Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 607
________________ २११ शुममध्यान का इहलौकिक व पारनीकिक फल दिव्या गावान च, व्युत्वा त्रिी तस्ततः। उत्तमेन शरीरेणाव तरन्ति महीतले ॥२३॥ विध्यवशे समुत्पन्नाः, नित्योत्सवमनामात । भुञ्जते विविधान् भोगान खण्डित मनोरपाः ॥२३॥ ततो विवेकमाश्रित्य, विरज्या शेष भोगतः । ध्यानेन ध्वस्त कर्माणः प्रयान्ति पदम व्ययम् ॥२४॥ अर्थ-देव-सम्बन्धी विव्यभोग पूर्ण होने पर देवलोक से च्युत हो कर वे भूतल पर अवतरित होते है, और यहां पर भी उन्हें सौभाग्ययुक्त उत्तम शरीर प्राप्त होता है। जहाँ निरन्तर मनोहर उत्सव होते हों, ऐसे दिव्यवंश में वे जन्म लेते हैं, और अस्ति -मनोरण व्यक्ति विविध प्रकार के भोगों को अनासक्तिपूर्वक मोगते हैं। उसके बाद विवेक का मामय ले कर वे संसार के समस्त भोगों से विरक्त हो कर उत्तम ध्यान द्वारा समस्त कर्मों का विनाश करके शाश्वतपन अर्थात् निर्वाणपद को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार परमाहत श्रीकुमारपाल राजा की जिनासा से आचार्यश्री हेमचन्नाचार्यसूरीश्वर-रचित 'अध्यात्मोपनिषद' नामक पट्टण्ड अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपविवरणसति सम प्रकास पूर्ण हमा।

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