, मूलादिपरिपाटी । जं० प्र० २९ । । वनीय इत्युनुप्रेक्षण, चिन्तनिका । ठाणा० ३४९ । ग्रंथार्थयोः शास्रीयोपक्रमभेदः । आचा० ३ । चिन्तनम् । ओघ० १८९ । अणुपुग्विविहारीण -- अनुपूर्व वहारिणां-प्रतिपालित दीर्घसं अणुफासे अनुस्पर्शः, अनुभावः । दश. १९८ । यमानां शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तरकालमवसीदत् संयमाध्ययनाध्यापनक्रियाणां निष्पादितशिष्याणामुत्सर्गतः द्वादश. अणुफासो-अणुभत्रो । दश० चू० ९६ । . अणुबंध अनुबन्धः, निरन्तरम् । ओध०.१०८। सन्तानसंवत्सरसंलेखनाक्रमसंलिखितदेहानां । आचा० २६० । भावेन प्रवृत्तिः । जं० प्र० १२.५ । अपव्वेणं-आनुपूा-यथेष्ट कालावश्यकक्रियारूपया चतु अणुबंधो- विवक्षितपर्यायेणाव्यवच्छिन्नेनावस्थानम् । भग. •र्थषष्टाचाम्लादिकया। आचा० २८४ । अनुक्रमेग-परिपाट्या | ८०८ । सातत्येन भवनं तन्मरणानाम् । उत्त० २३९ । योगपद्येन। आचा० २४१ । अणुबद्ध-अनुबद्धम् सन्ततम् । आव० २२८ । ठाणा. अणुपुग्यो-अनुपूर्वः, पूर्वस्याः पूर्वस्या अनु । जीवा० अणुहा-अनुप्रेक्षा, अनु-पश्चाद्भावे प्रेक्षा प्रेक्षा, स्मृतिः, अणुबद्धरोसपसरो-अनुबद्धः-सन्ततः, कोऽर्थ ?-अव्यव ध्याना भ्रष्टस्य चित्तचेष्टा । आचा० ५८३ ।। च्छिन्नो रोषस्य-क्रोधस्य प्रसरो-विस्तारोऽस्येति अनुबद्धअणुपेहे-अनुगुणनं करोति । ओघ ८४ । • रोषप्रसरः । उत्त० ७११ । अणुप्प-अनर्ग्य:-अनर्पणीयः, अढौकनीयः । ठाणा० ४६५ । | श्रणुबद्धा-सन्ततमालिंगित। सम० १२६ । अणुप्पग्गंथे- अनूरूपत्तया-औचित्येन विरते त्वपुण्योदया- अणुबलं-अनुबलम् । उत्त० १७८ । दणुरपि वा-सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो " ग्रन्थो-धनादिर्यस्य | अणुब्भडो-अनुद्भटः, अनुल्बणः । जीवा० २७५ । उत्त. यस्माद्वा। ठाणा० ४६५ । अणुप्पयाउ-अनुप्रदातुं-परंपरकेण प्रदातुम् । व्य० प्र० अणुभवणसण्णा-अनुभवनसंज्ञाः, आहाराद्याः । आचा० २१७ आ। अणुप्पचाए-अनूप्रवादः पूर्वविशेषः । उत्त० १६३, विशे• | अनुभवो-अनुभवः, स्वेन स्वेन रूपेण प्रकृतिनां विपाकतो ९६१।.. | वेदनानुभवः । विशे० १००६ । 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणुभाग आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अणुराधा ] अणुमया अनुमता, अनुज्ञाता । प्रज्ञा० २५७ । विप्रियदर्शनस्य पश्चादपि मता । पा० ४२ । अणुमहत्तरो मूलमहत्तरे असण्णिहिते जो पुच्छज्जो धुरे ठायति सो । नि० चू० प्र० १५८ आ । अणुभाग - अनुभाग:, आयुर्द्रव्याणामेव विपाकः । भग० २८० । अचिन्त्या शक्तिवैक्रियकरणादिका । ठाणा ० ६९, १४४ । अणुभागकम्मे - अनुभागकर्म - कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानता विषयो रसस्तद्रूपं कर्म | भग० - ६५ । अणुभागो - अनुभागः, विशिष्टवैक्रियादिकरणविषयाऽचिन्त्या अणुमहयरो-मूलमहत्तराभावे प्रष्टव्यः पुरःस्थानश्च । वृ० शक्तिः । जीवा ० १०९ । सामर्थ्यम् । प्रज्ञा० ८८ । अणुभावकम्मे यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेधं कर्मानुभावकर्मेति । ठाणा० ६६ । अणुभावना मनिहत्ताउए - अनुभावनामनिधत्तायुः - अनुभावः - प्रकर्षप्राप्तो विपाकः, तत्प्रधानं नाम, यद्यस्मिन् भवे तीव्रविपाकं नामकर्मानुभूयते त ( य ) था नारकायुषि अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शोपघातानादेयदुःस्वरायशः कीत्र्यादिनामानि तदनुभावनाम तेन सह निघत्तमायुर भावनामनिधत्तायुः । द्वि० १९० आ । अणुमाणं - अनुमानम्, स्वार्थम् । आव ० ४२७ । दृष्टान्तः । दश० १३०, १२६ । अणुमाणइत्ता -लघुतरापराधनिवेदनेन मृदुदण्डादित्वमाचार्यस्याकलय्य यदालोचनम् । भग० ९१९ अनुमानं कृत्वा । 2010_05 - ठाणा० ४८४ । अणु पाणे - अनुमानम्, अनु - लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणादेः पश्वान्मीयतेऽनेनेत्यनुमानम् । भग० २२२ । अन्विति - लिंगदर्शन सम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानं ज्ञानमनुमानम् । प्रज्ञा० २१८ । ठाणा० २५४ । २५४ अ । अणुभावे - अनुभावः, विपाको रसविशेषः । भग० ३५ । तीव्रतमदुःखादिः । आव० ४९६ । अनुभावः । सूर्य ० २७९ । अणुमाणेउं - अनुमान्य, सम्यक् क्षमयित्वा । व्य० प्र० विपाक उदयो रस इत्यर्थः । ठाणा० ४१४ । अणुभावो - अनुभावः, माहात्म्यम् । सूत्र० १२६ । विपाकः । | अणुमोदणे - साइज्जणाभेओ । नि० चू० प्र० १०३ आ । प्रज्ञा० २१८ । स्वभावः, स्वरूपम् । ॐ० प्र० २९९ । | अणुम्मुअतो-अनुन्मुचन्, अपरित्यजन् । आव० ४०७ । तीव्रादिभेदो रसः । सम० १० | शापानुग्रह सामर्थ्यम् । उत्त० ३६५। प्रभावः । जं० प्र० २४६ । रसः, विपाकः । विशे० ५६५ । कारणम् । जीवा ० ३३९ । विपाकोदयः । जीवा ० १३० । सामर्थ्यादिलक्षणः । आव ० ५९६ । विपाकः । अणुयत्तंतं - अनुवर्त्तयन् । आव० ३०५ । अणुया- अणुकाः । दश० १९३ । अणुयाणंर - रथयात्रा । बृ० तृ० ६१ आ । पडिमातिमहिमा । नि० चू० प्र० २३९ आ । अणुयोगं - अनुयोगो, व्याख्यानं विधिप्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणम् । विशे० २ । आव० ५९८ । रसः । उत्त० २३० । अणुभासद - अणुभाषते । आव० ३११ । अणुभासणा- अनुभाषणा, प्रत्याख्यान शुद्धिः । आव ० ८४७ । अणुरंगा - गड्डीए । निं० चू० प्र० ३२४ अ । सिका, यानअणुभासमाण- अनुभाषमाण । विशे० १००५ । अणुमण-अनुमतम्, मानितम् | भग० १२२ । कार्यव्या घातस्य पश्चादपि मतः । भग० ४६८ । अणुमओ - अनुमतः, अभिष्टो मोक्षाङ्गता । आव० ३२६ | | अभिप्रेता । वृ० प्र० २८९ आ । विशेषः । बृ० द्वि० १२५ आ । अणुरंगिणी -अनुरङ्गिनी, अनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीला । जं० प्र० ५१८ । सूर्य० १३६ । अणुरंगो - तिओ । नि० ० तृ० ३७ आ ! अणुरता - अनुरागः - भावतः प्रतिबन्धः । उत्त० ३९४ । अन्तरप्रतियोगतः परस्पर स्नेहवन्तौ । उत्त० ५२१ । अनुरक्ताः सततं प्रतिबद्धाः । उत्त० ७०८ । अणुराओ - अनुरागः । आव० ३०४ । अणुमगा- शीघ्रम् । ( आउ० ) अणुमतं - अनुमतं, वैगुण्यदर्शनस्यापि पश्चान्मतम् । औप ० ९६ । अणुमन्ना - अनुमतिः । बृ० तृ० १२८ अ । अणुमयं - अनुमतम्, अभिरुचितम् । ओघ० ६४ । अनु- अणुरागयं-अन्वागतम्, अनुरूपमागमनम्। भग० ११७ मतः- सम्मतः । जीवा० २७६ । अणुराधा - अनुराधा नक्षत्रविशेषः । सूर्य १३० । (४६) - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अशुराहा अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अणुवायगहए ] अणुराहा-नक्षत्रविशेषः । ठाणा० ७७ । अणुवट्टेति-करोति । भग० ३२० । अणुलिंपइ-अनुलिम्पति । जीवा० २५४ । अणुवत्त-अनुवृत्तः-भूयः प्रवृतो वारद्वयं प्रवृत्तः । व्य. द्वि. अणुलिंपणं-अनुलिम्पन-सकृलिप्ताया भूमेः पुनर्लेपनम् ।। ४४१ अ। . प्रश्न. १२७॥ अणुवत्तइ-अनुवर्तते। आव० ५६१ । अणुलिहंतं - अनुलिखत् , अभिलङ्घयत् । सूर्य० २६४, | अणुवत्ति-अ वृत्तिः-सर्वेषु अर्थेषु अप्रतिकूलता। वृ० प्र. जीवा० ३७९, जं० प्र० २९७ । अनुलिखत-अतिलङ्घयत्। ४३ अ। प्रज्ञा० ९९ । | अणुवत्तिओ-अनुवर्तितः। आव० १११ । परिगृहीतो अणुलिहति-अनुलिखति, अभिलङ्घयति। जीवा० २०९। महाजनेन । व्य. द्वि० ४४१ आ। . अणुलेवणं - अनुलेपनम् , सकृलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनम्। अणुवत्तिया-परिवेष्टिता । नि० चू० प्र० १८४ आ। प्रज्ञा० ८०। अणुवत्ती-अनुवृत्तिः । आव० ५१५॥ अणुलोम-अनुलोमम् , अनुकूलमनुगुणं वा। जीवा० ३। अणुवत्ते-अनुवर्तमानः-साम्प्रतकालभावी। दश० ६२ । अनुकूलकरणम् । ठाणा० ३७६। अणुवदिहूं-जं नो आयरियपरंपरागयं मुत्कलव्याकरणअणुलोमछाया-अनुलोमच्छाया, सूर्यछायाविशेषः । सूर्य० वत् । नि० चू० द्वि० २३ आ। अणुवदेसा-अनुपदेशः-गुरुणाऽनुक्तः । ओघ० १५१ । अणुलोमणा-अनुलोमना-प्रज्ञापना। बृ० तृ. १२३ आ। अणुवभुजो-संसक्तासवपिशितादिराहारः, शुषिरतृणवल्कअणुलोमवाउवेगो- अनुलोमवायुवेगः । अनुलोमः-अनु. लादिरुपधिः । ६० तृ. ४७ अ। कूलो वायुवेगः, शरीरान्तर्वर्तिवातजवो यस्य सः। वायु- अणुवमा-अनुपमा । जीवा० २७८ । गुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशः। जीवा० २७७ । अणुवयमाणा-अनुवदतः-अनु-पश्चाद्वदतः पृष्ठतो बदतोअणुलोमिअ-अनुलोमम् , मनोहारि । दश० २२३।। ऽन्येन वा मिथ्यादृष्टयादिना कुशीला इत्येवमुक्तः । आचा. अणुलोमियं-कटुगफरिसादिदोसवज्जियं जं भासमाणो अभासओ लभइ। दश० चू० ११५। अणुवयारं-निहरं । नि० चू० प्र० २७८ अ। अणुल्लय द्वीन्द्रियविशेषः । उत्त० ६९५। अणुवरय-अनुपरतम् , अविरतम् । भग० १८१। अणुल्लसिओ-असिच्यमानः । आव० ६२१ । अणुवरयकाइया - अनुपरतकायिकी-देशतः सर्वतो वा अणुल्लावे-अनुलाप-पौनःपुन्यभाषणम् । ठाणा० ४०८।। सावद्ययोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुतश्रिदप्यनिवृत्त इत्यर्थः अणुवउत्तो- अनुपयुक्तः, साधु प्रत्यदत्तावधानः । ओघ. तस्य कायिकी। प्रज्ञा० ४३६ । अणवरयकायकिरिया-अनुपरतस्य-अविरतस्य सापद्यात् अणुवकयं-अनुपकृतम् , परैरवर्तितम् । आव. ५९७ ।। मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेर्वा कायक्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मअणुवघाइए - अनुपघातिके-उपधातच यत्र न भवति बन्धनिबन्धनम् । ठाणा. ४१। उड्डाहादि तस्मिन् । ओघ. १२२। अणुवसंते -अनुपशान्तः, उदयावस्थः । प्रज्ञा० २९१ । अणुवघाइया- आचारप्रकल्पम्य षडविंशतितमो भेदः । अणुवसंपन्जमाणगती- अनुपसम्पद्यमानगतिः, परस्परसम. ४७ । मुपष्टम्भरहितानां पथि गमन, विहायोगतेश्चतुर्थो भेदः । अणुवचओ - अनुपचयः, अनुपचीयमानता, अनुपादान- प्रज्ञा० ३२७ । मिति । उत्त०६। अणुवसु-अनुवस-सरागः श्रावकर । आचा० २४०। अणुवटुंते - अनुपतिष्ठति, अरुपमाणे अरुज्झते। ओघ० अणुवाए-अनुपातः, अनुसारः । प्रज्ञा १४४ । अनुगमन१४५ अनुराग: उत्त० ६३१ । अणुवट्टावणीया-अनुवर्तनीया। ओघ० १३४ । । अणुवायगइए-अनुपातगतिः-अनुसारगतिः । सूर्य० १६ (५७) 2010_05 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अणुवालए आचार्यश्रीभानन्दसागरसूरिसङ्कलितः अणुसासिजंतो] अणुवालए-गोशालकश्रावकविशेषः :। भग० ३७० । अणुविग्गो-अनुद्विमः-प्रशान्तः परीषहादिभ्योऽबिभ्यत् । अणुवासग-अनुपासकः मिथ्यादृष्टिः। नि० चू० द्वि० दश० १६३, १७९ । । २५ अ। | अणुसंचरे - अनुसञ्चरेः, अन्विति-लक्षीकृत्य सञ्चरे:-त्वं अणुवासणा-अनुवासना, अपानेन जठरे तलप्रवेशनम् । सम्यक् संयमाश्वनि यायाः । उत्त० ४४६ । . विपा० ४१ । अणुसंसरइ-अनुसंसरति, दिग्विदिशां गमनं भावदिगागमनं अणुवित्तिबुद्धि-अनुवृत्तिबुद्धि-अनुगताकारबुद्धिः। विशे० | वा स्मरति वा । आचा० २०।। ८९८ । अणुसजइ-अनुसजति, सन्त नेनानुवर्तते । जीवा० २८४ । अणुविद्धं-अनुविद्धं-मिश्राः व्याप्ताः । जं० प्र० १९३ । अणुसजणा-अनुसर्जना । आव० १५ । अव्यवच्छेदं अणुवीइ-अनुवीचि, आनुकूल्यम् , मैथुनाभिलाषम् । सूत्र करोति । उत्त० ५८४ । अनुवर्तना । बृ० प्र० २८९ अ। १११। अनुचिन्त्य, विचार्य सम्यग्निश्चित्य । आचा० ३८६ । अणुसजमाणा-अनुसञ्जतः, सन्तानेनानुवर्तमाना । जं. आलोच्य । दश० २२१ । अणुवीइनिहाभासि - अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी-विचार्य । अणुसजित्था-अनुसक्तवन्तः, पूर्वकालात्कालान्तरमनुवृत्तनिश्चितभाषकः । आचा० ३९२ ।। .. 'वन्तः। भग० २७८ ।। अणुवीइभासए-अनुविचिन्त्यभाषकः, पर्यालोच्य भाषकः, वकर, अणुसजित्था - अनुसक्तवन्तः, कालात्कालान्तरमनुवृत्त. द्वितीयव्रतस्य द्वितीया भावना । आव. ६५८ । वन्तः सन्ततिभावेन भवन्ति स्म। जं० प्र० १२८ । अणुवीति-चितेऊण । नि० चू.. प्र० १०० अ। अणवीयि-पुव्वि बुद्धीए अणुचितियं । दश. च. ११५। अणुसट्ट-अनुशिष्ट-उत्कलनम् । व्य० प्र० १९९ अ। अणुवहेसा-अनवंहयिता-परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्या- | अणुसटि - अनुशासनम्-अनुशास्तिः सद्गुणोत्कीर्तनेनोप• नुमोदयिता, तद्भावे हर्षकारी । ठाणा ० ३८९ । हणम् । दश० ४६ । श्रम्मकहा । नि० चू० द्वि० १७० अ। अणुवेलंधर-लवणसमुद्रशिखारक्षकः । सम० ३३। अणुसट्ठी-उवदेसपदाणं, थुतिकरणं वा। नि. चू० तृ. अणुवेलंधरराया-अनुवेलन्धरराजा, भुजगेन्द्रः। जीवा० १३४ आ। सद्भावपुरस्सरं प्रज्ञापना । बृ० दि. ८७आ। ३१२ । .. उवदेसो। नि० चू० प्र. २०५ आ। ५१ अ। इहलो. अणुवेलंधरनागरातीणं-अनुवेलंधरनागराजा-नागजाति- कापायदर्शनम् । बृ० द्वि० १०३ । अनुशालनम् । ठाणा • : विशेषः । ठाणा० २२८ । । १५५ । अणुवेहसलागा- शस्त्रकोशविशेषः । नि० चू, द्वि० १८ अ।। अणुसम-अनुसमा-अनुरूपा, अविषमा। टाणा० ४५० । अणुव्वढे-अनुवर्सयन, तत्रस्थ एव । आव० ३३९ ।। अणुसणयं-समयमाश्रित्य। उत्त. २३१ । अनुसमयं प्रतिअणुव्वणो-अगर्वितः । बृ० तृ० ४ अ। क्षणम् । सूर्य० ८० । भग• २० । सततम् । उत्त० ३३९ । अणुव्वतं-अनुव्रतम् । आव० ८२।। अणुसया-अनुशयः-पश्चात्तापः । ज. प्र. १२३ । अणुब्बत्ता-अनूवतानि-अनू-महाव्रतकथनस्य पश्चात्तदप्रति- अणुसार-अनुस्मारवदननुस्वारम् । विशे० २७४ । अनक्षरपत्तौ यानि व्रतानि कथ्यन्ते तानि, अथवा सर्वविरतापे मपि यदनुस्वार बदुचार्यते हुंकार करगादिवत् तत् । आव. क्षया अणोः-लघोगणिनो व्रतानि । ठाणा. १९।। २५ । अलाक्षणिकः सुखमुखोचारणार्थः । दश० ८६ । अणुव्वय - अनूवर्तिनी, परिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते . भार्या- अणुसासणाणि - अनूशासनानि-दुःस्थस्य सुस्थतासंपाद. आव० ४३६। अन्विति-कुलानुरूपं व्रतम्-आरोऽस्या नानि । सम० ११८। शिक्षणम् । उत्त० २६७ । · अनुवता पतिव्रता इति, वयीऽनुरूपा वा । उत्त० ४७६। | अणुसासम्मि-अनुशास्ति। उत्त० ५५२ । । अनुव्रतं-स्थूलप्राणातिपातनिवृत्तिः। दश० १९२। अणुसासिजंतो-अनूशास्यमानः, तत्र तत्र चोद्यमानः । अणुयाणं-अनाव्या(स्था)न-स्निग्धम् । ओध० १७१। । दश० २५६ । । (४८) 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अणुसिट्टी अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अण्णउत्थिए ] अणुसिट्ठी-अनुशासनमनुशास्ति:--सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृहणं सा | अणेव्वाणी - जाहे ताणि सुरादीणि ण लब्भंति ताहे तेमिं विधेयेति यत्रोपदिश्यते सा। ठाणा. २५३ । अनुशिधिः- अभावे परमं दुक्खं समुप्पज्जतित्ति, मोक्खऽभावो वा। उपदेशप्रदानम् । व्य० प्र० ११७ अ। शिक्षाम् । उत्त० दश० चू० ८८। ३२३। धर्मकथाम् । ओघ ७३। अणेसणा-अनेषणा-भिक्षादोषविशेषः । आव० ५७५ । अणुसूयगा - अनुसूचका:-नगराभ्यंतरे चारमुपलभन्ते, अणेसणिज-अनेषणीयम्-आधाकर्मादिदोषदुष्टम् । आचा० सर्वभनुसूचकेभ्यः कथयति। व्य. प्र. १७० आ। अणुसूयत्तं-अपरशरीराश्रितता, परनिश्रा। सूत्र. ३५७ । अणोकंता-अनुपक्रान्ता-अनिराकृता। औप० ३४ । अनुस्यूतत्व-परनिथ्रया कृम्यादित्वम्। सूत्र. ३५७।। अणोग्यसिअ-अनिर्मार्जनम् । जं० प्र० ५७ । । अणुसोयचारी- अनुश्रोतश्चारि-प्रतिश्रयादारभ्य भिक्षा- अणोजा-अनवद्या, स्वामिदुहिता । आव० ३१२ । चारी। ठाणा ० ३४२ । नद्यादिप्रवाहगामी । ठाणा० २७२ । अणोतप्पया-अलज्जनीयता। बृ० प्र० ३०९ आ। अणुस्सासिय-अनुच्छ्वसत् । दश० १९। अणोदरया-अपारा (सं०) अणुस्सियत्त-अनुत्सिक्तत्वम्-अनुद्धतत्वम् । उत्त० ५९१ । अणोमदंसी-अवम-हीनं मिथ्यादर्शनाविरत्यादि तद्विपर्यअणुस्सुयं-अनुश्रुतम्-अवधारितम् । उत्त० २४७ । स्तमनवमं तदृदृष्टुं शीलमस्येत्यनवमदर्शी, सम्यग्दर्शनज्ञानअणुस्सुयत्तं-अनुत्सुकत्वम्-विषयसुख प्रति निःस्पृहत्वम् । चारित्रवान् । आचा० १६४। उत्त० ५८६ । अणोमाणं-अपमानं अनादरकृतं न भवति । ओघ० १०३ । अणूया-अनूपः, सजलप्रदेशः । विशे० ७२७ । अणोरपारं-अनर्वापारम्-विस्तीर्णस्वरूपम् । प्रश्न. ६२ । अणेगचित्त-अनेकचित्तः, अनेकानि चित्तानि कृषिवाणि अनाद्यपर्यबसितम् । आव० ६.१। अग्भिागपरभागज्यावलगनादीनि यस्यागौ, बलुरवधारण, संसारमुखाभि- वर्जितमनाद्यनन्तम् । सूत्र. ४०३। अनर्वापारमिव लायनेकचित्त एव भवति । आचा. १६३ । अनकसंख्यानि महत्त्वादनर्वापारम् । प्रश्न० ५१। देशीवचनं, प्रचुचञ्चलतया चित्तानि-मनांसि यासां सा । उत्त० २९७ । राथे, आराद्भागपरभागरहिते। आव० ३४५ । (भक्त०) अणेगगुणा-अनेकगुणाः-अनेकप्रकाराः। बृ० प्र० ७५ अ । अणोल्हविज्जंतो-अविध्यापितः । आव० ३८४ । अणेगतालाचराणुचरियं-- नानाविधप्रेक्षाचारिसेविताम् । अणोवणिहिआ- अनौपनिधिकी -वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिभग० ५४४ । . क्रमेणाविरचनं प्रयोजनं यस्या इति । अनु० ५२ । अणेगदबो-अनेकद्रव्यः । विशे० ४२४ । ... अणोवमा-अनुपमा । प्रज्ञा० ३६४ । । अणेगपत्ती-अनेकपत्नी। आव० ९५। अणोवमाइ-खाद्यविशेषः। जं. प्र. ११८ । अणेगरूवधुणा-बहनि वस्त्राणि एकीकृत्य धुनाति । ओघ० अणोहटुं-अजाजियं, कोंटलाति उवकारेण विरहियं । नि. ११०। चू० प्र० १८३ अ। अणेगरूवधुणे - अनेकरूपा चामो सङ्ख्यात्रयातिक्रमणतो अणोहंतरा-संसारतरणासमर्थाः । आचा० १२३ । युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धृनना च प्रकम्पनात्मिका अने- अणोहट्टिए-अनपघट्टकः, यो बलाद्धस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तकरूपधूनना। उत्त० ५४२ । मानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावात् । विपा० ५२ । अगेगवासानउयं-अनेकवर्षनयुतं, अनेकवर्षाणा-असङ्ख्येय- अणोहिय - अविद्यमानजलौधिकामतिगहनत्वेनाविद्यमानोहां वत्सराणां नयुनं-सङ्ख्या वशेषम् । उत्त. २५७ । वा। भग. ६७२। अणेगावाती-परस्परविलक्षणा एव भावाः इति वादिनः। अण्णउत्थिए - अन्ययूथिकाः अन्ययूथं-विवक्षितसंघादपरः ठाणा. ४२५ संघस्तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः तीर्थान्तरीयाः। भग. अणेलिम-अनीददा-अनन्यमदशम् । आचा० ४२९ । ९८ । अन्यनीर्थिकाः । जीवा० १४३ । 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अण्णउस्थिया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अण्हायगो] - अण्णउत्थिया - तच्चणियादि बंभणा खत्तिया गारत्था । | अण्णाएसि-अज्ञातैषी, अज्ञातो जातिश्रुतादिभिः एषतिनि० चू० द्वि०। उञ्छति पिण्डादीति । उत्त० १२४ । अण्णओमुहो-अन्यतोमुखः । आव० ६४०। अण्णाणं-अज्ञानम् , चतुर्थः कुडङ्गः। आव० ८५६ । अण्णओहुत्तं-अन्यतोभूतम् । आव० २०५।। एकविंशतितमः परीपहः, कर्मविपाक जादज्ञानाजोद्विजेत । अण्णगच्छेल्लय-अन्यगच्छीयः। आव. ३२३ । आव० ६५७ । अण्णगिलायं-अन्नग्लानः-पर्युषितमन्नं मया भोकव्यमि- | अण्णाणदोसे-अज्ञानदोषः । औप० ४४ । त्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहः। बृ. प्र. ३१२ । अण्णाणिय-अज्ञानिकः, कुत्सितं ज्ञानमस्यास्तीति। आव. अण्णगिलायए-अन्नग्लायकः । औप. ३९। बृ. प्र. ११२ आ। अण्णाणियवाई - सप्तषष्ठिभेदा अज्ञानवादिनः । सम० अण्णतिथियपवत्ताणुजोगे-अन्यतीर्थिकेभ्यः-कपिलादि- । १११ । भ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्त:-स्वकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुयोगो अण्णाणो-अज्ञानः, कुदृष्टिमोहितः। आव० ३४६ । विचारः तत्पुरस्करणार्थः शास्त्रसंदर्भ इत्यर्थः सोऽन्यतीर्थि अण्णातचजा-अज्ञातचर्या । आव० ८२२ । कप्रवृत्तानुयोगः । सम० ४९ । अण्णातपिंडे-अज्ञातपिण्डः, अन्तप्रान्तः, अज्ञातेभ्यो वाअण्णतिथिया- रक्तपटादयः । नि० चू० प्र०.७६ अ। पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातोञ्छवृत्त्या लब्धः । अन्यतीर्थिका - चरकपरिव्राजकशाक्याजीवकवृद्धश्रावकप्रभृ सूत्र. १६४ । तयः । नि० चू० प्र० १४७ आ। अण्णायं-अज्ञातोम्छं । बृ• द्वि० १८६ आ। अण्णत्थ-अन्यत्र, परिवर्जनार्थे । आव० ८५० । अण्णाय अज्ञातम् . अनुमानतः अज्ञातम् । भग० १९७, अण्णत्थे-अन्वर्थ-अनुगतः संबद्धः परमैश्वर्यादिकोऽर्थो यत्र २००। सः। विशे० २२। अण्णायया-अज्ञानता, तपसोऽप्रकाशनम् । प्रश्न. १४६ । अण्णदत्तहरे-अन्यदत्तहरः-अन्येभ्यो दत्त-राजादिना विती गं - अज्ञातता, तपस्यज्ञातता, योगसङ्ग्रहे सप्तमो योगः । हरति अपान्तराल एवाच्छिनत्ति । उत्त० २७४ । अन्याद- आव० ६६४। तहर:-ग्रामनगरादिषु चायकृत् । उत्त० २७४ । अण्णावदेसो-अदंसियभावो । नि० चू० प्र० ७२ आ। अण्णमण्णघडत्ता-अन्योऽन्यघटता, अन्योऽन्यं घटा- अण्णियपत्तो-अर्णिकापुत्रः। नि० चू० प्र० १९४ आ। समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता, जालिका। अण्णिया अर्णिका; दक्षिणमथुरायां वणिक्पुत्री। आव० भग० २१५। ६८८ । अण्णवं-अर्णवः-अर्गो-जलं विद्यते यत्रासावर्णवः । उत्त. अणियापत्ते-अर्णिकापुत्रः। बृ० तृ. २३५ आ। २४१। अण्णोयसा-ईषदवनता। व्य० द्वि० १२४ आ। अण्णसंभोइय-अन्यसाम्भोगिकः । आव० ८४७ । अण्हयंति-क्षरति (तं.) अण्णहम्मिणी-परतीीर्थेका अगारस्था अविरतिका। वृ० अण्डय-आस्तवः, अ-अभिविधिना स्त्रोते-श्रवति कर्म तृ. ४७ आ। यस्मात् स आश्रवः प्राणातिपातादिः। प्रश्न. २। अण्णाइट्ठसरीरं-अन्याविष्टशरीरम् व्यन्तराधिष्ठितशरीरम् । अण्डयकर-आश्रवकरं । औप. ४२ । आव. ६३३ । अण्हयकरिं-कर्माश्रवकरी। आचा. ३८८ । अण्णाइट्ठो-अन्याविष्टः, परायत्तः, यक्षाविष्टो वा। उत्त० | अण्हयकरे-कर्माश्रवकारी। आचा० ४२५ । ११३। आविष्टः । अन्त २० । अण्हाणं-अस्नानम्। आव. १५४ । अण्णाइतो-अपरादः । नि० चू० तृ० १०१ अ। । अण्हायगो-अस्नायकः । आव० ८३१ । (५०) 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अतजाय उपपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः अतितेया ] ८५ । अतिकायः - महो अतज्जाय - अतजात पारिस्थापनिकी, पारिस्थापनिक्या द्वितीयो । अतिकाय - महोरगेन्द्रः । ठाणा ० भेदः । आव० ६१९ । रंगभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । अतज्जायं - अतजातीयं, भिन्नजातीयम् । आव० ६२३ । अतिक्कमा - अतिक्रमः - अतिलङ्घनं विनाशः । आचा५ अतडं - अतीर्थं, अन्यतीर्थं वा । बृ० द्वि० ३१ अ । अतित्थं । - १३५ । प्रतिश्रवणतो मर्यादाया उल्लंघनम् । व्य० प्र० ९० अ । नि० चू० तृ० १७ अ । अतिक्कीलावासी - अतिक्रीडावासः, सुस्थितलवणाधिपस्य अतति-सततमवगच्छति । ठाणा० १० । भौमेय विहारविशेषः । जीवा० ३१५ । अतन्त्रम् - शास्त्रलक्षणरहितम् । आव० १२० । अतिक्खतुंडो - अतीक्ष्णतुण्डम् - अतीक्ष्णमुखम् । आव ० ७६४ । | अतिक्रान्ता अतीता । आचा० १७८ । अतिखद्धं - प्रभूतम् । बृ० द्वि० १८७ अ । अतिखद्ध - गुरोरालोके भोक्तव्यम्, अतिप्रचूरं भक्षयेत् । ओघ ० १८२ । अतिगए-अतिगतः । आव ० १७३ । अतिगओ - अतिगतः । दश० ४१ । अतिगता-प्रविष्टाः । बृ० द्वि० १८४ अ । अतिगमणं-प्रवेशः । बृ० द्वि० १६३ आ । अतिगमन, प्रवेशनम् । बृ० प्र० २७५ आ । अतिगुपिल - अतिगूढम् । आव० २९६ । अतिगुलिका - (अइगुलिया) - कुक्कुसा । बृ० तृ० १९५ अ । अतिघरं - संजतिपडिस्सतो । नि० चू० प्र० : २३७ आ । अतिचारो - व्यतिक्रमः स्खलनपर्याय: । तत्त्वा० ७-१८ । अतिच्छिए अतिक्रान्तायाम् । ओघ० १५२ ॥ अतिजाति - पविसति । नि० चु० प्र० ३४ आ । अतिजाते - समृद्धतरः । ठाणा० १८४ । अतिजाणं - अतियानम् । आव० ३६६ । अतिजाहि-अतियास्यति प्रवेक्ष्यति । ठाणा० ४६३ । अतिणिओ-आनीतः । आव० २०४ । अतिणीओ - अतिनीतः, प्रापितः । आव० ८०० । अतिणेउं प्रवेश्य । बृ० तृ० ७४ आ । अतिष्णो-ग्लानः । वृ० प्र० २८८ आ । अतितणित-आगच्छद्रच्छत् । नि० चू० प्र० १२० आ । अतिताणकहा- अतियानकथा - नगरादौ प्रवेशकथा | ठाणा २१० । अतरं - तरीतुमशक्यं, विषयगणं भवं वा । उत्त० २९२ । अतरंतं - ग्लानम् । बृ० प्र० २२९ आ । अतरन्त - अति ग्लानः । ओघ० १८३ । अतरंत - ग्लानाः | ठाणा० १३८ । अतरंते - अतरत् - असहः । व्य० द्वि० ३७ अ । अतरंतो- अतरन् अशक्नुवन् । आव० ८४७ । अशकनु वन् – असमर्थः । दश ० ८९ । अशक्नुवान् । आव ० ६३७ । ग्लानः । ओघ ० ४५ । यदाऽऽकाशव्यवस्थिता भ्यां पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तदा । ओघ० ८४ । गिलाणो । नि० चू० प्र० ४३ अ, ३० आ, ३६० अ ग्लानः । बृ० तृ० ५ आ, नि० चू० प्र० अंतरण-अतरणः, अशक्तः, ग्लान: । ओघ० ८४ अ । ६७, बृ० प्र० २३४ आ । अतरो ग्लानः । ० द्वि० २२४ अ । रत्नाकरः । ब्र० प्र० ३७ अ । १४४ आ । अतसी - अयसी, धान्यविशेषः । ठाणा ० ४०६ । गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । धान्यविशेषः । नि० ० प्र० अतहणाणे - अतथाज्ञानम् । ठाणा० ४८१ । अतारं - अतारम् तरितुमशक्यम् । भग० ८२ । अतारिमा - दुस्तराः । सूत्र० ८६ । अतिः - अतिशयवान् । ठाणा० ४७३ | अर्तिति - प्रविशन्ति । नि० चू० प्र० २०३ अ । अतिंतिणः-- अतिन्तिणः, अलाभेऽपि नेषद्यत्किञ्चनभाषी । दश० २३३ | अतिन्तिनः, न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूयया भूयो भूयो वक्ता, प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । दश० २५८ । अतिअन्तिय - आदियात्रिकाः, सार्थरक्षकाः । वृ० द्वि० १२५ अ । अतिउच्चाओ - अतिश्रान्तः, प्राघूर्णकादिः । ओघ० १८६ | अतिउव्वरिए - अत्युरिते । ओघ० १३८ । 2010_05 अतिताणगिहाति-अतियानगृहाणि-नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि । ठाणा० ८६ । अतितेया- अतितेजा, रात्रिनामविशेषः । सूर्य० १४७ । (५१) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अतित्थ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अतिसेसे ] आत अतित्थ - अतीर्थम् , तीर्थस्याभावोऽतीर्थम् , तीर्थस्थाभावः ! अतियाण-अतियानं-नगरप्रवेशः । ठाणा० १७३ । प्रवेशः । श्वानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा। प्रज्ञा. १९। नि० चू० प्र०२७३ । अतित्थसिद्धा-अतीर्थे-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जाति- अतियातो-अतियातः, गतः। उत्त० ४८१ । स्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धाः। अतियारे-अतिचार:-अतिचरगं ग्रहणतो व्रतस्यातिकरणम्। ठाणा० ३३ । व्य. प्र. ९. अ। अतित्थाविते-प्रत्याख्यातः, निषिद्धः । नि० चू० प्र० अतिराउले-स्वामिकुलम् । प्रज्ञा० २५३ । १८५ अ.. अतिरायितं-अताडितम् । ओघ० ११० अतिथिओ-अस्तमितो। नि० चू० प्र० ३१२ अ । समा- अतिरिच्छच्छिन्नं- अतिरश्चीनच्छिन्न-तिरश्चीनमपाटितं । प्तेत्यर्थः । नि० चू० तृ० १२६ अ। आचा. ४०५। अतिथिसंविभाग-न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां अतिरित्तं-- अतिरिक्तम् , कुक्षिप्राहारप्रमाणातिकान्तम् । द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारकमोपेतं परया आत्मानुग्रह- प्रश्न. १५४ । बुद्धया संयतेभ्यो दानम्। तत्त्वा० ७-१६। ... अतिरित्तसजासणिए-अतिरिक्ता-अतिप्रमाणा शय्या-- अइए) प्रकरोति अतिगच्छति वेति । ठाणा. वसतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्त२९८ । शय्यासनिकः । सम० ३७। अतिधाडिय-अतिधाडितः-भ्रामितः । प्रश्न० ५३ । अतिरित्ता-घंघशाला । नि० चू० प्र० १०६ आ। अतिपरिणामकं-अपवादैकमतिः । बृ० प्र० १३२ अ। अतिरूपः-भूतभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । अतिपरिणामा-अतिपरिणामाः, अतिव्याप्त्याऽपवाददृष्ट- अतिरेगं-अतिरेकः, आधिक्यम् । भग० १८६ । अतिरेकम्-- योऽतिपरिणामाः । विशे० ९३१ । अतिव्याप्त्या परिणामो अत्यर्थम् । ओघ० २२७ । यथोक्तस्वरूपो यस्य सः। व्य. प्र. ७२ अ। अतिलोलुपः-अतीव रसलम्पटः। उत्त० ३४५ । अतिपात-प्राणिनः विभ्रंशः। ठाणा. २२० । | अतिवट्टमाणे -- आतवर्तमानः-सर्वबाह्यात सर्वाभ्यन्तरं अतिपातनम्-प्राणवता सह वियोजनम् । ठाणा० २६ । प्रतिगच्छन् । सम० ९७ । अतिपासं - अतिपाव-ऐरवतावसर्पिणीतीर्थंकरः । सम० अतिवट्टिय-अतिवर्तितः-भ्रामितः। प्रश्न० ५६ । अतिवतित्ताणं- अतित्रज्य-अतिशयेन गत्वा । प्रज्ञा अतिपुरुषः-किंपुरुषभेदविशेषः। प्रज्ञा० ७०। । ५१० । अतिप्पणया - अश्रुलालादिक्षरणकारणशोकानुत्पादनेन । अतिवयती-अतिव्रजति, बाहुल्येन गच्छति । जीवा० १२९ । भग० ३०५ । | अतिवासा-अतिवर्षा, अतिशयवर्षा वेगवद्वर्षणम् । भग. अतिबलराया-अतिबलराजा । आव० ११६ । १९९। अतिमन्द्रः-गम्भीरः । जं० प्र० ५२९ । अतिवाहयति-प्रेरयति, विनयति च। प्रश्न. ६४ । अतिम(मुत्तकुमारो-राजर्षिनाम । नि० चू० द्वि० २७ आ। अतिविजे-अतिविद्यः, तत्त्वपरिच्छेत्री विद्या यस्य । आचा० अतिमुक्तक:-षड्वर्षप्रव्रजितः । भग० ५८६ । अतिमुक्तकः- १५९ । नालबद्धपुष्पविशेषः । प्रज्ञा० ३७। अतिविद्वान्-विदितागमसद्भावः सन । आचा० १९२ । अतिमुक्तकचन्द्र-(अइमुत्तचंदए) पुष्पविशेषदलम् । भग. अतिवेगो-अतिवेग:-अतिकान्ताशेषवेगः । प्रश्न० ५१ । १३१ । अतिशुक्लो-शुक्ल,शुक्लो । ठाणा० ३७४ ।। अतिमुत्तग-अतिमुक्तकलता-लताविशेषः । जीवा० १८२। अतिसेसे-शेषाण्यतिक्रान्तं सातिशयम् । ठाणा० ३८४ । अतिमुत्से-अतिमुक्तः, कुमारभ्रमणः । अन्त० ६। विज- अतिशेषा:-अतिशयाः। ठाणा ० ३२९ । अतिशेषे-अतिशये। यराज्ञः श्रीदेव्याः सुतः। अन्त. २३ । उत्त० २८७ । 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अतिसंधेद अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अत्तलद्धि] - अतिसंधेड-अतिसन्दधाति । आव० ११०।। | अत्त-आत्मा, सिद्धिः । उत्त० १०४ । आप्तः, अप्रतारकः । अतिसओ-मनःपयवावधिज्ञाने अतिशयवन्त्यध्ययनानि च। दश. ७५ । नि० चू० प्र० १६ अ। अत्तए-आत्मजः-पुत्रः। भग० ४६०। अतिसाहसिकः-आत्मवत प्रसाधितमग्निलोकं यः प्रत्याच- अत्तगवेसए-आत्मगवेषकः-आत्मानं गवेषयति-कथं मया क्षीत सः । आचा० ५२ । ऽऽत्मा भवानिस्तारणीयः इत्यन्वेषरते। उत्त० १०४ । अतिसेसि-स्फीतानि । ओघ० ९६। मनःपर्यवाद्यतिशय आत्मानं-चारित्रात्नानं गवेषयनि-मार्गयति। उत्त. १२० । वान । नि० च० प्र०१६ अ। अतिमयदव्वा उकोसा। अत्तगवेसी-आत्मगवेषी, आत्महितान्वेषणपरः। दश० नि० चू० प्र० २०० अ। २३७ । अतिसेसी-पात्रभूतः, प्रवचनाधारः । बृ० द्वि० २१ आ। अत्तचिंतओ - अभ्युपतजिनकल्पयथालन्दकल्पानामेकतरं अतिस्निग्धमधुरम्-वाण्यतिशयः । सम• ६३ । विहारं प्रतिपत्स्य इत्यात्मचिन्तकः, गणे वा तिष्ठन् न वहति अतिहिपूआ-अतिथिपूजा आहारादिदानेन । दश० २४० । ततिमन्येषां साधूनाम् । व्य. प्र. २३२ आ। अतिहिवणीमते-भोजन कालोपस्थायी प्राघूर्णकोऽतिथिस्तद् | अत्तट्ठागुरुओ-आत्मार्थगुरुः, आत्मार्थ ए7 जघन्यो गुरुःदानप्रशंसनेन तद्भक्तान यो लिप्सति सोऽतिथिमाश्रित्य वनी पापप्रधानो यस्य सः। दश. १८७ । पकोऽतिथि पनीपकः । ठाणा. ३४१ । अत्तट्टियं-स्वीकृतम् । आचा० ३२५ । अतिहिसंविभागो- अतिथिसंविभागः - साधसंविभागः । अत्तति-आत्मार्थयन्ति-परिभुञ्जते । बृ. द्वि० २७८ अ। आव० ८३७ । अत्तट्ठो-अप्पो अट्ठो भत्तादिउ। नि० चू० तृ० १३२ आ। अत्तणा-आत्मना कृतं । ठाणा० ४९२ । अतिही-अतिथिः-भोजनार्थ भोजनकालोपस्थायी, आत्मार्थ अत्तणिस्सेसकारए-आत्मनि शेषकारकः, आत्मनो निःनिष्पादिताहारम्य गृह वतिनः मुख्यः साधुरेव । आव० ८३७ । शेषमिति--शेषाभाव प्रक्रमात् कर्मणः करोति-विधत्त इत्यात्मनिःस्पृहोऽभ्यागतः । आचा० 114। भोजनकालोपस्था निःशेषकार कः । उत्त० ३०५ । य्यपूर्वी वा । आचा० ३२५ । आगन्तुकम् । आचा० ३१४, अत्तणोउवन्नासं-आत्मन उपन्यामः । दश. ५२। भग० ५२० । विशिष्टतिथ्यभावे । बृ० प्र. ९. अ। अत्तते-आत्मजः । ठाणा० ५१६ । अतीओ-आगतः । आव० १४५। अत्तत्ता-आत्मता - जीवास्तिता स्वकृतकर्मपरिणतिर्वा ।' अतीय-अतीतम्-उत्तीर्णम् । भग. २९३ । आचा. २३८ । अतीति-एति । उत्त० ३०२ । अत्तत्तासंवुड-आत्मात्मसंवृतः आत्मन्यात्मना संवृतः-प्रतिअतीमि-अटामि। आव० २२० । संलीनः । भग० १८४ । अतीरंगमा अतीरङ्गमाः, तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः, न अत्तदोस-आत्मापराधम् । ठाणा० ४.४ । तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः। आचा० १२४ । अत्तदोसोवसंहार-आत्मदोषोपसंहारः, योगसङ्ग्रहे एकविअतुकोसे--आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृट- 1 शतितमो योगः। आव० ६६४ । ताभिधानम् । भग० ५७२ ।। अत्तपण्हहा--आत्मनि प्रश्न: आत्म निरहन्त्यात्म पदनहा। अतुरियं-अत्वरितम् , कायिकत्वरारहितम् । भग० १४० । उत्त० ४३४ । स्तिमितम् । ओघ. १०८ । अत्तभासिओ - अण्णस्स संतियलाभं णो मँजति । नि० अतुरियगति अत्वरित गतिः-मन्दगतिः । उत्त. ७११ । चू० प्र० ३३४ अ। षी-अत्वरितभाषी । आचा० ३९२ । अत्तमाया-आत्मना आदाय । भग. २८६ । अतोया-शीतोदकविरहिताः संप्रत्यः काञ्जिकेनाचामनका- अत्त तरंतस्स-अशक्नुव: ग्लान. देः । ओघ० १२७ । रिणी। बृ, दि. १८. अ । अत्तलद्वि उ-यदात्मना लभते तदा.. । ओव० १५० । 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अत्तव आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अत्थनिउरे ] अत्तव-आत्मवान् , सचेतनः । दश० २३६ । ४४८ । व्याख्यानं । 'ठाणा. ५२ । सूत्रस्य व्याख्यानं । अत्तसंपग्गहिए-आत्मसम्प्रगृहीतः, आत्मैव सम्यक् प्रक- ठाणा० १७० । विशे० ५९२ । र्षेण गृहीतो येन। दश० २५६ ।। अत्थंगओ-अत्थे पव्वए गतो, अचक्खुविसयपंथे वा गतो। अत्तसमाहिप-आत्मसमाहितः, आत्मना समाहितः ज्ञान- दश० चू. १२३ । दर्शनचारित्रोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः। आत्मा वा समा- अत्यंतमयम्मि-अस्तमयति । उत्त० ४३५ । हितोऽस्येत्यात्मसमाहितः । सदा शभव्यापारवानित्यर्थः।। अत्यंत-अर्थान्तरम, प्रथम्भतम । अ आचा. १९१। अत्यंतरभावे-अर्थान्तरभावः-भेदः । आव. ४७६ । अत्तसरिसो-आत्मसदृशः, कुलानुरूपः। उत्त० ४०।। अत्थ- अर्थः, शब्दादिविषयभावेन परितद्रव्यसमूहः । अत्तहिय - आत्महितः, मोक्षः। दश० १५० । मोक्खो। विशे० १६२। दश. चू० ६८। अत्थ-(अत्थपुरिसे) अर्थपुरुषः, अजिनपरः। आव० २७७ । अत्ता-आत्मा। आव. २९८ । मोक्षः, संयमो वा। सूत्र. अर्थः, निरुपमसुखरूपमोक्षः। दश० १८९। अर्थनम् , ९० । आत्ताः-गृहीताः, स्वीकृताः। ठाणा० ६३ । आ- असम्प्राप्तकामभेदः, तदभिवायमात्रम्। दश. १९४ । अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति अस्तः, अस्तपर्वतः अदर्शनं वा । दश. २३२ । आदेशः । आत्राः आप्ता वा-एकान्तहिताः। भग० ६५६ । आर्ताः- बृ० प्र. २२ आ। क्षुत्तडभ्यां पीडिताः, आप्ताः- रागद्वेषरहिताः, आत्ता:- अत्थअवगमो--अर्थावगमः, अर्थपरिच्छेदः । दश० १२५ । गीतार्थाः। बृ० द्वि० १४३ अ।। अत्थई-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । अत्ताणओ-अत्राणः । आव. २११ । अत्थकंखिया-प्राप्तेऽप्यर्थेऽविच्छिन्नेच्छाः । भग ६७१। . अत्ताणा-यष्टिद्वितीयाः पान्थाः, कार्पटिकाः, संयता वा। अस्थकरो-अर्थकरः, विद्याद्यर्थकर "शीलः, भाव करविशेष । बृ० द्वि० ८२ आ। आव० ४९९ । अत्ताणो- अत्राणः, अनर्थप्रतिघातवर्जितः। प्रश्न १९।। अत्थकहा- अर्थकथा, विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वदः मन्नयथ त्राणरहितः, अनर्थप्रतिघातकाभावात् । प्रश्न ११ । गवा. दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपप्रदानम्। दश. १.७ । दिहारिणो। नि० चू० द्वि० ११ अ। अत्थके-अकाण्ड:-अनवसरः । दश ९३। अत्ताहिट्टिय-आत्माधिष्ठितः। ओघ० १५०। अत्थगवेसणया-अर्थगवेष गया, अर्थगवेष गनिमित्तम् । सूर्य, अत्ति(ति)मुत्तय-अतिमुक्तकः, पुष्पप्रधान वनस्पतिविशेषः । २९२ । जं० प्र० ४६। अस्थग्धं अस्ताघः । ओघ०३२ । अस्ताघम् । आव. ४१९ । अत्तुक्कोसे-आत्मोत्कर्षः । सम० ७१ । आत्मगुणाभिमानः। अत्थजुत्ती-अर्थयुक्तिः, हेयेतररूपा अर्थयोजना। दश० १६२ । ठाणा० २७५ । अत्थजुत्तो-अर्थयुक्तः, अर्थतारः, अपुनरुक्तो, महावृत्तः । अत्तय-आत्रेय ऋषिनाम। आव. ३७२। जीवा० २५५। अत्तो - आप्तः, मोक्षमार्गः, प्रक्षीणदोषः, सर्वज्ञः । सूत्र. अत्थदूसणं-अर्थदूषगव्यसनम् । अर्थोत्पत्तिहेतवो ये सामा. १९५। रागादिरहितः। दश० १२८ । युपायचतुष्टयप्रभृतयः प्रकारास्तेषां दृषणम् । व्य० प्र० अत्तोवणीए - आत्मैवोपनीतः - तथा निवेदितो-नियोजितो १५७ अ। यस्मिन् । ठाणा० २५९ । अत्थधम्मगई-अर्थश्च धर्मश्चार्थधर्मों यदि वाऽर्च्यते-हितार्थिअत्यं-अत्रम् , नाराचादि क्षेप्या तुधम् । प्रश्न० ११६ । अर्थः, भिरभिलष्यते, गतिः-गत्यर्थानां ज्ञानार्थत या हिताहितविषयः । आव० २८३ । अर्थः--ज्ञेयत्वात् सर्वमेव वस्तु, लक्षगा स्वरूपपरिच्छित्तिः । उत्त० ४७२ । अधेियः । उत्त० ३६८ । अभिधेयः, जीवादितत्त्वरूपो वा। अत्थनिउरंगे-संख्याविशेषः । सूर्य० ९१ । उ. ३८५। अर्यत इत्यर्थः-स्वर्गापवर्गादिः । उत्त० अथनिउरे-संख्याविशेषः । सूर्य ९१ । 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अत्थनिकुरं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अस्थि ] अत्थनिकर-अर्थनिकुर, चतुरशीतिरर्थनिकुराहशतसहस्त्राणि। | अत्थसिद्धे- अर्थसिद्धः, शास्त्रीयदशमदिवसनाम। सूर्य जीवा० ३४५। १४७, ज० प्र० ४९० । अत्थनिकुरंगं -- अर्थनिकुराङ्गम् , चतुरशीतिर्नलिनशतसह- अत्थस्स-अस्तो मेरुयतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति स्वाणि । जीवा० ३४५। व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य गिरिप्रधानस्य । सम०६५। अत्थपजाया-अर्थपर्यायाः, ये तु तेषामेव वाचकशब्दाना अत्था-अर्थाः, द्रव्यागि। उत्त० ३८४ । अर्थ्याः, प्रार्थनीया मभिधेयार्थस्यात्मभूता भेदाः, यथा कनकस्य कटककेयूरादयः, वा । उत्त० ३८४ । अर्यन्त - गम्यन्त इत्याः । ते सर्वेऽप्यर्थपर्याया भप्यन्ते । विशे० २२८। ये तु तदे. ओघ० ५। शव्दादयः । ठाणा० २५३, आचा० २०१। कदेशमभिदधति तेऽथैकदेशप्रतिपादका: पर्याया अर्थपर्याया फलानि, वस्तुनि। ठाणा० ३३ । अर्थ्यन्ते-अभिलष्यन्ते उच्यन्ते। विशे० २२७ । क्रियाणिभिरर्यन्ते वा अधिगम्यन्ते । ठाणा० ३३५ । नियु क्तिभाष्यसंग्रहणिवृत्तिचूर्णिपन्जिकादिरूपाः । सम० १११। अत्थपयं-अर्थपदम् , युक्तिहेतुर्वा । सत्र. १५३। . अत्थाणं-देशविशेषः । भग• ६८० । अत्थपलिमंथो-अर्थपरिमन्थः । विशे० ६२८ । अथपिवासिय - अप्राप्तार्थविषयसंजाततृष्णाः । भग० अत्थाणमंडविया-आस्थानमण्डपिका। आव. ८९ । ६७१ । अस्थाणि-आस्थानिका। उत्त० ११५ । अत्थपुहुत्त-अर्थपृथक्त्व-श्रुताभिधेयोऽर्थः तस्मात् सूत्रं पृथक् , | अत्थाणिमंडवो-आस्थानमण्डपः। नि० चू० प्र० २७४ आ। अर्थेन वा पृथु अर्थपृथु तद्भावः अर्थपृथुत्वं । आव०६१। अत्थाणियं-आस्थानम् । उत्त० १४६ अर्थात् पृथक्त्वं कथञ्चिद्धंदो यस्य, विस्तीर्णमर्थपृथु । विशे० अत्थाणियमंडविया - आस्थानमण्डपिका । बृ० प्र० ४९२ । २७ आ । अस्थाणी-आस्थानी। आव० ६७२ । आस्थानिका । आव० अत्थ मणमुहुत्तं - अस्तमनमुहूर्त्तम् , अस्तोपलक्षितं मुहू. तम् । जं. प्र. ४५९ । अत्थमंत-अर्थवताम् , प्रयोजन वताम् । भक्षणाद्यहणाम् । अत्थाणीवरगओ-आस्थानीवरगतः । आव. २१६ । जं० प्र. २४३ । अत्थादाणं-अष्टाङ्गनिमित्तं प्रयोगः । बृ० तृ० ८६ अ। अत्थामा- अस्थामानः, सामान्यतः शक्तिविकलाः । जं. अत्थमंतमेत्त - अस्तमयति मित्र-सूर्ये, सायम् । जं. प्र० प्र. २३९। अस्थामा, सामान्यतः शक्तिविकलः। भग० . अत्थरणं-आस्तरणम् , आस्तरगं करोति । ओघ. ४१ ।। अस्थायणयं-आस्थानिका । आव० ३४२ । अत्थरय - आच्छादनम् । ६० प्र. ५५ । आस्तरके ग, अस्थायाणं-अर्थादानं-द्रव्योपादान कारणमष्टांगनिमित्त तहअस्तर जसा वा । भगः ५४२ । दत्-प्रयुञ्जानः । ठाणा. १६४ । अत्थलोला-अर्थ लोला:-अर्थलोला:-लम्पा:-चौरादयः । अत्थावत्ती-सामर्थ्यगम्या। बृ० द्वि. १२१ आ। उत्त० ५९. । अत्थावत्तीदोसो-अर्थापत्तिदोषः, यत्रार्थादनिष्टापत्तिः, सूत्रअत्थविगप्पणा-अर्थविकल्पना। आव. ४८४ । दोषविशेषः । आव० ३७४ । अत्थविणिच्छय -अर्थविनिश्चयः--अपायरक्षकं कल्याणावह अस्थाहं-अस्ताघम् , अविद्यमानस्ताघम् , अगाधम् । भग वा अर्थापितथभावम् । दश, २३५। ८२। अस्ताधः-निरस्ताधस्तलम् । भग. ८२। अप्रअत्थसंजुत्तं-सबभावजुत्तं । दश० चू० ८९ । माणम् । आव. ३७४ । अत्थसंपयाणं-सांवत्सरिकार्थदानम्। आचा. ४२२ । अन्थि-येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा तदाऽस्तिअत्थसत्थं-अर्थशास्त्रम् । आव० ४२२ । अर्थोपायप्रतिपा- भवति जायते इति सुखमानन्दहेतुत्वादिति । ठाणा० ४८८ । दनं शास्त्रम् । प्रश्न. ९७। नीतिशास्त्रादि। जं. प्र. २१९।। अस्ति, विद्यन्ते, सन्तीत्यर्थः, अथवाऽस्ति अयं पक्षो यदुत। (५५) 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अस्थिकाए आचार्यश्रीआनन्दसागरमरिसङ्कलितः अदढो] ५१५ । भग० ३२। प्रदेशः। भग० १४९, जीवा० ६ । अस्ति, । ५८८ । अर्यत इति, विवृतं प्रबोधितं विकचकल्पम् । आव० निपातः सर्वलिङ्गवचनः । प्रज्ञा० ५६३ । प्रदेशः। आव० ८६। अभिप्रेतपदार्थः । आव० ४१५। द्रव्यम् । आव० ६०० । त्रिकालवचनो निपातः । अभूत् , भवति, भविष्यति । ६०७ । अर्थ्यत इति । उत्त० ६८ । विद्यादिः। दश० ११४ । च। आव० ७६८ । अस्तिद्वारम् , अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपः । अत्थोग्गहणं-फलनिश्चयम् । भग. ५४११ दश० १२५। स्वामी । विशे० ६७२ । अत्थोग्गहे-अर्थावग्रहः, अर्थस्यावग्रहणम् , अनिर्देश्यसामाअस्थिकाए-अस्तिकायः प्रदेशराशिः। भग० ३२४ । न्यरूपाद्यर्थग्रहणम्। व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसामायिकमनिअस्थिकाय - अस्तिकायः, प्रदेशराशिः, अस्तीति सन्ति श्यं सामान्यमात्रार्थग्रहणम् । प्रज्ञा० ३११। अर्थस्यआसन भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्ते अस्तिकायाः। सामान्यनिर्देश्यस्वरूपस्य शब्दादे: अवेति-प्रथमं व्य जनावभग. १४८ । प्रदेशसङ्घातः। जीवा० ६। धर्मास्तिका ग्रहानन्तरं ग्रहण-परिच्छेदनमर्थावग्रहः । सम. १२ । भग० यादिः। दश. १३४। ३४४ । व्यञ्जनावग्रह चरमसमयोपात्तशब्दार्थावग्रहणलक्षणः। भत्थिकायउद्देसए - भगवतीद्वितीयशतकस्य दशमोद्देशक आव० १० । अर्यते--अधिगम्यतेऽर्थ्यते वा अन्विष्यत इत्यर्थःनाम । भग० ६०८। सामान्यरूपादेः प्रथमपरिच्छेदनमावग्रहः । ठाणा० ५१ । भस्थिकायधम्म-अस्तिकायधर्मः । दश० २१ । अत्थोभ- अस्तोभकं, वैहिहकारादिपदच्छिद्रपूरणस्तोभ कनिभत्थिकायधम्मे-अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायो-राशिरस्ति पातशून्यम् , सूत्रगुणः । आव० ३७६ । कायः स एव धर्मो-गतिपर्याये जीवपुद्गलयोरिणात । ठाणा० अथंडिलं-सचित्तभूमी। नि० चू० प्र० ३८ आ। अथ-अथशब्दः प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसअस्थिक-आस्तिक्यम्-जीवस्यास्तित्वनित्यत्वकर्तृत्वभोक्तस्व मुच्चये प्वत्यानन्तर्यार्थः । ठाणा० ४९ । वाक्योपन्यासार्थः मोक्षसत्साधनश्रद्धानम् । आव० ५९१ । परिप्रश्नार्थो वा। भग. १४। प्रक्रिया प्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपअस्थिनत्थि-अस्तिनास्तिनामपूर्वः। ठाणा. १९९ । न्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु । प्रज्ञा. २४७ । अत्थिय-अस्थिक-बहुबीजवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२। अस्ति अथक-अप्रस्तावः । बृ० प्र० ५५ आ । कायः। भग०८। अस्थिकम् , अस्थिक वृक्षफलम् । दश० अथक्कागओ-अकाण्डागतः । आव. ८०० । अथको-अविश्रन्तः। आव १०२। अत्थिया-बहुबीजकक्षः। भग० ८.३ । भत्थी-अर्थज्ञाता। बृ० प्र० ११२ अ। अथालंदोग्गहो-यथालन्दिकावग्रहः । नि० चू० प्र० २३९ अ अस्थीनस्थिपघायं- यद्यथा लोके अस्ति नास्ति च तद्यत्र अथाहं-जत्थ पुण बुड्डति नासिया ने । नि. चू० द्वि० ७८ आ। तथोच्यते चतुर्थपूर्वनाम। सम० २६। अथिरो-अस्थिरः, क्षणावस्थायी। सूत्रः ।। अत्थुआ-आस्तृता। आव० १७३ । अदंडे-अदण्डः, प्रशस्त योगत्रयम हिंसा मात्रं वा । सम० ५। अत्थुरणं-पाउरणं । नि. चूल द्वि० ६१ अ। अदंसणो-अन्धः । ठाणा० १६५। अत्थुव्या -(अत्थुरइ) आस्तोयते। ओघ ८३ । अदक्खु--अदक्षः, अनिपुणः । सूत्र. ७४ । अदृष्टः, अर्वाअत्थे-- अनेन यन्तरितः सूर्यादिरम्त इत्यभिधीयते। मेरू ग्दर्शनः । सूत्र. ७४। नाम । जं. प्र. ३७५ । अदक्खुदंसणो-अचक्षुदर्शनः अचक्षुर्दर्शनमस्यासी, केवअत्थेगइया-सन्त्येकके। प्रज्ञा. ५४५। लदर्शनः, सर्वज्ञः। सूत्र. ७४ । अत्थो-अर्थः, अभिधेयः, प्रयोजनं वा। प्रश्न० ११५ । अदक्खेयवं-ग्राह्यम् । ओघ. १६३ । कारणं, तात्त्विकः पदार्थो वा । जीवा० ९८ । अर्यते-गम्यत अदट्टमेव-अश्वेव । उत्त० २१३ । इति । आव० १० । पव्वओ, अचक्खुविसयपयत्थो वा। अदढो-विणावि गेल गए, जो दुब्बलो। नि० चू० प्र० दश० चू० १२३ । अर्थः-यः सूत्रस्याभिप्रायः । विशे. १९८ । 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अदण्णा अदण्णा - विषादीकृता । नि० चू० प्र० ३२१ अ । अदन्तं - अदत्तम्, अदत्तद्रव्यग्रहणम् । प्रश्न० ४ । अविती र्णम्, अधर्मद्वारस्य तृतीयं नाम । प्रश्न० ४३ । अदन - आत्मरक्षणपरा । बृ० प्र० १९० आ । अदसा - अदशा-दशिकारहिता क्षौमा । ओघ० २१७ । अदसी - अलसी । आव ० ८५४ । अदिच्छा विज्जिहिह-अदित्सिष्येथे, निषेत्स्येथे । दश० १० । अदि-अदृष्टम्, प्रत्यक्षापेक्षया अदृष्टम् । भग० १९७, २०० अदिट्ठलाभिय - अदृष्टिलाभिकः, योऽदृष्टपूर्वेण दीयमानं गृह्णाति सः । प्रश्न० १०६ । अदिट्ठहडा–अदृष्टाहृता, । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः आव० ५७६ । अदिट्टि - अदृष्टे - तिरोहिते । घ० १६७ । अदिष्णे - अदत्तादानक्रिया, अदत्तादानाय यत्करणम्, क्रियायाः सप्तमो भेदः । आव० ६४८ । अदिन्नादाणवत्तिए - अदत्तादानप्रत्ययः । सम० २५ । अदिन्ने - अदत्तादानक्रिया - आत्माद्यर्थमदत्तग्रहणम् । ठाणा आचा० ४७ । अदृष्टोत्क्षेपमानीता, प्राभृतिका । अदूयालियं - उन्मिश्रितम् । उत्त० १४६ ॥ अदूरं - प्रत्यासन्नम् । आव० २३२ । अदूरसामंते - अदूरसामन्तम्, नातिदूरे नातिनिकटे । सूर्य० ५१ अदेसकालप्पलावी - जहा भायणं पडिक्कमियं अट्टकरणंपि से कयं लेवितं, रूढं ततो पमाणतं भग्गं ताहे सो अदेसकालप्पलावी मए पुवं चेव णायं एयं भजिहिति । नि० चू तृ० ८० आ । अदेशकालप्रलापी, अतीते कार्ये यो वक्तियदिदं तत्र देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यदिति । उत्त० ३४७ । ३१६ । अदिस्समाणे- अदृश्यमानः, अनपदिश्यमानः । आचा० १३१ । अदीणवं - अदीनवन्तम्, अदीनं, दैन्यरहितम् । उत्त० २८२ । अदी सत्तु-नमिनाथपूर्वभवनाम | सम० १५१ । अदीणसत्तू - अदीनशत्रुः, हस्तिशीर्षनगरनृपतिः । विपा० ८९ । ठाणा ० ४०१, ४०२ । अदीणो-पसण्णमणो । नि० चू० प्र० १८९ अ । अदीनः, अविक्लवः । उत्त० १२० । अदीनाकारयुक्तः । अनुत्त० ४ । शोकाभावः । अन्त० २२ । अदु- अथ, 'अत:' इत्यर्थे । सूत्र० ६१ । अथवा । उत्त० २९५ । अदुअक्खरिय - जुगुप्सिता, अद्वयक्षरिका । नि० चू० तृ० १८ अ । अदुआलिआ - मथिका, मन्थनकारिणी । दश० ६० । अदुक्खणया- अदुःखनंता, दुःखस्य करणं दुःखनं तदविद्यमानं यस्यासावदुःखनः, तद्भावस्तत्ता अदुःखकरणमित्यर्थः । भग० ३०५ । 2010_05 अदुगुछिअं- अजुगुप्सनीयम् सामायिकाष्टमपर्यायः । आव ० ४७४ । भहपुरं ] अदुट्ठो-अद्विष्टः अदुष्टो वा दायके आहारे वा । प्रश्न० १०९ । अदुतं - अद्भुतं, अनुत्सुकम् । प्रश्न० ११२ । अदुत्तरं - अथोत्तरम्, अथापरम् । भग० १५५, ३०६ । अथान्यत् । जीवा० १६६ । अथापरं । औप० ३७ । अदुयं - अशीघ्रम् । भग० २९४ । अ (अं) दुयबंधणं - अन्दुकबन्धनम् । सूत्र० ३२८ ॥ अदुवं अ -अथवा उत्त० ११० । अदुव - अथवा | भग० १३० । अदुवा - अथवा, पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युच्चयो पदर्शनार्थः । अद- आर्द्रम्, सरसम् । प्रज्ञा० ९१ । सूत्रकृताङ्गस्य षष्ठमध्ययनम् । उत्त० ६१६ | आव० ६५८ | गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । अद्दइज्जं - आर्द्रकीयम्, सूत्रकृताङ्गस्य षष्ठमध्ययनम् । सूत्र० ३८५ । सूत्रकृताङ्गाध्ययननामविशेषः । सम० ४२ । अद्दए- आर्द्रकम्, अनन्तकाय भेदः । भग० ३०० । अद्दकुमारिज - आर्द्रककुमारीयम् ( महाध्ययनम्) । ठाणा • ३८७ । अद्दक्खु - अद्राक्षु, दृष्टवन्तः । भग० २१९ । अद्दण्णो-पीडितः । आव ० ७०० । अधृतिमापन्नः, कातरः । आव० ८०० । अधृतिमुपगतः । आव ० ४१६ । अधृतिमापन्नः । दश० ४८ । अक्षणिकः । बृ० द्वि० ४६ अ अधृतिमुपगतः । आव ० १९० । अद्द (ह) न - मलविशेषनाम । व्य० द्वि० ३५७ अ । अन्ना-आकुलीभूताः । बृ० प्र० २९० आ । अद्दपुरं- आर्द्रपुरं, आर्द्रकराजधानी । सूत्र० ३८५ । (५७) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अद्दया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अद्धपेला ] अद्दया-आर्द्रका, हरिद्रा । उत्त० २१८ । अद्धकायसमाणा-आलोककव्यन्तरादिकायार्धप्रमाणा। जं. अद्दवदवं-आर्द्रवद्रवम् , निगालितम् । आव० ८५४ ।। अद्दसुतो-आर्द्रसुतः, आईकराजकुमारः। सूत्र. ३८५ । अद्धखल्लया-पादार्धाच्छादकं चर्म । बृ.द्वि. २२२ आ। अदहिजति-आद्रहति । नि० चू० प्र० ३१७ अ। अद्धखल्ला-अद्धं जाव खल्या जीए उवाणहा। नि० चू० अद्दहिया-आद्रहणम् । आव० ८५४ । प्र० १३६ आ। अद्दा-आद्रामामनक्षत्रम् । ठाणा० ७७ । अद्धखित्तं - अर्द्धक्षेत्रम्। यदहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्यार्द्ध अदाए-आदर्शः । नि० चू० प्र० ३४७ अ। चन्द्रेण सह योगमश्नुते तन्नक्षत्रम् । सूर्य. १७७ । जं. अदाओ-आदर्शः । आव. २९८, ४१६ । प्र. ४७८ । अदाग-आर्द्रकं । ओघ० १७२ । दर्पणः । बृ० प्र० १३६ आ । अद्धचंदं-अर्द्धचन्द्रः, बाणविशेषः। आव० ६९७ । आदर्शः । ठाणा. २४३, सम० १२४ । ओघ० १४८ । अद्धचंदा-अर्द्धचन्द्राः, खण्डचन्द्रप्रतिबिम्बानि चित्ररूपाणि । अहागो-आदर्शः। ठाणा० ५१२। जं० प्र० २०१। अदाणक्खत्ते-आनिक्षत्रम् । सूर्य० १३० । अद्धचंदो- अर्द्धचन्द्रः, सोपानविशेषः। प्रश्न० ८। द्वाराअद्दामलगमेत्तं-आर्द्रामलकमात्रं । आव० ८५७ । दिषु रत्नमयश्चिह्नविशेषः । प्रज्ञा० ९९, सूर्य० २६४ । आव. अदाय-आदर्शः । आव० ६५। ४२५, जीवा० १७५ । अदाय-आदर्शः । प्रज्ञा० २९३ । अद्धचक्कवाला-चक्रवालार्धरूपा। भग० ८६६ । अर्धवअहारिटे-आरिष्ठः, कोमलकाकः। जं० प्र० ३२। लयाकारः । ठाणा० ४०७ । अद्दिजमाणेहि-आर्द्र:-पुत्रकलवाद्यनुषङ्गाजनितस्नेहादाी- | अद्धजंघा-जङ्घार्धपिधायि चर्म । बृ. द्वि० २२२ आ । - क्रियमाणैः । आचा० २१२ । अद्धजंघमेत्तो-अद्धजङ्घा । नि० चू० द्वि० ७९ आ। अद्दी-अर्दिः, याचा । प्रश्न. ९३ । अद्धद्धामीसग - अद्धद्धमिश्रा, सत्यामृषाभाषाभेदः । दश. अद्दीण-अद्रीणः, अक्षुभितः । प्रश्न. १०९। २०९ । अहीणमाणसे-अदीनमनसा । आचा. ४२४ । अद्धद्धामीसए-अद्धद्धामिश्रकं, अद्धा-दिवसो रजनी वा अहीणा-अदीनाः, कथं वयममुत्र भविष्याम इति वैक्लव्य- तदेकदेशः प्रहरादिः अद्धद्धा तद्विषयं मिश्रक-सत्यासत्यं । रहिताः परीषहोपसर्गादिसम्भवे वा न दैन्यभाजः। उत्त० ठाणा० ४९१। अद्धाद्धा, दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशः । -२८२ । प्रज्ञा० २५९ । अद्धद्धा, दिवसरजन्येकदेशः । दश० २०९ । अद्ध-अर्द्धम् । सूत्र. १६ । अद्धद्धामिस्सिया-अद्धाद्धामिश्रिता, दिवसस्य रात्रेर्वा एकअद्धंसं-उत्तरासङ्गः । बृ० तृ० २५४ अ। नि० चू० प्र० देशोऽद्धाद्धा सा मिश्रिता यया सा भाषा । प्रज्ञा० २५६ । .१९१ । अद्धनारायं-अर्द्धनाराचम् , यत्रैकपार्श्व मर्कटबन्धो द्वितीये अद्ध- अद्धाकालः-चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमु- च पार्श्व कीलिका तत् । जीवा० १५, ४२ । प्रज्ञा० ४७२ । द्रान्तर्वर्ती समयादिलक्षणः । आव. २५७ । कालो। नि० अद्धपत्थए-मानविशेषः । भग० ३१३ । चू० प्र० ३३७ अ। अर्द्धम् , भागमात्रा। भग० २०८ । अद्धपलितंका - अर्द्धपर्यङ्का - ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणा । तिर्यम्वलितम् । ज० प्र० ५२।। ठाणा० २९९, ३०२। अद्धकविढगसंठाणसंठिते- अर्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम् , | अद्धपलियंकसंठिते-अर्द्धपल्यङ्कसंस्थितम् । सूर्य० १३० । चन्द्रविमानस्वरूपम् । सूर्य० २६२ । अद्धपल्लंका-एक जानुमुत्पाटयोपवेशनम् । बृ० तृ. २०० । अद्धकवित्थसंठाणसंठियं - अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम्, अद्धपेडा-गोचरचयाभिग्रहविशेषः । उत्त० ६०५ । ठाणा. उत्तानीकृतमर्द्धकपित्थं तस्येव यत्स्थानं तेन संस्थितम् । ३६६ । जीवा० ३७८ । | अद्धपेला-गोचरचर्याभिग्रहविशेषः । नि० चू० तृ. १२ अ । 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अद्धमंडलं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अद्धाणं] अद्धमंडलं-अर्द्धमण्डलम् । जं० प्र० ४७८ । अद्धहारवरावभासमहावरो- अर्द्धहारवरावभासमहाअद्धमंडलसंठिती- अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, अर्द्धमण्डलव्य- वरः, अर्द्धहारवरावभासे समुद्रेऽपराधिपतिर्देवः। जीवा० वस्था । सूर्य० १६। अद्धमागहविभम-अर्द्धमागधविभ्रमम् , गृहविशेषः । जीवा० अद्धहारवरावभासवरो-अर्द्धहारवरावभासवरः, अर्द्ध२६९ । जं० प्र० १०७। हारवरावभासे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९ । अद्धमागहा- अर्द्धमागधी, अर्द्ध मागध्या इत्यर्द्धमागधी | अद्धहारवरावभासो - अर्द्धहारवरावभासः, द्वीपविशेषः भाषा। भग० २२१ । मागधभाषालक्षणं किञ्चित्किञ्चिच्च | समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६९।। प्राकृतभाषालक्षणं यस्यां सा, अर्द्ध मागध्या इत्यर्द्धमागधी। अद्धहारवरो-अर्द्धहारवरः, अर्द्धहारवरे समुद्रे पूर्वार्धाधिभग० २२१। मगहद्धविसयभासानिबद्ध, अट्ठारसदेसीभासा पतिर्देवः । जीवा० ३६९ । द्वीपविशेषः, समुद्रविशेषश्च । णियतं । नि० चू० द्वि० ३६ अ।। जीवा० ३६८। अद्धमासिएसु-अर्धमासिका। आचा० ३२७ । अद्धहारो-अर्द्धहारः, नवसरिकः । औप० ५५ । जीवा० अद्धरत्तकालसमओ-अर्द्धरात्रकालसमयः । आव० १२१ । १८१ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ । द्वीपविशेषः, समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८। प्रज्ञा० ३०७ । अद्धसंकासा-अर्द्धसङ्काशा, सर्वकामविरक्तताविषये देवलासुतराजस्य तापसावस्थायामुत्पन्ना पुत्री। आव. ७१४।। अद्धा-अध्वा, पन्थाः। आव०६६२। समयः। विशे० ९६१। काल:, अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्ती समयादिलक्षणः । विशे० अद्धसम-अर्द्धसमम् , पद्यविशेषः। दश० ८८ । एकतरसमम् । ८३७ । कालम् । ठाणा० ४४ । कालस्याख्या। प्रज्ञा० ९। ठाणा० ३९७। अवधिलब्धिकालः। आव० ४३ । अध्वा-मार्गः। आव० अद्धसेलसुत्थियं-अर्द्धशैलसुस्थितम् । जीवा० २६९ । ६१७ । कालः। आव० ८४० दिवसो रात्रिर्वा । प्रज्ञा अद्धहारा-अर्धहारा, नवसरिकः । जं० प्र० २४, १०५। अद्धहारभद्दो-अर्धहारभद्रः, अर्द्धहारे द्वापे पूर्वार्धाधिपति २५९। अद्धा, षषष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणा। सूर्य. ११। जङ्घाए अद्ध जाव कोसो। नि. चू० प्र० र्देवः । जीवा० ३६९। १३६ आ । अद्धहारमहाभद्दो-अर्द्धहारमहाभद्रः, अर्द्धहारे द्वीपे अद्घाउए - अद्धा-कालः तत्प्रधानमायुः-कर्मविशेषोऽद्धायुः, उपरार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६९।। भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामी। ठाणा० ६६ ।। अद्धहारमहावरो- अर्द्धहारमहावरः, अर्द्धहारे समुद्रेऽ. | अद्धाए-कालस्य पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्य इति । ठाणा० परार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । ४९८ । काले अर्थादागामिन्याम् । उत्त० २८० । अद्धहारवरभद्दो- अद्धहारवरभद्रः, अद्धहारवर द्वीप अदधाकाल:-अद्धैव कालः, कालशब्दो हि वर्णप्रमाणकालापूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । दिष्वपि वर्त्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति। ठाणा० अदधहारवरमहाभद्दो-अर्द्धहारवरमहाभद्रः अद्धहारवरे २०१। चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्यद्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । द्धाकालः । दश० ९। अधहारवरमहावरो- अर्द्धहारवरमहावरः, अर्द्धहारवरे अद्धाकाले-चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तसमुद्रेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । वर्ती समयादिः । भग० ५३३ । । अदधहारवरावभासभद्दो-अहारवरावभासभद्रः, अर्द्ध- | अदधाढए-अढिकः, मानविशेषः। भग० ३१३ । हारावभासे द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९। अदधाण-पहो। नि० चू० प्र० ५१ आ । महदरण्यं । बृ. अदधहारवरावभासमहाभद्दो- अर्द्धहारवरावभासमहा- द्वि. १७४ आ। अध्वा-पन्थाः । बृ० द्वि० १२२ अ। भद्रः, अर्द्वहारावभासे द्वीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा. | महंता अडवी। नि० चू० प्र०५० आ। छिन्नापातं महदर . । ण्यम् । बृ० द्वि० २१ आ। उत्पत्तिप्रलयरूपम् । उत्त० २६८। 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अद्धाण आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अधिगरणंसि] अद्घाण-अध्वनः । आव० ५३५ । अवा-विप्रकृष्टो मार्गः। अधरिमं - अविद्यमानधारणीयद्रव्याम् ऋणमुत्कलनात् । .बृ० प्र० २३८ आ। भग० ५४४ । अद्धाणतेणो-पंथे मुसंतो। नि० चू० द्वि० ३८ आ। अधरो-अधरः, अधस्तनौष्ठः । प्रश्न० १४० । अधीरः । अद्घाणपडिवन्ने-अध्वप्रतिपन्नः, मार्गप्रतिपन्नः । भग० | उत्त० १५३ । अधरोहा-अधरोष्टः, अधस्तनो दन्तच्छदः । जं० प्र० ११२ । अद्घाणपरिस्संतो-अद्धानपरिश्रान्तः। ओघ० १०७ । प्रश्न. ८१। अद्घाणपवण्णगो-अध्वप्रपन्नकः । आव० ५७८ ।। अधस्तनकाय-पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते । ठाणा० ३५७ । अद्धाणसीसए-यतः परं समुदायेन गन्तव्यं सम्यग्मा-/ अधस्तारका-पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । वहनात्। बृ० तृ. ६१ आ। अधारणिजं-अधारणीयं, धारयितुमशक्यम् , स्थातुं वाअद्धाणसुत्ते-अद्धाणविहिजयणाविदसणसुत्तगं। नि० चू० ऽशक्यम् । विपा० ६२ । अविद्यमानाधमर्णम् । विपा०६३। द्वि. १४८ अ। अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलङ्काङ्कितत्वात् । आचा० ३९६ । अद्धामिस्सिया-अद्धामिश्रिता, अद्धा-कालः स चेह प्रस्ता- अधिकरणं-अधिक-अतिरिक्त उत्सूत्रं करणं, अवरा वाद्दिवसो रात्रिर्वा, स मिश्रितो यया सा भाषा । प्रज्ञा० २५६ । अधमा जघन्या गतिः तामात्मानं ग्राहयति। कषायअद्धामीसए-कालविषयं सत्यासत्यम् । ठाणा० ४९० ।। भावः। नि० चू० प्र० २९४ अ। अधोकरणं, अद्धामीसग-अद्धामिश्रा, सत्यामृषाभेदः । दश० २०९। अधितिकरणं, अबुद्धिकरणम् । नि० चू० प्र० २१३ अद्धासमय-कालसमयः, अद्धाया निर्विभागो भागो वा।। आ। कलहो । नि० चू० प्र० ३४४ आ, २३९ अ। जीवा०६। .. अधिकरणनिर्वर्तिनी - खङ्गादिनिर्वतिनी, अधिकरणिकीअद्धिती-अधृतिः । आव. ३५३ । कियाया द्वितीयो भेदः । आव० ६११ । अधुट्टाई-अर्द्धचतुर्थानि । आव० ३९ । अधिकरणप्रवर्तिनी-चक्रमहःपशुबन्धादिप्रवर्तिनी किया, अधुट्ठाण-अभ्युष्टानाम् , अधिकतिसृणाम् । प्रश्न० ७३ । ___ अधिकरणिकीक्रियायाः प्रथमो भेदः । आव० ६११। अधोवमिए - अद्धौपमिकम् - यत्कालप्रमाणमनतिशयिना अधिकरणसाला-अधिकरणशाला, लोहपरिकर्मगृहम् । प्रहीतुं न शक्यते तत् । ठाणा० ९० । भग० ६९७ । अद्भुतम्-वाण्यतिशयः। सम० ६३ । अधिकरणाणं-अधिकरणानां-कलहानां यन्त्रादीनां वोत्पाअधम्मजुत्ते-येन उक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते । दयिता। सम० ३७ । तदधर्मयुक्तम् । ठाणा० २५३ । अधिकरणिखोडी-अधिकरणिखोडी-यत्र काटेऽधिकरणी अधम्मपलजणो-अधर्मप्ररक्तः, अधर्मप्रायेषु कर्ममु प्रकर्षेण | निवेश्यते। भग० ६९७ । रज्यत इति । सूत्र० ३२९ । अधिकरणिसंठिते-अधिकरणीसंस्थितम् । ठाणा० ४३४ । अधम्मपलोई-अधर्मप्रलोकी, अधर्मानेव-परसम्बन्धिदोषा- अधिकरणीतो-चुल्ली। नि० चू० द्वि. १०१ अ । नेव प्रलोकयति-प्रेक्षते इत्येशीलः । विपा. ४८। अधिकासिका-याः सञ्जावेगेनापीडितः सुखेनैव गन्तुं शक्अधम्मो - अधर्मेः, अचारित्ररूपत्वात् । अब्रह्मणः षोडशं नोति ताः । ओघ० १९९ । नाम। प्रश्न० ६६। अधर्मास्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः। अधिके-अर्गले । उत्त० ६६० । ठाणा० ४ ० । अधर्मे-श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरु- अधिक्खाउ-अधिकतरं खाए सो। नि० चू० प्र० १५१ । ज्यादौ । ठाणा० ४८७ । अधर्मास्तिकायः। सम०६। अधिगम-दर्शनभेदः । आव० ५२७ । अविद्यमानसदाचारः। उत्त० ४३४ । । | अधिगरणं-अधिकरणं, अधिकियते-स्थाप्यते-नरकादिवाअधरं-आत्यन्तिकं कारणम् । बृ० तृ० १९ अ । त्माऽनेनेति, अनुष्ठानविशेषः। प्रशा० ४३५ । अधरफाणू-पाणि का । व्य० द्वि० २९९ अ। अधिगरणसि-विरोधे। ठाणा० ४४१ । (६०) 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अधिगरणिया अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अमवत्राप्यता] अधिगरणिया-आधिकरणिकी, अधिकरणेन निवृत्ता। प्रज्ञा० अधोवेदिका-जानुपरधो हस्तयोर्निवेशः। ठाणा० ३६२ । अधिगारो-अधिकारः. नियोगः । प्रश्न० ६६ । [४३५।। अध्यसनं-अजीर्णे भोजनम् । ठाणा० ४४७ । अधिघटिकया-कपिलदरिद्रदृष्टान्तविशेषः । आचा० १६३ ।। अध्यास्यन्ते-सह्यन्ते । प्रज्ञा० ८० । अधिट्ठणं-संगिसेज्जवेढिए चेव उपवेसगं। नि० चू० अध्याहार-व्याख्यानम् । आचा० ५५॥ प्र. २४६ आ । अध्येष्टया-यदृच्छया। सम० ३७ । अधिद्वाणं-अधिष्टानम् । ओघ० १४८ । अध्वर-यज्ञः । उत्त० ५२५ । अधिट्ठिजा-अधितिष्ठत्-योन्याकर्षणेन संगृह्णीयात् । ठाणा | अनंगप्रविष्टं-गणधरानन्तराद्याचार्यदृब्धम्। तत्त्वा० १-२०॥ अनक्कमिन्नेहि-अनस्तितः । भग० ३७२ । अधिट्रेति-परिभुञ्जति। निचू० प्र० २२५ आ। अनग्गओ-अनग्नकः, द्रुमविशेषः । जीवा० २६९ । अधिमरगा-अहिवत् अनपकृतेऽप्यपकारे मारका । नि० चू० अनङ्गसेन-चंपावासिसुवर्णकारः । बृ० तृ० १०८ आ। द्वि० ११ । अनतिचारम्-छेदोपस्थापनीयभेदविशेषः । ठाणा० ३२३ । अधियं-अधिकम् , वर्णादिभिरभ्यधिकं, सूत्रदोषविशेषः । अनतिविलम्बितम्-वाण्यतिशयविशेषः। सम० ६३ । आव० ३७४। अनध्यवसायः-संशयो विपर्ययो वा। आचा० १५० । अधियासितो-अध्यासितः, अधिवासितः । आव० ३४३ । अननुक्रमाद्-पश्चानुपूर्व्या। विशे० २८४ । अधिशय-आश्रयतः। आचा० २५५ ! अनन्तकम्-समयभाषया वस्त्रमिति । ठाणा० ३४६ । अधिष्ठानम्-गुदास्थानम् । दश० ११८ । अनन्तगुणितम्-अनन्तगुणितं, अनन्तशो गुणितम् । विशे० अधीकारो-प्रयोजनम् । बृ० द्वि० २२५ ॥ २६८ । अधीकारवशः-प्रसङ्गः । आचा० २४१ । अनन्तरवल्ली-मात्रादयः षट् । बृ० तृ. ४२ आ। अधीता-अधीता, श्रुतनियद्धा सती पठिता। प्रश्न० १०५। अनन्यत्वद्रव्यशुद्धिः-आदेशतो द्रव्यशुद्धेर्भेदः, यथा शुद्धअधीतान्वीक्षिकीकस्य-दुगृहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य । आचा० दन्तः । दश० २११। २२३ । | अनपनीतम्-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । अधुवं-अध्रुव-नावश्यभाविनम् । प्रश्न० ९६ । प्रातिहारिकम् । नि० चू, द्वि० ११७ आ। अनब्भुवगओ- अनभ्युपगतः, श्रुतोपसम्पदानुपसम्पन्नः । अधुववग्गणा-अध्रुववर्गणा, इतश्चोर्ध्वमित्थमेवैकोत्तरवृद्धि आव० १००। क्रमेण वर्द्धमाना ध्रुववर्गणाभ्य इतरा अनन्ता भवन्ति । अनभिग्रहिकः-मिथ्यात्वविशेषः । ठाणा० २७ । विशे० ३३11 अनममाणे-अनममानान् , निपुणतया सावद्यानुष्टायिनः । अधुवे-न धवः,सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यंभावी। भग. आचा० २५४ । ४६९ । अध्रुवं-स्वल्पकालानुज्ञापनात् । आचा० ३९६ ।। अनर्गलितकपाटम्-उद्घाटकपाटम् । ओघ० १६६ । नित्यो न। उत्त० २८९ । अनर्थकम्-अर्थशून्यम् । आव० ५१। अधो-भूमौ । ओघ० १६२ । अनल -- अनलम्-अभिष्ट कार्यासमर्थ हीनादित्वात् । आचा० अघेणू-सुक्का वञ्झा वा । नि० चू० प्र० ३२७ अ। ३९६ । न अलो अनल:-अपञ्चलः । नि० चू० द्वि० २५ आ। अघोघट्टना-अधो भुवं घट्टयति । ओघ० १०९। अनलगिरी-अनलगिरिः, प्रद्योतस्य हस्ती, तृतीय रत्नम् । अधोणता-गजदंतवत् अवनता। नि० चू० द्वि० ४९ आ। आव० ६७३। अधोदृष्टिता-दोषविशेषः । उत्त० ४९० । अनलसा-उत्साहवन्तः। ओघ0 100। अधोभागा-भूमिभागः । जं० प्र० ३२१ । अनवत्राप्यता-अविद्यमानमवत्राप्यं-अवत्रपणं लजनं यस्य भधोभावो-अधोभावः, तिरस्कारबुद्धिः। आव० ६९९ । | सः, अवत्रापयितुं-लज्जयितुमर्हः, शक्यो वाऽवत्राप्यो भघोविवृतम्-अनाच्छादितममालगृहम् । ठाणा. १५७।। लज्जनीयः न तथा तद्भावः । उत्त० ३९। 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनवगतानि आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अनिष्पन्नातापना अनवगतानि-असङ्कल्पितान्यनालोचितानि । विशे०१४५। अनित्यत्वम्-अतादवस्थ्यम् । जं. प्र. २६ ।। अनवद्याङ्गी-महावीरभगवदुहिता । विशे० ९३५ । अनिद्देस-अनिर्देशदोषः, यत्रोद्देश्यपदानामेकवाक्यभावो न अनवयग्ग-अनवदनम् , अनन्तम् । भग० २४८ ।। क्रियते, एतादृशः सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४ । अनवसर-अनागमः । आचा० १२२ । अनिभृता-निष्ठरवक्रोक्त्यादिरूपा । बृ० प्र० २१३ अ। अनाकारा-सामान्यांशग्रहणशक्तिः । भग० ७३। अनिदोज्ज-अनिर्भयं, अस्वस्थम् । व्य० द्वि० २४३ आ। अनाघात-(अणघायं), अमारिघोषणा। आचा० २६० । अनियहि-अनिवृत्ति-शुक्लध्यानचतुर्थभेदरूपम्। उत्त० ५८९। अनांचारश्रुतम्-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चममध्ययननाम । ठाणा. आ सम्यग्दर्शनलाभाद् न निवर्तते। विशे० ५३५ । अनियट्टी-ग्रहविशेषः। ठाणा० ७९ । जं० प्र० ५३५ । अनाचीम-अनारब्धम् । आचा० १४८॥ अनियओ-अनियतः, अनियतवृत्तिः । उत्त० २६९ । अनायता-(अणाजुत्ता)-लोपकृता। ओघ० १८६। अनियतवृत्ति-अनियतविहाररूपा। उत्त० ३९ । अनियतअनाद्यन्तं-आद्यन्तरहितम् । ठाणा० १२० । विहारः । ठाणा. ४२३।। अनानुगामिक:-अनानुगामिक:-शृङखलाप्रतिबद्धदीप इव यो अनियाओ--अनियता । ओघ. ७३। गच्छन्तं पुरुषं नानुगच्छति । प्रज्ञा० ५३९ । अनियाणे-अनिदानः, न विद्यते निदानमस्येति निराकाङ्क्षोअनाभवद्वयवहार-अस्वामित्वव्यवहार । आव० ८२१ । ___ऽशेषकर्मक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत । सूत्र. २६४ । अनाभोगिक-मिथ्यात्वविशेषः । ठाणा० २७। अनिरक्खिय-क्षिप्तः । आव० ६८१ । अनालीढं-(अणालीढं )-अनवबुद्धः । ओघ ० २२७ ।। अनिरुद्ध-अनिरुद्धः, अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्याष्टमाध्ययअनालोचितानि-असङ्कल्पितान्यनवगतानि। विशे० १४५।। नम् । अन्त. १४ । अनाहो-अनाथः, नाथरहितः, योगक्षेमकारिनायकाभावात्। अनिरुद्धो-अनिरुद्धः, कृष्णवासुदेवापत्यनाम । प्रश्न० ७३ । प्रश्न० ११ । योगक्षेमकारिविरहितः । प्रश्न० १९।। अनिर्विष्ट-न दत्तफलम् । बृ० प्र० ५० आ। अनिवुइ-अनिवृतिः, अस्वास्थ्यनिबन्धना कायादिचेष्टा । अनिंद-अनिन्धम् , सामायिकसप्तमपर्यायः । आव० ४७४ । आव० ४९९ । अनिन्द्रियं-मनः। बृ० प्र० ९आ। अनिल:-अनिलनरेन्द्रः यवराजर्षिषिता । बृ० प्र० १९० आ। अनिकामं-परिमितम् । बृ० द्वि० ४ अ। | अनिलसुओ-अनिलसुतः यवराजा। बृ० प्र० १९१ अ। अनिन्दितः-किन्नरभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । अनिलंछिएहि-अवतिकैः । भग० ३७२ । अनिउणमई-अनिपुणमतिः । आव० ४९२ । अनिवृत्तिकरण - सम्यक्त्वप्राप्तौ करणविशेषः । ठाणा. अनिग्गहे-अनिग्रहः-न विद्यते इन्द्रियनिग्रहः-इन्द्रियनिय- ३१। अनिवृत्तिकरणं, न निवर्तनशीलम् । आव० ७५ । मात्मकोऽस्येति। उत्त. ३४४ ।। अनिवृत्तिबादरः-दर्शनसप्तकलोभोपशमयोरन्तरम् | आव० अनिज्जूहित्ता-अदत्त्वा । भग० ७०१ । अनिद्वं-अनिष्टम् , इष्यन्ते स्मेतीष्टास्तन्निषेधादनिष्टाः । भग० अनिव्वाणि-अनिर्वाणिः-असुखम् । व्य० प्र० ६२ अ । खेदः ( गणि०) अनिता-अनिष्टता, अवल्लभता। भग० २३ । | अनिव्वुइकरो- अनिवृतिकरः, अस्वास्थ्यनिबन्धनकायादिअनिट्ठभओ-अनिष्ठीवकः, मुखरलेष्मणोऽपरिष्टापकः । प्रश्न. चेष्टाकरः । आव० ४९९ । १०७ । | अनिव्वुडं-अचित्तभोजी त्रिदण्डोवृत्तभोजी । दश० चू० ५१ । अनित्थंत्थं - अनित्थस्थं, इदंप्रकारमापन्नमित्थं, इत्थं तिष्ठ- अनिश्रितवचनता-रागाद्यकलुषितवचनता । उत्त० ३९ । तीति इत्थस्थे, न इत्थंस्थं अनित्थस्थं-वदनादिशुषिरप्रतिपुरणेन । अनिष्पन्नातापना-( अणि फण्णायावणा)-आतापनाया पूर्वाकारान्यथाभावतोऽनियताकारमिति । प्रज्ञा० १०९ । । भेदः । औप०-४० । ८२ । 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनिसाइ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अनुसारगतिः] अनि साइ-अनिशादी। सम० २० । | अनुद्धातकृत्सन- कालगुरु निरन्तरं वा। व्य० प्र० अनिसीहं-अनिशीथम् , निशीथाद्विपरीतम् । उत्त० २०४ ।। ११८ आ । बद्धश्रुतम् । आव० ४६४ । अनुद्धरिः-कुन्थुविशेषः, त्रीन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९५ । अनिहुआ-त्रिदण्डिनः। बृ० द्वि० २३५ आ। कन्दर्पबहुला चलनेव कुन्थुः स विभाव्यते । ठाणा० ४३० । मायिनश्च । बृ० तृ० १९५ आ। अनुनादि-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । अनिहो-अनिहः-अमायः, न निहन्यत इति वा परीषहै- | अनुपथ-मार्गमध्यः । आचा० २६५ । रपीडितः, अस्निहः-स्नेहरूपबन्धनरहितः । सूत्र. ४०० ।। अनुपरतम्-उत्सन्नं, बाहुल्येन । आव० ५९० । अनीकाधिपतयः-दंडनायकस्थानीयाः । तत्त्वा० ४-४ । अनुपरिहारकाः-पारिहारकवैयावृत्त्यकराः। ठाणा० ३२४ । अनीहडं-अनिर्गतम् । आचा० ३२५ । अनुप्रवाचयति-(अनुपयाएइ), अनु-परिपाटया प्रकर्षण अनीहारिमे-अनिर्दारितम् । अटव्यादिकृतमनशनम् । भग० विशिष्टार्थावगमरूपेण वाचयति। जीवा० २५४ । १२० । गिरिकन्दरादौ अनशनम् । ठाणा० ९४ | भग० अनुप्रास-अलङ्कारविशेषः । जं. प्र. १४३ । ६२५। अनुप्रेक्षा-मनसा ग्रन्थार्थयोरभ्यासः। तत्त्वा० ९-२५ । अनु-पश्चात् । आव० २४२ । सातत्यम् । उत्त० ६२७ । अनुप्रेक्षितम्-ध्यातम् । ठाणा० १७३ । नुगुणं, अनुलोमं च । जीवा० ३। अनुभवसज्ञा-स्वकृतासातवेदनीयादिकर्मविपाकोदयसमुत्था। अनुगमः-सूत्रस्य न्यासानुकूलः परिच्छेदः । ठाणा० ४। जीवा० १५। संहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः, उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारकलापात्मको वा। सम० ११५ । अनुगमनम् , अनुपातः। उत्त. अनुभूयते-लक्ष्यते । विशे० १७६ । अनुमतं-कामम् । आव० ५२७ । ६३१॥ अनुगामि-यन्मोक्षाय अनुगच्छति। व्य. द्वि० ३९८ अ । अनुमानं - साधनधर्ममात्रात् साध्यमात्रनिर्णयात्मकम् । अनुगामिकता-परम्परया शुभानुबन्धसुखम् । जीवा० २४२। ठाणा० ४९२ । अनुगुणं-अनुकूलमनुलोमं च । जीवा० ३ । अनुयोगद्वाराणि-व्याख्यानानि । आचा०३ । -अभिलङ्घयन् । जीवा० १७५ । अनुग्गहे-अनुग्रहकृत्स्नं, यत् षण्णां मासानामारोपितं पर दिवसा गतास्तदनन्तरमन्यत् षण्मासान् आपन्नस्ततो यत् अनुलेपनेन-सकृश्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन । सम० ११६ । अव्यूढं तत्समस्तं झोषितं पश्चात् यदन्यत् षाण्मासिकमा- | अनुलोम--उत्सर्गः । ओघ०६५। पन्न तहति । व्य० प्र० ११८ आ। अनुलोमवचनसहितत्वं-प्रतिरूपविनयविशेषः । व्य० प्र० अनुज्येष्ठ-पश्चाद्वृत्त्यङ्कः । विशे० ४४३ । २२ अ। अनुज्ञा-विधिः । आव० ७१३ । अनुल्बण-अनुद्भटः । जीवा० २७५ । अनुज्ञातभक्तादिभोजनम् - अदत्तादानविरमणचतुर्थभा- अनुपातनम्-उच्चारणम् । आव• ८३५ । वना । प्रश्न. १२८। अनृतम्-असत्यम् । ठाणा० ५०० । अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणम् - अदत्तादानविरमणद्वितीय- अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रम्-वाण्यतिशयविशेषः । सम० भावना। प्रश्न १२७ । अनुशापनाय-अनुमत्यै । आव० ५४२ । अनैकान्तिकः-हेतुदोषविशेषः । ठाणा० ४९३ । अनुतटभेदः-वंशवत् त भेदः । ठाणा० ४७५ । । अनुशयः-क्रोधः । उत्त० ३७७ । अनुत्संकलितम्-अवितीर्णम् | आचा० ३६। अनुश्रेणि-ऋजुश्रेणिः । उत्त० ५९७ । अनुदिश-उपाध्यायप्रवर्तिनीलक्षणम् । व्य० द्वि० २०० । अनुष्ठान-(अणुटाणं )-विहितम् । आव० ६१९ । अनुदिक् । व्य० द्वि० १९६ आ । व्य० द्वि० २०४ आ। अनुसारगतिः-अनुपातगतिः । सूर्य० १६ । 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनं . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अन्नाणियवाइ] अन्नं-अन्यत् । उत्त० १३७ । मण्डकखण्डखाद्यादिसमस्तमपि अन्नमनघडत्ता-परस्परसमुदायता। भग० ७५८ । भोजनम् । उत्त० ३६९। अन्नमनपुट्ठाई-आगाढाश्लषतः । भग. ७५८ । भन्नति-अनुयन्ति, आगच्छन्ति । ओघ. १२६ । अन्नमन्नवद्धाई-गाढाश्लेषतः। भग० ७५८ । अनंदाई-असूया, अन्यामिदानी वा । आव० ५०९। अन्नमनभारित्ता-अन्योऽन्यभारिकता, अन्योऽन्यस्य यो अन्न-अन्यः । भग. ३१७ । अन्न-भतः । दश० २१६॥ भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्रावस्तत्ता । भग० अन्नालाय-अन्नतिलाए, दोषान्नभोजी। प्रश्न. १०६ ।। २१५। अन्नइलायए-अमं विना ग्लानो भवति । भग० ७०५ | अन्नयरंसत्य-अन्यतरत् शस्त्रम् : सर्वशस्त्रम् , एकधारादिअन्नइलायचरए-अन्नग्लानको दोषान्नभुगिति, अथवा अन्नं शस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पम् । दश० २०१। विना ग्लायकः - समुत्पन्नवेदनादिकारण एव, अन्यस्मै अन्नयर-अन्यतरम् , स्तोकम् । दश० १९८.। प्रतिकूलम् । वा ग्लायकाय भोजनार्थ चरतीति अन्नग्लानकचरकोऽन- आचा० ३४२ ।। ग्लायकचरकोऽन्यग्लायकचरको वा। ठाणा० २९। अन्नयरायम्मि-अन्यतरस्मिन् । उत्त० ५४३ ।। अन्नउत्थिर - अन्यतीर्थिकः, चरकपरिव्राजकभिक्षुभौता- अन्न भण-अन्येनाकृष्यमाणः । ओष० १६५। दिकः । आव० ८११। अन्नलिंगे-अन्यलिङ्गम् , साधुलिङ्गम् । आव० १३४ । अन्न उत्थिता-अन्ययूथिकाः-अन्यतीर्थिकाः। ठाणा० १३५ । अन्नवत्थुवन्नास-अन्यवस्तूपन्यासः, उपन्यासस्य द्वितीयो अनाउत्थिय-अन्ययूथिकः, अन्यतीर्थिकः, चरकादिकः । भेदः । दश० ५५ । 'जीवा० १४३। अन्नवालए-अन्यपाल:-अन्ययूथिकः । भग० ३२३ । भन्नकाले-अन्नकालः, सूत्रार्थपौरुप्युत्तरकालं भिक्षाकालः । अन्नवेल-तत्रान्यस्यां - भोजनकालापेक्षयाऽऽद्यावसानरूपायां सूत्र० ३०१। वेलायां-समये चरतीति । ठाणा० २९८ । अन्नकिचकरो-अन्यतृप्तिकरः। आव० ७२.० । अन्नहाभावो-अन्यथाभावः । बृ० द्वि० २८९ अ । उन्निष्कअनगिलाय-पर्युषितम् । आचा० ३१३ । मणाभिप्रायः । ओघ० ८1। अन्नत्थ-अन्यत्र, परिवर्जनार्थे । प्रज्ञा० २५३ । व्य० प्र० अन्नाइट्रे-अन्याविष्ट:-अभिव्याप्तः। भग० ६८३ । १६४ आ। अन्नाओ-अन्यस्मात् , अन्येन द्वारेण । उत्त० २१९ । अन्नधम्मिय-अन्यधार्मिकः, मिथ्यादृष्टिः । ओघ० २। अन्नाणं-अज्ञानम् , मिथ्याज्ञानम् । उत्त० १५१ । मिथ्याअन्नपर-अन्यपरं-अन्यरूपतया परमन्यत् । आचा० ४१५ । त्वतिमिरोपप्लुतदृष्टेनर्जीवस्य विपर्ययः । विशे० ८७३। द्रव्यअन्नपाणं-अन्नपानम् , ओदनकाजिकादि। उत्त० ३६३ ।। पर्यायविषयबोधाभावः। ठाणा. १५४ा लौकिकश्रतम्। ठाणा. अन्नभयं-परचकभयं । नि० चू० दि० २१ । अन्नभावेणं-अन्यभावः-योऽसौ गन्ता सोऽन्यभावः, उनि अन्नाणतावादा-अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं प्रतिज्ञाः। ठाणा. क्रमितुकामः । ओघ० २२ । २६८ । अन्नमन्त्र-अन्योऽन्य-परस्परं । ठाणा. १६२ । अन्नाणकिरिया - अज्ञानात् वा चेष्टा कर्म वा सा। अन्नमन्त्रओगाढाई-एकक्षेत्राश्रितानि । भग० ७८ ।। -एकक्षत्राश्रिताना भग० ७८ ठाणा. १५३ । अन्नमनगढिया - अन्योऽन्यप्रथिता, परस्परगुम्फिता । अन्नाणदोसे- अज्ञानदोषः-अज्ञानात् - कुशास्त्रसंस्कारात् भग० २१५॥ हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्धयाऽभ्युदअन्नमनगुरुयत्ता- अन्योऽन्यगुरुकता, अन्योऽन्येन ग्रन्थ- यार्थ वा प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषः, अज्ञानमेव दोषः। ठाणा. नाद्गुरुकता-विस्तीर्णता । भग० २१५ । १९०। वनमनगुरुयसंभारियत्ता- अन्योऽन्यगुरुकसम्भारिकता, अन्नाणियवाइ-कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तवेषामस्ति तेऽज्ञानिअन्योऽन्येन गुरुकं यत्सम्भारिक तद्भावस्तत्ता । भग० २१५।। कास्ते च ते वादिनश्चेत्यज्ञानिकवादिनः। भग० ९४४ । (६४) 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अन्नाणी अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अपञ्चक्खाणा ] अन्नाणी-अज्ञानी, मिथ्याज्ञानः । जीवा० ४३९ । ज्ञान- । अन्यपुष्टः (अण्णपुट्ट)-कोकिलः । उत्त० ६५३ । निह्नववादी। सूत्र० २०८ । | अन्योन्यक्रियासप्तकक-सप्तमसप्तकम् । ठाणा० ३८७॥ अन्नाणमूढा-जो सक्कादिमता अन्नाणा णाणबुद्धीए गेहृति, अन्योऽन्यप्रगृहीतम्-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । णो जतिणं हेउसएहिं दंसिय घडमाणमत्थंपि गिहति । अन्योऽन्याविभागसम्बद्ध-क्षीरनीरादिकसम्बद्धम् । आव० नि० चू० द्वि० ४३ अ। ३२२ । अन्नातचरते-अज्ञातः-अनुपदर्शितस्वाजन्यर्द्धिमत्प्रवजिता- अन्वीक्षिष्यामि-अन्वेषयिष्यामि। आचा० २८२ । दिभावः सन् चरति-भिक्षार्थमटतीत्यज्ञातचरकः। ठाणा० अन्वेषयेत्-प्रार्थयेत् । आचा० २९० । २९८ । अन्यतीर्थिकः-सरजस्कादयः । आचा० ३२४ । अन्यानि अन्नायउंछं- अज्ञातोञ्छम् , विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम् । च तान्य हत्प्रणीततीर्थादन्यत्वेन तीर्थानि च-निजनिजादश० २८० । भिप्रायेण भवजलधेस्तरगं प्रति करणतया विकल्पितत्वेनान्यअन्नायएसी- अज्ञातैषी-अज्ञातः-तपस्वितादिमिर्गुणैरनव- तीर्थानि तेषु भवाः, ते च शाक्यसरजस्कादयः। उत्त. गतः एषयते-ग्रासादिकं गवेषयति । उत्त. ४१४।। २९९। अन्नि-अन्यदीयम् । सूत्र. ३०८।। अपइट्टाणे-अप्रतिश्रानः सप्तम्यां नरकावासविशेषः । प्रज्ञा. अन्निआपुत्तो-गङ्गाप्राप्तकेवल आचार्यः । (सं.) अन्निकापूत्रिक-आचार्यविशेषनाम । व्य० प्र० १९२ आ। | अपकर्षणं-हासः । ठाणा. २२२। अन्नितो-अन्वितः-युक्तः। उत्त० ४४८ । अपकसंती-परिहसन्ती नीयमाना वा। ठाणा० ३२८ । अन्नियपुत्ता-अर्णिकापुत्राः, वैनयिक्यामाचार्याः । आव० | अपकिट्ठ-अपकृष्टम् । किञ्चिदूनम् । भग० २९२ । अपक्खग्गाही-अपक्षग्राही, न पक्षं शास्त्रबाधितं गृहाति अन्नियपुत्तो-अन्निकापुत्रः, आर्यिकालाभद्वारे आर्यिका- | इति। ठाणा० ४४१। । ऽऽनीताहारभोक्ता आचार्यः। आव० ५३७ । अपक्खो -कालपक्खो। नि० चू० द्वि० ३३ आ। अन्ने - नानादेशापेक्षया गौरवकुत्सादिगर्भमामन्त्रणवचन- अपचयद्रव्यमन्दः- कृशशरीरतया प्रवासै न कतुमीष्टे । मिदम् । दश० २१६ । बृ० प्र० ११३ ।। अन्नेसमाण-अन्वेषमाणः, भगवदाज्ञामनुपालयन् । दश० अपचयभावमन्दः-बुद्धेरभावेन हिताहितप्रवृत्ति-निवृत्ती न १८७ । कर्तुमीशः । बृ० प्र० ११३ अ । अन्नेसिं-अन्वेषयेत्- गवेषयेत् । आचा० ७७ । अपश्चक्खाणकसाए-देशविरतिप्रतिबन्धको मोहः । सम. अन्नो-अन्यदीयम् । सूत्र० ३०८ । अन्नोन्नं-अन्यदन्यद् । ओघ० १४३ । अपञ्चक्खाण करिआ-सूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धाभ्ययनअन्नोन्नकारणं-परस्परवेयावृत्यकरणम् । बृ० द्वि० २९२ । । विशेषः। सम० ४२। अन्नोन्नघडत्ता - अन्योऽन्यघता, परस्परसम्बद्धता । अपञ्चक्खाणकिरिया-अप्रत्याख्यानक्रिया, विंशतिक्रियाजीवा. ९३ । मध्ये पञ्चमीक्रिया। आव. ६१२। अविरतिस्तनिमित्तः अन्यत्वम् - अनगारद्वयसम्बन्धिनो ये पुद्गलास्तेषां भेदः। कर्मबन्धः । ठाणा०४१ । निवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धभग० ७४१। कारणम् , सम्यग्दृष्टश्चतुर्थी क्रिया। प्रज्ञा०३३४ । प्रत्या अन्यत्वद्रव्यशुद्धि-अन्यद्रव्य , आदेशतो द्रव्यशुद्धे. ख्यानक्रियाया अभावः, अप्रत्याख्यानजन्यः कर्मबन्धो वा । भैदः, यथा शुद्धवासा । दश० २११। भग० १०१। अन्यद्रव्यनानाता-परमाणोद्वपेणुकादिभेदभिन्नता । आव० अपञ्चक्खाणा-अप्रत्याख्यानः। प्रज्ञा०४६८। कषाया एव । २८१ । आव० ७७ । देशविरत्यावारकः । ठाणा. १९४ । 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अपचलो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अपयं] - अपश्चलो-अपञ्चलः, असमर्थः । आव० ५३७ । अयोग्यः। अपत्तियं-अप्रीतिकम् । आव० २७३ । अपात्रिकाम्-अविद्य. नि० चू० द्वि० २५ आ। मानाधाराम् । भग० ७०५। अपच्छिम-अपश्चिमम् , चरमम्। आव० ५४४ । पश्चात्काल- अपत्तियंते-अप्रत्येति । बृ० द्वि० २२८ आ। भाविन्यः। सम० १२० । अपत्थं-अपथ्य-अहितम् । उत्त० २७६ । अपच्छिमा-अपश्चिमा। आव० ८३९ । पश्चिमैवामङ्गल. अपस्थिअपत्थिआ-अप्रार्थितप्रार्थकः । आव. १९२। परिहारार्थमपश्चिमा। ठाणा० ५७ । अपत्थियपत्थए-अप्रार्थितं प्रार्थयते यः सः । भग० १७४ । अपजतं-अपर्याप्तम्-अशक्तः। उत्त० ४०८ । अपदसो-पित्तारु । नि० चू० प्र० ११७ अ । अपज्जत्ता - अपर्याप्ता, पर्याप्तभाषाविपरीतो भाषाभेदः । अपदपतितं। जीवा० १९९। अपद्रापयेत्-जीविताद्वयपरोपयेत्। आचा० ४२८ । दश० २१०। अपजत्तिया-अपर्याप्तिका, या मिश्रतया उभयप्रतिषेधात्मक अपदलम्-अपशदं द्रव्यं (दलं) कारणभूतं मृत्तिकादि यस्यातया वा न प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा, सावपदलः, अवदलति वा दीर्यत इत्यवदलः आमपक्कतया ऽसार इत्यर्थः । ठाणा० २७९ । . भाषाया द्वितीयो भेदः । प्रज्ञा० २५५। अपज्जोसवण-अपत्ते अतीते वा जो पज्जोसवति । नि० अपदावन्ति-प्राणान्मुञ्चन्ति । आचा० ५५।। चू. प्र. ३३६ । अपद्वार-कुत्सितद्वारम् । ठाणा० ४०२। अपेद्वारिका-(अवदारिआ)-स्थान विशेषः । बृ० द्वि० अपडिकम्म-शरीरप्रतिकर्मवर्जितम् । भग० ६२६ । । २७२ आ। अपडिण्णे-अप्रतिज्ञः, नास्य प्रतिज्ञा विद्यते। आचा० १३२ । अपध्यानम्-विस्रोतसिका। आव० ६०२ । अनिदानो, वसुदेववत् संयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोति। अपनीतः-विधूतः प्रकम्पितो वा। आव० ५०७ । आचा० १३३ । यदि वा स्याद्वादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागम- अपनीता-विनाशिता। ओघ. ४६। स्यैकपक्षावधारणं प्रतिज्ञा तद् रहितः । आचा० १३३ । अपभ्रंशः -तत्तद्देशेषु शुद्ध भाषितम्। जं० प्र० २५९ । अनिदानः । आचा० ३०६ । . अपमज्जियं-अप्रमार्जितम् , द्वितीयासमाधिस्थानम् । आव० अपडिबद्धया - अप्रतिबद्धता, स्वजनादिषु स्नेहाभावः । अपमजियचारि-अप्रमार्जितचारी, असमाधिस्थाने द्वितीयो भग. ९७ । अपडिभाणी-अप्रतिभाषी। आचा० ३०६ । भेदः । सम० ३७। अपडिरूवा-अप्रतिरूपा । उत्त० ११३ । अपमजियदुप्पमज्जियसिजासंथारप-अपमार्जितदुष्प्रअपडिलेह-अल्पार्थे नञ् , ततोऽप्रत्युपेक्षित इति अल्पोप मार्जितशय्यासंस्तारकः, शय्यादेश्चक्षुषा न प्रत्युपेक्षगं, शय्याकरणत्वादल्पप्रत्युपेक्षः। उत्त० ५९० । देरुद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षगं दुष्प्रत्युपेक्षगं यस्य सः । आव. अपडिवाती-अवधिज्ञानभेदः । ठाणा० ३७०। अपमत्ते-अप्रमत्तः-निद्रादिप्रमादरहितः । आचा० ३०७ । अपढमसमयनियंठो - अप्रथमसमयनिग्रन्थः, यः शेषेषु अपमानभीरु-भिक्षां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव वेश्मनि समयेषु वर्तमानः सः। उत्त० २५७। प्रवेष्टमिच्छति, यदि वा 'ओमाण' ति प्रवेशः, स च स्वपक्ष. अपतिट्टिए-अप्रतिष्ठितः - आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवलं परपक्षयोस्तद्भीरुहिप्रतिबन्धेन मा मां प्रविशन्तमवलोक्यान्ये क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सः । ठाणा. १९३ । .. साधवः सौगतादयो वाऽत्र प्रवेश्यन्तीति । उत्त० ५५२ । अपत्तं-अपात्रं-अभाजनम् । नि० चू० तृ. ८० अग अपमित्यका-षष्ठः शबलदोषः । प्रश्न. १४४ । अपत्तपडिच्छण-अप्राप्तामपि वेलाम् प्रतिपालयति। ओघ० | अपयं-अपदम् , पद्यविधौ पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभि धानम्। सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४ । न विद्यते पदम्अपत्ति-अप्रीतिः । आव० २०१ । अवस्थाविशेषो यस्य स । आचा० २३१। 2010_05 For Private Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अपयाण अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः अपरिसार्डि ] अपयाण - अपादानं - मर्यादया दानं (खण्डनं) । आव ० २७८ । । अपरिखेदितं वाण्यतिशयविशेषः । सम ० ६३ । अपया - लोमसीआदि । नि० चू० प्र० ३ आ अपर संयमः । आचा० १६७ । अपरच्छं- अपराक्षम् असमक्षं, अधर्मद्वारस्य त्रिंशत्तमं 'अपरिगहियागमणे - अपरिगृहीतागमनम् वेश्या अन्यसत्कगृहीतभाटी कुलाङ्गना अनाथा वा तस्या गमनंमैथुनासेवनम् । आव० ८२५ । अपरिग्गहो - अपरिग्रहः, धर्मोपकरणवर्जपरिग्राह्यवस्तुधर्मोपकरणमूर्द्धावर्जितः । प्रश्न० १४२ । न विद्यते धर्मोपकरणादृते शरीरोपभोगाय स्वरूपोऽपि परिग्रहो यस्य सः । सूत्र ० ४९ । अगीतार्थः तदायत्ताश्च । व्य० प्र० २३३ अ । " नाम प्रश्न० ४३ । अपरद्धो- अपराद्धः, व्याप्तः । आव० १०८ । अपरमं - दुक्खम् । दश० चू० ६२ । अपरमविद्धम् - वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । अपराइआ वप्रावतीविजये अपराजिता राजधानी । जं० अपरिणत- अमार्गस्थः । आव० ८५१ । प्र० ३५७ । अपराइए - प्रतिवासुदेवनाम । सम० १५४% अपराइय- पद्मबलदेवस्य पूर्वभवनाम | सम० १५३ । अपराजिअ - अपराजितः, अरजिन प्रथमभिक्षादाता | आव ० १४७ । अपराजिआ - अपराजिता, राजधानीनाम। जं० प्र० ३५२ । पौरस्त्य रुचकवास्तव्याऽष्टमी दिकुमारी । जं० प्र० ३९१ । रात्रिनाम । जं० प्र० ४९१ । चन्द्रस्याप्रमहिषीनाम | - जं० प्र० ५३२ । पद्मबलदेवमाता। आव ० १६२ | अपराजिए - ग्रहविशेषः । ठाणा० ७९ । अपराजित - जगतीद्वारनामविशेषः । सम० ८८ । अपराजिता - अपराजिता, अञ्जनपर्वते पुष्करणीविशेषः । ठाणा० २३१ । अनुत्तरोपपातिकविमानं विशेषः । प्रज्ञा० ६९ । अपराजिते - जगतीद्वारनामविशेषः । ठाणा० २२५ । अपराजिय- कुन्थुजिन प्रथमभिक्षादाता | सम० १५१ । अपराजिया - अपराजिता - सैद्धान्तिकरात्रिनाम | सूर्य १४७ । अष्टमबलदेवमाता । सम० १५२ । अङ्गारकमहाग्रहस्याग्रमहिषी । भग० ५०५, ठाणा० २०४ । सुविधि नाथदीक्षा शिबिका । सम० १५१ | विदेहेषु राजधानीविशेषनाम । ठाणा० ८० । राजधानीविशेषः । ठाणा० ८० | अपराधालोचना-आलोचनाभेदः । व्य० प्र० ४८ आ । अपरिआविआ अपरितापिताः, स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमनः परितापाः । जं० प्र० १२६ । अपरिकम्म- अपरिकर्म-व्याघाते गिरिभित्तिपतनाभिघातादिरूपे संलेखनामविधायैव भक्तप्रत्याख्यानादि क्रियते तत् । उत्त० ६०३ । अपरिक्खि उ- अनालोच्य । नि० चू० प्र० ९८ आ । 2010_05 अपरिणते - भोजन परिणत्यभावः । ओघ २३ । अपरिणय - सेहप्रायः । ओघ ० ८९ । कालग्रहणभावोऽपगतोऽन्यचित्तो वा जातः । ओघ ० २०३ । अपरिणतः एषणादोषविशेषः । आचा० ३४५ | अविध्वस्तः । आचा० ३४८ । अपरिणामा - अपरिणामाः, अपरिणतजिनवचन रहस्या । विशे० ९३१ । अपरिणामिकः । व्य० प्र० ७२ अ । अपरितंतजोगी - अपरितान्तयोगी, अविश्रान्तसमाधिः । अन्त० २३, अनुत्त० ४ । अपरितान्ताः - अश्रान्ताः योगाः - मनःप्रभृतयः सदनुष्टानेषु यस्य सः । प्रश्न० १०९ । अपरितंतो- वैयावृत्त्यादौ अनिर्वेदी । बृ० तृ० ९२ आ अनिविगो | बृ० प्र० २२१ अ । अपरिताविय- अपरितापितः, स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमनः परितापः । जीवा० २८४ । 'अपरिपुण्णं- अपरिपूर्णम्, सद्गुणविरहातुच्छम् । सूत्र० ३२६ । अपरिभुक्तं- अपरिभुक्तम् | आचा० ३२५ । अपरिभुक्त्त - अपरिभुक्तः, अनाक्रान्तः । ओघ० ५७ ॥ -- अपरिमाण- अपरिमाण:- अनन्तः । आचा० २४१ । अपरिमितम्-अमितम् । आव० ५९५ । अपरिमियपरिग्गहं- अपरिमितपरिग्रहः । आव० ८२५ । अपरिमियमणंता - अपरिमितानन्ताः - अत्यन्तानन्ताः । प्रश्न० ९२ । अपरियाइत्ता- अपर्यादाय-समन्तादगृहीत्वा । ठाणा० २० । अपर्यादाय- अगृहीत्वा । भग० ६४३ । जीवा० ३७५ । ठोणा० ४६ । अपरियाणित्ता - अपरिज्ञाय । ठाणा० ४६ । अपरियावणया- शरीरपरितापानुत्पादनेन । भग० ३०५ अपरिसाडि - अनवयवोज्झनम् । भग० २९४ । ( ६७ ) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अपरिसाडि आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अपुत्तो ] अपरिसाडि-अपरिशाटि, परिशाटिवर्जितम् । प्रश्न० ११२। अपहृतान्योत्तरम्-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । अपरिसाडी-वंसकंषिमादी। नि० चू० प्र० १६८ अ। | अपाईणवार-अप्राचीनवातः, यः प्रतीच्या दिशः समागच्छति अपरिसुद्ध-अपरिशुद्धम् , अयुक्तियुक्तम् । आव० ५७६ ।। वातः स । प्रज्ञा० ३० । अपरिस्साह-न परिश्रवति-नालोचकदोषानुपश्रुत्यान्यस्मै अपाचीनः-अशुभैः । आचा० २५० । प्रतिपादयति य एवंशीलः सोऽपरिश्रावीति । ठाणा० ४२४ । अपान्तरालम्-अबाधा। जीवा० ९४ । अपरिस्सावी-अपरिश्रावी-अबन्धको निरुद्धयोगः । भग० अपान्तरालसामान्यम्-वृक्षत्वगोत्वगजत्वादिकम् । विशे० ८९१ । अझरकः ( आउ०) अपरिहत्थो-अदक्षः । आव० ५६७ । अपायं-अपादम् , विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात् पादवर्जितं अपरिहरिता- अपरिहृत्य - द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा । गद्यगुणः । दश० ८८। आचा० ३६६ । अपाय-सम्यग्सम्यगिति गुणदोषविचारणाध्यवसायापनोदः । अपरिहारिया-अपरिहारिका-साधर्मिकाः। आचा० ३५२।। __ तत्त्वा० १-१५। अपरीत्ता-साधारणशरीराः । ठाणा० १३२ । अपायतो-विश्लेषतः । ठाणा. ४२८ । भपर्याप्ति-तत्परिणामयोग्यदलिकद्रव्यमात्मना नोपात्त (सन्नपि अपारंगमा-अपारङ्गमाः, पारः-तटः परकूलं तद्गच्छन्तीति तत्पुद्गलेषु स परिणामो रुध्यते)। तत्त्वा० ८-१२। पारङ्गमाः न पारङ्गमाः अपारङ्गमाः । आचा० १२४ । अपवरगो-अपवरकः । जीवा० २६९ । अपवरकम् , अपावते-अपापक:- शुभचिन्तारूपः । ठाणा० ४०९ । अन्तहम् । ओघ० १५३ ।। अपावभाव-अपापभावः, शुद्धचित्तः । दश० २३ । अपवरिका-अपवरकम् । व्य. द्वि. २०७ आ। अपाश्रयः-आधारः। विशे० ४१५। अपवर्तनम्-कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण हीनताक- अपिः - सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगर्हाशिष्यामर्षणभूषणरणम् । भग० २५ । उपक.मैरायुष्कस्य शीघ्रः पाकः। तत्त्वा० प्रश्नविति। ठाणा० ४९५। बाढम् । जीवा० १९८ । विद्यमानः। २-५२ । आव० ४५० ।च | उत्त० १८२ । इति । ओघ०३६ ।यथाअपवर्तना-हानिकरणम् । सूर्य 1१३ । शब्दार्थः, समुच्चयार्थश्च । आचा० ६५। पुनः । आचा. अपवर्तयन्-तिरश्चीनं कुर्वन् । आचा० ३४३। २८२ । बाढार्थे । जं० प्र० ४६ । एक्कारार्थे । आव. अपवादः-करणं, विशेषवचनं च। ज. प्र. ५४१ ।। ५०९ । अभ्युपगमवादसंसूचकः । आव० ५३१ । बाढम् । विभाग: । नि० चू० तृ. १.५ आ। जं० प्र० ४१३। । अपवादम्-प्रवचनरहस्यम् । बृ० प्र० १३१ अ। अपिट्टणया-यष्टयादिताडनपरिहारेण । भग० ३०५ । अपवादापवादरूपम्-शाक्यादीनां प्रयोजने र द्राज्ञो विज्ञाप- अपियत्ता-अप्रियता, सर्वेषामेव द्वेष्यतया। भग० २३ । नम् । ठाणा० ३१२ । । अपीओ-अपीतः, न पीतः। उत्त० ८७ । अपव्वावितो-न प्रत्रजितः न मुंडितानि कृतानि । व्य. पूज्यः, अवन्दनीयः। आव. ५१९ । द्वि० २८ आ। .. अपुटुवागरण-अपृष्टव्याकरणम् , अपृष्टे सति प्रतिपादनम् । अपसत्थविहायगति - अपशस्तविहायोगतिः - नामकर्म- भग. १५७ ।। विशेषः । प्रज्ञा० ४७४ । अपुणरावत्तयं-अपुनरावर्तकम्ः, कर्मबीजाभावाद्भवावतारअपसिणा-अप्रश्नाः-या पुनर्विद्या मंत्रविधिना जप्यमाना | रहितम्। भग० । अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः । सम० १२४ । अपुणरावित्ति-अपुनरावर्तकम्-अविद्यमानपुनर्भवावतारम् । अपसू-अपशुः-द्विपदचतुष्पदादिरहितः । आचा० ४०३ । सम० ५ ।। अपहार-मत्स्यः । ठाणा० ३०९ । ... अपुत्तो-अपुत्रः, स्वजनबन्धुरहितः, निर्मम इत्यर्थः । आचा० अपहुप्यते-अप्रभवति , अपूर्यमाणे । पिण्ड, ८८। । ४०३ । 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अपुल्फिय अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः अप्प ] अपुष्फिय- अपुष्पितं - तरिका रहितम् | ओघ० १२२ । मच्छम् || अपं- अल्पम्, मूल्यत एरण्डकाष्ठादि । दश० १४७ । अभावः स्तोकं वा । आव० ५८६ । बृ० प्र० ६८ अ । अम- नपुंसकम् | ओघ ० ९० । अप्पइट्ठाणे - अप्रतिष्ठानः । सम० २ | मोक्षः । आचा० २३१| अपुरिसंतरकडे - अपुरुषान्तरकृतं - तेनैव दात्रा कृतम् । अप्पइट्टिते - अप्रतिष्ठितः - निरालम्बन एव केवलक्रोधवेद'नीयादुपजायते यः क्रोधः । प्रज्ञा० २९० । आचा० ३२५ । अपुरिस - अपुरुषः, नपुंसकः । ठाणा० ३७२ | अवो - अपूर्वः, अननुभूतपूर्वोऽनुभूतपूर्वो वा । अनु० १३७ । अपुव्वं - अपूर्वम्, अपूर्वकरणम् । आव ० ८५२ । अपूर्वश्रुत प्रत्याख्यानम् - आतुर प्रत्याख्यानादिकम् । आव ० ४७९ । अप्राप्तपूर्व स्थितिघात- रसाघाताद्यपूर्वार्धनिर्वर्तकम् | विशे० ५३५ | वृत्तपूर्वम् । आव ० २३०, बृ० प्र० १९४अ । अव्वकरणं- अपूर्वकरणं- असदृशाध्यवसायविशेषम् । भग ४३६ । अप्राप्तपूर्वम् । आव० ७५ । सम्यक्त्व प्राप्तौ करणविशेषः । ठाणा० ३१ । अपुहुत्ते - अपृथक्त्वं अपृथग्भावः, चरणधर्मसङ्ख्याद्रव्यानुयोगानां प्रतिसूत्रमविभागेन वर्तनम् । आव० २८५ । अपृथकत्वानुयोगः - एकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते । दश० ४ । , उत्त० ५९ । अपूरेंतो- अपूरयन् अकुर्वन् । आव० २७१ । अकुर्वन्, अप्पक्खमं - आत्मक्षमां - आत्महिताम् । ओघ० १८९ । अनाचरन् । आव० २६३ । अप्पक्खरं - अल्पाक्षरम्, सूत्रगुणः । आव० ३७६ । अप्पra - अल्पार्धम्, स्वल्पमूल्यम् । भग० १९९ । अप्पच्चओ - अप्रत्ययः, प्रत्ययाभावः । अधर्मद्वारस्य चतुर्वि - शतितमं नाम । प्रश्न० २६ । अप्रत्ययकारणत्वात् । अधर्मद्वारस्य सप्तदर्श नाम । प्रश्न० ४३ । अप्पच्चक्खाण-अप्रत्याख्यानम्, सर्वप्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानं च येषां उदये न लभ्यते । विशे० ५४४ । अप्पच्चक्खाय· अप्रत्याख्याय - अनिराकृत्य । उत्त० २६६ । अप्पच्छन्दमईओ-आत्मच्छन्दमतिः, आत्मच्छन्दा- स्वाभिप्रायकार्यकारी | आव० १०० । अप्पजूहिए- सिद्धेऽप्योदनादिके । आचा० ३३५ । अप्पज्झं-आत्मवशं स्वस्थचित्तम् । बृ० द्वि० २१० अ । अप्पज्झाणं- आत्मध्यानम्, अमुकोऽहं अमुककुले अमुमसिस्से अमुगधम्माट्ठइए न य तव्विराहणेत्यादिरूपम् । प्रश्न० १२८ । अपझंझे- अल्पझञ्झः, अविद्यमान कलहविशेषः । औप० ३९ । अपूर्वभक्तिकम् - अपूर्वरचनाकम् | ठाणा ० ४०१ | अपेक्षाकारणम् - दिग्देशकालाकाशपुरुषचकादि । ठाणा० ४९४ । अपेज -अपेयम् । जीवा ० ३७० । अपेयम् सुरादिकम् । व्य० प्र० ८ अ । अपोद्धारः - साक्षादुक्तिः । आचा० ४९ । निरास: । आव ० ३०९ । अपोरसीय- अपौरुषेयम्, अपुरुषप्रमाणम् । भग० २९० । अपोरुसियं-अपौरुषेयम्, पुरुषप्रमाणरहितम् । भग० ८२ । अपोह-अपोहः, पृथग्भावः । ओघ १२ । अपोहनं निश्चयः । आव ० १८ । विपक्षनिरासः । भग० ४३३ । अपोहनमपोहोनिश्चयः । विशे० २२६ । अप्पकार - अप्रतीकारम्, सूतिकर्मादिरहितम् । प्रश्न० २२ ॥ अप्प उलिओ सहिभक्खणया- अपकौषधभक्षणता । आव ० ८२८ । अप्पर - शरीरे । आव ० ५५५ । अप्पकम्मपश्चायाते - अल्पकर्म प्रत्यायातः - अल्पैः - स्तोकैः कर्म्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः - प्रत्यागतो मानुषत्वमिति, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा लघुकर्म तयोत्पन्नः । ठाणा १८० । अप्प किरियतराप - अल्पक्रियत्वम् - तथाविधकायिक्यादिकष्ट कियाsपेक्षम् | भग० ७६९ । अप्पकुक्कुई - अल्पकौत्कुचः, अल्पस्पन्दनः, अल्पं-असत् 'कुकुयं ' कौत्कुचं - करचरणभ्रूभ्रमणायसचेष्टात्मकमस्येति । ( 2010_05 अपोहए - यदादिष्टं गुरुभिरेवं निश्चिनोति । विशे० ३०३ । अपोहते - एवमेतत् यदादिष्टमाचार्येणेति पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति करोति च सम्यक्तदुक्तमनुष्ठानमिति । आव० २६ । (६९) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अप्पझंझा अप्पझंझा - अल्पझंझाः - विगततथाविधविप्रकीर्णवचनाः । ठाणा० ४४२ । अप्प डिकुट्ठाई - अप्रतिकुष्ठे-अनिवारिते । ठाणा० ९३ । अप्प डिबद्धे - अप्रतिबद्धः - मनसि निरभिष्वंगता । उत्त० ५८७ अप्प डिवुज्झमाणे - अप्रतिबुद्धयमानः - शब्दान्तराण्यनवधारयन् अप्रत्युद्यमानो वा - अनपहियमाणमानसो । भग० ४८३ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अप्पडिले हियदुपपडिले हियउच्चारपासवणभूमि- अ'प्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखितोच्चार प्रश्रवणभूमिः - पौषधेऽतिचारः । आव० ८३५। अप्पडिलेहियदुप्पडिले हियसिज्जासंधारण - अप्रतिले खितदुष्प्रतिलेखितशय्या संस्तारकः - पौषधेऽतिचारः । आव ० ८३५ । अप्पडिलेहियदू से - अप्रतिलेखितदूष्यः । ठाणा० २३४ । अपडिले हियपणयं - अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चकम्, दूष्यपञ्चकस्य प्रथमो भेदः, तूल्यु १ पधानक २ गण्डोपधाना ३ लिङ्गिनी४पोतमय मसूर ५भेदभिन्नम् । आव० ६५२ । अप्प डिवाइ- अप्रतिपाति, अनुपरतस्वभावम् । आव० ६०८ । अप्प डसुणणं- अप्रतिश्रवणम्, अप्रतिश्रोता । आव ०७२६ । अप्पडि सेवी - अप्रतिसेवी-न कुत्सितं कर्म आचरति । ओघ० १६५ । अप्प डिहओ - अप्रतिहतः, सौगन्धिकानगर्यधिपतिः । विपाο ९५ । अप्पड - अपत्ता । निः चू० प्र० १६९ अ । अप्प डिह - अप्रतिहतं, अप्रतिस्खलितम् । जीवा ० २५६ । अप्पsिहयपञ्चकखायपावकम्मे - अप्रतिहत प्रत्याख्यात अपर्ण - अर्पण, प्राधान्येन विवक्षणम् । विशे० १२७७, ७७१। अप्पणच्चिय- आत्मीयम्, स्वकीयम् । भग० १३२ । अपणट्टा - आत्मार्थम्, आत्मनिमित्तम् । दश० २४९ । अप्पडिरूवा - अप्रतिरूपा । आव० ६७५ । अप्पडिरूवे - अप्रतिरूपः, अविद्यमानं प्रतिरूपमतिप्रकर्षवत्त्वेनानन्यतुल्यमस्येति । उत्त० १८८ । अपडिलेहणा - अप्रत्युपेक्षणा, मूलत " एव चक्षुषाऽनिरी- अप्पणियं - आत्मीयं । आव ० १८९ । अप्पणिया - आत्मीया । आव० २१२ । अप्पतिट्ठाणं- अप्रतिष्ठानम्, नरकविशेषः । आव० ३४८ । अप्पतुमतुमा - अल्पतुमन्तुमाः - - विगतकोधकृतमनोविकारविशेषा: । ठाणा ४४२ । क्षणा | आव० ५७६ । अप्पतुमतुमे - अल्पम् - अविद्यमानं त्वं त्वमिति स्वल्पापराधिन्यपि त्वमेवं पुराऽपि कृतवान् त्वमेवं सदा करोषीत्यादि पुनः पुनः प्रलपनं यस्य सः । उत्त० ५८९ । अप्पते अं- अल्पतेज:- तेजशून्यः । दश० २७६ । अप्पत्तियं- अप्रीतिकम् । उत्त० ९० । दश० चू० १२५ । पच्चामरिसकरणम् । नि० चू० प्र० ३१ अ। मनसः पीडां कुर्यात् । आचा० ४०५ । क्रोधः । सूत्र० ३४ । अप्रेम | भग० २९२ | मनसः दुष्प्रणिधानम् । सूत्र० ३३१ । अपपरिकम्मं - तूननं, सन्धानं दशाछेदनं वा । बृ० द्वि० २०२ आ। अपपाणं - अल्पप्राणम्, अल्पा:- अविद्यमानाः प्राणा:- प्राणिनो यस्मिंस्तत्, अवस्थितागन्तुकजन्तुविरहितम् । उत्त०६० । अपपुण्णेहिं-अपुण्यैः-अनार्यैः पापाचारैः। आचा० ३०३। पापकर्मा, न प्रतिहतं तपोविधानेन मरणकालादारात्क्षपितं प्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्याश्रवनिरोधेन पापकर्म येन सः । न प्रतिहतं सम्यग्दर्शन प्रतिपत्तितः प्रयाख्यातं च सर्ववर 2010_05 अप्पमजणा ] यङ्गीकरणतः पापकर्म-ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म येन सः । भग० ३६ । अप्पsिहयवरनाणदंसणघरे - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः, योऽप्रतिहते ककुय्यादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वा वरे - प्रधाने ज्ञानदर्शने - विशेषसामान्य बोधात्मके धारयति सः । भग० ७ । अपsिहो - अप्रतिघः ( भक्त० > अप्पभाए-अप्रभातः । आव ३०१ । अप्पभक्खी - अल्प लघुभक्षी - अल्पानि स्तोकानि लघूनि निः साराणि निष्पावादीनि भक्षयितुं शीलमस्य । उत्त० ४२० । अप्पभु - अप्रभवः मृतकादयः । ओघ १६३ । अप्पभूतं - अल्पभूतां अल्पां । ठाणा० २९४ । अप्पमजणा- अप्रमार्जना, मूलत एवं रजोहरणादिनाऽस्पर्शना । आव० ५७६ । (७०) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अप्पमजिय० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः अप्पाहारे ] अप्पमजिय दुष्प मजिय उच्चारपासवणभूमी - अप्रमा- | अप्पसत्थाओ - अप्रशस्ताः- आश्रेयस्योऽनादेयाः। ठाणा ०१७५॥ जितदुष्प्रमार्जितोच्चारप्रश्रवणभूमिः - पौषधेऽतिचारः । आव ० अप्पसद्दा - अल्पशब्दाः - विगतराठीमहाध्वनयः । ठाणा० ८३५ । अप्पमत्तो - अप्रमत्तः, गुरुपारतन्त्र्यापहारिप्रमादपरिहर्त्ता । उत्त० २२३ | अप्रमत्तसंयतग्रामः भूतग्रामस्य सप्तमं गुणस्थानम् । आव० ६५० । आत्महितेषु जाग्रन् । आचा० १७२ | प्रयत्नवान् । ओघ० २२१ । अप्पमाए- अप्रमादः, योगसङ्ग्रहे षड्विंशतितमो योगः । आव० ६६४ । अकर्मकम् । सूत्र० १६९ । अप्पमाओ - अप्रमादः, उत्तराध्ययनेषु एकोनत्रिंशत्तममध्ययनम् । उत्त० ९ । सम० ६४ । उवओगपुव्वकरणक्रियालक्खणो । नि० चू० प्र० २९ अ । अप्पमाणभोती - अप्रमाणभोजी, द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहार भोक्ता । प्रश्न- १२५ । अप्पमतो - अप्रमादः प्रमादवर्जनम्, अहिंसाया एकोनपञ्चाशत्तमं नाम । प्रश्न० ९९ । अप्पयं - आत्मानम् । अल्पमेव वा । उत्त० ९० । अप्पयाणयं- अप्रयाणम् । आव० ३८५ अप्परए - अल्परतः, अल्पं-अविद्यमानं रतमिति क्रीडित मोहनीय कर्मोदयजनितमस्येति, लवसप्तमादिः, अल्परजाः, प्रतनुबध्यमानकर्मा | उत्त० ६७ । अप्परिसाडियं- अपरिसाटिकम्, परिसाटविरहितम् । उत्त० ६१ । अपरिहारिए अपरिहारिकः पार्श्वस्थावसन्नकुशील संसक्त यथाच्छन्दरूपः । आचा० ३२४ | अप्पलीयमाणा - अप्रलीयमानाः - अनभिषक्ताः । आचा० २४१ । अप्पलेवा - अल्पलेपा, निर्लेपा, चतुर्थी पिण्डैषणा । आव ० ५७२ | अप्पलेवा - जस्स दिजमाणस्स निष्पावचणगादिगस्स लेवो ण भवति सा । नि० चू० तृ० १२ अ । अप्पवणिजोदग - अपातव्यजला मेघाः । भग० ३०६ । अपट्टिकाए - अल्पवृष्टिकायः, अल्पः - स्तोकोऽविद्यमानो वा वर्ष वृद्धिः - अधःपतनं वृद्धिप्रधानः कायो-जीवनिकायो व्योमनि तदपकाय इत्यर्थः वर्षणधर्म्मयुक्तं वोदकं वृष्टिः, तस्याः कायो - राशिर्वृष्टिकायः अल्पश्वासौ वृष्टिकायश्चाल्पवृष्टिकायः । ठाणा १४१ । 2010_05 ४४२ । अप्पससरक्खं अल्परजस्कम् । आचा० ३३७ । अप्पसागारियं - अल्पसागारिकम् । आव० १.९५ । अल्प गृहस्थम् । उत्त० ९० । आव० ३५८ । अप्पसावजं - अल्पसावद्यम् अपापं स्तोकपापं वा । आव० ५८६ । | अप्प साहणो - अल्पसाधनः, बलादिरहितः । आव ० ७१२ । अप्पहाणो- अप्रधानः, लघुः । उत्त० १४९ । अप्प हिट्ठे- अप्रहृटम्, अहसन् । दश० १६६ | अप्पा - आत्मा, अभिहितरूपस्तदाधाररूपो वा देहः । उत्त ५३ । शरीरम् । प्रज्ञा० ३०५ । अतति सन्ततं गच्छति शुद्धिसक्लेशात्मक परिणामान्तराणीति । उत्त० ५२ । नि० चू० प्र० १५ अ । आत्मा-स्वभावः । ठाणा० ६१ । अप्पाइय- आप्यायितः । आव० ७१६ । अप्पा उरण-अप्रावरणः, अभिग्रहविशेषः । आव० ८५४ । अप्पाणं - आत्मानम्, अतीत सावद्ययोगकारिणमश्लाघ्यम् । अत्राणम् - अतीत सावययोगत्राणविरहितम् । अतनम् अतीतं सावद्ययोगं सततभवनप्रवृत्तं निवर्तयामि । आव० ४८६ । अप्पाणमेव-आत्मनैव । उत्त० ३१४ । आत्मानं अंतरा त्मानम् । आचा० २८३ । अप्पायंक- अल्पातङ्कः, रोगरहितः । आव ० ७९३ । अरोगी । आचा० ३९३ । अप्पाहंति - सन्दिशन्ति । बृ० तृ० ४४ आ । अप्पाहहु - आहृत्य, व्यवस्थाप्य, अपाहृत्य वा । सूत्र०-२७४ । अप्पाहण्या-सन्देशकस्तथैव दातव्यः | ओघ० १०२ । अप्पाहारं- अप्पधारणा, सामर्थ्यम्, अप्पाहारता जत्थ तं । नि० चू० तृ० ८२ आ । अप्पाहार - अल्पाहारः, ऊनोदर तायाः प्रथमो भेदः । दश० २७ । ठाणा० १४९ । अप्पाहारे - अल्पाधारः - तमेव पृष्ट्वा सूत्रार्थवाचनां ददाति । बृ० तृ० १३३ आ । अल्पाहारः, अष्टकवलाहारः । औप० ३८ । भग० ९२१ । स्तोकाहारः साधुः । भग० २९२ ॥ स्तोकाशी, षष्ठाष्टमादिसंलेखनाक्रमायातं तपः कुर्वन् यत्रापि पारयेत्तत्राप्यल्पमित्यर्थः । आचा० २९० । (७१) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अप्पाहारो ___ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अफासुअ] अप्पाहारो-जो आयरिओ संकियसुत्तत्थो तं चैव पुच्छिउं अप्पोदए-अल्पोदके-भौमान्तरिक्षोदकरहिते। आचा० २८५ वायणं देति, तारिसं ति मोर्नु ण गंतव्वं । नि० चू० तृ० | अप्पोल्लं-दृढवेष्टनाद् घनवेष्टनात् । ओघ० २१४ । ९३ आ। अप्पोवही - अल्पोपधिः, अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिः । दश० अप्पाहिति-सन्दिशन्ति । बृद्वि० ११४ आ। सन्दिशतः।। २८० । आव०३०२। अप्पोसे - अल्पावश्याये – अधस्तनोपरितनावश्यायविठुड्अप्पाहिकरणे-अल्पाधिकरण-निष्कलहं । ठाणा० ४१६ । वर्जिते । आचा० २८५ । अप्पाहितो-सन्दिष्टः । उत्त० २१९ । अप्फंदणया- भाण्डोचितहस्तपादादिचेष्टाविकलता। व्य. अप्पाहे-तद्गुरोस्तत्प्रवर्तिन्या वा एवं सन्दिशति-यथैतामा- प्र. २३६ अ। त्मसकाशे कुरुत । ओघ० ४३ । अप्फञ्चितो-अइकंते । नि० चू० प्र० १४७ आ। अप्पाहेइ-सन्दिशति । दश० १०३। | अप्फालिया-शिक्षिताः-उपालब्धाः, उक्ताः । आव० ५५७ । अप्पाहेति-संदिसइ । नि० चू० प्र० २११ आ। अप्फालेइ - आस्फालयति, हस्तेनाऽऽताडयति-उत्तेजयति । अप्पाहेत्ता-सन्दिश्य । उत्त. १७३। आव. ३१०। . औप० ६४ । अप्पिच्छे-अल्पेच्छः, अल्पा-स्तोका, अल्पशब्दस्याभाववादि अम्फिडिऊण-आस्फाल्य । आव० ३४४ । स्वेनाविद्यमाना वा इच्छा-वाञ्छा वा यस्येति । उत्त० १२४ । अप्फुण्णा-व्याप्ताः । बृ० तृ. ७० आ। न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी। दश० २३१ । | अप्फुण्णे-आपूर्ण:-परिपूर्णशरीरः । उत्त० ४८३ । अप्पिणिश्चिया-आत्मीया । आव. २०२ । अप्फुण्णो-ध्याप्तः। आव० ३५४ । अष्पितणप्पिते-अर्पित-विशेषित, अनर्पितं-अविशेषितम् । अफेया-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२।। ठाणा० ४८३। अप्फोआ-वनस्पतिविशेषः । जं० प्र० ४६ । अप्पियं-अर्पितम्, आहितम् । भग० ८९ । अप्फोडेइ-आस्फोटयति, करास्फोट करोति । भग. १७५। अप्पिय-अप्रियम् , अनिष्टम् । भग० ७२ । अर्पितः, विशेषः। विशे० १३४६ ।। अप्फोया-वनस्पतिविशेषः । जीवा० २०१। अप्फोव-आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्नः । उत्त० ४३८ । अप्पियणियं-अप्रीतिकम् , कलहः । उत्त० ३५५ । अप्पियत्ता-अप्रियता, अप्रेमहेतुता । भग० २५३ । प्रज्ञा ० अप्रकीर्णप्रसृतं-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । ५०४ । अप्रतिहत-(अप्पडिहय ) -क कुडयपर्वतादिभिरस्खलिते. अप्पियवहा-अप्रियवधा:-अप्रियं-दुःखकारणम् तत् घ्नन्ति। __ अविसंवादके वा। सम० ४ । आचा० १२२ । | अप्रत्याख्यानम्-द्वितियकषायचतुष्कम् । आचा० ११ । अण्णकप्पिया-अपूर्णकलिका-अन्योन्यस्य मुखदुःखोपसं- अप्रमार्जितचारित्वम् - द्वितीयमसमाधिस्थानम् । प्रश्न. पदं प्रतिपद्यते। व्य० द्वि. ३७८ आ। १४४ । अप्पुत्थायी- अल्पोत्थायी, अल्पमुत्थातुं शीलमस्येति। अप्रोषितः-सामानिकः, सन्निहितः। विशे० १०६५ । प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः । उत्त० ५८। अप्सरा-दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां भूतावतंअप्पुस्सुए-अल्पौत्सुक्यः। भग० १७४ । त्वरारहितः। सिकाराजधान्यधिष्ठात्री, शक्रदेवेन्द्रस्य द्वितीयाग्रमहिषी । भग० १२३ । अविमनस्कः । आचा० ३७९ । जीवा० ३६५। शकस्याग्रमहिषी। जं. प्र. १५९ । अप्पे-आप्यः, अपां प्रभवः हृदः। भग० १४१ । अफलवंतकी-अफलवान् , अप्राप्तिकः । प्रश्न०६४। अप्पो-अल्पः, सर्वथाऽविद्यमानः । जीवा० १२१ । नास्ति । अफव्वंता-अलभमानाः। नि० चू० प्र० १८३ आ। किञ्चिदित्यर्थः । ओघ १७७ । निषद्याद्वयोपेतं र जोहरणं अफासुअ-अप्रासुकम् , सचित्तमन्मिश्रादि । दश० २३१ । मुखवस्त्रिका चोलपट्टकाश्च । बृ० प्र० १५० आ। सचित्तम् । आचा० ३२१ । (७२) 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अफासुए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अभंतरे ] - अफासुए-अप्रासुकम् , न प्रगता असव:-असुमन्तो यस्मा- | अबाल-अष्टाधिकवर्षः । नि० चू० प्र० १७३ आ। त्तदप्रासुकम्-सजीवमित्यर्थः । भग० २२६ । अबाहा-अबाधा, कर्मणो बन्धोदययोरन्तरम् । भग० २५५ । अफुडिय-अस्फुटितः-राजीरहितः । आव० २३९ । अन्तरं, अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपा। अव्यवधानेनान्तरम् । अफण्णे-आपूर्णम् । प्रज्ञा०५९२ । जं०प्र०४३५। दूरवर्तित्वेनानाक्रमणमपान्तरालम् । जं.प्र. अफुसं-अस्पृश्यम् , अबन्धनीयम् । भग० १०४ । ६४ । अन्तरं-व्यवधानम्। जं.प्र.६५ । अपान्तरालम् । अफुसमाणगतिपरिणामे-अस्पृशद्गतिपरिणामः, अस्पृ. जीवा० १४, २०४ । अन्तरालवाव्याघातरूपा। जीवा. शतो गतिपरिणामः। प्रज्ञा० २८९ । ३०२ । अन्तरालम् । ओघ० ९० । आव० ४६ । विशे० अफुसमाणगती-अस्पृशद्गतिः,यत्परमाण्वादिकमन्येन पर- ३७६ । अन्तरं । जं० प्र० ४३५ । माण्वादिना सह परस्परसम्बन्धमननुभूय गच्छति सा, अबाहाए-अबाधया, व्यवधानेन कृत्वा । सम० २१ । विहायोगतेर्द्वितीयो भेदः । प्रज्ञा० ३२७ ।। अबाधायां कृत्वा, अपान्तरालेषु मुक्त्वा । जीवा. २२२ । अबंधव-अबान्धवः, स्वजनरहितः । पश्न० १९।। अबाहिरा-अबाह्यः, न बाह्य इति । आव० ४५ । अबंधवो-अबान्धवः, बान्धवरहितः, स्वजनसम्पाद्यकार्या- | अबितिजओ-अद्वितीयः, सहायो न भवति। प्रश्न० १२१ । भावात् कर्मनिगडबद्धः । प्रश्न० ११। अबुद्धा अबुद्धजागरियं-अबुद्धाः-केवलज्ञानाभावेन यथाअबंधिउं-पात्रकबन्धप्रन्थिमदत्त्वा । ओघ. १४४ । संभवं शेषज्ञानसद्भावाच्च बुद्धसदृशास्ते चाबुद्धानां-छद्मस्थअभं-अब्रह्म, अकुशलं कर्म, मैथुनमा प्रश्न. ६५। ज्ञानवतां या जागरिका। भग. ५५४ । अकुशलानुष्ठानम् , अब्रह्मगः प्रथमं नाम । प्रश्न. ६६। अबुहजण-अबुधजनः, अविपश्चिजनः-परिजनो यस्य सः, मैथुनम् । आव० ६५३ । बस्त्यनियमलक्षणं । आव० ७६१। अकल्याणमित्रपरिजनः । दश० ८६ । अबंभ-अब्रह्मवर्जकः, श्रावकस्य षष्ठी प्रतिमा । आव०६४६। | अबोट-अनाक्रमणीय । ओघ० ९२ । अबंभचारिणो-अब्रह्मचारिणः, मैथुनं आसेवितुं शीलं धर्मों | अबोहि-अबोधिः, मिथ्यात्वकार्यम् । आव० ७६२ । मिथ्यावा येषां ते। उत्त० ३५८ । त्वसंहतिः । दश० २४४ । अबद्धिआ-अबद्धिकाः, अबद्धं सत्कर्म कंचकवत्पात अबोहिअ-अबोधिकम् , मिथ्यात्वफलम् । दश. २०५। स्पृष्टमात्रं जीवं समनुगच्छन्तीत्येवं वदन्ति । औप० १०६ । | अबोहिकलुसं-अबोधिकलुषः, मिथ्यादृष्टिः । दश० १५८ । अबद्धिगा- अबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः । आव. | अब्बहुलकाण्डम्-रत्नप्रभायां तृतीयकाण्डः । सम० ८८ । ३११ । अबद्धिकः, बद्धं-जीवप्रदेशैरन्योऽन्याविभागेन सम्पृक्तं | अब्बुयं-द्वितीयसप्ताहगर्भावस्था ( तं० ) न बद्धं-अबद्धं, अर्थात्कर्म, तदभ्युपगमविषयमेषामस्तीति। | अभं-अभ्रम् , सामान्याकारेण प्रतीतम् । जीवा० २८३ । अभंगिपल्लय-स्नेहाभ्यक्तशरीरः। ओघ० ७४ । उत्त० १५२। अभंगिओ-अभ्यङ्गितः। आव. ११७ । अबद्धिता-अबद्धिकाः-स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। ठाणा०४१०।। अभंगेति-थेवेण अभंगगं। नि० चू० प्र० ११६ आ। अबला-अबलाः, शारीरशक्तिविकलाः । जं० प्र० २३९ । अब्भंगो-थोवेण । नि० चू० प्र० १८८ अ । अबले-अबलः, शरीरशक्तिवर्जितः । भग० ३२३ । अभंतरं-लोकेऽन्यैरनुगतम् । दश० चू० १४ । अबहुस्सुर- अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय । सूर्य अभंतरकरणं - द्वयोः साधोः गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे कुलादिकार्यनिमित्तं परस्परमुल्लपतोस्तृतीयस्योपशुश्रूषोः बहिःअबहुस्सुतो-जेग आयारपगप्पो ण झातितो। नि० चू० करणं । व्य. प्र. २३८ अ । तृ. २५ अ। अब्भंतरगे-अभ्यन्तरम्-अभ्यन्तःमध्ये भवं। ठाणा०५५। अबहोड-अवखोटकः, बन्धविशेषः । उत्त० ११३ । अभंतरे पोग्गले-भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये अबाध-अन्तरालम् । विशे० ३७६ ।। क्षेत्रप्रदेशाः अवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते तेऽवसेयाः, विभूषाअबाधाए-अबाधया अपान्तरालं । सूर्य० २६२। .. पक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यंतरपुद्गलाः। ठाणा० १०५। (७३) 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अभक्खाणं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अभितरलावणग ] अब्भक्खाणं-अभ्याख्यानम् , परमभि असतां दोषाणामा- | अब्भावगासं-अङ्गणम् । नि० चू० प्र० १९२ अ । ख्यानम् , अधर्मद्वारस्य सप्तदशं नाम। प्रश्न० २६ । अब्भावगासियं-आकाशम् । बृ० द्वि० १७९ अ । । असदभियोगः । सूत्र. २६२ । असद्दषणाभिधानम् । प्रश्न | अब्भास-पचासणं । नि० चू० प्र० ६० अ । अभ्यासः"४१। असदोषारोपणम् । प्रज्ञा० ४३८ । असंतभावुझावणं । हेवाकः । ठाणा० २८५। . .. 'नि० ० तृ० २५ अ । असद्दोषाविष्करणम् । भग० ८० । अब्भास-अदूरसामत्थे, अच्छेअव्वम् । दश. ३१ । अब्भक्खाणे-अभ्याख्यानम् , आभिमुख्येनाख्यानं-दोषा- | अब्भासकरणं-जो धम्मच्चुओ तं पुणो धम्मे ठवेंतेण । विष्करणम् । भग० २३२ । नि० चू० प्र० २३८ अ। अब्भडिओ-आस्फालितः, आहतः। आव. ४३१। अब्भासगं-अभ्यासकम् । ओघ० १५९ । अब्भत्थे-अध्यात्मस्थम् , अभिप्रतम् । उत्त० २६५। यद्यस्या अब्भासवत्ति-अभ्यासवर्ती-गुरोरभ्यासे-समीपे वर्तते इति भिमतं सुखम् । उत्त० २६५। अध्यात्ममात्मनि यदर्तते. शीलः, गुरुपादपीठिकाप्रत्यासन्नवर्ती । व्य० प्र० २० आ। मनः। उत्त० २६५। अध्यात्मकरणम. कियाया अष्टमो अब्भासवत्तियं-प्रत्यासत्तिवर्तित्वम् , श्रुताद्यर्थिना हि आचाभेदः । आव० ६४८ । र्यादिसमीपे आसितव्यम् । ठाणा० ४०९ । अभ्यासो-गौरअभथिए-अध्यात्मिकः, आत्मविषयः । भग० ११५ । व्यस्य समीपं तत्र वर्तितुं शीलमस्येत्यभ्यासवर्ती तद्भावोऽ. अब्भत्थियं-अभ्यर्थितम् । आव० ३५९ । भ्यासवर्तित्वं, अभ्यासे वा प्रीतिक-प्रेम । भग• ९२५ । अब्भत्ये-अभ्यस्ते, अनवरतं दृष्टपूर्वे, विकल्पिते, भाषिते अब्भासवत्तिया-अभ्यासवृत्तिता, समीपवर्तित्वम् । औप. . च विषये पुनः क्वचित् कदाचिदवलोकिते। विशे० १७५। अध्भपडलं-अभ्रपटलम् , मेघवन्दम् । औप० ६६ । प्रज्ञा० अब्भासासन-अभ्यासासनं-उपचरणीयस्यान्तिकेऽवस्थानं । २७। मणिभेदः, पृथिवीभेदः । आचा. २९ । उत्त०६८९। सम० ९५ ।। अब्भपडलो-अभ्रपटलः । प्रज्ञा० २६६ । जीवा० २३ । | अब्भासिया-द्रविडादिदेशोद्भवाः । बृ० द्वि० २११ आ। अब्भ(त)रया-अभ्यन्तरका-ये राजानमति प्रत्यासन्नीभूयावल- अब्भासे-अभ्यासः, अदूरासन्नम् । दश० ३१ । आसन्ने। 'गन्ति । व्य० द्वि० २८२ अ। ओघ० ७८ । सभीपे। ओघ० १४० । अब्भरहितो-आसन्नो । नि० चू० द्वि० १३ आ। अब्भासो-अभ्यासः, आसेवनालक्षणः। आव० ५९१ । अब्भरुक्खो -अभ्रवृक्षः, अभ्रात्मको वृक्षः । भग० १९५ । अब्भाहतो-अभ्याहतः, मत्तः । उत्त० ३०० । वृक्षाकारपरिणतमभ्रम् । जीवा० २८३ । अभितरं-आभ्यन्तरम्, प्रायश्चित्तादि । प्रश्न० १५७ । अब्भरुह-अभ्यारुहः-वृक्षस्योपरिवृक्षः, वनस्पतिविशेषः।भग० अभितर-अभ्यन्तरावधिरुतः । विशे० ३६९ । योऽवधिः सर्वासु दिक्षु स्वद्योत्यं क्षेत्रं प्रकाशयति । प्रज्ञा० ५३६ । अभवालए-अभ्रवालुका, मणिभेदः, पृथिवीभेदः । आचा० आभ्यंतर - चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतस्तपः ! सम. १२। । अब्भवालया-अभ्रवालुका, अभ्रप लमिश्रा वालुका । प्रज्ञा० अभितरए-अभ्यंतरम् आन्तरस्यैव शरीरस्य तापनात् , .२७ । उत्त० ६८९ । जीवा० २३ । सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च । औप० ३७ । अम्भसंथडा-अभ्रसंस्थितानि, मेधैराकाशाच्छादनानीत्यर्थः । अभितरओ तवो - लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च ठाणा० २८७। भावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरंगत्वाच्चाभ्यन्तरतपः । अब्भा-अभ्राणि । भग० १९५। - दश. ३२ । ठाणा ३६५। अब्भाइक्खइ-अभ्याख्याति-निराकरोति । आचा० ५२। अभितरमलो-आभ्यन्तरमलः, मूत्रपुरीषादि। आव० ७५८॥ अब्भाइक्खिजा-अभ्याख्यानम्-असदभियोगः । आचा० | अभितरलावणग - आभ्यन्तरलावणिकः, लवणसमुद्रे ४४ । प्रकटमसदोषारोपणम् । ठाणा० २६ । ..। शिखाया अर्वाक्चारी चन्द्रः । जीवा० ३१८ । (७४) 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अभितरसंबुक्का . अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अभग्गजोगो] अभितरसंबुक्का-संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो आढ-। ६३७ । जओ दीसइ तओ चेव कायव्वं । दश० ३० । वति बाहिरओ संणियट्टइ। उत्त० ६०५ । आगतस्याभिमुखमुत्थानम् । दश० २४०। अभितरिया-अभ्यन्तरिका, नगरीविशेषः । आव० २०० ।। अब्भुट्ठिज-सिंहासनादभ्युत्तिष्ठेयुरिति । ठाणा० ११७ । अभिडिऊण-आस्फाल्य । उत्त. १४९ । अब्भुटिओ-अब्भुट्ठिएत्ति सामाइयकडो पडिकंता व्रतारोअभुक्खेइ-अभ्युक्षति, अभिमुखं सिञ्चति । जीवा० २५६ । पितः। नि० चू० तृ० ८४ आ। अभ्युक्षति, सिञ्चति, स्नपयति। जं० प्र० १९२। अब्भुट्टितो-वैयावृत्त्यकरणोयतः । नि० चू० प्र० ३३४ अ। अब्भुक्खेंति-अभ्युक्षन्ति सिञ्चन्ति । जं० प्र० २७५ । अब्भुट्टित्तए - अभ्युत्थातुम्-अभ्युपगन्तुम् । ठाणा० ५७ । अब्भुग्गए - अभ्युद्गतः, आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः। अब्भुट्टियं-अभ्युत्थितम्-अभ्युद्यतं । उत्त० ३०७। अभ्युसूर्य० २६३ । स्थापन-वंदनकप्रतीच्छनकादिकं । व्य. प्र. १७२ आ । अब्भुग्गओ-अभ्युद्गतः, आभिमुख्येन सर्वतो गतः । जीवा० । अभ्भुस्थित-उद्यतः। ओघ० १८० ।। १७५ । अभ्रोद्गतः-यद्वा आकाशे उद्गता प्रबलतया सर्व अब्भुट्रेमि-अङ्गीकरोमि । भग० १२१। तस्तिर्यक् प्रसृता । जं० प्र० २९७ । अब्भुग्गय-अभ्युद्गतः, आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः । प्रज्ञा० अब्भुत्तरोमा-प्रदीप्तरोमाः । नि० चू०. द्वि० ६१ अ। ९९ । अभिमुखमुद्गतः, अग्रिमभागे मनाक् उन्नतः । जीवा० अब्भुदए-अद्भुतकान् , आश्चर्यरूपान् । उत्त० ३१७ । २०५। संजातः । सम० १३९। अब्भुदओ-उत्सवविशेषः। बृ० द्वि०. १९८ अ। .. अब्भुग्गयमूसिय-अभ्युद्गतोच्छ्रितः, अभ्युद्गतमभ्रोद्गतं | अब्भुन्नय-अभ्युन्नतः, अभिमुखमुन्नतः । जीवा० २७५ । वा यथाभवत्येवमुच्छ्रितः, अथवा मकारस्यागमिकत्वादभ्यु- | अम्भुवगमिया आभ्युपगमिकी, या स्वयमभ्युपगम्य वेद्यते ‘गतश्चासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः, अत्यर्थमुच्च इत्यर्थः।। (वेदना)। भग० ४९७ । भग० १४५ । अब्भुवगमे-स्वेच्छया अभ्युपगम्य वादकथा क्रियते । ० अभुग्गया-अभ्युद्गता, आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता। प्र० ३१ आ। . जीवा० ३७९ । अग्रिमभावे मनागुन्नता। जं० प्र० ५० । | अब्भुवगमो-अभ्युपगमः, स्वयमङ्गीकारः । प्रज्ञा० ५५७ । अभ्युद्गता, अतिरमणीयतया द्रष्टृणां प्रत्यभिमुखमुत्-प्राबल्येन भग० ६८३ । स्थिता । जीवा० २२६ । अब्मे-आभिन्द्यात् , आच्छिन्द्यात् । आचा० ३८ । अम्भुग्गयाओ-अभ्युद्गतान्यभ्रोद्गतानि वोच्चानि। भग० ६७२ । अब्भोवगमिया - आभ्युपगमिकी-केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः अब्भुग्गयुच्छितपभासिय-अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं, अ शरीरपीडा । प्रज्ञा० ५५७ । शिरोलोचब्रह्मचर्यादिनामभ्युपभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः-प्रबलसया। गमे भवा (वेदना)। ठाणा० २४७। .. सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सितम् । जीवा० ३७९।। अब्रह्म-मैथुनम् । आचा० ३३१। अब्भुजयं-अब्भुजतमरणेग अब्भुज्जयविहारेण वा। नि० अभओ-अभयः । आव० ९५ । अभयकुमारोऽष्टमकारी। चू० तृ. ३५ अ। अब्भुजया-अभ्युद्यता, सुविहिता। अनुत्त० ३। अन्त० ९ । व्यक्तिविशेषः । आव० ३६८ । उदाहरणदोषे अब्भुजियविहारो- जिणकप्पादि। नि० चू०प्र० २६३ आ। अभयकुमारः । दश० ५३ । नामविशेषः । बृ० प्र० ४६ आ। अब्भुट्ठाणं - अभ्युत्थानम् , आगच्छति गच्छति च दृष्टे अभओ सव्वस्सवि - अभयं सर्वस्यापि प्राणिगणस्याभगुरावासनमोचनम् । उत्त० १७ । ससम्भ्रममासनमोचनम्। यम् । अहिंसाया द्विपञ्चाशत्तमं नाम । प्रश्न. ९९। । उत्त० १२४ । अभीत्याभिमुख्येनोत्थान-उद्यमनम्। उत्त०५३५। | अभक्तार्थः-खमणः, क्षपणः । व्य० प्र० १८१ आ। " • विनयाहस्य दर्शनादेवासनत्यजनं । ठाणा० ४०८ । आसन- | अभग्गं-अभग्नम् , अपीडितम् । आव. ७७२ । ' त्यागः । सम० ९५। गौरवाईदर्शने विष्टरत्यागः । भग० । अभग्गजोगो-अभग्नयोगः । आव० ७९.३ । (७५) 2010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अभग्गलेण आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अभिओगे अभग्गसेण-अभग्नसेनः, विजयस्य चौरसेनापतेः स्कन्द- अभयसेण-अभयसेनः, संवेगोदाहरणे वारत्रकपुरे राजा। श्रीभार्यायाः पुत्रः । विपा०.५७ । विजयस्य चौरसेनापतेः । आव० ७०९। पुत्रः। विपा० ६.। अभग्नसेन, विपाकश्रताध्ययनम्। अभयसेणो-वारत्तपुरं नगर, तत्थ अभयसेगो राया । नि. ठाणा० ५०७। . चू० तृ० ५४ आ । वारत्रकपुररांजा । बृ० द्वि० २४९ आ। अभग्गो-अभमः, अभमसेनः, विजयाभिधचौरसेनापति- अभयसेन-छर्दितदोषदृष्टान्ते राजा। पिंड. १६९। पुत्रः, अन्तकृद्दशासु तृतीयाध्ययनम्। विपा० ३५। अभयसेना-वापीनाम। जै० प्र० ३७० । अभजियं-अभग्नाम्-अमर्दितामविराधिताम् । आचा० ३२३॥ अभया-हरीतकी। आचा० १३०। नि. चू० द्वि. अभडप्पवेसं-अभटप्रवेशम् , कौटुम्बिकगेहेषु राजवर्णवतां १४१ आ। भटानामविद्यमानप्रवेशम् । विपा. ६३ । अभये-अभयः, अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य दशअभत्तच्छंदो-अभक्तच्छन्दः, भक्तारुचिरूपः । उत्त० ७८ । माध्ययनम् । अनुत्त० १। अभत्तटुं-अभक्तार्थम् , उपवासः । आव० ८५२। अभवसिद्धिय-अभवसिद्धिकः, अभव्यः। जीवा० ४४९ । अभत्तट्ठो-अभक्तार्थः, न भक्तार्थः, उपवासः। आव० ८५३ । ठाणा० ३०। अभय-अभयः, श्रेणिकपुत्रनाम। सूत्र. १०३ । दानविशेषः । अभविय-अभव्यः-अयोग्यः। उत्त० ७१३ । प्रश्न. १३५ । अभयः, संयमः । आचा० ६२। कुमार- अभाग-अभाग्यः, अशोभनः । आव० ७०८ । विशेषः । नि०.चू०प्र० ७ आ, नि० चू• तृ० ३७ अ। अभावं- नवः कुत्सायामपि दर्शनादशोभनं भावं-सर्वतो वृक्षाधिष्ठायकव्यतरदर्शी। व्य० प्र०१७ अ। निष्काशनलक्षगं पर्यायम् | उत्त० ४६ । अभयकरा-मल्लिजिनदीक्षाशिबिका। सम० १५१ । अभाविआ-अगीतार्थाः । बृ० द्वि० १६६ आ। अभयकरो-अभयकरः । आव० ४९९ । अभाविओ-अभावितः । आव० १०१ । अभावितः-अपरिअभयकुमार:-प्रद्योतस्यापकारकः । सूत्र० ३१३ । विशेष- गतजिनवचनस्तस्य निर्लेपनाभावे मा भूद् विपरिणामः । नाम । विशे०६१२। औत्पातिकीबुद्धेर्दृष्टांतः। बृ० प्र० १८६ ।। बृ० प्र० २७२ अ। . आर्द्रकुमाराय प्रतिमाप्रेषकः । सूत्र० ३८५ । प्रद्योतगगिका- अभाविते-असंसर्गप्राप्तं प्राप्तसंसर्ग वा । ठाणा० ४८१ । भिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः। सूत्र० ३२९ । कालसौकरिकसुत- अभावितो-कृताभ्यासः । नि० चू० तृ० १३१ आ। सुलससखा। सूत्र० १७८ । संवरपूर्विकैहिकार्थसिद्धौ दृष्टान्तः । अभावुक-नलस्तम्बः। ओघ २२३ । जं० प्र० १९७ । रोहिणीयस्य लौकिकसूक्ष्मपरिनिर्वा- अभावो-असंभवः । दश०३९ । विनाशः। बृद्वि. ७२ आ। पणः । व्य. प्र. २०९ आ । अभासो-स्वदेशभाषाया अज्ञः । बृ० द्वि० १९ आ। अभयकमारो-द्रष्टांतविशेषः । नि० चू० प्र० १९४ ।। अभि-पुथग। ब. द्वि० १९५ अ अभयदए - अभयदयः, प्राणापहरणरसिकेऽप्युपसर्गकारिणि अभिई-अभिजित् , नक्षत्रविशेषः। सूर्य० ११४ । ठाणा० ७७॥ प्राणिनि यो न भयं दयते ददाति, अभया सर्वप्राणिभय- अभिओग-अभियोगः, आज्ञाप्रदानलक्षणः। दश० २४९ । परिहारवती वा दया- अनुकम्पा यस्य सः। भग० । विकुर्वगा। भग. १९१ । बलात्कारः। उत्त० ३६५। ७। अभयं --विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्म- अभिओगकया-अभियोगकृता, या वशीकरणचूर्णमन्त्रयोः भूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरितिभावः तदभयं ददति। संयोजिता सा । ओघ० १९३ । जीवा० २५५। अभिओगपावणं - अभियोगप्रापगं, हठाव्यापारवर्तनम् । अभयदयेणं-अभयदयः, न भयं दयते प्राणापहरणरसिको- प्रश्न० २२ । पसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः। सम० ४। अभिओगिओ-आभियोगिकः । आव० १२४ । 1 अभया वा-सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया-घृणा यस्यासा- अभिओगे-अभियोगः, प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्वम्। जीवा. वभयदयः। सम० ४। (७६) 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अभिओगो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अभिघटिजमाणस्स ] अभिओगो-अभियोगः, पारवश्यम् । विपा० ५४ । गर्वः। अभिगमरुई - अभिगमरुचिः-यस्य श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्टं स आव० ७७२ । वशीकरणचूर्णो मन्त्रश्च । ओघ० १९३। भवति । प्रज्ञा० ५६ । अभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य स, अभिओग्गो-अभियोग्यः, अभिमुखं कर्मसु युज्यते व्यापा. येन हयाचारादिकं श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सः । ठाणा० र्यत इति वा, तस्य भावः कर्म वा। जीवा० २८० । ५०४ । अभिगमरुचि:-अभिगमो-ज्ञानं तेन रुचिर्यस्य सः । अभिकंख-अभिकाझ्य-उद्दिश्य । आचा० २८१ । पर्या | उत्त०५६३। लोच्य । आचा. ३८८ । . . अभिगमसढे-अभिगमश्राद्धकः-यत्र कारणे आपन्ने प्रविअभिकंखमाणो-अभिकाङ्क्षन्, मायारहितः। दश०२५२। श्यते। ओघ० १५६ । भभिकंता -- अभिकान्ता-शय्यायास्तृतीयप्रकारः । बृ० प्र० अभिगमसड्डो-सम्मद्दिट्ठी-गिहीताणुव्वओ। नि० चू० प्र० ९३ अ। १९९ आ। अभिकंतं-अभिकान्तम् , अभिक्रमणम्। प्रज्ञापकं, प्रत्यभि- अभिगम - अभिगमः, विस्तरबोधः। भग. १००। मुखं क्रमणम् । दश० १४१।। प्रतिपत्तिः । भग० १३७ । अभिक्कमंति-अभिलसंति । दश. चू० ६२ । | अभिगमो- अधिगमः, यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदः । आव० अमिकममाणे-अभिक्रामन्-गच्छन् । आचा० २१७। ८३८ । साधूणमागयाणं जा विणयपडिवत्ती सा । दश. अभिक्खसेवा-पुगो पुणो गमनं । नि० चू० प्र० ३९ आ। चू० १४१। अभिक्खं-अभिग-अनवरतं। आव० ११९। अभिगया-जीवाजीवादिपदार्थाभिगमोपेता श्राविकेत्यर्थः । बृ० अभिक्खगं-अभिक्ष्णं, अनवरतम् । भग० २२, ४१ । तृ. १३९ आ। आचा० ३६५ । सूत्र० ११५। उत्त० ३४३, २१४ । अभिगहिय?- अभिगृहीतार्थम् , प्रनितार्थस्याभिगमनात् । आव. ४०७ । अनुसमयम् । भग० ४३ । पुनः पुनः। भग० १३५ । उत्त० ३४४, ४२८, ठाणा० ३०१। अभिगाहइ-सेवते। आचा० ११४ । अभिगाहन्ते-सेवन्ते। अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारइत्ता - शबलदोषः । आचार १३३ । सम० ३७ । . अभिगिज्झ-अभिगृह्य, आलोच्य । दश० २१६ । अङ्गीकृत्य, अभिक्खणंऽभिक्खमोहारी-अभीगमभीक्ष्गमवधारकः, तदभिमुखीभूय । ठाणा० ५६। . . . . . योऽभीगमवधारिणी भाषां भाषते, यथा दासस्त्वं चौरो अभिग्गह-अभिग्रहः, गुरुवियोगकरणाभिसन्धिः । दश० वेति, यद्वा शङ्कितं तनिःशङ्कितं भगति । एकादशममसमाधि- २४१। स्थानम् । आव० ६५३, ६५४ ।। अभिग्गहियमिच्छादसणवत्तिया - अभिगृहीतमिथ्याअभिगच्छति-अभिगच्छन्ति, समीपमभिगच्छन्ति। भग० | दर्शन प्रत्ययिकी, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकीक्रियाया द्वितीयोभेदः । १३७ । आव० ६१२॥ अभिगता-अभिगताः, अभिगतजीवाजीवाः । आव० ३०४ । | अभिग्गहिया-अभिगृहीता, प्रतिनियतार्थावधारणम् । प्रज्ञा० अभिगम-अभिगमः, ज्ञानम् । उत्त० ५९२ । बोधिलाभः। २५६। अभिग्रहिका-वस्त्रागि वा पात्राणि वा पूरणीयानि अपरेण सम० १२० । मैथुनासेवना, गमनं च । आव० ८२५।। वा येन प्रयोजनमिति प्रतिपन्नाभिग्रहाः । बृ० प्र० ९९ आ अभिगम्य, विज्ञाय, आसेव्य । दश० २५८ । अभिग्गहो-अभिग्रहः-प्रत्याख्यानविशेषः । आव० ८५२ । अभिगमकुसले-अभिगमकुशलः, लोक वाघूर्णकादिप्रतिपत्ति कुमतपरिग्रहः । ठाणा० ४९ । नियमः । भग० ६२ । -दक्षः । दश० २५५। अभिग्रहिकः-मिथ्यात्वविशेषः । ठाणा० २७। अभिगमणं - अभिगमन, सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरप्रवेश- अभिघट्रिजमाणस्स-अभिघट्टयमानस्य-वेगेन गच्छतः। नम् । जीवा० ३४५ । सूर्य० २४३ । जं. प्र. ३७ । जीवा १९३ । (७७) 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अभिघातो आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अभिण्णाय ] अभिघातो - उवलओ वा घत्तिज्जति । नि० चू० प्र० १०५ आ । | अभिजोययंति वशीकुर्वन्ति । बृ० द्वि० २५५ अ । अभिचंदे - अस्यामवसर्पिपण्यां चतुर्थकुलकरः । सम० १०३ अभिजं - अमेयं । उत्त० २०७ । १५०। अभिचन्द्रः, अन्तकृद्दशानां द्वितीयवर्गस्याष्टमाध्ययनम् । अन्त० ३ | अभिचन्द्रः - मुहूर्त्तविशेषः । सूर्य० १४६ | जं० प्र० ४९१ | कुलकरविशेषः । आव ० १११ । जं० प्र० १३२ । अभिचन्द्रः - अमुष्यामवसर्पिण्यां चतुर्थ अभिजा - अभिध्यानमभिध्येत्यस्य । सम० ७१ । लोभः, अभिध्यानं वा । प्रश्न० ९७ । अभिज्झा - अभिध्या - अदृढाभिनिवेशः, चित्तलक्षणः । भग० ५७३ | अभिध्या, अभिध्यानम्, अभिलाषः । प्रज्ञा० ५०४ । कुलकरः । ठाणा० ३६८ । अभिचारकमन्त्रविद्यादि - अशिवपुररोधादौ तत्प्रशम- अभिज्झिभ - अभिध्यातम् इष्टम् । दश० २७७ । मार्थ । ठाणा० १६४४ अभिज्झियत्ता-अभिध्यितता, भिध्या-लोभः सा सञ्जाता यत्र सो भिध्यितो न भिध्यितोऽभिध्यितस्तद्भावस्तत्ता । भग० २५३ | अभिध्यितता, अभिध्यानमभिध्या - अभिलाषः, सा सञ्जाताऽस्मिन् तस्य भावः । प्रज्ञा० ५०४ । अभिध्येयताअहृद्यत्वं अशुभत्वं । भग० २३ । अभिणए - अभिनयः, चतुर्भिराङ्गिकवाचिक सात्त्विकाहार्य भेदैः समुदितैरसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभाव प्रकटनम् । जं० प्र० अभिचारुअं- चारकता । नि० चू० प्र० २७४ आ । अभिचारुकं - वसीकरणं । नि० चू० प्र० १०१ आ । अभिजाप - अभिजातः, शास्त्रीयद्वादशदिवसनाम । जं० प्र० ४९० | विनीतः । उत्त० १८८ | कुलीनः । जं० प्र० १८२ । अभिजाओ - शिष्टः । बृ० द्वि० २५५ आ । अभिजाणइ - अभिजानाति, विवेचयति । आचा० २०३ । अभिजातं - वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । अभिजाति- कुलीनता । उत्त० ३४७ । अभिजातिए - अभिजातिगः, अभिजातिः - कुलीनता तां गच्छति - उत्क्षिप्तभार निर्वाहणादिनेति । उत्त० ३४७ । अभिजाते - अभिजातः, शास्त्रीयैकादशदिवसनाम । सूर्य ० १४७ । अभिजाय - अभिजातम् - कुलीनम् । भग० ४६९ । अभिजायर – अभिजायते, उपभोग्यतयाऽऽभिमुख्येनेोत्पद्यते । उत्त० १८७ । अभिजित् - नक्षत्रदेवविशेषः । प्रश्न० ९५ । उदायनपुत्रः । ठाणा ० ४३१ । अभिजुंजंति - अभियुञ्जते, योजयन्ति । प्रश्न० ३६ | अभिजित्तर - अभियोक्तुम्, विद्यादिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुम् । भग० १९१ । अभिजुंजिया - अभियुज्य, व्यापार्य, स्मारयित्वा । सूत्र० १३९ । योजयित्वा अभियोगं ग्राहयित्वा, व्यापारयित्वा । 2010_05 ४१४ । अभिनंदणी - अभिनन्दनः, अभिनन्द्यते देवेन्द्रादिभिरिति, चतुर्थजिनः, गर्भात्त्रभृतिरभीक्ष्गं शक्रोऽभिनन्दितवानिति । आव० ५०२ । अभिनंदिप - अभिनन्दितः - लोकोत्तर प्रथममासनाम । जं० प्र० आचा० १२३ | आलिष्य -वशीकृत्य । ठाणा० १०६ | | अभिणिव्वट्टित्ता - अभिनिर्वर्त्य, समाकृष्य । सूत्र० २७९ ॥ सम्बन्धमुपगत्य, प्रतिस्पद्धये । ठाणा १७७ । अभिण्णाणं - अभिज्ञानं, चिह्नम् । उत्त० १४९ । आव ० अभिजो इंति - तिरस्कुर्वन्ति, निर्भर्सियन्ति । बृ० २८१ अ । प्र० ४९० । अभिनंदियाइओ - अभिनन्दितवान् | आव० ५०२ | अभिणिक्खतो - अभिनिष्कान्तः । आव० ११७। अभिणंदे-अभिनन्दः, लोकोत्तर प्रथममासनाम । सूर्य ० १५३। अभिणि बोहे - अभिनिबोधः, अर्थाभिमुखो नियतः प्रतिनियतस्वरूपो बोध-बोध विशेषः, अभिबुध्यतेऽस्माद् अस्मिन् वेति । तदावरणकर्मक्षयोपशमः । प्रज्ञा० ५२६ । अभिणिवट्टमाणे -- अभिनिवर्त्तमानः, पृथग्भवन् । सूत्र ० ३५४ । अभिणिविट्टं - अभिनिविष्टं, विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतितीत्रानुभाव जनकतया व्यवस्थितम् । प्रज्ञा० ४०३ । अभिनिवेसे- अभिनिवेशः, चित्तावष्टम्भः । औप० १०६ । ३४४ । अभिण्णाय - अभिज्ञातम् अभिमतम् । भग० १९७। (७८) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अभितावयंति अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अभिभुखं ] - अभितावयंति-अभितापयन्ति, अपनयन्ति । सूत्र० १३३ । | अभिनिविट्ठाई-अभि-अभिविधिना निविष्टानि-सर्वाण्यपि अभितुर-अभि-आभिमुख्येन त्वरस्व-शीघ्रो भव। उत्त० ३४०। जीवे लग्नानि । भग० ५६९ । अभितोसइजा-अभितोषयति, येन वा तेन वा यापयति। अभिनिवुडच्चे-अभिनिवृत्ताचः-शरीरसंतापरहितः।आचा० दश० २५३ । २८।। अभिदुग्गा-अभिदुर्गा, आभिमुख्येन दुर्गा-दुःखोत्पादिका। अभिनिवेशिकः-मिथ्यात्वविशेषः । ठाणा० २७ । सूत्र. १२९। अभिनिवेसए-अभिनिवेशयेत् , कुर्यात् । दश० २३२ । अभिहवं-अभिद्रवन्ति । आचा० ४२९ । अभिनिवेसं-अभिनिवेशः । आव० ३११ । आग्रहः । भभिहय-अभिद्रुतः, सर्वात्मना व्याप्तः। जीवा० १३० । भग ४८९ । अभिधानं-वचनपर्यायः । आव. २९ । अभिनिव्वट्टित्ता-अभिनिवर्त्य, विधाय । भग० २२४ । अभिधारए-अभिधारयेत्-यायात् । दश० १८६ । किमेते | अभिनिन्विगड-विष्वक् अपवरकः । व्य० द्वि० १९. आ। उपसर्गा ममाचलितचेतसः कर्तुमलमिति चिन्तयेत् । अभिनिव्वगडा-अभिनिाकृत-पृथग्विभिन्नद्वारायां धसती । उत्त० १०९ । अभिधारयेयुः-अन्तर्भावितेव । उत्त० १०९।। व्य० प्र० ४० आ। • अभिधारणा - धारणा, विचारणा, संकल्पः । व्य० द्वि. अभिनिव्वगडाए-अभि-प्रत्येकं नियतो वगड:-परिक्षेपो ३७३ आ। यस्यां सा अभिनिव्वगडा। व्य. द्वि० १८१.। . अभिधारयामो-गर्हणाबुद्धयोद्घट्टयामः । सूत्र. ३९२ । । अभिनिसिजा-अभिनिषद्या-रात्रिस्वाध्यायभूमिः, अभिनषेअभिधारेमाणे-अभिसन्धारयतः-गच्छतः । आचा०३२९ । धिकी-सामान्यस्वाध्यायभूमिः । ब्य० प्र० १२७ अ। . अभिधास्ये-कीर्तयिष्ये । आचा० ४ । अभिनिसिट्ठो- अभिनिसृष्टः, अभिमुख - बहिर्भागाभिमुखं अभिनंदिजा-अभिनन्देत् , अनुमन्येत । उत्त० १२० । निसृष्टः । जीवा० ३६१, २०६।। अभिनयिका-नृत्यकलाभेदः । सम० ८४ । अभिनिस्सवति-अभिनिःश्रवति, जिघ्रतामभिमुख निस्सअभिनव-विशिष्टवर्णादिगुणोपेतः । जीवा० १२१ । रति । जीवा० १९२ । अभिनवम्-नवम् । सूर्य० १८ । अभिनं-अव्यपगतजीवं । बृ. प्र. ३५ आ। अभिनिक्खमणं-अभिनिष्क्रमगं-दीक्षा । आचा. ४२२ । अभिन्नाय-अभिधाय-ज्ञात्वा। आचा० ३०४ । अभिनिक्खमति-अभिनिष्कामति-धर्माभिमुख्येन गृहस्थ अभिप्पाओ-अभिप्रायः, बुद्धिः । आव० ४१४ । पर्याय निर्गच्छति । उत्त० ३०६ ।। अभिनिचरिका-आभिमुख्येन नियता चरिका सूत्रोपदेशेन अभिप्पेय-अभिप्रेतः, कामयन् । दश० १९५ । अभिप्रेतेबहिर्वजिकादिषु दुर्बलानामाप्यायनिमित्तं पूर्वाह्नकाले समु अभिरुचिते। उत्त० २५४ । स्कृष्टं समुदानं लब्धं गमनं । व्य० द्वि०६९ अ। अभिभवे-अभिभवकायोत्सर्गः - उपसर्गाभियोजने द्वितीयः । अभिनिदुवारं-अनेकद्वारम् । बृ० द्वि० १२ आ। आव. ७७१। विशे० ६१२ । अभिनिबोध-अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वानियतोऽसंशयरूप अभिभूतः-आकुलः । आव० ५८९ । प्रारब्धः, अपराद्धो त्वाद् बोधः-संवेदनम् । ठाणा० ३४७ । वा। प्रश्न० ६०। अभिनिपयाए-अभिनिवजा-अभि-प्रत्येक नियता-विविक्ता | अभिभूय-तिरस्कृत्य । आचा० ३०८। सर्वथा तत्सामर्थ्यप्रजा चुटी। व्य. द्वि० ३३९ । मुपहत्य । उत्त० ८१ । पराजित्य । सूत्र. १४५। अभिअभिनिवर्तनम्-क्रिया । उत्त० ५८१ । व्याप्य । सूत्र० २८५। अभिनिविट्टा-अभिनिर्वृत्ता । आव० २२० । अभिमरए-अभिमरकः । आव० ८१९ । अभिनिविटुं-अभिनिविष्टम् । तीव्रानुभावतया निविष्टम्। अभिमरा-अभिमरा। उत्त० १६२ । आव० ३१६ । । भग० ९० | अभिमुखं-अभिमुखं । व्य० प्र० ९९ अ । (७९) 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अभिमुखनामगोत्रः आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अभिव्यज्यते ] अभिमुखनामगोत्रः - ( अभिमुहनामगोत्तं), नोआगमतो | अभिलावपुरिसे - अभिलापपुरुषः पुंल्लिङ्गाभिधानमात्रम् । द्रव्यद्रुमस्य तृतीयः प्रकारः । दश० १७ । अभिमुखे-संमुखे | आव० २७७ । ठाणा० ११३ । जघन्योत्कर्षाभ्यां समयान्तर्मुहूर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे अभिलाष:-तीव्रलोभोदयप्रभव आत्मपरिणामः।आव०५८। इन्द्रसम्बन्धिनी यस्य स तथा । ठाणा० १०३ । अभिलोयणं-अभिलोकनम् , अभिलोक्यते यत्रस्थैस्तत् , अभिमुखनामगोत्रा- ये पुनर्बादरापर्याप्ततेजःकायिकायु- | उन्नतस्थानम् । प्रश्न० १३८ । र्नामगोत्राणि पूर्वभवमोचनानन्तरं साक्षाद्वेदयन्ते तेऽभि- अभिवंदओ-अभिवन्दकः, अभिवन्दिष्यत इति । आव. मुखनामगोत्राः । प्रज्ञा० ७६ । अभिमुह-पव्वजाभिमुहो, संपद्वितो। नि० चू० प्र० अभिवंदिऊण-अभिवन्य, अभिमुख वन्दित्वा-प्रणम्य । १०४ अ। प्रज्ञा० ३। . . अभिमुहो-अभिमुखः, उद्युक्तः । दश० २४५ । अभि-भग- अभिवद्भिए-अभिवद्धितः, तृतीयः पञ्चमश्च युगे संवत्सरौ। वन्तं प्रति मुखमस्य । सूर्य० ६। सूर्य. १५४ । ठाणा० ३४४ । अभियोग-आज्ञा। ठाणा० ५२१ । ग्रहणप्रवणः, अर्थबला अभिवहिए णं मासे-अभिवद्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिंशदऽऽयातत्वेन तन्नान्तरीयकोद्भवः। विशे० ५३ । कार्मगं होरात्रद्विषष्टिभागाधिकन्यशीत्यधिकशत्त्रयरूपस्य द्वादशो कुर्यात् । बृ० प्र० ९९ आ। भागः । सम० ५६ । अभिवर्द्धितमासः, अभिवर्द्धितो नाम अभियोग-आभियोग्यः, अभियोगार्ह आदेशकारी देवः । मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणसंवत्सरः । बृ० प्र० १८६ आ। प्रश्न. १२१ । अभियोगो-वशीकरणं । व्य. द्वि० ३१५ आ । अभिवडियवरिसं-जत्थ अधिकमासगो पडिति वरिसे तं । अभियोजनम् - विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि । नि० चू० प्र० ३३९ । अभिवड्डियसंवच्छरे-अभिवर्द्धितसंवत्सरः। सूर्य. १६९, प्रज्ञा० ४०६। अभिर्रा-अभिरतिः, आभिमुख्येन रतिः । आव० ४५१ । १७१। अभिरामयंति-अभिरमयन्ति, आभिमुख्येन विनयादिषु अभिभवंति-अभिभवन्ति-न्यकुर्वन्ति । ठाणा. १७७ । युञ्जते । दश० २५६ । अभिवद्धी-अभिवृद्धिः, उत्तराभाद्रपदाया देवता । जं० प्र० अभिरू-मध्यमग्रामस्य सप्तममूर्छनानाम । ठाणा० ३९३ । ४९९ । अभिरूइए-स्वादुभावमिवोपगतः। भग० ४६७। अभिवयणा-'अभी'यभिधाय कानि वचनानि-शब्दा अभिअभिरूप-अभिमुखमतीवोक्तरूपं आकारो यस्य वचनानि, पर्यायशब्दाः। भग० ७७६ ।। अभिरूवं-अभिरूपं, अभि-सर्वेषां द्रष्टृणां मनःप्रसादानुकूल- अभिवादणं - अभिवादनम् , शिरोनमनचरणस्पर्शनादितयाऽभिमुख रूपं यस्य तत् , अत्यन्तकमनीयमिति। पूर्वमभिवादये इत्यादि वचनम् । उत्त० १२४ । जीवा० १६१ । प्रज्ञा० ८७। . अभिवायण-अभिवादनं-नमोक्काराइकर में । दश० चू०१६३ । अभिरूवा-अभिरूपाणि, कमनीयानि । सम० १३८ । अभि- अभिवाहारो- अभिव्याहारः, आचार्यनिष्ययोर्वचनप्रतिवसर्वेषां द्रष्ट्र गां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं यस्यः सा, चनेऽभिव्याहरणम् । आव० ४७१। 'अत्यन्तकमनीया। जं.प्र. २१ । अभिरूपा:-कमनीयाः।। अभिविधग्गहणं-पर्यापन्नपरिष्ठापितादेब्रहणम् । बृ० द्वि० ठाणा० २३२। २४ अ। अभिलंघमाण-अभिलङ्घयत् , अनुलिखत् । जं० प्र० २९७ । अभिवुड्डित्ता-अभिवर्ध्य । सूर्य० १२ । अभिलसंति-अभिलषन्ति । औप० २४ । अभिवुढेमाणे-अभिवर्तयन् । सूर्य० १२ । अभिलसइ-अभिलषति,अभिलषग-तल्लालसतया वान्छनम्। अभिव्यज्यते-अनन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकाउत्त. ५८७ । रणसन्निधाने तत्तद्रूपम् । ठाणा० ४९० । (८०) 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अभिशंसनम् अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अभूइभाव अभिशंसनम् - असदध्यारोपण, अभ्याख्यानं च । आव. अभिसेओ-अभिषेकः-सूत्रार्थतदुभयोपेत आचार्यपदस्थाप८२१। नाहः । व्य० प्र० १४१ आ। जीवा० २७६ । अभिसंधारिजा-अभिसन्धारेयत , पर्यालोचयेत । आचा० अभिसेक्कभंडे-अभिषेकभाण्डम् , अभिषेकोपस्करः । जीवा० अभिसन्धि-आलोचनम् । प्रज्ञा० ५०० । अभिसेग-अभिषेकः, अभिषिक्तः । बृ० प्र० १७७ आ। अभिसंभूया-अभिसम्भूताः, प्रादुर्भूताः । आचा० ३७६ । । अभिसेगपत्ता - अभिषेकप्राप्ता-प्रवर्तिनीपदयोग्या। बृ. अभिसमण्णागए-तद्भोगापेक्षया । भग० १५९ । गवेष- द्वि. २२ आ। यता लब्धं । भग० २२८ । अभिसेगसिलाओ -- अभिषेकशिलाः, तीर्थकराणामभिषेअभिसमन्नागच्छामि- अभिसमागच्छामि, अभिविधिना कार्थाः शिलाः । ठाणा० २२५ । साङ्गत्येन चावगच्छामि--सर्वः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छि- अभिसेज-अभिशय्या, अभिनिषद्या । व्य० प्र० १२८ अ। नमि। भग. ७२५ । | अभिसेजा-अभिशय्या, द्वितीयवसतिः। विशे० १३०९ । अभिसमन्नागयं-परिणमयितुमारब्धम् । भग. २२४ । अभिसेय-अभिषेक:-उपाध्यायः। व्य. द्वि० १६५ अ। उदयाभिमुखीभूतम् । भग. ९० । अभिसमन्वागतम्-उद- अभिसेयसभा-अभिषेकसभा । जीवा० २३६ । याभिमुखीभूतम् । प्रज्ञा. ४०३ । विशेषतः परिच्छिन्नम् । अभिसेयसभा-अभिषेकसभा, यस्यां राज्याभिषेकेणाभिभग० २२३ । षिच्यते। ठाणा.३५२ । अभिषेकभवन विमानभाविनी सभा। अभिलमनागया-अभिसमन्वागताः, अभिः-आभिमुख्येन प्रश्न. १३५ । सम्यग-इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्विति-शब्दादिस्वरूपावगमा- अभिहआ-अभिहताः, अभिमुखेन हताः, चरणेन घट्टिताः, त्पश्चादागताः ज्ञाता:-परिच्छिन्ना यस्य । आचा. १५३। उत्क्षिप्य क्षिप्ता वा । आव० ५७३ । भोग्यावस्थां गताः । ठाणा० २४५ । अभिहड - अभ्याहृतम् , स्वग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखअभिसमन्नागयाइं-अभिविधिना सवाणीत्यर्थः समन्वा- मानीतम् । दश०. ११६ । गृहस्थेनानीतं । आचा०३२५१ गतानि-सम्प्राप्त नि । भग. १६९। निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम् । आचा० ३६१ । अभ्याहृतं अभिसमागच्छति-अभिसमागच्छति. साध्यसिद्धौ व्यापा- स्वग्रामादिभ्य आहृत्य यद्ददाति । ठाणा. ४६०। भग रणत: सम्यक् प्राप्नोति । भग० २३९ । अभिसमागम -- अभिसमागमः, वस्तुपरिच्छेदः । ठाणा. अभिहणंति - अभिन्नन्ति, अभिमुखमागच्छन्नो प्रन्ति । प्रज्ञा० ५९२ । अभिसमेच्चा- आभिमुग्येन सम्यगित्वा-ज्ञात्वा । आचा० अभिहणह-आभिमुख्येन हथ । भग० ३८१ । अभिहणिज - अभिहन्यात , पादेन ताडयेत । आचा. अभिसित्त-अभिषिक्तः, दीक्षासंस्कृतः । दश. २४५ । अभिसेअ-अभिषेकः, श्रियोऽभिषेकः । आव. १७८ ।। | अभीक्ष्णमवधारकत्वम्-शङ्कितस्याप्यर्थस्यावधार कत्वम् । अभिसेअसिला - अभिषेकशिला, अभिषेकाय-जिनजन्म- प्रश्नः १४४ । स्नात्राय शिला । जं० प्र० ३७१। | अभीति-अभिचिः, उदायननृपपुत्रः । भग० ६१८ । अभिसेआ-पत्तिणी। नि० चू० प्र० १३२ आ। अभीयी-अभिजित् , नक्षत्रविशेषः । सूर्य. १२९ । .. अभिसेए-आचार्यपदस्थापनाहः, सूत्रार्थत दुभयोपेतः । बृ० अभीरू-सत्त्वसम्पन्नः। ओप० २०२।। द्वि० २८३ आ। अभुन्भुजियमरणं-परिण्णादि । नि० चू० प्र०२६३ आ। अभिसेएण-अभिषेकेण,शुक्रशोणितनिषेकादिक्रमेणेति। आचा० अभुत्त-अभुक्तः, यः कुमार एव प्रबजितः । ओघ० ९१ २३९ । । अभूइभाव-अभतिभावः, असम्पावः। दश. २४३ । 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अभूपणं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अमम्मणा ] अभूपणं-अभूतेन, असद्भुतेन । सम० ५२। अमच्छरी-अमत्सरी, परगुणग्राही। प्रश्न० ७४ । अभूतोद्भावनम्-यथा सर्वगत आत्मा । ठाणा० २६।। अमण-अवसानम्। विशे० १३०७। अभूतिभावो-विणासभावो। दश० चू० १३१ । अमणाम-अमनोऽमम् , न मनसा अन्तः संगम्यन्ते, पुनः अमेज-अभिध्या, रौद्रध्यानम् । प्रश्न. ४२ । पुनः स्मरणगम्यम् । भग० ७२। अमेजलोभो - अभिध्यालोभः, रौद्रध्यानान्विता मूर्छा । अमणामत्ता-अमनोऽम्यता, अमनोगम्यता। भग० २३ । प्रश्न० ४२। न मनसा अम्यते-गम्यते संस्मरणतोऽमनोऽम्यस्तद्धाअभैत्सुः-कणिकाकार कुर्यः । आचा०३४३ । वस्तत्ता, प्राप्तुम वाञ्छितत्वम् । भग. २५३ । भोज्यतया अभ्यंतरं तप-संवरनिर्जराद्वारा निर्वाणप्रापकं । तत्त्वा०९-४६।। - मन आप्नुवन्तीति मनआपाः प्राकृतत्वाच्च पकारस्य मकाअभ्यन्तरशम्बूका - यस्यां क्षेत्रमध्यभागाच्छववृत्तया रत्वे मणाम इति सूत्रे निर्देशः, न मनआपा अमनआपाः । परिभ्रमणभङ्गया भिक्षां गृह्णन् क्षेत्रबहिर्भागमागच्छति । बृ. प्रज्ञा० ५०४। प्र. २५७ अ . अभ्यन्तरान्-अवगाहक्षेत्रस्थान् । ठाणा. २८४ ।। अमणुण्ण-अमनोज्ञम् , न मनसा:-अन्तःसंवेदनेन शुभतया ज्ञायन्ते। भग० ७२। अमनोज्ञः-रटनशीलः । ओघ० अभ्यन्तरानिवृति-बाह्यनिवृतेः खगधारासमानायाः स्वच्छ'तरपुद्गलसमूहात्मिका । प्रज्ञा० २९४ । । १५३ । अमनोज्ञः-असंविनः । ओघ० १२० । अभ्यस्त:-जित उचितो वा । आव० ५९४ । अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते- अमनोजसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तः-- अभ्यस्तम्-कृत, निर्वर्तितम् । आव० ५९३ । अमनोज्ञः-अनिष्टो यः शब्दादिस्तस्य यः संप्रयोगो-योगस्तेन अभ्यागत-अतिथिः । उत्त० ३८१ । संप्रयुक्तो यः स। औप० ४३। भभ्यासगुणे-( अभासगुणे ), भोजनादिविषयः। आचा० अमणुण्णा-असाम्भोगिकाः । बृ० द्वि० १८ आ। अमणुनत्ता-अमनोजता, न मनोज्ञा अमनोज्ञाः, विपाककाले अभ्यासाशि-गुणकारः । सम० ९१। । दुःख जनकतया न मनःप्रह्लादहेतुः। प्रज्ञा०५०४ । न मनसा अभ्युवतविहारेण-जिनकल्पादिना । बृ० प्र० २१० आ। ज्ञायते सुन्दरता। भग० ३५३ । कथयाऽप्यमनोरमतया । अमेडलिउवजीवो-अमण्डल्युपजीवकः-तत्र योऽमण्डल्युप भग०२३। जीवकः स साधुर्मुरुसगासं गत्वा तमेव गुरुं भगति-यथा अमणुने - अमनोज्ञो-न कश्चित प्रतिभाति रटनशीलत्वात्तहे आचार्याः! संदिशत-ददत यूयमिदं भोजनं प्राधूर्णक- तश्चैकाकी हिण्डते। ओघ १५ । सर्वेषामप्यनिष्टः । बृ. क्षपक-अतरन्तबालवृद्धशिक्षकेभ्यः-साधुभ्य इति । ओघ. प्र. २६६ । १७८ । अमणो-अमनस्कः, मनोरहितः-सम्मूर्छजः । ओघ० २२१ । अमंथरम्-अविलम्बितम् । ओघ. १८७ 1.... अमत-अमृतम्-क्षीरोदधिजलम्। जीवा० २१० । अमओ-अमयः, न किम्मयोऽपि । दश. १३३ । अमग्गो-अमार्गः, मिथ्यात्वादिः । आव.. ७६२ । अमम-अममः, ममकाररहितः । भग०२७६ । द्वादशोऽर्हन् । ठाणा० ४३४ । जातिवाचकः शब्दः । जं. प्र. १२८, अमञ्च-अमात्यः, राज्याधिष्टायकः। भग० ३१८ । सचिवः । ३१३ । भरते वर्षे .मनुष्यभेदविशेषः । जं० प्र० १२८ । दश. १०७। अमचा-अमात्याः, राज्याधिष्ठायकाः। भग० २६४ ।। अममायमाणे-अममीकुर्वन्-अस्त्रीकुर्वन् । आचा० १३२ । अमचो-अमात्यः । आव. ११६ । राज्यचिन्तकः । प्रश्न. अममे-जिनविशेषनाम । सम० १५३ । शतद्वारे द्वादशोऽहंन । ७९, ९६ । राज्याधिष्ठायकः । औप० १४ । राजमन्त्री । अन्त० १६। अममः, पञ्चविंशतितमो मुहूर्तः । जं. बृ० तृ. ३३ अ। यो राज्ञोऽपि शिक्षा प्रयच्छति सो। प्र. ४९१ । मुहर्तनामविशेषः । सूर्य. १४६ । व्य. प्र० १६९ आ। उत्त० ३८.। अमम्मणा-अनपखच्यमानता । औप० ७८ । 2010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अमयं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अमुणी] अमयं-अमतं, अशोभनं मतम् , नास्तिकादिदर्शनम् , अमिअतित्तो- अमृततृप्तः, आबाधारहितत्वात् । आव० अमृतं वा, अमृतमिवामृतं, आत्मनि परमानन्दोत्पादकतया | ४४७ । धनम् । उत्त० २०६ । अमृतस्य-क्षीरोदधिजलस्य। जं. अमिए-अमितः, भवनपतीन्द्रविशेषः। जीवा० १७० । प्र० ५५। अमिजं-(अमेयं), विक्रयप्रतिषेधादेवाविद्यमानमातव्यां, अवि. अमयघोसो-चंडवेगच्छिन्नो मुनिः। ( सं०) द्यमानमायां वा। भग. ५४४ ।। अमयमेहे- अमृतमेघः-यथार्थनामा महामेघः । जं० प्र० | अमितकौतुका:-( कोउगामिगा), कौतुकान्मृगा इव मृगा १७४ । अज्ञत्वात्प्राकृतत्वादमितकौतुकाः। उत्त० ५०१। अमयरसरसोवमं-अमृतरसरमोपमम् , परमान्नम् । आव० अमितगति-भवनपतीन्द्रविशेषः । ठाणा० २०५। १४४ । अमितवाहणे-उत्तरदिग्वर्ती वायुकुमारेन्द्रः । ठाणा० ८४ | अमर-अमरः-देवः । आव०६०। मयूरः, अमरो वा। अमितवाहन-भवनपतीन्द्रविशेषः । ठाणा० २०५ । प्रश्न० ८४ । अमिनसेणे-भरतेऽतीतोत्सर्पिणीकुलकरः । ठाणा० ५१८ । अमरकङ्का-घातकीखंडपूर्वभरते पद्मनाभराजधानी।प्रश्न० ८७) अमित्रक्रिया-यन्मातापितृस्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तीव. अमरवह-अमरपतिः-इन्द्रः । भग० १५८ । दण्डस्य दहनाङ्कनताडनादिकस्य करणम् । ठाणा ३१६। अमरसोवमं-आम्ररसोपमम् । नि० चू० प्र० ३४७ । अमियं-अमृतम् , अमितम् , मृष्टां पथ्यां वा, सार्थिकां अमरिसं-अमर्षः, असहिष्णुता। दश. ३८।। अपरिमितम् । आव० ५९५। अमितम. अनेकभवोपात्त मनन्तम् । आव० ६१० | अमितः-प्रमाणाभ्यधिकः । ओध. अमरिसणा - अमसृणाः, प्रयोजनेष्वनलसा अमर्षणा वा, १४२ । अभितः-दिवमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा. ९४ । अपराधेष्वपि कृतक्षमाः । सम० १५७ । अमर्षणा, अपराधासहिष्णवः अमसृणा वा कार्येवनलमाः । प्रश्न० ७४ । ( अमितः), अष्टमो दक्षिणनिकायेन्द्रः। भग० १५७ । अमियगती-वायुकुमारेन्द्रविशेषः । ठाणा० ८४ । अमरिसिओ-अमर्षितः, । आव० ५६५। अमर्षः-मत्सर अमियणाणि-अमितज्ञानी, जिनः । सम० १५३ । विशेषः। आव० २४१। अमियवाहण-अमितवाहनः, भवनपतीन्द्रविशेषः । जीवा. अमरिसो-अमर्षः, अत्यन्ताभिनिवेशः । उत्त. ६५६। १७१। अमर्षाधमात:-मत्सरपूरितः । आव. २४१। अभियवाहणे-अमितवाहनः, दिकुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० अमला-शकदेवेन्द्रस्याग्रमहिपीनाम । जं० प्र० १५९ । भग. ९४ । उत्तरनिकाये अष्टम इन्द्रः। भग. १५७ ॥ ५०५। दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां भूताराजधा- अमिल-अमिलम् , ऊर्णावस्त्रम् । दश. १९३ । न्यधिष्ठात्री, शदेवेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । जीवा. ३६५। अमिला-उरभ्राः। ओघ. १३५। उन्निया। दश० चू० अमलाते-शकस्याग्रमहिष्या राजधानी विशेषः। ठाणा०२३१। ९२। वस्त्राणि । नि० चू० प्र० १४४ आ। रोमेसु कया। अमाइ-अमायी, यः शाठयेन शिष्यान्न वाहयेत सः। दश० ५। नि० चू० प्र० २५५ अ। नमिजिनप्रवर्तिनीनाम । सम. अमाघाओ-अमाघातः, अमारिः, अहिंसायात्रिपञ्चाशत्तम १५२। अम्लान (अव्यादि)। ठाणा० ३४०। नाम । प्रश्न. ९९। अमिलाणि--महाधनमूल्यानि वस्त्राणि। आचा० ३९३ । अमात्यः-राजमन्त्री। आव० ५५ । अमात्यः। ठाणा०१५५॥ अमिलाया-अम्लाना (तं.)। अमायपुत्ते-अमातापुत्रः-रौद्रे नगरविनाशे स्वस्वजीवितर- | अमिलियं-अमिलितम् । विशे० ४०६ । क्षणाक्षगिकतया यत्र माता पुत्रं न स्मरति । बृ० प्र० गं-अमुकदेशोद्भवम् । बृ. प्र. ९८ आ। ३०४ । अमुच्छ-( अमूर्छा) उपधावसंरक्षणानुबन्धः। भग० ९७॥ अमावासासंगुणं-अमावास्यासंगुणम् , याममावास्यां ज्ञातु- | अमुणिओ-अमुनयः, गृहस्थाः । आचा० १५२ । मिच्छसि तत्मङ्ग्य या गुणितम् । सूर्य० ११३ । अमुणी-अमुनयः, मिथ्यादृष्टयः । आचा० १५२ । (८३) 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अमुत्ती आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अयपुले ] अमुत्ती- अमुक्तिः, सलोभता, परिग्रहस्य पविशतितमं । सिद्धशिलानाम । (दे०)। सूर्यबिम्बस्याधःकदाचिदुपलभ्यमानाम । प्रश्न. ९२ । नशकटोर्द्धिसंस्थिता श्यामादिरेखा । जीवा० २८३ । अमुय-अस्मृतम् , मनोऽपेक्षया अस्मृतम् । भग० १९७१ अमोहे-अमोहः, वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. अमुहं-अमुखं, निरुत्तरम् । व्य. द्वि० १६० अ २००। अवेयकविमानप्रस्तटनामविशेषः । ठाणा० ४५३ । अमुहा-अमुखाः, निर्वाचः । भग० ३७६ । अमोहो-अमोघः। उत्त. ४०३ । अमोघः, आदित्यकिरण.. अमूढ-अमूढः, अविप्लुतः । दश० २६६ । विकार जनित आदित्योद्गमनास्तमयने आताम्रः कृष्णश्याम्मे भमूढदिट्ठी-अमूढदृष्टिः, बालतपस्वितपोविद्यातिशयदर्शनैर्न वा शकटोद्धिसंस्थितो दण्डः, यूपकः । आव. ७३६ । मूढाः स्वभावाचलिता दृष्टिः-सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढ- अमोहः, शाहजनीनगर्यां देवरमणोद्याने यक्षः । विपा० ६५ दृष्टिः । प्रज्ञा० ५६ । अचलितसम्यग्दृष्टिः । दश. १०२। अम्मड-(अम्मडः ), परिव्राजकः । भग० ६५३ । ऋद्धिमत्कृतीर्थिकदर्शनेऽप्यनवगीतमेवास्मदर्शनमिति मोह- अम्मधाई-धात्री। उत्त. ३३१। विरहिता सा बासौ दृष्टिश्च-बुद्धिरूपा। उत्त० ५६७। अम्मया-अम्बा, पुरुषसिंहवासुदेवमाता। आव० १६२ । अमढलक्खो -अमूढलक्षः, सर्वज्ञेयाविपरीतवेत्ता। आव. अम्बा। आव० ८१६ । २३४ । | अम्माहिती- पञ्चमवासुदेवमाता। सम० १५२ । व्य अमृतरसा-वापीनाम । ज० प्र०३७१। : प्र. १८० आ। अमेझं-अमेध्यम् । आव० २१३ । अम्मि भि)ओ-अभ्यागतः। आव० ५६० । । अमोसलिं-न विद्यते मोसली यत्र तदमोसलि । ठाणा० अम्मो-अम्बा। आव. २७२ । अम्मोगइया-अहंपूर्विका । आव २९३ ।। अमोह-अमोघम् , अन्तरिक्षम् । सूत्र. ३१८ । अवन्ध्यम्। अम्मोगतिया:-अभिमुखः। आव० ३०० । दश० २३३ । जूवगो। नि० चू० तृ. ७०आ। अम्लः -(अंबिले), आश्रवणक्लेदनकृत् । ठाणा० २६ । अम्लम्अमोहदंसणं-अमोघदर्शनम् , पुरिमताले उद्यानम् । विपा० (अंबिलं), कालिकम् । ठाणा० ४९२। रसविशेषः। प्रज्ञा ०४७३ । अम्लवेतस-अम्लरसपरिणताः। प्रज्ञा० १०। । अमोहदसि-अमोहदर्शी, योऽमोह-यथावत्पश्यति । दश० अम्हएहि-अस्मदीयम् । आव० ८१३ । ... अम्हश्चयं-अस्मदीयम् , अस्मत्सम्बन्धि । दश० ११२ । . मी-अमोघदर्शी परिमतालनगरेऽमोघदर्शनोद्याने घदशनाधान! अम्हच्चय-अम्माकीनः । आव. २९५। भा .अम्माकीतः। आव... . यक्षः । विपा० ५५। । अम्हे-अम्माकम् । पउ० २८-४६। अमोहपहारी - अमोघप्रहारी, जितशत्रो राज्ञो रथिकः । अयं-अयं, प्रत्यक्षगोचरीभृतः संसारी। आचा. १६३/ उत्त. २१४ । इष्ट फलं, कर्म। जीवा० ३२। लोहं । भगा ६९७ । इष्टअमोहरहो-अमोघरथः, जितशत्रो राज्ञो रथिकः । उत्त.। फलम् । भग० ४ । २१३ । अयंतिय-अयन्त्रितः, अनियमितः । उत्त. ४७८ । अमोहमत्थं-अमोघशस्त्रम् । आव० ४०७ । ! अयंते-( अइंते), पुनः कायिकां व्युत्सृज्य वसति प्रविशतः। अमोहा- अमोघा, पूर्व दिग्भागअनपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि । ओघ० ८१ । पुष्करिणीविशेषः। जीवा. ३६४ । ठाणा. २३० । अनि अयंपिर-अजल्पनशीला, नोच्चलग्नविलना । दशक २३ । फला, जम्ब्वाः सुदर्शनाया द्वितीयं नाम। जीवा० २९९ ।। अयंपुले - वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. १९९ । सफला। जं. प्र. ३३६ । अमोघाः, आदित्योदयास्तमय-- मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ । गोशालकश्रावकः । भग० योरादित्यकिरणविकारजनिता दण्डाः । भग० १९६।। ६८० । Pre . 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अयंबुले अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अरहकम्मं ] अयंबुले-आजीवकोपासकविशेषः । भग० ३७० । । स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात् । सम० ५। अय-अयः, लोहः। प्रज्ञा ० २७। पृथिवीभेदः । आचा० २९। अयवीही अजवीश्री, शुक्रमहाग्रहस्य सप्तमी वीथी। ठाणाः । अयआकरो-लोहाकरः, यत्र लोहं ध्मायते । ठाणा० ४१९।। ४६८ । अयकक्करभोई - अजकर्करभोजी, अज:-छागस्तस्य कर्कर- अयशःकीर्तिनाम-( अजसोकित्तिणाम ), यदुदयवशात् यच्चनकवद्भक्ष्यमाणं कर्करायते तच्चेह प्रस्तावान्मेदोदन्नुरम- मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति तद् । प्रज्ञा० ४७५ । तिपकं वा मांस तोजी वा । उत्त० २७४। । अयशोभयम्-अश्लाघाभयम् । आव० ६४६ । अयकरए-अजकरकः, ग्रहविशेषः । ठाणा० ७८ । जं० प्र० अयसि-अतसी, धान्यविशेषः। दश० १९३ । भग. ८०२, ८०३ । भङ्गी, धान्यविशेषः । भग० २७४ । अतसीअयको,सि-लोहप्रतापनार्थे कुशूले। भग. ६९७ । । पुष्पम् । उत्त० ४६० । कुसुंभिआ। ओघ. १४६ । अयकोसंठितो-अयःकोष्ठसंस्थितः, अयःकोष्टः, लोहमयः । अयसिकुसुम-अतसीकुसुमम् , । प्रज्ञा० ३६० । कोष्टस्तद्वत्संस्थिताः । जीवा० १०५। अयसिवणं-अतसीवनम् । आव० १८६ । अयसिवणे-(अतसीवनम् )। भग० ३६ । अयगरा-अजगराः, उरःपरिसर्पभेदविशेषाः । प्रज्ञा० ४५ । अयगरो-अजगरः, उरःपरिसर्पविशेषः। जीवा० ३९। अयसी-औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । धान्यविशेषः । उत्तु.. अय अयगोलो-बालो गिद्धम्मो वा। नि० च० प्र०६२।। ६५३ । अयणं-अयनं, त्रय ऋसकः। जीवा०३४४। सर्य ११ अया-द्विखुरविशेषः । प्रज्ञा. ४५ । अतनं-सातत्यभवनप्रवृत्तं । विशे. १३४३। अयागरं-अयआकरः, यस्मिन् निरन्तरं महामूषास्वयोदल प्रक्षिप्याऽय उत्पादयते सः। जीवा. १२३ । लोहाकरःअयणाति-अयनानि-ऋतुत्रयमानानि। ठाणा० ८६।। यत्र लोई ध्मायते । भग. १९९।। अयणे-(अयनं), त्रय ऋतवः। भग. ८८८ । अयि-अयि !, कोमलामन्त्रेण प्रयुज्यमानः शब्दः । दश. अयतं-(अजयं), अयननया। ओघ. २१९ । अयथार्थम्-पलाशाभिधानवत । आव० ५१ ।। अयोगी-न सन्ति योगा यस्य स, न योगीति वा योअयमाणे-आददानः, प्रवर्त्तमानः । सूर्य, १२ । आयान-- ऽसावयोगी, शैलेशीकरणव्यवस्थितः । ठाणा० ५० । . आगच्छन् । सम० ९४ । अयोग्यः-( अजोग्गो), अनलः, अपच्चलः । नि० चू० द्वि० अयमाणे ( अयमीणे )-अददान: । जं० प्र० ४४२ । २५ आ। अयराइ-अतराणि, सागरापमाण। विश, १२७१। । अयोध्या-दशरथराजधानी । प्रश्न. ८७ । भरतसगरादिअयरामरं - अजरामरम् , अविद्यमानी जगमगे यम्मिन चक्रवतिनां नगरी। प्रज्ञा० ३००। कोशला। जं. प्र. तत। आव० ८। अयल-अचलं स्वाभाविकप्रायागिकचलनक्रियाव्यपाहात । अयोमहा-अयोमुखः, एकादशमान्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५०। जीवा० २५६। अचलः-स्वाभाविक प्रायोगिकचलन हेत्व- अव्यापारोपेक्षा:-मतकस्वजनादिभिस्तं सक्रियमाणमपेक्षभावात निश्चलः । भग, । माणास्तत्रोदासीनाः । ठाणा० ३५३। अयलपुरं-अचलपुरं, नगरविशेषः । उत्त.. ९९। पिंड. अव्याहतपौर्वापर्यम-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । १४४। अरंजर - अरजरम् , उदकुम्भो, अलञ्जरम् । ठाणा० २८३, अयलभाया-अचलभ्राता, नवमगणधरः । आव. २४०।। २२८ । अयले-अचलः, प्रथमबलदेवः। आव० १५९, १७४ | सम० । अरइ-अरतिः, मोहनीयोदयाञ्चित्तोद्वेगः । भग० ८०। ८८ । अन्तकृशानां प्रथमवर्गस्य षष्टाध्ययमम् । अन्त.१। अरइकम्म- अरतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तत् । अयलो-अचलः, उज्जयिन्यां वणिग्दारकः। उत्त० २.१८।-टाणा, ४६९ । 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अरहमोहणिजं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अरहमित्तो] भरइमोहणिज-अरतिमोहनीयम्-यदुदयवशात् पुनर्बाद्या- हारयतीति, अरसो वाऽऽहारो यस्यासावरसाहारः। ठाणा. भ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति तत् । प्रज्ञा० ४६९ । । २९८ । अरइयं-अरतितो जे ण पञ्चति । नि. चू० प्र० १८९ अ। अरसाहि-प्रहरणविशेषैः । उत्त० ४६० । भरई - अरतिः, इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारः। अरसिया-अर्शासि । उत्त० १२१ । आचा. १६८। वातादिजनितश्चित्तोद्वेगः। उत्त. ३३८ । अद्यमानरसैः । भग० ४८४ । अरप-अरजाः, प्रहविशेषः । जे० प्र० ५३५। ठाणा० ७९ । अरसो-अरसः, हिग्वादिभिरसंस्कृतः । औप० ४० । अरक्खुरी-आरक्षुरीम् , संवेगोदाहरणे मित्रप्रभस्य प्रत्यन्त- अरहंत-अर्हन्तः, अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामनगरम् । आव० ७१०। हन्तीति । दश० ६२। अरगंतरं-अरकान्तरम् । आव० ३४४ । अरहंतघरं-अर्हद्गृहम् । आव० २९५ । अरगाउत्तासिया-आरकोत्तासिता, अरकैरायुक्ता-अभिवि- अरहंता -अर्हन् , अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यधिनाऽन्विता अरकायुक्ता, 'सिय'त्ति स्यात-भवेत् , अथवा रूपां पूजामहतीति । भग० ३। अरहोऽन्तः-अविद्यमान रहःऽऽरकाउत्तासिता-आस्फालिता यस्यां सा। भग० १५४ । एकान्तदेशोऽन्तो-मध्य गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया येषां ते। अरघट्टघटीनिवहादिः। उत्त० ५९९ । भग०३। अरथान्तः--अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकल परिग्रहोपलक्षणभूतः अन्तः-विनाशो जरायपलक्षणभूतो अरजा-अरजपू: । जं० प्र० ३५७ । येषां ते। भग. ३ । अरहन्तः-क्वचिदप्यासक्तिमगच्छन्तः । अरणी-काष्ठविशेषः । प्रज्ञा० २९ । भग. ३ । अरहयन्-प्रकृष्ट रागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयअरपणं-अरण्यम् , काननम् । दश. १४७ । सम्पर्कऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजन्। भग०३। अरण्णवडिसगं-विमानविशेषः । सम० ३९ । अर्हाः-अर्हन्तः। आव० ४०६ । प्रज्ञा० ५५। अशोकाअरण्णानी-अरण्यम् । उत्त० ३८१ । ! द्यष्टमहाप्रातिहार्यादिपूजामहतीति तीर्थकरः । आव० ४८ । अरति- अरतिः, मोहनीयोदय जश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणः । अर्हता । ठाणा० ३३२ । ठाणा० २६ । अरहंतुवएसो-अर्हदुपदेशः, आगमः । आव० ४५१ । अरते - अरजा, ब्रह्मलोके विमानप्रथमप्रस्तटनाम । ठाणा० अरह-अर्हन् , अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपपूजायोगात ठाणा. ४६५। अर्हः-पूजाहः । भग० ६७। मरय-अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् । सम० १४०। अरहह-अरघटिक । ( आउ०)। अरयं-अरतं, रतस्याभावरूपः, अरजोरजमोऽभावरूपः । अरहट्टो-अरघट्टः । ओघ० १५८ ।। अरसं-शृङ्गारादिरसाभावम्। उत्त. ४४८। । अरहण्णए-मुनिविशेषः । (मर०)। अरविंद-अरविन्द, प्रत्येकवनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७। अरहणओ-अर्हन्नकः, ईर्यासमिती यस्य देवतया पादजलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । छिन्नः । आव० ६१६ । भरसं-अरसम् , हिश्वादिभिरसंस्कृतम् , प्रश्न. १०६ । भरहण्णग - तगरायामुष्णाभिहतः ( मर०)। अहतकः, प्रश्न० ६३ । अविद्यमानाहायरसम् । हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृत- सद्व्यवहारकाचायः । व्य० प्र० २५६ आ। मिति । प्रश्न. १६३ । असंपत्तरसम् । दश० चू० ८३। अरहदत्ता - अर्हद्दत्ता, अप्रतिहतराजकुमारमहा चन्द्रभार्या । असम्प्राप्तरसम् , हिरवादिभिरसंस्कृतम् । दश. १८०।। विपा० ९५। भरसजीवी - अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि यस्य स । अरहनओ-अहन्नकः । आव• ३८८ । उत्त० ९० । ठाणा० २९६ । अरहन्नग-अरहन्नकः, मुनिविशेषः। बृ. द्वि० ४९ अ। अरसमेहं-अरसमेघः, अमनोजमेघः । भग० ३०६। । अरहमित्तो-अहमित्रः, आत्मदोषोपसंहारविषये द्वारवत्यां भरसाहारे - अरसाहारः, अरसं-हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमा-! श्रेष्टिविशेषः । आव. १४ । अर्हन्मित्रः । आव० ३८८ । 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अरहया अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अरुणवरावभासवरो] अरहया-अर्हता, तीर्थकरता। आव. २३५। . अरिहंतचेइयं-अर्हच्चैत्यम् , तीर्थकरप्रतिमा। आव० ७८६ । अरहस्सं - अतीवरहस्यभूतं छेदशास्त्रार्थतत्त्वम् । बृ० तृ.। अरिहंता-अरिहन्ता, कर्मारिविनाशकः । भग० ३ । कर्मारि२६५ आ। हन्ता। भगः३। अरिहन्तारः, इन्द्रियविषयकषायपरीअरहसिजा-अर्हच्छय्या, अर्हद्भवनम् । व्य० प्र० २५ आ। षहवेदनोपसर्गशम( नाश )काः। आव० ४०६ । अरिहअरहा-देवादिकृतां पूजामहन्तीति अर्हन्तः, अरहसः अथवा तारः. रजोहन्तारः। आव. ४०६ । नास्ति रह:-प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वात्ते । अरिहमित्तो-अर्हन्मित्रः । उत्त० ९०। ठाणा. १७४। जिनः । सम० १५३ । अर्हन-पूजा- अरिहा-अर्हाः। आव० ३८७ । मर्हतीति । अरहाः, नास्य रहस्यं विद्यत इति वा। उत्त. अरिहो-अर्हः, अर्घः । प्रश्न. ७६ । २५७ । अरी-अरिः, शत्रुः। जीवा० २८० । अरहितं-समपादेनेक्षणं लेष्टुकारोहेण वा साधुसाव्योः परस्परं अरुअ-अरुः , वर्ण । वृ. द्वि० ११ आ। अरु:-त्रणं । बृ• दृष्टिबन्धो वा। बृ० द्वि० १४ अ । तृ० २०८ आ। अरातिः-व्याधिः । विशे० ७७९ । अरुगं--अरुकं, व्रणः । बृ० द्वि० २५४ अ। अरायाणि-अराजानि, यत्र राजा मृतः । आचा० ३७८ । अरुज्झंते-अरुह्यमाणे-एतस्मिन् पात्रके। ओघ. १४५ । अरि-अरिः, सामान्यतः शत्रः । जं. प्र. १२० । अरुण-अरुणः, नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं अरिक्को-अरिक्तः । ओघ. १९९। समुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७। सप्तमहाकुष्ठेषु प्रथमभेदः । अरिट्र-अरिष्ठः, पिचुमन्दः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१। । आचा० २३५। अरिट्टनेमि-अरिष्टनेमिः । आव० २७३, ५१५ । दश० अरुणुत्तरवडिंसगं-ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः। सम० १४ ३६, ९६। तीर्थकरविशेषः । बृ० प्र. ३० आ । अन्त. अरुणप्पभ-शीतलनाथदीक्षाशिबिका । सम० १५१ । २, ५। समुद्रविजयसुतः । उत्त० ४८९ । समुद्रविजयस्य । अरुणप्पभो-अरुणप्रभः, चतुर्थोऽनुवेलन्धरनागराजः तस्यैप्रथमः पुत्रः। उत्त० ४९६ । वावासपर्वतश्च । जीवा० ३१३। ठाणा० २२६ । अरिट्ठयं-अरिष्टकं, फलविशेषः । पज्ञा० ३६० । अरुणमहावरो-अरुणमहावरः, अरुणवरोदे समुद्रेऽपरा - अरिद्वा-मंडवगोत्रस्य नामविशेषः । ठाणा० ३९.। धिपतिर्देवः । जीवा० ३६७।। अरिट्रे-धर्मजिनप्रथमशिष्यः । सम० १५२। अरुणवर-अरुणवरः, अरुणसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं अरिणो-अरयः, इन्द्रियविषयकषायपरीषहवेदनोपसर्गरूपाः।। समुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७। द्वोपविशेषः । ठाणा० २१७ । आव. ४०६। अरुणवरभद्दो-अरुणवरभद्रः, अरुणवरद्वीपे पूर्वार्धाधिपअरिदमन-अरिदमगो, अभयदानप्राधान्ये वसन्तपुरे राजा। तिर्देवः। जीवा० ३६७।। सूत्र. १५० । अरुणवरमहाभद्दो-अरुणवरमहाभद्रः, अरुणवरद्वीपेऽपअरिमर्दन-संवासदृष्टान्ते वसन्तपुरे राजा। पिंड. ४८। रार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० २६७ । अरिष्टनगरम्-राममातुलहिरण्यनाभराजधानी। प्रश्न. ८८। अरुणवरावभासः-अरुणवरसमुद्रानन्तरं द्वापः तदनन्तरं अरिष्ठपुरम्-रुधिरराजधानी । प्रश्न० ९० । समुद्रोऽपि। प्रज्ञा० ३०७ । अरिस-अऑसि, रोगविशेषः । विपा० ४० । नि० चू० प्र. अरुणवरावभासभहो-अरुणवरावभासभद्रः, अरुणवरा१८९ अ । नि० चू० द्वि० ६२ आ । अशः,गुदाङकुरः। वभासद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६७ । . जं. प्र. १२५। , अरुणवरावभासमहाभद्दो- अरुणवरावभासमहाभद्रः, अरिहंत-अन्तः , अरुहन्त:-न रुहन्तीति। दश० ७९। अरुणवरावभासद्वीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६७ । अशोकाद्यष्टमहापातिहादिरूपां पूजामहन्तीति अर्हन्तः- | अरुणवरावभासवरो- अरुणवरावभासवरः, अरुणवराशाम्तारः । आव. ११९ । . वभाससमुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः। जीवा० ३६७ । 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अरुणधरावभासो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अर्थजाता ] अरुणवरावभासो- अरुणवरावभासः, अरुणवरोदसमुद्र- अरुवी-अरूपि, अमूर्त्तम् । भग० १५० । सत्को द्वीपः । जीवा० ३६७ । । अरेण-आरतः । आव. २८५ । अरुणवरो-अरुणवरः, अरुणोदसमुद्रसत्को द्वीपः। जीवा० अरो-अरः, तीर्थकृच्चक्रवर्तिविशेषः । उत्त० ४४८ । सप्तम३६७। अरुणवरोदे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६७। चक्रवर्ती। आव. १५९। सम० १५२। सर्वोत्तमे कुले अरुणवरोए - अरुणवरोदः, अरुणवरद्वीपसत्कः समुद्रः।। वृद्धिकरो जायतेऽतः, अष्टादशो जिनः, यस्मिन् गर्भगते जीवा० ३६७। मात्रा स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽतिसुन्दरोऽतिप्रमाणश्चारको दृष्टो. अरुणा-शिखरिपर्वतवासिदेवनाम। ठाणा. ८०। ऽतः। आव० ५०५। अरुणाभं-ब्रह्मलोककल्पे विमानविशेषः । सम० १४ । अरोगी-अरोगी-रोगविप्रमुक्तः । दश० २०५। अरुणामे-अरुणाभः, राप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषः । अरोस-अरोषः, चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न. १४ । सूर्य० २८७ । सौधर्मकल्पे विमानः । भग० ५५१।। -उत्त० ६७७ । प्रज्ञा० १०। अरुणावभासो- अरुणावभासः, अरुणावभासद्वीपसत्कः । अर्गलम्-अधिकम् । उत्त० ६६० । समुद्रः। जीवा० ३६७।। अरुणे-ग्रहविशेषः । ठाणा० ७९ । अर्गलपाशका-अग्गलपासगागि, यत्रार्गलाऽग्राणि निक्षिपन्ते। आचा. ३३७ । अरुणो-अरुणः - लोकान्तिकदेवविशेषः। आव. १३५। अर्गला-( अग्गल ), उपकरणभेदः । आचा. ६० । परिघः । महाकुष्ठस्य प्रथमो मेदः । प्रश्न. १६१। ग्रहविशेषः। जं० प्र० उत्त० ३११ । ५३५। द्वीपविशेषः, यो देवप्रभया पर्वतादिगतवत्ररत्नप्रभ अर्घति-(अग्घइ), अर्हति । उत्त० ३१६ । या चारुण इति । जीवा०३६७ । देवः । जं.प्र. ३०५ । अर्चा -- ( अच्चे ) लेश्या, शरीरं, क्रोधाद्यध्यवसायात्मिका भरुणोए-अरुणोदः, अरुणद्वीपसत्कः समुद्रः, सुभद्रसुमनो- ज्वाला । आचा. २८४ । भद्रदेवाभरणद्युत्याऽरुणम्-आरक्तमुदकं यस्यासौ। जीवा० अश्चि-( अच्ची ), अन्छिन्नमूलः । ठाणा० ३३६ । अर्चिः । मूल प्रतिबद्धा ज्वलनशिखा। उत्त० ६९४ । अरुणोदए-अरुणोदकः, अन्धकारं, तमस्कायस्य नामं । ' अञ्चिषा-(अचीए), शरीरनिर्गततेजो ज्वाला । ठाणा ० ४२१ । भग० २७०। | अर्जितदुःखा-अजितं- उपार्जितं दु.खं यैस्ते । उत्त ० २६३ । अरुणोद-समुद्रविशेषः । ठाणा० २१७ । अर्जुन-तृगविशेषः । प्रज्ञा० ३० । उत्त० ६९२ । जीवा० २६ । अरुणोपपात-सूत्रविशेषः । बृ० प्र० ६२ आ। जं० प्र० १३। अरुणोववाते-अरुणोपपात,: इहारुणो नामदेवस्तत्समयनि- अर्जुनसुवर्णकम्-( अज्जुगमवन्नग ), अर्जुन-शुक्नं तच्च बद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुः, अध्ययननाम । ठाणा० ५१३। तत्सुवर्णकम् । उत्त० ६८५। अरुयं -- अरुक, अविद्यमानरोगः । भग. ५। अरुः-- मयी-सर्वात्मना कनकमयी। जं.प्र. ३७३। व्रणः । सूत्र० ९२ । अरुज, शरीरमनसोरभावेनाधिव्याधि- अतिः -( अद), शारीरमानमी पीडा तत्र भवा। आचा. रहितम् । जीवा. २५६। अजम्-अविद्यमानरोगं शरी. रमनसोरभावात । सम, ५। अर्थ-अर्यत--गम्यतं, पर्गिच्छद्यत इति । आव० १• आज्ञा । अरुयं-अरु:आव८२० । आव० ६०४ । सिद्धशब्दपर्यायः । ठाणा० २५। अरुह-न रहोऽरुहः अपुनर्भावी। आचा० २३१। मित्तम् । उत्त० ४७३।। अरुहंत-अरोहन ,क्षीणकर्मबींजत्वादनुपजायमानः । भग०३ । अकर), मन्त्री, नैमित्तिकः । ठाणा. २४१। अरोहन , अनुपजायमानः क्षीणकर्मयी जत्वात। भग० ३। अर्थजाता-( अट्ठ जायं ) अर्थः-कार्यमुत्प्रवाजनतः स्वकीयभरुहय-अर्हता। विशे८६१। परिणवादेर्जातं यया सा, पतिचौरादिना संयमाचाव्यमानअमपिण: अमर्ताः । ठाणा. १९६। त्यर्थम्तां वा। ठाणा, ३२९ । 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अर्थदण्डः अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अलमत्थु ] भर्थदण्डः-(अट्ठादंडे ), दण्डयतेऽऽत्माऽन्यो वा प्राणी येन | अक्-िअधः। आव० ८२७॥ स दण्डः....ठाणा० ३१६ । | भईन्-सातिशयरूपसम्पत्समन्वितः । आचा. ४१२। अर्थधर्माभ्यासानपेतम्-वाण्यतिशयविशेषः । सम० ६३ । भलं-अलम् , अत्यर्थम् । दश० २३८ । भर्थनिर्यापणा - अर्थस्य पूर्वापरसाङ्गत्येन गमनिकेत्यर्थः । भलंकार-अलंकारः । नि० चू० प्र० २७६ आ। अलकाठाणा० ४२३ । अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु तस्य निरिति- | रान् , वस्त्रादीन् । जं.प्र. १४५ । आव. १८२। भृशं यापना-निर्वाहणा पूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां भलंकारियसभा-अलङ्कारसभा । जीवा० २३६ । अलच कथनतो निर्गमना। उत्त० ३९ । कारभवन विमानभाविनी सभा। प्रश्न. १३५। अर्थपदम् । भग० २०२। अलंकारित-अलङ्कारिका, यस्यामलकियते। ठाणा० २५२ । मर्थपदानि-( अट्ठपदा ) अर्थप्रधानानि पदानि। उत्त० अलंकियं-अलङ्कृतम् , उपमादिमिरूपेतम् । सूत्रगुणविशेषः । आव० ३७६ । अन्योऽन्यस्फुटशुभस्वरविशेषाणां करणात् । अर्थशास्त्रं-धनुर्वेदादि ! बृ० प्र० १३० आ। .. जं० प्र० ४०। मुकुटादिभिर्विभूषितम् । भग० ११९। भथाशया-पुनराभानवशतोऽन्यथा प्ररूपणादिलक्षणया । काव्यालङ्कारयुक्तम् । ठाणा० ३९७। अन्यान्यस्वरविशेसम० १३२ । षाणां स्फुटशुभानां करणात् । ठाणा. ३९६ । अलंकृतं । जं.' अर्थात्-(अट्ठ), निमित्तात् । उत्त० ४९१ । प्र. ४२० । अर्थाधिकार:-(अत्थाहिगारो), शास्त्रीयोपक्रमस्य पञ्चमभेदः। अमंगारो-अलङ्कारः, आभरणम् । जीवा० २४५ । आचा. ३ । ठाणा० ४। वक्तव्यताविशेष एव. स चैक- अलंदं । नि० चू० द्वि० ९१ आ। त्वविशिष्टात्मादिपदार्थप्ररूपणलक्षण इति । ठाणा० ५। आव० | अलंदकं-वंसीमूलम् । बृ० द्वि० १७९ अ। ५६ । अध्ययनसमुदायार्थः । आव. ५८ । अलंबुसा-अलम्बुषा, उत्तररुचकवास्तव्या दिकुमारी । आव. अर्थान्तराभिधानम् - गामश्वमित्याद्यन्यार्थप्रतिपादनम् । १२२ । उत्तररुचकवास्तव्या प्रथमा दिकुमारी महत्तरिका। जं. प्र. ३९१। आव० ५८८। अलकम्-ललाटम् । जीवा० २७३ । अर्थान्तरोक्ति-भूषावादविशेषः । ठाणा० २९० ।' भलकापुरी-अलकापुरी, लौकिकशास्त्रे धनदपुरी। जं. अर्दवितर्दा-विह्वला। जं० प्र० १७० । प्र० १८१। वैश्रमणयक्षपुरी। अन्त० १। अर्द्धचन्द्र-अद्धचंद । सम० ३०, १३९ । अलक्का-सविषश्वा । (भक्त०)। अर्द्धतृतीया-अर्द्ध तृतीयं येषां ते। प्रज्ञा० ४७ ।। अलक्खं -अलक्षम् , गुप्तम् । आव० ४२१ । अर्द्धपेटा-यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेगवञ्चतुरनं विभज्य मध्यः | भलक्खणया - अलक्षणता-असमञ्जसा. अभिधायिता। वर्तीनि गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षा.. विशे० २०५। मटति सा पेटा, एवमेव, नवरमईपेटासदृशसंस्थानयोदिग् अलक्खे-अलक्ष्यः, बाणारस्यां राजा। अन्त० २५ । द्वयसम्बद्धयोगृहश्रेण्योरत्र पर्यटति । बृ० प्र० २५७ अ। अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य षोडशाध्ययनम् । अन्त० १८ । -पलसहस्रात्मकम् । जं० प्र० २५३। अलत्त-अलक्तकः । उत्त० ६५३ । भाषा-भाषाविशेषः । जं. प्र. १४। अलत्तगपहो-जंमेतं अलत्तगेण पादो रजति तमेत्तो अ सन्यासम्-उत्तरासंगरूपम् । वृ० प्र० १२५ ।। कदमो जमि पहे सो अलत्तगपहो । नि० चू० ७९आ। अर्धापक्रान्ति -- (अड्ढापकंतीए', एतदेवार्धापकान्त्या | अलत्तगा-रंगविशेषः । नि० चू० प्र० १८८ अ । शिशिरे कुर्वन्ति, तत्रार्थस्यासमप्रविभागरूपस्यैकदेशस्य वैका- अलब्धमध्यमः-गम्भीरः। उत्त० ५५४ ।। दिपदात्मकस्यापक्रमणमवस्थानम् , शेषस्य तु द्वयादिपदस- अलमंथु-समयभाषया समर्थोऽभिधीयते । ठाणा० २१६ । जातरूपस्यैकदेशस्योधं गमनं यस्यां रचनायां सा समय- अलमत्थु-अलमस्तु, पर्याप्तं भवतु। भग. ६७॥ निषेधो परिभाषया अर्धापक्रान्तिरुच्यते । विशे० ५५८ ।। भवतु, निषेधकः । ठाणा. २१६ । (८९) 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अलल्ल अलल्ल - अलल्ला, व्यक्ता भाषा । दश० २३५ । अलवो - अलपः, मौनत्रतिको निष्ठितयोगः, गुडिकादियुक्तो आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः वा । सूत्र० ३९३ / अलसंडविलयवासी - अलसण्डविषयवासिनः, म्लेच्छविशेषाः । जं० प्र० २२० । भलस - अलसः, अन्येन सह प्रभूतं पर्यटितुमसमर्थ: । ओघ० १५० | गण्डूलकः । प्रश्न० २४ । अलसगे - हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा । आवा० ३६२ । बरसा - अलसाः, प्रयत्नरहिताः । ष० २२२ । द्वीन्द्रि यजीवमेदः । उत्त० ६९५ । अलाउ-अलाबु, अलाबुतुम्बयोर्लम्बत्ववृत्तत्व कृतभेदः । जं० -प्र० २४४ | अलातं-उल्मुकस् । ओघ० १७ । अलाउय - अलाबुकं । आचा० ४०० । भलाते - अलातम्, उल्मुकम् । जीवा० २९, १०७ । प्रज्ञा ० २९ । ओघ १७ । ठाणा० ३३६ । दश० १६९ । अलातद्रव्यम् वक्रतयाऽवभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा वस्तु । ठाणा ० ४८२ । अलाबुकं । ओघ० १४५ । अल्लिउं ] द्वारस्य प्रथमं नाम । प्रश्न० २६ | सद्भूतार्थनिह्नवरूपम् | प्रश्न १२१ । अनृतं अभूतोद्भावनं भूतनिह्वश्च, सूत्रदोषविशेषः । आव ० ३७४ । विशे० ४६४ । शुभफलापेक्षया निष्फलः । प्रश्न० २७ । अलियवयणे - अलीकवचनम् । ठाणा० ३७० । अलिया-अलिका, पक्षिविशेषः । अनुत्त० ४ । अलियाण - अलीकाशः, अलीका आज्ञा-आगमो यस्य सः । ९७५ । अलाहि - अलम् । आव ० ११६, ७०२ । भग० ४७० । ओघ० १५९ । भलिंजरम् - कूप्यम् । दश० २६० । अलिंद - कुण्डकम् | ओघ० १६६ । अलिंदद्विओ-अलिन्दकस्थितः । उत्त० ३५५ । अलिंदाति । नि० चू० प्र० १६२ अ । अलिंदेण- अलिन्देन - कुण्डकेन । ओघ० १६७ । अलिंदो - दोषविशेषः । बृ० द्वि० ६२ अ । नट इव । व्य 2010_05 प्रश्न० ४० । अलिसिंदा चवलगारा । नि० चू० प्र० १४४ आ । भलुद्धो - अलुब्धः । आव० ८५९ । अलेप-क्षणेन सर्पिषा-घृतेन वसया च निर्वृत्तो लेपोsलेपो ज्ञातव्यः । बृ० प्र० ८२ आ । अलेभडो - अस्थिरः, अनाहारः । आव ० २१२ । अलोप- अलोक:- केवलाकाशरूपः । औप० ७९ । अलोला- इंदियविसयणिग्गहकारी, एसणं ण पेक्रेति । नि० चू० प्र० ३३२ आ । भलाभ - अलाभ:, याचितभिक्षाद्यलाभः, पञ्चदशः परीषहः । आव० ६५७ | अभिलषितविषयाप्राप्तिः । उत्त० ८३ । अलायं-अलातम्, उल्मुकम् । उत्त० ८३ । दश० २२८, १५४ ॥ अलायचक्रं - अलातचक्रं, कालभेदेन दिक्षु भ्रमत् । विशे० अल्पझञ्झ - अविद्यमानवाक्कलहः । उत्त० ५८९ । अल्पपरिकर्माणि यानि क्वचिन्मना तूर्णितानि । ओ० अलोलुओ - अपडिबद्धो । दश० चू० १४० । अलोहे - अलोभः, योगसम्प्रहेऽष्टमो योगः । आव७ ६६४ । स्वल्पलोभः । जं० प्र० १४८ | अलौकिकत्वम्- असाधारणम् । दश० १६७ । अल्पगृह भिक्षादः । आचा० ३३६ । १३२ । अल्पलेपा - चतुर्थी पिण्डेषणा । आचा० ३५७ ॥ अल्पार्थ के - ठाणा० ३३० । अल्लइ - वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । अल्लकुसुमं - अग्रकीकुसुमम्, लोके प्रतीतम् । प्रज्ञा० ३६१। जं० प्र० ३४ | अल्लगं - आर्द्रकम् कन्दविशेषः । आव० ८२८ । आर्द्र आर्द्रकं च । आव ० ८२८ । प्र७ १६४ अ । अलचम्मे । नि० चू० ० १९० अ । अलिए - अलीकम् भूतनिद्ववरूपं, असत्यं वा । भग० २३२ । अल्लपल्लो - अली, वृश्चिकपुच्छाकृतिः । विपा० ७१ । अलिसय- अलित्रम् । आचा० ३३ । मलिय- अलीकं, मृषावादः । प्रश्न० ९५ । मिध्या, अधर्म- अलिडं-अभिद्रोतुम्, आश्रयितुं वा आव० ४३७ । अल्लय - आर्द्र (सं० ) (९०) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अल्लिए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अवउडगं] अल्लिए-आश्रयेत् । (गणि.) अवंगो-अपाङ्गः, नयनोपान्तम् । जीवा० २०६ । अल्लितो-अर्पितः । आव० ४३४ । अवंझ-अवन्ध्यं, एकादशपूर्वनाम। ठाणा. १९९१ अल्लियंतुं-उपसप्र्तुम् । आव० ६५ । अवझपुव्व-अवध्यपूर्व-यत्र सम्यग्ज्ञानादयोऽवध्याः-सफला अल्लियंतो-आश्रयन् । आव० ४०० । वर्ण्यन्ते तत् , एकादशपूर्वनाम । सम. २६ । अलिया-आश्रयति । आव० ६९५ । अवंतिवद्धण-अवन्तीवर्धनः, अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतात्मजअल्लियउ-अलगीत् । आव० १११। पालकसुतः । आव० ६९९ । अल्लियस्सह-आश्रयत। उत्त० ३९६ । अवंतिसुकुमार-प्राणिनः आहारविमोचने दृष्टांतः । आचा. अल्लियह- आलीयेताम्- आश्रयताम् । उत्त० ३९४ ।। ओघ० १५९ । अवंतिसुकुमालो-अवन्तिसुकुमालः, योगसङ्ग्रहेऽनिश्रितोअल्लियावं-प्रवेशम् । आव० ३४१ । पधानदृष्टान्ते उजयिन्यां सुभद्रापुत्रः । आव० ६७० । वंशअल्लियावणबंधे-अल्लियावणं-द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषादिना- . कुडंगेऽनशनी (मर०)। शृगालीभक्षितः (भक्त.)। ऽऽलीनस्य यत्करणं तद्रूपो यो बन्धः स । भग० ३९५ ।' अवंतिसेण - अवन्तीषणः, अज्ञातोदाहरणे धारिणीपुत्रः । अल्लियावो-प्रवेशः, आश्रयणम् । उत्त० १४५। आव. ६९९। अल्लिविओ-अर्पितः । आव० ४२१ । • अवंती - देशविशेषः । बृ० तृ. २१८ अ । उत्त. अल्लियेई-अर्पयति, ददाति । आव० ५६० । अल्लीण-आलीनम् , सुश्लिष्टम् । जं.प्र. ५२९ । आलीनः- .. अवंतीजणवप - अवन्तीजनपदः, देशविशेषः । आव० अवताजणवप - अ मस्तकभित्तो किश्चिटमो न तु टप्परौ। जं० प्र० ११३। २८९ । उत्त० ४९ । नि० चू. प्र. ६४ । मनोवाकायगुप्तावाधितौ वा. यद्वा अली नौ-पृथगवस्थानेन | अवंतीजणवय-देशविशेषः । व्य. प्र. १४९ आ। परस्परमश्लिष्टौ। उत्त० ४९९ । गुरुजनमाश्रितः। अनु. अवतीसुकुमार-नामविशेषः, उदाहरणविशेषः । बृ० द्वि. शासनेऽपि न गुरुषु द्वेषमापद्यन्ते, अथवा आ-समन्ता- , २२४ अ। सर्वासु क्रियासु लीना-गुप्ता नोल्वणचेष्टाकारिणः । जं० प्र. अवंतीसुकुमालो-वंशकुडंगेऽनशनी (मर०)। शृगालोभ११७। जीवा० २७८ । गुरुमाश्रितः । औप० ८८ । इष- क्षितः (भक्त.) हीनः । आव० १९७ । आलीनः । आव० ६३ । आश्रितः अवंतीसुत-शृगालीभक्षितो मुनिः । (सं.) (आउ०) । आ-समन्तात् लीना आलीना। व्य. द्वि. अवंतीसोमालो। नि० चू० प्र० १३७ आ । - ४४० आ। अव-अपृथक्त्वम् । आव. २७८ । अधः । प्रशा०५२६ । अल्लेसेहि-अश्लेषैः । आव० ६३ । । उत्त०५५७ । मर्यादया एतावत्क्षेत्रं पश्यन् । विशे० ५४ । अब-(अवाङ), अधम्तात् । आचा०६३ । अवइद्धो- अपविद्धः, तोमरादिना सम्यग्वि अवंगाओ-अपाङ्गाः, नयनप्रान्तम् । जं. प्र. ५२ । ४९ । अवंगुअ-अप्रावृतम् । नि० चू० प्र० २०४ अ। अवनगो-अवकीर्णकः । आव. ७१८ । अवगुदुवारे - अप्रावृत्तद्वार:-कपाटादिभिरस्थगितगृहद्वारः ।। अवउजिअ-अधोऽवनम्य । आचा० ३४४ । औप. १००। अवउज्झत्ति-परित्यज्यते। आव. ७६५। अवंगुय-अपात्रतम् , न स्थगयति । बृ० द्वि. २५ आ, अवउज्झियथोवमाहारो- उज्झितस्तोकाहारः, उज्झित१६४ अ. धर्मा स्तोकः-स्वल्प आहारो यस्य सः । आव० ५६८ । द्वाटिते। बृ. द्वि०२५० आ।' अवउडगं - अवकोटनम् , प्रीवायाः पश्चाभागनयनम् । अवंगयदवारो-अप्रावृतद्वारः, अप्रावृतं द्वारं येन मः, उद्- विपा० ५३ । अवकोटकः, कुकाटिकाया अधोनयनम् । घाटितद्वारः । मूत्र. ३३५ । विपा० ४७ । (९१) 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवप आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अवच ] भवए-अवकम् , अनन्तजीववनस्पतिमेदः । आचा० ५९। अवक्खारणं-अपक्षारणम् , अपशब्दं क्षारायमाणं वचनं, जलरुहविशेषः। प्रज्ञा० ३१, ३३ । साधारणबादरवनस्प- अपक्षकरणम्-सानिध्याकरणम् । प्रश्न. ४१। तिकायविशेषः । जीवा. २६ । प्रज्ञा• ३४ । साधारणव- अवक्खित्तो-आक्षिप्तः । उत्त० ११५॥ नस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ४०। | अवगति-बुद्धिः । उत्त० ३९२ । अवपडए-तापिकाहस्तकान् । भग० ५४८। अवगम-संज्ञा । आचा. १२। अवओडयबंधणयं - अवमोटनतोऽवकोटनतो वा पृष्ठदेशे अवगाढ-अवस्थिताः । ठाणा० ५१४ । बाहुशिरसा संयमनेन बन्धनं यस्य सः। अन्त० १९। | अवगाढगाढ - गाढावगाढम् , अतिगाढम् , प्राकृतत्वादेवं भवकंखइ - अवकाक्षति, भपेक्षते, अनुकम्पते । भग० रूपम् । भग० ३७ । अवगाढा-आश्रिताः । ठाणा० ५२७। . भवकरिसो-अपकर्षः-अभावः। प्रश्न. ६२। . अवगाढाअवगाढं- अवगाढावगाढम-अत्यन्तव्याप्तिदर्शअवकारं-अपकरणम् , अङ्गारोपरिक्षेपः। प्रश्न० ४०। नम् । भग० १५३ । अवकिन्नतो-अवकीर्णकः, करकण्डोः प्रथमं नाम । उत्त० अवगायति-परिभवति । आचा० १०६ । | अवगासो-अवकाशः, यद्यस्योत्पत्तिस्थानम् । सूत्र० ३५० । अवकिरति-उत्सृजति। आव० ७७१ । अवस्थानम् । विशे० ७७१ । गमनादिचेष्टास्थानम् । आव. अवकिरियब्वं-अवकरणीयम् , विक्षेपणीयम् , त्याज्यम् । ८३५। अवस्थानमवतारो। ठाणा० २३७ । बहूनां प्रश्न. ९६। विवक्षितद्रव्याणामवस्थानयोग्यं क्षेत्रम् । भग० ६०५ । अवकुंडिय-अवगाढ-व्याप्त । (मर०) अवगाहणा-आश्रयभावः । भग० ६०९ । अवस्थानरूपा। अधकुजियं-उट्टाए तिरियहुत्तकरणं। नि० चू० तृ. ५९ । विशे० ८६२ । अवकोडकबंधणं-अरकोटकबन्धनम् , बाहुशिरसां पृष्ठदेश अवगीत-वाङ्मात्रेणापि केनचिदप्यननुवय॑मानः । आचा. बन्धनम् । प्रश्न० १४ ।। १०६ । अवकोडयं-अवकोटकम् , कोटायाः-ग्रीवाया अधोनयनम् । अवगीतम्-निन्दितम् ! भग० ११ । प्रश्न० ५६ । अवगुणंति-अपावृण्वन्ति । भग० ६८३ । अवकंत-अपकान्तः, सर्वशुभभावेभ्योऽपगतः-भ्रष्टः, अप- अवगृहितो-अवगृहितः । आव० ३४४ । क्रान्त:-अकमनीयः | ठाणा ३६६ । आव० ५०४ । अव अवगुण्ठ्यते-लिप्यते । आचा० १४७ । क्रान्तः-अवस्थितः। उत्त. १५६ । अवग्गहो-अवग्रहः, अव इति-प्रथमतो, ग्रहण-परिच्छेदअवक्रमइ-अपकामति, च्यवते । जीवा० ११०। गच्छति। नम् । ठाणा. २८३ । अवष्टम्भः । ओघ० २११ । सामा. जीवा० २४३, ३०६, ३२२, ४०० । अपकामति । आव० न्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणम् । १९६ । अपक्राम्यति । उत्त. १५७ । आव. ९ । अवकमिजा-अपकामेद्-गच्छेत् । आचा० ३८५। . अवग्रह-ओगाह, अव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियै विषयाणामालोच. अवक्कमित्ता-अवक्रम्य, गत्वा । दश० १७८ । . नावधारणां । तत्त्वा० १-१५ । अवक्कमेन - अपकामेत् , अपसर्पेत् , उत्तमगुणस्थानकाद् अवग्रहावधि-कारणे आपन्ने संयमार्थ यो गृह्यते । ओघ० हीनतरं गच्छेदित्यर्थः | भग० ६४ । २०८ । अवकासे-अपकर्षणं, अवकर्षण, अप्रकाशो वा। भग० अवधाटनप्रायश्चित्तं शेषप्रायश्चित्तानि शोधयति । व्य० प्र० ५७२ । अपकर्षः । सम० ७१।। ९३ आ । अवक्किय-असक्क। दश० चू० ११३। अवघाडो। नि० चू. प्र. १२६ भ। अवक्रम्य-विनिर्गत्य। व्य. प्र. १४६ आ। | अवच-जघन्यः । सूत्र. १९१ । 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवचए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अवणेजा ] अवचए-अपचयः, हासः, शरीरेभ्यः पुद्गलानां विचटनम् । प्रज्ञा० ४३२ । देशतोऽपगमः । भग० ५४० । ध्रुवमात्रम्। ओघ० ८६।। अवचयो-अपचयः-हीनत्वम् । सूर्य०१६। अवढ्ढक्खेत्ता-अपार्द्धक्षेत्रम् , अपार्द्ध-समक्षेत्रापेक्षया अर्द्धअवचनम्-त्रिविधवचनप्रतिषेधः । ठाणा. १४१। । मेव क्षेत्रम् । ठाणा० ३६७ । अवचुल्लकम् । बृ० प्र० २९८ आ। अवड्डखेत्तं-अपार्द्धक्षेत्रम् , अर्धमात्रक्षेत्रम् । सूर्य. १०४ । अवचूल-अवचूलम् । भग० ३१८ । पञ्चदशमुहूर्तभोग्य नक्षत्र अभिचिर्वा, पञ्चदशमुहूर्तभोग्यानि अवच्चलेणसारक्खणा - अपत्यलयनसंरक्षणा । आव. भरणी आर्दी अश्लेषा स्वातियेष्ठा च । बृ० तृ.१४८ आ। ४०५ । अवड्डगोलावलिच्छाया-अपार्द्धगोलावलिच्छाया, गोलाअवच्चे-अपत्ये । आव० १९९। नामावलिर्गोलावलिस्तस्या छाया गोलावलिच्छाया अपाअवच्छेए-अवच्छेदः, देशः । ठाणा. २०५। । ‘याः-अपार्द्धमात्राया गोलावले छाया। सूर्य० ९५। अवजाते-अपजातः-अप-हीनः, जातोऽपजातः, पितुः सका- अवड्ढचंदो-अपार्धचंद्रः--अर्धचंद्रः । बृ० प्र० १०९ अ। शादीषद्धीनगुणः । ठाणा. १८४ । अवड्ढवाविसंठित-अपार्द्धवापीसंस्थितः । सूर्य• १३० । अवजं-अवयम् , पापं । विशे० १३१७ । आव० ३६४ । अवडा-अपार्द्धा। ठाणा० १४९। . अवजपडिच्छन्नो - अवद्यप्रतिच्छन्नः, पापप्रच्छादितः । अवड्डो-अद्धं । नि० चू० प्र० १४२ आ । आव० ५३७ । अवड्डोमोअरिआ-उपाविमोदरिका, द्वात्रिंशतोऽर्द्ध षोडश, अवजभीरू-अवद्यभीरुः, साधुः । ओघ, २२४ । एवं च द्वादशानामर्द्धसमीपवर्तित्वादुपार्ड्सवमोदरिका द्वादअवज्जुत्तं-पृथग्भूतम् । आव० ७५८ । शभिरिति । औप० ३८ । भग० २९२ । अवज्झा-अवध्या, गन्धिलविजयराजधानी । जं० प्र० ३५७। अवणए-अपनयः-पूजासत्कारादेरपनयनम् । ठाणा०४१८ । अवज्झाओ। ठाणा० ८० । अवणयं-एकान्ते स्थापनम । ० द्वि० २६३ अ। अवज्झाणायरिए - अपध्यानाचरितः, अप्रशस्त यानाच- अवणिजंतु-अपनीयन्ताम् । आव० ४३६ । रितः। आव० ८३०।। अवणितमूलो-अपनीतमूलः, अपनीतमूलत्रिभागः, त्रिभाअवट्टिए-अवस्थितः, नित्यः। भग० ७६० । एवमुभयरूप- | गनिर्वाटितवाटः, ऊर्ध्वभागादपि त्रिभागहीन इति। जीवा. तया। ठाणा० ३३३। निश्चलत्वात्। ठाणा. ३३३ ।। ३५५ । अवस्थितानि-शाश्वतानि । ठाणा० १४६। अवधेः पञ्चमभेदः । अवणीओवणीयवयणं - अपनीतोपनीतवचनम् , यनिप्रज्ञा० ५४३। आव० २८ । न्दित्वा प्रशंसति । प्रज्ञा० २६७ । अवट्रिय-अवस्थितः, स्थितम् । भग० ११९ । अवर्धिष्णु। अवणीयं-अपनीतम् , स्थानान्तरस्थापितं निराकृतगुणं वा । जीवा० २७२। अवस्थिता-स्वप्रमाणावस्थिता। जीवा० औप. ३९। ९९ । स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताबहिः समुद्रवत्। अवणीयवयणं-अपनीतवचनम् , निन्दावचनम् । प्रज्ञा. जं० प्र० २७। २६७। गुणापनयनरूपम् । प्रश्न. ११८ । निंदावचनम् । अवट्रिया कप्पा-अवस्थिताः कल्पाः-सामायिक साधूनाम आचा० ३८७। वश्यंभ विनः । ठाणा. ३७४ । अवणीयोवणीयवयणं- अपनीतोपनीतवचनम् , यत्रैक अवडिंसगभूयं - अवतंसकभूतम् , शेखरकल्पम् , प्रधान गुणमपनीय गुणान्तरमुपनीयते। प्रश्न. ११८ । अरूपवती मित्यर्थः। प्रश्न० १३७ । स्त्री किन्तु सद्वृत्ता । आचा० ३८७ । अवडेंसग-अवतंसकः, शेखरकः । भग० ३२२ । अवणेति-महामगि प्रकाशयति । नि० चू० प्र० ११६ आ। अब९-कृकाटिकाम् । भग० ६७९ । अवणेजा--अपनयेत , परित्यजेत । दश. १५६ । (९३) 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवण्ण आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अवण्ण-अवर्णः, अवज्ञा वा अनादरः, वर्णनाया अकर । अवढू-कृकाटिका । विपा० ७२ । णम् । औप० १०५ | अश्लाघात्मकः । उत्त० निन्दा | आव० १०३ । ७१० । अवद्दहणा - दम्भनम् । विपा० ४१ । अवद्दारं- अपद्वारम् । आव ० ३०६ । अवहाणं- अपस्नानम्, तथाविधद्रव्य संस्कृतजलेन स्ना- भवद्धगाढलगोल छाया - अपार्द्धगाढल गोलच्छाया । सूर्य ० नम् । विपा० ४१ । ९५ । अवतंसो - पुरुषव्याधिनामको रोगः । वृ० तृ० २४९ अ । अवतासण-बाहाहिं अवतासिता । नि० चू० प्र० ११३ अ । अवन्त - अप्राप्तम् - अस्पृष्टम् । भग० १२७। अव्यक्तः, अष्टानां वर्षाणामधो बाल: । ओघ० १६२। अवद्धगोलच्छाया-अपार्द्धगोलच्छाया । सूर्य० ९५ । अवद्धगोलपुंजछाया - अपार्द्धगोलपुञ्जच्छाया । सूर्य० ९५ । अवद्धचंद - अपकृष्टमर्द्ध चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रः । ठाणा० ७१ । अवद्धजवरासि संठाण संठिए – अपार्द्धय वराशिसंस्थान सं ! अवतदंसणे - अव्यक्तदर्शन:- अव्यक्तं - अस्पष्टं दर्शन - | स्थितः, अपगतभर्द्ध यस्य सः, स चासौ यत्रश्च राशिश्व अनुभवः । भग० ७०९ । अवत्तमय-अव्यक्तमताः, संयतासंयताद्यवगमे संदिग्धबुद्धयः । विशे० ९३३ । अपार्द्धयवराशी तयोरिव यत्संस्थानं यस्य तेन संस्थितः । जीवा० ३४३ । अवद्धपोरिसी - उपार्द्धपौरुषी, अपगतमर्द्ध यस्याः सा अपार्द्धा सा चासौ पौरुषी । सूर्य० ९५ । अवन्त्तव्वं - अवक्तव्यम् । प्रज्ञा० २३४ । यच्चरमशब्देनाचरमशब्देन वा स्वस्वनिमित्तशून्यतया वक्तुमशक्यं तत् । प्रज्ञा० २३५ । अनन्तगुणं । दश० २२१ । अवतव्वगसंचिता - अव्यक्तव्यकसंचिता - समये समये एक अवधारियं - तात्पर्यग्रहणतो हृदये विश्रामितं । व्य० प्र० अवद्यं मिथ्यात्वकषायनोकषायलक्षणम् । आव० । अवद्वाय मृत्वा । जीवा० २६२ । तयोत्पन्नाः । ठाणा० १०५ । अवत्ता - छगणमट्टियाए पाणिएण य। नि० चू० प्र० अवदारं- अपरम् । आव० ३०६ । अवदारियं - अवदारितम् उद्घाटम् । आव० ६८७ । अवदाल - पादादिन्यासेऽधोगमनम् । भग० ५४० । अवदालिओ - अवदारितः । आव० १७५ । अवदा लिये - अवदालितम्, रविकरैर्विकाशितम् । औप० १७ । रविकिरणैर्विकासितम्। जीवा० २७३ । सञ्जातावदलनं विकसितम् । प्रश्न० ८२ । २३२ अ । १३९ आ । अवत्तिता - अव्यक्तिकाः, अव्यक्तं - अस्फुटं वस्तु अभ्युप- अवधि जिनः - विशिष्टावधिधरः । आव० ५०१ । गमतो विद्यते येषां ते ठाणा ० ४१० अवधिज्ञानम् - ज्ञानस्य तृतीयभेदः । दाणा० ३३२ । अवतो - सोलसवरिसारेण वयसा । नि० चू० प्र० २९० आ । अवधिज्ञानजिना:- विशुद्धावधिज्ञानाः । व्य० प्र० ८५ अ । अयत्थयं-अपार्थकम्, पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थ, चतुर्थ अवधीरयेत् उपेक्षेत | उत्त० ११२ । सूत्रदोषः । भव० ३७४ । असंबद्धार्थम् । विशे० ४६४ । अवधीरितः- परिभूतः । आचा० १०६ । अनु० २६१ । अवधूतम् -अवज्ञातम् । ओघ० १५ । अवनं - अवर्णम्, निन्दा | आव० ६६२ | अश्लाघामत्रज्ञां । ठाणा० ३६० । · शीलः । उत्त० ५४८ । अबदालेह - अवदालयति, उत्पादयति । प्रज्ञा० ६०० । 