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स्थूलभद्र मुनि का कोशावेश्या के यहाँ सफल चातुर्मास
४०७ सोचा- 'स्वभाव से ही सुकुमारतन, केले के स्तम्भ के समान जंघा से महावतभार उठाने में असमर्थ, मुनिश्री मेरे यहाँ पधारे हैं । अतः तुरन्त ही कोशा ने कहा -'स्वामिन् ! स्वागत है आपका ! पधारिये और मुझे अब आज्ञा दीजिए कि मैं क्या करू ? यह तन, मन, धन, परिवार सब आपका ही है। स्थूलभद्र मुनि ने कहा -- 'भद्रे ! मुझे चातुर्भाग में निवास के लिए अपनी चित्रशाला दो।' उत्तर में कोशा ने कहा--"स्वामिन् ! आप सहर्ष ग्रहण कीजिए मे ।" और उमने अपनी चित्रशाला झाड़-पोंछ कर उनके रहने के लिए तैयार कर दी । अतः मुनि स्थलभद्र ने अपनी आत्मबलवत्ता से धर्म के समान कामस्थलीरूपी उस चित्रशाला में प्रवेश किया। इसके बाद प्रतिदिन वह पटरसयुक्त आहार देती । तदनन्तर जबतब मनि को अपने वन से विचलित करने लिए मोलह शृंगार से मजधज कर वह मुनि के सामने बैठती ; उस समय वह ऐसी लगती थी, मानो उत्कृष्ट अप्मरा हो। इस तरह मुनि को आकृष्ट करने के लिए वह बार-बार कुशलतापूर्वक नृत्य, गीत, हावभाव, कटाक्ष आदि करने लगी। करण, आसन पूर्वोपभुक्त शृंगार-कोड़ा, प्रबल सुरत-क्रीड़ा आदि का भी बार-बार स्मरण कराने लगी। मतलब यह है कि महामुनि को विचलित करने के लिये एक से एक बढ़ कर, जितने भी कामोत्तेजक उपाय हो सकते थे, कोशा ने वे सभी आजमाए। लेकिन वे सभी उपाय वज्र पर नख से विलेखन के समान निष्फल हए । इस तरह प्रतिदिन मुनि को विक्षुब्ध करने के लिए वह प्रयत्न करती थी। परन्तु वे जग भी विचलित न हुए। बल्कि महामुनि पर उपसर्ग प्रहार करने वाली कोशा ने ज्यों-ज्यों अनुकूल उपसर्ग किये, त्यों-त्यों महामुनि की ध्यानाग्नि अधिकाधिक प्रज्ज्वलित होने लगी ; जैसे मेघजल से बिजली विशेष प्रदीप्त हो उठनी है।
कोशा वेश्या हार गई । उसने अपनी मल म्घीकार की, और नतमस्तक हो कर कहने लगी"स्वामिन् ! मैं अपनी नासमझी के कारण पहले की तरह आपके साथ कामकीड़ा की अपेक्षा रखती थी; लेकिन आप तो चट्टान की तरह अडोल रहे । धिक्कार है मुझे !" इस प्रकार पश्चात्ताप करती हुई वह मुनि के चरणों में झुक गई। मुनि के इन्द्रिय-विजय की पराकाष्ठा से प्रभावित हो कर कोशा ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और इस प्रकार का अभिग्रह किया कि-'यदि कदाचित् प्रसन्न हो कर राजा चाहे और उसे यह तन अर्पण करना पड़े तो उस एक पुरुष को छाड़ कर अन्य सभी पुरुषों का मैं त्याग करती हैं।' इस तरह स्थूलभद्रमुनि ने सुखपूर्वक चौमासा पूर्ण किया।
नीनों मुनि अपने-अपने अभिग्रह के अनुसार चौमासा पूर्ण करके क्रमश. गुरु-चरणों में पहुंचे। सिंहगुफावासी साधु आया, तब गुरु ने कुछ खड़ हो कर उसे कहा-'दुष्करकारक, वत्स ! तुम्हारा स्वागत करता हूं।' इसी तरह और दो साधु भी आए उनका भी गुरुमहाराज ने दुष्करकारक कह कर स्वागत किया। एकसरीखी प्रतिज्ञा करने वाले को स्वामी भी ममान सत्कार देते हैं। इसके बाद पूर्ण-प्रतिज्ञ स्थूलभद्र भी गुरुदेव की सेवा में आए ; तव गुरुमहाराज ने बड़े हो कर कहा--'दुष्करदुष्करकारक ! महात्मन् तुम्हारा स्वागत करता हूं।" यह सुन कर पहले आया हुआ एक मुनि ईर्ष्या से जल भुन गया। वह मन ही मन सोचने लगा। 'गुरुजी ने मंत्रीपुत्र होने के कारण स्थूलभद्र मुनि का पक्ष लिया है और उत्तम शब्दों से सम्बोधित किया है। यदि षट्रसभोजन करने वाले का कार्य दुष्करदुष्कर है तो मैं भी अगले वर्ष वैसी ही प्रतिज्ञा करूगा।' इस प्रकार मन में निश्चित कर लिया। आठ महीने संयम की आराधना करते हुए उक्त मुनि ने पूर्ण किये । वर्षाकाल आते ही कर्जदार के समान सिंहगुफावासी साधु हर्षित हो कर गुरुमहाराज के पास पहुंचा और उनके सामने अपनी प्रतिज्ञा दोहराई। 'भगवन ! इस वर्ष में कोशा-वेश्या के यहां रह कर सदा षट्रसयुक्त भोजन करते हुए चौमासा बिताअंगा। गुरुदेव ने ज्ञान में उपयोग लगा कर देखा और विचार किया कि केवल स्थूलभद्र के प्रति ईष्य