Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 611
________________ ५१५ सुस्माम्यान का चतुर्थ भेद, चारों में योग की मात्रा केवलिनः शैलेशोगतस्य शेल कम्पनायस्य । उत्सनक्रियमप्रतिपाति, तुरीयं परम! पलम् ॥९॥ अर्थ-मेलपर्वत के समान निश्चल केवली भगवान् जब शैलेशीकरण में रहते हैं, तब उत्पन्नक्रियाऽऽप्रतिपाति नामक चौथा शुक्लध्यान होता है, इसी का दूसरा नाम व्युपरत क्रिया-अनिवति है। अब इन चारों भेदों में योग की मात्रा बताते हैं एक-त्रियोगभानामाद्य, स्याप मल्योगानाम् । तनुयोगिनां तृतीयं, निर्योगाणां चतुर्थ तु ॥१०॥ अर्थ-प्रथम शुक्लध्यान एक योग या तीनों योग वाले मुनियों को होता है, दूसरा ध्यान एक योग वाले को होता है, तोसरा सूक्ष्मकाययोग वाले केवलियों को और चौथा अयोगी केवलियों को ही होता है। ब्याख्या-पहला पृथक्त्व-वितर्क-सविचार नामक शुक्लध्यान भागिक श्रत पड़े हुए और मन आदि एक योग अथवा तीनों योग वाले मुनियों को होता है। दूसरा एकत्व-वितर्क-अविचार ध्यान मन आदि योगों में से किसी भी एक योग वाले मुनि को होता है, इस योग में संक्रमण (प्रवेश निष्क्रमण) का अभाव होता है। तीसरे सूक्ष्म क्रिया-अनिवति ध्यान में सूक्ष्मकाया का योग होता है, परन्तु शेष बचनयोग और मनोयोग नहीं होता है । और चौथा व्युत्सनक्रियाऽतिपाति ध्यान योग-रहित अयोगी केवली को शैलेशीकरण अवस्था में होता है। मन, वचन, काया के भेद से योग तीन प्रकार का होता है। उसमें बौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजम और कार्माण शरीर वाले जीव को वीर्य परिणति-विशेष काययोग होता है । औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर की व्यापार-क्रिया से ग्रहण किये हुए भाषावर्गणा पुद्गल-द्रव्यसमूह की सहायता से जीव का व्यापार, वचनयोग होता है। वही औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की व्यापारक्रिया से ग्रहण किये हुए मनोवर्गणा के द्रव्यों की मदद से जीव का व्यापार, मनोयोग होता है।' यहाँ प्रश्न होता है कि 'शुक्लध्यान के अन्तिम दो भेदों में मन नहीं होता है। क्योंकि केवली भगवान् मनोयोगरहित होते हैं, और ध्यान तो मन की स्थिरता से होता है, तो इसे ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान करते हैं -- छद्मस्थितस्य यन्मनः स्थिरं ध्यानमुच्यते तज्जः॥ निश्चलम तद्वत् केवलिना कोतितं ध्यानम् ॥११॥ अर्थ-ज्ञानियों ने जैसे छपस्थ साधक के मन को स्थिरता को ध्यान कहा है, उसी प्रकार केवलियों के काम को स्थिरता को भी वे ध्यान कहते हैं। जैसे मनोयोग है, उसी प्रकार काया भी एक योग है। कायायोगत्व का अर्थ ध्यानशब्द से भी होता है।" यहां फिर प्रश्न होता है कि 'चौथे शुक्लध्यान में तो काययोग का निरोध किया जाता है इसलिए उसमें तो काययोग भी नहीं होता तो फिर ध्यानशब्द से उसका निर्देश कैसे कर सकते हैं ? इसका उत्तर देते हैं पूर्वाभ्यासात्, जीवोपयोगतः कर्मजरणहेतोर्वा । शब्दार्थबहुत्वाहा जिनवचनाद्वाप्ययोगिनो ध्यानम् ॥१२॥

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