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योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकार क्षान्त्या क्रोधो, मृदुत्वेन मानो, मायाऽऽर्जवेन च ।
लोभश्चानोहया, जेयाः कषायाः इति संग्रहः । २३॥
अर्थ-क्रोष को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, और लोभ को निःस्पृहता संतोष से जीते। इस प्रकार चारों कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए; यह समुच्चयरूप में निचोड़ है। यद्यपि कष यजय और इन्द्रियजय दोनों को समानरूप से मोम का कारण बताया है, फिर भी एक अपेक्षा से कषायजय मुख्य है और इन्द्रियजय उसका
इसी बात को स्पष्ट करने है--
विनेन्द्रियजयं नैव, कषायान् जेतुमीश्वरः ।
हन्यते हेमनं जाड्यं न बिना ज्वलितानलम् ।२४॥ अर्थ-इन्द्रियों को जीते बिना कोई भी साधक कषायों को जीतने में समर्थ नहीं हो सकता। हेमन्तऋतु का भयकर शोत प्रज्वलित अग्नि के बिना मिट नहीं सकता।
भावार्थ-इन्द्रियवि जर को सपागविजय पा हेतु (कारण) बनाया गया है । यद्यपि कपायजय पौर इन्द्रियजय दोनों एक ही समय में होने * ; फि भी उनमें प्रदीप ओर प्रकाश के मगान कार्यकारण भाव होता है । इन्द्रियविजय कारण : गैर कपाजिर कार्य है । हेगनऋतु की ठ ड को जडना के गमान कषाय है, और जलती हुई आग के मान :न्द्रि : जय है। जिमने इन्द्रियां नहीं जीनी, सालो, उसने कषायों को नहीं जीता । इन्द्रियविजप बिना केवल कपायविजय का पुरुषार्थ आगे चल कर अपाय (आपत्ति) का कारण बनता है। इसे ही आगामी श्लोकों में बना रहे है
अदान्तैरिन्द्रिययश्चलैरपथगामिभिः।
आकृष्य नरकारण्ये, जन्तुः सपदि नीयते ॥२५॥ अर्थ-इन्द्रियरूपी घोड़ों को काबू में न करने पर वे चंचल और उन्मार्गगामी बन कर प्राणी को जबरन खींच कर शीघ्र नरकरूपी अरण्य में ले जाते हैं।
भावार्थ-इन्द्रियो को यहां घोड़े की उपना दी है । घोड़े का स्वभाव चंचल होता है, अगर सवार उस पर काबू न रये तो वह अटपट उजट कोह: मे भगा ले जाता है ; इन्द्रियों को वश में नहीं रखने वाले को वे जबग्न उन्मार्ग पर चढ़ा देती हैं और जीव को नरक में ले जाती हैं। मतलब यह है कि इन्द्रियों को नहीं जीतने पर जीव नरकगामी होता है। इन्द्रियों का गुलाम पं.ये नग में जाता है ? इसे कहते हैं--
इन्द्रियविजितो जन्तुः कषायैरभिभूयते ।
वोरैः कृष्टेष्टकः पूर्व वप्रः कः कर्न खण्ड्यते ॥२६॥ अर्थ-जो जीव इन्द्रियों से पराजित हो जाता है, उस पर कषाय हावी हो जाते हैं।