2010_05 अवभासियं ] २५७ अ । अवधिकेवली - केवलिद्वितीयभेदः । नि० चू० द्वि० अवदाली - अवदारयति - शकटं स्वस्वामिनं विनाशयतीत्येवं अवबोह-अवबोधः, मतिः । आचा० १२ । अवन्ना-अवज्ञा, परिभवः । ओघ० १८६ । अवपंगुरे - अपणुयात् उद्धायेत् । दश० १६७। अवपात - पर्वतविशेषाः येषु वैमानिका देवा अवपतन्ति अवपत्य च मनुष्यक्षेत्रादावागच्छन्ति । प्रश्न० ९६ । अपील - अवपीडयति, जलेन प्लावयति । जीवा० ३२६ । अवभासियं- अपभासितं दुष्टभाषणं, विरूपं भाषते । व्य० प्र० २० अ । (९४) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवमंथित अवमंथित - अवाङ्मुखीकृतः । बृ० प्र० ८० आ । अवमः - लघुः पर्यायेण । ठाणा० २४२ । अवमण्णइ - अवमन्यते, अवज्ञाssस्पदं मन्यते । १६६ । भवमण्णह - उचित प्रतिपत्त्यकरणेन । भग० २१९ | अवमद - अवमद । जं० प्र० १०१। अवमदं - अपमर्दम्, उपमर्दनम् । प्रश्न० ३७ । अवमप्रतिजागरणम् - गुणविशेषः । आव० ५२४ | अवमा-हीना । आचा० ३३२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः भवमाणो अपमान:, दैन्यम् । प्रश्न० १३८ । भयमानं हस्तादि ठाणा० १९८ । | अवमाणणं- अपमाननम् विनयभ्रंशः । प्रश्न० ९७। अन युत्थानादिकरणम् । भग० २२७ । मानहरणम् । प्रश्न० ४१ अपमानम्, अपूजनम् । औप० ४६ । । अवमारियं - अपस्मारः - अपगतः स्मारः स्मरणं यस्मात् सः अपस्मारः, तस्मिन् सति तद् रोगिणः सर्वविषया स्मृति: नश्यति । आचा० २३३ । अमोदरः - अवमं - ऊनमुदरं - जठरं यस्य सः । १४८ । अषम्मो - अवाम्यः । आव ० १०१ । अवयक्काओ - अवपाक्यास्तापिकाः । भग० ५४८ । भग० - ४९६ । अवयग्गं भग० ३५ । अवद्यम् पर्यन्तम् । ठाणा० ४४ । अवयणं - अवचनम् । आव ० ३४३ । भवयक्खंत अपेक्षमाणः पनयन । ओघ० १२७ । अवयक्खमाणस्स-अवकाङ्क्षतोऽपेक्षमाणस्य वा । भग० ठाणा • भक्त० ) । पृष्टतोऽभिमुखं निरू 2010_05 अन्तः, अन्तवाचको देशीवचनोऽयं शब्दः । अवयव - अवयवाः, प्रतिज्ञादयः । दशः ७५। अवयवःप्रमाणात लक्षण: । दश० ७७ अवयवाः तथाविधविचित्रपरिणामापेक्षया । ठाणा० ११ । अवरविदेहकूडे ] | अवयाणं - तैलविशेषः । बृ० द्वि० २२१ आ । भवयानी - अनुश्रोतोगामिनी । व्य० प्र० २५ आ । भवयारो - अवतारः, प्रस्तावः । व्य० द्वि० २५ आ । अवयासं - आलिङ्गनम् | ओघ० १६४ । 1 1 भवयासणं-वृक्षादीनामालिङ्गापनम् । बृ० प्र० २१५ अ । अवयासिं-आलिङ्गनम् । बृ० तृ० २६ आ । भवयासिजमाणे - अपत्रास्यमानः, अप्रयास्यमानो वा । औप० १०२ । अवयासित्ता - अवकाश्य । आव० ३५७ | अवयासेउं निवारयितुं, निरोद्धुम् । आव० ४३८ । अवरं- अपरं, पश्चात्कालभावी । आचा० १६७ । अवरज्झियाउ - अपराद्धवान् । आव ८३५ । अवरकंका- अपरकङ्का, ज्ञातायां षोडशाध्ययनम् आव ० ६५३ ष्ठा षोडशं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । सम० ३६ | अवर गजभो - अपरगर्जभः । आव० ३८७ । अवरज्झइ - अपराध्यति, अपराधमाप्नोति । दश० १९६ । अवरहसंखडी दिया गहियं रायो भुतं, राईभोयणस्स बितियभङ्गो । नि० चू० द्वि० १५ अ । अवरओ-अवरतः, जघन्यतः । विशे० ५३० । अवयविद्रव्यता- तथाविधैकपरिणामिता । ठाणा० ११ । अवयवी - अवयवानां तथारूपः सङ्घातपरिणामविशेषः । जीवा० ६ । अवरक्त अपरात्रः, अपकृष्टा रात्रिः, पश्चिमस्तद्भागः । भग० १२७ । रतीए पच्छिमजामो । दश० चू० १६४ | अवरदक्खिणा- अपर दक्षिणा । आव० ६३० । अवरदारिता अपरद्वारिकानि, अपरस्यां दिशि गम्यन्ते येषु । ठाणा ० ४१४ । अवरद्धं - अपराद्धम्, दनुम् । उत्त० १४३ | अवरद्धिगा-लता फोडिआ, तस्यां लूतास्फोटिकायामुत्थितायां दाहोपशमार्थमचेतनेन पृथिवीकायेन परिषेकः क्रियते । ओघ १३० | सर्पदंशस्तस्मिन् परिषेकादि क्रियते । ओघ १३० । · अवरभू - अवरभूः, अधोभूः । सूर्य० ४६ । अवरायं-- अपररात्रं- रात्रेः पाश्चात्यः यामः । २१० । (९५) अवरविदेहकूडे - अपरविदेहकूटम्, निषधे अष्टमकूटः । जं० प्र० ३०८ | अपरविदेहाधिपकुटम् । जं० प्र० ३७७ । आचा● Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवरविदेहे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अववंगं] भवरविदेहे-अपर विदेहः, मेरोर्जम्बूद्वीपगतः पश्चिमविदेहः। अवलंबणबाहा-अवलम्बनबाहा, उभयोरुभयोः पार्श्वयोजं. प्र० ३१०। महाविदेहापरभागः। ठाणा. ६८। रवलम्बनाश्रयभूता भित्तिः। जीवा० १९८ । निषधे कुटविशेषः । ठाणा०७२ । नीले कूटविशेषः । ठाणा अवलंबनीयम-लम्बयितव्यं रज्ज्वादिनिबद्ध हस्तादिना ७२। धरणीयम् । भग० ४७ । भवरवीयावो-अपरबीजापः । आव० ३८७ । अवलंबमाणे - अवलम्बयन् हस्तवस्त्राञ्चलादौ गृहीत्वा । भवरा-अपरा। आव० ६३० । ठाणा० ३५३ । अवराइअ-अपराजितः, पद्मबलदेवपूर्वभवनाम । आव० अवलंबमाने - अवलम्बमानः, पतन्तीं बाह्यादौ गृहीत्वा १६३ । धारयन् । ठाणा० ३२७ । अवराह-अपराजिता, शवविजये नगरी। जं० प्र० अवलगनं-सेवा। आचा. १३२ । भवराओ। ठाणा० ८०। अवलद्ध -- अपलब्धः न्यक्कारपूर्वकतया । ठाणा० ४६६ । भवराजिआ-अपराजिता, पूर्व दिग्चकवास्तव्या दिकुमारी। ईषल्लब्धः, अलब्धो वा। प्रश्न. १३८ । आव. १२२ । अवलद्धि-अपलब्धिः , अलाभोऽपरिपूर्णलाभो वा। भग. भवराजिया- अपराजिता, उत्तर दिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्योत्त- १०१ । रस्यां पुष्करिणी। जीवा० ३६४ । अवलम्बए - अवलम्बेत-अवष्टम्भादिकां क्रियां कुर्यात् । अवराह-अपराधः, गुरुविनयलङ्घनरूपः । आव० ५४१ । आचा० २९३ । अवराहखामणा-अपराधक्षामणा, वन्दनके षष्ठं स्थानम्। अवलिंबाति । ठाणा० ८६ । आव. ५४८ । अवलितं-वस्त्रं शरीरं वा न वलितं कृतं तत् । ठागा० ३६१। अवडिओ-आलिङ्गितः। आव०२७४ । यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य च वलितमिति मोटनं न भवति । अवरुजय । आव० ६३८ । उत्त० ५४१ । अवरुत्तरा-अपरोत्तरा। आव० ६३० । अवलियं-अवलितम् । ओघ. १०९। .. अवरुद्धो-अवरुद्धः, अन्तर्भूतः । विशे० ११६७।। अवलुएण । आचा० ३७८ । अवरेय-अवरेकः, रिक्तता। उत्त० ३०५। . अवलेहणिया- वासासु कद्दम फेडणी। नि० चू० प्र० अवरेण-अपरेण-जन्मादिना सार्द्धम् । आचा० १६७। १२४ अ। अवरो-अववादो । नि० चू० तृ. १४६ अ। . अवलेखक-मायायाः लक्ष गम् । आचा० १७० । अवरोप्परमसंबद्ध-परस्परमसम्बद्धः । आव० ६३५ । अवलोकनम्-गवाक्षः । बृ० प्र० २०७ अ। अवण्णे - अवर्णः, अश्लाधा। असद्दोषोट्टनम् । ठाणा० अवलोवो- अपलोपः, वस्तुसद्भावप्रच्छादनम् । अधर्मद्वा२७५ । अयशः, सर्वदिगारमिन्यप्रसिद्धिः। ठाणा० ४१८।। रस्य त्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न. २७ । अवन्न-अवर्ण: अप्रसिद्धमात्रम् । भग० ४८९ । अदलाधा। अवल्गन । आचा. १०६ । ओघ० १२१ । अयशः । ओघ० १२५ । अवल्ल-गोणी। आव० ६६५ । अवलंबण - अवलंबिजतित्ति अवलंबगं, सो पुण वेतिता। अवल्ल खेवा-सविलबाः क्षेपाः । नि० चू० द्वि० ७८ अ। मत्तावलंबो वा। नि० चू० प्र० ११९ अ। बाह्वादिमा- | | अवलुगं । ओघ. ३३ । निर्यामकाः (मर.)। त्रैकदेशग्रहणम् । बृ० तृ० २३० अ। अवतरतामुत्तरताम- _ अववं-अववम् , चतुरशीतिरववाङ्गशतसहस्रागि। जीवा. वलम्बनहेतुभूताः । जं० प्र० ४३ । अवलम्बनः, अवतर- ३४५ । "तामुत्तरतां चालम्बने हेतुभूतः। जीवा० १९८ ।अवलम्बनं अवगं-अववाङ्गम् , चतुरशीतिरडडशतसहस्राणि । जीवा. देशे ग्रहणम् । ठाणा० ३२७ । ३४५ । भग० ८८८ । 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अववंगाति अववंगाति । ठाणा० ८६ | अववरय - अपवरकः, गृहान्तर्भागः । दश० ४२ । अववाइयं-आपवादिकं यद्द्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षम् । उप० मा० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः गा० ४०० । अववाओ - अपवादः, द्वितीयपदम् । नि० चू० द्वि० ९२ अ । > अववाडी - अवपाटनम् विदारणम् । भग० १२० । अववाति । ठाणा० ८६ । अववाय- अपवादः, परदूषणाभिधानम् । प्रश्न० ११६ । अववायसुत्तं- तिन्हमन्नयरागस्स इत्यादि । बृ० प्र० २०१ आ । नि० चू० तृ० ११ अ । भववायाववाओ - अववाए पुण अन्नो अववाओ । नि० चू० द्वि० ६५ आ । अववायाववातियं । नि० चू० प्र० २२५ आ । अवविहे - आजीविकोपासकविशेषः । भग० ३६९ । अववे-कालविशेषः । भग० २१०, २७५, ८८८ । सूर्य ० ९१ । अवश्रावणम् - आयामम् । ओघ० १३३ । अवष्टम्भम् उपग्रहः । ओघ० १५४ । उत्त० ५५ । अवष्टब्धाः- आक्रान्ताः । आचा० २५८ । अवसण्णा - अवसन्नाः । आव ० ६७५ । खग्गूडप्रायाः । ओघ० १५६ । अवसद्दो- अपशब्दः । आव ० ४०१ । अवसरो - अवसरः, उपयोगकालः । सूत्र० ११। विभागः, पर्यायः, देशः, प्रस्तावः । विशे० ८३७ । अवसर्पणं । आचा० ३६४ । अवसाणं - अवसानम् । आव० ३८४ । अन्तः । प्रज्ञा० ३९७ । ! अवसाय:- निश्चयः । प्रश्न० १०४ । अवसावणं-अवश्रावणम्, काञ्जिकम् | बृ० द्वि० १२९ आ । अवसिओ-अवसितः, जितः । विशे० ९९४ । अवसिद्धंतो- अपसिद्धान्तः । आव० ३२० । अवसोहिय - अवशोध्य, अपसार्य, पृथक् कृत्य, परिहृल । उत्त० ३४० । ! अवसेसं - अवशेषम् उद्धरितम् । उत्त० ५९६ । भिक्षा प्रक्रमात्पात्रनियोगोद्धरितम्, यद्वाऽपगतं शेषमपशेषम् । उत्त० ५४४ | 2010_05 अवस्कन्द:- शिबिरः । आचा० १४० । अवस्थानम्-संस्थितिः । सूर्य ० ७ । अवस्सं - अवश्यम्, नियोगतः । आव २६५ । अवस्सकरणिजं - अवश्यकरणीयम्, द्वितीयनाम । विशे० ४१५ । अवाअ ] अवह-अव्याप्रियमाणः । बृ० द्वि० २७ आ । अवहट्टण - त्यागः । ( मर० ) अवहट्टु - अपहृत्य त्यक्त्वा । भग० १०० । परिहृत्य । औप० २४ । परित्यज्य । ओघ० ११४ | आहृत्य - निष्कृष्य, (९७) आवश्यकपर्याये त्यक्त्वा । आचा० ४०० । अवहट्टुअसंजमे-अपहृत्यासंयमः-अविश्रिनोच्चारादीनां परिटापनतो यः सः । सम० ३३ । अवहद्दुसंजमो - अपहृत्यसंयमः- प्राणिभिः संसक्तं भक्त पानमथवाऽविशुद्धमुपकरणं पात्रादि यद्वाऽतिरिक्तं भवेत् तत्परिष्ठापनं विधिना | आव० ६५३ । अवहडे - अपहृतम् । भग० २७७ । ३३७ । अवहन्न - उदूखलम् । बृ० द्वि० ६० अ । अवहार - अवधार्यते, प्रथमतया स्थाप्यते । सूर्य ० ११३ अवहारवं - अवधारणावान् । ठाणा० ४८४ । अवहाराइ- अपहृतवन्तः - गृहीतवन्तः । आचा० अवहारो - अपहारः, अधर्मद्वारस्य दशमं नाम । प्रश्न० ४३ । जलचरविशेषः । प्रश्न० ६२ । अवधार्यः - ध्रुवराशिः । सूर्य० ११३ | जं० प्र० ५०७ । अवहितचित्तः - एकाग्रमनाः । उत्त० ५९९ । अवहीयं - अपधीकम्, अपसदा - निन्द्या धीर्यस्मिंस्तत् । अधर्मद्वारस्याष्टाविंशतितमं नामः । प्रश्न० २६ । अवहीयप - अवधीयते, अवशब्दस्याव्ययत्वेनानेकार्थत्वादधोsaविस्तृतं धीयते - परिच्छिद्यते रूपिवस्तु तेन ज्ञानेनेत्यवधिः, अथवा अव-मर्यादया एतावत्क्षेत्रं पश्यन्, एतावन्ति द्रव्याणि, एतावन्तं कालं पश्यतीत्यादिपरस्परनियमितक्षेत्रादिलक्षणया धीयते परिच्छिद्यते । विशे० ५४ । अव हेडयं अर्द्धशिरोरोगम् । उत्त० १४३ । , अवहेडियं - अवहेठितम् अवेत्यधो, हेठित-बाधितं अधोनामितमिति । उत्त० ३६७। अवाअ - अपायः, उदाहरणस्य प्रथमो भेदः । दश० ३५ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अवाईण आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अविकडिय] अवाईण-अवाचीनम् , अधोमुखम् । औप० । अवाती- | अवायाणुप्पेहा - अपायानुप्रेक्षा, आश्रवाणामपायानामनुनानि, न वातोपहतानि, न वातेन पातितानि। जं० प्र० | प्रेक्षा। ठाणा० १८८ । २९ । अवालुयाखिल्ल-अवारितश्लष्म। (तं०) अवाईणपत्ता-अवाचीनपत्राः, अधोमुखपर्णाः, अधोमुख- | अवावारे-अव्यापारः, इन्द्रियाव्यापारः। आव० ६५२ । पलाशा वा। औप० । अवातीनपत्रा:-अवातोपहत- अवाहाणं-देशविशेषः। भग० ६८०। बर्हाः। औप. ९। अविंदतो-अलभमानः । आव० ५३५ । अवाउड - अप्रावृतम् , प्रावरणरहितम् । दश. १५९। अविंधणं-आव्यधनम् , मन्त्रावेशनम्। प्रश्न० ३८ । अप्रावृता। ओघ० १६७ । प्रावरणाभावः । भग. १२५। अवि-अपि, अपिशब्दः पद्यबन्धत्वेन पादपूरणार्थ एवाकाभवाउडए-भप्रावृतकः, प्रावरणवर्जकः । औप० ४० । न रार्थो वा। जं० प्र० २४५। प्रकारवाची | नि• चू० प्र. विद्यते प्रावरणकम् । ठाणा. २९९ । १६८ आ। अबाउडिय-अप्रावृतिक, सकलां रात्रि यावद् अप्रावरणाभि- अविअ-अपिच, अभ्युच्चये। ओघ. ३६ । ग्रहवान् । बृ० द्वि० २९२ अ। । अविअत्तो-अव्यक्तः, मुग्धः-सहजसद्विवेकविकल: । सूत्र. अवाए-अवायः, अवधारणात्मको निर्णयः । प्रज्ञा० ३१00 ३४ ।। अपायः-अवग्रहज्ञानेन ईहितस्यार्थस्य निर्णयरूपो योऽध्य- अविह-समन्ताद् वीचय इव वीचयः। उत्त० २३ । वसायः । प्रज्ञा० ३१०। अविउद्यमाणो-पीड्यमानः । सूत्र. ५१४ । आवउप्पकड-अविद्वत्प्रकृता, अव्युत्प्रकट। वा न विशेषत ईहार्थविशेषनिश्चयः । आव. ९। उत्-प्राबल्यतश्च प्रकटाः । भग० ३२५। अपिशब्दः सम्भाअवाघाय- अव्याघातः, प्रव्रज्यासूत्रार्थग्रहणादिकयाऽऽनुपू. बनार्थः उत्-प्राबल्येन च प्रकृता-प्रस्तुता प्रकटा वा उत्प्र या विपक्त्रिममायुष्कक्षयमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघातः। कृतोत्कटः वा। भग० ७५३ । आचा० २६२ । अविउस्सिया-अव्युत्सृज्य, अपरित्यज्य। सूत्र. ३९४ । अवाच्यप्रदेशः-गुह्यम् । प्रज्ञा० ४३० । अविओगिओ - अवियोगिकः, वियोगासहिष्णुः। आय. भवातदंसी-अपायदर्शी । ठाणा० ४८४ । अवातीणपत्तो-अवातीनपत्रः, न वातोपहतं पत्रं, वासे- अविओगो - अवियोगः, धनादेरत्यजनम् । परिग्रहस्य नापातितं पत्रम् । जीवा. १८७ । पञ्चविंशतितमं नाम । प्रश्न. ९२ । अवाते-अपायः-अनर्थः । ठाणा० २५३ । अविओसित - अव्यवसितम् , अनुपशान्तम् । ठाणा भवादाणे-अपादानः-विश्लेषतो मर्यादया दीयते, खड्यते, १६६ ।। गृह्यते, अवधिमात्रम् । ठाणा० ४२८ । । अविकत्थण-अविकत्थनः-न बहुभाषी । दश० । अविभवाय-अपायः, विवेकः । विशे० ८७३ । कत्थनम्-हितमितभाषणम् । आचा० २। भवायदंसी-आणालोएतस्स पलिउंचंतस्स परिछत्तं अकरें। अविकप्पं-अविकल्पः, निश्चयः। आव. २६४ । तस्स संसारे जम्मणमरणादीदुल्लभबोहीयत्तं च परलोगा- अविकलकुल-अविकलकुलाः, ऋद्धिपरिपूर्णकुलाः । भग. वाए दरिसेति इहलोगे च ओमासिवादी सो अवायदंसी।। ४६९ । नि. चू० तृ० १२८ आ। सातिचारस्य पारलौकिकापा- अविकोविओ-जो वा भणिओ अज्जो! जइ भुज्तो भुज्जो से यदर्शीति । ठाणा० ४८६ । अपायान्-अनर्थान् शिष्यचि. विहिसि तो ते छेदं मूलं वा दाहामो, एसो विकोविदो, एतेसि तभङ्गानिर्वाहादीन् दुर्भिक्षदौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येशीलः चे विवरीता जो य पढमताए पच्छित्तं पडिवज्जति ते सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् अकोविआ भणति । नि० चू० तृ. १२१ अ। शिष्यस्य दर्शयति । ठाणा० ४२४ । | अविकडिय-अविकटित, अखंडित । व्य. द्वि० ५१ आ। (९८) 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अविक्कयेण अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अविमणे ] अविकयेण-अविक्रयेण-भाटकेन । व्य० प्र० २३८ आ। | अविण्णाय-अविज्ञातम् , अवध्यपेक्षया अज्ञातम् । भग. अविक्किा - असंस्कृतम् , सुलभमीटशमन्यत्रापि । दश. अवितथभावः-अर्थविनिश्चयः । दश. २३५ । अविकीवो-आसायमाणो । दश० चू० १२३ । । अविताई- अवितथम सत्यम । आव. ७६१। भग. अविकूलं-अपूतिकूलं । (मर०) १२१ । अविगणिया-अविमता। आव० ६९२ । अवितहमेयं-अवितथमेतत्-न कालान्तरेऽपि विगताभिअविगियवयणो-अविकृतवदनः, नात्यन्तनिर्घाटितमुखः। मतप्रकारम् । भग० ४६७ । ओघ. १८२। । अविदलकडाओ-अद्विदलकृताः, न द्विदलकृता अद्विदलभविगीत-अविप्रतिपन्नः। व्य. प्र. १९२ अ कृ ताः, अनूर्ध्वपाटिताः । आचा० ३२३ । अविगुह-अवारित। (मर.) अविद्दवंतो-अविद्रवन् । उत्त० २७९ । अविग्गहगइसमावन्नग - अविग्रहगतिसमापन्नः, ऋजुग- अविद्धकन्नए-अविद्धकर्णः, अव्युत्पन्नम् । भग० ६७७ । तिकः, स्थितो वा। भग० ८५। विग्रहगतिनिषेधाजु- | अविद्धत्थ-अविश्वस्तः, प्ररोहसमर्थः । दश०.१४० । गतिकः अवस्थितश्च । भग० ८७७ । । अविद्यमानम्-मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणम् । जीवा० २७१ । अविग्गहमणे-अविग्रहमनाः, अकलहचेताः अव्युद्ग्रहमना अविधिभिन्ने - उर्ध्वफालिरूपाः पेश्यः कृतं तदृजुकभिन्नं, वा, अविद्यमानासदभिनिवेशः । प्रश्न. १११ । यत्पुनस्तिर्यक्बृहत्कत्तलिकाकृतं तच्च कलिकाभिन्नमते द्वे । बृ० अविघाटा-अप्रकथा । व्य. द्वि० २०३ अ।. प्र. १७५ अ। अविघुटुं-विक्रोशनमिव यन्न विस्वरम् । ठाणा० ३९६ । अविधो-कुच्छितो। नि० चू० प्र० २७७ अ। विक्रोशनमिव यद्विस्वरं न भवति तत् । जं. प्र. ४०। अविनेया- ग्रहणधारणविज्ञानेहापोहवियुक्ताः महामोहाभिअविचिंतियं-अविचिन्तितम् , अविवक्षितम् । विशे०७३। भूताः दुष्टावग्राहिताश्च । तत्त्वा० ७-६ । अविच्युति-धारणाभेदः । दश० १२५। भविपक्कदोसा-कषायेन्द्रियनिग्रहेऽसमर्था, अकोविदा वा। अविजा-अविद्या, न विद्या-मिथ्यात्वोपहतकुत्सितज्ञाना- बृ० द्वि० १४१ अ। त्मिका। उत्त० २६२ । | अविपरीतदर्शनः-साम्प्रतेक्षी। सूत्र. ३९४ । अविजापुरिसा- अविद्यापुरुषाः, अविद्या-मिथ्यात्वोपहत- अविपु(घुटुं-अविपु(घु)ष्टम् , न विस्वरं क्रोशतीव। जीवा. कुत्सितज्ञानात्मिका तत्प्रधानाः पुरुषाः अविद्यमाना वा १९४। विद्या-प्रभूतश्रुतं येषां ते। उत्त० २६२ । अविपकड - अविप्रकटा, आनुकूल्येन प्रकृता-प्रक्रान्ता, अविज्ञोपचितम्-अविज्ञानमविज्ञा तयोपचितं, अनाभोग अथवा न विशेषेण प्रकटा अविप्रकटा । भग० ३२५ । कृतमिति । सूत्र. ११ अविप्पणासो-अविप्रणाशः, शाश्वतं, सिद्धानां नमस्कारा. अविणए-अविनयः । आव० ७९३ । हत्वे हेतुः । आव० ३८३ । अविणासी- अविनाशी, क्षणापेक्षयाऽपि न निरन्वयना- अविप्पण्णं । नि० चू० द्वि० ३१ आ । शधर्मा । दश० १२९। अविबंधणो- अविबन्धनः, अविद्यमानमन्त्रादिनियन्त्रणः । अविणीअप्पा-अविनीतात्मा, भवान्तरेऽकृतविनयः। दश० - उत्त० ४७९ । २४९ । विनयरहिता अनात्मज्ञाः । दश० २४८ । अविभागा-अविभागाः, अनुभागाः । ठाणा० २२२ ॥ अविणीओ- अविनीतः, सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः । अविभागपलिच्छेदो- अविभागपरिकछेदः, केवलिप्रज्ञाछे. ठाणा० १६५ । अविनीताः, ये बहुशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः | देनाविभागम् । बृ० तृ. १५ आ। प्रमाद्यन्ति, ते च छन्देऽवर्तमाना भण्यन्ते । बृ० प्र० अविमणे - अविमनाः, न शुन्यचित्तः, अदीनस्य द्वितीयं नाम । अन्त० २२॥ 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अविमोति आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अविसारओ ] अविमोन्ति - अविमुक्ती, गृद्धिः । नि० चू० प्र० १५५ अ | | अविरयसम्म हिट्ठी - अविरत सम्यग्दृष्टिः, देशविरतिरहितः अवियं - उच्छिष्टम् । बृ० प्र० २७१ आ । सम्यग्दृष्टिः, भूतग्रामस्य चतुर्थं गुणस्थानम् । आव ० ६५० । अवियत्तकुलं - जत्थ बहुणावि कालेण भिक्खा न लब्भइ । अविरलं - परस्परासन्नम् । प्रश्न० ८३ । दश० चू० ७७ । अवियद्धो- अविदाध:, अतृप्तः । ( महाप्र० ) अवियाई - इत्येवमादीनुद्दिश्य । आचा० ३५३ । अवियाउरी - अप्रसविनी । आव ० २१२ । अवियाणओ - अविजानन्, अविरलपत्तो - अविरलपत्रः । जीवा० १८७ । अविरहिए - अविरहितम् - चूक स्खलित न्यायादपि न विरहितः, अथवा प्रदीर्घ कालोपभोग्याहारस्य सकृद्ग्रहणेऽपि भोगोऽनुसमयं स्यादतो ग्रहणस्यापि सातत्यप्रतिपादनार्थम् । भग० । २० । हिताहित प्राप्तिपरिहारशून्य मनाः । आचा० ७० । अवियारं- अपराक्रममप्रभवति काले । ( भक्त ० } अवियार - अविचारम्, चेष्टात्मक विचारविरहितमरणानशनतपः । उत्त० ६०२ । अविकारा - गीतादिविकाररहिताः । बृ० प्र० ३१० आ । अवियोगज्झवसाणं - अवियोगाध्यवसानम्, अविप्रयोग दृढाध्यवसायः । आव० ५८५ । १०१ | भविरइ - अविरतिः, इच्छाया अनिवृत्तिः । भग० अविरइय - अविरतिकः । आव० २१८, ६२०, ६४०, ४०४, ५६० । दश० ८९ । गृहस्थी । ओघ० १९४ । अविरए - अविरतः, प्राणातिपातादिविरतिरहितः, विशेषेण वा तपसि रतो यो न भवति सः । भग० ३६ । अविरओ अविरतः, न विरतः, सावद्यव्यापारादनिवृत्तमनाः । प्रज्ञा० २६८ । अविरतओ-अविरतः । आव० ३९६ । अविरतकायिकी - कायिकी क्रियायाः प्रथमो भेदः । मिथ्या दृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टेव उत्क्षेपणादिलक्षणा क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना । आव० ६११ । अविरति - अविरतिः, अब्रह्म । ठाणा० ३७२ । अप्रत्या ख्यानमथवा अविरतिरूपो भावः, शस्त्रम् | ठाणा० ४९२ । अविरतिः । आव ० ९३ । अविरतिया - अविरतिका, न विद्यते विरतिर्यस्याः सा । ठाणा० ३७२ । अविरतिका । आव० ३९६ । अविरत्ताए अविरक्तया विप्रियकरणे । भग० ५७९ । अविरतो - अविरक्तः । औप० १३ | अविरय-अविरतः, अनिवृत्तः । प्रश्न० ३० । मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टि । आव ० ५८८ । 2010_05 | अविरहिय - अविरहितः अविमुक्तः । आव० ५३२ । अविरहो - अविरहः, सातत्येनावस्थानम् । आचा० ६९ | अविराहणं - अविराधना । भग० ८९८ । अविराहिय संजम - अविराधितसंयमः प्रव्रज्याकालादारभ्याभनचारित्रपरिणामः, सज्ज्वलन कषाय सामर्थ्यात्प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायादिदोष सम्भवेऽप्यनाचरितचरणोपघातः । भग० ५० । अविरिक्का - अविरक्ता, अविभक्तरिधा । बृ० तृ० २४३ अ । अविरेकः - रोषः । व्य० द्वि० १३७ अ । अविरुद्धो - अविरुद्धः, वैनयिकः । औप० ९० । अविलं - लोग सिद्धं । दश० चू० ६ । गडुलमाकुलं वा । सम० ५३ । अविलंबियं - अविलम्बितम्, नातिमन्धरम् । भग० २९४ । अमन्थरम् । ओघ० १८७ । अनतिमन्दम् । प्रश्न० ११२ । अविवज्जओ - अविपर्ययः । विशे० ६४१ । अविशुद्धकोटि । आचा० २७१ । अविवन्न- अविपन्नः, अप्राप्तविपत् मन्त्रादिभिरनियन्त्रितः । उत्त० ४७९ / अविसेस - अविशेषः, विशेषरहितः । भग० ९६१ । प्रज्ञा० ७४ । अविसंधि - प्रवाहेणाव्यवच्छिन्नम् । भग० ४७१ । अव्यवच्छिन्नम् । आव० ७६१ । अविसंवावण-अविसंवादनम् पराविप्रतारणम् । उत्त ५९१ । अविसंवायणाजोगे - अविसंवादनायोगः । ठाणा० १९६ ॥ अवसादी- भविषादी, चिन्तारहितः, अदीनस्य पञ्चमं नाम । अन्तः २२ । अविसारओ-अविशारदः । प्रज्ञा० ६० । (१००) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अविसुद्धलेस्से अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अन्वाणं] अविसुद्धलेस्से - अविशुद्धलेश्यः, कृष्णादिलेश्यः। जीवा० । अव्युच्छेदम्-वाण्यतिशयविशेषः, विवेक्षितार्थानां सम्यक्१४२ । विभंगज्ञानः । भग० २८४ । सिद्धिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयम् । सम• ६३ । अविसुद्धो - पासत्थादी तेसिं मज्झातो जो आगतो विहारा- अव्वइओ। दश० चू० २७ । भिमुहो तस्स जो पुत्वोही सो अविसुद्धो। नि० चू० अब्बए-अव्ययम् , व्ययरहितम् । भग० ११९ । द्वि० ११३ अ। अव्वओ-अव्ययः, अव्ययशब्दवाच्यः । जीवा० १८३ । अविसेसियं-अविशेषितम् , विशेषरहितम् । ज० प्र० ८८। अव्वते-अव्ययः पर्यायापगमेऽप्यनन्तपर्यायतया । ठाणा. अविसोहिकोडी-अविशोधिकोटिः । दश. १६२ । ३३३ । अवयवापेक्षया। ठाणा० ३३३ । व्ययाभावः । अविहडं-बालकः ( देश्याम् )। बृ० प्र०। भग० ७६०। अविहम्ममाण - विविधं परीषहोपसगैर्हन्यमानो विहन्य- अवत्तं-अव्यक्तः, अव्यक्तमतं, अस्फुटमतं, संयताद्यवगमे मानः, न विहन्यमानोऽविहन्यमानः, न निविण्णः सन् | सन्दिग्धबद्धिः । आव० ३११ । अव्यक्तम । औप०१०६ वैहानसं गार्द्धपष्टमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यत इति । आचा० शब्दोल्लेखरहितं. अनिर्देश्यम् । विशे० १५५ । अगीतार्थस्य २५९ । गुरोः सकाशे यदालोचनं तत् । ठाणा० ४८४ । अविहाड-अप्रगल्भः । व्य. द्वि० ३७९ अ। अव्वत्तगसंचिया-अवक्तव्यसञ्चिताः, धादिसङ्ख्याव्यवअविहाव-अविभाव्य, अविभावनीयखरूपः । प्रश्न० १९ । हारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसङ्ख्यातव्यवहारतश्च सङ्. अविहि - अविधिः । आव० ५२ । अयतना। बृ० द्वि. ख्यातत्वेनासख्यातत्वेन च वक्तुं न शक्यतेऽसावव१५ अ। क्तव्यः स चैककस्तेनावक्तव्येन-एककेन एकत्वोत्पादेन अविहिगहिरं - अविधिग्रहणम् , अशुद्धस्य-उद्गमादिदोषा- सञ्चिताः । भग० ७९६ । न्वितस्य यद्ग्रहणं, अथवा गुडादे व्यस्य मण्ड कादिना अव्वत्तलिंगो- अव्यक्तलिङ्गः । आव. ३५२ । अप्रत्यक्षप्रच्छाद्य यदेकत्र पात्रकदेशे स्थापनं तत् । ओघ० १९२ ।। लिङ्गः। आव. ५६५ । अवि हेपरिट्ठावणिया - अविधिपरिष्ठापनिकी । आव० अव्वत्तस्स-अव्यक्तस्य--अगीतार्थस्य सूत्रार्थापरिनिष्ठितस्य। ६३८ । आचा० १९६। अविहेडए-अविहेढकः, न क्वचिदुचितेऽनादरवान् । दश० अव्वत्तो-जाव कक्खादिसु रोमसंभवो ण भवति. ताव अहवा जाव सोलस वरिसो ताव अव्वत्तो। नि. चू. अवीड-अवीचिः, वीचिः-विच्छेदस्तदभावात् । उत्त. २३१ । तु. ८२ अ । श्रतेऽगीतार्थः, वयसि अर्वाक षोडशभ्यः । अवीरिए-अवीयः, उत्थानादिक्रियाविकलः। भग० ९५ ।। बृ० तृ० १३२ अ । अगीयहो। नि० चू० प्र० १७३ आ। मानसशक्तिवर्जितः । भग० ३२३ । अव्वया - अव्यया । जीवा० ९९। अव्ययशब्दवाच्या, अवीरिय-अवीयः, सिद्धः । भग. ९५ । मनागपि स्वरूपचलनस्य जातुचिदप्यसम्भवात् । जं. प्र. अवीसंभो - अविश्रम्भः, अविश्वासः, प्राणवधस्य तृतीयः । २७ । तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः । जं० प्र० २५७ । पर्यायः । प्रश्न. ५। अव्ववसितस्स-अव्यवसितस्य-अनिश्चयवतोऽपराक्रमवतो अधीहीपुच्छण-अविधिपृच्छा, वस्त्रपात्रायुपकरणं विहारार्थ- वा। ठाणा० १७६ ।। मुग्राह्य पृच्छन्ति। बृ० प्र० २४१ अ अवहिओ-अव्यथितः, परेणानापादितदुःखः । जं० प्र० अवुन्नं-अपुण्यम् । उत्त० २१० । १२६ । जीवा० ९९ । आचा० ४२४ । अदीन मनाः । अवृत्तपूर्वम् । आव. २३० । दश० २३२ । अदीणो। दश. चू० १२३ । अवेइअ-अवेदितः, मनसाऽप्यनालोचितः । आव. ४१५। अव्वहे-अव्यथम् , देवादिकृतोपसर्गादिजनित भयं चलन अवोच्छिन्ना-अव्यच्छिन्ना यावदेकोऽपि तिष्ठति तावत् । वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम् । ठाणा० १९२ । आव० ७२७ । | अव्वाणं-आस्यानं, उद्वानं, उद्धानम् । ओघ. १७१ । 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अव्वाबाधं आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अष्टापदम् ] भव्वाबाधं, व्हं - अव्याबाधम् केनापि विबाधयितुमशक्य- । भव्वोच्छिन्तिणयट्टया-अव्यवच्छित्तिनयार्थता, अव्यवच्छि तिप्रधानो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थो द्रव्यमव्यवच्छित्तिनयार्थस्तद्भावस्तत्ता | भग० ३०२ । त्वात् । जीवा० २५६ । वन्दनके तृतीय स्थानम् । आव ० ५४८ । अव्याबाधः, परेषां पीडाकारित्वाभावाद्विनष्टबाधः । भग० ७ । अव्याबाधम् - उपरत सकलपीडं मौक्तम् । उत्त ५७८ । अव्वाबाह-शुकाभविमानवासी सप्तमो लोकान्तिकदेवः । भग० २७१ | ठाणा ० ४३२ । अव्याबाधः सप्तमलोकान्तिकदेवः । आव ० १३५ । अपीडाकारित्वम् । सम० ५ । भव्वायडा - अव्याकृता, अस्पष्टा अप्रकटार्था, असत्यामृषाभाषाभेदः । दश० २१० । अग्वोच्छिन्न- अव्यवच्छिन्नम्, अखण्डितम् । आचा० ४०५ । अव्यवच्छिन्नाः, अनवरतम् । ओघ १२६ ॥ अव्वोच्छिन्ना-कृतेऽपि भागे मूलराशेरव्यवच्छेदो यावत् । बृ० द्वि० १९९ आ । अच्वोच्छिन्नाओ - अव्यवच्छिन्नाः, व्यवच्छिन्ना-जीवरहिता न व्यवच्छिन्ना अव्यवच्छिन्नाः । आचा० ३२३ । अव्वोयडा - अव्याकृताः, गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षर प्रयुक्ता वानाविर्भावितार्थाः । भग० ५०० । भवावारपोस हे अव्यापारपौषधः । आव० ८३५ । भव्वाहयं अव्याहतम्, एकान्तिकमिहपरलोका विरुद्धं | अशरणानुप्रेक्षा- अशरणस्य - अत्राणस्यात्मनोऽनुपेक्षा फलान्तराबाधितं वा । आव० ४१५ । अव्वाहितो - अव्याहितः, अनाहूतः । जीवा० १६६ । अतिnिg - अव्यतिष्टे, उद्घाटायां पौरुष्यामित्यर्थः । व्य० द्वि० २२७ आ । rogकंताई - अव्युत्क्रान्ताः, अधिध्वस्तपर्यायाः । आचा० ३४८ । - अवो संबोधने, अहम् । व्य० द्वि० २०३ आ । अवगड - अव्याकृतम्, गुरुभिर्विशेषतोऽनाख्यातम् । भग० १०० । दायादादिभिरविभक्तं अननुज्ञातं वा । बृ० तृ० ५० अ । अव्याकृतं नाम दायिनां सामान्यं न पुनस्तैविभक्तं यदिविकृतं न केनापि विकारमापादितं यद् भवेत् पूर्वराजेन संदिष्टं वंशस्य परम्परया समागतम् । व्य० द्वि० २७९ आ । अविभक्तम् । व्य० द्वि० अवच्छित्तिनयट्टया - अव्युच्छित्तिनयार्थता, द्रव्यास्तिक- अशोकलता - लताविशेषः । आचा० ३० । नयमतम् । सूर्य० २८६ । भच्छिम्ननयता - अव्यवच्छिन्ननयार्थता, द्रव्यास्तिकनयमतम् । सूर्य० २५८ । २७९ अ । अव्यक्तोऽपरिस्फुटः । आचा० ३२० । अबोगडा - अव्याकृता, अविसंसृता । आव० ७२७ । कृते. sपि भागे निर्देशहीना अंशिका | बृ० द्वि० १९९ आ । अतिगम्भीरशब्दार्था, अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा असत्यामृषाद्वाद शभेदः । प्रज्ञा० २५६ । अव्वोच्छित्तिणए - अव्यवच्छित्तिनयः, द्रव्यास्तिकनयः । उत्त० १५ । ठाणा० १९० । अशुषिरे - अज्जुसरे, तृणपर्णाद्यनाकीर्णे । उत्त० ५१८ । अशून्यान्तरा-न शून्यानि अन्तराणि यासां ता। आव ० ३५ । 2010_05 अशोकपल्लवप्रविभक्तिः - विंशतितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । अश्रयः - ( अंस), कोणाः, कोटयः । ठाणा० ४३५ | चतुर्द्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवाः पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानु - नोरन्तरं, आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम्, दक्षि स्कन्धस्य जानुनश्चान्तरम्, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्वान्तरमिति । जं० प्र० १५ | चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयत्राः । ठाणा० ३५७ । अश्रुतनिश्रितम् - यत्पुनः पूर्वं तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशसपटीयस्त्वा दौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायते तत् । आव० ९ । अश्वंदमः - वाहकः । उत्त० ६२ । अश्विती - प्रथमं नक्षत्रम् | दश० २३६ । अष्टभाग- अनुभागो - अष्टमो भागः । भग० ८३२ । अष्टमीपौषध - अटुमीपोसहो - अष्टम्यां पौषधः - उपवासादिकोsटमीपौषधः । आचा० ३२७ । अष्टमीपौषधिका - अनुमीपोसहिया - उत्सवाः । ३२७ । अष्टापदम् अद्रावय, तीर्थविशेषः । आचा० ४१८ । आव ० २८७ । बृ० तृ ५२ अ । (१०२) आचा० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अष्टाष्टकिका अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः असंतासंते] अष्टाष्टकिका-चतुःषष्टिः । व्य. द्वि० ३४७ । । असंचइआ-असंचयिताः-ये मासिके द्वैमासिके त्रैमासिके अष्ठीवती-जानुनी। प्रश्न० ८०। | चतुर्मासिके पश्चमासिके षण्मासिके वा प्रायश्चित्ते वर्तन्ते अष्ठीवान-जानु। जीवा० २७०।। ते। व्य. प्र. ९७ आ। असंकप्पिय-असंकल्पित, असङ्कल्पितानि च तानि शब्दादि- | असंचेअयओ-असंचेतयतः, अजानानस्य। ओघ. २२० । विषयभावेन परिणतद्रव्यरूपाणि । विशे० १४५। असंजअ-असंयतः, गृहस्थः। आचा. ३४२। अप्रशस्ताअसंकमणो-अशङ्कमनाः, न विद्यते शङ्का यस्य मनस- ध्यवसायवान् । विशे० १०२७ । स्तदशङ्कम् , अशकं मनो यस्य स । आचा० १२२ । असंजगविसओ- भगवया पडिसिद्धो। नि० चू० वि० असंकिया-अशङ्किता। आव० ५६१ । १८ अ। असंकिलिट्र-असङ्क्तिटम् , निर्दूषणम् । औप. ४९ । विशु. असंजण-असंगो, अगेही। नि. चू० प्र० ८१ अ। द्धयमानपरिणामवान् । प्रश्न. ११० । असंजमो-असंयमः, प्राणवधस्य चतुर्दशपर्यायः। प्रश्न. असंक्षेपकालः। ठाणा० ३७८ । ५। अधर्मद्वारस्य षष्ठं नाम । प्रश्न. ४३ । असंखडं-कलहः, वेरे वा। बृ० तृ. ४८ अ । बृ० प्र० भसंजय - असंयतः चरणपरिणामशून्यः । भग० ४९ । ८६ अ। नि० चू० प्र० ३१ अ । कलहः । (गगि०)। गृहस्थः । दश० २२२ । असंयमवान् । प्रश्न० ३०। ओघ ८० असंजलं - जम्बूद्वीपैरवते पञ्चदशतीर्थकरनाम । सम. असंखडबोलो-कलहबोलः । आव० ६५४ । १५३ । असंखडि। आव० ६३० । असंजातकिणस्कन्धः। आचा० ८७ । असंखडिओ-असङ्खडिकः, कलहकारकः । ओघ० १५१।। असंजोगरया-असंयोगरताः-संयोगः-सम्बन्धः पुत्रकला. असंखयं-असंस्कृतम् । दश० १०५ । उत्तराध्ययनेषु चतुः | मित्रादिजनितस्तत्र रताः संयोगरतास्तद्विपर्ययेणैकत्वभावनार्थमध्ययनम् । उत्त० ९। सम० ६४ । भाविता असंयोगरताः। आचा० १८० । असंखया-असङ्ख्यकाः, सङ्ख्याविरहिताः । उत्त० ३१६। असंजोगिमे - भसंयोगिमः, संयोगिमाद्विपरीत आदित्यअसंखेजजीविया - असङ्ख्यातजीविका: वृक्षविशेषाः। बिम्बादिः। उत्त० २१२ । भग० ३६४ । यथा निम्बाम्रादीनां मूलकन्दस्कन्धत्वक्छा- असज्झा-असन्ध्या, विगत सन्ध्या। ओघ० २०२ । खाप्रवालाः । ठाणा. १२२ । असण्णी -असंज्ञी-अविदितपूर्वमूदातम् । व्य द्वि०३७७ आ। असंखेजवित्थडे-असङ्ख्ययविस्तृतः, असंवयेयं विस्तृतं असंतई-असन्तानः, असत्ता वा। बृ० प्र०। अंसन्ततिः यस्य सः। जीवा० १०६ । (त्ता) परिणामविशेषः। आव. ८४८ । असंखेप्पद्धा - असक्षेप्याद्धा, त्रिभागादिना प्रकारेण या असंतकं-असत्कम् , असदर्थाभिधानरूपत्वात , द्वितीयाधर्मसक्षेतुं न शक्यते सा चासौ अद्धा च । प्रज्ञा० ४८९।। द्वारस्य पञ्चमं नाम । प्रश्न. २६।। असङ्खयेयकः । अनु० २४० । असंतगं-असत् , असद्भतार्थम् । अशान्तं-अनुपशमप्रधाअसंगहरुई-असङ्ग्रहरुचिः, गच्छोपग्रहकरस्य-पीठादिकस्यो नम् , अशोभनं वा। प्रश्न० १२१ । असत्कं-अविद्यमानापकरणस्यैषणा दोषविमुक्तस्य लभ्यमानस्यात्मभरित्वेन न | र्थम् , असत्यमिति । प्रश्न० ३६ । विद्यते सङ्ग्रहे रचिर्यस्यासौ। प्रश्न. १२५। असंतती-भायणवोच्छेदो अभाव इत्यर्थः । नि० चू० द्वि० असंगे - असङ्गः, वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः। भग. | ११६ आ। असंतय- अशान्तकः, अनुपशान्तः, असत्-अशोभनम् । असंघयणो - आदिल्लेहिं तिहिं संघयणेहिं वजितो। नि० प्रश्न० ४१ । चू० तृ. १३२ अ। असंतरणए-असंस्तरणे। ओघ. १४३ । असंघातिमो-एगिओ। नि० चू० द्वि० ७९ अ । असंतासंते-मागितस्याप्यलाभः । बृ. द्वि० २७२ आ। 2010_05 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असते असंते-असत्, नाभाववचनः शब्दोऽयम् । आचा० ७४ । अविद्यमानः । उत्त० ६१७ । असंतोसो - असन्तोषः, परिग्रहस्य त्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न ९३ । असंथडाई - असंसृतानि, बीजादिभिरव्याप्तानि । उत्त ४८७ । असंथडो-छमादिणा तवेण किलतो असंथडो, गेलण्णेण वा दुब्बलशरीरो, दीहठाणेण वा पज्जैतं अलभंतो । नि० चू० प्र० ३१३ अ । असंथरताणं - अणुघट्टंताणं । ओघ ० ७८ । असंथरमाणा- असंस्तरमाणाः, अतृप्ताः । ओप० ७८ । असंथरे - असंस्तरताम् । ओघ० १५४ । असंधुओ-इय वइरित्तो संणायगो अनायगो वा । नि० चू० द्वि० १२१ आ । असंदिग्धम् - वाण्यतिशयविशेषः, असंशयकारिता । सम ६३ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः असंदिग्धवचनता - परिस्फुटवचनता । उत्त० ३९ । असंदिद्धं - असन्दिग्धां स्पष्टाम् । दश० २१३ | असन्दिग्धम् - सूत्रस्य द्वितीयगुणः, सैन्धवशब्दवलवणघोटकाद्यने का संशयकारि न भवति । आव० ३७६ । सन्देहवर्जितम् । भग० १२१ । असंदीणो- असन्दीनः सन्दीनादितर: जलप्लावनात् न क्षयमाप्नोति । उत्त० २१२ | आदित्यचन्द्रमण्यादिः । आचा० २४७ । प्रचुरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थायि । आचा० २४७ | कषतापच्छेदनिर्घटितोऽसन्दीनः । आचा० २४८ । कुतकप्रष्यतयाऽसन्दीनः अक्षोभ्यः प्राणिनां त्राणायाश्वासभूमिः । आचा० २४८ । असंधिए - असन्धितः, असंयोजितः । उत्त० २१२ । असंधिया - पोरवजिता । नि० चू० प्र० १६१ अ । असंनिहिसंचय-असन्निधिसञ्चयः, न विद्यते सन्निधिरूपः सञ्चयो यस्य सः । जीवा० २७८ । असंपओगचिंता कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ता || आव० ५८५ । असंपओगाणुसरणं - सति वियोगे सम्प्रयोगानुस्मरणम्चिन्तनम् । आव ० ५८४ । 2010_05 अigsarसो ] असंपग्गहिया - असंग्रहिता - संप्रग्रहरहितता । व्य० द्वि० ३९१ अ । असंपत्त - असम्प्राप्तः । दश० १९४ । असंलनम्। जीवा० १८१ । विशिष्टान् वर्णादीननुपगतः । जीवा० २३ । असंप्रग्रहः - आत्मनो जात्यायुत्सेकरूपग्राह वर्जनमिति भावः । ठाणा० ४२३ । असंप्रग्रहता - असम्प्रग्रहः समन्तात्प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृष्टतालक्षणेन ग्रहणम् - आत्मनोऽवधारणं सम्प्रग्रहस्तदभावः । जात्याद्यनुत्सिक्ततेति । उत्त० ३९ । असंफुरो - असंवृतः । वृ० तृ० ३ आ, बृ० द्वि० २२४ आ । सङ्कुचितपादो, ग्लानः । वृ० द्वि० २२९ अ । असंबद्धं - असम्बद्धम्, स्वशरीरात्पृथग्भूतम् । जीवा० १२० । असंभंते - असम्भ्रान्तम् असम्भ्रान्तज्ञानः । भग० १४० । असंभवंता - असम्भवन्तः, ते गौरवत्रिकान्यतरदोषाज्ज्ञानादिके मोक्षमार्गे न सम्यग्भवन्तः - नोपदेशे वर्तमानाः । आचा० २५० । असं भासो असंभम - असम्भ्रमः, न भयं कर्त्तव्यम् । ओ० ५२ । असंमत्तं - असम्यक्त्वम्, द्वात्रिंशतितमः परीषहः । आव ० - असम्भाष्यः । आव० २२१ । ६५७ । असंलोप - असंलोके, न विद्यते संलोको दूरस्थितस्यापि स्वपक्षादेरालोको यस्मिंस्तत् । उत्त० ५१८ । आचा० ३३५ । असंववहारिए - असांव्यवहारिकः, अनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वात् । प्रज्ञा० ३८० । असं विग्गा पासत्थोसण्गो कुसीलो संसत्तो अहछंदो । नि० चू० तृ० ३३ अ । असंविभागी - संविभजति - गुरुलानबालादिभ्य उचितमश - नादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागी, न तथा य आत्मपोषकत्वेनैव सः । उत्त० ४३४ । आचार्यग्लानादीनामेपगागुणविशुद्धिलब्धं सन्न विभजतेऽसौ । प्रश्न० १२५ । असंवुडणं । नि० चू० प्र० २१६ आ । असंबुडबउसो - असंवृतचकुशः, यो मूलगुणादिध्वसंवृतः सन् करोति, बकुशस्य चतुर्थो भेदः । उत्त० २५६ । भग० ८९० । प्रकटकारी । ठाणा ३३७ । (१०४) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असंवुडे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः भसद् असंवुडे-असंवृतः, प्रमत्तः। भग० ३१५। असझं(भं)-ग्राम्यवचनं, कर्कशं, कटुकं, निष्ठुर, जकारा. असंशुद्धम-सङ्कीर्णम् । आव ७६.। दिकं वा । नि० चू० तृ. ८० आ। असंसट्टा-दायगो असंसद्धेहिं हत्थमत्तेहिं देतित्ति । नि० चू० असज्झाइयं - अखाध्यायिकम् , अशोभन आध्याय एव, तृ० १२ अ । असंसृष्टा-अक्खरडिय । ठाणा० ३८६ । रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् । आव. ७३१ । असंसारसमावण्णा-असंसारसमापन्नाः, मुक्ताः। प्रज्ञा. असढ-शठभावरहितः । ओघ० २२० । १८ । असढकारणो-'सढ' च्छादने, जो अप्पाणं मायाए ठातिअसंसारो-असंसारः, संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्षः। जीवा० असढो होऊगं करणं करेति। नि० चू० तृ० १४९ अ। ८। न संसारोऽसंसारः, मोक्षः । प्रज्ञा० १८ । असढत्तणं-अशठत्वम् । आव० ५२ । असंहनन-असंघयण, आदिमानां त्रयाणां संहननानामन्यतमेनापि संहननेन विकल: । व्य० प्र० ११४ अ । असण-अशनम् , घृतपूर्णादि । आव० ८११। मण्डकोअस-अशनरूपाणि | व्य० द्वि० १२९ आ। दनादि, आशु-शीघ्रं क्षुधां-बुभुक्षां शमयतीति । आव. ८५० । बीजकः । आव. १८६ । अश्यत इत्यशनम् , असई-असकृद्, अनेकधा। उत्त० ३१३ । ओदनादि। दश. १४९ । अश्यते-भुज्यत इति अशेषाअसह-अशतिः, अवाङ्मुखहस्ततलरूपा मुष्टिः । जं. प्र. २४४ । हाराभिधानम् । उत्त० ६००। असई-असती। ओघ० १४६ । संस्तरणाभावे । बृ० द्वि० असणवण-अशनवनम् , बीजवनम् । आव० १८६ । १९३ आ। वनविशेषः। भग. ३६। असईपोसणया-असतीपोषणता, असतीः पोषयति । आव० | असणि-अशनिः, वज्रम् । दश० १६४ । आकाशे पतन्न निमयः कणः । जीवा० २९ । प्रज्ञा०२९ । वइरोयणिंदस्स ८२९। असक्कओ-असंस्कृतः, स्वभावसम्पन्नः । आव. ११४ । । अगमहिसी । भग० ५०४ । ठाणा० २०४। असक्य-असंस्कृतः, न विद्यते संस्कृत-संस्कारो यस्य सः। असणिमेहा-अशनिमेघाः, करकादिनिपातवन्तः, पर्वताअसत्कृत:-अविद्यमानसत्कारः। प्रश्न. ४१ । दिदारणसमर्थजलत्वेन वज्रमेघाः । जं० प्र० १६८ । करअसक्कयमसक्य-असंस्कृतासत्कृतः, अविद्यमानसंस्कारस- कादिनिपातवन्तः पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघाः। स्कारः । न विद्यते संस्कृतं-संस्कारो यस्य सोऽसंस्कृतः, भग० ३०६ । असरकृतः-अविद्यमान सत्कारः। प्रश्न. ४१ । असणे-अशन, वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । बीयकः । उत्त. असगडतातो-ज्ञानासहनः । (मर०) असगडपिया-अशकटपिता, अशकटायाः पिता। उत्त० असण्णातय-असज्ञातीय । आव. ८४६ । १३० । नामविशेषः । व्य. प्र० १८ अ। नि० चू० प्र० असतिं-असकृत् , अनेकवारम् । जीवा० १२८ । १५ अ। असतिणिवेसणे। नि० चू० प्र० १६२ अ । असगडा-अशक-या। उत्त. १२९, १३० । एतन्नाम्नी असतिवाडगा। नि० चू० प्र. १६२ अ। आभीरपुत्री। दश० १०५।। असतिसाहीओ । नि० चू. प्र. १६२ अ । असगडाताए-अशकलापिता। व्य. प्र० 1८ अ। असत्थ-अशस्त्रम् , सप्तदशमेदः संयमः । आचा० ५३ । असच्चसंधत्तणं- असत्यसन्धत्वम् , असत्यं-अलीकं सन्द- असत्थस्स-अशस्त्रस्य, निरवद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य । धाति अच्छिन्नं करोतीति, तद्भावः । द्वितीयाधर्मद्वारस्य । आचा० १५६ । षड्विंशतितमं नाम । प्रश्न. २६ । । असदध्यारोपणम्-आव० ८२१ । असञ्चो-असत्यः, मदभ्योऽहितः। प्रश्न० ३.। असद-अविद्यमानम् । उत्त० ३४७ । (६०५) 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असहतो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः असम्मोहे ] - असहहंतो-अश्रद्धानः, अश्रद्दधानः । आव• १८१। । असमंजसं-अननुकूलम्। उत्त० २२६ । असद्दहणं-अश्रद्धानम् । आव० ५७३ । असमओ- असमयः, असम्यगाचारः, द्वितीयाधर्मद्वारस्य असद्भतैः-साधोः कर्तुमयुक्तैः । आचा० २४२ ।। पञ्चविंशतितमं नाम । प्रश्न० २६ । असनिरूपेण-ईतिरूपो हि पतङ्गादेरापात इति दश०१६। असमणपाउग्गो-अश्रमणप्रायोग्यः। आव० ७७८ । असनो-अशनः, बीयकः । आचा. ४११ ।। असमणुन- असमनुज्ञः, आचाराशेऽष्टमाध्ययनस्य प्रथअसन्निाउए-असंश्यायुः, असञी सन् परभवयोग्यं बद्ध- मोद्देशकः । आचा० २६० । असमनोज्ञाः, असाम्भोगिकाः । मायुः । भग० ५१। ओघ० ५४ । असन्निभूए-असज्ञिभूतः, असज्ञिभ्य उत्पन्नः। प्रज्ञा० असमर्था-अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुम् । ५५८ । आचा० ३९१ । असानभूय-असशीभूता, असज्ञिना या जायते सा। असमाणो-असमानः, न विद्यते समानोऽस्य गृहिष्वाश्रप्रज्ञा० ३३९ । यामूञ्छितत्वेनान्यतीर्थिकेषु वाऽनियतविहारादिनेति, असदृशः असन्त्री-असझी, मिथ्यादृष्टिरमनस्को वा । प्रज्ञा० ३३९ । समानो वा साहङ्कारो न तथेति । उत्त. १०७॥ यथोक्तमनोविज्ञानविकलः । प्रज्ञा. ५३३, ४०७। असमारभमाणस्स- असमारभमाणस्य, सट्टादीनामविअसबलायारे-अशबलो यस्य सितासितवर्णोपेतबलीवर्द षयीकुर्वतः। ठाणा० ३२४ । इव कबुर आचारो-विनयशिक्षाभाषागोचरादिकः । व्य. असमासदोसो-असमासदोषः, समासव्यत्ययः सूत्रदोषविप्र० २३५ अ। शेषः । आव० ३७४ । असबलो-अशबलः, एकान्तशुद्धः । उत्त० २५७। असमाहडा-असमाहृता, अनजीकृता । सूत्र० ३१४ । असम्भं - असभ्यम् , अनुचितं जकारमकारादि । आव. ५८८ । असमाहडाप-अशुद्धया लेश्यया-उद्मादिदोषदष्टमिदमित्येवं असब्भावं-असद्भावम् , अविद्यमानाः सन्तः-परमार्थसन्तो चित्तविप्लु त्या । आचा० ३३२। भावा-जीवादयोऽभिधेयभूता यस्मिन् तत्। उत्त. १५१। असमाहि-असमाधिः, अस्वाथ्यनिबन्धना कायादिचेष्टा । असम्भावगिहंतरं-गृहस्य पार्श्वतः पुरोहडेऽगणे मध्ये वा। आव० ४९९ । समाधिः-समाधान-ज्ञानादिषु चित्तेकाम्य, बृ० तृ. २३ आ। न समाधिः। उत्त० ६१४ । चित्तोद्वेगरूपम् । उत्त० ५५१ । असम्भावठवणा - एक एवाक्षः पिण्डकल्पनया बुद्धया असमाहिकरो-असमाधिकरः, अस्वास्थ्यनिबन्धनकरः । कल्प्यते तत् । ओघ० १२९ । असद्भावस्थापना, असद्भावकल्पना । जीवा. १२२ । असमाहिठाणा - असमाधिस्थानानि, न चित्तस्वास्थ्यअसम्भावपटवणा-असद्भावप्रस्थापना। आव० १५१। स्याश्रयाः। प्रश्न. १४४ । सम० ३७। असम्भावभावणा-असद्भावभावना । उत्त. १६५, २२३ । । असमिक्खियप्पलावी- बुद्धीए अहियं पुज्वावर इहअसम्भावुब्भावणा-असद्भावोद्भावना। उत्त० १५७। परलोयगुणद्दोस वा जो सहसा भणइ। नि० चू० तृ. आव० ३१४ ८. आ। असमीक्षित प्रलापी. अपर्यालोचितानर्थकवादी। असम्भावो-असद्भावः। आव० ३२० । प्रश्न. ३६ । असम्भूए - अमद्भतम् , अभूतोद्भावनरूपमशोभनरूपं धा। असमित्त-अश्वमित्रः। विशे० ९३४ । भग. २३२। असमीक्ष्य अनालोच्य । उत्त० ३४७ । असम्भूय-असद्भतम् , अनृतम् । आव ५८८ । असमोहएणं-अनुपयुक्तेनात्मना । भग० २८९ । असभ्यम्-अश्लीलम् । भाव० ८३८ । खरपरुषादि । उत्त । असमोहयावि-दण्डादुपरता असमुद्राता वा । भग० ७६४। असम्मोहे - अमम्मोहः, देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्म (१०६) 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असरण अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः असिपत्त ] पदार्थविषयस्य च सम्मोहस्य मूढताया निषेधात् । ठाणा० असाहुया-असाधुता, द्रोहस्वभावता। उत्त० ११४ । १९२। असाहू-असाधुः, अपगतभावसाधुत्वः । उत्त० ५८। असरण-अशरणः, शरणरहितः, अर्थप्रापकाभावात् । प्रश्न असि-असिः, खड्गः । जीवा० ११७ । भग० १८२ । ११। अर्थकारकविरहितः। प्रश्न. १९ । गृहं नात्र शरण- प्रज्ञा. ९७। तलवारः । आव० ५८८, ४८७, ३६० । मम्तीशरणः संयमः। आचा. ३.३ । शरणमनालम्ब खड्गाभ्यासम् । प्रश्न. ९७। खड्ग:-करवालः । भग० १९१। मानोऽदीनमनस्कः । आचा. ३०६ । शस्त्रविशेषः । आव. ३६० । असहीण-असत् । बृ• द्वि. १८७ अ । अस्वाधीनः, परा- असिअं-असितम् , कृष्णमशुभं च संसारानुबन्धित्वात् । यत्तः । आचा० १५२ । . आव. ४३९ ।। भसहु - सुकुमारो राजपुत्रादिप्रव्रजितः । ठाणा० १३८। असिअएणं-दात्रेण । भग० ६५० । अशक्तिष्टः । नि० चू० प्र. ३६० अ । असहिष्णुः । ओघ० - असिए - असितः-अबद्धः-तैः साध संगमकुर्वन् भिक्षुः । १४३ । मुकुमारशरीरं । उप. मा. गा० ४०३ । असमर्थः- अचा. ४३० । राजपुत्रादिः। ओघ० १३८ । असिकच्छप-अस्थिकच्छपः, कच्छपविशेषः । सम० १३५। असहू - असमर्थः-क्षुत्पीडितः । ओघ० ४४। राजादि. असिक्खग-अशिक्षकः, चिरप्रव्रजितः । दश० ३९ । दीक्षितः । बृ.द्वि२२४ अ। रायाजुवराया सेट्ठि अमच्च. असिखेडगं-असिखेटकम् , असिना सह फलकम् । प्रश्न. पुरोहिया य एते असहू। नि० चू० प्र० १.१ अ । भिक्षा- २१ । वेलां प्रतिपालयितुमशक्तः। ओघ० ८६ । असहिष्णुः। असिचम्मपायं-असिचर्मपात्रम्-स्फुरकः, अथवा असिःआव. ८५८ । असमर्थः । ओघ. १९५। .. खड्गश्चर्मपात्रं च-स्फुरकः, खङ्गकोशको वा। भग० १९१३ असांव्यवहारिकः-छेकः । आव० ५२७ । ' असिचम्मपायहत्थकिञ्चगए-असिचर्मपात्रहस्तकृत्वाकृतः, असाप-असातः, असातोदयकलितः। जीवा० १३० । असिचर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा कृत्यं-सधादिप्रयोजनं गतःअसाडभूई-आसाढभूतिः, मायापिण्डोदाहरणे धर्मरुचि- आश्रितः कृत्यगतस्ततः कर्मधारयः, . अथवाऽसिचर्मपात्र शिष्यः । पिण्ड० १३७। कृत्वा हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्वाकृतः, प्राकृअसाढए-तृणविशेषः । प्रज्ञा ३३ । त्वाच्चैवं समासः, अथवाऽसिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्यां-हस्तअसाढा-अषाढा, पूर्वोनराषाढानक्षत्रविशेषः । आव० १२०॥ करणं गतः-प्राप्तो यः स तथा । भग० १९१ । असाधू-असाधवः, असंयताः। ठाणा० ३९९। असिट्टो-अशिष्टः, अप्रतिपादितः । प्रश्न. १११ । अशिष्ः । असामन्नं असामान्यम् , अनाचीर्णपूर्वम् । सूर्य २३८। आव. २१८ । असारजरढा-अकालवृद्धा। ओघ. २१८।। असिणार- अन्ये श्रमणादयो येऽमुमपिण्डमशितवन्तः । असारणा-अगवेषगा। बृ. प्र. १५६ अ। आचा० ३३७। असारवणा-अगवेसणा । नि० चू. द्वि. १३६ । असिणाणए-अस्नानतया । आचा० ३६४ । असारहिए-असारथिकः, सारथिरहितः। भग० ३२२ । असिता-गृहवासविमुक्ता । आचा. २२२ । असारिए-असागारिके । नि० चू० द्वि० ३१ आ। असिद्ध-न सिद्धः, हेतुदोषविशेषः । ठाणा ० ४९३ । संसारी। असावजं-असावद्यम् , आयतनस्य प्रथमः पर्यायः। ओघ । जीवा० ४३६ । . असिपंजरं-अमिपञ्जरम् , शक्तिपञ्जरम् । प्रश्न. ११५। असासर-अशाश्वतम् , प्रतिक्षगमावीचीमरणेन मरणम्। असिपत्त-असिपत्र, असीनां पत्रम् । विपा० ७१। खड्गआचाट ६६। क्षणनश्वरत्वम् । भग० ४६९ । पत्रम् । जीवा० १०६ । अति:-खड्गः स एव पत्रम् । असासयं-अशाश्वतम् , प्रतिक्षणं विशरारुत्वम्-अनित्यम्। ठाणा. २७३। असयः-खड्गास्तद्वद्भेदकतया पत्राणिप्रश्न- ९६ । पर्णानि यस्मिँस्तत । उत्त ४६.। प्रज्ञा. ८०। परमा. 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असिपुत्रिका आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः असुरा ] धार्मिकेषु नवमः । उत्त० ६१४ । नवमः परमाधार्मिकः ।। दिवर्जितत्वात् अशुचिः, शास्त्रवर्जितो वा अश्रुतिः। भग० आव० ६५० । सूत्र. १२४ । सम० २९ । ३०८ । स्नानब्रह्मचर्यादिवर्जिताः. अश्रतयः. शास्त्रवर्जिताः। असिपुत्रिकः । उत्त० ४५। जं. प्र. १७० । विगन्धं शरीरमलादि । जीवा० २८२ । असिय-असितः, कृष्णः । प्रज्ञा० ९१ । असुण्णंतरा--अशून्यान्तराः, एकोत्तरवृद्धया सर्वदैवाशन्याअसियअं-दात्रम् । आव० २९५। न्यव्यवहितान्यन्तराणि यासां ता अशून्यान्तरा। विशे० असियग-असियगम् , दात्रम् । आचा०६१। असिरयणं- असिरत्नम् , चक्रवर्तेरेकेन्द्रियपञ्चमरत्नम् । असुति-अशुचीनि, अमेध्यानि मूत्रपुरीषाणि । ठाणा० ४७६ । जं० प्र० २३८ । ठाणा० ३९८ । असुद्ध-अशुद्धम् , आधाकर्मादि । ओघ. १७७ । असिलट्टी-असियष्टिः, खगलता। विपा० ५६ । असिः- असुन्नकाल-अशून्यकालः, नारकभवानुगसंसारावस्थानकाखड्गः स एव यष्टिः-दण्डोऽसियष्टिः,अथवा असिव यष्टिश्च।। लस्य द्वितीयभेदः । भग० ४७॥ जं. प्र. २६४। असुभ-अशुभकार्ये मृतकस्थापनादौ । व्य० प्र० १६९। असिलायं-विखरम् । बृ० तृ. २५ आ। असुभजोग-अशुभयोगः, अनुपयुक्ततया प्रत्युपेक्षादिकरणम्। असिलिटुं-अश्लिष्टम् । आव० ९९ । भग० ३२ । आललागमत- अल्लाकभयम् , अकात्तिभयम् । ठाणा० असुमणाम- अशुभनाम, यदुदयवशात् नामेरधस्तनाः ३८९ । अश्लाघाभयम् । आव० ४७२ । पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति तत् । प्रज्ञा० ४७४। असिलोगो-अश्लाघां, अयशः। आव. ६४६।। असुभत्ता-अशुभता, न शुभता । प्रज्ञा० ५०४ । अमअसिव-अशिवम् , व्यन्तरकृतं व्यसनम् । आव० ६२६ । गल्यता। भग० २५३ । उद्दाइयाए अभिद्दतं । नि० चू० प्र० ९७ अ । नि० चू० प्र० असुभाणुप्पेहा-अशुभानुप्रेक्षा, अशुभत्वं संसारस्यानुप्रेक्षण७५ अ। व्यन्तरकृत उपद्रवः । बृ० प्र० २३१ । अनुस्मरणम् । ठाणा० १८८ । देवतादिजनितो ज्वरायुपद्रवः । ओघ १३, १४। असुभाते-असुखाय-दुःखाय । ठाणा. १४९ । अशुभाय, असिवाइखेतं-अशिवादिक्षेत्रम, अशिवादिप्रधानं क्षेत्रम. अपुण्यबन्धाय असुखाय वा । ठाणा० २९२ । पापाय, आदिशब्दादूनोदरताराजद्विष्टादिपरिग्रहः । दश० ३९। असुखाय वा-दुःखाय । ठाणा० ३५८।। असिवुवसमणी-अशिवोपशमनी कृष्णस्य चतुर्थी भेरी। असुयंग-अश्रुताङ्गम् , नोश्रुताङ्गम् । उत्त० १४४ । .. आव. ९७ । असुय-अश्रुतं परवचनद्वारेण । भग० २००, ११७॥ असिवोवसमणी-अशिवोपशमनी, कृष्णस्य चतुर्थी भेरी, | असुर-रौद्रकर्मकारी। उत्त० २७६ । षण्मासान् सर्वे रोगोपशमनी। बृ० प्र० ५६ । असुरकुमार-असुरकुमाराः, देवविशेषाः । भग. १९७ । असी-असिः, अस्युपलक्षितः सेवकपुरुषः। जीवा० २७९ ।। असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराश्चत्यसुरहीरो। नि० चू० द्वि० १४१ अ । खड्गः, यमुपजीव्य जनः कुमाराः। ठाणा. २८ । भवनपतिभेदविशेषः। प्रज्ञा० सुखवृत्तिको भवति, यद्वा साहचर्यलक्षणया असिशब्देन अत्र अस्युपलक्षिताः पुरुषा गृह्यन्ते । जं० प्र० १२२। असुरकुमारीओ-असुरकुमार्यः, देवीविशेषाः। भग० १९७ ॥ असील-अशीलः, अविद्यमानशीलः, सर्वथा विनष्टचारित्र- असुरदारे-सिद्धायतनस्य द्वितीयं द्वारम् । ठाणा० २३० । धर्मः । उत्त० ३४५ । अशीला:-दुःशीलाः । ठाणा० ५५३ । | असुरसुरं-असुरसुरम् , अनुकरणशब्दोऽयम् । भग० २९४ । असीलया-अशीलता चारित्रवर्जितत्वात् । अब्रह्मणः सप्त. सरडसरडं अकरितो । ओघ० १८७ । एवंभूत शब्दरहितम् । दर्श नाम । प्रश्न० ६६। प्रश्न. ११२। असुआ-असूया, अव्याजम् , ईर्ष्या । दश० २४३। असुरा- असुराः, न सुरा असुराः, भवनपतिव्यन्तराः । असुइ-अशुचिः अश्रुतिर्वा । प्रश्न० ६३ । स्नानब्रह्मचर्या- ठाणा. २२। भवनपतिविशेषाः, भवन पतिव्यन्तरा वा। (१०८) 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ असुरो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अस्थिका ] ठाणा० १०४ । असुरकुमारः। भग० १३५। भवनपति- असोगसिरी-पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया। नि० चू० व्यन्तरलक्षणः। ठाणा० ४६६ । तृ० ४४ आ। बृ० द्वि० १५३ आ। अशोकश्रीः, बिन्दुसाअसुरो-असुरः, आसुरभावान्वितत्वाद् यक्षः । उत्त० ३६६। रपुत्रः । विशे० ४०९। भवनवासी। बृ० द्वि० २६४ अ । असोगा-अशोका, नलिनविजयराजधानी। ज० प्र० ३५७ । असुह-अशुभम् , अशुभस्वभावम् । भग० ७२ । अशुभः- नागकुमारेन्द्रस्याग्रमहिषी । भग० ५०४ । ठाणा० २०४ । अतीवासातरूपः । जीवा. १०३।। असोचा-अश्रुत्वा। भग० ४२५ । आगमानपेक्षम् । भग० भसुहदुक्खभागी - असुखदुःखभागी, दुःखानुबन्धिदुःख- ४५५। भागी। भग० ३०८। असोणिभ-अशोणितम् , रक्तरहितम् । आव० ७६४ । असुहया-अशुभदा, असुखदा। आव. २३६ । असोत्थो-अश्वत्थः । आव. ४१७। असुहिय-असुखितः, अविद्यमानसुहृद् वा। प्रश्न. ४१।। असोयणया--अशोचनता, दैन्यानुत्पादनेन। भग० ३५ । असूहअ-असूचितम् , व्यअनादिरहितम् । दश. १८१। असोयलया-अशोकलता, लताविशेषः । भग० ३०६ । असूचया-साक्षात् । ठाणा० ३०४ । । भग० १९४ । असूयपुत्तो-असूयपुत्रः । आव० २११। असोयाओ। ठाणा० ८० । असूया-अप्पणो दोसं भासति ण परस्स । नि. चू० प्र० असोही-अशोधिः, प्रतिसेवना, स्खलना। ओघ० २२५ । २७८ अ । आतगता । नि० चू० प्र० २७८ अ। अस्तमयनप्रविभक्तिः-नवमनाट्यमेदः । ज० प्र० ४१६ । असूचा-स्फुटमेव परदोषोद्धट्टनम् । बृ० प्र० १२८ अ। अस्तान्ते-अत्यंतमि, अस्तमयपर्यन्ते। उत्त० ४३५। असेयं-मुखं । नि० चू० प्र० ८८ आ। . अस्ति-अस्थि, प्रदेशः । ठाणा० १५, ५१६ । असोंडो-अमज्जपाणो। नि० चू० द्वि० १४४ अ। अस्तिकाय:- अत्थिकाय, धर्मादिपञ्चविधास्तिकायमाश्रित्य असोअ-अशोकः, सुप्रभबलदेवपूर्वभवनाम । आव० १६३। कायः । आव. ७६७ । अरुणद्वोपे महद्धिको देवविशेषः। जीवा० ३६७। द्विसप्त- अस्तिकायधर्म - अत्थिकायधम्म, अस्तिशब्देन प्रदेशा तितमग्रहः । जं० प्र० ५३५ । वृक्षविशेषः । जीवा० २२२ ।। उच्यन्ते, तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स चासौ संज्ञया किन्नरच्यंतराणां चैत्यवृक्षः। ठाणा० ४४२ । अशोक- धर्मश्चेति, गत्युपष्टम्भलक्षणः धमास्तिकायः । ठाणा० १५४। नामदेवः। जं० प्र० ३२०। लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२।। योऽस्तिकायानां धर्मादीनां धर्मो-गत्युपष्टम्भादिः। उत्त०५६६ । बिन्दुसारपुत्रः । बृ. प्र. ४७ अ। वृक्षविशेषः। भग० अस्तिकाया:-अस्थिकाया, अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, ८०३ । एकास्थिकवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१ | ठाणा. ७९ । अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अतोऽस्ति च मल्लिनाथस्य चैत्यवृक्षः । सम० १५२ । विजयपुरस्य नन्दन- ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति. अस्तिशब्देन प्रदेशाः वनोद्याने यक्षः। विपा• ९५। बिंदुसारपुत्तो। नि. चू० क्वचिदच्यते, ततश्च तेषां वा काया अस्तिकायाः । ठाणा. प्र० २४३ अ। १९६ । अस्तीनां-प्रदेशानां सङ्घातात्मकत्वात् कायः । असोगचंदो-अशोकचन्दः, योगसङ्ग्रहेषु शिक्षायां दृष्टान्तः। ठाणा० १५। आव० ६७९। अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वम् - अत्थिनस्थिप्पवातपुव्वं, चतुर्थ असोगदत्तो-अशोकदत्तः, मायोदाहरणे स.केतपुरे समुद्र- पूर्वम् । ठाणा० ४८४ । तत्र यद्वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिदत्तसागरदत्तपिता। आव० ३९४ । कायादि यच्च नास्ति खरशृङ्गादि तत् प्रवदति, सर्व वस्तु असोगललिए-चतुर्थबलदेवपूर्वभवनाम। सम० १५३।। स्वरूपेणास्ति पररूपेण नास्तीति प्रवदति। नंदी १४१ । असोगवण - अशोकवनम् । आव. १८६ । पुष्करिण्यां अस्थानस्थापनम् - अठाणठवणं - अयोग्यतास्थापनम् । वनम् । ठाणा. २३० । वनखण्डनाम। जं. प्र. ३२०।। ओघ. १३१ । भग० ३७। अस्थिका-अद्विग, कपालिकापर्यायः । व्य० प्र० २०६ अ। ___ 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अस्थितकल्पिकः आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अहक्खायं] अस्थितकल्पिकः-साधुभेदविशेषः । भग० ४। । अस्सलेसा-नक्षत्रविशेषः । ठाणा० ७७ । भस्थिमिंजा-अट्ठिमिजा, अस्थिमध्यरसः। ठाणा० १७०। अस्सवाणियओ-अश्ववणिक् । आव० २२० । अस्थिमिंजानुसारि-अद्विमिंजाणुसारी। ठाणा० ३७५1 | अस्सवाहणिया-अश्ववाहनिका । उत्त०२७७ । आव० ५६ । अस्थिरम्-अथिर, जीर्णम् । आचा० ३९६ । अस्ससेणे-अश्वसेनः, सनत्कुमारपिता। आव० १६२ । अस्थिरणाम -(अथिरणाम ), यदुदयवशाजिह्वादीनामवय- पार्वपिता। आव० १६१ । वानामस्थिरता भवति तत् । प्रज्ञा० ४७४ । अस्सादणसगोत्ते - आस्वादनसगोत्रम् , अश्विनीनक्षत्रमस्तिहः-(अणिह). स्निह्यते-दिलष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्म. गोत्रम् । सूर्य. १५० । णेति स्निहः, न स्निहोऽस्निहः, यदि वा स्निह्यतीति स्निहो | अस्सामिणी-अखामिनी। आव० २२४ । . रागवान् यो न तथा सोऽस्निहः, उपलक्षणार्थत्वाचास्य अस्सायणे-आश्वायनम् , अश्विनीगोत्रम् । जं.प्र.५००। रागद्वेषरहित इत्यर्थः। आचा० १९१। स्नेहरहितः। अस्सासणे - अष्टाशीतिमहाग्रहे चतुर्दशमहाग्रहः । ठाणा० आचा. २१०। स्निह्यतीति स्निहो, न स्निहोऽस्निहः- ७८ । रागद्वेषरहितत्वात् अप्रतिबद्धः। आचा० २५८ । अस्सासो-आश्वासः, प्राणिनामेव आश्वासनम् , अहिंअस्पृशद्गति-समयप्रदेशान्तरमस्पृशती। आव० ४४१। सायाः पञ्चाशत्तमं नाम.। प्रश्न. ९९।। भस्फुटितम्-अफुडिआ, सर्वविराधनापरित्यागः। दश० अस्सि-अयम् । ठाणा० १३८ । अस्सिपडियाए-एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून प्रतिज्ञायअस्संजए-असंयतः-गृहस्थः, स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको | उद्दिश्य । आचा० ३६१ । वा । आचा० ३२९ । असंयता:-असंयमवन्तः, आरम्भ- अस्सिलोए-अयं लोकः, अयं मनुष्यलोकः । जीवा० ३४४ । परिग्रहप्रसक्ताः , अब्रह्मचारिणः। ठाणा० ५२४ । अस्सिणि-अश्विनी, नक्षत्रविशेषः । सूर्य० १३०। ठाणा. अस्संजतो-गिहत्थो। नि० चू. पू. ३० आ। ७७ । मेतार्यजन्मनक्षत्रम् । आव० २५५। अस्संजमो - असंयमः, प्राणातिपातादिलक्षणः । आव० अस्सीइ-अश्विनी, नक्षत्रविशेषः। ठाणा० ४६९ । . . | अस्तेसा-अश्लेषा । सूर्य०. १३०। अस्संपडियाए - न विद्यते स्व-द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो अस्सो-अश्वः, घोटकः, एकखुरश्चतुष्पदः। जीवा० ३८ । निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तत्प्रतिज्ञया । आचा० ३२५। . अशः । जीवा० २८४ । प्रज्ञा० ४५ । भस्सकपणी- अश्वकर्णी, वनस्पतिविशेषः । आचा० ५७ । अहं-अध-अधस्तात् । आचा० ६३। अधः-बुध्ने । ओघ० साधारणवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७। १६। अस्सकने-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४। अह-एष। नि० चू० प्र० ११८ । व्य० प्र० १०७ आ। अस्सकन्नी-अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । भग० ८०४ । अयं। नि. चू० द्वि० ९२ आ। कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ । अहक्खाओ-यथास्थितः । (सं० ) अस्सतरो-अश्वतरः, खरतरः, एकखुरश्चतुष्पदः । जीवा० अहक्खायं – अथाख्यातम् , अथशब्दो यथार्थे, आङ्३८ । एकखुरचतुष्पदः । प्रज्ञा० ४५ । अभिविधौ, याथातथ्येनाभिविधिना वा यत् ख्यात-कथित भस्सपुरं-अश्वपुरम् , पुरुषसिंहपुरम् । आव० १६२।। अकषायं चारित्रम् । प्रज्ञा. ६८। यथाख्यातम्-अकषाअस्सपुरा- अश्वपुरी, पक्ष्मविजयराजधानी । जं० प्र० यमित्यर्थः । विशे० ५४७ । यथाख्यात-सूक्ष्मसम्पराया३५७ नन्तरं सर्वत्र साधुजीवलोके ख्यातं-प्रसिद्धं, पञ्चमं सर्वविशुद्ध अस्सरोनिवाए - अप्सरोनिपातः, चप्पुटिका । जीवा० । चारित्रम् । विशे० ५५५। यथाख्यातं-यथैवाख्यातम् अकषायम् । आव. ७८ । यथैवाख्यातं-यथाख्यातं प्रसिद्ध भस्सलालापेलवं । आचा० ४२३ । सर्वस्मिन जीवलोके, अकषायचारित्रमिति । आव. ७९। 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहक्खित्तो अहवण्णवेद ] अथशब्दो यथार्थः, आख्यातं - अभिहितं अथाख्यातम् । ठाणा० ३२४ । अहम्मजुत्तं - अधर्मयुक्तम्, पापसम्बद्धम्। दश० ५२ । अहम्मपलज्जणे - अधर्मप्ररञ्जनः, अधर्मे हिंसादौ प्ररज्यते अनुरागवान् भवतीति । विपा० ४८ । अहक्खित्तो । नि० चू० प्र० १६४ अ । आव० २४१ । अहगुरु- येन प्रब्राजितो यस्य वा पार्श्वे अधीतः रत्नाधि- अहम्माणी - अहंमानी, अहमेव विद्वान् इति मानोऽस्येति । कतरकः । व्य० द्वि० ३९५ अ । अहछंदो - यथाछन्दः, यथैच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्त्तते यः । अहम्माणुए - अधर्मानुगः, अधर्मान् - पापलोकान् अनुगच्छ. तीति । विपा० ४८ । आव० ५१८ । अहण्णे - अधन्यः । उत्त० ३२९ । अहछंदिया- अथाछन्दिका, अव्यापारिता, स्वयं प्रवृत्ता । अहम्मिट्ठा-अधर्मीष्टा अधर्मिष्ठा वा-धर्म्मः श्रुतरूप एवेष्टो - बृ० द्वि० २६१ अ । वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः, धर्मिणां वेष्टा धर्मीष्टाः अतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठास्तन्निषेधादधर्मेष्टाः अधमष्टा अधर्मिष्ठा वा । भग० ५६० । अहम्मिट्ठे-अधर्मिष्ठः, अतिशयेनाधर्मो - धर्मरहितः । विपा० ४८ । अधर्मेष्टः, अधर्मो - धर्मविपक्षः - पापमिति स इट:अभिलषितोऽस्येति यद्वा अधर्मगुणयोगादधर्मः, अतिशयेनाधर्मः । उत्त० २७४ । अहतहं यथातथं, सूत्रकृताङ्गायश्रुतस्कन्धे त्रयोदशमध्ययनम् । आव० ६५१ । सूत्रकृताङ्गस्य त्रयोदशमध्ययनम् । उत्त० ६१४ । अहतानि । भग० ५०६ । अहत्ता - अधस्ता, गुरुपरिणामता । प्रज्ञा० ५०४ । भगन २३ । जघन्यता | भग० २५३ । अहत्थे - यथास्थान्, यथावस्थितान् यथार्थान् वा यथाप्रयोजनान् भावान् जीवादीन् यथा द्रव्यान् पर्यायान् । ठाणा ० ३५१ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः , अहप्पहाण - यथाप्रधानः । भग० ६७९, ६८३ । यथाप्रधानः, यो यत्र ग्रामादौ प्रधानः । ओघ० ५९ । अहमं - अधमम् जघन्यम् । आव ० ५८५ । अहमंती - अहं अंता इति अन्तो-जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्यास्तीत्यन्तः अहमेव जात्यादिभिरुत्तमतया पर्यन्तवर्त्ती । 2010_05 ठाणा० ४७३ । अहर्मिंदा अहमिन्द्राणि, अहं अहं इत्येवमिन्द्राः । सम० ४३ || अहमो- अधमः, मलाविलत्वाज्जुगुप्सितः । सूत्र० ८२ । अहम्म-अधर्मः, असंयमः । दश० २७१ । धर्मविपक्ष:पापम् । उत्त० २७४ | धर्मप्रतिपक्षः । उत्त० २४८ । अधः, अधर्मपोषकं दानं अधर्मकारणत्वात् । ठाणा० ४९६ । भारहरामायणादिपावसुतं । नि० चू० द्वि० ४ आ । धर्मविपक्षं विषयासक्तिरूपम् । उत्त० २८५ ॥ अहम्मक्खाई -- अधर्माख्यायिनः, न धर्ममाख्यान्तीत्येव शीलाः, न धर्मात् ख्यातिर्येषां ते । भग० ५६० । अहम्मखाई-अधर्माख्यायी, अधर्मभाषणशीलः । अधर्मख्या तिः - अधार्मिकप्रसिद्धिको वा । विपा० ४८ । अहम्मियं - आधार्मिक-अधार्मिकाणामिदम् । प्रश्न ११० । अहय - अहतम्, मलमूषिकादिभिरनुपदूषितं प्रत्यग्रमिति । औप ० ६६ । अव्यवच्छिन्नम् । औप० ७४ । अपरिमलितम् । जीवा० २५४ | तंतुग्गतं । नि० चू० प्र० २५३ अ । आख्यानक प्रतिबद्धम्, अव्याहतं नित्यं नित्यानुबन्धि वा । जीवा० २१७ । प्रज्ञा० ८९ । जं० प्र० ६३ । अव्याहृतम् | भग० १५४ | सूर्य० २६७ । अपरिभुक्तम् । भग० २५४ । अहर-अधरम्, अधः-नरकतिर्यक् । दश० २७२ | नरकः । आव० ५३२ । अहरगतिगमणं - अधरगतिगमनम् अधोगतिगमनकारणम् । प्रज्ञा० ३६८ । अहराई - अहोरात्रिकी । आव० ६४८ | अहव अथवा - अथार्थे । विशे० ११३० । अहवण अथवा | बृ० द्वि० १४ आ । विकल्पप्रदर्शने । नि० चू० प्र० २९० अ । विकल्पार्थो निपातः । बृ० द्वि० २४६ आ । | अहवा - अनन्तरम् । नि० चू० प्र० १८ आ । अयं निपातः । नि० चू० प्र० १६८ आ । अहव्वणवेद - अथर्वणवेदः, चतुर्णा वेदानां चतुर्थः वेदः । भग० ११२ । (१११) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहसंथर्ड आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अहाभावो ] अहसंथडं-निष्प्रकम्पं चम्पकपट्टादि। बृ० तृ० ३१ अ। अहाजायं-रजोहरणमुखवस्त्रिकाचोलपट्टयुतः रचितकरपुटश्च । अहसिता-न सहेतुकमहेतुकं वा हसन्नेवास्ते । उत्त० ३४५।। बृ० तृ० १० आ। महसुद्धो-यथाशुद्धः, निर्दोषोपदेशदाता । बृ० तृ० ७१ आ। अहाडं-यथाकृतम् , परिकर्मशून्यं । बृ० द्वि० २०२ आ। अहस्सिरे-अहसनशीलः। उत्त० ३४५ । अहाणी-असीयणं । नि० चू० प्र० ५ आ। अहस्ससच्चे-अहास्यात्सत्यः, हास्यपरित्यागात्सत्यः, द्वितीयत्र अहातचं-यथातत्त्वम् , तत्त्वानतिक्रमेण वर्तमानम् । भग० • तस्य प्रथमा भावना । आव० ६५८। १२४ । सप्तसप्तमिकेत्यभिधानार्थानतिक्रमेणान्वर्थसत्यापनेनेमहाअत्थं-यथार्थम्-नियुक्त्यादिव्याख्यानानतिक्रमणेत्यर्थः । त्यर्थः । ठाणा० ३८८ । शब्दार्थानतिक्रमेण । ठाणा० - 'ठाणा० ३८८ । अर्थस्य नियुक्त्यादेरनतिक्रमेण । ठाणा. ५१९ । ५१९। अहातचे-यथातथ्यो यथातत्त्वो वा, यथा-येन प्रकारेण अहाउअकाल-यथायुष्ककालः, देवाद्यायुष्कलक्षणः । दश० तथ्य-सत्यं तत्त्वं वा। भग० ७०९ । अहातच्चो-जहेव दिट्ठो तहेव जो भवति सो अहातच्चो अहाउनिव्वत्तिकाले-यथायुर्निवृत्तिकालः, यथा-येन प्रका- | भवति । नि० चू० द्वि० ८६ अ। रेणायुषो निर्वृत्तिः-बन्धनं, तथा यः काल:-अवस्थितिरसौ। अहापजत्तं-यथापर्याप्तम् । भग० १३९। भग० ५३३॥ अहापडिरूवं - यथाप्रतिरूपम् । आव० १९९। भग० अहाउयं-यथायुष्कम् , यथाबद्धमायुष्कम् । प्रश्न० १९ । | ६६१ । यथायुष्कम् । आव० ११५, २५८। यथायु:-आयुषोऽन। तिक्रमेण । उत्त. १८८ । अहापदं-यथापदम् । आव० ३५२ । महाकडं यथाकृतम् , गृहस्थेन स्वार्थ निर्तितम् । प्रश्न अहापरिग्गहिए-यथाप्रतिगृहीतम् , यथाप्रतिपन्नम् । भग० अहापरिन्नायं-यावन्मानं क्षेत्रमनुजानीषे तावन्मात्रं कालं महाकडा-आधाकृता, साधूनाधाय-सम्प्रधार्य कृता। बृ० तावन्मानं च क्षेत्रमाश्रित्य वयं वसाम इतियावत् । ..प्र. ९२ अ। . . आचा. ४०३। अहाकप्पं-यथाकल्पम् , प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पव. स्त्वनतिक्रमेण वा। भग. १२४ । कल्पनीयानतिकमेण | अहापवत्तं-यथाप्रवृत्तम् । आव० ११५। प्रतिमासमाचारानतिक्रमेण वा । ठाणा. ३८८। अहाबायरा-यथाबादराः, यथोचितबादरा आहारपुद्गला अहाकम्प्रं-यथाकर्म, बद्धकर्मानतिक्रमेण । भग० ६५। । इत्यर्थः । भग. १८९ । यथाबादराणि, स्थूलतरस्कन्धा. अहाकम्मिए । भग० ४६६। न्यसारागि। भग० २५१ । अहागडा-प्राशुकानि, अल्पपरिकर्माणि । ओघ. ९२। अहाबायरे-यथावादरम् , स्थूलप्रकारम् । भग० २५१। अहागडे-यथाकृतम् , आत्मार्थमभिनिवर्तितम् । दश०७२। असारम् । भग० १५४ । महाचरा-अधश्वरा:-बिलवासित्वात्सर्पादयः । आचा. अहाभद्दगो-यथाभद्रकः । आव० ७३९ । * २९१। अहाभद्दे-यथाभद्रः, शासनबहुमानवान् । बृ० प्र० ३.३ अ। अहाश्चयं-दृष्टिवादे सूत्रभेदः । सम० १२८ । अहाभदो-दाणरुयी। नि००प्र० १९९आ। दसणविरहितो अहाच्छंदे-यथाछन्दान् , स्वच्छन्दान् । ओघ. ५६ । अरहतेसु तस्सासणे साधू उभयभद्द सीलो। नि० चू० प्र० अहाछंद-यथाछन्दाः-यथा कथञ्चिन्नागमपरतन्त्रतया छन्दः- ३२५ । अभिप्रायो-बोधः। भग० ५०२ । यथा स्वाभिप्रेतं तथा | अहाभाचो - स्वपरिग्रहे धारणम् । बृ० द्वि० २४ आ। प्रज्ञापयन् । नि० चू० द्वि० २३ आ। अधाप्रवृत्ति । नि० चू० प्र.२५१ आ । प्रतिस्वामितं-प्रतिअहाजातो-अप्पोवधी। नि० चू. दि १३१ आ। । गृहीतं न तु भुज्यते यत्पात्रादि । बृ. द्वि० २८६ आ। (११२) 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहामग्गं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः अहिगरणं ] अहामग्गं-यथामार्गम् , ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायो- । अहासुहुमबउस-बकुशस्य पञ्चमो भेदः । भग० ८९०। पशमिकभावानतिक्रमेण वा वर्तमानम् । भग० १२४ । उत्त० २५६ । यथासूक्ष्मबकुशः, योऽक्ष्णोः पुष्पिकामपनमार्गः-क्षायोपशमिको भावस्तदनतिक्रमेण । ठाणा० ३८८। यति, शरीराद्वा धूल्यादिकमपनयति । उत्त० २५६ । अहारिणो-मनसोऽनिष्टाः । आचा. २४२ । अहासुहुमे-यथासूक्ष्मान् सारान् । भग० १५५ । अहारियं-यथारीतम् , रीत-रीतिः-स्वभावः, तस्यानति- | अहि-सर्पः, पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । क्रमे ग वर्तते तत्, यथास्वभावमित्यर्थः । भग० २१२ ।। सपेः । उत्त. ६९९ । उरःपरिसर्पभेदः । सम. १३५। यथाऽऽयम् । आचा० ३७९। यथाऋजु । आचा०३८१।। परिसपेविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । अहालंद - मध्यममष्टपौरुषीमानम् । बृ० तृ. ३५ आ। अहिंडेंतओ-अहिण्डमानः, असहिष्णोद्धितीयभेदः । आव. पोरिसी। नि० चू० तृ. १८ अ । जघन्येन तरुणीदकाक- ८५८ । रशोषकाल:, उत्कृष्टतः पूर्वकोटी। बृद्वि०३२ आ। संजोग- अहिंसा-अनुकम्पा । प्रश्न. १०३ । प्राणातिपातविरतिः । चर्जिते तृतीयभेदः । नि० चू० प्र० २३९ अ। यावन्मात्रं दश० २१ । कालं भवाननुजानाति । आचा० ४०३ । अहिअ-अधिकम् , अहितम् , अपथ्यम्। जं० प्र० १६७ । अहालहुस्सए-स्तोकप्रायश्चित्तदानम् । बृ० तृ० २०९ आ। अहि अगामिणिं - अहितगामिनीम् , उभयलोकविरुद्धाम् । अहालहुस्सगाई-यथालघुस्वकानि, 'यथेति-यथोचितानि दश० २३५ । लघुस्वकानि-अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोप- | अहिउत्थ-अभ्युषितः । उत्त० १२० । यितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथालघूनि- अहिकरणं-अधिकरणम् , गन्त्रीयन्त्रकादिः । भग० १३५ । महान्ति वरिष्ठानीति वृद्धाः। भग। अहिकरणकरी - अधिकरणकरः, योऽन्येषां कलहयति, अहावञ्चा-यथापत्यानि, पुत्रस्थानीयाः । भग. १९७। द्वादशमसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ । अहासंथडं-गिप्पकप पढें । नि० चू० प्र० १७० अ। अहिकरणोईरण-अधिकरणोदीरणः, योऽन्येषां यन्त्रादीन्युअहासंथडा-अचला। नि० चू० प्र० १६. आ। दीरयति, त्रयोदशमसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ । अहासचं-यथा सत्यम् , इदं यन्मया कथितं कथ्यमानं च अहिकिच्च-अधिकृत्य-आश्रित्य । भग० २४ ।। तद्यथासत्यम् , याथातथ्यम् । आचा० १८३ । अहिक्खेव-अधिक्षेपः, निन्दाविशेषः । प्रश्न. ४१। . अहासन्निहिआ-यथासभिहिताः । आव० १७५ । अहिगमरुइ-अधिगमरुचिः, विशिष्ट परिज्ञानं तेन रुचिअहासम्म-यथासाम्यम् , समभ वानतिक्रमेग वर्तमानम्। यस्यासौ। प्रज्ञा० ५८ । भग० १२४ । अहिगमास-अधिकमासः । दश० २७० । अहासुत्तं - यथासूत्रम् , सूत्रानतिक्रमेण । ठाणा० ३८८ । अहिगमो-अधिगमः, विशिष्टं परिज्ञानम् । प्रज्ञा० ५० । सामान्यसूत्रानतिक्रमेण वर्तमानम् । भग० १२४ । ज्ञानम् । आव० ५३० । अभिगमः-सेवा। सम० ५३ । अहासुहमणियंठो -- यथासूक्ष्मनिग्रन्थः, यथासूक्ष्म एतेषु अहिगरणं-अधिकरणम् , कलहः । सूत्र० ६६। बृ० तृ. सषु । उत्त. २५७ । १५२ आ। कूटपाशरूपम् । भग० ९३ । अधिक्रियते आत्मा अहासुयं-यथाश्रुतं यथासूत्रं वा । आचा० ३०१ । नरकादिषु येन तदधिकरणं-अनुष्ठानं बाह्य वा वस्तु चक्र. अहासुहुम कसायकुसील-कषायकुशीलस्य पञ्चमो भेदः। महादि । आव० ६११ । कलहयन्त्रादि वा। आव. भग० ८९० । ६५४ । ज्योतिषादि । आव० ६६२। अनुष्ठानविशेषः, अहातुर्मपुलाए -पुलाकस्य पञ्चमो भेदः । भग ८९० ।। बाह्यं वा वस्तु चक्रखङ्गादि । भग० १८१ । अनुष्ठानं यथासूक्ष्मपुलाकः, पुलाकस्य पञ्चमो भेदः । पञ्चस्वपि पुलाकेष बाह्य वा वस्तु । ठाणा० ४१ । वास्तृदूषलशिलापुत्रकगो. यः स्तोकं स्तोक विराधयति सः । उत्त० २५६ । धूमयन्त्रकादि। आव० ८३१ । राटिः। ओघ. १८२ । (१९३) 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहिगरणकिरिया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अहिर्बुध्न ] अहिगरणकिरिया - अधिकरणक्रिया, दुर्गतौ ययाऽधि- । अहिद्वित्तए-अधिष्ठातुम्-परिभोक्तुम् । बृ० द्वि० २१८ अ। क्रियन्ते प्राणिनः सा। प्रश्न० ३७ । अहिट्टित्ता-अधिष्ठाय, आरोहणं कृत्वा । दश० ६१ । अहिगरणि-अधिकरणिः, सुवर्णकारोपकरणम्। जं० प्र० अहिठाणि-अधिष्टाने, अपानप्रदेशे। ओघ० ६९। अहित-अनुचितविधायी । बृ० प्र० २१४ अ। अपथ्यम् । अहिगरणिए-अधिकरणकर-कलहकरम् । आचा० ४२५ । | | उत्त० २७६ । अहिगरणिया-अधिकरणिकी-अधिक्रियते नरकादिष्वात्मा -आहितुण्डिकः, गारुडिकः । दश. ३७ । ऽनेनेति अधिकरणं-अनुष्ठानविशेष: बाह्य वा वस्तु चक्रख- | अद्वितंदर - अभिनन्दति. बह मन्यते । आ गादि, तत्र भवा तेन वा निर्वत्ता, क्रियाभेदविशेषः । अहिन्नायदंसणे-अभिज्ञातदर्शने-सम्यक्त्वभावनया भावि. भग. १८१ । अधिक्रियत आत्मा नरकादिषु येन तदधि- तः। आचा० ३०४।। करणम्-अनुष्टानं बाह्य वा वस्तु चक्रमहादि, तेन निवृत्ता | अहिमडे-अहिमृतः, मृताहिदेहः । जीवा० १०६ । क्रिया। आव० ६११। सम० १० । अहिमन्त्र-मन्त्रसाधनोपायशास्त्राणि । सम० ४९ । अहिगरणी-अधिकरणी, यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि अहिमर-अभिमरः, अभिमुखमाकार्य मारयति म्रियते वेति। कुट्टयन्ति । भग० २५१ । ओघ० १८ । राजादिघातकः । विशे० ७४७ । विशे० ९७१। अहिगरणे-अधिकरणसिद्धान्तः। बृ० प्र० ३१ आ। अभिमुखं परं मारयति यः सः । प्रश्न. ४६ । अहिगारनिउत्तो-अधिकारनियुक्तः । आव० ७३८ । अहिमरका-घातकाः । बृ० द्वि० ८२ आ। अहिगारो-अधिकारः, प्रयोजनं, प्रस्तावः । आव० २७६ । अहिमार-अभिमारः, वृक्षविशेषः । उत्त. १४३ । विशे० ८५९। ओघतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः । दश० २७८ । अहिमासयम्मि-अधिकमासे । आव० ५५७ । आ-अध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते स । दश० १३ । अहिय-अधिकं, अहितं वा अधिकं, अपथ्यं वा । भग० नियोगः। प्रश्न०६६ । प्रयोजनम् । दश. १३५ । व्य० प्र० ३०६ । अर्गलम्। उत्त० ६२३ । अर्गलं, शीघ्रतरम् । उत्त. ४ अ। तृप्तिः । उप. मा. गा० ३७१। ७। अतिशयेन । जीवा० २२९ । जीवा० ३५५ । अहि. अहिगरिणता- अधिकरणिकी-खङ्गादिनिर्वर्तनी। ठाणा० तम् , अश्रेयः । आचा० ३८ । ३१७॥ अहियपिच्छणिजं-अधिकप्रेक्षणीयम् । आचा० ४२३ । अहिछत्ता - अहिच्छत्रा - नगरीविशेषः । उत्त० ३७९ । अहियाते-अहिताय, अपथ्याय। ठाणा० १४९ । अपा पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थानम्। आचा० ४१८ । याय। ठाणा० २९२ । अपथ्याय । ठाणा० ३५८ । जङ्गलेषु जनपदेष्वार्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा ० ५५ । सङ्गपरिहरणवि- अहियासपजा-अधिसहेत् , वर्तयेत् , पालयेत् । सूत्र. षये पुरी। आव० ७२३ । १६४। अहिजुजिय-अभियुज्य, वशीकृत्य, आश्लिष्य वा। भग० अहियासणा-अभिसहना, उपसर्गसहनम् । आव० ६६० । १३२। अतिसहना । आव. ७९९ । अहिज-अधित्य । उत्त. ३६२ । अहियासेत्तए-अध्यासितुम् । दश० ९३ । अहिजिउं-अध्येतुम् , पठितुम् , श्रोतुं, भावयितुम् । दश० अहियासेमि- अध्यासयामि-वेदनाग्रामवस्थानं करोमि । १३८ । ठाणा० २४७ । अभिटए-अधिधाता. तपःप्रभृतीनां कर्ता। दश. २३८। अहियोगो-अभियोगः, बलात्कारः। बृ० तृ. २७ । अधितिष्ठति यथावत् करोति । दश० २५६ ! अहिराया-अधिराजा, मौलः पृथिवीपतिः। बृ० तृ. ४ । अहिटग-अधिष्ठाता, कर्ता। दश० २०६। अहिरिकं-उत्रासनम् । व्य० प्र० १४९ अ। अहिटाणं-अधिष्ठानम, अपान प्रदेशः । आव० ४१९। अहिरीमाणा-अह्रीमनस:-अलजाकारिणः । आचा०२४१॥ अहिट्ठाणजुद्धं-अधिष्टानयुद्धम् । आव. ९८ । अहिर्बुध-उत्तरभाद्रपदादेवता। जं० प्र० ४९९ । 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहिलाणं अहिलाणं- मुखसंयमनम् | भग० ४८०, जं० प्र० २६५ । औप० ७१ । मुखसंयमनविशेषः । जं० प्र० २३५ । अहिलिंति - समागच्छन्ति । बृ० द्वि० १०८ अ । अहिलोडिया - गोपालिकाख्यो हिंसकजीवः । बृ० तृ० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः अहुमतो - १९० आ । अहिल्लिया - अहिन्निका, मैथुने दृष्टान्तः । प्रश्न० ८९ । अहिवई - अधिपतिः - आचाय: । ओघ० ७४ । अहिवास - अधिवासः - अवस्थानः । भग० ४७७ । अहिवासिऊण- अधिवास्य । आव ० २६१ | अहिसंका - अभिशङ्का, तथ्यनिर्णयः । सूत्र० ३९३ । अहिसक्कणं- उस्सूरे आगच्छति । नि० चू० प्र० १४२ आ अभिष्वष्कर्णं-तस्यैव विवक्षितकालस्य संवर्द्धनं, परतः करणमित्यर्थः । बृ० प्र० २६८ आ । अहिसरणेहिं - अग्गतो वा सरेति । नि० चू० द्वि० ४९ आ । अहिसरिया - अभिसृता । आव० ३७२ | अहिसलागा - मुकुलि-अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । अहिलेया- अभिसेका, गणावच्छेदिनी । बृ० द्वि० २६३ अ । अही-अहिः, सर्पः, उरःपरिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ । प्रज्ञा • ४५ । मुकुलि - अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । सामान्यतः सर्पः । जं० प्र० १२५ । अहीणपडिपुन्नपंचिंदिय सरीरं - अहीन प्रति पूर्णपञ्चेन्द्रियश रीरः प्रतिपूर्णानि स्वकीय स्वकीय प्रमाणतः, प्रतिपुण्यानि वा--पवित्राणि पञ्चेन्द्रियाणि करणानि यस्मिंस्तत्तथा, अहीनमङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियं प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं ठाणा० ४५८ । अहीण पुन्नपंचिंदिय सरीरं - अहीनानि - स्वरूपतः पूर्णानि सङ्ख्यया, पुण्यानि वा-पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तत्तथा तदेवविध शरीरं यस्य स भग० ५४१ । अहीणो - अहीनः प्रकृष्टः, अधीनो वा स्वायत्तः । प्रश्न ० १३६ । अहीनग्रहणं - समग्रहणम् । व्य० प्र० ८६ आ । अहीलणिजं - अहीलनीयम् अवज्ञातुमनुचितम् । उत्त० 2010_05 अहोरत्ता ] -उपद्रवन् । आव० २७३ । अहे - अधः, आकाशः | सूर्य० ४५ । अथशब्दार्थे । बृ० द्वि० १७९ अ । आमन्त्रणार्थो निपातः । भग० ४६० । अथआनन्तर्यार्थोऽयं शब्दः । भग० ८३, ८६ । गर्त्तायाम् | उत्त० २१३ | भूमितले । प्रज्ञा० ८० । अधः । ठाणा० १६२ । अथेति परिप्रश्नार्थः । ठाणा० ४०६ । अधःअधस्तात् नीचैः । भग० २६९ । अथशब्दश्चेह पदत्रयेsपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया तुल्यताप्रतिपादनार्थः । ठाणा० १५७ | यथार्थः । ठाणा३२४ । अथशव्दार्थे । बृ० द्वि० १७९ अ । आधाकर्म । बृ० प्र० ८३ अ । अहेपन्नगद्धरूवो - अधः पन्नगार्द्धरूपः, अधस्तनं यत्पन्नगस्यार्द्ध तस्येव रूपमाकारो यस्य सः, अधः पन्नगार्द्धवदतिसरलो दीर्घश्व । जीवा ० २०६ । अधः - अधस्तनं यत्पन्न - स्यार्द्ध तस्येव रूपम् - आकारो यस्य सः । जीवा० ३६१ । अहेऊहिं - अहेतुभिः क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकुहेतुभिः । उत्त० ४४९ । अहेवार - अधोवातः, योऽध उद्गच्छन् वाति वातः सः । जीवा० २९ । अहेविगडे - अधोविकटे - अधः- कुड्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि च । आचा० ३०९ । अहेवियडं- पार्श्वतोऽपावृतं गृहम् । बृ० द्वि० १८१ अ । अहेसणिजे - यथाऽसावुद्गमादिदोषरहित एषणीयो भवति तथाभूतो दुर्लभः । आचा० ३७६ । यथाऽसौ मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति, तथाभूतो दुर्लभ इति । आचा० ३६८ | अहेसि - अभूवम् । आव ० १४६ | अभूत् । उत्त० ४९६ ॥ अहो - अधः, अर्वाक् । आव० ८२७। दीणभावे, विम्हए, आमंतणे य । दश ० चू० ९६ । उदगश्रोतोऽनुकूलम् । नि० चू० तृ० ६३ आ । अहो कार्य - अधः कायः पादलक्षणः । आव ० ५४७ ॥ अहोत्था - अभूत् । उत्त० ४७५ । अहोधारं - अहतधारा वर्षा । आव० २९१ । अहोधिय - नियतक्षेत्रविषयोऽवधिस्तद्रूपं ज्ञानदर्शनम् । ३६५ । अणुव्वा सिय-अधुना यदुद्वसितम् | ओघ० ५७ । अहुणोत्तणो - अधुनातनः । आव ० ४२१ । ठाणा ० ४७३ । अहुणोववन्ने - अधुनोपपन्नः, अचिरोपपन्नः । ठाणा० १८७। अहोरत्ता - अहोरात्राः - त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणाः । ठाणा० ८६ । (११५) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अहोर अहोरते - अहोरात्रम् । भग० ८८८ । अहोराइयाभिक्खुपडिमा - अहोरात्रप्रमाणा एकादश भिक्षुप्रतिमा । सम २१ । अहोलोप- अधोलोकः, तिर्यग्लोकस्याधस्तालोकः । प्रज्ञाο १४४ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः अहोलोयतिरियलोए-अधोलोकतिर्यग्लोकः, यदधोलोक - स्योपरितन मेकप्रादेशिकमा काशप्रदेशप्रतरं यच्च तिर्यग्लोकस्य सर्वाधस्तन मेकप्रादेशिक माकाशप्रदेशप्रतरम् एतद्वयमपि प्रज्ञा० १४४ । अहोवाए - अधोवातः, अध उद्गच्छन् यो वाति वातः स । प्रज्ञा० ३० । अहोविहारो - आश्चर्यभूतो विहारः । आचा० १०७ । अहोवेइया - अधोवेदिका, यत्र जान्वोरधो हस्तौ कृत्वा प्रतिलिख्यते सा । ओघ॰ ११० । जाणू हेट्ठाओ द्वितेसु हत्थेसु पडिलेहेति । नि० चू० प्र० १८२ अ । अहोसिरा - अधः शिरसः, अधोमुखाः । जं० प्र० १५४ | भग० ७। आइखति - आख्यान्ति, सामान्यतः कथयन्ति । भग० 2010_05 आइण्णा ] ९८ । ईषद् भाषन्ते | ठाणा० १३६ | आचक्षते । आचा० १७८ । आ ठाणा० ३२८ । भांगुल - व्याक्षिप्तः । नि० चू० प्र० ३४७ अ । आंटरगमादि-वनस्पतिविशेषः । नि० चू० द्वि० १५७ अ । आहूं-निपातः । भग० ६७५ | विस्मयतश्चर्यन्ते | ठाणा० ५२३ | वाक्यालङ्कारे । भग० १७६ | वाक्यालङ्कारार्थः । प्रश्न० ११७ | अलङ्कारे । प्रश्न० १२६ । वाक्यालङ्कारे, अव- इ (य)ड्डि - आत्मद्धिः, आत्मशक्तिः, आत्मलब्धिर्वा । धारणे वा निपातः । उपा० २७ । आदि:- धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिः । जीवा० २५५ । गणितप्रक्रियाया आदिः ( अंगांकसंख्यान्यासः ) । सूत्र० ९ । यस्मात्परमस्ति न पूर्वम् । अनु० ५४ । स्वभेदः । अनु० ३४ । इंखिणिया- डोम्बी तस्याः कुलदैवतं घंटीकक्षोनाम स प्रष्टः सन् करणे कथयति, सा च तेन शिष्टं कथितं सदन्यस्मै कथयति, घंटीय सिद्ध परिकहे। बृ० प्र० २१५ अ । आइअती-सार्थचिन्तकः । वृ० ० २४९ अ । आइक (ग) रे - आदिकरः, आदौ -प्रथमतः श्रुतधर्मम्-आचा. रादिग्रन्थात्मकं करोति तदर्थ प्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशीलः । आइखगा-आख्यायकाः, शुभाशुभ कथकाः । जं० प्र० १४२ । यः शुभाशुभमाख्याति । प्रश्न० १४१ । आइक्खणं-संहितोच्चारणम् । बृ० तृ० २५ अ । आइक्खिप-मातंगविद्या यदुपदेशादतीतादि कथयन्ति डोबधिरा इति लोकप्रतीताः । ठाणा ० ४५१ । आइगर - आदिकरः, ऋषभनामा भगवान् । उत्त० ६२० । आइच - आदित्यः, अर्चिमालिविमानवासी द्वितीयो लोकाकान्तिकदेवः । भग० २७१ । आदित्यमासो येन कालेनादित्यो राशि भुंक्ते । सम० ५६ । आदित्यः । आव ० १३५ । सूर्य० २९२ । आइञ्चजसाई-आदित्ययशः प्रभृतिः । नन्दी २४२ । आइश्ञ्चजसे - आदित्ययशा, भरतचकिपुत्रः । ठाणा० ४३० आइच्यपेढं- आदित्यपीठम् । आव ० १४६ । आइश्च्चसंवच्छ रे - आदित्य संवत्सरः, युगभावि संवत्सरविशेषः । सूर्य० १६८ । 'पुढविदगाण' मित्यादिलक्षणः संवत्सर विशेषः । सूर्य १७१ । आइज्ज- आदेयः - रम्यः । प्रश्न० ८३ । आइजा - आदेया, दर्शनपथमुपगता, उपादेया सुभगा च । जीवा० २७१ । आइटुं विशिष्टम् । वृ० तृ० ६६ अ । आविष्टा अधिष्ठिता । भग० १०७, ४९२ । ५४० । भग० १५३ । आइणग - चर्ममयं वस्त्रम् | जं० प्र० ३६ । मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि । आचा० ३९४ । आजिनकं चर्ममयो वस्त्रविशेषः । भग० आइण्णं - आकीर्णम् समन्तान्निक्षिप्तम् । सम्बाधनं स्त्रीस्पर्शादिदोषाः । ओघ० ४८ । आचीर्णम् । नि० चू० द्वि० १५७ अ । भावितकुलम् । वृ० प्र० २७० अ। आइण्णंतो-प्रोतयन् । आव० ४२७ । आइण्णपोग्गलं-जं काकसाणादीहिं अणिवारियविप्पणि (मांसं ) जिति । नि० चू० तृ० ७२ अ । आण्णा-आकुला । नि० चू० प्र० १८६ अ । साधूण कप्पपिज्जा । नि० चू० प्र० १८६ अ । संकुला । आचा० ३३१ । (११६) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आइण्णे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आउजिय] आइण्णे-षष्ठाङ्गे सप्तदश ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । सम० | आइस्सइ-आविश्यते-अधिष्ठीयते। भग० ७४९ । | आई-आदिः, संसारः, धर्मकारणानां वाऽऽदिभूतं शरीरम् । आइण्णो-आकीर्णः, गुणाप्तः। जीवा० २७ । जात्यः । सूत्र. १६२ । सामीप्यम् , व्यवस्था, प्रकारः, अवयवश्च । औप० ७१। खित्तमिव खलियं गुणेहिं जयविजयाईहिं आप.! प्रश्न. ७ । निवेशः। औप० ५। रिओ, अस्सो जातिरेव वा । दश० चू० १६५।। आईए-आतीतः, आ-समन्तादतीव इतो-गतोऽनाद्यनन्ते आइद्ध-आरब्धं । (मर०)। आदिग्धः, आलिङ्गितः । प्रश्न संसारे । आचा० २८५। ४१ । आविद्धः, प्रेरितः । आव० ६०२। | आईणं-आजिनकम् , चर्ममयं वस्त्रम् । जीवा० १९२ । आइन्नं - आचीर्णम् , आसेवितम् । आचा. ५ । आयरिय- आईणगं-आजिनकम् , चर्ममयं वस्त्रम् । जीवा० २१०। परंपर एणं वालुं कलाओ आदिण्ण णिम्मीसोवक्खडं आसे- औप० ११ । जं० प्र० ५५ । जं० प्र० १०७ । निरया० १। वितं तं आइन्नं । नि० चू० द्वि. १५७ आ। आत्मीया- आईय-आ-समन्तादतीव इतो-गतोऽनायनन्ते संसारे भ्रमत्मीयाऽऽवासमर्यादानुलंघनेन व्याप्ताः । भग० ३७। कल्प्यम्। णम्। आचा० २८६ । पिण्ड० १६५| आकी गम्-राजकुलसङ्खड्यादि । दश०२८०। -समन्तादतीव इता:-ज्ञाता: परिच्छिन्ना जीवाआइन्नवर-जात्यप्रधानः । भग० ३२२, ४८१ । दयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः आदत्तार्थो वा, यदिवाऽ. आइन्नसंलिवखं-स्यादिचित्राकीग । आचा० ३८१। तीताः-सामस्त्येनातिकान्ता अर्थाः-प्रयोजनानि यस्य स आइन्ना-आकीर्णानि, गुणवन्ति । जं० प्र० २३२ । तथा, उपरतव्यापारः। आचा० २८६ । आइन्ने-आकीर्णः, आकीर्यते -व्याप्यते विनयादिभिर्गुणैरिति आउं - वैद्यकम् । आव० ६६० । भवस्थितिहेतवः कर्मजात्यादिगुणोपेतं । उत्त. ३४९ । व्याप्तः। उत्त. ३४८। पुद्गलाः । आचा० १०२। आइन्नो-आकीर्णः, सङ्कीर्णः, गुणव्याप्तो मनुष्य जनः । औप० | आउंटणं - आकुञ्चनम् , गात्रसङ्कोचलक्षणम् । आचा० २। विनीतः । उत्त० ४८ । आचार्यगुगैराचारश्रुतसंपदादिभिाप्तः-परिपूर्णः । उत्त० ५५ । आउंटणपसारणं-आकुञ्चनप्रसारणम् । आव. ८५३ । आइमउ-आदिमृदु, प्रथमतः कोमलम् । अनु० १३१ । आउटियं-संकोचितम् । भग० ६३१ । आइमूलं-वृक्षादिमूलोत्पत्तावाचं कारणम् । आचा० ८७।। आउ-आयुः, स्थितिः। भरा० २३६ । उताहो। बृ० प्र० आइयणं-अदनं, भक्षणम् । आचा० ७२६ । व्य० प्र० २१. अ। एति-उपक्रमहेतुभिरनपवर्त्यतया यथास्थित्यै१८. अ। भोजनम् । बृद्वि० १२६ आ। समुद्देशनम्-भोज. वानुभवनीयतां गच्छतीति । उत्त० ३३५। जीवितं । ठाणा. नम् । बृ० तृ. ४ आ। आपानम् । बृ० द्वि० ३४ अ। १०८ । आयुः, कर्मविशेषः । ठाणा.. २२० । ठाणा० ३३१ । भूयः प्रत्यापिबति । बृ० तृ० १८५ आ। आउकाए-अप्कायः, पूर्वसमुदः, पश्चिमसमुद्रो वा। सूर्य आइयंति-आददति, गृह्णन्ति, बध्नन्तीत्यर्थः । ठाणा० ३२० ।। आइयति-आदत्ते । उत्त० १९८ । | आउक्खएणं-आयुःक्षयेग, आयुःपूर्णीकरणेन । आचा० ४२१ । आउखेम - आयुःक्षेम-आयुषः सम्यक पालनं । आचा. आइलं-आविलम्-गडुलम् । जीवा० ३७० । २९० । जीवितं। आचा० २९१। आदल्लचंदसहिय-उद्दिष्टचन्द्रसहितः । सूर्य० २८.। आउजं-आतोद्यम् , वादित्रं, मृदंगादि । आव० ५२८ । आइसुए - आदिश्रुतः, सामायिकादिश्रुतः । ७० प्र. पटहभेरीवंशवीणाझलादीनि । आचा० ६ । ३८ आ। .. | आउज्जंगं-आतोद्याङ्गम् , आतोद्यकारणम् । उत्त० १४३ । आइसुयं-पञ्चमङ्गलम् । बृ० तृ. २४९ आ। आउजिय-आयोगिकः, उपयोगवान् . ज्ञानी। भग० १४०। 2010_05 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आउजिया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आउयकम्मस्स सं०] आउजिया-आयोजिका, आ-मर्यादया केवलिदृष्टया योजन- २८२ आ । आवृत्तः-व्यवस्थितः । आचा० २७९ । समशुभानां योगानां व्यापारणम् । प्रज्ञा० ६०४ । न्तात् व्यवस्थितः । आचा० २७९। • आउजियाकरणं-आयोजिकाकरणम् । प्रज्ञा० ६०४। आउट्टेउ-आवर्ण्य । बृ० तृ० ३४ ।। आउजीकरणं-आवर्जीकरणम् , उदीरणावलिकायां कर्म-आउट्टो-व्यावृत्तः । उत्त० ३३२ । आवर्जितः । हृष्टः। उत्त० प्रक्षेपव्यापाररूपम् । औप० ११० । आवर्जितकरणम् ।। ३३२। स्वस्थः । उत्त० ३५५। आव० २२० । उत्त० प्रज्ञा० ६०४। १०८। आवृत्तः। आव० ५७८, २९४, ५३६ २८७ । आउजो-आवर्जः, आत्मानं प्रति मोक्षस्याभिमुखीकरणं उत्त० ३२४ । आवर्जितः । आव० ४१२ । आत्मनो मोक्षं प्रत्युपयोजनमिति, अथवा आवय॑ते-अभि- आउडिजमाण-'जुड' बन्धने, इतिवचनाद् 'आजोड्यमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति वा-शुभमनोवाक्कायव्यापारविशेषः । मानेभ्यः' आसम्बभ्यमानेभ्यो मुखहस्तदण्डादिना सह शङ्खप्रज्ञा० ६०४ । पटहझलर्यादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्य आकुट्यमानेभ्यो वा एभ्य आउट्ट-आकुटम् , आलजालम् । उत्त० १४६ । आवर्जितः। एव ये जाताः शब्दास्ते, आजोड्यमाना आकुव्यमाना एव बृ. द्वि० ३४ आ। वोच्यन्ते, अतस्तानाजोड्यमानानाकुट्यमानान् वा शब्दान् आउट्टा-आवर्तते, प्रवर्तते। भग० २८९ । .. शृणोति, इह च प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य नपुंसकनिर्देशः, आउट्टणं-आकम्पनम् । बृ० तृ. ८५ अ। अथवा आकुव्यमानानि-परस्परेणाभिहन्यमानानि । भग. आउट्टणया-आवर्तना, आवर्तते-ईहातो निवृत्यापायभावं प्रत्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन सः, तद्भावः, अपा- | | आउडेइ-आजुडति, सम्बद्धं करोति, लिखति। जं. प्र. २५०। आकुट्टयति, ताडयति । जं.प्र. २२४ । आकुयपर्यायः। नन्दी १७६ । दृयति। भग० १७३। आवदृति-निवर्त्तते । सूत्र० १९० । आवर्तते-निवर्तते तमा. आउत्त-आयुक्तम् , उपयोगपूर्वकम् । भग० १८४ । सम्यक् लोचयतीत्यर्थः। ठाणा. १३९। करोति। नि० चू० प्र० प्रवचनमालिन्यादिरक्षणतया । प्रज्ञा० २६८। उपयुक्तः। ठाणा. २५६ अ। ४०९ । प्रयत्नपरो मरणाराधनयुक्तः । उपयुक्तः । ओघ० आउट्टा-आराधिता। बृ० द्वि०११२.अ। आवर्जिता। २०२। उपयोगतत्परम् । ओघ० १७६ । आयुक्तः। व्य० ओघ० १५९ । .. .. . . द्वि० २६६अ। आउट्टामो-प्रवर्तामहे। आचा०.३३१॥... आउत्तगो-आवर्तकः । उत्त० ३०४ । आउट्टावेज-अभिमुखयेत् । आचा० ३६४ । आउत्तियं-आयुक्तिकम् । उत्त० ११९ । आउट्टिआए-आकुट्या-उपेत्य । सम० ३९. . आउत्तो-आयुक्तः, व्यवस्थितः । दश० २२६ । आउट्टिजमाणं-आकोट्यमानम् , सङ्कोच्यमानम् । सूत्र आउय-आयुष्कम् , जीवितम् । आव० ३४१। आयुष्क२९८ । कालः, देवाद्यायुष्कलक्षण: । आव० २५७ । आउट्टि-उपेत्य। व्य. प्र. १६ आ। | आउयकम्मस्स गालणा-आयुःकर्मणो गालनं, प्राणवधस्य आउट्टिय-ज्ञात्वा। आव० ७५८ । उत्तमार्थकृतः आहारः। द्वादशः पर्यायः । प्रश्न० ५। नि० चू० द्वि० ५७ आ। ... आउयकम्मरस मिट्ठवणं-आयुःकर्मणो निष्टापनम् , प्राणआउट्टिया-आउट्टिया नाम आभोगो जानान इत्यर्थः । नि० । वधस्य द्वादशः पर्यायः । प्रश्न. ५। चु. द्वि० ५९ आ। आवर्जिता बृ. द्वि० १८६ आ। आयुकम्मस्स मेय - आयुःकर्मणो भेदः, प्राणवधस्य द्वादशः आउट्टी-समाधानम् । बृ० तृ..११३ आ... पर्यायः। प्रश्न. ५। आउट्टे - कर्तुमभिलषेत् । आचा०. ४१.७।- निवर्तयेत् । आउयकम्मरस संवट्टगो-आयुःकर्मणः संवर्तकः, प्राणआचाः १११ । आवर्तयेत्-अनुकूलयेत् । व्य. द्वि० वधस्य द्वादशः पर्यायः। प्रश्न० ५। (१९८) 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आउयकम्मस्सुवहओ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आएस] आउयकम्मस्सुवद्दवो-आयुःकर्मण उपद्रवः, प्राणवधस्य आउसं - आयुः-जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूत द्वादशः पर्यायः। प्रश्न० ५।। वा विद्यते यस्यासावायुष्ममांस्तस्यामन्त्रणम् । ठाणा. ७ ॥ आउयबंधद्धा-आयुबन्धाद्धा। प्रज्ञा० ४८९ । आउसंत-आयुष्मान् , चिरजीवी। दश० १३७ । आवसन् आउयसंवट्टए-आयुःसंवर्तक-आयुरुपक्रमः। ठाणा० ६७।। गुरुमूलमावसन् वा। दश. १३७ । आउर-आतुरः, शरीरसमुत्थेनागन्तुकेन वा व्रणेन ग्लानः। आउसंतेण-आजुषमाणेन, श्रवणविधिमर्यादया गुरून् सेव. दश० २७० । क्षुधा पिपासया वा पीडितः। व्य. प्र. मानेन । उत्त० ८० । भगवतेत्यस्य विशेषणमायुष्मता-चिर. २३ आ। दृष्टान्तः । नि. चू० प्र० २०२ आ। आतुरः, जीवितवता। सम० २। श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेवक्वचिदपि स्वास्थ्यमलभमानः सन् आकुलः । जीवा० १२२।। मानेन। ठाणा. ९। आयुष्मदन्ते, आयुष्मता। नंदी आतुरः-दुस्थः । भग० ७०५। ग्लाने सति प्रतिजागरणार्थ २१२। आजुषमाणेन-प्रीतिप्रवणमनसा। सम० २। हे (प्रतिसेवा)। ठाणा० ४८४ । अत्यन्ताकुलप्तनुः। उत्त० आयुष्मन् । सम० २। नंदी २१२ | आमृशता-गुरुक्रमयुगलं ८६। कामेच्छाऽन्धाः । आचा० २३८ । प्रतिसेवनाभेदः । संस्पृशता । सम०२। गुरुमूलमावसता। दश० १३७ । भग. ९१९ । आतुर, चिकित्साया अविषयभूतः। विपा० आवसता गुरुकुले। सम०२। आयुष्मन् , शिष्यामन्त्रणम्। ७६ । चिकित्साया अविषयभूतो रोगी। बृ० प्र० २८१ आ। उक्त० ८०। मर्नुकामः। उत्त० २७३। आउसंवट्टण आयुरुपकमः। नि० चू० प्र० २७४ अ। आउसणाहिं- आक्रोशना मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः । आउरपञ्चक्खाण - नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानभेदः । विशे० भग०६८३। १३२० । प्रकीर्गकनाम। आव० ८०४ । श्रुतप्रत्याख्या आउसेइ-आक्रोशयति, शपति । भग० ६८३ । नम् । आव. ४७९ । अस्वास्थ्यमनाः। आचा. ७२ । आउसो-आयुष्मन् , पुत्रादेरामन्त्रणम् । भग. १३५। आतुरः-चिकित्साक्रियाव्यपेतः तस्य प्रत्याख्यानवर्णनम् । आउस्स-आक्रोशः, असभ्यवचनरूपः। सूत्र. ९३ । नंदी २०६ । अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम् । आव० ४७९ ।। आउस्सियकरणं - आवश्यककरणम् , आवर्जिकरणम् । आउरसरणं-आरोग्गसाला। दश० चू० ५१ । प्रज्ञा० ६०४ । आउरस्सरण-आतुरशरणम् , दोषातुराश्रयदानम् । दश० । आउहं-आयुधम् , क्षेप्यं शस्त्रम् । प्रश्न० ४७ । अक्षेप्यम् । ११८ । आतुरस्मरणम् , क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणं विपा० ४६ । खेटकादि । जीवा० २५९ । क्षेप्यास्त्रम् । भग. चानाचरितम् । दश० ११७ ।। १९४ । शस्त्रम् , अथवाऽऽयुध-अक्षेप्यशस्त्र खड्गादि । भग. आउरीभूएहिं-आकुलीभूतैः, आतुरीभूतैः । बृ० प्र० ३९॥ ३१८ । आउल-आकुलम् । व्यग्रम् । आव० ५८५ । प्रचुरम् । भग० आउहसाला-आयुधशाला-शस्त्रागारम् । आव. १४८ । ९५ । आकुलः, स्कंधः। विशे० ४२६ । गडुलं, आविलं आऊ-आयुः, एति-आगच्छति प्रतिबन्धकतां स्वकृतकर्मवा। सम० ५३। बद्धनरकादिकुगतेनिष्कमितुमनसो जन्तोरिति । अथवा आआउलगमणं-आकुलगमनं-एकत्र मिलिता गच्छन्ति । ओघ० समन्तादेति-गच्छति भवाद् भवान्तरसङक्रान्तौ विपाको दयमिति वा । प्रज्ञा० ४५४ । आउलमाउलं-आकुलाकुलम् , ज्यादिपरिभोगविवाहयुद्धा- आए-अनन्तकायः-कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । आत्मना। दिसंस्पर्श ननानाप्रकारम् । आव० ५७४ । ठाणा १३९ । आउला-आकुला, त्वरमाणा। बृ. द्वि. ६५ अ। आपस-प्राघूर्णकः । ओघ० ६७। निशः । नि. चू० आउलाकुल-आकुलाकुलः, अतिव्याकुलः । प्रश्न० ५०। प्र. १९ आ। प्राघूर्णक आयातः। ओघ. १०१। आउली-तडवडावक्षः । जीवा० १९१। आज्ञा। नि. चू. प्र. २८५ आ। आदेश-कृत्रिमकृतआउलो-आकुल:, अभिभूतः। आव० ५८९ ।। भृकुटीभंगादयः । आचा. ९१ । प्राघूर्णकः । आचा. 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आपसणं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आकाशगाः ] . १२९, ३५२ । कर्मकरादिः । आचा० ४१५ । व्यापारनि- | आएसियं-आदेशम् , विभागौद्देशिकतृतीयभेदः । पिण्ड ० ७९ । योजना । आचा० ३१८ । दृष्टांतः । आ० २६२ । आओ-आयः, प्राप्तिः । विशे० ४५० । उताहो । बृ० द्वि० आदिश्यते इत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो, ७ अ। भागः । आव० ३४२ । लाभः, उपादानं, हेतुः । यमैतिह्यमाचक्षते। आचा० २६२ । वृद्धवादः । आचा० विशे० ५४३ । ज्ञानादिनामायहेतुत्वादध्ययनम् । ठाणा. २६३ । · प्राधूर्णकः। ठाणा० १३८ । उपचारो, व्यवहारः । ६। भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७। .(देशे प्रधाने च) । ठाणा० २२३ । एतद्भविष्यतीत्यादिआओग - आयोगः, द्विगुणादिवृद्धया अर्थप्रदानम् । भग. निर्णयः। उप० मा० गा० ११५। आदेशः, विशेषः, | १३५। द्विगुणादिवृद्धयर्थं प्रदानम्। जं. प्र. २३२ । 