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जिस मंत्र या विद्या के ध्यान से योगी रागढ परहित हो, वही पदस्थध्यान है
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अर्थ-भूतरूपी समुद्र से उत्पन्न हुए अन्य अक्षरों, पदों आदि का ध्यान भी निर्वाणपद की प्राप्ति के लिए किया जा सकता है।
वीतरागो भवेद् योगी, यत् किञ्चिदपि चिन्तयेत् । तदेव ध्यानमाम्नातम्, अतोऽन्ये ग्रन्थ-विस्तराः ॥७९॥ एवं च मन्त्रविद्यानां वर्णेषु च पदेषु च । विश्लेषं क्रमशः कुर्यात् लक्ष्मी (क्ष्यी) भावोपपत्तये ॥८०॥
अर्थ - जिस किसी भी अक्षर, पद, वाक्य, शब्द, मन्त्र एवं विद्या का ध्यान करने से योगी राग-द्व ेष से रहित होता है, उसी का ध्यान ध्यान माना गया है; उसके अतिरिक्त सब ग्रन्थविस्तार है । ग्रन्थ विस्तृत हो जाने के भय से हमने यहाँ उन्हें नहीं बताया, जिज्ञासु अन्य ग्रन्थों से उन्हें जान लें । मोक्षलक्ष्मी (लक्ष्य) की प्राप्ति के लिए इस तरह मन्त्रों और विद्याओं के वर्णों और पदों में क्रमशः विभाग (विश्लेषण) कर लेना चाहिए।
अब आशीर्वाद देते हैं
इति गणधर धुर्याविष्कृतादुद्ध तानि, प्रवचनजलराशेस्तस्वरत्नान्यमूनि । हृदयमुकुरमध्ये धोमतामुल्लसन्तु, प्रचितभवशतोत्थक्लेशनिर्नाश ेोः ॥८१॥
अर्थ - इस प्रकार मुख्य गणधर भगवन्तों द्वारा प्रकट किए हुए प्रवचन रूपसमुद्र में से ये तस्वरत्न उद्धृत किये हैं। ये तस्वरत्न अनेक मवों के संचित कर्म-क्लेशों का नाश करने के लिए बुद्धिमान पुरुषों के हृदय रूपी दर्पण में उल्लसित हों ।
इस प्रकार परमार्हत श्रीकुमारपाल राजा को जिज्ञासा से माचायची हेमचन्द्राचार्य-सूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद्' नामक
पट्टबद्ध अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपज्ञविवरणसहित अष्टम प्रकाश सम्पूर्ण हुआ ।