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त्यानविषय धर्मग्यान का स्वरूप बोर फल कर्म कहलाता है। पांच प्रकार की निद्रा एवं चार प्रकार के दर्शन को रोकने वाला दर्शनावरणीय कर्म का उदय है । जैसे स्वामी के दर्शन चाहने वाले को द्वारपाल रोक देता है। इस कारण वह वर्णन नहीं कर सकता। वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव अपने मापे को नहीं देख सकता। वेदनीय कर्म का स्वभाष शहद लपेटी हुई तलवार की धार के समान है, सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है। बाहर का स्वाद मधुरलगता है। परन्तु उसे चाटने पर धार से जीम कट जाती है, तब दुःख का अनुभव होता है। मदिरापान के समान मोहनीयकर्म है। इससे मूढ़ बना हुआ आत्मा कार्याकार्य के विवेक को भूल पाता है। यह कर्म दो प्रकार का है-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, इससे सम्यगदर्शन और सम्यक् चारित्र दब जाते हैं। आयुष्यकर्म कारागार के समान है, देव, मनुष्य, तियंच और नरकरूप चार प्रकार का वायुष्य है, वह बेड़ी के समान है। यह प्रत्येक जीव को अपने स्थान में रोके रखता है। बायुष्य पूर्ण किये बिना उन उन योनियों से जीव छूट नहीं मकता। चित्रकार द्वारा निर्मित विविध प्रकार के चित्र के समान नामकर्म है। यह जीव को शरीर में गति, जाति, संस्थान-संघयण बादि अनेक विचित्रताएं प्राप्त कराता है। घी और मधु भरने के लिए घड़े बनाने वाले कुम्हार के समान उच्चगोत्र और नीचगोत्र है। इससे उच्चकुल और नीचकुल में जन्म लेना पड़ता है। अन्तरायकर्म दुष्ट भण्डारी के सहा है, वह पान, लाभ भोग उपभोग, वीर्य आदि लब्धियों को रोक देता है। इस प्रकार कर्म की मूल आठ प्रकृतियों के अनेक विपाकों का चिन्तन करना विपाक-विचय धर्मध्यान कहलाता है। अब संस्थान-विचय धर्मध्यान का स्वरूप कहते हैं
अनाद्यन्तस्य लोकस्य स्थित्युपत्ति-यया मनः।
आकृति चिन्तयेद् यत्र संस्थान-विचयः स तु ॥१४॥ अर्थ-अनादि-अनन्त परन्तु उत्पाद, व्यय और प्रोव्यस्वरूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावस्वरूप लोक को आकृति का विचार करना, संस्थान-विचय धर्मध्यान कहलाता है। अब लोक-ध्यान का फल कहते हैं
नानाद्रव्यगतानन्त-पर्यायपरिवर्तनात् ।
सदा सक्त मनो नव, रागाधाकुलतां बजेत् ॥१॥ अर्थ-लोक में अनेक द्रव्य हैं, और एक-एक द्रव्य के अनन्त-अनन्त पर्याय है, उनका परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार द्रव्यों का बार-बार चिन्तन करने से मन में माकुलता नहीं होती तथा रागढष आदि नहीं होते।
व्याख्या-इस सम्बन्ध में प्रस्तुत बान्तरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं- पहले बनित्यादि-भावना के प्रसंग में तथा लोकभावना में 'संस्थान-विषय' के विषय का वर्णन बहुत विस्तार से कह चुके हैं, इसलिए पुनरुक्तिदोष के भय से यहां पर विशेष वर्णन करने की आवश्यकता नहीं समझते । यहां प्रश्न होता है कि 'लोक-भावना और संस्थानविषय में क्या बन्तर है, जिससे दोनों को अलग बतलाया है? इसका उत्तर देते हैं कि लोकभावना तो केवल विचार करने के लिए है, जबकि संस्थानविषय में लोकावि में मति स्थिर-स्वरूप रहती है। इसी कारण उसे 'संस्थानविचय' धर्मध्यान कहा है। अब धर्मध्यान का स्वरूप और विशेषता बताते हैं
धर्मध्याने भवेद् भावः क्षायोपशामका कः। लेश्याः क्रमाबाः स्युः पीत-पम-सिताः पुनः ॥१६॥