'आङिति मर्यादया विशेषरूपानतिकमात्मिकया दिश्यते- अर्थलाभः। औप० १२। अर्थोपायः यानपात्रोष्ट्रमण्ड. कथ्यत इति । उत्त० ३२। प्राघूर्गकसाधुः । आव० लिकादिः । सूत्र० ४०७ । परिकरः। औप० ६३ । :२६३ । प्राघूर्णकः । ओघ. १८३ । आदेश:-प्रकारः सामा. | आओगपओगसंपउत्ताई आयोगेन - द्विगुणादिलाभेन न्यविशेषरूपस्तत्र चादेशेन-ओघतो द्रव्यमात्रतया न तु द्रव्यस्य प्रयोगः-अधमर्णानां दानं तत्र सम्प्रयुक्तानि-व्यापृ. तगतसर्वविशेषापेक्षयेतिभावः, अथवा आदेशेन-श्रुतपरिक- तानि तेन वा सम्प्रयुक्तानि-सङ्गतानि तानि । ठाणा. म्मिततया। भग० ३५७ । आदेशः, कथनम् । उत्त० ४२२ । आयोगो-द्विगुणादिवृद्धयाऽर्थप्रदानं, प्रयोगश्च--फला१४७ । संखडिविषयो दृष्टान्तः । १० द्वि० १३५ आ। न्तरं तौ संप्रयुक्तौ-व्यापारितौ यैस्ते। भग० १३५ । उपचारः । विशे० १३१५ । प्राघूर्णकः । नि० चू० प्र० १४ | आओगपयोगसंपउत्ते -आयोगप्रयोगाः-द्रव्यार्जनोपायविआ। पाहुण्णकं। नि० चू. प्र. २९३ आ। प्राघूर्णकः । शेषाः संप्रयुक्ताः-प्रवर्तिता येन । ठाणा. ४६३ । बृ० द्वि० १९५ अ। प्रायश्चितप्रकारः। बृ० द्वि. ९८ ओडावेइ-आखो यति, प्रवेशयति। विपा. ७२ । आ। सूत्रमुच्यते । विशे०. २३१। आदेशो नाम ज्ञातव- आओसे-प्रदोषे । ओघ ७६ ।। स्तुप्रकारः। स च द्विविधः-सामान्य प्रकारो विशेष प्रकारश्च । आओसेजा-आक्रोशयेत् । उपा० ४२ । विशे० २३०। असत्यार्थादेशः । प्रश्न. १७ । विध्यन्तरम् । गं-आयोधनम् , (युद्धम् )। ठाणा. ४०२ । दश. १३ । व्यपदेशः । आचा० ७४ । अभ्यर्हितः । | आकंदियं-आक्रन्दितम् , व विशेषकरणम् । प्रश्न० २० । प्राहुणकम् । उत्त० २७२ । अधिकारः। बृ० प्र० आकंपइत्ता-वयावृत्त्यादिभिः आकम्प्य-आवर्ण्य । ठाणा० .२७६ आ। प्रकारः। बिशे० ९२२ । अनुज्ञा । व्य० द्वि० ४८४। यदालोचनाऽऽचार्य वैयावृल्यकरणादिनावय॑ यदा०३४६ अ। उपचारः, व्यवहारः, स च बहुतरे प्रधाने | लोचनम् । भग. ९१९ । वाऽऽदिश्यते। ठाणा. २२३ । नयान्तरविकल्पः । व्य. आकट्टविकडिं-आकर्षवेकर्षिकाम् । भग. ६८५ । द्वि० ३५४ आ। आदिश्यते-आज्ञाप्यत इत्यादेशः-कर्म- आकदि-आकृष्टिं । भग० ६८३ । करादिः । आचा० .४१५।.. आकड्डविकहिं करेइ-आकविकटिं करोति, आकर्षविकभाएसणं-आवेशनं, अयस्कारकुंभ कारादिस्थानम् । औप० । र्षिकां करोति। भग. १६७।। आकरणम् - आगरणं, आह्वानम् । ओघ० २०४ । आएसणाणि - आदेशनानि-लोहकारादिशालाः। आचा. आकाशम् आडित सर्वभावाभिव्याप्त्या काशत इति । उत्त० ६७२ । सर्वभावावकाशनात् , आ-मर्यादया काशन्तेआपसपर-आदेशः-कर्म करादिः स चासौ परश्वादे रापरः ।। दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तत् । आ-अभिविधिना काशन्ते-- आचा. ४१५। . . . . . दीप्यन्ते पदाथा यत्र तत् । अनु. ७४ । आङिति मर्यादयाआएसा-आदेशः, प्रतिवचनमुत्पादव्ययध्रौव्यवाचकं पद- स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते-स्वरू.पणै। प्रतिभासन्ते त्रयम् । विशे० २९८ । ... तस्सिन्पदार्था इति। उत्त०.६७२ । बृ० प्र० ९१ अ । श्रापसावि-आगमिष्याः । सूत्र ७६.। . - | आकाशगाः - आगासगा, भूतविशेषाः। प्रज्ञा० ७०। (१२०) 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आकासाहि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आगमववहारी] आकासाहि-आकर्षय । आचा. ३७८ । | आगंतुय-आगन्तुकः । दश० १०८ । आकासिइ-खाद्यविशेषः । जं० प्र० ११८ । आगंतू-आगन्तुकः । उत्त० १९३ । आकिण्ण-अतिकीर्ण । नि० चू० तृ. १३ अ। आगंपिया-वशीकृता । नि० चू० द्वि० ९७ अ । आकुट्टि-हिंसा । आचा० ३०५ । आगइ-आगतिः, प्रत्यावृत्त्या-प्रातिकूल्येनागमनम् । आव. आकुट्टिय-उत्पेत्य । बृ० तृ० १२२ आ। २८१। प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगमनम् । ठाणा० १३३ । आकुल-आकुलः, व्याप्तः। जं. प्र. १८८ । आगम-आगमनम्-आगमः-आ-अभिविधिना मर्यादया आकृतम्-अभिप्रेतम् । विशे० ८८५ । वा गमः-परिच्छेद इति। आव०२६ । आचार्यपारम्पर्येणागतः, आकृष्टिविकृष्टि । व्य० प्र० ९४ आ। आप्तवचनं वा । अनु० ३८ । आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था आकेवलिआ-आकेवलिकाः, न केवलं अकेवलम् , तत्र अनेनेति, केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः । भवा आकेवलिकाः-सद्वन्द्वाः-सप्रतिपक्षा इतियावत् अस ठाणा० ३१७। सूत्रार्थोभयरूपः। आव० ५२४ । आगम्पूर्णा वा। आचा० २४१।। म्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेन इति आगमः-आप्तवचनमाकोट्टिमं - आकुट्टिकं यथा रूप्यकोऽधस्तादपि उपर्यपि सम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः । ठाणा० २६२ । गुरुपारम्पर्येमुखं कृत्वाऽऽकुट्यते । दश. ८६ । णागच्छतीति आगमः, आ-समान्ताद्गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवाआकोडनं-आकोटनम् , कुट्टनेनाङ्गे प्रवेशनम् । प्रश्न. ५७ । दयः पदार्था अनेनेति वा । अनु० २१९ । आप्तप्रणीतः । आकोडेमाणे - आउडेमाणे, आकुट्यमानम् , आहन्यमा आचा०४८। (आगमसिद्धः)। ठाणा०२५ । सूत्रम् । आव. नम्। भग० २५१। ६०४ । श्रुतपर्यायः । विशे० ४१६ । अध्ययनम् । आव० आकोसायंतं-आकोशायमानम् , विकचीभवत। जीवा. ३०० । आगमः, प्राप्तिः । दश. १६ । सङ्ग्रहम् । बृ. २७१। जं. प्र. १११।। प्र. ३२ आ। अर्थपरिज्ञानम्। व्य. प्र. २५१ आ.। आक्षोधुका-क्षुधा रहिता। दश० १२७ ।। आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा आख्यातिकम-क्रियाप्रधानत्वात् धावतीति । अनु० ११३॥ यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते - परिच्छिद्यन्तेऽर्था येन आख्यायिकास्थानानि - अक्खाइयठाणाणि, कथानक सः । नंदी २४९ । आगच्छति गुरुपारम्पर्येणेत्यागमः । स्थानानि । आचा० ४१३ । भग० २२२। आगमः । विशे० ४३२ । आगंतागारं-गामपरिसट्ठाणं, आगंतागारं-बहिया वासो। नि० चू. प्र. १८३ अ। आगन्तुकानां कापेटिकादीनाम आगमकुसला-आगमः-श्रुतिस्मृत्यादिरूपस्तस्मिन् कुशलागारमागन्तागारम् । सूत्र. ३९३ । प्रामादेर्बहिरागत्यागत्य | वागमकुशलौ । उत्त० ५२१।। पथिकादयस्तिष्टन्ति । आचा० ३६५। आगमणं-प्रयोजनपरिसमाप्तौ पुनर्वसतिं गमनम्। आव. आगंतार-यत्रागारिण आगत्य तिष्ठन्ति तदागन्तुकागारम् । ५७३ । आकसणं । नि० चू० तृ. ६३ आ। बृ० तृ० ४८ आ। प्रसहायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठन्ति | आगमणगिहं - सभाप्रपादेवकुलादिपथिकस्थानम् । बृ० तदागन्तारम् , तत्पुन मान्नगराद्वा बहिः स्थानं तत्र। द्वि० १७९ आ। आगमनगृहं-सभाप्रपादि, पथिकादीनामाआचा० ३०७ । आगन्तागारम् ( धर्मशाला )। आचा. गमनेनोपेतं, तदर्थ वा गृहम् । ठाणा. १५७ । ३०६ । पत्तनादहिगृहम् । आचा० ३४८ । आगमतः-आगममाश्रित्य (ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः)। अनु० १४ । आगंतु-आगन्तुकः-पथिकादिरगारस्थजनो यत्रागत्य सन्तिष्ठते। आगममाणे - आगमयन्-आपादयन् । आचा० २७८ । बृ. द्वि० १७९ आ। २८३ । अवगमयन् , बुध्यमानः । आचा० २४५। .. आगन्तुकः, कण्टकादिप्रभवः। आव०.७६४ ।। आगमववहारी-आगमववहारी,छविहे-केवलणाणी ओही. आगामुकः । आव० २७० । आगंतुएण सत्था- णाणी मणपज्जवणाणी चोद्दसपुवी अभिण्णदसपुव्वी णवतिणाकओ जो सो। नि. चू० प्र० १८८ आ। । पुव्वी य। नि० चू० तृ० १०० अ। आगमव्यवहारिणः, (१२१) 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आगमसत्थ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आगाढपण्ण ] व्यवहारपञ्चके प्रथमभेदः । व्य० प्र०५ अ । प्रत्यक्षज्ञानिनः। आगर - आकर, यत्र संनिवेशे लवणाद्युत्पद्यते । ठाणा० ध्य० प्र० ६३ । ४४९ । उत्पत्तिस्थानम् । (मर०)। अन्त० ७ । पृथिव्याआगमसत्थ-आगमशास्त्रम् , आ-अभिविधिना सकलश्रुत- द्याकरः । आव० ६२२ । लोहाद्युत्पत्तिभूमिः। ठाणा० विषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणारूपया २९४, ७८६ । आकरः, हिरण्याकरादि। प्रज्ञा० ४८ । गम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था येन स आगमः, स चैवं व्युत्पत्त्या खानिः । प्रश्न० ३८ । ओघ. ९ । रत्नादीनामुत्पत्तिअवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति ततस्तद्वयवच्छेदार्थ भूमिः । प्रश्न. १३४ । उत्त० ६.५। हिरण्याकरादिकः । विशेषणान्तरमाह-'शास्त्रे'ति शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रमागमरूपं जीवा० २७९ । लोहाद्युत्पत्तिस्थानम् । प्रश्न. १२७ । शास्त्रमागमशास्त्रम् । नंदी २४९ । अनु० १४२ । आगत्य तस्मिन्कुर्वतीत्याकरः । आचा. ५। आगमिएलगो-ज्ञातः । आव० ३१७ । हिरण्याकरादिः । जीवा० ४०। लोहाद्युत्पत्तिस्थानम् । आगमिओ-आगमितः, ज्ञातः। आव० ४३७ । भग. ३६ । भिल्लपल्ली भिल्लको वा। नि० चू० तृ०५२ आगमियं-ज्ञातम् । आव० ११६ । ओघ० १०५ । ज्ञातः। अ। बृ• द्वि० २४६ अ। कुत्रिकापणादिः। बृ० द्वि० आव० ३१६। २४२ अ। जत्थ घरट्टादिसमीवेसु बहुं जव भुसुट्ट सो। नि० चू० आगमियाणि-प्राप्तानि, अधीतानि । आव० ४३३। । प्र.६२ अ। रूप्यसुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानम् । नंदी २२८ । आगमिस्सं-आगमिष्यम् , आगामि। आचा. १६७।। सुवर्णादेरुत्पत्तिस्थानम् । ओघ० ९५। ताम्रादेरुत्पत्तिस्थानम् । आगमिसस्सभइत्ताए - आगमिष्यदिति - आगामिकाल- आचा० ३२९। सुवर्णादिधातूनां खानिः ।, नि० चू० भावि भद्र-कल्याणं यस्मिंस्तथा तस्य भाषस्तत्ता तया, यदि द्वि. ७० आ। वाऽऽगमिष्यतीत्यागमः-आगामी कालस्तस्मिन् शश्वद्भद्र- आगरमहेसु-आकरमहो-खानिमहोत्सवः। आचा० ३२८ । तया-अनवरतकल्याणतयोपलक्षितम् । उत्त० ५८५ । आगररूवं-आकररूपम् । भग० १९३ । आगमिस्सा-आगामिकालः । आव० ५३२ । आगरिस-आकर्षः-चारित्रस्य प्राप्तिः। भग० ९०५। आकर्षः'आगमेति-जानाति। विपा० ७३ । तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानम् । प्रज्ञा० २१८ । आगमेयवं-आगमयितव्यम्-ज्ञातव्यम्। बृ० प्र० १९२ अ । आकर्षणम् , प्रथमतया मुक्तस्य वा प्रहणम् । आव० आगमेसा-आगमिष्यन्ती। आव० १७४ । ३६३ । एकानेकभवेषु ग्रहणानि । आव० १०५ । आकआगमेसिभहा-आगमिष्यत् भद्रा-द्वितीयभवे अन्तकृतः ।। र्षगमाकर्षः-एकस्मिन्नानाभवेषु वा पुनः पुनः सामायिकस्य उपा० २९। ग्रहणानि प्रतिपत्तये। अनु० २६० । आगमेस्संति - आगमिस्यामि-गृहीष्यामि । व्य० द्वि० आगलणं-वैकल्पम् । व्य. प्र. १३२ आ। ४१८ आ। आगमेस्सा -भविष्यतः (मर०)। आगलति-आकलयन्ति, जेष्याम इत्यभ्यवस्यन्ति । भग० १७४। आगमेस्साण-आयत्याम् । आव० ३५८ । भविष्यताम् । (महाप्र०)। आगलेइ-गृह्णाति । उप. मा० गा० ३१३ । आगमोगं-आगमौकः, पथिकाद्यगारिणां स्थानं. तेषां आगः | आगल्लो-ग्लानः । बृ• तृ० १२२ आ । मने वा यद् गृहं तत् । बृ० द्वि० १७९ आ । - आगसणं-आकृष्यत इति. आगसणं तं च दविणं । नि. आगयं-आगतम्-स्वीकृतम्। आचा..१८१ । चू० प्र० १७४ आ । आगया-आगताः-सिद्धाः। रागद्वेषाभावात् पुनरावृत्ति- आगाढं-कर्कशम् । बृ० द्वि०७३ आ। तीवः । आव० ५८८ । रहिताः सर्वज्ञाः । आचा० १६७।- .. अत्यर्थम् । व्य० प्र० २५२ अ। आगयपण्हय- आयातप्रश्रवा पुत्रस्नेहादागतस्तनमुखस्त- | आगाढजोग-आगोंढयोगः, गणियोगः । ओघ० १८१। न्येत्यर्थः। भग. ४६०। आगाढपण्ण-आगाढप्रज्ञः, आगाढा-अवगाढा परमार्थ (१२२) 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आगाढो पर्यवसिता तत्त्वनिष्टा प्रज्ञा - बुद्धिर्यस्यासौ । सूत्र० २३७ । शास्त्राणि । व्य० प्र० २२६ अ । आगाढो - आगाढतरा जम्मि जोगे जतणा सो । नि० चू० अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः आघं ] ० १९७ अ । आगामिपहं आगामिपथः, आगामितो - लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्थाः । ठाणा ० ९८ । आगार - गृहम् । अनु० २४४ | आकारः - आक्रियतेऽनेनामित्रेतं ज्ञायत इति, बाह्यचेष्टरूपः । आव ० २८१ । प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगादयः । आव ० ८४० । आकारः- आक्रियत इत्याकारः - प्रत्याख्यानापवादहेतुर्महत्तरायाकारः । भग० २९६ | आकाराः - प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगादयः । ठाणा० ४९८ । शरीरगता भावविशेषाः । व्य प्र० ६४ आ । प्रतिनियतोऽर्थग्रहणरिणामः । प्रज्ञा० ५२६ । तच्छायामात्रम् । प्रज्ञा ३७१ । प्रत्याख्यानापवाद हेतुरनाभो गादिः । आव ० ८४० । बाह्यचेष्टारूपः । बिशे० ८८५ । आकृतयः, स्वरूपाणि । अनु० १३१ । ठाणां० ३९५ । दिग वलोकनादि । वृ० प्र० ४३ अ । आकृतिः । जीवा ० २०७ । प्रभा । जीवा० २६५ । प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः । जीवा ० १८ । मूर्तिः । जीवा ० २७३ । विशेषांश | आगासथिग्गलं - आकाशथिग्गलं, शरदि मेघापान्तराल - तत्र मर्यादायामाकाशे भवन्तोऽपि भावाः स्वात्मन्येवाऽऽसते नाकाशतां यान्तीत्येवं तेषामात्मसादकरणाद्, अभिविधौ तु सर्वभावव्यापनादाकाशमिति । ठाणा० ५५। 'आ' इति मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते - स्वरूपेण प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इत्याकाशम्, यदा त्वभिविधावाङ् तदा " 'आङ्' इति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते इत्याकाशम् । प्रज्ञा० ९ । आकाशम् - तृणादिरहितम् । बृ० प्र० ९१ अ | आ मर्यादया अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते - स्वं स्वभावं लभते यत्र तदाकाशम् । भग० ७७६ । आडिति मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते-स्वरूपेणैव प्रतिभासन्ते तस्मिन्पदार्था इत्याकाशं, यदा त्वभिविधावाङ् तदा आङिति - सर्वभावाभिव्याप्त्या काशत इति । उत्त• ६७२ । भगासगामितं- आकाशगामित्वम् । ठाणा० ३३२ । आगालगयं - आकाशगतं - व्योमवर्ति आकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः । सम ० ६१ । आगासतल - आकाशतलम् । जीवा० २६९ | कटाद्यच्छन्नकुट्टिमम् । जं० प्र० १०६ । आव० ६९५, ६९९ । ग्रहणशक्तिः । भग० ७३ । स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः । उत्त० ४४ । सन्निवेशविशेषः । सूर्य० २९३ । 4 . वर्ध्याकाशखण्डम् । प्रज्ञा० ३६० । शरदि मेघमुक्तमाकाशखण्डम् | जं० प्र० ३२ । आगासफलिहं- आकाशस्फटिकम्, अतिस्वच्छस्फटिकविआगारधम्मं - आगारधर्मः- द्वादशवतरूपो गृहस्थधर्मः । शेषः । जीवा ० २५३ | जं० प्र० २७५ | भग० १० । आगारभाव - आंकारभावः, स्वरूपविशेषः । जं० प्र० १८ । आगास फलितोवमा - आकाशस्फटिकोपमा । प्रज्ञा० ३६४ । जीवा १७६ । आकार एव भावः । आव० ३३८ । आगास फलोवमाइ खाद्यविशेषः । जं० प्र० ११८ । आगारभाव पडोयारे - आकार भाव प्रत्यवतारः, आकारस्य - | आगासवासिणो- जातिजुंगित विशेषाः । नि० चू० द्वि० आकृतेर्भावा:- पर्यायाः, अथवा आकाराश्च भावाश्च आकारभावास्तेषां प्रत्यवतारः - अवतरणमाविर्भावः । भग० २७७ । आगारभावमायाए - आकारभाव एव आकारभावमात्रं । आव० ३३८ । आगारभेए- आकारभेदः । प्रज्ञा० ५३१ । आगाल - आगाल:, आगालनमागाल :- सम प्रदेशावस्थानम् । आचा० ५। आगास - आकाशम्, अनावृतस्थानम् । प्रश्न० १३८ । आकाशम्, सर्वद्रव्यस्त्रभावानाकाशयति-आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादिति, आङ्-मर्यादाऽभिविधिवाची, 2010_05 ४३ आ । आगासाइवाई - आकाशादिवादिनः, अमूर्त्तानामपि पदार्थानां साधन (ने) समर्थवादिनः । औप० २९ । आकाशातिपातिन:आकाश - व्योमातिपतन्ति - अतिक्रामन्ति आकाशगा मिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्टया दिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीलाः । औप ० २९ | आगासिया - आकाशिता, आकाशं - अम्बर मिता प्राप्ता, आकर्षिता वा आकृष्टा, उत्पादितेति वा । औप० २२ । आघं - सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे दशमाध्ययननाम । सूत्र• १८६ | आख्यातवान् । सूत्र० १८८। (१२३) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आघसणं आघंसणं- एतेहिं एवंसिं आघसणं । नि० चू० द्वि० ११९अ । नि० चू० प्र० १९० अ । आघवइत्ता - धर्म्ममाख्याय, आख्याय सामान्यतो यथा कार्यों धर्म्मः । ठाणा० ११९ । आख्यायकः - प्रज्ञापकः । ठाणा० २६७ । आघवउ - आख्यातः, तस्मिन् क्षेत्रे प्रसिद्धः । आव ० ५२४ । आघवणा- आख्याना । उपा० ४७ । आघविए - - आख्यातः, सामान्यविशेषपर्यायाभिव्याप्तिकथनेन । उत्त० ५९८ । आघविज्जति - प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते - सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्ते । सम० १०९ । नंदी० २१२ । आघवियं- अर्घापितम्, अर्घः - पूजा तस्य आपः - प्राप्तिजता यस्य तत्, अर्ध वा आपितं प्रापितं यत्तत् । प्रश्न० ११३ । - आघवेद्द - आख्यापयति सामान्य विशेषरूपतः । ठाणा ५०२ । भग० ७११ । आघवेज्ज - आग्राहयेोच्छिष्यान् अर्घापयेद् वा प्रतिपादनतः पूजां प्रापयेत् । भग० ४३६ । | भाघाम, व्य- आघातः । दश० २०१ । मरणम् सूत्र ० १ ७८ । तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिनामात्मनश्च विधिवत् संलि खितशरीरतया यस्मिँस्तत् । उत्त० २४९ । आघातणं - आघातनम्, यत्र सङ्ग्रामे बहूनि मृतानि तत् । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरि सङ्कलितः आव० ७४४ | आघातो - जावंतो भूतो अगणि सगासमल्लियंते ते सब्वे घातयतीति । दश• चू० ९८४ - , आघादियं कथयित्वा । नि० चू० द्वि० ७१ अ । आघायठाणं- आघातस्थानम्, वधस्थानम् । आव ० ७४१ । आघायणं - आघातनम्, वभ्यभूमिमण्डलम् । प्रश्न० ५९ । जत्थ ( मूषकादि ) हतो तं । नि० चू० तृ० ७२ अ । आघायाय - आघातयन् संलेखनादिभिरुपक्रम कारणैः समन्ताद्वातयन् विनाशयन् । उत्त० २५४ । आचरिये - आचरितम्, कल्प्यम् । दश० ११६ । आचार:- ( आयार ), चक्रवालसामाचारीरूपः । बृ० प्र० २४९ आ । साध्वाचारप्रतिपादको ग्रन्थः । विशे० ६४८ । शास्त्रविहितो व्यवहारः । उत्त० ७११ । व्यवहारः । ठाणा ० ६४ | वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः । उत्त० ४९९ । । 2010_05 आजिणवरभदो ] पूर्वपुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थः । नंदी २०९ | चारित्रम् । उत्त० ५८३ । आचरणमाचारःउचितक्रिया विनय इतियावत् । उत्त० ३४४ । आचारप्रणिधिः- (आयारपणिही ), दशवैकालिकस्याष्टम मध्ययनम् । दश० २२४ । आचारवस्तु - (आयारवत्थू ), नवमपूर्वगत तृतीयवस्तु । उत्त० २५८ । आचारसम्पत् - ( आयारसंपया), संयमनुवयोगयुक्ततादिचतुर्भेदभिन्ना सम्पत् । उत्त० ३९ । आचारिकम् - ( आयरियं), निजनिजाचारभवमनुष्ठानम् । उत्त० २६६ । आचार्यपरिभाषित्वम् - (आयरियपरिभासित्तं ), पञ्चमसमाधिस्थानम् । प्रश्न० १४४ । भाचालो - आचालः, आचाल्यतेऽनेनातिनिविडं कर्मादीत्या - चालः । आचा० ५। आच्छिदणं - एकसि ईषद्वा छेदनम् । नि० चू० प्र० १८९ अ । आजवजवीभाव - पुनः पुनभ्रमणभावः । आचा० ७९ । उत्त० ३३६ । भाजवंजवे- अजवजवी, पुनः पुनभ्रमणम्। आचा० १६१ । आजार - आजायन्ते तस्यामित्याजातिः, आचारपर्यायः । आचा० ६ | आजाति-मनुष्यजन्म गर्हिता जात्यैश्वर्यख्यादिरहिततया । ठाणा० ४१९ । सम्मूर्च्छन गर्भोपपाततो जन्म ठाणा० ५१२ । च्युतस्योत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता कुमानुषादित्वादेव ठाणा० १३२ । आजाइसहरूस-आजातिसहस्रम् अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेषु अधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्कसहस्राणि त त्स्वामिजीवानामाजातीनां च बहुशतसहस्रसङ्क्षयत्वात् । भग० क २१५ । आजिणभद्दो- आजिनभद्र:, आजिने द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिदैवः । जीवा० ३६९ आजिण महाभहो - आजिनमहाभद्रः, आजिने द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । आजिणयं - आजिनकम्, चर्ममयं वस्त्रम्। जीवा० २६९ । आजिणवरभद्दो- आजिनवरभद्रः, आजिनवरे द्वीपे पूर्वाद्वधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । (१२४) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आजिणवरमहाभद्दो अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः आढणं ] आजिणवरमहाभद्दो - आजिनवरमहाभद्रः, आजिनवरे | आजीवभयं-आजीविकाभयम्, निर्धनः कथं दुर्भिक्षादावाद्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । त्मानं धारयिष्यामीति भयम् । आव ० ६४६ । वृत्तिभयम् | आजिणवरमहावरो-- आजिनवरमहावरः, आजिने समुद्रे प्रश्न० १४३ । दुर्जीविकाभयम् । आव ० ४७२ | आजिनवरे समुद्रे चापरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । आजीवियसुत्तपरिवाडीप - आजीविकसूत्रपरिपाटयाम् गोआजिणवरावभासभद्दो- आजिनवरावभासभद्रः, आजिन- शालकमत प्रतिबद्धसूत्र पद्धत्याम् । सम० ४२ | वरावभासे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । आजीविया - आजीविकाः, पाषण्डिविशेषाः, नाग्न्यधारिणः आजिणवरावभासमहाभद्दो- आजिनवरावभासमहाभद्रः, गोशालक शिष्याः, आजीवन्ति वा येऽविवेकिलोकतो लब्धिआजिनवरावभासे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा ० ३६९ । पूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्तित्वेनाजीआजिणवरावभासमहावरो - आजिनवरावभासमहावरः, विकाः । भग० ५० । पाखण्ड विशेषाः, गोशालमतानुसारिणः, आजिनवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । आजीवंति येsविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि । आजिवरावभासवरो - आजिनवरावभासवरः, आजिन- प्रज्ञा० ४०६ । औप० १०६ | आजीविकाः - गोशालकवरावभासे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । शिष्याः । भग० ३६७ । ठाणा० २३२ । आजीविकाः भाजिणवरावभासो - आजिनवरावभासः, द्वीपविशेषः, गोशालक प्रवर्तिताः । सम० १३० । समुद्र विशेषश्च । जीवा ० ३६९ । आजिणवरो - आजिनवरः, आजिने समुद्रे, आजिनवरे समुद्रे च पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६९ । द्वीपविशेषः, समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८ । आजिणो - आजिनः, द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० आजीवी - वेषविडम्बकः । उप० मा० गा० २९८ । आजोअनंतरं- आयोजनान्तरम्, योजन परिमाणम् । आव ० २३१ । आजोग-आयोगः, व्यापारणम् । उत्त० ७१० । आव ० ६९४ । ३६८ । आजोजिया - आयोजिका, आयोजयति जीवं संसारे इति, क्रियाविशेषः । प्रज्ञा० ४४५ । आजीव - आजीवः, आजीविका । पिण्ड० १२१ । आजीविकः । व्य० प्र० १६३ अ । भगवत्यष्टमशतकपंचमोद्देशकः । भग० ३२८ । आडंबरो - आडम्बरः, मातङ्गनामा यक्षः । आव ०७४३ । पटहः । ठाणा० ३९५ । अनु० १२९ । यक्षः । व्य० द्वि० । आजीवक - निवः । उप० मा० गा० ४५९ | ( आजीवग ) आडहइ - आदधाति, नियुङ्क्ते । औप० ६४ । गोशालकमतानुसारी । दश० २२२ । आडा-लोम पक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४९ । भाजीवदितो- आजीवदृष्टान्तः, आ-सकलजगदभि- | आडासेताय - आडासेतीकः, पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । व्याप्या जीवानां यो दृष्टान्तः - परिच्छेदः सः, सकलजीव आडुआलित्तं मिश्रितं, विलोडितम् । आव ० ३४२ । दर्शनम् । जीवा ० १३७ । आडोव - आटोपः स्फारता | प्रश्न० ४८ । औप० ५३ । आजीवगा - आजीविकाः पंडरभिक्खूआ । नि० चू० द्वि० आडोवेइ - आटोपयेत् वायुना पूरयेत् । भग० ८२ । आडोहितो- जलं विलोढयन् । बृ० द्वि० ७२ आ । आढइ-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आढकी, गुच्छविशेषः । ९८ अ । आज वगो - आजीवगः, आ - समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्या जीव:अर्थनिचयस्तं गच्छति - आश्रयत्यसौ, आजीवगः - अर्थमदः । सूत्र० २३७ । आचा० ५७। आढए- आढकः, मान विशेषः । भग० ३१३ । आजीववत्तिया - आजीववृत्तिता, जात्याद्याजीवनेनात्मपा- आढगं- आढकः, प्रस्थचतुष्टयनिष्पन्नः । अनु० १५१ । चतुः • लना । दश० ११७ । प्रस्थपरिमाणम् । आव० २३८ । आजीवण पिंडो-जातिमातिभावं उवजीवतित्ति आजीवण आढगमो - आढककः, मानविशेषः । उत्त० १४३ । पिंडो । नि० चू० द्वि० ९७ आ । आढणं- आदरः । बृ० द्वि० ७६ आ । 2010_05 (१२५) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आढत्तं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आणय ] आढतं-आरब्धम् । भग० २८२ । आणंदा-आनन्दा, पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या दिकुमारी। भाव. आढत्ता-आरब्धा । आव. २३७ ।। १२२ । दक्षिणदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां पुष्करिणी । आडत्तो-आरब्धः। आव. १०३, ४१३, २६२ । दश. ९७।। जीवा. ३६४। अंजनकपर्वते पुष्करिणी। ठाणा. २३०। आढयं-आढकः, सेतिकाप्रमाणः। जं० प्र० २४४ । पौरस्त्यरुचकवास्तव्या तृतीया दिकुमारी । जं० प्र० ३९१ । आढवेह-आरभते । दश० ३८ । आणदिए-आनन्दितः, तुष्टः, हृष्टः, ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः आढवेऊण-आरभ्य। आव० ३४१ । समृद्धिमुपगतः। भग० ११९, ३१७ । आढा-आदरः । बृ० द्वि० ६७ आ। आणंदियं-आनन्दितम् , स्फीतीभूतम् । जीवा० २४३ । आढाति-आद्रियते। दश० ५९। आव० ९२, ८१२। | आण-आज्ञा, श्रुतपर्यायः। विशे० ४२३ । आढायमाणे-आद्रियमानः । आचा० २८४ । आणइंति-आनयन्ति। बृ० द्वि० १०९ अ। आणं-आज्ञा-योगेषु प्रवर्तनलक्षणाम् । ठाणा० ३३१ । विधि- आणक्खिऊण-परीक्ष्य । आव० २९१ । विषयमादेशम् । ठाणा० ३८६ । आणक्खिस्सामि - अन्वीक्षिष्यामि - अन्वेषयिस्यामि । आणंतरिए-आनन्तर्यम्-सातत्यमच्छेदनमविरहः । ठाणा० । आचा० २८२ । ३४६ । आणक्खेउ-परीक्ष्य। ओघ० ३३। अनुमीथ। बृ० तृ. आणंद-आनन्दः, द्वितीयमासक्षपणे भिक्षादाता। आव. | १६४ आ । २०० । उपासकदशांगाद्यध्ययनम् , तन्नाम श्रावकः । उपा० आणक्खेऊण-ज्ञात्वा, निश्चित्य। नि० चू० प्र० ६ आ । १। गाथापातः । आव० २१५। नालंदबाहिरिकायां गाथा- आणतं-एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम् । सम. । पतिः । भग०६६२ आनन्दः, षष्ठो बलदेव विशेषः । आव० १५९। श्रुतेन सामायिकाप्तौ दृष्टांतः । आव० ३४७ । षोडशः | आणतं-अन्यत्वम्-अनगारद्वयसम्बधिनो ये पुद्गलास्तेषां मूहुर्तविशेषः । सूर्य. १४६ । जै. प्र. ४९१ । धरणेन्द्र- भेदः। भग. ७४ । रथानाकाधिपतिः । ठाणा० ३०२ । षष्ठो बलदेवः । सम० आणत्तिअं- आज्ञप्तिकाम् . आज्ञा प्रत्यर्पयत। जं० प्र० १५४ । शीतलजिनाद्यगणभृत् । सम० १५२ । भगवान् महावीरशिष्यः। भग. ६६८। अवधिनिर्णयविषये श्रमणो आणत्तो-आज्ञप्तः । आव० ४१९ । पासकः । सूत्र. ९ । प्रथमश्रावकनाम । आव. २१५। आणंदकूडे-आनन्दनाम्नो देवस्य कूटमानन्दकूटम् । जं० | आणपाणकालो-आनपानकालः, उच्छासनिःश्वासौ समु. दितावेकः । जीवा० ३४४ । आणंदपुरं - आनन्दपुरम् , इहलोकगुणविषये कच्छदेशे | आणपाणलद्धी- अंतर्मुहूर्तेन चतुर्दशपूर्वपरावर्तनशक्तिः । नगरम् । आव. ८२४ । द्रव्यमूढोदाहरणे पुरं । नि० चू० | ओघ. १७८ । द्वि० ४२ अ स्थलपत्तनविशेषः । नि० चू० प्र० २२९अ। आणमंति-आनन्ति । भग. १९ । उच्सन्ति, अन्तः(मार्गोपसंपदि) नगरविशेषः । नि. चू० प्र० २४१ अ।। स्फुरन्तीमुच्छासक्रियां कुर्वन्ति, आनमन्ति उच्छ्सन्ति । नगरनिशेषः । नि० चू० द्वि० ७१ आक्षेत्रविपर्यासे नगर- प्रज्ञा० २१९ । 'णमु प्रह्वत्वे' इत्येतस्यानेकार्थत्वेन श्वसनार्थविशेषः। नि० चू० द्वि० ८ अ। त्वात् , आनन्ति इत्यनेनाध्यात्म क्रिया । भग० १९ । आणंदपुरे मूलचैत्यगृहे सर्वजनसमक्षं दिवसतः कल्पकर्षणं | आणमणिया-आज्ञापनी, विंशतिक्रियामध्ये द्वादशी क्रिया । भवति । नि० चू० प्र० ३५५ अ । आव०६१२। कार्ये परस्य प्रवर्तनं यथेदं कुर्विति भाषा । आणंदरक्खिए - आनन्दरक्षितः, पार्थापत्यस्थविरनाम । | प्रज्ञा० २५६ । भग. १३८ । | आणय-आनतः, नवमदेवलोकनाम । प्रज्ञा० ६९ । पाता । सून' । अचमलापकनाम । आव० 111 आणपाण-आणप्राणः । सये० २९२॥ 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आणरुई अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आणापाण] आणरुई - आज्ञारुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तस्या | रगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय गीतार्थों रुचिः-अभिलाषो यस्य स आज्ञारुचिः।जिना व मे तत्त्वं यदतिचारनिवेदनं करोति सा। ठाणा० ३०१। यदगीतार्थस्य न शेषं युक्तिजातमिति योऽभिमन्यते स आज्ञारुचिः ।। पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनं प्रज्ञा० ५६ । इतरस्यापि तथैव शुद्धिदानं सा। भग०३८४ । ठाणा०३१८ । आणरुती-आज्ञारुचिः-आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचि- आदेशः। भग० १२२। जीवा० २४३। सर्वज्ञवचनार्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचा. त्मिका । प्रज्ञा० ५८ । आङिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया र्यादीनामाज्ञयैव कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति रोचते सः। मर्यादयाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेति, भगवदभिठाणा. ५०३ । हितागमरूपा । उत्त०४४ । आगमः । सूत्र.४०५। आव० आणवणप्पओगे-आनयनप्रयोगः । आव० ८३४ । इह ८६२। उत्त० ४४९ । अनुज्ञा। पिण्ड १६९ | गुरुनियोगाविशिष्टावधिके भूदेशाभिग्रहे परतः खयंगमनायोगाद्यदन्यः त्मिका। उत्त० ५७२ । यथोक्ताज्ञापरिपालना। नंदी २४८ । सचितादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयैदमाने. द्वादशांगं सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, द्वादशांगमेव चाज्ञा, यम् इत्यानयनप्रयोगः (देशावकाशिके अतिचारः)। आज्ञाप्यते जन्तुगणो हितप्रवृत्ती यया साऽऽज्ञेति, अथवा उपा. १०। पंचविधाचारपरिपालनशीलस्य परोपकारकरणैकतत्परस्य आणवणिया-अज्ञापनिका, जीवाजीवानानाययतः । ठाणा. गुरोहितोपदेशवचनमाशा । नंदी २४८ । श्रुतस्य पर्यायः । ३१७। आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी विशे० ४१६ । सैवाज्ञापनिका, तज्जः कर्मबन्धः, आदेशनमेव वेति, आना- आणाइणो-आज्ञादयः, आज्ञाभङ्गादयः । पिण्ड० ६९ । यनं वा आनायनी। ठाणा० ४३ । आणाइयं - आज्ञातिगं-आज्ञा-जिनादेशमतिगच्छति-अतिआणवणी-आज्ञापनी, असल्यामृषाभाषाभेदः । दश० २१० । क्रामति यत्तत् , अधर्मद्वारस्य पाठान्तरेणाष्टाविंशतितम नाम। कार्ये परस्य प्रवर्तनी । भग० ५०० । प्रश्न. २७। आणवेस्सामि-आनाययिष्यामि । आव० ४१०। आणाईसरसेणावञ्च-आज्ञेश्वरसेनापत्यम् , आज्ञाप्रधानस्य आणा-आज्ञा, मौनीन्द्रवचनम् । आचा. ४४। तीर्थकर सतो यत् सेनापत्यम् । भग० १५४। स्वस्वसैन्यं प्रत्यगणधरोपदेशः । दश०. २६५ । ज्ञानाद्यासेवारूपजिनोपदेशः । द्भतमाज्ञाप्राधान्यम् । प्रज्ञा० ८९ । भग. ५४। कर्तव्यमेवेदमित्याद्यादेशः। भग. १६७ । आणाकंखी-आज्ञाकांक्षी, आगमानुसारप्रवृतिकः । आचा. दुवालसंगं गणिपिडगं । नि० चू० तृ. ४ अ । उपदेशः । २१०। सूत्र. १८३ । अर्थ: । आव० ६०४ । आज्ञाप्यतआज्ञा - हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेश : । आणानिसयरे - आज्ञानिर्देशकरः, आज्ञा-'सौम्य ! इदं आचा० ११३ । आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनिवेशतोऽन्यथा कुरु इदं च मा कार्षीः' इति गुरुवचनं तस्या निर्देशः, इदमिपाठादिलक्षणया अतीतकाले अनंता जीवाश्चतुरन्तं संसार त्थमेव करोमीति निश्चयाभिधानं, तत्करः । उत्त० ४४ । कान्तारं-नारकतिर्यगनरामरविविधवृक्षजालदुस्तरं भवा-वीगह भगवदभिहितागमरूपया उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानमित्यर्थः, अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत् अर्थाज्ञया पुनराभि निर्देशः इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया गोष्टामाहिलवत् उभयाज्ञया लस्तदनुलोमानुष्ठानो वा। उत्त० ४४। आज्ञानिर्देशतरः आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोधिमिति । उत्त. ४४ । पुनः पंचविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिंगधार्यनेकश्रमणवत् सूत्रार्थोभयै- आणानिइसे-आज्ञानिर्देशः, आज्ञा-भगवदमिहितागमरूपा विराध्येत्यर्थः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षमागमोक्तानुष्ठान- तस्या निर्देशः-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनम् । उत्त० ४४ । मेवाज्ञा तया तदकरणेनेत्यर्थः। सम० १३३ । हे साधो! | आणापाण-आनप्राणः, उच्छ्वासनिःश्वासकालः । भग० भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादिष्टिः । ठाणा०३०१। गूढार्थपदै- २११ । 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आणापाणू आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आतियणो] आणापाणू-आनप्राणा - उश्वासनिःश्वासकालः संख्याताव- | आणुगामियत्ताए-आनुगामिकत्वाय, शुभानुबन्धायेत्यर्थः । लिकाप्रमाणाः । ठाणा० ८५। भग. ४५९ । भवपरम्परानुबन्धसुखाय । भग० ११५ । आणाफलं - आज्ञाफलम्-जनेन यथोदितवचनप्रतिपत्तिरूपा आणुपुवी-आनुपूर्वी, शिष्यप्रशिष्यपरम्परात्मिका। उत्त० फलं प्रयोजन अस्य । उत्त० ५८०। ८। कमेण मरणकालं पत्तस्स आणुपुव्वी। नि० चू० द्वि० आणाम-(अननम्-श्वसनम् )। भग० १०९ । ५३ अ। वृषभनासिकान्यस्तरज्जूसंस्थानीया. यया कर्मआणामियं-आनामितम् , ईषन्नामितम् । प्रश्न. ८२ । | पुद्गलसंहत्या विशिष्टं स्थानं प्राप्यतेऽसौ, यया वोर्वोत्तमा. आरोपितम् । जीवा० २७३। . ङ्गाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरविशेषो भवति सा । आणाय-आज्ञाय, स्वरूपाभिव्याप्त्याऽवगम्य । उत्त. १०४ । आव० ८४। यथाऽऽसन्नम् । भग० २१। मूलादि परिपाटी। जीवा० १८७। आव. ८.३ । क्रमेण यथाss. आनायम् , जालम् । उत्त०४०७ । प्रश्न. २२। आणारुइ-आज्ञारुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचि सन्नम् । जं० प्र० ४६१ । शास्त्रीयोपक्रमाद्यभेदः । ठाणा० र्यस्य सः । उत्त० ५६३ । आज्ञा-सूत्रव्याख्यानं नियुक्त्या ४ । आव० ५६ । यदुदयादन्तरालगतौ जीवो याति तदादिश्रद्धानम् । औप० ४४ । नियुक्त्यादि तत्र तया वा रुचिः।। नुपूर्वीनाम । सम० ६७। उत्त० ६४१ । आनुपूर्वी-यथा सन्नम् । जीवा० २०। ठाणा० १९० । भग० ९२६ । आणुपुबिगढिया-आनुपूा-परिपाट्या प्रथिता-गुम्फिता माणाविजए - आज्ञाविचयम् , आज्ञागुणानुचिन्तनम् । । इति आनुपूर्वीग्रथिता। भग० २१४ । औप० ४४ । प्रवचनपर्यालोचनविषयमाज्ञालोचनविषयं धर्मध्यानम् । ठाणा. १९० । आणाविजय-आज्ञा-जिनप्रवचन | | आणुपुव्वो-आनुपूर्वः, क्रमेण नीचर्नीचैस्तरभावरूपः। जीवा. १९८। तस्या विचयो-निर्णयो यत्र तदाज्ञाविचयम् । भग० ९२६ । आणू-उस्सासो। दश० चू० ५४ । आज्ञा वा विजीयते अधिगमद्वारेण परिचिता क्रियते यस्मि आतंतमे- आत्मतमः-आत्मानं तमयति-खेदयति इति निति । ठाणा. १९०। आ-अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था आत्मतमः-आचार्यादिः । आत्मनि तमः-अज्ञानं क्रोधो वा यया साऽऽज्ञा-प्रवचन सा विचीयते-निर्णीयते पर्यालोच्यते यस्य स आत्मतमाः । ठाणा० २१४ । वा अस्मिस्तत् । ठाणा. १९०। आत-(आय)-अप्पा। नि० चू० प्र० ३२ अ। आणावियं-आनायितम् । आव. ४२२।। आतवेतावञ्चकरे - आत्मवैयावृत्यकरः, अलसो विसम्भोआणासाएमाणे-अनाशयमानः, आशाविषयमकुर्वाणोऽना- | गिको वा। ठाणा. २४१ । आत्मवैयावृत्त्यकरः-यस्मात् स स्वादयन् वाऽभुञ्जानोऽतर्कयन्नस्पृहयन्नप्रार्थयमानोऽनभिलषन्। तपसा पूर्वसंचितकर्ममलं शोधयन्नात्मन एवोपकारे वर्तते उत्त० ५८८ । ततः सः । व्य० प्र० १४८ आ । आणितिल्लयं-आनीतः । आव० ५५८ ।। आतसरीरसंवेगणी-आत्मशरीरसंवेगनी - यदेतदस्मदीयं आणिमलो-अनलगिरिगजस्य विष्टा। नि० चू०प्र०३४९ । शरीरमेतदशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमिति न आणुकंपिए-अनुकम्पितः, कृपावान् । भग० १६९।। प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा । ठाणा० २१२ । आणुग-अनूपः-नद्यादिपानीयबहूलः । बृ० प्र० १७५ आ। आतानवितान-( आयाणवियाण ), तन्तुषु वेमादिक्रिया । आणुगामिए-देशान्तरगतमपि ज्ञानिनं यदनुगच्छति लोच. विशे० ८६९ । नवदिति तदेवानुगामिकम् । ठाणा० ३७०। धूमादिहेतुर- आतावणा-आतापना। प्रश्न. १०७ । नुगामि ततो जातमानुगामिकम्-अनुमान तद्रूपो व्यवसायः।। आतावते - आतापयति-आतापनां शीतातपादिसहनरूपा ठाणा० १५१। करोति इति आतापकः। ठाणा० २९९ । आणुगामियं-आनुगामिकम् । औप० ५८ । आनुगामुकः- आतियं-आचितम् , रचितम् । प्रश्न० ४७ । अनुगमनशीलः । आव. २८ । आतियणो-अदने-भक्षणे । व्य० प्र० १८. अ। . (१२८) 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आतियाणे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आदाणीय ] आतियाणे-मुंजणवेलाए ठाति। नि० चू० तृ. ३८ आ। | आददति-विदधति । प्रश्न. १०७ । आतुरीभूः। नंदी १५४ । आदर्शकगृहं-भरतकेवलज्ञानस्थानम् । प्रज्ञा० २० । आतूलुगा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । आदर्शसमानः-(अद्दागसमाण),आदर्शसमानो, यो हि साधुभिः आतो-आयः । उत्त०१४७ । आहोस्वित् । उत्त. ३२३ ।। प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत्प्रआतो(उ)ज-आतोद्यम् , वाद्यम् । प्रश्न० ८ । पटहादिः । तिपद्यते सन्निहितार्थानादर्शकवत् स आदर्शसमानः । ठाणा० ६३ । ठाणा. २४३ । आत्तएणं-आदत्तेन-गृहीतेन, आत्मीयेन वा । अनु० २२ । आदाण - आदानम् , आदीयते-स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म आत्ततर:-दृढतरः, अयमनयोरतिशयेनात्तो-गृहीतो यत्नेना- । येन तत्, कषायाः, परिग्रहः, सावद्यानुष्ठानं वा। भ्यवसित इत्यर्थः । आचा. २९४ ।। सूत्र. २६४ । ( बहिद्धादाणं)-बहिर्द्धा-मैथुनम् आदानं चआत्तप्रज्ञाहा-(अत्तपण्णहा ), आत्तां-सिद्धान्तादिश्रवणतो परिग्रहः, परिग्राह्य वा वस्तु धर्मोपकरणाद् बहिः । ठाणा. गृहीतामाप्तां वा-इहपरलोकयोः सद्बोधरूपतया हितां २०२। मोक्षार्थिनाऽऽदीयते-गृह्यत इति, संयमः । सूत्र. प्रज्ञाम्-आत्मनोऽन्येषां वा बुद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति | २२९ । कारणम् । नि० चू० प्र० ११६ अ । प्रभवः, यः स । उत्त० ४३५। प्रसूतिः । नि. चू० प्र० ११६ अ । ग्रहणम् । आव०८२२ । आत्मछन्दाः - आत्मनैव उपधेरानयनाय छन्दोऽभिप्रायो | आदीयत इति, धनम् । आव० ६४६ । नि० चू० प्र. विद्यते येषां ते आत्मछन्दसः । व्य. द्वि० २१ आ। - ३१७ अ। आदानः, अंशः । सूर्य० २०९। आत्मरक्षा-शिरोरक्षस्थानीयाः । तत्त्वा० ४-४। भादाणणिक्खेवणासमिती-आदाननिक्षेपणासमितिः, जं आत्मरक्षी-विषयाभिलाष विगमान्निर्निदानः सन् आत्मानं वत्थपायसंथारगफलगपीढगकारणट्ठा गहनिक्खेवकरणं पडिरक्षत्यपायेभ्यः - कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशीलः। उत्त. लेहिय पमज्जिय सा । नि० चू० प्र० १७ अ। २२५। आदाणनिक्खिवणअणाभोगकिरिया-आदाननिक्षेपाआत्मवादी-अस्त्यात्मा खतो नित्य इति वादी। आव० नाभोगक्रिया, रजोहरणेनाप्रमाय॑ पात्रचीवरादीनामादानं निक्षेपं वा करोति सा। आव० ६१४ । आत्मसमीपे-आत्मोत्सङ्गे । ओघ० ११८ । आदाणभयं-आदानभयम् , धनस्य चौरादिभ्यो यद्भयम् । आत्मसंवेदनीय-आत्मना क्रियत इति । आव० ४०५। आव० ६४६ । धनहरणभयं । आव. ४७२ । आदानआत्मागम-अत्तागम, गुरूपदेशमन्तरेणात्मन एव आगमः। धनं-तदर्थं चौरादिभ्यो यद्भयम्। ठाणा० ३८९। द्रव्यअनु० २१९ । माश्रित्य भयम् । प्रश्न० १४३। . आत्माधिष्ठितयोगी- अत्ताहिट्ठिय जोगी, आत्माधिष्ठितेन- | आदाणभरियं सि-आद्रहणभृते । उपा० ३४ । लब्धेन भक्तादिना युज्यत इति, अत्तलद्धिओ। ओघ० | आदाणिजं-आदानीयम् , सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशाध्ययनम् । सूत्र. २५२। आत्मार्थ-अत्तट्टे, अर्थ्यमानतया स्वर्गादिः, यद्वा आत्मैवार्थः। आदाणिय-आदानीयम् , आदीयते-गृह्यते उपादीयत इति, उत्त० २८४ । विशोधनम् । व्य० प्र० ११५ । पदमर्थो वा । सूत्र. ९।। आत्मार्थिकम्-अत्तट्ठिय, आत्मनोऽर्थः, आत्मार्थस्तस्मिन् आदाननिक्षेपणासमितिः-रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठभवम् । उत्त० ३६.। फलकादीनां चावश्यकार्थ निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ। आदंसग-आदर्शकः-दर्पणः । उत्त० ६५० । तत्त्वा० ९५। आदंसगहत्थिआ-आदर्शहस्ता। आव० १२२ । आदाणीय-आदानीयः, उपादेयः । सम० ८१ ठाणा० आदंसिआइ-खाद्यविशेषः । जं० प्र० ११८ । ३६९ । परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तत्। आदण्ण-खिन्नः । आव० ९४, ३५५ । आचा० १४०। (१२९) 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आदिंतियमरण आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः आनन्द ] आदितियमरण - यानि हि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिका- | आदेशिकं - श्रमणानुद्दिश्यादेशम् । बृ० प्र० ८३ अ । न्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत आदेसं - उद्दिनं । नि० चू० प्र० २३० आ । विशेषं प्रतिइत्येवं यन्मरणं । भग० ६२४ । नियतव्यक्त्यात्मकम् । उत्त० ६७३ । आदि-आदिः, कारणम् । प्रश्न० ४ । आदिए - आददीत, गृह्णीयात् । उत्त० ५१७ । आदिकरः - आइगर, आदौ प्राथम्येन श्रुतधर्म्ममाचारादिप्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरः । सम ० ३ । प्रथमतया प्रवर्त्तनशीलः । व्य० द्वि० ३८५ अ । आदिगरमंडलगं - आदिकरमण्डलम् । आव ० १४६ । आदिच्चो - आदित्यः । जीवा० ३२१ । सूर्यसंवत्सरः । सूर्य० । | - १२ । आदि-आदिष्टः, विशेषितः । भग० ४७ । आदिट्ठा - गृहीता । नि० चू० प्र० २०७ आ । आदित्यमासः - त्रिंशदहोरात्राणि रात्रिन्दिवस्य चार्द्ध, दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा षष्टभागमानः । बृ० प्र० १८६ आ । आदित्ययशा- भरतपुत्रनाम । व्य० द्वि० १२९ आ । आदिमा भावा - आवश्यकादयः सूत्रकृतानं यावद् ये आगम ग्रन्थास्तेषु ये पदार्था अभिधेयास्ते । वृ० प्र० १२८ आ । आदित्यरथः- वालिसुग्रीवपिता विद्याधरः । प्रश्न० ८९ । आदियणं - गहणं । नि० चू० प्र० १३४ अ । पिबंतस्स । नि० चू० तृ० ६५ आ । आदियणआ-आदानम्, ग्रहणम् । आव ० ६१४ । आदियणा - आदानम्, परधनस्य ग्रहणं, तृतीयाधर्मद्वारस्य पञ्चदशं नाम । प्रश्न० ४३ । आदिश्यते । जीवा० १४० । आदी अदि भावे - आदौ - आवश्यकादिशास्त्रेषु वर्त्तमाना अदृष्टा भावा येन सः । बृ० प्र० १२६ आ । आज - आदेया, दर्शनपथमुपागता सती पुनः पुनराकात्क्ष णीया । जं० प्र० १११ । आदेयः, रम्यः । प्रश्न० ८३ । आदेज्जनाम - आदेयनाम, यदुदयवशात् यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्वं लोकः प्रमाणीकरोति दर्शनसमनन्तरमेव च जनोऽभ्युत्थानादि समाचरति तत् । प्रज्ञा० ४७५ । आदेयवचनता-सकलजनग्राह्यंवाक्यता । उत्त० ३९ । आदेशकषाय- कैतवकृत भृकुटि भंगुराकारः । आव ० ३९० । आदेशतः । नंदी ७० । | 2010_05 आदेसतिगं- आदेशत्रिकम्, मतत्रिकम् । पिण्ड० १० । आदेसदव्वसुद्धी - आदेशद्रव्यशुद्धिः द्रव्यशुद्धिभेदः । दश० २११ । आदेसफलं - आदेशफलम् । आव० ३४३ । आदेसा - पाहुणा । नि० चू० प्र० १११ अ । प्राघूर्णकाः । बृ० प्र० ८५ आ । आदेसे - आदेशः, आदिश्यते यस्मिन्नागते सम्भ्रमेण परिजनस्तदासन दानादिव्यापारे सः, प्राघूर्णकः । सूत्र० ३०० । आदेसो-आदेशः प्रकारः । जीवा ० ५३ । सुताएसो । नि० चू० प्र० ७१ अ । अनुज्ञा । व्य० द्वि० ३४६ अ । नयान्तरविकल्पः । व्य० द्वि० ३५४ आ । आद्यशब्द - तर्कणादोषादिप्रतिपादनः । नि० चू० २२५ अ । आद्रहणम्-उच्छलदुष्णजलम् । दश० १७४ । पिण्ड० ३५ । आधरिसितो - आधर्षितः । आव० ३७१ । प्र० : आधत्त- आधत्तम्, ग्रहणके मुक्तम् । बृ० द्वि० १२० अ । आधरिसेहिति-आधर्षिष्यति । आव० १०४ । आधाकम्मिए-आधाय - आश्रित्य साधून कर्म्म- सचेतनस्याचेतनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म्म तदेवाधाकस्मिकम् । ठाणा० ४६० । आधायणं- जत्थ वा महा संगामे मता । नि० चू० तृ० ७३ अ । आधिः- मनः पीडा । भग० ४ । आधिदैविकम् - देवादिसत्कं दुःखम् । उत्त० २६६ । आधिभौतिकम्-अन्यभूतसत्कं दुःखम् । उत्त० २६६ । आधूय - भ्रमयित्वा जलेन सदाहत्याहित्य | जं० प्र० २३० । आधूयारुहकम् - हरितभेदः । आचा० ५७ । आध्यात्मिकम् - अज्झत्थियं, आत्मसत्कं दुःखम् । उत्त २६६ | आत्मनि क्रियमाणम्। आचा० ४६ ॥ अनगारिकम् - अनगारेषु भावभिक्षुषु भवमानगारिक मनुष्ठानम् । उत्त० ३३९ । आनन्द - श्रुतसामायिकलाभे दृष्टान्तः । आव ० ३४७ । (१३०) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आनन्दपुरम् अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आभरणाणि ] आनन्दपुरम्-स्थलपत्तने नगरविशेषः । बृ० प्र० १८१ आ। आप्त-अत्त, ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स, रागद्वेषप्रहीणः, जितारिराज्ञः राजधानी । बृ० तृ० १०७ आ। नगरविशेषः। इष्टाः शोध्यै शैधि विषये ये आप्ताः। व्य० द्वि० व्य. प्र. १४६ अ, ४ आ। व्य. द्वि० २६६ अ।। ३८९ आ । आनन्दविजयः-आचार्यनामविशेषः। जं० प्र० ५४५ । आप्तप्रज्ञाहा- सिद्धान्तादिश्रवणतो गृहीतामाप्तां वा इहआनन्दविमल:-आचार्यनामविशेषः । जं० प्र० ५४३ ।। परलोकयोः सद्बोधरूपतया हिता-प्रज्ञाम्-आत्मनोऽन्येषां आनुगामिकः-आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामिकः, वा बद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति यः सः। उत्त. अनुगमः प्रयोजनं यस्य सः। प्रज्ञा० ५३९ । अनुगच्छति ४३५ । साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो आप्नोति-आत्मवशतां नयति । प्रज्ञा० ३६२ । . जातमानुगामिकं, अनुमानं, तद्रूपो व्यवसायः । ठाणा १५१ । । आप्रच्छना-भदन्त ! करोमीदमित्येवं गुरोः प्रच्छनमाप्र. भानुपूर्वी-यथासन्नम् । प्रज्ञा० ५०३ । कूर्परलाङ्गलगोमू-| च्छना । अनु. १०३ । सम० १५८ । . त्रिकाकारेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवा आप्फोडिऊण-आस्फोट्य । आव० १६८ । न्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरि. आबद्धसेओ-आबद्धस्वेदः । आव० ५१५ । पाटी। प्रज्ञा० ४७३। अन्तर्गतौ गत्यन्तरमानुपूर्व्या प्राप आबद्धो-आबद्धः, आरब्धः । आव० ५१५ । णसामर्थ्य, शरीराङ्गोपाङ्गानां विनिवेशक्रमनियामकं वा कर्म । आबाहा-आबाधा, ईषद्बाधा। भग० २१८।०प्र० १२४ । - तत्त्वा० ८-१२ । जन्मजरामरणक्षुत्पिपासादिका आबाधा । ठाणा० ४८८ । अनुक्रमः-अनुपरिपाटी । अनु० ५१ । आबाहाए-अन्तरे कृत्वेति शेषः । सम० १६। आपणवीही-आपणवीथिः, रथ्याविशेषः । जं० प्र० ४१३ । आभंकरं- सनत्कुमारकल्पे त्रिसागरस्थितिक विमान । आपणवीथिः । भग. ४७६।। सम० ८। आपनपरिहार:-मासिक वा द्विमासिकं वा यावत् षण्मा आभंकरपभंकर-आभंकरवत् । सम० ८। सिकं वा प्रायश्चित्तं । व्य० प्र० ४५ आ। आभंकरे-आभङ्करः, सप्ततितमग्रहनाम। ठाणा० ७९ । आपाक:-भाण्डपचनस्थानम् । ठाणा० ४१९ आपागपत्तं - आपाकप्राप्तम् , ईषत् पाकाभिमुखीभूतम् । अष्टषष्टितमग्रहनाम । जं० प्र० ५३५ । आभट्ठो-आभाषितः, संलप्तः । आव० २४१ । प्रज्ञा० ४५९ । आपाण्डु-आ-ईषच्छुभ्रत्वभाजः, पाण्डुः । उत्त० ६८९ । आभरण-आभरणानि, मुकुटादीनि । जं० प्र० १४५ । आपीडः-शेखरकः । जीवा० २७२ । आमेलकः-शेखरकः। आभरणचङ्गेरी-देवछन्दके पूजोपकरणम् । जीवा० २३४ । जीवा० २०७, ३६१।' आभरणपिया। नि० चू० तृ. ९ अ। आपुच्छणा - आप्रच्छनमापृच्छा, विहारभूमिगमनादिप्रयो- आभरणवासा - आभरणवर्षा, आभूषणवर्षणम् । भग० जनेषु गुरोः कार्या , समाचार्याः षष्ठभेदः । आव० २५९।। १९९ । आपृच्छना । ओघ० १५१ । भग० ९२० । स्वकार्यप्रवृ. आभरणविचित्ताणि-आभरणविचित्राणि, गिरिविडकादित्तावापृच्छनम् । बृ० प्र. २२२ अ । विहारभूमिगमनादिष विभूषितानि। आचा० ३९४ । नि० चू० प्र० २५५ अ । प्रयोजनेषु गुरोः पृच्छा। ठाणा० ४९९ । आभरणविधी-हारऽद्धहारादिया आभरणविधी। नि० चू. आपूपिकः। नंदी १६५। प्र. २७६ आ। उपभोगविधिविशेषः । उपा० ३ । आपूरितं - आपूर्यमाणम् , परिसंस्थिते पवने भूयो जलेन आभरणवुट्ठी-आभरणवृष्टिः । भग• १९९ । ध्रियमाणम् । जीवा० ३०८।। आभरणाणि - आभरणानि, अङ्गपरिधेयानि । जं० प्र. आपूरियं - आपूरितम् , व्याप्त, भृतं, वासितम् । विशे० २२१ । आभरणप्रधानानि । आचा० ३९४ । नि० चू० १५० | . . . प्र. २५५ अ। (१३१) 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आभवंतितो आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अभियोगिय ] आभव्वं - आभाव्यं, शैक्षः शैक्षिका वा । बृ० द्वि० ७० आ । आभा - आभा, आकारः । प्रज्ञा० ८० । छायावर्णः । सम० १४० । प्रतिभासः । जीवा ० ३११ । वर्णस्वरूपम् । जीवा० १०३ । आभागी-भोक्ता । आव० ८१५ । आभास - आभासयति, समन्ततः सर्वासु दिक्षु अवभासयति । जीवा० ३१२ । आभासिआ - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । आभासिता - लवणान्तरद्वीपनाम । ठाणा० २२५ । आभासितो- आभाषिकः, अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । आभासयं - अभाषिकम् विवक्षितभाषामजानानः । आव ६१४ । आभवंतितो- आभवन्तिकः - व्यवहारः । व्य० द्वि० ३८१ आ । आभिणिबोहिय-आभिनिबोधिकम्, अभिमुखो - योग्यदेशाअभवति - स्वं भवति । आव ० ८२१ । अवस्थितवस्त्वपेक्षया नियतः - स्वस्वविषयपरिच्छेदकतयाऽवबोधः - अवगमोऽभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकम् । उत्त ५५७ । विशे० २२६ । अर्थाभिमुखो नियतः -- प्रतिनियतस्वरूपो बोधो - बोधविशेषः, अभिबुध्यतेऽस्माद् अस्मिन् वेति । प्रज्ञा० ५२६ । आभिनिबोधिकम् - मतिज्ञानम् । आव १८ । आभिमुख्येन निश्चितत्वेनावबुध्यते - संवेदयते आत्मा तदिति, आभिनिबोधः, अवग्रहादिज्ञानं, अथवा आत्मा तेन प्रस्तुतज्ञानेन तदावरणक्षयोपशमेन वा करणभूतेन घटादि वस्त्वभिनिबुध्यते, तस्माद् वा प्रकृतज्ञानात् क्षयोपशमाद्वाऽभिनि बुध्यते, तस्मिन् वाऽधिकृतज्ञाने, क्षयोपशमे वा सत्यभिनि बुध्यतेऽवगच्छतीत्यभिनिबोधो ज्ञानम्, क्षयोपशमो वा सो वा 'अभिणिबुज्झए 'त्ति, अथवाऽभिनिबुध्यते वस्त्वभिगच्छतीत्यभिनिबोधः, स एवाभिनिबोधिकम् । विशे० ५३ । अभीत्याभिमुख्ये नीति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखो - वस्तुयोग्य देशावस्थानापेक्षी नियत - इन्द्रियाण्याश्रित्य स्वस्वविषयापेक्षी बोधः, अभिनिबुध्यते आत्मना सः । अभिनि• बुध्यते वस्त्वसौ इत्यभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिकम् । अनु० २ । आभासिय- आभाषिकः, म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । आभालियदीवे - अन्तरद्वीपनाम । ठाणा० २२५ । अभिभोग-आ- समन्तादाभिमुख्येन युज्यन्ते - प्रेष्य कर्मणि व्यापार्यन्ते इति आभियोग्याः शक्रलोकपालप्रेष्य कर्मकारिणो व्यन्तरविशेषाः । जं० प्र० ७५ । आभियोग्यम् - कर्मकरभावः । दश० २४८ | अभियोग्यभावना - कुत्सितभावना । उत्त० ७०७ | अभियोगभावनाजनितः । ठाणा० २७४ । अभिओगसेढीओ - आभियोग्याः शक्रलोकपालप्रेष्यवर्मकारिणो व्यन्तरविशेषास्तेषामावासभूते श्रेण्यौ । जं० प्र० ७५ । भाभिओगिए-आभियोगिकः अभियोगे - प्रेष्यकर्म्मणि व्यापार्यमाणत्वे नियुक्ताः । जीवा० २४३ | आभिओगिय-आभियोगिकः, वशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृतम् । आव ० ६४२ । अभिओग्ग - आमियोग्यम्, वशीकरणादि द्रव्यतो द्रव्यसंयोगजनित, भावतो विद्यामन्त्रादिजनितम्, बलात्कारो वा । • प्रश्न० ३८ । आभियोगः - कार्मणम् । बृ० तृ० १२२ आ । अभिग्ग हिओ - आभिग्रहिकः, अभिग्रहेण निर्वृत्तः, कायोसर्ग: । आव ० ७८३ । अभिचारुका-विद्याविशेषः । बृ० तृ० २०३ आ । आभिट्टं - आपतितम् । पउ० ४-४२ । भभिडणं आवडणम् । ओघ २०४ | 2010_05 आभिणिबोहियनाण- अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वात् नियतोऽसंशयरूपत्वाद्बोधः- संवेदनमभिनिबोधः स एव स्वार्थिके कप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिक ज्ञातिर्ज्ञायते वाऽनेनेति ज्ञानम् आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति आभिनिबोधि कज्ञानम्, इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति । भग० ३४३ । इन्द्रियपञ्चकमनोनिमित्तो बोधः । अनु० २ । अर्थाभिमुखो नियतो बोधः, अभिनिबोधे भवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वा, अथवा अभिनि बुध्यते तत् अथवा अभिनिबुध्यते Sनेनास्माद्वा अस्मिन् वा तत् तदावरणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थ: । आव ० ७ । अभिनिबोधिकम्, आत्मैव वाऽभिनिबोधोपयोग परिणामानन्यत्वाद् अभिनिबुध्यत इति वा । आव ० ७ । आभियोगिक - अभियोगभावनाभावितत्वेनाभियोगिकदेवेत्पन्ना अभियोगवर्तिनः । भग० १९० । आभियोगिय - आभियोगिकः, अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि येषां ते । प्रज्ञा० ४०६ । (१३२) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आभियोगी अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आमट्ठ], १३१ । आभियोगी-अभिओगा- किङ्करस्थानीयदेवविशेषास्तेषामिय- | अपोलियं अग्गिणा ण पर्फति, अण्णेण वा केणइ पगारेण माभियोगी। बृ०प्र० २१२ आ। आभियोग्याः-आभिमुख्येन न पक्र-णिज्जीवं। नि० चू० द्वि०१५७ । असत्थपरिणयं । युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्याः, किकर- दश० चू. ५१। अनुमतार्थद्योतकमव्ययम् । बृ. द्वि० स्थानीयदेवविशेषाः । बृ० प्र० २१२ आ । १६६ अ । सचित्तं । दश० चू० ८६ । अपक्करसम्। प्रश्न. आभिसेकं-आभिषेक्यम् , अभिषेकयोग्य , राजपरिधेयम्। ६०। अनुमतौ सम्मतमेतदस्माकं सर्वमितिभावः । व्य. प्र. जं. प्र. २१६ । ७१ अ। अपक्कः। व्य. द्वि. १०६ आ । जओ तेहिं भाभीरविसओ-आभीरविषयः, देशनाम । आव० ४१२। उम्गमादिदोसेहिं घेप्पमाणेहिं चारित्तं अविपक्कं अपज्जतं नि० चू० द्वि० १०२ आ। आमं भवति तेण ते आम भण्णति, शब्दमात्रोच्चारणम् सरडी. आमोइत्ता-आभोगयित्वा, ज्ञात्वा। दश० १७९ । भूतं जो वरिससतायुपुरिसो वरिससतं अंतरे मरतो आमो आमोईतो-आभोगितः। उत्त० १३३ । भण्णति । नि० चू० द्वि० १२६ अ । अपक्वम् । आव० १३०॥ आभोपउ-आभोगयित्वा, उपयोगपूर्वकेनावधिना विज्ञाय । स्वीकारेऽव्ययम् । आव० ६४ । आव. १९४ । आव. आष. १२८ ४०८ । अशस्त्रोपहतम्। आचा० ३४८ । दश. २२९ । आमोएति-आभोगयति। आव० १२४ । अजीर्णम् । दश० २७०। आमाम्-असिद्धां, सचेतनाम् , आभोगः, जानता योऽतिचारः कृतः । आव० अपरिणत, अपक्काम् । दश. १८५ । अपरिशुद्धम् । आचा. .५६४ । अभिसन्धिः । भग० २०। आलोचनमभिसन्धिः । प्रज्ञा० ५०० । उपकरणम् । ओघ० ३३। उपयोगः। आमंडे-आमलकम् , परिणामिकयां सप्तदशमोदाहरणम् । बृ० द्वि०२११ आ। ठाणा. ५०५। आभोगनमाभोगः, | नंदी १६५। आम्लकम्-आमलकम् । आव० ४३६ । उपयोगविशेषः । आव० ६१९, ६२६ । विस्तारः। विपा० आमंतणी-आमन्त्रणी, असत्याभूषाभाषायाः प्रथमो भेदः । दश० २१० । हे देवदत्त | इत्यादिरूपा भाषा। प्रज्ञा आभोगण-आभोगनम् , अर्थावग्रहसमनन्तरमेव सद्भूतार्थ २५६ । हे देवदत्त ! इत्यादिका, असत्यामृषाभाषा । भग० । विषयाभिमुखमालोचनम् । १७६ । आभोगणिव्वत्तिए-यदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्धय कोप | आमंतयामो-आमन्त्र्यावहे, पृच्छावः । उत्त० ३९८ । कारणं च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य शिक्षो आमंतिओ-आमन्त्रितः, सम्भाषितः, पृष्टो वा। उत्त. पजायते इति आभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्व ३९२ । तितः । प्रज्ञा०२९१। आभोगेन निर्वर्तितः-उत्पादित आभोगनिर्वर्तित आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मापितः। प्रज्ञा० ५०० । | आमंतेयम्वो-आपुच्छियव्वो । नि० चू० तृ. ९७ आ। आभोगबउस-आभोगबकुशः, य आभोगेन जानन् करोति आमगं-अपक्वम् । भग० ६८४। सः, बकुशस्य प्रथमो मेदः । उत्त० २५६ । आभोगः-साधूना आमगंधि-आमगन्धयः, विश्राः। सम० १३६ । मकृत्यमेतच्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानं तत्प्रधानो बकु- भामजति - अक्खिपत्तरोमे संठवेति । नि० चू० प्र० श आभोगबकुशः। भग० ८९० । शरीरोपकरणभूषयोः १९. अ। हत्थेण आम जति । नि० चू० प्र. १८७ आ । सश्चिन्त्यकारी। ठाणा० .३३७ । आमजमाणे-आमर्जयन् , सकृद्धस्तादिना शोधयन् । आचा. आभोगिणी-यं परिजपिता सती मानस परिच्छेदमुत्पादयति सा। बृ० तृ० ३३ अ । जा विजा जविता माणसं परिच्छे- | आमजिज-सकृदामृज्यात् । आचा० ३३७ । .दमुप्पादयति सा । नि० चू• प्र० १७७ अ। आमट्ट-विपर्यासीकृतम् , परामटुं । ओघ० १९२ । आमृष्टम् , आमं-आमम् । दश० १७६ । अपरिणतम् । पिण्ड० ६५। तेजःप्रकर्षारोपणाय मनःशिलादिना समन्तात्परामृष्टम् । उत्त. अविशोधिकोटिः । बृ० प्र० २०१ अ, ५१ अ । आम णाम जै| ५२७। (१३३) 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आमडागं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आयं ] मामडागं-आमपत्रम् , अरणिकतन्दुलीयकादि तच्चार्द्धप- | आमेलग-आमेलकः, आपीडकः, शेखरः । जीवा० २७५ । क्कमपक्कं वा । आचा० ३४८ । आपीडः, शेखरकः। जं० प्र० ५२ । जीवा० २०७ । आममहुरे-आममधुरम् , ईषन्मधुरम् । ठाणा० १९६। | आमेलय-आमेलकः, चूडा। औप० ६३ । आमरणदोसो-आमरणदोषः, महदापद्गतोऽपि स्वतो म- ! आमेलिय-आपीडिका, चूडा। भग. ३१८ । हदापद्गतेऽपि च परे आमरणादसजातानुतापः, अपि त्व. आमो-असत्थोवहतो। नि० चू० प्र० १९६ अ। समाप्तानुतापानुशयपर इति । आव० ५९०। आमोअ- आमोदः, मानसे उत्सवः । आव० ७२१ । आमरणंतदोसे-आमरणान्तदोषः-आमरणान्तमसंजातानुतापस्य हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोषः। ठाणा० १९० । | आमोक्ख-आमोक्षः, आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वाऽऽ. आमाँषधिः-ऋद्धिविशेषः । प्रज्ञा० ४२४ । मोक्षः । आचा० ६। आमलप-आमलकम् । आव० ८३१ । आमरकः, साम. आमोडणं-हत्थेहि आमोडणं । नि० चू० प्र० २४५ अ । स्त्येन मारिः । ठाणा० ५०८ । फलविशेषः । पिण्ड० २२॥ | आमोडेति-सीमन्तयति। नि० चू० द्वि० ३१ अ।.. दश. १००। आमोद-गन्धः । उत्त० ३६९ । आमलकप्प-आमलकल्पा, नगरीविशेषः । आव० ३१४, | आमोयगो-आमोदकः । जीवा० २६८ । ३१५, ७०७ । उत्त. १५९ । विशे० ९५०।। आमोसगा-आमोषकाः, चौराः। ठाणा० ३१५1 आमलग-आमलक, बहुगीजो वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आमोसलि-आमर्शवत्तियगूवमधो वा कुड्यादिपरामर्शवभग० ८०३। द्यथा न भवति। उत्त० ५४१ । आमलगा-आमलकानि । अनु० १९२ । आमोसहि - आमर्षोंषधिः, तत्रामर्षणमामर्षः-संस्पर्शनमिआमलपाणगं-फलविशेषप्रक्षालनजलं । आचा० ३४७।। त्यर्थः, स एवौषधिर्यस्यासावामर्षीषधिः, करादिसंस्पर्शमामामाघाओ-अमाघातः, ( अमारीपटहः)। आव० ४०१ । त्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थो लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचाराभामिस - आमिषः-मांसः । उत्त० ६३४ | आमिषाद्- त्साधुरेवामौषधिः। विशे० ३७९ । आचा० १७८ । गृद्धिहेतोरभिलषितविषयादेः। उत्त० ४०९ । आम\षधिः । ठाणा० ३३२ । आमर्शणमामर्शः-संस्पर्शआमिसभोगगिद्ध - आमिषभोगगृद्धः, आमिषस्य-मांसा- नमित्यर्थः, स एवौषधिः । आव० ४७ । आमर्षणमामर्षःदेर्भोगः-अभ्यवहारस्तत्र गृद्धः। उत्त० ६३४ । हस्तादिसंस्पर्शः । औप० २८।। आमिसावत्ते-मांसाद्यर्थं परिभ्रमणम् । ठाणा० २८८। आमोसे-आमर्षणम् आमर्षः-अप्रमृज्य करेण स्पर्शनम् । आमुसंत- आमृशन् , स्पृशन् । दश० १३७ । आचा० आव० ५७४ । आमोषाः-आ-समन्तान्मुष्णन्ति-स्तन्यं ११। आमशन् , भगवत्पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगा- कुर्वन्तीति। उत्त० ३१२ । दिना स्पृशन् । ठाणा. ९। उत्त० ८०।। आम्नाय-गुणनं, घोषविशुद्धं परिवर्तनं रूपादानं। तत्त्वा० आमुसिजा - आमर्षणम् , सकृदीषद्वा स्पर्शनम् । दश० ९-२५। १५३ । आम्रसालवनम् - आमलकल्पानगर्या वनम् । विशे० आमे-आमः, अविशोधिकोव्याख्यदोषः । सूत्र. १४५। ९५० । आमेड-आमेल:, आपीडः, शेखरकः । जीवा. १७२ । आम्लखलिकायाम् । विशे० ६०६ । आमेडणा-आमेडना, विपर्यस्तीकरणम् । प्रश्न० ५६ ।। आम्लम्-चतुर्थरसम् । आव० ८५४ । अंबिला। उत्त. आमेल-आपीडः, शेखरकः । प्रज्ञा० ९६ । भग० ४५९ । पुष्पशेखरकः। औप० ५१ । आय-तोसलिविसए सीयतलाए आयाणं सुरेसु सेवालतरिया आमेलओ-आमेलकः, आपीडः, शेखरकः । जीवा० ३६१।। लग्गति, तत्थ वत्था कीरति । नि० चू० प्र० २५४ आ। आमोडकः-पुष्पोन्मिश्रो वालबन्धविशेषः। उत्तक १४३।। कर्माधवलक्ष गम् । सूत्र. १८९ । इष्ट फलम् । भग. ४ । (१३४) 2010_05 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आयंक अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः आयगुते ] आचाम्लम् । आव० ८५२ । शुद्धौदनादि । अनुत्त० ३ | सकुरा । आव० ८५५ । पानकम् । ओघ० १३३ । आयंबिलपा उग्गं- आचाम्लप्रायोग्यम्, ( कूरविहाणाणि ) । आव० ८५५ । आर्यकं-आतङ्कः, आशुघाती रोग: । आव० ७५९ । सद्यो | आयंबिलं - आयाम्लम्, ओदनकुल्माषादि । औप० ४० । घाती रोग: । दश० २७३ । कृच्छ्रजीवनं दुःखं । आचा० ७५ । आशुघाती शूलादिः । जं० प्र० १२५ । भग० ४७१ । सद्योघातिव्याधिः । भग १२२ । नरकादिदुःखम् | आचा० १६० । कृच्छ्रजीवितकारी, सद्योघातीत्यर्थः शूलादि । ठाणा० ११९। शूलविशुचिकादिः सद्यो- आयंबिलवड्डुमाणं- आचाम्लवर्द्धमानम्, तपोविशेषः । अन्त • घाती । ठाणा १५० । व्याधिः । भग० ६९० । आङिति सर्वात्मप्रदेशाभिव्याप्त्या तंकयन्ति कृच्छ्रजीवितमात्मानं . कुर्वन्ति इत्यातंकाः - सद्योघातिनो रोगविशेषाः । उत्त० ३३८ । आतङ्कः, सद्योघातिनः । औप ० ९६ । आव० ५८५ । ज्वरादि। पिण्ड० १७७ । आचा० २९७ । कृच्छ्रजीवितकारी ज्वरादिः । भग० ७०२ । आतङ्कः, आशुकारी व्याधिविशेषः । दश० चू १४ । रोगः । उत्त० ४८६ | ज्वरादि। आव० ८४८ | ओध० १९० | कष्टजीवितकारी । विपा० ४० । आशुजीवितापहारी शूलादिकः । सूत्र० २९२ । आचा० २०५, ३३०, ३६२ । आयंकसंपओग - आतङ्कसम्प्रयोगः, आतङ्कः- रोगः तस्य योगः । औप० ४३ । | आयंगुल - पुरुषात्मसम्बन्धि आत्माङ्गुलम् | अनु० १५६ । अगुलस्य प्रथमभेदः । प्रज्ञा० २९९ । आर्यचणं - गोमुत्तं । नि० चू० तृ० १२७ अ । व्य० प्र० १०४ आ । आयचामि लिंपामि, आसिश्चामि । उपा० ३२ । आयंतकरे - आत्मनोऽन्तम्- अवसानं भवस्य करोतीति आत्मान्तकरः, धर्मदेशनानासेवकः प्रत्येकबुद्धादिः । ठाणा ० २१३ । आयंति - आगच्छन्ति, उत्पद्यन्ते । आव० १७९ । आयंतियमरणे- यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति । सम० ३३ । आयंती आयान्ती । आव० ३०७ । आयते - आचान्तः, नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदक प्रक्षालनेन गृहीताचमनः ।' जीवा० २४३ । कृतपानः । भग० १६४ । आयंदमे - आत्मदमः, आत्मानं दमयति - शमवन्तं करोति शिक्षयति वेति । ठाणा० २१४ । 2010_05 ३२ । आयंबिलिए - आचाम्लिकः । ठाणा० २९८ । भायंभरे - आत्मानं बिभर्त्ति पुष्णातीत्यात्मम्भरिः । ठाणा ० २४८ । आयंस- आदर्शः, वृषभादिग्रीवाभरणम् । अनु० ४७ । दर्पणः । जं० प्र० ३९२ | आदर्शः । जं० प्र० ५१० । आयंस घरं - आदर्शगृहम् । आव० १७० । भायंस घरगं - आदर्शगृहकम्, आदर्शमयमिव गृहकम् । जीवा ० २०० ॥ जं० प्र० ४५ । आयंसमुहदीवे- आदर्शमुखद्वीपः, अन्तरद्वीपनाम । ठाणां० २२६ । आर्य समुहा - आदर्शमुखनामा नवमोऽन्तरद्वीपः । ५० । जीवा० १४४ । आयंसलिवी - ब्राह्मी लिपिपञ्चदशभेद: । प्रज्ञा० ५६ । आय-आयः, श्रुतनाम | दश० १६ । लाभः । अनु० १५४ । आत्मा - शरीरम् । उत्त० ४१५ । जीवश्चित्तं वा । उत्त० ५०४ । अतति - सततं गच्छति तानि तान्यध्यवसायस्थानान्तराणीति आत्मा- मनः । उत्त० ३१४ । आय-आयतिः - अनागतं, उत्तरकालम् । आव ० ५०९ । आयकाय - अनंतकायविशेषः । भग० ८७४ । आयक्खाहि - आख्याहि, कथय, निवेदय । भग० ११२ । आयगय - आत्मनि गतः आत्मगतः, आत्मज्ञ इति । सूत्र० १२४ । आयगवेसप - आत्मगवेषकः, आत्मानं कर्मविगमाच्छुद्धस्वरूपं गवेषयति- अन्वेषयते यः सः । आयगवेषकः- आयःसम्यग्दर्शनादिलाभस्तं गवेषयतीति । आयतगवेषकः-सूत्रवायतो वा मोक्षस्तं गवेषयतीति वा । उत्त० ४१५ । आयगुत्ते- आत्मा शरीरं तेन गुप्तः आत्मगुप्तः-न यतस्ततः करणचरणादिविक्षेपकृत्, गुप्तो- रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन सः । उत्त० ४१५ । (१३५) प्रज्ञा० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आयजोगे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आयमणं ] आयजोगे-आत्मयोगी, आत्मनो योगः-कुशलमनःप्रवृत्तिरूप | आयतीहितं-आगामिकालहितं, आत्मना हितं वा । दश० आत्सयोगः, स यस्यास्ति स तथा, धर्मध्यानावस्थितः । सूत्र० | चू० १५७ । ३४२। . . | आयते-आयतः, संस्थानपञ्चममेदः । प्रज्ञा० २४२ । भग० आयटुं - आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः, स. च ज्ञानदर्शन चारित्रा- | ८५८ । त्मकः, आत्मने हितं-प्रयोजनमात्मार्थ, चारित्रानुष्ठानमेव, आयतो-आयतः, मोक्षः। सूत्र. १७३ । मोक्खो । दश० आयतः-अपर्यवसानान्मोक्षः स एवार्थः । आयत्तः-मोक्षः, चू० ८८। अर्थः-प्रयोजनं यस्य । आचा० ११० । आत्महितं । आचा. आयत्तं-आयत्तम् , सम्मिश्रम् । पिण्ड० ८१। आधिनीकृ. १०९ । ज्ञानादिरूपं स्वकार्यम् । बृ० द्वि० ७१ अ। तम्। आव० ३६६ ।। भायट्टी-आत्मार्थी, यो त्यन्यमपायेभ्यो रक्षति सः, आत्म-| आयत्ताप-आत्मत्वाय-आत्मीयकर्मानुभवाय । आचा० वान् । सूत्र० ३४२ । आयणाणं-आत्मज्ञानम् , वादादिव्यापारकाले किममुं प्रति- आयपइट्टिते-आत्मप्रतिष्ठितः, आत्मना वा परत्राक्रोशावादिनं जेतुं मम शक्तिरस्ति न वा ? इत्यालोचनम् । उत्त० दिना प्रतिष्ठितो-जनित आत्मप्रतिष्ठितः। ठाणा. ९२ । आत्मापराधेनैहिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषयः । ठाणा० आयणीली-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । १९३ । आयणं-आकीर्णम् , स्थानविशेषः । ओघ० १५४ । भायपतिटिए- आत्मप्रतिष्ठितः, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः । आयतंगुली-एगापएसिणी। नि० चू० प्र० २०८ अ।। प्रज्ञा० २९०। मायतगुत्ते-आत्मगुप्तः-सततोपयुक्तः । आचा० २७२ । आयपवायं-आत्मप्रवाद, सप्तमपूर्वम् । ठाणा० १९९ । आयतजोग - आयतयोगः-सुप्रणिहितं मनोवाकायात्मकम् । आयप्पवाय-आत्मप्रवादः, यत्रात्मनः संसारिमुक्ताद्यनेकआचा. ३१४ । ज्ञानचतुष्टयेन सम्यग्योगप्रणिधानं । आचा. भेदभिन्नस्य प्रवदनम् । दर्श०१२। आत्मानं-जीवमनेकधा ३१४। - नयमतभेदेन यत्प्रवदति तत् । नंदी २४१। आयतणं-आयतमम् , गुणानामाश्रयः, अहिंसायाः सप्तच- | आयप्पवायपुव्वं - आत्मप्रवादनाम सप्तमपूर्वम् । सम० त्वारिंशत्तम नाम। प्रश्न. ९९ । आविष्करणं कथनं, निर्ण- २६ । विशे० ९४६ । यनं वा। सूत्र. १८१। स्थानम्। ओघ. २२२ । नि० चू० आयभाव-आत्मभाषः, स्वस्वरूपः । अनु० २२६ । जीवप्र० १९२ आ। देवकुलम् । नि० चू० द्वि० ६९ आ । दोषाणां सम्बन्धः । अनु० २२० । उत्थानशयनगमनभोजनादिरूप स्थानं । आचां० ३२९ । ज्ञानादित्रयम् । आचा० २०७।। आत्मपरिणामविशेषः। भग. १४९ । अनादिभवाभ्यस्तो आयतणा-आयतनानि-बन्धहेत्वः । ठाणा. ४५१ । मिथ्यात्वादिकः, विषयगृध्रुता वा। सूत्र. २४० । आयतणाई-आयतनादीनि, दोषरहितस्थानानि, वसतिग- आयभाववंकणया - आत्मभाववंकनता, आत्मभावस्याप्रतानि, संस्तारकगतानि च । आचा० ३७२ । देवकुलपाछ- शस्तस्य वङ्कनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता । ठाणा. पवरकाः। आचा० ३६६ । कर्मोपादानानि । आचा० ४२। ४०७ । उपभोगास्पदभूतानि । आचा० १२७ । कर्मोपादान- | आयभाववंचणा- आत्मभाववञ्चनता, मायाप्रत्ययिकीकिस्थानानि । आचा० ३५६ । दोषस्थानानि । आचा० ३८६।। यायाः प्रथमो मेदः । आव० ६१२॥", आयतरो-तवबलिओ। नि० चू० तृ. १२३ अ। आयभाववत्तव्वया-आत्मभाववक्तव्यता, अहंमानिता। आयतसंठाण-आयतसंस्थानम् । प्रज्ञा० ११ । भग० १३९। आयता-दीर्घा। जीवा० १६४ । आयमण-आचमनम् , निर्लेपनादि । ओघ० १३७, १९०, आयती-सन्ततिः । बृ० द्वि० २१३ अ। । १६२ । आशातनायाः दशमभेदः । आव० ७२५ । गण्डू. (१३६) 2010_05 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आयमाणे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आयरियते ] षादिकरणम् । उत्त० ३७० । निर्लेपनम् । बृ० तृ. २०४ आ।| दुर्गतिपतनात् त्रातोऽनेनेति, रक्षिता आयाः-सम्यग्दर्शनाणिल्लवणं | नि० चू० प्र० २२० आ। पुरीषोत्सर्गानन्तरं शौच. | दिलाभा येनेति । उत्त० ४१४ । करणम् । पिण्ड ० ११। आचमनम् । ठाणा० ३३९। आयरणं-आचरणम् , अनुष्ठानम् । उत्त० ५३३ । आयमाणे-आददानः, प्रवर्त्तमानः । सूर्य. १२। | मायरणया-आदरणं, अभ्युपगमं आचरणम् वा। भग० आयमेजा-निर्लेपनं चापाने एवमेव कुर्यात् । ओघ० १२५।। ५७३ । आयय-आयतम् , प्रसारितम् , दीर्घम् । भग० २३० । आयरणा-आचरणा, विधिः, मर्यादा, सीमा च। आव० भायतः - मोक्षः, आयतम्-अत्यन्तम् । दश० २५८ ।। ६३९ । ततियभङ्गविकप्पो । नि० चू० प्र० १९८ अ । आकृष्टं , दीर्घश्च । भग० ९३, ३३३ । मोक्षः। व्य० । चर्या। बृ० तृ. १२९ आ।। द्वि० १९७ अ। आत्मा । आचा० १२२ । मोक्षः संयमो आयरिअ-आचार्यः, शिल्पोपदेशदाता । भग० ३१७। औप० वा । उत्त० ५८७ । संयतः । आचा. ३१४ । प्रयत्नवान् । ६२। अनुयोगाचार्यः । उत्त. १७ । व्य. प्र. १३७ अ। भग० ९३ । दीर्घः सर्वकालभवनात् मोक्षः। सूत्र. ७५।। अनुयोगधरः। आचा० ३५३ । सपरसिद्धतपरूवगो। नि. आययकण्णायत्तं-आयतकर्णायतम् , प्रयत्नवत्कर्ण याव- | चू० प्र० १६ । आयरिए-आचार्यः-प्रतिबोधकप्रव्राजकादिः दाकृष्टम् । भग० ९३। अनुयोगाचार्यों वा । ठाणा. १४३, २४४ । आययचक्खू - आयतचक्षुः- दीर्घमैहिकामुध्मिकापायदर्शि आयरिय-आचरितम् , आसेवितं । आव० २६३ । आर्यःचक्षुः-ज्ञानं यस्य स । आचा० १३६ । आराद् यातः पापकर्मभ्य इति । भग० ९० । भाचरणआययट्टिए-आयतार्थिकः, मोक्षार्थी । दश० २५६। । माचरितं तत्तक्रियाकलापः। उत्त० २६६। आराद्यातं आययट्ठिया-आयतार्थिकाः, आयतो-मोक्षः संयमो वा स | सर्वकुयुक्तिभ्य इत्यार्य-तत्त्वं तत् । उत्त० २६६ । आर्यम्एवार्थः प्रयोजनं विद्यते येषामिति । उत्त० ५८७ । आयतः- आर्याणां कर्त्तव्यं आचार्य वा, मुमुक्षुणा यदाचरणीयं ज्ञानमोक्षस्तत्र स्थिता आयतस्थिता उद्यतविहारिणः संविग्ना दर्शनचारित्रम् । सूत्र. १८४ । पापकर्मभ्य आराद्यातमिइत्यर्थः । व्य. द्वि० १९७ अ । त्यायम् । ठाणा. ११९। । आययही-आयतार्थी, मोक्षार्थी । दश. १८७ । आयरिय-आचार्यः । प्रज्ञा० ३२७ । शिल्पी। जं० प्र० आययणं-आयतनम् । आव० २११ । आदानम् । अन्त. २१२ । आङित्यमिव्याप्त्या मर्यादया वा खयं पञ्चविधा२४ । गमनम् , गृहम् । जीवा० २७९। स्थानम् । जं० चार चरत्याचरयति वा परान् , आचर्यते वा, मुक्त्यर्थिमिप्र. ७७ । दश० १९८ । आज-अभिविधौ समस्तपापा रासेव्यत इति। उत्त० ३७। आ-मर्यादया-तद्विषयविनरम्भेभ्यः आत्मा आयत्यते--आनियम्यते यस्मिन् कुशला. यरूपया चर्यते-सेव्यते, जिनशासनार्थोपदेशकतया तदा. नुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं-ज्ञानादित्रयम् । काक्षिमिरिति, आचारः-ज्ञानाचारादिः, आ-मर्यादया वा आचा० २०६ । उत्पत्तिस्थानम् । उत्त० ६२३ । चारो-विहार आचारः तत्र यः स्वयंकरणात्प्रभाषणात्प्रदर्शनाच्च आययतरे-आयततरः, आयमनयोरतिशयेनायत आयत- । साधुः सः, आ-ईषत्-अपरिपूर्णाः हेरिका ये ते चारा:तरः । आचा० २९४ । यत्नेनाध्यवसितः । आचा. २९३ ।। आचाराः-चारकल्पाः, युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेआयरंति-आचरन्ति, आसेवन्ते । दश० १९८। | याः शिष्यास्तेषु यो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया । भग. ३ । आयरंतो-आचरन् , व्यवहरन् , कुर्वन् वा। उत्त०६ आयरियउवज्झाए - आचार्योपाध्यायः, आचार्येण सहोआयरक्खा -आत्मरक्षा, स्वाम्यात्मरक्षा । भग० १९४ । । पाध्यायः । भग० २३२ । आचार्येवोपाध्यायः । नि० चू० अंगरक्षा राज्ञाम् । ठाणा. ११७ । प्र. १९६ आ। आयरक्खिए-आत्मरक्षितः, आत्मा रक्षितो दुर्गतिहेतोरप-| आयरियजणवय-देशविशेषः। नि० चू० प्र० ३४४ आ । ध्यानादेरनेनेति। उत्त० ९९। आयरक्षितः-आयो वा- आयरियते - आचार्यकम्-त ग्रन्थव्याख्यातृत्वम् । व्य. ज्ञानादिलाभो रक्षितोऽनेनेति । उत्त० ९९ । आत्मा रक्षितो | प्र० १६६ अ । (१३७) 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आयरियन्वं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित आयाणं] आयरियव्वं-पढियव्वं । नि० चू० प्र० ५ आ। - आयसा-आत्मना। सूत्र. १०६ । भायवणाम-आतपनाम-यदुदयात् जन्तुशरीराणि स्वरूपेणा- आयसी-लोहमयी, दर्भमयी च | प्रश्न. १३ । नुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम, | आयसंवेणिजा-आत्मसंवेदनीया-आत्मना क्रियन्ते ये, उपतद्विपाकश्च भानुमण्डलगतेषु पृथिवीकायिकेष्वेव न वह्नौ, | सर्गाः । आव. ४०५। प्रवचनेऽपि निषेधात्, तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् , उत्कट- | आयसरीरसंवेयणी-आत्मशरीरसंवेजनी, संवेजनीकथायाः लोहितवर्णनामोदयाच्च प्रकाशकत्वम् । प्रज्ञा० ४७३ । प्रथमोमेदः । दश० ११२। आयरिया-आचार्याः-प्राणाचार्या वैद्याः । उत्त० ४७५ । | आयसरीराणवकंखिया-स्वशरीरक्षतिकारिणी क्रिया । व्य० प्र० १७१ । ठाणा० ४३ । आयरिसो-आदर्शः। आचा० ५।। आयसेण - आत्मसेनः, जंबूद्वीपैरवते अस्यामवसपिण्यां आयरेणं-आदरेण, प्रयलेन । जं० प्र० १९२ । चतुर्थतीर्थकृत् । सम. १५९ । आयरो- आदरः, आद्रियते आदरणं वा, परिग्रहस्याष्टमं आया - आत्मा, जीवः। आचा० १६ । आत्मा। भग० नाम । प्रश्न० ९२। सम्भ्रमः । बृ० तृ. ११ अ। १२२। आत्मा, रूपं। नंदी २१२। द्वादशशते आत्मआर्य-अज, पितामहः । व्य. प्र. १७१ । अजुगु- भेदनिरूपणार्थों दशमोद्देशकः। भग. ५५२। अततिप्सीत्कारी। व्य. प्र. १४ अ। सततमवगच्छति 'अत सातत्यगमन' इति वचनादतो आयल्लयं-गृहम् । पउ० ३३-६६ । पराधीनताम् । पउ० | धातोगत्यर्थत्वाद्गत्यर्थानां च ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति २४-१५। निपातनादात्मा-जीवः उपयोगलक्षणत्वादस्य सिद्धसंसार्यवआयवं-आतपवान् , चतुर्विंशतितममुहूर्त्तनामविशेषः। सूर्य० स्थादयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात् , अतति-सततं १४६ । जं. प्र. ४९१। रविबिम्बजनित उष्णप्रकाशः । गच्छति स्वकीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा, संसार्यपेक्षया उत्त० ५६१ । आतपः, आ-समन्तात्तपति सन्तापयति नानागतिषु सततगमनात् मुक्तापेक्षया च भूततद्भावत्वाजगदिति । उत्त. ३८ । धर्म । उत्त. १२१। दात्मेति । ठाणा० १०। आयवतत्तए-आतपतप्तं पयः । भग०६८० । आयाए-आत्मविराधनादोषः । ओघ० ७९ । आयवत्ताई-आतपत्राणि, छत्राणि । जं० प्र० ८१।। आयाणं-आदानम् , ईप्सितार्थग्रहणम् । औप० १८ । अर्गआयवाह-विश्वकारणात्मवादिनः । आव० ८१६ । । लास्थानं वा। औप० १८ । दुष्प्रणिहितमिन्द्रियं । आचा. आयवाई-आरमवादिनः, क्रियावादिविशेषः। सम० ११०।। ३०४ । कर्मादानम् । आचा० ३३७। आदीयते-स्वीक्रि'पुरुष एवेदं नि' मित्यादि प्रतिपत्तुरिति। ठाणा. २६८ । यते प्राप्यते वा मोक्षो येन तत् , ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयम्। आयवाभा- आतपाभा, सूर्यस्त्र ज्योतिषेन्द्रस्य द्वितीया सूत्र. ५२ । डगलगा। नि० चू० प्र० २२० आ । गहणं, अग्रमहिषी । जीवा० ३८५ । सूर्यस्य पतीनाम । भग० जेण मग्गेण गंतूण दगमट्टियहरियादीणि घेप्पंति तं दगमट्टियं । दश० चू० ७८ । कुचादिग्रहणम् , सम्प्राप्तकामस्यैकादशो आयवी - आत्मवित् , आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण भेदः। दश० १९४ । आदान:-आदीयतेऽनेनेत्यादानोवेत्तीति । आचा० १५४ । मार्गः । दश० १६८ । इन्द्रियम् , करणम् । भग० २८६ । आयवीरियं-वीर्यस्य पञ्चमभेदः । नि० चू० प्र० १९ अ। आदीयते-द्वारस्थगनार्थ गृह्यत इत्यादानः । जं० प्र० १११। आयसंचेयणिजा - आत्मना संचेत्यन्ते-क्रियन्त इति | आदीयते- गृह्यते आत्मप्रदेशः सह श्लिष्यतेऽष्टप्रकार कर्म आत्मसंचेतनीया (घट्टन-पतन-स्तंभन-श्लेषजन्या उप- येन तदादानम्, हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा। सर्गाः)। ठाणा० २८० ।। आचा० १७०। संयमानुष्ठानं । आचा० १२८ । कर्मोआयसंचेयतो-आत्मसंचेतनीयः-आत्मनवात्मनो दुःखोत्पा- | पादानं। आचा. २४३, ३३० । आदीयते-सावद्यानुष्ठानेन दनम् । व्य. प्र. १९६ अ। स्वीक्रियते। आचा. १९३। आदिः। व्य.प्र. २१८ (१३८) 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आयाणपएण अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः - आयारकहा ] आ। हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा तत्स्थितेर्नि- | आयाणी-क्वचिद्देशविशेषेऽजाः सूक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति, तत्पमित्तत्वात्कषाया वा। आचा० १७१ । आदीयत इति, मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति । आचा० ३९४ । धनधान्यादि। उत्त० २६५। आदीयत इति आदि:- आयाणीय-आदानीयम् , ग्राह्यम् । आचा० ३८। प्रथमम् । उत्त० ५७० । आदीयन्ते-गृह्यन्ते शब्दादयोऽर्थाः आयाती-आयातिः, गर्भाभिगमः। ठाणा० ६७ । एभिरिति आदानानि-इन्द्रियाणि। बृ० प्र० २११ आ।| आयापरिणामो - आज्ञया परिणामः । व्य. द्वि. आदीयते -सद्विवेकैयत इति, चारित्रधर्मः । उत्त० ३३८ । | ४५० अ। आदीयते गृह्यतेऽर्थः अनेनेत्यादानम-इन्द्रियम । भग २२४ । आयाम- अवशायनम् । आव० ५४ । दैर्घ्यम् । अनु० आदानः, आदेयो रम्यः । प्रश्न. ८१1 आदीयते-स्वीक्रियते १८०, १७१ । भग० ११९ । ठाणा० ६९ । आव. १८४ आत्महितमनेनेति-संयमः । उत्त० २२५ । सम्यग्दर्शनज्ञान- अवश्रावणम् । ओघ. १३३ । पिण्ड० १७। आचामः। चारित्ररूपम् । सूत्र० ४०५ । ठाणा० ३३९ । अवसामणं । नि० चू० प्र० ४७ आ। आयाणपएण - आदीयते-प्रथममेव गृयत इत्यादानं तच्च | आचाम्लम् । उत्त० ७०६ । उच्चत्वम् । भग० २६९ । तत्पदं चादानपदं तेन आदानपदेन । आचा. १९६।। आयामगं-आयामकम् , अवश्रावणम् । उत्त० ४१९ । आयाणपय-आदानपदम् , शास्त्रस्याध्ययनोद्देश कादेश्चारि आयामणया-आकर्षणम् । भग० ९३ । पदम् । अनु० १४१। आयामते-आयामकम्-अवश्रावणम् । ठाणा० १४७ । आयाणपरिसाडे-आधानपरिसाटम् , गर्भाधानपरिसाटरूप खंभो-आयामविष्कम्भः। आव० १५० । मूलकर्मतृतीयभेदः। पिण्ड० १४२ । आयामुसिणोदगं-अवश्रावणमुष्णोदकं च । ठाणा० ३३९ । आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई- आदानभाण्डमात्र- | आयामे-आयामः, दैर्घ्यम् । प्रज्ञा० ४२७ । निक्षेपणासमितिः, भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया समितिः- आयामेति-ददाति । भग० ६६३ । सुन्दरचेष्टा । आव० ६१६ । आदाने-प्रहणे भाण्डमात्रायाः आयामेत्ता-आयामेन समाकृष्य । सूत्र. ३०९ । आयम्य, वस्त्राद्युपकरणरूपपरिच्छदस्य, उपकरणस्य वा, भाण्डस्य आकृष्य । भग• ९३ । वस्त्रादेर्मेन्मयभाजनस्य वा मात्रस्य च-पात्रविशेषस्य निक्षे आयामेत्था-भोजितवान् । भग० ६६२ । .. पणायां-विमोचने ये समिताः-सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् आयाय-आदाय, स्वीकृत्य, चरित्वा । उत्त० १२८ । अव. प्रवृत्तास्ते । औप० ३५।। गम्य । आचा. ३३९ । गृहीत्वा मयैतदर्थ यतितव्यमिति आयाणरक्खी- आदानरक्षी, आदीयते-स्वीक्रियते आत्म निश्चित्य बुद्धया सम्प्रधार्येतियावत् । उत्त० २६८ । बुद्धया हितमनेनेत्यादानः-संयमस्तद्रक्षी। उत्त० २२५ । गृहीत्वाऽभ्युपगम्य । उत्त० २५३ । गृहीत्वा, अवगम्य । आचा० ३३५ । बुद्धया गृहीत्वा । उत्त० १०४ । आयाणसो-आदानश:-आदेरारभ्य । सूत्र. ४२४। आयार-स्वरूपम्। जं. प्र. १८ । मूलगुणादिः । दश. आयाणसोय - आदानस्रोतः, आदीयते - सावद्यानुष्ठानेन २५६ । लोचास्नानादिः । दश० ११०। आङ्-मर्यादायां स्वीक्रियत इति आदानम्-कर्म संसारबीजभूतं तस्य स्रो चरणं चार-मर्यादया कालनियमादिलक्षणया चार आचार तांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा वा। इति। आव० ४४८। चतुर्थनियुक्तिः। आव० ६१। आचा. १९२। श्रतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि। भग० १२२ । आयाणसोयगढिए - संसारबीजभूतेन्द्रियविषयः मिथ्या- व्यवहारः। ठाणा० ६४। चारित्रम् । उत्त० ५८३ । त्वादिगृद्धः-अध्युपपन्नः । आचा० १९३ । ज्ञानाचारादि । उत्त० ५८३ । । आयाणि-आदानीयम-श्रतं । आचा. १२२ । कर्म। यारअखेवणी-आचाराक्षेपणी. आचारो-लोचास्नानाआचा. २४२। आदातव्यं भोगाग, आदानीयं-कर्म | दिस्तत्प्रकाशनेन आक्षेपणी । ठाणा. २१० । आचा. १२२ । ग्राह्यः, आदेयवचनश्च । आचा० १९१। । आयारकहा। नि० चू० द्वि० ६५ अ। (१३९) 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आयारकुसल आयारकुसल - ज्ञानाद्याचारेण कर्मकुशानां लावकः । व्य० प्र० २३४ । आचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा दक्षः, अभ्युत्थानासनप्रदानाद्युपहितान्तगुणानामाकरो वा । व्य० प्र० २३६ । आयारक्खी - आत्मरक्षी, आत्मानं रक्षत्यपायेभ्यः कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशीलः । उत्त० २२५ । आयारगोभर - आचारगोचरः, क्रियाकलापः । दश० १९१ । आचारः - मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरः । आचा० २६६ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः आयारग्ग - चूलिका । आचा० ७ । 'आयारतेणे - आचारस्तेनः, दश० १९० । आयारदंसणं- आचारदर्शनम् प्रत्युपेक्षणा दिक्रियादर्शनम् । विशिष्टाचार व तुल्यरूपः इति । आव० ४४८ । आयारदोसो - आचारदोषः । आव ० ६५४ । ४ आ । आयारपकप्प - आचारप्रकल्पः, आयरणं आयारो सो य पञ्च विहो - णाणदंसणचरित्ततववीरियायारो य, तस्स पकरिसेणं कपणा - सप्तभेद प्ररूपणेत्यर्थः । नि० चू० प्र० आचार - प्रथमाङ्ग तस्य प्रकल्पः - अध्ययन विशेषो निशीथमित्यपराभिधानं, आचारस्य वा - साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमित्याचार प्रकल्पः । सम० ४८ । उत्त० ६१६ । ( निशीथः ) आचार एव । आव ० ६६० । प्रत्याख्यानपूर्वस्य विंशतितमं प्राभृतं । आचा० ३१९, ३२० । निशीथाध्ययनम् । ठाणा० ३३५ । आयारपभासणं- कालनियमाद्याचारव्याख्यानम् । आव ० ४४८ । 2010_05 आयोधनस्थानम् ] भायारसमाही - आचारसमाधिः, चतुर्थ विनयसमाधिस्थानम् । दश० ३५५ । भायारे - आचारः । नि० चू. तृ० १४८ आ । ज्ञानादिविषयाssसेवा | ठाणा० ३२५ । आचार्याणां नमस्कारार्हत्वे तृतीयहेतुः, तानाचारवत आचाराख्यापकांश्च प्राप्य प्राणिन आचारपरिज्ञानानुष्ठानाय प्रभवन्ति । आव० ३८३ । आयारो - आचारः साधुसामाचारी । प्रश्न० १२५ । आचाते आसेव्यत इत्याचारः । आचा० ५ । आचारः । व्य० द्वि० ३९१ अ । आयावर आतापनाकारी । प्रश्न० १०७ । आयावगा - असुरकुमार विशेषः । भग० ६२० । आयावणा-आतापनास्थानम् । आव० ३९१ । आयावादी - आत्मवादी । आचा० २२ । आयावतं सकृदीषद्वा तापनमातापनम् । दश० १६३ । आयाविंतो- आतापयन् । आव ० ३७१ । आयास - पीडा । ओघ० १५७ । लोहमयम् । भग० ३१९ । मनःप्रभृतीनां खेदः परिग्रहस्य चतुर्विंशतितमं नाम । प्रश्न ९२ । आयासकर - आदेशितः आदेशः, आदेशत इति आदेशः । व्य० द्वि० ३३६ आ । आयाहिणंपयाहिणं - आदक्षिणप्रदक्षिणः, आदक्षिणात्दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव । सूर्य ० ६ । आव० १२४ । जं० प्र० १७ । भग० ११४ | आयाहिण - आदाहिणा, आदक्षिणा प्रदक्षिणा । आव० २३२ । आयारफल-आचारफलम्, मुक्तिलक्षणम् । उत्त० ५८३ । आयुः कर्मानुभूतिः स्थितिर्जीवनमिति । प्रज्ञा० १६९ । आयारभंडप - आचारभाण्डम् । अनुत० १ । आयुः क्षेमस्य - जीवितस्य । आचा० २९१ | आयुषः क्षेमःआयारभंडग - आचारभाण्डकं - पात्रकम् । ओघ० १५१ । सम्यकूपालनं तस्य । आचा० २९० । आयारभाव - विशिष्टाचारः । दश० १९० । आयुर्वेदः - वेदशास्त्रम् । विपा० ७५ । आयारमंतरे - आचारान्तरे । आव० ७९३ । आयो - लाभः । भग० ९ । गमनं, वेदनम् । ठाणा० ३४८ । आयोगठाणं - आयोगस्थानम् मेलनस्थानम् । आव ० आयारवं-पंचविहं आयारं जो मुगइ आयरइ वा सम्मं सो । नि० चू० तृ० १२८ आ । ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारवान् । ठाणा० ४२४, ४८४ | आयारवंत - आकारवत्, सुन्दराकारं, आकारचित्रं वा । औप० २ । ८२३ । आयोग्गहो - आयपमाणं खेत्तं । नि० चू० प्र० २४६ आ । आयोधनस्थानम् - अट्टालकम् । उत्त० ३११ । (१४०) 2 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आरं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः मारभड ] आरं-आरः, संसारः । बृ० प्र० ५१ अ, २०१ अ । इहभवः, | आरक्खिय- आरक्षकः । उत्त० १६५। दण्डनायकः । • गृहस्थत्वम् , संसारो था। सूत्र० ५६ । इहलोकाख्यं । दश० १६६ । आव० ६३३ । ओघ० १०६ । आरक्षिकामनुष्यलोकं वा। सूत्र. १५२। णामप्युपरि स्थायिनो हिंडिका आरक्षिकाः, पुररक्षिकाः । आरंभ - आरम्भः, जीवोपघातः, उपद्रवणं, सामान्येन | व्य० प्र० १३५ अ। वाऽऽश्रवद्वारप्रवृत्तिः । भग० ३१। श्रावकस्याष्टमी प्रतिमा। आरक्खियपुरिसो-आरक्षकपुरुषः । आव० ३५१ । आव. ६४६ । आरभ्य । आव०६८८। सावद्यानुष्ठानम्। पारगय - आराद्तम्-आराद्भागस्थितमिन्द्रियगोचरमागतआचा० ७८ । जीवोपघातः । भग० ७३५। पृथिव्याद्युप- मित्यर्थः । भग० २१७ । मर्दनं । ठाणा०. १०८ । सावधक्रियानुष्ठानम्। आचा० | आरघट्टिकम् । उत्त० ३८२ । १५६ । आरम्भणमारम्भः, शरीरधारणायानपानाद्यन्वेषणा। आरटन्ती-रुदन्ती। नंदी १५४ । आचा०. २९. । प्राणिवधः । तत्त्वा० ६-९ । द्रव्योत्पादन- आरणं-संशब्दनम् । ओघ० ८१ । व्यापाराः । उत्त०. ४५६ । पृथिव्याद्युपमर्दनम् । प्रज्ञा० आरणा - आरणाः, कल्पोपगैकादशवैमानिकभेदः । प्रज्ञा० ३३५ । जीवः, कृष्यादिव्यापारः, जीवानामुपद्रवणं वा। ६९ । प्रश्न. ६ । नि० चू० प्र० ३३ आ। व्यापारः । प्रश्न मारण्ण-आरण्यः, तापसादिः । अनु० २४४ । ६३ । हलदन्तालखननः । आव० ८१८ । भारण्णगतणं-श्यामाकादितृणम् । बृ• द्वि० २२० अ । आरंभइ-आरभते-पृथिव्यादीनुपद्रवयति। भग० १८३ । आरणिय-आरण्यकः, अरण्ये भवः, तीर्थिकविशेषः । सूत्र. आरंभओ - आरम्भजः, आरम्भात्-हलदन्तालखननाजा- ४२२ । यते सः। आव० ८१८ । आरण्यकम्-लौकिकश्रुतम् । आव० ४६५ । आरंभकहा-आरंभकथा, छागतित्तिरमहिषारण्यकादिका हता आरतः-अत्र इतो वा। उत्त० ५४० । अत्रेति प्रशंसनं द्वेषणं वा। भक्तकथायास्तृतीयभेदः । आव. आरतं-आरक्तम् , ईषद्रक्तम् । आचा० १२१ । ५८१ । तित्तिरायुपयोगकथा । ठाणा० २०९ । आरद्धो-आरब्धः । विशे० ९८१।। आरंभपरिणाए-आरम्भः-पृथिव्याद्युपमर्दन लक्षणः परि- आरनालं-कञ्जिय (देसीभासाए)। नि० चू०प्र० ४७ अ। ज्ञातः-तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भप्रतिज्ञातः, श्रमणो- रनिबद्धा-आरकनिबद्धा, गन्त्री। पिण्ड० १०२। पासकाष्टमी प्रतिमा । सम० १९। । आरनिय-अरण्ये वसतीति आरण्यकः । सूत्र. ३१५। आरंभसमारंभो-आरंभसमारंभः, आरंभा-जीवास्तेषां समा- | आरबके - आरबदेशोद्भवान् , म्लेच्छविशेषान् । जं० प्र० रंभः-उपमर्दः, अथवा आरंभ:-कृष्यादिव्यापारस्तेन समा- | २२० । रंभो जीवोपमर्दः, अथवा आरंभो-जीवानामुपद्रवणं तेन सह आरबदेशजा-आरव्यः । जं. प्र. १९१ । समारंभः, परितापनमिति वा, प्राणवधस्यैकादशपर्यायः। आरबी-आरबदेशवासिनी स्त्री। भग० ४६० । प्रश्न. ५। । । आरबो-आरबः, चिलातदेशवासी म्लेच्छः । प्रश्न. १४ । आरंभिया- आरंभिकी, आरंभः-पृथिव्यायुपमर्दनं स प्रयो- | आरभंती-आरभमाणा, षट्कायान् विनाशयन्ती । पिण्ड० जन-कारणं यस्याः सा, सम्यग्दृष्टः प्रथमक्रिया। प्रज्ञा० १५७ । ३३४ । विंशतिक्रियामध्ये प्रथमा। आव० ६१२। आर. आरभटभसोल:-त्रिंशत्तमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । म्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी। ठाणा. ४१ । आरभड - आरभटम् , नृत्यविशेषः। जं. प्र. ४१२ । आरक्खि -आरक्षकः चौरग्राहकः । बृ० द्वि० १०७ ।। नि. चू० तृ.१ अ। जहाभिहितविधाणतो विवरीयं, अहवा आरक्षिकः । ओघ. ८९ ।।... तुरियं अण्णंमि वा दरपडिलेहंति अण्णं आढति । नि. .आरक्खिगो-दंडवासिगो। नि० चू० तृ. ३. आ। । चू. प्र. १८१ आ। वितथकरणरूपा, त्वरितं सर्वमारभमा आरक्खितो-कोहवालो। नि० चू० प्र० २६२ । । णस्य, अर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं सा। ठाणा. १४१) 2010_05 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आरयं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आरियदंसी] - ३६१ । विपरीता प्रत्युपेक्षणा, आकुलं यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं | आराहओ-आराधकः, अविराधकः । ओघ० ११२ । तद्वा। ओघ०१०९ । सोत्साहः सुभः तेषामिदम् । जं. आराहगा-आराधका:-आराधयन्ति-अविकलतया निष्पाप्र. ४१७ । अष्टाविंशतितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । । दयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधकाः। उत्त० २३३ । जं. प्र. १४७॥ आवर्जकाः । उत्त० ३६१ । आरयं - आरतं, उपरतम्। सूत्र. १०५। अभिविधिना आराहण-आराधनम् , अखण्डकालकरणम् । भग० २९७। आसक्तं । प्रश्न. १३८ । भाराहणा-आराधना, सम्यगासेवना। उत्त० ५८६ । अनुआरसिउं-आरस्य, रुदित्वा। आव० ५०४। ठानम् । उत्त० ५९१ । ज्ञानाद्याराधनात्मिका। उत्त० ५८२। आरसियं-आरसितम्, शब्दितं । आव० २२७ । आवजेनार्थम् । उत्त० ५९१। अखण्डकालस्य करणम् । आरा- आरा, प्रवणदण्डान्तर्वर्तिनी लोहशलाका । प्रश्न आव. ८४०। चरमकाले निर्यापगरूपा। दश० २६२ । २२ । तुट्टोवाणहसिव्वणहा। नि० चू० द्वि० १८ अ। मोक्षमार्गाखण्डना। आव० ५६२ । आवश्यकस्य पर्यायः । आराडी-आराटी, आरसनम् । आव० ६७७ । विशे० ४१५। अष्टमशते दशमोद्देशकः । भग० ३२८ । आरादण्डः - प्रतोदः । दश० २५० । अखण्डकालकरगम् । उपा० १२। मोक्षाराधनाहेतुत्वात् । आराम-तत्र रमणीयतातिशयेन स्त्रीपुरुषमिथुनानि यत्र आर अनु० ३१। निरतिचारज्ञानाद्यासेना। ठाणा० ९८। मन्ति स विविधपुष्पजात्युपशोभित आरामः। अनु० २४ । आराहणामरणंते-आराधनामरणान्ते, मरणकाले आराविविधपुष्पजात्युपशोभितः। ठाणा० ३१२ । रतिः । आचा० धना, योगसङ्ग्रहे द्वात्रिंशत्तमो योगः। आव० ६६४ । २२९ । आरामः-आरमन्ति यस्मिन्माधवीलतादिके दम्प आराहणी-आराधनी, आराध्यते-परलोकापीबया यथावदत्यादीनि स आरामः। भग० २३८ । आरामा:-दम्पत्या भिधीयते वस्त्वनया, द्रव्यभावभाषामेदः । दश० २०८ । दीनि येष्वारमन्ति ते। अनु० १४९ । वाटिका । प्रश्न. आराहा-आरोहन्ति ते आराहा। नि० चू०प० २७७ अ । ८ । आरमन्ति-यस्मिन् माधवीलतागृहादौ दम्पत्यादीनि क्रीडन्तीति । औप. ३ । पुष्पप्रधानवनम् । औप. ४१। आराहिय - आराधितम् , एभिरेव प्रकारः सम्पूर्णैनिष्टां दम्पत्योर्नगरासन्नरतिस्थानम्। जं० प्र० ३८८। आगत्य नीता। ठाणा० ३८८ । सफलीकृतः। उत्त० २९८ । रमन्तेऽत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पत्य इति सः। जीवा. आराहियचरणया-आराधितचरणता, घरणप्रतिपत्तिसम२५८ । दम्पतिरमणस्थानभूतमाधवीलतादिगृहयुक्तः। प्रश्न यादारभ्य मरणान्तं यावन्निरतिचारतया तस्य पालना। १२७ । दम्पतिरतिस्थानलतागृहोपेतवनविशेषः । प्रश्न० ७३ । भग० ६९५ । माधवीलतायुपेतो दम्पतिरमणाश्रयो वनविशेषः। प्रश्न० आराहेइ-आराधयति, साधयति। उत्त० ५८२। १२६ । आरिए-आर्याः, आराद् याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याःआरामाइ-विविधवक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु संसारार्णवतःवर्तिनः क्षीणघातिकाशाः संसारोदरविवरस्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूताः । ठाणा० ८६ । वर्तिभावदिः तीर्थकृतः । आचा० ११६। ऋद्धिप्राप्ता आरामागार-आराममध्यवर्तिगृहम् । औप०६१ । उद्यान अर्हदादयः, क्षेत्रजात्याद्यार्याः । सम० १३५ । आर्यःगृहम् । आचा० ३६५। आचा० ३०६ । चारित्रार्हः । आचा० १३१ । आरामिओ-आरामिकः । आव. ३९० । आरिओ-आर्यः, आराद् यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इति । सूत्र. आराहइत्ता-आराध्य, उत्सूत्रप्ररूपणादिपरिहारेणाबाधयित्वा । ३३ । आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इति, मोक्षमार्गः सम्यउत्त० ५७२ । यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावनीवं तद- | ग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । सूत्र. १७२ । सेवनेन । उत्त० ५७२ । आरियदंसी-आर्य-प्रगुणं न्यायोपपम्नं पश्यति तच्छीलश्चेति आराहए -आराधयति, प्रगुणीकरोति । दश० २२४ । आर्यदर्शी-पृथक्प्रहेण कश्यामाशनादिसंकल्परहितः। आचा. आराधकः-निरतिचारपालनाकृत् । उत्त० ५७८ । (१४२) 2010_05 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः [ आरियपदेसिए आरियपदेसिए - आर्य प्रदेशितः- तीर्थकर प्रणितः । आचा० २४७ । आरियपने आर्यप्रज्ञः श्रुतविशेषितशेमुषीकः । आचा० १३१ । आरिया - आर्याः, आराद्धेयधर्मेभ्यो याताः - प्राप्ता उपादेय- आरोहकः । उत्त० ४८ । धर्मैरिति । प्रज्ञा० ५५ । आरुग्ग- आरोग्यं - सिद्धत्वम् । आव० ५०७ । आरुग्गबोहिलाभो - आरोग्यबोधिलाभ:, आरोगस्य भाव आरोग्यं - सिद्धत्वं, तदर्थं बोधिलाभः प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिः । आरोग्याय बोधिलाभः । आव० ५०८ । आरुभिता - छायाया नवमभेदः । सूर्य० ९५ । आरुहयं - आर्हतम् । आव ० ४६५ । आरुहेत् | आचा० ३७९ । आरुह्यते-अध्यास्यते । उत्त० ५१० । भारूढ - आरुढः, अभ्यासितः । उत्त० ३४९ । आरूढे पाउयाहिं- आरुढः पादुकयोः - काष्ठमयोपानहो, एषगायां नवमदायक दोषः । पिण्ड० १५७ | आरुवणा-आरोपणा, यत्रैकस्मिन्त्रायश्चित्तेऽन्यदप्यारोप्यते। प्रश्न० १४५ । आचार प्रकल्प स्याष्टाविंशतितमो भेदः । आव ० , ६६० । पर्यनुयोगः । विशे० ११५२ । पच्छित्तं । नि० चू० आर्यश्यामः ] आरोवणाकसिणं-आरोपणाकृत्स्नं, षाण्मासिकं ततः परस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थ आरोपणस्याभावात् । व्य० प्र० ११८ आ । आरोवणापायच्छित्तं प्रायश्चित्तमेदः । व्य० प्र० ११ अ । प्र० २३९ आ । आरे-पंक प्रभावक्रान्तमहानरकाः । ठाणा० ३६'५ । आरेण- आरतः, प्रत्यूषसि । ओघ० १४८ । आरात् । सूत्र० ४२३ । समारभ्य । विशे० ९२८ । आरोगसाला - अगाहसाला । नि० चू० द्वि० ३८ आ । आरोग्गं-आरोग्यं, रोगाभावः । आव० ३४१ | नीरोगता । 2010_05 आरोहणा - आरोपणा - प्रायच्छित्तविशेषः । व्य० Я १२४ आ । आरोहपरिणाहयुक्तता आरोहो- दैर्ध्य परिणाहो-विस्तरस्ताभ्यां तुल्याभ्यां युक्तता, शरीरसम्पत्प्रथमभेदः । उत्त० ३९ । ८२८ । आर्द्रकुमारः - प्रतिमादर्शने दृष्टान्तः । बृ० प्र० १८५ अ । सदाचारप्रयत्नवज्ज्ञातं । सूत्र० ३८५ । आर्यः- आरात् सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाग् यातः । नंदी ४९ । आर्यकम् - हरितम् । दश० १८५ । आर्यकृष्ण- अजकण्हे, आचार्यनाम । विशे० १०२० । आर्यखपुट - विद्याबले दृष्टान्तः। बृ० तृ० १५६ अ । विद्यासिद्धः सिद्धमन्त्रः । दश० १०३ । आव० ३४१ । | आर्य गङ्गः - आचार्यनाम । विशे० ९२७ । आर्य मंगु - आचार्यनाम । बृ० प्र० २४ अ । आर्यरक्षित- अजरक्खिय आचार्यनाम । विशे० ९२९, ९३०, १००२ । आरोग्गा - अरोगाः - जरादिवर्जिताः । ठाणा० २४७ । आरोवणा - आरोपणा, आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुन आसेवनेन विजातीय प्रायश्चित्ताध्यारोपणम् । ठाणा० २०० । प्ररूपणायाः प्रथमभेदः । आव० ३८२ । परस्परावधारणम् । आव० ३८३ | प्रायश्चित्तम् । वृ० प्र० ८५ आ । | चडावना ( मायाप्रत्ययमधिकप्रायश्चित्तम् ) । ठाणा ० ३२५ । चडवणा, अहवा जं दव्वादि पुरिसं विभागेण दाणं सा आरोवगा । नि० चू० तृ० ८५ अ । आचाराङ्गस्याष्टविंशतितममध्ययनम् । उत्त० ६१७ । आर्यवचनम् - अज्जवयणं, आर्याणां तीर्थकृतां वचनम् - आरोहा - महामात्रा । विपा० ४६ । आरोहो - उस्सेहो । नि० चू० प्र० २६६ आ । नातिदैर्घ्यं नातिस्वता शरीरोच्छ्रयो वा । बृ० प्र० ३०१ आ । आर्जिका - अज्जिए, आर्यिका मातुः पितुर्वा माता । दश० २१६ । आर्जवम् - भावदोषवर्जनम् । तत्त्वा० ९-६ । आर्त्ताः - दुःखिनः रागद्वेषोदयेन । आचा० १८३ । आईक:- आईकनगराधिपतिः । सूत्र० ३६ । विशिष्टतपवरणफलवान् । सूत्र० २९९ । सचित्तं तरुशरीरम् । आव ० आगमः । उत्त० ५२६ । आर्यवज्रः - कर्णाभ्यां श्रुते दृष्टान्तः । बृ० प्र० ६३ अ । आर्यवैरः- अज्जवेर, आचार्यनाम । विशे० ९२९ । आर्यश्यामः - आचार्यविशेषः । प्रज्ञा० ६०६ । (२४३) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आर्यसमुद्रः आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित आलिंगण ] आर्यसमुद्रः-आचार्यविशेषः । बृ० प्र० २४ अ । आलभिया- आलंभिका, नगरीविशेषः। भग० ५५० । आर्यसुहस्ती-आचार्यविशेषः । बृ० प्र० २४ आ। नगरीविशेषः । भग० ६७५ । आर्या-अज्जा, प्रशान्तरूपा । अनु० २६ । भिक्षुणी। आलय - आवासः । ओघ० १५६। आश्रयः । जीवा. ओघ० २०८। १७६ । जं० प्र० १२१ । आषाढा-आचार्यनाम । विशे० ९५२ । आलयविनाणं-आलयविज्ञानं-ज्ञानसंततिः । सूत्र. २६ । आर्यासूत्रम्-अज्जासुत्तं, सूत्रभेदः । बृ० प्र० २०१ आ। | आलयगुणेहि-आलयगुणैः, बहिश्चेष्टाभिः प्रतिलेखनादिभिआर्यिका-आर्जिका. मातुः पितर्वा माता। दश० २१६ । रुपशमगुणेन च । बृ० प्र० ६२ अ। आर्यः-तीर्थकृद्भिः । आचा० २७४ । सकलहेयधर्मेभ्यो दूरं | आलवंते-आलपन , अत्यर्थं लपन् । अनु० १४२ । आलयातैस्तीर्थकरादिभिराचार्यैर्वा । उत्त० २९३ । पति, आङिति ईषल्लपति-वदति। उत्त० ५५ । आलंकारिअभंड-आलङ्कारिकमाण्डम् , आभरणभृतभाज- आलविज-इषत्सकृद्वा लपनमालपनम् । दश० २१६ । नम् । जं० प्र० २५५। आलवित्तए-आलपनम् , सकृत्सम्भाषणम् । आव० ८११। आलंकारियं - आलङ्कारिकम् , अलङ्कारयोग्य भाण्डम् । आलपितुं-सकृत्सम्भाषितुम् । उपा० १३ । । जीवा० २३६ । आलस्स-आलस्यम् , अनुद्यमस्वरूपम् । उत्त० १५१ । अनुआलंच-आलञ्चः, द्रव्यस्य बहुस्वेतरादिभिलॊके प्रतीतभेदः । त्साहात्मा। उत्त० ३४५ । प्रश्न. ५६। आला-विद्युत्कुमारीमहत्तरिका । ठाणा० ३६१। आलंब-आलम्बः, प्रलम्बः। भग. १७५। - आलंबण-आलम्बनम् , प्रपततां साधारणस्थानम् । आव० आलापति-आलगयति । आव. १००। ५३४ । प्रवृत्तिनिमित्त शुभमभ्यवसानम् । आव० ५८६ । आलानम्-हस्तिबन्धनस्तम्भम् । नंदी० १५३ । आलाव-आलापः, सकृजल्पः । भग. २२३ । आलापः ग्लानादि। उत्त० ५८७। रज्ज्वादिवदापद्गर्तादिनिस्तारकत्वा आङ ईषदर्थत्वादीषल्लपनम् । ठाणा. ४०७ । दालम्बनम् । भग० ७३८, ७३९ । आश्रयणीयं गच्छकुटुंब. आलावगो-आलापकः । आव० २६० । कादि। ठाणा. १५४। । आलंबणबाहा-अवलम्बनबाहाः, द्वयोः पार्थयोवला . आलावणबंध-आलापनबंध:-आलाप्यते-आलीनं क्रियत एभिरित्यालापनानि रज्ज्वादीनि तैर्बन्धस्तृणादीनाम् । भग. श्रयभूता भित्तयः । जं० प्र० २९२ । आलइअ-आलगितम् , आविद्धम् । आव. १८५। यथा ३९५, ३९८ । स्थानं स्थापितम् । जं. प्र. १६० । प्रज्ञा. १०१। माणणेहभरितो सरभसं णमोक्खमासमणाणंआलइयमालमउड - आगालितमालमुकुटम् , आगलित तितो गुरुआलावो भण्णति । नि० चू० प्र० २३७ आ। मालं मुकु यस्य सः । भग० १७४ । आलगितमाल आलि-वनस्पतिविशेषः । जीवा० २००। मुकुटः । आचा० ४२३ । आलिंग-आलिङ्गः, यो वादकेन मुरज आलिङ्गय वाद्यते । आलए-आलयः, आश्रयः । जीवा० २७९ । उत्त० ४५४ । ___प्र० १०१। मुरजो वाद्यविशेषः। जं. प्र. ३१ । ज० प्र० १८ । वसतिः, सुप्रमार्जिताः स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता मृन्मयो मुरजः । जीवा० १०५॥ वा । आव० ५२९ । | आलिंगकसंठित-आलिङ्गसंस्थितः, आवलिकाबाह्यस्य चतुआलग्गो-अधृतिमापन्नः, कातरः। आव० ८००। - देशं संस्थानम् । जीवा० १०४ । आलपाल-प्रलापः । आव० ६६९ । आलिंगण-आलिङ्गगमम् , ईषत्स्पर्शनम् , सम्प्राप्तकामस्य आलभिआ-आलंभिका नगरीविशेषः, वीरस्य सप्तमवर्षा- दशमो भेदः। दश० १९४४ स्पृशनम् । नि० चू० प्र. रात्रस्थानम् । आव. २०९, २२१ । । २५६ आ । (१४४) 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आलिंगणवट्टि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आलोअणं ] आलिंगणवट्टि-आलिङ्गनवर्ती, शरीरप्रमाणमुपधानेन वर्तते । यत्र दक्षिणं पादमग्रतः कृत्वा वामपादं पृष्ठतः सारयति, यत् । जं० प्र० २८५ । जीवा० २३२ । सूर्य० २९३ । अन्तरं द्वयोरपि पादयोः पञ्च पदानि तत्स्थानम् । उत्त. आलिंगणि - आलिङ्गिनी, अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके चतुर्थो | २०५। दक्षिणमुरुमग्रतो मुखं कृत्वा वाममूरं पश्चात्मुखभेदः। आव० ६५२। मपसारयति, अन्तरा च द्वयोरपि पादयोः पञ्च पदाः ततो आलिंगपुक्खरे - आलिङ्गपुष्करम् , मुरजमुखम् । भग० वामहस्तेन धनुर्गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यश्चामाकर्षति तत् । १४५ । । व्य० प्र० ४६ आ। योधसंस्थानं । आचा० ८९ । योधआलिंगणी-पुरुषप्रमाणं पार्श्वमुपधानं । बृ० द्वि० २२० । स्थानम् । ठाणा० ३। वामूरुअं अग्गओ काउं दाहिणपिजाणुकोप्परादिसु ा दिजति सा। नि. चू० द्वि. ६१ ।। द्वतो वामहत्थेण धणू घेतणं दाहिणे एयं गच्छइ। नि. आलिंगिता - पुरिसेणित्थीस्तनादिषु स्पृष्टा । नि. चू० चू० तृ. ९० अ। प्र० ११३ अ। आलीणाणि-ईसिं लीणाणि। दश० चू० १२५ । आलिंगो-आलिंङ्गयः। जीवा० २६६ । आलिङ्गः, मुरजो | आलीणे-आलीनः । जीवा० २७३ । गुरुसमाश्रितः, संलीनो वाद्यविशेषः । जीवा० १८९ । वा। भग० ८१। मालिंपइ-सकृत् लिंपइ । नि० चू० द्वि० ७६ आ। आलीवग-आदीपिकः, गृहादिप्रदीपनककारी। प्रश्न० ४६ । आलि-वनस्पतिविशेषः। जं.प्र. ४५। जीवा० २००। आलीवण-व्याकुललोकानां मोषणार्थ ग्रामादिप्रदीपनकम् । खलः । विशे० ६११ । औषधविशेषः। प्रज्ञा० ३३ विपा० ३९। आलिखिजति-आलिख्यते । आव० ८५७ । आलीवण । नि० चू० द्वि० १५० अ। आलिघरं -आलिगृहकम् , वनस्पतिविशेषस्तन्मयं गृहकम् । आलुचनं-आलुम्चनं, ग्रहणम् । आव० ५६२ । जीवा० २००। आलुपे - आलुम्पः, निलाञ्छनगलकर्त्तनचौर्यादिक्रियाकारी। आलिट्ठमणालिट्ठ-आलिष्टानाश्लिष्टम् , कृतिकर्मणि चतुर्भ- | । आचा० १०२। भिन्नः सप्तविंशतितमो दोषः। आव० ५४४।। आलए-आलुकः - अनन्तकायभेदः। भग. ३०० । कन्दआलित्त-अभिविधिना.ज्वलितः । भग० १२१ । आदीप्तः। विशेषः । उत्त० ६९१ । आलुकम् - साधारणवनस्पतिअन्त० १७। आलित्र, नौवाहनोपकरणः । आचा० ३७८।। कायिकभेदः । जीवा० २७ । आलुका-कुण्डिका। अनुत्त० आलिद्धा-आदिग्धाः, शिलायां शिलापुत्रके वा लनाः । भग० ७६६ । आलुयं-आलुकम् , कन्दविशेषः । अनुत्त० ६ । त्रयोविंशतिआलिन्दकम्-अलिंदग, कुण्डुल्कम् । अनु. १५१। तमशतकाद्योद्देशकः । भग० ८०४ । आर्द्रकम् । भग०८०४ । आलिसंदग-चपलकाः । जं० प्र० १२४ । चचलकप्रकाराः, | आलेख:-विचित्रम। जीवा० १९९।। चवलकाः। भग०२७४ । धान्यविशेषः। भग• ८०२। आवणं-आलेपनम् । आव० ६२३। आचा० ३२ । आलिसिंदया-चवलया। ठाणा० ३४४ । . . आलेहो-आलेखः, चित्रम् । जं० प्र० ३२ । आलिहइ-आलिखति, विन्यस्यति । जं० प्र०. १९२। । आलो-आलं, अशक्यक्रियम् । आव० ९४ ।। आलिहमाण-आलिखन् , ईषत् सकृद्वाऽऽकर्षन् । भग० ३६५। आलोअं-अवलोकः, नियूहकादिरूपः । दश० १६६ । बहिःआलिहाविजा- ईषत्सकृद्वाऽऽलेखनम् । दश० १५२ । प्रस्थानभाविनि शकुनानुकूल्यालोकेन । जं० प्र० २६३ । आलिहिता - आलिख्य, आकारकरणेन कृत्वा अन्तर्वर्ण-- | सौरप्रकाशम् । प्रज्ञा० ५०० । कादिभरणेन पूर्णानि कृत्वा । जं० प्र० १९२ । आ(अव)लोअचलं-आ(अव)लोकचलम् , अवलोकनमालोआलीढं-आलीढम, आक्रान्तम् । आव० ७०४ । दक्षिणपादम- कस्तस्मैिश्चलं, दर्शनलालसम् । आव० ७८४ । ग्रतो भूतं कृत्वा वामपादं पश्चात्कृत्यापसारयति, अन्तरं द्वयोरपि आलोअणं-आलोकनम् , निरूपणम् । ओघ० ५२ । अण्णेसिं पादयोः पञ्च पादाः, लोकप्रवाहे प्रथमं स्थानम् । आव०४६५।। आख्यानं । नि० चू० प्र० ३३४ अ। आलोक्यन्ते दिशोऽ. 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आलोअणा आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित आवईसु दढधम्मया ] स्मिन् स्थितैरिति। उत्त० ४५१ । आलोचनम्-गुरुनिवेद- | आलोयं - आलोकम् । ओघ० ८४ । दृष्टिपथम् । औप. नम् । ठाणा० १३७ । प्रायच्छित्तभेदः । ठाणा० २००। ६९ । स्थानदिक्प्रकाशादिसप्तधाऽऽलोकम् । बृ० तृ. आलोअणा-आलोचना, आभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाश- | १४० आ। प्रकाशः । आव० ६४२ । आलोकस्थान-गवाक्षानम् । आव० ४६९। दिकं । आचा० ३४१ । आलोअभायणं-आलोकभाजनम् , मक्षिकाद्यपोहाय प्रका- | आलोयणं - आलोचनम् , यथागृहीतभक्तपाननिवेदनम् । . शप्रधानं भाजनम् । दश. १८०।। प्रश्न. १११ । आलोचना, प्रयोजनतो हस्तशताबहिर्गमआलोइज-आलोचयेत्-प्रकाशयेत् । उत्त० ५४४ । नागमनादौ गुरोविकटना, मिथ्यादुष्कृतं च । आव० ७६४ । आलोइजा-आलोक्येत्-पश्येत् -ब्रुयात् । आचा० ३२८ ।। एकादशी गुर्वाशातना। आव. ७२५ । गुरोः पुरतो वचसा अवलोकयेत् । आचा. ३९६ । प्रकटीकरणम् । व्य. प्र. १४ अ। ठाणा० २०० । अलआलोइता-आलोकिता, ईषद्रष्टा । उत्त० ४२५ । समन्ता- | वर्ण। व्य. द्वि० ३३५ अ। सकृत् अनेकशः प्रलोकनम् । द्रष्टा । उत्त० ४२५। नि० चू० प्र. २२२ अ। आलोयणा- आलोचना, आङिति-सकलदोषाभिव्याप्त्या आलोइत्तए-आलोचयितुम् , गुरवेऽपराधान्निवेदयितुमिति । लोचना-आत्मदोषाणां गुरुपुरतः प्रकाशना । उत्त० ५७९ । ठाणा० ५६ । आलोचना। ओघ० २२५ । योगसङ्घहे प्रथमो योगः । आलोइयं-आलोकित-प्रत्युपेक्षितं । आचा० ४२८।। आलोइयपडिकते-आलोचितप्रतिकान्तः, आलोचितं गुरूणां | आव० ६६३ । परस्स पागडं करेइ। नि० चू० तृ० ८५ अ। व्य. प्र० १०७ । यदतिचारजातं तत्प्रतिक्रान्तम्-अकरणविषयीकृतं येनाथवाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात्प्रतिकान्तश्च मिथ्यादुष्कृत | आलोयणाणुलोमं - आलोचनानुलोम्यम् , " पूर्व लपवः आलोच्यन्ते पश्चाद् गुरवः। आव. ७८१ । । दानादालोचितप्रतिक्रान्तः। भग० १२८। आलोयणारिह-आलोचना-निवेदना तल्लक्षणां शुद्धिं यदहआलोए-आलोकः, दर्शनम् । भग० ३१८ । दर्शनं, दृश्य त्यतिचारजातं तदालोचनार्हम् । भग. ९२० । मानता। जीवा० ३९१। आलोचयेत्-दत्तावधानो भवेत् । आलोयभायणं - आलोकभाजनम् , प्रकाशमुखे भाजने, आचा० ३४२। चक्षुर्दर्शनपथे। ओघ. १८३। अथवा आलोके-प्रकाशे नान्धकारे पिपीलिकावालादीनामनुआलोएइ-आलोचयति । आव० ७२५ । पलम्भात् , तथा भाजने-पात्रे, पात्रं विना जलादिसम्पतितआलोएजा-आलोचनं-गुरुनिवेदनम् । ठाणा० १३७ । सत्त्वा दर्शनादिति। प्रश्न. ११२ । आलोपत्तो-आलोयणा। व्य० प्र० १०८ अ। आलोविअ-अलोपिकः । दश० ४४ । आलोको-आलोक्यत इति आलोकः-स्थानदिगादिनिरू- आलोवेइ-आलोच यति। आव० ७१० । पणम्। ओघ० १८१। अतिस्निग्धदीपशिखादिदर्शनम् । आवंति-आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य पञ्चममध्ययनम् । उत्त० ६३१ । सावकाशं मुक्त्वाऽभ्यन्तरे स्वपन्ति । ओघ. प्रश्न. १४५ । आचारागस्य पञ्चममध्ययनम् । उत्त० ६१६। १०७। आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितैरिति। उत्त० ४५१। आचारांगे प्रथमश्रुतस्कंधस्य पंचमाध्ययनम् । सम.. ४४ । आलोच- आलोकम् , सौरप्रकाशम् । जं० प्र० २२९ । आचा० १९६ । यावन्तः। आचा० १८५। आचारप्रकचोपलपादी। दश० चू० ७६ । समो भूभागः । ओघ० १९३। ल्पस्य पञ्चमो भेदः। आव० ६६० । आलोकनमालोको यावद्दृष्टिप्रसरः । ओघ० २३ । आवंती-लोकसारापराभिधं, आचारांगपंचमाध्ययनम् । ठाणा. आलोचनम् - प्रकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणम्। ४४४ । तत्त्वा० ९-२२ । आवइ-आगच्छत्यापतति। उत्त० २८० । आलोचयति-गणयति प्रेक्षते च। आव० ५३६ ।। आवईसु दढधम्मया - आपत्सु दृढधर्मता, योगसङ्ग्रहे आलोचयेत् । व्य० द्वि० ७१ अ। तृतीयो योगः। आव. ६६४ । (१४६) 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आवकघाते अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आवत्तणपेढिया ] आवकधाते-यावत्कथा-यावज्जीवम् । ठाणा. २३६ । आवडिओ- आपतितः । आव. ५७८ । आस्फालितः। आवकहियं-यावत्कथिकम् , प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्या- आव. १९६ । आपतितम् । उत्त० १७० । आव• ३२० ॥ प्राणोपरमात् तच्च भरतैरावतभाविमध्यद्वाविंशतितीर्थकरतीर्था- आवडिया-आपतितौ, प्राप्तौ। उत्त० ५३० । न्तरगतानां विदेहतीर्थान्तरगतानां च साधूनामवसेयम् । आवण-आपणः, हट्टः। भग० २३८, १३६ । प्रश्न. ८ । प्रज्ञा०६३ । सकृद्गृहीतं यावज्जीवमपि भावनीयम् । आव० वीथिः। दश. १७६ । जं. प्र. १०७। अनु. १५९ । ८३९। यावज्जीविकं व्रतादिलक्षणम् । आव ५६३ ।। आपणः, पण्यस्थानम् । प्रश्न. १२७ । यावज्जीविकं महाव्रतभक्तपरिज्ञादिरूपम् । ठाणा० ३८०। आवणवीहि-आपणवीथिः, हमार्गः, रथ्याविशेषः । जीवा० ये कल्पसमाप्त्यनन्तरमध्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते २४६ । ते यावत्कथिकाः। प्रज्ञा० ६८ । आवणाह-आयतनानि, आपतनानि वा उपभोगार्थमागमआवजणं-आवर्जनम् । ओघ० १६९ । नानि । जं. प्र. १२१। आवजय-आवर्जकः, आराधकः । उत्त० ३६१।। आवण्ण-आपनपरिहारिकाः । बृ० तृ. २. अ। आवज्जीकरणं - आवर्जीकरणम् , आवर्जितः-अभिमुखी- | आवण्णपरिहारो-आपन्नपरिहारिकः, जो मासियं वा जाव कृतः मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं-क्रिया शुभयोग- छम्मासियं वा पायच्छितं आवण्णो तेण सो सपच्छित्ती व्यापारः । प्रज्ञा० ६.४ । आवर्जीकरणम्-अन्तमौहूर्तिकं असुद्धो अ विसुद्धचरणेहिं साहहिं परिहरिज्जति इह तेण उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपम् । ठाणा० ४४२ । अहिकारो। नि. चू० तृ. ८९ आ। आवट्ट-आवर्तः शङ्खसत्कः । उत्त० ६०५। संसारः । आवण्णसत्ता-आपनसत्त्वा, गर्भवती। उत्त० ५३ । आचा. ६२। मावती-प्रतिसेवनापंचमभेदः। भग. ९१९ । आपत्यःआवट्ठजोणी - आवतयोनिः, आवतॊपलक्षिता योनिः । द्रव्यतः प्रासुकद्रव्यं दुर्लभं क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता कालतो उत्त० १८३। दुर्भिक्षं भावतो ग्लानत्वं। ठाणा० ४८४ । आवट्टणं-आवर्तनम् , परिभ्रमणम् । सूर्य० २७६। आवतीगंगा-गंगामहागंगासादीनगंगामृत्युगंगालोहितगंगातः आवट्टती-आवर्त्यते, पीड्यते-दुःखभाग्भवति । सूत्र० १९० । सप्तगुणा आवतीगंगा। भग• ६७४ । आवहितो-आवृत्तः । आव० ९५।। आवत्त - आवतः, आवर्तनम् , प्रादक्षिण्येन परिभ्रमणम् । आवट्टो-आवर्तः, आवर्तयति-प्राणिनं भ्रामयतीति । सूत्र० जं० प्र० १८५। षोडशसागरस्थितिकं महाशुक्रविमानम् । ८६ । उत्त० १८३ । जीवा. २४३ । सम० ३२। आवर्तकः, पयसां भ्रमः । जं. प्र. १११। आवड-आवतः-मणीनां लक्षणः । जीवा० १८९। चिकुरसंस्थानविशेषः। जं.प्र. १८३ । मणीनां लक्षणानि । आवडइ-आपतति, भवति । ओघ० ९० । जं. प्र. ३१। महाविदेहे विजयनाम। जं० प्र० ३४६ । आवडण- अभिघातः, आपतनं वा। बृ० द्वि० ७७ आ।। अप्राप्तम्-अस्पृष्टम् , आवर्त आवृत्तिरावर्तनं-परिभ्रमणम् । प्रस्फोटनम् । ओघ. १२२ । आभिडणं। ओघ, २०४ । । भग० १२८ । आवर्तिका। जीवा० २४४ । पक्खलणं । नि. चू० प्र० ४९ अ। आपतनं-द्वारादौ आवर्तकूटम्, नलिनकूटे तृतीयकूटनाम । शिरसो घट्टनम् । बृ० प्र० २९५ अ। जं० प्र० ३४६ । आवडणपडणादी-आपतनपतनादयः । ओघ० ९०। भावत्तगा-एकखुरविशेषचतुष्पदः । प्रज्ञा० ४५ । आवडणा-उसूआदिसु पक्खलणा। नि० चू० तृ० २१ अ। आवत्तणपेढिया-आवर्तनपीठिका, यत्रेन्द्रकीलिका। जीवा० आवडिऊण-आपत्य । आव. १९६ । २०४ । यत्रेन्द्रकीलको निवेशितः। जीवा० ३५९ । यत्रेआवडिए - अवकोटितानि, अधस्तादामोटितानि । उत्त० | न्द्रकीलो भवति । जं. प्र. ४८ । अग्रद्वारम् । नि० चू० तृ. १९अ। आवर्तनम्-भक्तीभवनम् । व्य० प्र० २०३ आ। (१४७) 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आवत्ता आवत्ता - आवर्ता, ग्रामविशेषः । आव ० २०६ | आवर्त्तबहुलजला नदी । बृ० तृ० १६२ आ । धातकीखंडे तन्नाम महाविदेहगतो विजयः । ठाणा० ८० । आवन्ते - आवर्सः, विजयस्य नाम । जं० प्र० ३४६ । घोषव्यन्तरेन्द्रलोकपालः | ठाणा० १९८ । भवतो - आवर्तः, एकखुरविशेषः । प्रश्न० ७। एकखुरश्च - तुष्पदः । जीवा० ३८ | नाट्यविशेषः भ्रमद्भ्रमरिकादानैर्नतनम् । जं० प्र० ४१४ । जीवा० २४६ । आवपनम् - लोहमयं शकटोपकरणम् । पिण्ड० २२ । आवबहुले - अब्बहुलम्, जलबहुलं, रत्नप्रभा पृथव्यास्तृतीयकाण्डः । जीवा ० ८९ । आवयं- आवर्त्तः, अहोकायमित्यादि सूत्रगर्भो गुरुचरणन्यस्तहस्तशिरःस्थापनारूपः, सूत्राभिधानगर्भः कायचेष्टाविशेषः । आव० ५४२ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः - आवस्सग ] आवलिया - आवलिका - असंख्यात समयमाना । ठाणा ० ८५ । आवलिका, श्रेणिः । जीवा ० १०५ । असंख्येय सम यसंघातोपलक्षितः कालः । आव० ३१ । परंपरा । आव० ८५८ । असख्यातसमयात्मिका । भग० २११ । वंशः, प्रवाहः । जं० प्र० १६६ । तत्र या विच्छिन्ना एकांते भवति मण्डली सा आवलिका । व्य० द्वि० २१ अ । असङ्ख्येयसमयसमुदायिका । सूर्य० २९२ । वंशः, प्रवाहः । जं० प्र० २५८ । आवलियाठावगो- आवलिकास्थापकः आचार्यपारम्पर्यम्। आव० ३०७ । आवलियापविट्ठ-आवलिकाप्रविष्टम्, यत्पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितम् । जीवा ० ३९७ । आवलियाबाहिरं - आवलिकाबाह्यम्, यत्पुनरावलिकाऽऽविष्टानां प्राङ्गणप्रदेशे कुसुमप्रकर इव यतस्ततो विप्रकीर्णम् । जीवा० ३९७ । आवली - हारः । बृ० प्र० ४८ अ । पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः । सूर्य ० १३० । आवली, पङ्क्तिः । ओघ० ८२ । आवल्लिक- आवल्लिकः । विशे० १३५५ । आवल्लो - बलीवर्दः । आव० ६६५ । उत्त० १९२ । आवसंत - आवसन् विवसन् । आचा० ११ । आङिति-, गुरुदर्शितमर्यादया वासना । उत्त० ८० । ठाणा० ९ । मया गुरुकुले आमृशन् । सम० २ । आवसन् - सेवमानः । आवयह- अतिपतति । आचा० २६५ । आवरणं - आवरणम्', स्फुरका दि । प्रश्न ० १३ । आव्रियते आकाशमनेनेति, भवनप्रासादनगरादि तल्लक्षणशास्त्रम् । ठाणा० ४५१ । सन्नाहः । प्रश्न० ४९ । कवचादि । उत्त० १४३ । आव ० ३४६ । कपाटं । बृ० द्वि० १११ अ । कवचः । भग० ९४ । आवरणे - प्रच्छादनपटे । जं० प्र० २३६ । फलकादि । आचा० ६० । स्फुरककण्टकादि । भग० ३१८ । आङो मर्यादेषदर्थवचनश्वात् ईषन्मर्यादया वाssव्रणवन्तीत्यावरणाः, ततश्च सर्वविरतिनिषेधार्थ एवायं वर्तते न देशविरतिनिषेधे खल्वावरणशब्दः । आव ० ७८ । खेटकं सन्नाहं वा । जं० प्र० ३५९ । सन्नाहं । ठाणा० ४५० । आवरणप्रविभक्तिः- अष्टमनाट्यभेदः । जं० प्र० ४१६ । आवरिसणं-- पाणिएण उप्फोसणं । नि० चु० प्र० १७२ आ । आवरेत्ता - आवृत्य - अवष्टभ्य । भग० ५७६ । आचा० २१३ । आवसह - आवसथः, आश्रयः । उत्त० ६२६ । दश० २४५ । शेषभवनप्रकारः । उत्त० ३८५ । आवसथः, परिव्राजकस्थानम् । प्रश्न० १२६ । औप० ६१ । परिव्राजका श्रयः । प्रश्न० ८ । उटजाकारं गृहम् । सूत्र० ३१५ । आवसहिय-आवसथिकः, तीर्थिकविशेषः । सूत्र० ४२२ । आवर्जनम् - आराधना । उत्त० ५९१ । आवर्षणं गन्धो आवसिया - आवश्यकी, अवश्य कर्त्तव्ययोगैर्निष्पन्ना। आव दकादिना । अनु० २६ । आवर्तना-आउट्टणा, आवर्जनं, निवेदनम् । बृ० प्र० ४७ आ । आवलगनादिकाः - क्रियाविशेषाः । आचा० १२४ ॥ आवलणं - आवलनम्, मोटनं, अथवा गलकस्य बलादालनं मारणं चेति । प्रश्न० २२ । आवलियपविट्टो आवलिकापविष्टः, श्रेणिव्यवस्थितः । जीवा० १०५ । 2010_05 २५९ । आवस्सए - आवश्यकम् अवश्यकर्त्तव्यं संयमव्यापारनिघ्पन्नम् । आव ० ११९ । कायिका दिव्युत्सर्गम् । ओघ १४७ । आवस्सग आवश्यकम् ११ । अवश्यं कर्तव्यं 2 समन्तादात्मवश्य कारकम् । अनु० आवश्यक - कायिकाव्युत्सर्गरूपम् ॥ ओघ० १४९ । कायिक्रोच्चारादि । ओघ ८७ । प्रतिक्रमणम् । (१४८) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आवस्सय अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आविए ] ओघ० ९३,५८। सामायिकादि षडध्ययनकलापः । अनु आवागो-आपाकः, भ्राष्ट्रं । आव. १०१। ७। आवश्यकम् , श्रमणादिभिरवश्यं क्रियत इति, आवाडा-आपाता इति नाम्ना किराताः । ज० प्र० २३२ । ज्ञानादिगुणा मोक्षो वा आ-समन्ताद् वश्यः क्रियतेऽनेन इति, | आवातभद्दते - प्रथममीलके दर्शनालापादिना भद्रकारी । आ-समन्ताद्वश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो येषां ते तथा, तैरेव । ठाणा. १९७॥ क्रियते यत् तत् । अनु० ३। आवासकं वा समग्र- आवाय-आपातः, तत्प्रथमतया संसर्गः । भग० ३२६ । गुणग्रामावासक वा। अनु. ३१ । दोषत्यागलक्षणमवनता- आभिमुख्येन समवायः। आव० ३२६ । अभ्यागमः । दिकम् । आव० ५४५ । गुणाना आ-समन्ताद्वश्यमात्मानं | ओघ० ११९ । करोति । अनु. १०। श्रमणादिभिरहोरात्रमध्येऽवश्यंकर- आवारि-लघ्वापणम् , आस्पदम् । आव• ६७५ । णात् । विशे० ४१५। नियमतः करणीयम् । आव० ५९४ । आवावकहा-आवापकथा, ईयद्र्व्या शाकघृतादिश्चात्रोपअवश्यं कर्त्तव्यम् , सामायिकादिरूपम् , आ-समन्ताज्ज्ञाना- युक्ता इत्यादि प्रशंसनं द्वेषणं वा, भक्तकथायाः प्रथमभेदः । दिगुणैः शून्यं जीवं वासयति, तैर्युक्तं करोतीत्यावासक-सामा- आव० ५८१ । शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयिकादिरूपम् । विशे. २। भद्रम् । आव. ४२६ । मूल- युज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आवापकथा। ठाणा० २०९ । गुणोत्तरगुणानुष्ठानलक्षणः। आव. २६७। आवादिकम्। आवास-आवासः, देववासस्थानम । ज० प्र० ३९७ ॥ आव० ५११। कायिकाव्युत्सर्गलक्षणम् । ओघ० १५२ । आवश्यकम्-प्रतिक्रमणम् । आव० ७८४ । ओघ० २०० । सामायिकादिषड्विधम् । ठाणा० ५१ । अवश्यं कर्तव्य प्रज्ञा० ६०६ । निवासः । जीवा० १८० । मावश्यकं, अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकं, यथा अन्तं करोतीत्यन्तकः, अथवा 'वस निवासे' इति गुण आवासग-आवासकम् , समन्ताद्वासयति गुणैरिति । अनु० शून्यमात्मानमावासयति गुणेरित्यावासकम् । आष० ५१। ११ । गुणशून्यमात्मानमावासयति गुणैरिति, गुणसान्निध्य मात्मनः करोतीति भावार्थः। आव. ५१प्राभातिकवैकाआवस्सय - अपाश्रयः-आधारः । विशे० ४१५। सज्ञा लिकप्रतिक्रमणलक्षणे। व्य० द्वि० १८२ अ। कायिकीलक्षणम् । बृ० द्वि० २६१ अ। आवस्सयाई - आवश्यकानि, शरीरचिंतादेवातर्चनादीनि । ! आवासिय-आवासितः, स्थितः। दश० १०॥ व्य० प्र० १६९ आ। आवासेंति-आवासयन्ति, वसन्ति । आव० ६५४ । आवस्सिआ-आवश्यकी, क्वचिद्बहिर्गमनकाये समुत्पन्ने- आवाह-सरीरवज्जा पीडा । नि० चू० प्र० ३३५ अ। ऽवश्यगन्तव्यमितिभणनम् । बृ०. प्र. २२२ अ । ज्ञाना. आवाह-आवाहः, विवाहात्पूर्व ताम्बूलदानोत्सवः। जं० प्र० द्यालम्बनेनोपाश्रयाद् बहिरवश्यंगमने समुपस्थितेऽवश्य १२३ । जीवा० २८१। कर्तव्यमिदमतो गच्छाम्यहमित्येवं गुरु प्रति निवेदना । अनु० आवाहणं-आवाहनम् , गमनम् । प्रश्न० २० । १०३। आवाहिओ-आहूतः। आव० ३६९, ३९३ । आवस्सिता-चतुर्थी सामाचारी। ठाणा०.४९९ । आवाहो-आवाहः, अभिनवपरिणतस्य वधूवरस्यानयनम् । आवस्सिया-आवश्यिकी, अवश्यकर्त्तव्यैश्चरणकरणयोगैर्नि- प्रश्न. १३९ । सुहं दिवसं। नि० चू० द्वि० ९२ आ। वध्वा वृत्ता। आव० ५४७ । बृ० द्वि० २२४ अ। वरगृहानयनम् । बृ० तृ०४३ आ। आहूयन्ते स्वजनास्ताआवहो-दारकपक्षिणामावहः । व्य० द्वि० ३४२ आ। म्बूलदानाय यत्र सः । जीवा० २८१। आवाए-आपातः, अन्यतोऽन्यत आगमनात्मकः । उत्त० आविंध-परिधेहि । आव. ९९। आवि-आविः, जनसमक्ष प्रकाशदेश इतियावत् । उत्त० ५४ । आवाओ-आपाकः । विशे० ८७३ । आपाकीती-नूतना। आविइ-अनुसमयम्-प्रतिक्षणम् । भग० ६२५ । विशे० ६३० । आविइत्ता-अवनस्य दद्यात् । व्य. द्वि. आवागसीसाओ-आपाकशिरसः । नंदी. १७७ । । आविए-आपिब । उत्त० ३३९ । (१४९) 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आविद्धं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आसकिसोरो] आविद्धं-परिहितम् । जं.प्र. १९०, २७८ । आलगितम् । आ-समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशनम् -शून्यगृहम् । आचा० प्रज्ञा० १०१। व्याप्तम् । उत्त० ५४८ । समन्तात्ताडितः। . ३०७ । उत्त० ४९५। शिरस्यारोपणेन आविद्धः । भग० १९३। आशातनम्-आ-समन्तात् शातयति मुक्तिमार्गाद्भ्रंशयति। आविडामो-परिदध्मः । आव.६५ अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् । विशे० २८३ । आविर्भावा-प्रकाशः, प्रकटत्वम् । विशे० १०६२ । ... आशाम्बरा:-दिगम्बराः। प्रज्ञा० २० । आविलं-आविलम् , सकालुध्यमाकुलं वा। प्रश्न : ५३ । । आश्यानः । ओघ० ३२ । . अविमलमस्वच्छं प्रकृत्या । जीवा० ३०३।. आश्रयं गच्छामि-भक्तिं करोमीत्यर्थः । आव० ५७१ । आविष्टलिंग। नंदी ११... . आश्रित्य-प्रतीत्य । जीवा० ५६ । उत्त० ६०२ । आविसामि-आविशामि, निषेवे। विशे० १२४७ ।। आसं-अश्वम् , मनः। प्रज्ञा० ६०० । आशां-भोगाकांक्षा। आचा० १२७ । ... आवी-गंगागामी नदीविशेषः । ठाणा० ४७७ । आवीईमरणे-आ-समन्ताद्वीचय इव वीचयः-आयर्दलिक- आसंकलनम्-चयनम् । ठाणा० १७९ । विच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदावीचि, अथवा वीचिः-विच्छे आसंतर - अश्वतरः, वेगसरः, अजात्या घोटक; । दश. दस्त दभावादधीचि, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरण- 1 | आसंदओ-आसन्दकः । आव० ५५८ । मावीचिमरण-प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटन लक्षणम् । सम० ३३।। आसंदग-कढमओ। बृ० द्वि० २११अ । कट्ठमओ अज्झूभावीचिमरणं-आवीचिमरणं, सप्तदशमरणभेदे प्रथमः । सिरो। नि० चू० प्र० २०८ अ। पल्यङ्कः । आव०.३५८ । उत्त० २३०।। - आसंदयं-आस्यन्दकम् । आव० ६९३ । आवीचियमरणं-आ-समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयमनुभूय- आसंटी- मञ्चिका । पिण्ड० १०९ । उपवेशनयोग्या मानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुदलिकविच्युतिलक्षणा- | मञ्चिका । सूत्र. ११८। दश. २०४। उपवेशनामासऽवस्था ।यस्मिन् तदावीचिकं, अथवाऽविद्यमाना वीचिः नम्। दश० ११७ । आसनविशेषः । सूत्र. १८२ । मञ्चकः। विच्छेदो यत्र तदवीचिकं अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तत्मरणं सूत्र० २७८ । चेत्यावीचिकमरणम् । भग० ६२४ । . आसंसइयं-असंशयितं, निःसंशयं मनःसंश्रित वा। सूत्र० आवीलए-आङ् ईषदर्थे, ईषत्पीडयेद्-अविकृष्टेन तपसा शरी. रकमापीडयेत् , एतच्च प्रथमप्रव्रज्याऽयसरे। आचा. १९२ । आसंसपओगो-निदान करणं । नि० चू० प्र० ३५ अ। आवीलाविजा-आपीडनम् , सकृदीषदा पीडनम् । दश० आसंसा-आशंसा-अप्राप्त प्रापणाभिलाषः । आचा. ११५। आस-अश्वः, वाल्हीकादिदेशोत्पन्नः, जात्यः । दश० १९४ । आवे-आपातुम् , भोक्तुम् । दश० ९६ । । क्षेपः । आव० ३६४ । आवेढिओ-एगदुतिदिसिट्टितेसु, अहवा एगपंतीए समंता. आसइ-आस्ते। आव ३९६ । ठिएसु, आङ् मर्यादयाऽऽवेष्टितः । नि० चू० तृ. ४६ आ । आसइत्त-आसितुम् , उपवेष्टुम् । दश. २०४।। आवेदियं-आवेष्टितम् , सकृदावेष्टितम् । ठाणा० ५०२। । आसरण - आश्रयतीति आश्रयः-धूमबल कादिः । अनु. आवेढियपरिवेढिए - आवेष्टितपरिवेष्टितः, गाढतरं संवे. २१४ । हितः । प्रज्ञा० ३०६। आसकण्णो -अश्वकर्णः, सप्तदशान्तरद्वीपः । जीवा. १४४ । आवेयणं - आवेदयति, निवेदयति कालमित्यर्थः । ओघ आसकन्नदीवे-अन्तरद्वीपनाम । ठाणा. २२६ । २०४ । आसकन्ना-अश्वकर्णः, सप्तदशान्तरद्वीपः। प्रज्ञा. ५. । आवेलिज-आपीडयेत्, गाढमवगाहयेत् । उत्त० ४७५।। आसकरणं-आससिक्खावणं । नि० चू० द्वि. ७१ अ। आवेसणं - लोगसमवायट्ठाणं। नि० चू० द्वि. ६९ आ। आसकिसोरो-अश्वकिशोरः । आव० ३७०, २६१ । । (१५०) 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आसक्खंधसंठिते अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः आसमपय] आसक्खंघसंठिते-अश्वस्कन्धसंस्थितम् , अश्विनीनक्षत्रसं. | आसणमणुप्पयाणं-आसनानुप्रदानम् , आसनस्य स्थानास्थानः । सूर्य० १३०।। | न्तरसञ्चारणम्। ठाणा० ४०८। सम० ९५। आसखंघसंठिओ-अश्वस्कन्धसंस्थितः, उभयोरपि पार्श्वयोः | आसणाणुप्पयाणं - आसनानुप्रदानं , गौरव्यमाश्रित्यासपञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्तेऽश्वस्कन्धस्येवोन्नततया षोडश- नस्य स्थानान्तरसंचारणम् । भग० ६३७ । योजनसहस्रप्रमाणोच्चैस्त्वयोः शिखायाभावात् । जीवा० ३२५। आसणाभिग्गह-आसनाभिग्रहः-तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनाआसगं-आस्यकम् , मुखम् । जीवा० ११९ । आस्यके, नयनपूर्वकमुपविशतेतिभणनम् । भग० ६३७ । यत्र यत्रो. पिठरादिमुखे। ठाणा. १४८ । पवेष्टुमिच्छति तत्र तत्रासननयनम् । औप० ४२ । तिष्ठत आसग्गीव-अश्वग्रीवः, त्रिपृष्ठवासुदेवशत्रुः । आव० १५९ । एवादरेणासनानयनपूर्वकमुपविशताऽत्रेतिभणनम् । दश०३० । महामाण्डलिकराजा आव. १७४ । आसणेय-आश्वासनः । जं. प्र. ५३४ । आसचडगर-अश्वसमूहः। आव. ३७० । आसतरगा-वेसरा । नि० चू० प्र० १४४ आ। आसज-आसाद्य-अंगीकृत्य। आचा० १५९ । आसत्त-आसक्त, भूमौ लग्नः । जं० प्र० ७६ । आ-अवाङ् आसण-आसनं, सिंहासनादि। प्रश्न० १६१। आधारलक्ष- अधोभूमौ सक्त आसक्तः, भूमौ लग्नः। प्रज्ञा० ८६ । णानि धर्मास्तिकायादीनां लोकाकाशादीनि, स्वस्वरूपाणि वा। जीवा० १६० । जीवा० २२७ । भूमौ सम्बद्धः । औप० ५। आव० ५९९ । पीठफलकादिकम् । आव० ६५४ । स्थानम्।। आसत्तमल्लुदामा-आसक्तमाल्यदामा। आव. १८४ । उत्त० १०९। पीठकादि। आव० ७९५। दश० २८१। आसत्ती-आसक्तिः, धनादावासाः, परिग्रहस्यैकोनत्रिशत्तमं अपवादगृहीतं पीठकादि। दश० २३१। दश. २२८ । नाम । प्रश्न० ९३। वसत्यादि । सूत्र. ६६ । कट्ठपीढगादि। दश० चू० १२६। आसत्थ-पीप्पलकः । भग० ८०३ । असुरकुमारचैत्यवृक्षः। विष्टरम् । प्रश्न० १३८ । प्रश्न. ८ । सिंहासनादि। ठाणा० ४८७ । मनागाश्वासितः । ओघ० ५२ । अनंतजिनजीवा० ४०६ । आसन्दकादिविष्टर, आस्यते-स्थीयतेऽ- चैत्यवक्षविशेषः। सम. १५२ । आश्वस्तः। आव० ३९० । स्मिन्निति वाऽऽसनं-शय्या। आचा० १३४। उपवेश- आसन्दकम-आसनम् । दश. २१८ । आचा. १३४ । नम् । उत्त० ६०९ । अवस्थानम् । उत्त० ६२६ । । आसन्नं-संमुखीनम् । निर०८। आसनं गोदोहिकोत्कुटुकासनवीरासनादिकः । आचा० ३१२ । | मो-धातकीखंडे विदेइविशेषस्य राजधानी । ठाणा. पादपीठपुञ्छनादि। उत्त० ४२३ । सिंहासनादि। उत्त. २६२ । पीठकादि। सम० ३८ । शकादीनां सिंहासनम्। आसम-आश्रमः, तापसादिस्थानम्। भग० ३६। अनु० ठाणा० ११७ । आसन्दकादि । दश० २१८। आचा०६०। १४२ । सूत्र. ३०९ । तीर्थस्थानम् । आचा० ३२९ । भग. २३८ । आस ग-आसनप्रदानं, गुर्वादीनां समागतानां | ठागा. २९४ । ठाणा० ८६ । तापसाक्सथोपलक्षित आपीठकाापनयनम् । व्य. प्र. २३५ आ । श्रयः । आचा० २८५। प्रथमतस्तापसादिभिरावासितः पश्चाआसणअणुप्पदाणं-आसनानु पदानम् ,स्थानात्स्थानं स'चा- दपरोऽपि लोकः तत्र गत्वा वसति। बृ० प्र० १८१ आ। रणम् । दरा० ३० । तापसावसथादिः, आ-समन्तात् श्राम्यन्ति-तपः कुर्वन्त्य. आसणअभिग्गहो-आसनाभिग्रहः, तिष्ठत एवासनानयन. स्मिन्निति । उत्त० ६०५ । व्रतग्रहणादिरूपः । दश० २७९ । पूर्वकमुपविशतोऽत्रेतिभणनमिति । सम० ९५। ठाणा० ४०८। आश्रमः, तापसादिनिवासः। प्रश्न. ५२। तापसावसथोआसणगाणि पंताणि-पांशत्करशर्करालोष्टाशुपचितानि का- पलक्षित आश्रयः। प्रज्ञा० ४८ । जीवा० ४० । जीवा० धानि च दुरितानि । आचा० ३० । २७९ । तापसाद्यावासः । औप० ७४ । आसणत्थ-आसनस्थं, निषद्यागतम् । आव० ५४१। आसमडे-अश्वमृतः, मृताश्वदेहः। जीवा० १०६ । आसणदाणं - आसनदानम् , पीठकाशुपनयनम् । दश० | आसमपय-आश्रमपदम् , ' पार्श्वनाथदीक्षास्थानम् । आव. २४१। पीठा.देदानम् । उत्त० ६०९ । - १३७ । आ-समन्तात् धाम्यन्ति-तपः कुर्वन्त्यस्मिन्नित्या (१५१) 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आसममारो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आसाढभूई ] - श्रमः-तापसावसथादिस्तदुपलक्षितं पदं-स्थानम् । उत्त० | आसवओ-आश्रावकः, बन्धकः। विशे० १०९३ । आसवदारं-आश्रवद्वारम् , कर्मबन्धद्वारम् । आव० ८५१ । आसममारी-मारीविशेषः। भग० १९७। ... | आश्रवणं-जीवतडागे कर्मजलस्य संगलनमाश्रवः-कमनिआसमरूवं-आश्रमरूपम् । भग० १९३ । बन्धनमित्यर्थः, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि-उपाया आश्रवद्वाआसमित्त-अश्वमित्रः, कौण्डिन्यशिष्यः। विशे० ९६० । राणीति । ठाणा० ३१६ । ' आव० ३१६ । उत्त० १६३। चतुर्थनिह्नवनाम । ठाणा० आसवपीतो-पीतासवः । उत्त० २६३ । ४१० । यस्मात्सामुच्छेदा उत्पन्नाः । आव. ३११। आसववुच्छेओ - आश्रवव्यवच्छेदः-- कर्मबन्धद्वारस्थगनेन आसमुहदीवे-अंतरद्वीपभेदः । ठाणा० २२६ । संवरणेनेत्यर्थः । आव० ८५१। आसमुहा-अश्वमुखनामा त्रयोदशान्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । आसवार-अश्ववारः, अश्वारूढपुरुषः । भग० ४८१ । जीवा० १४४.1. . आससणाय वसणं-आशसनाय-विनाशाय व्यसनम् , आसय-आशयः, निदानम् । आव०६१। तृतीयाधर्मद्वारस्य षड्विंशतितमं नाम। प्रश्न० ४३ । आसयइ-आस्वादते-अभिलषति, आश्रयति वा। सम. आससप्पओगे-आशंसा-इच्छा तस्याः प्रयोगो-व्यापारणं करणं आशंसैव वा प्रयोगो-व्यापारः आशंसाप्रयोगः । ठाणा० आसरयणे-अश्वरत्नम्। ठाणा० ३९८ । आसरह-अश्ववहनीयो रथः । भग० ३२२ । अश्वरथः-नियु ५१५ । क्तोभयपार्श्वतुरङ्गमो रथ इत्यर्थः । जं० प्र० १९८। । आससा-आशंसा । विशे० १००८ । आव० ३२२ । अप्रा'आसल-आसलं, आस्वाद्यम् । जीवा० ३३१। जीवा प्तप्रार्थनम्। ठाणा. १४५। ३७० । आस्वादनीयः। जीवा० ३५१ । । आससाए-आशंसया, यद्यत्यन्तप्रवर्षण भावि तदा स्थलेषु आसव-आसवः, मद्यम् । उत्त० ६१९ । पत्रादिवासकद्रव्य फलावाप्तिरथान्यथा तदा निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया। भेदादनेकप्रकारः। जीवा० २६५। पुष्पप्रसवमद्यम् । उत्त. उत्त० ३६१। ६५४ । आश्रवाः-उपादानहेतवो हिंसादयः । उत्त० ५९२। आससेण-अश्वसेनः, पाश्वजिनपिता । सम० १५२ । पंचचन्द्रहासादिकम् । जीवा० १९८ । चन्द्रहासादिपरमासवम् । मचक्रिपिता । सम० १५१ । जं० प्र० ४२ । नि० चू० प्र० ३५ अ। आश्रवः-सूक्ष्म- आसा-अश्वाः । आव० २६१। आशा-इच्छाविशेषः । . रन्ध्रम् । भग० ८३ । आश्रवन्ति-प्रविशन्ति काण्यात्म-. प्रश्न. ६४ । औप० ४७ । नीत्याश्रयः-कर्मबन्धहेतुरितिभावः, स चेन्द्रियकषायावतक्रि- आसाइजा-आशातयेत्-हीलयेत् , बाधयेत् । आचा०२५७ ॥ यायोगरूपः । ठाणा. १८। आश्रयं । प्रज्ञा० ५६ । आसाएजा-आस्वादयेत्-परिभुञ्जीत । आचा० ३९८ । आसवा - आस्रवाः-कर्मबन्ध स्थानानि । आचा० १८१। आसाएमाणे-आस्वादयन् , ईषतस्वादयन् । भग० १६३ । पापोपादानस्थानानि । आचा. ४१३ । बन्धकाः । आसादयेत्-संस्पृशेत्। आचा० ३८० । । आचा. १८२ । पत्रादिविशेषेण व्यतिरिक्त आसवः । प्रज्ञा. आसाढ-आषाढः, निह्नवनाम । विशे० ९३४ । यस्मादव्यक्ता ३६४ । आश्रयः-आ-समन्तात् शृणोति-गुरुवचनमाकर्ण. उत्पन्नाः। आव. ३११ । तृतीयो निहवः । ठाणा० ४१० । यतीति। उत्त० ४९। कर्मबन्धहेतुर्मिथ्यात्वादिः। आव. | आसाढग-तृणभेदः। भग० ८०२ । ५९८। आश्रवः-इन्द्रियजयादिरूपः परमार्थपेशलः काय- आसाढबहुलं-आषाढबहुलं, आषाढकृष्णपक्षम् । आव० वाङ्मनोव्यापारः । दश. २७९ । जलप्रवेशस्थानम् । व्य. आसाढभूई - आषाढभूतिः-देशभाषानेपथ्यादिविपर्यय करणे प्र. १६७ आ । पापोपादानहेतुरारम्भादिः । जीवा. १२८ । दृष्टांतः। सूत्र. ३२९ । दर्शनपरीषहभग्नः। ( मर०)। शुभाशुभकर्मादानहेतुः । ठाणा० ४४६ । ... व्य. प्र. १९६ अ। 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आसाढायरिया आसाढायरिया-चेलयसुरेण थिरीकया आयरिया । व्य प्र० १९ अ । आसायए - आशातयति, कदर्थयति । दश० २४४ । आसायण-आशात कपाराञ्चिकः । ठाणा० १६३ । भासायण सील- आशातनाशीलः, शातयति - विनाशयतीत्याशातना तस्यां शीलं तत्करणस्वभावात्मकमस्येत्यत्याशातनाशीलः । उत्त० ५७९ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः आसुर ] आसासि आश्वासय, स्वस्थीकुरु । उत्त १२७ । आसासिआ आश्वासिता | आव० २२२ । आसाहीणारहिं- दुर्द्दतेहिं । दश० चू० ११६ । आसिआवणं-स्तैन्यम् । बृ० तृ० ८६ आ । आसिङ्घा - तिष्ठ । ( मर० ) । आसित्ता-आस्वाद्य-भुक्त्वा । आचा० ३३० ॥ आसितो- आसिक्तः, सबीजः । बृ० तृ० ९७ आ । जस्स पुण अवच्च उप्पज्जति सो नि० चू० द्वि० ३१ अ।. आसियं - आसिक्तं, आसेचनं, ईषदुदकच्छट्टकः । प्रश्न०.१२७ । उदकच्छटम् । जीवा० २४६ । निर्द्धाटनं, निष्काशनम् ! बृ० द्वि० ६१ आ । आसायणा - आशातना, लघुतापादनरूपा अथवा स्वसम्यग्दर्शनादिभावापहासरूपा । दश० २४४ | ज्ञानाद्यायस्य शातना। आव० ५४७ । आशातना । प्रश्न० १४६ । आसामस्त्येन शात्यन्ते - अपध्वस्यन्ते यकाभिस्ता आशातनारत्नाधिकविषयाविनयरूपाः पुरतोगमनादिकाः । ठाणा • -५११ | आयः - सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः आसियावणं- हरणं । नि० चू० प्र० २६७ अ । अपहरणम् । बृ० प्र० ३०९ आ । हरति । नि० चू० द्वि० १३ आ । आसिले - आसिलः, महर्षिविशेषः । सूत्र० ९५ । खण्डनं निरुक्तादाशातनाः । सम० ५९ । आसायणिज्जं - आस्वादनीयम्, सामान्येन स्वादनीयम् । आसिवावितो - प्रब्राजितः । नि० चू० प्र० २८६ अ जीवा० २७८ । आसालए- आशालकः, अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः । आसी- आइयो - दंष्ट्राः । प्रज्ञा० ४७ । विशे० ३८० । आव ० ४८ । आसीः दंष्ट्रा । आव० ५६६ । आसीणे - आसीनः आश्रितः । आचा० २९३ । आसीयावणा - निष्कषायितुमासादनम् । व्य० द्वि० ३६१अ । आसीविस - आशीविषः शङ्खविजये वृक्षस्कारः । जं० प्र० ३५७ । नागः । प्रश्न० १०७ | आइयो - दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते । ठाणा० २६५ । जीवा० ३९। सीतोदादक्षिणत वक्षस्कारः । ठाणा० ३२६ । उरः परिसर्पविशेषः । जीवा ० ३९ । विशे० ३८० । उत्त० ३१८ । आशीविषः - भुजङ्गः । आव० ५६७ । दश० २०४ | आसालओ - ससावंगमं (सावट्ठेभं) आसणं । दश० चू० ९९ । आसालिए- आसालिकः, उरः परिसर्पभेदः सम० १३५ । आसालिय- आसालिकः, उरः परिसर्पविशेषः । प्रश्न० ८ । - जीवा ३९ । उरः परिसर्पभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । आसास- आश्वासः, आश्वसन्त्यस्मिन्नित्याश्वासः । आचा० ५। आश्वासयति अत्यन्तमाकुलितानपि जनान् स्वस्थीकरोतीति । उत्त० २१२ । आसासग - अश्वस्यास्यं मुखं तत्र गतः फेन सोऽश्वास्यगतः । प्रज्ञा० ९५० आसासकः- बीयकाभिधानो वृक्षः । राज० ९ । आसासणय - आशंसनम्, मम पुत्रस्य शिष्यस्य वा इद्र मिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः । भग० ५७३ । आसासदीव - आश्वासद्वीप:, आकुलितजन स्वस्थ कारको द्वीपविशेषः । उत्त० २१२ । आश्वासनमाश्वासः, आश्वा सायद्वीप आश्वासद्वीपः । आचा० २४७ । आश्वास्यते Sस्मिन्नित्या श्वासः, आश्वासश्वासौ द्वीपश्चाश्वासद्वीपः । आव० २४७ ॥ आसासय- आशासकः, वृक्षविशेषः । औप० ११ । आसासा- आश्वासाः - विश्रामाः । ठाणा० २३६ । 2010_05 आसु - आशु शीघ्रम् । उत्त० ६३८ । जं० प्र० २०२ । आसुकारिणः- दुष्टाः । नि० चू० प्र० ७५ आ । आसुकोहो - तक्खणमेव कोहो । दश० चू० १२५ । आसुक्कारो - आशु शीघ्रं सजीवस्य निर्जीवीकरणम्, अहिविषविशुचिकादिः । बृ० तृ० १४७ अ । शीघ्रकारः, अहिविषविशुचिकादिकः । आव० ६२९ । आसुपन्ने - आशुप्रज्ञः शीघ्रमुचित कर्त्तव्येषु यतितव्यमिति प्रज्ञा - बुद्धिरस्येति । उत्त० २१७ । सततोपयुक्तः । आचा २६८ । आसुर असुर भावनाजनित आसुरः, भवनपतिविशेषस्यायमासुरः । ठाणा० २७४ | कोहो । दश० चू० १२२ । (१५३) - " Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आसुरत्तं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आहया ] आसुरत्तं-आसुरत्वम् , क्रोधभावम् । दश० २३१। आसोकंता-मध्यमप्रामपंचमी मूर्छना। ठाणा० ३९३ । आसुरत्तभावणा-आसुरत्वभावना। उत्त० ७०७ । आसोटे-अश्वत्थः । आचा० ३४८ । -क्रुद्धः । आव० ३८९ । आलोठे-अश्वत्थः, बहुबीजवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आसुरिनामा-कपिलशिष्यः । आव० १७१। . आसोत्थमंथु । आचा० ३४८ । आसुरिपत्तं । नि० चू० द्वि० ६० अ। आस्तिक्यम्-सम्यक्त्वस्य पञ्चमलक्षणम् । आव० ५९१ । आसुरियं-असुरभावम् । प्रश्न. १२१ । अविद्यमानसुर्याम्।। आस्थानमण्डपः - उपस्थानगृहम् । भग० २०० । नंदी उत्त० २७६ । असुराणामियमासुरीया। उत्त० २७६। ... | आसुरी - असुरा-भवनपतिदेवविशेषास्तेषामियं आसुरी । आस्फोटनम्-सकृदीषद्वा स्फोटनम् । दश० १५३ । । बृ० प्र० २१२ आ। आस्या-यत्रास्यते यथासुखेन स्वाध्यायपूर्वकम् । ओघ० ६९ । आसुरुत्ते-आशुरुप्तः, आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोपोदयादिमूढः आस्त्रपः-मूलः । जं. प्र. ४९९।। स्फुरितकोपलिङ्गो वा। भग० ३२२ । आशु-शीघ्रं रुप्तः- आहंसु-आहुः, उक्तवन्तः । भग० ९८ । आख्यातवान् । क्रोधेन विमोहितो यः सः। आसुरोक्त:-आसुरं वा-असुर- प्रश्न. २६। सत्के कोपेन दारुणत्वादुक्तं-भणितं यस्य सः। विपा०५३।। आहश्च-आहत्य, कदाचित् । भग० ३०५, २२ । उत्त. आसुरुत्तः-शीघ्र कोपविमूढवुद्धिः, स्फुरितकोपचिह्नो वा।। १८०, ४८ । प्रज्ञा० ३३३ । बृ० तृ० ११४ आ। कादाभग० १६७ । क्रुद्धः । आव०६५, १५२, ७११ । आशु- चित्कम् । आव० ५३० । सहसा । नि० चू० द्वि० १२० अ। शीघ्रं रुष्ट:-क्रोधेन विमोहितो यः स आशुरुष्टः, आसुरं वा- कदाचित् सान्तरमित्यर्थः । भग. ४१ । उपेत्य स्वतः एव, असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्तं-भणितं यस्य स आसु अत्यर्थ कदाचिया । आचा०५५ । ढौकित्वा। आचा०२७२। रोक्तः । निर० ८। उपेत्य । आचा० ३६२ । सहसा। आचा० ३२२, ३५५ । आसुरे काए - असुराणामयमासुरस्तम् -- असुरसम्बधिनं, कदाचित् अनन्यगत्या। व्य. प्र. ८ आ। आहत्या-आहचीयत इति कायस्तं, निकायमित्यर्थः । उत्त० १८२। असु- ननं प्रहारः। भग. ६७३ । रसम्बन्धिनि काये असुरनिकाये इत्यर्थः । उत्त. २ आसूणि-आशूनिः, श्लाघा। सूत्र. १८० । येन घृतपाना हृत्य, उपेत्य । सूत्र. ३००। गृहीत्वा । आचा. दिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशुनः सन् , आ- २८२, ३४५ । समन्ताच्छूनीभवति-बलवानुपजायते तत् । सूत्र. १८ । आहट्टो-आडम्बरः ( उपाधिः)। आव० ३४१। . आसूणियं-आशनितम् , ईषत्स्थूलीकृतम् । प्रश्न. ४९। । | आहर्ड- आहृतम् , स्वग्रामादेः साध्वर्थमानीतम् । प्रश्न. आसूय-आसूयम् , औपयाचितकम् । पिण्ड० १२०। । | १५४ । साध्वयोग्यमशनादि। दश० २०३। आसेवणसिक्खा - आसेवनशिक्षा, प्रत्युपेक्षमादिक्रियोप- | आहणइ-आहन्ति, समीकरोति । आव० ३८५। देशः। विशे० ९। उत्त० ५४५। शिक्षाद्वितीयभेदः । | आहत्तहिए-सूत्रकृतांगे त्रयोदशाध्ययनम् । सम० ४२ । नंदी २१० । सामाचारीशिक्षणम् । बृ० प्र० ६४ अ । प्रत्यु- आहम्मिए जोगे-वशीकरणादीनि । आव० ६६२ । 'पेक्षणादिक्रियारूपोऽभ्यासः। आव० ८३३। आहयंति-कथयन्ति । नि० चू० प्र० २७७ अ। आसेवियं-स्तोकं आस्वादितं. अनास्वादितं वा। आचा० आहय - आहतं, लक्षणया लिखितम् । जं. प्र. २०३। ३२५ । आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाटयं तेन युक्तं तद्गीतम् । ठाणा० आसो-जात्या आशुगमनशील: अश्वः । जीवा० २८२ ।। ४२१ । आहतं, आख्यानकप्रतिबद्धम् । सूर्य० २६७ । जीवा. मनः । प्रज्ञा० ८८। य एकस्मिन् द्वित्रादीनान् वक्ति | १६२। आव. २९८ । आख्यानकप्रतिबद्धं, आस्फालितं यथा अश्नातीत्यश्वः, आशु धावति न च श्राम्यति । बृ. | वा। औप० ७४ ।। प्र. ३४ अ। चतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५। आहया-आख्यानकप्रतिबद्धानि। राज. १६ । (१५४) 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आहरणं अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः आहारट्ठ ] आहरणं-आ-अभिविधिना हियते प्रतीतौ नीयते अप्रतीतो । आहार - आहार:, भोजनम्, जीवनम् । प्रश्न० १०६ । मनसा sर्थोऽनेनेति । ठाणा ० २५४ | साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकतथाविध पुद्गलोपादानरूपः । भग० ८६ । त्रयोदशशत के प्रदर्शनं दृष्टान्तो वा । आव० ६२ । पंचमोद्देशकः । भग० ५९६ । अष्टाविंशतितममाहारप्रतिपा आहरणतदेसे - आहारणतद्देशः, आहरणार्थस्य देशस्तद्देशः दकत्वादाहारः । प्रज्ञा० ६ । स चासावुपचार।दाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहरणतद्देश इति यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव दाष्टन्तिकार्थस्योपनयनम् क्रियते तत् । ठाणा० २५४ । आहरणतद्दोसे - आहारणतद्दोषः, आहारणस्य सम्बन्धी साक्षात्प्रसङ्गसम्पन्न वा दोषस्तद्दोषः सा चासौ धर्मे धर्मिणः उपचारादाहरणं चेति आहारणस्य दोषो यस्मिंस्तथा यत्साध्यविकलत्वादिदोषदुष्टं तद्दोषाहरणं । ठाणा० २५४ । आहरणा - घोरयति घोरणं करोति । ओघ० ५८ । ज्ञातविशेषः । ठाणा० २५३ । उदाहरणम् । दश० ३५ । आहरे - आहारयेत् व्यवस्थापयेत् । आचा० २९२ । आहठवणी-आथर्वगी, आथर्वगामिवाना सयोऽनर्थकारिणी विद्या । सूत्र० ३१९ । i आहा - आधा । भग० १०२ । साधूनां मनस्याधानम् साधूनाश्रित्य । प्रश्न० १२७ । आधानम्, साधूनिमित्तं चेतसः प्रणिधानम् । पिण्ड० ३५ । अधस्तात् । नि० चू० प्र० २९४ आ । आधीयतेऽस्यामिति । पिण्ड० ३६ । आहाकम्म-आधाकर्म्म, आधाय - निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमप्रकारमपि कर्म बध्यते, शब्दस्पर्शरसरूपगन्धादिकं । कर्मनिमित्तभूता मनोज्ञेतरशब्दाक्ष्य एवाधक | आचा० ९८ । आधानं आधाकरणं तदुपलक्षितं कर्म । यथाकर्म वा तत्तद्गत्यनुरूपचेष्टितं वा । उत्त० १८२ । साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म । भग० १०२ । प्रथम उद्गमदोषः । आधानं आधा तया आधया कर्म-पाकादिक्रिया, आधाय-साधु चेतसि प्रणिधाय यत् क्रियते भक्तादि तत् । पिण्ड० ३४ । चतुर्थशबलदोषः । प्रश्न० १४४ । सम० ३९ । आहाकम्मियं - आधाकर्म, दोषविशेषः । आचा० ३२९ । आहाकम्मे हिं- आधा कर्मभिः, आधान - माधाकरणं आत्मनेतिगम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि तै:- स्वकृ तकर्मभिः । उत्त० २४७ । आहाण आधानम् विधानम् । विशे० ८४७ । 2 2010_05 २९५ १ आहारए - आहारकम्, चतुर्दशपूर्वविदा कार्योत्पत्तौ योगबलेनाहियत इति । प्रज्ञा • २६८ । तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्दशपूर्व विदा योगबलेनाहियत इति । ठाणा ० चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविध प्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते - निर्वर्त्यते इति । जीवा० १४ । प्रज्ञा० ४०९ । तथाविधप्रयोजने चतुर्दशपूर्वविदा यदा हियते -गृह्यते तत् | आह्रियन्ते-गृह्यन्ते केवलिनः समीपे सूक्ष्मजीवादयः पदार्था अनेनेति वा । अनु० १९६ । आहारयति- आहारं गृह्णातीति । नंदी ९० । आहारएसणा-- आहारैषणा । दश० १८ । आहारगं - आहारकम्, तृतीयं शरीरम् । प्रज्ञा० ४६९ । आहारगंगो वंगणाम - आहारकाङ्गोपाङ्गनाम, उपाङ्गनाम प्रज्ञा० ४७० | आहारगत्तं - आहारकत्वं, आहारकशरीर करणलब्धिः । ठागा० ३३२ । आहारगबंधण - आहारकबन्धनम्, बन्धननाम। प्रज्ञा ● ४७० । आहारगमो - आहारगमः, प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमाहारपदोक्तसूत्रपद्धतिः । भग० १०९ । आहारगसंघायणाम - आहारकसङ्घातमाम, यदुदयवशादाहारकशरीररचनाऽनुकारिसङ्घातरूपा जायते तदाहारकसङ्घातनाम । प्रज्ञा० ४७० । आहारगसमुग्धात आहारकसमुद्घातः, आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्रातः । जीवा० १७ । आहार - आहारार्थः, आहारप्रयोजनमाहारार्थित्वम् । भग० २०। आहारलक्षणं प्रयोजनं, आहाराभिलाषो वा । प्रज्ञा • ५००। आहारट्ठी- आहारार्थी, आहारमर्थयंते- प्रार्थयते इत्येवंशीलः, अर्थो वा प्रयोजनमस्यास्तीत्यर्थी, आहारेण भोजनेन अर्धी आहारार्थी, आहारस्य - भोजनस्य वाऽर्थी आहारार्थी । भग० २० । (१५५) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आहारपञ्चक्खाण आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आहिए माहारपश्चक्खाण-आहारप्रत्याख्यानम् , अनेषणीयभक्त- ६। आधारः। भग० ७३८ । फलपत्रकिशलयमूलकन्दपाननिराकरणरूपम् । उत्त० ५८८।.. त्वगादिनिवर्त्यः । आचा० ६०। आहारपदे-प्रज्ञापनाया. अष्टाविंशतितमपदम् । प्रज्ञा० २५।आहारेत्ताइतो-आंहृतवान् । आव० ३०८ ।। नंदी १०५। आहारे भोयणा-आहाराभोगता। प्रज्ञा० ५४३ । आहारपयाई-आहारपदानि, आहारग्रहणविषयकानि पदा- आहारो-आहारः, कूरादि एक चेव खुधं णासेति पाणे तक्कनि। जं. प्र. ४६१। खीरुदगमज्जादि एगंगिया तिसं गासेति, आहारकिच्चं च आहारपरिणा-आहारपरिज्ञा, सूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कंधे करेंति खाइमे एगगिया फलमंसादि आहारकिच्चं च करेंति, तृतीयाध्ययनम् । आव० ६५८। ठाणा० ३८७ । उत्त. साइमेऽवि मधुफाणिय तंबोलादिया एगैगिया खुह णासेति । ६१६ । नि. चू• द्वि० ५. आ। मुक्खत्तो जं किं.चवि भ॑जति सो आहारपर्याप्तिः-यया शक्त्या करणभूतया भुक्तमाहारं खल. सव्वो आहारो। नि. चू.द्वि. ५१ अ। आधार आधेय स्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात । भग ७३९। रसरूपतया करोति सा । बृ० प्र० १८४ आ।शरीरेन्द्रियवाङ्म. नप्राणापानयोग्यदलिकद्रव्याहरणक्रियापरिसमाप्तिः । तत्त्वा० | आहारोवचया-आहारोपचयाः, आहारेणोपचयो येषां ते। आचा० २७५ ८-१२ । आहारपोसहे - आहारपौषधः, आहारनिमित्तं पौषधः, आहार्यः-अभिनयचतुर्थभेदः । ज० प्र० ४१४ । काष्टफल पुस्तमृत्तिकाचर्मादिघटितप्रजननोषिदवाच्य प्रदेशासेवनमित्य. आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना । आव० ८३५। भाहारसण्णा-आहारसज्ञा, आहाराभिलाषः-क्षुद्वेदनी. र्थः । आव० ८२५ । आहार्य अन्धकाररहितत्वं । सम. योदयप्रभव आत्मपरिणामः । आव. ५८.। . १४०। आहालंदिया-कल्पविशेषः। नि० चू० प्र० ३३८ आ। भाहारसन्ना-आहारसज्ञा, क्षुद्वेदनीयोदयाद् या कवला आहावंति-आगच्छन्ति । बृ. द्वि० २१३ अ। द्याहारार्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया सा । प्रज्ञा० २२२ । आहावणा-आभावना, उद्देशः। पिण्ड० ११६ । • क्षुद्वेदनीयोदयात्कावलिकाद्याहारार्थ पुद्गलोपादानक्रियैव आहाविज-आधावेत् । आव० ६३३ । सञ्ज्ञायतेऽनया तद्वानित्याहारसज्ञा । भग० ३१४ । आहासिया-आभासिकनामद्वितीयान्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५०। आहाराभिलाष:-क्षुवेदनीयप्रभवः खलु आत्मपरिणामवि आहिंडाल्ल । ओघ० ९६। शेषः। जीवा० १५.. . . आहिंडओ-आहिण्डकः, दूरदेशविहारकर्ता । आव० ५३६ । आहारवं-आलोइजमाणं जो सभेदं सर्व अवधारति सो। आहिंडगा-विहरंता । नि. चू० प्र० ३१४ अ। नि० चूक तृ० १२८ आ। आलोचितापराधानां अवधारणा आहिंडा-सततं परिभ्रमणशीलाः । बृ० तृ. १८४ आ। वान् । भग० ९२० । .. आहिंडिओ-आहिण्डकः, आहेटकः । आव. ४३२ । आहाराइणियाए - रत्नैः-ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति रानि अगीतार्थः, चक्रस्तूपादिदर्शमप्रवृत्तः। ओघ० ६.। कः-बृहत्पर्यायो यो यो रालिको यथारानिकं तद्भावस्तत्ता | आहिंडितो-आहिण्डिकः । उत्त० १०८।। तया यथारातिकतया-यथाज्येष्ठं । ठाणा.३.१। .... आहिंधइ-परिदधाति । आव० ३६० ।। आहारुद्देस - आहारोद्देशः, प्रज्ञापनाष्टाविंशतितमपदस्यो- आहिअग्गि-आहितामिः, अग्निं गृहीत्वा स्वगृहे स्थापनात् । द्देशकः । भग० २० । आव० ५ १६९। ब्राह्मणः। दश० २५२ । कृतावस्थादिआहारेंति-विशेषाहारापेक्षया सामान्याहारस्याविशिष्टशरीर- ब्राह्मणः । दश. २४५। प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा। सूत्र. बन्धनसमय एव कृतत्वात् । भग० ७६३ । १७८ । भाहारे-आहारः, चरमाचरमपदगतसूत्रम्। प्रज्ञा० २४६। आहिए-आहितः, जनितः । सूत्र. ६९ । प्रथितः, प्रसिद्धि आहारप्रतिपादकं प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमं पदम् । प्रज्ञा० । गतः । सूत्र. ६९ । (१५६) 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आहिजद . अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः . इंगालब्भूया ] आहिजइ-आधीयते, व्यवस्थाप्यते, आख्यायते वा। सूत्र० आहेति-आधाय, कृत्वा । उत्त० २४७। . ३३७ । सम्बध्यते। सूत्र० ३०६ । आख्यायते। सम• आहेवञ्च - आधिपत्यम् , अधिपतिकर्म । भग० १५४ । . अधिपतेः कर्म, रक्षा। जं० प्र० ६३ । जीवा० २१७, १६२ । आहितविशेषम्-आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया ढौकि- आहेवणं-आक्षेपम् , पुरक्षोभादिकरणम् । प्रश्न० ३८ । तविशेषता। एकत्रिंशत्तमवाणीगुणः। सम० ६३। आहोपुरुषिका-आत्मशक्त्याविष्करणम् । सूत्र. ३४५ । आहितुण्डिग-आहितुण्डिकः, गारुडिकः । दश० ३७। आहोहिओ-आधोऽवधिकः, परमावधेरधस्ताद् योऽवधिस्तेन आहितो-आख्यातः, कथितः । सूत्र. ११ यो व्यवहरति सः परिमितक्षेत्रविषयावधिकः । भग. आहित्थं । जीवा० १९४ । आहिये-आहितम् ढौकितम् । सूत्र. ७१ । आत्मनि व्य. आहोहिय-नियतक्षेत्रविषयावधयः । सम० ९६ । वस्थित, आ-समन्तात् हितं वा। सूत्र. ६८ । गृहीतम् । आहोही-यत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः परमावधेर्वाऽधो. आव० ३७७॥ वय॑वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिः । ठाणा० ६१ । आहियग्गी-बंभणो। दश० चू०, १३२ । आह्निका-पिशाचे चतुर्थभेदः । प्रज्ञा० ७० । आहियडमरं-आहितडमरम् , शत्रुकृतविड्वरोऽधिकविड्वरो | आह्रियते-निवर्त्यते। जीवा० १४ । वा। औप० १२ । आहिया-आख्याता । ठाणा० ३९७ । इंखिणिका-कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति । आव० १३० । आहियोग - आभियोगदेवेघूत्पन्ना आदेशवर्तिनः । भग. इंखिणी-विजाभिमंतिया घंटिया कण्णमूले चालिज्जति, १९८ । तत्थ देवता कढिंति कहेंतस्स पसिणापसिणं संभवति स भाहिब्वण-आहित्यम् , अहितत्वं-शत्रुभावम् । प्रश्न ०.३८ । एव इंखिणी भण्णति । नि० चू० द्वि० ८५ अ। निन्दा । सूत्र०६१ आही-आधिः, मनःपीडा। प्रश्न. २५। इंगना-इङ्गना, सञ्ज्ञा । नंदी १५ । । आहुइ-आहुतिः, अग्नौ घृतादिद्रव्य प्रक्षेपरूपा । दश० २४५ । इंगाल-अङ्गारः, दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालः । आचा०४९ । आहुणिए-आधुनिकः । सूर्य. २९४ । अष्टाशीतौ ग्रहेषु चारित्रेन्धनमगारमिव यः करोति भोजनविषयरागाग्निः सोपंचमग्रहनाम । ठाणा० ७८ । जं० प्र० ५३४ । . पुजारः । भग० २९१ । अङ्गाराणामयमाजारः । दश० १६४। आहूणिज-आहवनीयं-सम्प्रदानभूतम् । औप० ५। ज्वालारहितोऽग्निः । दश० १५४, २२८ । महाग्रहविशेषः । आहुणिय-आधूय । आव० १२१ ।। भग० ५०५। निचलितेन्धनम् । भग० २१३ । विगतआहुस्स-आहोतुः, दातुः । औप० ५। धूमः । प्रज्ञा० २९। निर्धूमाग्निः । जीवा. १०७ । विगतआहूप-संहृतः । आचा० ४२१ । धूमवालो जाज्वल्यमानः खदिरादिः। जीवा० २८ । आहूतो-उत्पन्नः । आव० ३४३ । लग्नः, उत्पन्नः । उत्त. अङ्गारः । आव. ४२२, ३१३ । रागो। नि. चू० तृ. १४८ । ४९ अ। जालारहितो वहिः, अग्नेस्तृतीयभेदः । पिण्ड ० आहूय - आहृतम्-आह्वानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोष १५२ । मात्रमन्नं ग्राह्य इत्यरुपम् , कर्मकराधाकारण वा साध्वर्थ इंगालए - अङ्गारकः, अटाशीतितममहाग्रहविशेषः। सूर्य स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सः, स्पर्धा वा। भग० २९४ । महाग्रहविशेषः। जं. प्र. ५३४ । ठाणा० ७८ । . २९३ । भग० २९४ । | इंगालकहिणि-ईषद्वङ्कामा लोहमययष्टिः । भग० ६९७ । आहेडगो-मिगव्वं । नि० चू० द्वि० १३६ आ। इंगालकम्म - अङ्गारकर्म, अङ्गारकरणविक्रय किया । आहेणं - जमन्नगिहातो आणिज्जति तं अहवा जं वहुगिहातो आव० ८२९ । वरगिह णिजति तं । नि० चू० दि. २२ अ । यद्विवाहोत्तर- इंगालदाहओ-अङ्गगारदाहकः । आव० १५१ । काले वधू वेशे वरगृहे भोजनं क्रियते। आचा० ३३४।। इंगालब्भूया-अङ्गारराशिना भूता। भग. १६६ । (१५७) 2010_05 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इंगालवडेंसए इंगालवर्डेसए - अङ्गारावतंसकं ज्योतिषविमानविशेषः । | भग० ५०५ । इंगालसोल्लियं-अङ्गारैरिव पक्कम् । भग० ५१९ । औप० ९१ । निर० २६ आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः इंगाला - अधिणाणि जाला । नि० चू० प्र० ५२ आ । इंगिअ-इङ्गितम्, अन्यथा प्रवृत्तिलक्षणम्, निष्ठीवनादिलक्षणम् । दश० २५२ । नयनादिचेष्टया । जं० प्र० २२३ । इंगिण - इङ्गिनी, अनशन विशेषः । आव ० ६७० ॥ इंगिणिमरणे - इङ्गिनी मरणम्, प्रतिनियऩदेश एव चेष्टयतेऽस्यामनशनक्रियायाम्, सप्तदशमरणे षोडशः । सम० ३३ । इङ्गिते प्रदेशे मरणं इङ्गितमरणम्। आचा० २६२। “ इंगियदेसंमि सयं चउव्विहाहारचायनिप्पन्नं । उव्वत्तणाइजुत्तं नऽण्णेण उ इंगिणीमरणं ” । ठाणा० ९६ । यावत्कथिकानशन द्वितीयभेदः । ठाणा० ३६४ । इंगिणी - इंङ्गिनीमरणम्, मरणस्य षोडशो भेदः । उत्त० २३० । इङ्गिनी, इयते - प्रतिनियत प्रदेश एव चेष्टते अस्यामनशनक्रियायामिति । उत्त० २३५ । सम० ३५ । विशे० १० । इंगित - सूक्ष्मबुद्धिगम्यचेष्टा । ठाणा० ४ सूक्ष्मचेष्टा विशेषः । बृ० प्र० ४३ अ । इंगिनीमरणं - उक्तन्यायतः प्रतिपद्य शुद्धस्थण्डिलस्थाता एकाक्येव कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानस्तत्स्थंडिलस्यान्तश्छायात उष्णमुष्णाच्च छायां स्वयं संक्रामति । उत्त० ६०२ । नियत प्रदेश स्थायित्वेऽशनादित्यागः । आव० ५६३ । इंगियं - इङ्गितम्, ज्ञानविशेषः । आव० ७२४ । नयनादिचेष्टाविशेषः । निर० ८ । ज्ञाता० ४१ । निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचक मीषद्भूशिरःकम्पादि । उत्त० ४४ । अंगभंगादि । उत्त० ६२६ | इंगिय पत्थिय - चेष्टितप्रार्थितः । ( २० ) । इंगियमरणं - इंगितमरणम्, इंगिते प्रदेशे मरणम् । दश० २७ । इंगियागार कुसलो - इंगिताकारकुशलः | आव० ५६ । इंगियागार संपन्ने -- इंगिताकारसम्प्रज्ञः, इंगित - निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकं, आकार :- स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि भावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः द्वन्द्वे इंगिताकारौ, तौ अर्थाद्गुरुगतौ सम्यक् प्रकर्षेण जानातीति । उत्त० ४४ । | 2010_05 इंदजसा ] इंगिताकारसम्पन्नः - इंगिताकाराभ्यां गुरुगतभा व परिज्ञानमेवोक्तं तेन सम्पन्न: - युक्तः । उत्त० ४४ । इंग्यते - प्रतिनियत देश एव चेष्टयते । सम० ३५ । इंतं - आयान्तम् । उत्त० ३२५, १३९ । इंती - एंति - आगच्छन्ति । ओघ० ७८ । इंतो- आयान्, आगच्छन् । दश० ३७ । आव० ८०१ । बृ० तृ० १७९ अ । इंदं - एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम् । सम० ३७ । इंद-इन्द्रः, सप्तमदिनस्य सैद्धान्तिकं नाम । सूर्य० १४७ । ऐन्द्री - पूर्वदिक् सैद्धान्तिक नाम | ठाणा ० १३३ । इंदकाइया - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । त्रीन्द्रियजन्तु विशेषः । जीवा० ३२। इंदकील - इन्द्रकीलः, गोपुरे कीलविशेषः । जीवा० ३५९, २०४ | गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम् । जं० प्र० ४८ । गोपुरावयवविशेषः । औप० ३। गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम् । भग० १७५ । पुरमध्यस्थम् । नंदी १५० । इंदकुंभ - कुम्भाना मिन्द्रः - विजय देवाभिषेककलशाः । जं० प्र० ५० । इंदकुंभसमाणो - - इन्द्र कुम्भसमानः, महाकुम्भप्रमाणकुम्भसदृशः । जीवा ० ३६० । इंदकुमारिया-इन्द्रकुमारिका । आव० ४३४ । इंदकेऊ- इन्द्रकेतुः, लोकमहनीयो ध्वजविशेषः । उत्त० ३०३। इंदकेतू - इन्द्रकेतुः रश्मिनियन्त्रिते वेन्द्रयष्टिः । प्रश्न० १३४ । इंदखीलो-इन्द्रकील: । आव० ४१७ । इंदगाइ-त्रीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६९५ । इंदगाह - इन्द्रग्रहः, उन्मत्तताहेतुः । भग० १९८ । इंदगोवए - इन्द्रगोपकः प्रावृट् प्रथमसमयभावी की विशेषः । प्रज्ञा० ३६१ । इंदगोवया - इन्द्रगोपकः, त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । इंदगोवसमाइय-त्रीन्द्रियजीव मेदः । उत्त० ६९५ । इंदगोवेइ-इन्द्रगोपकः, प्राकालभावी कीटविशेषः । जं० प्र० ३४ | आचा० ३७६ | इंदग्गहो - इन्द्रग्रहः । जीवा० २८ । इंदग्गी-इन्द्राग्निः, ग्रहविशेषः । ठाणा ० ७९ । जं० प्र० ५३५ । इंदजसा - इन्द्रयशा, ब्रह्मराजराज्ञी । उत्त० ३७७। (१५८) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इंदजालिओ इंदजालिओ - इन्द्रजालिकः - भूतिलाभिधः । आव० २१९ । इंदज्झओ - इन्द्रध्वजः शेषश्वजापेक्षयाऽतिमहत्त्वादिन्द्रश्वासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचको ध्वज इति वा । सम० ६१। अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः इंदाणे - इन्द्रस्थानम्, यत्रेन्द्रयष्टिरुद्र्वीक्रियते । अन्त २३ । इंदागो - इन्द्रनागः, येन बालतपसा सामायिकं लब्धम् । आव ३५३ । वसन्तपुरे दारको य एकपिण्डिको जातः । आव० ३५२ । । इंद्रदत्त - इन्द्रदत्तः, अभिनन्दन जिन प्रथमभिक्षादाता । आव० १४७। सम० १५१ । इन्द्रपुरनगरनृपतिः । विपा० २२। व्य० द्वि० १५१ अ । व्य० द्वि० १७० आ । तितिक्षोदाहरणे इन्द्रपुरनगरनरेश: । आव ० ७०२ । मथुराक्षाद्धः पादच्छेदकः । ( मर० ) । वासुपूज्यपूर्वभवः । सम० १५१ । इन्द्रपुरे राजा। आव० ३४३ | मथुरायां पुरोहित विशेषः उत्त० १२५ । श्रावस्त्यां कपिलशिक्षको ब्राह्मणः । उत्त २८६, २८७ । इन्द्रपुरनृपतिः । उत्त० १४८ । इंदधणु-इन्द्रधनुः । जीवा० २८३ | विविधवर्णमभ्रमण्डले जायमानं तेजोमण्डलम् । भग० १९५ । इंदनीले - इन्द्रनीलः, रत्नविशेषः । प्रज्ञा० २७ । पृथिवीभेदः । आचा० २९ । मणिभेदः । उत्त० ६८९ । इंदपयपव्वतो गजाग्रपदपर्वतापरनामा पर्वतः, षदिग्क्षेत्रावग्रहस्थानम् । नि० चू० प्र० ३४१ अ । इंदपाउया- इन्द्रपादुका, इन्द्रकुमारी आव० ४३७ । इंदपुरं - इन्द्रपुरम्, नगरविशेषः । उत्त० ३८० । इन्द्रदत्त राजधानी । उत्त० १४८ । तितिक्षोदाहरणे नगर विशेषः । आव० ७०२ । नगरविशेषः । विपा० ५४, ९५ । इन्द्रदत्तराजधानी । विपा० ८८ । नगरविशेषः । आव० ३४३ । व्य० द्वि० १५१ अ, १७० आ । इंदभूई-इन्द्रभूतिः, प्रथमगणधरः । आव० २४० । श्रीवीर प्रथम गणधरः । सम० १५२ । इंदियत्था ] महावीरस्वामिनो गौतमगोत्रो ज्येष्ठः शिष्यः । भग० २०६ ॥ इंदमह - इन्द्रमहः, इन्द्रोत्सवः । उत्त० २११ । अश्वयुक्पौर्णमासी । ठाणा० २१४ । लौकिकमहोत्सवः । आव ० ३५८ | उत्सवविशेषः । आव ० ६९२ । आचा० ३२८ । यदश्वयुक्पूर्णिमायां भवति कार्त्तिके वा। आव ० ७३६ । इन्द्रोत्सवः । आव ० ३५८ | इन्द्रस्य - शक्रस्य महः -प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः । जीवा० २८१ । इंदमुद्धाभिसित्ते - इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्तः, सप्तमदिनस्य सैद्धान्ति कनाम जं० प्र० ४९० । ईदसम्मो - इन्द्रशर्मा, गृहपतिविशेषः । आव० १९४ । प्रति 2010_05 चरकः । आव १९० । इंदसिरी - इन्द्रश्रीः, ब्रह्मराजराज्ञी | उत्त० ३७७। इंद सेणा रक्तवतीसंगमिका नदी । ठाणा० ४७९ । इंदा- ऐन्द्री, पूर्वदिक् । आव० २१५ | भग० ४९३ । नागकुमारेन्द्रस्य पञ्चमाग्रमहिषी । भग ५०४ । पञ्चमविद्युकुमारी महत्तरिका | ठाणा० ३६१ । रक्तवतीसंगमिका नदी । ठाणा० ४७७ ॥ इंद्रासणि- इन्द्राशनिः इन्द्रवज्रम् । उत्त० ४७५ । इंदियं - इन्द्रियं प्रज्ञापनायाः पञ्चदशं पदम् । प्रज्ञा० ६ । इन्दनादिन्द्रः - जीवः, सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं जुष्टं दत्तमिति वा, श्रोत्रादि । ठागा ० ३३४ । औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्व लक्षणधर्मद्वयोपेतम् । ठाणा० ३५६ । इन्द्र लिंगदृष्टदिष्टादिरूपम् । तत्त्वा० २-१५ । इंदियउद्देसए प्रज्ञापनायाः पंचदशपदस्य प्रथमोद्देशकः । भग० ४४०, ७७७, १३१ । प्रज्ञा० ५४५ । इंदियकरणं-इन्द्रियकरणम् इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां करणं अवस्थान्तरापादनम् । उत्त० १९८ । इंदियत्थ - औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं अर्थः- विषयों जीवादिः । ठाणा० ३५६ । इंदियत्थविकोवणयाते - इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकारः । ठाणा० ४४७ । इंदिया - इन्द्रियार्थाः इन्द्रियैरर्यन्ते - अधिगम्यन्त इति इन्द्रियार्थाः - शब्दादयः । ठाणा० २५३ । इन्द्रियाणामर्था:तद्विषयाः शब्दादयः । टणा० ३३५ । इंदभूती - इन्द्रभूतिः इति मातृपितृकृतनामधेयः महावीरस्वामिनः प्रथम शिष्यः । भग० ११। महावीरस्वामिनो ज्येष्टः शिष्यः । भग० १३९ । श्रीमहावीर प्रथम गणधरः । सूत्र ० ४०७ । रविप्रश्ननिर्णये चम्पानगर्यां पुण्यभद्रचैत्ये । (१५९) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [इदियनिग्गहो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः इक्खागा] इंदियनिग्गहो - इन्द्रियनिग्रहः, इन्द्रियाणां - श्रोतादीनां । ३३४ । परमैश्वर्ययोगात्प्रभुमहान् । ठाणा० १९८ । भवननिग्रहः-इष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणं, पञ्चैतेऽनगारगुणाः। वास्यायधिपाः। तत्त्वा० ४-४ । आव० ६६०। इंदोकतं-एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम्। सम. इदियपञ्चक्खे - इन्द्रिय-श्रोत्रादि तन्निमित्त-सहकारिकारणं | ३७ । यस्योत्पित्सोस्तदलिंगिक · शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयज्ञान- इंधणपलिआमं - जहा कोद्दवपलालेणं अंबगादि फलाणि मिन्द्रियप्रत्यक्षम् । अनु० २११ । वेढेत्ता पाविज्जति आदिग्गहणणं सालिपलालेण वितत्थ इंदियपजत्ति-इन्द्रियपर्याप्तिः-यया धातुरूपतया परिणमिता- | जे ण पका फला ते इंधणपलियामं भण्णति । नि. चू० दाहारादिन्द्रियप्रायोग्यद्रव्याण्युपादायैकद्वित्र्यादीन्द्रियरूपतया द्वि० १५२ आ। परिणमय्य स्पर्शादिविषयपरिज्ञानसमर्थो भवति सा। बृ० इंधणपलियामं-इंधनपर्यायाम-कोद्रवपलालादिना वेष्टयिप्र. १८४ आ। त्वा पाच्यानि फलानि। बृ० प्र० १४२ आ। . इंदियपडिपुण्णो-नोविगलिंदियो। नि० चू० प्र० २६६ आ। इंधणसाला-जत्थ तणाकरिसभारा अच्छंति । नि. चू० इंदियबलं-इन्द्रियबलम् , चक्षुरादीन्द्रियाणां बलं-स्वस्ववि पनि तृ०२१ आ। तृणकरीषकचवरस्थानम् । बृ० द्वि० १७५ अ। षयग्रहणपाटवम् । जीवा० २६८ । इइकट्ट-इतिकृत्वा, निश्चित्य । जं० प्र० ३८६ । इतिकृत्वाइदियमुंडा-न जितेन्द्रियाः। नि० चू० द्वि० ३७ अ। यस्मात् कारणात् । अनु० १६ । इंदियलद्धी-इन्द्रियलब्धिः, पञ्चेन्द्रियप्राप्तिः । उत्त० १४५। इइकम्म-इतिकर्म, इति-सांसारिक दुःख कर्म-अष्टप्रकारइन्द्रियाणाम्-स्पर्शादीनां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूताना कर्मकृतम् । आचा० १४५ । मेकेन्द्रियादिजातिनामकर्मोदयनियमितकमाणां पर्याप्तकनाम: इइहास-इतिहासः-पुराणम् । औप० ९३ । भग० ११२ । निर० २३। कर्मादिसामर्थ्य सिद्धानां द्रव्यभावरूपाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिः । भग० ३५० । इक-देशीवचनम् । विशे० १३१४ । इकडं-कठिनं तृणविशेषः । बृ० तृ. ५२ आ। ढंढणसदृश इंदियलाघवं - इंद्रियलाघवं, इंद्रियाणि तस्य वशे वर्तते । तृणविशेषम् । प्रश्न. १२८ । तृणविशेषः । भग० ८०२। व्य. द्वि० १०२ आ। इंदियाई-इन्द्रियाणि-नयननासिकादीनि । उत्त० ४२५ । इकडदासो-इक्कडदासः। उत्त० २८६ । | इकडा-लाडदेसे वणस्सतिभेओ। नि० चू०प्र० १३४ आ। इंदियाईणं-इन्द्रियादीनाम् , पृथ्व्यायेकेन्द्रियाणाम् । विशे० वनस्पतिविशेषाः। सूत्र. ३०७ । ईदियाणि-इन्द्रियाणि-नयननाशावंशादीनि। सम० १६ । इक्कमिक्क-एकैकम-परस्परम् । उत्त० ३८२ । इंदीवर-हरितविशेषः। प्रज्ञा० ३३ । इक्काई-राष्ट्रकूटविशेषः । विपा० ३९ । इक्कारसालंकारं - एकादशालङ्काराः, स्वरप्रभृतकथितालंइंदुत्तरवळिसगं-एकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकं विमानम्। काराः । जं० प्र० ३९ । सम० ३७। इकखाग-इक्ष्वाकुः, कुलविशेषः । आव. १७९ । इदुवसु-इन्दुवसुः, ब्रह्मराजराज्ञी । उत्त० ३७७ । इकखागकुलो-इक्ष्वाकुकुलः, कुलविशेषः । नि. चू० प्र० ईद-इन्द्रः । ठाणा० २९२। मल्लिनाथप्रथमशिष्यः। सम. २९० अ। आव. १०९ । १५२ । इक्खागभूमि-इक्ष्वाकुभूमिः, ऋषभजन्मभूमिः । आव. इंदो-इन्द्रः, अधिपतिः। प्रज्ञा० १०५। इन्दनाद्-इन्द्रः- १६.। आत्मा। प्रज्ञा० २८५। जीवा० १६। इन्दनात्-इन्द्रः, इखागा-इक्ष्वाकवः, नामेयवंशजाः । भग० ४८१ । औप. सर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यसम्बन्धाज्जीवः। आव. ३९८।। ५८ । कुलार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । प्रथम प्रजापतिवंशजाः । जीवः-सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् । ठाणा० । ठाणा० ३५८ । ऋषभस्वामिवंशिकाः । आचा० ३२७ । (१६०) 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इक्खु अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः इट्ठगा ] इखु-इक्षुः । भग० ३०६ । दश० १८३ । इच्छाणुलोमियं-इच्छा-चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोमम्इक्खुगारा-इषुकाराः, धातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्द्धयोः भेद- अनुकूलं तत्र भवमैच्छानुलोमिकम् । ठाणा० १७५ । कारिणो दक्षिणोत्तरायताः पर्वतविशेषाः। प्रश्न. ९५। इच्छापरिमाणं-इच्छायाः परिमाणम्। आव० ८२५ इक्खुवाडिया-ईश्वादीनां मूलवर्गः ( वंशवर्गवत् )। भग० इच्छापुन्निमा-इच्छापूर्णिमा । सूर्य० ११५ । इच्छामणं- इच्छामनः, कायपरिचारेच्छाप्रधानं मनः । इक्खुवाडि-पर्वगविशेषाः । प्रज्ञा० ३३ । ___ प्रज्ञा० ५४९। इक्षु-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३० । इच्छामुच्छा - इच्छामूर्छा, इच्छा-परधनं प्रत्यभिलाषः इक्षुरसा- वापीनाम, पंडकवन आग्नेयप्रासादवापिका । जं० | मूर्छा-तत्रैव गाढाभिष्वङ्गरूपेति, तृतीयाधर्मद्वारस्य सप्त विंशतितमं नाम। प्रश्न. ४३। प्र० ३७१। इक्षुवरः-घृतोदसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं समुद्रोऽपि । इच्छालोभ-इच्छारूपो लोभः इच्छालोभः-चक्रवर्तीन्द्रत्वा द्यभिलाषादिको निदानविशेषः । आचा० २९५ । महालोमः । प्रज्ञा० ३०७॥ इगं-इकम् , देशीपदम् । आव० ४७४ । बृ० तृ. २४६ अ। ठाणा० ३७४। इच्छं-इच्छामि। आव० २६५ । इच्छियं- इष्टम्-ईप्सितम्। भग० १२१ इच्छितं-इष्टइच्छया-बलाभियोगमन्तरेण। ठाणा. ५००। | अनुमतम्। उत्त० ५०३। इच्छाविषयीकृतम्। जीवा० इच्छसि-मृगयसे। आचा० १६८ । इच्छियपडिच्छियं - इष्ट प्रतीप्सितम् , युगपदिच्छा प्रतीप्साइच्छा-इच्छा, बलाभियोगः । ठाणा० । ४९९ । इच्छा विषयं वा। भग० १२१ । इच्छाया अवग्रहो नाम इच्छिप्रार्थना कामोऽभिलाषः कांक्षा गाय मूर्छा। तत्त्वा०७-१२। तप्रतीच्छितेन इच्छा संजाताऽस्येति इच्छितं, प्रतीच्छा संजाएकादशीरात्रिनाम। जं० प्र० ४९१। सूर्य० १४७ । ताऽस्येति प्रतीच्छितं, इच्छितं च तत् प्रतीच्छितं च इच्छिधनादिविषयाभिलाषः । टाणा. १९१। चेतः प्रवृत्तिरभि तप्रतीच्छितम् । व्य० द्वि० ९३ अ। प्रायः । आचा० १७५ । अभिलाषमात्रम् । प्रश्न. ९७। इच्छियपडिच्छियववहारो- इच्छितप्रतीच्छितव्यवहारः, अप्राप्ताभिलाषरूपा। प्रश्न. ९२ । वन्दनके प्रथम स्था ईप्सितप्रतीप्सितव्यवहारः। आव० १००। नम् । आव० ५४८ ।। इज्जंजलि-इज्याञ्जलिः, यागविषयो जलाञ्जलिः । अनु० २९ । इच्छाकामा-इच्छाकामाः, एषगमिच्छा सैव चित्ताभिलाष मातुनमस्कारविधौ तद्भक्तः क्रियमाण: करकुडमलमीलनल. रूपत्वात्कामा इति। दश० ८५। मोहनीयभेदहास्यरत्यु क्षणोऽञ्जलिः । अनु. २९ । पूजायामञ्जलिः । अनु. २९ । द्भवाः। आचा० १३५। इजंत-एजंत-आयान्तमागच्छन्तम्। उत्त० ३५८ । इच्छाकार-इदं मदीयं कार्यमिच्छया कुरुत न बलाभि इज-इज्या, पूजा। उत्त० ५३१। यजनम् । उत्त० ३५८ । योगेनेत्येवमिच्छया करणम् । बृ० प्र० २२२ अ। आज्ञाबला यजन-यागः । अनु० २९ । माता। अनु. २९ । पूजाभियोगरहितो व्यापारः । अनु. १०३ । दशविधसामाचार्याः गायत्र्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां सन्ध्याऽर्चनम् । अनु० २९। प्रथमभेदः। भग० ९२०। बलाभियोगमन्तरेण करणं इजिसिया- इज्यैषिकाः, इज्यां-पूजामिच्छन्त्येषयन्ति वा इच्छाकारः-इच्छाक्रिया। आव० २५८ । ये त एव। भग० ४८२ । इच्छाणलोमा-यथा कश्चित्किञ्चित्कार्यमारभमाणः कञ्चन इद्रग-सेवकिका, मानोत्पत्तिकारणम् । पिण्ड० १३३ । पृच्छति, स प्राह-करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रतमित्येवं. | इट्टाल-इष्टिकाखण्डः । दश० १७५। नि० चू० तृ० ७४ आ। रूपा भाषा। प्रज्ञा० २५६ । प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनु- इंट्रं-इष्टम् । आव २४० । वल्लभः-पूजितः । भग० ५६० । लोमा-तदनुकूला। भग० ५००। असत्याभूषाभाषाभेदः।। इट्टगा-(क्षणविशेषः) इट्ठगा सुत्ताउला (सेवतिका)। नि. दश० २१०। | चू० द्वि० १०० आ। (१६१) 2010_05 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तरियं दिसं ] शय्यातरः । व्य० द्वि० २७६ अ । अन्तप्रान्तः कुलः । आचा० २४३ । इता - ज्ञाता । आचा० २८६ । इडुरग - इडरकं महत् पिटकम् । राज० १४१ । इडुरिकादिः - पर्युषितकलनीकृताः अम्लरसा भवन्ति, आर- इति - इतिः - प्रवृत्तिः । ठाणा० ३४३ । उपदर्शने । सूर्य • नालस्थिताम्र फलादिर्वा । ठाणा० २२० । इडि ऋद्धि: - आम षध्यादिः । दश० १०३ । भवनपरिवा रादिका । जं० प्र० ६२ । उत्त० ३५० । आव ० १७८ । ठागा० १३२ । इड्डिपत्ता - ऋद्धिप्राप्ता आर्याः । प्रज्ञा० ५५ । ऋद्धि प्राप्ताआर्यप्रथमभेदः, अर्हदादयः । सम० १३५ । २८६। प्रज्ञा० २५५। परिसमाप्तौ एवमर्थे वा । उत्त० ६७ । उपप्रदर्शनार्थः । विशे० १५३ । एवंप्रकारार्थः । ठाणा० ५०३ । पूर्वप्रकान्तपरामर्शकः । आचा० १४५ । इतिसदो वा अर्थे । नि० चू० द्वि० १३७ आ । आमंतणे परिसमत्तीए उवप्पदरिसणे वा । दश० चू० ६३ । हेतौ । आचा । १०० । उपप्रदर्शने । उत्त० ५७० । दश० ७६ । आद्यर्थः । उत्त० ५६१ । प्रत्येकं पर्यायस्वरूपनिर्देशार्थः । उत्त० ८। आद्यर्थे । आव ० २८ । प्रख्यातगुणानुवादनार्थः । भग० ६७ । एवंप्रकाराः । ठाणा ३५४ । इतिकत्तव्यं - इतिकर्त्तव्यं । आव० २१३ । इतिकर्तव्यताआदर्शनिक्षेपे संपूर्ण कर्तव्यतार्थः । आचा० ५। इडिमं - इस्सरो । नि० चू० द्वि० १६६ आ । इड्डिमत - ऋद्धिमतः - विस्मयनीयवर्णादिसम्पत्तिमतः । उत्त० ४७३ । इडिसिय- रूढिगम्याः । भग० ४८१ । [ इडर इडुर- गन्त्रीढञ्चनकम् | भग० ३१३ । गन्ध्याः सम्बन्धि । आंघ० १६६, १६७ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः इड्डी - ऋद्धिः । प्रज्ञा० ४२४ । इहसरियं । नि० चू० प्र० १३ आ । आत्मशक्तिरूपा । प्रज्ञा० ४६७। भवन परिवारादिका । जीवा० २१७ । विभवैश्वर्यः । जीवा ० २८० । विमानपरिवारादिका । सूर्य • २५८ । ठाणा० ११६ । औषधिविशेषः । उत्त० ४८० । कनकादिसमुदायः । उत्त पौषध्यादिः । आचा० १७८ । विमानवस्त्रभूषणादि । उपा० २६ । दीनानाथदानादिका विभूतिः । उत्त० ४६५ । श्राव इत्तरकं - इत्वरकम् स्वल्पकालं, नियतकालावधिकं । उत्त० कोपकरणादिसम्पदामषैषध्यादिरूपा । उत्त० ६६८ । इत्तरं - इत्वरम् - अल्पकालीनम् । विशे० २४ । स्वल्पः । नि० चू० प्र० १८९ अ । परिमितकालम् । दश० २६ । चतुर्थादि षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्य । ठाणा० ३६४ । पादपोपगमनापेक्षया नियत देशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितमरणम्। आचा० २८५ । २८४ । आम. ६०० । इडीगारवं - ऋद्धिगौरवम्, ऋद्धया- नरेन्द्रादिपूज्याचार्या दिश्वाभिलाषलक्षणया गौरवं - ऋद्धिप्राप्तयामिमानाप्राप्तिसम्प्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवम् । आव ० ५७९ । ऋद्धया- नरेन्द्रादिपूजालक्षगया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभिमानादिद्वारेण गौरवम्, ऋद्धिप्राप्यभिमानाप्राप्त प्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवम् । ठाणा० १७३ । इणं - अयम्, अनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षः । भग० ३४ । इणमो - इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्नम् । प्रश्न २ | नमः । पउ० ६-६३ । इणामेव एवमेव । प्रज्ञा० ६०० । इह - इदानीम् । आव २०७३ । इतः स्थितः । २६९ । इतर - सामान्य साधुभ्यो विशिष्टतरः । आचा० 2010_05 २४३ । इत्तरकालिकं प्रथम पश्चिमतीर्थकर तीर्थेष्वना रोपितव्रतस्य इत्वरकालिकम् । ठाणा ० ३२३ । अल्पकालिकम् । भग० ९०९ । इतरा - इत्वरा, ये कल्पसमाप्त्यनन्तरं तमेव कल्पं गच्छे वा समुपयास्यन्ति ते इत्वराः । प्रज्ञा० ६८ । स्वल्पकालभाविनी । अनु० १३ । प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ ये भूयः स्थविरकल्प प्रतिपद्यन्ते ते । बृ० प्र० २२७ आ । इत्तरिए - अल्पकालीनं । भग ९२१ । नि० चू० प्र० २३९ अ । इत्तरियं - इत्वरम् - स्वल्पकालभावीनि आव० ८३८ । उत्तरगुणप्रत्याख्यानम् । आव० ८०४ । अल्पकालिकं दैवसिकादि प्रतिक्रमणमेव । आव० ५६३ । इत्तरियं दिसं - इत्वरं दिशम् - आचार्यलक्षणाम् । व्य० द्वि० २०० अ । (१६२) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इत्तरिय अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिकी ] इस्तरिय - इत्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थ - इत्थिवेय-स्त्रीवेदः, स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः । जीवा० १८ । नारोपितमहाव्रतस्य शैक्षकस्य विज्ञेयम् । प्रज्ञा० ६३ । इत्थिसंसग्गी-अक्खा इगउल्लावादि । दश० चू० १२७ । अयनशीलम्-स्वल्पकालभावी । उत्त० ३३५ । इत्वराः - इत्थिसंसत्तो -स्त्रीसंसक्तः - स्त्रीसम्बन्धः । प्रश्न० १३८ । प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ ये भूयः स्थविरकल्पं प्रतिपद्यन्ते इत्थि सागारिए - बीजनः । नि० चू० तृ० १० अ । ते । बृ० प्र० २२७ आ । इत्थिलगारियं । नि० चू० द्वि० ३४ अ । इत्तरियतवो इत्वरतपः स्वल्पकालं अनशनरूपं तपः । इत्थी - स्त्री, पुरुषोत्तमवासुदेवनिदानकारणम् । आव० १६३ । इत्थीउ - स्त्रियः, अष्टमः परीषहः । आव० ६५६ । इत्थीणपुंसिया - इत्थिवेो वि से नपुंसकवेदमपि वेदेति । नि० चू० द्वि० २५ आ । इत्थी नामगोतं-स्त्रीनामगोत्रम् | आव इत्थtovers - स्त्री उपलक्षणमेतत् पुरुषो वा प्रस्तौति प्रस्यंदते मिथुन कर्म समारभते इत्यर्थः । व्य० द्वि० १९५ आ । इत्थीपरिण्णा - स्त्रीपरीज्ञाध्ययनम्, सूत्रकृताङ्गे प्रथम श्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्ययनम् । सम० ३१। . १२० । इत्थी सुविवज्जिअं- स्त्रीपशुविवर्जितमित्येकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जित ख्याद्यालोकनादिरहितम् । उत्त० ६०० । इत्तरियपरिग्गहियागमणे- तत्रेत्वरकालपरिगृहीता कालशब्दलोपादित् इत्वरपरिगृहीतागमनम् भाटीप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिकं स्ववशीकृताया गमनं -मैथुनासेवनम् । आव ० ८२५ । इतिरिउग्गहो - रुक्खातिहेकठिताण वीसमणद्वा इत्तरिओ उग्गहो भवति । नि० चू० प्र० २३९ आ । इत्तिरियं - इत्वरं स्वल्पकालिकं दैवसिकरात्रिकादि ठाणा० ३८० । नि० चू० प्र० ३५४ आ । इत्थंथं - इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं । प्रज्ञा० १०९ । नारकादिव्यपदेशचीजं वर्णसंस्थानादि तत् । दश० २५८ । इत्थतं - अनेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं, मनुष्यादित्वम् । भग० १११ । इत्थत्थं - इत्यर्थम् एनमर्थम् - अनेकशस्तिर्यङ्नर नाकिनारकग , तिगमनलक्षणम् । भग० १११ । इत्थकहा- स्त्रीकथा - स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा, विकथायाश्चतुर्थभेदः । ठाणा० २०९ । दश० ११४ । इत्थिपोसर - स्त्रीयं पोषयतीति स्त्रीपोषकः, अनुष्ठान विशेषः । सूत्र० १११ । इत्थिरयणे - स्त्रीरत्नम्, चक्रवत्तैः पञ्चमं पञ्चेन्द्रियरत्नम् । ठाणा ० ३९८ । इत्थिलिंग - स्त्रीलिङ्गम्, स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः । प्रज्ञा० २०॥ इत्थिवऊ - स्त्रीवाक्, स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा । प्रज्ञा० २४९ । इत्थिar - स्त्रीवेद:, स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाषः । प्रज्ञा ० ४६८ । इत्थवेदो अंतो अणुसमय डाहो अगुवसंतो वि घट्टिज माण दिप्तो फुंफुअग्गिसमाणो इत्थिवेो । नि० चू० द्वि० ३१ अ । 2010_05 दश० २३७ । इत्थीरूवं - अणाभरणा इत्थीरूवं भण्णति । नि० चू० प्र० ७७ अ । इत्थीविग्गह- स्त्रीविग्रहः, स्त्रीशरीरम् । दश० - २३७ । इत्थीविपरियासो- स्त्रिया विपर्यासः स्त्रीविपर्यासः - अब्रह्मासेवनम् । आव० ५७५ । इत्थीवेदे - स्त्रीवेदः, स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्संबन्धविपाकतच वेदयति-ज्ञापयतीति, वैशिकादिकं स्त्रीस्वभावाविभावकं शास्त्रमिति । सूत्र० ११२ । इदुर सम्बादिचनकादि तदिदूरम् । अनु० १५१ । इद्धं चित्तं नि० ० ० ३६ अ । इन्द्रकूपः - उंडतमः कूपविशेषः । आव० ८२७ । इन्द्रजालम्- कुहकम्। दश० २५४ । इन्द्रनील: - रत्नविशेषः । जीवा० २३ । आव ० १८१, २५९ । प्रज्ञा० ९१। इन्द्रियगोचरा - विषयाः । आव० ५८४ । इन्द्रियदुष्प्रणिहितकायिका - आयेन्द्रियैः श्रोतादिभिर्दुष्प्रमिहितस्य इष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक्सङ्ग निर्वेदद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य क्रिया । आव० ६११ । (१६३) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इन्द्रियार्थावग्रहः आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः इलादेवी ] इन्द्रियार्थावग्रहः-स्पर्शनादीन्द्रियाणां ये स्पर्शादयो अर्थाः । इरिया-ईरणमीर्या-गतिपरिणामः । उत्त० ५१४ । वर्तनी । तेषां अवग्रहः-सामान्यमात्रज्ञानं । दी १७४ । उप० मा० गा० ३६० । ईर्या-आचारप्रकल्पस्य द्वादशो इन्धनं-गोमो भण्यते। ओघ. १२९ । भेदः। आव० ६६० । ईर्या-गमनम् । भग० ३२३ । ईरइब्भ-इभमहतीति इभ्यः । बृ० प्र० १९९ अ। यद्रव्य- णमीर्या-गमनमित्यर्थः । आचा० ३७४ । ईर्या-आचारप्रकनिचयान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते । इभो-हस्ती तत्प्रमाणं ल्पस्य द्वितियश्रुतस्कन्धस्य तृतीयमध्ययनम् । प्रश्न. १४६ । द्रव्यमहतीति निरुक्तादिभ्यः । ज० प्र० १२२ । हस्तिप्रमा- ईर्या-गमनं, ईर्याकार्य कर्म । आव० २६५ । ईर्या-गमनम् । णद्रविणराशिपतिः । औप० २७ । अर्थवान् । ठाणा० ४६३ । भग० १०६। यāव्यनिचयान्तरितो महेभो न दृश्यते। औप० ५८।। इरियाइ-ईर्यादि, संयमविषया विराधना । ओघ० ८० । इभमर्हन्तीतीभ्याः – यद्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकदलिका- इरियामि-ईरे-गच्छामि गोचरचर्यादिष्विति । उत्त० ४४५ । दण्डो हस्ती न दृश्यते ते। ठाणा० ३५८। महाधनाः। इरियावह - ई-गमनं, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः । भग० ४६३ । धनवान् । प्रज्ञा० ३३०। इभो-हस्ती आव० ५७६ ।। तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हतीतीभ्यः। यत्सत्कपुजीकृतहिरण्यरत्नादि- इरियावहकिरिया- ईपिथक्रिया, या उपशान्तमोहादाद्रव्येणान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वा रभ्य सयोगिकेवलिनं यावदिति । सूत्र. ३०४ । इभ्य इत्यर्थः। जीवा० २८० । अनु. २३। यावतो इरियावहियं-ऐर्यापथिकी, ईर्या-गमनं तदविषयः पन्थाद्रव्यस्योत्करेणान्तरितो हस्ती न दृश्यते तावद् द्रव्यपतयः । । मार्गस्तत्र भवा, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्धः इत्यर्थः । प्रश्न. ९६ । भग० १०६ । ईरणमीर्या-गतिस्तस्याः पन्था यदाश्रिता इन्भजाति-मातिपक्खविसुद्धा इन्भजाइ । नि० धू. प्र. सा भवति तस्मिन् भवमध्यात्मादित्वाढकि ऐपिथिक, २९० अ। विशिष्टा जातयः। ठाणा० ३५८ । पथिस्थस्तिष्ठच्चैर्यापथिकम् । उत्त० ५९५ । इमंपि-इदमपि, इतिपूर्वकोऽपिशब्दः । आचा० ६५। | इरियावहिया - ईर्यापथक्रिया, क्रियायास्त्रयोदशो भेदः । इमेसु-इमेषु । आचा० ३२६ । आव० ६४८ । ईर्यापथिकी - विंशतिक्रियामध्ये विंशतिइय-इतः, आषत्वात अस्य । प्रज्ञा० ११२ । आगतः। (मर०)। तमा। आव० ६१२। ऐर्यापथिकी-गमन प्रधानः पन्थाः इयहि-इत इदानीम् । ठाणा० १४३ । ईपिथस्तत्र भवा। आव० ५७३ । ईर्यापथिवी-चंक्रमण. इयपट्टा-इतिप्रष्टा:-प्रधानाः, वाग्मिनः । उपा० ४६। क्रिया । बृ० तृ. २७ । । इयरं-इतरं, रजोहरणनिषद्या औपग्रहिक कार्यासिकं औणिक इरियासमिइ - ईर्यासमितिः -- निरवद्यप्रवृतिरूपा । प्रश्न: वा चीरं, सार्थो वा। ओघ० २३ । इतरशब्देन रजोहर- | १४३। ईर्यासमितिः-आवश्यकायैव संयमार्थ सर्वतो युगणनिषद्योच्यते । ओघ० २३ । मात्रनिरीक्षणायुक्तस्य शनैन्यस्तपदा गतिः । तत्त्वा० ९-५ । इयरेयर-इतरेतरः, इतरेतरसंयोगः । उत्त० २३ । इरियासमिए-ईरणं- गमनभीर्या तस्यां समितो-दत्तावधानः इरिआवहं-ईरणमीर्या, पथि ईर्या ईर्यापथं-गमनागमनम् । पुरतो युगमात्रभूभागन्यस्त दृष्टिगामीत्यर्थः । आचा० ४२८ । ओघ० ३७ । इला-हिमवते चतुर्थकूटः । ठाणा. ७१। धरणेन्द्रस्य महिइरिआवहिए - ऐर्यापथिकः, केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्धः, षीनाम। भग० ५०४ । क्रियास्थाने त्रयोदशं क्रियास्थानम् । सम० २५। | इलाइपुत्त-ससंवेगः । (मर०)। इरितासमिती-जीवसंरक्खणजुगमेत्तरदिहिस्स अप्पमादिणो इलादेवया - इलादेवता, इलावद्धननगरदेवता। आव० संजमोवकरणप्पायणणिमित्त जा गमणकिरिया सा। नि० ३५९ । चू० प्र० १६ आ। इलादेवी-पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२। .. इरिमदिर-लक्ष्मीमन्दिरम् , लक्ष्म्यालयं, प्रभूतलक्ष्मीकम् ।। पुष्पचूलायाः पञ्चममध्ययनम् । निर. ३७ । पाश्चात्यरुचकदश० ५८ । वास्तव्या प्रथमादिकमारीमहत्तरिका। जं. प्र. ३९१।। (१६४) 2010_05 . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इलादेवीकडे । इलादेवीकूडे - इलादेवीकू, क्षुल्लहिमवत्कूटः । जं० प्र० २९६ ॥ इलादेवीदिक्कुमारीकूटम् । जं० प्र० ३८१ । इलापुतो - इलापुत्रः, इलावर्द्धननगर सार्थवाहीपुत्रः । आव० ३५९ । तीर्थकराचार्यव्यतिरिक्तेभ्यः श्रुत्वा प्रतिबुद्धः । सूत्र० १७२ । इलावद्धणं - इलावर्द्धनं, नगरविशेषः । आव० ३५९ । इलिआगई - इलिकागतिः, गत्यंतर गतिविशेषः । विशे० २४४ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः आव० ३६३ । इलू - धान्यविशेषः । नि० चू० तृ० १४९ अ । इष्टकापाकः - यत्रेष्टकाः पच्यन्ते तत् । जीवा ० १२४ । इत्थं - प्राकृतशैल्या इषुशास्त्र - नागवाणादिदिव्यास्त्रादिसूच कं शास्त्रम् । जं० प्र० १३८ । भग० ८४ । ठाणा० ८९ । आव० ३६३ । इलिएण । नि० चू० प्र० १६ अ । प्रज्ञा० ९८ । इलिका - धान्यकीटः । भग० ८४ | धान्यजन्तुविशेषः । इसिवालो -तोसलिवासिना क्रीत उज्जयिनीकुत्रिकापणा धिपः सुरः । बृ० द्वि० २६७ आ । पंचम वासुदेव पूर्वभवनाम | सम० १५३ । इसिवुडी - ऋषिवृद्धिः, ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां मध्ये सप्तमी राजीनाम। उत्त० ३७९ । इसी - ऋषिः, विशिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः । सूत्र० २९८ । दक्षिणऋषिवादिकव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ९८ । पश्यतीति अतिशयज्ञानी । औप० ७८ । सुविहितः । ओघ० २२२ । इसु- इषुः शरः । दश० १८ । इषुः- ज्याविष्कंभयोर्वर्गविशेषमूलं विष्कंभाच्छोभ्यं शेषार्धम् । तत्त्वा० ३-११। इसुसत्थं - इषुशास्त्रम्, बाणकला। आव० ३९२ । इस्सरियं - ऐश्वर्य - प्रभुत्वं द्रव्यादिसमृद्धिर्वा । उत्त० ४७४ | इस्सरे - भूतेन्द्रविशेषः । ठाणा० ८५ । इस्सा - ईर्ष्या । आव ० ४१० । परगुणा सहनम् । उत्त इसत्थे । नि० चू० प्र० २६७आ । इसि - ऋषय:- गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्याः । मुनयः यतयो वा । सम० १५९ । त्रिकालदशनिनः । राज० ४६ । इसिगणिया - ऋषिगणितदेशवास्तव्या देवानन्दादासी । लोग संवेगणी ] इसिया -मुजागर्भभूता शलाका सूत्र० २७९ । इसवज्झा - ऋषिवध्या- ऋषिहत्या । उत्त० ४४० । इसिवाइंदा - वाणमन्तरविशेषः । ठाणा० ८५ । इसिवाइय - ऋषिवादिकः, वाणमन्तरविशेषः । प्रज्ञा० ९५ । व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्त्तिनो वाणव्यन्तरजातिविशेषाः । तृतीयमध्ययनम् । अनुत्त० २ । इसिदिण्णं - ऋषिदिनम् ऐरवते पंचमजिननाम । सम० भग० ४६० । इसिच्चेव - वाणवंतरपणपन्निदा । ठाणा० ८५ । इसिज्झयं - ऋषिध्वजं मुनिचिह्नं रजोहणाति । उत्त० ४७८ । इसितडागं - ऋषिताक, तोसलिनगरे सरः । बृ० द्वि० २५७ अ । ६५६ । इसितलागं । वृ० द्वि० १३६ अ । इसिदासे-ऋषिदासः, अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य इहत्थे - इहार्थ ईहास्थो वा । ठाणा० २४८ ॥ १५३ । इसि पब्भारा- सिद्धशिलानाम | सम० २२ । इसिभद्द - आलभिकायां श्रमणोपासकविशेषः । भग० ५५० । इसिभा सिआ - ऋषिभाषिताः । आव० ६१ । इसिभासिय । बृ० ३५ अ । इसि भासियाई ऋषिभाषितानि, उत्तराध्ययनादीनि । विशे० ९३१ । आव० ३०९ | ऋषिभाषितं - उत्तराध्ययनादि । सूत्र० ३८६ । 2010_05 प्रश्न० ६९ । इसिवालए - वाणव्यं तर ऋषिपालेन्द्रः । ठाणा • ८५ । इसिवाले - ऋषिपालः, उत्तरऋषिवादिकव्यन्तराणामिन्द्रः । इहरा - इतरथा, अन्यथा । पिण्ड० १४१ । अन्यथा । आव ० २६० । इहलोगइया - मणुस्सा | नि० चू० द्वि० ७१ आ । इहलोकभते - इहलोकभयं मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयम् । ठाणा ० ३८९ । यत्सजातीयाद् भयम् । सम ० १३ । इहलोके भयं स्वभावाद् यत् प्राप्यते । आव० ४७२ । स्वजातीयात् मनुष्य । देर्मनुष्यादिकस्यैव भयम् । प्रश्न० १४३ ॥ इहलोग संवेगणी - संवेगनी कथायाः प्रथमभेदः, इहलोकःमनुष्यजन्म, तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी । ठाणा० २१० । (१६५) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इहलोगासंसप्पओगे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ईसा ] इहलोगासंसप्पओगे -- इहलोकासंसाप्रयोगः, इहलोकः- | ईश्वरकारणिकः-क्रियावादिद्वितीयविकल्पः । सम० ११०। मनुष्यलोकस्तस्मिन्नाशंसा-अभिलाषप्रयोगः। आव० ८३९। ईश्वर कारणिनः-क्रियावादिद्वितीयविकल्पः। ठाणा० २६८॥ इहलोगो-इहलोकः, मनुष्यलोकः । आव० ८४०। ईश्वरपुत्रः-इभ्यानां पुत्रः ईश्वरपुत्रः । नंदी २५८ । इहलोयभयं - इहलोकभयं-मनुष्यादिसजातीयादन्यस्मान्म- | ईश्वरवादिनः । आव० । | ईश्वरवादिनः। आव० ८१६ । नुष्यादेरेव भयम् । आव० ६४५ । ईषत्कुटिला-कुण्डलीभूता। जं० प्र० ११३ । इहलोयसंवेयणी-इहलोकसंवेजनी. संवेजनीकथायास्तृतीयो ईषा-गात्रविशेषः। जं. प्र. ५५। राज. ९३ । भेदः । दश० ११२। ईसक्खो-ईशाख्यः, ईशनमैश्वर्यमात्मनः ख्याति अन्तर्भूतइहेहे-विप्साभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थं, यदि वा इहेति लोके ण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति यः सः । जीवा० २१७ । इहेत्यस्मिन् मृत्यौ। उत्त० ४०९। ईसत्थ-इधुशास्त्रम् , धनुर्वेदः । आव० १२९ । प्रश्न. ९७। धणुवेदादि-धनुर्वेदादि । नि० चू० तृ. २० आ। ईइ-ईतिः, गडरिकादिरूपा। जीवा० १८८ । जं० प्र० २९। ईसत्थसत्थरहचरियाकुसलो - इष्वस्त्रशस्त्ररथचर्याकुईति - दुरितविशेषः। भग० ८। धान्याद्युपद्रवकारिशल- शलः । उत्त० २१४ । भमूषकादिः। जं० प्र०६६ । ईसर - ईश्वरः, भोगिकादिः अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्तो वा । ईती-ईतिः-धान्याग्रुपद्रवकारी प्रचुरमूषकादिप्राणिगणः । सम० जं० प्र० १२२ । लवणे उत्तरपातालकलशः । ठाणा० ४८०, २२६। प्रभुरमात्यादिः। अन्त० १६ । स्फातिमान् । ईप्सितप्रतीप्सित-व्यवहारविशेषः। विशे० ६२४ । जीवा० ३६५। युवराजादिः भोगिको वा। प्रश्न. ९६ । ईरियट्ठा-ईर्याविशुद्धयर्थम् । ठाणा० ३६० । भोगिकादिः, अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्तो वा। जीवा० २८० । ईरिया-गमनं । ठाणा० ३४३ । ईरणमीर्या-गतिपरिणामः। बृ० तृ. २५५ आ। युवराजः, अणिमाद्यैश्वर्ययुक्तः । उत्त० ५२४ । औप० ५८ । प्रज्ञा० ३३०, ३२७ । महेश्वरः। प्रश्न. ईरियावहिया-ऐर्यापथिकीक्रिया, योगमात्रजः कर्मवन्धः । ३३ । प्रधानः, प्रभुः, स्वामी । आव० ५०२। भूतवादिआव० ६१२। ई-गमनं तत्प्रधानः पन्था-मार्ग ईर्या- कव्यन्तरेन्द्रः । प्रज्ञा० ९८ । 'ईस ईश्वर्ये' ऐश्वर्येण युक्तः पथस्तत्र भवमैर्यापथिक- केवलयोगप्रत्ययं कर्म । भग० ईश्वरः, सो य गामभोतियादि। नि० चू० प्र० २७० अ। . ३८५। आव० ६४८, ६४९ । गृहस्वामी। आचा० ४०३, ३७० । द्रव्यपतिः। उत्त. ईरियावहियाकिरिया- ईर्यापथिकक्रिया-यदुपशान्तमोहा ३५३ । युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा, अणिमाद्यष्टविधेदेरेकविधकर्मबन्धनमिति । ठाणा० ३१६ । श्वर्ययुक्त ईश्वरः । ठाणा० ४६३ । युवराजः सामान्यमण्डलि कोऽमात्यश्च । अनु० २३ । युवराजः। भग. ३१८ । ईरियासमिइ- ईयर्यासमितिः, ईर्यायां समितिः, ईर्याविषये युवराजादयः। भग० ४६३। औप० १४। युवराजा। एकीभावेन चेष्टनम् । आव० ६१५। रथशकटयानवाहना राज० १२१। क्रान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्तेषु पथिषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्त्तव्यम् । आव० ६१५ । ईसरस्स-पातालकलशः। सम• ८७ । ईर्याप्रत्ययं-ईरणमीर्या-गमनं तेन जनितम् । सूत्र. १२।। ईसरा-ईश्वराः, युवराजाः, अणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः । जं० प्र० ईर्याप्रथप्राप्ताः-योगसंयमप्राप्ताः । तत्त्वा० ९-४८।। १९.। ईर्याविशुद्धि-ईर्या-गमनं तस्या विशुद्धियुगमात्रनिहितदृष्टि- | ईसरिए- ऐश्वर्यः, मदस्य षष्ठं स्थानम् । आव० ६४६।। त्वम् । ठाणा० ३६०। ईसरी-ईश्वरी, सोपारके श्राविकाविशेषः। आव. ३०४ । ईलिकागतिः-गतिविशेषः । प्रज्ञा० १५१ । नंदी. १५३ । ईसा- ईशा, पिशाचकुमारेन्द्रस्याभ्यन्तरिका पर्षत् । जीवा० ईली-करवालविशेषः । प्रश्न । ४८ । । १७१। ईश्वरी लोकपालाममहिषीणां आद्या पर्षद् । ठाणा. 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ईसाण अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ईहा ] १२७। ईर्ष्या-प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मत्सरविशेषः।। त्वादीषत्प्रागभारा। ठाणा० ४४० । सम० २२ । सिद्धशिला । आव. ६११। आव० ६००। ईसाण-ईशानः-ईशानावतंसकाभिधविमानोपलक्षितः द्विती-ईसी ओट्रावलंबिणी-ईषदोष्ठावलम्बिनी, ईषद् ओष्ठमवयकल्पः। अनु० ९२ । लम्बते-ततः परमतिप्रकृष्टास्वादगुणरसोपेतत्वात् झटिति ईसाणवडिसए-ईशानावतंसकः, ईशानकल्पमध्येऽवतंसकः। परतः प्रयाति । जीवा० ३५१। जीवा० ३९१। ईसी तंबच्छिकरणी-ईषत्ताम्राक्षिकरणी, किंचिन्नेत्ररक्तता. ईसाणवडेंसए-ईशानकल्पेन्द्रविमानं । भग. २०३। करणी। जीवा० ३५१। ईसाणा-ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः द्वितीयो देवलोकः । ईसीपब्भारगए-ईषत्प्राम्भारगतः। आव० ६४८ । प्रज्ञा० ६९। पूर्वोत्तरदिकोणनाम । ठाणा. १३३ । ईसाणी-पूर्वोत्तरदिक्कोणनाम। भग० ४९३ । ऐशानी ईशा ईसीपब्भारा-ईषत्प्रारभारा, सिद्धभूमिः। आव० ४४२ । नकोण, पूर्वोत्तरमभ्यवर्तिदिक् । आव० २१५ । अष्टमभूमिः, अन्त्याभूमिः । आव० ६०० । पञ्चचत्वारिंशईसाणे-द्वितीयकल्पेन्द्रः । ठाणा० ८५। अहोरात्रस्यैकादश द्योजनलक्षायामविष्कम्भप्रमाणा शुद्धस्फटिकसंकाशा सिद्ध शिला। प्रज्ञा० २२८ । ईषद्-अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्राग्भार:मुहूर्तनाम। सूर्य. १४६। एकादशमुहूर्तनाम । जं० प्र० उच्छ्यादिलक्षणो यस्यां सा। ठाणा. २५१ । सिद्धशिला । ४९१ । देवलोकविशेषः । आव० ११५ । ईसिं-ईषत् , मनाक् । जीवा० १८१।। प्रज्ञा० १०७ । ईषत्-अल्पो योजनाष्टकबाहल्यपञ्चचत्वाईसिं ओट्टवलंबिणी-ईषदोष्टावलम्बिनी, ईषत्-मनाक् ततः रिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भारः पुद्गलनिचयो यस्याः सा। ठाणा० १२५ । परम्परमास्वादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्टेऽवलम्बतेलगतीत्येवंशीला । प्रज्ञा० ३६४ । ईसेणिआ-ईसिनिकाः । जं० प्र० १९१ । ईसिं ओणयकाओ-ईषदवनतकायः। आव० २१६ । । | ईहइ-ईहते-पर्यालोचयति । आव० २६ । । इसिं तंबच्छिकरणी-ईषत्ताम्राक्षिकरणी, ईषत्-मनाक ताने ईहते-पूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति। नंदी २५०। अक्षिणी क्रियेते अनयेति। प्रज्ञा० ३६४ । ईहा - अन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायाभिमुख एव बोधः । ईसिंपब्भारगओ - ईषत्प्रारभारगतः - ईषदवनतकायः । विशे० १७० । सदर्थविशेषालोचनं। भग० ३४४ । सदआव० २१६ । भिमुखा ज्ञानचेष्टा । भग० ६३३ । 