________________
पोवशास्त्र: अष्टम प्रा.
त्रियुद्ध या चिन्तयंस्तस्य, शतमष्टोत्तरं मुनिः ।
भुजानोऽपि लभेतैव. चतुर्थतपसः फलम् । ३५॥ अर्थ-मन, वचन और काया को शुद्धिपूर्वक एकापता से एकसौ आठ बार इस महामन्त्र नमस्कार का जाप करने वाला मुनि आहार करता हुआ भी एक उपवास का फल प्राप्त करता है।
एनमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्येऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम् ॥३६॥ कृत्वा पापसहस्त्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च ।
अमुमन्त्रं समाराध्य, तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः ॥३७॥ अर्थ-योगीपुरुष इसी महामन्त्र की यहाँ अच्छी तरह आराधना करके धेष्ठ आत्मलक्ष्मी के अधिकारी बन कर तीन जगत् के पूजनीय बन जाते हैं। हजारों पाप करके और सैकड़ों जीवों का हनन करके तिर्यञ्च जैसे जीव भी इस मन्त्र की सम्यक् आराधना करके स्वर्ग में पहुंच गये हैं।
बैल के जीव कम्बल और शम्बल. चण्डकौशिक सर्प, नन्दन मेंढक आदि देवलोक में गये है। अन्य प्रकार से पंचपरमेष्ठी-विद्या कहते हैं
गुरुपचक-नामोत्था विद्या स्यात् षोडशाक्षरा ।
जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलम् ॥३८।। अर्थ- गुरुपंचक अर्थात् पचपरमेष्ठो के नाम से उत्पन्न हुआ 'नमः' पद और विभक्तिरहित उनके नाम 'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' इस तरह सोलह अक्षर को विद्या का दो सौ बार जाप करने से एक उपवा । का फल प्राप्त होता है।
शतानि त्रीणि, षट्वर्ण चत्वारि चतुरक्षरम् ।
पंचवर्ण जपन योगी, चतुर्थफलमश्नुते ॥३६॥ अर्थ-अरिहंत सिद्ध' इन छह अक्षर वाली विद्या का तीन सौ बार, 'अरिहत' इन चार अक्षरों की विद्या का चारसौ बार, 'असि आ उ सा' इन पंचाक्षर अथवा अकार मन्त्र का पांच सौ जप करने वाले योगी को एक एक उपवास का फल मिलता है।
यह मामान्य उपवास का फल भद्रिक आत्माओं के लिए कहा है, मुख्यफल तो स्वर्ग और मोक्ष है। इसे ही बागे बताते हैं
प्रवृत्तिहेतुरेवतद्, अमीषां कथितं फलम् ।
फलं गावगं तु वदन्ति परमार्थतः ॥४०॥ अर्थ-इन सब मन्त्रों के जाप का फल जो एक उपवास बतलाया है, वह बालजीवों को जाप में प्रवृत्त करने के लिए कहा है। परमार्थरूप से तो ज्ञानी पुरुर इसका फल स्वर्ग और अपवर्गरूप बताते हैं।