Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 585
________________ ५६९ पदमयी (मंत्रमयी) देवता का स्वरूप एवं ध्यानविधि ध्यायतोऽनादिसंसिवान् वर्णानेतान् यथाविधि । नष्टादिविषये ज्ञानं, ध्यातुरुत्पद्यते क्षणात् ॥५॥ अर्थ-अनादिकाल से स्वतःसिद्ध इन वर्गों का विधिपूर्वक ध्यान करने वाले ध्याता को थोड़े ही समय में नष्ट हुए, विस्मृत हए, गुम हए व खोये हए पदार्थों के विषय में भत, वर्तमान और भविष्यकालीन ज्ञान क्षणभर में उत्पन्न हो जाता है। विशेषार्थ कहा है कि-'जाप करने से क्षयरोग, भोजन में अरुचि, अग्नि-मन्दता, कुष्टरोग, पेट में रोग, बांसी, दम आदि पर साधक विजय प्राप्त कर सकता है, और अद्भुत वाणी बोलने लगता है । तथा मुख्यजनों द्वारा पूजा, सत्कार, परलोक में उत्तमगति और श्रेष्ठपद प्राप्त करता है।' प्रकारान्तर से बारह श्लोकों द्वारा पदमयी-मन्त्रमयी देवता का स्वरूप ध्येयरूप से कहते हैं-- अथवा नाभिकन्दाधः, पप्रमष्टदलं स्मरेत् । स्वरालीकेसरं रम्यं वर्गाष्टकयुतैर्वलैः ॥६॥ बलसन्धिषु सर्वेषु सिद्धस्तुतिविराजितम् । बलायेषु समग्रेषु, मायाप्रणवपावितम् ॥७॥ तस्यान्तरन्तिमं वर्णम्, आघवर्णपुरस्कृतम् । रेफाक्रान्तं कलाबिन्दुरम्यं प्रालेयनिर्मलम् ॥८॥ अहमित्यक्षरं प्राण-प्रान्तसंस्पशिपावनम् । ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतं सूक्ममतिसूक्मं ततः परम् ॥९॥ ग्रन्थीन् विवारयन् नाभि-कण्ठ-हृव-घण्टिकादिकान् । सुसूक्ष्मध्वनिना मध्य-मार्गयायि स्मरेत् ततः॥१०॥ अय तस्यान्तरात्मानं, प्लाव्यमानं विचिन्तयेत् । बिन तप्तकलानियंत्तार-गौरामृतोमिभिः ॥११॥ ततः सुधासरः-सूत-पाशाज लोदरे। मात्मानं न्यस्य पत्रेषु, विद्यादेवींश्च षोडश ॥१२॥ स्फुरत्स्फटिकभृगार-क्षरत्-क्षीरसितामृतः । आभिराप्लाव्यमानं स्वं चिरं चित्ते विचिन्तयेत् ॥१३॥ अथास्य नारा स्थाभिधेयं परमेष्ठिनम् । अर्हन्तं मूर्धनि ध्यायेत्, रस्फटिकनिर्मलम् ॥१४॥ त ध्यानावशतः 'सोऽहं 'सोऽहम्' इत्यालपन मुहुः । निःशंकमेकतां विद्याद् आत्मनः परमात्मना ॥१५॥

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