'ईहचेष्टायाम्' ईहनमीहाईसिं वोच्छेदकडुई - ईषद्व्युच्छेदकटुका, ईषत-मनाक् सतामन्वयिनां व्यतिरेकिणां चाऽर्थानां पर्यालोचना । विशे० पानव्यच्छेदे सति तत ऊर्य कटुका एलादिद्रव्यसम्पर्कत २२६ । वितर्कः। सम० ११५ । अवग्रहादुत्तरकालमवाउपलक्ष्यमाण तिक्तवीर्यति। प्रज्ञा० ३६४ । जीवा ३५१।। यात्पूर्व सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भतार्थविशेषपरित्याईसि-ईषत् , मनाक । प्रज्ञा० ९१ । आव० ८५७ । ईषत्प्रा. गाभिमुख:-प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधर्मा दृश्यन्ते ग्भारानाम । प्रज्ञा० १०७ । सिद्धशिलानाम। रत्नप्रभाद्यपेक्षया ! न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शादिशब्दधर्मा इत्येवंरूपो मतिह्रस्वत्वाद् ईषत् । ठाणा० ४४० । सम० २२।। विशेषः । नंदी १६८। ईहनमीहा-सदर्थपर्यायलोचनम् । ईसिगि-सरस्सछल्ली-त्वक् । नि० चू० तृ० ६३ आ। । नंदी १८६ । ईहनमीहा-सतामर्थानामन्वयिनां व्यतिरेईसिपंचहस्सक्खरुञ्चारणद्धा-अयोगिकालमानं । उत्त० । काणां च पर्यालोचना । आव० १८। तदवगृहीतार्थ५७७ । ईषदिति-स्वल्पः प्रयत्नापेक्षया पञ्चानां ह्रस्वाक्षराणां- विशेषालोचनम् । आव० ९ । ईनहमीहा-सद्भूतार्थपर्यालोचअइउऋलइत्येवंरूपाणामुच्चरणमुच्चारो भणनं तस्याद्धा-कालो नरूपा चेष्टा । प्रज्ञा० ३१० । नंदी १६८। किमिदमित्थमुयावता त उच्चार्यन्त । उत्त० ५९६ । तान्यथेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टा। औप. ईसिपम्भारा-ईषत्प्राग्भारा, ईषद्धाराकान्तपुरुषवन्नता अन्ते- ९९। सदर्थपर्यालोचनात्मिका। दश. १२६ । अवगृहीविति । अनु० ९२ । सिद्धशिलानाम, प्राग्भारस्य ह्रस्व- । तार्थंकदेशार छेषानुगमनं । निश्चयविशेषजिज्ञासा । तत्त्वा० (१६७) 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ईहामिग आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उउबद्धपीढफलगं] १ - १५। अवग्रहार्थगतासद्भूतसद्भूतविशेषालोचनम् । उंबर-उदुम्बरः, बहुबिज कवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३२ । भग० राज० १३० । ८०३। चतुर्थभवनवासिदेवस्य वृक्षः। ठाणा. ४८७ । ईहामिग-ईहामृगः-वृकः । भग० ४७८ । जं. प्र. ४३। उम्बरः । व्य. द्वि० ३६२ अ । गिहेलुको । नि० चू० द्वि० जीवा० १९९ । नाट्यविधिविशेषः । जीवा० २४६ । जं. ८३ आ। प्र० ४१५ । आटव्यः पशुः । आचा० ४२३ । उंबरदत्त-उदुम्बरदत्तः, दुःखविपाके सप्तममध्ययनम् । विपा० हामृगाः-वृकाः । राज०२८। ७८ । पाटलखण्डनगरे सागरदत्तसार्थवाहसुतः। विपा० ७४ | जक्षविशेषः। विपा. ७४ । उंछ-उञ्छ-भक्तं । ओघ० १५४ । अन्यान्यवेश्मतः स्व-उबरमंथु-चूर्णविशेषः । आचा० ३४८ । ल्पं स्वल्पमामीलनात् । उत्त० ६६७ । जुगुप्सनीयं, गद्यम्। उंबरवञ्च-उंबरस्स फला जत्थ गिरिउडे उच्चविज्जति तं सूत्र. १०८। भैश्यम् । सूत्रः ७४ । अल्पाल्पम् । प्रश्न उंबरवचं भण्णति । नि० चू० प्र० १९२ आ। १११ । छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः । आचा० ३६८ । अज्ञात- उंबरिय-वृक्षविशेषः । भग० ८.३ । पिण्डोञ्छसूचकत्वादिति साधोरुपमानम् । दश. १८ | उंबरो-उदुम्बरदत्तः, सार्थवाहसुतः, दुःखविपाकानां सप्तएषणीयः । आचा०३७६ । उच्यते-अल्पाल्पतया गृह्यतममध्ययनम् । विपा० ३५। । इति, भक्तपानादिः । ठाणा० २१३ । उ-उपयोगकरणे । आव० ४४९ । उंछवित्ती-उञ्छवृत्ती-कणयाचनवृत्तिः । आव. ७.५। उअतं-उत्तीर्णम् । नि० चू० प्र०.३४५ आ। .. व्य० द्वि० ३५९ अ। उअरदंते-उदरदान्तः-येन वा तेन वा वृत्तिशीलः । दा. उंछविही-कणयाचनवृत्तिः । आव० ७०५ । उंजणं-अवमं(सं)तुअणं । दश० चू० ६९। .... उआहणित्ता-उपाहत्य, समीपमानीय । दश. ५९ । उंजण-उञ्जनम् । उत्सेचनम् । दश० २२८, १५४ । । उइंति-उद्यन्ति, उदयं यान्ति । उत्त० ४८६ । उजायणा-वासिष्ठगोत्रस्य नामविशेषः। ठाणा.. ३९०। . उहओदए-उदितोदयः, सिद्धौ कायोत्सर्गफलमिति द्रष्टान्ते उजेजा-उत्सिञ्चेत् । दश० १५४।. . राजा। आव० ८०० । उंडअ-उण्डकः, पिण्डकः । ओघ..२९ ।। उइजंति-उदीयन्ते, उद्रेकाऽवस्थां नीयन्ते । आव० ५६८ । उंडगं-उन्दकम् , स्थण्डिलम् । दश० १५६। । उइण्णा -अवतीर्णा । उत्त० ३०० । उंडतं-उद्वेधः। ठाणा० ५२५। .... . .... उइन्न-उदीर्ण:-विपाकापन्नः । आचा० १५१ । उंडया-ग्रन्थयः । नि० चू० प्र० २४५ आ।। | उईरयं-उदीरक-प्रवत्तकम् । प्रश्न. ८६ । उंडिं-मुद्राम् । व्य. द्वि० १६७ आ। उईरयइ-उदीरयति-अन्यान् वातान् जलमपि चोत्-प्राबल्येन उंडिका-मुद्रा। बृ० प्र० ३३ । प्रेरयति । जीवा० ३०७ ॥ उंडुअं-उन्दुकम्-स्थानम् । दश० १७० । बृ० प्र०२०२ अ। उउ-उत । नि. चू० प्र० ३४८ अ। ऋतुः । भग० ५४३ । उंडेरगा। नि० चू० द्वि० १२५ आ। .. ऋतु-रक्तरूपः, शास्त्रप्रसिद्धो वा । रक्त प्रवृत्तिलक्षणः । ठाणा उंडेरय-वटकाः । आव. ६८०। । उंदर-उन्दुरः । प्रश्न. ८। उउबद्ध--ऋतुबद्ध उच्यते शीतकाल उष्णकालश्च । ओघ. उंदु-उन्दु-मुखम् । अनु० २९।। ११८ । ऋतुबद्धः। आव. १८९ । शीतोष्णकालयोः । ओघ. उंदर- उन्दुरः-मूषकः । ओघ० १२६। आव० ६४१। २०५। शीतोष्णकाली मिलितौ चैव भण्यते। ओघ ० उत्त० १०९ । नि० चू० द्वि० २२ अ। उंदुरुकं-मुखेन वृषभादिशब्दकरणम् । अनु० २९ । उउबद्धपीढफलगं - यः पक्षस्याभ्यन्तरे पीठफलकादीनां उंदोइयाए-अडोलिया, यवनृपतिदुहिता । बृ० प्र० १९१।। बन्धनानि मुकत्वा प्रत्यूपेक्षणां न करोति यो वा नित्या (१६८) 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उउबद्धोग्गहो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उक्कलियावाए - वस्तृतसंस्तारकः सोऽबद्धपीठफलकः तम् । व्य० प्र० १६४ ॥ उक्कडुभ - उत्कटुकानि, यथास्थानमनिविष्टानि । जं० प्र० जो य पक्खस्स पीढफलिगादियाण बंधे. मोतुं पडिलेहणं ण १७० । करेति सो संजओ उउबद्धपीढफलगो अधवा णिचथणिय-उदासणिप-उत्कटकासनं-पीठादौ पतालगनेनोपवेशनसंथारगो णिच्चुत्थरियसंथारगो य उउबद्धपीढफलगो भण्णति। रूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स। ठाणा. २९८ । नि. चू.द्वि. ९१ अ। । उक्कडग-अपकर्षकः, यो गेहाद्ग्रहणं निष्काशयति, चौरान उउबद्धोग्गहो-ऋतुबद्धावग्रहः । नि० चू० प्र० २३९ । वा आकार्य परगृहाणि मोषयति, चौरपृष्टवहो वा। प्रश्न. उउपरियइ-ऋतुपरिवर्तः-ऋत्वन्तरम् । आचा० ३२७ । । ४७ । उउय-ऋतुजः-कालोचितः। प्रश्न. १६२। उक्कड्डियं-उत्कर्षितम्-उत्पाटितम् । पिण्ड० ११६। । उउसंधी-ऋतुसन्धिः-ऋतोः पर्यवसानम् । आचा० ३२७। उक्तत्थणं-उत्कथनं-स्वचोऽपनयनम् । प्रश्न० २४ । उऊ-ऋतुः, मासद्वयमानः । भग० २११। ऋतुः । आचा० उक्कम-उत्क्रमः, पश्चानुपूर्वीभवनम् । विशे० १६ । उत्क्रमः। ३२७। विशे० १७४। उऊसंवच्छरे-ऋतवो-लोकपसिद्धाः वसन्तादयः तद्व्यव- उक्कमणअणाभोगकिरिया-उत्क्रमणानाभोगक्रिया, लङ्घहारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, तृतीयप्रमाणसंवत्सरः। नप्लवनधावनासमीक्ष्यगमनागमनादिक्रिया। आव० ६१४॥ जं. प्र. ४८७। उक्करं - उत्कर-क्षेत्रगवादि प्रति अविद्यमानराजदेयद्रव्यम् । उएट्टे-शिल्पे चतुर्थभेदः । अनु. १४९ । विपा०६३।. उकट्टणं-गाढतरम् । नि० चू० प्र० ११५ अ। | उक्तरियामेदे-उत्कटिकाभेदः-द्रव्यस्य पञ्चमभेदः। प्रज्ञा उकंचण - ऊर्ध कंचनमुत्कंचन-हीणगुणस्य गुणोत्कर्षप्रति- २६७ ।। पादनम् । उत्कोचा। राज. ११५ । उक्करिसियखग्गो-आकृष्टखङ्गः । आव० ५५४ ।। उकंचणदीव-ऊर्चदण्डव्रतः । भग० ५४८ । उनलंबिजिउं-उलम्बयितुम् । आव. २२० । उकंचणया-उत्कचनता-मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपतिविद उक्कलबेर - अवलम्बयति । आव० ४२६ । उद्बध्नाति । ग्धचित्तरक्षार्थ क्षणमव्यापारतयाऽवस्थानम् । औप० ८१। नि० चू० द्वि० ५२ आ । मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धचित्तरक्षणार्थ क्षणमव्या. उक्कल बति- उबंधति । नि० चू० प्र० ११८ अ।. पारतया अवस्थानम् । राज. २९। उक्कल-उत्कल:-ऊधर्म कलाया यत्तत् । प्रश्न०२७ उत्कल:उक्कतो-उत्क्रान्तः, आयुःक्षयेण मृतः । उत्त० ४६० । उत्कृतः प्रदेशविशेषः, नैमित्तिकविशेषः । आचा० ३५९ । नैमित्तिकः। त्वगपनयनेन छिन्नः। उत्त० ४६० । आचा०.३५९ । त्रीन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९५। । उक्कंबिओ-वंशादिकम्बाभिरवबद्धः । आचा० ३६१। उक्कलति-उत्कलति -उच्छलति । उत्त० १२४ । . उक्क-उल्का । व्यः द्वि० २४१ अ । गगनाग्निः । दश० १५४। उकला-उत्कटा, उत्कला वा। ठाणा० ३४३ । उक्कइयकरणं-सिव्वणं, तुण्णणं । नि० चू०प्र० १२४ । उक्कलिया-उत्कलिका-लधुतरः समुदायः । औप० ५७ ॥ उच्छिय-आर्यिकाणां त्रयोदशमेदोपधौ एकादशी। ओघ भग. ४६३ । त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा०.३२ । उत्साहः । सूय २९६ । लघुतरः समुदायः । भग० ११५। उक्कच्छिया-कच्छाए समीत्र उवकच्छ, तं छादयंतीति । नि० उक्कलियाअंडं-वक्खोइलियाअंडगं। दश० चू०. १२१ । । चू० प्र० १८० अ। , उक्कलियावाउ - उत्कलिकावातः, बादरवायुकायभेदः । उक्कजिय-डंडायतं । नि० चू० तृ. ५९ अ। आचा० ७४ । उकडं-उत्कट-उपेतम् । जं० प्र० २७५ । दुष्कृतम्। आव. उक्कलियावाए-उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिधितो ये ७८२। प्रचुरः । आव० ७७४ । . वातः उत्कलिकावातः । प्रज्ञा. ३० । जीवा० २९ । 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उक्कलियावाया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उक्किन्न ] उक्कलियावाया-उत्कलिकावातः, उत्कलिकाभिर्यो वाति | उक्कालिए-उत्कालिकं-कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्व कालिसः । भग. १९६। ये स्थित्वा स्थित्वा पुनर्वान्ति। उत्त. कादित्युत्कालिकं-दशकालिकादि । ठाणा०५२। कालवेला वर्ज पठ्यते तत् । नंदी २०४ । उक्कस-उत्कर्षः-औन्नत्यम् । दश. १८९। उक्काबाते-उल्का-आकाशजा तस्याः पातः उल्कापातः । उक्कसणं-उदगंतेण प्रेरणं । नि. चू० तृ० ६३ आ। ठाणा० ४७६ । व्योमसम्मूच्छितज्वलनपतनरूपः प्रसिद्ध उक्कसाई-उत्कषायी-प्रबलकषायी। उत्त० ४२०। एव । अनु. १२१।। उक्कसाहिजा । आचा० ३७८ ।। उक्कासे-उत्कर्षणं, उत्काशनं वा। भग० ५७२ । उक्कसिस्सामि-लघु सदपरशकललगनत उत्कर्षयिष्यामि। उक्किट्टणा-सूत्रार्थकथनम् । बृ० तृ. २५ अ। उत्की. आचा० २४४ । तना-संशब्दना । आव० ५६ । । उक्कसे-उत्कर्षेत्-उत्क्रामयेत् । आचा० २९३ । उक्किट्र-उत्कृष्टं - उत्कृष्टिनादः, आनन्दमहास्वनिः । प्रश्न उक्कस्स- उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः-उत्कर्षवन्तः, उत्कृष्ट सङ्ख्याः, । ४९ । प्रधानां कर्षणनिषेधाद्वा । भग० ५४४ । उत्कृष्टिःपरमानन्ताः । ठाणा० ३५ । आनन्दध्वनिः । ज०प्र० २००। उत्कृष्टि:-आनन्दमहाध्वनिः । उक्का-उल्का-चुडुली। जीवा० २९। ये मूलाग्नितो वित्रुट्य भग. ११५ । उत्कृष्टः-उत्कर्षवती। भग० १६७ । उत्कृ. वित्रुथ्याग्निकणाः प्रसर्षन्ति ते। जीवा० १२४ । महदेखा ष्टम्-कालिङ्गालाबुत्रपुषफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्षणःख डानि प्रकाशकारिणी, रेखारहितो विस्फुलिङ्गः प्रभाकरो वा । आव. चिश्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकण्डितः। दश० १७० । ७५२ । दीपिका । नंदी ८४ । चुडुली। आव० ५६६ । निप- दोद्धियकालिंगादीणि उक्खले छुब्मति । दश. चू० १७९ । तन् रेखायुक्तो ज्योतिष्पिण्डः । ओघ० २०५। स्वदेहवर्णो | उक्किटकलयलो-उत्कृष्ट कलकलः । आव. १७३। रेखां कुर्वन्ती या पतति सा रेखाविरहिता वा उद्योतं कुर्वन्ती रस-उत्कृष्टरस:-प्रचुररसोपेतः । पिण्ड. १४९ । पतति सा। आव० ७३५ । गगनानिज्वाला। जं. प्र. उक्किटि-उस्कृष्टिः-आनन्दमहाध्वनिः । औप० ५९ । राज० ५२ । चुडल्ली। प्रज्ञा०२९ । पगासविरहितो य, महंतरेहा । १२२ । पहा । नि० चू० तृ. ७५ आ। सदेहवणं रेहं करेंती जा उक्किट्रिसीहनादो-उत्कृष्टिसिंहनादः । आव० ३४५ । पडइ सा उक्का, रेहविरहिता वा उज्जो करेंती पडती सा उक्किहीं-उत्कृष्टिः। आव० ४१३ । उत्कर्षवशः । सूर्य वि उक्का । नि० चू० तृ. ७० अ । अग्निपिण्डाः । ठाणा० । २८१ । ४२० । आकाशजा। ठाणा० ४७६ । उक्किण्णं-उत्कीर्ण-भुवमुत्कीर्य पालीरूपम् । सम० १३७ । उक्कापडणं-उल्कापातनम्, उल्कापातः । आव० ७३५। । उक्किण्णंतरा-उत्कीर्णान्तराः, उत्कीर्णमन्तरे यासां खातउक्कापाए- उल्कापातः-व्योनि संमूच्छितज्वलननिपतन परिखानां ताः। जीवा. १५९ । रूपः । जीवा० २८३ । उक्किण्ण-उत्कीर्णः--गुण्डितः । प्रश्न. ५९। उत्कीर्णमिवो. उक्कापाय - उल्कापातः, सरेखः सोद्योतो वा तारकस्येव कीर्ण, अतीवव्यक्तम् । जं. प्र. ७६। आकीर्णः । प्रश्न पातः। भग. १९६। २५। प्रज्ञा० ५६१ । ओघ० ५४ । उक्कामयंति-उत्क्रामयन्ति-अपनयति । दश० ८६। उक्कित्तणं-उत्कीर्तनम् , सामान्येन संशब्दनम् । आव० उक्कामहदीवे-अन्तरद्वीपनाम। ठाणा. २२६। ६०४। संशब्दनम् । विशे० ४४२ । उक्कामुहा-उल्कामुखनामैकविंशतितमोऽन्तरद्वीपः । प्रज्ञा | उक्कित्तणा-उत्कीर्तना, प्राबल्येन-परया भक्त्या संशब्दना। ५० । अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४।। आव० ४९२ । उकारियमेय-उत्कारिकाभेदः, एरण्डबीजानामिव यो भेदः। उक्कित्तिया-उत्कीर्तिता-कथिता । सूर्य० २९६ । भग० २२४ । | उक्किन-अतीवव्यक्तम् । प्रज्ञा ० ८५ । (१७०) 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उक्किन्नंतर अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उक्कोसतिसामासा ] उक्किन्नंतर-उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता उत्की- | उक्कुडुयासणिए - कायक्लेशभेदः । भग०. ९२१। कायर्णानन्तराः। प्रज्ञा० ८५ । | क्लेशद्वितीयभेदः । ठाणा० ३९७ । उक्किन्न-उत्कीर्ण-शिलादिषु नामकादि। दश० ८६ । । उक्कुइ-उत्कूदते-ऊवं गच्छति । उत्त० ५५१ । उक्किरणगाई-फलखाद्यककपर्दकादिविकिरणानि । बृ० द्वि० उक्कुरुडिका-तृणभस्मगोमयागारादिमीलकः । उत्त० ३५९ । १५५ अ। उक्कुरुडिया-उत्कुरुटकः । आव० १९४ । उक्किरिजमाण-क्षुरिकादिभिः ऋष्ठादिपुटानां कोष्ठादिद्र उक्कूइय-उत्कूजित-कृताव्यक्तमहाध्वनिः। प्रश्न० २० । व्याणां वा उत्कीर्यमाणः । जीवा. १९२। उत्कीर्यमाणं यं- उत्कृजितं - अव्यक्तमहाध्वनिकरणम् । प्रश्न क्षुरिकादिभिः कोष्टादिपुटानां कोष्ठादिद्रव्याणां वा उल्लिख्यमानः। जं० प्र० ३६ । उक्कलं-उत्कूलयति-सन्मार्गादपध्वंसयति कुलाद्वा-न्यायउक्किलंतो-उत्कलन् । आव. २०७ । सरित्प्रवाह तटादूर्ध्व यत्तत् उत्कूलम् । द्वितीयाधर्मद्वारस्य उक्कीरमाण-उत्किरन-वेधनकेन मध्याद्विकिरन् । अनु० पञ्चदशं नाम । प्रश्न० २६। २२३ । उक्केरो-उत्केरः-समूहः । ओघ. ११७, ११६, २१३ । उकुंचणं-उत्कुञ्चमं, ऊर्च शुलाद्यारोपणार्थ कुञ्चनम् । सूत्र. स्थित्यादिवर्धनरूप उत्कोचः-उद्वर्तना । विशे० १००६ । उक्कोचा-उत्कोचा-उत्कोटा, लञ्चा। औप० २। उक्कुन्जिय-उर्चकायमुन्नम्य । आचा० ३४४। उक्कोड-लंचा। नि० चू० द्वि० ४५ अ। उक्कुटुं। आचा० ३४२ ।। उक्कोडा-उत्कोटा-उत्कोचा-लञ्चा। विपा०३९ । उत्कोचा, उक्कुट्टहत्थो - उकुट्ठ-सचित्तवणस्सतिपत्तंकुरुफलाणि वा लञ्चा । औप० २। उक्खले छुब्भति, तेहिं हत्थो लित्तो एस । नि० चू० प्र० उक्कोडालंच-उत्कोटालंचयोः-द्रव्यस्य बहुत्वेतरादिभिर्तीके ३८ । उक्कुटि-उत्कृष्टिः-हर्षविशेषप्रेरितः । आव० २३१ ।। प्रतीतभेदयोः । प्रश्न० ५६। उक्कोडिय- उत्कोटा-लञ्चा तया चरन्ति उत्कोटिकाः । उक्कुटिकलयलो-उत्कृष्टिकलकलः । आव० १७५ । उक्कुटिसीहणायं-उत्कृष्टिसिंहनादः, हर्षविशेषप्रेरितो व राज०२। निविशेषः । आव. २३१ । उक्कोस-उत्कृष्टत:-अतिशयेन । ओघ० २२७ । उत्कर्षतीति उक्कुट्ठी-पुकारकरणं । नि० चू० तृ. ६१ आ। उत्कर्षः, उत्कृष्टः । सूर्य. १३। जात्यादिभिर्मदस्थानलघुप्रउक्कुट्ठो-सचित्तवणस्सतिपत्तंकुरुफलाणि वा उक्खले छुन्भंति। कृति पुरुषमुत्कर्षयतीति उकर्षकः-मानः । सूत्र? ६९ । नि० चू० प्र० ३८ अ। उकोश:-कुररः । प्रश्न. ८ । उत्कृष्टम्-कमनीयम् । दश० उक्कुड-उत्कुटुकासनः । आव० ६४८ । ठाणा० २९९ ।। २११। उक्कुडुअ-उत्कुटुकम् , यथास्थानमनिविष्टम् । भग०३०८। उक्कोसए-उत्कर्ष एव उत्कर्षका उत्कृष्टः । सूर्य. ११ । ओघ० १०७ । मुक्तासनः । उत्त० ५५। आधारे पुताः उत्कषिका उत्कृष्टा । सूर्य० १४ । लगनरूपम् । भग. १२५ । आचा० ४२४ [.. .] | उक्कोसए कुंभे-उत्कृष्टकः कुम्भ:-आढकशतनिष्पन्नः । अनु. उक्कुड़गासण-उत्कुटुकासनम् , कायक्लेशभेदः । दश०२८।। १५१ । उक्कुडुती - उत्कुटुका-आसनालमपुतः पादाभ्यामवस्थित उक्कोसकसिणं-सतसहस्समूलं । नि० चू० प्र० १३९ आ । उत्कुटुकस्तस्य या सा। ठाणा० ३०२। : उकोसगमयपत्तो-उत्कर्षेण मदं प्राप्तः उस्कर्षमदप्राप्तः । उक्कुडुयभाणवत्थे-उत्कुटुकः सन् भाजन वस्त्राणि-गोच्छ. जीवा० ३५। । कादीनि प्रत्युपेक्षयेत् ,यतो वखप्रत्युपेक्षणा उत्कुटुकेनैव कर्तव्या। उक्कोसतिसामासा-जेट्ठो आसाढो य। नि० चू० प्र० ओघ ११७ । १२३ आ । 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उक्कोसतिसामासे आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उग्ग] उक्कोसतिसामासे-उत्कृष्टतृण्मासः-उत्कृष्टा तृड्मासयोः- उक्खित्तपुवा - उत्क्षिप्तपूर्वाः-तेषामादौ दर्शिता यथाज्येष्ठाषाढयोयस्मिन् काले सः। ओघ २१०।। ___ऽस्यां वसत यूयमिति। आचा. ३६९ । उक्कोससंथरणं-उत्कृष्टं संस्तरणं-भिक्षार्थमवतीर्णास्ततः उक्खित्तय-उरिक्षप्त-प्रथमतः समारभ्यमाणम् । जीवा. पर्याप्तं हिंडित्वा यावत् तृतीयपौरुष्या आदौ स्वाध्याय- २४७॥ प्रस्थापनवेला तावत् सन्निवत्तंते एतद् , अथवा तृतीयपौ. उक्खित्तविवेगो-उत्क्षिप्तविवेकः । आव० ८५४ । रुष्या आदौ स्वाध्यायप्रस्थापनवेलावान सन्निवर्तते एतद् । उक्खित्ता-उरिक्षता:-सिक्ताः । जं. प्र. २२१ । व्य. द्वि० १६३ आ। उक्खित्तायं-उक्षिप्तकं-प्रथमतः समारभ्यमाणम् । जीवा० उकोसा - उत्कर्षः-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वा १९४ । उत्कर्षा-उत्कृष्टा। ठाणा० १३९ । उक्खित्तो-उत्क्षिप्तः कृतः स्थापितः। आव. ४३३ । उक्कोसेणं । अनु० १६३ । उक्खिविया-उत्क्षिप्ता । आव० ३७० । उक्खं-उक्ष-सम्बन्धो-विषयविषयीभावलक्षणः । नंदी ७१। उक्खु-वनस्पतिविशेषः। भग० ८०२ । सम्बन्धन-अन्यजनकभावलक्षणम् । ठाणा० ५०। उक्खुलनियत्था- उखुलनिवसिता, विपर्यस्तवस्त्रा। बृ. उक्खदं-उत्कन्दम् । आव० १७५ । अवस्कन्दः । आव० द्वि० २५५ अ। ३००। उक्खेव-उत्क्षेपः-हस्नोत्पाटनम् । व्य. प्र. २३२ आ। उक्खंधो-अवस्कन्दः, छलेन परबलमर्दनम् । प्रश्न० ३८ । उक्खेवओ-उत्क्षेपः-प्रारम्भवाक्यम् । निरय० २३।। उक्खंपिर-उत्कण्ठित । (सं.)। उक्खेवग-उत्क्षेपकः-वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागः । उक्खडुमडा - देशीपदं, पुनःपुनःशब्दार्थे । व्य० प्र० ! भग० ४६८ । शिष्याणामुत्क्षेपकः । व्य० प्र० २३२ आ। ६५ आ। उक्खेषण-उत्क्षेपक:-वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो दण्डमध्यउक्खणिहिति-उत्खनीः । आव० २२६ । भागः । ज्ञाता० ४८।। उक्खल-स्थानविशेषः । नि० चू० द्वि० ८३ आ। उक्खेवो- उत्क्षेपः-प्रस्तावना। विपा० ५५ । क्षेपणम् । उक्खलि-उखा-स्थाली। पिण्ड० ८४ । ओघ० ११०। उक्खिओ-सेवितः । मर० । उक्खो -परिधान वस्त्रकदेशः। बृ० प्र० १७७ अ। परिधाणं, उक्खित्त-उत्क्षिप्तं, गेयविशेषः । जं० प्र० ४१२ । उत्पा- वत्थस्स अभितरचूलाए उचरि कण्णो णाभिहिज उक्खी टितम् । विपा० ४७ । भाजनगतम। ओघ. ८८। भण्णति । नि. चू० द्वि० १५४ अ। उक्खित्तचरए-उत्क्षिप्त-स्वप्रयोजनाय पाकभाजनाद्धृतं । उखंदचोरभएणं । नि. चू. प्र. २६० अ। तदर्थमभिग्रह विशेषाच्चरति-तद्गवेषणाय गच्छतीति उत्क्षि- उखल-उदूखला । प्रश्न० ८। प्तचरकः । ठाणा. २९८ । उखलियं-पुडियाकारं । नि० चू.द्वि. १ आ । उक्खित्तचरगा-पिण्डेषणामेदविशेषः । नि० चू तृ. १२ । उखली-उदूखली। आव. ८५५ । उक्खित्तचरगो-उत्क्षिप्तचरकः-उत्क्षिप्त-पाकपिठरादुद्- उखा-स्थाली। भग० ३२६ । धृतमेव चरति-गवेषयति यः सः। प्रश्न० १०६ । उखत्तो-णिसगो। नि० चू० प्र० ७७ अ। उक्खित्तणा - ज्ञातायां प्रथममध्ययनम् । आव० ६५३। उगहणंतगो-योनिद्वाररक्षार्थकं वस्त्रम् । ओघ० २०९ । षष्ठा) प्रथमं ज्ञातम्। उत्त० ६१४ ।. . उग्ग-उग्रम्-अप्रधृष्यम् । सूर्य ० ४ । भग० १२। ज्ञाता० ९४ उक्खित्तणाए-षष्टाङ्गे प्रथमज्ञातः। सम० ३६। ज्ञातायां उग्ग-उग्र:-क्षत्रियपुरुषेण शुद्रस्त्रियां जातः । आचा. ८। प्रथममध्ययनम् । आव० ६५३ । आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजातः । भग० ११५ । उक्खित्तणिक्खित्तचरगा - पिण्डैषणाभेदविशेषः । नि० आरक्षकः । आव० १२८ । आदिदेवेन य आरक्षकत्वेन चू० तृ० १२ अ। नियुक्तस्तद्वंशनाश्च। औप० २६ । शुभाध्यवसायप्रबलः। 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उग्गकुलं . अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उग्गहिआ] · आव०८०२ । आरक्षिकाः । आचा० ३२७। आदिराजेनाऽऽ- | उग्गविसा - उग्रं विषं येषां ते उपविषाः । प्रज्ञा० ४६ । रक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्वंश्यः। ठाणा० ३५८ । भग- उरःपरिसर्पविशेषः । जीवा० ३९ । वतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन् । ठाणा उग्गसेण-उग्रसेनः, द्वारिकायां राजा । आव. ९४ । नृप. ११४ । आरक्षकादयः । उत्त० ४१८ । आदिदेवेनारक्षकत्वे विशेषः । ६० प्र.३० अ। मथुरानृपतिः, कंसपिता। उत्त. नियुक्तास्तद्वंश्याः। भग० ४८१ ।। ४९० । राजमुख्यः । अन्त० २। उग्गकुलं-उपकुलम् । आव. १७९ ।। उग्गह-योनिद्वारं तद्वस्त्रमपि । बृ० द्वि० २५१ आ। उग्गच्छ-उद्गत्य-क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वा। भग० २०७। उग्गह-अवग्रहः । ओघ० १५२ । धर्मलाभदानम् । दश० उग्गतवा-उग्रतपा:-अप्रधृष्यानशनादिवान् । सूर्य. ४। १६७। अव-ईषत् सामान्यं गृह्णातीति। विशे० १६० । अष्टमादि। ठाणा. २३३ । उग्रं-उत्कटं दारुणं वा कर्मश- आश्रयः। विपा० ३३ । जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा त्रून् प्रति तपः-अनशनादिः। उत्त० ३६५। उम्गह इति । नि० चू० प्र० . १७९ आ। उपउग्गतवित्ती- उम्गते आदिच्चे वित्ती जस्स सो, आदिच्च प्रहम्-अवष्टम्भम् । ओघ. १५४ । पतग्रहम् । ओघ. मुत्तीए जस्स वित्ती सो उम्गतवित्ती। नि० चू० प्र. ३०८ आ। १७५। प्रथमपरिच्छेदनं अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यरूपाउग्गतेय-उग्रतेजाः-तीत्रप्रभावः, तीव्रविषः । प्रश्न. १.७। देरवग्रहणम् । ठाणा० ५१ । अवगृह्यते-स्वामिना स्वीक्रियते उग्गपुत्तो-उग्रपुत्रः, क्षत्रियविशेषजातीयः। सूत्र० २३६ । यः सोऽवग्रहः । भग० ७०० । सामान्यार्थस्य-अशेषविशेउग्गम-उद्गमः-षोडशविध आधाकर्मादिदोषः । प्रश्न. १५५। षनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अव इति प्रथमतो ग्रहणं आधाकर्मादिदोषविशेषः । आव० ५७६ । उद्गमनमुद्गमः- परिच्छेदनमवग्रहः । भग०३४४ । अवग्रहः-अव्यक्तरूप: पिण्डादेः प्रभवः। ठाणा. १५९ । परिच्छेदः। प्रज्ञा० ३११ । अवधारणम् । सुन्दरा एत इत्यउग्गमइ-आगच्छति। आव० ४२२ । वधारणम् । उत्त. १४५। अवग्रहः-परिग्रहः । सूत्र. उग्गमकोडी- उद्गमकोटिः - उद्गमदोषरूपा। पिण्ड. १७९। अविवक्षिताशेषस्य सामान्यरूपस्यानिर्देश्यस्य रूपा - १९७। देरवग्रहणमवग्रहः । राज. १३० । पडिमगहो। नि. चू. उग्गमितं-उद्गमितम् । आव ८५९ । द्वि० ११६ अ। अवग्रहः-आभवनव्यवहारः। व्य.द्वि. उग्गमोवघाते- उद्गमोपघातः-उद्गमदोषैराधाकर्मादिभिः ९३ अ। अवग्रहणमवग्रहः-अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थषोडशप्रकारभक्तपानोपकरणालयानामशुद्धता। ठाणा० ३२० । ग्रहणम् । नंदी १६८ । आवासः । निरय. २ । अवग्रहणंउग्गय- उद्गतः-निष्काशितः। औप० ६८ । ऊवं गताः सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदः । उद्गताः-व्यवस्थिताः । ज्ञाता १४ । व्यूता। ज्ञाता. नंदी १६८ । २३। उद्गता-संस्थिता। जं० प्र० 11 निविष्ठा। उग्गहजायणे- अवग्रहयाचा-वसतिस्वाभ्यनुज्ञा। आव. भग० ४७८ । उपरिवर्तिनी । जं. प्र. २९२ ।। ६५८। उग्गयमुत्ती -- सूर्योद्गमात् पर प्रतिश्रयावग्रहाद् बहिः | उग्गहणंतयं-योनिद्वाररक्षार्थकं वस्त्रम् । बृ० द्वि० २५१ आं। प्रचारवच्छरीरत्वात् । बृ० तृ. १७९ अ। मूर्तिः-शरीरं, उग्गहणमेधावी-अवग्रहमेधावी, सूत्रार्थग्रहणपटुप्रज्ञावान् । तं जस्स प्रतिश्रयावग्रहात् उदिते आइलचे वृत्तिनिमित्तं प्रचारं । बृ. प्र. १२५ आ। करोति सो। नि. चू० प्र० ३०८ आ। उग्गहपडिमा- अवगृह्यत इत्यवग्रहो-वसतिस्तत्प्रतिमाःउग्गयवित्ती- उग्गय इति वा उदओत्ति, वर्तनं वृत्तिः, अभिग्रहाः अवग्रहप्रतिमाः । ठाणा० ३८७ । आचाराङ्गस्य उग्गयए सरिए जस्स वित्ती सो। नि० चू: प्र. ३०९ आ। षोडशमध्ययनम् । उत्त० ६१७। आचा० ४०२ । सम. उग्गवई-उग्रवती, रात्रितिथिनाम । जं. प्र. ४९१। . ४४। आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तममध्ययनम् । उग्गवती-उग्रवती, रात्रितिथिनाम । सूर्य. १४८ । प्रश्न. १४५ । आचारप्रकल्पस्य षोडशो भेदः । आव.६६०। उग्गविसं-दुर्जरविषम् । भग० ६७२ । उग्गहिआ-अवगृहीना-पञ्चमी पिण्डैषणा । आव० ५७२ । (१७३) 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उग्गहिए आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः उच्च ] चिकीर्षा । पिण्ड० २९ । उग्गहिए- अवगृहीतं परिवेषणार्थमुत्पाटितं । ठाणा० ४६५ | | उग्गोवणा - उद्गोपनम् - विवक्षितस्य पदार्थस्य जनप्रकाशउग्गहियं - अवगृहीतम् । आव २८८ । बद्धः । भग० ४५९ । अवगृह्णाति -आदत्ते हस्तेन दायस्तद् । ठाणा ० १४८ । अवगृहीता-भोजनकाले शरावादिषूपहृतमेव भोज नजातं यततो गृह्णतः । ठाणा० ३८६ । यद् अवगृह्णाति यच संहरति यच्च आस्यके प्रक्षिपति । व्य० द्वि० ३५४ अ । परिवेषणार्थमुत्पाटितम् । औप० ३७ । अवग्रहोऽस्यास्तीति उघाइम-उद्घातिमम् - उद्घातो - भागपातस्तेन निर्वृत्तम्, अवग्रहिकं - वसतिपीठफलकादिकं । औपग्रहिकं दण्डकादिकमुपधिजातम् । औप ३७ । उग्गोवेति - उप्पाएति । नि० चू० प्र० २३४ अ । उग्घडयं - अनुवर्त्तनम्, अनुकरणम् । आव० ५१५ । उग्घाइए - उद्धाइए-उद्घातितं विनाशितं विनाशयिष्यमाणत्वेनोपचारात् । ठाणा० ५०२ । लघु । ठाणा १६३ । . उग्घाड-उद्घा- अदत्तार्गलमीषत्स्थगितं वा । आव० ९७५ । उग्घा डकवाडउग्घाडणा-उद्घाटकपाजेद्घाटना, उद्घाटम् - अदत्तार्गलमीषत्स्थगितं वा कपाटं तस्योद्घाटनं सुतरां प्रेरणम् तदेव | श्वानवत्सदारक संघट्टना। आव ० ५७५ । उग्धाडणकवाड-उद्घाटक पार्ट -अनर्गलितकपाटं । ओघ उग्गहियप - अवग्रहीतकः - बद्धः । राज० ४४ । उग्गहिया - जं परिवेसगेण परिवेसणाए परस्स कडुच्छुतादिणा उगहियं आणियति वृत्तं भवति, तेग य तं पडिसिद्धं तं चैव साधुस्स देति एसा उवग्गहिया । निं० चू० तृ० १२ अ । उग्गा-आरक्षिकाः । बृ० द्वि० १५१ आ । कुलार्यप्रथमभेदः । प्रज्ञा ० ५६ । खाद्यविशेषः । जं० प्र० ११८ । आदिदेवा• वस्थापिताः । राज० १२१ । प्रभुणा आरक्षकत्वेन नियु कास्ते उग्राः । जं० प्र० १४५ । उग्गाढोउग्गारो-उद्गिरणं उग्गालो । नि० चू० प्र० ३१५ अ । उग्गालिदासो - दासविशेषः । नि० चू० द्वि० ४० अ । उग्गाले - उद्गालयेत् श्लेश्मनिष्ठीवनं कुर्यात् । ओघ० १८६ | उग्गालो - उद्गिरणं उग्गालो । नि० चू० प्र० ३१५ अ । उग्गा हिऊणं - उद्ग्राह्य । आव० ३९९ । उग्गाहिपणं- उद्या हितेन पात्रबन्धबद्धेन पात्रकेण । ओ० उग्घोसणाट्टाणीया - उद्घोषणास्थानीयाः । आव० ३८५ । उग्रतेजाः - आधा कर्मग एव अभोज्यतायां पदातिः । पिण्ड ० - प्रगुणः । बृ० प्र० २९७ अ । | ० ० १४५ अ । १२२ । उग्गाहितं- उद्या हितम् गृहीतम् । आव० ६१८ । उत्क्षिप्तं, उपकरणम् । ओघ० ७२ । उग्गा हिमं - अवगाहिमं पक्वान्नं खण्डखाद्यादि । प्रश्न० १६३ । उग्गाहिय - उद्याहितं गृहीतं पात्रकम् । ओघ १४९ । उग्गा हे - उग्राहयति-सङ्घट्टतेनास्ते । ओघ० १८४ । उग्गा हेउं उद्भाह्य-संयन्त्रयित्वा । ओघ० ७४. उग्गा हेऊण उद्याथ । उत्त० १०० । उग्गरिऊणं - उद्गीर्य । आव ० २०८ । उम्मुंडिया - उद्धूलितम् । भग० ३०८ । 2010_05 १६६ । उग्घाड़ाए पोरिसिए उद्घाट पौष्याम् । आव ० ८३८ । उग्घाडितो - उद्घाटितः । आव० ३१७, ३१८ । उग्घाडिया उद्घाटिताः । आव २९२ । उग्घात उद्घातः- भागपातः । ठाणा० लघुकरणलक्षणः । ठाणा० ३११। उग्घातिते-उद्घातः- भागपातो यत्रास्ति तदुद्धातिकं, लखित्यर्थः । ठाणा० ३२५ । १६३, ३२५ । उग्घाय - आचाराङ्गस्य: षडविंशतितममन्ययनम् । उत्त. ६१७ | आचारप्रकल्पस्य षड्विंशतितमो भेदः । आव ० ६६० । उधाया- लघूनि - ७१ । उग्रसेनः - भोगराजा, राजीमत्याः पिता । दस० ९७। उग्रसेनतनयः - नभः सेनकुमारः । विशे० ६१७ । उघरिसा । नि० चू० प्र० १०५ आ । उघोसेहि । नि० चू० प्र० ३४४ आ । 1. उचितः - जितः, अभ्यस्तो वा । आव० ५९४ । " उचूलयालगं - अधः शिरस उपरि पादस्य कूपजले बोलणाकर्षणम् । विपा० ७२ । उच्च उच्चः पूज्यः । भग० १६४ । (२७४) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उच्चतए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उच्चूलं ] उच्चंतए-उच्चन्तकः-दन्तरागः। प्रज्ञा० ३६० । उच्चंतगो- प्र. १४८ । ठाणा०.३४३ । शरीरादुत्-प्राबल्येन च्यवतदन्तरागः । जं० प्र० ३३ । अपयाति चरतीति वा उच्चारः-विष्ठा। आचा० ४०९ । उच्चते-उच्चंतगो-दन्तरागः। राज०३२। पुरीषपरिष्ठापनम् । उत्त, ३५७। गृहस्थैः सह पुरीषव्युउच्चंपिय-संघातितं । (तं.)। त्सर्ग कुर्वन्ति, श्लेष्मणः परिष्टापनमङ्गणे कुर्वन्ति वा। उच्चछंदो- उच्चछन्दः उच्चो-महानात्मोत्कर्षणप्रवणश्छन्द: ओघ० ५६ । । अभिप्रायो यस्य सः। प्रश्न० ३१। उच्चारभूमी- उच्चारभूमिः-पुरीषभूमिः। आव० .७८४ । उच्चता-उच्चतया-निदेजत्वेन । अप्रातिहारिकतया । बृ० द्वि० | उच्चारप्रश्रवणविधिसप्तककः, सप्तसप्तक्या तृतीयस्य भेदः । २१९ अi ठाणा० ३८७ । उच्चतायभयगो-तुमे ममं एच्चिरं कालं कम्म कायवं उच्चालाय र्ध्वमुक्षिप्य भूमौ । आचा. ३११। उच्चाजं जं अहं भणामि, एत्तिय तेग धणं दाहामिति । नि० लयितारम्-अपनेतारम् । आचा० १६९ । चू० द्वि० ४४ । उच्चालियंमि-उच्चालिते-उत्पाटिते। ओघ० २२० । उच्चत्तं-उच्चत्वं। जं. प्र. २० । अनु. १७१। उच्चत्वं- उच्चावइत्ता-उच्चैः कृत्वा । उत्पाट्य । प्रज्ञा० ३५७ । उत्सेधः । जं.प्र. ३२१ । उच्छ्यः । ठाणा० ६९ । ऊर्ध्व- उच्चावए-उच्चावचः-उत्तमाधमः। जीवा० ३७४ । स्थितस्यैकमपरं तिर्यस्थितस्यान्यत् गुणोन्नतिरूपम् । ठाणा० | उच्चावतं-उच्चावचम्-असमञ्जसं। ठाणा० २४७।। उच्चावयं-उच्चावच-उरचं नाम मैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम उश्चत्तछाया-उच्चत्वछाया,छायायाः षष्ठो भेदः । सूर्य कुर्वन्तु । आचा०३६३ । शोभनाशोभनम्। जीवा० १६६। उच्चत्तभयते- उच्चताभृतक:-मूल्यकालनियमं कृत्वा यो उच्चावचम् । देश. १६६। अनुकूलप्रतिकूलम् , असमञ्जसं नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स। ठाणा. २०३। वा। भग १०१। उच्चत्तविसाणो- उच्चविषाण: उच्चशृङ्गः । उत्त० ३०३। उच्चावया-अनुकूलप्रतिकूला, असमञ्जस उत्तम विषागः । आव० ७१९ । उच्चावचा:-गुरुलघवो नानारूपा वा। सूत्र. २०७। उच्चत्ता-मुधिकता। पिण्ड. १००। ऊर्ध्व चिता उच्चा, शीतातपनिवारकत्वादिगुणैः शय्यान्तरोउच्चयबंधे-उच्चयः-ऊर्व चयनं-राशीकरणं तद्रूपो बन्धः । परिस्थितत्वेन चा उच्चाः, तद्विपरीतास्त्ववचाः, अनयोर्द्वन्द्वे उच्चयबन्धः। भग० ३९५। उच्चावचाः, नाना प्रकारा वा । उत्त० ११०। शोभनाशोउच्चरेति। नि० चू० प्र. २०२ आ। भनभेदेन नानाप्रकाराः। दश. १८४। असमन्जसा । उच्चलिओ-उच्चलितः । आव ३८५। आव. ३१७।। भग. ६८३ । ज्ञाता० २०० । उच्चा-ऊर्ध्व चिता, उपरिस्थितत्वेन वा। उत्त० ११०।। उच्चावयाइं-उच्चावचानि-विकृष्टाविकृष्टतया नानाविधानि उच्चाओ-उच्चातो-धान्तः। ओघ. १७७ । नि. चू. प्र. उच्चव्रतानि वा शेषव्रतापेक्षया महाव्रतानि। उत्त० ३६३ । १८८ अ । उश्चिअ उचित, उच्चिताकरणं, पादस्योत्पाटनम् । जं. उच्चागोए -उच्चैगोत्रं-यदुदयवशादुत्तम जातिकुलबलतपोरूपै- प्र. २६५ । श्वर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाजलि प्रग्रहादिसम्भवस्तत्। उञ्चिक्खित्तं-उच्चोरिक्षप्तम् । पिण्ड ० ११०।. प्रज्ञा. ४७५ । मानसत्कारार्हः । आचा. ११६। उच्चिट्ट-कांसारादिभक्षणेनोच्छिष्टे । बृ० प्र० २१५ अ। उचागोत्ते-उच्चैर्गोत्र:-उच्चैः-लक्ष्म्यादिक्षयेऽपि पूज्यतया उच्छिष्टम्-भ्रष्टम् । दश० १०४।.. गोत्रं-कुलमस्येते। उत्त. १८८ । उश्चिणिउ-उच्चेतु-गृहीतुम् । आव० ८१९ । उच्चारे - उच्चारः-विष्ठा । भग० ८७ । संज्ञा । बृ० प्र० उश्चियपउमं-उच्चितपद्मं । आव० १७० । ३०६ अ। मण्णा। नि• चू. प्र. १४३ आ। पुरीषः । आव उच्चु गेउं-अवचूर्ण्य, गुण्डयित्वा। ओघ० १४३ । . ५६४, ६१६, ७८१ । उत्त० ५१७ । सम० ११ । जं. ! उच्चूलं-अवचूल-गकन्यस्ताधोमुखकूर्चकः। औप० ६३ । (१७५) 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उती आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उच्छोभवंदणयं ] उञ्चेती-उच्चिन्वती-अवचयं कुर्वती । दश० ४१। उच्छिन्नसामिय-उच्छिन्नस्वामिकम् , निःसत्ताकीभूतस्वामिउच्चैःश्रवा-सुरवरेन्द्रवाहनं हयः । जं. प्र. २३५। कम्। भग. २००। उच्चोदए-उच्चोदयः, ब्रह्मदत्तस्य प्रधानः प्रथमः प्रासादः। उच्छिन्नसेउय-उच्छिन्नसेतुकम्-त्यक्तमर्यादम्। भग० २०० । .. उत्त० ३८५।। उच्छिन्ना-निर्नष्टसत्ताकाः । ठाणा० २९४ । उच्चोलएहि-उच्चुलुकैः, छंगाभिः चुलुकैः । आव० ६७८ । उच्छु-इक्षुः । दश० २२६ । आव० ८५४ । उच्छंग - उत्सङ्गः-पृष्ठदेशः । जं० प्र० २६५। पृष्ठदेशः । उच्छुकिओ-जुगुरिसतः । बृ० द्वि० २५५आ। औप० ७१। भग० ४८० । उच्छुखण्ड-इक्षुखण्डः । दश. ११६ । उच्छण्णं-उच्छिन्नम् , क्षीणम् । आव० ६७०, ६७१। उच्छुगंडिय-इक्षुगण्डियं-सपर्वेक्षुशकलम् । आचा० ३.५४ । उच्छदयति-बोलं करोति । ओघ. १५३ । उच्छुघर-इक्षुगृहम् । व्य० द्वि० ३१९ अ। आव० ३०१ । उच्छन्नं-अपशब्द-विरूपं छन्न-स्वदोषाणां परगुणानां वाऽऽ- नि० चू० द्वि० १०९ अ । विशे० १००२।. वरणमपच्छन्नं । उत्थत्वं, न्यूनत्वं वा, द्वितीयाधर्मद्वारस्य क्षुयन्त्रम् । आव० ८२९ । चतुर्दर्श नाम । प्रश्न. २६ ।। उच्छुड्डो-उन्ममः । विशे० ५१५ । उच्छन्ननाणी - उच्छन्नज्ञानी-याक्तशक्तिप्रच्छादितज्ञानी । उच्छुद्धं-विक्षिप्तम् । ओघ० १५० । परित्यक्तं । बृ० द्वि. प्रज्ञा० ४६१। १३३ आ। रोगाघ्रातं । बृ० तृ. २३ आ। उच्छयं-उच्छ्रयं-व्याप्तम् । आव. १८४ । उच्छम-आधिक्येन क्षिप, प्रवेशयेत्यर्थः । प्रश्न० २० । उच्छलंत-उच्छलन्तः-उद्वलन्तः। प्रश्न०६२।। उच्छुभह-किञ्चित्क्षिपतेत्यर्थः । भग० ६८५। उच्छ(त्थ)ल-उत्-उन्नतानि स्थलानि-धूल्युन्छ्यरूपाण्युच्छ. उच्छमेरगं-अपनीतत्वगिक्षुगण्डिका। आचा० ३४८ । (त्थ)लानि । भग० ३०७। उच्छुहर-अवष्टभ्नाति, विध्यतीत्यर्थः । ज्ञाता० ६८। उच्छलिओ-उच्छलितः-निर्गतः । आव० ४०२ । उच्छढ़-उज्झितं संस्कारपरित्यागात् । सूर्य० ५। उज्झिउन्छयो-उत्सवः-शक्रोत्सवादिः । प्रश्न. १५५ । इन्द्रोत्स- तम् । भग० १२। राज० ५७ । विपा. ३४। औप. वादिः। प्रश्न० १४०। ..... ८४ । जं. प्र. १६ । उच्छहया-उत्सहन्-अर्थोथमवान् । दश० २५३ । उच्छढ-निःमृतः । सूय० ९२। अवक्षिप्त:-अर्गलास्थानाउच्छा-तुच्छा, रिक्ता । (गणि०)। . निष्कासितः। जीवा० २७२। स्वस्थानादवक्षिप्तो-निष्काउच्छाइओ-उत्सादितः। आव० ३९८ । शितः। जं. प्र. १११। प्रश्न. ८१। उच्छाएइ-आच्छादयति। आव० ६२४ । . उच्छढसरीरे-उच्छृढशरीर:-उज्झितमिवोज्झितं तसंस्काउच्छाडणं । नि. चू० प्र० १२१ अ। रत्यागात् शरीरं येन सः । भग. १२ । उच्छायणयाए-उच्छादनतायै, सचेतनाचेतनतद्गतवस्तू. उडदाई-लंटितानि । बृ. प्र. ५७ अ। च्छादनाय । भग ६८४ । उच्छूनं । ओघ० २१६ । । उच्छाह-उत्साहः-वीर्य । सम० ११८। उच्छनावस्था-विनष्टावस्था । जीवा० १.७॥ उच्छिंपक-अवच्छिम्पक:-चौरविशेषः । प्रश्न. ४७ । उच्छ्ररं-अकालम् । ओघ० १४८ । उच्छिंपणं- उत्क्षेपणं-जलमध्यान्मत्स्यादीनामाकर्षणम् । रया-सुप्रावृत्ता। बृ द्वि. ३५६ आ। प्रध.. उमडेवा-उच्छेवा नाम यत्र पतितमारब्धं तत्रान्यस्यकार: उच्छिण्णं । नि० चू० द्वि० १०४ अ। संस्थापनम् । व्य० द्वि० ५ अ। उच्छिन्नगोत्तागारं-उच्छिन्नगोत्रागारम् , उच्छिन्नं गोत्रागार- उच्छोडेइ-उच्छो यति । आव० ३९९ । तत्स्वामिगोत्रगृहं यस्य तत् । भग २००। । उच्छोभवंदणयं-इच्छामि खमासमणो बंदि जावणिजाए (१७३) 2010_05 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उच्छोभो अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उजाण ] निसीहियाए तिविहेणं एयं उच्छोभवंदणयं । नि० चू० द्वि० आचा० २४८ । बृ० तृ. २१८ आ । विशे० ४९६ । कुणा. ९३ अ। लस्य पितृदत्ता नगरी। विशे० ४०९।' उच्छोभो-आलः, कलङ्कः । आव० ४०१। उज्जयिनीराजपुत्र-उज्जयिन्याः राजपुत्रः । आचा०२४८ । उच्छोलणं - एकसिं धोवणं उच्छोलणं । नि० चू, द्वि० उजरा-प्रवाहाः। आव० ६२० । ११८ आ। तेल्लादिणा फासगअफासाण देसे उच्छोलणं । निल उजल-उज्ज्वल:-विपक्षलेशेनाप्यकलाकृतः। भग०४८४. चू० द्वि० ८९ अ। उच्छोलन-अयतनया शीतोदकादिना ___२३१ । निर्मलः । जीवा० २२७ । ज्ञाता. २२१ । बहिःहस्तपादादिप्रक्षालनम्। सूत्र. १८१। श्वेतवर्ण: । जं. प्र. ५२८ । उज्जवलम्-मुखलेशवर्जितम् । प्रश्न. १५६ । शुद्धम् । जीवा० १८८।। उच्छोलणा-उच्छोलना-पुरीषमुत्सृज्य प्रभुतेन पयसा क्षालनम् । ओघ० ५५ । ओघ० १२० । एक्कसि उच्छोलणा।। उजला-उज्ज्वला।आव० १९२। विपक्षलेशेनाप्यकलङ्किता। प्रश्न. १७ । उत्-प्राबल्येन मलिनशरीराः अलब्धसुखांस्वानि० चू० प्र० १८८ अ। उच्छोलणापहोअ- उत्सोलनया - उदकायतनया प्रकर्षण दाश्च । बृ० द्वि. ४० अ । धावति-पादादिशुद्धिं करोति यः स उत्सोलनाप्रधावी । दश. उजा-ऊर्जा-बलम् । व्य० प्र० १४४ आ। १६० । उजाण-जत्थ लोगो उजाणियाए वञ्चति। जं वा ईसि णगउच्छोलिंति-प्रक्षालयन्ति । गणि । रस्स उवकंठ ठियं तं । नि. चू० प्र०२६५ अ। पुष्पादिमद्अग्रतो मुखां चपेटां ददाति । भग० १७५ । वृक्षसंकुलादी उत्सवादी बहुजनभोग्यम् । प्रश्न० १२७ । ऊच उच्छोलेज-ईषद् उच्छोलनं विदध्यात् । आचा० ३६३ । यानमस्मिन्निति उद्यानम्-उदकम् । आव. ७९७ । पुष्पासकृदुदकेन प्रक्षालनं कुर्यात् । आचा० ३४२। . दिसवृक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यम् । जीवा० २५८ । उच्छोलेति-सकृदुदकेन प्रक्षालनम् । नि० चू० प्र० ११६ आ। आव. १९७ । ऊ यानमुद्यानं-मार्गस्योन्नतो भागः, उदृत, उजु-ऋजु:-मायारहितः संयमवान वा । दश० २६२ । इत्यर्थः । सूत्र०८८ । पुष्पादिम वृक्षसंकुलबहुजनभोग्यवन विशेषः । प्रश्न० ७३ । पुष्पादिमवृक्षसंकुलमुत्सवादी बहु. उजुर्ग-दृष्टिवादे सूत्रभेदः। सम० १२८ । जनभोग्यम् । प्रश्न. १२७ । औप०३। क्रीडार्थागतनउजमइ-ऋजुमतिः, ऋज्वी-प्रायो घादिसामान्यमानग्रा. नानां प्रयोजनाभावेनोविलम्बितयानवाहनाद्याश्रयभूतं तरुहिणी मतिः । विशे० ३८ । उजुवालिआ-ऋजुबालिका, वीरस्य केवलोत्पत्तिस्थानम् । खण्डम् । ज० प्र० ३८८ । पुष्पफलोपेतादिमहावृक्षसमुदाय रूपम् । औप. ४१। जनक्रीडास्थानम्। दश० २१८ । आव० १३९ । पुष्पादिमवृक्षसंकुलं, उत्सवादी बहुजन भोग्यम् । भग० उज-आषत्वादुद्द्योतयतीति उद्योतः । उत्त० ३८। । २३८ । पुष्पादिमयवृक्षसंकुलमुत्सवादौ बहुजनोपभोग्यम् । उजमंतो-मूलत्तरगुणेसु विसुद्धो विवित्तो। नि० चू० द्वि० राज० ११२ । ऊर्च विलम्बितानि प्रयोजनाभावात् यानानि २५ अ। यत्र तदद्यानं-नगरात्प्रत्यासन्नवर्ती यानवाहनक्रीडागृहाद्या. उज्जम-उद्यमः-यथाशक्ति अनुष्ठानम् । आचा० १५० । अना। श्रयस्तरुखण्डः । राज. २३ । चम्पकवनायुपशोभितमिति। लस्यम् । औप. ४८। ठाणा० ३१२ । औद्यानिक्यां निर्गतो जनो यत्र उजममाणो-उद्यच्छन्-उद्यमं कुर्वन् । आय. ५३४।। भुंक्ते । व्य. द्वि० ३६२ अ । वस्त्राभरणादिसमलउज्जयनी-नगरीविशेषः । नंदी १४५ । । कृतविग्रहाः सन्निहिताशनाद्याहारमदनोत्सवादिषु क्रीडाथ उज्जयन्त--पर्वतविशेषः । जं. प्र. १६८ । क्रीडापर्वतवि-। लोका उद्यान्ति यत्र तच्चम्पकादितरुखण्डमण्डितम्। शेषः। भग० ३०६। रैवतकम् । उत्त० ४९२ । अट्टनमल- अनु. २४ । पत्रपुष्पफलच्छायोपगतवृक्षोपशोभितं, विविधवास्तव्यनगरम् । व्य. द्वि. ३५७ अ। वेषोन्नतमानश्च बहुजनो यत्र भोजनार्थ यातीति । समा उज्जयिनी-चण्ड प्रद्योतराजधानी । प्रश्न. ९० । नगरीविशेषः। ११७ । पुष्पफलादिसमृद्धानेकवृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहु (१७७) 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उजाणगिहाणि आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उज्जुसुते ] १५७। जनपरिभोग्यानि। अनु० १५९ । पुष्पादिमवृक्षयुक्तम्।। उज्जुकडे-ऋजुकृतः-ऋजुः-संयमस्तत्प्रधानं ऋजु वा-मायाभग. ४८३। आरामः क्रीडावनं वा। उत्त. ४५१।। त्यागतः कृतम्-अनुष्टानं यस्य सः। उत्त० ४१४ । उजाणगिहाणि-उद्यानगृहाणि । ठाणा० ८६ ।। उज्जग-अजुम् । आव० ३८४ । दक्षिणहस्तः । ओघ. उजाणानि-उद्यानानि-पत्रपुष्पफलच्छायोपगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्योन्नतमानस्य भोजनार्थ यानं- उज्जुजडु-ऋजवश्व प्राञ्जलतया जडाश्च तत एव दुष्प्रतिपागमनं येषु । ठाणा० ८६। द्यतया ऋजुजडाः । उत्त. ५०२ । उजाणियलेणाइ-उद्यानगतजनानामुपकारिकगृहाणि नगर- उज्जुतभिन्नं-यत् चिर्भटादिकं विदार्य ऊर्जफालिरूपाः पेश्यः प्रदेशगृहाणि वा। भग० ६१७ । कृतं तद् ऋजुकभिन्नम् । बृ० प्र० १७५ । । उज्जाणिया-उद्यानिका । आव० ६७९ । उज्जुते -- ऋजुकः-अवक्रः, उद्यतो वा-अनलसः। प्रश्न. उज्जाणियागओ-उद्यानिकागतः । आव. ४०२। उज्जाणियागमणं-उज्जानिकागमनं। आव० ४५३ । | उज्जत्तो-उद्युक्तः । ओघ० १६०। उजाणेत्ति-प्रतिलोमगामिनीत्यर्थः । नि० चू०प्र० ४४ आ। उज्जदंसी- ऋजुदर्शी-ऋजर्मोक्षं प्रति ऋजत्वात्संयमस्तं उज्जालंतं-उज्ज्वालनम्-व्यजनादिभिवृद्धयापादनम् । दश० पश्यत्युपादेयतयेति ऋजुदर्शी-संयमप्रतिबद्धः । दश० ११८ । १५४। उज्जुपन्न-ऋजुप्रज्ञः । ठाणा. २०२। उज्जालओ-प्रज्वालकः। नि० चू० प्र० ५० अ। उज्जुभूयं-ऋजुभूत-प्रगुणीभूतम् । उत्त० १८५। उज्जालेह-उज्ज्वालयत, दीपयत । जं. प्र. १६२।। | उज्जुमद-ऋजुमतिः-मार्गप्रवृत्तबुद्धिः । दश० १६० । उजिंतगिरि-उज्जयन्तगिरिः, पर्वतविशेषः । आचा० ४१८। उज्जुमई - ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिरस्य स। नंदी नंदी ६०। १०९, १०८ । ऋज्वी-सामान्यतो मनोमात्रग्राहिणी मतिःउजिओ-बलवान् । बृ. द्वि० १९५ अ। मनःपर्यायज्ञानं येषां ते। औप० २८ । उजितं-ऊर्जितम् । आव० ३०४।। उज्जुया-ऋजुका-न वक्रा। जीवा० २७१। उज्जीवाविया-उज्जीविता। आव० ५५९ । उज्जुवालिया-ऋजुवालिका, वीरस्य केवलोत्पत्तिस्थानम् । उज्जीवितेवाशीर्वाद । नंदी १६० । आव० २२७। उज्जु-समं संजमो वा। दश० चू० ५२ । ऋजोः- ज्ञानदर्शन- उज्जुसंधिसंखेडयं-उज्जुसंधिसंखेडयाओ वा सगडमग्गं चारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलः, यथावस्थितपः पर्वदेति। नि० चू० द्वि० ८६ अ। दार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वा, सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्रः । आचा० १५४। उज्जसुअ-ऋजु-अतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिहारेण ऋजुः-अकुटिलः । आचा० ४२। अवक्रः, अविपरीतस्व. वाऽकुटिलं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । विशे० ३१ । भावः। ठाणा. १८३ । अवक्रः। उत्त० ५९० । गृहाभि- ऋजुसत्रः - ऋजु - वर्तमानमतीतानागतवकपरित्यागाद् मुखः। ओघ० १५६ । वर्तमानमतीतानागतवपरित्यागाद् । वस्त्वखिलं तत्सूत्रयति-गमयतीति । ऋजुश्रतः-ऋजु-वक्रविवस्वखिल, वऋविपर्ययादभिमुखं वा । आव. २८४ । पर्ययादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानमस्येति । आव २८४ । ऋजु-. अतीतानागतपरकीयपरिहरणमाञ्जलं वस्तु। अनु० १८।। अवकं श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतः, ऋजु-अवकं वस्तु सूत्र. उज्जुअ-ऋजुकम्-मायारहितः । पिण्ड. १४७ । अभिमुखः।। यतीति ऋजुसूत्रः। विशे० ९०७ । ठाणा. ३९२ । दश० १८४ । उज्जुसुते - ऋजु-वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं-ज्ञानं यस्यासौ उज्जुआयता- ऋजुश्वासावायता चेति ऋज्वायता यया ऋजुश्रुतः, ऋजु वा-वत्तमानमतीतानागतवकपरित्यागाद्वस्तु जीवादय ऊर्ध्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यान्ति । भग० सूत्रयति-गमयति इति ऋजूसूत्रः। ठाणा० ३९० । ऋजु८६६ । ऋज्वी-सरला सा चासावायता च-दीर्घा ऋज्वा- वक्रविपर्ययादभिमुख श्रुतं-ज्ञानं यस्य सः । ठाणा० ३९२ । यता । ठाणा० ४०७ । ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुतं--श्रुतज्ञानं यस्येति । ठाणा० १५२। (१७८) 2010_05 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उज्जुसुयं ऋजुः - अवक्रं श्रुतमस्येति । अनु० २६५ | स्वकीयं संप्राप्तं च वस्तु नान्यदित्यभ्युपगमपरः, ऋजु वा अतीतानागतवकपरित्यागाद्वर्त्तमानं वस्तु सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः ठाणा० १५२ । उज्जुसुयं - ऋजुसूत्रं नयगतौ भेदः । प्रज्ञा० ३२७ । ऋजुअतीतानागतपरिहारेण प्राञ्जलं वस्तु सूत्रयति-अभ्युपगच्छतीति ऋजुसूत्रः । अनु० १८ । उज्जुसेढीपत्ते - ऋजुश्रेणिप्राप्तः - ऋजुः - अवक्रा श्रेणिःआकाशप्रदेश पंक्तिस्तां प्राप्तः । अनुश्रेणिगतः । उत्त० ५९७ । उज्जुहिता - प्रेर्य । उत्त० ५५१ । उज्जू - ऋजुः - यतिः, यतिरेव परमार्थतः ऋजुः । आचा० १५६ । उज्जूहिगा - गावीओ उज्जूहिताओ अडविहुत्तीओ उज्जुहिंज्जति अहवा गोसंखडि उज्जूहिगा । नि० चू० द्वि० ७१ अ । उज्जेत - रैवतकः । बृ० द्वि० १०६अ। उज्जयन्तः पर्वतविशेषः । आव ० ८२७ । परदारगमने पर्वतविशेषः । आव ० ८२३ । उज्जेणय- उज्जयिनीकः । आव ० ६३६ । उज्जेणा- उपयोजना-संघट्टना । बृ० द्वि० १४६ अ । उज्जेणि-उज्जयिनी, गुरुनिग्रहविषये पुरी । आव ० ८१३ । सर्वकामविरक्तताविषये नगरी । आव० ७१४ | अज्ञातोदा हरणे प्रयोतराजधानी । आव ० ६९९ | मालवदेशे नगरी । दश० ५७ । शिल्पसिद्धदृष्टान्ते पुरी । आव ० कायदण्डोदाहरणे नगरीविशेषः । आव ० ५७७ । स्थविरनिर्यामणास्थानम् । आव० ३०२ । उज्जेणिगाओ - औजयिन्यः । आव ० ६४ । उज्जेणिया- उद्यानिका | आव० २१० । 2010_05 उज्जेणी - उज्जयिनी, लवालवोदाहरणे नगरी । आव ० ७२१ । गुणविषये पुरी । आव ० ८१९ | विनयदृष्टान्ते पुरी । आव० ७०४ । शिल्पकर्मविषये नगरी । आव० ४०९ । स्थिरीकरणोदाहरणे नगरी । दश० १०३ | योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधादृष्टान्ते नगरी आव० ६६८ । जितशत्रुराज धानी । उत्त० २१३, १९२ । औत्पत्तिकीदृष्टान्ते नगरी । आव० ४१५ । भद्रगुप्ताचार्यस्थानम् । आव० २९२ । नग. विशेषः । वृ० प्र०] १९१ अ १९० आ । योगसंग्रहे शिक्षा उज्जोअ - उद्योतः - प्रभासमूहः । जीवा० २६७ । अनुष्णप्रकाशः । जं० प्र० ४३३ । दीप्यमानता । जीवा० ३९९ । उद्योतं - चान्द्रप्रकाशम् । जं० प्र० २२९ । उज्जोइंति - उद्योतयन्ति । भग० ३२७ । उज्जोएइ - उद्योतयति-भृशं प्रकाशयति । भग० ७८ । उज्जोएमाण - उद्योतयन् । औप० ५० । उज्जोओ- उद्योतः - रत्नादिप्रकाशः । उत्त० ५६१ । उज्जोयगरे उद्योतकरः - केवलालोकेन तत्पूर्वक प्रवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलः । आव० ४९४ । ४१० | | उज्जोयणामे-यदुदयाज्जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं भद्रगुप्तकुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवै क्रिय चन्द्रनक्षत्रता र विमान रत्नोवयस्तदुद्योतनाम | प्रज्ञा ० ४७४ । 2 उज्जोवणं - गाविणं पसरणं । नि० ० प्र० १०७ अ । उज्जीवेंति - उद्योतयन्ति । सूर्य ६३ । उद्योतयतः- भृशं प्रकाशयतः । जं० प्र० ४६१ । उज्जोवेमाणा - उद्योतयमानः स्थूलवस्तूपदर्शनतः । ठाणा ४२१ । उज्झतगं-उज्झितकं, त्याज्यम् । आव० ६६८ । उज्झता- क्षपयन्तः । अनु० १३१ ॥ उज्झसिओ तिरस्कृतः । आव २०४ | उज्झक्खणिया - पवनप्रेरिता उदककणिकाः । वृ० द्वि० २९ आ । उज्झक्खणिया ] दृष्टान्ते नगरी । आव ० ६७२ । प्रथमे आलोचनायोगे नगरी । आव० ६६४ | योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते नगरीविशेषः । आव० ६६७ । हस्तिमित्रगाथापतिस्थानम् । उत्त० ८५ । देवदत्तागणिकावसननगरी। उत्त० २१८ । उज्जयिनी नगरी विशेषः । उत्त० ९९, २९४, १२७, ८७ । प्रद्योतन राजधानी । उत्त० ९६ । चेटीदेवतोक्तं भग्नसाधुस्थानम् । बृ० प्र० १७१ आ । बृ० प्र० ३९ अ नगरीविशेषः । नि० चू० प्र० २४३ अ । नि० चू० द्वि० ५७ आ । बृ० प्र० १९१ अ । बृ० द्वि० २६७ अ । कालकाचार्यविहारभूमिः । नि० चू० प्र० ३३९ आ । बृ० प्र० ४७ अ । बृ० तृ० १४९ अ । उज्जेणीनयरी - अवन्तीजनपदे नगरी । उत्त० ४९ । उज्जेणीसावगसुतो - उज्जयनीश्रावकपुत्रः- उज्जयिन्यां श्रावकसुतः । उत्त० २९४ । (२७९) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उज्झखणी आचार्यश्रीभानन्दसागरसूरिसङ्कलितः उट्ठा(ट्टा)] उज्झखणी-दगवातो सीतभरो सा य उज्झखणी भण्णति । उझियधम्मा-चतुर्थी वस्त्रेषणा । आचा० २७७ । यत्परिनि० चू० प्र० २३२ आ। त्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्क्षन्ति उज्झणं-बहिर्नयनं । विशे० १००९। तदर्द्धत्यक्तं वा गृह्णत इति, सप्तमी पिण्डैषणा। ठाणा० उज्झनं-परिशाट: । आव० ५७६ । ३८७। आव० ५६८, ५७२। । उज्झमज्जी-उद्घाटनम । आव०६६५। उज्झियधम्मिय-उज्झितधर्मिक-उज्झितं-परित्यागः स एव उज्झयारेमि-उपकरोमि। बृ० प्र० ४६ आ। धर्मः-पर्यायो यस्यास्ति तत् । अन्त०३ । उज्झितधर्मिकाउज्झर-अवझर:-पर्वततटादुदकस्याधःपतनम् । भग० २३८। । सप्तमी पिण्डैषणा । आचा० ३५७। जं असणादिगं गिही प्रवाहः। (तं०)। उज्झरः-प्रवाहः। नंदी ४७। गिरि- उजिउकामो साह य उवद्वितो तं तस्स देति ण य तं कोई तटादुदकस्याधःपतनानि। जं. प्र. ६६। गिरिष्वम्भसा अण्णो दुपदादि अभिलसति एसा उज्जियधम्मिया। नि० चू० प्रस्रवाः । प्रज्ञा० ७२ । निज्झरः । ज्ञाता० २६। तृ. १२ अ। नि० चू० द्वि० १६३ आ। उज्झररवो-निझरशब्दः। ज्ञाता० १६१। । उज्झियधम्मे-उज्झितमेव धर्मः-स्वभावो यस्य तद् उज्झिउज्झा-उज्झा-उपयोगपुरस्सरं ध्यानकर्तारः। विशे० १२२९ । । तधर्म-परित्यागार्हम् । बृ० प्र. ९७आ। अयोध्या, सगरराजधानी। आव. १६१। अजितनाथ उट्ट-उष्टः । प्रज्ञा० २५२ । उष्ट्र:-द्विखुरचतुष्पदविशेषः । जन्मभूमिः। आव० १६०। उ इत्येतदक्षरं उपयोगकरणे | प्रज्ञा० ४५। जीवा० ३८ । म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । वर्तते, ज्झ इति चेदं ध्यानस्य भवति निर्देशे, ततश्च प्राकृ उट्टण-आवर्तनम्-भक्तीभवनम् । व्य० प्र० २०३ आ। तशेल्या उज्झा, उपयोगपुरस्सरं ध्यानकर्तार इत्यर्थः । उवामा-उष्ट्री। आव४१८ । आव० ४४९ । अनन्तनाथजन्मभूमिः। आव० १६० । उज्झाइओ-विरूपः । बृ० द्वि. २४१ अ। उट्टिए-उष्ट्राणामिदम् औष्ट्रिकम् । अनु० ३५। उष्ट्रिका-- उज्झाइंग-जुगुप्सा । बृ. वि. २२९ आ। बृहन्मृन्मयभाण्डम् । उपा० ४। उज्झाइतं-विरूपं । बृ० द्वि० २२९ आ। । उट्टिते-उष्ट्रलोममयम् । ठाणा० ३३८ । उज्झातो-उपाध्यायः। उत्त. १४९ । उहितो-उव्वसिओ। नि० चू० प्र० १७८ आ। उट्टियं-उट्टरोमेसु उट्टियं । नि० चू० प्र. १२६ अ। उज्झाहि-उज्झीः । आव० २१७ । उज्झिआ-उज्झिता-सद्विवेकशून्या। सूत्र. ९२। उट्टिया - उष्ट्रिका-महामृण्मयो भाजनविशेषः । औप० उज्झिणिका-पारिष्टापनिका। बृ० तु. १२३अ । बदि । १०६। मृण्मयो महाभाजनविशेषः। उपा० २१। मुरा२४२ आ । तैलादिभाजनविशेषः । उपा० ४० । उरिहत्तिकरणं । नि. उज्झितं-छद्दितं, त्यागम् । पिण्ड० १६९ । चू० तृ. ५९ अ, ६१ अ। उज्झितक-विजयसार्थवाहपुत्रः । ठाणा० ५०७ । दु.खविपा-- उट्टियासमणा-- उष्ट्रिका-महामृप्मयो भाजनविशेषस्तत्र कानां द्वितयमध्ययनम् । ठाणा. ५०७ । प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति उष्ट्रिकाश्रमणाः । औप. उज्झित्तए - उज्झितुं-सर्वस्या देशविरतेस्त्यागेन । ज्ञाता० | उठें-ओष्ठ-कर्णम् । ओघ० २१५ । उज्झिय-उज्झितः-उज्झितधर्मा, सप्तमी पिण्डैषणा । आव० उटुंभिया-अवष्टभ्य-आक्रम्य । आचा० ३१२ । ५७२ । उज्झितधर्मा । आव० ५६८ । उ?ण-उत्थितः । बृ. द्वि० ७९ अ। उज्झियए-उज्झितकः-सुभद्राविजयमित्रसार्थवाहयोः सुतः। उट्टवेसि-उद्धरसि । ज्ञता० ६९ । विपा. ४६। सार्थवाहपुत्रः, अन्तकृद्दशास दुःखविपाकानां उटा-उत्था-कायस्यो भवनम् । औप० ८३। ऊर्ध्व वर्तनम । द्वितीयमध्ययनम् । विपा० ३५। सूय० ६। भग० १४ । उष्ट्री। दश० १९३ । उज्झियतो-उज्झितः-त्यक्तः । आव. ८२३ । | उट्टा(ट्टा)-उष्ट्रा:-जलचरविशेषाः । सूत्र. १६० । (१८०) 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उडाए उठाए - उत्थाय - उद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालङ्कारं परित्यज्य | पञ्चमुष्टिकं लोचं विधायैकेन देवदुष्येणेन्द्रक्षिप्तेन युक्तः कृतसामायिक प्रतिज्ञ आविर्भूतमनः पर्यायज्ञानोऽष्टप्रकार कर्मक्ष याथ तीर्थप्रवर्तनार्थं चोत्थाय । आचा० ३०१ । उत्थानं उत्था - ऊध्वं वर्त्तनं । राज० ५८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः उट्ठाण उत्थानम् उद्वसनम् । नंदी २०७ । प्रथममुद्गमनम् । उत्त० ३५१ । जन्म। भग० ६६१ । चेष्टाविशेषः । ठाणा० । २३ । उत्थानम् । पिण्ड० ७१। ऊर्ध्वभवनम् । भग० ३११ । सूर्य ० २८६ | श्रवणाय गुरुं प्रत्यभिमुखगमनम् । सूर्य • ० २९६ । देहचेष्टा विशेषः । प्रज्ञा० ४६३ । ऊर्ध्वं भवनम् । जं० प्र० १३० । उत्पत्तिः । ज्ञाता० १८९ । उपरियाणियं परियानं विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियानिकं चरितं उत्थानात् जन्मन आरभ्य पारियानिकं उत्थान पारियानिकम् । भग० ६६० । उणपरियाणियं - उत्थान पर्यापन्त्रिकम् । आव ०६५। उड्डाण सुप-उत्थानश्रुतं उद्वसनं तद्धेतुः श्रुतमुत्थानश्रुतम् । नंदी २०७ । उट्ठाय - उत्थाय - अभ्युपगम्य । आचा ३८ | सर्व सावद्यं कर्म न मया कर्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दरमारुह्य आदायगृहीत्वा । आचा० १४० । उडावणा-उच्चेव ठावणा उत प्राबल्येन वा द्रावणा उद्घावणा । नि० चू० द्वि० ४७ अ । उठावणगहणं - उपस्थापनायां हस्तिदन्तोन्नता का रहस्ता दिभिर्यद् रजोहरणादिग्रहणं । वृ० द्वि० २८६ अ । उडिअ - उयुक्तः | ओघ० २२० । उत्थितः - उद्वमितः । ओघ० ४९ । उद्यतः । ओघ० २२० । उड्डुभह - अष्ट्रीव्यत - निष्ठीव्यत । भग० ६८५ । उट्ठे - उत्थाय - विबुद्धय । भग० १२२ | उडेमि आयामि - आगच्छामि । आव० ६८५ । उडंकरिसी ऋषिविशेषः । वृ० प० २८६ आ । 2010_05 उति उडए - उटजः - तापसाश्रमगृहम् । निरय० २६ । उडओ - ओटजः- तापसाश्रमः । उत्त० १३४ । उडव - उटजः - तापसाश्रमः । जीवा० १०५ । कोटिंवो । नि० चू० द्वि० ७७ आ । पर्णकुटी । आव १८९ । उडवसंठिया - उटजसंस्थिताः - तापसाश्रमसंस्थिताः । आवलिकाबाह्यस्य दशमं संस्थानम् । जीवा० १०४ ॥ उहुंकरिसि - ऋषिविशेषः । नि० चू० द्वि० ६८ आ । उडंडुग- उद्दंडकः- जनहास्यः । नि० ० ० ५० अ। उड्डु ऋतुः । नि० चू० प्र० २३९ अ । उडुपः-तरणकातुम्बकादि । पिण्ड० १०२ । उडुकः- तपः । विशे० ३५३ । उडुकल्लाणिआ - ऋनुकल्याणिकाः, ऋतुषु षट्स्वपि कल्याणिकाः - ऋतुविपरीत स्पर्शत्वेन सुखस्पर्शाः अथवाऽमृतकन्यात्वेन सदा कल्याणकारिण्यः । जं० प्र० २६३ । उडुपं - नौः । आचा० ४१ । उडुबद्धियंत्र -ऋतुबद्धम् शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् । आचा● उट्ठिए-उत्थितः-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवान् । आचा० १७६ । उडुं कुड्यं । वृ० द्वि० ६१ आ । उहुँचकादि उद्घट्टकादि । ओ० ८९ । उत्- प्राबल्येन स्थित उत्थितः । आचा० २५८ । उट्ठिय- उत्थितः - संयमोद्योगवान् । आचा० २२४ । रुजं । नि० चू० प्र० २२८ आ । ईश्वरीभूतम् । पिण्ड० १२३ । उट्ठी - अष्टा । आव० ६२४ । उहुंचगा-उदयकाः- याचकाः । वृ० प्र० ८६ आ । उचय उचका:- उद्देटकास्तान् कुर्वन्ति, आलापकान् काकेन पठित्वा तथैवोच्चरन्ति इत्यर्थः । ० द्वि० ६० आ । ! ३६५ । उडुवई - उडुपतिः- उड़नां-नक्षत्राणां पतिः प्रभुः सः । उत्त ३५१ । उडुविमानं - सौधर्मे प्रथमः प्रस्तटः । ठाणा० २५१ । उडू - कालविशेषः । भग० ८८८ । ऋतवः द्विमासमानाः । ठाणा० ८६ । नक्षत्रः । उत्त० ३५१ । उसवच्छ रे - ऋतुसंवत्सरः, कर्मसंवत्सरः, सवन संवत्सरश्च । सूर्य० १६८ । यस्तिन् संवत्सरे त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति एष ऋतुसंवत्सरः, ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधान संवत्सर ऋतुसंवत्सरः । सूर्य० १६९ । उड्डचये कुट्टियाओ । नि० ०प्र० १७१ अ । उडुंडग ऊर्नीकृतदण्ड: । औप० ९० । उति-व्यवस्थापयन्ति । ०५१९ । (९८१) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उडुंबालग आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उहाई ] उडुबालग - कोट्टपालकः । आव. २०४। आरक्षकः ।। २६८। अनाच्छादितममालगृहम् । ठाणा० १५७ । ऊर्ध्व। आव. २०४। . . नंदी १५४ । उडुग-पलालं । नि० चू० द्वि० ६१ अ। उड्ढकवाडे-ऊर्वमपि लोकान्तं स्पृष्टे ते अधोऽपि च लोकान्त उड्डच्छे-उद्घोषिते। नि० चू० द्वि० १३२ अ। स्पृष्टे ते ऊर्ध्वकपाटे । प्रज्ञा० ७५ । उडुणकं-प्रपंचः । नि० चु० तृ. २६ आ। उड्ढकाएहिं-ऊर्वक्रायैः-द्रोणैः काकै.क्रियः । सूत्र. १३७। उड(ड्डे )ति । नि० चू० प्र० २३२ आ।" उड्डगो । ठाणा० १५८ । उड्डुमरं-उत्थाणं । नि० चू० प्र० १९४ आ। उड्ढघट्टणा-ऊर्ध्वघट्टना-मुसलीद्वितीयभेदः। ऊर्ध्वं कुट्टिकाउडमादी-खितिखाणतो उड्डमादी । नि० चू० द्वि० ४४ आ। दिपटलानि घट्टयति । ओघ० १०९ । उडुहणं-व्यङ्गनयोर्द्वयोरनवस्थाप्यः । बृ० प्र० ३०८ अ। उड्ढचरा-ऊर्श्वचरा-गृध्रादयः । आचा० २९१ । उडाह-उपघातः । ओघ० ८९। प्रवचनहीला। ओघ. हड्डठाण - ऊर्ध्वस्थानम्-कायोत्सर्गादि। उत्त० ६९९ । ४८। खिसा। पिण्ड० १०९ । अपवादः । आव० ८०० । कायोत्सर्गः, ऊर्ध्वतया स्थानम्-अवस्थानं पुरुषस्य ऊर्ध्वउपघातः। ओघ १४९ । आव. १९५ । स्थानम् । ठाणा० ३। उड्डाहितो-निर्भत्सितः। उत्त० १३९ । उड्डत्ता-मुख्यता । भग० २५४ । ऊर्ध्वता-लघुपरिणामता। उडिओ-अवतारितः। आव० ३९६ । प्रज्ञा० ५०४। भग. २३। उडियाओ-अवतारिता। दश० ५७ । उड्डमंतो- उद्वमन् - अधस्तनमध्यमत्रिभागगतवातसक्षोभउड्डयं-उद्गारितम् । आव० ७७९ । वशाजलमूर्ध्वमुरिक्षपन् । जीवा० ३०८ । उड्डयरो-यः समुद्दिशन् संज्ञां वा व्युत्सृजन चपलतया उढरेणु- ऊर्ध्वरेणुः-ऊधिस्तिर्यकचलनधर्मोपलभ्यो रेणुः । भग० २७७ । हस्तादीन्यपि लेपयति । वृ० प्र० २७२ अ। | उहुरेणू-ऊर्ध्वरेणुः-स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मा उड्डयालेउ-मथितुम्-मन्थनं कर्तुम् । दश० ६० । - रेणुः । अनु, १६३ । उड्डुति-छड़ेति । नि० चू० प्र० २९० अ। उड्ढलोए-तिर्यग्लोकस्योपरिष्टादूर्व्वलोकः । प्रज्ञा० १४४ । उड्डह-धरथ । नि० चू० प्र० २३७ अ।। उड्ढलोयतिरियलोए-ऊलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्रउड्ड-वमनं । नि० चू० प्र० ३१५ आ। नि० चू० ५८ अ। देशप्रतरं यच्च तिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाशप्रदेशप्रतरमेष बृ० प्र० ७५ अ। णदीए समुद्दे वा वेलापाणियस्स प्रति- ऊर्चलोकतिर्यग्लोकः । प्रज्ञा० १४४ । कूलं उड़े। नि० चू० तृ० ६३ आ। उवलोयपयरं-ऊर्चलोकप्रतरं-तिर्यग्लोकस्य चोपरि यदेकउहउँच्चत्त-ऊर्ध्वस्थितस्यैकमपरं, तिर्यस्थितस्यान्यत् , गुणो- - प्रादेशिकमाकाशप्रतरं तत्। प्रज्ञा० १४४ । नतिरूपं, संत्रेतरापोहेनोलस्थितस्य यदुच्चत्वं तदूर्वोच्चत्वम्। उद्दवाए - ऊर्ध्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः स ऊर्ध्वठाणा० ३६। | वातः । जीवा० २९। ऊद्र्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः उर्ल्डकप्पेसु-ऊर्ध्वं कल्पेषु-ऊर्ध्वं कल्पोपरिवत्तिषु ग्रैवेयकादि- स ऊर्ववातः । प्रज्ञा . ३० । विमानकेषु कल्पेषु-सौधर्मादिषु, ऊध वा उपरिकल्प्यन्ते उड्डवियर्ड-मालरहितं छाद्यरहितं परं पार्श्वतः कुज्ययुक्तं विशिष्टपुण्यभाजामवस्थितिविषयतयेति सौधर्मादयो -अवेयका- तदूर्ध्वविवृतं भवति । बृ० द्वि. १८१ अ। दयश्च सर्वेऽपि कल्पा एवं तेषु । उत्त. १८६ । | उड्डवेइया-ऊर्ध्ववेदिका, यत्र जान्वोरुपरि हस्तौ कृत्वा उड्डेजाणू-शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिकनिषद्याभावाच्च प्रतिलिख्यते सा। ओघ० ११० ! उत्कटुकासनः सनपदिश्यते ऊर्ध्व जानुनी यस्य स ऊजानुः। उड्ढस्सासो-ऊर्ध्वश्वासः । आव• ६२९ । ज्ञाता० २। .. . | उड्डा-ऊर्ध्व-वमनम् । बृ० प्र० ७५ अ। उड्ड-ऊर्ध्व-कर्णकः। ओघ० १६८ ! सर्वोपरिस्थितम् । उत्त० । उड्डाई-ऊर्खादि-छर्दनादिदोषः । ओघ० १३६ । (१८२) 2010_05 . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उड्डिया अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उत्तमट्टगवेसए ] उड्डिया-ऊ/कृता। आव० २२३। । | उत्कम्पनदीपा:--ऊर्ध्वदण्डवन्तः । ज्ञाता० ४४ । उड्ढोववन्नगा-ऊर्श्वलोकस्तत्रोपपन्न काः--उत्पमा उर्बोप- | उत्करिकामेदः-समुत्कीर्यमाणप्रस्थकस्येवेति। ठाणा० ४७५। पन्नकाः । ठाणा० ५७ । सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य | उत्कर्षण । ठाणा० २१२। आचा. २७७ । .. ऊर्ध्वमुपपन्नाः ऊोपपन्नाः। जीवा० ३४६ । उत्कुट्टित-चिंचन कादिः । व्य० प्र० २८ अ। उणादि-उणप्रभृतिप्रत्ययान्तं पदम् । प्रश्न. ११७। .... उत्कुरुटिकादि-आसनविशेषः। ओघ० ४१। तुषराश्यादि। उणुयत्ता-स्थिता। आव० २७२।। ओघ० ४१। उडी-पिण्डी। ज्ञाता. ९१। उत्क्षिप्तचरका-उत्क्षिप्त-पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोउण्णए - उच्छिन्नं नतं-पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुनतम् , दृत्तं तद्ये चरन्ति-गवेषयन्ति ते। बृ० प्र० २५७ आ। उच्छिन्नो वा नयो-नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः।। उत्क्षिप्यते । ओघ० २१५। भग० ५७२ । उत्तइया-उत्तेजिता-अधिकं दीषिता। दश० ११५ । । उण्ण णं । नि. चू. प्र. १२४ अ । उत्तणं-उत्तृणम्-उद्गततृणम् । प्रश्न०. १४ । । उण्णमणी-उन्नामिनी-विद्याविशेषः। दश. ४१। उत्तणा-दीर्घत्रि(तृ)णा । नि० चू० प्र० ३३६ अ। उण्णय-उन्नतः-प्रधानजातिकः । आव० २४० । | उत्तणाणि-उत्तणानि-ऊर्चीभतानि तणानि दीर्घाणीतियाउण्णयविसालकुलवंसा-उन्नताः प्रधानजातित्वात् वि | वत् तानि यत्र मार्गे भवन्ति । बृद्वि . ७९ आ। शाला:-पितामहपितृव्याद्यनेकसमाकुलाः कुलान्येव वंशाः उत्तत्तकणगवन्ना - उत्तप्तकनकवर्णाः - ईषद्रक्तवर्णाः । अन्वया येषां ते उन्नतविशालकुलवंशाः । आव. २४० । प्रज्ञा० ९५। उपणया-उन्नतानि-गुणवन्ति, उच्चानि । औप० ३ । उपणयासणं-उन्नतासनं-उच्चासनम् । जीवा० २००।। उत्तम-उत्तमो गिरिषु सर्वतोऽप्यधिकसमुन्नतत्वात् , मेरोश्वउण्णागं-उर्णाकं, ग्रामविशेषः। आव० २११। तुर्दशं नाम । जं० प्र० ३७५ । गिरीगामुत्तम इति उत्तमः । उण्णिए-अविलोममयम् । ठाणा० ३३८ । ऊर्णाया इदम् मन्दरस्य चतुर्दशं नाम। सूर्य० ७८ । मिथ्यात्वमोहनीयऔणिकम् । अनु० ३५। ज्ञानावरणचारित्रमोहादित्रिविधतमसः उन्मुक्ता इति उत्तमाः। उणियं-ऊरणो रोमेसु उण्णियं । नि० चू० प्र० १२६ ।। आव० ५०८ । उपरिवर्ति । देवलोकाद्यपेक्षया प्रधानम् । उण्णेज्जं-उपनेयम् । दश० ८६ । उत्त० ३१९ । ऊर्ध्व तमसः-अज्ञानाद्यत्तत्तथा, अज्ञानरहित उहं-उष्ण, उष्णरूपः । सूर्य. १७२ । उषति-दहति जन्तु इत्यर्थः । ज्ञाता. ७६ । मिति उष्णम् । उत्त० ३८। चतुर्थः परीषहः। आव० उत्तमकट्ट-उत्तमकाष्ठा-प्रकृष्टावस्था । जं. प्र. ९८ । उत्तम६५६ । उष्णः-धर्मः । ठाणा० ३४५ । काष्टा-परमकाष्ठा, उत्तमावस्था परमकष्टो वा । भग० ३०५। उण्हकालो-उष्णकाल:-ग्रीष्मः । ओघ० २१२ । उत्तमकट्टपत्त-उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्तः। सूये. उण्हयं-उष्णंम् । आव० ८५८ । उण्हवणं-उष्णापनम्-उष्णीकरणम् । पिण्ड. ८२।। उत्तमकट्टपत्ता- परमकाष्ठाप्राप्ता, उत्तमावस्थायां गता, उण्हा -उष्णा। आव. ३८९ । परमकष्टप्राप्ता. वा। भग० ३०५। उण्होदए-उष्णोदकं स्वभावत एव क्वचिनिझरादावुष्ण- उत्तमट्र- अनशनाय। (आउ.)। उत्तमार्थः-अनशनम् । परिणामम् । जीवा. २५॥ ओघ १४ । उत्तमः-प्रधानोऽर्थः-प्रयोजनं स उत्तमार्थ:-- उण्होदय-उष्णोदकः । आव० ८५५। मोक्षः । उत्त० ३५३ । पर्यन्तसमयाराधनारूपः। उत्त. उण्होला-घृतेलिका । आव. २१७ । ४७९ । मोक्षः । उत्त० ५२३ । उत् - प्राबल्येन, अपुनर्भवरूपतया वा। प्रज्ञा० ११२ । | उत्तमट्टकालंमि-उत्तमार्थकाले-अनशनकाले। ओघ० २२७ प्राबल्ये। प्रज्ञा० ५५९ । उत्तमट्टगवेसप-उत्तमार्थगवेषकः--उत्तमः-प्रधानोऽर्थः-प्रयो 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उत्तमट्टपत्ता आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उत्तरगुणपञ्चक्खाण] जनं उत्तमार्थः, स च मोक्ष एव तं गवेषयति-अन्वेष- उत्तरकिरियं-उत्तरक्रियम्-उत्तरा-उत्तरशरीराश्रया क्रियायतीति । उत्त. ३५३। गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् । भग० २१२ । उत्तमट्टपत्ता - उत्तमार्थप्राप्ताः, उत्तमान् तत्कालापेक्षयो | उत्तरकुरा-उत्तरपूर्वरतिकरपर्वतस्य पश्चिमायामीशानदेवेन्द्रत्कृष्टानन्-आयुष्यकादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ताः, उत्तम स्य रामाराश्याः राजधानी। जीवा० ३६५ । ठाणा. काष्ठां प्राप्ता वा-प्रकृष्टावस्थां गताः। भग० २७७ । २३१ । नेमनाथशिबिकानाम। सम० १५१। उत्तरकुरुः । उत्तमसाहवेहि-उत्तमसाधुभिः । पउ० १-१०। आव० ११६ । मेरोर्जम्बूद्वीपगतः उत्तरतः उत्तरकुरुनामा उत्तमा-उत्तमाः-प्रधानाः, ऊर्ध्व वा तमस इति उत्तमसः। विदेहः। जं० प्र० ३१०। आव० ५०७१. पूर्णभद्रस्य तृतीयाग्रमहिषी। भग० ५०४ । रकुरु-कुरुविशेषः। जीवा० २६६। वापीनाम । जं. ठाणा. २०४। प्रथमरात्रिनाम । सूर्य०, १४७ । जं० प्र० प्र० ३७० । नेमनाथस्य शिबिका। उत्त. ४९२ । साकेत४९१। नगरे उद्यानम्। विपा० ९५। आव० ११५ । क्षेत्रविउत्तमाघम्-पराघ, महाघ वा। दश० २२१। शेषः। ठाणा० ६८।' अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५० । उत्तमुत्तम-उत्तमोत्तम्-अतिशयप्रधानम् । उत्त० ३१९ । उत्तरकुरुकूडे-उत्तरकुरुदेवकूटं। जं० प्र० ३३७ । उत्तमेण-ऊवे तमसः-अज्ञानाद्यत्तत् तथा तेन ज्ञानयुक्तेन । उत्तरकुरुदहे-उत्तरकुरौ महाद्रहः । ठाणा० ३२६ । उत्तरउत्तमपुरुषासेवितत्वाद्वोत्तमेन । भग० १२५। कुरुह्रदः द्रहविशेषः । जं० प्र० ३३० । उत्तयंत-उत्तुद्यमानं-ऊर्ध्व व्यथ्यमानम् । विपा. ७४ । उत्तरकुरुवत्तव्वया उत्तरकुरुवक्तव्यता । भग० २७६ । उत्तरं-वासकप्पकंवली । नि० चू० प्र० ३५३ आ। उत्तरकुरुवाए- उत्तरकुरुषु । पउ० ३१-८ । उत्तरंग-उत्तराझं । जीवा० ३५९ । उत्तरङ्ग-द्वारस्योपरि ति-उत्तरकरुकुड-उत्तरकुरुकूट-गन्धमादनपर्वते चतर्थकटः । यगव्यवस्थितं काष्टम् । जीवा० २०४। जं.प्र. ४८। ० प्र० ३१३ । उत्तर-उत्तरत-उत्तरदिग्वी सर्वेभ्यो भरतादिवर्षेभ्य इति. उत्तरकुलग-गङ्गाया उत्तरकूल एवं वास्तव्यम्। भग मेरुनाम । जं. प्र. ३७६ । ऐरावते द्वाविंशतितमतीर्थकरः । ५१९ । औप० ९०।। सम. १.४ । अग्रवर्ती। विद्यादिशक्त्यभावेऽनल कनीयः। उत्तरकूला- उत्तरकूलगा-गङ्गोत्तरकुलवास्तव्यास्तापमाः जं. प्र. ४६२ । भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्ति- निरय० २५ । कालापेक्षया चोत्तरकालभावि । जं० प्र० ४०२। कार्यम्। उत्तरखत्तियकुंडपुर-नगरविशेषः। आचा० ४२१ । सूत्र. २८५।। उत्तरगंधारा-उत्तरगान्धारा-गान्धारस्वरस्य पञ्चमी मूर्छना। उत्तरअंतरदीवा - उत्तरम्यां दिशि येऽन्तरद्वीपाः। भग. जीवा. १९३ । गान्धारग्रामस्य पञ्चमी मुर्छना। ठाणा. उत्तरउत्तरा-उत्तरोत्तरविमान वासिनः, उत्तरो वा उपरितन- उत्तरगजभो-उत्तरगर्जभः-वातविशेषः । आव० ३८७ । स्थानवर्ती, उत्तर:-प्रधानो येषु ते उत्तरोत्तराः। उत्त० उत्तरगुण-उत्तरगुणः, पौरुषीपुरिमाधैंकासनकोपवासादितपो. १८७। रूपः। विशे० १.१६। उत्तरकंचुइज-उत्तरकञ्चुकः-तनुत्राणविशेषः । विपा. ४६। उत्तरगुणनिर्मितः -- पुरुषप्रायोग्याकारवन्ति द्रव्याणि । उत्तरकंचय उत्तरकचुकः-तनुत्राणविशेषः । विपा.४७॥ आव० २७७ । उत्तरकरणं - मूलतः स्वहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं उत्तरगुणनिर्वर्तितः -- यस्तु काष्ठचित्रकर्मादिष्वालिखितः विशेषाधानात्मकं करणम्। उत्त. १९४। औदारिकवै. सः। वृ. प्र. १४३ अ। क्रियाहारेषु तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादङ्गोपाङ्गनामैवीत्तरकः । उत्तरगणपश्चकखाण -- उत्तरगुण प्रत्याख्यानम् । आव. रणमिति। उत्त. १२७ ।। 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उत्तरगुणलद्धि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उत्तरा] १९३। उत्तरगुणलद्धि - उत्तरगुणाः-पिण्डविशुद्धयादयस्तेषु चेह उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ-उत्तरपूर्वेण, , उत्तरपूर्वस्यां दिशि । प्रक्रमात्तपो गृह्यते ततश्व उत्तरगुणलब्धि-तपोलब्धिम् । जीवा० १४४ । भग. ७९५। उत्तरपुरच्छिमे-औत्तरपौरस्त्यः, उत्तरपूर्वारूपो दिग्विभाग:उत्तरगुणा-दशविधप्रत्याख्यानरूपाः। भग० ८९४ । नि. ईशानकोणः । सूर्य० २। । चू० द्वि. १६६अ। मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादीन् । उत्त० उत्तरपुरस्थिमेल्लं-उत्तरपूर्वे, ईशाने कोणे इत्यर्थः । सूर्य २१ । उत्तरगुणे-उत्तरगुणविषयं-क्रीतकृतादि। आव० ३२५। उत्तरपुव्वा-ईशान कोणः । आव. ६३.। उत्तरचलियं-उत्तरचूडम् , यद् वन्दनं कृत्वा पश्चान्महता उत्तरफग्गुणी-उत्तरफाल्गुनी, हस्तोत्तर। । आव. २५५ । शब्देन मस्तकेन वन्द इति भणति, कृतिकमणि एकोनत्रि- उत्तरबलिस्सहगणे-गणविशेषः । ठाणा । ४५१ । शत्तमो गुणः । आव० ५४४ । उत्तरभद्रपदाः-प्रोष्ठपदाः । सूर्य० ११४ । । । उत्तरज्झ-उत्तराध्यः-उत्तराध्ययनम् । तृतीया नियुक्तिः। उत्तरमंदा -उत्तरमन्दाभिधा गान्धारस्वरान्तर्गता सप्तमी .आव.६१ मूर्छना। जं० प्र० ३८। मध्यमग्रामस्य प्रथमा मूर्छना। उत्तरज्झयणा-उत्तराध्ययनानि । आव. ७५९ । ठाणा० ३९३ । गान्धारस्वरस्य सप्तमी मूर्छना । जीवा. उत्तरज्झयणाई-उत्तराध्ययनानि-सर्वाण्यपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यमून्येव मढयोत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन उत्तरमहुर-वणिग्विशेषः । नि० चू० प्र० २१० अ। प्रसिद्धानि। नंदी २०६ ।। उत्तरवाप-उत्तरवादः-उत्कृष्टवादः । आचा० २४३। उत्तरज्झाप-उत्तराध्यायाः-उत्तरा:-प्रधाना अधीयन्त इत्य उत्तरवेउब्धिते-उत्तरवैक्रियम् । प्रज्ञा. २९८ ।। ध्यायाः-अध्ययनानि तत उत्तराध ते अध्यायाथ। उत्त. उत्तरवेउब्वियं-उत्तरवैकुर्विकम् , उत्तरमुत्तरकालभविनस्वभ७१२। विनस्वभाविकमित्यर्थः, वैकर्विकं विकर्वणं तेन निवत उत्तरड्डभरहकूड -- उत्तरार्द्धभरतनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं उत्तरार्धभरतकूटम् । जं. प्र. ७७ । वैकुर्विकम् । विशिष्टवस्तू विशिष्टाभरणसुश्लिष्टतत्परिधानसउत्तरणं-निरंतरं । नि० चू.द्वि. ७७ अ । एकाए चेव अप्पो मीचीनकुङ्कुमायुपलेपनजनितमतिमनोहारिरामणीयकम् । व्य. य गच्छा मे उत्तरणं । नि० चू० द्वि० ७७ आ। तुंबोडुपादिभि प्र. १९५ आ। उत्तरवैक्रियम्-पूर्ववैक्रियाऽपेक्षयोत्तरकालनौवर्जितैयद् उत्तीर्यते तद् उत्तरणम् । बृ• तृ. १६१ अ । भावि वैक्रियम् । भग० ७२।। जत्थ तरंतो जलं संघद्देति तं सव्वं उत्तरणं भन्नति। नि. उत्तरवेउब्विया-उत्तरवैक्रिया, तद्ग्रहणोत्तरकालं कार्यमाचू० द्वि० ७८ आ। श्रित्य या क्रियते सा । अनु० १६३। । उत्तरदारिता-उत्तरद्वारिका। ठाणा० ४२४ । उत्तरसत्तासुओ-उतरसत्त्वासकः, उत्तरपौरस्त्यवातभेदः । उत्तरद्धे-उत्तरार्द्ध-उत्तरभागे। जं. प्र. ४८२। आव० ३८६। उत्तरपओगकरणं-उत्तरप्रयोगकरणं, जीवप्रयोगकरणद्वितीय- उत्तरसाढा- उत्तराषाढा, अकम्पितजन्मनक्षत्रम् । आव. भेदः । आव ० ४.१८ । २५५ । उत्तरपट्टो-उत्तरपट्टकः । ओघ ० २१७ । उत्तरपट्टः । ओघ० उत्तरसाला ... अत्थानिगादिमंडवो हयगयाण वा साला. उत्तरसाला । नि. चू० प्र० २६९ अ । उत्तरपदव्याहतं-गत्यागतिलक्षणे द्वितीयो भेदः। आव. उत्तरा-उत्तरमथुरा । आव० ६८८ । उत्तरवाचाला । आव. २८१ । १९५। उतराभाद्रपदा-उत्तराफाल्गुनी "उत्तराषाढा उत्तरपरिकर्मक्रियते-उद्धियते । आव• ७६५। ३० । उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभद्रपदा। जं. उत्तरपासो-उत्तरपार्श्वः। जीवा० २०४. ३५९ । प्र. ५.२ । उत्तरमथुरा। आव० ३५६। बोटिकशिव. (१८५) 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उत्तराधर्यम् आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उत्तुअणा ] भूतेर्भगिनी। आव० ३२४ । शिवभूतेभगिनी। विशे० | उत्ताणयं-उतानक-उतानीकृतम् । प्रज्ञा० १०७ । उत्तान१०२२ । मध्यमग्रामस्य तृतीया मूर्छा। ठाणा० ३९३।। कम्-ऊर्ध्वमुखम् । उत्त० ६८५ । भग० १२५ । उत्तराधर्यम् । भग. २६८ । उत्ताणसेजए । निरय० ३४ । उत्तरापथे-देशविशेषः। नि० चू० तृ. ४४ अ। उत्ताणा-उत्ताना । ठाणा. २९९ । उत्तरावकमणं-उत्तरस्यां दिश्यपक्रमण-अवतरणं यस्मात उत्तानं-स्पष्टम् । प्रज्ञा० ५९९ । प्रतलम् । ठाणा. २७८ । उत्तरापक्रमणम्-उत्तराभिमुख पूर्व तु पूर्वाभिमुखमापीदिति। स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वम् । ठाणा. २७८ । भग० ४७७ । उत्तरस्यां दिश्यपक्रमण-अवतरणं यस्मात्तदु. | उत्तानीकृतं । सूर्य• ३६ । त्तरापक्रमणं-उत्तराभिमुखम् । ज्ञाता० ५६ । उत्ताग्ती-अवतारयन्ती। आव० ६७६ । उत्तरावह - उत्तरापथः, उत्तरदिगिभागः । आव० ९९। उत्तारो - उत्तार:-अधस्तादवतरणम् । जीवा० २६९ । नि० चू० प्र० ९६ आ । उत्तरदिग्मता देशाः । विशे० ६२४ । | जलमध्या बहिर्विनिर्गमनम् । जीवा० १९७। . उत्तरदिकसम्बन्धी देशः । आव० ८३०, २९५ । बृ० | उत्तालं-उत्-प्राबाल्यार्थे इत्यतितालमस्थानतालं वा। ठाणा. द्वि. २२७ । नि० चू० प्र० १६ । ३९६ । अनु० १३२ । उत्-प्रावल्येन अतितालं अस्थानउत्तरासंग-उत्तरासङ्गः, वक्षसि तिर्यविस्तारितवस्त्र विशेषः। तालं वा। जं. प्र. ४० । जीवा० १९४। ज० प्र० १८७। उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः । भग. उत्तालिजंताणं-आलपनम् । राज. ४६ । १३८ । . . उत्तासणओ-उद्वेगजनकः । ठाणा० ४६१ । उत्तासणगं-उत्वासनक-भयङ्करम् । ज्ञाता० १३३।। उत्तासणयं -उत्त्रासनिका-स्मरणेनाप्युद्वेगजनिका । भग० उत्तरासमा-मध्यमग्रामस्य चतुर्थी मूर्छना। ठाणा ० ३९३ ।। १५ । उत्तरासाढा-उत्तराषाढानां-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्रा- | उत्तासिया-उतासिता-आस्फालिता। भग० १५४ । णाम् । सूर्य ११४ । उत्तिंग-उत्तिङ्गः-पिपीलिकासन्तानकः। आचा० २८५ । उत्तरासाढाणक्खत्ते-उत्तराषाढानक्षत्रम् । सूर्य० १३० ।। तृगामः। आचा० ३२२। रन्धम् । आचा० ३७९ । उत्तरित्तए-उत्तरीतुं-लवयितुम् । ठाणा० ३०९। उदगं हत्थादिणा पिहेति। नि. चूल तृ. ६३ आ। किटिकाउत्तरिज-उत्तरीयम्-उत्तरासङ्गः। जं० प्र० १८९ । भग० | नगरम् । दरा० १७५ । सर्पच्छत्रादिः । दश. २२९ । ३१९ । वसनविशेषः । भग० ४६८। उपरिकायाच्छादनम्। गर्दभाकृतिजीवविशेषः, कीटिकानगरं वा। आव० ५७३। ज्ञाता. २७ । कीलियावासो। नि० चू० प्र० २५५ आ। कीडयणगरगो उत्तरिजयं-उत्तरीयक-उपरितनवसनम् । उपा० ५०। । उत्तिंगो, फरुगद्दभो वा। नि० चू० द्वि० ८३ अ। कीटिकान. उत्तरीकरणं - उत्तरकरणं पुनः संस्कारद्वारेणोपरिकरणमुः । गरम् । बृ० तृ. १६६आ। छिदें। नि० चू. तृ० ६३ आ। च्यते, उत्तरं च तत् करणं च इत्युत्तरकरणं, अनुत्तर मुत्तरं । कीडियानगरयं। दश० चू० ८० । क्रियत इत्युत्तरीकरणम् । आव. ७७९।। उत्तिंगसुहुम-उतिसूक्ष्म-कीटिकानगरम् । दश० २३० । उत्तरीयं-प्रावरणं प्रच्छदपटीयर्थः । उत्तरीयं पुनर्यत् तदुः| उत्तिण्णो-उत्तीर्णः-अवतीर्णः। ओघ० २० । परि प्रस्तीयते । बृ० प्र० ९८ अ। उत्तिन्न-अवतीर्णः । दश. १९५। उत्तरोटुरोमा-दाढियाओ। नि० चू० प्र० १९. अ। उत्तिम-उतमम्-श्रेष्ठम् । आव० ४८७ । उत्तरो- उत्तरग्रहणात् संजतसम्मदिद्विग्गणं । नि० चू० उत्तिमट्रो-उत्तमार्थः--अनशनम् । बृ.द्वि. १०० अ। उतप्र० ६३ । मार्थः-कालधर्मः। आव• ६२६ । भक्तप्रत्याख्यानम् । उत्ताणग-उत्तानः । आव० ६४८ । उत्तान का:-ऊर्ध्वमुख. आव० ५६३ । शायिनः । जं. प्र. २३९ । उत्ती-उक्तिः, शब्दकरणम् । आव. ४६४ । उत्ताणतो उत्तानकः । उत्त, २४४ । उत्तअणा-उत्तेजना । बृ० द्वि० ७२ आ। 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उत्तइउ उत्तर- (देशी ० ) गर्ने । व्य० प्र० २१० आ । उत्तुइया - उत्तेजिता । बृ० तृ० २७ आ । उडिया - राज्यादि । आव० ५५५ । उपयं उतुपितं स्नेहितम् । प्रश्न० । ५९ । उत्तेड-बिन्दुः । पिण्ड० १० । उत्ता - अपवर्त्य । आव ० ६२४ । उत्थरंत आस्तृण्वन्- आच्छादयन् । प्रश्न० ४७ । उत्थरमाणो अभिभवन् । आव ० ५६७ । उत्थल - उन्नतानि-स्थलानि धूल्कुच्छ्रयरूपाणि । जै० प्र० १६८ । उत्थलं । ओघ० १९२ । उत्था - उत्थानं-मूलोत्पत्तिम् । उत्त० ४७५ । उत्थाण अतिसारः । व्य० द्वि० २७४ अ । उत्थप-यूथं सङ्घान्तरं, तीर्थान्तरमित्यर्थः । उपा० १३ । उत्थितवादः - उत्थितस्तद्वादः । आचा० २०३ | उत्थिय - उत्थियः - यूथिकः । भग० ३२४ । उत्थु भण-अवस्तोभनम् अनिष्टोपशान्तये निष्ठीवनेन थुथुक अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः रणम् । बृ० प्र० २१५ अ । उत्पला - हस्तिनागपुरे भीमस्य भार्या ठाणा० ५०७ । उत्पलिनीकन्द-पद्मनीकन्दः । प्रज्ञा० ३७ । २४७ । उत्पाद पूर्व - प्रथमपूर्वनाम | उत्त० ३४२ । उत्पाद सभी उत्पादभवनविमान भाविनी सभा । प्रश्न० १३५ । उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलं-स्त्रविषये श्रोतॄणां जनितम विच्छिन्न कौतुकं येन तत्तथा । षड्विंशतितमो वचनातिशयः । 'सम० ६३ । उदक- उदङ्को - येनोदकमुदच्यते । जं० प्र० १०१ । जीवा० २६६ । उत्पातनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेकरचितभ्रान्त सम्भ्रान्तः - एकत्रिंशत्तमो नाट्यविधिः । जीवा • उदंचनम् - अरघट्टघटीनिवहादिभिरुत्सेचनम् । उत्त० ५९९ । पिण्डं० १५३ । उत्प्रासनं । उत्त० ४३४ । उत्प्रासयेत् - आचा १२९ । उत्प्रासवचनं । नि० चू० प्र० १०८ आ । उत्प्रास्यमान- उन्नतमाना- गर्वाध्यातो महता चारित्रमोहेन मुद्यति संसारमोहेन वोह्यत इति । आचा० २१६ । उत्प्लुत-भीतः । ज्ञाता ० १६१ । उत्प्लुत्य - बुद्धघा गत्वा । सूर्य० ४७ । उत्सकलय- अनुजानीहि । ओध० ६८ । 2010_05 उदउल | उत्सर्गसमितिः- स्थण्डिले स्थावरजङ्गमजन्तुवजिते निरीक्ष्य प्रमृज्य च मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्गः । तत्त्वा० ९-५ । उत्सर्गसूत्रं । बृ० प्र० ५१ आ । उत्सर्गापवादसूत्रं । बृ० प्र० ५१ आ। उत्सर्पण - क्रियाविशेषः । आचा० ३६४ । उत्सादितं । उ० ६५ । उत्साहः- सूत्रार्थपरावर्तनायामभियोगः । वृ० प्र० ११३ आ । उत्सिक्तं-काञ्जिकस्य सौवीरिणीतो यद् निष्काशनं तत् । बृ० प्र० २७५ अ । उत्सिता । उत्त० ३१९ । उत्सूर वेलातिक्रमः । पिण्ड० ७१ । विशे० ६३७ । उत्सृजति मुञ्चति, निसृजति । विशे० २०९ । उत्सृ ( च्छू ) तम् - प्रासादादि । आ० ८२६ । उत्सृष्टम् उत्सर्जनम् - त्यागः । आचा० ३६२ । उत्सेधबहुलं - उत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना - नाभेरधस्तनभागेन यथोक्त प्रमाणल क्षणेन वर्तत इति सादि, उत्सेधबहुलमिति भावः । जीवा ० ४२ । उदंत- सरीरवट्टमाणी, वत्ता। नि० चू० तृ० १३३ अ । उदन्तः - वृत्तान्तः । आव० ६९२ । उदंतवाहगो - उदन्तवाहकः, वृत्तान्तवाहकः । आव० ५३६ । उदंतवाहतो - - उदन्तवाहक:-दूनः । उत० १०८ । उदइए - उदयः - कर्म्मणां विपाकः स एवौदयिकः क्रियामात्रं, उदयेन निष्पन्नः औदयिकः । भग० ६४९, ७२२ । औदयिकः - ज्ञानावरणादीनामष्टानां प्रकृतीनामात्मीयात्मीयस्वरू पेण विपाकतोऽनुभवनमुदयः स एव यथोक्तेन वोदयेन निष्पन्नः । अनु० १३४ । उदई - उदयः - अनुक्रमोदितस्यैवेति । भग० ५१२ । अनुक्रमगतानामुदयः । भग० ९७३ । उदउल - उदकाद्रः, यद् बिन्दुसहितं भाजनादि गलबिन्दुरिति । ओघ १७० । स्पष्टोपलभ्यमान जलसंसर्ग, अष्का (१८७) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उदउल्लादि भाचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः उदग्ग] यम्रक्षितचतुर्थभेदः । पिण्ड० १४९ । उदकेनाः। अनु० । १०। सम० ३६ । ज्ञातायां द्वादशमध्ययनम् । आव० १६० । गलबिन्दुः। आचा० ३४६. ३७९। उदउल्लादि-उदकार्दादि । आव० ५२ । । उदगतीरं-उदगागारातो जत्थ णिजति उदगं तं उदगतीरं, उदए-पर्वगवनस्पतिविशेषः। प्रज्ञा० ३३। उदयः। ओघ. दूरपि गज्जति उदगं तम्हा ण होइ तं उदगतीरं, तो जत्तिय ११३। उदकः-अन्ययूथिकः । भग. ३२३ । पेढालपुत्रो णदीपूरेण अकमति तं उदगतीरं, अहवा जहिं ठिएहिं निर्ग्रन्थः। सूत्र. ४०९ । षष्ठ आजीविकोपासकः । भग० जलं दीसति अहवा णदीए तडीए उदगतीरं, अहवा जहि ३६९ । जलरुहवनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३१, ३३ । ठितो जलट्ठिएण सिंचति सिंधुगंगादिणा तं जलतीरं, अहवा जम्बूद्वीपभरते आगामिसप्तमतीर्थकरः। सम० १५३ । जावतियं विविओ फुसंति अहवा जावतितं जलेण फुडं तं तृतीयतीर्थकृत्पूर्वभवनाम। सम० १५४ । उदयः-जीवगतो. उदगतार। नि. चू० तृ. १६ आ । ... . लेश्यादिपरिणामः, फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणं कर्म। उत्त० उदगत्ताभा-गौतमगोत्रोत्तरभेदः । ठाणा० ३९० । ३५ । उदयः-विपाकवेदनानुभवरूपः । पिण्ड० ४१ । उदकः। उदगदोणी-उदगदोणी वा-अरहट्टस्स भवति जीए उवरिं प्रश्न २२ । निर्ग्रन्थविशेषः । सूत्र. ४०७॥ घडीओ पाणिय पाडेति । अहवा घरेगणए कदुमयी उदएचरा-उदकचराः-उदके चरन्तीति उदकचराः-पूतरक- अप्पोदएसु देसेसु कीरइ तत्थ मणुस्सा व्हावात। दश• चू० च्छेदनकलोणकत्रसा मत्स्यकच्छपादयः। आचा०२३८ । ११०। जलभाजनं यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय क्षिप्यते। उदकं-जलरुहविशेषः । जीवा० २६ । जलरुहभेदः । आचा० भग. ६९७ । उदकद्रोणि:-अरहट्टजलधारिका। दशक २१८ आ। उदकगृहम्-उदकभवनम् । आचा० ३४१. २३८ । उदगपउरा-उदकप्रचुर:-देशविशेषः सिन्धुविषयवत । बु उदकप्रतिष्ठापनमात्रक-उपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थानम् । तृ० १३८ आ। उदगपडणं-उदकपतनम् । आव. २७३। आचा० ३४१। उदकरजः-उद करेणुसमूहः । औप० ४७ । जीवा० १९१ । उदगबिंदु-उदकबिन्दुः । अनु० १६१ । उदका--बिन्दुसहितं । बृ० प्र० २८२ आ। उदगमाविया-जा उदके छूढपुव्वा सा। नि० चू. प्र.. ४६अ। उदग-उदकं । सूत्र० ३०७। अणंतवणप्फई । दश. चू० उदगमासो- उदकभासः - शिवकभुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः । १२। नि..चू०.द्वि. ७९ अ। उदकम-अनन्तवनस्पति जीवा० ३११। विशेषः । दश. २२९ । नगरपरिखाजलम् । ज्ञाता० १० । उदगमच्छ-उदकमत्स्यः-इन्द्रधनु:खण्डम् । भग० १९६। जलाश्रयमात्रम् । भग. ९२। जनपदसत्यत्वे पयः, उद - इन्द्रधनुषः खण्डम् । जीवा० २८३ । इन्द्रधनुःग्वण्डानि । कादिपर्यायः। दश. २०८ । पूत्युदकोपमानतः खल्वनपा अनु० १२१। नमुपभोक्तव्यम् । साधोरुपमानम् । दश. १९ । शिरापा उदगमाला- उदकमाला - समपानीयोपरिभूता माला । नीयम् । दश. १५३ । जीवा० ३२४ । उदकशिखा, वेलेत्यर्थः । ठाणा० ४८० । . उदगगम्मे-उदकगर्भः-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः । भग० | उदगवलणी। नि० चू० प्र० २४ अ। उदगवारगसमाणं-उदकवारकसमानं-लघुपानीयघटसमा. उदगजोणिया-उदकस्य योनयः-परिणामकारणभूता उद- नम्। जीवा. १२२ । कयोनयः त एवोदकयोनिका-उदकजननस्वभावा। ठाणा. उदगावतं-उदकावोंदकविन्दोमध्ये अवगाह्य तिष्ठदित्यर्थः । १४२ । ! अनु. १६१। उदगणाप-षष्ठाझे द्वादशं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । उदकं- उदग्ग-उदग्रः-उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तर वृद्धिमान् । भग. नगरपरिखाजलं तदेव ज्ञातं-उदाहरणं उदकज्ञातम् । ज्ञाता: १२५ । उच्चं, समुच्छ्रितशिर इत्यर्थः, प्रधानः, बहिः । जीवा 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उदडढे ३४३ । उदप्रः - उच्चः । ज्ञाता० ज्ञाता० ७६ । उदड्ढे - रत्नप्रभायां अपक्रान्तमहानरकः । ठागा० ३६५। उदतण - उदय - उदयगामि, प्रवर्द्धमानं । ठाणा० ३४२ । उदन्त- तुदत्रम् भूमिस्फोटन शस्त्रविशेषः । आव ० ८२९ । - उदात्तः- उन्नतभाववान् । भग० १२५ । - उदधि - जलनिचय: । ठाणा० १७७ । उदधिधनं । जीवा० १९१ । उदपानं - कूपः । बृ० प्र० १८३ अ । उदप्पील - उदकोत्पीलः - तडागादिषु जलसमूहः । भग० १९९ । उम्मेया- उदकोद्भेदः - गिरितटादिभ्यो जलोद्भवः । भग० १९९ । 'उदय - उदीरणावलिकागततत्पुद्गलोद्भूतसामर्थ्यता | आव ७७ । आयामः । भग० १८७ । पनाका भग० १८७ । "पेढालपुत्रः । पाश्र्वजिन शिष्यः । ठाणा० ४५७ । भाविया । नि० चू० ० २६४ आ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः उदायिनृपः ] ६६ । उदप्रः - तीव्रः । | उदरिं वा पित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्तीत्युदरी । आचा० २३५ । उदरी - जलोदरी । प्रश्न० १६१ । उदवाहा - उदकवाहाः - अपकृष्टान्यल्पान्युदक वहनानि । भग० १९९ । उदसि - उदस्त्रित् । नि० चू० प्र० ६ अ । उदहिकुमारा- उदधिकुमाराः वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्त्तिनो देवाः । भग० १९९ । भुवनपतिदेवविशेषः । उदयट्ठी - उदयार्थी, लाभार्थी । सूत्र० ३९४ । उद्यण - उदयनः - वीणावत्सराजः । उत्त० १४२ । उदयणकुमारं - उदयन कुमार, मृगावतीपुत्रः । आव ० ६७ । उदयणमाया- उदयनमाता, भावप्रतिक्रमणदृष्टान्ते भृगावती आर्या आव० ४८५ । उदयनिप्पन्ने - औदयिकभावस्य द्वितीयभेदः । भग० ७२२ । उदय हो - उदकपथः, लोकानां जलानयनमार्गः । आव ० ६४० । उदयभासे - वेलन्धरनागराजस्यावासः । ठाणा० २२६ उदयवद्दलं- उदकवलं भाविरेणुसन्तापोपशान्तये । आव ० २३० १ उदयवर्त्तित्वं समुदयः, समुदायो वा । प्रश्न० ६३ । उदयास्नान्तरं - तापक्षेत्रम् । जं० प्र० ४४२ । प्रकाशक्षेत्रं, तापक्षेत्रम् । जं० प्र० ४५५ । , 2010_05 1 प्रज्ञा० ६९ । उद हिकुमारीओ - उदधिकुमार्यः -- वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्त्तिन्यो देव्यः । भग० १९९ । उदहिनामाणं - उदधिनाम्नाम् आर्यसमुद्राणाम्। आचा० २६२/ उदही सरिसनामाणं - उदधिः समुद्रस्तेन सदृक् सदृशं नाम - अभिधानमेषामुदधि सहग्नामानि - सागरोपमाणि । उत्त उदाहयाए असिवं उदाइयाए अभिहुत । नि० चू० प्र० ९७ अ । उदान्तं - उदात्तत्वं- उच्चैर्वृत्तिता । द्वितीयो वचनातिशयः । सम० ६३ । उदायण - वीतभयराजा । भग० ६१८ । नि० चू० द्वि० १४५ अ । शतानीक राजपुत्रः । विपा० ६८ । भग० ५५६ । अन्तिमराजर्षिः । ठाणा० ४३० । उदायनः - विगतिद्वारे वीतभयनगराधिपतिः । आव ० ५३७। आव० २९८ । सौवीरराजवृषभो राजा । उत्स० ४४८ । प्रद्योतराज्ये गान्धः वैविद्याप्रधानः । आव ० ६७३ । विदर्भनगराधिपतिः । प्रश्न० ८९ । अन्तिमराजर्षिः । बृ० प्र० १६६ अ । उदायित कुमारो - उदायिकुमारः - पद्मावतीपुत्रः । आव ६८३ । उदरं । आचा० ३८ । उदरपोप्पयं - उदरामर्शनम् । आत्र० ६६ । उदरवलिमंसं - उदर वलिमांसं उदरोपरि या वलयाकारा उदायिनृपः - यः कृत्रिमसाधुभिर्मारितः । सूत्र० २५० । मांसरेखा तस्या मांसं । आव० ६७८ ! आव० ५२९ । सूत्र० ३६५ । आचा० ९ । ६४७ । उदाइ - उदायी - कूणिकरराज्ञो हस्ती । भग० ३१७ । नृपविशेषः । आव ० ६८७। भग० ६७३, ६७५ । उदाइज्जा । भग० १८३ । उदाइमारक - साधुवेषधारकः । नि० सू० प्र० २९३ आ । उदाइमारय - श्रमणवेषधारको विनयरत्नमुनिः । नि० चू० तृ० २३ आ । १८९ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उदायिनृपमारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः उदुम्बरदत्त ] उदायिनृपमारक - श्रमणवेषधारको मुनिः । बृ० प्र० २०४ अ । विशे० १२५५ । ठाणा० १८५ । उदायिमारगो उदायिमारकः - श्रमणवेषधारको मुनिः । उदीणवाए - यः उदीच्या दिशः समागच्छति वातः स उदी भग० २०७ । उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वादिति । जं० प्र० ४८० । — नि० चू० द्वि० ३९ अ, ४१ अ । उदायी - कूणिकराजस्य हस्तिराजः । भग० ७२० । कोणिकपुत्रः । ठाणा० ४५६ । उदार- उदारं-उद्भटम् । जं० प्र० २०३ । उदारत्वं- अभिधेयार्थस्याच्छत्वं गुम्फगुणविशेषो वा । द्वाविंशतितमो वचनातिशयः । सम० ६३ । शोभनं । ठाणा० २३३ । प्रथानम् । प्रज्ञा० २६९ । ठाणा० २९५ । तीर्थकर गणधरशरीरापेक्षया शेषशरीरेभ्यः प्रधानं, सांतिरेकयोजन सहस्रमानत्वाच्छेषशरीरेभ्यो महाप्रमाणं वा । अनु० १९६ । औदार्यवान् । भग० १२५ । " उदाला - उदाराः - महान्तः । उत्त० ४१९ । उदाहड - भणिया । नि० चू० तृ० ४९ आ । उदाहरण - चरितकल्पितभेदम् । आव० ५९७ । कथनम् । उत्त० ३२२ । उदाहरणम् - साध्यसाधनान्वयव्यतिरेक प्रदर्शनमुदाहरणं दृष्टान्तः । दश० ३३ । उदाहरे - उदाहरेत् - उदाहृतवान् । उत्त० २४१ । उदाहु उताहो निपातो विकल्पार्थः । भग० १७ । भग० २३७ । उक्तवान् । आचा० १२८ । आहोश्वित् । उपा० ३८ । उदिए - उदित:- उदयं प्राप्तः, स्थित इत्यर्थः । जं० प्र० ५२८ । उदिओदए - उदितोदयः, कायोत्सर्गदृष्टान्ते राजा । आव ० ७९९ । पारिणामिकीबुद्धौ पुरिमतालपुरे राजा । आव ४३० । उदितोदित :- पुरिमतालनगराधिपतिः । विपा० ५८ । श्रीकान्तापतिः । नंदी १६६ । चीनवातः । जीवा० २९ । यः उदीच्या दिशः समागच्छति वातः स उदीचीनवातः प्रज्ञा० ३०। उदीर - उदीरिंसु ३ उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तान् आकृ ष्य करणेन वेदितवन्तः ३ । 'टाणा० २८९ । उदीरितवन्तःअध्यवसायवशेनानुदीर्णोदय प्रवेशनतः । ठाणा० १७९ ॥ उदीरs - उदीरयति - प्राबल्येन प्रेरयति, पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा । भग० १८३ । उदीरण - अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणमिति । ठाणा० १०१, १९५। उदीरणम् - अनुदितस्य करणविशेषा दुदय प्रवेशनम् । भग० ५३ । उदीरणाकरणवशतः कर्मपुद्गलानामनुदयप्राप्तानामुदयावलिकायां प्रवेशनम् । प्रज्ञा० २९२ । करणेनानुष्य दलिकस्योदये दानम् । ठाणा० ४१७ । उदीरणा - अप्राप्तसमये उदयप्रापणं सेव उदीरणा । जं० प्र० १६८ | अत्राप्तकालफलानां कर्मणामुदये प्रवेशनम् । ठाणा० २२१ । -4 2010_05 उदीरणाभवियं- उदीरणाभविकम् - तत्र भविष्यतीति भवा सैव भविका, उदीरणा भविका यस्येति, उदीरणायां वा भव्यं - योग्य मुदीरणाभव्यमिति । भग० ५८ । उदीरिए - उदीरणम्-स्थिरस्य सतः प्रेरणम् । भग० १८ । उदीरणा - उदीरणा नाम अनुदय प्राप्तं चिरेणाऽऽगामिना कालेन यद्वेदयितव्यं कर्मदलिकं तस्य विशिष्टाध्यवसाय लक्षणेन करनाकृष्योदये प्रक्षेपणं । भग० १५ । उदीरिय उत्- प्राबल्येनेरितं प्रेरितं उदीरितं । जीवा० १९२ । उदीरिया - उदीरिताः- स्वभावतोऽनुदितान् पुद्गलानुदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषेण प्रक्षिप्य यान् वेदयते । भग० २४ । उदीरिता - उदयमुपनीता वेदिता । भग● . १८५ । उदीरें तं - उदीरयन्तं - वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तम् । ठाणा० ३८५१ उदीरेइ - उदीरयति - भणति, प्रवर्त्तयति । ठाणा० १९७। उदुम्बर- द्वितीयं महाकुष्ठम् । प्रश्न० १५१ । महाकुष्ठविशेषः । आचा● २३५ । कर्मविपाकस्याष्टममध्ययनम् । ठाणा • ५०८ । खाद्यवृक्षविशेषः । आव ० ८२८ । उदुम्बर दत्त सागरदत्तसार्थवाहसुतः । ठाणा० ५०८ ॥ उदिखते - प्रतीक्ष्यमाणः । बृ० तृ० ११६ आ । उदिष्णं - उदीर्णम् - पीडितम् । आव० ८६३ । विपाकोदय मागतम् । प्रज्ञा० ४०३ । उदिन - उदीर्णम् - स्वतः उदीरणाकरणेन वोदितम् । भग० ९० । उदिन्नमोह - उदीर्णमोह:- उत्कट वेदमोहनीयः । भग० २२३ । उदीणपाहणं - उदगेव उदीचीनं प्रागेव प्राचीनं उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत्प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वाद् उदीचीन प्राचीनम् दिगन्तरं क्षेत्र दिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगित्यर्थः । (१९०) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..[ उदुसेजा उदुरुसेजा - रुष्येत् । नि० चू० द्वि० ४९ आ । उदुसुहं - ऋतुसुखं, ऋतुशुभं वा कालोचितम् । प्रश्न० १४.१ । उदू, उडू - द्विमासप्रमाणकालविशेष ऋतुः । ठाणा० ३६९ । उदूखल - काष्टनिमित्तं खण्डनोपयोगि शस्त्रम् । भग० २१३ । आचा० ३४४ । उदूरूढो - पडिनियत्तो । नि० चू० प्र० १८४ अ । उदो-उदः - म्लेच्छविशेषः । चिलातदेशनिवासी । प्रश्न० १४ ।। उद्गमनप्रविभक्ति - चन्द्रसूर्ययोरुद्गमनं - उदयनं तत्प्रविभक्ती - रचना तदभिनयगर्भ यथा उदये सूर्यचन्द्रयोर्मण्डलमरुणं प्राच्यां चारुणः प्रकाशस्तथा यत्राभिनीयते तदुद्गमनप्रविभक्ति । षष्ठो नाव्यविधिः । जं० प्र० ४१६ । उद्गीर्ण-वान्तम् । उत्त० ३३९ । उद्याहितं-मेलितम् । नंदी १५९ । उद्घाटितः - प्रकाशितः, प्रकटितः । ठाणा० ४१२ । उद्घाटितज्ञः प्रथमो विनेयः । प्रज्ञा० ४२५ । उट्टका उच्चका । | बृ० द्वि० ६० आ । उद्दंडगा - ऊर्ध्वकृतदण्डाः ये सञ्चरन्ति । भग० ५१९ । उद्दंडपुर - नगरनाम | भग० ६७५ । उद्दंडा - ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति । निरय० २५ ॥ उद्दंडुको-जनोपहास्यः । बृ० द्वि० २४२ अ । उद्दस - त्रीन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९५ । उहंसगा - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । उसे उद्देशः । आव ० २१७ । उदर मारणंतिए - उदये मारणान्तिके वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न क्षोभः कार्यः । योगसंग्रहे एकोनत्रिंशत्तमो योगः । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्द कोषः ३७ । उद्दवणकर - मारणान्तिकवेदनाकारि धनहरणायुपद्रवकारि वा । औप० ४२ । 2010_05 उद्दालक ] उद्दवणया-कूदपाशधारणता । भ० ९३ विजाए सप्पो अन्यत्र नीयते । नि० चू० प्र० ३३५ अ । उद्दवणा - उपद्रवणमपद्रवणं वा । प्राणवधस्य नवमः पयायः । प्रश्न० ५ १. उद्दवातितगणे - गणविशेषः । ठाणा० ४५१ । उद्विया - अवद्राविताः - उत्त्रासिताः । आव ० ५७४ । मारिताः । भग० ७६६ । उद्दवेंति - अपद्रावयन्ति - जीविताद् व्यपरोपयन्ति । प्रज्ञा ५९३ । उद्दवेडं - अपद्राव्य । उत्त५ २०७ । उहवेह - विनाशयत् । उपा० ४९ । उद्दवेहिs - अपद्रावयिष्यति - उपद्रवान् करिष्यति । भग० ६९१ । उद्दाता - शोभमाना । ज्ञाता० २७ । उद्दाइ - उद्ददाति- रचयति । भग० ९३ । उद्याति-जलस्योपरि वर्तते । भग० १८४ । अपद्रवति-नियते । भग० १११ । उहाइआ - उपद्राविका, उपरत्रकारिणी । ओघ० १७ उपद्रोत्री । ओघ १५ । आव० ६६४ । उद्दद्दरं - सुभिक्खं । नि० चू० प्र० ८९ अ । सुभिक्षं । नि० चू॰ प्र॰ ३१५ अ । ऊर्ध्वदरं ते दरा ऊर्ध्वं यत्र पूर्यन्ते तदूर्ध्वदरम् । बृ० द्वि० १०० अ । दुविधा दरा-वण्णदरा य पोट्टदरा य, ते ऊद्धं पूरेंति जत्थ तं उद्ददरं - सुभिक्खं । नि० चू० प्र० २२६ अ ।. ४६ । उद्दार्यंति - अपद्वान्ति-प्राणैर्विमुच्यन्ते । आचा० २१७ उद्दवणं - उत्थानं-नाशः | बृ० द्वि० ७९ अ । उद्दवण - अपावणम् - अतिपातविवर्जिता पीडा । पिण्ड० उद्दायणं - वीतभयणगरे सया । नि० चू० प्र० ३४६ आ उद्दाल - अवदालः, विदलनं, पादादिन्यासे अधोगमनम् । विदलनम्। जीवा० २३२ । राज० ९३ । . उद्दालक - एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ ॥ उद्दाइत्ता - अपहृत्य -मृत्वा । भग० १११ । अपदाय-मृत्वा । ठाणा० ४७१ । अवप्राय-मृत्वा । जीवा० २६२ । जं० प्र० ४२५ । उद्दाणं - उदाण, वैधव्यम् । आव ० ४३७ । उहाणगं - मृतकम् । आव ०७०० । उद्दाणभत्तारा- अपद्रागभतृका, भत्तारेण परिठविता । नि० चू. प्र० १०९ आ । उद्दाणि - उदा :- सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्नचर्मनिष्पन्नानि उद्राणि । आचा० ३९४ । उद्दाम उद्दामः चरणनिपात जीवोपमनिरपेक्षत्वाद्द्रुत: चारी । अनु० २६ । उद्दामिया उद्दामिता- अपनीतबन्धना, प्रलम्बिता । बिपा १९१ - - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उदाला माचार्यश्रीभानन्दसागरसूरिसङ्कलितः उद्देसिअचरिमतिग ] उद्दाला-उद्दालाः, द्रुमविशेषः । जं० प्र० ९८। । उहिस्स-उद्दिश्य, उद्दिशति । आचा० ३२५। उहालिओ-उद्दालितः-बलाद्गृहीतः । आव० ७१७ । अप- उहिस्सपविभत्सगती-उद्दिश्यप्रविभक्तगतिः-प्रविभक्तं प्रतिहृतः। उत्त० ३०१। नियतमाचार्यादिकमुद्दिश्य यत्तत्पार्श्व गच्छति सा । विहायोउद्दावणया-उत्त्रासनम् । भग. १८४। गतेस्त्रयोदशो भेदः । प्रज्ञा० ३२७। उद्दावो- उद्दावः-स्थानान्तरेष्वद्याप्यसक्रामितः। जीवा० | उहिस्सामि-वाचयामि । विशे० १२९५ । ३५५। उद्दढ-मुषितम् , ( देशी० ) । बृ० द्वि० १०५ अ । नि० उद्दाह-कृष्टो दाहः । ठाणा. ५०४। चू० प्र०. २२७ । उद्दिक्खाहि-प्रतीक्षस्व। नि० चू० प्र० ३२२ ।। उद्दढसेस-ज लुंटागेहिं अप्पणट्ठा बाहिं णिणीतं तं भोतुं उद्दिह-यावदर्थिकाः पाखण्डिनः श्रमणान्-साधून उद्दिश्य सेसं छड्डियं । नि० चू० द्वि. २० आ। दुभिक्षापगमादौ यद्भिक्षावितरणं तदौद्देशिकमुद्दिष्टम् । प्रश्न. १५३ । उद्दिष्टम्-स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां उद्देस-उद्देशः-अध्ययनैकदेशभूतम् । दश० ७। उद्देशनं दानाय यत् पृथक्कल्पितं तत् । पिण्ड० ७७ । उद्दिट्टपरूवेण उद्देशः-वस्तुनः सामान्याभिधानं । विशे० ६३९ । वाच. ओभासंति। नि० चू० द्वि० १६३ अ। भासति । नि० चू० नासूत्रप्रदानम् । व्य० प्र० २६ अ। उद्दिश्यते इति उपद्वि१६३ आ। वस्त्रेषगायाः प्रथमो भेदः । आचा० २७७ । देशः, सदसत्कर्तव्यादेशः। नारकादिव्यपदेशः उच्चावचगोत्रा दिव्यपदेशो बा। आचा० १२४ । गुरुवचनविशेषः । अनु० उद्दिष्टा-अमावास्या। भग. १३५। ४। यावदर्थिकादिप्रणिधानम् । पिण्ड. ३५। उद्देशनमुउहिट्ठआदेसं-समणा निग्गंथ सक तावसा गेरुय आजीव देशः-सामान्याभिधानरूपः । अनु० २५७। उद्देशक:एतेसु उद्दिद्वआदेसं भगति। नि० चू० प्र. २३० आ। द्वीपसमुद्रोददेशकावयवविशेषः । भग० ७६९ । अध्ययनार्थउहिट्ठभसं-उद्दिष्टभक्तं-दानाय परिकल्पितं यद्भक्तपानादिकं देशाभिधायी अध्ययन विभागः । भग० ५। सामान्याभितत्। सूत्र. ३९९। उहिट्ठभत्तपरिणाए - उद्दिष्ट-तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतं धानमध्ययनम् । आव. १०४ । गुरोः सामान्याभिधायि • भक्त-ओदनोदि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्त वचनम् । उत्त. ७३ । उदेसो अभिनवस्स । नि. चू० प्र. २२३आ। वाचयामीति गुरुप्रतिज्ञारूपः उददेशः। विशे. परिज्ञातः, श्रमणोपासकस्य दशमी प्रतिमा। सम• १९ । उहिट्ठवजए-उद्दिष्टवर्जकः, श्रावकस्य दशमी प्रतिज्ञा। आव० १२९६ । अविसेसिओ उद्देसो । नि० चू० द्वि० १०८ अ । क्षेत्रकालविभागः । बृ. द्वि० २६९ अ। उहिट्ठसमादेसं-णिग्गंथा-साहू । नि० चू० प्र० २३० आ। उसग-उद्देशकः-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३२ । उहिट्ठा-उद्दिष्टा-यस्याः स्थापनायाः उत्कृष्टा आरोपणा ज्ञातु- उद्देसणंतेवासी-उद्देशनान्तेवासी । ठाणा० २४० । मिष्टा सा ईप्सिता। ध्य० प्र० ७५ आ। अमावास्या । उद्देसणकाला-उद्देशनकालाः-उद्देशावसराः श्रुतोपचारजीवा० ३०५। ठाणा. २३७ । राज. १२३ । उपदिष्टा।। रूपाः । सम० ४६। औप. १००। विपा० ९३ । कथिताः । उत्त० २२९। उद्देसणायरिय -उद्देशनाचार्यः, आचार्यविशेषः । दश० -उद्दिष्टा:-सामान्यतोऽभिहिताः। ठाणा०३०८।। उहिट्ठो-उद्दिष्टः-प्रतिपादितः । सूत्र. १७६ । उद्दसणायरिए-उद्देशनम्-अङ्गादेः पठनेऽधिकारित्वकरणं प्रज्यालितः । बृ० द्वि.६१ आ। तत्र तेन वाऽऽचार्यः-गुरुः उद्देशनाचार्यः । ठाणा० २४० । उद्दिष्टं । बृ० प्र० ८३ अ। उद्देसिअ- उद्दिश्य कृतम् औदेशिकम्--उद्दिष्टकृतकर्मादिउहिलति-उवसंपजते इत्यर्थः । नि० चू० प्र० २९१ आ। भेदम् । दश० १७४ । उहिसियवत्थं-गुरुसमक्षं उद्दिष्ट-प्रतिज्ञातं वस्त्रं उद्दिष्टवस्त्रम्। उद्देसिअचरिमतिग-उद्देशचरमत्रितयम् , औद्देशिकस्य बृ. प्र. ९७ आ! | पाखण्डश्रमणनिम्रन्थविषयम् । दश. १६२ । 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उद्देसियं: अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उद्धाइओ] उद्देसियं-उद्दिस्सं कज्जइ तं उद्देसिय, साधुनिमित्तं आरंभो। उद्ध-ऊर्ध्व । जं. प्र. ४६२ । नंदी १५४ । दश० चू०५० । इह यावन्तः केचन भिक्षाचराः समागच्छन्ति उद्धघणभवण-ऊर्ध्वघनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि। जं. तावतः सर्वान् उद्दिश्य यत् क्रियते तत् । बृ० प्र० प्र० १४४ ।। ८३ अ। औद्देशिकं-विभागौद्देशिकप्रथमो भेदः। इह उद्धट्टा-उवउट्टा-ध्राताः। नि० चू० प्र० १५२ अ। यत् उद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः प। आचा० ३७७ । समागमिष्यन्ति पाखण्डिनो गृहस्था वा तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि उद्धट्ठाणं-कायोत्सर्गम् । नि० चू० प्र० ११३ आ। दातव्यमिति सङ्कल्पितं भवति तदा तत् । पिण्ड० ७९ । शबलस्य षष्ठो भेदः । सम० ३९ । औद्देशिक-याव उद्धड-उद्धृता, स्थालादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धृतम् । दर्थिकादिप्रणिधानेन निवृत्तं, द्वितीय उद्गमदोषः। पिण्ड. तृतीया पिण्डेषणा । आव० ५७२ । जत्थ उवक्खडियं भायणे ३४ | औद्देशिक-अर्थिनः पाखण्डिनः श्रमणान्निग्रन्थान् । ताओ उद्धरियं छप्पगादिसु एस उद्धडा। नि. चू० तृ. वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं वितीयते तत् । ठाणा. १२ अ। ४६६ । साध्वकल्प्यमशनादि । दश. २०३। उदिष्ट-प्राक उद्धतरेणुयं-उद्धतरेणुक-ऊर्ध्वगतरजस्कम्। जं० प्र० १४५) सङ्कल्पितम्। आचा० ३९५ । उद्धत्त-औद्धत्यम्-अहङ्कारः । उत्त० ५२६ । उद्देसुद्देसं-उद्देशः-अध्ययनविषयः तस्य उद्देशः उद्देशो- उद्धत्तमणहारिणो-औद्धत उद्धत्तमणहारिणो-औद्धत्यं-अहङ्कारस्तत्प्रधानं मन औद्धद्देशः आव० १०६। त्यमनस्तद्धरणशीलाः औद्धत्यमनोहारिणः - अत्यन्तशान्त. उद्देहगणे--गणविशेषः । ठाणा० ४५१ । चित्तवृत्तयः, यतय इत्यर्थः । उत्त० ५२६ । । उद्देहलिका-भूमिस्फोटकविशेषः। आचा० ५७।। उद्धपुरीया - ऊर्ध्वपुरीततः-उधंगतान्त्राः । प्रश्न० ५६ । उद्देहिका-काष्ठनिधितो जीवविशेषः। आचा. ५५ । उद्धपूरित-ऊर्वपूरितः-श्वासपूरितो कायः ऊर्बो वा उद्देहिगा-उद्देहिकाकृतवल्मीकमृत्तिका । पिण्ड० २०।। स्थितो धूल्या पूरितः । प्रश्न. ५६ । उद्देहिया-उद्देहिकाः, जन्तुविशेषः । ओघ० १२६ । त्रीन्द्रि- उद्धमंताणं-यथायोगमुद्धमायमानादिषु। राज. ४६ । यजीवविशेषः । उत्त० ६९५ । त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० । उद्धमुइंगागार - ऊर्ध्वमृदङ्गाकारः – मलकसम्पुटाकारः। ३२। प्रज्ञा० ४२। भग० २४९ । उद्दोहक-उद्दोहकः-घातकः । उद्दहको वा-अठव्यादिदाहकः । उद्धम्ममाणं-उत्पाव्यमानम् । प्रश्न. ५० । उत्पाद्यमानम्। प्रश्न० ६२ । उद्धंसणं-निर्भर्त्सनम्। बृ० तृ. ९० अ। उद्धरंति-उत्पाटयन्ति । ओघ० २२७ । उद्धंसणा- उद्धंसना, उद्धलना-आक्रोशः। ओघ० ४५। उद्धरणं-उध्रियते-उत्तरपरिकर्म क्रियते । आव० ७६४ । प्रवचनविषया हीला । बृ० द्वि० १८० आ। दुष्कुलीनेत्यादिः । उद्धरुटो-तीव्ररोषः रोषकाले। आव० ६३२। । कुलाद्यभिमानपातनार्थः । ज्ञाता. २००। उद्धरेणू - स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मो उद्धंसणाओ-अवहेलनाः । आव०६५। जालप्रविष्टसूर्यप्रभाभिव्यङ्ग्यो रेणुरूवरेणुः । जं० प्र० ९४ । उद्धंसणाहि-दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनाथर्व- उद्धलोगवत्थव्वा-ऊर्वलोकवासित्वं-समभूतलात् पञ्चशचनैः । भग० ६८३ । तयोजनोचनन्दनवनगतपञ्चशतिकारकूटनिवासित्वम् । जे. उद्धंसणो-वधः । ओघ० २१५ । प्र० ३८८। उद्धंसिया-खरंटियाणि । नि० चू० प्र० २१२ आ। उद्धर्षि- उद्धसियरोमकूवो-उद्भूषितरोमकूपः । आव० ५१३ । ता-खरंटिता । बृ० द्वि० २१७ अ । ओभासिया । नि० चू० उद्धाइओ-उद्घावितः । आव० २०६, १९२ । अवधावितः। प्र० १९५ अ। आव० ५१३॥ 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उद्धाइया आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः उन्नमिज्जते ] उद्धाइया - उद्धाविताः । उत्त० १०० । वेगेन प्रसृताः । उत्त० उद्धामकभिक्षाचर्या - बहिर्ग्रामेषु भिक्षार्थं पर्यटनम् । ३६४ । उद्धाईया - उद्धाविताः सन्नह्यगताः । उत्त १७९ । उद्धायमाणो - उत्तिष्ठन् । प्रश्न० ६२ उद्धायमाणः प्रत्रर्द्धमानः । ज्ञाता० ७० | | उद्धारपलिओयमे तत्र वक्ष्यमाणस्वरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां वा तद्द्वारेण द्वीपसमुद्राणां वा प्रतिसमयमुद्धरणंअपोद्धरणमपहरणमुद्धारः तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपम मुद्धारपल्योपमम् । अनु० १८० १ उद्धावणं - कार्यस्य निष्पादनम् । व्य० प्र० १७२ अ । उद्धिअ - उद्धृत:- देशान्निर्वासितः । जं० प्र० ९७७ । उद्भिय-उद्धृता- निष्काशनम्। ठाणा० ४६३ । उद्धी - उद्धिः । जं० प्र० ४५४ । 'मेलित्तु पहियाओ चलणे वित्थारिऊण बाहिरओ ! ठाउस्सगं एसो बाहिरउद्धी मुणे. यत्रो ॥ अंगुडे मेलविउँ विधारिय पहियाओ बाहिं तु । ठाउ एसो भणिओ अभितरुद्धित्ति ।। ' आव० ७९८ । उद्धीमुह कलंबु भण्फ संठिता- ऊर्ध्वमुखकलम्बुकपुष्पसंस्थिता - ऊर्ध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्येय - नालिकापुष्पस्येव संस्थितं --संस्थानं यस्याः सा । सूर्य • ६७ । उद्धभ - इतस्ततो विप्रसृतः । जं० प्र० ५१ । जीवा० - बृ० प्र० २०६ आ । उद्यतकं - उच्छिन्नम् । प्रश्न० १५४ । पामिच्चं, भिक्षादोषः । आ चा० ३२९ । उद्यतविहारेण मासकल्पादिना । उत्त० ५८७१ उद्यानि - प्रतिश्रोतोगामिनी सा । व्य० प्र० २५ आ । उद्युक्तः-परायणः । आव० ५८७ । उदा:- सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्म चर्मनिष्पन्नानि । आचा ३९४ । १६०, २०६ । उद्भुताष-उद्धृतया दर्पातिशयेन । भग० ५२७ । उडुम्ममाणं - उत्पाद्यमानम् । औप० ४७ । उद्धय - उडुतः उद्भूतः । औप० ५ । इतस्ततो विप्रसृतः । सूर्य० २९३ । उद्भूतः । भग० ५४० । उद्भूता वायुना । ज्ञाता० ८० । उयाए उद्धृतया वस्त्रादीनामुद्धृतत्वेन उद्धतया वा | उन्नय - उन्नतं - अङ्गुलिपर्वाणि । ओघ १७१ । गुणवन्ति, सदर्पया | भग० १६७ । उच्चानि च । ज्ञाता० ३ । उद्भुव्वमाणं-उत्पाद्यमानम् । औप० ४७ । उद्धसियं-रोमाश्चितम् । उषितम्। नि० चू० प्र० ३१५आ। उद्धय-उद्धृतः । आव० ५२० । उडूलिता - सरखा । नि० चू० प्र० ३२४ आ । उद्भिजत्वं सम्मूर्च्छजत्वम् । ठाणा० ११४ । उड्रामक उद्यतविहारी । व्य० प्र० १६८ अ । 2010_05 उद्राणि- सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि । आचा० ३९४ । उद्वर्त्तनं निष्क्रमणम् । आचा० ६९ । स्थित्यादेद्धिकरणस्वरूपम् । भग० २५ । उद्वर्त्तनकरणं करणविशेषः । भग० २४, ९० । उद्वर्त्य निष्क्रम्य । आव ० १७७ । उद्वसं - शून्यम् । उत्त० १०९ । उद्धसितगृहं - शून्यागारम् । उत्त० ६६५ । उद्वालयन्-आलोडयन् । दश० १८ | उन्न-और्णिकः । ठाणा० ३३८ । उन्नप-उन्नतः । सम० ७१ । उन्नतमणे - उन्नतमणाः प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनाः । ठाणा ० १८३ । उन्नतरूत्रे - संस्थानावयवादिसौन्दर्याद् उन्नतरूपः । ठाणा० १८३ । उन्नतावन्ते-उन्नतः उच्छ्रितः स वासावावर्त्तथेति उन्नतावत्तेः । ठाणा० २८८ । उन्नयनं - शृङ्गारविशेषः । जं० प्र० ११६ | उन्नयमाणे - उन्नतमानः, उन्नतो मानोऽस्येत्युन्ननमानः, उन्ननं वाSSत्मानं मन्यत इति । आचा० २१५ । उन्नाडीओ । नि० चू० प्र० ११२ अ । उन्नात - महाविदेहे नगरविशेषः । निरय० ४२ । उन्नामओ - ऊर्जामयः । ०४१८ | उन्नामिजंते-उन्नाम्यते सर्वमुत्क्षिप्यते । जीवा० ३०७ । (१९४) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उन्नामिजइ(ए) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उपाया] - - उन्नामिजइ(प)-उन्नामितः-उत्क्षिप्तः, प्रमिद्धिं गत इति- उपमानं - दृष्टान्तः । ओघ १७ । श्रुतातिदेशवाक्यस्य यावत् । अनु. १४३ । समानार्थीपलम्भने संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानम् । ठाणा० उन्निद्रीकृतं-बोधितम् । जीवा० २७१ । उत्रिय-औणिकम् । ठाणा० ३३० । उपयुक्तद्रव्यसम्यक् -- यदुपयुक्त-अभ्यवहृतं द्रव्यं मनःउन्मग्नजला-नदीविशेषः। ठाणा०७१। समाधानाय प्रभवति तत् । आचा. १७६ । उन्माथितः । आव० १५६ । उपरतकायिकी- अप्रमत्तसंयतस्योपरतस्य सावधयोगेभ्यो उपकारिका- राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पी. निवृत्तस्य किया। कायिकीक्रियायास्तृतीयो भेदः । आव० ठिका। जीवा० २२२ । ६.१। उपकार्योपकारिका - राज्ञामुपकार्योपकारिका । जं. प्र. उपरितनक्षुल्लकप्रतरा:-तत्र तिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः सर्व३२१ । जीवा० २२२।। लघुरज्जुप्रमाणात् क्षुल्लकप्रतरादारभ्य यावदधो नव योजउपगतम्लाघं-- उपगतश्लाघत्वं-उक्तगुणयोगात्प्राप्तश्लाघता। नशतानि तावदस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपचतुर्विंशतितमो क्चनातिशयः। सम० ६३ । रितनक्षुलकप्रतराः। नंदी ११०। उपगृहन-परिष्वजनम् । नि० च. प्र. २५६ आ। उपरिमाण-उपरितना। आव० ६४७ । उपघसरं-निर्द्धमनम्। ओघ० १६२ ।। उपर्यविनम्भः । आचा० १०६ ।। उपचयद्रव्यमन्दः-यः परिस्थरतरशरीस्तया गमनादि | उपलिंपंति - घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना व्यापारं कर्तुं न शक्नोति। बृ० प्र० ११३ अ। रन्धं भजन्ति । ज्ञाता० ११९ । उपवस्तुं-उपवासान् कर्तुम् । पिण्ड० १६७ । उपचयभावमन्दः-यो बुद्धरुपचयेन यतस्ततः कार्य कर्तुं । उपवेतो-उपागच्छन , आगच्छन। आप० ४३४ । नोत्सहते। बृ० प्र० ११३ अ । उपशमनिष्पन्नः-उपशान्तक्रोध इत्यादि उदयाभावफलरूप उपचारोपेतं-उपचारोपेतत्वं-अग्राम्यता। तृतीयो वचनाति आत्मपरिणाम इति भावना । ठांगा० ३७८ । शयः । सम• ६३। उपचियमंसो-बल्लियसरीरो। नि० चू० प्र० २६६ आ । उपशान्ता-प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषायाः। ठाणा० ५। उपधा-द्वेषः । व्य. प्र. ७ । उपदर्शना - जम्बूद्रीपनीलवर्षधरपर्वते नवमकटः । टाणा उपसंप-उपसम्पत्-उपसम्पत्तिः-प्राप्तिः। भग. ९०४ । उपसंपदालोचना-आलोचनाया द्वितीयो भेदः । व्य० प्र. उपदिष्टा - महाकल्याणकसम्बन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्र.. . ४८ आ। ख्याता, तथा पौर्णमासीषु च तिमध्वपि चतुर्मासकति उपसङ्घात-अनिष्टरूपस्तूपसङ्घातः । नंदी १५१ । थिष्वित्यर्थः । सूत्र. ४०८।। उपस्थं-उपस्थितम् । व्य. द्वि. २२२ आ। उपदेश:-श्रुतस्य पर्यायः । विशे० ४१६।। उपस्थापनं-पुनर्दीक्षणं पुनधरणं पुनर्वतारोपणम् । तत्त्वा. उपधानकं-द्रव्योपधानम् । आव० ६६८ । बिब्बोयणा । विबोयणा, तपनीयमय्यो गण्डोपधानकाः । जीवा० २३१ । उपस्थापयितुं-उत्स्थापनाकरणतः । व्य. द्वि. २१५ । उपनीतराग-उपनीतरागत्वं-मालकोशादिग्रामरागयुक्तता। उपस्पृशति-वस्त्राणि प्रक्षालयति । आव. ४३४ । सप्तमो वचनातिशयः । सम०.६२ । उपहितं-भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः । ठाणा. उपपत्ति । भग० १५ ॥ १४८ । उपव्हयन-अनुमोदयन् । ज्ञाता. १८ । उपादानकारणं-मृदादि । ठाणा० ४९ । उपभोगपरिभोगः - अशनादिवाहनान्तानां बहुसावद्यानां | उपाधिः-उपाधानमुपाधिः-सनिधिः । भग० ४। वर्जनमल्पसावधानामपि परिमाणम् । तत्त्वा --१६। उपाया-व्याख्यानानि । आचा० ८२ । 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपायोपेयभावलक्षणः आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उप्पलहत्थय ] उपायोपेयभावलक्षण:-वचनरूपापन्नं प्रकरणमुपायः तत्प- | उप्पयंते-भूतलादुत्पततः । ज्ञाता० ४६ । । रिज्ञानं चोपेयम् । प्रज्ञा० २। ... ..... उप्पयनिवयं-उत्पातः-आकाशे उल्ललनं निपातः-तस्मादउपार्द्धभाग-पोषचतुर्थभागः । आचा० ३२६। । वपतनं उत्पातपूर्वो निपातो. यस्मिन् तदुत्पातनिपातम् । उपालंभ - उपालम्भः विनेयस्याविहितविधायिनः । ज्ञाता दिव्यनाट्यविधिः । जं० प्र० ४१२ । उप्पराउ-उपरित:-उपरिष्टात् । दश०३८ । उपालक-निव्यूहः, गवाक्षः । व्य० प्र० १३३ अ।... उप्परामुहो-उपरिमुखः । आव० १८१। उपैति-करोति । आचा० २१७ । उप्पराहुत्तो-उपरिभूतः । आव० ५०२ । उपोद्घातनियुक्तिः-नियुक्तिभेदः । ठाणा० ६। उप्पलं-उत्पलं-नीलोत्पलादि । आचा० ३४८ । चतुरशीति. उप्पइयं-उत्पत्तिक-उद्भूतम् । उत्त० ११९ । रुत्पलाङ्गशतसहस्राणि । जीवा० ३४५ । गर्दभकम् । उप्पजंते - उत्पद्यन्ते, एतत्प्रभावात् स्फातिमद्भवन्ति। ज. राज. ८। जीवा० १७७ । उत्पलकुष्ठं, नीलोत्पलं वा। प्र० २५८ । जीवा० २७७। उत्पलं। प्रज्ञा० ३७। जलरुहविशेषः । उप्पजमाणकालं- उत्पद्यमानकालं - आद्यसमयादारभ्यो- प्रज्ञा० २३ । कालविशेषः । भग० २७५ । उत्पलं-चतु. त्पत्त्यन्तसमयं यावदुत्पद्यमानत्वस्येष्टत्वादु वर्तमानभविष्य. रशीत्या लक्षैरुत्पलाङ्गैः । अनु० १००। उत्पलार्थः एका. कालविषयं द्रव्यम् । भग० १८। दशशते प्रथम उद्देशकः। भग० ५११। कालविशेषः। भगः उप्पडा-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । ८८८ । भग० २१० । कालविशेषः । सूर्य० ९१ । नीलो. उप्पण-उत्पन्न-विधिना प्राप्तम् । दश० १८१। त्पलमुत्पलकुष्ठं वा। सम० ६१। औप. १६। आरणकल्पे उप्पण्णमिस्सिया-उत्पन्नमिश्रिता-उत्पन्ना मिश्रिता अनु- विमानविशेषः । सम० ३८ । उत्पलकुष्ठं-गन्धद्रव्यविशेषः । त्पन्नः सह सङ्ख्या पूरणार्थं यत्र सा। सत्यामृषाभाषायाः ज्ञाता० १२९ । उत्पलं-नीलोत्पलादि । दश० १८५। प्रथमो भेदः। प्रज्ञा० २५६ । उत्पलं-कुष्ठम् । जं० प्र० ११७ । ' उप्पत्ति-उत्पत्तिः-निदानम् । व्य० प्र० ९१ अ। उप्पलंग-उत्पलाङ्गं - चतुरशीतिहहुकशतसहस्राणि । जीवाद उप्पत्तिअं-पर्वतिथिमन्तरेगाकस्मिकं भोज्यम् । बृ० द्वि० ३४५। कालविशेषः । ठाणा० ८६ । उत्पलाङ्गः, कालवि १९२ अ। शेषः । सूर्य ९१ । भग० ८८८ । उत्पलाङ्गं चतुरशीत्य उप्पत्तिा - उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरिशीलनादिकं लहहुकैः । अनु० १००। प्रयोजनं-कारणं यस्याः सा औत्पत्तिकी । नंदी १४४।। उप्पलगुम्मा-उत्पलगुल्मा, पुष्करिणीनाम । ज० प्र० ३३५ उप्पत्तिकसाय-द्रव्यादेर्बाह्यात् कषायप्रभवः तदेव कषाय- ३६०। निमित्तत्वात् उत्पत्तिकषायः । आव० ३९०॥ शरीरोपधि- उप्पलनालं-उत्पलनालं-उत्पलं-नीलोत्पलादि नालं-तस्यै क्षेत्रवास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य तेषामुत्पत्तिः । आचा. ९१।। वाधारः। आचा. ३४८ । . . . उप्पत्तिया-औत्पत्तिकी- उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा, उप्पलपउमोपसोभिता - उत्पलपद्मोपशोभिता। आवर बुद्धिविशेषः । आव० ४१४। उत्पत्तिकी-अदृष्टाश्रुताननु. ८१९ । भूतविषयाकस्माद्भवनशीला । राज. ११६। । उप्पलबेटिया - उत्पलवृन्तानि नियमविशेषात् प्रात्यतय उप्पत्ती-उत्पत्तिकरः स्वकल्पनाशिल्पनिर्मितः शतरूपकादिः । भैक्षत्वेन येषां सन्ति ते उत्पलवृन्तिकाः । औप० १०६ आव० ४९९ । आरम्भमात्रम् । ठाणा० २८५। सामा- उप्पलयं-उत्पलकं-गर्दभकम् । जीवा० १८२ । न्यतो या च विशेषतः । ठाणा. ४४९ । उप्पलहत्थगा- उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः । जं उप्पन्न-उत्पन्नविषया-सत्यामृषाभाषाभेदः । दश. २०९ । प्र० ४४ । उत्पलाख्यजलजकुसमसङ्घातविशेषाः। राज०८ उप्पन्नमीसते - उत्पन्नविषयं मिश्र-सल्यामृषा उत्पन्नमिधं उप्पलहत्थय-उत्पलहस्तकः - उत्पलाख्य जलजकुसुमसमूह तदेवोत्पन्नमिश्रकम् । ठाणा० ४८९ । । विशेषः। जीवा १९९ । 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उप्पला अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः उपिलणा ] पुष्करिणी विशेषः । जं० प्र० ३६० । उप्पला -पिशाचेन्द्रकालस्य तृतीयाप्रमहिषी । ठाणा० २०४ | | उप्पायणा - उत्पादना-धात्र्यादिकां षोडशविधा । प्रश्न० १५५ । धात्र्यादिलक्षणदोषविशेषः । आव ० ५७६ । उपायणोवघाते- उत्पादनया - उत्पादनादोषैः, उपघातःअशुद्धता उत्पादनोपघातः । ठाणा० ३२० । उप्पलाई - गद्दभकानि ईषन्नीलामि वा । जं० प्र० २६ । उप्पलावर - उत्लावयति । दश० २०५ । उप्पलुजला - उत्पलोज्ज्वला, पुष्करिणीनाम । जं० प्र० ३३५, उप्पायपव्वण - उत्पातपर्वतः । सम० ३३ । तिर्यग्लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति सः । भग० १४४ । उपायपव्वयगा उत्पातपर्वताः - यत्रागत्य बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैकियशरीरमारचयन्ति । राज० ७९ । ३६० । उप्पलुद्देसप - उत्पलोद्देशक : - एकादशशते प्रथमः । भग० ९६६ । उप्पह - उत्पथः - उन्मार्गः । उत्त० ५४८ । परसमयः । ठाणा ० २४१ । उपायपव्वया यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचिक्रीडानिमित्तं वैकियशरीरमारचयन्ति । जं० प्र० ४४ । जीवा० १९९ । उप्पा-उत्पादः । ठाणा० १९ । उपपाइओ - उत्पातः । आव० २९८ । उप्पाहसा-उत्पादयितुं—सम्पादनाय, अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता- उत्पादकः । ठाणा० २६४ । सम्पादनशीलः । ठाणा० ३८६ । उप्पायपुब्वं - उत्पादपूर्वम्, तत्थ सव्वदव्वाणं पंजवाण य उपाय मंगीकाउं पण्णवणा कया । नंदी २४१ । यत्रोत्पादमाश्रित्य द्रव्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तद् । सम० २६ । उप्पाया - त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा ० ४२ । उपपाइया - उत्पाताः - अनिष्टसूचका रुधिरवृष्टपादयस्तद्धेतु का येऽनर्थास्ते औत्पातिकाः । सम० ६२ । उप्पाप - उत्पातं सहजरुधिरवृष्टयादिलक्षणोत्पात फलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम् । सम० ४९ । उत्पादः । आव० ६६२ । उप्पापति - उत्- प्राबल्येन पावयति । निः चू० प्र० उप्पाल - प्रहरणकोश विशेषः । जीवा० २३२ । प्रहरणकोश:प्रहरणस्थानम् । राज० ९३ । मत्तवारणम् । जीवा० २७९ । उत्पालसंठिओ - उत्पालसंस्थितः - मत्तवारणसंस्थितः । जीवा ० २७९ । २५२ आ । उपासितो - उत्पासितः - असूयितः । आव ० १०१। उपासिया - हसिताः । नि० चू० प्र० ६९ अ । उप्पारमाणे - व्युत्पादयन् । उत्त० १५७ । उपपाओ - उत्पाद:- उत्पत्तिहेतुभूतः क्रियालक्षणः । विशे० उप्पि - उपरि । भग० ८२ ठाणा ० ४३२ । उप्पिजल - उप्पिज्जलं -आकुलकम् । राज० ५२ । उपिच्छ - श्वाससंयुक्तम् । जं० प्र० ४० । श्वासयुक्तं, त्वरितम् । ठाणा० ३९६ । अनु० १३२ । आकुलं रोषभृतं वोच्यते । श्वासयुक्तं वा । जीवा० १९४ । भीतौ । ज्ञाता• २४१ । उपपाते - उत्पाद:- सहजरुधिरवृष्ट्यादिः । ठाणा ० ४२७ । उपाय - उत्पात पूर्व-प्रथमपूर्वनाम । ठाणा० ४८४ । उत्पातःप्रकृतिविकारो रक्तवृष्ट्यादिः । प्रश्न० १०९ । उल्कापात दिग्दा हादिकम् । अनु० २१६ | उत्पाद:- यतो नानुत्पन्नं वस्तु लक्ष्यते अतोऽयमपि वस्तुलक्षणम् । आव ० २८२ । उत्पातं - सहजरुधिरवृष्टयादिकम् । आव ६६० । उत्पातं कपि हसितादि । सूत्र० ३१८ | प्रथमपूर्वम् । नंदी ५२ । ठाणा १६१ । उप्पिट्टणयं - उत्पट्टन कं- कुट्टनोत्पिट्टना । उत्त० ८ । उप्पिट्टणा- उत्- प्राबल्येन पिट्टना उत्पिट्टना । उत्त० ८ । उपित्थं श्वासयुक्तम् । १९९ । उप्पि बंत - उत्पिबन्तः- आसादयन्तः । प्रश्न० ६३| उप्पायग-उत्पादक:- ये भूमिं भित्त्वा समुतिष्ठन्ति ते । व्य० उप्पियंतं - मुहुर्मुहुः श्वसन्तम् । व्य० द्वि० ५३ आ । द्वि० २८८ आ । उप्पियणं- मुहुः श्वसनम् । व्य० द्वि० ५३ अ । उपायण - उत्पादना - सम्पादनं, गृहस्थात्पिण्डादेरुपार्जन- उप्पिलणा- उत्पीडनं प्राणादीनां प्लावनम् । व्य० द्वि० मित्यर्थः । ठाणा० १५९ । १० अ । 2010_05 (१९७) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उप्पील आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उन्भावण] - उप्पील-उत्पील:-समूहः । प्रश्न० ५०। उखुड-अन्तःप्रवेशितम् । अनुत्त० ७ । उप्पीलइ-उत्पीडयति-प्राबल्येन बाधते। जीवा० ३२६। उन्बुडनिबुड्यं-उन्ममनिममत्वम् । प्रश्न. ६३ । उप्पीलिय-उत्पीडिता प्रत्यञ्चारोपणेन, बाहौ बद्धा। भग० १९३॥ उभं-तव । उत्त० १४७ । गाढीकृता। राज० ११८ । भग० ३१७ । ज्ञाता. २२.१ । उम्भंडो-असंवृतपरिधानादि । वृ० तृ. २२५ अ। जीवा.. २५९ । उत्पीडितः-गाढं बद्धः । प्रश्न०, ४७ । उत्पी- उम्भजिय-उद्भिद्य । उत्त०. १९२ । डिता-गुणसारणेन कृतावपीडा, बाही बद्धा वा। भग० उम्म-अभ्यर्थितम् । पिण्ड० ९० । ३१८। कृतप्रत्यारोपणा । विपा० ४७ । आरोपित प्रत्यञ्चा। उन्भड-उद्भर्ट-विकरालम् । जं० प्र० १७० । अनुत्त०.७ । औप०७१ । आक्रान्ता गुणेन । ज्ञाता० ८५। .. भग. ३०८ । स्पष्टम् । भग. ३०८। उप्पीसेजा। भग० ७६६। उन्भमा-उत्-प्राबल्येन भ्रमयन्ति उद्धमाः-भिक्षाचराः। ध्य.. उप्पुया-उत्प्लुताः-उत्सुकाः । प्रश्न० ५२ । प्र० १५३ आ। उप्पूर - उत्पूरं-प्राचुर्यम् । प्रश्न. ४३ । जलप्लवः । प्रश्न उभमे-उद्भमेत्-यायात् । आचा. २९१। | उब्भव-उद्भवः-सम्भवः । ज्ञाता० ५०। सम्भूतिः । भग० उपेक्खेज-उपेक्ष्यते। आव० ६४० । उप्फंदति-उत्स्पन्दते-प्रविशति । उत्त०. ३५५ । उम्भवणं-निव्वावणं । नि० चू० प्र०.५२ आ| are उप्फंसणं । ओघ. १९५ । उब्भवेति-उच्छ्यति । आव० ३४२ ।। उप्फणिसु-साध्वर्थ वाताय दत्तवन्तः । आचा० ३४३। उन्भातो-निसण्णो। नि०. चू० प्र० ३५ आ। उम्फसणा- अप्कायस्पर्शनं यत्सहचरितं लवणोत्तारणम् । उभाम-भिक्षाचरणामः । व्य. प्र. २५० अ. बृ. द्वि०.६१ आ। उम्भामइला-उद्भ्रामिला-स्वैरिणी। व्य. द्वि. ३१ आ। उम्फालग-उत्प्रासकम् । उत्त, ६५६ । उभामओ-उद्भ्रामकः, जारः । पिण्ड० १२३ । पारदाउप्फिडइ-मण्डूकवत्प्लवते। उत्त० ५५१। .... रिकः । ओघ० ९२ । बृ० तृ. ४८ अ .. उप्फुलं-विगसिएहिं इत्थीसारीरं रयणादि वा ॥ निज्झाइ- उब्भामगं-भिक्खायरिया। नि० चू० प्र० ७७ आ। नि. यव्व। दश. ० ७७ । उत्फलं-विकसितलोचनम्। च. प्र. ३६ आ। पारदारिकाः। ओघ० ७५। ७० द्वि० दश. १६८ । निष्पुष्पः । नि० चू० प्र० २.१ अ। | २६ अ। पारदारिगो। नि० चू० प्र० १०७ अ। संघाउप्फेणओफेणीयं-सकोपोष्मवचनं यथा भवति। विपा. डगो। नि० चू० द्वि० ९४ आ। उब्भामनितोय - उद्धामकनियोगः-ग्रामः । व्य० प्र०. उप्फेस-मुकुटम् । औप० २५ । शिरोवेष्टनम् । आचा० १५३ आ। ३८०। प्रज्ञा० ८७। उन्मामिगा-उद्भामिका-कुलटा। व्य० द्वि० १५० आ। उद्धा. उष्फेसि-शिरोवेष्टनं, शेखरक इत्यर्थः । ठाणा० ३०४।। मिका-मनोगुप्तिदृष्टान्ते श्रेष्ठसुतश्रावकजिनदासभार्या। आव० उप्फोसं-उत्स्पर्शनं छंटनम् । बृ० प्र० २८५ अ। ५७८ । असती। दश० ५७ । उप्फोसणं-क्रियाविशेषः । नि० चू० द्वि० १६६ अ। उम्भामिज्जेंति--अपभ्राज्यन्ते । बृ० तृ० १३७ आ। उप्फोसणा-जलच्छटा । नि० चू० द्वि० ६३ अ। उम्भामिया- कुशीला । बृ० द्वि० २६४ आ। उद्भामिकाउम्फोसेज-रुष्येत् । नि० चू० प्र० १८६ आ। स्वैरिणी। आव० ४२१ । उफुल्लो-निष्पुष्पः । ओघ० ९७ । उभामे-भिक्खायरियं गच्छति । नि. चू०प्र० ११३ आ। उबद्धो-अवबद्धः । आव. २९९ । भिक्षाभ्रमणम् । ठाणा. २६६ । उब्बद्धओ-उद्बद्धः । आव० ४५२ । उम्भावण-उद्भावनं -- महर्दिकतासम्पादनं कृतवान् । बृ. उब्बुडा-उद्याता। आव. ६७७ । तृ० ९३ अ । परिभवः। ओघ.. १४८ । ८.३। । (१९८) 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उब्भावणा उम्मग्गजला ] उब्भावणा- उद्भावना - उत्प्रेक्षणा। भग० ४८९ । उत्क्षेपणानि । ज्ञाता० १७७ । उद्भावना। दश० ४४ । प्रकाशनम् । नंदी० ५३ । अपभ्राजना । उत्त० १६९ । उभयकाला दिया रातो य। नि० चू०. तृ० २१आ । उभय किड कम्मं - उभयकृतिकर्म-वन्दनम् । ओघ २२ । उभयजं - गुणनिष्पन्नं, समयप्रसिद्धञ्च । पिण्ड० ४ । अभिगा - उद्भिदो - भूमिभेदाजाता उद्भिज्जाः खञ्जनकादयः । उभयतरो-तं च तवं करेंतो आयरियाइवेयावच्चपि करेति • अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः ठाणा० ३८६ । उब्भिज । नि० चू० प्र० ३३५ आ । उन्भिज - उद्भेया वस्तुप्रभृतिशाकभर्जिका । पिण्ड ०. १६८ | उद्भिय भुवं जाता उद्भिज्जा खजनकादिः । प्रश्न ९० । १५ । उभिजमाण - उद्भिद्यमानं - उद्धाट्यमानम् । जीवा ० १९१ । उभयपइट्टिते - उभयप्रतिष्ठितः - आत्मपरविषयः । ठाणाउब्भिन्न- उद्भेदनं उद्भिन्नं साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादे १९३ । मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तद्योगाद्देयमपि घृतादि | उभयपदव्याहतं - गत्यागतिलक्षणे भेदः । आव० २८१। उद्भिन्नम् । द्वादश उद्गमदोषः । पिण्ड० ३४ । उभयपदाव्याहतं - गत्यागतिलक्षणे भेदः । आव ० २८१ । उभय-उद्भेदनमुद्भित् उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिज्जाः - पत्तङ्ग- उभयभविए - उभयभविकं - इहपरलक्षणयोर्भवयोः यदनुगाखञ्जरीटपारिप्लवादयः । दश० १४१ । उद्भिजे-लवणाक- मितया वर्त्तते तदुभयं भविकम् । भग० ३३ । रायुत्पन्नम्। आचा० ३५५ । उभयाज्ञया - पञ्चविधाचारपरिज्ञान करणोद्यत गुर्वा देशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेकश्रमणवत् सूत्रार्थोभयैर्विराभ्येत्यर्थः । सम० १३३ । उभयास्तिकः । सम० ४२ । उम्भुतिया - आभ्युदयिकी, देवतापरिगृहीता गोशीर्षचन्दन मयी भेरी आव० ९७ । उमंथण - अवमंथमधोमुखम् । व्य० द्वि० ३२३ आ । उमजायण सगोते - पुष्यनक्षत्रस्य गोत्रम् | सूर्य० १५० । उमा- प्रद्योतराजधान्यामुज्जयिन्यां गणिका । आव ० ६८६ । द्विपृष्ठवासुदेवमाता। आव ० १६२ । सम० १५२ । उमाए - अवमितः परिच्छिन्नो वा । सूर्य० ९५ । उमाणं - प्रवेश: स्वपक्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा । आचा उब्भूयावेउ । दश० चू० ८०.१ उन्भेति - उच्छ्रयन्ति । आव ० ३४२ | ऊर्चयन्ति । उत्त १४७ । उब्भेइम-उद्भेद्यं सामुद्रादि । अप्रासुकम् । दश० १९८ । उभओ - उभयतः- उभौ-- शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य । ज्ञाता० सलद्धित्तणओ एस उभयतरो । नि० चू० तृ० १२३ अ । उभयनि सेहो - उभयनिषेधः, सङ्घातपरिशातशून्यं, यस्य स्थूगोदाहरणम् । आव ० ४६२ । उभयपंता - उभयप्रान्ता - अभद्रिका, अशोभनेत्यर्थः । ओघ 2010_05 १५ । दश० उभयं - उभयं संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि । १५८ | संघास साडण, संङ्घातशातनकरणं, यस्य शकटोदाहरणम् । आव० ४६२ । उभर्थभागा - उभयभागा- चन्द्रेणोभयतः - उभयभागाभ्यां पूर्वतः पश्चाच्चेत्यर्थो भज्यन्ते भुज्यन्ते यानि तानि उभयभागानि, चन्द्रस्य पूर्वतः पृष्टत भोगमुपगच्छन्तीत्यर्थः । ठाणा० ३६८ । उभयभागानि - उभयं-दिवसरात्री तस्य दिवसस्य रात्रेचेत्यर्थः, चन्द्र योगस्यादिमधिकृत्य भागो येषां तानि । | सूर्य । । १०४ । आव० ५७१। उम्मग्गगो-अडविपहेण गच्छति अहवा अपंथेण चेव । नि० चू० प्र० ३.१९ / उभयओ - उभयतः, उभयोः - पार्श्वयोः । सूर्य २९३ । उभयकप्रिय - उभयकल्पिक:-यो द्वावपि सूत्रार्थी युगपद् उम्मग्गजला- उन्ममं जलं यस्यां सा उन्ममजला । जै० प्रहीतुं समर्थः । वृ० प्र० ६३ अ । प्र० २३० । ३२६ । उमाव्यतिकर | आचा० १४६ । उम्मग्गं विवरं उन्मज्यतेऽनेनेति वोन्मज्यम्, ऊर्ध्व वा मार्गमुन्मार्ग, सर्वथा अरन्ध्रमित्यर्थः । आचा० २३४ । अकार्याचरणम्। आचा० २०३ । उन्मार्गः । आव० ७७८ । मार्गादूर्ध्वं क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिक भाव सङ्कमः । ( १९९) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उम्मग्गदेसणाप आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः यारं ] उम्मग्गदेसणाए - उन्मार्ग देशनया - सम्यग्दर्शनादिरूपभाव | उम्माय उन्मादः - नष्टचित्ततया आलजालभाषणम् । असं-मार्गातिकान्तधर्म्म प्रथनेन । ठाणा० २७५ । प्राप्तकामभेदः । दश० १९४ । चित्तविभ्रमः । ठाणा० १५० । उम्मग्मनिम्मग्गो - उन्ममनिममं - ऊर्ध्वाधोजलगमनम् । महामिथ्यात्वलक्षणः तीर्थकरादीनामवर्णं वदतो भवत्येव तीर्थकराद्यवर्णवदन कुपितप्रवचनदेवतातो वा यत्। ठाणा ३६० । सग्रहत्वम् । ठाणा० ३६० । ग्रहो बुद्धिविप्लवः । प्रश्न० ६३ । उम्मजगा - उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति । तापसविशेषाः । निरय ० २५ । भग० ५१९ । उम्मज्जगो - उन्मज्जक:- उन्मज्जनमात्रेण यः स्नाति । औप ९० । उम्मजणिमजिय - उन्मननिमग्निका उत्पतनिपता । ठाणा० १६१ । उम्मज्जति - स्पृशति । नि० चू० प्र० ११५ अ । उम्मज्जा - उन्मज्जन मुन्मज्जा-नरकतिर्यग्गतिनिर्गमनात्मिका । उस० २८० । उम्मतजला - रम्यक्विजये महानदी । जं० प्र० ३५२ । नदीविशेषः । ठाणा ० ८० । उम्मत्ता - मन्मथोन्मादयुक्ताः, विटाः । बृ० द्वि० १३८ आ । उम्मत्तिगा - उन्मत्ताः । आव० ४०० । उम्मतो - उत्- प्राबल्येन मत्ते उन्मत्ते, दरमत्तो वा उन्मत्तो । नि० चू० प्र० २७६ आ । उम्मरीय- उम्बरीयः- प्रत्युदुम्बरं रूपको दातव्य इत्येवं लक्षणः । बृ० तृ० ५१ अ । उम्माओ - उन्मादः - क्षिप्तचित्तादिकः । आव० ७५९ । उम्माणं - उन्मानं - तुलारोपितस्यार्द्धभार प्रमाणता । प्रश्न० ७४ । जं० प्र० २५२ | ठाणा ० ४६१ । खण्डगुडादि धरिमम् । ठाणा० ४४९ । तुलाकर्षादि तद्विषयम् । ठाणा० ४४९ । नाराचादिः । आचा० ४१३ । तुलाकर्षादि ठाणा १९८ । तुलारूपम् । भग० ५४४ । कर्षपलादि खण्डगुडादिद्रव्यमानहेतुः । जं० प्र० २२७ । अर्द्धभार मानता । भग० ११९ । भर्द्धभारप्रमाणता । ज्ञाता० ११ । उम्माणजुत्तो - जइ तुलाए आरोविओ अद्धभारं तुलति तो उम्माणजुत्तो । नि० चू० तृ० ६१ अ । पुरिसो तुलारोवितो अद्धभारं तुलेमाणो उम्माणजुत्तो । नि० चू० द्वि० ८५ आ । उम्माणा - उन्मानानि - तुलायाः कर्षादीनि । ठाणा० ८६ । उम्माद - चतुर्दशशते द्वितीय उद्देशः । उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः । भग० ६३० । 2010_05 ठाणा ५ ४७ । उम्मिमालिणीओ-नदीविशेषः । ठाणा० ८० । उम्मिलिते - उन्मील्यमाने । आव ० ६३ । उम्मी - ऊर्म्मय:- महाकल्लोलाः । भग० ७११। ऊर्मिःसंवाधः । औप० ५७ । विचिः तरङ्गः । आव ० ६०१।२ ऊर्मिम:- संबाधः । भग० ४६३ | कल्लोलः । ठाणा० ५०२ । सम्बाधः, तरङ्गः, कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः । भग० ११५ । उम्मीलिआ - उन्मिषितलोचनाः । जं० प्र० ५४, २९८ । बहिष्कृता । जं० प्र० २९७, ५४ । उम्मीलिय- उन्मीलितं - बहिष्कृतम् । सूर्य० २६४ । प्रज्ञा० ९९ । जीवा० २०९ । उम्मीसं - उन्मिश्रं - शबलीभूतम् । आचा० ३२१ । आगामुकसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि। आचा० ३२२ । एकीकृत्य । ओघ १६९ | पुष्पादिसम्मिश्रम् सप्तम एषणादोषः । पिण्ड० १४७ | उम्मुक्को - उन्मुक्तः - प्राबल्येन मुक्तः, पृथग्भूतः । आव० ५०८ ॥ उम्मुग्गा उन्मना नदीविशेषः । आव० १५० । उम्मुय - औल्मुकः । प्रश्न० ७३ । उम्मूलणा सरीराओ - उन्मूलना शरीरात्, निष्काशन जीवस्य देहादिति । प्राणवधस्य द्वितीयः पर्यायः । प्रश्न० ५ । उम्ह - उष्मा - परितापः । बृ० द्वि० १९४ अ । उयट्टी-कटी, जङ्घा | उत्त० ११८ | उयति - तेयस्त्रिणो । नि० चू० प्र० ३०१ आ । उयन्तिया अपत्य । आचा० ३४६ । उयरं - जलोयरं । नि० चू० प्र० ५८ आ । उयल्ला-मृता । आव० २७२ | उयविय - विशिष्टं परिकर्मितम् । राज० ९३ । उयवेंति - एतद्ग्रहे तत्र समुद्देशाप्यते इत्यर्थः । व्य० वि० ४५२ अ । उयारं उपकारः । ( महाप्र० (२०० ) •)1 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उयाहरे अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उलंघणं ] उयाहरे-उदाहरेत्-उद्घट्टयेत् । उत्त० ३४५ । । उरस्सं-उरसि भवं उरस्यम। जीवा० १२२ । उरसि भवं उयाहु-उदाहु-उदाहृतवान् । उन० २७० । उरस्य-आन्तरोत्साहः । जं. प्र. ३८७ । उरं-उरः-वक्षः । आचा० ३८ । उरस्सबल-अन्तरोत्साहवीयम् । उपा० ४७ । उरंमुहो-अर्वाङ्मुखः । आव० ४२७ । उरस्सबलसमण्णागए - औरस्यबलसमन्वागतः-आन्तउरकंठसिरविसुद्ध-उरःकण्ठशिरोविशुद्धम्-यपुरसि स्वरो। रोत्साहवीर्ययुक्तः । अनु० १७७ । विशालस्तधुरोविशुद्ध, कण्टे यदि स्वरो वर्तितोऽतिस्फुटितश्च उरस्लबलसमन्नागए-उरस्यबलसमन्वागतः-आन्तरोत्सातदा कण्ठविशुद्धं, शिरसि प्राप्नो यदि नानुनासिक- हवीर्ययुक्त: । जीवा. १२२ । स्ततः शिरोविशुद्धम् , अथवा उरःकण्ठशिरस्म श्रेष्मणाऽ. उराल-विस्तराल, विशालम् । टाणा ० २९५ । उदारं-स्थूलम् । व्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यदू गीयते तत् । अनु० १३२।। सत्र. ५१। स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च, मांसास्थि. उरक्खंधगेवेजय --- उरस्कन्धवेय-भषणविधिविशेषः । पृयवद्धं यच्छरीरं तत्समयपरिभाषया उरालम् । सम. जीवा. २६८ । १४२ । घडियं आभरणादि। नि० चू० प्र० ८२आ । प्रधानः । उरक्खय-उरःक्षतं-उरोविघातः, हृदयबाधा। विशे० १३१। सूर्य० ५। ठाणा ५०३। आव० २८७ । वनस्पतिउरगपरिसप्पा-उरो-वक्षस्तेन परिसर्पन्तीति उरःपरिसः। विशेषः । प्रज्ञा०३३। शोभतो मनोज्ञो वा। सूत्र. १८४ । उत्त० ६९९ । अत्यन्नोटः, समग्रसामग्रीकः, मधुमद्यमांसाद्युपेतः । सूत्र. उरगविही-शुक्रस्य महाग्रहस्य षष्ठी विथीः । ठाणा० ४६८। ३२५ । उरत्थ-उरस्थः, वक्षोभूषगविशेषः । जं. प्र. २१३ । आचा० उराला-उदारा:-बादराः । ठाणा० १६१। ४२३ । हृदयाभरणविशेषः । जं. प्र. १.५ । उरिणणं । ओघ १६६ । उरपरिसप्पा-उरसा-वक्षमा परिसप्पन्तीति उर:परिसम्पः- उरितिय-उरसि त्रिकम् । औप० ५५ । सर्पादयः । ठाणा- ११४ । सम० १३५। उरमा परि. उरंभेइ-अवतारयति । आव. ४०८ । सार्पन्तीति उर:परिसर्पाः । प्रज्ञा. ४५ । उरोविघातः-उरःक्षतं, हृदयबाधा । चिशे० १३१ । उरभ-उरभ्रः-ऊरणः । जं० प्र० ३१ । जीवा० १८९ । · उरोहओ-अंतेपुरं । नि० चू० तृ. ४१ अ । उरभरुहिरं-उरभ्ररुधिरम् । प्रज्ञा . ३६१ । उर्वशी-अरणिः । नंदी १९ । उरब्मिजं-उत्तराध्ययनस्य सप्तममध्ययनम् । उत्त. २७१।। उलग्गंति-अवलगन्ति । आव० ३९६ ।। सम० ६४ । । उलजायगं-वीरलो । नि० चू० प्र० १५५ अ । उरलं-विरल प्रदेशम् । प्रज्ञा० २६९ । अल्पप्रदेशोपचितत्वाद् उलूक-ऊर्चकर्णः । अनु० १५० । मतविशेषः । 'आव. बृहत्त्वाच्च । ठाणा०२९५ । उलूगि-उलूकी, तत्प्रधाना विद्या । आव०. ३१९ । उरविसुद्ध-यजुरसि स्वरो विशालस्तर्हि उरोयिशुद्धम् । अनु० उलूयपणीयं-उलूकपणीनं-वैशेषिकप्रणीतम् । आव० ३२१ । उलोदए-अपवर्तन्ते । प्रश्न० ८६ । उरसे-उपगतो-जातो रसः-पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन् पितृ. उल्मुकं-अलातम् । ओघ० १७ । प्रज्ञा० २९ । दश० ११४ । स्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः, उरसि वा-हृदये स्नेहा उल्कादि । आव. ५८८ । द्वर्तते यः स ओरसः । पुत्रस्य पञ्चमो भेदः । उरमा वर्तत . उल्लं-आई--प्रचुरव्यन्जनम् । दश० १८१ । .... इति ओरसो-बलवान । ठाणा ५१६ । उल्लंघणं-ऊर्च लवनम् । भग० ९२५ । उल्लङ्घन-कदमाउराद्धं-यघरसि स्वरो विशालस्तहि उगेविशुद्धम् । जं. दीनामतिक्रमणम् । औप. ४२ । सहजात् पादविक्षेपान्मप्र० ४० । । नागधिकतरः पादविक्षेपः उल्लङ्घनम् । प्रज्ञा०६०६। उलउरस्ताडं-वक्षस्ताडम् । नंदी १५७ । वन:-बालादीनामचित प्रतिप्रत्यकरणतोऽधःकर्ता । वत्सडिम्भा (२०१) 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उल्लंछेइ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उल्लोअ] दीनां चण्डश्चारभटवत्त्याश्रयणतः । उत्तर ४३४ । तथाविध. लेमाणे-उल्लालयन्-ताडयन । जं. प्र. ३९७। . निमित्तन ऊर्श्वभूमिकायत्क्रमणे गायतिक्रमणे वा । उत्तउल्लाव-- उल्लापः-वचनम् । उत्त. ३३४ । काक्कावर्णनम् । ठाणा० ४०७ । काक्कावर्णनम्। ज्ञाता० ५७ । भग० ४७८ । उलंछेइ-विगतलाञ्छनं करोति । ज्ञाता. ८८ । प्रतिवचनम्। ओघ० ५२। उद्यापम्। आव २२३ । उल्लंठ-उच्छृङ्खलः । आव. ३४४ । काकावर्णनम । औप० ५७ । उल्लंडगा-मृद्गोलकाः। नि. चू० प्र० ३५६ आ। उल्लावितो-उल्लापयन । उत्त० ८५ । उल्लंडणा-उलंघणा । दश० चू० ७७ । उल्लिंचइ-उल्लिञ्चति-आकर्षति । पिण्ड. ११८ । उल्लंडा-मृदुगोलकाः । ६० द्वि० २७१ आ। उल्लिंचण-उदकनिष्काशनम् । नि० चू० प्र० २०७ आ। उल्लंबण-उलम्बन-वृक्षशाखादावुद्धन्धनम् । सम० १२६ । उल्लिंचाविजिहिति । ओघ. ३३ । उल्लंबियगा- अवलम्बितकाः - रज्ज्वा बद्धा गर्त्तादाववता उल्लिउ-उल्लिखितः । उत्त. ४६०। रिताः। औप० ८७। उल्लिय-आद्रः । आव ६२१ । उल्ल-आर्द्रः । ओघ. १८८ । उत्त० ५३० । भग० २३२ । उलिहावेइ-चुम्बयति-आस्वादयति। आव०६८० । आर्द्रा सिमितसकलचीवरेतियावत्। उत्त. ४९३ । उल्ली -- पनकः। ठाणा० ४३० । पणगो। नि. चू. प्र. उल्लग-आर्द्रः । आव० ६२१ । २५५ आ। पगओ। दश. चू. ८० । उल्लगजाति-वीरल्लगसउणो । नि० चू० प्र० २०४ आ। उल्लीण-अपह्रासः । ( मर०)। उल्लच्छणा-अपवर्तना, अपप्रेरणा । प्रश्न० ५६ । उल्लीना-उपलीना--प्रच्छन्ना। आचा० ३७१ । उल्लण-येनौदनमार्दीकृत्योपयुज्यते उल्लणम् । पिण्ड० १६८ । उल्लाराइ । ओघ १३७ । ओघ० १४६ ॥ उल्लका-जनपदो नदीविशेषथ। विशे० ९२७। नदीवि. उल्लणिया-स्नानजलाशरीरस्य जललूषणवस्त्रम् । उपा० ४ । शेषः । विशे० ९२७ । उल्लुदेत्ता-अवलाद-उत्तार्य। आव. २९१।। उल्लपडसाडओ-आर्द्रपटशाटकः । आव. २११।। उल्लुकातीरं-उल्लु कानद्याः समीपे नगरविशेषः । धूलिपाउल्लपडसाडगो-आर्द्रशाटिकापटः । आव० ६८७ । कारावृतत्वात् खेटमुच्यते। विशे० ९२७ । उल्लपडसाडया-स्नानेता पटशाटिके-उत्तरीयपरिधान वस्त्रे। उल्लुगं-अवरुग्णम्-भग्नम् । प्रश्न० २२ । ज्ञाता० ८४ । उल्लुगतीरं - उल्लु कतीर-उल्ल कानधास्तीरे नगरविशेषः । उल्लल्लिया-चलिता। बृ० द्वि. १४९ आ। उत्त० १६५। उल्लवइ-उत्-प्राबल्येनासम्बद्धभाषितादिरूपेण लपति-वक्ति | उल्लगा- उल्लका-नदीविशेषः । उत्त० १६५। आव. उल्टपति। उत्त० ३४४ ।। उल्लवितं-उल्लप्तम् । आव. ३४३। उल्लुगातीरं -- उल्ल. कातीरम् । पञ्चमनिहवोत्पत्तिस्थानम् । उल्लविय-उल्लपितम्-मन्मनभाषितादि । उत्त० ४२८ । विशे० ९३४ । आव. ३१२, ३१७ । उल्लवेंत-उल्लापयन् । आव० ६९२। उल्लुग्गंगी-म्लानाझी। आव. ३९४ । उल्लति-आलापयन्ति । ( गणि. )। उल्लुण्हि-शिम्बीः । नि० चू० द्वि० १४४ आ। उल्लवेइ-उल्लपति। आव० २१६ । उल्लुयतीरे- उल्लु कतीरं-उल्लु कानद्यास्तीरे नगरविशेषः । उल्लवेयव्वो-विध्यापयितव्यः । आव० ३८४ । भग. ७०५। उल्लहिजंति-उहिख्यमाना। आव. २०० । उल्लूहं । ओघ० १५८ । उल्ला-तिता । नि० चू० प्र० ४६ अ। आर्द्रः । आव० ६२२ । उल्लेति-आर्द्रयति। आव० १०१। उल्लाहा-प्रत्यावत्तः । व्य० प्र० १६७ आ। उल्लोअ-उल्लोकः-उपरिभागः । जं० प्र० ३२१ । (२०२) 2010_05 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उल्लोइआ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उवकप्पिया ] उल्लोइआ-उलोइयमिव उल्लोइअं च मेटिकादिना कुड्यादिषु । उवएस-उपदेशः-आदेशः । व्य० प्र० १० आ । गुरुणाधवलनम् । जं. प्र. ७६ । ऽनुज्ञातः । ओघ० १५१ । हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशउल्लोइयं-सेटिकादिना कुज्यानां धवलनम्। भग० ५८२ । नादुपदेशः। अनु० ३८ । अन्यतरक्रियायां प्रवर्तनेच्छोकुड्यानां मालम्य च मटिकादिभिः संभष्टीकरणम् । जीवा. त्पादनं उपदेशः । वचनविभक्तेर्द्वितीयो भेदः । अनु० १३४ । १६० । राज.३६। सम० १३८ । कुड्यमालानां सेटि. यथा आत्मा न बध्यत इत्यादिविषयः । दश० १२० । कादिभिः संमृधीकरणम् । औप० ५। कुड्यानां मालस्य उपदेशः-गुर्वादिना वस्तुतत्त्वकथनम्। प्रज्ञा० ५८ । श्रुतस्य च सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणम् । जीवा० २२७ । प्रज्ञा० ८६। पर्यायः । विशे० ४२३ । कथनम् । आव० ६०४, २६५ । उल्लोए-उल्लोकः, उल्लोचः। भग ६४५। उपरिभागः। उपसमयमलं-उपदेशद्रव्यमलं-यचिकित्सको रोगप्रतिजं. प्र० ४९, ४०० । जीवा० २०५। उल्लोच:-चन्द्रो घातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति । आचा० ८८ । दयः। सूर्य. २९३। उल्लोकः - उपरितनभागः। जीवा० उवएसरुई-उपदेशो-गुर्वादिना वस्तुतत्त्वकथनं तेन रुचि:-- जिनप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स उपदेशरुचिः । प्रज्ञा० उल्लोय -- उल्लोकः-उपरिभागः। भग० ५४०। उद्देशः ।। भग. ३५९। लेशाद्देशः । वृ० प्र. २५० आ। उवएसिया-उप-सामीप्येन देशिता उपदेशिता। आव. उल्लोयगं-उल्लोचम् । आव. १२४ । उल्लोलिया-मलगुटिका। गुटिका। आव० ६८। उल्लोलेइ-उल्लोड यत् । आचा, ४२३ । उवओग-उपयोग:-स्वस्वविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनः परि.उल्हविजंतो-विध्यापितः । आव० ३८४ । च्छेदव्यापारः । जीवा० १६ । उपयोजनमुपयोगः-विवक्षित. उवंगा- उपाङ्गानि - शिक्षादिषडङ्गार्थप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः । कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः । नंदी १६४ । ज्ञानं, संवेदनं, भग० ११४ । शिक्षादिषडाव्याख्यानरूपाणि। अनु. ३६।। प्रत्ययः । विशे०३६। साकारानाकारभेदं चैतन्यम् । ठाणा० उवंगाई-उपाशानि-अङ्गावयवभूतान्यगृल्यादीनि । प्रज्ञा ३३४ । जीवस्य बोधरूपो व्यापारः । अनु० १६ । अवहित. त्वम्। उत्त. ५६१ । भावेन्द्रियस्य द्वितीयो भेदः । भग० ८७। उव- उप-सामीप्यार्थः । प्रज्ञा० ४। दा० १४५। भग० । मतिः । ओघ. ११६ । उपयोगः-लब्धिनिमित्त आत्मनो ३७। उपमेनिवत्मादृश्येऽपि दृश्यते। उत्त० २३५। सकृदर्थे, मनस्साचिव्याद् अर्थग्रहणं प्रति व्यापारः । आचा० १०४ । अन्तर्वचनः। आव. ८२८। अभ्यधिक पुनः पुनः । । उपयोगः-आन्तरः श्रुतपरिणामः । विशे० २९७ | चेतनाउत्त०६४४। विशेषः । भग. १४९ । चैतन्यं साकारानाकारभेदम् । उवइअ-उपचितौ, उन्नती, औपयिकी, उचितौ, अवपतिती, भग० १४८ । उपयोजनमुपयोगः-विवक्षिते कर्मणि मनसोक्रमेण हीयमानोपचयौ। जं. प्र. ११२। ऽभिनिवेशः । आव० ४२६ । विपाकानुभवनम् । दश० उवइग-उद्देहिका । नि. चू० प्र. ५७ आ। ८६ । श्रोतुस्तदभिमुखता। आव० ३४१ । सावधानता। उपइजा-अवपतेत, आगच्छेत् । आचा० ३६५। औप० ४८ । स्वाध्यायाशुपयुक्तता । उत्त. १४५ । स्वस्वउवइस्सह-उपदिश्यते-श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यत ।। विषये लब्ध्यनुसारेणात्मनो व्यापारः प्रणिधानम् । प्रज्ञा० दश० ११० । २९४ । प्रज्ञापनाया एकोन त्रिंशत्तमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । उवउग्गहकरो-किरियापरो। नि० चू० प्र० २६६ अ । उपयोजनं उपयोगः भावे घज, यद्वा उपयुज्यते-वस्तुपरिउवउत्त-उपयुक्तः-अनन्यचित्तः । दश. १०६ । अवहितः। छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, 'पुंनाम्नि घ' इति भग० ८९ । णमोकारपरायणो । नि० चू० प्र०४७अ । उप- करणे घप्रत्ययो बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः। प्रज्ञा. युक्तः-अभिष्वगवान । भग. ९०५ । व्यापृतः, निटां गतः। ५२६ । दश. १०८ । विशे० ९७४ । अभ्यवहृतम् । आचा. १७६ । उवकप्पिया-उपकल्पिता । उत्त० २८७ । 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उवकरण आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उवकस] उवकरण-उपकरण-अङ्गादानाख्यः । बृ० तृ० ९८अ। उप- । ऽस्मिन् शिष्यश्रवणभावे सतीति. उपक्रम्यतेऽस्माद्विनीतविनेयकरणं-ग्लानाद्यवस्थायामन्येनोपकारकरणम् । प्रश्न. १२९ । विनयादिति वा । अनु० ४५। विशे० ४३० । उपक्रमगउपधिः । परिग्रहस्य पञ्चदश नाम । प्रश्न० ९२ । अङ्गम् । मुपक्रम इति भावसाधनः व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपाभग० २२४ । नयनेन निक्षेपावसरप्रापणं, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेउवकरणपणिधाणे-उपकरणस्य लौकिकलोकोत्तररूपस्य वस्त्र- नेत्युपक्रम इति करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा पात्रादेः संयमासंयमोपकाराय प्रणिधानं-प्रयोग: उपकरण- शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उपक्रप्रणिधानम् । ठाणा. १९६ ।। म्यतेऽस्मादिति वा विनयविनयादित्युपक्रम इत्यपादानसाधन उवकरणसंवरे-उपकरणसंवरः-अप्रतिनियताकल्पनीयव- इति । जं० प्र० ५। उपक्रम्यते-क्रियतेऽनेनेत्युपक्रम:स्त्राद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्रापकरणस्य संवरणम् । कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वामिना परि गमनहे तुर्जी वस्य शक्ति. ठाणा० ४७३ । विशेषो योऽन्यत्र करणमिति रूढः, बन्धनादीनामारम्भः । उवकरिंसु-अवकीर्णवन्तः । आचा० ३११ । ठाणा. २२१ । वस्तुपरिकर्मरूपः । ठाणा. २२१ । अप्राउवकरिज-उपकुर्यात्-ढौकयेत् । आचा० ३५१ । प्तकालस्य निर्जरणम् । भग ७१५ । आनुादिः । सम० उवकरेउ-उपकरोतु । उपा० १५ । ११५ । निरुक्तिस्तु उपक्रमणं उपक्रमः इति भाव साधनः, उवकरणे-उपकरणे । बृ० द्वि० २८१ अ । शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरु. उवकुलं-कुलस्य समीपं उपकुलम् । जं० प्र० ५०६ । । वाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति उवकुला-उपकुलानि । सूर्य० १११ । वा शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उपउवकोसा-कोशाया लध्वी भगिनी उपकोशा | आव. ६९५।। कम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनेयादित्युपक्रम इत्य पादान आव० ४२५ । इति । ठाणा ४ । कर्मोदीरणकारणम्। ठाणा० ८९ । उवकम-उपक्रमणं-आयुःपुद्गलानां संवर्तनं समुपस्थितं । उवक्कमकाल - उपक्रम कालः -- अभिप्रेतार्थसामीप्यानयन. तत् । आचा० २९१ । उपक्रमणमुपक्रमः, उपक्रम्यतेऽनेना- लक्षणः । विशे० ८३७ । अभिप्रेतार्थसामीप्यान यनलक्षणः स्मादस्मिन्निति वोपक्रमः-ध्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपा- सामाचार्यायुकभेदभिन्नः । दश. ९ । नयनम् । आचा० ३ । उपक्रमणं उपक्रम:-दीर्घकालभा. उवक्कमिओ-औपक्रमिकः-दण्ड कशशास्त्रादिनाऽसातवेदनी योविन्याः स्थितेः खल्पकालताऽऽपादनम् । उत्त० ३२१ । दयापादकः । सूत्र. ७८ । उपेति--सामीप्येन क्रमण उपक्रमः-दूरस्थस्य समीपापादनम्।। उवक्कमिया-उपक्रम गमुपक्रमः-स्वयमेव समीरे भवनमुदीओघ १ । उपायेन परिज्ञानम् । ठाणा० १५५ । उपाय- रणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निता औपक्रामकी । पूर्वक आरम्भः । ठाणा. १५४ । प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां प्रज्ञा० ५५७ । औपक्रमिकी। सम. १४६ । प्रज्ञा० ५५४ । परिणमनसमर्थ जीववीर्यम् । ठाणा. २२१ । अभिप्रेतार्थ- उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निवृता तत्र वा भवा औपक्रसामीप्यानयनलक्षणः । आव. २५७ । कालगमनम् । बृ. मिकी-ज्वरातीसारादिजन्या । ठाणा. ८९ । कर्मवेदनोपायद्वि० २३० अ । नाशः । (आउ०)। उप-सामीप्ये, 'कमुपा. स्तत्र भवा औपक्रमिकी स्त्रयमुदीर्गस्योदीरणाकरणेन चौददविक्षेपे' उपक्रमणं दूरस्थस्य शास्त्रादिवस्तुनस्तैस्तैः प्रतिपा- यमुपनीतस्य कर्मणोऽनुभवः। भग०६५। स्वयमुदीर्णस्योदनप्रकारैः समीपीकरणं-न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकर- । दीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्य स्यानुभवात् औपकमिकी। णमित्युपक्रमः । विशे० ४३० । कर्मवेदनोपायः । भग०६५। भग. ४९७ । स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपान- उवकम्म-उपक्रम्य-आगत्य । सूत्र. ३५६ । यनम् । प्रज्ञा० ५५७ । उपक्रमः-दूरस्थस्य वस्तुनस्तैस्तैः उवक्कयं-उपस्कृत-नियुक्तम् । जीवा० २६८ । प्रतिपादनप्रकारैः समीपमानीय निक्षेपयोग्यताकरणं, उपक- उवकेस-उपक्लेशा:-कृषिपाशुपाल्यवागिज्याउनुष्ठानानुगताः म्यते-निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुवारयोगेनेति, उपक्रम्यते । पण्डित जनहिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवगचिन्ताद (२०४) 2010_05 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उचक्खड यश्व । दश० २७३ | उपक्केश:- स्वगतशोकादिः । भग० ९२५ । उवक्खड उपस्कृतं उपस्कर्तुमारब्धम् । पिण्ड० ६५ । उपस्करणमुपस्कृतं -पाकः ठाणा० २२० । लवणवेसवारादिसंस्कृतम् । उत्त० ३६० । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः उari ] कवलकार्गलादि । आचा० ६० । उपकरोतीति उपकरणम् । ओध० २०७ । वस्त्रादि । भग० ७५० । धर्म्मशरीरोपष्टम्भहेतुः । उत्त० ३५८ । अनेकविधं कटपिटकशूर्पादिकम् । अनु० १५९ । रजोहरणदण्डकादि । ओघ ० १२५ । द्रव्येन्द्रियस्य द्वितीयो भेदः । भग० ८७ । प्रज्ञा० २३ । खड्ग स्थानीयाया बाह्यनिर्वृत्तेर्या खड्गधारास्थानीया स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिकाऽभ्यन्तरानिवृत्तिस्तस्याः शक्तिविशेषः । जीवा ० १६ । हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि | आचा० १०० । औपप्रहिकम् । उत्त० ३५८ । उवगरणपडिया- उपकरणप्रतिज्ञा - उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः । आचा० ३८४ । उवगरणसंजमे - उपकरणसंयमः - महामूल्य वस्त्रादिपरिहारः, पुस्तकवस्त्र तृणचर्म्मपञ्चक परिहारो वा । ठाणा० २३३ । उवगर (वरप) - अपवरकम् । आव० ६६६ । उवगसित्ताणं - उपसंश्लिष्य, समीपमागत्य । सूत्र० १०७ । उवगहिओ - उपगृहीतः - उपकृतः । आव० ७६८ । उपग्रहितः । आव० ७९३ । १२५ अ । उवक्खडियं । ओघ १६० । वक्खडेंति- उपस्कुर्वन्ति । आव० २९१ । उवक्खडे - उपस्कृतानि नियुक्तानि । जं० प्र० १०५। उवक्खडेउ - उपस्करोतु - राध्यतु । उपा० १५ । उवक्खडेज्जा-तदशनादि पचेत् । आचा० ३५१ । वक्खरो सपदिकः । नि० चू० प्र० ३५६ अ । उपकरणम् । ( मर० ) । उपस्क्रियतेऽनेनेति उपस्करः- हिवादिः । ठाणा० २२० । उवगा - उपगाः- प्राप्ताः । प्रज्ञा० ७० । उपगच्छन्ति तदेकचित्ततया तत्परायणो वर्तन्ते । जीवा० २६० । उवग- गर्भा । वृ० द्वि० ३१ अ उवगओ-उपगतः । आव० ४०० । सामीप्येन कर्मविगम उवगारग्ग- उपकाराग्रं यत्पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनादुपकारे वर्त्तते तद् । आचा० ३१८ | उवगारियलेणाइ - औपकारिकलयनानि - प्रासादादिपीठकल्पानि । भग० ६१७ । उवगारिया - राजधानीस्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीन उपकरोति- उपष्टभ्नातीति उपकारिका - राजधानीस्वामिसत्कप्रासा दावतंसकादीनां पीठिका । जीवा० २२२ । पीठिका । राज० उवक्खडणसाला -महाणसो । नि० चू० प्र० २७२ आ । उवक्खडामं जहा चणयादीण उवक्खडियाण जेण सिज्यंति ते कंकड़या तं वक्खडियामं भण्णति । नि० चू० द्वि० लक्षणेन प्राप्तः । आव० ३८६ । उवगच्छया-कक्खा । नि० चू० प्र० २५५ अ । उवगत-उपगतः । आव० ३०८ । उपगतः - आश्रितः । उत्त७ १७८ । उवगमं - उपगच्छति साददयेन प्राप्नोति । उत्त० २३५ । उवगमण - उपगमनं - अवस्थानम् । सम० ३५ । अस्पन्दतयाऽवस्थानम् | भग० १२० । उवगयं-उपगतं-सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतम् । नंदी १८० । मृतम् । पिण्ड० १३४ उपगतं - ज्ञातम् । आव० ८१२ | उवगरण - चोलपट्टको रजोहरणं नैपद्याद्वयोपेतं मुखवस्त्रिका 'उपलक्षणत्वादणिकसौत्रिकौ च कल्पौ । ० प्र० २९५ अ । दंडकं रजोहरणं च । बृ० प्र० ७१ आ । उपकरणं- औपग्रहि कम् । प्रश्न० १५६ | उपकरणं- उपधिरेव । आव ० ५६८ । आवरणप्रहरणादिकम् । भग० ९४ । लौहीकडच्छुकादि । भग० २३८ । कटादिकम् । भग० ३२२ । व्यजनकटक 2010_05 ८१ । भग० २१९ । उवगिण्हह - उपगृह्णीत - उपष्टम्भं कुरुत । उवगृहिअ - उपगूहितं परिष्वक्तम् । सम्प्राप्तकामस्य षष्टो भेदः । दश० १९४ । उवगो - अन्यगच्छीयः साधुः । वृ० तृ० २१० अ । खुड्डा कुमारो वा । नि० चू० प्र० ८८ अ । उवग्गं-उपार्थ- समीपभूतम् । आव ० ४०७ । उवग्गछाया - छायाभेदः । सूर्य० ९५ । उवग्गह-उपग्रहः- शिष्याणामेव ज्ञानादिषु सीदतामुपभकरणम् । व्य० प्र० १७२ अ । उपष्टम्भः । पिण्ड० २७ । उपगृह्णातीति उपग्रहः । ओघ० २०७ । शिष्याणां भक्त (२०५) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवग्गहितो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उपचित ध्रुतादिदानेनोपष्टम्भनम् । प्रश्न. १२६ । अनाचार्याणामन्य- उत्त० ५१८ । पिण्डादेरकल्पनीयताकरणं, चरणस्य वा शबलीगणसत्कानां दिग्बन्धं कृत्वा धरणम् । ध्य० प्र० २३५ अ। करण, आधाकर्मत्वादिभिदुष्ता। ठाणा. १५९।। प्रहणम् । ओघ १४७। वस्त्रादिभिरुपष्टम्भः। ठाणा. उवघायजणयं-उपधात जनक-सत्त्वोपघातजनकम् । सूत्रदोष३३२ । अवष्टम्भम् । ओघ. १५४ । उपगृह्णातीति उपग्रहः- विशेषः । आव. ३७५ । सत्त्वोपघातादिप्रवर्तकम् । विशे० भक्तादिः । ओघ. १८३ । उवग्गहितो -- उवाजति उवग्गहितो। नि० चू० वि० उबघायणामे यदुदयात स्वशरीरावयवैरेव शरीरान्तः परि. ११ आ। बर्द्धमानैः प्रतिजिह्वागलबन्दलम्बकचोरदन्तादिभिरुपहन्यते, उवग्गहिय-औपग्रहिकम् । ओघ० २१७। उपधिः। उत्त यद्वा स्वयंकृतोद्वन्धनभैरवप्रपातादिभिरुपघातनाम। प्रज्ञा० उवग्गहोवही-औत्पत्तिकं कारणमपेक्ष्य संजमोपकरण इति उवघायनिस्सिय-उपघातनिमृता-मृषाभाषा भेदः । दश० गृह्यते। नि. चू. प्र. १७९ अ। उपग्रहोपधिः-उपधेद्वितीयो भेदः। अवग्रहोपधिः-यः कारणे आपन्ने संयमार्थ उवघेत्तु-उपग्रहीतुं, संस्थापयितुं, निर्वापयितुं वा । बृ० द्वि० २१० अ। गृह्यते सः। ओघ० २०८।। उवचए-उपचीयते-उपचयं नीयतेऽनेनेति उपचयः-पुद्गलउवग्गाहियं-औपग्रहिकं, सामुदानिकम् । उत्त. १०८। उवग्गे-उपाग्रे-समीपभूते । विशे० ११७८ । प्राप्ते। (महाप्र.) सङ्ग्रहणसम्पत् , पर्याप्तिरिति। प्रज्ञा० ३०९ । प्राभूत्येन चयः। प्रज्ञा० ४३२। स्वस्याबाधाकालस्योपरि ज्ञानावरउवग्घाय-- उपोद्घातः-उपोद्घननं- व्याख्येयस्य सूत्रस्य णीयादिकर्मपदगलानां वेदनार्थ निषेकः। प्रज्ञा २९२ । व्याख्यानविधिसमीपीकरणम् । विशे० ६३८ । अनु० २५८ । उवचओ-उपचयः-प्रभूततरा वृद्धिः । पिण्ड० ४१ । परिप्र. उवग्घायनिन्जुत्तिअणुगमे - उपोद्घननं - व्याख्येयस्य हस्य चतुर्थं नाम । प्रश्न. ९२। सूत्रस्य व्याख्यावाधसमापाकरणमुपाद्घातस्तस्य ताद्वषया उवचयति- उपचीयते-विशेषत उपचयमायाति। प्रज्ञा० वा नियुक्तिस्तद्रूपस्तस्या वा अनुगमः उपोद्घातनियुक्त्य २२८ । नुगमः । अनु० २५८ । उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः, नियुः | उवचरंति- उपचरन्ति-उपसर्गयन्ति । उप-सामीप्येन मांसास्त्यनुगमभेदः । आचा० ३ । दिकमश्चन्ति अथवा श्मशानादौ पक्षिणो गृध्रादय उपचरन्ति उवघाइयणिस्सिया- उपघातनिःमृता चौरस्त्वमित्याद्य. इति। आचा० ३०८ । भ्याख्यानम् । प्रज्ञा० २५६ । उवचरप-उपचरक:-चरः । आचा०३७७ । उपचारकः । उवघाइयाआरोवणा-सा दिनद्वयस्य पक्षस्य चोपधातनेन । आचा० ३६५ । लघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा उपघातिका-उववरगो-राजछिद्रान्वेषी। नि. चू० प्र० ३३५ अ। रोपणा। सम० ४७॥ उवचरित्तु-गृहीत्वा । नि० चू० प्र० २१ अ। उवघात - उपघातो-पीडा व्यापादनं वा। नि० चू० प्र० उवचार - उवचरति-पडिजागरति, उवचरति पुच्छति, १३७ आ। अशुद्धता। ठाणा० ३२०। सत्त्वधातादिः ।। लोगोपचारमात्रेणागच्छति, साधूणं मज्जाया चेव जं गिला. सवस्य द्वात्रिंशदोषे द्वितीयः । अन० २६१। बाधा। ओघणस्स वट्टियव्वं एस.ज्ञानादिकं तस्समीपादीहतीत्यर्थः, पच्छित मा मे भविस्सतित्ति निजरार्थः एस उपचारः । नि. चू.प्र. उवघातनिस्सिते-उपघाते-प्राणिवधे निश्रित-आश्रितं उप- ३१९ अ । ग्रहणं अधिगमेत्यर्थः । नि० चू० प्र० २० आ। घातनिश्रितं, दशमं मृषा। ठाणा. ४८९। उवचारमेत्तं-कल्पनामानं । नि• चू० प्र० २१ अ। उपघाय-उपधातः-प्रतिसेवणादि। ओघ० २२५। सर्वतो उवनिअं- उपचित-साधितम्। आव. १७६ । परिकर्मि. घातनम् । प्रश्न. १३७। संयमात्मप्रवचनबाधात्मकः। तम् । औप० १७ । 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवचिए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उवट्ठाणं ] उवचिए-उपशोभितं-भृतं । जं० प्र० २९२ । उपचितं- । पज्योतिष्का:-अग्निसमीपवर्तिनो महानसिका ऋत्विजो वा । समृद्धः । ज्ञाता० ९८ । उवचिओ-उपचितः-निवेशितः । प्रज्ञा ८६। जीवा० उवज्झाए-उपाध्यायः । प्रज्ञा० ३२७ । अध्यापकः । आव. २२७, १६०। ३५३। उवचिजंति-निषेकरचनतः निकाचनतो वा उपचीयन्ते । उवज्झाओ - उपयोगपूर्वकं पापपरिवर्जनतो ध्यानारोहणेन भग० २५३। कर्माण्य पनयतीति उपाध्यायः । आव. ४४९ । उवाचइजा-उपतिष्त-विनयेन सेवेत । दशः २४५ उवज्झाय-उपाध्यायः-उप-समीपमागत्य अधीयते-पठ्यते उवचिण - उपचितवन्त:-परिपोष गतः। ठाणा० १७९।। यस्य सः, उप अधि-आधिक्येन गम्यते सः, उप अधिउपचयन-चितस्याबाधाकालं मक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया ।। आधिक्येन स्मर्यते सत्रतो जिनप्रवचनं यस्मात् सः, उपाधिःनिषेकः । ठाणा. १९५ । परिपोषणम् । ठाणा० ४१७।। TIMID सन्निधिस्तेन तत्र वा आयः-लाभः श्रुतस्य यस्य, उपा. धीनां-विशेषणानां आयो-लाभः यस्मात् सः, उपाधिरेवउवचिणार - प्रदेशवन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया वेति ।। सन्निधिरेव आय--इष्टफलं दैवजनितत्वेन आयानां-इष्टफ. भग. १०२। उवचिणिंसु-उपचितवन्तः । ठाणा० २८९ । लानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद यस्य, आधीना-मनःपीडानां आयो-लाभ आध्यायः, अधियां-कुबुद्धीनां आयोऽध्यायः, उवचिय-उपचित-तेजितम्। प्रज्ञा. ९१। उपचित--परि दुर्थ्यानं वाऽध्यायः, उपहत आध्यायो वा. अध्यायो कर्मितम् । राज. ३७ । जीवा० २१० । युक्तम् । जीवा० येन सः। भग० ३। सूत्रदाता। ठाणा० २९९ । २०४ । मांसलम् । जीवा० २७१ । समानजातीयप्रकृत्यन्त आचारगोचरविनयं स्वाध्यायं वा आचार्यादनु तस्मादुरदलिकमक्रमेणोपचयं नीतः। प्रज्ञा. ४५९ । भृतः। पाधीयते सङग्रहोपग्रहानुग्रहार्थ वा। तत्त्वा० ९-२४ । उपजं. प्र. ४२ । परिकर्मितम्। भग. ५४०। विशिष्टं गम्योपेत्य यतो येभ्योऽधीयते पठन्ति शिष्यास्त उपाध्यायाः, परिकर्मितम् । राज. ९३ । उपचयः-पौन:पुन्येन प्रदेशा यञ्च यस्मादुप-समीपे गतं-प्राप्त शिष्यमध्यापयन्ति तत नुभागादेवधनम् । भग० ५३ । औपचयिकः-उपचयनिवृत्तः उपाध्यायाः, यस्माच्च स्वपरहितस्योपायध्यायका उपायचिऔपयिको वा-उचितः । प्रश्न. ८1। निवेशितः । औप० न्तकास्ततस्त उपाध्यायाः। विशे० १२३०। सूत्रार्थतदु. ५। बहुशः प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति । भग. भयविदः ज्ञानदर्शनचारित्रेयुक्ता-उपयुक्तास्तथा शिष्याणां २४ । युक्तः । जं० प्र० ४८ ।। सूत्रवाचना प्रदानादिनिष्पादका एतादशा भवन्ति। व्य. प्र. उवचीयह- उपचीयते-उपचयमायाति । जीवा० ३२२, ११ आ। ३.६ । उपचयमुपगच्छति । जीवा. ४०० ।। उवगा । नि० चू० प्र० २३२ आ। उवच्छगो-कक्खो। नि० चू० प्र० २११ अ। उवट्टणं-सकृत् उवट्टणं । नि. चू० प्र० १९. आ। उवच्छुमे । आव० १८० । उवट्टित्ता-उठूल्य-तत्परित्यागेनान्यत्र गत्वा । उत्त० २९६ । उवजाइय-उपयाचिते-देवताराधने भवः औपयाचितकः । उवटिय-उपस्थापितः। आव २८८ । ठाणा० ५१६ । • उववेति-उपस्थापयति, उपढौकवति, प्राभृतीकरोति । जं. उवजीवइ-उपजीवति-अनुभवति । भग० ११२ । । प्र० २४४ । उवजीवति - उपजीवति-जीवनार्थमाश्रयते । व्य. प्र., उवट्राइ-उत्तिष्ठते । आव० ३१८। १६३ आ। उवट्ठाएजा-उपतिष्ठेत् , उपस्थानम्-परलोकक्रियास्वभ्युप. उवजीविओ-उपजीवितः। ठाणा० ३७२ । गमं कुर्यादित्यर्थः । भग० ६४ ॥ उवजेमणा-रसवती । नि० चू. प्र. ३४९ आ। उवटाणं-गोसादिठाणं : नि० चू० द्वि० ७० अ। उपस्थानेनउवजोडया-ज्योतिषः समीपे ये त उपज्योतिषस्त एवो- धर्मचरणाभासोयमेन वर्तते इति उपस्थानः । आचा०२२७॥ 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उबट्टाणगिह आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उवत्थाणीअं] उवहाणगिह - उपस्थानगृहं - आस्थानमण्डपः । ठाणा० । उवणीअ-उपनीतः-नियोजितः । ठाणा० २५९ । उपसंहा२९४ । भग. २००। रोपनययुक्तमुपनीतम् । अनु० १३३। उपनयोपसंहृतमुपउवट्ठाणसाला-उपस्थानशाला-आस्थानसभा। औप०२३। नीतम् । अनु० २६२ । उपसंहारयुक्तम् । ठाणा० ३९७ ॥ आस्थानशाला। आव. ३००। उपवेशनमण्डपः । निरय० प्रापितम् । ठाणा० ४९४ । निगमितं, योजितम् । ठाणा. ८। आस्थानमण्डपः। निरय. १०। जं.प्र. १८७।। उवठाणा-मासद्वयं चतुर्मासद्वयं चावर्जयित्वा पुनस्तत्रैव उवणीए-उपनीतं-योजितम् । जं. प्र. १०५ । वसतामुपस्थानेति । ठाणा. ३२१। उवणीते-उपनीतं-प्रापित, दशमो विशेषः । ठाणा० ४९२ । उवद्रावणा-उपस्थापना-महाव्रतारोपणरूपा। उत्त० ५६८।। उवणीय-उपनीतं-योजितम् । जीवा. २६८ । उपनयो. उप-सामीप्येन सर्वदावस्थानलक्षणेन तिष्ठन्त्यस्यामिति उप- पसंहृतम् । आव० ३७६ । विनीतं, ढोक्ति, दायकेन वणि स्थापना-शय्या। व्य. दि. १०४ अ। तगुणं वा। औप. ३९। प्रापितः । आचा. ७८ । उवद्वावणाए गहणं-तत्रोपस्थापनायां विधीयमानायां उवणीयअवनीयवचनं - उपनीतापनीतवचनं -- कश्चिद् हस्तिदन्तोन्नताकारहस्तादिभिर्य रजोहरणादि गृह्यते तद् गुणः प्रशस्यः कश्चिन्निद्यः । आचा० ३८७ । उपस्थापनाग्रहणम् । बृ. द्वि० २५६ अ। उवणीयवयणं- उपनीतवचनं-प्रशंसावचनम् । आचा० उवट्ठावणायरिते-उत्थापनयाचार्यः। ठाणा० २३९। ३८७ । प्रज्ञा० २६७ । गुणोपनयनरूपम् । प्रश्न. १९८ । उवट्ठाविप गहणं-- उपस्थापितस्य - छेदोपस्थापनीयचारित्रं उवणीयावणीयवयणं - उपनीतापनीतवचनं - यत्प्रशस्य प्रापितस्य यद् उपधेर्धारणं परिभोगो वा तद् उपस्थापितग्रहणम्। निन्दति । प्रज्ञा० २६७ । यत्रैकं गुणमुपनीय गुणान्तरमपबृ० द्वि० २८६ । नीयते तत् । प्रश्न. ११८। उवट्ठावित्तए -- उत्थापयितुं - महाव्रतेषु व्यवस्थापयितुम् । उवणेइ-उपनयति, प्राभृतीकरोति । जं० प्र० २०४ । ठाणा० ५७ । उवण्णं-प्रोझितं । नि० चू० प्र० २७४ आ। उवटिअ-उपस्थितं-उद्यतम् । ओघ. १७६ । उवण्णत्थ-उपन्यस्तं-उपकल्पितम् । दश. १७१। उवट्टिए-उपस्थितं-प्रत्युद्यतम् । आव० ५४१ । दीक्षितः । उवण्हाणयं-माषचूर्णादिसिणाणं । नि० चू० प्र० ११६ आ। -बृ० द्वि. २६४ अ। अत्यन्तावस्थायि । भग० १००। उवतत्तो-उपतप्तः-आपन्नसंतापः। प्रश्न. १९। उवटिता-दूरीकृता। नि० चू० द्वि. ९४ आ। उवतेसणे-उपदिश्यत इति उपदेशनं-उपदेशक्रियाया व्यायउवट्टिताओ-गोलोपलखनिः । नि० चू० द्वि० ४. आ। मुपलक्षणत्वादस्य क्रियाया यद् व्याप्यं तत् कर्मेत्यर्थः । उवट्टिय-उपस्थापितः । आव० ५५९ । उपस्थितः-उद्यतः। द्वितीया वचनविभक्तिः । ठाणा. ४२८। उत्त० ६३७ । प्रत्यासन्नीभूतम् । उत्त० ६६८ । उवतेसाई-उपदेशः-गुदिना कथनं तेन रुचिर्यस्येत्युपउवणयं-उपनयन-कलाग्रहणार्थ नयन धर्मश्रवणनिमित्तं वा देशरुचिः। ठाणा. ५०३ । उत्त० ५६३ । साधुसकाशं नयनम् । आव० १२९। उवत्तावलिए-चतत्रावलितः। सूत्र. ३८७ ॥ उवणयणं-कलाग्राहणम् । भग० ५४५ । उपनयनं-बालानां | उवत्तिया-अपवर्तिता । ज्ञाता. ४८ । कलाग्रहणम् । प्रश्न. ३९ । उवत्थड-उपस्तीर्णः-उपच्छादितः । भग. ३७, १५३ । उवणिक्खिविउं-उपनिक्षिप्य। आव० ५५५ । उवत्थम-अस्तं। नि० चू० तृ.६० अ उणिवाय-उपनिपातः--जनमीलकः । ठाणा० ४२। उवत्थाण-उपस्थानं-प्रत्यासक्तिगमनम् । निरय. ३३। उवणिविट्ठ-उपविष्टं-सामीप्येन स्थितम् । जीवा० १९९।। उवत्थाणियं-उपस्थान-प्रल्यासक्तिगमनं तत्र प्रेक्षणककरउवणिहि - उप-सामीप्येन निधिः उपनिधिः-एकस्मिन् णाय यदा विधत्ते । निरय० ३३। विवक्षितेऽर्थे पूर्व व्यवस्थापिते तत्समीप एवापरापरस्य उवत्थाणी- उपस्थानिक-प्रामृतम्। जं. प्र. २०३. वक्ष्यमाणपूर्वानुपूादिक्रमेण यनिक्षेपणं सः । अनु०५२।। २५२ । (२०८) 2010_05 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवत्थिए उवस्थिए - अभ्युपगतः । ज्ञाता० २२० । उवत्थिया उपस्थिता - उपनता । सम० १८ | उवदंसं - उपदर्शनम् । आव ० ७२६ । उवदंसणकूड - उपदर्शनकूटं, उपदर्शननामकं कूटम् । प्र० ३७७ । जं० उवदंसिजंति - उपदर्श्यन्ते - निगमनेन शिष्यबुद्धौ निःशङ्कं व्यवस्थाप्यन्ते। नंदी २१२ । उपदर्थन्ते उपनयनिगमनाभ्यां सुकलनयाभिप्रायतो वा । सम० १०९ । उवदंसिया - उप-सामीप्येन यथा श्रोतॄणां झटिति यथाव स्थित वस्तुतत्त्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः, दर्शिताः - श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टाः । प्रज्ञा० ४ । उवई सेइ - सकलनय युक्तिभिः उपदर्शयति । भग० ७११। ठाणा ० ५०३ । उपदर्शयति- प्रकाशयति । भग० १४९ । उदाभाव मूलं - उपदेष्टृ भावमूलं - उपदेष्टा यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेोत्पद्यन्ते । आचा० ८८ । उवद्दवा उपद्रवाः राजचौर्यादिकृताः । भग० ४६९ । उवदवेइ - उपद्रवयति - उपद्रवं करोति । ठाणा० ३०५ । उवद्दवेह - उपद्रवयथ-मारयथ । भग० ३१८ | उवधाणं- उपदधातीत्युपधानं तपः । दश० १०४ । उवधाय पंडगो-पंडगस्स बीयो भेओ । नि० चू० द्वि अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः ३१ अ । उवधारणाया - धार्यतेऽनेनेति धारणं, उप-सामीप्येन धारणं उपचारर्ण व्यञ्जनावग्रहेऽपि द्वितीयादिसमयेषु प्रतिसमय पूर्वापूर्व शब्दादिपुद्गलादान पुरस्सरं प्राक्तनप्राक्तनसमय गृहीतशब्दादिपुद्गलधारणपरिणामः तद्भाव उपधारणता । नंदी १७४ | उपधारणता अविच्युतिस्मृतिवासनाविषयकरणम्। ठाणा ४४१ । उवधारियं उपधारित अवधारितम् । भग० १०१ । उवनंद - उपनन्दः । आव ० २०१ । उवनगरगामं - उपनगर ग्रामः । आव० ३०१ । उवनिक्खिते - उपनिक्षिप्तः - व्यवस्थापितः । आचा० ३४४ । उवनिग्गय - उपविनिर्गतः - निरन्तर विनिर्गतः । राज० ६ । उवनिहिते - उपनिधीयत इति उपनिधिः - प्रत्यासन्न यद्यथा कथमिदानीतं ते चरति तद्ग्रहणायेत्यर्थः इत्यौपनिधिकः, उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहणविषयतयाऽस्ति स प्रज्ञादेरा 2010_05 - उवयंति ] कृतिगणत्वेन मत्वर्थीयाण्प्रत्यये औपनिहित इति । ठाणा० २९८ । उवनिहिय - उपनिधिना - प्रत्यासत्त्या चरति प्रत्यासन्नमेव गृह्णाति यः स औपनिधिकः । प्रश्न० १०६ । उनिही- उपनिधिः- प्रत्यासत्तिः । प्रश्न० १०६। उवन्नास - उपन्यसनं उपन्यासः । दश० ३५ । उवन्नासोवणए - वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्या सोपनयः । ठाणा० २५४ ॥ उचपयाण- उपप्रदानं अभिमतार्थदानम् । विपा० ६५ । उपप्रदानम् । दश० १०९ । उवब्बूहियं - उपबृंहितं- समर्थितं अनुमतं वा । आव ५३९ । उवभोग - उपभुज्यत इति उपभोगः - सकृद्भोगोऽशनपानादि, अन्तर्भागः, आहारादि वा । आव० ८२८ । सकृद्भोगः । भग० २९७ । आव ० ८३० । पुनःपुनर्भुज्यत इति उपभोगः- वस्त्रालङ्कारादि । प्रज्ञा० ४७५ | व्हाणवत्थाभरणगंधमहाणुलेवणभ्रूवणवास तंबोलादि । निं० चू० तृ० १ आ । धार मुपभोगः । आव ३२५ । उपभोगः - पौनःपुन्येन चोपभोजनमुपभोगः । भग० ३५० । उवभोगंतराए - उपभोगान्तरायः -- यदुदयवशात् सत्यपि विशिष्ट वस्त्रालङ्कारादिसम्भवेऽसति च प्रत्याख्यान परिणामे वैराग्ये वा केवलकार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तत् । प्रज्ञा ० ४७५ । उम-उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । दश० ३४| उवमा उपमा-सादृश्यम् । उत्त० २७९ । दृष्टान्ताः । बृ० प्र० १६८ आ । सादृश्योपदर्शनरूपा । उत्त० २७२ । उपमादोषः - हीनाधिकोपमानाभिधानं, अष्टाविंशतितमः सूत्रदोषः । आव० ३७४ । उपमा । प्रज्ञा० ३६४ । खाद्यविशेषः । जीवा० २७८ ॥ उपेत्युपयोगपूर्वकं मेति ज्ञानं, उपमा सम्प्रधारणा । उत्त० २२४ । उवमाणं- उपमानं दृष्टान्तः । ओघ० १७ । उवमादोसो - उपमादोषः यत्र हीनोपमा क्रियते । सूत्रस्य द्वात्रिंशद्दोषेऽष्टाविंशतितमो दोषः । अनु० २६२ । उवयंति-अवपतन्ति - अवतरन्ति । आचा० २६६ । 1 (२०९) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उवयरयं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उवलमेजा ] उवयरयं-अपवरकम् । आव० ७२२ । । तस्स गामस्स उवरिएणंति मज्झेण गंतुकामा । नि० चू० प्र० उवयातिते-उपयाचिते-देवताराधने भवः औपयाचितकः । । ३१६अ । उपरितनः । आव० २६२ । ठाणा० ५१६ ! उवरिचरे--उपरिचरः सत्यवादी वसू राजा । जीवा० १२१ । उवयार - उपचारः । आव० ५६, २१३ । पूजा। उवरिभासा-उपरिभाषा-उत्तरकालं तदेव किलाधिकं यद् राज. ३६ । प्रज्ञा० ८६। जीवा० २२७. २५५। जं. भाषते सा । आव० ७९२ । प्र. ७७। औप० ५। आराधनाप्रकारः । दश. २५०। उवरिमागारो-उपरिमाकार:-उपरितन आकारः -- उत्तरलोकव्यवहारः। औप. १३ । देवतापूजा। प्रश्न. ५१। नादिरूपः । जीवा० २१६ । पूजा। उपकारः। प्रश्न. ११७ । दश० ७९ । पूजा। भग० उवरियलेणं-उपरितलम् । भग. १९५ । ५४० । व्यवहारः । ठाणा० ४०९ । व्यवहारः, पूजा वा। | उवरिलए-उपरितन, उपरिभवम् । दश० २११ । भग० ९२५। यतो मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते उवरिल्ले-उपरितनम् । अनु० १७७ । चोपचारः प्रवर्तते। विशे० १६६ । णसे-उपरितनमध्यमाधस्तनानां मानसानां उवयारियलेणं-गृहस्य पीठबन्धकल्पम् । भग. १४६ । सद्भावात् तदन्यव्यवच्छेदायोपरितने, माणसे -गंगादिप्ररू. उघयारिया-उपकरोति-उपष्टभ्नाति प्रासादावतंसकानित्यूप- पणत: प्रागुक्तस्वरूपे सरसि सर:प्रमाणायकयक्ते इत्यर्थः । कारिका-राजधानीप्रभुसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका । जं. भग० ६७४ । प्र० ३२१ । | उवरिल्ले माणसुत्तरे-उपरितनमानमोत्तरे। भग० ६७४ । उवयालि-अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य तृतीयमध्य- उवरुह-उपरौद्रः--नरके षष्ठः परमाधार्मिकः । आव.६५० । यनम् । अनुत्त. १७२ । यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्रः, उवयाली-अन्तकृशानां चतुर्थवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् ।। नरके षष्ठः परमाधार्मिकः । सम० २८ । उपरुद्रः-षष्ठः अन्त. १४ । परमाधार्मिकः । सूत्र. १२८ । उवयिगा-उद्देहिया । नि० चू० प्र० ५३आ। उवरुवरि-उपर्युपरि-निरन्तरम् । प्रश्न० ५१ । उपयिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा. ३२ । उवरेगं-उपरेक-एकान्तं, निर्व्यापारता वा । उत्त. १९३ । उवयोगपदं-प्रज्ञापनायामेकोन त्रिंशत्तमं पदम् । भग० ७१३ । उवरोह-उपरोधः-निषेधः । दश. १०८ । सङ्घनादिउवरए-उपरतः-सङ्कुचितगात्रः । आचा. २०४ । लक्षणः । आव० ५९३ । उपरोधः-उपघातः । विशे० ७४८ । उपरतः-कालगतः । व्य. द्वि. ३४आ । उवलंबयरज्जू - विमानानामुपरितोऽधस्ताद्यावद रज्जः । उवरति-उपरतिः-विरतिः । ठाणा०३ । उवरतो-उपरतः-रावः । उत्त. २१८ । उवल-उपल:-गण्डशेलादिः । उत्त. ६८९ । टङ्कायपकरणउवरय-उदल को-वियोजकः । सम. ४७ । उपरताः । परिकर्मणा योग्यः पाषाणः । जीवा०२३ । प्रज्ञा० २७ । पृथिवीआचा. ३५० । भेदः । आचा. २९ । दग्धपाषाणः । भग० २९३ । छिन्नउवराग-उपराग:-ग्रहणम् । भग० १४७ । उपरजन ग्रहण- पासाणा । नि० चू० द्वि० ८०अ । छिन्नपाषाणा: । बृ० न० मित्यर्थः । प्रश्न. ३९। १६२आ । उवराते- उपरागः - राहुविमानतेजमोपरञ्जनम् । ठाणा. उवलद्धिमंति-उपलब्धिमन्ति-द्रष्ट्रणि । दश. १२९ । उवलद्धी-उपलब्धिः , उपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तम् । आव० उवरिं- उपरि - कुज्यस्थाने । ओघ० १७५ । नीव्रादौ ।। २८० । ओघ. १६२ । अग्रे। ठाणा० २२५ । उवलभसि-उपलम्भयसि, दर्शयसि । भग० ६८३ । उवरिपणं-जत्थ गामे संखडी तत्थेव गंतुकामा जे वा उवलमेजा-उपलभेत-प्राप्नुयात । जीवा० १२३ । (२१०) 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवलिंपिज अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उवसंत ] उवलिंपिज-उपलिम्पनम् । आचा. १३५ । उववायं-उपपात--जन्म । आचा. १६३ । भवनपतिस्व. उवलित्ता-जातिजुंगितामेओ । नि० चू० द्वि० ४३आ । स्थान प्राप्त्याभिमुख्यम् । भग० १४३ । उत्पातेन निवृत्त उवलेदा-संतुष्ठा । उत्त० १९२ । । औत्पातिकम् । आव० ७३१। उप-समीपे पतन-स्थान उवलेवण-उपलेपनं छगणादिना । अनु० २६ । छगल- उपपातः दृग्वचनविषयदेशावस्थानं । उत्त. ४४ । उपमट्टियाए लिवणं । नि० चू० प्र. २३१अ । पात:-सेवा । भग. १६८ । उवलेवणकओवयारो-कृतोपलेपनोपचारः । आव० ४१६। उववायगई--उपपाताय-उत्पादाय गमनं सा उपपातगतिः । उवलियंती-उपलीयन्ते-आश्रयन्ति । व्य.द्वि.२७८आ।। भग. ३८१ । उल्लिसामि-उपालयिष्ये-वत्स्यामि । आचा० ४०। । उववायगती-उपपात एव गतिः उपपातगतिः । गतिउववजनि-उत्पद्यते । जीवा० ११० । प्रपातस्य चतुर्थो भेदः । प्रज्ञा० ३२६ । । उववजिऊण-उपयुज्य-उपयोगं दत्त्वा । ओघ० ११६ । उववायसभा-सिद्धायतनस्योत्तरपूर्वस्यां सभा उपपातसभा। जीवा० २३६ । उववज्झा-उपवाद्या:-राजादिवालभाः। औपवाद्याः-राजादि. वल्लभानां कर्मकरा इति । दश. २४८ । उववास-उपवासः, अभक्तार्थकरणम् । ठाणा. १२६ । उववण्णो -उपपन्नः । जीवा० ९७ । उववह-उपबृंहणं-समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्उववत्तारो-वचनव्यत्ययादुपपत्ता भवति इति ।ठाणा ० ४२०॥ वृद्धिकरणम् । दश० १०२ । उपबृंहणमुपबृंहा-दर्शनादिउववन्नो-उपपन्नः-आश्रितः । सूर्य० २८१ । गुणान्वितानां सुलब्धजन्मानो यूयं युक्तं च भवादशामि दमियादिवचोभिस्तत्तद्गुणपरिवर्द्धन सा । उत्त० ५६७ । उववाइप-उपपात:-प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंकान्ति:, उप समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम् । प्रज्ञा पाते भवः औपपातिकः । आचा० १६ । उपपादुकःभवान्तरसङ्क्रान्तिभाक् । आचा० २० । उववहइ-उपबृंहते-समर्थयति । दश० ४४ । उववाइय-उपपातेन निवृत्तः औपपातिक:-भवाद्भवान्तर उववेओ- उपपेत इति लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतः । ठाणा० गामीति । सूत्र. २० । उपयाच्यते-मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितं-ईप्सितं वस्तु । ज्ञाता० ८४ । उववेय-उपपेतः-युक्तः । जीवा. २७४ । भग. ११९ । उववाइया--उपपाताजाताः उपपातजाः अथवा उपपाते उप अप इत इति शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादुभवाः औपपातिका:-देवाः नारकाच । दश० १४१ ।। पपेतः-युक्तः । ज्ञाता. ११ । । उववाए - उपपातः -- उपपाताभिमुख्येनापान्तरालगतिवृत्त्ये उवसंकमित्ता-उपसङ्क्रम्य । सूर्य० ११ । त्यर्थः । भग० ९६३ । देवजन्म । ठाणा०४१९ । नादकाप उवसंकमित्तुं-उपसङ्कम्य, आसन्नीभूय । आचा० ३३१। पातार्थः, द्वादशशते षष्ठोद्देशकः । भग० ५९६ । उपपातः उपसङ्कम्य-उपेत्य । आचा. २७१ । प्रादुर्भावः । प्रज्ञा० ३२८ । उवसंखा-उपसंख्या-सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानम् । सूत्र. उववाएणं-उपपतनमुपपातः, बादरपृथ्वीकायिकानां पर्या २१४ । प्तानां यदनन्तरमुक्तं स्थानं तत्पात्याभिमुख्यमिति भावः | उवसंत-उपशान्त-अनाकुलम् । ओघ. १७६ । यत् शेषं तेनोपपातेन, उपपातमङ्गीकृत्य । प्रज्ञा० ७३ । सत्तायामनुदयागतं वर्तते तद् । विष्कम्भितोदयमुपनीतमिथ्याउववात-उपपातं-नारकदेवानां जन्म । ठाणा. ४६६ ।। स्वभावं च । विशे० २८६ । किञ्चिन्मिथ्यात्वरूपतामपनीय उपपातः-गमनमात्रम् । ठाणा० ३७६ । सम्यक्त्वरूपतया परिणतं किञ्चिन्मिथ्यात्वरूपमेव । बृ. उववातसभा-उपपातसभा-यस्यामुत्पद्यते सा । ठाणा प्र० २१आ । रागद्वेषपावकोपशमा उपशान्तः । आचाल ३५२ । १५० । रूपालोकानाद्यौत्सुक्यत्यागतः । अनु० १४० । उववातो-उवसंपजणं । नि. चू० प्र. २४अ । अन्तर्वृत्त्या उपशान्तः । भग० ४९० । विष्कम्भितो. 2010_05 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवसंतकसातो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उधसमिए ] - दयमपनीतमिथ्यास्वभावं च । विष्कम्भितोदयमित्यर्थः । उवसंहार-उपसंहारः--उपनयः । दश० ६२ । बृ० तृ ठाणा०४८ । उपशान्त-न सर्वथाऽभावमापनं. निकाचि. १३६आ । ताद्यवस्थोद्रेकरहितं वा । प्रज्ञा० ४०३ । औप० ३५। उवसग्ग-उपसूज्यते-धातुसमीपे नियुज्यते इति उपसर्गः । जं. प्र. १४६ । जं. प्र.३८९ । जम्बूद्वीपैरवते तीर्थ- प्रश्न. ११७ । बाधाविशेषाः । ठाणा० २८० । राजादिकरनाम । सम० १५३ । पवजापरिणतं । नि० चू० द्वि. जनितः । ओघ० १९. । उप-सामीप्येन सर्जनम् , २८अ । उपशान्तः-उपरतः । दश० २०६ । सूत्र. ४१७ । उपसज्यतेऽनेनेति वा करणसाधनः, उपसृज्यतेऽसाविति अपगतसन्देहः संवृत्त इति । सूत्र. ४०९ । अनुदयावस्थः । वा कर्मसाधनः । आव० ४०४ । प्रव्रज्याग्रहणे निवारणम् । प्रज्ञा. २९१। पिण्ड, १३९ । देवादिकृतोपद्रवाः । ठाणा० ५२३ । उवसंतकसातो-उपशान्तकषाय: | उत्त० २५७ । राजस्वजनादिकृतो देवमनुष्यतिर्यञ्चकृतो वा । पिण्ड० १७० । उवसंतजीवी - अन्तवृत्त्यपेक्षया उपशान्तजीवी । प्रश्न उप-सामीप्येन सृज्यते तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्मवशगेनात्मना १०६ । क्रियत इति उपसर्गः । उन० १०९ । उपसर्गः-उपउवसंतमोह-उपशान्तमोहः-अनुत्कटवेदमोहनीयः । भग० सर्जनं, धर्मभ्रंशनम् । दिध्यादयः । भग० १.१ । २२३ । श्रेणिपरिसमाप्तावन्तमुहर्त यावदुपशांतवीतरागः ।। उवसग्गपरिण्णा - उपसर्गपरिज्ञा, सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे भूतग्रामस्यैकादशं गुणस्थानम् । आव० ६५० । । तृतीयमध्ययनम् । आव० ६५१ । उत्त० ६१४ । उवसंतमोहनिजो-उपशान्तमोहनीयः- उपशान्त-अनु- उखसमपरिया-सत्रकता ततीयमध्ययनम । सम० ३१॥ दयं प्राप्तं मोहनीय दर्शनमोहनीयं यस्यासौ। उत्त०३०६ । उवसग्गसहो-उपसर्गसहः । आव. ६४८ । उवसंपजहण- उवसंपदन उपसम्पद् - अन्यरूपप्रतिपत्तिः, उवसत्तो-उपसक्तः-गाढमासक्तः । उत्त० ६३२ । सा च हानं च स्वरूपपरित्याग उपसम्पद्धानम् । उत्त० ४७०।। उवसमंति- उपशाम्यन्ति - संवर्तकवायुविकुणान्निवत्तन्ते, उवसंपजइ-उपसम्पद्यते । आव. ८२५ । संवर्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भावः । राज. २३ । उवसंपजणा-उपसम्पदः । दश० १०५ । उवसम-उपशममिति औपशमिकम् । विपाकोदय विष्कम्भणउवसंपजमाणगति-उपसंपद्यमानगतिः-यदन्यमुपसम्पद्य- लक्षणः । दश० ४३ । उपशमः-विपाको दयविष्कम्भणलक्षणः । आश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनम् । विहायोगतेस्तृतीयो भेदः । नंदी ७७ । क्रोधायदयाभावे भवति । आचा० १५० । प्रज्ञा० ३२७ । शान्तिरूपः । दश० २३४ । पाबदशदिवसनाम । जं. प्र. उपसंपजसेणियपरिकम्मे-पञ्चमं परिकर्म । सम० १२८।। ४९० । सूर्य. १५७ । क्षायोपशमिकः । सूत्र. ६। विंशतिउवसंपजित्ता-उपसम्पद्य-सामीप्येनाङ्गीकृत्य । दश० १५० । । तमो मुहर्तनाम । ॐ० प्र. ४९१ । मध्यस्थपरिणामः । उवसंपन्नं-उपसम्पन्न-नियमायोत्थितम् । सूत्र. ४१० । आव० ८५१ । उदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकत: उवसंपया-उपसंपत्-सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्प्रव्रजनम् ।। प्रदेशतश्चाननुभवनम् । सर्वथैव विकम्भितोदयत्वमित्यर्थः । दश. २७३ । सामाचार्या दशमो भेदः । उपसम्पत्-इतो भग० ५९ । खमा । दश. चू० १२४ । उदयनिरोधोदयभवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः । ठाणा ४९९ । उपसम्पत् । आव । प्राप्ताफलीकरणम् । दश० २३४ । २५९ । सामाचार्या दशमो भेदः । उपसम्पत-ज्ञानादि. । उवसमणा-उपशमना-उदयोदीरणानिधत्तनिका चनाकरणानिमित्तमाचार्यान्तराश्रयणम् । भग० ९२० । उपसंपनिरूप. नामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनम् । ठाणा. २२१ । संपत्-ज्ञानाद्यर्थ भवदीयोऽहमित्य भ्युपगमः । ठाणा० १४०। उवसमविवेयसंवरं - उपशमविवेकसंवरम् , चिलातस्योपत्वदीयोऽहमित्येवं श्रुताद्यर्थमन्यदीयसत्ताभ्युपगमः । अनु० । देशः । आव० ३७१ । १०३ । उवसंपदनं उपसम्पत-अन्यरूपप्रतिपत्तिः । उत्त. उवसमिए-उपशमः-उदीर्णस्य कर्मगःक्षयोऽनुदीर्णस्य विष्क. मिमतोदयत्वं स एवौपशमिकः-क्रियामात्रं. उपशमेन वा (२१२) 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवसामिों अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उवहि ] - -- निवृतः औपशमिकः-सम्यग्दर्शनादि । भग० ६४९ । औप- । वरणम् । सूत्र. २५१ । अनशनादिकं तपः । सूत्र० शमिकः- उपशमनमुपशमः-कर्मणोऽनुदयाक्षीणावस्था भस्म- ५८ । आगमोपचाररूपमाचाम्लादि । उत्त० १२८ । पटलाबच्छन्नाग्निवत् स एव, तेन वा निर्वृतः । अनु. गुणोपष्टम्भकारि । प्रश्न. १५७ । उच्छीर्षकम् । बृ. द्वि० ११४ । २२० । उपधानं-करणम् । व्य. प्र०५०आ। स्थगनम् । व्य. उपसामिअं - उपशामित - भस्मछन्नाग्निकल्पतां प्रापितम् । द्वि० ५आ। प्रायश्चित्तम् । व्य० द्वि०१९५अ । विहितआव० ७९ । शास्त्रोपचारः । उत्त० ६५६ । तपः । ठाणा० ४४५ । उवसामेमाण-क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठित समय प्रसिद्धविधिनोपशम. उपधानं-तपः । सम० ५७ । ठाणा० ६५, १९५ । उपयन्त इति । ठाणा, ३५३ धीयते-उपष्टभ्यते ध्रुतमनेनेति उपधानं-श्रतविषयस्तपउपउवसाहिजउत्ति-पच्यताम् । नि० चू० प्र० ३४९आ । चारः । ठाणा० १८१ । विधानम् । सम. १२७ । उवसित-उपाश्रितः-अङ्गीकृतः । वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्या- , उपदधातीत्युपधानं--उपकरोतीत्यर्थः । ओघ० ११३। अङ्गा सन्नतरः । द्वेषः । शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा । भग०३८५। नङ्गाध्ययनादौ यथायोगमा चाम्लादितपोविशेषः । उत्त. ३४७ । उवस्सए-उपाश्रयः । प्रश्न. १२७ ।। उवहाणगं--पूयादिपुन्नं सिरोवहाणं । नि० चू० द्वि. उवस्सओ-उपाश्रयः-वसतिः । प्रश्न १२० । ६१अ । उपधानम् । ठाणा. २३४ । उपधानक-अप्रति उवस्सग-उपाश्रयः-वसतिः । ओघ० १७३ । लेखितदूष्यपञ्चके द्वितीयो भेदः । आव० ६५२ । उवस्सगा-उपाश्रयाः । वृ० द्वि० १८३अ । उवहाणपडिमा-उपधानं-तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा, द्वाउवस्सते-उपाश्रयः -निलयः । प्रश्न. १२८ । दश भिक्षुपतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवंरूपा । ठाणा. उवस्सय - उपाश्रयः .. वसतिः । ओघ० ६५, १७३ ।। ६५ । सम० ९६ । दश० २१८ । जं० प्र० १२१ । उपाश्रयः-गृहपतिगृहा- उवहाणवीरिए-उपधानं-तपस्तत्र वीर्य यस्य स उपधान. दिकम् । ठाणा. ३१५ । वसतेत्तिपरिक्षिप्तः, परेषामना- वीर्यः--तपस्यनिगृहितबलवीर्यः । सूत्र. ६५ । लोकवत इत्यर्थः । ज्ञाता. २०५ । उपाश्रयाः-उपा- उवहाणसुयं- उपधानश्रुतं - आचाराङ्गस्याष्टममध्ययनम् । श्रीयन्ते-भज्यन्ते शीतादित्राणार्थ ये ते उपाश्रयाः-वस- उत्त० ६१६ । सम० ४४ । उपधानश्रुतं, आचारप्रकल्पे तयः । ठाणा ० १५७ । पडिस्सयो । सव्वगं वा आसणं । प्रथमश्रतस्कन्धस्याष्टममध्ययनम् । आव० ६६० । प्रश्न. दश० चू० १११। १४५ । उवस्सयसंकिलेसे--द्वितीयः संकेशः। उपाश्रयो-वसतिस्तद्-उवहारं-उपहारः । आव. १९० । बलिः । आव. ६९८ । विषयः मक्केशः--असमाधिः उपाश्रयसक्लेशः । ठाणा0 उवहारा-बलिमादिया । नि० चू० प्र० २६९अ । उवहारियं-अवधारित-निर्णीतम् । आव. ६३५ । उवस्सित-उपाश्रित:-द्वेषः । शिष्यकुलाद्यपेक्षा । ठाणा0 उवहि-उपदधातीति उपधिः -उप-सामीप्येन संयम धार ४४१ । द्वेषः, शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा । ठाणा०३१९ । यति पोषयति चेत्यर्थः । स च पात्रादिरूपः । ओघ. १२॥ उवहडे -- उपहृतं - भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः । उपकरणम् । उत्त० ५८८ । वर्षाकल्पादिः । उत्त. ठाणा. १४८ । ३५८ । उपकरणमाभरणादिद्रव्यतो, भावतस्तु छद्मादि उवहतो-अविसुद्धो । नि० चू० द्वि० ११६अ । येनात्मा नरक उपधीयते । उत्त० ४६३ । उपधिः-संस्ताउवहय-उपहतिः । उत्त. १४५ । सदोसं । नि० चू० तृ. रकादिः । ओघ० ८७ । रजोहरणादिः । ठाणा० ३१७ । ८१आ । उपधीयते-सङ्गृह्यत इति उपधिः । आचा० १८० । आगउवहयपरिणामो--उपहतपरिणामः । आव० ५१३ । । मोक्तं वस्त्रादिः । दश. १९९ । पात्रनियोगादिः । व्य. प्र. उवहरह-उपहरति-विनाशयति । ज्ञाता. १९२ । । २३७ अ । उपधि:-वस्त्रादिः । प्रश्न १२४ । उपउवहाणं-उपधानं-तपः । सूत्र. ६५, ६९, ७५ । तप-। धीयते-ढौक्यते दर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावपधिः-माया. अष्ट 2010_05 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उवहिअसुद्धं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उवागच्छति] प्रकारं वा कर्म । सूत्र. ६८ । उपकरणम् । आव. ५६८ ।। आव० ४१४ । प्रज्ञा० २९१ । प्रश्न. ३९। उपदधातीति उपधिः । ओघउवागच्छति-पविसति । नि० चू० प्र० २३० :अ। २०७ । माया । प्रश्न. २८ । औधिकः । प्रश्न. १५६ । उवागच्छिजा-उपागच्छेयु:-अतिथयो भवेयुः।आचा०४०३॥ माया । सूत्र. १०३ । उपदधातीति उपधिः-उप-सामी- उवागमण-उपागमनं-स्थानम् । आचा० ३७५ । प्येन संयम धारयति पोषयति चेति पात्रादिरूपः । ओघ० १२।। उवात-अवपातः। सेवा। ठाणा० १२९,५१६ । ज्ञाता०४। आव० ६६१ । उपधीयते येनासावपधिः- वञ्चनीयसमीप- | उवातिणा-नयति । नि० चू.द्वि. २२ आ । गमनहेतुर्भावः । भग० ५७२ । उपधिः-उपकरणम् । पिण्ड० | उवातियं । नि० चू० द्वि. १४४ अ । १२ । कषायः । दश० ७६ । उवकरणं । नि० चू०प्र० ६४ आ। उवातिया-उपयाचितम् । नि० चू० प्र० ३५१ आ। उवहिअसुद्ध-उपधिना-मायया अशुद्धं-सावा उपध्यशुद्धं, उवाते-उपायः-उपेयं प्रति पुरुषव्यापारादिका साधनसामग्री अधर्मद्वारस्यैकोनत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न. २६ । स यत्र द्रव्यादावुपेये अस्तीत्यभिधीयते यथतेषु द्रव्यादिउवहिए-उपधिक:-मायित्वेन प्रच्छन्नचारी । ज्ञाता. ८१।। विशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायः, उपादेयता वाऽस्य यत्राभिउपहित:-प्रक्षिप्तः-प्राप्तः। भग. १००। उपहितानि-गुरो- धीयते तदाहरणमुपायः । आहरणस्य द्वितीयो भेदः । ठाणा. राहाराद्यर्थ ढौकितानि । विशे० ४४० ।। २५३ । उवहिओ-अधिकज्ञानाद्यर्थकः सन् गुरुषु बहुमानपरः। व्य० उवातो-आणानिद्देसो । दश० चू० १३९ । प्र. २३६अ। उवादानं-उपादानं-आयः, हेतुः । विशे० ५४३ । उपहिय-उपहितः-क्षिप्तः । विशे० ९४३ । औपधिकः- उवादिणावेत्ता-उपादाय-गृहीत्वा, आक्रम्य । सूत्र० २३४ । मायाचारी । प्रश्न ३० । उवादीयमाणा-उपादीयन्ते-कर्मणा बध्यन्ते। आचा० ७८ । उवहिसंकिलेसे-प्रथमसड्क्लेशः । उपधीयते - उपष्टभ्यते | उवाय-खड्डा । दश. चू० ७४ । उपायः - उदाहरणस्य संयमः संयमशरीरं वा येन स उपधिः-वस्त्रादिस्तद्विषयः सङ्. द्वितीयो भेदः । ३५ । एकान्तमृदुभणनादिलक्षणः । दश० क्लेश:-असमाधिः । ठाणा० ४८९ । २४७ । उप-सामीप्येन (आयः) विवक्षितवस्तुनोऽविकललाभउवहिसंभोग-उपधेः संभोगः उपधिसंभोग: । व्य. द्वि० हेतुत्वाद्वस्तुनो लाभ एवोपायः-अभिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापा११९ आ। रविशेषः । दश० ४० । उपार्जनहेतुः । उत्त० ६३१ । उवही-उवधिः-परवंचनाभिप्रायः। बृ० तृ. ४६ आ । नि० । उवायकारी-उपायकारी-सूत्रोपदेशप्रवर्तकः । सत्र. २३४ । चू. प्र. २८९ आ । उवायकिरिया-उपायक्रिया-यद्रव्यं येनोपायेन क्रियते सा । उवाइ-उलावकप्रधाना विद्याः । विशे० ९८२ । सूत्र. ३०४ । उवाइकम्म-उपातिक्रम्य-सम्यक परिहृत्य । आचा०३५६। उवायणं-अवपातयतो-भ्रंशतोऽकुर्वतः । व्य. प्र. २९अ । उवाइणावित्तए - उपानाययितुं, संप्रापयितुम् । बृ० तृ. उवायवं-अवपातवान्-वन्दनशीलः, निकटवर्ती वा । दश. ११४ आ । उपादापयितुं ग्राहयितुमित्यर्थः । ज्ञाता० १७७ ।। उवाइणावित्ता-उपादापय्य-प्रापय्य । भग० २९२ । उवारियालेणे- चमरचञ्चायलीचञ्चाभिधानराजधान्योर्मध्यउवाइणित्ता-उपनीय-अतिवाह्य । आचा, ३६५ । भागे तद्भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत्पापीठरूपे अवतारिकल. उवाइति-उपयाचते । आव. ४०४ । यने । सम० ३१ ।। उवाईय--उपादितं-उपभुक्तम् । आचा० १०८ । उवालंभ-उपालम्भनं उपालम्भो-भयन्तरेणानुशासनमेव स उवाईयलेसेण-उपादितं-उपभुक्तम् , तस्य शेषमुपभुक्तशेषम्।। यत्राभिधीयते सः । आहरणत देशे द्वितीयो भेदः। ठाणा. आचा० १०८ । २५३ । उपालम्भ:--इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भा । उवाए-उपायः-अप्रतिहतलाभकारणम् । ज्ञाता० ३४ । । ठाणा. १५५ । सपिपासशिक्षारूप उपालम्भः । वृ० प्र० उवाओ-अवपातः । गत्तः । आचा० ३३८ । उपाय: ।। १५०आ । सानुनयोपदेशप्रदानम् । व्य० प्र० ११७ अ । 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उबाल्लियइ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः उवेहा ] उपालम्भा उपालम्भ:-भंग्यैव विचित्रं भवनम् । दश. ४६।। मवलम्बमानः । आचा० ४३० । उत्प्रेक्षमाण:-अवगच्छन् । उवाल्लियइ-उपलीयते । आचा० ३६५ । आचा० २१२ पर्यालोचयन् । आचा. २२४ । उवासंतर-अवकाशान्तरं-आकाशविशेषः, अवकाशरूपान्त उहा-उपेक्षा-उप-सामीप्येनेक्षा. अवधीरणायां वर्तते । रालं वा । भग. ७७ । ओघ. 1१४ । उवासंतराति । ठाणा ८६ । उवेहे-उपेक्षेत-औदासीन्येन पश्येत् । उत्त० ९१ । उवासंतरे-द्वयोरन्तरमवकाशान्तरम् । भग० २७२ । ठाणा. उवढेतो-अवपतन् । आव० २०३ । उबट्टइ-उद्वर्तयति-म्रक्षिततैलापनयनं करोति । जं. प्र. ४३२ । उवासग-उपासक:-श्रावकः । आव० ६४६ । नि० चू० द्वि० ३९४ । उब्वट्टण-उद्वर्तनं-तत्प्रथमतया वामपार्श्वन सुप्तस्य दक्षिणपा. २५अ । सम० ११९ । साधू चे.ए वा पोसह उवासतो उवासगो भवति । नि० च द्वि० १२१आ । उपासते-सेवन्ते वन वर्तनम् । आव ० ५७४ । अपवर्तना । विशे० १००६ । उद्वर्तना--नारकतियगेकेन्द्रियेभ्यो निर्गमः । आव० ५३३ । यतीनित्युपासका:-श्रावकाः । उत्त० ६१३। उद्वर्तन-लोठनम् । पिण्ड. १६४ । पकापनयनलक्षणम् । उवासगदसा-उपासकानां-श्रम गोपासकानां सम्बन्धिनोऽ. दश० ११७। नुष्ठानस्य प्रतिपदिका दशा:-दशाध्ययनरूपा उपासकदशाः । उव्वट्टण?-उद्वर्तनार्थ-उद्वर्तननिमित्तम् । दश. २०६ । उपा० १ । दश. ४७ । उवट्टयं-उद्वर्त्तक-चूर्णपिण्डम् । जं० प्र० ३९४ । उवासणा-उपासना-नापितकर्म । आव० १२९ । उम्वट्टा-उवृत्ताः । प्रज्ञा० ३९७ ।। उवासमाणा-रात्रि जागरणात्तदुपासनां विदधानाः । ठाणा. उबट्टिताणि-उद्वतितानि । आव० ९८ । उज्वटिया-उदवर्तिता-च्याविता । पिण्ड १२३ । उवासय-उपासकः । दश० ४७ । उव्वट्टेति-एकसिं उव्वर्टेति । नि० चू० प्र० ११६मा । उवाहणं-उपानत् । आव. ३०५, ३४१ । उव्वट्टो-उवृत्तः । आव. १७३ । उवाही-उपाधीयते -- व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः -- विशेषणं स । उवणवेसो-उल्बणवेषः । ओघ १४६ । उपाधिः । आचा० १५६ । उध्वणो-उत्कंठितः । व्य० द्वि २०३आ । उविच्च-उपेत्य स्त्रप्रवृत्त्या । उत्त. ३९१ । उव्वतंतो-उद्वर्तयन् । आव० ३१३ । ओघ. ८४ । उविद्धो-अवबद्धः । आव० ३५१ । उब्वत्तणं-उद्वर्तनम्--मार्गपरावर्त्तनं । बृ० तृ० १२९आ । उविय परिकर्मि तम् । ज्ञाता० २३ । उत्ताणयस्स पासल्लियकरणं । नि० चू० प्र० २११अ । उद्वउवीलगो-आलोययं गृहंतं जो महुरादिवयणपओगेहि तहा | तते-यतो ब्रजस्ततो याति । ओघ. ४७ । भणइ जहा सम्म आलोएति सो उवीलगो । नि० चू० तृ. । उ-वत्तणा-परावत्तणागुंचणपसारणा कायवा। नि. चू. १२८आ। प्र. ६अ। उवीलणं-निश्चयम् । नि चु० प्र. १४२अ । अवपीडना, उम्वत्तमाणे-अपवर्तयन् । आचा० ३४३ । बन्धनविशेषः । ज्ञाता. २३२ । उम्वत्ता-जं पाडिहारियणिहेज तं । नि० चू०प्र० २२५आ। उवीलेमाणे-अवपीलयन्-बाधयन् । विपा० ३९ । उव्वत्तिया-तेणेव अगणिनिक्खित्तं ओयत्तेऊण एगपासेन देति । उवेक्खे जा-उपेक्षेत-अवधीरयेत् । उत्त. ११२ । । | दश० चू० ८० । उवेक्खेयवो-उपेक्षितव्यः । आव० ६४१ । उन्वत्तेहि-उद्वर्त्तय । आव. ३५८ ।। उवेच-उपेल्य, आकुट्टिकया । बृ. द्वि. १३९आ। उध्वरं-अतिप्रशस्यम् । व्य. द्वि. ४२१आ । उवेहमाण- पेक्षमाणः-अकुर्व । । आचा० ५५६ । परी. उवरए । बृ० द्वि० ६२अ । षहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणो माध्यस्थ्य- उव्वरग-अपवरकम् । आव० ६२२ । नि०चू०प्र० १७४ । 2010_05 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उचरति उच्चरति उद्धरति । आत्र० ८५९ । उव्वर - अपवरकम् । आव० ५६१ । उव्वरिअ - उवरितं । यदधिकं जातम् । ओघ १८८ । अतिरिक्तम् | ओघ० १८६ । उव्वरिय - उद्धरितम् । पिण्ड ७९ । अशनादेः शेषभागः । