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योगशास्त्र: द्वादशम प्रकाश
अर्ष-'यह वह परमात्मतत्त्व है' यों तो साक्षात गुरु भी कहने में समर्थ नहीं है । उदासीनभाव में तल्लीन बने हुए योगी को वह परमात्मतत्व स्-यमेव . काशित होता है।
उदासीनता में रहने पर काया परमतत्त्व में तन्मय हो जाता है और उसमे उन्मनीभाव प्रकट हो जाता है। यह बात चार श्लोकों द्वारा स्पष्ट करते है
एकान्तेऽतिपविने रम्ये देशे सदा सुखासोनः । आचरणाग्रशिखाग्रतः शिथिलीभूताखिलावयवः ॥२२॥ रूपं कान्तं पश्यन्नपि, शृण्वन्नपि गिर कलमनोज्ञाम् । जिघ्रन्नपि च सुगन्धीन्यपि, भुजानो रसान् स्वादून् ॥२२॥ भावान् स्पृशन्नपि मदनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम् । परिकलितोदासीन्यः, प्रणष्टविषयभ्रमो नित्यम् ॥२४॥ बहिरन्तश्च समन्तात्, चिन्ता-चेष्टापरिच्युतो योगी।
तन्मयभाव प्राप्तः कलयति भृश उन्मनोभावम् । २५ । अर्थ-अतिपवित्र, एकान्त और रमणीय स्थल में सदा पर के अगूठ रोल कर चोटी के अग्रभागपर्यन्त समस्त अवयवों को शिथिल करके लम्बे समय तक बल सके, ऐसे ध्यान के अनुरूप किसी भी सुखासन से बंठे। ऐसी दशा में मनोहर रूप को देखता हुआ भो, मधुर मनोज वाणी को सुनता हुआ भी, सुगन्धित पदार्थों की सू घता हुआ भी, स्वादिष्ट रस का मास्वाद . करताहमा भी, कोमल पदार्थों का स्पश करता हुआ भी, और मन को वृत्ति न रोकता हआ भी उदासीनता (.िममत्वभाव, से युक्त, नत्य विषयासाक्त-हत तथा बाह्य और आन्तरिक समस्त चिन्ताओं एवं चष्टाओं से रहित यांगो तायभाव बन कर .त्यन्त उन्मनोभाव को प्राप्त करता है। अब इन्द्रियों को नही शंकने का प्रयोजन बताते है
गृह्णन्ति ग्राह्याणि स्वानि स्वानीन्द्रियाणि नो रुध्यात् ।
न खलु प्रवतंयेद् वा, प्रकाश्ते तत्त्वमचिरेण ॥२६॥ अर्थ- इन्द्रियों अपने-अपने ग्राह्य विषयों को ग्रहण करता है। उन्हें न तो रोके और न उ.हे विषय में प्रवृत्त करे। ऐसा करने से अकाल में हो तत्त्वज्ञान प्रकाशित हो जाता है।
___ हमने वीतरागस्तोत्र में कहा है-- 'प्रभो ! आपने इन्द्रियो को रोकी नहीं है और न ही उन्हे स्वच्छन्द होड़ी है; परन्तु आपने उदामीनभाव से इन्द्रियों विजय पाई है।' मन पर विजय किस प्रकार पा सकते है, यह दो लोका द्वार। कहत है
चेतोऽपि यत्र यत्र, प्रवर्तते नो ततस्ततो वार्यम् । अधिकोभवति हि वारितम्, अवाग्तिं शान्तिमुपयाति ॥२७॥