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योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश
कता नहीं; क्योंकि शल्य अल्प होने से छिद्र भी अल्प होता है। दूसरा शल्य ऐसा है कि (फांस) बाहर निकाल दें तो छिद्र का मर्दन करना होता है, परन्तु कान के मैन से छिद्र भरने की जरूरत नहीं है। तीसरे प्रकार का शल्य अधिक गहरा हो गया हो तो उसे बाहर निकाल देने के बाद शल्य-स्थान का मर्दन कर उसमें कान का मैल भर दिया जाता है । चौथे प्रकार का शल्य ऐसा है, जिसे खींच कर बाहर निकाला जाता है, मदन किया जाता है और वेदना दूर करने के लिए खून भी दबा कर बाहर निकाल दिया जाता है । पांचवें प्रकार का शल्य ऐसा है, जो अत्यन्त गहरा घुस गया है, उसे निकालने के लिए आने-जाने, चलने आदि की क्रिया बंद की जाती है। छठा शल्य ऐसा है, जिसे खींच कर निकालने के बाद केवल हित, मित, पथ्यकर भोजन किया जाता है, या निराहार रहना पडता है। सातवें प्रकार का शल्य ऐसा है, जिसके खींच कर निकालने के बाद उस शल्य से जहां तक खून, मांस आदि दूपित हो गए हो; वहां तक उसका छेदन कर दिया-गोद दिया जाता है। यदि सर्प, गोह आदि जहरीले जानवर ने काट खाया हो, अथवा दाद, खाज आदि रोग हो गया हो, तथा पहले बताए हुए उपाय से भी पीड़ा न मिटती हो, बल्कि और अधिक बढ़ रही हो तो, शेष अंगो की रक्षा के लिए हड्डी सहित अंग को काट डाला जाता है । इस प्रकार द्रव्यत्रण (बाह्य घाव) के दृष्टान्त से मूलगुण-उत्तरगुणरूप चारित्रशरीर में हुए अपराधरूपी घाव या छिद्र होने पर उसकी चिकित्सा- शुद्धि आलोचना से ले कर छेद तक की प्रायश्चित्तविधि से करनी चाहिए । पूज्य आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने कहा है . 'पहला शल्य ऐसा है, जो इतना नोकदार नहीं है, खून तक नहीं पहुंचा है, केवल चमड़ी तक ही लगा है, तो उसे खींच कर निकाल दिया जाता है, घाव इतना गहरा नहीं होता कि उस पर मर्दन करना पड़े। दूसरा शल्य खींच कर मर्दन किया जाता है; कांटा (शल्य) अगर और अधिक गहरा चला गया हो तो ऐसे तीसरे शल्य को बाहर निकाल कर उस जगह को मर्दन कर दे और छिद्र मे कान का मैल भर दे । चौथे प्रकार के शल्य को खींचने के बाद पीड़ा न हो, इसके लिए उस जगह को दवा कर खून निकाल दिया जाता है। पांचवें प्रकार का शल्य ऐसा है, जो अत्यन्त गहरा चला जाता है, तो उसे निकालना हो तो हलनचलन की क्रिया बद की जाती है । छठे शल्य को निकालने के बाद घाव को मिलाने के लिए हित, मित, पथ्यकर भोजन किया जाता है, अथवा भोजन करना बंद कर दिया जाता है । सातवें प्रकार का शल्य ऐसा होता है कि उसके लगने के बाद अग का जितना भाग सड़ जाता है या बिगड़ जाता है, वहाँ के मांस को काट दिया जाता है । परन्तु इतने पर भी पीड़ा या बीमारी आगे बढ़ती हुई न रुके या सर्प आदि जहरीले जंतु ने काटा हो या खुजली या सड़ान वाला रोग हो गया हो तो शेष अंग की रक्षा के लिए हड्डीसहित उस अंग को काटना पड़ता है। शरीर में इन आठ प्रकार के शल्यों की तरह मूलगुण-उत्तरगुणरूप परमचारित्रपुरुष के शरीर की रक्षा करने के लिए अपराधरूपी शल्य से होने वाले भावरूपी घाव की चिकित्सा करनी चाहिए। भिक्षाचर्या मादि में लगे हुए अतिचाररूप पहले प्रकार के घाव की शुद्धि गुरु के पास जा कर आलोचना करनेप्रगट करने मात्र से हो जाती है । अकस्मात् समिति या गुप्ति से रहित होने के अतिचाररूप दूसरे प्रकार के घाव की शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है, शब्दादि विषयों के प्रति जरा राग-द्वेषरूप तृतीय अतिचार (वण) लगा हो तो आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों से शुद्धि होती है। चौथे में अनेषणीय आहारादि-ग्रहणरूप अतिचार जान कर उसका विवेक करने (परठाने) से शुद्धि होती है । पांचवां अतिचारवण कायोत्सर्ग से, छठा अतिचारव्रण तप से, और सातवां अतिचारवण छेदविशेष से शुद्ध होता है। प्रमाददोष का त्याग करना, भाव की प्रसन्नता से शल्य-अनवस्था दूर करना, मर्यादा का त्याग न करना, संयम की आराधना हड़तापूर्वक करना; इत्यादि प्रायश्चित्त के फल है।