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योगशास्त्र:प्रथम प्रकाश
बड़े-बड़े अपराधों की लता के समान सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पहुंचा। कहावत है-'एक सरीखी आदत और प्रकृति वाले व्यक्तियों में जल्दी ही मित्रता हो जाती है।' इसी न्याय के अनुसार वहां के चोरों के साथ उसकी झटपट मित्रता हो गई। इस कारण जैसे हवा के सम्पर्क से आग बढती जाती है। वैसे ही उन चोरों के सहवास से उसके अपराध बढ़ते ही गये। कुछ दिनों के बाद सिंहगुफा का स्वामी चोरसेनापति मर गया । उसके रिक्त स्थान की पूर्ति के लिये ही मानो इसे तैयार किया गया हो, इस दृष्टि से चिलातीपुत्र को चोरों का सेनापति बना दिया गया ।
इधर रूप, लावण्य आदि गुणों से सुशोभित हो कर सुषमा यौवन के सिंहद्वार पर पहुंच गई थी। वह सुसज्जित होने पर ऐसी मालुम होती थी, मानो पृथ्वी की देवी हो। अनेक कलाओं में भी वह निपुण हो गई थी। नये चोर-सेनापति चिलातीपुत्र ने जब यह जाना कि सुषमा मुझे चाहती है, तब उसने अपने सेवकों से कहा-"चलो, हम सब राजगृह चलें। वहाँ धन्यसार्थपति बहुत ही धनाढ्य व्यक्ति है। उसके यहां पर छापा मार कर जितना धन लूटा जा सके उसे लूट कर आप सब लोग बांट लेना। और मैं उसकी सुषमा नामक कन्या को ले लूगा।" इस प्रकार आपस में समझौता करके चिलातीपुत्र चोर साथियों के साथ उसी रात को धन्य सार्थपति के यहां पहुंचा। उसने वहां अवस्वापिनी-विद्या का प्रयोग करके घर के सभी लोगों को निद्राधीन कर दिया । अपने आने की घोषणा करके उसने चोरो से प्रचुरमात्रा में धन-ग्रहण करवाया और सुषमा को स्वयं ने पकड़ लिया। पांचों पुत्रों सहित धन्यसार्थपति का सारा परिवार जब सोया हया था । अतः कुछ देर तक वह वहीं एक कोने में दुबक कर खडा रहा। फिर 'इसके लिए यही न्याययुक्त है', यों कहता हा जी-जान से सषमा को लिए हए चल पड़ा। उसके साथी चोर चराये हए घन को ले कर चिलातीपूत्र के साथ नौ-दो-ग्यारह हो गये । सार्थपति धन्य जागा तो उसे सारी स्थिति समझते देर न लगी। उसे इस बात का बहुत ही रंज हुआ कि चिलातीपुत्र, जो उसके घर में रहने वाली दासी का ही पुत्र था, उसकी लड़की और सम्पत्ति दोनों को ले कर भाग गया । उसने फौरन ही कोतवाल आदि नगररक्षक पुरुषों को बुला कर कहा कि 'चोरों द्वारा लूटे हुए धन और सुषमा का पता लगाओ और उन्हें वापिस ले आओ !' तत्पश्चात् कोतवाल तथा कुछ रक्षकपुरुपों को साथ ले कर धन्यसार्थपति स्वयं अपने पुत्रों के साथ हथियारों से लैस हो कर चोरों का पीछा करने के लिए मनोवेग को तरह पुर्ती से दौड़ा । जैसे धतूरा पीने वाले को नशा चढ़ जाने से जल, स्थल, लता, वृक्ष या रास्ते में पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु में सर्वत्र पीले रंग के सोने का आभास होता है, वैसे ही धन्यसार्यपति को भी सर्वत्र सुषमा ही मुपमा नजर आती थी। उसी की धुन में वह बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में जहाँ-जहाँ उन्हें पैरों के या और कोई चिह्न मिलते, वहाँ वे बोल उठते --- 'देखो ! यहाँ उन्होंने पानी पीया है ; यहाँ भोजन किया है; यहाँ वे बैठे हैं। यहां से वे गुजरे हैं।' यों बात करते करते लम्बे-लम्बे कदम रखने हुए चोरों के पैरों का पता लगाते हुए उनका पीछा करते हुए वे सब उनके पास पहुंच गये । चोरों को देखते ही राजपुरुषों ने कहा-"पकड़ो-पकड़ो! मारो इन्हें ! कहीं ये भाग न जायें !' यह आवाज सुन कर चोर गिरफ्तारी के भय से धनमाल सब वहीं छोड़ कर जान बचा कर अलग-अलग दिशाओं में भागे । परन्तु सिंह जैसे पकड़ी हुई हिरनी को नहीं छोड़ता, वैसे ही चिलातीपुत्र ने सुषमा को नहीं छोड़ा । कोतवाल वगैरह राज्याधिकारी रिश्वत के रूप में बहुत-सा धन मिल जाने पर वापिस लौट गए । सच है-'स्वार्थ सिड होने पर समीकी बुद्धि बिगड़ जाती है।' हाथी जैसे लता को उठा ले जाता है; वैसे ही चिलातीपुत्र सुपमा को अपने कन्धे पर उठाए भागता हुआ एक महाभयंकर जंगल में जा पहुंचा । धन्यसार्थपति के लिए चोर के हाथ से पुत्री को छुड़ाना उतना ही कठिन कार्य था, जितना