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः 2010_05 उभ ] उच्चीहामि उच्चेष्यामि । नि चू० प्र० २०१अ । उव्वेयग- उद्वेगकः - इष्ट वियोगादिजन्यः उद्वेगः, उद्वेजको बा लोकोद्वेगकारी चौरादिर्वा । भग० १९८ । उब्वेयण - उद्वेजनं-चलनम् । भग० ४७१ । उव्वेयणओ - उद्वेजनकः - चित्तविप्लवकारी, उद्वेगकरः । प्रश्न० आव० ८५९ । ५ । उव्वेयणयं - उद्वेगकृत् । महाप्र० । उव्वरो - उद्वरः- धर्मोपतापः । बृ० द्वि० २९३अ । उव्वलणं--उवलनं, अभ्यङ्गनम् । बृ० द्वि० २१९अ । उव्वेला - उद्वेला । आव० ५१४ । उव्वलणेहि-उद्वेलनानि - देहो पलेपन विशेषाः । ज्ञाता० १८३ || उब्वेलियं - उद्वेलितं, उत्सारितम् । बृ० द्वि० २५५आ । उठवेलेंति - उद्वेलयन्ति । आव० १८९ । उव्वसिप - उद्वसितः - उत्थितः । ओघ० ४९ । उव्वसिय उवस्य ( उदुष्य ) | आव० ७१ । उव्वाओ - श्रान्तः । नि० चू० प्र० १६०अ । उव्वाण - उद्वानं किञ्चित्सस्निग्धं । ओघ० १७१ । उव्वाता - परिश्रान्तः । बृ० द्वि० ८०आ । व्य० द्वि० १५७अ । उव्वाया- उद्वाताः - अतीव परिश्रान्ताः । बृ०प्र० २४३आ । परिश्रान्ताः । व्य० द्वि० २०२आ । उब्वालना- उद्दालनां, निष्काशना । बृ० द्वि० २५०अ । उठवासिअ उवासितः - शोषितः । ओघ० १७४ | उव्वा सेइ - उपहसति । आव० ६६९ । उब्वेले उं- उद्वेलयितुं, उद्वेष्टयितुम् । बृ० द्वि० २५७अ । उब्वेह - उद्वेधः । । अनु० १७१ । जीवा ३२२ । उत्वम् । ३२५, ३४३, २२७ । राज० ९१ । जं० प्र० २८४ । सम० ९७ । ठाणा० ५२५ । बाहुल्यम् । जं० प्र० ३२७ । भुवि प्रवेशः । ठाणा ६९ । भूगतत्त्वम् । जं प्र० २८२ । भूमाववगाहः । ठाणा० ४७९ । भूमि प्रवेशः । जे० प्र० ७२ । उब्वेहलिया - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । उष्णः - स्पर्शस्याष्टमो भेदः । प्रज्ञा० ४७३ । उष्णरूपा - योनिभेदः । आचा० २४ । उविग्ग - उद्विग्नं- खिन्नम् । भग० १६६ | संजातभयः । विपा० ४३ । उद्विग्नाः- अथ पुनर्नानिन सार्द्ध युद्धयामहे इत्यपुनः करणाशयवन्तः । जं० प्र० २३९ । उद्वेगवान् । प्रश्न५२ । उग्विद्ध - उद्विद्धं - ऊर्ध्वम् । औप० ३ । उद्वि-उण्डम् | ज्ञाता० २ । ऊर्ध्वगतः । जं० प्र० १४४ । उच्चा। आव ० १८४ । उन्मिताः, उच्चैस्त्वेन वा । अनु० १५८ । उद्विद्ध:अत्यर्थमुच्चः । औप ९ । उच्चः । राज० ५। उब्विहंताई - उत्पतन्ति । ज्ञाता० २३२ । उव्विहइ - ऊर्ध्वं विजहाति, ऊर्ध्वं क्षिपति । भग० २३० । उद्विजहाति - ऊर्ध्वं क्षिपति । ज्ञाता० १६८ । उव्विहति - उप्पाडेति । नि० चू० प्र० २५६आ । उग्विहामि नयामि । ज्ञाता० १३९ । उग्विहिय - उद्वय - उत्प्रेर्य । भग० ६२८ । उच्चीलए - अपनीडकः - लज्जापनोदको यथा परः सुखमालोच यतीति । ठाणा ४८६ । उठवीलणं- अपकर्णनम् । उप० मा० गा० ७७। | उस अवश्यायः । विशे० १०२९ । उसकण- रंधियपुव्वस्स उसकणं करेज्ज। नि० चू०प्र० १४२ । उसकावेउ - उत्ष्वष्क्य, अधः प्राप्य । आव० ६२१ । उसको उत्कण्डुलः । नि० चू० तृ० ३६अ। उसगार - मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । उसडा- उत्सृता-उच्चाः । जं० प्र० ४ ४ । उसण- उष्णः - प्रतिकूलः । ठाणा० ४४४ । उसण्णं - लोअगपरिभोगं उसणं भण्णइ । नि० चू० द्वि० १५९अ । उसण्हसहिआओ - अतिशयेन प्राबल्येन च क्षक्षण का उश्लक्ष्णश्लक्ष्णका | अनु० १६३ । उसभ-ऋषभः, पञ्चदश कुलकरनाम । जं० प्र० १३२ । भरतचक्रिपिता । आव० १६२ | सम० १५२ | वृषभःभूषणविधिविशेषः । जीवा ० २६९ । ब्रह्मदत्तपत्न्याः शिलायाः पिता । उत्त० ३७९ । समग्रसंयमभारोद्वहनाद वृषभः । आदिजिनः । आव● ५०२ । सम्प्रदायगभ्यं द्रविडवंग (२१६) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उसभकण्ठो उसुयार ] जं० प्र० १०७ । पट्टः । सम० १४९ । परिवेष्टनपट्टः । ठाणा ३५७ । प्रज्ञा० ४७२ । उसभकण्डो-वृषभकण्ठः- वृषभकण्ठप्रमाणो रत्न विशेषः । जीवा० २३४ । चू० द्वि० ११८आ | निदाघादितापात्मकम् । उत्त० ८२ । उष्णः - धर्मः । ठाणा० २८७ । आहारपाकादिकारणं वयाद्यनुगतः । अनु० ११० । उष्णो मार्दवपाककृत् । ठाणा ० २६ । उष्ण:- अप्रासुक्रम्। दश० २०६ । उसभकूड - ऋषभकूटः, जम्बूद्वीपे उत्तरार्द्धभरते पर्वतः । उसिणपरितावे - उष्णपरितापः- उष्णं - उष्णस्पर्शवद् भूशिलादि तेन परितापः । उत्त० ८९ । जं० प्र० ८७ । आव० १५१ । उसभज्झया-वृषभध्वजाः- वृषभ चिहोपेता ध्वजाः । जीवा० उसिण भूप - अस्वाभाविकमौण्यं प्राप्तः । भग० १७५ । उसिणोदय - उष्णोदकं - स्वभावत एव क्वचिन्निर्झरादावुष्णपरिणामम् । बादराकायभेदः । प्रज्ञा० २८ । उसिणोद गं- उष्णोदकं क्वथितोदकम् । दश० २२८ । उद्वृत्तत्रिदण्डम् । पिण्ड० १७ । उसिणोद्गवियडेण - उष्णोदकविकटेन- उष्णोदकेनाप्रासुकेनाण्डोत्तेन पश्चाद्वा सचित्तीभूतेन । आचा० ३४२ | उलिय - उत्सृतानि - लम्बमानानि । राज० ६४ । उसीर- उशीरं वीरणीमूलम् । ज्ञाता० २३२ । जीवा० १९१ । राज० ३४ । मूलविशेषः । जीवा ० १३६ । ओशीरं- वीरणीमूलम् | प्रश्न० १६२ । उसीसवणं-सीसस्स सभीव उवसीसं, सीसस्स वा उक्खंभणं उसीसं द्ववणं णिक्खेवो । नि० चू० प्र० २४७अ । उसु - इषुः - बाणः । भग० ९३, २३० । शरपत्रफलादिसमुदायः । भग० २३० । उसुअ- इषुकः - इषुकाकारमाभरणं, तिलकं वा । पिण्ड०१२४ । उसुआर - इषुकारः - राजपुत्रविशेषः । उत्त० ३९४ । उसभसिरि- श्री ऋषभः । सम० १०६ । उसभसेण मुनिसुव्रत जिनस्य भिक्षादाता । सम० १५१ । ऋषभस्वामिनः प्रथम गणधरः । सम० १५२ । ० प्र० २५४अ । ऋषभसेनः - भरतपुत्रः । आव० १४९ । उसभा - ऋषभा - शाश्वत प्रथमप्रतिमानाम | जीवा० २२८ । उसुआरपुरं - इषुकारपुरं - नगरविशेषः । उत्त० ३७५ । उसवियं उवसामियं । नि० चू० प्र० २९४अ । उसुकारिज्जं - इषुकारीयं- उत्तराध्ययने चतुर्दशमध्ययनम् । उसह - ऋषभः, संयमभारोद्वहनादृषभ इव ऋषभः, वृषभो वा इति संस्कारः, तत्र वृषभ इव वृषभ इति वा, वृषेण उसुकाल - उक्खलं, उदूखलं । नि० चू० द्वि० ८३आ। भातीति वा वृषभः । जं० प्र० १३५ । उसुगारपव्वय-पर्वतविशेषः । ठाणा ८० । उलहकूडप्पभाई-ऋषभकूटप्रभाणि ऋषभकुटाकाराणि । उसुत्तियलयं जेण वा कट्ठाइ संचालेति तं सविसं उमुक्तियहयं । नि० चू० प्र० ११६आ । उसुद्धसरीरो-मलपंकियसरीरो उमुद्धसरीरो भन्नति । नि उत्त० ३९३ । जं० प्र० ८८ । उसह कूडे - ऋषभकूटः । जं० प्र० २५० । उसहछाया-वृषभच्छाया-छायायाः सप्तमो भेदः । प्रज्ञा० चू० द्वि० ६५अ | उमट्टिता कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिजंति एस । नि० चू० तृ० ६४अ । उसुयार - ३षुकारः- नगरविशेषः, ऋषभदत्तगाथापतिस्थानम् । विपा० ९५ । इषुकारपुरनृपतिः । उत्त० ३९५ । अल्पपरिचितसद्धान्तिक शब्दकोषः २१५ । उसभनाराय - ऋषभनाराचं यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् । प्रज्ञा० ४७२ । उसभदत्त नामविशेषः । भग० ६२०, ५३३, ५४९, ५५६, ५५७ । आचा० ४२९ | नवमशते त्रयत्रिंशत्तमोद्देशकेऽभिहितः । भग० ४७५ । ऋषभदत्तः - इषुकारनगरे गाथापतिः । त्रिपा० ९५ । जम्बूस्वामिनः पिता । नि०चू० द्वि० २९आ । उसभपुरं ऋषभपुरं द्वितीयनिवोत्पत्तिस्थानम् । विशे० ९३४ । धनावहराजधानी । विपा० ९४ । राजगृहस्या परनाम । आव० ३१५ । नगरविशेषः । उत्त० १०४ । राजगृहम् | ठाणा० ४१४ । जीव प्रदेश प्ररूपक निवोत्पत्तिस्थानम् । आव० ३१२ । ३२७ । उसहपुरं - ऋषभपुरं - नगरविशेषः । उत्त० १०५ । उसा हो । नि० चू० द्वि० ८३अ । उसिण-तावितं तं चैव ववगयजीवं, एक्कसिं धोरणं । नि० 2010_05 (२१७) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उसुयारपुर आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः उस्सिंचण ] उसुयारपुर-इषुकारपुर, कुरुजनपदे नगरं, इषुकारराजधानी। सैव श्लक्ष्णश्लक्षिणका उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्षिणका उत्लउत्त० ३९५ । क्ष्णश्लक्षिणका । भग० २७५ । उसुयारिजं-उत्तराध्ययने चतुर्दशमध्ययनम् । सम० ६४ । उस्सन्नं-प्रायशः । आव० ५६८ । अविरुद्धं । नि० चु० द्वि० उसू-इष:-शरः । सिद्धिगमने दृष्टान्तः । आव० ४४२ । ७०अ । तिलगो । नि० चू० द्वि० ९५अ ।। उस्सनकयाहारो-प्रायशोऽकृताहारः । आव० ५६८ । उसूयालं-उदूखलम् । आचा० ३९७ । उस्सप्पिअ-उत्सपिता वयुत्सर्पणेन । जं० प्र० १०२ । उसे-ऊषः-पांशुक्षारः । दश० १७० । उस्लप्पिणी-सागरोपमाणां दशकोटीकोट्य एव दुष्षमदुष्षमाउस्सओ-उच्छ्यः भावोन्नतत्वम् । अहिंसायाः पञ्चचत्वारिं- ! घरकक्रमेणैकोत्सप्पिणी । जीवा० ३४५ । उत्सर्पति-वर्धते शत्तमं नाम । प्रश्न० ९९ । आरकापेक्षया वर्धयति (वा) क्रमेणायुरादीन् भावानित्युत्सर्पिणी। उससक्का-उत्ध्वष्कते-तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्ब- जं० प्र० ८९ । उत्सप्पिणी-दशसागरोपमकोटाकोटिमाना । मात्रधारणतो वोत्सर्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या अनु. १.. । ठाणा० ८६ । उत्सर्पति-वर्द्धतेऽरकापेक्षया विशुद्धा ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा दधाना सती उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति । ठाणा० २७ । मनाक् विशुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति । प्रज्ञा० ३७२ । उस्सय-यस्मिंश्च सत्यूचं श्रयति जात्यादिना दर्पामातः पुरुष उससकण-उत्ध्वष्कणं-परतः करणम् । पिण्ड० ९१ । उस्सग्गनिवाइयाण-उत्सर्गपातिनामुत्सर्गेण संयममनुपाले. उस्सरति-उत्सर्पति । आव. ३०३ । यतां यासाम्। व्य. द्वि० ४२९अ । उस्सवित्ता-उड्डहुत्ताणि काऊण । दश० चू० ८० । उस्सग्गो-उत्सर्गः-उपयोगः । ओघ० १५५ । परिष्ठापनम् । उस्सविया- संस्थाप्योच्चावच्चैर्विश्रम्भजनकैरालाविश्रम्भे ओघ. १३८ । कायोत्सर्गः । आव० ७८२ । उवओगे, काउस्सग्गो । नि० चू० द्वि० १६४अ । पइण्णकहा । नि.उस्सा-अवश्यायः-त्रेहः । अप्कायभेदः । प्रज्ञा० २८ । चू० प्र० २४८अ । कारणनिरपेक्षं सामान्यस्वरूपम् । बृ. रजन्यां यस्त्रेह : पतति । आचा०४०। तृ. ९७आ। उस्साग-यन्निविशेषणं क्रियते । उप० मा० गा० ४०० । उस्सण्णं-लोअगपरिभोग उस्सण भण्णइ । नि० चू० द्वि० उ. -अवश्यायबिन्दुः । आव० ८४५ । १५९। उस्सणं एकान्तेनैव अलक्षणयुक्ता बोंदि सरीरमित्यर्थः। उस्लारिता-उत्सारिता-समीपमागता । आव० ८४१ । नि चू० द्वि० ८५आ । उत्सन्न-बाहुल्यतः । औप० ८६। उस्सासनाम-उच्छ्वासनाम-यदुदयवशादात्मन उच्छवास. उत्सन्नं-अनुपरतम् । आव० ५९० । निःश्वासलब्धिरुपजायते तत्। उच्छ्वासनिःश्वासयोग्यपुद्गल. उस्सण्णदोस-उत्सन्नदोषः-अनुपरत बाहल्येन प्रवर्तते इति। ग्रहणमोक्षविषया लब्धिरुपजायते तत् । प्रज्ञा० ४७३ । आव० ५९०। उस्सासविसा-उच्छ्वासे विषं येषां ते उच्छवासविषाः । उस्सण्णपए-उत्सन्नपदे-प्रभूतपदे । व्य० प्र० ९३अ ।। प्रज्ञा० ४६ । उस्सण्णा-अवसन्नाः-पङ्क इव निमग्नाः । प्रश्न. ६९ । उस्सासा-उच्छ्वासः-मुखादिना वायुग्रहणम् । भग. ४७० । उस्सण्णो-बहुतरगुणावराही । नि० चू० द्वि. ९०आ। उस्सासो-उच्छवासः । आव० ८४५ ।। उस्सहसहिआ-उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन लक्षण- उस्साहे-उत्साहः-श्रवणविषये मनस उत्कलिकाविशेषः । सूर्य लक्ष्णिका उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका । जं.प्र. ९४ ।। उस्सण्हसण्हिया - व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समु- उस्सिंघइ-उज्जिघ्रति, जिघ्रति । आव० ६७४ । दायाः-द्वयादिसमुदायास्तेषां समितयो-मीलनानि तासां समा- उस्सिंघणा-उद्माणम् । आव० ४२४ । गमः-परिणामवशादेकीभवनं समुदयसमितिसमागमस्तेन या उस्सिंचण-उर्ध्व सेचनं उत्सेचनं-कूपादे: कोशादिनोत्सेपरिणाममात्रेति गम्यते, सा एकाऽत्यन्तं लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा पणम् । आचा० ४२ । इतौ वातस्य प्राबल्येन पूरणम् । आचा. (२१८) 2010_05 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उस्सिचणाए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ऊरणय] उस्सेतिमामं-जहा पिढे पुढविकायभायणं आउक्कायस्स उस्सिचणाए-उत्सेचनेन-अरघट्टघट्टीनिवहादिभिरुदश्चनेन । __ भरेत्ता मीसए अद्दहिजति मुहं से कत्थेण उहाडिजति, ताहे उत्त० ५९९ । पिट्ठपयणयं रोट्टस्स भरेत्ता ताहे तीसे थालीए जलभरियाए उस्सिचमाणे--उत्सिञ्चन्-आक्षिपन् । आचा० ३४३ ।। उवरिं ठविज्जति ताहे अहोछिड्डेण तं पि ओसिज्जति हेट्ठाहुत्तं ना उस्सिंचिया-उत्सिच्य-अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दा- | ठविज्जति तत्थ जं आमं तं उस्सेतिमाम भण्णति । नि० नार्थ तीमनादीनि दद्यात् । दश० १७५ । चू० द्वि० १२५ । उस्सिउस्सिओ-उच्छ्रितोच्छ्रितः । आव० ७७९ । | उस्सेतिमे-उत्स्वेदेन निवृत्तं उत्स्वेदिमं-येन ब्रीह्यादिपिष्टं सुउस्सिओदए-उच्छ्रितोदकः- उद्धवृद्धिगतजलः । भग. रायथ उत्स्वेद्यते तत् । ठाणा. १४७ । २८१ । उस्सेहंगुल-उच्छ्याङ्गुलं-अङ्गुलस्य द्वितीयो भेदः।प्रज्ञा०२९९। उस्सिट्टा--उत्सृष्टा-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रमृता । प्रज्ञा०९९ । अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुपुद्गलानामित्यादिक्रमेणोच्छ्यो वृद्धिउस्सित्तं-उसिक्तं-अत्यर्थ जलाभिषेचनम् । प्रश्न. १२७ ।। नयनं तस्माज्जातं तत् । उत्सेधो-नारकादिशरीराणामुच्चस्त्वं उस्सिन्न-अस्विन्नम्-वहन्यदकयोगेनानापादितविकारान्तरम्। तत्स्वरूपनिर्णयार्थमगुलमुत्सेधाङ्गुलम् । अनु०१५६,१६० । दश० १८५ । उत्स्विन्नम्-मुण्डेरकादि । बृ० प्र० २६७ आ। उस्सेह-उत्सेधः-उच्चत्वम् । सम० ११४ । उत्सेधः-शिखउस्सियं-उच्छृत-प्रख्यातम् । सूत्र०४०८। उच्छ्रितं-उत्कटम् । रम् । जीवा० २०४, ३६० । सर्वाग्रम् । जीवा. २२५ । सूर्य० २६२ । उत्सृतां, उच्छ्रित्येवोच्छित्य-उत्तरोत्तरसंयमस्था- उच्छ्रयः-शिखरम् । राज. ६२ ।। नावाप्त्या तामुन्छितामिव कृत्वा वा। उत्त० ३४१ । उत्सृतः- उस्सेहपरिवुढी-उत्सेधपरिवृद्धिः - सर्वाग्रपरिवृद्धिः। जीवा० अपगतः । ज्ञाता. १०९ । ३२३ । उस्सियनिसन्नओ-उत्सृतनिषण्णः । आव० ७७२ । उस्सोढं-उत्सोय-असोढ्वा । व्य० प्र० १६४अ । उस्सियपडाग-उच्छितपताकम् । आव. ७०३ । उहरिय-पेढियमादिसु आरुभिङ ओआरेति, अथवा कायं उस्सियफलिह-उच्छ्रितं स्फटिकमिव स्फटिक-अन्तःकरणं | उच्च करेज्जा उक्वज्जियडंडायतं तद्वद् गृह्णाति, कायं उड़ यस्य सः । ज्ञाता० १०९ ।। कृत्वा गृह्णाति उण्णमिय इत्यर्थः । नि० चू• तृ. ५९ अ। उस्सीवेत्ता-उत्सीव्य । आव० ४२१ । उहसेइ-अपहसति । आव. २१९ । उस्सुक्क-उच्छुल्का-अविद्यमानशुल्कग्रहणम् । विपा० ६३ । उच्छुल्का-मुक्तशुल्का । भग० ५४४ । ज्ञाता० ४०। ऊखा-कुम्भी । प्रश्न० १७ । उस्सुगो-उत्सुकः । आव० ३०१ । ऊणं-ऊनम्-वर्णादिभिहींनम्। सूत्रदोषविशेषः। आव०३७४ । उस्सुत्त-मुत्तादवेतं । नि०चू द्वि० २३आ । ऊर्ध्व सूत्रादुत्सूत्रः, यद् व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्ण वन्दते, कृतिकर्मणि सूत्रानुक्तः । आव० ५७१ । आव० ७७८ । अष्टाविंशतितमो दोषः । आव० ५४४ । उस्मय-उत्सुकः । ज्ञाता. १६१ ।। ऊणगसयभागो-ऊनशतभागः - शतभागोऽपि न पूर्यत उस्सूरं-अकालं । नि.चू.तृ. १३६आ । ओध. ९८ ।। इत्यर्थः । आव० ५२२ । उस्सूरलंभो-उत्सूरलाभः । आव० ८४३ । ऊणोअरिआ-ऊनोदरस्य भाव ऊनोदरता । दश० २७ । उस्सूरीभूतं-उत्सूीभूतम् । आव. ८५२ । ऊणोयरिया-अवमस्य-ऊनस्योदरस्य करणमवमोदरिका। उस्सूलय-खातिका परबलपातार्थमुपरिच्छादितगर्ता वा। भग० ९२१ । उत्त० ३११ । ऊनं-अक्षरपदादिमिरेव हीनमूनम् । हेतुदृष्टान्ताभ्यामेव हीनउस्सेडम-पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकम् । आचा० ३४६ । मरहट्ठ- मूनम । अनु० २६१ । विसए उस्सइया दीवगा सीओदगे बुज्झंति, अहवा पिट्ठस्स | ऊयरिणिया । नि० चू० प्र० ६१ आ। उस्सेजमाणस हेवा जे पाणियं तं। निचू० तृ. ६०।। ऊरणय-ऊरणिका । आव० ६२३ । (२१९) 2010_05 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ऊरणिया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ऊसित्तो] ऊरणिया-ऊर्णिका । आव० ६२३ । द्वि० १६२ अ। जत्थ तं च उवसाहिज्जति जणो य अलंकिय ऊरणी-अविला । पिण्ड ७१ । विभूसितो उज्जाणादिम मित्तादिजणपरिवडो खज्जपेज्जादिणा ऊरु । आचा० ३८ । उवललति । नि० चू० तृ. १४ आ । उत्सवः-शकोत्सवादिः । ऊरुगं-ऊरुः । ओघ० १२५ । आव० १२९ । ऊरुघंटा-जङ्घाघण्टा । ज्ञाता० २३९ । ऊससंति-उच्छ्वसन्ति-बाह्यक्रियां कुर्वन्ति । प्रज्ञा ० २१९ । ऊरुयाल-ऊरुदारः-ऊर्योः-जङ्घयोर्दारो-दारणं ज्वालो वा ऊससिअं-उच्छ्वसितं-उत्-ऊर्च प्रबलं वा श्वसितम् । ज्वालनं यः सः । प्रश्न. ५७ । आव. ७७९ । ऊरुयावल-ऊरुकयोरावलनं ऊरुकावलः । प्रश्न. ५७ ।। ऊससिय-उच्छ्वसनमुच्छ्व सितम् । अनक्षरतभेदः। विशे० ऊर्ध्वलोकः-शुभलोकः । जं० प्र० २४९ । २७४ । उच्छ्वसिता-उद्भिन्नाः। उत्त० ४८१ । ऊर्ध्ववेदिका-यत्र जानुनोरुपरि हस्तौ कृत्वा प्रत्युपेक्षते । वेदि- ऊससियरोमकूवो-उच्छ्वसितरोमकूपः-उच्छ्वसिता इवो. कायाः प्रथमभेदः । ठाणा० ३६२ । चछवसिताः-उद्धिन्ना रोमकृपा-रोमरन्ध्राणि यस्यासौ। उत्त. ऊर्ध्वस्थितः । आचा० २९४ ।। । ४८१ । ऊवोपविष्टा । पिण्ड. १०५ । ऊसासनीसासे-उच्छ्वासेन युक्तो निःश्वास उच्छ्वासनिःऊल्लेऊण-आर्दीकर्तु, जलेन भेत्तुम् । विशे० ६२७ । श्वास:-प्राणः । जं. प्र. ९० । ऊस-उषो-यदशादूषरं क्षेत्रम् । प्रज्ञा० २७ । ऊषरादिक्षेत्रोद्- ऊसासपए-उच्छ्वासपदं, प्रज्ञापनायाः सप्तमं पदम् । भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः । पिण्ड० ८ । क्षारमृ भग० १९ । त्तिका । उत्त० ६८९ । ओष:-क्षारमृतिका । आचा.. ऊसासा-यावद्भिः समयैः पादो वृत्तस्य नीयते तावत्स३४२ । अवश्यायः । ओघ० १३० । मया उच्छ्वासाः । ठाणा० ३९३ । उच्छवासाः । प्रज्ञा ऊस-उत्सृतः, उच्चः । जीवा० २०० । २४६ । सङ्ख्येया आवलिका उच्छवासः । जीवा० ३४४ । ऊसढं-उच्छितं वर्णादिगुणोपेतं आचा. ३३९। उत्सृतं- । प्रज्ञापनायाः सप्तमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । सङ्ख्येया आवलिका ऋद्धिमत्कुलम् । दश. १८६ । वर्णगन्धरसस्पर्शोपपेतम् । उच्छ्वासः-अन्तर्मुखः पवनः । जं. प्र. ९० । आव० ७२६ । उच्छ्रितं वर्णगन्धाधुपेतम् । आचा० ३९० । ऊसासेहि-उच्छ्वासय-मारय । आव० ८१९ उत्कृष्टम् । व्य० द्वि० १८९ अ। उच्च । दश० चू० ऊसिअ-उच्छ्रितानि-लम्बमानानि । ज० प्र० ५० । प्रबल. ८७ । ऊसत्त-उत्सक्तः-उपरिलग्नः । जं० प्र० ७६ । ऊर्व सक्त तया सर्वासु दिक्षु प्रसूता उत्सृता । जं०प्र०५३ । जीवा० १७५ । उच्छ्रितं-उत्कटम् । जं. प्र. ५२२ । उत्सक्तः-उल्लोचतले उपरिसंबद्धः । प्रज्ञा० ६६ । जीवा. १६०, ऊसिए-उच्छ्रितं-लम्बमानम् । जीवा० ३६१ । २२७ । ऊसिओदयं-उन्नृत-ऊर्ध्व उदय-आयामो यत्र गमने तदु. ऊसभूमी-सिंधुविषये भूमिः । नि० चू० प्र० १६१ अ । ऊसरणं-उत्सरणं-आरोहणम् । विशे० ५३८ । च्छ्रितोदयं, ऊर्ध्वपताकमित्यर्थः । भग० १८७ । ऊसरदेस-ऊपरदेशः । आव० ८३९ । ऊसिता-उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता । जीवा० ऊसविए- उत्सl-ऊसिक्किऊणेत्यर्थः, ऊर्चीकृत्य वा ।। ३७९ । सूर्य० २६३ । भग० ९३ । ऊसितोदग-उच्छ्रितोदकः-उच्छ्रितमुदकं यस्मिन् सः । ऊसविय-उच्छ्रितानि । भग ५४१ । उच्छत-ऊर्चीकृतम्। जीवा० ३२१ । ज्ञाता० १३९ । ऊसित्तो-उपसिक्तः,अपत्योत्पादनमामर्थ्यविकलः, निर्बीजः। ऊसवेइ-उच्छृतं करोति । भग० १७५ । बु० तु. ९७आ। णो जस्म अवचं उत्पजति निब्बीओ सो। ऊसवो-जत्थ सामण्णभत्तविसेसो कजइ सो ऊसवो । नि० चू० नि० चू० द्वि० ३१अ । (२२०) 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिय अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः एकतश्वकवाल] ऊसिय-उच्छ्रितं-ऊर्वीकृतम् । भग० ५४१ । उच्छ्रितः- याति यावत्पङ्क्तौ चरमगृहं, ततो भिक्षामगृह्णन्नेवापर्याप्ते. उर्वीकृतः, उत्सृतो वा-अपगतः। राज० १२३ । उच्छ्रितं-ऊर्च ऽपि प्राञ्जलयैव गल्या प्रतिनिवर्तते सा ऋज्वी । बृ. प्र. नीतम् । ज्ञाता. १६ । उत्सता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु २५७ अ । प्रसृता । सम० १३९ । उच्छृतः- ऊर्वीकृतः । जीवा • २४६ ऋण-पापम् । प्रश्न. ७ । उत्सृतः । आव० ७७२। उत्सृतं-लम्बमानम्। जीवा० २०५। ऋणघ्ना-ऋणं-कम तना । आव ५९५ । उच्छ्रितम्--उन्नतम् । ऊर्वीकृतं, अपगतः, अपनीतः। भग० ऋतं-दुःखं, पीडितम् । ठाणा० १८८ । दुःखम् । आव० १३५ । नंदी ४६ । उनकृतं-ऊर्ध्वम् । भग. १८७। ५८४ । पीडितः । भग ५६ । दुःखपर्यायवाची । ऊसियपडाग-उच्छितपताकम् । आव० ३०.। उत्त० ६०९। ऊसियफलिह-उच्छितस्फटिकाः-उच्छितमुन्नतं स्फटिकमिव ऋतबद्धावग्रहः-अवग्रहस्य द्वितीयो भेदः । सम. २३ । स्फटिकं चित्त येषां ते । मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा ऋतुमासः - कर्ममासः, स त्रिंशदिवसप्रमाणः । बृ० प्र० इत्यर्थः । उन्छितः-अर्गलास्थानादपनीयोर्वीकृतो न तिर. १८६ आ । श्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः परिध:-अर्गला येषां ते ऋतसंवत्सरः-सावनसंवत्सरः । ठाणा० ३४५ । उच्छ्रितपरिघाः, उच्छ्रितः-गृहद्वारादपगतः परिघो येषां ते | ऋद्धा-भवनादिभिवृद्धिमुपगता। ज्ञाता. १। उच्छ्रितपरिघाः । भग. १३५ । उच्छित स्फाटिकमिव स्फा. ऋषभः-प्रथमतीर्थकरः । ज्ञाता० १२९ । टिक-अन्तःकरणं यस्य सः । राज. १२३ । ऋषभमण्डलप्रविभक्तिः-एकादशो भाट्यविधिः । जीवा. सिरं-जीवाश्रयस्थानमित्यर्थः । नि० चू.द्वि.६. आ। ऊसीसयं-उछीर्षकम् । आव० १२४ । ऋषभदत्तः-कोडालसगोत्रब्राह्मगविशेषः । आव. १७८ । ऊसूरं-वेलातिक्रमः । ओघ० १४२ । ऋषभस्वामी-प्रथमतीर्थकरः । व्य. द्वि. २ आ। ऊसूरओ-उत्सूरः । आव. १.३ । ऋषितः-नोपशम नीतः । व्य. द्वि. २२४ आ । ऊह-सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसाय हस्तकः-एवमेव ऋषिवादिकाः-गन्धर्वभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । । चैतत्स्यान । आचा० २३० । ऊहा-बुद्धिः । दश १२५ । आधमात्रमंज्ञा । विशे. २८१ । स्वतकेबुद्धिः । आव.२४ । स्ववितर्कात्मिका । उनकांती-आगच्छन्ती। बृ.द्वि. १६७ आ। १८१। तो-आगच्छन् । आव. ४२० । ऊहिय-अहितः-ज्ञातः । आव. १२१ । तओ-आगन्छन् । आव १९६। ऋ ए-वाक्यालंकारे । अनु० १७६। अलङ्कारे । भग० ०५ । ऋक्षा:-अच्छाः । जीवा०८। वाक्यालङ्कारे। भग० ८२ । आमन्त्रणार्थः, अलङ्काराऋजुप्रज्ञत्वं-मध्यमजिन यतीनां विशेषणम् । आव. ७ । थोऽवा । भग. ३७।। ऋजुवजडत्वं । आव० ७९ । एइंसु-ज्ञातवन्नोऽनुभूतवन्तः । भग• ७२६ । ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः-यो भवोपग्राहिकर्मजालं क्षपयित्वाऽम्पृ. एइणा-अनेन । बृ० द्वि० ११० अ । .. शद्गत्या सिद्धयतीति । आव० ४४१ । एई-इयती। आव० ५१३ । ऋजुसूत्रः - साम्प्रतार्थानामभिधानपरिज्ञानम् । तत्त्वा० एककाः-अध्ययनविशेषः । ठाणा० ३८७ । १-३५। । एकखर-अश्वगोहस्तिसिंहादयः। सम. १३५ । ऋज्वी-यस्यामेकां दिशमभिगृह्योपाश्रयाद् निर्गतः प्राजलेनैव एकतश्चक्रवालं-एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्गपधा ममश्रेणिव्यवस्थितगृहपत्तौ भिक्षां परिभ्रमन तावद् नम्। ज० प्र० ४१५ । 2010_05 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एकतोवक्र० आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पगंतदिट्टी] एकतोवऋद्विधातोवक्रएकतश्चक्रवालद्विधातश्चक्रवा- एकई-एकीकृत्य-योगपद्येन । ओघ० १११। . 'लचकार्द्धचक्रवालाभिनयात्मकः-चतुर्थी नाट्यविधिः। एकगमा-एकगमाः-तुल्याभिलापाः। ठाणा० ५८ । जीवा० २४६। जं. प्र. ४१५।। एकगमे-एकगमः-षड़भ्योऽप्यन्तेऽङ्क एव पाठः । अन्त०४। एकतोवक्र-एकतोवकं नाम नटानां एकस्यां दिशि धनुरा- एक्कडे-पर्वगविशेषः। प्रज्ञा० ३३ । कारश्रेण्या नर्तनम् । जं. प्र. ४१५। एकमहा-जेसिं एकओ णालाण मूहा ते एकतोमहा। नि. एकतोवेदिका-एकं जानु बाह्योरन्तरे कृत्वेति । ठाणा० | चू० प्र० १६१ अ । एकल्लओ-एकाकी। आव० १९३ । एकत्तवियर्क-एकत्ववितकम् । आव. ३२७ ।। एक्कवारिआ । ओघ० ९७ । एकत्ववितर्कमविचारं- शुक्लध्यान द्वितीयभेदः । आव० एकसंकलितबद्धा-एकशृंखलाबद्धाः । आव० ६३ । एकसरा-सहैव । आव० ३६७ । एकधारं-शस्त्रविशेषः । दश. २०१। एकसिं-एकशः । आव० ८१३ । एकभविक-तत्र एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी। एकसेल-एकशैल:-वक्षस्कारपर्वतः + जं० प्र० ३४७ । एकभविक:-योऽन्तर एव भवे इन्द्रतयोत्पस्यत इति । ठाणा० एक्काणिया-एकाकिनी। आव० ५६.। .. पकारसी-एकादशी तिथिः । ज्ञाता. १५३ । एकभावं-एकत्वम् । उत्त० ५८० । एक्काहिजा-व्यन्तरीविशेषा । नि० चू० प्र० ३०४ आ । एकमुखं । ओघ० ९९ । पगंगिओ-संघातिमासंघातिमो एगगिओ भाति । नि० चू० एकल्लओ-एकाकी। आव० ३०६ । द्वि० ७९ अ। एकल्लशाटक-एकवस्त्रकः। ओघ० ४३ । पगंगियं- एकांगिकं तजातदसिकं सदसिकाकम्बलीखण्डएकविहारप्रतिमा-पञ्चमी प्रतिमा। सम० ९६। निष्पादितम् । ओघ० २१४ । य एकेन फलकादिना कृतः । एकस्थीकृतं-न एकस्थमनेकस्थं अनेकस्थमेकस्थमिव कृत बृ० तृ. १६२ अ । एकाजिक-तजातदशिक न वा द्वयादि. मेकस्थीकृतम्। आचा० ६३। खण्डनिष्पन्नम् । बृ. द्वि० २३९ अ। एका-एका:-श्रेष्ठाः संज्ञाशब्दत्वान्न सर्वादित्वम् । जं० प्र० १३१। पगंत-एकान्त-विजनम् । ज्ञाता० ८८ । नियमः । उत्त० एकाए-एकः । व्य. द्वि.० ४.७ अ । २४१ । एक:-अद्वितीयः, कर्मणामन्तो यस्मिन्निति, मोक्षः । एका त-एक एवाहमित्यन्तो-निश्चयः । उत्त० ३०७ । उत्त० ३०७ । एकनिश्चयः । भग. २९० । एकान्तंएकान्तर:-अनन्तरसमयः । आव० १४ । अनुपघातक स्थानम् । दश० १५६ । निश्चयः । उत्त. एकान्तवित्-एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्र- ५८७ । इतरव्यासङ्गपरिहारात्मकम् । उत्त० ६२२ । मोक्षः । मेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीति । सूत्र. २६५। दश. १६५। विजनम् । भग० ३२३ । योजनमण्डलाएकायतनं - एक-अद्वितीयं आयतनं-ज्ञानादित्रयम् । दन्यत्र । जं० प्र० ३८८ । आचा० २०७॥ एगंतचरिया-एकान्तचर्या-द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वसम्बद्धता। एकावलिः-भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८। दश० १५। एकावली-विचित्रमणिककृता एकसरिका। ज० प्र० १०५। एगंतदिट्टी-एकान्तदृष्टि: - एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा विचित्रमणिका । ज्ञाता० ४३। कनकावल्यभिलापेनेत्यर्थः । तथा, सा चासौ दृष्टिः, अनन्याक्षिप्ता । उत्त० ४५७ । एकाऔप०३०। न्तदृष्टिः-एकान्तेन तत्त्वेषु-जीवादिषु पदार्थेषु दृष्टिर्यस्यासौ । एकाशीतिपदवास्तुन्यासः। ज० प्र० २०८ । सूत्र. २३४ । एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा एकिका-प्रश्रवणम् । आचा० ४०९ । दृष्टि:-बुद्धियस्मिन् एकान्त दृष्टिः । ज्ञाता०५१। एकान्ता-ग्रा. २२२ 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एगंतदिट्टीए अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः पगग्ग ] - ह्यमेवेदं मयेत्येवमेव निश्चया दृष्टियस्य सः। ज्ञाता० ८० । ज्ञाता० ३४ । सदृशः । ज्ञाता० ५७ । एकः-रागद्वेषरहितएकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टिः-सम्यग्दर्शनं यस्य तया ओजाः, यदिवाऽस्मिन् संसारचकवाले पर्यटन्नसुमान् . स एकान्तदृष्टिः-निष्प्रकम्पसम्यक्त्वः । सूत्र० १४१।। स्वकृतसुखदुःखफलभाक्त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया सदैकक पंगतदिट्टीए-एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा एव भवति । सूत्र. २६५। समानः। राज. ४९ । मोक्षः दृष्टि:-बुद्धियस्मिन्निग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तः | संयमो वा। सूत्र. २३५।। दृष्टिकम् । एकान्ता-ए कनिश्चया दृष्टिः-दृक् यस्य स एकान्त- एगइओ-एकदा कदाचिद् एकचरो वा। आचा० ३३० । दृष्टिकः । ज्ञाता० ५१।। एगइया-एककाः, एके केचनेत्यर्थः । भग ३२ । एगंतधारा-एकत्रान्ते-वस्तुभागेऽपहर्तव्यलक्षणे धारा-परो. एगइयाणं-एकेषां, न तु सर्वेषाम् । भग० १२९ । पतापप्रधानवृत्तिलक्षणा यस्य स एकधारः । ज्ञाता० ८०।। गईओ-एकः कश्चिदेकाकी वा। आचा. ३३० । एकान्तधारा-तीक्ष्णधारा। उत्त० ३२७ । एकान्ता-एकवि | पगउ-एकस्मिन् देशे। ज्ञाता । ९३ । भागाश्रया धारा यस्य सा एकान्तधारा । ज्ञाता० ५१ । । एगओ-एकतः । ज्ञाता० ७० । एकः स एव एककः, एको एगतपंडिए-एकान्तपण्डितः-साधुः। भग० ९१। वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः। एक वा कर्मसाहिएगंतबाले-एकान्तबाल:-मिथ्यादृष्टिः अविरतो वा। भग० त्यविगमतो मोक्षं गच्छति-तत्प्राप्तियोगानुष्ठानप्रवृतेर्यातीत्ये कगः । उत्त० १०८ । एगेतमंतं-एक इत्येवमन्तो-निश्चयः यत्रासावेकान्त एक | पोखर एगओखहा-एकस्यां दिश्यकशाकारा । ठाणा० ४०७ । यया इत्यर्थः अतस्तमना भूभागम् । भग० २९० । जीवः पुद्गलो वा नाड्या वामपाव देस्तां प्रविष्टस्तयैव पगंतमोणेण-एकान्तमौनेन-संयमेन करणभूतेन । सूत्र. २३९ । गत्वा पुनस्तद्वामपादावुत्पद्यते सा एकतःखा, एकस्यां पगंतरं-एकान्तरोऽनन्तरसमयः । विशे० २०९। एकान्तर दिशि वामादिपावलक्ष गायां खस्य-आकाशस्य लोकनाडी. एकेन चतुर्थलक्षणेन तपसाऽन्तर-व्यवधान यस्मिस्तत् ध्यतिरिक्तलक्षणस्य भावादिति । भग० ८६६ । उत्त० ७०६। पगओजण्णोवइयकिञ्चगए। भग० १९० । एग-एक:-असहायो रागद्वेषादिसहभावविरहितो गौतमादि एगओवंका-एकतः-एकस्यां दिशि वङ्का-वका एकतोवका । रित्यर्थः । उत्त० २४१ । तथाविधतीर्थकरनामकर्मो दयादनु भग० ८६६ । त्तरावाप्तविभूतिरद्वितीयः, तीर्थकरः । धातिकर्म साहित्यरहितः। एगओवत्ता-द्वीन्द्रियजीवविशेषाः। प्रज्ञा० ४१। उत्त० २४१ । एकत्र । ओघ० ३३ । असहायः । ठाणा० ३५। एगखम्भ-एकस्तम्भः-एकः स्तम्भो यस्मिन् सः प्रासादः। तर प्रदेशार्थतया असंख्यात प्रदेशोऽपि जीयो द्रव्यार्थतया एकः, दश. ४१। अथवा प्रतिक्षगं पूर्वस्वभावक्षयापरस्वरूपोत्पादयोगेनानन्त- एगखुर-प्रतिपदमेकः खुरो येषां ते एकखुराः-अश्वादयः। भेदोऽपि कालत्रयानुगामिचैतन्यमात्रापेक्षया एकः, अथवा जीवा० ३८ । प्रतिपदमेकः खुरः-शफो येषां ते एकखुराःप्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनानन्तत्वेऽप्यात्मनां संग्रहन अश्वादयः । प्रज्ञा० ४५ । एकः खुरः--चरणे येषामधोवीयाश्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वम् इति । सम० ५ । स्थिविशेगो येषां ते एक वुरा-ह्यादयः । उत. ६९९ । मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहित्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात्। एगगय-एगांगिक-तक्रम् । व्य० द्वि० ८१ आ। आचा० २१२ । पूर्वपूर्वरूपः उत्तरोत्तररूपः, आद्यः, पर्य- एगगुण-एकगुणः एकेन गुणो-गुणनं-ताडनं यस्य स एकवसानो वा । प्रज्ञा० २६५ । धर्मसहायविषमुक्तः अल्पसा- गुणः । ठाणा० ३५ । गारिकस्थितो वा। दश० १८८। उद्रेकावस्थावर्तिनिकेन एगगुणकालए-एकः-सर्वजघन्यो गुण:-अंशस्तेन कालकः गुणेन स्पर्शाख्येनोपलक्षितः इति एक:-वायुः । आचा०७५ । परमाण्वादिरेकगुणकालकः-सर्वजघन्यकृष्णः । अनु० १११। एकाकी, असहायः । ठाणा. १९०। आन्तरव्यक्तरागादि-एगग्ग-एकाग्रस्य-एकालम्बनस्यार्थाचेतसो भावः एकाम्यंसहायवियोगात् अद्वितीयः तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्।। ध्यानम् । उत्त० ६२१ । 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एगग्गचित्त आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः एगपखं] संस्थिर एगग्गचित्त-एकाग्रचित्त:-एकाग्रालंबनः। दश० ५७। एगट्ठिभागे-एकषष्टिभागान् । सूर्य• २५ । एगग्गमणो-एकाप्रमना:-अवहितचित्तः । उत्त० ५९९ । या-एकमस्थिकं फलमध्ये येषां ते। भग. ८०४ । एगग्गहण-एकग्रहणेन-एकशब्देन । भग० १४९ । एकमस्थिक-फलमध्ये बीज येषां ते एकास्थिकाः। भग. पगग्गहणगहिया- एकग्रहणगृहीता-एकग्रहणेन-एकशब्देन- ३६४ । एकास्थिका-नौः। विपा. ८० । ज्ञाता. २२७ । धर्मास्तिक य इत्येवलक्षणेन गृहीता येते तथा, एकश फल फलं प्रति एकमस्थि येषां ते एकास्थिकाः। प्रज्ञा० ३१। ब्दाभिधेया इत्यर्थः । भग० १४९ । एगठाणं-एकस्थानम् । आव. ८५२ । एकः सबाटकः । एगचरा-एकचरा:-एकाकिनः। आया० ३०८। ओघ. ९९। एगचक्ख-अतिशयवत् श्रतज्ञानादिवजितो विवक्षित इति पगणासा-एकनाशा पश्चिमरुचकवास्तव्या पन्चमी दिक एकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया। एक चक्षुरस्येति । ठाणा मारीमहत्तरिका । जं. प्र.३९१ । १७१ । पगणिसेजाए-एकनासनपरिग्रहेण । सम. ७२ । पगचक्खू विणिहय - एकचक्षुर्विनिहतः-एक चक्षुर्वि एगतियाओ-एकका:-काश्चन । जीवा० १९८ । निहतं यस्य सः । प्रश्न० २५ । एगतो-एकतः-एकस्मिन् स्थाने । व्य० प्र० १७४ । एगचरिया - एकचर्या -- एकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमः । एगतोनिसहसंठिया- एकतो-रथस्य एकस्मिन् पार्श्व यो आचा० २४३ । नितरां सहते स्कन्धपृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधोएगचोरो-एकचौरः-य एकाकी सन् हरति सः । प्रश्न. ४६। बलीवईस्तस्येव मंस्थितं-संस्थानं यस्याः सा एकतोनिषध. एगधा-एकाा -अद्वितीयपूज्याः संयमानुष्ठाने वा असदृशी अर्चा-शरीर येषां ते एकार्चाः । उपा०२९। एगतोवंका-एकओवंका-एकस्यां दिशि वका । ठाणा. ४०७ । पगच्छत्त-एकछत्रा एकं छत्रं-नृपतिचिह्नमस्यामिति, अविद्यमानद्वितीयनृपतिः । उत्त० ४४८ । पगतोवेति-एगखीला । नि० चू० प्र. १२५ भ। पगजंबूप-उल्लु कतीरे चैत्यविशेषः । भग. ७०५। पगत्त-एकता, यैकता-निरालम्बनत्वम् । भग. ९२४ । एगजडी-एकजटी-एकाशीतितमो ग्रहः । जं. प्र. ५३५।। एकत्वं-अभेदः । ठाणा, १९१।। त्र्यशीतितमो ग्रहः। ठाणा० ७९ । एगत्तवियत - एकत्वेन-अभेदेोत्पादादिपायाणामन्यतमे. एगजं-एकद्यम्-एकवाक्यतया संप्रधार्य । आचा० ३३० । कपर्यायालम्बनतयेत्यर्थी वितर्कः-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यजनएगट्ठ-एकस्थ:-एकत्र। आव० ७१०। एकार्थ-अनन्य रूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितकम् । ठाणा० १९१ । विषयं एकप्रयोजनं वा । भग० १७।. एगत्तीकरण-एकत्वकरण-एकाग्रत्वविधानम् । ज्ञाता०४६ । एगट्ठभागमुहुत्तेहि-मुहूत्र्तकषष्टिभागाभ्याम् । सूर्य० १२। एगत्था-एकार्थाः-- एके च ते अर्थाश्चेति एकार्थाः, एकेषां. पगट्ठाणं--एकस्थानक-यथा अङ्गोपाङ्गस्थापितं तेन तथाव- चिन् न सर्वेषां निखिलानां वक्तुमशक्यत्वादर्थाः -जीवादयः । स्थितेनैव समुद्देष्टव्यम् । आव० ८५३।। सम० ११३ । एगट्रि-एगबीयं । नि० चूल प्र० ५६ आ। एगदिसिं-एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया । ज्ञाता ० ४५ । पगट्टिाणुओगे- एकश्चासावर्थश्च-अभिधेयो जीवादिः स एगदुवारा-एकद्वारा--एकप्रवेशनिर्गममार्गा । ज्ञाता० २३८ । येषामस्ति त एकाधिकाः-शब्दास्तैरनुयोगस्तत्कथनमित्यर्थः । एगदिट्ठी-एकदृष्टिः-बद्धलक्षः । प्रश्न० १५८ । ठाणा ० ४८१ । एगन्तच्छेय-सर्वथा उत्-प्राबल्येन छेदो-विनाशः एकाएगट्टिए-एकश्वासावर्थश्व-अभिधेयः एकार्थः स यस्याम्ति स तोच्छेद:-निरन्वयो नाश इत्यर्थः । दश० ४० । एकाथिकः, एकार्थवाचक इत्यर्थः । ठाणा, ४९२। पगपक्खं-एकपक्षः, एकः पक्षी ब्राह्मणलक्षणो यस्य तत् । पगद्विभागमुहुत्तेहि-मुहत्तै कषष्टिभागाभ्याम् । सूर्य. १२ । उत्त० ३६०। 2010_05 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पापक्खी अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः एपक्खी - एकपक्षिक:- एकवाचनः, एककुलवर्ती । व्य० प्र० । एगराई एकरात्रिकी आव० ६४८ । २१२ अ । एकपक्षिकः- अल्पश्रुतः । व्य० प्र० २१३ अ । गुरुत्राता भ्राता गुरुगुरुर्गुरुनप्ता समानकुलथ समानश्रुतो वा । बृ० तृ० १३६ आ । एगपत्ती - एकपत्नी | आव० ९५ । पपये सोगाढं - एक प्रदेशावगाढम् - जीवापेक्षया कर्मद्रव्यापेक्षया च ये एके प्रदेशास्तेष्ववगाढम् । भग० ५३ । एगभविय एकभविकः - नोआगमतः द्रव्यमस्य प्रथमः प्रकारः, य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेनूत्पस्यते । दश० १७ एगभायणो - समर्पक्तिः । नि० ० ० ४७ अ । एगभाव - एको भावः- सांसारिक सुखविपर्ययात् स्वाभाविकसुखरूपो यस्यासावेकभावः । भग० ६४० । मध्यस्थता । ओघ० ११३ ॥ एगभूए- एकभूतः एक एव आत्मोपमः । ठाणा० २१ | एकत्वं प्राप्तः । भग० ६४० । एगमंडवे-एकमडम्बं नाम यस्य निवेशस्य सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च नास्ति कोऽप्यन्यो ग्रामो नगरं वा तस्मिन्नेकमडम्बे । व्य० द्वि० २१६ अ । एगमणा - एक दर्शनान्तरोक्त जीवाजी व विभक्तावगतत्वेन मनःचित्तं येषां ते एकमनसः - श्रद्धानवन्तः । उत्त० ६७१ । एगमणो- एकमना:-- एकाग्रचित्तः । आव० ७४० । पगमना - एकम् - एकत्र प्रस्तुते वस्तुन्यभिनिविष्टत्वेन मनो यस्यासौ एकमनाः । उत्त० ५९९ । एगमेगं - एकैकम् । सूर्य ३३ । earओ - एकनः एकस्कन्धतया । भग संयुज्येत्यर्थः । भग ७७४ । एकत्र । टाणा० १०४ । एकत: एकीभूय ३१४ । एयर एकतरं, अन्यतमत् । भाव० ७३ । एकतर:अनुकूलः । आचा० २४२ । एगराईदियाए - हादशी एकरात्रमानेति । ज्ञाता० ७३ । एगराइया - एकरात्रिक:- अपान्तराले वसामि तत्र गोकुलादौ प्रचुर गोरसादिलाभेऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता कारणमन्तरेण मयैकरात्रमेव वस्तव्यं नाभिकमित्येवंरूपेणाभिग्रहेण । व्य० प्र० १३६ आ । एकरात्रिकी । उत्त० ५३१ । आव० २१६ । एगराइया भिक्खुपडिमा रात्रियमाणा द्वादशी भिक्षुर निमा । सम० २१ । -- 2010_05 पगरा एका रात्रियत्र तत एकरावं । एकां रात्रिं यावत् पगा ] तन । उन० ११० । एगलंभिए य एवं प्रधानं शिष्यमात्मना लभते गृह्णाति शेषास्त्वाचार्यस्य समर्पयति, स एकलाभेन चरतीति एकलाभिकः । व्य० प्र० २३२ भा । एगल एकाकिनः । ठाणा० ४१६ पगलविहार-एका किविहारः । आव० ३६५ । एगवंद - एकवृन्द एकाकी व्य० प्र० २०१ अ । एगविऊ- एकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीति एकवित् म कश्चिद्दुःखपरित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकवित् । एकान्तविद् वा एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीत्येकान्तवित् एकः - मोक्षः संयमो वा तं वेत्तीति । सूत्र० २६५ । एगविह एकविधः । विशे० ३९६ । चक्रवाललक्षन विधानं स्वरूपस्य करणं येषां ते एकविधिविधानाः । विहिविहाणा - एकेन विधिना प्रकारेण भग० २८२ । एगसरा-विचितेहिं एगसरा एगावली । नि० ० ० २५४ आ । अहा संजती पयालणी कसामिव्वणी भिंगे वा दिजति । नि० ० प्र० १२७ अ । एगसाडियउत्तरासंगकरण - एका शाटिका यस्मिंस्तत्तथा, तच्च तदुत्तरासङ्गकरणं च- उत्तरीयस्य न्यासविशेषः । ज्ञाता● ४६ । एगसालयं एकशालकम् । जीवा० २६९ । एत्थ एकसि यत्रैकमेव सिक्थु भुज्यते तत् । उत्त० ६०४ । एग सेलकडे - एकशैलकूटं एकशैलवक्षस्कारकूदनाम । जं० प्र० ३४७ । एगसेलग । ज्ञाता २४२ । एगसेले । एकशैलो धातकीखण्डपश्चिमास्थमन्दर पर्वतस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते | ठाणा० ८० । एकशैलो जम्बूद्वीपस्थमन्दर पर्वतसमीपस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते । ठाणा० ३२६ । | एगा एका अद्वितीया । आव० ४६५ । २२५ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [एगागारो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पतमटुं] एगागारो-एकाकारः एकस्वरूपः । जीवा १४३ । प्रहारो यत्र भस्मीकरणे तदेकाहत्यम् । भग० ६७० । एगागिसमुद्दिसगा-ये न मण्डल्युपजीविनः । ओघ० ८७॥ एकं पातं, एकेन घातेनेति भावः । राज. १३४ । पगाणिओ-एकाकी । आव० ५५८ । एगाहजातगा-एकाहर्जाता एकदिवसोत्तमाः। आव० ११६ । एगाणुप्पेहा-एकस्य-एकाकिनो असहायस्यानुप्रेक्षा-भावना एगाहिगारिगा-एकस्मिन् शय्यातर पिण्डादावधिकृतदोषेऽएकानुप्रेक्षा । ठाणा. १९० । नालोचिते एव यानि शेषदोषसमुत्थितानि प्रायश्चित्तानि तानि एगाभिमुहा-एक भगवन्तं अभिमुखं येषां ते एकाभि- एकाधिकारिकाणि, एकाधिकारे भवानि एकाधिकारिकाणि । मुखाः । ज्ञाता. ४५ । व्य. प्र. ३० अ। एगाभोगो-एगा योगो भण्णति । नि. चू० प्र० ४७ । एगाहिय-ज्वरविशेषः। भग० १९७। एगामोसा- त्रिभिरंगुलीभिर्वा यद्गृहीतव्यं तदेकायै एगुरूया-एकोरुकः-अन्तरद्वीपविशेषः। जीवा० १४४ । गृह्णाति सा, मध्ये गृहीत्वा हस्ताभ्यां वस्त्रं घृषन् त्रिभागा- एगूरूता। ठाणा० २२५ । वशेषं यावन्नयति द्वाभ्यां वा पाश्र्वाभ्यां यावद् ग्रहणा । एगूरूयदीवे-अन्तरद्वीपे प्रथमः। ठाणा. २२५ । ओघ० ११०। एकामर्शनं एकामर्शा। उत्त० ५४१ । एगेभवं-एको भवान् । ज्ञाता० ११० । एगाय-एकाकिनः । सूत्र. १४० । एगोदगं-एकोदकं, सर्वात्मनोदकप्लावितम्। जीवा० ३२६ । एगालंभी - एकलाभी-यः प्रधानः शिष्यः तमेकं यो न एगोरुया-अन्तरद्वीपविशेषः । प्रज्ञा ० ५०। ददाति अवशेषांस्तु सर्वानपि प्रबजितान् गुरूणां प्रयच्छति । एञ्चिरेण-इयता । ओघ० ६५। येषामेक एव लाभो-यथा यदि भक्तं लभन्ते ततो वस्त्रा. एज एजतीति एजः-वायुः कम्पनशीलत्वात् । आचा० ७५ । दीनि न, यथा वस्त्रादीनि लभन्ते तर्हि न भक्तमपि, एजंत-आयान्तमागच्छन्तम् । उत्त. ३५८ । आयान्तम् । एकमेव लभन्ते इत्येवशीला एकलाभिनः । व्य. प्र. आव. २८७॥ २३२ आ। एज-एयातां-समागच्छताम् । बृ० तृ. १४१ अ। एगावलि-तपविशेषः। आचा० ४२३ । एकावली-नानामणिक- एजमाणं-इयत् , आगच्छत् । जं.प्र. २३३ । प्रत्यागच्छत् । मयी माला। औप० ५५ । विचित्रमणिका । ज्ञाता. ४३।। ज्ञाता. १३९ । एज्यमानं-कम्प्यमानम् । जीवा. १८१। विचित्रमणिकमयी। भग० ४७७ । पज्जा-आगच्छेत् । बृ० द्वि० १८७ अ । एगावलिसंठिते- एकावलिसंस्थितः अनुराधानक्षत्रसंस्थानम्। एडगारूढो-एडकारूढः । आव० ४१७ । सूर्य. १३०। | एडेंति-एडयन्ति-अपनयन्ति। जं० प्र० ३८८ । एगावली-एकावलिका-जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकसमयानां समु- एडेइ-छईयति, तीरे प्रक्षिपति । जं. प्र. २३० । दायः। जीवा० ३४४ । विचित्रमणिकमयी। भग ४५९। एडेति-अपन यति । भग० ६६५। एगावाती-एकवादी-तत्रैक एवात्मादिरर्थ इत्येवं वदतीति। एडेसि-छईयसि । ज्ञाता० ६९ । ठाणा० ४२५ । एणी स्नायुः । प्रश्न ८.। हरिणी। जं. प्र. 11. । एगासणं- एकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचा लनेन भोजनम्। जीवा० २७० । एण्यः-स्नायवः । जं. प्र. ११०। आव० ८५३ । | एगीयारा-एगी-हरिणी मृगग्रहगार्थ चारयन्ति-पोषयन्ति एहिं -एकाहं एकमावत् । जीवा. १०९ । दिने दिने गत्वा । ये ते। प्रश्न. १४ । नोदयति, एकान्तरितं वा। बृ तृ. १४२ आ। एकाई-अभ- एणेजग-गोशालपरावर्तिस्थानम् । भन०६७४ । क्तार्थम् । व्य. द्वि० ३८६ अ । एतं-एनम्-एकम् । प्रश्न. १९ । एगाहचं--एका हल्या-हननं-प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे. पतमद्रं-ए-पुद्गलानामपरापरपरिणामलक्षणमर्थम् । ज्ञाता. तदेकाहत्यम्। भग. ३२३ । एका एव आहत्या-आहननं १७७ । २२६ 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ एतेवं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः पलालुकी ] एतेवं-एतदेवमित्यर्थः । भग० ४५५ । एरंडबीयाण-उत्कटिकाभेदः । प्रशा० २६६ । पत्ताहे-अधुना। आव० ३५९ । एरंडमिंजिया-एरंड मजिका-एरंडफलम् । भग० २९० । एत्तिओ-एतावान् । आव० ४२२ । एरगा-एरका-गुन्द्रा भद्रमुस्तक इत्यर्थः । वृ० प्र० २०२ । पत्तिल्लयं-एतावत् । आव० ५५५ । एरवए-ऐरवतः-क्षेत्रविशेषः । ठाणा० ६८। ऐरावतः । पत्तियपरिक्खओ-ईयत्परीक्षकः । आव० ८२६ । । सूर्य० २२ । ऐरवतः-कर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । एत्तो-एषु । उत्त० १४२ । इतः-अहिकडेवरादिगन्धात् परवतीणदी-नदीविशेषः । नि० चू० द्वि० ७९ अ । सकाशात् । ज्ञाता० १३० । परावण-ऐरावण:-शक्रगजः । प्रश्न. १३५। इन्द्रहस्ती । एत्थं-अत्र, इह । दश. ९९।। ठाणा. ३०२। आव० ३५९ । गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा ३२। पत्थ- अशोकवरपादपस्य यदधोऽवेत्येवं संबन्धनीयः । एरावणदहे-द्रहविशेषः । ठाणा० ३२६ । ज्ञाता० ६। परावती-नदीविशेषः । ठाणा. ४७७। कुणालानगर्याः समीपे एत्थोवरए-अस्मिन् संयमे भगवद्वच सि वा उप-सामीप्येन नदी। बृ० तृ० १६१ आ । रतः व्यवस्थितः । आचा० १६२ । एरावय - ऐरावतं-उत्तरपार्श्ववर्तिभरतक्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रबिपहहो-एतावान् । आव० ३४१ । शेषः । जं० प्र० ३३० । एमेए-एवं अनेन प्रकारेण एते-येऽधिकृताः प्रत्यक्षेण वा। परिंड-वृक्षविशेषः । भग० ८०२। परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते । दश० ६८ । एलए-एलकः-उरभ्रः। प्रश्न. ३७॥ एयं-एतत् , एतावत्प्रमाणम् । सूर्य० ११३ । एलक-ऊरणकः । अनु० १२९ । एयंतं-ए जमानं, कम्पमानम् । ठाणा० ३८५। एयंतगं-आगच्छत् । आव० २९१ । एलकच्छं-एड काक्षं - योगसंग्रहेऽनिधितोपधानदृष्टान्ते पुरै, एयइ-एजते-कम्पते। भग० १८३ । यत्पूर्व दशार्णपुरं नाम नगरमासीत , यत्र गजाप्रपदाभिधः पयकम्मे-एतद्वयापारः, एनदेव वा काम्यं-कमनीयं यस्य पर्वतस्तत् । आव० ६६८ । एलगच्छा-एडकाक्षः-कायोत्सर्गे दृष्टान्तः। आव. ८००। स। विपा० ४०। एलकाक्ष:-ग्रामविशेषः । उत्त० ८७ । एयग्गो-एकाग्रः-एकचित्तः । आव० ७७३ । एलगमूओ - भाषमाण एडक इव बूबुयते एडकमूकः । एयणुहेसप - एजनोद्देशकः-भगवतीसूत्रस्य पञ्चमशतकस्य आव० ६२८ । सप्तमोद्देशः । भग. २४६ । एयविजे-एव विद्या-विज्ञानं यस्य स एतद्विद्यः । विपा० | एलगा-एडकाः-द्विखुरचतुष्पदविशेषाः। जीवा० ३८ । । एलते-एडकः-और्णकः । प्रज्ञा० २५२ । एयसामायारो- एतत्सामाचारः-एतज्जीतकल्पः । विपा० ! एलमूअय-एलमूकता--अजाभाषानुकारित्वम् । दश० १९० । ४० । -एलमूगो भासइ एलगो जहा बुडबुडति एवं एल. एयारूव-एतद्र-वक्ष्यमागरूपम् । भग० ३२२। एतद्रपः मूगो भासति । नि. चू० द्वि. ३६ आ। एतदेव रूपं-स्वरूपं यस्य सः। जं. प्र. २२ । | एलयं-एलक-ऊरणकम् । उत्त० २७२ । एयायंति-एतावन्तः । आचा० २३ । एलवालु-चिर्भटविशेषरूपम् । प्रज्ञा० ३७ । परंड-हडक्कितः । बृ० द्वि० २०९ अ । तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ ।। एला - फलविशेषः । जं० प्र० ३५। जीवा० १३६, १९१ । एरण्डः । आचा० १९७ । एलापाडल-एलापाटला-पाटलाविशेषः । ज्ञाता. २३१ । परंडइए-हडकयितः । बृ० द्वि० १०६ आ। एलापुडाण-गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता० २३२ । एरंडकट्रसगडिया - एरण्डशकटिका-एरण्डकामयी । एलारस-एलारसः-सुगन्धिफलविशेषरसः । प्रश्न. १६२ । ज्ञाता. ७६ । एलालुकी-वलीविशेषः । आचा० ५७ । २२७ 2010_05 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ एलावश्वसगोतं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः एसणिजं] - पलावञ्चसगोत्तं-इलापतेरपत्यं एलापत्यः, एलापत्येन सह एवंमहालियं-इतिमहतीम् । ज्ञाता. ६२। गोत्रेण वर्तते यः स एलापल्यसगोत्रः । नंदी ४९। एवंमहालिया-एतावन्ति महान्ति । जीवा० ३९९ । पलावच्चा-गोत्रविशेषः । ठाणा० ३९० । एलापत्या-रात्रेः एव - एवकार:-क्रमप्रदर्शनार्थः । भाव. १०। समुच्चये। तृतीय नाम । सूर्य. १४७ । ठाणा. ५०४। एवः-अवधारणे भिन्नक्रमथ । उत्त. एलावालुंकी-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । २९४ । इति गाथालङ्कारमात्रे। विशे० १३४७। पूरणार्थे । एलासमुग्गयं-एलासमुद्गकम् । जीवा० २३४ । आव. ११०। एवम्-अनन्तरोक्तप्रकारेण । उत्त. २८५। पलिका-तृणपत्रनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । क्रमरियमप्रतिपादनार्थः । ओघ. २। एवकारः-परिमाणे। पलिक्खं-ईदृशोऽभिहितार्थाभिशः । उत्त. २८२ । प्रज्ञा०५५९ । एवशब्द:-अपिशब्दार्थः । व्य. प्र.२१३ । एलिया-- एड का। आव० ८५४ । एवडे-एतावन् । आव० ४३० । एलिसय-ईदृश--एतादृशम् । वृ० द्वि० २८७ अ। एवमेयं - एवमेवेतत् बद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः । एलुए-एलकः-देहली। जं. प्र. ४८ ।। ज्ञाता०४७। एलुकावालुङ्क -तिलकम् । दश० १८० । । एवमेवं-विन्दोरलाक्षणिकत्वादेवमेव । उत्स. ४०९ । एवमेव-उपनयवचन मिति । ज्ञाता. ९६। एलुकः-उदम्बरः, देहली। बृ० प्र० २५७ आ।। एषः-एषः-एषणमेषो-गवेषणम् । उत्त० ५१४ । पलुग-देहली । आचा० २२२। एषणायामसमतित्वं-विंशतितममसमाधिस्थानम् । प्रश्न. एलुगा-एलुका:-देहल्यः । राज. ६१ । जीवा० २०४, ३५९ । १४४ । पवं-एवं प्रकारवचनशब्दः। दश० १३६ । प्रकारवा. एषणासमितिः-धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्गमोत्पादनचकः । ओघ. ५। उपमार्थे । उत्त० २२४। प्रकारार्थः । षणादोषवर्जनम् । तत्त्वा० ९-५ । प्रज्ञा० २५५। इत्थंकरणाय। ज्ञाता० ११३। एषणीय-प्रासुकम् । भग० १११ । एवं आया-एवमात्मा-एवंरूपः । नंदी २१२ । एषयति-प्रेरयति, प्रयोजयति । विशे० ४९८ । एवं चतुर्यु - पूर्वापरविदेहदेवकुरूत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रबिशेषेषु । पसणा-एषणा-अभिलाषः । पिण्ड ० २ । एषणमेषो-गवेषणं चतुर्विधस्य पर्यायः । नं. प्र. ३१२ । तं करोतीति णिक ततः स्त्रीलिङ्ग भावे युटि एषणा। उत्त. एवं भागा - एवंभागानि-वक्ष्यमाणप्रकारभागानि। सर्य ५१४ । गृहिणा दीयमानपिण्डादेग्रहणं एषगा । ठाणा. १०४। १५९। शङ्कितादिलक्षणा। आव. ५७६ । ' गवेषण।। एवंभूओ-एवम्भूतः, यथाभूतो नयः विशेषयति । आव०२८४। प्रश्न. १०८ । अनुन । पिण्डविशुद्धिः। भग• २९४ । यः शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः प्रकारस्तमेवं भूतं प्राप्त पसणासमिइए- एषणा-गवेषणादिभेदा शङ्कादिलक्षगा वा यक्रियाविशिष्ट शब्देनोच्यते तामेव क्रियां कुर्वद्वस्त तस्यां समितिः एषणासमितिः, गोचरगतेन मुनिना सम्य. एवंभूतम् । अनु. २६६ ।। गुपयुक्तेन नबकोटीपरिशुद्धं ग्राह्यम् । आव० ६१६ । पवंभूत-एवमिति तथाभूतः सत्यो घटादिरथी नान्यथे पसणाऽसमिए-एषणाऽसमितः, योऽनेषगां न परिहरति । त्येवमभ्युपगमपर एवंभूतो नयः । ठाणा० १५३ । शब्द- विंशतितममममाधिस्थानम । आव० ६५३ । नयस्य तृतीयो भेदः । उत्त० ७७। यः शब्दे नोच्यते चेष्टाकि- पसणासमिति -- सनानुसारेण रयहरणवत्थपादासगपाणयादिकः प्रकारस्तद्विशिष्टस्यैव वस्तुनोऽभ्युपगमात्तमेवं भूतः- निलओसहऽणेसणं । नि० चू. प्र. १७ अ । प्राप्तः एवंभूतः । अनु० २६६ । यथाशब्दार्थ एवं पदार्थो भूतः एसणाऽसमिते-अनेषणां न परिहरति। विंशतितममसमासन्नित्यर्थोऽन्यथा भूतोऽसन्निति प्रतिपत्तिपर एवंभूतः । ठाणा धिस्थानम् । सम. ३७। ३९. । पसणिजं-पुष्यते -गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया सादएवंभय-दृष्टिवाद सूत्रस्य भेदः । सम० १२८ । एवंभूतः भिर्यत्तद एषणीयं-कलण्यम् । ठाणा. १०८,२१३ । ष्यत नय विशेषः । प्रज्ञा. ३२७। इत्येषणीयं-कायम् । भग २२ः। 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ एसणोवघाते अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्द कोषः ओगाहणनामनिहत्ताउए ] पसणोवघाते - एषणया तद्दोषैर्दशभिः शङ्कितादिभिः तस्यो । ओभवेहि साधय-अस्मदाज्ञाप्रवर्तनेनास्मद्वशान् कुरु । जं० प्र० पघातः - अकल्प्यता ठाणा० ३२० । २१८। ओओलितं द्रावितम् । आव० ३५० । ओइंधइ - उत्तारयति । प० ३४-१५ । ओइण्णेसुं-उत्तिष्णेसु-अवतीर्णेषु कियत्स्वपि गृहिषु मध्ये स्थितः प्रयाति । ओघ ३२ । एसिं- एषणीयं- शुद्धम् । पिण्ड० १४८ | एसिआ गोष्टाः । आचा० ३२७ । एसिज्जा - एषयेत् पर्यवसितवृत्त्या कुर्यात् । उत्त० ४६ । एसिय- एषणीयं- आधा कर्मादिदोषरहितम् । आचा० ३३१ । एषणीयं - गवेषणाविशुद्धया गवेषितम् । भग० २९३ । एसिया - एषितुं शीलमेषामिति एषिका मृगलुब्धका हस्तितापसाश्च मांस हेतोर्मृगान् हस्तिनश्च एषन्ति ये चान्ये पाखfort नानाविधैरुपायैर्मैक्ष्य मेषन्त्यन्यानि वा विषयसाध नानि ते । सूत्र० १७७१ एसु - एष्यामः । ओघ० ७० । पसुहुम - एतावत्सूक्ष्मः। प्रज्ञा० ६०१ । जीवा० ३७५ । एसे - एष्यति - आगमिष्यति । पिण्ड० १६७ । परसा- एष्याः- भविष्यन्तः । आव० ६८७ । सुमो - एतत्सूक्ष्म: । औप० १०९ । एहंता - एधयन्तः - अनुभवन्तः । दश० २४८ एहति - एधते प्राप्नोति । उत्त० ३१४ । पहा - एधाः समिधो यकाभिरग्निः प्रज्वाल्यते । उत्त० ३७२ । एधाः समिधः काष्टानि । आचा० ३०९ । पहामो - एण्यामः । ओघ० ६५ । एहिं - अर्वा कालिकः । इदानीम् । नि० चू० द्वि० १०९ अ । एहि अगुणा - ऐहिक गुणाः - इहलोकगुणा भक्तपानादयः । ओघ ३९ । पहिइ - एष्यति । उपा० ४० । ऐ ऐर्यापथिकं - केवल योगप्रत्ययः कर्मबन्धः । प्रश्न० १४३ । ऐरावणापदम् । ठाणा० ४६९ । ऐरावती - शिखरिणि वर्षधरे दशमः कूटः । ठाणा ० ७२ । ऐरावतीया - स्त्राविशेषः । जीवा० ६० । ओ ओअं-ओजः - मानसोऽवम्भः । औप० ३३ । ओअंसी- ओजस्वी- आत्मना वीर्याधिकः । जं० प्र० २१९ | ओअट्टणं- उद्वर्त्तनम् । गाढतरमुद्वर्त्तयति । वृ० तृ० ७१ अ । ओअवि-परिकर्मितम् । जं० प्र० ५५ । ओ अविआ - आरोपितानि । ज० प्र० २९२ 2010_05 ओए ओजः - तैजसम् । सूत्र० ३४३ । एक:- असहायः । सूत्र०१०८ । विषमः, प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमाः । पिण्ड ०१६९ । एको रागादिविरहात् । आचा० २५६ । एकोऽशेषमलकलङ्काङ्करहितः । आचा० २३१ । ओओ - ओजः- आरोहादिकयुक्तता । वृ० प्र० ३०९ आ । ओकच्छिया । ओघ० २०९ । ओकसणं--पंकपनकयोः परिल्हसणम् । बृ० तृ० २२९ । ओकुरुडो - उत्कुरुटः- कुणालानगर्यो दोषार्त्ततर उपाध्यायविशेषः । आव● ४६५ । ओगसणं-नाशनम् । महाप्र० । ओगाढं अवतीर्णां अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्ताम् । ठाण० ३९९ । आत्मप्रदेशेन सह एकक्षेत्रावस्थायि अवगाढम् । प्रज्ञा० ५०२ । भग०२१ । लोलीभावं गतः । भग०८३ । अट्ठीभूतं । नि० चू० प्र० ३२७ आ । साधुप्रत्यासन्नीभूतः । ठाणा० १९० । ओगाढरु - अवगाढनमवगाढं - द्वादशाङ्गावगाहो विस्ताराधिगमस्तेन रुचिः, अथवा ओगाढ - साधु प्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशाद् रुचिरवगाढरुचिः । भग० ९२६ । ओगाढरुती - अवगाहनमवगाढं - द्वादशांगावगाहो विस्तधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः, अथवा ओगाढत्तिसाधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशाद् रुचिः । ठाण० १९० । ओगाढा - प्रविष्टा । ज्ञाता० १३७ । ओगालीफलगं - आर्यक ( प्रायक) प्रभृतीनामावल्या समागतं चंपकपट्टादिफलगं | व्य० द्वि० १०७ आ । ओगास - पडिस्सगस्सेगदेसेो । नि० चू० प्र० ८३ अ । अवकाशः-स्थानम् । आव ० ५३५ । मार्गः । आव० ६७८ । ओगाहंती - अवगाहन्ती - आगच्छन्ती । आव ० २३२ । ओगाहणग्गं--ययस्य द्रव्यस्याधस्तादवगाढं तदवगाहनाप्रम् । आचा० ३१८ | ओगाहणनामनिहत्ताउए- अवगाहनानामनिधतायुःअवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना - शरीर मौदारिकादिः तस्य नाम औदारिकशरीरनामकर्म तेन सह निघत्तमायुः । प्रज्ञा० २९७ २२९ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ओगाहणवग्गणाओ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ओज] ओगाहणवग्गणाओ-अवगाहनाः एकैकस्य भाषाद्रव्यस्या- | ओग्गह-अवधारणं अवग्रहः । आव० ३४१ । धारभूता असङ्ख्येयप्रदेशात्मकक्षेत्रविभागरूपास्तासामवगा- ओघ-औधिकः, अशुभकर्मप्रकृतिजनितो भावोपसर्गः। सूत्र०७८ हनानां वर्गणाः-समुदायाः अवगाहनावर्गणाः । प्रज्ञा ०२६५। ओघः-सामान्यम् । आव० २५८, ४५८, ४८० । विशे० ओगाहणसंठाण-प्रज्ञापनायामेकविंशतितमं पदम् । भग०३९६ ८४२ ४५० । ४९५, ८४२ । अवगाहनास्थानम् । प्रज्ञापनाया एकविंशतितम ओघजीवितं-नारकाद्यविशेषितायुर्द्रव्यमानं सामान्य जीवितम् पदम् । प्रज्ञा० । ठाणा. ७ । ओगाहणसेणियापरिकम्मे-परिकर्मे चतुर्थीभेदः।सम०१२८ ओघनिष्पन्नः-ओघः-सामान्यमध्ययनादिकं श्रुताभिधानं तेन ओगाहणा-अवगाहना-तनुः, तदाधारभूतं वा क्षेत्रम्। निष्पन्नः । अनु० २५१ । सामान्यशास्त्रनिष्पन्नः ।आव०५८ । भग०७१ । नियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वम् । भग० २३६ । ओघनिष्पन्न निक्षेपः । ठाणा० ६ । षड्जीवनिकायानां पादसट्टनम् । पिण्ड० १६१। अव- ओघरूपा-सामाचारीविशेषः । उत्त० ५४७ । गाहन्तेऽस्यामवस्थायामिति अवगाहना-स्वावस्थैव । आव. ओघसामाचारी-सामाचार्याः प्रथमभेदः ।व्य ०प्र० १९ आ। ४४४ । प्रज्ञा० १०८ । अवग्रहण-परिच्छेदः । प्रज्ञा० ३०९ ओघनियुक्तिः । ओप० ।। अवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जन्तवः साऽवगाहना-तनुरि- ओघसामाचार्युपक्रमकाल:-सामाचार्युपक्रमकालस्य त्यर्थः। नंदी ९१ । अवगाहते यस्यां जीवः सा अवगाहना- प्रथमो भेदः । ओघ. १।। शरीरं औदारिकादिः। प्रज्ञा० २१८ । ज्ञाता० २५० । ओघस्सरा । जं० प्र० ४०७ । ओगाहिम-आदिमे जे तिणि घाणा पयतिते चलवलेत्ति, ओघा-उन्मुखा निरीक्षमाणाः । व्य० प्र० १३० अ । तेग ते चलवल ओगाहिम भण्णति । नि० चू० प्र० १९७ अ। ओघाडिजइ-उद्घाट्यते-बाह्यः क्रियते । आव० ६९७ । ओगाहिमगं-पक्वान्नम् । बृ० प्र० ३१२ आ । अवगाहिमम् । ओघादेसेणं-सामान्यतः । भग० ८६३ । आव० ८५४ ॥ ओघाययण-ओघायतनानि यानि प्रवाहत एव पूज्य. ओगाहिमतो-अवगाहकः । उत्त० १९८ । स्थानानि तडागजलप्रवेशीधमार्गों वा । आवा. ४११ । ओगाहिमाइ-अवगाहिमादि-पक्वान्नमण्डकप्रभृति । ओचार-अपचारि-दीर्घतरधान्यकोष्ठाकारविशेषः । अनु०१५१ पिण्ड० १५२। ओचिया-आरोपिता । जीवा० १९९ । ओगाहे-आगच्छति । ओघ० १.४ । अवगाह:-शरीरोच्ट्रयः। ओचूल-अवचूला:-प्रलम्बगुच्छाः । ज०प्र०२६५ । प्रलम्ब. प्रज्ञा० १८१। मानगुच्छः । औप० ७० ! भग० ४८० । ज० प्र० ५३० । ओगाहेजा-अवगाहेत-आश्रयेत । भग० २३३ । ओचूलग- अवचूलकं-अधोमुखाञ्चलं, मुत्कलाशलम् । ओगाहेत्ता-प्रविश्य । सम० ८८ । जै. प्र. २४७ । ओगाहो-पत्तद्ग्रहः । वृक्ष द्वि० २५० आ। ओच्छगं--वस्त्रं, आलिङ्गनम् । आव० ६८२ । ओगिज्झिय-अवगृह्य-आश्रित्य । आचा० ४.३ । ओच्छन्नपरिच्छन्न-अवच्छन्नपरिच्छन्नः - अत्यन्तमान्छा ओगिण्हणयाते-अवग्रहणतायैमनोविषयीकरणाय । दितः । जीवा० १८८ ठाणा० ४४१। ओगुट्टि-खिमा, निन्दाम् । पउ, ५६-१५। ओच्छवियं-अवच्छादितम् । ज्ञाता, २८ । ओगुंडिया-मलदिग्धदेहाः । बृ० प्र० २७८ आ। ओच्छाइय-आच्छादितः-निरुद्धः । प्रश्न० १३४ । अवच्छाओगेण्हणया-अवगृह्यतेऽनेनेति अवग्रहणं, करणेऽनट, प्रथम दितः । ज्ञाता० २८।। समयप्रविष्टशब्दादिपुद्गलादानपरिणामः, तनुभावोऽवग्रहणता ओच्छाहिओ-उत्साहितः- उत्कर्षितः । पिण्ड० १३४ । नंदी १७४ । ओज-ओजः-बलम् । प्रश्न० ११६ । आहारादि । भग०२० । 2010_05 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओजप्रदेशं धनचतुरस्र अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ओबद्धभो] ओजःप्रदेशं धनचतुरस्रं-सप्तविंशतिपरमाण्वात्मकं सप्त- | ओणए-अवनतं , उत्तमाङ्गप्रधान, प्रणमनमित्यर्थः । सम. विंशतिप्रदेशावगाढं च, तत्र नवप्रदेशात्मकस्यैव पूर्वोक्तस्य २४ । आसन्नम् । भग० ३५ । प्रतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशाः स्थाप्यन्ते, ततः ओणता-अवनता । आव. २३७ । सप्तविंशतिप्रदेशात्मकमोजःप्रदेशं घनचतुरस्रभवति। प्रज्ञा० १२. ओणमओ-अवनमतः । ओघ. १७८ । ओजःप्रदेशं घनव्यत्रं-पञ्चत्रिंशत्परमाणुनिष्पन्नं पञ्चत्रिं- ओणमित्ता-अवनम्य । आव० २३७ । शत्प्रदेशावगाई च, तचैवं-तिर्यग् निरन्तराः पञ्च परमा- ओणयं-उत्तमांगप्रधानं प्रगमनम् । बृ० तृ० १० । अवनतिः णवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वार- अवनतं-उत्तमानधानं प्रणमनम् । आव० ५४२ । स्त्रयो द्वावेकश्चेति पञ्चदशात्मकः प्रतरो जातः, अस्यैव च | अवनतः । आव. २७७ । प्रतरस्योपरि सर्वपक्तिष्वन्त्यान्त्यपरित्यागेन दश, तथैव ओणामिणी-अवनामिनी-विद्याविशेषः । दश० ४१ । तदुपर्युपरि षट् त्रय एकश्चेति क्रमेणाणवः स्थाप्यन्ते, एते ओतपोतं-(देशी०) आकीर्णम् । बृ० द्वि० १३९ अ । मिलिताः पञ्चत्रिंशद्भवति । प्रज्ञा० १ । ओतपोयं-(देशी) मालयन्ति, । बृ• तृ. ७. अ। ओजःप्रदेशं घनवृत्तं-सप्तप्रदेशं सप्तप्रदेशावगाढं च, तच्चे- ओतप्रोतः-तद्रूपः । भग० ६५ । तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्य परमाणोरुपरिष्टाद- ओतारो-अवतारः । आव० ३८४ । .... धस्ताच एकैकोऽणुरवस्थाप्यते, तत एवं सप्तप्रदेशं भवति । ओतिनो-अवतीर्णः-गन्तुमुपक्रान्तः । उत्त० २४७ । प्रज्ञा० ११ । ओदइ-पश्यति। नंदी ९९ । ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं-नवपरमावात्मकं नवप्रदेशा- ओदइए-कर्मणामुदयेन निवृत्तः औदयिकः कर्मोदयापादितो वगाढं च, तत्र निर्यग् निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पङ्क्तयः | गत्याद्यनुभावलक्षणः । सूत्र. २३० । स्थाप्यन्ते । प्रज्ञा ० १२ । ओदइयभावमूल-औदयिकभावमूलं - वनस्पतिकायमूलत्व. ओजःप्रदेशं प्रतरव्या -त्रिप्रदेश त्रिप्रदेशावगाढं च तचैव मनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात् मूलजीव एव । आचा० ८८ । पूर्व तिर्यगणुद्रयं न्यस्यते, तत आद्यस्याध एकोऽणुः। प्रज्ञा०११ ओदग्गे-उत्कट उदग्रवयःस्थितत्वेन वा उदग्रः । उत्त०३४९ । ओजःप्रदेशं प्रतरायतं-पञ्चदशपरमाण्वात्मकं पञ्चदश- ओदण-ओदनं ।ओघ० २१५। कूरो। नि• चू० प्र०५८ आ। प्रदेशावगाढंच, तत्र पञ्चप्रदेशात्मिकास्मिस्तिस्रःपढ़क्तयसि ओदनं-हिन्वादिभिरसंस्कृत ओदनादिः । ठाणा. २२० । स्थाप्यन्ते। प्रज्ञा० १२।। भक्तम् । उत्त० २७२ । ओजःप्रदेश Uण्यायत-त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशावगाढे च, ओट नि, चाट २१ अ ..-.. . तत्र तिर्यग् निरन्तरं त्रयः स्थाप्यन्ते । प्रज्ञा• ११। ओरिश-औदरिका:-भदपत्राः । ओघ. ९५। ओजःप्रदेशप्रतरवृतं-पसपरमाणुनिष्पन्नं पचाकाशप्रदेशा- ओदारं-प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य । सम० १४२ । वगाई च, तद्यथा-एकः परमाणुमध्ये स्थाप्यते, चत्वारः क्रमेण ओढो-आशातितः, थूत्कृतः । उत्त० ३५६ । पूर्वादिषु चतमषु दिक्षु । प्रज्ञा० ११ । ओहेसिकं-यावन्तः केचन भिक्षाचरा समागच्छन्ति तावन्तः ओज्झा-उपाध्यायः । दश. २४२ । सर्वानुद्दिश्य यत् क्रियते तत् । बृ• प्र० ८३ अ। ओझा-तुलादंडवद्वयोरपि मध्ये वर्तते सः । बृ ०प्र० १६० । आध | ओधाइओ-अवधावितः। आव० ४२४ । ओट्टियं-औष्ट्रिकम् । आव० ४२५ । | ओधूणण-अवधूननम्-अपूर्वकरणेन कर्मग्रन्थेअंदापादनम् । ओडादिः । टाणा० २०३ । आचा० २९७ ॥ ओढणपरिहाणेसु । नि० चू० प्र. १४० आ। ओपल्ला-अपदीर्णा, कुण्ठीभूता । ज्ञाता. १९२ । ओढेऊणं । ओघ २१७ । । ओबद्धओ-विद्यादायकादिप्रतिजागर कः । ठाणा ० १६५ । 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ओबद्धपिंडितो आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः श्रीमीयरण] ओबद्धपिंडितो-अवबद्धपिण्डि कः । उत्त० २१५। ओमचरओ-ओमत्ति-अवममुपलक्षणत्वादवमौदार्य चरतिओबारं-अवद्वारम् । आव० ३४९ । आसेवते अवमचरकः-न्यूनत्वासेवकः । उत्त० ६०६ । ओबोले-उबुढयितुम् । आव० १९४ ॥ ओमचेलिए-अवमचेलिकः, असारवत्रधारी। आचा०३९७ ओभावणा-उवहावणा-परिभवः । ओघ० १३१ । अप- ओमच्छगरयहरणं-उन्मस्तकरजोहरणम् । आव० ६३८ । भावना-लाघवम् । बृ. प्र. २७९ अ। ओमजायणं-अवमज्जायनं, पुष्यगोत्रविशेषः। ज०प्र०५००। ओभासंति-अवभासयन्ति-सप्रकाशा भवन्ति । भग०३२७। ओमत्तं-अवमत्वं-ऊनता। भग० ४२ । अवमता-हीनअवभासयन्ति । सूर्य० ६३ । त्वम् । प्रज्ञा० ३०३। श्रीभासंतो-अवभासयन् । ईषदुद्योतयन । ज०प्र० ४६१ । ओमथिअ--उद्घाटमस्तकः, प्रच्छन्न इति । ओघ० १५ । ओभास-अवभासः-प्रभा । ज्ञाता० ४ । अवभासः, प्रभा- ओमत्थिय-ओमस्थितः, अधोमुखीकृतः । ओघ १४ । विनिर्गमः । प्रज्ञा ० ८० । प्रतिभाविनिर्गमः । जीवा० १०७। ओमद्विया-उन्मर्दिका-बहुमर्दनकारिका। भग० ५४८ । पञ्चषष्टितमो ग्रहः । ज० प्र० ५३५ । सप्तपष्ठितमो महाग्रह- ओमया-पराजयः, पश्चाद्भवनम् । बृ० द्वि० ७१ अ। विशेषः । ठाणा. ७९। ओमरत्तं-अहोरात्रम् । ओघ ११६ । अवमा-हीना ओभासइ-अवभासते । आविर्भवति, प्राप्यते इति। रात्रिरवमरात्रो-दिनक्षयः । ठाणा० ३६९ । सूत्र. २१४ । अवभासयति-प्रकाशयति । सूर्य०६। ओमराइणिओ-अवमरास्निकः । ओघ० १५० । ओभासणता । नि. चू० प्र० २४७ अ। ओमराइणिय-अवमरात्निकः । आव० ७९३ । ओभासिज-अवभाषेत-दातारं याचेत् । आचा० ३४०। ओमरायणिको-अवमरात्निकः । ओघ० १२ । ओभासिज्जा-अवभाषेत-याचेत । आचा० ३५२। ओमाण-प्रवेशः। उत्त. ५५२ ।अपमानम् । बृ.तृ. १२० । ओभासितं-अवभाषितं-याचितं याचनं वा०वि०१४२। ससवत्तिय । नि० चू० प्र० २०५ आ! अवमानानि-क्षेत्रादीनां ओभासी-अवभासते-प्रतिभाति, अवभाषते-याचत इत्येवं- | प्रमाणानि हस्तादीनि । ठाणा ०८६ । अवमानं-स्वपक्षपर पक्षशीलोऽवभासी । ठाणा० २०७ । प्राभूत्यजं लोकाबहुमानादि । दश० २८० । ओभासेई-अवभासयति-ईषत्प्रकाशयति । भग. ७८ ।। ओमान-अवमानं-अवमम् । बृ० प्र० २९० आ। ओभुग्ग-अवभुग्न-वक्रम् । ज्ञाता० १३८ । ओमुयं-उल्मुकम् । ओघ० ११२। ओमंघ-पात्रमवाङमुखम् । बृ० प्र० १०७ आ। ओमोअं-अवमोचकः, आभरणम् । जं. प्र. १८८ । अबओमंथियं-अधोमुखीकृतम् । विपा० ४९ । निरय० । मुच्यते-परिधीयते यस्सोऽवमोचकः-आभरणम् ।ज०प्र०१८८ । ज्ञाता०३३ । अवाङ्मुखम् । बृ० तृ० १९८ आ। ठाणा० २९९। ओमोअर- अवम-न्यूनमुदर-जठरमस्यासाववमोदरस्तावः ओम-बालः । ओघ. १५१ । लघुपर्यायः । ओघ० १८५। अवमौदर्य-न्यनोदरता । उत्त०६०४। अल्पाहाराख्यम्। अवं-दुर्भिक्षम् । ओघ ११,१८, ६३ । पिण्ड०७७ । आव. उत्त० ६०४। ५३६ । न्यूनम् । आव० १३० । दुर्भिक्षम् । नि० चू० प्र० ओमोदरिता-दुभिक्खं । नि० चू० प्र० ७५ अ । १८३ आ। नि० चू० प्र०५४ आ । अवमानि-असाराणि । ओमोद्दरिए-अवमोदरिका,धम्मेधम्मिणोर भेदा वा अवमोद उत्त० ३५९ । अवमरात्निकः। बृ० द्वि.१९ अ। दभिक्षम। रिक:-साधुः । भग० २९३ । व्य० प्र० १९८ आ । अवम-हीनम् । आचा० १६४ । ऊणं। ओमोयं-अवमुच्यते-परिधीयते यः सोऽवमोकः-आभरणम् दश० चू. १६२। ऊनम् । उत्त० ६०४ । अवमा-न्यूना । ।भग ५४३।। उत्त० ५३७। पर्यायलघुः। ओघ० १५० । अवमम् । ओमोयरण-अवमं च तदुदरं चावमोदरं तस्मात्करोत्यर्थे न्यूनम् । दश०२७१। णिचि ल्युटि चावमोदरणं, अवमोदरकरणम् । उत्त० ६०४ । आ। २३२ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ओमोयरिय अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ओराल] ओमोयरिय-अवमौदर्य-दुर्भिक्षम् । आव० ६२६ । अवमं- जीवा०२७२ । परिकमितम् । प्रश्न० ८१ । न्यूनमुदरं-जठरमस्यासाववमोदरस्तद्भावः अवमौदर्य-न्यू- | ओयविया-कुशलाः । बृ० तृ. ५८ अ । नोदरता । उत्त० ६०४ ।। ओयवेइ-उपैति । आव० १५० । ओमोयरिया-अवम- ऊनमुदरं-जठरं अवमोदरं तस्य करण- ओयसंठिती-ओजसः- प्रकाशस्य संस्थितिः-अवस्थानम् । मवमोदरिका । ठाणा० ३६४ । अवमं-ऊनमुदरं-जठरं सूर्य ७९। यस्य सः, अवमं चोदरं अवमोदर तद्भावोऽवमोदरता, अव- ओया-ओजः-प्रकाशः । सूर्य० ७९ । मोदरस्य वा करणमवमोदरिका । ठाणा. १४८ । | ओयाए-उपायातः-उपागतः । भग० ३१९ । सम्प्राप्तः । ओस्मिमालिणी-और्मिमालिनी-नदीविशेषः।०प्र०३५७। निरय० ६ । उपायातः-उपागतः । ज्ञाता. १६७ । ओयं-रसम् । (तं०) ओजसा-दाहापनयनादिस्वकायकरणशक्त्या। ज्ञाता०१७० । ओयंसी-ओजस्विनः-मानसावष्टम्भयुक्ताः । भग. १३६ । ओयाणेत्ति-अनुश्रोतोगामिनी, पानीयानुगामिनी । नि० ओजः-मानसोऽवष्टम्भस्तद्वान् ओजस्वी । राज. ११८ । चु० प्र० ४४ आ । निरय० २ । ज्ञाता० ७ । ओजस्विनः-मानसबलोपेतत्वात् ओयारिया-अवतारिता । आव. ६८५। अवतारिका । । सम० १५६ । आव० ३५० । ओय-ओजः-आहारग्रहणे प्रथमो भेदः । ठाणा०९३ । ओजः ओयारो-अवतार:-जलमध्यप्रवेशनम् । जीवा० १९७ । --आर्तवम् । ठाणा० १४५ । ओजः-प्रकाशः । सूर्य० ७ । ओयाहारे-ओजः-उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः, विषमः । सूर्य० १५६ । उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः। ओज आहारो येषां ते ओजआहाराः। प्रज्ञा० ५१० । तैजसेन प्रज्ञा० ५१० । कार्मणेन च शरीरेणौदारिकादिशरीरानिष्पत्तर्मिश्रेण च य ओयइ-पश्यति । विशे० ३७४ । आहारः सः सर्वोऽपि ओजाहारः, औदारिकादिशरीरओयणं-ओदनं । सूर्य० २९३ । कूरः । प्रश्न० १५३ ।। पर्याप्त्या पर्याप्तकोऽपीन्द्रियानपानभाषामनःपर्याप्तिभिरकूरादि । ओघ० १३३ । ओदनं-कोद्रवौदनादि । आचा. पर्याप्तकः शरीरेणाहारयन् ओजाहारः । सूत्र. ३४३ । ओयत्तण-व्याघातः । पिण्ड० १६२ । ओयो-संजमो। नि० चू० प्र० २१७ अ । ओयत्तति-परावर्तते । दश० १०८।। ओरब्भं-औरत्रं-उत्तराध्ययनेषु सप्तममध्ययनम् । उत्त० ९। ओयन्ने-ज्ञातायां सप्तदशमध्ययनम् । आव० ६५३ । ओरस-आन्तरः | भग० ६३३ । ओयपए स-विषमसंख्यप्रदेशः । भग० ८६१ । ओरस्स-उरसि भवं-औरस्य-शरीरबलम् । सूत्र. १६६ । ओयरह-अवतरत । आव. ३५२ । ओरस्सबली-महापरकमाः । बृ० तृ. १७४ आ। ओयरिआ-औदरिकानाम-यत्र गताः तत्र रूपकादिकं प्र- ओरालं- विस्तरवत, समयपरिभाषया मांसाथिस्नाय्वाद्यवक्षिप्य समुद्दिशन्ति, समुद्देशनानन्तरं भूयोऽप्यग्रतो गन्छन्ति बद्धम् । प्रज्ञा० २६९। मांगास्थिस्नाय्वाद्यवबद्धम् । ठाणा. । बृ० द्वि० १२५अ । २९५ । उदारं-अत्यद्भुतम् । सूर्य० २९४ । उदारः-प्रधानः । ओयरिया-औदरिका-उदरभरणैकचित्ताः । ओघ. ७१ । । भीमः। औप० ८४ । ओराल-आशंसारहिततया प्रधानम् । ओयवणं-साधनम् । जं. प्र..४८ । भग० १२५। उदार:-प्रधानः । भग. १२॥ भीमः-भयानकः। ओयविअं-अल्पसागारिकः-श्रावकः, खेदज्ञम् । ओघ० ज्ञाता० ७॥ स्फाराकारः। राज. ११९ । भीष्मः, उग्रादिओयविए-प्रसाधिते । व्य. द्वि० १७६आ। विशेषणविशिष्टतपःकरणतः पावस्थानामल्पसत्त्वानां भयानकः। ओयवियं-सुपरिकर्मितम् । सूर्य० २९३ । तेजितम् । जीवा० . प्र. १६ । भग० १२ । सूर्य० ५। उदार: ।जीवा० ३२२॥ १६४ । विशिष्ट परिकर्मितम् । जीवा० २३२ । परिकर्मितम्। एकेन्द्रियापेक्षया प्रायः स्थला द्वीन्द्रियादय इति ।उत्त० ६९३॥ २३३ 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ओरालतसा ओरालतसा - त्रसत्वं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्ध अतस्तद्व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणम् |ठाणा ०३३५। ओराला तसा - औदारिकनसाः - स्थूरत्रसाः । जीवा० २८ । ओरालवण्ण कित्तिसद्दा- उदारवर्णकीर्तिशब्दाः । आव आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरि सङ्कलितः २९३ । ओगलसरी रे - उदारशरीरः । उत्त० ३२५ । ओरालाई - मनोहराणि । ठाणा० २९४ । उदाराणि - आशंसादोषरहितत योदारचित्तयुक्तानि । ठाणा० २४७ । ओरालिए- उदारं- प्रधानं, विस्तरवत्, उरलं- विरल प्रदेश न तु घनं, ओरालं - समयपरिभाषया मांसास्थिस्नाय्वाद्यवबद्धं तदेव शरीरं, उदारमेव औदारिकम् । प्रज्ञा० २६८ । ओरालिय-औदारिकम् । प्रज्ञा०४६९ । उदारमेव - प्रधानमेव बृहदेव वा औदारिकम् । जीवा० १४ । उदारं- प्रधानं उदारमेव औदारिकम् । ठाणा० २९५ । ओरालिय सरीरणाम-यदुदयादौ दारिकशरीर प्रायोग्यान् पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनाम । प्रज्ञा० ४६९ । ओरालियशरीरा - औदारिकशरीराः । आव० ७९९ । ओरुहइ - अवतरति । आव० १८६ | ओरोह-अवरोध, अन्तःपुरम् । उत्त० ३०० । अंतेपुरं । नि० चू० प्र० ८०अ । विपा० ८२ । अवरोधः - प्रतोलिद्वारे ध्ववान्तरप्राकारः । औप० ३ । प्रतोलीद्वारेष्वन्तः प्राकारः । राज० ३ । अवरोधः - अन्तः पुरम् । उत्त० १२० । अवरोधः । आव० ३५९ । प्रतोलीद्वारेष्ववान्तरप्राकारः । | ज्ञाता० २ । ओलंडेंति - उल्लङ्घयन्ति । ज्ञाता० ६२ । ओलंडेह - उल्लङ्घयत । दश० ९९ । आव० ३५० । ओलंब - अवलम्बं - अवलम्बनस्थानम् । जं० प्र० ५२९ । ओलंबणदीव - शृङ्खलाबद्धद्वीपः । भग० ५४७ | ओलंबितो- अवलम्बितः । उत्त० १२५ ओलइओ - अवलगितः । आव० २९७ । ओलइयं - अवलगित - गोपितम् । उत्त० ११६ | ओलएइ - उपलगयति । आव ० २१७ । ओलगिउं - अवलगितुम् । उत्त० ३०० । 2010_05 अलग्गए- अवलगकः । आव० १७६ । ओलग्गति- अवलगति अनुसरति । उत्त० ८७ । ओलग्गयमणूसो - अवलगकमनुष्यः । आव० ९२ । ओलग्गा सेवा । परिचर्या । दश० ९७ । जीर्णा । ज्ञाता० ओवइया ] २८ । अलग्गाए - अवलगनया । आव० ९० । ओलग्गिउं - अवलगितुम् । आव० ७१६ । ओलग्गिऊं - अवलगितुम् । दश० ९७ । ओलग्गिजामि- अवलगामि । आव० ३५६ । ओलग्गिता- सेवितुमारब्धा । आव० ८१८ । ओलग्गिय - अवलगितः । आव० ४०१ । ओलिंति - अवलीयन्ते प्रत्यागच्छन्ति । विशे० ८५३ । ओलिकापातः । अध० २०७ । ओलित्त-अवलिप्तः । भग० २७४ | आव० ५५९ । ओलित्ता-द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवलिप्ताः । ठाणा १२४ ओलिहति । नि० चू० ७ १९०अ ओलुग्गसरीरा - भग्नदेहाः । विपा० ४९ । निरय० ९ । अवरुग्णमित्र - जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा, अवरुग्णा वा चेतसा अवरुग्णशरीरा । ज्ञाता० २८ । ओलुग्गा अवरुग्णा- भग्नमनोवृत्तिः । विपा० ४९ । निरय०९ । क्षीणा । आव ० ७१६ | जीर्णा । ज्ञाता० ३३ । ओलुहति - अवरोहति । आव ० १८१ । ओलेंति - परिभ्रमन्ति । आव० २७४ । ओलेत्ता - आर्द्रयित्वा । आव० २०९ । ओलोयणं - अवलोकनम् । आव २२४, ३७८ । ओलोयणगए- अवलोकनगतम् । उत्त० ९१ । ओलोयट्ठिओ-अवलोकनस्थितः । आव० १४५ । ओलोवणे । नि० चू० प्र० २१७अ । ओल्या-पन वा आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपे कर्द्दम एव ओल्याम् । ठाणा० ३२८ । ओलं - वासं । नि० चू० प्र० ६७आ । ओलि । नि० चू० प्र० १२१अ । ओवइया - त्रीन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । २३४ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ओवक्कमियं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ओवीलं] ओवकमियं-उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमो-ज्वरातीसारादिस्तत्र ओवयारिअविणय । औपचारिकविनयः-विनयस्य द्वितीयो भवा या सा औपक्रमिकी । ठाणा० २७ । भेदः । दश• ३१ । ओवक्खडितं-उपस्कृतम् । आव० ३५३ । ओवरणं-अपवरकम् । आव० ५६० । ओवग्गहिओ-औपग्रहिकः । उत्रग्गहितः गच्छ साहारणो।। ओवरिऊण-अवतीर्य । उत्त० ११९ । ओघ० ९२ । ओवसमिए-कर्मोपशमेन निवृत्त औपशमिकःकर्मानुदयलक्षणः। ओवज्झणं-प्रवाहे वहनं । बृ० तृ. २२९अ । सूत्र. २३० । ओवट्टणा-वालना पश्चादानयनम् । बृ० द्वि० ८५आ । । 1 ओवहिए-औपधिकः-उपधिना-छद्मना चरतीयौपधिकः । उत्त० ६५६ । . ओवणिहिए-उपनिहितं यथा कथञ्चित् प्रत्यासन्नीभूतं तेन ओवहिया-औपधिका-मायाप्रयोजना-कषायप्रत्ययाः, उपचरति यः सः औपनिहितिकः, उपनिधिना वा चरतीति करणप्रयोजना वा । औप० १०७ । स औषनिधिकः । औप० ३९ । ओवाइणित्तए-उपादातु-प्रहीतुं, प्रवेष्टुम् । ठाणा० १५७ । ओवतिउं-अवपतितुं-जेतुम् । दश० ५० ।। ओवाइयं-उपयाचितम् । विपा० ७७ । याचितस्य-प्रार्थिओवत्तिया अपवर्त्य-अग्निनिक्षिप्तेन भाजनेनान्येन वा दद्यात् । तस्य प्राप्तरुपरि देवेभ्यो देयम् । उत्त० १३८ । उपयादश. १७५ । चितम् । आव० ७.९ । ओवमिप-उपमया निवृत्तमौपमिक, उपमामन्तरेण यत्काल- ओवाई-ओलावयप्रधाना विद्या । आव० ३१९ । प्रमाणमनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदोपमिकम् ।। ओवाय-उपाये-मृदुपरुषभाषणादौ भवं औपायं, उपपतनमुपजं. प्र. ९२ । उपमया निवृत्तमौपमिक, उपमानमन्तरेण । पातः-समीपभवनं तत्र भवं औपपातं-गुरुसंस्तारास्तरणयत्काल प्रमाणमनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकम्। विश्रामणादिकृत्यम् । उत्त० ५८ । विघ्नम् ( मर. ) अनु. १८१ । अवपातः-निर्देशः । सूत्र. २४२ । अवपानः-प्रपातस्थानं, ओवमिय-उपम या निर्धनं औपमिकम् , उपमामन्तरेण यत् यत्र चलन् जनः सप्रकाशेऽपि पतति । जं.प्र. १२४ । कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकम् । अवपातः-गर्लादिरूपम् । दश० १६४ । अवपातः-गर्ताभग० २७६ । विशेषः । प्रश्न. २२ । ओवम्म-औपम्यं-उपमा । उत्त. ३२१ । उपमानमुपमा ओवायकारी-उपपातकारी-आचार्यनिर्देशकारी. यथोपदेशं सैवौपम्यं-सदृशः । ठाणा. २६२ । क्रियासु प्रवृत्तः, सूत्रोपदेशप्रवर्तकः । सूत्र. २३४ । अवओवमसच्चा-औपम्यसत्या-पर्याप्तिक सत्याभाषाया दशमो | पातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी-वचननिर्देशकारी सदा आज्ञा. भेदः । प्रज्ञा० २५६ । उपमेवीपम्यं तेन सत्यं औपम्य सत्यम् । विधायी । सूत्र. २४२ ।। सत्याभाषाया दशमो भेदः । ठाणा० ४८९ । औपम्य सत्यं ओवासो-अवकाशः । दश० ५८ । नाम समुद्रवत्तडागः । सत्याभाषाया दशमो भेदः । दश. ओवाही-विशेषेण उपाधीयत इति वोपाधिः । आचा० १७४। २०९ । उपमीयते-सदृशतया गृह्यते वस्त्वनयेत्युपमा सैव ओविअ-ओपितं-परिकर्मितम् । भग० ४७८ । ओपितःऔपम्यम् । भग. २२२ । उपमानमुपमा सैवौपम्यं अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम् ।ठाणा०२५४। ओविय-परिकर्मितम् । औप० २४, ६६ । राज. ४८ । ओवयइ-उत्पतति-ऊर्ध्व गच्छति । भग. १७९ । उज्ज्वलितः । ज्ञाता. २२२ । ओपितः-परिकर्मितम् । ओवयण-अवपदनं-प्रोङ्खनकम् । ज्ञाता० ४३ । प्रश्न. ७६ । ज्ञाता० १९।। ओवयमाण-अवपततो-व्योमाङ्गणादवतरतः । ज्ञाता.४६। अवपतन् । ज्ञाता० १६६ । ओबीलं-अवपीडं-शेखरं. उपपीडा वा वेदना। विपा०७२ । २३५ 2010_05 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ओवीलप ओवीलए- अपव्रीडयति विलज्जीकरोति यो लज्जया सम्यनालोचयन्तं सर्वे यथा सम्यगालोचयति तथा करोतीत्य आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः पीडकः । ठाणा ४.४ | ओव्वत्तिऊण - अपवर्त्य | ओघ २१ । ओविग्गमणो- उद्विग्नमनाः । आव २२० । ओष्ठः- दस्तच्छदः । आचा० ३० । ओस - अवश्यायः, शरत्कालभावी श्लक्ष्णवर्षः । उत्त० ३३४ | क्षपाजलम् | ठाणा • २८७ । अवश्यायः हः । दश०१५१ । अवश्यायः- शरदादिषु प्रभातिकसूक्ष्मवर्षः । उत्त० ६९१ । ओसक्कइन्ता-उत्ष्वष्क्य-उत्सृत्य लब्धावसरतयोत्सुकीभूय । अवष्वष्क्य- अपसृत्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथा । ठाणा० ३६५ । अवसर्प्य, प्राप्य वा । आव० १९ । ओक्कणं - रन्धनवेला । ओघ ७ १४८ । अवष्वष्कणम्, विवक्षित विध्वंसनादिकालस्य ह्रासकरणम्, अर्वाक्करणम् । बृ० प्र० २६१ । अवष्वष्कणं- स्वयोगप्रवृत्तनियतकालावधेर्वाकरणम् । पिण्ड० ९१ । ओसक्किय प्रज्वाल्य | आचा० ३४५ । ओसक्किया- अव सर्प्य, अतिदाह भयादुल्मुकान्युत्सार्येत्यर्थः । दश० १७५ । ओसढ-उत्सृतः - उपघातेभ्यो निर्गतः । दश० २१९ । 2010_05 ठाणा० १८९ । प्रायसः । आव ० २८५ । नानुपरतत्वेन । उस्सणं- प्राचुर्येण । प्रश्न २२ । अवसन्नः - सामाचार्यासवनेऽवसन्नवत् अवसन्नः । आव० ५७ । एकान्तः । बृ० प्र० मंगितं । नि० चू० द्वि० १८ । ओसण्ण-चिरायणं अपरिभोगद्वाणं । नि० चू० प्र० १९३अ । ओसन्नं - बाहुल्यम् । प्रज्ञा० ५०३ | बाहुल्येन । भग० ३०८ । अवसन्ना - श्रान्ता | भग० ५०२ । ओयो वा संजमो तंमि सव्णो ओसगो । नि० चू० प्र० २१७अ । ओसद्धो- अपसन्नद्धः । उत्सन्नद्धः । आव० ७१२ । ओसत्तमलदामा | आचा० ४२३ । भोसतो - उत्सक्तः - उपरिसंबद्धः । औप० ५ । ज्ञाता० ४ । ओसधी-वण्णाइफला अंबादिया । नि० चू० द्वि० १५७अ । ओसघीओ । टागा० ८० । ! ओसन्न - उत्सन्न - प्रायेग । विशे०९२६ । अवसन्नः - विवक्षिता नुष्टानालसः, आवश्यकस्वाध्याय प्रत्युपेक्षणाध्यानादीनामसम्यकारीत्यर्थः । ज्ञाता० ११३ | बाहुल्यलक्षणम् । भग० २१ । प्रायः । भग० ३०९ । प्रवृत्तेः प्राचुर्यं बाहुल्यं, बाहुल्ये । २३६ ओसरे ] ११आ । ओसन्नकारणं - बाहुल्यं, बाह्यकारणम् । प्रज्ञा० २२३ । बाहुल्यकारणम् । प्रज्ञा० ५०३ । ओसन्न दोसे - बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णा - मन्यतर ओसन्नदोषः । ठाणा० १८९ । ओसन्नया - पराभवः । उप० मा० गा० ३५० । ओसन्नविहारी - अवसन्नानां विहारो बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्त्तनं अस्यास्तीति अवसन्नविहारी । ज्ञाता० १११ । ओसपिणि-अव सर्पति हीयमानारकतयाऽवसर्पयति वा क्रमेणायुः शरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी । जं० प्र० ८९ । दशकोटी कोट्यः सागरोपमाणां सुषमसुषमाद्यरकक्रमेण अवसर्पिणी । जीवा ३८५ । ओसप्पिणी - अवसर्पन्ति - प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां वा शरीरायुःप्रमाणादिकमपेक्ष्य ह्रासमनुभवन्त्यवश्यमिति अवसर्पिण्यः, दश सागरोपमकोटिकोटी परिमाणाः । उत्त० ६५७ । अवसर्पिणी--अवसर्पति हीयमानारकतया अवसप्र्पयति वाssयुकशरीरादिभावान् हापयतीति, सागरोपमकोटीकोटी दशकप्रमाणः कालविशेषः । ठाणा० २७ । अवसर्पिणी- दशसागरोपम कोटाकोटिमाना । अनु०९९ । कालविशेषः । आव ० १२०, भग० ८८८ । दशसागरोपमकोटी कोट्यः प्रमाणाः । ठाणा० ८६ । ओसमणं - व्यवशमनम् । बृद्वि० ७७अ ओसरह - अपसर्पति । उत्त० ५३ । अपसरति । उत्त० ३०२ । आव० ६४०, ३५९ । ओसरणं - बहूनां साधूनामेकत्रमीलनम् । बृ तृ०२१८आ । समवसरणम् । वृ०प्र०२७०आ। चउ० । व्याख्यानश्रवणादि । बृद्वि ०२५२आ । अवसरणं - साधुसमुदायः । पिण्ड ०९२ । ओसरणा- आर्यिकाणामुपकरणविशेषः । ओघ० २०९ । ओसरिऊण-अपसृत्य । आव० २९२ । ओसरिओ-अपसृतः । आव० ४०५ । ओसरित्ता - अपसृत्य | आव० २१३ । व्युत्सृज्य । आउ० । ओसरे - अवसर्पन्ति । आव० ६१८ | Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ओसवणं अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः ओहबले ओसवणं-प्रशमनम् । नि. चू० प्र० २०७ अ । उत्त. १४२ । उशीरं-वीरणं मूलम् । जं. प्र. ३५ ।। ओसह-औषधः । अन्तरुपयुज्यते । ओघ० १३४ । एका- वीरणीमूलम् । ज्ञाता० २३२ । ङ्गम् । प्रश्न.१५३ । महातितकवृतादि । भग०३२६ । केव. ओसीरपुड-पुष्पजातिविशेषः। ज्ञाता. २३२॥ लहरीतक्यादि, अन्तरुपयोगि वा। पिण्ड०१९। एकद्रव्यरूपम् । ओसीसं-उच्छीर्षम् । आव० ४५३ । विपा० ४१ । ज्ञाता. १८१ । त्रिकटुकादि । ज्ञाता० १३६ । | ओसीसओ-उच्छीर्षकः । आव० ३५४ । आव० ११५ । उत्त० १४२ । हरितक्यादि । ओघ०६८ । ओसीसा-सीसस्स समीवं उवसीसं । नि०८०प्र०२४७अ । एलायचूगंगादि । नि० चू० प्र. ७६अ। बहुद्रव्य समुदायः । । आव० ४१६ । नि०चू०प्र०१४४आ। एकद्रव्याश्रय,त्रिफलादि । औप०१००। ओसोवणि-अवस्वापिनीम् । आव० ३७१ । ओसहग-औषधाङ्गम् । औषध कारणम् । उत्त० १४२। ओस्सट्टो-उत्साहः । नि० चू० प्र० २८४आ । ओसहजुत्ती- ओषधयुक्तिः-औषधादीनां-अगुरुकुंकुमादीनां ओस्सन्नं-बाहुल्येन-अनुपरतत्वेन । भग० ९२६ । सजि काराजिकादीनां च युक्तिः-योजनं समविषमविभाग ओस्लारेह-उत्सारयत-पारयत । उत्त० १७८ । नीतिर्वा । उत्त० ३० । ओहंजलिया-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । प्रज्ञा० ओसहाइ-औषधादि-अगुरुकुंकुमादि सज्जिकाराजिकादि च । उत्त. ३० । ओह-ओघोपधिः-उपधेः प्रथमो भेदः यो नित्यमेव गृह्यते । ओसहि-औषधयः, फलपाकान्ताः.ते च शाल्यादयः । प्रज्ञा. ओघ० २०८ । संक्षेपः । नि. चू० प्र० १७९अ । ओघ:३० । औषधिः-शाल्यादिः । भग. ३०६ । आचा. ३० । ओसहिपत्ता-सर्वरोगापहारित्वात्तपश्चरणप्रभवो लब्धिविशेषः प्रवाहः । जीवा० २०७। सामान्यं, स्वपरपृथग्विभागकरणा भावरूपः । पिण्ड ०७७ । प्रवाहः । उत्त० २४१ । जं०प्र०५३, । प्रश्न. १०५ । ओसही-औषधिः-जयाविजयद्धिवृदयादयः । उत्त० ४९० । ११७। ओघः-सामान्य श्रताभिधानम् । दश०१५ । भवौघः, फलपाकान्ताः । उत्त. ६९२ । औषधी राजधानीनाम । संसार:, अष्टप्रकार कर्म वा । सूत्र. २९ । अविच्छेदः, जं० प्र० ३४७ । औषधिः-फलपाकान्ताः, शाल्यादिः । अवित्रुटितत्वम् । प्रश्न. ८२ । संसारसमुद्रः । सूत्र. १४५। जीवा० २६ । प्रवाहेणाविच्छिन्नम् । प्रश्न. ७४ । सामान्यम् । पिण्ड. भोसहीओ-औषधयः, शाल्यादिकाः । जं० प्र० १६८ । १४७ । सामान्यः । आव. ३३६। प्रवाही। जीवा० २७७॥ सालिमातियाओ । नि० चू० प्र० १९५आ । सामान्यम् । जं. प्र.७ । उस्सग्गो-तत्थ सव्वं कालियसुत्तं . ओसही तिणा-औषधितृणानि-शाल्यादीनि । उत्त० ६९२ । ओयरति तं सव्वं ओहो भण्णति । पेढिया निसीहपेढिया । ओसा-अवश्यायः-जलविशेषः । आव०५७३ । त्रेहः । जीवा. नि० चू० प्र० ९७आ। सुत्ते सुत्ते जं उस्सग्गदरिसणं तं ओहो, २५ । स्थान विशेषः । उत्तर ३७९ । रात्रि जलमू । भग० जो पुण अविसिट्ठा आवत्ती सो ओहो । नि० चूतृ०१४५आ। ६९४ । सामान्यमध्ययनादि नाम । ठाणा० ५। ओघः-प्रत्यक्षोपओसारिय-अवसारित-अवलंबितम् । भग०३१८ । ज्ञाता. लभ्यमानं संसारसमुद्रः । दश० २५६ । संक्षेप्तः । ओघ. २२१ । प्रलम्बीकृता । ज्ञाता० २३९ । ८८ । ओसारेजा-अपसारयेत् -पाटयेत् । अनु. १७६ । ओहजीव-ओघजीवः, भावजीवस्य प्रथमो भेदः । दश०१२। ओसावणि । नि० चू० प्र० ७६अ । ओहटुं-प्रार्थितम् । ओघ० ६७। याचितः । नि० चू० प्र. ओसारेयव्यो-परित्यागः । नि० चू० प्र० ३४२अ । १६५ अ । ओसासिअ-आवश्यकी । बृ० द्वि० २१७आ । | ओहनिप्फण्ण-ओघनिष्पन्नः । निक्षेपभेदः । दश०१५ । ओसित्तं-अवसिक्तं , आर्टीकृतम् । आचा० ३२१ । । अङ्गाध्ययनादिसामान्याभिधानन्यासः । आचा० ३। : ओसीरं-ओशीरं-वीरणीमूलम् । प्रश्न. १६३ । चन्दनम् । | ओहवले-ओघबलः । अव्यवच्छिन्न बलः । औप० ७८ । 2010_05 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ओहय आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ओहावणं] ओहय-उपहतः-विनाशितः। जं०प्र०२७७ । राज्यापहारा- | ओहाडियं-स्थगितम् । आव० ८८८ ।स्फेरितम् आष०२०५॥ दुपहताः। ठाणा० ४६३ । विनाशनेनोपहताः । ज्ञाता. ओहाडिया-उड्डायिता । आव. ५१४ । अपस्फेटिता। आर. ३६८। ओहयमणसंकप्प-उपहतः-ध्वस्तो मनसः संकल्पो-दर्पहर्षा- ओहाडेइ-आच्छादयति । आव. ३७० । दिप्रभवो विकल्पो यस्य सः। भग० १८० । ज्ञाता. २९।। ओहाडेति । दश. चू० ८८ । उपहतमनःसङ्कल्पः । आव ६८२ ।। ओहाण-उवयोगो। नि००वि०५८आ। विहारो, धावणेण ओहयहय-उपहतहतः । आव० ६५० । लिंगो धावणेण वा। नि० चु० तृ० ३५ अ । अवधानम्-अपओहरति-उपहरति-विनाशयति । ज्ञाता. १९२ । सरणम् । दश० २७१ । अवधावमानाः । ओघ० ६१ । ओहरिए-विनाशयति । ज्ञाता० १९० । अवधावनम् । ठाणा० २११ । ओहरितभारो-उत्तारितभारः । ओघ० २२७ । ओहाणपेही-छिई अलभमाणो रातो समाहिपरिट्ठवणलक्ष्ण भोहरिय-अग्निकायोपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहारभा- ओहावेज्जा । नि० चू० प्र० १९४अ । जनमपवृत्त्य । आचा० ३४५ । तिरश्चीनो भूत्वा । ओहाणुप्पेही-अवधावनानुप्रेक्षी । दश० ९४ । आचा० ३४४ । पावतो मुक्तः । उप०मा गा० ४९९ । ओहातेजा-उपहन्यात् । ठाणा० ३२८ । ओहसंभोग-ओघसंभोगः, उपध्यादिद्वादशप्रकारः । व्य० ओहामिए-अपभ्राजितः । आव. ६६५ । द्वि.. ११९आ। ओहामिओ-अपभ्राजितः, हीलितः । आव० ६९४ । अपओहसण्णा-मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्यर्थगोचरा भ्राजितः, तिरस्कृतः । ओघ० ५३ । सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्योधसंज्ञा । ठाणा० ५.५। ओहामिज्जइ-अवधाव्यते। आव. २९५ । मोहसन्ना-ओघसम्ज्ञा-मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनाच्छब्दा- ओहार-अधो जले नाबो नेता मत्स्यविशेषः । बृ०तृ०१६१॥ द्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया, दर्शनोपयोग इति, सामान्य- जलजन्तुविशेषः । प्रश्न० ५१ । कच्छपः । पिण्ड. १०२। प्रवृत्तिर्यथा वाल्ल्या वृत्त्यारोहणं वा। प्रज्ञा० २२२ । मति- मच्छो । नि• चू० द्वि० ७८आ । ज्ञानावरणक्षयोपशमाच्छन्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियेव | ओहारयित्ता-अवधारयिता-शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्यैसज्ञायते वस्त्वनयेति ओघसज्ञा। दर्शनोपयोगः। सामान्य | वमेवायमित्येवं वक्ता, अवहारयिता-परगुणानामपहारकारी। प्रवृत्तिरोधसञ्ज्ञा । भग० ३१४ । सम० ३८ । ओहसामायारी-ओघसामाचारी-सामान्येन संक्षेपतः साधु- ओहारसंखड । नि० चू० द्वि० १०७ अ । समाचाराभिधानरूपा । विशे० ८४२ । ओहारिणी-अवधारणी-अवधारणात्मिका । उत्त० ५६ । भोहसियं-अवघर्षणमवघषितं भूत्यादिना निमजनम् । अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेति अवधारणी-अवबोधबीजजीवा० २१३ । भूता । प्रज्ञा. २४६-२४७ । संकिया । दश० चू० १४० । ओहस्सरा-ओघस्वरा-चमरेन्द्रस्य घण्टा । जं० प्र०४०७ । अवधारणी-अवबोधबीजभूता । भग० १४२ । ओघेन-प्रवाहेण खरो यासां ता ओघस्वरा । जीवा० २०॥ ओहारितं-अवहृतं-गृहीतम् । आव० ८५९ । ओहा-अपभ्राजना । बृ० प्र० ९९आ । ओहारेमाणीओ-वीजयन्यः । जीवा० २३३ । ओहाइया-उद्धाविताः । आव० ६६ । ओहावंत-अवधावन्ते, अवसर्पन्ति । ओघ० ६२ । ओहाडणी-अवघाटिनी-आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमान- ओहावा-अवधावति । उत्त० १३३ । महाप्रमाणकिलिञ्चस्थानीया । जीवा० १८० । ज०प्र० २३ । ओहावणं-अपभ्राजनं, अपमान, निन्दा वा। पिण्ड ० १४०। ओहाडिअ-अवाटितः-आच्छादितः । जं० प्र० ७३ ।। अवधावनं-पार्श्वस्थादिविहाराश्रयणम । बृद्वि० १६३आ । मोहाडिभो-आधाटीः । आव०२०५ । निष्काशितः । आव० / लिंगविवेकबुद्ध्या गमनम् । व्य०प्र०२४९अा अपभ्राजना लाञ्छना । आव०५३७ । अपभ्राजना । आव०३१९,६६५। २३८. 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [ ओहावि अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः औलूक्यं ] मलना । ओघ० ९३ । गृहस्थीभवनम् । बृ०तृ०१४४अ । ओहियं-औधिकम् । ओघ० २१७, १९९ । औधिकम्-निर्विअपभ्राजना । उत्त०१९२ । परिभवः। ओघ०१८ । हीलना। शेषणं नरकम् । भग० ४५ । ओघ० ७४ । ओहियमत्तगं-प्रश्रवणमात्रकम् । नि००त. १३२आ । ओहाविध-अवधावितः-अपसृतः । दश० २४७ । ओहिया-औषिकी-तिर्यस्त्री । जीवा० ५९ । ओहाविउकामो-अवधावितकामः। उन्निष्क्रमितकामः। उत्त० | ओही-अवधिः-प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिंशत्तमं पदम् । प्रज्ञा.६ । अव-अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति अवधिःओहावेज्जा -अवधावेत् । व्य. प्र. १६६आ । मर्यादा वा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा ओहासणं-समयपरिभाषया विशिष्टद्रव्ययाचनम् । आव. तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। प्रज्ञा० ५२७ ।। ५७६। ओहासणभिक्खा -ओहासणभिक्षा-विशिष्टद्रव्ययाचनं स- ओहीपदं-प्रज्ञापनायाः त्रयत्रिंशत्तमं पदम् । भग० ७१९ । मयपरिभाषया ओहासणं तत्प्रधाना या भिक्षा। आव०५७६ । | ओहीरमाणी-प्रचलायमाना । भग० ५४० । वारंवारं ओहासि-ओभासिअ-पाथितः । ओघ०७० सूत्र. ३८६ ईषन्निद्रां गच्छन्तीत्यर्थः । ज्ञाता. १५। भोहिंजलिया-चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ । ओहुए-अवधुत उल्लंघितः । बृ.द्वि. ६१ अ । ओहि-अवधिः-अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन्वेति।ठाणा०३४७ । | -ओघमरणं सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मरूपिमर्यादा, करणनिरपेक्षो बोधरूपः । ठाणा. ४४८ ।। कम् । उत्त. ३२० । अवधीयतेऽनेनेति, अवधीयत इति, अधोऽधोविस्तृत परि. | ओहेणं-ओघेणं-संक्षेपेण । ओघ० ८८ । च्छिद्यते मर्यादया वेति, अवधीयतेऽस्माद् अस्मिन् वा, ओहोवधी-ओहः-संक्षेपः, स्तोकः, लिङ्गकारकः, अवश्यअवधानं वा विषयपरिच्छेदनम्। आव०८ । मध्ये । ओघ०२०८।। ग्राह्यः । उपधेर्मेंदः । नि० चू० प्र० १७९ अ।। अधोऽधो विस्तृतविषयवेदकम् । परिच्छेदः । मर्यादा। उत्त. ओहोवही-ओघोपधिः-उपधेर्भेदः। उत्त० ५३७ । ओघोपधिः ५५७ । अव-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽने- नित्यमेव यो गृह्यते ओघोपधिः । ओघ० २.८ । नेत्यवधिः. अथवा अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेद- औदारिक-चह्निकम् । ओघ ९० । उपादानात्प्रभृति अनु. कतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, यद्वा अवधानं समयमुद्गच्छति वर्धते जीर्यते शीर्यते । तत्त्वा० २-४९ । -आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः ।नंदी६५। अवधिः- औदारिकबन्धनं-यदुदयवशाद् औदारिकपुद्गलानां गृहीअवशब्दोऽधःशब्दार्थः, ततश्चाध इत्यधस्ताद्धावति अधोऽधो तानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैश्च सह विस्तृतविषयवेदकतयेत्यवधिः, औणादिको डिः, यद्वा 'अवे' सम्बन्ध उपजायते तत् । प्रज्ञा० ४७० । त्यध एव धानं धातूनामनेकार्थत्वात् परिच्छेदोऽवधिः, 'उप- औदारिकसङ्घातनाम-यदुदयवशादौदारिकशरीररचनाऽनुसर्ग घोः किरिति (पा. ३-३-८२) किः, अथवाऽवधिः- कारिसघातरूपा जायते तत् । प्रज्ञा० ४७० । मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरित्येवंरूपा औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम-यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन पतदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः । तृतीयं ज्ञानम् । उत्त०५५७। रिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तत्। औधिकः-विशेषगरहितः । प्रज्ञा० ३४२ । प्रज्ञा० ४७० । औदार्य-दाक्षिण्यम् । ज० प्र० १८४ । ओहिदंसणं-अवधिदर्शनं अवधिरेव दर्शनं-रूपिसामान्यग्रह पग्रह औदेशिक-शबलस्य षष्टो भेदः । प्रश्न० १४४ । आधाकर्म । णम् । जीवा० १८। ओहिमरणं-अवधिमरण-सप्तदशमरणभेदे द्वितीयः । उत्त०२३०॥ त्र. १९१। पञ्चविधमरणे द्वितीयः। भग० ६२४ । अवधिः-मर्यादा तेन औदभूतिकी-द्वितीयभेरीनाम । विशे० ६१९ । मरणं अवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयः | औपसर्गिकं-पदस्य तृतीयो भेदः । आव०३७९ । परीति कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति | औपसर्गिकम् । अनु० ११३ । तदा तत् । सम० ३३ । । औलूक्यं-मतविशेषः । उत्त० ३३० इति प्रथमो विभागः समाप्तः । २३९ 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमवाचनादात - बहुश्रुत-युगप्रधानसदृश - देवसूरतपागच्छ सामाचारी संरक्षणकटिबद्ध-श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाईजैनपुस्तकोद्धारश्रीजैनानन्दपुस्तकालयाद्यनेकसंस्थासंस्थापक अनेकग्रन्थप्रणेतृ - श्रीवर्धमानजैनागममंदिर(सिद्धक्षेत्र )श्रीवर्धमानजैनताम्रपत्रागममंदिर(सूर्यपुर )संस्थापक-आगमोद्वारक-ध्यानस्थस्वर्गत AAR आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरसङ्कलितः TERRESTERIFTTTTTTTTTTTTTE श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः (समस्तस्वरस्वरूपः प्रथमो विभागः) श्रेष्ठि- देवचन्दलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १०१ ॥ 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 आ मकान शेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फडनी कायमी रकमथी खरीदवामां आवेलुं छे. रु-१,१०,०००. एक लाख दश हजार, रोग देवचंद गलभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड मिल्कत 0 सुरज D आ गमो पार कनन -XXX -★★★ कालबादेवी नं १६६ आ मकान छे. तेमां भोयतकीए शयाजी विजय बोशिंग कु. पहेले माळे एल. काशिनाथ बैंकर बीजे माळे- जादवी प्रेमजी गांधी ना बोर्डो छे, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્રંથાંક ન ૧૦૧ અલ્પ પરિચિત સિદ્ધાન્તિકશબ્દકોષ ( -૦-૦ ૧૦૨ ૨-૦-૦ (વિભાગ પહેલા સંપૂર્ણ સ્વર ) પ્રેરક-આચાય આણંદસાગરસૂરિજી શ્રાવક ધમ પંચાશકચૂણી ૧૦૩ દશવૈકાલિક લઘુત સુમતિસાર ૩-૦-૦ ૮૫ આવશ્યકસૂત્ર મલગિરિ ત્રીજો ભાગ ૮૬ લોકપ્રકાશ મૂલ ચેાથે વિભાગ પ્રત ૮૭ ભરતેશ્વર બાહુબલિ વૃત્તિ દ્વિતીય વિભાગ સંપૂર્ણ ૨-૮-૦ ૧-૦-૦ ૨૮ પ્રશમરતિપ્રકરણ બૃહદ્ગચ્છીય શેઠ દેવચંદ લાલભાઇ જૈન પુસ્તકાહાર ફંડના હાલમાં મળતા નવીન ગ્રંથા. ૮૯ અધ્યાત્મકલ્પદ્રુમ રત્નચંદ્રગણિ શ્રી હરીભદ્રસૂરિ-કૃત વિવરણુ સમેત ૧-૪-૦ વનવિજયગણિ કૃત ટીકા યુક્ત ૯૦ ગૌતમીય કાવ્ય રૂપચ દ્રષ્ણિકૃત સટીક વૈરાગ્યશતકાદિ ગ્રંથપંચકર્ ૯૨ અભિધાનચિંતામણી કાશ ૯૧ ૫૪ ગ્રંથાંક ન ૪૫ ભક્તામર સ્તેાત્ર પાદપૂર્તિરૂપ કાવ્ય પ્રથમવિભાગ ટીકા ભાષાંતર ४७ પ'ચસંગ્રહ ટીકા સહ ૫૦ જીવસમાસ પ્રકરણશતક ૧૧ સ્તુતિ ચતુર્વિશતકા સચિત્ર શાખ ુતિકૃત સ ંસ્કૃત પર સ્તુતિ ચતુર્થાંવંતિકા સચિત્ર કવિ ધનપાલકૃત અદ્રસ્તુતિ ૫૩ સ્તુતિ શતકા ચિત્ર બપ્પભટ્ટીસુરિષ્કૃત ભાષાંતર યુક્ત ભકતામર સ્તેાત્ર પાદપૂર્તિરૂપ કાવ્ય ખીજે વિભાગ ટીકા ભાષાંતર 2010_05 -૦-૦ 3-0-0 ૧-૮-૦ ૧-૦-૦ ૪-૦-૦ 2-0-0 ૬-૦-૦ 8-0-0 ગ્રંથાંક ન ૯૩ જૈન કુમારસ ભવ ૯૪ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન બૃહત્યįણી નવપાદ અવર્ણકાર શ્રીમદ્ અમરચંદ્ર ૫-૦૦ ૯૫ વીતરાગસ્તાત્ર અવચૂણી વિવરણ અને ભાષાંતર સમેત ૩-૮-૦ ૯૮૫ ચપ્રતિક્રમણ વિધિ સહિત ૯૯- શ્રમણુત્રાદિ અવચર વંદન પ્રતિક્રમણ અવર ૧૦૦ ૧૦૪ ઉત્તરાધ્યયન અવર ૧૦૫ પિડનિયુક્તિ અવચૂરી શ્રાદ્ધવિધિ ૧૦૬ ૧૦૭ અવસૂરી ૧૦૯ સૂયગડાંગ દીપીકા ૧૧૦ જબુદ્વિપ ચૂણી ૧૧૧ ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તી ૬૧ લોકપ્રકાશ દ્વિતીય વિભાગ, ક્ષેત્રલોક સ ૧૨ થી ૨૦ ૨-૮-૦ આગમાય સમિતિ પ્રકાશિત ગ્રંથાંક ન ૫૫ નોંદ્યાદિ ગાથાલંકારાદિ યુàા ( સપ્તસ્ત્ર ) વિષયાનુક્રમ ૨-૦-૦ ૫૬ આવશ્યક મલયગિરિષ્કૃત ટીકા યુક્ત પૂર્વભાગ ૪-૦-૦ ૧૮-૦ ૫૭ લેકપ્રકાશ પ્રથમવભાગ, દ્રવ્યલોક ૧ થી ૧૧ ભાષાંતર ૩-૦-૦ ૨-૮-૦ ૩-૨૦ ૫૯ ચતુર્વિં શતિકા જિનાનંદ સ્તુતિ મેરૂવિજય ત ભાષાંતર સમેત૬-૦-૦ હું ત આવશ્યક મલયગિરિતત્કૃત ટીકા યુક્ત બીજો ભાગ ૨-૮-૦ ૧-૮-૦ ૧-૪-૦ ૧-૦ ૧-૮-૦ પ્રેસમાં RRRRRR 35 "" "" ૩-૮-૦ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05