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चार प्रकार का चित, उसका स्वरूप और आत्मा के बहिरादिक तीन रूप
१०७ अर्थ-श्लिष्ट नामक तीसरा मन स्थिरतायुक्त और आनन्दमय होता है और जब वही मन अत्यन्त स्थिर हो जाता है, तब परमानन्दमय होता है। वही चौथा सुलोन मन कहलाता है। ये दोनों मन अपने-अपने योग्य विषय को हो ग्रहण करते हैं। परन्तु ये बाह्यपदार्य को ग्रहण नहीं करते। इसलिए पडितों ने नाम के अनुसार ही उनके गुण माने हैं।
एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेत् निरालम्बम् ।
समरसभावं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ॥५॥
अर्थ- इस प्रकार क्रमशः अभ्यास करते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए, । इस प्रकार बार-बार अभ्यास करने से ध्याता निरालम्ब ध्यान तक पहुंच जाता है। इससे समरसमाव की प्राप्ति होती है, उसके बाद योगी परमानन्द का अनुभव करता है।
समरसभाव की प्राप्ति किस तरह होती है ? उसे कहते हैं
बाह्यात्मानमपास्य, प्रसत्तिभाजाऽन्तरात्मना योगी।
सततं परमात्मानं विचिन्तयेत् तन्मयत्वाय ॥६॥
अर्थ आत्मसुखामिलाषी योगी को चाहिए कि अंतरात्मा बाह्यपदार्यरूप बहिरात्मभाव का त्याग करके परमात्मस्वरूप में तन्मय होने के लिए निरंतर परमात्मा का ध्यान करे।
दो श्लोकों से आत्मा के बहिरादि का स्वरूप कहते हैं
आत्मधिया समुपातः कायादिः कोयतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समाधिष्ठायको, भवत्यन्तरात्मा तु ॥७॥ दिरूपानन्दमया, निःशेषोपाधिवजितः शुद्धः।
अत्यलोऽनन्तगुणः, परमात्मा कीर्तितस्ततः ॥८॥
अर्थ-शरीर, पन, परिवार, स्त्री-पुत्रादि को आत्मबुद्धि(ममता की दृष्टि) से ग्रहण करने वाला बहिरात्मा कहलाता है। परन्तु, शरीर तो मेरे रहने का स्थान (घर) है,मैं उसमें रहने वाला स्वामी हूं। यह शरीर तो रहने के लिए किराये का घर है । 'इस प्रकार पुद्गलस्वरूप सुख-दुःख के संयोग-वियोग में हर्ष-शोक नहीं करने वाला अन्तरात्मा कहलाता है। सत्ता से चिदानन्दमय ( लतानवरूप मानन्दमय) समग्र बाह्य उपाधि से रहित, स्फटिक के सदृश निर्मल, इन्द्रिय आवि से अगोचर और अनन्तगुणों से युक्त आत्मा को नानियों ने परमात्मा कहा है।
बहिरात्मा और अन्तरात्मा के भेदज्ञान से जो लाम होता है, उसे कहते हैंपथगात्मानं कायात् पृथक् च विद्यात् सदात्मनः कायम् ।
उभयोर्मेवमाताऽऽत्मनिश्चये न स्खले योगी ॥९॥ अर्थ-आत्मा को शरीर से मिल तथा शरीर को सदा मात्मा से मिलवानना