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योगशास्त्र : द्वादशम प्रकाश
अर्थ - निरंतर उदासीनभाव में तल्लीन बना हुआ सर्वप्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्ददशा की भावना करने वाला योगी मन को कहीं भी नहीं लगाता । इस प्रकार आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तब वह इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता । अर्थात् तब मन इन्द्रियों को विषयों में प्रेरित नहीं करता । इन्द्रियाँ भी मन को मदद के बिना अपनेअपने विषय में प्रवृत्त नहीं होती । जब आत्मा मन को प्रेरित नहीं करता और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता; तब दोनों तरफ से भ्रष्ट बना हुआ मन अपने आप ही विनष्ट हो जाता है ।
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मनोविजय का फल कहने हैं
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नष्टे मनसि समन्तात् सकले विलयं च सर्वतो याते ।
निष्कल मुदेति तत्त्वं, निर्वातस्थायिदीप इव । ३६ ।
अर्थ - इस प्रकार मन का कार्य-कारणभाव या प्रेरक-प्रेयभाव चारों ओर से नष्ट होने पर, अर्थात् राख से ढकी हुई अग्नि के समान शान्त हो जाने पर और चिन्ता, स्मृति आदि उसके सभी व्यापार जलप्रवाह में बहते हुए अग्निकण के समान विलय (क्षय) हो जाने पर वायु-रहित स्थान में रखे हुए दोपक के समान आत्मा में कर्ममल से रहित निष्कलंक तत्त्वज्ञान प्रकट होता है ।
तत्त्वज्ञान होने की पहचान बताते हैं
अङ्गमृदुत्व - निदानं, स्वेदन - मर्दन - विवर्जनेनापि ।
स्निग्धीकरणमतैलं, प्रकाशमानं हि तत्त्वमिदम् ॥ ३७ ॥ ॥
अर्थ - पहले कहे अनुसार जब तत्त्वज्ञान प्रकट हो जाता है, तब पीना न होने पर और अंग-मर्दन न करने पर भी शरीर कोमल हो जाता है, तेल की मालिश के बिना ही शरीर चिकना हो जाता है, यह तत्त्वज्ञान प्रगट होने की निशानी है ।
दूसरा लक्षण बताते हैं
अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये ।
शिथिलीभवति शरीरं छत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा ॥ ३८ ॥
अर्थ- मन का शल्य मष्ट हो जाने से, मनोरहित उन्मनोभाव उत्पन्न होने पर तत्त्वज्ञानी का शरीर छाते के समान स्तब्धता (अकड़ाई छोड़ कर शिथिल हो जाता है । शल्यीभूतस्यान्तःकरणस्य क्लेशदायिनः सततम् 1
अमनस्कतां विनाऽन्यद्, विशल्यकरणौषधं नास्ति ॥ ३९ ॥ ॥
अर्थ - निरंतर क्लेश देने वाले शल्यीभूत (कांटे की तरह बने हुए) अन्तकरण को निःशल्य करने वाली औषध अमनस्कता (उन्मनीभाव) के सिवाय और कोई नहीं है। उन्मनीभाव का फल कहते है
कदलीवच्चाविद्या लोलेन्द्रियपत्रला मनःकन्दा | अमनस्कफले दृष्टे नश्यति सर्वप्रकारेण ॥४०॥