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शुक्मध्यान के फलस्वरूप तीर्थकर को प्राप्त होने वाले ३४ बतिशय
५६९ विधरते हैं, उस-उस स्थल से चारों ओर सौ-सौ योजन-प्रमाण क्षेत्र में उनके प्रभाव से महारोग वैसे ही शान्त हो जाते हैं, जैसे चन्द्र के उदय से गर्मी शान्त हो जाती है। जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार नहीं रहता है। वैसे ही भगवान् जहाँ विचरते हैं, वहाँ महामारी, दुनिन, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध, वैर आदि उपद्रव नहीं रहते । तथा
मार्तण्डमण्डल -श्रीविडम्बि भामण्डलं विभोः परितः। आविर्भवत्यनुवपुः प्रकाशयत् सर्वतोऽपि विशः ॥३१॥ संचारयन्ति विकचान्यनुपादन्यासमाशु कमलानि । भगवति विहरति तस्मिन् कल्याणी-भक्तयो देवाः ॥३२॥ अनुकलो वाति मरत, प्रदक्षिणं यान्त्यमुष्य शकुनाश्च । तरवोऽपि नमन्ति भवन्त्यधोमुखाः कण्टकाश्च तदा ॥३३॥ आपल्लवोशाकपाल्पः स्मेरकुसुमगन्धाढ्यः । प्रकृतस्तुतिरिव मरकरविस्तविलसत्युपार तस्य ॥३४॥ षडपि समकालमृतवो, भगवन्तं तं तदोपतिष्ठन्ते । स्मरसाहाय्यकरणे, प्रायश्चित्तं ग्रहीतुमिव ॥३५॥ अस्य पुरस्तात् निनदन्, विजम्भते दुन्दुभिर्नभसि तारम् । कुर्वाणो निर्वाणे प्रयाण-कल्याणमिव सद्यः ॥३६॥ पंचापि चेन्द्रियार्थाः, क्षणान्मनोज्ञा भवन्ति तदुपान्ते । को वा न गुणोत्कर्ष, सविधे म.तामवाप्नोति ?॥३७॥ अस्य नखा रोमाणि च, वधिष्णून्यपि न हि प्रवर्धन्ते। भवशतसंचितकर्मच्छेदं दृष्ट्वेव भीतानि ॥३८॥ समयन्ति तवम्यणे, रजांसि गन्धजलवृष्टिभिर्देवाः । निसुमाष्टभिरशेषतः सुरमयन्ति मुवम् ॥३६॥ छत्रमयी पवित्रा विमोल्परि भक्तितस्त्रिदशराजः।
गंगास्रोतस्त्रितयोब, धार्यते मण्डलीकृत्य ॥४०॥ अर्थ-श्री तीर्थकर भगवान् के शरीर के अनुरूप चारों ओर सूर्यमण्डल की प्रभा को भी बात करने वाला और सर्वविशामों को प्रकाशित करने वाला भामण्डल प्रकट होता है। अपवान् जब पृथ्वीतल पर विहार करते हैं, तब कल्याणकारिणी भक्ति वाले देव तत्काल प्रभु के प्रत्येक चरण रखने के स्थान पर स्वर्णमय कमल स्थापित करते हैं। तथा वायु अनुकूल चलता है। पक्षी भगवान् को प्रदक्षिणा वाहिनी मोर से देते हैं, वृक्ष भी मुक जाते हैं, उस समय कांटों के मुख नीचे को मोर हो जाते हैं। गुरु पत्ते तथा खिले हुए फूलों को पुगन्ध से व्याप्त अशोकवृक्ष, जो मौरों के पुंजन से मानो स्वाभाविक स्तुति करता है, एवं