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योगशास्त्र: चतुर्ष प्रकाश (४) विनय-जिससे आठ प्रकार के कर्म दूर हो जाय, वह विनय है । उसके चार भेद हैज्ञानविनय दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । अत्यन्त सम्मानपूर्वक ज्ञान ग्रहण करना, अभ्यास या स्मरण करना-ज्ञानविनय है; सामायिक से ले कर लोकबिन्दुसार तक के अ तज्ञान में तीर्थकरप्रभु ने जो पदार्थ कहे हैं, वे सत्य ही हैं, इस प्रकार निःशंक व श्रद्धावान होना-दर्शनविनय है । चारित्र और चारित्रवान पर सद्भाव रखना, उनके सम्मुख स्वागतार्थ जाना, हाथ जोड़ना आदि चारित्रविनय है । परोक्ष में भी उनके लिए मन-वचन-काया से अंजलि करना, उनके गुणोत्कीर्तन करना उन्हें स्मरण आदि करना उपचारविनय है।
(५) पुत्सर्व-त्याज्य पदार्थों का त्याग करना, व्युत्सर्ग है । इसके भी दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । बारह प्रकार से अधिक किस्म की उपाधि का त्याग करना-बाह्यव्युत्सर्ग है अथवा अनंषणीय या जीवजन्तु से युक्त सचित्त अन्न जल आदि पदार्थों का त्याग करना भी बाह्य व्युत्सर्ग है। अन्तर में कषायों का तथा मृत्यु के समय शरीर का त्याग करना अथवा उपसर्ग आने पर शरीर पर से ममत्व का त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। प्रश्न होता है कि प्रायश्चित्त के भेदों में पहले व्युत्सर्ग कहा है। फिर यहाँ तप के भेदों में इसे दुबारा क्यों कहा गया ? इसके उत्तर में कहते है-वहां तो बारबार अतिचारों की शुद्धि के लिए कहा गया है। यहां सामान्यरूप से निर्जरा के लिए व्युत्सर्गतप बताया गया है, इसलिए इसमें पुनरुक्तिदोष नहीं है।
(६, शुमध्यान-आर्त और रौद्रध्यान का त्याग कर धर्म और शुक्ल ये दो शुभध्यान करना। आतं-रौद्रध्यान की व्याख्या पहले की जा चुकी है। धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान की व्याख्या आगे करेंगे।
इस तरह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप हुआ। यह तप आम्यन्तर इसलिए कहा गया है कि यह आभ्यन्तर कर्मों को तपाने-जलाने वाला है, अथवा आत्मा के अन्तर्मुखी होने से केवली भगवान् द्वारा ज्ञात हो सकता है।
द्वादश तपों में सबसे अन्त में ध्यान को इसलिए सर्वोपरि स्थान दिया गया कि मोक्षसाधना में ध्यान की मुख्यता है। कहा भी है-यद्यपि संवर और निर्जरा मोक्ष का मार्ग है, लेकिन इन दोनों में तप श्रेष्ठ है और तपों में भी ध्यान को मोक्ष का मुख्य अंग समझना चाहिए। अब तप को प्रकटरूप से निर्जरा का कारण बताते हैं -
दीप्यमाने तपोवह्नौ, बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च ।
यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ॥९१॥ अर्थ-बाह्य और आम्यन्तरतपरूपी अग्नि जब प्रज्वलित होती है, तब संयमी पुरुष दुःख (मुश्किल) से क्षीण होने वाले ज्ञानावरणीयादि कर्मों को (अथवा दुष्कर्मवन को) शीघ्र जला कर भस्म कर देता है।
व्याख्या-संयम द्वारा तपस्या से कमों को जला देने का कारण तो मुख्यतया यह है कि तप से निर्जरा होती है। परन्तु तप निर्जरा का हेतु है, यह तो उपलक्षण से कहा, परन्तु वह संवर का भी हेतु है । वाचकमुख्य उमास्वाति ने कहा है-'तप से संवर और निर्जरा दोनों होती है।' तप संवर करने वाला होने से वह बाते हुए नये कर्मपुज को रोक देता है और पुराने कमों की निर्जरा भी करता है तथा