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श्रावक के ६ मनोरयों का वर्णन
४१६ __ अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप जैनधर्म से रहित (वंचित) हो कर मैं चक्रवर्ती बनना भी नहीं चाहता; क्योंकि धर्म के बिना वह पद नरक में ले जाता है । किन्तु जैनधर्म से सुसंस्कृत परिवार में दरिद्र या दास होना मुझे स्वीकार है, क्योंकि वहां धर्मप्राप्ति सुलभ है।
त्यक्तसंगो जीर्णवासा, मलक्लिन्नकलेवरः ।
भजन् माधुकरी वृत्ति मुनिचर्या कदा श्रये १४१॥ अर्थ - मेरे लिए कब वह मंगलमय शुभ दिन आएगा, जब मैं सभी परपदार्थों के के प्रति आसक्त का त्यागी, जीर्णशीर्ण वस्त्रधारी हो कर मालन-शरीर को परवाह न करते हुए माधुकरो (भिक्षावृत्ति) का आश्रय ले कर मुनिचर्या का ग्रहण करूंगा?
व्याख्या-माधुकरी वृनि का तात्पर्य यह है कि जैसे भौग दूसरों के द्वाग बोए हुए पौधों के फलो से थोड़ा-थोडा रस ले कर पान ग्ना है बल्कि फलों को ननिक भी पीड़ा नही पहुंचाते हुए वह अपनी आत्मा को तृप्त न र लेता है ; वैसे ही भिक्ष भी गृहस्थो के द्वारा अपने लिए तैयार किये हुए आहार म म थोडा-पोडा आहार किमी को पीड़ा पहुंचा बिना डम प्रकार की दानपणा और भक्तषणापूर्वक ग्रहण करके अपनी तृप्ति करते है। इम जगन् म बाह्य और आभ्यन्त र परिग्रह से मुक्त हो, उमे श्रमण कहते है। जिम नरह भौग स्वाभाविक रूप से तैयार हुए पुष्पों से पराग लेता है उसी तरह माधु भी स्वत: स्वाभाविक रूप मे निष्पन्न हए आहार से शरीर और मंयमयात्रा चलाने के लिए थोडा-मा आहार लेना है। भौर की उपमा दे कर बताया है कि मुनि द्वारा गृहीत भिक्षा से दूसरे जीवों को जग भी भाघान न पहुंचे ; मी का नाम माधुकरीवृत्ति है। निष्कर्ष यह है कि श्रावक ऐसा मनोरथ करे कि कब मैं माधुकरीवृत्ति में जी कर मूलगुण और उनग्गुणयुक्त मुनिचर्या का सेवन करूंगा? तथा -
त्यजन दुःशोलसंसर्ग गुरुपादरजः स्पृशन् ।
कदाऽहं योगमभ्यस्यन् प्रभवेयं भवच्छिदे ! १४२॥ अर्थ व्यभिचारियों, भांडों, भवयों, वेश्याओं आदि लौकिक दुःशीलाचारियों तथा पासस्थ, ओसन्न, कुशील, संसक्त, यथाच्छन्दक (स्वच्छन्दाचारी); इनलोकोत्तर दुःशोलाचारियों को संगति करना दुःशीलसंसर्ग कहलाता है। उनका त्याग करके गुरुमहाराज के चरणरज का स्पर्श करता हुआ ज्ञानदर्शनचारित्ररूप तीनों योगों का बार-बार अभ्यास करके भवजन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने में कब समर्थ बनूगा ?
महानिशायां प्रकृते कायोत्सर्गे पुराद बहिः ।
स्तम्भवत् स्कन्धकर्षणं, वृषाः कुर्युः कदा मयि ? १४३॥ अर्थ कब मैं महाघोर रात्रि के समय नगर के बाहर प्रकृति के रम्यप्रदेश में कायोत्सर्गलीन बनूगा और कब बैल मुझे खंभा समझ कर अपना कंधा घिसेंगे?
भावार्थ-प्रतिमाधारण करने वाला श्रावक नगर के बाहर एकाग्रता मे कायोत्मर्ग करे, तब बैल उमके शरीर को खंभे की भ्राति मे अपना कंधा या गर्दन घिमें; यह वान माध होने की अभिलाषा