Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 601
________________ ॐ अहंते नमः १० : दशम प्रकाश अब रूपातीत ध्यान का स्वरूप कहते हैं___ अमूर्तस्य चिदानन्द-रूपस्य परमाननः। निरञ्जनस्य सिद्धस्ये, ध्यानं स्याद् रूपवजितम् ॥१॥ अर्थ -- अमूर्त (शरीररहित), निराकार, चिदानन्द-(ज्ञानानन्द)-स्वरूप, निरंजन, सिद्ध परमात्मा का ध्यान, रूपातीतध्यान कहलाता है। इत्यजन स्मरन् योगी तत्स्वरूपावलम्बनः । तन्मयत्वमवाप्नोति, प्रााग्राहक-वजितम् ॥२॥ अर्थ-ऐसे निरंजन निराकार सिख परमात्मा के स्वरूप का आलम्बन ले कर उनका सतत ध्यान करने वाला योगी प्राह्य-प्रााकभाव अर्थात् ध्येय और ध्याता के भाव से रहित तन्मयता-(सिद्धस्वरूपता) प्राप्त कर लेता है। अनन्यशरणीभूय, स तस्मिन् लीयते तथा। ध्यात-ध्यानोभयाभावे, ध्येयेवैक्यं यथा व्रजेत् ॥३॥ अर्थ-उन सिद्धपरमात्मा को अनन्य शरण ले कर अब योगी उनमें तल्लीन हो जाता है; तब कोई भी मालम्बन नहीं रहने से बह योगी सिद्धपरमात्मा की आत्मा में तन्मय बन जाता है, और ध्याता और ध्यान इन दोनों के अभाव में ध्येय-म्प सिडपरमात्मा के साप उसको एकरूपता हो जाती है। तात्पर्य कहते हैं सोऽयं समरसीभावः कोरणं मतम् । आत्मा बचपवन, लीयते परमात्मनि ॥४॥ अर्थ-रूपातीत ध्यान करने वाले योगीपुरुष के मन का सिद्धपरमात्मा के साथ एकीकरण-(तन्मय) हो जाना, समरसीमाव कहलाता है। बहो वास्तव में एकरूपता मानी गई है जिससे मात्मा अभेवरूप से परमात्मा में लीन हो जाती है।

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