Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 625
________________ चित्तस्थैर्य के लिए गुरुसेवा तथा तीनों योगों की स्थिरता के लिए उपाय ६०६ अर्थ--पूर्वजन्म में प्रथम तत्वज्ञान का उपदेष्टा गुरु ही होता है और दूसरे जन्म में भी तत्वज्ञान बताने वाला भी गुरु ही होता है। इसलिए सदा गुरु महाराज को सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। अब गुरु महाराज की स्तुति करते हैं - यद्वत् सहस्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य । तद्वद् गुरुरत्र भवेदज्ञान-ध्वान्त-पतितस्य ॥१६॥ अर्थ--जैसे अतिगाढ अन्धकार में स्थित पदार्थ को सूर्य प्रकाशित कर देता है। वैसे हो अज्ञान-रूपी अन्धकार में भटकते हुए आत्मा को इस संसार में (तत्त्वोपदेश दे कर) गुरु जान ज्योति प्रकाशित कर देता है । इसलिए - प्राणायाम-प्रभृति-क्लेशपरित्यागतस्ततो योगी। उपदेशं प्राप्य गुरोः आत्माभ्यासे रति कुर्यात् ॥१७॥ अर्थ अतः प्राणायाम आदि क्लेशकर उपायों का त्याग करके योगी गुरु का उपदेश प्राप्त कर आत्मस्वरूप के अभ्यास में ही मग्न रहे। इसके बाद - वचन-मनःकायानां, क्षोभं यत्नेन वर्जयेत् शान्तः। रसभाण्डमिवात्मानं सुनिश्चलं धारयेत् नित्यम् ॥१८॥ अर्थ-- मन, वचन और काया को चंचलता का प्रयत्नपूर्वक त्याग करके योगी को रस से भरे बर्तन की तरह आत्मा को स्थिर और शान्त बना कर सदा अतिनिश्चल रखना चाहिए। औदासीन्यपरायण-वृत्तिः किञ्चिदपि चिन्तयेनं च । यत् संकल्पाकुलितं चित्तं नासादयेत् स्थर्यम् ॥१९॥ अर्थः बाह्यपदार्थों के प्रति उदासोनभाव रखने वाले योगी को इस प्रकार को किंचित् भी चिन्तन नहीं करना चाहिए, जिससे मन संकल्प-विकल्पों से आकुल-व्याकुल हो कर स्थिरता प्राप्त न करे। अब व्यतिरेक भाव को कहते हैं . यावत् प्रयत्नलेशो, यावत् संकल्पकल्पना काऽपि । तावन्न लयस्यापि, प्राप्तिस्तत्त्वस्य तु का कथा?॥२०॥ अर्थ-जब तक मन-वचन-काय-योग से सम्बन्धित कुछ भी प्रयत्न विद्यमान है और जब तक संकल्पयुक्त कुछ भी कल्पना मौजूद है, तब तक लय (तन्मयता) को प्राप्ति नहीं होगी; तत्वप्राप्ति को तो बात ही क्या है ? अब उदासीनता का फल कहते हैं यदिदं तदिति न वक्तुं, साक्षाद् गुरुणाऽपि हन्त ! शक्येत् । औदासीन्यपरस्य, प्रकाशते तत् स्वयं तत्त्वम् । २१॥ ७७

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