________________
योगशास्त्र : अष्टम प्रकाश
५७२
उसके बाद वह 'ह' अक्षर मानो अनक्षर बन गया हो, इस रूप में मुझ से उच्चारण किये बिना ही चिन्तन करे । उसके बाद-
निशाकर - कलाकारं, सूक्ष्मं भास्करभास्वरम् ।
अनाहताभिधं देवं, विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् ॥ २५॥
अर्थ- दूज के चन्द्रमा की कला के आकारसदृश सूक्ष्म एवं सूर्य के समान देदीप्यमान अनाहत नामक देव को अनुच्चार्य मान कर अनक्षर की आकृति को प्राप्त उस स्फुरायमान ह वर्ण का चिन्तन करना चाहिए।
तदेवं च क्रमात् सूक्ष्मं ध्यायेद् बालाप्रसन्निभम् । क्षणमव्यक्तमीक्षेत, जगज्ज्योतिर्मयं ततः ॥२६॥
अर्थ - उसके बाद उसी अनाहत 'ह का बाल के अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप में चिन्तन करे, फिर थोड़ी देर तक जगत को अव्यक्त, निराकार और ज्योतिर्मय स्वरूप में देखे । वह इस प्रकार
प्रच्याव्यमानसंलक्ष्याद् अलक्ष्ये दधतः स्थिरम् ।
ज्योतिरक्षयमत्यक्षम्, अन्तरुन्मीलति क्रमात् ॥२७॥
अर्थ- फिर लक्ष्य से मन को धीरे-धीरे हटा कर अलक्ष्य में स्थिर करने पर अन्दर एक ऐसी ज्योति उत्पन्न होती है, जो अक्षय और इन्द्रियों से अगोचर होती है ; वह क्रमशः अंतर को खोल देती है ।
इस विषय का उपसंहार करते हैं
इति लक्ष्यं समालम्ब्य लक्ष्याभावः प्रकाशितः ।
निषण्णमनसस्तत्र, सिध्यत्यभिमतं मुनेः ॥ २८ ॥
अर्थ- इस प्रकार लक्ष्य का आलम्बन ले कर निरालम्ब-स्वरूप लक्ष्याभाव को प्रकाशित किया है । अलक्ष्य में मन को स्थापित करने वाले मुनि का मनोवांछित फल सिद्ध हो जाता है ।
भावार्थ - इस तरह अनाहत-अव्यक्त मंत्रराज कहा है। पूर्वोक्त विधि के अनुसार लक्ष्य का आलम्बन ग्रहण करके उसमें आगे बढ़ते हुए क्रमशः आलम्बन का त्याग कर निरालंबन स्थिति में निश्चल होना चाहिए । इससे आत्मस्वरूप प्रकट होता है । इमलिए प्रथम सालंबन ध्यान और बाद में निरालंबन ध्यान करना चाहिए ।
अब दूसरे उपाय से परमेष्ठि-वाचक मन्त्रमयी देवता की ध्यान-विधि को दो श्लोकों द्वारा
बताते हैं
तथा टुत्पद्ममध्यस्थं, शब्दब्रह्मेककारणम् । स्वरव्यञ्जनसंवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ॥ २६॥ मूर्धसंस्थित- शीतांशु-कलामृतरसप्लुतम् । कुम्भकेन महामन्त्रं, प्रणवं परिचिन्तयेत् ||३०||