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विविध विधामों बौर मंत्रों का ध्यान और उनकी विधियाँ
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कनकाम्भोजगर्भस्थं, सान्द्रचन्द्रांशुनिर्मलम् । गगने संचरन्तं च, व्याप्नुवन्तं दिशः स्मरेत् ॥१९॥ ततो विशन्त वक्त्राब्जे, भ्रमन्त धूलतान्तरे । स्फुरन्त नेत्रपत्रेषु, तिष्ठन्त भालमण्डले ॥२०॥ निर्यान्त तालुरन्घ्रण, स्त्रवन्तं च सुधारसम् । स्पर्धमानं शशांकेन, स्फुरन्त ज्योतिरन्तरे ॥२१॥ संचरन्त नभोभागे, योजयन्त शिवधिया।
सवावयवसमा, कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥२२॥ अर्थ-अथवा बुद्धिमान ध्याता स्वर्णकमल के गर्भ में स्थित, चन्द्रमा की सघन किरणों के समान निर्मल. आकाश में संचरण करते हुए और समस्त दिशाओं में फैलते हुए रेफ से युक्त, कला और बिन्दु से घिरे हुए अनाहत-सहित मत्राधिप अहं का चिन्तन करे। उसके बाद मुखकाल में प्रवेश करते हुए. भ्रूलता में भ्रमण करते हुए, नेत्रपत्रों में स्फुरायमान होते हुए, भालमण्डल में स्थित, तालु के रन्ध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत-रस बरसाते हुए, उज्ज्वलता में चन्द्रमा के प्रतिस्पर्धी, ज्योतिर्मण्डल में विशेष प्रकार से चमकते हुए, आकाश-प्रदेश में संचार करते हुए और मोक्षलक्ष्मी के साथ मिलाप कराते हुए समस्त अबयवों से परिपूर्ण 'अहं मत्राधिराज का बुद्धिमान योगी को कुंभक के द्वारा चिन्तन करना चाहिए । कहा है कि
'अकादि-हकारान्तं, रेफमध्यं सबिन्दुकम् ।
तदेव परमं तत्त्वं, यो जानाति स तत्त्ववित् ॥१॥ ___ अर्थ-अकार जिसके बाद में है, हकार जिसके अन्त में है और बिन्दुसहित रेफ जिसके मध्य में है, वही 'अहं' परम तत्त्व है। उसे जो जान लेता है, वही वास्तव में तत्त्वज है। अब मन्त्रराज के ध्यान का फल कहते हैं
महातत्त्वमिदं योगी, यदैव ध्यायति स्थिरः ।
तदेवानन्वसम्पद्भः, मुक्तिश्रीरुपतिष्ठो ॥२३॥ अर्थ-जो योगी चित्त को स्थिर करके इस महातत्व-स्वरूप 'अहं' का ध्यान करता है, उसके पास उसी समय आनंदरूप सम्पभूमि के समान मोम-लक्ष्मी हाजिर हो जाती है। उसके बाद की विधि बताते हैं
रेफ-बिन्दु-कलाहीनं शुनं ध्यायेत् ततोऽक्षरम् ।
ततोऽनक्षरतां प्राप्तम्, अनुच्चार्य विचिन्तयेत् ॥२४॥ अर्थ---उसके बाद रेफ, बिन्दु और कला से रहित उज्ज्वल 'ह' वर्ण का ध्यान करे।