Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 583
________________ पिण्डस्यध्यान का माहात्म्य ५६७ कार आत्मा का स्मरण-चिन्तन करना चाहिए; यह तत्त्वभू नामक धारणा है। इस पिण्डस्थ ध्यान का भ्यास हो जाने पर योगी मोक्ष के अनन्त सुख प्राप्त कर सकता है। अब तीन श्लोकों द्वारा पिंडस्थ-ध्यान का माहात्म्य बताते हैं अधान्तमिति पिण्डस्थे, कृताभ्यासस्य योगिनः । प्रभवन्ति न दुर्विद्यामंत्रमण्डलशक्तयः ॥२६॥ शाकिन्यः क्षुद्रयोगिन्यः, पिशाचाः पिशिताशनाः । वस्यानि तत्क्षणादेव, तस्य तेजोऽसहिष्णवः ॥२७॥ दुष्टाः करटिनः सिंहाः, शरभाः पन्नगा अपि । जिघांसवोऽपि तिष्ठन्ति, स्तम्भिता इव दूरतः ॥२८॥ अर्थ - इस तरह बिना थके पिस्थ-ध्यान का अभ्यास करने वाले योगी पुरुष को, दुष्ट विद्याएं-उच्चाटन, मारण, स्तंभन, विद्वेषण, मन्त्रमण्डल, शक्तियां आदि कुछ भी हानि नहीं कर सकती । शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियां, पिशाच और मांसभक्षी दुष्ट व्यक्ति उसके तेज को सहन नहीं कर सकते। वे स्वयं तत्काल ही त्रस्त हो जाते हैं। मारना चाहने वाले दुष्ट हापी, सिंह, शरम, सर्प आदि हिन जीव भी दूर से ही स्तंभित हो (ठिठक) कर खड़े रहते हैं। इस तरह परमाहत श्री कुमारपाल राजा को जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वररचित 'अध्यात्मोपनिषद्' नामक पट्टबड अपरनाम 'योगशास्त्र' का स्वोपविवरण सहित सप्तम प्रकाश पूर्ण हुआ।

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