________________
१४
योगशास्त्र : वादगम प्रकाश रहित) अखण्ड तत्वज्ञान के उदय होने पर नासोच्छवास का समूल उन्मूलन करके योगी मुक्त पुरुष के समान प्रतीत होता है । सग
यो जाग्रदवस्थायां, स्वस्थ सुप्त इव तिष्ठति लयस्थ ।
श्वासोच्छ्वाम-विहीन. म होयते न खलु मुक्तिजुषः ।।१७। अर्थ- जाग्रत-अवस्था में ग्व-स्वरूप (आत्म-रवरूप) में स्थित (स्वस्थ) योगी लय नामक ध्यान में सोये हुए व्यक्ति के समान रि रहता है। श्वासोच्छवास-रहित लयावस्था में वह योगो मुक्त आत्मा से जग भी होनहीं होता ; बल्कि सिद्ध के समान हो होता है।
जागरणस्वप्नजुषो जगतीतलतिनः सदा लोकाः ।
तत्वविदो लयमग्ना नो जाति शेरते नापि ॥४८॥ अर्थ. इस पृथ्वीराल पर रहने वाले जीव सदा जागरण और स्वप्नदशा का अनु भव करते हैं, परन्तु लय में मग्न तर ज्ञानी न जागते हैं, और न सोते हैं।
भवति खलु शून्यभावः स्वप्ने विषयग्रहश्च जागरणे । __एतद् द्वितयमतोत्यानन्दमयमवस्थितं तत्त्वन् !॥५०॥ __ अर्थ- तथा स्वपद । में निश्चय ही शून्यभाव होता है और जागृत-अवस्था में योगी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करता है. किन्तु तत्व की प्राप्ति होने के बाद इन दोनों अवस्थाओं से परे हो कर वह आनन्दमय तत्त्व- लय में स्थित रहता है। उपालम्भ देते हा समस्त उपदेशों का गा। बताते हैं --
कर्माण्यपि दुःख ते निष्कर्मत्वं सुखाय विदितं तु ।
न तत: प्रयतेत कथं, निष्कर्मत्वे सुलभमोक्षे॥५०॥ अर्थ- कर्म दुःख के लिए :', अर्थात् दुःख का कारण अपने आप किये हुए कर्म हैं और कमरहित होना सुख के लि: है: -दिम इस तत्व को जानते हो तो सुलभ मोसमाग के लिए निष्कर्मत्व-प्राप्ति का प्रब नहीं करता
मोक्षोऽस्तु माऽस्तु यदि वा परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु ।
यस्मिन् निखिनमुखानि, प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव ।।१॥ अर्थ- मोम हो या न हो , परन्तु ध्यान से प्राप्त होने वाला परमानन्द तो यहाँ प्रत्यक्ष अनुभत होता है । इस परमानन्द के प्राप्त होने पर जगत् के सभी सुख तृण के समान तुच्छ प्रतीत होते हैं। इमो वात का स्पष्टीकरण करने हा बताते है
मधु न मधुरं नैताः शातास्त्विषस्तुहिना ते । अमृतममृत नामैवास्या. फले तु धा सुधा । तदलममुना सरम्भेण प्रसीद सखे ! मन., फलमविकलं त्वय्येवैतत् प्रसादमुपेयुषि । ५२॥