Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 582
________________ ५६६ योगशास्त्र : सप्तम प्रकाश ततस्त्रिभुवनाभोगं, पूरयन्त ं समीरणम् । चलायन्तं गनब्धीन् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत् ॥ १९ ॥ तच्च भचखासन, शीघ्रमुद्भूय वायुना । दृढाभ्यासः प्रक्षान्ति तमानयेदिति मारुती ॥२०॥ अर्थ-उसके बाद समग्र तीन भवन के विस्तार को पूरित कर देने वाले पर्वतों को चलायमान करते हुए और समुद्र को क्षुब्ध करते हुए प्रचण्ड पवन का चिन्तन करना और आग्नेयी धारणा में शरीर और आठ कर्मों को जलाने से जो रास बनी थी, उसे वायु से शीघ्र उड़ाने का चिन्तन करे अर्थात् प्रचण्ड पवन चल रहा है और देह तथा कर्मों की राख उड़ कर बिखर रही है । इस प्रकार दृढ़ अभ्यास करके उस वायु को शान्त करना । यह वायवी नाम की तीसरी धारणा है । अब दो श्लोकों से वारुणीधारणा कहते हैं— स्मरेद् वर्षत्सुधासारः घनमालाकुलं नभः । ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वरुणांकितम् ॥ २१ ॥ नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयेत्तत्पुरं ततः । तद्रजः कायसम्भूतं क्षालयेदिति वारुणी ॥ २२ ॥ अर्थ- वारुणी धारणा में अमृत के समान वृष्टि बरसाने वाले और मेघ को मालाओं से व्याप्त आकाश का चिन्तन करे। फिर अर्धचन्द्राकार बिन्दुयुक्त वरुण बीज 'वं' का चिन्तन करना । अपने सामने उस वरुणबीज से उत्पन्न हुए अमृतसम जल से आकाश को भर दे । और पहले शरीर और कर्मों को जो राख उड़ गई थी, वह इस जल घुल कर साफ हो रही है ; ऐसा चिन्तन करना। फिर वारुणमण्डल को शान्त करना। यह वारुणी धारणा है । अब तत्वभूधारणा पर विवेचन और उपसंहार करते हैं - सप्तधातु - विनाभूतं, पूर्णेन्दु विशद्ध तिम् । सर्वज्ञकल्पमात्मानं, शुद्धबुद्धिः स्मरेत् ततः ॥२३॥ ततः सिंहासनारूढं, सर्वातिशयभासुरम् । विध्वस्ताशेषकर्माणं, कल्याणमहिमान्वितम् ॥२४॥ स्वांगगर्भे निराकार, संस्मरेदिति तत्नभूः । साभ्यास इति पिण्डस्थे, योगी शिवसुखं भजेत् ॥ २५॥ अर्थ - चार धारणाओं का चिन्तन करने के बाद शुद्ध बुद्धि वाले योगी पुरुष को सप्तधातुरहित पूर्णचन्द्र के समान निर्मल कान्ति वाले सर्वज्ञसदृश अपने शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए। उसके बाद सिंहासन पर आरूढ़ हो कर समस्त अतिशयों से सुशोमि समस्त कर्मों के विनाशक. कल्याणकारी महिमा से सम्पन्न, अपने शरीर में स्थित निरा

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