________________
शुक्लध्यान के चारों भेदों की विधि एवं उनका फल
इति नानात्वे निशिताभ्यासः संजायते यदा योगी । आविर्भूतात्मगुणः, तदेकताया भवेद् योग्यः ॥ १७ ॥ उत्पाद -स्थिति-भंगादि - पर्यायाणां यदेकयोगः सन् । ध्यायति पर्ययमेकं तत् स्यादेकत्वमविचारम् ॥१८॥ विजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः । विषमिव सर्वाङ्गगतं, मन्त्रबलान्मान्त्रिको वंशे ॥१९॥ अपसारितेन्धनभरः शेषः स्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः । तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् ॥२०॥
अर्थ - उस शुक्लध्यान के प्रथम भेद में श्रुतज्ञान में से किसी एक पदार्थ को ग्रहण करके उसके विचार में से शब्द का विचार करना, और शब्द से पदार्थ के विचार में आना चाहिए । इसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में आना-जाना होता है। ध्यानी पुरुष जिस शीघ्रता से अर्थ, शब्द और योग में संक्रमण करता है उसी शीघ्रता से उसमें से वापिस लौट आता है। इस प्रकार जब योगी अनेक प्रकार के तीक्ष्ण- (सूक्ष्म-विषयक) अभ्यास वाला हो जाता है, तब अपने में आत्मगुण प्रकट करके शुक्लध्यान से एकस्व के योग्य होता है । फिर एक योग वाला बन कर पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और नाश आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय का ध्यान करता है, तब एकत्व, अविचार शुक्ल ध्यान कहलाता है। जैसे मन्त्र जानने वाला मन्त्र के बल से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त विष को एक स्थान में ला कर केन्द्रित कर लेता है, उसी प्रकार योगी ध्यान के बल से त्रिजगत्विषयक मन को एक परमाणु पर केन्द्रित कर लेता है । जलती हुई अग्नि में से ईंधन को खींच लेने पर या बिलकुल हटा देने पर थोड़े ईन्धन वाली अग्नि बुझ जाती है, इसी प्रकार जब मन को भी विषय रूपी ईन्धन नहीं मिलता, तब वह अपने आप ही शान्त हो जाता है ।'
अब दूसरे ध्यान का फल कहते हैं
-
as
ज्वलति ततश्च ध्यान - ज्वलने भृशमुज्ज्वले यतीन्द्रस्य ।
निखिलानि विलीयन्ते क्षणमात्रा यतिमणि ॥२१॥
अर्थ – उसके बाद जब ध्यानरूपी अग्नि अत्यन्त प्रचण्डरूप से जल कर उज्ज्वल हो जाती है, तब उसमें योगीन्द्र के समग्र घातिकर्म क्षणभर में भस्म हो जाते हैं ।'
·
घातिकर्मों के नाम कहते हैं -
ज्ञानावरणीयं हज्ज्वणाएं च मोहनीयं च । विलयं प्रयान्ति सहसा सान्तरायण कर्माणि ॥२२॥ अर्थ- शुक्लध्यान के प्रभाव 'से अन्तरायकर्म के सहित ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय
और मोहनीय यह चारों कर्म एक साथ विनष्ट हो जाते हैं।
घातिकर्म के क्षय का फल कहते हैं