Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 617
________________ सामान्यकेवली और तीर्थकरकेवली में अन्तर तथा उनके द्वारा प्रयुक्त समुद्धात चार मुख हो जाते हैं ; मानो लोगों पर एक साथ उपकार करने की इच्छा से उन्होंने चारों दिशाओं में चार शरीर धारण किये हों। उनके चरणों में जिस समय सुर, असुर, मनुष्य और भवनपति देव आदि नमस्कार करते हैं, उस समय सिंहासन पर विराजमान भगवान् ऐसे मालूम होते हैं ; मानो उदयाचल के शिखर पर सूर्य सुशोभित हो । उस समय अपने तेज:पुज से समस्त दिशाओं के प्रकाशक भगवान् के आगे त्रैलोक्य धर्म-चक्रवर्तित्व का चिरूप धर्मचक रहता है। भवनपति, वैमानिक, ज्योतिष्क और वाणव्यंतर; ये चारों निकायों के देव समवसरण में भगवान् के पास जघन्य एक करोड़ की संख्या में रहते हैं।' ___ इस प्रकार केवलज्ञानी तीर्थकर भगवान् के अतिशयों का स्वरूप बताया। अब सामान्य केवलियों का स्वरूप बताते हैं तीर्थकरनामसंज्ञं, न यस्य कर्मास्ति सोऽपि 'गबलात्। उत्पन्न-केवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ॥४८॥ अर्थ जिनके तीर्थकर नामकर्म का उदय नहीं है, वे केवलज्ञानी भी योग के बल से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, और आयुकर्म शेष रहता है, तो जगत के जीवों को धर्मोपदेश भी देते हैं ; और आयुकर्म शेष न हो तो निर्वाणपद प्राप्त करते हैं। इसके बाद उत्तरक्रिया का वर्णन करते हैं सम्पन्नकेवलज्ञान-दर्शनोऽन्तर्मुहूर्त-शेषायुः। अर्हति योगो ध्यानं, तृतीयमपि कर्तुमचिरेण ॥४९॥ ___ अर्थ- केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होने के बाद जब योगी का आयुष्य अन्त मुहुर्त शेष रहता है, तब वे शीघ्र ही सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रारम्भ कर सकते हैं। ____ अंतर्मुहूर्त का अर्थ है-मुहूर्त के अन्दर का समय । क्या सभी योगी एक समान तीसरा ध्यान आरम्भ करते हैं या उनमें कुछ विशेषता है ? इसे बताते हैं आयुःकर्मसफाशा, अधिकानि मर्यदाऽन्यकर्माणि । तत्साम्याय तोषनामत योगो समुद्घातम् ॥५०॥ अर्थ-यदि आयुष्य-कर्म को अपेक्षा अन्य नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक रह जाती है तो उसे बराबर करने के लिए योगी केवली-समुद्घात करते हैं। व्याख्या-जितना आयुष्यकर्म हो, उतनी ही शेष फर्म की स्थिति हो तो तीसरा ध्यान प्रारम्भ करते हैं, परन्तु आयुष्यकर्म से दूसरे कर्मों की स्थिति अधिक हो, तब स्थितिघात, रसघात आदि के लिए समुदषात नाम का प्रयत्न-विशेष करते हैं। कहा भी है-'यदि केवली भगवान् के दूसरे कर्म मायष्यकर्म से अधिक शेष हों तो वे उन्हें समान करने की इच्छा से केवलो-समुद्घात नामक प्रयत्न करते हैं।' समुद्घात का अर्थ है-बिस क्रिया से एक ही बार में सम्यक् प्रकार से प्रादुर्भाव हो, दूसरी बार न हो, इस प्रकार प्रबलता से घात करना=बात्म-प्रदेश को शरीर से बाहर निकालमा । समुद्घात की विधि आगे बताते हैं

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