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दूसरे प्रकार से पदमयी देवता का ध्यान दूसरे प्रकार से पदमयी देवता का ध्यान कहते हैं
पंचवर्णमया पंचतत्त्वा विद्योद्धृता धृतात् ।
अभ्यस्याना सततं भवक्लेशं निरस्यति ॥४१॥ अर्थ-विद्याप्रवाद नाम के पूर्व से उद्धृत को हुई पंचवर्ण वाली पंचतत्त्वरू: "हां, हो, ह. हां, ह्रः असि आ उ सा नमः" विद्या के जाप का निरंतर अभ्यास किया नाए तो वह संसार के क्लेश को मिटाती है।
मंगलोत्तमशरण-पदान्यव्यग्रमानसः ।
चतुःसमाश्रयाण्येव, स्मरन् मोक्ष प्रपद्यते ॥४२॥ अर्थ-मंगल, उत्तम और शरण इन तीनों पदों को अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म के साथ जोड़ कर एकाग्रचित्त स्मरण से करने वाला ध्याता मोक्ष को प्राप्त करता है।
भावार्थ-वह इस प्रकार है - चतारि मंगलं -अरिहंता मगलं, सिडा मंगल, साहू मंगलं, केलिपन्नतो धम्मो मगल । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिवा लोगुतमा, साहू लोगुत्तमा, केवालपन्नतो धम्मो लोगुत्तमो । पत्तारि सरणं पवग्जामि, अरिहंते सरणं पवम्जामि, सिसरणं पवम्जामि, साह सरणं पवज्जामि, केबलि पन्नत्त धम्म सरणं पवजामि । मतलब यह है कि मंगल, उत्तम और शरण इन तीन पदों को उक्त चारों पदों के साथ जोड़ना चाहिए । अब आधे घलोक से विद्या और आधे श्लोक से मन्त्र कहते हैं
मुक्ति-सोख्यप्रदां ध्यायेद् विद्यां पंचदशाक्षराम् ।
सर्वज्ञाम स्मरेन्मन्त्रं सर्वज्ञान-प्रकाशकम् ॥४३॥ अर्थ -मुक्ति-सुखदायिनी पन्द्रह अक्षरों को विद्या "ॐ अरिहंत-सिद्धसयोगिकेवली स्वाहा" का ध्यान करना चाहिए। तथा सम्पूर्ण ज्ञान को प्रकाशित करने वाले सर्वज्ञ-तुल्य "ॐ श्रीं ह्रीं अहं नमः' नामक मन्त्र का स्मरण करना चाहिए। इसे सर्वज-तुल्य मन्त्र कहा है, उसकी महिमा बताते हैं
वक्तुं न कश्चिदप्यस्य, प्रभावं सर्वतः क्षमः।
समं भगवता साम्पं, सर्वशेन बिति यः ॥४४॥ अर्थ-यह मन्त्र सर्वज्ञ भगवान् को समानता को धारण करता है। इस मन्त्र और विद्या के प्रभाव को पूरी तरह कहने में कोई भी समर्थ नहीं है।
यदीच्छेद् भवबावाग्नेः, समुच्छेवं भणावपि ।
स्मरेत् तबादिमन्त्रस्य वर्णसप्तकमाविमम् ॥४॥ अर्थ-यदि संसाररूपी दावानल को क्षणभर में शान्त करना चाहते हो तो, तुम्हें प्रथम मन्त्र के प्रथम सात अमर 'नमो अरिहंताणं' का स्मरण करना चाहिए।
अन्य दो मन्त्रों का विधान करते हैं