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ध्यान के योग्य आनेन, उनकी विधि एवं उपयोगिता
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अर्थ- दोनों भुजाओं को नीचे लटका कर खड़े हो कर अथवा बैठ कर ( और शारीरिक कमजोरी की अवस्था में लेट कर ) शरीर का ममत्व त्याग कर स्थिर रहना कायोसर्गासन है ।
व्याख्या -खड़े, बैठे या सोये हुए दोनों हाथ लम्बे करके काया से निरपेक्ष हो कर स्थिर रहना कायोत्सर्गासन है । जिनकल्पी और छद्मस्य तीर्थंकरों के यही आसन होता है। वे खड़े-खड़े ही कायोत्सर्ग करते हैं । स्थविरकल्पी तो खड़े और बैठे तथा उपलक्षण से लेटे-लेटे भी जिस तरह समाधि टिक सके, वैसे यथाशक्ति कायोत्सर्ग करते हैं । इस प्रकार से स्थान, ध्यान व मौनक्रिया के साथ काया का त्याग कायो. सर्ग कहलाता है । यहाँ जो आसन बताये हैं, वे तो दिग्दर्शनमात्र हैं । इनके अलावा और भी अनेक आसन हैं । वे इस प्रकार हैं आम्र की आकृति के समान स्थिति में रहना, आम्रकुब्जासन है । जैसे भगवान् महावीर ने एक रात ऐसी प्रतिमा धारण की थी, उस समय अधम असुर संगमदेव ने उन पर बीस उपसर्ग किये थे । उन्हें प्रभु ने समता से सहन किए थे। तथा एक तरफ सोए रहना, ऊध्वंमुखी, अधोमुखी या तिर्यग्मुखी आसन होता है। तथा दण्ड के समान लम्बा लेट जाना, शरीर सीधा करना और दोनों जंघाएं और जांघें लम्बी करके या चौड़ी करके स्थिर रहना होता है। तथा लगुडशामित्व उसे कहते हैं, जिसमें मस्तक और दोनों एड़ियाँ जमीन को स्पर्श करे, किन्तु शरीर जमीन से अधर रहे । तथा समसंस्थान - आसन में एड़ियों के अग्रभाग और पर द्वारा दोनों को मोड़ कर परस्पर दबाना होता है। दुर्योधासन उसे कहते हैं, जिसमें भूमि पर मस्तक रख कर पैर ऊंचे रख रखना होता है, इसे कपालीकरण आसन भी कहते हैं । इसी प्रकार रह कर यदि दो जंघाओं से पद्मासन करे तो दण्डपद्मासन कहलाता है । जिसमें बाँया पैर घुमाकर दाहिनी जंघा के बीच में रखा जाय और दाहिना पैर घुमा कर बांये पैर के बीच में रखा जाय, उसे स्वस्तिकासन कहते हैं। योगपट्टक के योग से जो होता है वह सोपाभयासन है । तथा कौंच-निषदन, हंस-निषदन, गरुड़-निषदन आदि आसन उस पक्षियों के बैठने की स्थिति के समान स्थिति में बैठने (ऐसी आकृति वाले) से होते हैं । इस प्रकार आसन की विधि व्यवस्थित नहीं है ।
विहितेन स्थिरं मनः ।
जायते येन येनेह तत्तदेव विधातव्यम् आसनं ध्यान-साधनम् ॥ १३४॥
अर्थ - जिस-जिस आसन का प्रयोग करने से मन स्थिर होता हो, उस-उस दासन का ध्यान के साधनरूप में प्रयोग करना चाहिए। इसमें अमुक आसन हो करना चाहिए, ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।
व्याख्या - मांस या चर्बी वाले अथवा बलिष्ठ मनुष्यों को जिस आसन के करने से मन की स्थिरता रहे, वही आसन करना चाहिए। इसलिए कहा है कि "जिन्होंने पापों को शान्त कर दिया, ऐसे कर्म-रहित मुनियों ने सभी प्रकार के देश में काल में और चेष्टा में रह कर, उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया है ।" इसलिए शास्त्र में देश, काल और चेष्टा अर्थात् आसनों का कोई नियम नहीं बताया है । जिस तरह से योग में समाधि रहे, उसी तरह का प्रयत्न करना चाहिए। यह कह कर आसनों का जो कथन किया गया है, निरर्थक नहीं है । क्योंकि प्रतिमा - कल्पियों के लिए नियम से आसन करने का विधान है, तथा बारह भिक्षु प्रतिमाओं में से आठवीं प्रतिमा में भी आसन का नियम बताया है। वह इस प्रकार - ऊर्ध्व मुख रख कर सोये, अथवा पाश्वं फिरा कर सोए अथवा सीधा बैठे या सोए। इस प्रकार सोते, बैठते या
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