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अहेते नमः
एकादशम प्रकाश
अब धर्मध्यान का उपसंहार करके शुक्लध्यान का स्वरूप बताते हैं ।
स्वर्गापवर्गहेतुर्षमध्यानमिति कोतितं तावत् ।
अपवर्गकनिदानं, शुक्लमतः कोयते ध्यानम् ॥१॥ अर्थ- स्वर्ग के कारणभूत और परम्परा से मोक्ष के कारणभूत धर्मध्यान का वर्णन कर चुके । अब मोम के एकमात्र कारणभूत शुक्लध्यान के स्वरूप का वर्णन करते हैं।
व्याख्या-शुक्लध्यान के पार भेद हैं। शुक्लध्यान के अन्तिम दो भेदों की अपेक्षा से यह मोक्ष का बसाधारण कारण है और प्रथम दो भेदों की अपेक्षा से यह अनुत्तर विमान में ले जाने का कारणभूत है। कहा है कि "शुभ मानक, संवर, निर्जरा, विपुल देवसुख बादि को उत्तम धर्मध्यान का शुभानुबंधी फल समझना चाहिए। शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों का फल अपूर्व तेज-कान्ति, अपूर्व सुखानुभव, तथा बनुत्तरदेवत्व का सुख भोगना है, और अन्तिम दो भेदों का फल निर्वाण-मोक्ष होता है।" अब शुक्लध्यान के बधिकारी का निरूपण करते हैं
इदमादिम.नना एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् ।
स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्प-सत्यानम् ॥२॥ अर्थ-वभूषमनाराच (प्रथम) संहनन वाले और पूर्वश्रुतधारी मुनि हो शुक्लध्यान करने में समर्थ हो सकते हैं। इनसे रहित अल्पसत्त्व वाले साधक के चित्त में किसी भी तरह शुक्लध्यान की स्थिरता प्राप्त नहीं होती।
व्याख्या-पहले रचित होने से पूर्व कहलाता है, उसको धारण करने वाले या जानने वाले पूर्ववेदी कहलाते हैं। यह वचन प्रायिक समझना, क्योंकि माषतुष, मरुदेवी आदि पूर्वधर न होने पर भी, उनके ध्यान को शुक्लध्यान माना है, संधयण बादि से ध्यान में चिरस्थिरता रह सकती है, इसलिए इसे मुल्यहेतु कहा है। इसी बात का विचार करके कहते हैं
धत्ते न खलु स्वास्थ्य, व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयः ।
क्लिध्यान तस्माद्, नास्त्यधिकारोऽपसाराणाम् ॥३॥ बर्थ-दनिय-विषयों से माफल प्याकुल बने हुए शरीरबारियों का मन स्वस्थ