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अन्य मन्त्र और विद्या का प्रतिपावन करते हैं
चिन्तय व्यमप्येनं मन्त्रं कमोघशान्तये ।
योगशास्त्र : अष्टम प्रकाश
स्मरेत् सत्त्वोपकाराय, विद्यां तां पापभक्षिणीम् ॥७२॥
अर्थ - "श्रीमद्-ऋषभादि-वर्षमानान्तेभ्यो नमः ' इस मन्त्र का भी कर्मों के समूह को शान्त करने के लिए ध्यान करना चाहिये और समस्त जीवों के उपकार के लिए पापभक्षिणी विद्या का भी स्मरण करना चाहिए। वह इस प्रकार है - ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनि ! पापात्मझयंकरि ! श्रुतज्ञानज्वालासहत्रज्वलिते ! सरस्वति ! मत्पापं हन हन वह वह क्ष श्रीं भू क्षक्षः क्षीरधवले ! अमृतसमवे ! वं वं हूं हूं स्वाहा ॥'
इसका फल कहते हैं-
प्रसीदति मनः सद्यः, पापका [ ष्यभुज्झति ।
प्रभावातिशयादस्याः ज्ञानदीप: प्रकाशते ॥७३ ।
अर्थ- - इस विद्या के प्रभाव से मन तत्काल प्रसन्न हो जाता है, पाप की मलिनता नष्ट हो जाती है और ज्ञान का दीपक प्रकाशित हो जाता है ।
ज्ञानवद्भिः समाम्नातं, वज्रस्वाम्यादिभिः स्फुटम् । विद्यावादात् समुद्धृत्य बीजभूतं शिवयि ॥७४॥ जन्मदावहुताशस्य प्रशान्त्ये नववारिदम् । गुरुपदेशाद् विज्ञाय, सिद्धचक्रं विचिन्तयेत् ॥७५॥
अर्थ- वास्वामी आदि पूर्व- श्रुतज्ञानी पुरुषों ने विद्याप्रवाद नामक पूर्व में से जिसे उद्धृत किया है, और जिसे मोक्षलक्ष्मी का बीज माना है, जो जन्ममरण के दावानल को शान्त करने के लिए नये मेघ के समान है, उस सिद्धचक्र को गुरु महाराज के उपदेश से जान कर कर्मक्षय के लिए उसका ध्यान करना चाहिए। तथा
नाभिपद्मे स्थितं ध्याय - विश्वतोमुखम् । 'सि'वर्ण मस्तकाम्भोजे, 'आ'कारं वदनाम्बुजे ॥७६॥ 'उ' कारं हृदयाम्भोजे, 'सा'कारं कण्ठपंकजे । सर्वकल्याणकारीणि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् ॥७७॥
अर्थ - नाभि-कमल में सर्वव्यापी अकार का, मस्तक- कमल में 'सि' वर्ण का, सुख 'कमल में 'आ, का, हृदय कमल में उकार का और कंठकमल में 'सा' का ध्यान करना तथा सर्व प्रकार के कल्याण करने वाले अन्य बीजाक्षरों का भी स्मरण करना चाहिए। वह अन्य बीजाक्षर 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' है ।
अब उपसंहार करते हैं
श्रु तसिन्धुसमुद्भूतं, अन्यदप्यक्षरं पदम् ।
अशेषं ध्यायमानं स्यात् निर्वाणपदसि ये ॥७८॥